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मंगलवार, 4 अगस्त 2015

साधना--सूत्र--(प्रवचन--02)

जीवन की तृष्‍णा—(प्रवचन—दूसरा)

सूत्र:
2—जीवन की तृष्‍णा को दूर करो।

3—सुख—प्राप्ति की इच्छा को दूर करो।

किंतु जो महत्वाकांक्षी हैं,
उन्हीं के समान परिश्रम करो।
जिन्हें जीवन की तृष्णा है,
उन्हीं के समान प्राणिमात्र के जीवन का सम्मान करो।  
जो सुख के लिए ही जीवन—यापन करते हैं,
उन्‍हीं के सामने सुखी रहो।
ह्रदय के भीतर पाप के अंकुर को
ढूंढ़कर उसे बाहर निकाल फेंको।
यह अंकुर श्रद्धालु शिष्‍य के ह्रदय
में भी उसी प्रकार बढ़ता और पनपता है,
जैसे कि वासनायुक्‍त मानव के ह्रदय में।
केवल सूरवीर ही उसे नष्‍ट कर डालने में सफल होते हैं।
दुर्बलों को तो उसके बढ़ने—पनपने,
फूलने—फलने और फिर नष्ट होने की राह देखनी होती है।


जीवन का नियम बहुत विरोधाभासी है, पैराडाक्सिकल है। उलटे परिणाम आते हैं। जैसे कोई व्यक्ति अपनी छाया से भागना चाहे, तो जितना भागेगा, उतना ही पाएगा कि छाया भी उसके साथ भाग रही है। भाग कर छाया से बचने का कोई उपाय नहीं है। रुक जाए कोई, तो छाया भी रुक जाती है। भागे कोई, तो छाया भी उतनी ही शक्ति से पीछा करती है। छाया से छूटने का एक ही उपाय है, यह जान लेना कि वह छाया है, वह है ही नहीं। और तब है या नहीं, कोई अंतर नहीं पड़ता। छाया से बचने का, भागना मार्ग नहीं है, छाया के प्रति जागना मार्ग है। और जब कोई जान लेता है कि छाया मात्र छाया है, तो उससे बचने की चेष्टा भी छोड़ देता है। क्योंकि जो है ही नहीं, उससे बचना भी क्या?
और जैसे ही कोई बचने की चेष्टा छोड़ देता है, बच जाता है—यह विरोधाभास है।
जब तक बचना चाहते हैं, बच न सकेंगे। और जब बचना ही नहीं चाहेंगे, तब बच जाएंगे।
जैसे नदी में कोई जीवित आदमी डूब जाता है, मुर्दा नहीं डूबता, मुर्दा नदी पर तैर आता है। जीवित डूब जाता है, मुर्दा तैर आता है, बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है। नदी के नियम बड़े बेबूझ मालूम पड़ते हैं। जिंदा आदमी को बचाना चाहिए, मुर्दा डूब भी जाए तो हर्ज नहीं है। लेकिन जिंदा आदमी डूब जाता है और मुर्दा बच जाता है। शायद मुर्दा आदमी नदी के नियम को ज्यादा ठीक से समझता है। उसे पता है कि नदी के साथ क्या करना है। और जिंदा आदमी जो भी करता है, झंझट में पड़ता है।
क्या पता है मुर्दा आदमी को जो जिंदा को पता नहीं है?
मुर्दा को एक कला आती है, वह नदी के हाथों में अपने को छोड़ देता है। नदी जो करना चाहे, करे। फिर नदी नहीं डुबाती, फिर नदी तैराने लगती है। जिंदा आदमी नदी से लड़ता है। लड़ कर ही टूटता है और डूबता है। नदी नहीं डुबाती, आदमी खुद ही लड़ कर अपने को नष्ट कर लेता है और डूब जाता है। नदी तो उबारती है, क्योंकि मुर्दे को उबार देती है। अगर जिंदा आदमी भी मुर्दे की भांति नदी के साथ व्यवहार करे तो नदी उसे डुबाने में असमर्थ है। लेकिन अति कठिन है।
जिंदा आदमी मुर्दे की भांति व्यवहार करे— वही संन्यासी का लक्षण है। और जिस दिन कोई आदमी जीते जी मुर्दे की भांति व्यवहार करने लगता है, उसे परम—जीवन उपलब्ध हो जाता है। और जो जिंदगी को पकड़ने और बचाने की कोशिश करते हैं, उनके हाथ से जिंदगी छूटती चली जाती है।
जीसस ने कहा है कि बचाओगे तो तुम खो दोगे और अगर तुम खोने को राजी हो, तो तुम्हें पूरा जीवन मिल जाएगा, परम—जीवन मिल जाएगा।
ये सूत्र इस विरोधाभास की तरफ ही इंगित करते हैं।
पहला सूत्र है, ' जीवन की तृष्णा को दूर करो।
लेकिन क्यों? जीवन की तृष्णा को क्यों करें दूर? इसीलिए, ताकि जीवन तुम्हें मिल सके, ताकि तुम पा सको, जान सको, जी सको—क्या है जीवन।
जिनके मन में तृष्णा है जीवन की, वे जीवन को जानने से वंचित रह जाते हैं। उलटा है। होना तो यही चाहिए कि जो जीवन की तृष्‍णा रखते है, उन्‍हें जीवन मिले। लेकिन उन्‍हें नहीं मिलता, उन्‍हें मिलती है केवल मौत। वे केवल मरते हैं। और मरने में ही उनका समय व्यतीत होता है। लेकिन जो व्यक्ति जीवन की तृष्णा छोड़ देता है, जो कह देता है, मुझे चिंता नहीं जीवन की और न कोई वासना है, अगर मौत आती हो तो अभी आ जाए, मैं राजी हूं—उस आदमी को अमृत के दर्शन हो जाते हैं। उलटा है। मगर उलटा होने का कारण है। जब बहुत घने काले बादल घिरते हैं आकाश में तो ही बिजली दिखाई पड़ती है। अंधेरे की पृष्ठभूमि होती है, कालेपन की, तो बिजली उभर कर प्रकट होती है। बिजली को देखना हो, तो काले बादल होने जरूरी हैं।
जिन्हें जीवन को देखना है, उन्हें मृत्यु की पृष्ठभूमि को स्वीकार कर लेना जरूरी है। जो मृत्यु से राजी हो जाता है, उसके भीतर की जीवन—चिंगारी बहुत प्रकट हो कर दिखाई पड़ने लगती है। जो मृत्यु से ड़रता है, भयभीत होता है, जो मृत्यु से बचता है, उसे जीवन की चिंगारी दिखाई नहीं पड़ती। मृत्यु के स्वीकार के साथ ही अमृत की उपलब्धि है। और हम सब मरने से ड़रते हैं। ऐसा नहीं है कि इस ड़र से हम मरने से बच जाते हैं। मृत्यु तो आती ही है, लेकिन इस ड़र के कारण वह जो जीवन हमारे निकट था, उसे हम देखने से वंचित रह जाते हैं। हम भयभीत होते हैं मृत्यु से और जीवन हमारे पास से गुजर जाता है। हमारी आंखें लगी रहती हैं मृत्यु पर और जीवन हमारे निकट से गुजरता है।
जीवन तो अभी और यहीं है। जीवन को पाने के लिए कहीं भविष्य में जाने की कोई जरूरत नहीं है। जीवित तो आप अभी हैं और यहां हैं। न तो पीछे लौटना आवश्यक है, न आगे जाना जरूरी है। जीवन तो मिला ही हुआ है, लेकिन मन आपका या तो पीछे डोलता रहता है उन क्षणों में जो जा चुके हैं, और या फिर भविष्य की चिंताओं में, भविष्य की कल्पनाओं में और योजनाओं में भटकता रहता है। उन क्षणों में जो अभी आए नहीं हैं। और इस भांति जीवन की पतली धारा आपके पास से बहती चली जाती है और आप उससे अपरिचित ही रह जाते हैं। उसमें कभी स्नान भी नहीं हो पाता। उससे आपका कभी कोई संबंध ही नहीं जुड़ पाता।
'जीवन की तृष्णा को दूर करो।
क्यों? इसलिए ताकि जीवन तुम्हें उपलब्ध हो सके।
जीवन की तृष्णा का अर्थ है— भविष्य। सभी तृष्णाएं भविष्य में होती हैं। कोई भी वासना अभी नहीं होती। यह बहुत आश्चर्य की बात है। इसी क्षण में आप कोई वासना में नहीं डूब सकते। वासना होती ही भविष्य में है। वह होती ही कल है। वासना के लिए समय चाहिए, उसकी पूर्ति के लिए समय चाहिए, स्थान चाहिए। जब भी आप कुछ चाहते हैं तो सदा भविष्य में चाहते हैं। अगर भविष्य न हो तो चाह मर जाती है, अगर चाह न हो तो भविष्य समाप्त हो जाता है।
दो उपाय हैं। या तो चाह छूट जाए तो आदमी वर्तमान में आ जाता है। और या आदमी वर्तमान में आ जाए तो चाह छूट जाती है। क्योंकि अभी और यहीं चाह को निर्मित करने का उपाय नहीं है।
क्या चाहिएगा अभी और यहीं? थोड़ा सोचें। इसी क्षण आप कौन सी वासना कर सकते हैं? और वासना करेंगे कि आप भविष्य में चले गए। वर्तमान और वासना का संबंध नहीं बनता। आपने कुछ चाहा कि आपने क्षण को छोड़ दिया। आप हट गए कल, आने वाले कल में, आपका मन दौड़ गया।
जीवन की तृष्णा का अर्थ हुआ कि आप जीवन को भी कल में खोज रहे हैं, भविष्य में। और जीवन यहां है, जीवन अभी है। जीवन तो आप हैं। आप खड़े हैं उसके बीच में। और आपकी आंखें कल पर लगी हैं। इसलिए जो आज है, वह दिखाई नहीं पड़ता और चूक जाता है।
इसलिए सूत्र कहता है कि जीवन की तृष्णा दूर करो, ताकि तुम जीवन को जान सको। सुख—प्राप्ति की इच्छा से बचो, ताकि सुख तुम्हें उपलब्ध हो सके।
सभी हैं दुखी, इसलिए नहीं कि जीवन का स्वभाव दुख है, बल्कि इसलिए कि हमें सुखी होने की कला नहीं आती। और हमें दुखी होने की इतनी कला आती है, जिसका कोई हिसाब नहीं। हम दुख की तलाश में हैं। जो आदमी भविष्य में वासना करेगा— और सभी वासनाएं भविष्य की होती है—वह दुख में पड़ेगा। क्योंकि भविष्य कभी आता नहीं, सिर्फ आता हुआ दिखाई पड़ता है। आता है जो, वह तो वर्तमान है। जो नहीं आता, वह भविष्य है। कुछ भी करो, जो भी मिलेगा, वह वर्तमान होगा। और अगर आपके मन की आदत हो गई भविष्य में जीने की, तो आप आज भी भविष्य में जीएंगे, कल भी, परसों भी। जो भी दिन आएगा, आप भविष्य में हट जाएंगे। और भविष्य में जो भी आप चाहते हैं, वह मिलेगा कैसे? जब भविष्य ही नहीं आता, तो भविष्य में चाही गई चाहें पूरी कब होंगी? दुख परिणाम होगा, इसलिए वासना का फल दुख है।
जीवन दुख नहीं है, वासना दुख है। जितनी ज्यादा वासनाएं, उतना ज्यादा दुख। अगर आप बहुत दुखी हैं, तो यह मत समझना कि परमात्मा आप पर नाराज है। अगर आप बहुत दुखी हैं, तो सिर्फ इतनी ही खबर दे रहे हैं कि बहुत वासनाएं हैं। और वे वासनाएं अतृप्त रह जाती हैं, तो दुख के घाव हृदय में बन जाते हैं।
अगर दुख ज्यादा हो तो दुख से बचने की कोशिश मत करना, वासना को छोड़ना। क्योंकि दुख तो फल है, वासना बीज है।
और जिसने बीज बो दिया, उसका तीर चल पड़ा। और तीर रोका जा सकता है, जब तक उसने प्रत्यंचा न छोड़ी। प्रत्यंचा छोड़ देने के बाद, तीर को रोकने का कोई उपाय नहीं है।
जिसने वासना की, वह दुख पाएगा। उसने बीज तो बो दिया, उसने फसल तो बिठा दी, फल भी उसी को काटने पड़ेंगे। जो दुख आप पा रहे हैं, वे अतीत में बोई गई वासनाओं के बीज हैं। और अगर चाहते हैं कि भविष्य में दुख न हो, आगे दुख न हो, तो आज, वर्तमान में वासना के बीज मत बोना। क्योंकि जो बीज आज बोए जा रहे हैं, वे ही आज नहीं कल फल निर्मित हो जाएंगे।
यह भी समझ लेने जैसा है कि जितना सुख चाहो, उतना दुख मिलता है। ज्यादा दुख चाहिए, ज्यादा सुख मांगो।
अगर सच में ही सुख चाहिए, तो सुख मांगना ही मत। फिर तुम्हें कोई दुखी न कर सकेगा। फिर इस दुनिया की कोई शक्ति तुम्हें दुखी नहीं कर सकती। फिर यह सारा जगत भी इकट्ठा हो जाए तो तुम्हें रत्ती भर भी दुख नहीं दे सकता।
अगर तुमने सुख न मांगा तो तुम दुख की परिधि के बाहर हो गए। तुमने सुख मांगा कि तुम दुख के जगत में प्रवेश कर गए। तुम जितना मांगोगे सुख, उतना ही दुख तुम्हें मिल जाएगा।
यह गणित हमारे खयाल में नहीं आता है। यह पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी नियम खयाल में नहीं आता, इसलिए हम बड़े परेशान होते हैं। मांगते हैं सुख और मिलता है दुख। हम सब प्रयास करते हैं सुख को पाने के, लेकिन मौलिक भूल हो जाती है। सुख का संबंध प्रयास से नहीं है, सुख का संबंध सुख न मांगने से है।
लाओत्से कहता है, मुझ जैसा सुखी कोई भी नहीं, क्योंकि मैं सुख कभी मांगता ही नहीं।
बिन मांगे मोती मिले—वह जो नहीं मांगता, उसे सब कुछ मिल जाता है। और वह जो मांगता है, वह सब कुछ खो देता है। भिखारी की तरह इस जगत में जो जीएगा, वह दुखी जीएगा। सम्राट की तरह इस जगत में जो जीएगा, वह सुखी जीएगा। लेकिन किसको कहता हूं मैं सम्राट?
सम्राट मैं उसको कहता हूं जो सुख मांगता नहीं। और भिखारी मैं उसे कहता हूं जो सुख मांगता है। तो जिन्हें हम सम्राट कहते हैं आमतौर से, वे तो भिखारी हैं, वे भी मांगते हैं। इसलिए कभी—कभी ऐसा भी हो जाता है कि ऊपर से दिखाई पड़ने वाला भिखारी भीतर से सम्राट होता है।
बुद्ध को हमने देखा, भिक्षा का पात्र लिए सड्कों पर भीख मांगते हैं। लेकिन वह आदमी सम्राट है, वह कुछ भी नहीं मांग रहा है। सुख की वासना छोड़ दी। और तब आदमी सुखी हो जाता है।
इसे थोड़ा प्रयोग करें। आप इन दिनों में यहां मेरे पास होंगे। कोई सुख की कामना न रखें, और देखें कि मन कैसा सुख से भर जाता है। शांति की कामना न करें, और देखें कि अशांति कैसे विसर्जित हो जाती है। संतोष की भीख न मांगें, और देखें कि कैसी संतोष की वर्षा होने लगती है। इसे करके ही देखें तो ही खयाल में आ सकेगा।
जीवन का गहनतम प्रयोग है यह। और जीवन के संबंध में जो भी खोज की जा सकी है, उनमें बड़ी से बड़ी खोज है— सुख मत मांगो, अगर सुखी होना चाहते हो। शांति मत मांगो, अगर शांति चाहते हो। जो मांगोगे, वही खो जाएगा। जो नहीं मांगोगे, वही मिल जाएगा। मांग कर तो बहुत देख भी लिया, अब न मांग कर भी देख लो!
मुझ पर भरोसा करने की जरूरत नहीं है, प्रयोग करने की जरूरत है। मेरे कहने से क्या होगा। यह बात बुद्धि में समझ भी आ जाए कि ऐसा है, तो भी परिणाम न होंगे— इसे करना ही होगा। ये थोड़े से दिन हमारे पास हैं, इन थोड़े से दिनों में निर्णय कर लो कि इतने दिनों के लिए कम से कम सुख न मांगें, कोई शांति न मांगें, कोई संतोष न मांगें। और देखो क्या परिणाम घटित होता है!
और एक बार खयाल में आ जाए कि सुख मिलता है न मांगने से, तो फिर मैं नहीं सोचता कि आप दुबारा कभी मांगने की भूल करेंगे। क्योंकि दुख तो कोई भी नहीं चाहता। इतना पता भर चल जाए कि मांगने से ही दुख मिलता है तो मांगना छोड़ा जा सकता है। मांगने की क्या मजबूरी है! मांगने में किसी को अच्छा भी कहां लगता है। लेकिन यह रहस्य सूत्र अनुभव में आ जाए तभी।
'किंतु जो महत्वाकांक्षी हैं, उन्हीं के समान परिश्रम करो।
छोड़ो महत्वाकांक्षा, लेकिन जो महत्वाकांक्षी हैं, उन्हीं के समान परिश्रम करो। महत्वाकांक्षियों को देखते हैं, कितने पागल हो कर श्रम करते हैं। किसी को एम. एल. ए. होना है, किसी को एम. पी. होना है, किसी को मिनिस्टर होना है — कितने पागल की तरह श्रम करते हैं! कैसी उनकी दौड़ है! न सोते हैं, न विश्राम करते हैं। चौबीस घंटे एक ही चिंतन। कैसी उनकी भक्ति है! कैसा उनका भाव है!
यह सूत्र कहता है, महत्वाकांक्षा तो छोड़ दो, लेकिन महत्वाकांक्षी जैसा श्रम करता है, वैसा ही श्रम करो।
वह जैसा पागल की तरह दौड़ता है धन के लिए, पद के लिए, यश के लिए—उसके पागलपन में बड़ी खूबी है, उसका पागलपन सीखने योग्य है। कभी देखा है, एक आदमी जब धन के लिए खोज करता है, तो उसकी ध्यानस्थ अवस्था देखी है? और जब आप ध्यान के लिए बैठते हैं तब, तब आप
ऐसे बैठे होते हैं कि ठीक है, हो जाए तो हो जाए। लेकिन जब आप धन के लिए दौड़ते हैं, तब आप ऐसा नहीं कहते कि हो जाए तो हो जाए, तब आप जीवन लगा देते हैं। आप सब कुछ लगा देते हैं, जो आपके पास है।
मिट्टी की खोज में आदमी सब कुछ लगा देता है। अमृत की खोज में कुछ भी नहीं लगाना चाहता।
उससे भी सीखो, वह जो पागल है धन के लिए। धन का पागलपन तो छोड़ दो, लेकिन पागलपन बचा लो। वह पागलपन काम में आएगा। वही पागलपन अगर सत्य की खोज में लग जाए, तो सत्य से तुम्हें कोई वंचित न रख सकेगा।
मजनू को देखो, लैला के लिए जैसा दीवाना है, वैसे अगर तुम परमात्मा के लिए दीवाने हो जाओ, तो कौन तुम्हें रोक सकेगा? कौन सी दीवाल? लेकिन लैलाओं के लिए तो बहुत लोग मजनू होते हैं। व्यर्थ के लिए तो बहुत लोग दीवाने होते हैं, सार्थक के लिए लोग दीवाने नहीं होते। सार्थक में बड़ी बुद्धिमानी दिखलाते हैं!
मेरे पास लोग आते हैं। एक मित्र हैं। राजनीति, राजनीति, पद की खोज में लगे रहते हैं। मेरे पास आते हैं कि कुछ कृपा करें और ध्यान हो जाए। मैं उनसे बोला कि जब तुम्हें ध्यान करना है, तो तुम मेरी कृपा मांगने आते हो, लेकिन जब तुमको मिनिस्टर होना है, तब तुम खुद ही मेहनत करते हो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह कृपा सिर्फ एक झूठा शब्द है? यह सिर्फ तुम्हारी तरकीब है, यह सिर्फ तुम मुफ्त में पाना चाहते हो। तुम भी जानते हो कि अगर राजनीति में आगे बढ़ना है तो मेहनत करनी पड़ेगी। लेकिन ध्यान में अगर आगे बढ़ना है, तो तुम सोचते हो कोई और। कहीं ऐसा तो नहीं है कि ध्यान में तुम जाना ही नहीं चाहते? जहां तुम जाना चाहते हो, वहां तुम मेहनत करते हो। और जहां तुम नहीं जाना चाहते, वहां तुम लक्काजी, शब्दों में पड़ते हो। पर मैंने उनसे कहा कि ध्यान रखो, जिस दिन तुम इतनी ही मेहनत ध्यान के लिए भी करोगे, उसी दिन कृपा भी संभव हो पाएगी।
कृपा भी मुफ्त नहीं मिलती, उसे भी अर्जित करना होता है, उस तरफ भी यात्रा करनी होती है। और केवल उन्हीं को सहायता मिलती है, जो अपने को सहायता देने में कंजूसी नहीं करते। केवल वे ही पाते हैं प्रसाद, जो प्रयास करते हैं। वह भी मुफ्त नहीं। मुफ्त कुछ भी नहीं है। और परम—सत्य की और परम—आनंद की खोज तो मुफ्त कैसे हो सकती है!
यह सूत्र कहता है, छोड़ो महत्वाकांक्षा, लेकिन जो महत्वाकांक्षी हैं, उन्हीं के समान परिश्रम करो।जिन्हें जीवन की तृष्णा है, उन्हीं के समान प्राणिमात्र के जीवन का सम्मान करो।
छोड़ दो जीवन की तृष्णा, लेकिन जो जीवन के लिए दीवाने हैं और जो जीना चाहते हैं किसी भी कीमत पर, वह जो उनकी गुणवत्ता है, उसे मत छोड़ देना। अपने जीवन की तृष्णा छोड़ दो, लेकिन प्राणिमात्र के जीवन का सम्मान करो।
'जो सुख के लिए ही जीवन—यापन करते हैं, उन्हीं के समान सुखी रहो।
लेकिन सुख की वासना मत करो। सुख को मांगो मत, सुख में जीयो।
यह जरा समझ लेने जैसा है।
लोग पूछते हैं, सुख में कैसे जीएं? उनसे मैं कहता हूं कि तुम सुख में इसी क्षण जीयो, कैसे मत पूछो। श्वास लो तो सुख से, हाथ उठाओ तो सुख से, चलो तो सुख से, बैठो तो सुख से। तुम जो भी करो, उसे इतने सुखी मन से करो कि तुम्हारी प्रत्येक क्रिया सुख का झरना हो जाए। सुख के लिए रुको मत और यह भी मत पूछो कि कैसे? तुम जो भी कर रहे हो, क्षुद्र से क्षुद्र कार्य भी— बुहारी लगा रहे हो घर के बाहर, उसे भी सुख से लगाओ, उसमें भी आनंद लो।
जो भी तुम्हें करना पड़ रहा है, जहां भी तुम खड़े हो, उसे दुख से मत करो। नहीं तो तुम अगर मोक्ष में भी प्रवेश कर जाओ, तो भी तुम दुख से ही प्रवेश करोगे। तुम वहां भी दुख खोज लोगे। तुम्हारी दुख खोजने की दृष्टि तुम्हारे साथ होगी, तुम वहां भी अंधेरा निर्मित कर लोगे। परमात्मा भी मौजूद हो, तो तुम कुछ न कुछ भूल—चूक निकाल लोगे, ताकि तुम दुखी रह सको।
जो भी कर रहे हो, उसे सुख से करो, सुख को मांगो मत।
इन शिविर के दिनों में इसे खयाल रखना। सुख में जीना, सुख मांगना मत। जो भी हो, उसमें खोज करना कि सुख कहां मिल सकता है, कैसे मिल सकता है। तब एक रूखी—सूखी रोटी भी सुख दे सकती है, अगर तुम्हें लेने का पता है। तब साधारण सा जल भी गहरी तृप्ति बन सकता है, अगर तुम्हें सुख लेने का पता है। तब एक वृक्ष की साधारण छाया भी महलों को मात कर सकती है, अगर तुम्हें सुख लेने का पता है। तब पक्षियों के सुबह के गीत, या सुबह सूरज का उगना, या रात आकाश में तारों का फैल जाना, या हवा का एक झोंका भी गहन सुख की वर्षा कर सकता है, अगर तुम्हें सुख लेने का पता है। सुख मांगना मत और सुख में जीना। मांगा कि तुमने दुख में जीना शुरू कर दिया।
अपने चारों तरफ तलाश करना कि सुख कहां है? सुख है। और कितना मैं पी सकूं कि एक भी क्षण व्यर्थ न चला जाए, और एक भी क्षण रिक्त न चला जाए, निचोड़ लूं। जहां से भी, जैसा भी सुख मिल सके, उसे निचोड़ लूं। तो तुम जब पानी पीयो, जब तुम भोजन करो, जब तुम राह पर चलो, या बैठ कर वृक्ष के नीचे सिर्फ सांस लो, तब भी सुख में जीना। सुख को जीने की कला बनाना, वासना की मांग नहीं।
इतना सुख है कि तुम समेट भी न पाओगे। इतना सुख है कि तुम्हारी सब झोलिया छोटी पड़ जाएंगी। इतना सुख है कि तुम्हारे हृदय के बाहर बाढ़ आ जाएगी। और न केवल तुम सुखी हो जाओगे, बल्कि तुम्हारे पास भी जो बैठेगा, वह भी तुम्हारे सुख की छाया से, वह भी तुम्हारे सुख के नृत्य से आंदोलित हो उठेगा। तुम जहां जाओगे, तुम्हारे चारों तरफ सुख का एक वातावरण चलने लगेगा। तुम जिसे छुओगे, वहां सुख का संस्पर्श हो जाएगा। तुम जिसकी तरफ देखोगे, वहां सुख के फूल खिलने लगेंगे। तुम्हारे भीतर इतना सुख होगा कि तुम उसे बांट भी सकोगे। वह बंटने ही लगेगा।
सुख अपने आप ही बंटने लगता है। वह तुम्हारे चारों तरफ फैलने लगेगा। सुख की तरंगें तुमसे उठने लगेंगी, और सुख के गीत तुमसे झरने लगेंगे। लेकिन सुख मांग नहीं है, सुख जीने का एक ढंग है।
इस बात के फर्क को ठीक से समझ लेना। सुख कोई इच्छा नहीं है, सुख जीने की एक कला है। मांगा कि चूक जाओगे। सीखो कला को। इसी क्षण से शुरू कर देना। इसी क्षण क्या कमी है? पक्षी गीत गा रहे हैं, सूरज की किरणें तुम पर बरस रही हैं, चारों तरफ जीवन प्रफुल्लित है और तुम जीवित हो। इसी क्षण सुख की कहां कमी है? इसी क्षण सुख से भरा है सब कुछ।
लेकिन वासना करो और तुम दुखी हो जाओगे इसी क्षण। मत वासना करो। खाली, मौन.. .फिर कौन तुमसे ज्यादा सुखी हो सकता है!
यह सूत्र कहता है, 'जो सुख के लिए ही जीवन—यापन करते हैं...।
और दुख ही पाते हैं। जो सुख के लिए ही जीते हैं और सुख कभी पाते नहीं। तुम उनकी फिक्र छोड़ो। तुम सुखी रहो।
'हृदय के भीतर पाप के अंकुर को ढूंढ कर उसे बाहर निकाल फेंको। यह अंकुर श्रद्धालु शिष्य के हृदय में भी उसी प्रकार बढ़ता और पनपता है, जैसे कि वासनायुक्त मानव के हृदय में। केवल शूरवीर ही उसे नष्ट कर डालने में सफल होते हैं। दुर्बलों को तो उसके बढ़ने—पनपने, फूलने—फलने और फिर नष्ट होने की राह देखनी पड़ती है।
मन में वर्षों के, जन्मों के संस्कार हैं। और जन्मों—जन्मों तक तुमने सिवाय दुख के कुछ और इकट्ठा नहीं किया है। वे संस्कार धक्के मारते हैं और तुम्हें बार—बार दुख के वर्तुल में प्रविष्ट करा देते हैं। पाप का एक ही अर्थ है, दुखी होने की वृत्ति पाप है। यह जरा अजीब लगेगा। यह परिभाषा तुमने कभी सुनी न होगी, दुखी होने की वृत्ति पाप है।
क्यों? क्योंकि जो आदमी खुद दुखी होता है, वह अनिवार्यत: दूसरों को दुख देने में रस लेता है— इसलिए पाप है। पाप का अर्थ है, दूसरे को दुख देना।
लेकिन दूसरे को अगर दुख देना हो, तो पहले अपने को दुख देने की कला में निष्णात होना चाहिए। क्योंकि जो तुम्हारे पास नहीं है, तुम दूसरों को दुख कैसे दे सकोगे? अगर तुम दुखी नहीं हो तो तुम दूसरों को दुख कैसे दे सकोगे? तुम्हें दुखी होना ही चाहिए। और साधारण रूप से नहीं, तुम्हें दुख का बड़ा वैज्ञानिक होना चाहिए, कि तुम दुख की कई तरकीबें खोज सको, कि तुम हर जगह से दुख को निकाल लो। जहां स्वर्ग भी बह रहा हो, वहां से भी तुम नर्क की धुन निकाल पाओ, तो ही तुम दुखी हो सकोगे। और स्वर्ग चारों तरफ मौजूद है और बह रहा है, तो तुम उसमें से नरक खोज लेते हो!
खुद दुखी होना जरूरी है, दूसरे को दुख देने के लिए। दूसरे को दुख देना पाप है। तो इसका अर्थ यही हुआ कि मौलिक रूप से स्वयं को दुख देना पाप है। और जो आदमी स्वयं को दुख नहीं देता, वह किसी को भी दुख नहीं देता। वह दे नहीं सकेगा, वह सोच भी नहीं सकेगा। और जो स्वयं को दुख नहीं देता, वह इतने सुख से भर जाएगा, महासुख से कि वह उसे बांटना चाहेगा, वह उसे दूसरों को देना चाहेगा। क्योंकि जितना बांटा जाए, सुख उतना बढ़ता है।
दुख क्यों हम दूसरे को देना चाहते हैं? हम दुखी हैं बहुत। और जब भी हम किसी को अपने से ज्यादा दुखी कर लेते हैं, थोड़ी सी सुख की झलक हमें मिलती है। बस वही हमारा सुख है, उतना ही सुख हम जानते हैं। दूसरा अगर आपसे ज्यादा दुखी हो जाए, तो आपको थोड़े से सुख की झलक मिलती है। वह सुख है नहीं, लेकिन तुलनात्मक, रिलेटिवली है। जब आप एक बड़ी लकीर खींच देते हैं दुख की अपने पास, तो आपका दुख छोटा मालूम पड़ता है।
इसलिए हम अपने चारों तरफ दुख की लकीरें खींचते रहते हैं। दुखी पति पत्नी को दुखी करेगा। और जब तक ठीक से दुखी न कर ले, तब तक उसे सुख की झलक न मिलेगी। दुखी पत्नी पति को दुखी करेगी, दुखी बाप बेटे को दुखी करेगा, दुखी बेटे बाप को दुखी करेंगे। यह पूरा समाज हमारा दुख का एक अंतरजाल है, जिसमें हम एक—दूसरे को दुखी कर रहे हैं। और जब भी हम अपने चारों तरफ दुख के ड़बरे बना लेते हैं, तो बीच में हमें थोड़ी सुख की सांस मिलती है, कि चलो मैं इतना दुखी नहीं हूँ जितने और लोग दुखी हैं।
और फिर जब हम दूसरों को दुख देने में लग जाते हैं, तो हमें अपना दुख भूल ही जाता है। हमें खयाल ही नहीं रहता कि मैं भी दुखी हूं। हम इतने व्यस्त हो जाते हैं दूसरे को दुख देने में कि हमें अपनी चिंता ही भूल जाती है। इसलिए दूसरों को दुख देने वाले लोग एक लिहाज से सुखी मालूम पड़ते हैं, उन्हें अपनी फिक्र ही नहीं। अपने को भुलाने का उपाय है।
पाप है दूसरे को दुख देना, तो पाप हुआ अपने को दुख देना।
यह सूत्र कहता है, ' पाप के बीज को, अंकुर को निकाल फेंको।
जब भी तुम्हें दुखी होने की कोई वृत्ति पकड़े, उसे उसी वक्त निकाल फेंकना। उसके साथ मत जाना, उसमें बहना मत, उसके साथ तादात्म्य मत करना। जब भी तुम्हें दुखी होने की कोई वृत्ति पकड़े, तो तत्‍क्षण चारों तरफ देखना और सुख को खोजना। और दुख की वृत्ति को निकाल कर बाहर फेंक देना। अगर तुम दुखी होने से बच जाओ, तो तुम दूसरों को दुख देने से बच जाओगे। तुम्हारे जीवन से पाप समाप्त हो जाएगा।
आनंद पुण्य है। और जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम पुण्यात्मा हो।
इसलिए मैं नहीं कहता कि तुम दान दोगे, तुम पुण्यात्मा हो जाओगे। मैं नहीं कहता कि तुम मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे बनाओगे, तुम पुण्यात्मा हो जाओगे। जरूरी नहीं है। हो सकता है, वे भी दूसरे को दुख देने की वृत्ति से पैदा हो रहे हों। हो सकता है, वे भी दूसरे को दुखी करने की वृत्ति से पैदा हो रहे हों। तुम्हारे पड़ोसी ने लाख रुपए दान दिया हो, तो तुम दो लाख रुपए दान दे सकते हो। क्योंकि तुम्हारा अहंकार जब तक पड़ोसी से बड़ा न हो जाए, तब तक तुम उसे दुखी न कर पाओगे।
सुना है मैंने, एक नगर में एक बहुत बडा दानी आदमी था, जिसने कभी एक पैसा भी दान नहीं किया। लेकिन दानी वह बडा था। उसके दान की बड़ी कथा थी। और कभी उसने एक पैसा दान नहीं किया। लेकिन गांव में किसी को भी दान चाहिए हो तो पहले उसी बड़े दानी के पास जाना पड़ता था। वह दानी लिखवा देता था लाख, दो लाख, पांच लाख; क्योंकि उसे देना कभी भी नहीं पड़ता था, देता वह कभी भी नहीं था। मगर जब वह पांच लाख लिखवा देता था, तो पूरे गांव के धनपतियों के प्राणों में आग लग जाती थी, उनको भी लिखाना पड़ता था। वह कभी देता नहीं था। यही उसका दान था कि वह पांच लाख लिखवा देता था, दस्तखत कर देता था। फिर गांव भर के पैसे वाले कुछ न कुछ देते थे। क्योंकि फिर पीड़ा मालूम होने लगती है।
और ऐसे दानी आपको हर गांव में मिल जाएंगे। और जो लोग दान इकट्ठा करते हैं, वे भलीभांति जानते हैं कि दों—चार नाम होने चाहिए लिस्ट पर। फिर किसी के पास जाओ तो उसके अहंकार को भी चोट लगती है, अब उसे भी कुछ न कुछ देना ही पड़ता है। साधारण भिखमंगा भी जानता है कि जब घर से निकलता है, तो अपने पात्र में कुछ पैसे डाल लेता है, खुद के ही। क्योंकि जब वह पैसे बजाता है अपने पात्र में, तो आपको भी लगता है कि कोई दे चुका है। खाली पात्र में तो आप भी डालने को राजी न होंगे, क्योंकि कोई अहंकार को चोट नहीं लगेगी। कोई दे चुका है तो पीड़ा मालूम पड़ती है कि अगर अब मैंने न दिया तो इस भिखमंगे के सामने मैं दीन हो रहा हूं।
भिखमंगा भी समझता है कि जब आप अकेले हों तो आपसे नहीं मांगना है, जब चार आदमी सामने मौजूद हों तब आपका पैर पकड़ लेगा, क्योंकि चार के सामने अब इज्जत का सवाल है। दूसरे को दुख देने के लिए हम दान भी दे सकते हैं। दूसरे को दुख देने के लिए हम मंदिर भी बना सकते हैं। दूसरे को दुख देने के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं। तब सब पाप हो जाता है।
आनंद पुण्य है, क्योंकि जब आप आनंदित होते हैं, तो जो भी आप करते हैं, उससे आनंद ही बहता है। जो भी आप करते हैं, जब तक उससे आनंद न बहने लगे, तब तक आप समझना कि पुण्य की आपको कोई प्रतीति नहीं है। पर पाप के अंकुर उखाड़ न फेंके जाएं, तो पुण्य का जन्म भी न होगा। क्योंकि पाप के पत्थर पुण्य के झरनों को रोके रखते हैं।
तो एक बात खयाल रखना कि जहां भी पता चले कि मैं दुख की वृत्ति में पड़ रहा हूं किसी भी कारण से, तो देर मत करना, उसे तत्‍क्षण उखाड़ कर फेंक देना। उसके साथ थोड़ी सी भी दोस्ती उचित नहीं है। क्योंकि थोड़ी देर भी आप रुक गए, तो दुख जड़ें फैला लेगा, आपके भीतर प्रवेश कर जाएगा। बड़े साहस की जरूरत है।
सूत्र कहता है, 'केवल शूरवीर ही उसे नष्ट कर डालने में समर्थ होते हैं। दुर्बलों को तो उसके बढ़ने—पनपने, फूलने—फलने और फिर नष्ट होने की राह देखनी पड़ती है।
बड़ी कमजोरी होती है। खुद के दुख को उखाड़ फेंकने में भी हम कमजोर होते हैं। क्या कारण होगा? क्योंकि लगता तो ऊपर से ऐसा है कि जब हम दुखी नहीं होना चाहते, तो दुख की किसी भी चीज को हम उखाड़ फेंकेंगे। लेकिन नहीं, पुराने दुखों से हमारी दोस्ती और निकटता और सामीप्य बन जाता है। वे हमारे संबंधी हो जाते हैं।
आपको खयाल में न हो, लेकिन आदमी का मन बड़ा जटिल है। अगर आपको कोई बीमारी है, और आप सोचते हैं कि बड़ी बीमारी है और डाक्टर के पास आप जाते हैं, और वह कहता है कि कुछ भी नहीं, सर्दी—जुकाम है। तो आपके मन में बड़ी पीड़ा होती है कि अच्छा, तो सिर्फ सर्दी—जुकाम। तो आना बेकार हुआ! डाक्टर अगर कह दे कि छोटी—मोटी बीमारी है, तो मन को अच्छा नहीं लगता। आप जैसे बड़े आदमी को छोटी—मोटी बीमारी! बड़े आदमी को बड़ी बीमारी ही होनी चाहिए। मन में कुछ पीड़ा होती है।
अगर आपकी सारी बीमारियां एकदम से छीन ली जाएं, तो आप राजी न होंगे, हालांकि आप एकदम से कहेंगे कि नहीं, मैं राजी हूं सारी बीमारियां छोड़ने को। लेकिन आप फिर से सोचना, आप राजी न होंगे। क्योंकि आपकी बीमारियों के बिना आप रहेंगे कैसे? आप खाली—खाली हो जाएंगे। आप करेंगे क्या? आप रोना किस बात का रोके? आप शिकायत किस बात की करेंगे? आप पड़ोसियों का सिर किस बात को ले कर खाएंगे? आप चारों तरफ घूमेंगे कौन सा झंडा ले कर, अगर आपकी सारी बीमारियां अलग कर ली जाएं? आप बिलकुल खाली और बेकार हो जाएंगे— अनएंप्लायड़, अनआक्युपाइड़, सारी व्यस्तता नष्ट हो जाएगी। आप अचानक पाएंगे कि बिलकुल बेकार हैं इस जगत में, न कोई बीमारी है, न कोई शिकायत है, तब करें क्या?
अभी तो शिकायतें बहुत हैं, तो दिन बीत जाता है, समय मजे से कटता है। अभी तो बड़े दुख हैं तो उनकी चर्चा कर—करके काफी रस मिलता है। सोचा कभी आपने कि आपकी बीमारियां कोई जादू से छीन ले एक क्षण में, आप राजी न होंगे। क्योंकि आपकी बीमारियों का जोड़ ही तो आप समझते हैं कि आप हैं। आप ही मिट जाएंगे।
जंजीरें भी बहुत दिन तक हाथों में रह जाएं, तो आभूषण मालूम पड़ने लगती हैं। बीमारियां भी जिंदगी का एक ढंग हो जाती हैं, ए वे आफ लाइफ, एक व्यवस्था बन जाती हैं। बीमार अपनी बीमारी को भी बचाता है, दुखी अपने दुख को भी सम्हालता है, ये संपदाएं हो जाती हैं। और जब मैं यह कह रहा हूं तो ध्यान रखना कि मैं आप सबके बाबत कह रहा हूं। यह मन का नियम है। इसलिए ऐसा मत सोचना कि यह किसी पागल के संबंध में बात सच होगी, मैं तो अपने दुख छोड़ना चाहता हूं। क्योंकि अगर तुम ही अपने दुख छोड़ना चाहते हो तो तुम उन्हें कभी के छोड़ दिए होते। उन्हें तुमने पकड़ा है, तो तुमने कोई जरूर तरकीब निकाली है, जिससे तुम उन्हें सम्हाले हुए हो। अन्यथा कौन रोकता था, तुम उन्हें फेंक दिए होते। कोई नहीं रोकता है, कोई तुम्हें दुखी नहीं कर रहा है, लेकिन तुम्हारे मन के भीतर कोई जाल है, जो तुम्हारे दुखों को ही बचाता है।
अब मनस्विद कहते हैं कि दुख में भी इनवेस्टमेंट है, दुख में भी पूंजी लगी है तुम्हारी। एक छोटा बच्चा है, वह देखता है कि जब बीमार होता है तो मां भी पास बैठती है, सिर पर हाथ रखती है। जब बीमार होता है तो बाप भी पास आता है, सिर पर हाथ रखता है। जब बीमार होता है तो न कोई डांटता है, न कोई ड़पटता है, सभी प्रेम करते हैं। जब बीमार होता है तो चारों तरफ से करुणा, सहानुभूति उसे मिलने लगती है। बच्चे के मन में अनजाने एक बात बैठ जाती है कि जब वह बीमार है, तब भला है, तब अच्छा है। और जब वह स्वस्थ होता है तो कोई उसके पास भी नहीं बैठता, कोई उसके सिर पर हाथ भी नहीं रखता। न बाप उसकी फिक्र करता है, न मां उसकी चिंता करती है। डांट— ड़पट, और सभी उसको सुधारने की कोशिश में लगे रहते हैं। तब सभी, सारा जगत कठोर मालूम पड़ता है।
तो बच्चा अनुभव करता है कि स्वस्थ होने में कुछ न कुछ खराबी है। बीमार होने में कुछ न कुछ भलाई है। बीमारी में सारा जगत अपना हो जाता है और स्वास्थ्य में सारा जगत पराया हो जाता है। बच्चे के मन में बीमार रहने का रस पैदा हो गया। अब जब भी इसको जीवन में कठिनाई मालूम पड़ेगी, और जब भी यह पाएगा कि दुनिया कठोर है, तब अनजाने यह बीमारी की वासना करेगा। और जब भी यह पाएगा कि दुनिया में हार रहा है, कोई संगी—साथी नहीं, अकेला है, तभी यह बीमार होना चाहेगा। और जो तुम चाहोगे, वह हो जाएगा।
मनस्विद कहते हैं कि सौ में से नब्बे बीमारियां, तुम्हारे निमंत्रण पर आती हैं। और इन नब्बे के कारण बाकी दस को आने का रास्ता बनता है। मूलतः तुम बुलाते हो, वही आता है। तुम्हारे घर में कोई भी मेहमान बिना बुलाया नहीं है। लेकिन यह हो सकता है कि तुम्हें पता ही न हो कि निमंत्रण कब भेजा? किस नींद में निमंत्रण भेज दिया, यह तुम्हें पता न हो। या हो सकता है, निमंत्रण भेजे वर्षों बीत गए हों, और मेहमान अब आया हो, और बीच का तुम्हें कोई तारतम्य पता न हो। जब भी कोई मुसीबत होती है और तुम सहानुभूति चाहते हो, दया चाहते हो, प्रेम चाहते हो, तुम बीमार पड़ जाते हो। अगर कोई आदमी इसलिए बीमार पड़ा है कि वह सहानुभूति चाहता है, तो वह अच्छा नहीं होना चाहेगा। ऊपर से वह चिकित्सक के पास जाएगा, डाक्टर की खोज करेगा और भीतर गहरे अचेतन में चाहेगा कि बीमार बना रहूं। उसकी बीमारी में इनवेस्टमेंट है।
कभी खयाल किया, आदमी दुखी भी नहीं होना चाहता, अगर उससे कुछ फायदा न हो। एक बच्चा गिर पड़े और उसकी मां पास न हो तो वह चारों तरफ देखता है। अगर मां पास नहीं, तो वह रोता नहीं। यह बड़ी हैरानी की बात है—क्योंकि रोना बेकार है, उसमें कोई फायदा नहीं, उसमें कोई इनवेस्टमेंट नहीं होता, उससे आगे कोई लाभ मिलने वाला नहीं दिखता। क्योंकि जिससे लाभ मिल सकता था, वह पास मौजूद नहीं है। तो बच्चा चारों तरफ देख लेता है। गिरने से नहीं रोता, देख कर रोता है चारों तरफ कि मां मौजूद है या नहीं। अगर मां मौजूद है, तो छाती पीट कर रोने लगता है। अगर मां मौजूद नहीं है, तो बात को आई—गई कर देता है।
क्या मामला है? अभी दुखी होना भी व्यर्थ है। अभी दुखी होने में कोई सार नहीं है। अभी ठीक मौका नहीं। दुखी होने का कोई फायदा नहीं। लगने से, चोट से दुख नहीं आ रहा है। दुख मन की एक वृत्ति है, उससे भी लाभ हम लेना चाहते हैं! अगर तत्‍क्षण इसको मां दिखाई पड़ जाए, यह रोना शुरू कर देगा। अब इससे कुछ लाभ हो सकता है।
आपने देखा है, स्त्रियां घर में बड़े मजे से बैठी रहती हैं, प्रसन्न रहती हैं, गपशप करती हैं। पति आया, उनके चेहरे में फर्क हो जाता है, उनके सिर में दर्द होने लगता है, कमर दुखने लगती है, पेट दुखने लगता है, कुछ न कुछ उपद्रव शुरू हो जाता है! पति के घर में प्रवेश के साथ ही, न मालूम कितनी बीमारियां पत्नियों में प्रकट होती हैं! और ऐसा नहीं है कि वे कोई जान कर या झूठ इनको पैदा कर लेती हैं। पैदा होती हैं, इनवेस्टमेंट है। पति को देखते से ही!
प्रेम की आकांक्षा है। और कोई पति, जब तक पत्नी बीमार न हो, तब तक प्रेम देता नहीं। पत्नी बीमार हो तो प्रेम देना मजबूरी हो जाती है। प्रेम देना ही पड़ता है, न दे तो अपराधी मालूम पड़ता है। तो वह पत्नी बीमार हो कर आपमें अपराध का भाव पैदा कर रही है, कि तुम गिल्ड अनुभव करो, कि मैं इतनी बीमार पड़ी हूं और तुम क्लब की तरफ जा रहे हो। मैं इतनी बीमार पड़ी हूं और तुम ध्यान कर रहे हो। और मैं इतनी बीमार पड़ी हूं और तुम पुस्तक या अखबार पढ़ रहे हो। मैं इतनी बीमार पड़ी हूं! वह यह कह रही है, उसकी गहरे अचेतन की मांग है कि मुझे प्रेम दो। और अगर प्रेम नहीं मिलता तो दुख के द्वारा प्रेम को मांग रही है। तो अब इस पत्नी को स्वस्थ करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि अब यह मामला बीमारी का नहीं है। यह मामला तो बहुत गहरे अचेतन दुख की पकड़ का है— दुख में लाभ है।
तुम दुखी हो, क्योंकि तुम दुख में लाभ देख रहे हो। और जब तक तुम दुख में लाभ देखते रहोगे, तब तक तुम दुखी रहोगे। दुख में कोई भी लाभ नहीं है, क्योंकि दुख आत्मघात है। और दुख की कोई भी वृत्ति पैदा हो और कितना ही प्रलोभन दे और कितना ही लाभ का आश्वासन दे, उसे उखाड़ कर फेंक देना। वे सब आश्वासन झूठे हैं, धोखे भरे हैं। और अगर कोई व्यक्ति अपने भीतर से दुख की वासना को ऐसे उखाड़ता—फेंकता रहे, तो बहुत शीघ्र पाएगा कि जहां—जहां दुख पैदा होता था, वहीं— वहीं सुख के झरने प्रकट होने शुरू हो गए हैं।
सुख बहुत निकट है, तुम्हारे भीतर भरा है। लेकिन दुख की आदत जब तक हट न जाए और दुख में सुख देखने की वृत्ति न खो जाए, तब तक वे सुख के स्रोत उपलब्ध नहीं हो सकते हैं।

आज इतना ही।




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