दिनांक, 2 जून, 1964; संध्या,
मुच्छाला
महावीर, राणकपुर।
प्रश्न
: ओशो क्या
धर्म और
विज्ञान में
विरोध है?
नहीं।
विज्ञान को
जानना अधूरा
ज्ञान है। वह
ऐसा ही है कि
सारे जगत में
तो प्रकाश हो
और मेरे अपने
ही घर में
अंधेरा हो।
ऐसे अधूरे
ज्ञान से—
अपने को ही न
जानने से जीवन
दुख में परिणत
हो जाता है।
जीवन शांति, संतोष
और कृतार्थता
से भरे, इसके
लिए वस्तुओं
को जानना ही
पर्याप्त
नहीं है। उस तरह
समृद्धि आ
सकती है, पर
धन्यता नहीं
आती है। उस
तरह परिग्रह आ
सकता है, पर
प्रकाश नहीं
आता है। और
प्रकाश न हो
तो परिग्रह
बंधन हो जाता
है। वह अपने
ही हाथों लगाई
फांसी हो जाती
है। जो संसार
को ही जानता
है, वह
अधूरा है और
इस अधूरेपन
से दुख पैदा
होते हैं।
संसार
को जानने से
शक्ति उपलब्ध
होती है।
वितान, साइंस
उसी की खोज है।
क्या नहीं देख
रहे हैं कि
वितान ने
अपरिसीम शक्तियों
की रहस्य—कुंजियां
मनुष्य के
हाथों में दे
दी हैं? पर
उस शक्ति—उपलब्धि
से कुछ भी शुभ
नहीं हुआ है।
शक्ति आई है, पर शांति
नहीं आई है।
शांति
पदार्थ को
नहीं, परमात्मा
को जानने से
आती है। उसका
अन्वेषण धर्म,
रिलिजन है। अकेली
शक्ति शांति
के अभाव में
आत्म—घातक है।
पदार्थ का शान
आत्म—ज्ञान के
अभाव में
अज्ञान के
हाथों में
शक्ति है।
उससे शुभ फलित
नहीं हो सकता
है।
अब
तक वितान और
धर्म में, संसार
और अध्यात्म
में जो विरोध
रहा है, उसका
परिणाम अशुभ
हुआ है।
जिन्होंने
मात्र विज्ञान
की खोज की है, वे
शक्तिशाली हो
गए हैं, पर
अशांत और संतापग्रस्त
हैं और
जिन्होंने
मात्र धर्म का
अनुसंधान किया
है वे शांत हो
गए हैं, पर
अशक्त और
दरिद्र हैं।
यह अब तक की
साधना खंडित रही
है। अब तक
सत्य की पूरी
और अखंडित
साधना नहीं
हुई है। मैं
शक्ति और
शांति को
अखंडित रूप
में देखना चाहता
हूं। मैं
विज्ञान और
धर्म में
सम्मिलन को
चाहता हूं।
उससे
पूर्ण मनुष्य
का जन्म होगा
और एक पूर्ण संस्कृति
का भी, जो अंतर—बाह्य,
दोनों
रूपों में
समृद्ध होगी।
मनुष्य न तो
मात्र शरीर ही
है, न
मात्र आत्मा
ही। वह दोनों
का सम्मिलन है।
इसलिए उसका
जीवन किसी एक
पर ही आधारित
हो, तो
अधूरा हो जाता
है।
प्रश्न:
ओशो
संसार और
संन्यास के
संबंध में
आपके क्या विचार
हैं? क्या
संन्यास
संसार को
छोड़ने से ही
आता है?
संसार
और संन्यास का
विरोध नहीं है।
संसार नहीं, अज्ञान
छोड़ना होता है।
संसार—त्याग
का नाम
संन्यास नहीं
है। शान का
जागरण, आत्म—शान
का जागरण
संन्यास है।
उस जागरण में
संसार नहीं, आसक्ति छूट
जाती है।
संसार तो जहां
है, जैसा
है, वही
होता है, पर
हम परिवर्तित
हो जाते हैं।
और हमारी
दृष्टि
परिवर्तित हो
जाती है। वह
परिवर्तन
बहुत मौलिक है।
उस शान—जागरण
में कुछ छोड़ना
नहीं होता है,
जो व्यर्थ
है वह अपने आप
ही पके पत्तों
की भांति झड़
जाता है।
प्रकाश
के आगमन पर
अंधेरा चला
जाता है। ऐसे
ही शान के
आगमन पर जीवन
में जो भी
कलुषित है, वह
बह जाता है और
तब जो शेष रह
जाता है, वह
संन्यास है।
संन्यास
का संबंध
संसार से
बिलकुल भी
नहीं, स्व से
है। वह स्व—शुद्धि
है, जैसे
स्वर्ण
अशुद्ध से
शुद्ध हो जाए।
अशुद्ध
स्वर्ण में और
शुद्ध स्वर्ण
में विरोध
नहीं, विकास
है।
जीवन
को आत्म—अज्ञान
के बिंदु से
देखना संसार
है;
आत्म—ज्ञान
के बिंदु से
देखना
संन्यास है।
इसलिए
जब कोई कहता
है कि मैंने
संन्यास लिया
है,
तो मुझे बात
बड़ी असत्य
मालूम होती है।
यह लिया हुआ
संन्यास ही
संसार के
विरोध की भ्रांति
पैदा कर देता
है। संन्यास
भी क्या लिया
जा सकता है? क्या कोई
कहेगा कि शान
मैंने लिया है?
लिया हुआ
शान भी क्या
कोई शान होगा?
ऐसा
ही लिया हुआ
संन्यास भी, संन्यास
नहीं होता है।
सत्य ओढ़े
नहीं जाते हैं।
उन्हें जगाना
होता है।
संन्यास का
जन्म होता है।
वह शान से आता
है। उस ज्ञान
में हम
परिवर्तित
होते चले जाते
हैं। हमारा
शान बदलता है,
दृष्टि
बदलती है और
अनायास ही
आचरण भी बदल
जाता है।
संसार जहां का
तहां होता है,
पर हमारे
भीतर संन्यास
का जन्म होता
जाता है।
संन्यास
का अर्थ है : यह
बोध कि मैं
शरीर ही नहीं
हूं आत्मा हूं।
इस बोध के साथ
ही भीतर
आसक्ति और मोह
नहीं रह जाता
है। संसार
बाहर था, अब भी
वह बाहर होगा,
पर भीतर
उसके प्रति
राग—शून्यता
होगी, या
यूं कहे कि
संसार अब भीतर
नहीं होगा।
बाहर
जो संसार है, उसे
पकड़ना भी
अज्ञान है, उसे छोड़ना
भी अज्ञान है;
क्योंकि
दोनों ही
स्थितियों
में हम उससे
संबंधित होते
हैं। संसार—राग
भी अज्ञान है,
संसार—विराग
भी अज्ञान है।
वे दोनों ही
संबंध हैं।
असंबंध तो वीतरागता
है। वीतरागता
विराग नहीं है।
वह राग और
विराग दोनों
का अभाव है।
इसी अभाव को
मैं संन्यास
कहता हूं।
राग—विराग
का अभाव ज्ञान
से आता है।
राग एक अज्ञान
है। उस अज्ञान
में ही उससे
ऊब कर जो
प्रतिक्रिया होती
है,
वह विराग है।
वह प्रतिक्रिया
भी अज्ञान है।
एक में
व्यक्ति
संसार की ओर
भागता है, दूसरे
में संसार से
दूर भागता है।
पर दोनों ही
भागते हैं और
नहीं जानते कि
जो उनके भीतर
बैठा है, उसका
आनंद न संसार
में है, न
संसार से दूर
जाने में।
उसका आनंद तो
स्वयं में
प्रतिष्ठित
होने में है।
न संसार में
जाना है, न
संसार के
विरोध में
जाना हैं—विपरीत
अपने में आना
है।
स्मरण
रखें कि अपने
में आना है।
यह आना न राग
से होता है, न
विराग से होता
है। यह तो राग—विराग
के
अंतर्द्वंद्व
के साक्षी
बनने में संभव
होता है। कोई
हमारे भीतर, हमारे रागों
और विरागो—दोनों
का ही साक्षी
है। उसे ही
जानना है। जो
मात्र साक्षी
है, उसे ही
जानने से वीतरागता
अपने आप फलित
होती है। वह
आत्म—शान का
सहज परिणाम है।
प्रश्न:
ओशो
आपकी दृष्टि
से तो घर—
द्वार छोड़ना
व्यर्थ है?
मैं
महावीर
का एक सूत्र
याद करता हूं।
महावीर ने कहा
है — मूर्च्छा परिग्रह
है। उन्होंने
परिग्रह
मूर्च्छा है, ऐसा
क्यों नहीं
कहा? हमारे
अज्ञान के
कारण, हमारी
अंतस—मूर्च्छा
के कारण, हममें
वस्तुओं के
प्रति आसक्ति
है। हम भीतर
तो खाली और
दरिद्र हैं और
इसलिए बाहर की
वस्तुओं से ही
अपने को भर
लेना चाहते
हैं। उस भांति
ही हम अपने को
भ्रम देते हैं
कि हम कुछ हैं।
ऐसी स्थिति
में यदि कोई
आसक्ति
छोड़ेगा और भीतर
अज्ञान बना ही
रहा तो क्या
आसक्ति छूट
सकेगी?
वस्तुएं
छूट जाएंगी पर
आसक्ति नहीं छूटेगी।
घर छूट जाएगा
तो आश्रम में
आसक्ति आ
जाएगी।
परिवार छूट
जाएगा तो
संप्रदाय में
आसक्ति आ जाएगी।
आसक्ति भीतर
है तो वह नई
स्थितियों
में अपना प्रकाशन
बना लेगी।
इसलिए जो
जानते हैं
उन्होंने
वस्तुएं
छोड़ने को नहीं, मूर्च्छा
छोड़ने को कहा
है, अज्ञान
छोड़ने को कहा
है। ज्ञान के
आगमन पर जो
व्यर्थ है, वह छोड़ना
नहीं होता है,
अपने आप छूट
जाता है।
प्रश्न:
ओशो
विचार—
शून्यता के
लिए क्या हम
चित्त को
एकाग्र करें?
मैं
चित्त को
एकाग्र, कनसनट्रेट करने के लिए
नहीं कह रहा
हूं। वह एक
तरह की
जबरदस्ती और
तनाव, टेंशन
है। किसी
विचार, किसी
रूप, किसी
प्रतिमा, किसी
शब्द पर यदि
एकाग्रता की
जाए, तो
उसके परिणाम
में विचार—शून्यता
तो नहीं, चैतन्य
का जागरण तो
नहीं, वरन
मूर्च्छा और
आत्म—सम्मोहन
की एक जड़
अवस्था
उत्पन्न होती
है।
एकाग्रता
के हठाग्रह से
बेहोशी आ जाती
है। इस बेहोशी
को समाधि
समझना भूल है।
समाधि का अर्थ
जड़ता या
मूर्च्छा
नहीं है।
समाधि का अर्थ
है परिपूर्ण
चैतन्य का
अनुभव।
समाधि
है: विचार—शून्यता, थॉटलेसनेस + पूर्ण
चैतन्य, कांशसनेस।
प्रश्न:
ओशो
ध्यान में
श्वास—प्रश्वास
को हम किस
भांति देखें?
रीढ़
को सीधी रखें।
रीढ़ झुकी हुई
न हो। रीढ़ की
सीधी स्थिति
में शरीर सहज साम्यावस्था
में होता है।
पृथ्वी का
गुरुत्वाकर्षण, ग्रेविटेशन उस पर सम प्रभाव
डालता है और
उसके भार से
मुक्त होने
में आसानी
होती है।
गुरुत्वाकर्षण
का भार कम से
कम हो तो शरीर
शून्य होने
में बाधा नहीं
देता है।
रीढ़
को सीधी रखें
पर शरीर पर
कोई तनाव या अकड़ाव
नहीं। शरीर
सहज शिथिल हो, जैसे
किसी खूंटी पर
कोई वस्त्र टंगा हो, ऐसा ही वह भी
रीढ़ पर टंगा
हो। शरीर को
ढीला छोड़ दें।
फिर गहरी और
धीमी श्वास
लें। श्वास का
आना नाभि—केंद्र
को ऊपर नीचे आंदोलिन
करेगा। उस आंदोलन
को देखते रहें।
उस पर
एकाग्रता
नहीं करनी है।
उसे केवल
देखते रहना है।
उसका मात्र
साक्षी होना
है। स्मरण
रखें, मैं
एकाग्रता को नहीं
कह रहा हूं।
मैं केवल होश,
वॉचफुलनेस,
सजगता के
लिए कह रहा
हूं।
श्वास
भी ऐसे लें, जैसे
छोटे बच्चे
लेते हैं।
उनका
वक्षस्थल तो
नहीं कंपता, पर पेट
कंपता है। यही
विधि
नैसर्गिक
श्वास—प्रश्वास
की है। इसके
परिणाम में
शांति अपने आप
सघन होती जाती
है। चित्त—अशांति
और तनावों के
कारण हम श्वास
पूरी लेना
धीरे— धीरे
भूल ही जाते
हैं। युवा
होते—होते
कृत्रिम
श्वास—प्रश्वास
हमें पकड़ लेता
है। यह तो
आपने अनुभव
किया ही होगा
कि आपका मन
जितना अशांत
होता है, उतनी
ही श्वास—प्रक्रिया
अपनी सहजता और
गतिबद्धता
को खो देती है।
श्वास
को नैसर्गिक
रूप से लें—
लयबद्ध और सहज।
उसके संगीत से
चित्त—अशांति
विलीन होने
में सहायता
मिलती है।
प्रश्न
:
ओशो
आप श्वास—प्रश्वास
के दर्शन को
क्यों कहते
हैं?
इसलिए
कहता हूं कि
श्वास—प्रश्वास, प्राण
ही शरीर और
आत्मा के बीच
सेतु है। उसी
माध्यम से
आत्मा शरीर में
है। उसके
प्रति जागने
से, श्वास—प्रश्वास
के प्रत्यक्ष
से धीरे— धीरे
यह अनुभव होगा
कि मैं शरीर
नहीं हूं—
शरीर में हूं
पर शरीर ही
नहीं हूं। वह
मेरा आवास है,
मेरा आधार
नहीं। श्वास—प्रश्वास
का प्रत्यक्ष
जैसे— जैसे
गहराएगा, वैसे—वैसे
ही उसकी
निकटता अनुभव
होगी जो कि
देह नहीं है।
एक क्षण
स्पष्ट दर्शन
होगा—शरीर का
और स्वयं की
पृथकता का। तब
तीन पर्तें
व्यक्तित्व
की जात होंगी—
शरीर की, प्राण
की व आत्मा की।
शरीर आवरण है,
प्राण जोड़
है, आत्मा
आधार है।
साधना
में प्राण
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है,
क्योंकि वह
मध्य—बिंदु है।
उसके इस पार
शरीर है, उस
पार आत्मा है।
शरीर पर तो हम
हैं ही। आत्मा
में होना है।
पर उसके पूर्व
प्राण पर होना
जरूरी है। इसी
में संक्रमण
हो सकता है।
प्राण
पर जाग्रत
होकर दोनों ओर
देखा जा सकता
है। रास्ता
वहां पहुंच कर
दोनों ओर का
स्पष्ट हो जाता
है। एक ही
मार्ग है, पर
दोनों दिशाएं
स्पष्ट हो
जाती हैं। फिर
प्राण के पीछे
जाना सुगम हो
जाता है। मैं
समझता हूं कि
आप समझें
होंगे कि मैं
श्वास—प्रश्वास
पर जोर क्यों
देता हूं?
प्रश्न:
ओशो,
आप ध्यान को
अक्रिया
क्यों कहते
हैं? क्या
वह भी एक
क्रिया ही
नहीं है?
देखें।
यह मैं मुट्ठी
बांधे हुए हूं।
बांधने में
मुझे कुछ करना
पड़ रहा है।
बांधना
क्रिया है।
लेकिन, यदि
मैं मुट्ठी
खोलना चाहूं
तो मुझे क्या
करना होगा? खोलने के
लिए मुझे कुछ
भी नहीं करना
होगा। केवल, बांधने के
लिए जो प्रयास
कर रहा हूं वह
न करूं तो
मुट्ठी अपने
आप खुल जाएगी।
वह अपनी
स्वरूप
स्थिति में
पहुंच जाएगी।
इसलिए मैं
मुट्ठी खोलने
को क्रिया
नहीं कहूंगा।
वह अक्रिया है
या कि चाहे तो
कहें कि
नकारात्मक
क्रिया, निगेटिव
एक्शन है पर
उससे भेद नहीं
पड़ता है। वह
एक ही बात है।
शब्दों
से मुझे आग्रह
नहीं है। मेरी
बात— मेरा भाव
भर समझ लें।
ध्यान को
अक्रिया कहने
का मेरा अर्थ
है कि उसे आप
काम न समझें—उसे
व्यस्तता न
समझें। वह
अव्यस्तता है।
वह सहजता है
और आपको उसे
कोई मानसिक
तनाव नहीं
बनाना है। वह
भी एक मानसिक
तनाव हो, वह भी
एक क्रिया हो
तो वह शांति
में और स्वभाव
में नहीं ले
जाती है। तनाव
तो स्वयं
अशांति है। और
शांति में
जाने के लिए
प्रथम ही शांत
होना आवश्यक
है। शांति यदि
प्रथम चरण में
नहीं है, तो
वह अंत में भी
नहीं होगी।
अंतिम प्रथम
का ही विकास
है।
मैं
लोगों को
मंदिर जाते
देखता हूं मैं
उनको पूजा—आराधना
करते देखता
हूं मैं
उन्हें ध्यान
में बैठे देखता
हूं— पर यह सब
उनके लिए
क्रिया है— एक
तनाव है— एक
अशांति है, और
फिर वे इस
अशांति में
शांति के फूल
लगने की आशा
करते हैं, तो
भूल में हैं।
शांति
चाहते हैं, शांत
होना चाहते
हैं।
तो
इसी क्षण
शांति से
प्रारंभ करना
आवश्यक है।
आज
इतना ही।
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