चखो, अमृत का स्वाद—(प्रवचन—आठवां)
प्यारे
ओशो।
मुंडकौपनिषद्
में यह श्लोक
आता है:
नयां
आत्मा प्रवचनेन
लभ्यो न मधया
न बहुना
श्रुतेन।
यं
एवैष वृणुते
तेन लभ्यात्
तस्यैष आत्मा
विवृणुतै स्वाम्।।
अर्थात यह
आत्मा वेदों
के अध्ययन से
नहीं मिलती, न
मेधा की
बारीकी या
बहुत शास्त्र
सुनने से
मिलता है। यह
आत्मा जिस व्यक्ति
का वरण करता
है, उसी को
इसकी प्राप्ति
होती है—आत्मा
उसी को अपना
स्वरूप
दिखाता है।
प्यारे
ओशो,
उपनिषद् के इस
सूत्र को
हमारे लिए
बोधगम्य
बनाने की
अनुकम्पा
करे।
सहजानन्द!
यह सूत्र उन
थोड़े—से
सूत्रों में
से एक है, जिनमें
अमृत भरा है।
जितना पिओ, उतना थोड़ा।
यह
आत्मा शब्दों
से उपलब्ध
नहीं। वे शब्द
फिर वेद के
हों कि कुरान
के हों कि बाइबिल
के,
इससे कुछ
भेद नहीं पड़ता।
यह आत्मा
सुनकर उपलब्ध
नहीं। फिर
चाहे वे वचन
बुद्ध के हों,
महावीर के,
लाओत्सु के,
इससे कुछ
भेद नहीं पड़ता।
क्यों? क्यों
आत्मा प्रवचन
सुनकर उपलब्ध
नहीं हो सकता?
क्योंकि
आत्मा बाहर की
कोई वस्तु
नहीं, अन्तर्तम
का अनुभव है।
आत्मा अमृत का
स्वाद है।
जैसे अंधे कौ
कोई लाख समझाए
प्रकाश के
संबंध में, अंधा कैसे
समझेगा? उसने
प्रकाश देखा
नहीं; उसकी
कोई प्रतीति
नहीं, कोई
साक्षात्कार
नहीं। कुछ का
कुछ समझ लेगा।
रामकृष्ण
निरंतर यह
प्यारी कथा
कहते थे—कि एक
अंधे मित्र को
उसके साथियों
ने भोजन पर आमंत्रित
किया। गरीब था
अंधा। खीर
परोसी। उस
अंधे ने अपने
पास में बैठे
हुए मित्र को
पूछा, बड़ी
स्वादिष्ट है,
यह क्या है?
मित्र ने
कहा, यह
खीर है। दूध
की बनी है। एक
मिष्ठान है।
अंधा पूछने
लगा, दूध
कैसा होता है?
मित्र ने
कहा, दूध
कैसा होता है!
शुभ्र होता है,
श्वेत होता
है। अंधे ने
पूछा, उलझाओ
मत पहेली को
और। बात बनती
नहीं, बिगड़ती
चली जाती है।
मुझे खीर का
पता नहीं, तुमने
दूध की बात
कही। मुझे दूध
का पता नहीं, तुमने श्वेत
की बात कही।
मुझे श्वेत का
भी कुछ पता
नहीं। यह
श्वेत क्या?
मित्र
ने कहा, तुम
समझे नहीं? अरे, कभी
बगुला देखा है?
जैसा बगुला
होता है, शुभ्र
श्वेत।
पुरानी कहानी
है, नहीं
तो मित्र कहता,
नेता देखा
है? सफेद
शुद्ध खद्दर!
और बगुले और
नेता में ऐसे
भी बहुत संबंध
हैं। बगुले ही
नेता होते हैं।
और बगुला
पुराना नेता
है, बड़ा
अभ्यासी नेता
है। बगुले को
कभी खड़ा देखा
है, सरोवर
के तट पर, एक
टांग पर? ऐसा
आसन साधता है!
पुराना योगी
है। तपस्वी है।
एक ही टल पर
खड़ा रहता है—बिना
हिले, बिना
डुले, एकाग्रचित्त
से। क्योंकि
हिले—डुले तो
पानी हिल—डुल
जाए। पानी हिल—डुल
जाए तो
मछलियां सजग
हो जाएं। फिर
उसके पास न
आएं। यूं खड़ा
रहता है कि
जैसे है ही
नहीं। तभी
मछलियां
फंसती हैं।
यूं ही नेता
भी खड़ा रहता
है, तभी
मछलिया फंसती
हैं। वह धन्धा
एक ही है। मगर
कहानी पुरानी
है। रामकृष्ण
के समय में
अभी यह
गांधीवादी
नेता आया नहीं
था। अब थोड़ी
रद्दोबदल कर
लेनी चाहिये
कहानी में, थोड़ा आधुनिक
बना लेना
चाहिये।.. उस
मित्र ने कहा
कि बगुले को
देखा है? जैसा
बगुला होता है।
मित्र
भी पंडित रहा
होगा। पंडित
यानी अंधे से
भी गया—गुजरा।
नहीं तो अंधे
को समझाने
बैठे रंग की
बात! अंधे को
जो रंग की बात
समझाने बैठे, वह
महाअंधा होना
ही चाहिये।
अंधे ने कहा, अब मैं कुछ
और पूछूं ठीक
नहीं, क्योंकि
बात दूर से
दूर हुई चली
जाती है।
मैंने बगुला
कभी देखा नहीं।
कुछ इस ढंग से
कहो कि मेरी
भी समझ में आ
सके। मैं अंधा
हूं यह देखकर
कहो। तब उसे
होश आया। उसने
कहा, तो
फिर ऐसा करो, यह मेरा हाथ
है, मेरे
हाथ पर हाथ
फेरी। उसने
अपने हाथ को
इस ढंग से
मोड़ा जैसे
बगुले की
गर्दन हो। अंधे
ने हाथ पर हाथ
फेरा और मित्र
ने कहा, देखते
हो, इस तरह
बगुले की
गर्दन होती है।
वह अंधा
प्रसन्न हो
गया, आह्रादित
हो गया, उसने
कहा, धन्यवाद!
तुम्हारे
कष्ट के लिये
बहुत अनुगृहीत
हूं। अब समझा
कि खीर कैसी
होती है! मुड़े
हुए हाथ जैसी!
स्वाभाविक!
अंधे पर हंसना
उचित नहीं।
अंधे की
मजबूरी समझो।
और जहां तक
आत्मा का
संबंध है, करीब—करीब
सभी अंधे हैं।
क्योंकि भीतर
की आंख तो
खुली नहीं है।
तो जो भी
आत्मा के
संबंध में कहा
जाएगा, वह
गलत समझा
जाएगा। तुम तक
पहुंचते—पहुंचते
बुद्धों के
वचन कुछ के
कुछ हो जाते
हैं। बुद्ध
कहते एक बात, तुम सुनते
दूसरी बात। और
यह स्वाभाविक
है। क्योंकि
बुद्ध जो कहते
हैं, वही
समझने के लिये
तुम्हें भी
प्रबुद्ध
होना होगा। उसी
जीवन तल पर
होना होगा।
उसी चैतन्य की
कोटि में होना
होगा। वही बोध,
वही समाधि,
वही ध्यान।
वही अतराकाश—ज्योतिर्मय।
वही आह्लाद।
वही शून्यता।
वही मौन। तभी
तो बुद्ध अपने
स्वाद को तुम
तक पहुंचा सकेंगे।
मगर जिसको ऐसी
अवस्था हो गई
हो, उसे
समझने को ही
कुछ नहीं बचा।
एक
बुद्ध को तो
दूसरे बुद्ध
से बोलने की
जरूरत नहीं
होती।
बिनबोले बात
समझ में आ
जाती है।
क्योंकि
दोनों ही एक
जगह खड़े होते
हैं,
एक ही
चैतन्य की
अवस्था में।
दो होते ही
नहीं। जहां दो
बुद्ध मिलते
हैं, वहां
एक ही रह जाता
है। हजार
बुद्ध भी
मिलें तो वहां
बुद्धत्व तो
एक ही होता है।
जैसे हजार
नदियां गिर
जाएं सागर में,
क्या फर्क
पड़ता है! सब
जाकर सागर के
साथ एक हो जाती
हैं। सब खारी
हो जाती हैं।
सबका स्वाद
सागर का स्वाद
हो जाता है।
हजार बुद्ध
इकट्ठे हों तो
वहा हजार
बुद्ध नहीं
होते। जैसे
हजार दिये तुम
जला दो तो
रोशनी एक होती
है—दीये हजार
होंगे! हजार
देहों में
बुद्धत्व का दीया
जलेगा, मगर
रोशनी एक होगी।
और सबकी रोशनी
एक है। किससे
कहना? क्या
कहना? दो
बुद्धों के
पास एक—दूसरे
से कहने को
कुछ भी नहीं
होता।
जो
बोल सकते थे, जो
एक दूसरे को
समझ सकते थे, वे बोलते
नहीं—बोलने को
कुछ नहीं बचता।
और दो बुद्धओं
के पास बहुत
बोलने को होता
है, मगर
समझने को कोई
भी नहीं होता
वहां। दोनों
बुद्ध हैं, समझनेवाला
वहां कौन? इस
दुनिया में
कितनी बकवास
चलती है।
जानें चली
जाती हैं, तलवारें
खिंच जाती हैं।
दो बुद्ध बहुत
बोलते हैं, समझ में
किसी के कुछ
नहीं आता। दो
बुद्ध बोलते
नहीं, समझ
में सब आ जाता
है।
तो
न तो बुद्धों
के बीच संवाद
होता है और न
बुद्धओं के
बीच संवाद
होता है।
बुद्धओं के
बीच विवाद
होता है, बुद्धों
के बीच मौन
होता है।
फिर
बोलना कहां
सार्थक है? जब
कोई
बुद्धपुरुष
अबुद्धों से
बोलता है, बस,
वहीं केवल
बोलने की कोई
सार्थकता है;
थोड़ी —बहुत;
वह भी बहुत
ज्यादा नहीं।
क्योंकि यह
सूत्र बहुत
स्पष्ट है।
'नायं आत्मा
प्रवचनेन
लभ्यो'
नहीं
मिलेगी यह
आत्मा प्रवचन
से। फिर बुद्ध
क्यों बोलते
हैं। फिर
उपनिषद् का यह
ऋषि भी क्यों
बोला? इतना भी
कहने की बात
थी? बुद्ध
बोलते हैं इस
आशा में—इस
आशा में नहीं
कि तुम समझ
पाओगे, वरन
इस आशा में कि
शायद
तुम्हारे
भीतर जानने की
प्यास जग जाए,
अभीप्सा
पैदा हो जाए।
तुम्हारे
भीतर सोयी पड़ी
है अभीप्सा।
आग दबी पड़ी है,
जरा उकसाने
की बात है।
जरा राख झाडू
देने की बात
है और ज्योति
प्रज्वलित हो
सकती है।
बुद्ध
इसलिये नहीं
बोलते तुमसे, इस
आशा में नहीं
बोलते कि तुम
समझ लोगे, इस
आशा में बोलते
हैं कि शायद
समझने की
यात्रा पर
निकल जाओ; शायद
तुम्हारे
जीवन में खोज
पैदा हो जाए; एक अभीप्सा
जग जाए जानने
की कि यह क्या
है? क्या
है आत्मा? क्या
है हमारे जीवन
का सत्य? हम
कौन हैं, कहां
से हैं, कहां
जा रहे हैं? यह कौन है जो
हमारे भीतर है;
धोलता है, देखता है, सुनता है, जीता है? यह
जीवन क्या है?
देखना
भी तो उन्हें
दूर से देखा
करना
शेवए
इश्क नहीं
हुस्न को
रुसवा करना
देखना
भी तो.......
उनको
यां वादे पै आ
लेने दे ऐ अबे
बहार
ऐ
अबे बहार...!
जिस
तरह चाहना फिर
बाद में बरसा
करना
देखना
भी तो उन्हें
दूर से देखा
करना
शेवए
इश्क नहीं
हुस्न को
रुसवा करना
देखना
भी तो.......
शाम
हो या कि सहर
याद उन्हीं की
रखनी
(याद
उन्हीं की
रखनी—दिन हो
या रात हमें
जिक्र उन्हीं
का करना!)
देखना
भी तो उन्हें
दूर से देखा
करना
शेवए
इश्क नहीं
हुस्न को
रुसवा करना
देखना
भी तो........
कुछ
समझ में नहीं
आता कि ये
क्या है हसरत
ये
क्या है हसरत?
उनसे
मिलकर भी न इजहांरे
तमन्ना करना
देखना
भी तो उन्हें
दूर से देखा
करना
शेवए
इश्क नहीं
हुस्न को
रुसवा करना
देखना
भी तो.......
बुद्ध
बोलते हैं
इसलिये कि
तुम्हारे
भीतर पड़ी कोई
सोयी याद जग
जाए। अभी तो
दूर से ही
देखोगे। जैसे
कोई आकाश
मेघाच्छादित
न हो और कोई सैकड़ों
मील दूर से
हिमालय के उतुंग
शिखरों को
देखे। उन पर
जमी हुई
क्वांरी बर्फ
देखे।
देखना
भी तो उन्हें
दूर से देखा
करना
शाम
हो या कि सहर
याद उन्हीं की
रखनी
दिन
हो या रात
हमें जिक्र
उन्हीं का
करना
देखना
भी तो........
बुद्धों
के बोलने का
प्रयोजन यह
नहीं है कि
तुमने सुन
लिये शब्द और
तुम्हें
ज्ञान हो
जाएगा। इतना
ही है कि शायद
शब्द
तुम्हारे
भीतर किसी भूली—बिसरी
प्यास को जगा
दें। शायद
बुद्धों की
मौजूदगी
तुम्हारे
भीतर कुतूहल
बने,
जिज्ञासा
बने, मुआ
बने। वे बोलते
हैं इसलिये कि
शायद उनके
वचनों की चोट
तुम्हारे
हृदय की वीणा
को छेड़ दे।
नहीं कि तुम
सत्य को जान
लोगे, लेकिन
सत्य को जानना
है, इतना
स्मरण आ जाए
तो बहुत। बस, इतना ही
स्मरण आ सकता
है। जागे हुए
व्यक्तियों
ने सिर्फ
इसीलिये बात
की है गैर—जागे
हुए
व्यक्तियों
से कि देखो, हम जाग गए; देखो, हमारे
दुख मिट गए; देखो, हमारा
संताप झड़ गया;
देखो, हमारे
जीवन में फूल
खिल गए; देखो
ये सुगन्ध, यह तुम्हारी
भी सुगन्ध है!
यह तुम्हारे
भी भीतर छिपा
हुआ खजाना है।
यह तुम्हारी
भी सम्पदा है।
जरा खोदों और
पा लोगे।
लेकिन
जो छू हैं, वे
केवल शब्दों
को पकडकर बैठ
जाते हैं।
जैसे तोते राम—राम
दोहराते रहते
हैं, ऐसे
ही वे भी
वेदों को
दोहराते हैं,
उपनिषदों
को दोहराते
हैं। अब यह
बड़े मजे की
बात है, मुंडकोपनिषद्
में यह श्लोक
है, और मैं
ऐसे लोगों को
जानता हूं जो
जीवनभर से मुंडकोपनिषद्
पढ़ रहे हैं, जिनको उनका
शब्द—शब्द याद
है और जिनको
जरा भी बेचैनी
नहीं होती इस
श्लोक को
उद्धरण करने
में और
जिन्होंने जाना
नहीं और जिनकी
आंखें खुली
नहीं।
'नायं आत्मा
प्रवचनेन
लभ्यो।’
थोड़े
से शब्दों में
कितनी बात कह
दी। बूंद में
जैसे सागर को
समा दिया।
नहीं, प्रवचन
से यह उपलब्ध
नहीं है।
सुनना जरूर
उनको जो जानते
हैं, लेकिन
उनके शब्दों
को मत पकड़
लेना। बुद्ध
ने कहा है : मैं
जो कहता हूं
उस पर ज्यादा ध्यान
मत दो, मैं
जो हूं उस पर
ध्यान दो। मैं
जो कहता हूं
वह उतना
महत्वपूर्ण
नहीं, मैं जहां
से कहता हूं
वह स्रोत
महत्वपूर्ण
है। और, मैं
कहूं इसलिये
मत मानना। मैं
कहूं इसलिये
तो केवल
प्रयोग करना
जानने का। हां
जिस दिन जान
लो, उस दिन
मानना।
'न मेधया न
बहुना हतेन।’
न
तो बड़ी मेधा
से,
प्रतिभा से,
तर्क से, बुद्धि से
यह आत्मा
मिलती है।
तर्क के हाथ
बहुत छोटे हैं।
आकाश के तारों
को तर्क से
नहीं छुआ जा
सकता। तर्क के
लिये तो आत्मा
वैसे ही है
जैसे तुमने ईसप
की कहानी में
पढ़ा है कि
लोमड़ी उछली, कूदी, अहो
तक पहुंची
नहीं। फिर
चारों तरफ
उसने देखा कि
कोई देखता तो
नहीं है। और
फिर यह कहती
हुई कि अगर
किसी ने देख
भी लिया हो तो
सुन ले कि अभी
अंह कच्चे हैं,
अभी मह
खट्टे हैं,चल
पड़ी। एक खरगोश
छिपा यह देख
रहा था झाड़ी
में से; उसने
कहा, चाची,
आप पहुंच
नहीं पायीं।
लेकिन लोमड़ी
ने कहा, चुप
बदतमीज, पहुंचकर
करूंगी क्या,
अभी अंह
कच्चे हैं, अभी अंह
खट्टे हैं। पक
जाने दे, फिर
पहुंचूंगी, अभी तोड्ने
से सार क्या
है! उछलकर
मैंने देख लिया
कि मह अभी
कच्चे हैं और
खट्टे हैं।
अभी चखा नहीं,
छुआ भी नहीं
और जान लिया
कि मह खट्टे
हैं!
तर्क
की छलांग बहुत
छोटी है। इतनी
छोटी। लेकिन
तर्क का
अहंकार बहुत
बड़ा है। तो
तर्क के पास
एक ही उपाय है
कि वह कह दे, आत्मा
होती ही नहीं।
अंह कच्चे, मह खट्टे!
तर्क की पकड़
में नहीं आती
आत्मा तो आत्मा
हो कैसे सकती
है; इसलिये
नहीं है। ऐसा
इनकार करके
तर्क अपने
अहंकार को बचा
लेता है।
जरूर
तर्क के हाथ
कुछ चीजों तक
पहुंचते हैं—विज्ञान
में सार्थक है
तर्क, क्योंकि
वस्तुओं को
पकड़ लेता है, खोज लेता है।
लेकिन आत्मा
कोई वस्तु
नहीं। आत्मा
तो तर्क के
पीछे है, तर्कातीत
है। तर्क के
आगे जो है
उसको तर्क छू
सकता है, लेकिन
तर्क के पीछे
जो है, उसके
लिये तर्क
क्या करे!
दर्पण के
सामने जो है, वह दर्पण
में दिखाई पड़
जाएगा, लेकिन
दर्पण के पीछे
जो है, वह
दर्पण में
कैसे दिखाई
पडेगा! लेकिन
अगर दर्पण का
भी अहंकार हो
तो दर्पण भी
कहेगा कि जो
मेरे पीछे है,
वह है ही
नहीं। अगर
होता तो दिखाई
पड़ता। जो
मुझमें दिखाई
न पड़े, वह
है ही नहीं।
तर्क
के सामने
संसार है और
पीछे तुम हो।
और तुम्हारा
होना आत्मा है।
तर्क में
तुम्हारा कोई
प्रतिफलन
नहीं बनता।
इसलिये तर्क
निश्चित रूप
से नास्तिक
होता है।
'न मे धया......'।
बुद्धि
से नहीं पाया
जा सकता। और
बुद्धि है
क्या? विचार
की शृंखला। और
विचार से कभी
किसी ने
अज्ञेय को
जाना है? विचार
की तो सीमा है,
ज्ञात। जो
जाना है, विचार
उसी की जुगाली
करता है।
तुमने भैसों
को जुगाली
करते देखा? बस, विचार
उतना ही करता
है, जुगाली
करता है। जो
जाना है, जो
सुना है, जो
पढ़ा है, उसी
की जुगाली
करता है।
लेकिन आत्मा
को न तो जाना
जा सकता है, न सुना जा सकता
है, न पढ़ा
जा सकता है, उसकी जुगाली
कैसे करोगे? उसके लिये
तर्कातीत
होना जरूरी है।
आत्मा को
जानने के लिये
विचार के पार
जाना जरूरी है।
निर्विचार
होना जरूरी है।
तर्क
है विकल्प : यह
ठीक या वह ठीक; और
आत्मा को
जानना हो तो
निर्विचार
होना जरूरी है।
यही तो समाधि
की परिभाषा है,
निर्विचार,
निर्विकल्प,
मनातीत। वह
जो मनातीत
अवस्था है
समाधि की, उसमें
ही जाना जाता
है आत्मा को।
'न मेधया न
बहुना
श्रुतेन।’
और
बहुत सुन लोगे
तुम,
बहुत
जानकारी भी
इकट्ठी कर
लोगे, सारे
शास्त्र
तुम्हें
कंठस्थ हो
जाएं तो भी तुम्हारे
अनुभव में कुछ
न आयेगा। गीता
कंठस्थ है
लोगों को, लेकिन
इससे वे कृष्ण
न हो गये हैं।
धम्मपद
कंठस्थ है
लोगों को, इससे
वे बुद्ध नहीं
हो गये हैं।
कितने लोग
कुरान की
आयतों को
दोहराते हैं,
मगर इससे वे
मुहम्मद नहीं
हो गये हैं।
काश, इतना
आसान होता! कि
हम शास्त्रों
को दोहरा देते
यंत्रवत् और
शास्त्रों
में जो छिपा
पड़ा है, वह
हमारी सम्पदा
हो जाता। तब
तो हम
विश्वविद्यालयों
में धर्म सिखा
सकते थे।
मैं
तुमसे कहता
हूं धर्म की
कोई शिक्षा
नहीं हो सकती।
लेकिन मैं
हैरान होता
हूं जो लोग
मुंडकोपनिषद्
के इस सूत्र
को उद्धरण
देते हैं, वे
भी धार्मिक
शिक्षा की बात
करते हैं। तब
मैं देखता हूं
कि चूक गये वे,
यह सूत्र भी
उनकी पकड़ में
नहीं आया।
आत्मा तो दूर,
आत्मा के
संबंध में यह
सूत्र भी उनकी
समझ में नहीं
आया। धार्मिक
शिक्षा होनी
चाहिये! पंडित,
पुरोहित, मौलवी, पादरी,
सबकी एक
इच्छा है; संत,
महात्मा, मुनि, सबकी
एक इच्छा है
धार्मिक
शिक्षा होनी
चाहिये। धर्म
की शिक्षा हो
सकती है—सवाल
यह है!
मैं
विश्वविद्यालय
में जब
प्रोफेसर था
तो दिल्ली में
मंत्रालय ने
भारत से कोई
बीस प्रोफेसरों
को आमंव्रित
किया था—धार्मिक
शिक्षा के ऊपर
एक संगोष्ठी
आयोजित थी—भूल—चूक
से वे मुझे भी
बुला बैठे।
भूल—चूक से ही
कहूंगा, क्योंकि
उन्होंने आशा
की होगी कि
मैं धार्मिक
शिक्षा के
संबंध में कुछ
सुझाव दूंगा
कि कैसे
धार्मिक
शिक्षा दी
जाये और मैंने
मुंडकोपनिषद्
का यह सूत्र
ही कहा—
'नायं आत्मा
प्रवचनेन
लभ्यो
न मेधया न
बहुना हतेन।’
धर्म
की शिक्षा हो
ही नहीं सकती।
और जिसकी
शिक्षा हो
सकती है, वह
धर्म नहीं है।
इसलिये कोई
विश्वविद्यालय
कभी धर्म की
शिक्षा नहीं
दे सकेगा।
धर्म के संबंध
में शिक्षा दे
सकता है, कि
हिन्दू क्या
कहते हैं, मुसलमान
क्या कहते हैं,
ईसाई क्या
कहते हैं, लेकिन
कोई
विश्वविद्यालय
जीसस को, महावीर
को, जरथुस्त्र
को पैदा नहीं
कर सकेगा। हां
गणित की
शिक्षा हो
सकती है।
विज्ञान की
शिक्षा हो
सकती है, भूगोल
की, इतिहास
की शिक्षा हो
सकती है, लेकिन
धर्म की कोई
शिक्षा नहीं
हो सकती है।
धर्म के संबंध
में शिक्षा हो
सकती है, लेकिन
स्मरण रखना
भेद को : प्रेम
के संबंध में
जानना प्रेम
को जानना नहीं
है। प्रेम के
संबंध में तो
वह भी जान
सकता है जिसने
कभी प्रेम
नहीं किया।
पुस्तकालयों
में हजारों
किताबें हैं।
और ईश्वर के
संबंध में
जानना ईश्वर
को जानना नहीं
है। ईश्वर के
संबंध में तो
कोई भी जान
सकता है।
लेकिन संबंध
में जानना और
सत्य को जानना
दो भिन्न
बातें हैं।
खतरा यही है
कि कहीं
सूचनाओं में
ही न भटक जाना,
कहीं
सूचनाओं में
ही न अटक जाना।
बहुत लोग अटके
हैं। जिनको
तुम पंडित
कहते हो, वे
इसी तरह के
अटके हुए लोग
हैं।
'न मेधया न
बहुना
श्रुतेन।’
कितना
ही श्रुति को
पढ़ो,
कितना ही
स्मृतियों को
पढ़ो, कितने
ही सुंदर—सुंदर
शब्दों के
संग्रह बना लो,
कितने ही
सुभाषित
कंठस्थ कर लो,
इससे कुछ भी
न होगा। तुम
जितने
अज्ञानी थे, उतने ही
रहोगे। हां एक
खतरा है कि
तुम्हें यह
भ्रांति पैदा
हो सकती है कि
तुम ज्ञानी हो
गये। और यह
सबसे बड़ा खतरा
है। अज्ञानी
को भांति हो
जाए कि ज्ञानी
हो गया, अब
इसकी जीवन
स्थिति बड़ी
दयनीय हो गयी।
अब इसके सुधार
का उपाय भी न
रहा।
सद्गुरु
तुम्हें यह
नहीं सिखाता
कि आत्मा क्या
है,
सद्गुरु
तुम्हें यह
नहीं बताता कि
परमात्मा
क्या है।
सद्गुरु
तुम्हें
ज्ञान नहीं
देता, सद्—गुरु
तुम्हें
ध्यान देता है।
और ध्यान का
अर्थ है :
निर्विचार
होना, निर्विकल्प
होना, शास्त्र
से मुक्त होना,
शब्द से
मुक्त होना, सिद्धात से
मुक्त होना, सूचना से
मुक्त होना।
ध्यान का पहला
अर्थ है : अपने
अज्ञान को
स्वीकार करना,
अंगीकार
करना। सुकरात
सही है।
सुकरात
कहता है, मैं
बस इतना ही
जानता हू कि
कुछ भी नहीं
जानता। यह
ज्ञान की तरफ
पहला कदम है।
और जिसको यह
भ्रांति है, में जानता
हूं—और भांति
पैदा हो जाती
है सुंदर
वचनों से—वह
तो भटक गया।
ज्ञान जितने
लोगों को
डुबाता है, अज्ञान नहीं
डुबाता।
अज्ञान से
ज्ञान ज्यादा
खतरनाक है।
उपनिषद का
प्रसिद्ध वचन
है कि अज्ञानी
तो अंधेरे में
भटकते ही हैं,
ज्ञानी महा
अंधकार में
भटक जाते हैं।
मगर मजा यह है,
इस सूत्र को
भी पंडित याद
कर लेते हैं।
इस सूत्र का
भी तोतों की
तरह उद्धरण
देते हैं।
'यं एवैष
वृयुते तेन
लभ्यात्'
यह
आत्मा तो
जिसका वरण
करता है, उसी
को मिलता है।
यह
महत्वपूर्ण
सूचना है, मगर
इसके बड़े गलत
अर्थ लिये गये
हैं——होने ही
थे गलत अर्थ।
जितनी
महत्वपूर्ण
बात हो उतने
गलत अर्थ होंगे।
क्योंकि
जितनी
महत्वपूर्ण
बात हो, तुम्हारे
अनुभव से उतनी
ही दूर हो
जाती है।
तुम्हारे और
उसके बीच
फासला बड़ा
होता जाता है।
तुम्हें वे ही
बातें समझ में
आती हैं जो
तुम्हारे
अनुभव के करीब
पड़ती हैं। और
सत्य तो बहुत
दूर।
तुम्हारे .और
उसके बीच तो
कोई नाता ही
नहीं रहा है।
जन्मों से कोई
नाता नहीं है।
फासला बढ़ता
ही गया है।
इस
—सूत्र का
अर्थ किया गया
है अब तक और
मैं तुमसे कहना
चाहता हूं वह
अर्थ
बुनियादी रूप
से गलत है।
अर्थ किया गया
है कि यह तो
परमात्मा की
जिस पर कृपा
होती है, उसको
आत्मा का बोध
होता है। न तो
प्रवचन से
मिलती, न
बुद्धि से
मिलती, न
जानकारी से मिलती।
तो फिर कैसे
मिलती है? परमात्मा
की जिस पर
कृपा होती है।
यह सरल अर्थ
निकाल लिया
लोगों ने। तो
करना क्या है?
फिर करने को
कुछ बचा नहीं।
फिर तो
परमात्मा की
जब कृपा होगी
तब होगी।
इस
देश की
काहिलता इसी
तरह के अर्थों
पर निर्भर है।
इस देश की
सुस्ती, मुर्दगी,
इस देश का
मरा—मरा होना,
इस देश की
दयनीयता, दीनता,
इस देश की
बाईस सौ
वर्षों
पुरानी
गुलामी इसी तरह
के अर्थों पर
आधारित है।
इसी तरह की
हमने
बेवकूफिया कर
ली हैं। जब
पत्ता भी उसकी
मर्जी के बिना
नहीं हिलता तो
गुलामी कैसे आ
जायेगी? और
जब उसकी ही
मर्जी है, तो
हम क्या कर
सकते हैं? इसलिये
अब गुलाम होना
ही ठीक है।
उसकी मर्जी से
राजी होना ही
ठीक है।
उसकी
बिना मर्जी के
पत्ता नहीं
हिलता तो बीमारी
कैसे हो
जायेगी? तो अब
क्या कर सकते
हैं? इसलिये
बीमारी को
अंगीकार कर
लेना ठीक है।
घसीटते रहो
बीमारियों को।
जीते रहो किसी
तरह, सड़ते
रहो, कुछ
करो मत—क्या
कर सकते हैं
हम! जब उसकी
इच्छा होगी।
'यं एवैष
वृमुते तेन
लभ्यात्।’
आत्मा
को भी हम तो पा
नहीं सकते—शास्त्र
में है नहीं, वचनों
में है नहीं, ज्ञान में
है नहीं, बुद्धि
में है नहीं; अब क्या
करें? अब
तो प्रतीक्षा
के सिवाय कोई
रास्ता न रहा।
अब तो उसकी जब
कृपा होगी!
इसका
तो यह भी मतलब
हुआ कि किसी
पर उसकी कृपा
होती है और
किसी पर उसकी
कृपा नहीं
होती।
ज्यादातर तो
कृपा होती ही
नहीं; कभी
किसी पर हो
जाती है कृपा।
मतलब यह हुआ
कि परमात्मा
की तरफ से भी
बड़ा अन्याय चल
रहा है। किसी
बुद्ध पर हो
गई कृपा, किसी
महावीर पर हो
गई कृपा, किसी
याज्ञवल्ल पर
हो गयी कृपा, किसी कबीर
पर हो गई कृपा,
ठीक! बाकी
लोग क्या कर
सकते हैं! वे
राह देखेंगे,
जब जन्मों—जन्मों
में कभी उन पर
भी कृपा होगी,
कभी उन पर
भी नजर पड़ेगी,
तो ठीक। और
नहीं पड़ी तो
यूं ही घसिटना
है। यूं ही
मरना है, यूं
ही गलना है।
नहीं, ऐसा
इसका अर्थ
नहीं है। ये
भाग्यवादी
अर्थ इस पर
थोप दिया गया।
मगर
अज्ञानियों
के हाथ में
अमृत भी पड़
जाए तो जहर हो
जाता है। इस
सूत्र का बड़ा
और अर्थ है यह
तो जिसका वरण
करता है ,. उसी
को मिलता है।
लेकिन किसका
वरण करता है? परमात्मा की
कृपा तो सभी
पर बराबर
बरसती है—बरसनी
ही चाहिये।
अगर परमात्मा
भी भेदभाव
करता हो कि
किसी पर थोड़ा
ज्यादा बरसे
और किसी पर
थोड़ा कम बरसे;
ब्राह्मण
पर थोड़ा
ज्यादा और
शूद्र पर थोड़ा
कम; जनेऊ
पहन लो तो
थोड़ा ज्यादा
और जनेऊ न
पहनो तो थोड़ा
कम; चुटैया
बढ़ा लो तो
थोड़ा ज्यादा
और चुटैया कटा
लो, थोड़ा
कम, अगर
ऐसी मूढ़ताएं
ईश्वर को भी
हों—उपवास कर
लो, थोड़ा
ज्यादा और पेट
भरे होओ तो
थोड़ा कम, सिर
के बल खड़े हो
जाओ तो थोडा
ज्यादा और पैर
पर चलो, आदमी
की तरह, भले
आदमी की तरह
तो कम। यह
क्या पागलपन
हुआ कि
मंदिरों में घंटियां
बजाओ तो थोड़ा
ज्यादा और
घंटियां न बजाओ
तो बस, नाराज
हो गये!
परमात्मा की
कृपा तो सभी
पर बराबर
बरसती है।
लेकिन कुछ
पात्र हैं जो
उलटे रखे हैं।
वर्षा तो होती
रहती है अमृत
की लेकिन
पात्र खाली के
खाली रह जाते
हैं।
वर्षा
में कुछ भेद
नहीं। तुम
देखो रखकर, एक
मटके को उलटा
रख दो, वर्षा
हो रही हो, धुआंधार
वर्षा हो रही
हो, मूसलाधार
वर्षा हो रही
हो और बर्तन
को उलटा रख दो,
कैसे भरेगा!
वर्षा क्या
करे! वर्षा की
तरफ से कोई
कंजूसी नहीं
है, मगर
पात्र तो सीधा
होना चाहिये!
फिर पात्र भी सीधा
हो, लेकिन
फूटा हो, तो
भरता हुआ मालूम
पडेगा लेकिन
भर कभी पायेगा
नहीं। इधर
भरेगा उधर
खाली हो
जायेगा। फिर
यूं समझो कि
पात्र सीधा भी
हो, छिद्रवाला
भी न हो, लेकिन
जमाने भर की
गंदगी से भरा
हो, तो
वर्षा तो हो
भी जाए, भर
भी जाए, मगर
वह जल पीने
योग्य नहीं
होगा। वह
तुम्हारी
तृषा को मिटा
न सकेगा।
तो
ये तीन बातें
खयाल रखनी
जरूरी हैं।
पहली
बात,
पात्र सीधा
हो। पात्र
सीधा हो, इसका
अर्थ है :
तुम्हारा
हृदय अंगीकार
करने को राजी
हो। इसी को
श्रद्धा कहते
हैं। श्रद्धा
का अर्थ है :
अंगीकार करने
की तत्परता—स्वागत,
अभिनन्दन, वंदनवार।
जैसे कोई
मेहमान आता है
और तुम द्वार
पर खड़े होकर
पलक—पांवड़े
बिछाए
प्रतीक्षा
करते हो, राह
देखते हो।
दरवाजा बन्द
करके नहीं
बैठते, दरवाजा
खुला रखते हो
कि कहीं
मेहमान लौट न
जाए। द्वार पर
ही खड़े रहते
हो कि आए तो
स्वागत की आरती
उतारनी है।
श्रद्धा का
इतना ही अर्थ
है कि तुम
आओगे तो मेरे
द्वार बंद न
पाओगे।
पात्र
सीधा हो।
संदेह से भरा
हुआ व्यक्ति
उलटा पात्र है—बंद!
अंगीकार करने
को राजी नहीं, इनकार
करने को तत्पर।
फिर, छिद्र
नहीं होने
चाहिये।
पात्र सीधा हो
और छिद्र न
हों।
तुम्हारे
जीवन में
कितने छिद्र
हैं! तुम्हारी
ऊर्जा कितने
छेदों से बही
जा रही है!
क्रोध से तुम
कितनी ऊर्जा
को बहाते हो!
पाते क्या हो?
पाते कुछ भी
नहीं, गंवाते
बहुत हो।
कमाते क्या हो?
क्रोध करके
कभी किसी ने
कुछ कमाया है?
हजार तरह की
वासनाएं
तुम्हारे
छिद्र हैं।
कोई धन के
पीछे दौड़ रहा
है, कोई पद
के पीछे दौड़
रहा है, सभी
मृगमरीचिकाओं
के पीछे दौड़
रहे हैं, लेकिन
दौड़ने में
ऊर्जा समाप्त
होती है।
दौड़ने में
तुम्हारी
शक्ति क्षीण
होती है। और
जिन चीजों के
पीछे भाग रहे
हो वहां कुछ
पाने को नहीं;
सिर्फ मौत
मिलेगी। हर
आदमी अपनी कब
में गिर जाता
है जाकर। कहीं
से जाओ, किसी
दिशा में भागों—पद
चाहो कि यश
चाहो कि धन
चाहो—एक दिन
पहुंच जाओगे कब्र
में। और कहीं
तो पहुंचने को
नहीं है।
इसके
पहले कि कब्र
तुम्हें अपने
में समा ले, इन
छिद्रों को
बन्द करो। यह
आपाधापी छोड़ो।
किसने धन को
पाकर पाया है?
बड़े से बड़े
धनी से भी
पूछो तो वह
निर्धन है।
भीतर अभी रो
रहा है। बाहर
तो अंबार लग
गया धन का, लेकिन
भीतर? भीतर
तो सब खाली का
खाली है। बाहर
का धन भीतर के
खालीपन को
नहीं भर सकता।
और बाहर का धन
तो मौत छीन
लेगी। तुम
खाली हाथ आए
और खाली हाथ
जाओगे। आए थे
तब कम से कम
मुट्ठी बंधी
थी, जाओगे
तब मुट्ठी भी
खुल जायेगी। बच्चे
आते हैं तो
मुट्ठी बंधी होती
है, और के
मरते हैं तो
मुट्ठी भी खुल
गयी होती है।
और भद्द हो गई
होती है!
मुट्ठी कम से
कम बंद होती
है तो पता तो
लगता है कि
कुछ होगा भीतर।
हो या न हो।
बंधी मुट्ठी
लाख कीं—समझदार
लोग कहते हैं—खुली
तो खाक की।
बच्चा कम से
कम आशाएं तो
लेकर आता है, संभावनाएं लेकर
आता है, इसलिये
मुट्ठी बंद
होती है। अभी
जिन्दगी में
हीरे बरस सकते
हैं, इसलिये
मुट्ठी बंद
होती है। का
तो सब गंवाकर
जाता है, कुछ
बरसा नहीं; कुछ हाथ न
लगा, उसके
हाथ खाली होते
हैं; उसके
हाथ उसके जीवन
की कथा कहते
हैं, उसके
जीवन की व्यथा
कहते हैं।.
.छिद्र नहीं
होने चाहिये।
वासनाएं
छिद्र हैं।
और
फिर छिद्र भी
न हों और भीतर
अगर गंदगी भरी
हो—घडा खाली
होना चाहिये; घड़ा
पहले ही से
भरा हो, कूड़ा—करकट
से भरा हो, तो
भी फिर जलधार
बरसती रहेगी
मगर तुम खाली
के खाली रह
जाओगे। और
तुम्हारे
भीतर कितना
कूडा—करकट भरा
है! कभी सोचो
तो, कभी
विचारो तो, कभी एकान्त
में बैठकर एक
खाली कागज
लेकर सिर्फ
लिखते चले जाओ
जो भी
तुम्हारे मन
में उठ रहा हो—जो
भी! किसी को
बताना तो है
नहीं, दरवाजा
बंद कर देना, ताला लगा
देना, कि
कोई झांक न ले;
किसी को
बताना नहीं है,
इसलिये
ईमानदारी
बरतना; ईमान
से लिख डालना,
और फिर आग
लगाकर जला
देना ताकि
किसी को पता
भी न चले, मगर
तुम्हें तो कम
से कम साफ हो
जायेगा; दस
मिनट लिखने
बैठोगे और तुम
चकित हो जाओगे
कि कौन सा
कचरा
तुम्हारी
खोपडी में भरा
हुआ है! क्या—क्या
चल रहा है! और
कहां— कहां से
चला आ रहा है!
संगत—असंगत, प्रासंगिक—अप्रासंगिक;
एक कडी भजन
की आती है, दूसरी
कड़ी किसी
फिल्मी गीत की
आ जाती है; पडोस
में कुत्ता
भौंकता है, उसके भौंकने
को सुनकर
तुम्हें अपनी
प्रेयसी की
याद आ जाती है
जिसके पास एक
कुत्ता था। अब
चले! और
प्रेयसी की
याद आती है तो
पत्नी की याद
आ जाती है, कि
इसी दुष्ट ने
तो सब गड़बड़
करवा दिया! अब
लगे कोसने
अपने को कि
किस दुर्दिन
में
मैंने
मुल्ला
नसरुद्दीन से
पूछा कि
स्त्रियां
आपको नमस्कार
करती हैं, आप
जवाब क्यों
नहीं देते? उन्होंने
कहा, बीस
साल पहले एक
स्त्री को
जवाब दिया था,
उसका फल तो
अभी तक भोग
रहा हूं। अब
नहीं! अब जवाब
नहीं देता! एक
दफा भूल कर ली,
वही बहुत
है! अब उसी से
तो किसी तरह
बच जाऊं तो काफी
है! दिखती
नहीं, कोई
आशा नहीं! यह
मेरी पत्नी
मुझे मारकर ही
मरेगी!
स्त्रियां
जीती भी
पुरुषों से
पांच साल ज्यादा
हैं। उनकी औसत
उम्र ज्यादा
है—सारी दुनिया
में।
परमात्मा ने
भी क्या
इंतजाम किया
है! कि तुम आशा
ही करते रही, आशा ही करते
रहो!
मुल्ला
नसरुद्दीन
रास्ते पर कोई
भी ट्रक देखता, बस
देखता, एकदम
कांपने लगता।
पसीना—पसीना
हो जाता, चाहे
सर्द सुबह ही
क्यों न हो!
मैंने उससे
पूछा कि क्या
बात है, कुछ
दिन से तुम जब
भी कोई बस
निकलती है या
ट्रक निकलता
है, एकदम
पसीने—पसीने
हो जाते हो, तुम्हें
घबराहट किस
बात की होती
है? तुम
अपने रास्ते
चल रहे हो, ट्रक
बीच में जा
रहा है—अलग, तुमसे इतने
दूर, तुम्हें
क्या घबराहट
है! उसने कहा, घबराहट की
बात यह है कि
मेरी पत्नी एक
ट्रक ड्राइवर
के साथ भाग गई
है, तो
मुझे डर लगता
है कहीं लौट न
आ रही हो! बस, ट्रक देखता
हूं कि बस, फिर
मैं होश में
नहीं रह जाता,
हे प्रभु, कहीं फिर न आ
जाए! आती ही
होगी! जरा
बैठो दस मिनट और
तुम्हारे मन
में क्या—क्या
आएगा, उसे
लिखते जाना।
और जैसा आए
वैसा ही लिखना,
सुधारना मत!
बनावट न लाना,
पाखंड मत
करना! नहीं तो
बैठकर अच्छे—अच्छे
सूत्र लिखने
लगो—यदा यदा
हि धर्मस्य...!
क्योंकि लोग
दूसरों को ही
धोखा नहीं
देते, अपने
को भी धोखा
देते हैं।
अल्लाह ईश्वर
तेरे नाम, सबको
सन्मति दे
भगवान—ऐसे कुछ
सूत्र मत
लिखने लगना!
जो सच्चा—सच्चा
आए, वही
लिखना। जैसा
आए वैसा ही
लिखना, भेद
ही न करना। और
तब तुम देखोगे
कि भीतर कैसा
कचरा भरा है!
क्या—क्या
उपद्रव भीतर
चल रहा है!
इस
कचरे से भरे
हुए मन में
तुम चाहते हो, परमात्मा
प्रवेश कर जाए,
उसका अमृत आ
जाए! तुम किस
आशा पर बैठे
हो? इस
सारे कचरे को
बाहर फेंक
देना जरूरी है।
इसको बाहर
फेंकने की
प्रक्रिया, इसको उलीचने
की प्रक्रिया
का नाम ही
ध्यान है। मगर
ध्यान के नाम
से लोग और
कचरा भरते हैं।
कोई नमोकार
मंत्र पढ़ रहा
है, कोई
गायत्री
मंत्र पढ रहा
है—ध्यान के
नाम से! कोई जय
जगदीश हरे
घोंटे चला जा
रहा है! कोई हनुमान
चालीसा ही
दोहरा रहा है!
इससे कुछ भी न होगा।
कचरा वैसे ही
काफी है, उसमें
और कचरा बढ़ा
रहे हो—धार्मिक
कचरा सही! मगर
कचरा कचरा है,
धार्मिक हो
कि अधार्मिक,
इससे कुछ
भेद नहीं पड़ता।
खाली 'करना
है। ध्यान है :
रिक्त होना।
सब कचरा बाहर
फेंक दो।
बाहर
फैंकने की
प्रक्रिया
सुगम है, सरल
है—साक्षीभाव।
जो भी भीतर
कचरा चल रहा
है, उसको देखते
रहो। मात्र
देखते रहो।
तादात्म्य
तोड़ लो। मेरा
है, यह भाव
छोड़ दो। मैं
तो द्रष्टा
हूं और जो भी
मेरे आमने—सामने
आ—जा रहा है, वह सब दृश्य
है.। मैं' दृश्य
नहीं हूं। बस,
इस भाव में
अपने को स्थिर
करते जाओ और
तुम धीरे—
धीरे पाओगे, कचरा अपने
से जा चुका।
जिस दिन तुम
बिलकुल 'खाली
हो जाओगे, उस
दिन
'यं एवैष
वृमुते तेन
लभ्यासु'
—उसी क्षण
तुम वर लिये
गये, वरण
कर लिये गये।
परमात्मा
तुम्हारा
आलिंगन कर
लेगा। आत्मा
का अनुभव
तुम्हारे
भीतर सुलग
उठेगा।
'तस्यैष
आत्मा
विवृवृते
स्वाम्।।’
और
तभी तुम जान
सकोगे आत्मा
के रहस्य; उद्घाटित
होंगे वे सारे
रहस्य। जान
सकोगे आत्मा
का स्वरूप।
यह
सूत्र प्यारा
है। विचारना
ही मत, इसे
जीने की कोशिश
करना।
सहजानंद
ऐसे प्यारे—प्यारे
सूत्र बिखरे
पड़े हैं! हीरे—जवाहरात
इनके सामने
कुछ भी नहीं!
मगर गलत लोगों
के हाथ में तो
हीरे—जवाहरात
भी पड़ जाएं तो
क्या होगा।
क्या करेंगे
वे'?
कैसे
पहचानेंगे! वे
तो इन सूत्रों
पर भी अपनी धारणाएं
थोप देते हैं।
जो सूत्र उनके
लिये
मुक्तिदायी
हो सकते थे, वे उनसे भी
अपने लिये नयी
जंजीरें खड़ी
कर लेते हैं।
ऐसी ही
जंजीरों में
तो हिन्दू
बंधे हैं, मुसलमान
बंधे हैं, ईसाई
बंधे हैं, जैन
बंधे हैं। अगर
इनमें से किसी
ने भी अपने ही
सूत्रों को समझा
होता, तो
उसे दूसरों के
सूत्र भी समझ
में आ गये
होते।
मैं
तुम्हें
अनुभव से अपने
कह रहा हूं कि
जिसने भी किसी
एक धर्म की
मूल आधारशिला
को समझ लिया, उसने
सारे धर्मों
की मूल
आधारशिला को
समझ लिया।
क्योंकि वह
आधारशिला एक
ही है, अलग
हो ही नहीं
सकती। इसलिये
जो सच में
हिन्दू है वह
हिन्दू नहीं रह
जायेगा। जो
झूठा है, वही
हिन्दू रहेगा।
जो सच में
मुसलमान है वह
मुसलमान नहीं
रह जायेगा।
कैसे मुसलमान
रहेगा? जो
सच में जैन है,
जैन नहीं रह
जायेगा! जो
झूठे हैं, थोथे
हैं, पाखंडी
हैं, वे ही
जैन होंगे।
जिसने सच में
महावीर या
बुद्ध या क्या
को पी लिया, एक को तुमने
क्या पिया—किस
घाट से पिया, क्या फर्क
पड़ता है—तुम्हें
स्वाद मिल
गया! और स्वाद
तो सारे सागर
का एक है।
बुद्ध ने कहा
हैं, तुम
सागर को कहीं
से भी चखो, उसका
स्वाद एक है।
किस घाट से
चखते हो, कुछ
फर्क नहीं
पड़ता है। कुछ
घाटों के कारण
सागर का स्वाद
नहीं बदलता है।
धार्मिक
आदमी तो सिर्फ
धार्मिक होगा, न
हिंन्दु होगा,
न मुसलमान?
न ईसाई, न
बौद्ध, न सिक्ख,
न पारसी।
सिर्फ
धार्मिक होगा
और मैं उसी
धार्मिक व्यक्ति
की तलाश में
हूं। उसी व्यक्ति
को यहां
आमंत्रित कर
रहा हूं।
इसलिये मुझसे
हिन्दू नाराज
होंगे, ईसाई
नाराज होंगे,
जैन नाराज
होंगे, मुसलमान
नाराज होंगे—स्वभावत:।
उनकी नाराजगी
मैं समझ सकता
हूं। लेकिन
जिनको सच में
धर्म की प्यास
है, वे
आह्लादित
होंगे। वे
यहां आकर मस्त
होंगे, सरोबोर
होंगे। वे यहां
आकर गीले हो
उठेंगे, उनकी
आंखें आनंद के
आंसुओ से भर
जायेंगी, उनके
प्राणों में
गीत उठेंगे, गंध उठेगी; उनका जीवन
एक तीर्थ; काबा
और कैलाश फीके
पड़ जाएंगे
उनके जीवन के
सामने। वे जहां
बैठेंगे वहां
काबा है र
जहां उठेंगे
वहां कैलाश है।
जहां चलेंगे
वहां तीर्थ बन
जाएंगे।
स्वभावत:
बहुत अधिक लौग
मेरे पास नहीं
आ सकते क्यौंकि
लोग तो पिटी—पिटायी
धारणाओं में
बँधे हुए हैं।
और मैं
तुम्हें सारी
धारणाओं से
मुक्त करना चाहता
हूं—सारे
शास्त्रों से।
'दीपक
बारा नाम का' प्रवचनमाला
सै
दिनांक
2 अस्तृबर 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
thank you guruji
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