जगजीवन
(वाणी)
जगजीवन
का जीवन
प्रारंभ हुआ
प्रकृति के
साथ। कोयल के
गीत सुने
होंगे,
पपीहे की
पुकार सुनी
होगी। चातक को
टकटकी लगाये
चांद को देखते
होंगे। चमत्कार
देखे होंगे कि
वर्षा आती है
और सूखी पड़ी हुई
पहाडियां हरी
हो जाती है।
घास में फूल
खिले देखे
होंगे।
बैठे—बैठे
झाड़ों के
नीचे जगजीवन
को गायों—बैलों
को चराते,
बांसुरी
बजाते कुछ—कुछ
रहस्य अनुभव
होने लगा
होगा। क्या
है ये सब—यह
विराट।.......
.....सत्संग
चलने लगा। और
एक दिन अनूठी
घटना घटी।
चराने गये थे
गाये—बैल को,
दो फकीर—दो
मस्त फकीर वहां
से गुजरे।
उनकी मस्ती
ऐसी थी कि
कोयलों की
कुहू—कुहू ओछी
पड़ गई।
पपीहों की
पुकार में कुछ
खास न रहा।
गायों की
आंखें देखी
थी। गहरी थी। मगर
इन आंखों के
सामने कुछ भी
नहीं थी।
झीलें देखी
थीं। शांत थी, मगर यह
शांति कुछ और
बात कह रही
थी। यह किसी
और ही लोक का गीता
सूना रही थी।
किसी और ही
लोक की शांति
दर्श रही थी।
ये चाल किसी
और ही लोक की
थी........
संकीर्तंत—
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं बोलने
वाले। एक :
जिनके पास
बोलने को कुछ
नहीं है। वे
कितने ही
सुंदर शब्द
जानते हों, उनके
शब्द निष्प्राण
होते हैं, उनके
शब्दों में
श्वांस नहीं
होती। उनके
पास शब्द सुंदर
होते हैं, जैसे
कि लाश पड़ी हो
किसी सुंदर
स्त्री की।
जैसे
क्लिओपेत्त्रा
मर गई है और
उसकी लाश पड़ी
है। उनके शब्द
ऐसे ही होते
हैं। असली बात
तो उड़ गई।
पिंजड़ा पड़ा रह
गया है। पक्षी
तो जा चुका; या पक्षी
कभी था ही
नहीं।
पंडित
सुंदर-सुंदर
शब्द बोलता है।
उसके शब्दों
में शृंगार
होता है, कुशलता
होती है, भाषा
होती है, व्याकरण
होती है। सब
होता है प्राण
नहीं होते। बस
एक ढांचा होता
है, आत्मा
नहीं होती।
संत
भी बोलते हैं, शायद
शब्द ठीक-ठाक
होते भी नहीं,
व्याकरण का
शायद पता भी
नहीं होता।
व्याकरण छूट
जाती है, भाषा
बिखर जाती है
लेकिन जो मधु
बहता है, जो
मदिरा बहती है
वह किसी को भी
डुबा दे, सदा
को डुबा दे।
शब्द तो
बोतलों जैसे
हैं। बोतल
सुंदर भी हो
और भीतर शराब
न हो तो क्या
करोगे? और
बोतल कुरूप भी
हुई और भीतर
शराब हुई तो
डुबा देगी, तो मस्त कर
देगी। तो
तुम्हारे
भीतर भी गीत
पैदा होगा और
नाच पैदा होगा।
आत्मापूर्ण
हों शब्द तो
तुम्हारे
भीतर भी आत्मा
को झंकृत करते
हैं।
जगजीवन
जैसे बे पढ़े-लिखे
संतों की वाणी
में जो बल है
वह बल शब्दों
का नहीं है, वह
उनके शून्य का
बल है। शब्दों
की संपदा उनके
पास बड़ी नहीं
है, कामचलाऊ
है; बोल-चाल
की भाषा है।
लेकिन बोल-चाल
की भाषा में
भी अमृत ढाला
है। पंडितों
के शब्द
मूल्यवान
होते हैं
लेकिन शब्दों
को उघाड़ोगे तो
भीतर कुछ भी
नहीं, चली
हुई कारतूस
जैसे। ऋषियों
के शब्द मूल्यवान
हों न हों, शब्दों
को उघाड़ोगे तो
भीतर परम संपदा
को पाओगे; एक
प्रगाढ़ता
पाओगे; एक
घनीभूत
प्रार्थना
पाओगे; एक
रस-विमुग्ध
चैतन्य पाओगे।
सीधे-सादे
शब्द हैं, जगजीवन
जो बोल रहे
हैं। कुछ जटिल
नहीं हैं।
लोकभाषा
है--जैसा सभी
लोग बोल रहे
होंगे। इनमें
एक भी शब्द
ऐसा नहीं है जो
पारिभाषिक हो;
कि जिसे
देखने के लिए
तुम्हें
शब्दकोश
उलटना पड़े।
अगर तुम्हें
कुछ शब्द कठिन
मालूम पड़ते
हों तो उसका
कारण यह नहीं
है कि वे शब्द
कठिन हैं उसका
कुल कारण इतना
है कि वे
लोक-व्यवहार
के बाहर हो
गये हैं। उस
दिन की
लोकभाषा के
हैं। आज उनका
उपयोग नहीं होता।
अन्यथा
बिलकुल
कामचलाऊ हैं।
गाड़ीवान
बोलता था, दुकानदार
बोलता था, चरवाहा
बोलता था, लकड़हारा
बोलता था, जुलाहा
बोलता था, कुम्हार
बोलता था।
उन्हीं के
शब्द हैं
लेकिन शब्द
ज्योतिर्मय है।..............
.......मैं
तुमसे कहता
हूं : मंदिर
जाओ न जाओ, चलेगा;
लेकिन कभी
वृक्षों के
पास जरूर
बैठना; नदियों
के पास जरूर
बैठना, सागर
में उठती हुई
उत्ताल
तरंगों को
जरूर देखना; हिमाच्छादित
शिखर हिमालय
के जरूर दर्शन
करना। फूलों
से दोस्ती
बनाओ! वृक्षों
से बातें करो।
हवाओं में
नाचो। वर्षा
से नाते जोड़ो।
और तुम
सद्गुरु को
खोज लोगे।
--
भगवान श्री
रजनीश
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं