सूत्र:
12—पूछो
अपने ही
अंतरतम, उस एक से,
जीवन
के परम रहस्य
को,
जो कि
उसने
तुम्हारे लिए
युगों से छिपा
रखा है।
जीवात्मा
की वासनाओं को
जीत
लेने का बड़ा
और कठिन कार्य
युगों का है।
इसलिए
उसके
पुरस्कार को
पाने की आशा
तब तक मत करो,
जब तक
युगों के
अनुभव
एकत्रित न हो
जाएं।
जब इस
बारहवें नियम
को सीखने का
समय आता है,
तब
मानव मानवेतर
(अतिमानव)
अवस्था की
डचोढी पर
पहुंच जाता
है।
जो
ज्ञान अब तुम्हें
प्राप्त हुआ
है
वह इसी
कारण तुम्हें
मिला है कि
तुम्हारी आत्मा
सभी शुद्ध
आत्मओं से एक
है
और उस
परम—तत्व से
एक हो गयी है।
इसमें
यदि तुम
विश्वासघात
करो,
उस
ज्ञान का
दुरुपयोग करो
या उसकी अवहेलना
करो,
तो अब
भी संभव है कि
तुम जिस उच्च
पद तक पहुंच चुके
हो,
उससे
नीचे गिर पड़ो।
बड़े
पहुंचे हुए
लोग भी अपने
दायित्व का
भार न सम्हाल
सकने के कारण
और आगे
न बढ़ सकने के
कारण
डचोढ़ी
से गिर पड़ते
हैं और पिछड़
जाते हैं।
इसलिए
इस क्षण के
प्रति
श्रद्धा और भय
के साथ सजग
रहो
और
युद्ध के लिए
तैयार रहो।
सूत्र के पहले
दो छोटे
प्रश्न हैं।
प्रश्न:
कोई पूछ रहा
है कि क्या
कारण है कि
मीरा जहर पी कर
भी नहीं मरी? कैसी
भक्ति थी वह? कैसा प्रेम
था? प्रहलाद
के बारे में
भी ऐसा ही कहा
जाता है, अग्नि
में नहीं जला।
लेकिन सुकरात
जहर पी कर
क्यों मर गए? और सूली पर
चढ़ने पर जीसस
बचे क्यों
नहीं?
कुछ बातें समझ
लेनी उपयोगी
होंगी।
एक दो
प्रबुद्ध
पुरुषों के
बीच तुलना भूल
कर भी नहीं
करनी चाहिए।
क्योंकि कोई
एक—दूसरे का
अनुकरण नहीं
है। जीसस जैसा
व्यक्ति
दुबारा नहीं
हुआ, होगा
भी नहीं। मीरा
जैसा व्यक्तित्व
भी दुबारा
नहीं होगा।
सुकरात अनूठा
है, प्रहलाद
भी। लेकिन
हमारे मन में
साधारण आदत है
तुलना करने
की। वे
एक—दूसरे का
अनुकरण नहीं
हैं, इसलिए
उनके
व्यक्तित्व
का प्रवाह, ढंग और अंत
अलग—अलग होगा।
मीरा
जहर पी कर
नहीं मरी, क्योंकि
मीरा जिस
भाव—दशा में
थी, वहां
जहर का प्रवेश
नहीं हो सकता
है। प्रेम की
गहनतम अवस्था
में जहर का
प्रवेश नहीं
हो सकता है।
जहर शरीर में
प्रवेश भी
नहीं कर
सकेगा। मीरा का
मार्ग था
प्रेम का—
प्रेम जहर का
एंटीडोट है।
अगर आप
बहुत प्रेम से
भरे हैं, तो आपके
रक्त में जहर
प्रवेश नहीं
कर सकेगा। जहर
के प्रवेश के
लिए आपके रक्त
में जहर होना
जरूरी है।
समान ही समान
को आकर्षित
करता है। अगर
आप क्रोध से
भरे हैं, तो
जहर शीघ्रता
से प्रवेश कर
जाएगा।
क्योंकि क्रोध
आपके भीतर जो
जहर की
ग्रंथियां
हैं, उनको
सक्रिय कर
देता है, और
आपके खून में
जहर पहले से
ही मौजूद हो जाता
है।
हम सब
क्रोध और घृणा
से भरे हैं।
हमारे रक्त में
जहर मौजूद ही
है। उस जहर के
कारण ही शरीर
में जहर
प्रवेश कर
सकता है। जो
आपके भीतर
नहीं है, वह आपके
भीतर प्रवेश
नहीं कर
सकेगा। मीरा
जैसा
व्यक्तित्व
इतने प्रेम
में जी रहा है
कि उसकी अपने
भीतर की
जहर—ग्रंथियां
समाप्त हो गई
हैं। उसका
रक्त प्रेम से
प्रभावित है,
प्रेम से
आच्छादित है;
जहर प्रवेश
नहीं कर सकेगा,
जहर शरीर से
बाहर हो
जाएगा। लेकिन
मीरा को इसका
पता भी नहीं
है। अगर इसका
पता चल जाए, तो जहर
प्रवेश कर
जाएगा। मीरा
को यह खयाल भी
नहीं है कि
उसे जहर दिया
जा रहा है, कि
वह जहर पी रही
है। वह अपने
प्रेम में इस
भांति लीन है
कि क्या हो
रहा है शरीर
के तल पर, उसका
उसे कोई स्मरण
भी नहीं है।
इसे आप
ऐसा समझें।
अगर आपको चूहा
भी काट ले और आपको
खयाल हो जाए
कि सांप ने
काटा है, तो जहर
प्रवेश हो
जाएगा; और
चूहे में जहर
था नहीं। आप
मर भी सकते
हैं। भ्रांति
काफी है मार
डालने के लिए।
आप जान
कर हैरान
होंगे, सर्प—विज्ञान
को समझने वाले
लोगों का कहना
है कि केवल
तीन प्रतिशत
सर्पों में
जहर होता है। सौ
में से तीन
सांपों में
जहर होता है, सत्तानबे
सांप बिना जहर
के होते हैं।
लेकिन चमत्कार
यह है कि बिना
जहर के सांप
के काटने से
भी लोग मरते
हैं। और
इसीलिए तो
सांप का जहर
उतारने वाला सफल
हो जाता है।
क्योंकि जिस
सांप ने काटा
है, उसमें
जहर था ही
नहीं। वह
सिर्फ
भ्रांति है आपकी,
इसलिए
मंत्र से कट
जाती है।
मंत्रों से
भ्रांतियां
कटती हैं।
सांप में तो
जहर
नहीं
था, जिसने
काटा है; लेकिन
सांप ने काटा
है, यह
भाव—दशा जहर
बन जाती है।
आप मर सकते
हैं, आपके
भीतर की
ग्रंथियां
जहर छोड़ देती
हैं इस भाव—दशा
में। यह
भाव—दशा मंत्र
से कट सकती है,
इसलिए सांप
का काटा झाड़ा
जा सकता है।
इससे
विपरीत भी
होता है। असली
सांप भी आपको
काट ले, लेकिन मंत्र
अगर आपको यह
भरोसा दिला दे,
झाड़ने वाला
यह भरोसा दिला
दे कि उसने
झाडू दिया है,
तो यह भरोसा
दीवाल बन जाता
है आपके भीतर।
यह भरोसा सांप
के जहर को
आपके खून में
मिलने से रोक
देता है।
आपको
अंदाज नहीं है
कि आपके मन की
कितनी ताकत है
आपके शरीर पर!
सम्मोहन के
संबंध में खोज
करने वाले
लोगों के
नतीजे बड़े
चमत्कारी
हैं। वे कहते
हैं कि अगर
सम्मोहित
व्यक्ति को—
और यह मैं
अपने प्रयोग
से भी कह रहा
हूं क्योंकि
सम्मोहन पर
इधर मैंने
बहुत प्रयोग
किए हैं— आपको
बेहोश कर दिया
जाए सम्मोहित
करके, निद्रा
में सुला दिया
जाए, और
आपके हाथ पर
साधारण कंकड़
उठा कर रख
दिया जाए और
आपसे कहा जाए,
यह अंगारा
है। आप फौरन
चीख मार कर उस
कंकड़ को फेंक
देंगे। और इस
तरह
चिल्लाएंगे, जैसे अंगारा
आपके हाथ पर
रखा हो। और
साधारण ठंडा
कंकड़ था। यहां
तक तो ठीक है
कि आप बेहोश
हैं, आपने
भरोसा कर लिया
मेरी बात का।
लेकिन आपके
हाथ पर फफोला
भी आ जाएगा! वह
फफोला ठीक
वैसा ही होगा,
जैसा कि
अंगारा रखने
से आता है! आप
होश में भी आ जाएंगे,
वह फफोला
टिकेगा उतनी
ही देर, जितनी
देर असली
फफोला टिकता
है। इससे उलटा
भी हो जाता है
कि आपको बेहोश
करके आपके हाथ
पर अंगारा रख
दिया जाए और
कहा जाए कि यह
साधारण ठंडा
कंकड़ है, आप
चीख भी नहीं
मारेंगे, और
अंगारे को
फेकेंगे भी
नहीं और फफोला
भी नहीं
उठेगा!
अब
इसके संबंध
में तो
वैज्ञानिक
निर्णय एकमत हो
गया है कि मन
जो भाव कर ले, शरीर
उसके पीछे
चलता है। तो
मीरा इतने
प्रेम से भरी
है कि उसे जहर
दिखाई ही नहीं
पड़ता।
ध्यान
रखें, आपको
वही दिखाई
पड़ता है, जो
आपका भाव होता
है।
मीरा
को सारा जगत
अमृतमय दिखाई
पड़ता है, कृष्णमय
दिखाई पड़ता
है। वह जहर को
भी कृष्ण देख
कर पी गई होगी,
उसमें भी
कृष्ण का ही
रस उसे आया
होगा। यह जो भाव—दशा
है, तो जहर
का कोई परिणाम
नहीं होगा।
जहर
अस्पर्शित रह
जाएगा, मीरा
तक नहीं पहुंच
पाएगा।
और अगर
हाथ में
अंगारा रखने
से फफोला न
पड़ता हो, तो
वैज्ञानिक
बात तय हो गई।
प्रहलाद भी आग
में जलने से
बच सकता है।
यह भाव—दशा की
बात है। कोई भगवान
प्रहलाद को
बचा रहा है, यह तो कहानी
है, यह तो
विज्ञान नहीं
है। कोई भगवान
ऐसा एक—एक को
बचाते और
समझाते—
बुझाते और जहर
को रोकते फिर
रहा हो, तो
बहुत बड़ा
गोरखधंधा
उसके पीछे हो
जाएगा। कोई
भगवान बैठ कर
यह सब नहीं कर
रहा है। लेकिन
प्रहलाद की
भाव—दशा। उसका
यह भरोसा है
कि वह नहीं
जलेगा, भगवान
उसे बचाएगा।
भगवान बचा रहा
है, यह
सवाल नहीं है।
लेकिन ध्यान
रखिए, अगर
आपको यह खयाल
हो कि कोई
भगवान बचाने
वाला नहीं, तो भरोसा
पक्का नहीं हो
पाएगा।
प्रहलाद को यह
पक्का भरोसा
है कि भगवान
है और वह
बचाएगा, मैंने
उसके हाथों
में अपने को
छोड़ दिया है, तो प्रहलाद
को आग नहीं
जला पाती।
आपने
सुना होगा कि
लोग अंगारों
पर नाच जाते
हैं; अलाव
भर लेते हैं, निकल जाते
हैं, कोई
पैर में फफोला
भी नहीं आता।
कुछ चमत्कार नहीं
है। या
चमत्कार है, क्योंकि मन
की शक्ति है
शरीर के ऊपर।
आग से बचा जा
सकता है।
लेकिन अगर जरा
सा भी संदेह
हुआ तो जल
जाएंगे।
तो आज
प्रहलाद को
पैदा करना
मुश्किल है।
वह जमाना गया, जब इतना
भरोसा था कि
संदेह का
रंचमात्र भी
नहीं था। इतनी
सरलता थी, इतना
भोलापन था। आज
तो एक छोटा सा
बच्चा भी पूछेगा
कि नहीं, यह
हो नहीं सकता।
आज छोटा बच्चा
भी एकदम छोटा बच्चा
नहीं है।
पुराने जमाने
में का भी छोटा
बच्चा था।
जीवन सरल था, प्रकृति के
निकट था।
सभ्यता न थी, शिक्षा न थी,
तो संदेह भी
कम था। जितना
शिक्षित
व्यक्तित्व
होगा, उतना
संदेह बढ़
जाएगा।
क्योंकि
शिक्षा के साथ
प्रश्न उठते
ही हैं—उठने
ही चाहिए, नहीं
तो शिक्षा आगे
नहीं बढ़ सकती।
इसे
ऐसा समझें।
अगर दुनिया
में विज्ञान
बढ़ता रहेगा तो
संदेह बढ़ता
रहेगा।
क्योंकि
संदेह के बिना
विज्ञान नहीं
बढ़ सकता।
विज्ञान
प्रश्नों से
जीता है। पूछो, तभी तो
उत्तर
मिलेंगे।
खोजो, लेकिन
खोज में संदेह
जरूरी है, जिज्ञासा
जरूरी है; भरोसा
जरूरी नहीं
है।
धर्म
भरोसे से चलता
है, जैसे
विज्ञान
संदेह से चलता
है। अगर
दुनिया में
धर्म होगा, तो विज्ञान
का होना बहुत
मुश्किल है।
अगर दुनिया
में विज्ञान
होगा तो धर्म
का होना बहुत
मुश्किल है, बहुत कठिन
है। क्योंकि
दोनों की
आधार—शिलाएं अलग
हैं। लेकिन
अगर भरोसा
पूरा हो और
भीतर कोई
संदेह न हो, तो आपका
भरोसा, इस
जगत में ऐसा
कोई भी नियम
नहीं है जिसे
न तोड़ दे। और
आपका भरोसा इस
जगत में कोई
भी ऐसी घटना नहीं
है, जिसको
संभव न बना
दे। लेकिन
भरोसा पूर्ण
होना चाहिए, उसमें रत्ती
भर का छेद भी
नाव को डुबा
देगा।
इसलिए
कोई अगर कोशिश
करके प्रयोग
करे तो दिक्कत
में पड़ेगा।
भूल कर मत
करना। अगर
आपने सोचा कि
जब प्रहलाद आग
से बच सकता है, तो मैं
क्यों नहीं बच
सकता, तो
मैं आग में
हाथ डाल कर
देखूं! लेकिन
आप जो आग में
हाथ डाल रहे
हैं, वह
ढंग
वैज्ञानिक का
है, आस्तिक
का नहीं है।
आप परीक्षण कर
रहे हैं कि देखें?
लेकिन
देखने का मतलब
यह है कि आपको
शक है, कि
पता नहीं होगा
कि नहीं होगा?
आप जलेंगे।
इसीलिए
धर्म के
प्रयोग
पुनरुक्त
नहीं किए जा सकते।
विज्ञान का
प्रयोग
पुनरुक्त
किया जा सकता
है। दुनिया के
किसी कोने में
प्रयोग हो, आप उसे
कहीं भी दोहरा
सकते हैं।
क्योंकि वह संदेह
पर खड़ा है, भरोसा
उसका हिस्सा
नहीं है।
लेकिन जो
प्रहलाद को
हुआ है, वह
अगर आप
दोहराने की
कोशिश किए तो
आप दिक्कत में
पड़ जाएंगे, क्योंकि
दोहराया नहीं
जा सकता।
धर्म
का प्रयोग
निजी और वैयक्तित
है। क्योंकि
प्रहलाद की
मनोदशा आपके
पास नहीं हो
सकती।
दोहराने वाले
के पास हो भी
कैसे? प्रहलाद
ने किसी का
दोहराया नहीं
था प्रयोग। वह
कोई परीक्षण
नहीं कर रहा
था परमात्मा
का। परीक्षण
का मतलब ही यह
है कि संदेह
मौजूद है। वह
तो अपने को
छोड़ रहा था।
उस बूढ़ो कोई
पता ही नहीं
था, वह तो
मानता था कि
यही होगा, इससे
अन्यथा होने
का कोई सवाल
नहीं है। यह
जो पूर्ण
भरोसा है, आस्था
है, वह आग
से बचा सकती
है।
लेकिन
जीसस की
स्थिति
बिलकुल भिन्न
है। जीसस सूली
से नहीं बच
सकते हैं, यह सवाल
नहीं है।
लेकिन अगर आप
ठीक से समझें,
तो जो लोग
जीसस को गहराई
से जानते हैं,
वे मानते
हैं कि सूली
पर चढ़ाने का
आयोजन जीसस का
ही था। यह
व्यवस्था
जीसस की ही
थी। जीसस
चाहते थे कि
उनको सूली पर
चढ़ा दिया जाए।
यह जीसस की
योजना का
हिस्सा था।
प्रहलाद और
मीरा के पास
कोई योजना
नहीं थी। जीसस
के पास एक
विराट योजना
थी।
इसलिए
प्रहलाद को
मानने वाले
कितने लोग हैं? और मीरा
के पीछे चलने
वाले कितने
लोग हैं?
जीसस
ने आधी दुनिया
को ईसाई बना
दिया। उसके
पीछे एक विराट
योजना है।
जीसस के पास
एक खयाल है
जगत के
रूपांतरण
करने का। और
जीसस को यह
बात साफ दिखाई
पड़ गई थी कि जो
मैं कह रहा
हूं अगर मैं
सूली पर लटका
दिया जाऊं, तो मेरा
कहा हुआ
मनुष्य के
हृदय पर सदा
के लिए अंकित
हो जाएगा।
सूली तो खेल
थी, क्योंकि
जीसस बूढ़ो
कोई मरने का
सवाल ही नहीं है।
जीसस के लिए
सूली तो खेल
थी। लेकिन इस
खेल का उपयोग
किया जा सकता
है। यह प्लान
था। यह जीसस
का पूरा का
पूरा खेल
सुनियोजित
था। इसमें लोग
सोचते हैं कि
जीसस के
दुश्मनों के
हाथ में जीसस
पड़े। जो जानते
हैं, वे
समझते हैं कि
जीसस के हाथ
में उनके
दुश्मन पड़ गए।
वे समझ नहीं
पाए कि हो
क्या रहा है!
जीसस
के ही एक
शिष्य जुदास
ने खबर दी
दुश्मनों को।
लोग समझते हैं
कि जुदास जीसस
का दुश्मन था।
ऐसा नहीं है।
वह जीसस का
गहरे से गहरा
अनुयायी था।
और उस सीमा तक
अनुयायी था कि
जीसस ने उसे
आज्ञा दी कि
तू मुझे सूली
पर लटकवाने का
इंतजाम कर दे, तो उसने
वह इंतजाम भी
कर दिया। वह
आज्ञा जो थी, उसे पूरा
करना था।
इसलिए
जिस क्षण
जुदास जीसस को
छोड़ कर जा रहा
है दुश्मन को
खबर देने, उस समय
जीसस ने उसके
पैर छुए और
उसे चूमा। लोग
सोचते हैं कि
यह दुश्मन के
प्रति प्रेम
का कारण था।
यह नहीं है
मामला। जो
गहरी कथा है, वह कुछ और
है। जुदास ही
उनमें सबसे
ज्यादा समझदार
शिष्य था। और
आपको पता नहीं
कि जिस दिन जीसस
को सूली लगी
है, उस दिन
बाकी शिष्य तो
भाग गए, लेकिन
जुदास ने
आत्महत्या कर
ली। उसने अपने
को सूली पर
खुद लटका
लिया। लोग
सोचते हैं कि
पश्चात्ताप
में ऐसा किया,
कि मैंने
फंसा दिया
जीसस को, मैंने
सूली लगवा दी।
नहीं, उसका
प्रेम गहरा था,
बहुत आंतरिक
था। वह इस
सीमा तक था कि
अगर जीसस कहें
कि सूली पर
लटकवाना है
मुझे, तो
वह इसका भी
इंतजाम
करेगा। लेकिन
प्रेम के लिए
बड़ी कठिनाई
है। यह इंतजाम
भी उसने किया
और अपने को
सूली पर भी
लटका लिया।
क्योंकि अब
रहने का कोई
अर्थ न था।
यह
योजनाबद्ध था, जीसस
सूली पर लटकना
चाहते थे।
क्योंकि सूली
पर लटकने से
ही वह घटना
घटेगी, जो
लोगों के जीवन
को रूपांतरित
कर देगी। इसलिए
जीसस से भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
प्रतीक
ईसाइयत के लिए
क्रास है।
जीसस की
मूर्ति नहीं
लटकाते हृदय पर,
क्रास
लटकाते हैं।
क्योंकि
क्रास के कारण
ही, सूली
के कारण ही
ईसाइयत का
जन्म हुआ।
एक
बहुत गहरा
ईसाई संत हुआ, सोरेन
कीर्कगार्ड।
उसने तो
क्रिश्चियनिटी
को कहा है कि
क्रिश्चियनिटी
नहीं कहना
चहिए, क्रासियानिटी
कहना चाहिए।
इसको ईसाइयत
नहीं कहना
चाहिए, यह
तो सूली पर
निर्भर है।
इसलिए क्रास
ज्यादा महत्वपूर्ण
है क्राइस्ट
की बजाय।
क्राइस्ट तो
बन ही सके
क्राइस्ट, जिस
दिन वे सूली
पर लटके।
इसलिए सूली पर
लटका हुआ
चित्र ही जीसस
का, सबसे ज्यादा
प्यारा हो गया
है। यह एक
ऐतिहासिक
आयोजन था।
सुकरात
की मनोदशा और
भी भिन्न है।
तुलना कभी करनी
नहीं चाहिए।
तुलना मैं कर
भी नहीं रहा
हूं। मैं
सिर्फ उनकी
व्यक्तिगत
खूबी की बात
कह रहा हूं कि
किसलिए ऐसा
हुआ। सुकरात
से कहा गया था
कि तू अगर
प्रवचन देना
बंद कर दे, बोलना
बंद कर दे, तो
हम तुझे मुक्त
कर देते हैं।
न्यायाधीशों
ने कहा था कि
तू अगर बोलना
बंद कर दे तो
हम तुझे मुक्त
कर देते हैं।
लेकिन
सुकरात ने कहा
कि अगर मैं
बोलना बंद कर दूं
तो मेरे होने
का प्रयोजन ही
क्या है? मेरे होने
का एक ही अर्थ
है कि मैं
सत्य को कहूं।
मेरा होना
अर्थात सत्य
का कहना, ये
दोनों एक ही
बात हैं। तो
तुम ऐसा मत
करो। या तो
तुम मुझे सत्य
को बोलने दो, तो मुझे
जीने दो, या
फिर तुम मुझे
सत्य बोलने से
रोकते हो तो
बेहतर है कि
तुम मुझे मार
ही डालो, तुम
मुझे जहर दे
ही दो।
क्योंकि अगर
तुम मुझे जहर
दे देते हो, तो याद रखना
मैं कभी न
मरूंगा। और
तुम्हारे जहर
के कारण मैं
सदा के लिए
अमर हो
जाऊंगा। और तुम्हें
भी लोग अगर
याद करेंगे तो
सिर्फ इसीलिए तुम्हारा
नाम याद रहेगा
कि तुमने
सुकरात को जहर
दिया था।
तुम्हारा
पूछने वाला भी
कोई और नहीं
होगा। इसी
कारण
तुम्हारा नाम
लिया जाएगा कि
तुमने सुकरात
को जहर दिया था।
लेकिन एक बात
सुकरात ने कहा
कि साफ हो
जानी चाहिए कि
सत्य मुझे
जीवन से भी
ज्यादा प्रिय
है। मेरे लिए
मृत्यु का कोई
मूल्य नहीं है,
सत्य का
मूल्य है।
सत्य के लिए
मैं मृत्यु
स्वीकार कर
सकता हूं।
और जो
सत्य के लिए
मृत्यु
स्वीकार कर
सकता है, वह अमृत को
उपलब्ध हो
जाता है। जब
तक तुम सत्य के
लिए मृत्यु
स्वीकार न कर
सको, तब तक
सत्य का कोई
मूल्य नहीं
है। सत्य जब
परम साध्य है,
जिसके लिए
हम जीवन भी खो
सकते हैं, तभी
सत्य है।
तो
सुकरात जो कह
रहा था, उसको उसने
आचरण में उतार
दिया। सुकरात
मर रहा है, जहर
तैयार किया जा
रहा है। वह जो
जहर तैयार कर रहा
है, वह
धीरे— धीरे
तैयार करता है,
क्योंकि वह
भी सुकरात को
प्रेम करने
लगा है। जेल
में सुकरात था,
वह आदमी ऐसा
था कि उसके
पास जो भी
रहता, वह
उसे प्रेम
करने लगता।
जेलर भी उसको
प्रेम करने
लगा। वह धीरे—
धीरे पीस रहा
है जहर को, ताकि
जितनी देर
सुकरात जी सके,
उतना अच्छा
है। जितनी देर
पृथ्वी पर ऐसा
फूल खिला रह
जाए, उतना
अच्छा है।
तो
सुकरात उससे
कहता है, लेकिन तू
देर लगा रहा
है, तू
अपने कर्तव्य
से स्तुत हो
रहा है। मालूम
होता है तू
मेरे प्रति
लगाव और आसक्ति
से भर गया है।
यह उचित नहीं
है, तेरा
जो काम है, तू
पूरा कर।
जल्दी जहर
तैयार कर, छह
बजने के करीब
हो गए और ठीक
छह बजे तुझे
जहर ले आना
है। तो वह जहर
पीसने वाला
कहता है, तुम
कैसे पागल हो
सुकरात! मैं
थोड़ी देर लगा
रहा हूं कि
तुम थोड़ी देर
और जी लो! और
तुम्हें इतनी
जल्दी क्या है?
तो
सुकरात कहता
है, जीवन
तो मैंने जान
लिया, मृत्यु
को जानने का
मन है। सुकरात
है खोजी। ऐसा
खोजी जमीन पर
दूसरा नहीं
हुआ। सुकरात
कोई भक्त नहीं
है। सुकरात है
खोजी, अन्वेषक।
वह कहता है कि
मृत्यु के साथ
आंखें मिलाने
का मन है।
मृत्यु को
देखना चाहता
हूं मृत्यु
कैसी है? कोई
कहता है, सुकरात
तुम घबरा नहीं
रहे हो? मौत
करीब है, तुम
घबरा नहीं रहे
हो? तो
सुकरात कहता
है, कि
मुझे पता नहीं
कि मैं बचूंगा
या नहीं, इसलिए
घबराने का कोई
कारण नहीं है।
अगर मुझे पता
हो कि मैं
बचूंगा, तब
भी घबराने का
कोई कारण नहीं
है; क्योंकि
मैं बचूंगा।
और अगर मुझे
पता हो कि मैं
बचूंगा नहीं,
तब तो
घबराने की कोई
बात ही नहीं
है, क्योंकि
जो बचेगा ही
नहीं, वह
घबराएगा क्या?
और मुझे कुछ
पता नहीं, मैं
अपनी मृत्यु
में प्रवेश
करूंगा और
जानूंगा।
सुकरात कहता
है, जो
मुझे पता नहीं,
उसके संबंध
में मैं कुछ
भी न कहूंगा।
ज्ञान
की ऐसी सहज
खोज
पक्षपात—रहित
बडी मुश्किल
है। मीरा का
भाव है, जीसस का भाव
है, सुकरात
की खोज है।
सुकरात कहता है,
मुझे पता नहीं
है। ध्यान रहे,
आपको अगर भरोसा
है कि आत्मा
अमर है, तो
निर्भय मरना
आसान है।
लेकिन सुकरात
की निर्भयता
अनूठी है। वह
कहता है कि
मुझे पता नहीं
कि आत्मा अमर
है, यह तो
मैं मर कर ही
जानूंगा।
इसके पहले
जाना कैसे जा
सकता है! मैं
तो गुजरूंगा
अनुभव से और जानूंगा।
अगर मर जाऊंगा,
तब तो डर का
कोई कारण ही
नहीं है; क्योंकि
मर ही गया, डरेगा
कौन? दुखी
कौन होगा? पीड़ित
कौन होगा? अगर
बचूंगा, तब
भी डर का कोई
कारण नहीं, क्योंकि बच
ही गया। तो
सुकरात कहता
है, दोनों
हालत में
मृत्यु से
डरना फिजूल
है। अगर तुम
आस्तिक हो, तो भी फिजूल
है, क्योंकि
तुम बचोगे।
अगर तुम
नास्तिक हो, तो भी फिजूल
है, क्योंकि
तुम बचोगे ही
नहीं। तो
किसके लिए चिंता?
किसके लिए
दुख?
फिर
उसे जहर ले कर
आया देने वाला, तो उसका
हाथ कांप रहा
है। सुकरात
जैसे आदमी को
जहर देने में
हाथ कंपेगा
ही। तो सुकरात
कहता है कि
हाथ कंपना
नहीं चाहिए, तुम जो कर
रहे हो, उसे
निष्कंप करो।
हाथ मत कंपाओ।
क्योंकि जब
मैं नहीं डर
रहा हूं मरने
से, तो तुम
क्यों डर रहे
हो? मेरी
तरफ देखो!
सुकरात का है,
लेकिन अपने
हाथ में जहर
का प्याला
लेता है, तो
हाथ कंपता
नहीं। वह जहर
पी लेता है, वह लेट जाता
है। उसके सारे
शिष्य रो रहे
हैं। तो वह
कहता है, रोओ
मत, क्योंकि
अभी तो मैं
जिंदा हूं।
रोना तो तुम
पीछे भी कर
सकते हो, इतनी
जल्दी क्या है?
अभी तो यह
मृत्यु मेरे
ऊपर आ रही है, उसका तुम
दर्शन कर लो, शायद इससे
तुम्हें कुछ
बोध हो।
और फिर
सुकरात बोलता
जाता है कि
मेरे पैर ठंडे
पड गए, लगता
है पैर मर गए।
फिर मेरी
जांघें ठंडी
हो गईं, लगता
है मेरी
जांघें मर
गईं। वह कहता
जाता है कि
मृत्यु ऊपर की
तरफ सरक रही
है, लेकिन
एक आश्चर्य है
कि मेरा अपना
होने का भाव
पूरा का पूरा
है। आधा शरीर
जड़ हो गया है, लेकिन मेरे
होने का भाव
अब भी पूरा का
पूरा है।
उसमें से
रत्ती भर नहीं
कटा। मैं अब
भी अपने भीतर
अपने को उतना
ही अनुभव करता
हूं जितना पहले
अनुभव करता
था। फिर उसके
हाथ भी ढीले
पड़ गए। फिर वह
कहता है, अब
मेरे हृदय की
धड़कन भी डूबती
जाती है। फिर
वह कहता है कि
मेरे ओंठ
शिथिल होते जा
रहे हैं, शायद
अब मैं इसके
आगे न बोल
सकूंगा।
इसलिए आखिरी
वचन मेरा याद
रखना कि अभी
तक मैं पूरा
का पूरा जिंदा
हूं। इसलिए
लगता है कि जब
पूरा शरीर भी......जब
इतना शरीर
मरने के करीब
हो गया है और
मैं पूरा का
पूरा हूं तो
शायद पूरे
शरीर के मरने
के बाद भी मैं
नहीं मरूंगा।
लेकिन यह भी
अभी खोज है, अभी मैं कुछ
कह नहीं सकता।
यह अलग
तरह का
व्यक्तित्व
है। और इनको
तौलना मत।
इन्हें
छोटा—बड़ा करने
की कोशिश भी
मत करना। वह
क्षुद्र मन के
लक्षण हैं। ये
सब अलग शिखर
हैं। हिमालय
पर बहुत शिखर
हैं, हर
शिखर का अपना
सौंदर्य है।
मनुष्य चेतना
में भी बहुत
शिखर उठते हैं,
हर शिखर का
अपना सौंदर्य
है। और अच्छा
ही है कि एक से
शिखर नहीं हैं,
नहीं तो ऊब
और बोरियत
पैदा हो जाए।
बहुत सी मीराए
हों, तो
कोई मतलब की
नहीं रह
जाएंगी। और
बहुत प्रहलाद
हों, गांव—गांव
में हों, तो
वह कूड़े— करकट
की तरह हो
जाएंगे। बहुत
सुकरात चाहिए
भी नहीं। और
हर आदमी को
खयाल रखना चाहिए
कि वह स्वयं
होने को पैदा
हुआ है। और
जिस दिन वह
शिखर को छुएगा,
तो उस जैसा
आदमी न पहले
कभी हुआ है, न फिर कभी
होगा। वह
अनूठी घटना
है।
जगत
मौलिक को
प्रेम करता
है। उधार, कार्बन—कापियां,
उनका जगत
में कोई मूल्य
नहीं है।
एक और
मित्र ने पूछा
है कि कल
नव—संन्यास
अंतर्राष्ट्रीय
की बैठक में
वक्तव्य दिया
गया कि हमारा
भरोसा फ्री
सेक्स, स्वतंत्र
यौन में है।
क्या आप इससे
सहमत हैं?
मेरा
भरोसा न तो
स्वतंत्र यौन
में है और न
परतंत्र यौन
में है। इस
तरह के भरोसे
की कोई जरूरत
भी नहीं है।
यौन निजी और
व्यक्तिगत
बात है, उसके संबंध
में कोई भी
दृष्टिकोण
रखना ओछे मन का
सबूत है। आप
नहीं पूछते कि
भोजन के संबंध
में आपका क्या
दृष्टिकोण है?
स्नान के
संबंध में
आपका क्या
दृष्टिकोण है?
स्वतंत्र
स्नान कि
परतंत्र
स्नान? पूछेंगे
तो आप भी
लगेंगे कि मूढ़
हैं। यौन के संबंध
में क्यों
पूछते हैं? निजी बात
है। एकदम निजी
है। किसी के
दृष्टिकोण का
कोई सवाल नहीं
है। समाज है
परतंत्र यौन में
भरोसा रखने
वाला, कि
यौन के चारों
तरफ से दीवाल
खड़ी करो, कानून
खड़े करो, पुलिस
और अदालत खड़ी
करो। यौन के
संबंध में व्यक्ति
को स्वयं का
निर्णय मत
लेने दो। इसके
विपरीत, इसकी
प्रतिक्रिया
में, इसके रिएक्शन
में कुछ लोग
हैं। वे कहते
हैं, स्वतंत्र
यौन चाहिए, कोई बाधा न
डाल सके। कोई
किसी तरह का
नियम न बना
सके। स्वच्छंदता
चाहिए। यह
प्रतिक्रिया
है दूसरी भी।
और दूसरी अति
पर ले जाती
है।
मेरी
अपनी दृष्टि
यही है कि
हमें यौन को
स्वाभाविक
मानना चाहिए।
और उसके संबंध
में कोई दृष्टि
नहीं लेनी
चाहिए।
दृष्टि लेते
ही सब चीजें
अस्वाभाविक
हो जाती हैं।
एक—एक व्यक्ति
की अपनी समझ, अपने
जीवन का
भाव—बोध
मार्गदर्शक
बनना चाहिए।
और मैं
छोटी—छोटी बातों
में
मार्गदर्शन
नहीं देता।
क्योंकि मेरी
मान्यता ऐसी
है कि अगर
आपके पास
बुद्धि हो, ध्यान हो, थोड़ी
प्रज्ञा का
विस्तार हो, तो अपनी
छोटी—छोटी बातों
के संबंध में
आप खुद ही
निर्णय ले
सकेंगे। और
अगर एक—एक बात
के संबंध में
आप मेरे
निर्णय पर
निर्भर हैं, तो उसका
अर्थ हुआ कि
आपको मैं अंधे
की तरह हाथ पकड़
कर सहारा दे
रहा हूं। मैं
कब तक सहारा
दे सकता हूं? कौन आपको
सहारा दे सकता
है?
एक
अंधा आदमी
मेरे पास आता
है और वह पूछता
है कि रास्ता
बाएं की तरफ
है कि दाएं की
तरफ है? मैं स्टेशन
की तरफ जाऊं, तो कहां
मुडूं? और
नदी की तरफ
जाऊं तो कहां
मुडूं? अगर
मैं उसको यह
सब विस्तार
में
मार्गदर्शन दूं
तो भी वह अंधा
ही रहेगा। और
हो सकता है कि
कुछ रास्तों
पर मजबूती से
चलना सीख जाए।
लेकिन जगत में
बहुत रास्ते
हैं, और
रास्ते रोज
बदल जाते हैं।
कभी नदी जाना
है, कभी
स्टेशन जाना
है, और कभी
इस गांव में
और कभी किसी
दूसरे गांव में।
रोज
परिस्थितियां
बदलती हैं, रोज रास्ते
बदलते हैं, रोज गांव
बदल जाते हैं।
तो मैं अंधे
को कहूंगा कि
तू रास्ते
मुझसे मत पूछ,
तू मुझसे आंख
का इलाज पूछ।
तेरी आंख ठीक
हो जाए, तो
तू कहीं भी
होगा, रास्ता
खोज लेगा।
ध्यान
को मैं आंख
कहता हूं आपके
जीवन की।
मुझसे
क्षुद्र बातों
के संबंध में
मत पूछें।
मुझसे लोग
पूछते हैं, क्या
खाएं? क्या
न पीए? ये
सब व्यर्थ की
बातें मुझसे
मत पूछें।
आपके पास देखने
की खुद की आंख
होनी चाहिए।
वह आपको कहेगी
कि क्या खाएं
और क्या न
खाएं। मेरे
कहने से कुछ
भी न होगा।
अगर मैं कह भी
दूं कि यह मत
खाएं, यह
मत पीए, तो
भी अगर आप
अंधे हैं और
अंधेरे से भरे
हैं और ध्यान
की क्षमता
नहीं है, तो
आप तरकीबें
निकाल लेंगे।
बुद्ध
से लोगों ने
पूछा कि हम
मांसाहार
करें या न
करें? तो
बुद्ध ने कहा
कि हत्या करना,
हिंसा करना
बुरा है, तो
तुम किसी
पशु—पक्षी को
मार कर मत
खाना। तो पता
है आपको, सारे
बौद्ध मांस
खाते हैं, लेकिन
वे कहते हैं, हम मरे हुए
का, अपने
आप मरे हुए का
खाते हैं!
बुद्ध ने कहा,
हिंसा पाप है,
तुम मार कर
कुछ मत खाना।
उसमें से
तरकीब निकाल
ली कि जो गाय
अपने आप ही मर
गई, अब
उसको तो खाने
में कोई हर्ज
नहीं।
क्योंकि बुद्ध
ने यह तो कहा
नहीं कि अपने
आप मरे हुए को
मत खाना।
तो चीन
और जापान में
होटलों पर, जैसे
हिंदुस्तान
में लगा रहता
है, यहां शुद्ध
घी बिकता है।
जहां लिखा है,
उसका मतलब
ही साफ है। घी
काफी है, शुद्ध
होने की क्या
जरूरत है? लेकिन
शुद्ध है तो
साफ ही है कि
शुद्ध नहीं है।
जापान और चीन
में तख्ती लगी
रहती है कि
यहां मरे हुए
जानवर का मांस
मिलता है, अपने
आप मरे हुए!
इतने जानवर
कैसे अपने आप
मरते हैं, यह
बड़ा मुश्किल
है। पूरा
मुल्क
मांसाहार करता
है।
तरकीब
है। तुम निकाल
ही लोगे।
तुम्हें जो
करना है, तुम करोगे
ही। क्योंकि
तुम्हारा जो
अंधेरा है, वहां से
तुम्हारा
करना निकलता
है। उसमें बचने
का कोई बहुत
उपाय नहीं है।
जैन
हैं। तो
महावीर ने कहा
है कि किन्हीं
दिनों में, पर्व और
धर्म के दिनों
में, तुम
हरी शाक—सब्जी,
ताजी
शाक—सब्जी मत
खाना। तो जैनी
सुखा कर रख लेते
हैं पहले से, फिर सूखी
शाक—सब्जी खा
लेते हैं! और
मजे की तो हद
हो गई। एक घर
में मैं
मेहमान था।
पर्यूषण के दिन
थे। तो वे
मुझे केला
देने ले आए।
तो मैंने कहा
कि आप लोग
केला खाते हैं
पर्यूषण में?
पर
उन्होंने कहा,
लेकिन यह तो
हरा नहीं है, पीला है; हरियाली
के लिए मनाई
है!
तुम
महावीर को भी
धोखा दोगे।
तुम धोखा दे
ही सकते हो, तुम और
कुछ कर सकते
नहीं हो। तुम
जैसे हो, वहां
से तुम गलत को
खोज ही लोगे, क्योंकि तुम
गलत हो।
अगर
मैं कहूं
परतंत्र यौन
के पक्ष में
हूं तो तुम
उसमें
तरकीबें
निकालोगे।
अगर मैं कहूं
स्वतंत्र यौन
के पक्ष में
हूं तुम
तत्काल उसमें
तरकीबें
निकालोगे।
लेकिन तरकीब
तुम्हीं निकालोगे।
तो मैं तुमसे
नहीं कहता कि
मैं किस पक्ष
में हूं किस
विपक्ष में
हूं। मैं तो
तुम्हारी आंख
के पक्ष में
हूं।
तुम्हारी आंख
खुलनी चाहिए, तुम्हारा
बोध बढ़ना
चाहिए। फिर
तुम्हारा बोध ही
निर्धारक
होगा, कि
तुम्हें जो
करना हो, तुम
करना।
बोधपूर्वक
करना, जो
भी तुम करो।
होशपूर्वक
करना, विवेकपूर्वक
करना, तुम
जो भी करो। तो
तुम्हारे
जीवन में मार्ग
खुलेगा।
मेरी
बात को ठीक से
समझ लेना। मैं
किसी विस्तार
में
मार्ग—निर्देश
देने के जरा
भी पक्ष में नहीं
हूं। क्योंकि
सभी
मार्ग—निर्देश
अगर विस्तार
में दिए जाएं
तो परतंत्र
करते हैं, क्योंकि
फिर तुम
उन्हें मान कर
चलोगे। और जब
भी कोई चीज
परतंत्र करती
है तो तुम
उसमें से
छूटने का उपाय
भी निकालते
हो। तो तुम
छूटने का उपाय
भी निकाल
लोगे।
तो मैं
तुम्हें न तो
बांधता हूं और
न तुम्हें छूटने
का उपाय
निकालने को
मजबूर करता
हूं। मैं तो
तुम्हें
तुम्हारी आंख
देना चाहता
हूं जो
तुम्हारे
रास्ते को साफ
करेगी। फिर
तुम्हें जैसा
ठीक लगे, तुम चलना।
अगर तुम गलत
चलोगे तो तुम
उसका फल भोगोगे।
और अगर तुम
ठीक चलोगे तो
तुम उसका फल भोगोगे।
अगर तुम्हें
दुख में पड़ना
है तो तुम गलत
चलोगे। फिर
मैं कौन हूं
कि तुम्हें
दुख में पड़ने
से रोकूं।
क्योंकि वह भी
तुम्हारी
स्वतंत्रता
पर बाधा होगी।
फिर अगर तुम
ठीक चलोगे, तो तुम उसका
आनंद भोगोगे।
यह तुम्हारे
ऊपर निर्णय है
कि तुम्हें
साफ—साफ दिखाई
पड़ने लगे कि
कार्य—कारण का
संबंध क्या
है। तुम्हें
साफ—साफ दिखाई
पड़ने लगे कि
मैं क्या करता
हूं उससे दुख
मिलता है। और
क्या करता हूं
उससे आनंद
मिलता है। फिर
तुम्हारा
मार्ग साफ है।
आनंद की खोज
तुम्हारी है।
तुम अपनी
आंख का उपयोग
करके उस मार्ग
पर चलते जाना।
और सदा के लिए
खयाल रखना कि
क्षुद्र बातों
में मुझसे कोई
मार्ग—दर्शन
मत मांगना। और
अगर कोई गुरु
तुम्हें
क्षुद्र बातों
में
मार्ग—दर्शन
देता है, तो
वह गुरु ही
नहीं है। वह सिर्फ
तुम्हें बांध
रहा है और
गुलाम कर रहा
है।
अब हम
सूत्र को लें।
बारहवां
सूत्र, 'पूछो अपने
ही अंतरतम, उस एक से, जीवन
के परम रहस्य
को, जो कि
उसने
तुम्हारे लिए
युगों से छिपा
रखा है।
जीवात्मा की
वासनाओं को
जीत लेने का
बड़ा और कठिन
कार्य युगों
का है। इसलिए
उसके
पुरस्कार को
पाने की आशा
तब तक मत करो, जब तक युगों
के अनुभव
एकत्रित न हो
जाएं। जब इस
बारहवें नियम
को सीखने का
समय आता है, तब मानव
मानवेतर
(अतिमानव)
अवस्था की
डचोढी पर
पहुंच जाता
है।’
'जो
ज्ञान अब
तुम्हें
प्राप्त हुआ
है, वह इसी
कारण तुम्हें
मिला है कि तुम्हारी
आत्मा सभी
शुद्ध
आत्माओं से एक
है और उस परम
तत्व से एक
है। यह ज्ञान
तुम्हारे पास
उस सर्वोच्च
की धरोहर है।
इसमें यदि तुम
विश्वासघात
करो, या उस
ज्ञान का
दुरुपयोग करो,
या उसकी
अवहेलना करो,
तो अब भी
संभव है कि
तुम जिस उच्च
पद पर पहुंच चुके
हो, उससे
नीचे गिर पड़ो।
बड़े पहुंचे
हुए लोग भी
अपने दायित्व का
भार न सम्हाल
सकने के कारण
और आगे न बढ़
सकने के कारण
डचोढी से गिर
पड़ते हैं और
पिछड़ जाते हैं।
इसलिए इस क्षण
के प्रति
श्रद्धा और भय
के साथ सजग
रहो और युद्ध
के लिए तैयार
रहो।’
'पूछो
अपने ही
अंतरतम, उस
एक से, जीवन
के परम रहस्य
को, जो कि
उसने
तुम्हारे लिए
युगों से छिपा
रखा है।’
पूछो
पृथ्वी से, पूछो
वायु से, पूछो
आकाश से, जल
से—लेकिन वे
तुमसे बाहर
हैं और
उन्होंने जो
भी छिपा रखा
है, वह
तुमसे बाहर की
घटना है। वे
तुम्हें
बुद्धों के
संबंध में बता
सकेंगे, तीर्थंकरों
के संबंध में,
क्राइस्टों,
कृष्णों के
संबंध में, लेकिन असली
रहस्य तो
तुम्हारे
भीतर ही छिपा
है।
तुम्हारा
अंतरतम अनंत
से यात्रा कर
रहा है। अनंत
उसके अनुभव
हैं। तुम क्या
नहीं रहे हो? तुम कभी
पत्थर थे, कभी
तुम पौधे थे, कभी तुम
पक्षी थे, कभी
तुम पशु थे, कभी तुम
स्त्री थे, कभी तुम
पुरुष थे, कभी
तुम साधु थे
और कभी तुम
चोर थे। ऐसा
कोई भी अनुभव
नहीं है, जो
तुम्हें नहीं
हो चुका है।
ऐसी कोई
अवस्था नहीं
है, जिससे
तुम पार नहीं
हुए हो। तुमने
नर्क भी जाने
हैं, तुमने
स्वर्ग भी।
तुमने दुख भी,
तुमने सुख
भी। तुमने
पीड़ाओं का
संताप झेला है
और
आत्महत्याएं
की हैं। और
तुमने विनाश भी
किया है, हिंसाएं
की हैं। तुमने
सृजन का सुख
भी जाना है।
तुमने जन्म भी
दिया है, तुमने
निर्माण भी
किया है, तुमने
बनाया भी है।
ऐसा कुछ भी
नहीं है, जो
तुमसे न गुजर
गया हो, जिससे
तुम न गुजर गए
हो। तुम्हारे
अंतरतम में वह
धरोहर
सुरक्षित है।
तुमने जो भी
जीया है, और
जो भी जाना है,
और जो भी
किया है, उस
सबका सार
संचित है। उस
सारे अनुभव का
निचोड़
तुम्हारे गहन
में छिपा है।
इससे भी तुम
पूछो, इसको
भी तुम खोलो।
इसके खुलते ही
तुम्हें जीवन
का सारा रहस्य
खुल जाएगा।
क्योंकि तुम
जीवन को जीए
हो, तुम
स्वयं जीवन
हो।
ऐसा
कुछ भी नहीं
है इस जगत में
जो अपरिचित हो
तुम्हें।
लेकिन तुम
भूल— भूल गए
हो। और हर नए
शरीर के साथ
तुमने नया
अहंकार
निर्मित कर
लिया है। और
हर नए अहंकार
के साथ
तुम्हें
विस्मृति हो गई
है अतीत की। तुम्हें
ख्याल नहीं रहा
है कि पीछे क्या
हुआ। इसलिए तुम
अपनी ही धरोहर
को भूलते चले
गए हो। तुमने
ही जो संचित
किया है, उसका भी तुम
उपयोग नहीं कर
पाते हो। और
इसलिए तुम
बार—बार वही
भूलें
दोहराते हो, जिनको तुम
बहुत बार कर
चुके हो।
महावीर
निरंतर अपने
शिष्यों को
जाति—स्मरण का
आग्रह करते
थे। वे कहते
थे, पहले
तुम पिछले
जन्मों का
स्मरण करो।
उन्होंने इसे
अपनी पद्धति
का आधारभूत
बना रखा था। वे
कहते थे, जब
तक तुम्हें
याद न आ जाए
पिछला जन्म, तब तक तुम
वही भूलें
दोहराओगे, जो
तुम अभी दोहरा
रहे हो।
क्योंकि तुम
भूल ही जाते
हो कि तुम यह
काम कर चुके
हो।
तुमने
बहुत बार धन
इकट्ठा किया
है, यह
कोई पहला मौका
नहीं है। और
बहुत बार धन
इकट्ठा करके
तुम असफल हुए
हो और फिर तुम
वही कर रहे
हो। तुमने
बहुत बार मकान
बनाए हैं और
वे उजड़ गए हैं,
और आज उनका
कोई
नामो—निशान
नहीं है।
लेकिन तुम फिर
बड़े मकान बना
रहे हो और फिर
तुम सोच रहे
हो कि ये मकान
सदा रहेंगे, और जैसे कि
तुम सदा इन
मकानों में
रहोगे! तुमने
पहले भी
स्त्रियों को
और पुरुषों को
प्रेम किया है,
और सब प्रेम
व्यर्थ गए हैं,
और तुमने
कुछ उपलब्ध
नहीं किया है।
लेकिन तुम फिर
वही कर रहे हो
और तुम सोच
रहे हो जैसे
जीवन की संपदा
स्त्री—पुरुषों
के संबंध से
उपलब्ध हो
जाएगी! तुमने
पहले भी बच्चे
पैदा किए हैं,
तुमने पहले
भी उन्हें बड़ी
महत्वाकांक्षा
से बड़ा किया
था और वे सब
व्यर्थ गए।
उन्होंने तुम्हें
कभी तृप्त
नहीं किया है।
क्योंकि जो
स्वयं को
तृप्त नहीं कर
पाता, उसे
कोई दूसरा
कैसे तृप्त कर
सकेगा? लेकिन
तुम फिर—फिर
वही कर रहे हो!
तुम चक्के की
तरह घूम रहे
हो, जिसके
आरे बार—बार
नीचे जाते हैं
और बार—बार ऊपर
आ जाते हैं, और चाक
घूमता चला
जाता है। हर
बार जब
तुम्हारा कोई
आरा ऊपर आता
है, तो तुम
सोचते हो कि
कोई नई घटना
घट रही है।
लेकिन तुम
अनंत बार उन
घटनाओं से
गुजर चुके हो।
तो
महावीर कहते
थे कि तुम
पीछे लौट जाओ, थोड़ा
स्मरण कर लो
अपने पिछले
जन्मों का। तो
फिर तुम उन
भूलों को
दोबारा न
दोहराओगे। तब
तुम समझोगे कि
तुम जो कर रहे
हो, वह
पुनरुक्ति
है।
पुनरुक्ति
व्यर्थ है, उसका कोई
अर्थ नहीं है।
लेकिन
तुम्हारे
भीतर सब छिपा
है। सब छिपा
है, कुछ
भी खोता नहीं।
जो भी
तुम्हारे
ज्ञान में एक
बार आ गया है, वह तुम्हारा
हिस्सा हो गया
है। यह तो है
ही, इससे
भी बड़ी चीज
तुम्हारे
भीतर छिपी है,
और वह है इस
जगत का
प्रारंभ।
क्योंकि तुम
प्रारंभ में
साक्षी थे। यह
सृष्टि जब
शुरू हुई, तब
तुम साक्षी थे,
क्योंकि
तुम कभी शुरू
नहीं हुए। तुम
उसका हिस्सा
हो, जो कभी
शुरू नहीं
होता।
सृष्टियां
बनती हैं और
विलीन हो जाती
हैं।
सृष्टियां
आती हैं, समाप्त
हो जाती हैं।
लेकिन तुम उस
चैतन्य के हिस्से
हो, तुम उस
चैतन्य की
किरण हो, जो
सृष्टि के
बनने के क्षण
में मौजूद
होती है, जो
सृष्टि को
बनाती है कहना
चाहिए। और जब
सृष्टि
विसर्जित
होती है, तब
भी साक्षी
होता है।
चैतन्य कभी
नष्ट नहीं होता।
उस परम—चैतन्य
के तुम हिस्से
हो। तुम्हें
सृष्टि के
जन्म का क्षण
भी मालूम है
क्योंकि
तुमने ही इसे
जन्म दिया है,
तुम
भागीदार थे।
वह तुम्हारे
गहरे अंतरतम
में छिपी है
घटना। तुम
लोगों से
पूछते फिरते
हो कि जगत को
किसने बनाया
है? तुम्हें
पता ही नहीं
कि तुम भी
भागीदार हो
जगत को बनाने
में।
लेकिन
यह तो तुम
भीतर प्रवेश
करोगे, तो ही जान
सकोगे।
तुम्हारे
भीतर जगत का
अंत भी छिपा
है। क्योंकि
यह कथा तुमने
ही लिखी है। इस
कहानी के
निर्माता तुम्हीं
हो। इस सारी
लीला के तुम
भागीदार हो।
यह परम गुह्य
रहस्य भी
तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। तुम
मृत्यु से
भयभीत होते हो,
क्योंकि तुम्हें
पता नहीं कि
तुम्हारे
भीतर अमृत का
केंद्र है।
तुम डरते हो, कंपते हो
क्षुद्र बातों
से, जब कि
कुछ भी
तुम्हें कंपा
नहीं सकता, कुछ भी
तुम्हें डरा
नहीं सकता, क्योंकि कुछ
भी तुम्हें
मिटा नहीं
सकता। लेकिन
वह तुम्हारे
भीतर छिपा है।
यह
सूत्र कहता है, ' पूछो
अपने ही
अंतरतम, उस
एक से, जीवन
के परम रहस्य
को, जो कि
उसने
तुम्हारे लिए
युगों से छिपा
रखा है।’
अपने
से ही पूछो।
महर्षि
रमण अपनी साधना—पद्धति
को इस एक
सूत्र पर ही
खड़ा किए थे। वे
कहते थे कि एक
ही साधना है
कि पूछो, मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
वे कहते थे,
सारी शक्ति
लगा कर, सारी
प्राण—ऊर्जा
को समर्पित
करके, रोआं—रोआं,
श्वास—श्वास
एक ही सवाल
भीतर पूछे, मैं कौन हूं?
और पूछते ही
चले जाओ और
उत्तर मत देना,
क्योंकि
तुम्हारे दिए
उत्तर सब झूठे
होंगे। उत्तर
को आने देना, तुम मत देना,
क्योंकि
तुम बहुत
जल्दी उत्तर
दे देते हो।
तुम्हारे
जल्दी में दिए
गए उत्तर सब
झूठे होते हैं,
क्योंकि
तुम्हारे
उत्तर प्रश्न
के पहले ही तुम्हें
खयाल में हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, हम
पूछते हैं, मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
फिर उत्तर
आता है कि मैं
आत्मा हूं मैं
परमब्रह्म
हूं।
इतनी
जल्दी नहीं
आता। यह किसी
किताब में
तुमने पढ़ा है, यह किसी
शास्त्र से
तुमने सीखा
है। और यह तो तुम्हें
पूछने के पहले
ही पता है! बड़ा
मजा यह है।
फिर पूछने की
जरूरत ही नहीं
है। तुम पूछ
क्यों रहे हो?
किससे पूछ
रहे हो? यह
तुम्हें
मालूम ही है
कि मैं आत्मा
हूं! पूछना
क्या है अगर
मालूम है!
नहीं, तुम्हारी
स्मृति से दिए
उत्तर काम के
न होंगे।
तुम्हारी
खोपड़ी से आए
उत्तर काम के
न होंगे।
तुम्हारे अंतरतम
से उत्तर आएगा,
वह बहुत
भिन्न है। वह
तुम्हें
सुनाई पड़ेगा
कि कोई और बोल
रहा है, तुम
नहीं। यह फर्क
साफ होगा। पूछ
रहे हो तुम, बोल रहा है
कोई और। वह
वाणी
तुम्हारी
नहीं होगी, वे शब्द
तुम्हारे
नहीं होंगे, वह ध्वनि
तुम्हारी
नहीं होगी। वह
सब तरफ से अपरिचित
होगा।
इसलिए
तो फकीरों ने, सूफियों
ने, भक्तों
ने कहा है कि
हमने पूछा और
परमात्मा ने
उत्तर दिया।
कोई परमात्मा
उत्तर नहीं दे
रहा है।
तुम्हारा
अंतरतम ही
उत्तर देता है,
क्योंकि
वहां तुम ही
परमात्मा हो।
लेकिन वाणी
इतनी अपरिचित
होती है, जो
तुमने कभी
नहीं सुनी।
तुम्हारे
शब्दों से
उसका कोई मेल
नहीं होता, तुम्हारे
ओंठों से उसका
कोई संबंध
नहीं होता।
तुम्हारे कंठ
से वह आती ही
नहीं है।
तुम्हारी
स्मृति, तुम्हारी
बुद्धि से
उसका कोई
लेना—देना
नहीं है। वह
बहुत दूर से
आती मालूम
पड़ती है, बहुत
पार से आती
मालूम पड़ती
है। इसलिए सबको
लगा है कि
किसी और ने
उत्तर दिया
है। कोई और उत्तर
नहीं देता है।
उत्तर तो
तुम्हारी ही
अंतर—आत्मा से
आता है। लेकिन
तुम्हारी
आत्मा तुमसे
इतनी दूर हो
गई है, तुम
इतने दूर हो
गए हो उससे, तुम दूर
हटते—हटते
इतने फासले पर
आ गए हो, कि
अपना ही उत्तर,
किसी और का
उत्तर मालूम
पड़ता है।
पूछना, मैं कौन
हूं? लेकिन
उत्तर मत
देना। अपनी
सारी शक्ति
पूछने में
लगाना, उत्तर
के लिए जरा भी
मत बचाना।
क्योंकि
तुम्हारे
उत्तर का कोई
मूल्य नहीं
है। तुम्हारा
उत्तर या तो
पढ़ा हुआ होगा,
या सुना हुआ
होगा, ऋषियों—मुनियों
से, शास्त्रों
से, संस्कारों
से आया हुआ
होगा। वह
तुम्हारे ऊपर
बाहर से आई
धूल है, उसका
कोई मूल्य
नहीं है। तुम
तो पूछना इस
तरह कि
तुम्हारे पास
उत्तर ही न
बचे।
तुम्हारे
पूछने की
प्रक्रिया
में तुम्हारे सब
उत्तर गिर
जाएं और सिर्फ
प्रश्न रह
जाए। और जिस
दिन तुम्हारे
पास सिर्फ
प्रश्न होगा, उस दिन
तुम्हारा
प्रश्न तीर की
तरह भीतर जाने
लगेगा।
क्योंकि जब
उत्तर रोकने
के लिए न होंगे
परिधि पर, तब
तुम भीतर की
तरफ यात्रा
करोगे।
इसलिए
परम—ज्ञान के
पहले सभी
ज्ञान छोड़
देना पड़ता
है—ज्ञान जो
तुमने सीखा
है। इसलिए परम
ज्ञान घटित हो
सके, उसके
पहले सभी
शास्त्र नदी
में बहा देने
पड़ते हैं। सभी
बोझ उतार कर
रख देने पड़ते
हैं, सभी
सिद्धांतो से
छुटकारा पा
लेना पड़ता है।
क्योंकि जो भी
बाहर से आया
है, वह
तुम्हें भीतर
नहीं ले जा
सकता।
अगर
तुम एक शुद्ध
प्रश्न पूछने
में समर्थ हो
जाओ और
तुम्हारा
पूरा प्राण
नियोजित हो जाए
उस प्रश्न में, कि मैं
कौन हूं? और
उत्तर देने की
कोई जल्दी न
रहे, कोई
भाव ही न रहे; बल्कि यह
साफ रहे कि
उत्तर मुझे
पता ही नहीं, उत्तर मैं
दूंगा कैसे!
तो तुम एक दिन
पाओगे कि तुम्हारा
प्रश्न
तुम्हें
अंतरतम की तरफ
ले चला। वह
नाव बन गया और
तुम भीतर की
यात्रा पर
निकल पड़े। एक
घड़ी ऐसी आएगी
कि पूछते—पूछते—पूछते
एक दिन प्रश्न
भी गिर जाएगा।
क्योंकि जिस
परिधि के
उत्तर व्यर्थ
हैं, उसका
प्रश्न भी
सार्थक नहीं
हो सकता।
यह
थोड़ा जटिल है।
जिस परिधि के
उत्तर व्यर्थ
हैं, उसका
प्रश्न भी
क्या सार्थक
होगा?
लेकिन
पहले उत्तर
गिरेंगे, पहले
तुम्हारा
ज्ञान गिरेगा
और तुम
अज्ञानी हो
जाओगे।
अज्ञान में
प्रश्न बचेगा,
उत्तर नहीं
बचेंगे। फिर
तुम्हारा
अज्ञान भी गिरेगा,
तुम्हारा
प्रश्न भी गिर
जाएगा।
पूछते—पूछते एक
घड़ी आती है, सब उत्तर
गिर जाने के
बाद, अचानक
एक दिन प्रश्न
भी तुम्हारे
भीतर नहीं
उठता। तुम
बनाना भी
चाहते हो
प्रश्न, लेकिन
नहीं बनता; तुम शून्य
हो जाते हो।
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
पूछते—पूछते
शून्यता फलित
हो जाती है।
उसी शून्य में
पहली बार
तुम्हारी
अंतर—वाणी
प्रकट होगी और
तुम्हें
उत्तर सुनाई
पड़ेगा।
यह बड़ी
उलटी बात हो
गई। जब तक तुम पूछोगे, तब तक
उत्तर नहीं
मिलेगा। जब
पूछना भी गिर
जाएगा, तब
उत्तर
मिलेगा।
लेकिन तुम यह
मत कहना, तो
फिर पूछने की
जरूरत क्या है?
अभी हम आंख
बंद करके बैठ
जाते हैं, उत्तर
मिल जाए! अभी
तो तुम कितना
ही कहो कि मैं नहीं
पूछ रहा हूं
तुम पूछ ही
रहे हो। अभी
नहीं होगा। परिधि
से हटने में
प्रश्न
सहयोगी हैं।
ठीक
ऐसा ही जैसे
एक कांटा गड़
जाए तो हम
दूसरे कांटे
से उसे निकाल
लेते हैं। फिर
दूसरे कांटे का
आप क्या करते
हैं? उसको
घाव में रख
लेते हैं
पुराने? उसको
भी फेंक देते
हैं। अभी आपका
मन बहुत से उत्तर
से भर गया है, इसलिए रमण
कहते हैं, पूछो।
यह पूछने के
कांटे से
ज्ञान का
कांटा निकाल
बाहर करो। फिर
दूसरे कांटे
का क्या करोगे?
बड़ा सहारा
दिया उसने, ज्ञान से
छुटकारा
दिलाया, सम्हाल
कर रखोगे? जब
ज्ञान से
छुटकारा ही हो
गया, तो
अज्ञान को
क्या सम्हाल
कर रखोगे? जो
आदमी ज्ञान तक
को छोड़ने में
राजी हो गया, उसको अज्ञान
पकड़ने का मोह
होगा? जो
उत्तर छोड़ सका,
कि मैं
आत्मा हूं —
ब्रह्म हूं
फला—ढिकां, अहं
ब्रह्मास्मि;
इस सब कचरे
को जो फेंक
सका, वह
क्या इस
प्रश्न को कि
मैं कौन हूं
इसको पकड़े
रखेगा? एक
घड़ी आएगी, वह
इसको भी छोड़
देगा। दोनों
कांटे हट
जाएंगे।
ज्ञान
भी कांटा है, अज्ञान
भी कांटा है।
और जब ज्ञान, अज्ञान
दोनों नहीं
होते, तो
परम—ज्ञान
उपलब्ध होता
है, तो
प्रज्ञा
प्रस्कुटित
होती है। तब
तुम जानोगे कि
मैं ब्रह्म
हूं। लेकिन तब
तुम जानोगे, अनुभव
करोगे; यह
तुम्हारी
प्रतीति होगी,
यह
तुम्हारा
साक्षात्कार होगा।
यह
साक्षात्कार
तुम्हारा निज
का होगा। अब
तुम यह किसी
से सुन कर
नहीं कह रहे
हो। अब यह तुम
अपने ही अनुभव
से कह रहे हो।
अब दुनिया की
सारी ताकत भी
तुमसे इस
अनुभव को नहीं
छीन सकती।
वह जो
पहला
तुम्हारा
ज्ञान था कि
मैं ब्रह्म हूं
वह तो कोई
छोटा बच्चा भी
सवाल उठाता, तो
तुम्हें
दिक्कत में
डाल देता। वह
तो यह कह सकता
था, अच्छा
तो तुम ब्रह्म
हो, तो यह
पत्थर का
टुकड़ा है, इसको
तुम समाप्त कर
दो! बस तुम
मुश्किल में
पड़ जाते, तुम्हारा
ज्ञान झंझट
में आ जाता।
वह कह देता है
कि अभी मौसम
नहीं है फूल
का, इस
वृक्ष पर फूल
ला दो— ब्रह्म
हो।
एक जैन
मुनि हैं, मेरे पास
आते हैं। उनकी
बेचारों की एक
ही तकलीफ है।
उनको यह खयाल
है कि उनको
परम—ज्ञान हो
चुका है, कैवल्य
की उपलब्धि हो
गई है। लेकिन
एक झंझट है।
क्योंकि जैन—
शास्त्रों
में कहा गया
है कि जिसको
कैवल्य—ज्ञान
होता है, वह
त्रिकालज्ञ हो
जाता है, उसको
तीनों काल का
ज्ञान हो जाता
है। तो उनबूढ़ो
कोई भी दिक्कत
में डाल देता
है। वह कहते
हैं कि मुझे
कैवल्य— ज्ञान
हो गया। तो वे
कहते हैं कि
तीनों काल का
ज्ञान? तो
वह मेरे पास
आते हैं कि यह
एक बड़ी झंझट
है। क्या
कैवल्य—ज्ञान
में तीनों
कालों का
ज्ञान बिलकुल
जरूरी है? क्या
बिना
त्रिकालज्ञ
हुए कोई
कैवल्य—ज्ञानी
नहीं हो सकता?
मैं
कैवल्य—ज्ञानी
तो हो गया हूं
लेकिन लोग मुझे
दिक्कत में
डाल देते हैं।
वे कहते हैं
कि अच्छा
कैवल्य—ज्ञानी,
तो हमारी
मुट्ठी बंद है,
उसके भीतर
क्या है? इसमें
मैं झंझट में
पड़ जाता हूं।
तो आप कुछ ऐसा
समझाइए कि
कैवल्य—ज्ञान
हो सकता है, त्रिकालज्ञ
होने की कोई
जरूरत नहीं।
अब यह
शास्त्र में
पढ़ कर उनको
कैवल्य—ज्ञान
हो गया है! और
उसी शास्त्र
में पढ़ कर हुआ
है, जिसमें
त्रिकालज्ञ
होना भी लिखा
है। अब वह उसको
झुठला भी नहीं
सकते। तो मैं
उनको कहता हूं
कि तुम बेहतर
हो कि अपने को
अज्ञानी
समझो। अभी
जल्दी मत करो
यह
कैवल्य—ज्ञान
की। क्योंकि जिस
दिन तुम्हें
कैवल्य—ज्ञान
होगा, उस
दिन तुम मुझसे
गवाही लेने
नहीं आओगे, मुझसे
सर्टिफिकेट
लेने नहीं
आओगे, कि
लिख दें आप कि
इनको
कैवल्य—ज्ञान
हो गया है और त्रिकालज्ञ
होने की कोई
जरूरत नहीं
है। यह तो
तुम्हें
कैवल्य—ज्ञान
होगा, जब
यह तुम्हारी
प्रतीति होगी,
तो ये सब
बातें नहीं रह
जाएंगी। अगर
तुमको कैवल्य—ज्ञान
हो जाएगा बिना
त्रिकालज्ञ
हुए, तो
तुम कहोगे कि
ठीक है, त्रिकालज्ञ
मैं नहीं हूं
मुझे
कैवल्य—ज्ञान
हो गया है। लेकिन
दूसरे को कहने
की जरूरत क्या
है? दूसरे
को राजी करने
की जरूरत क्या
है? उसको
राजी करना
चाहोगे तो वह
भी सवाल
उठाएगा, वह
भी तर्क
उठाएगा। फिर
उनके जवाब भी
देने पड़ेंगे,
फिर
मुश्किलें
खड़ी होती हैं।
अक्सर
जिनके दिमाग
थोड़े खराब हैं, उनको
कैवल्य—ज्ञान,
ब्रह्म—ज्ञान
बडे जल्दी हो
जाते हैं। देर
ही नहीं लगती।
वह सिर्फ पागलपन
के लक्षण हैं,
उनका इलाज
होना चाहिए।
उनको मानसिक
चिकित्सालय
में रखे जाने
की जरूरत है।
उनको जो वहम
हो रहा है, वह
सिर्फ अहंकार
की वजह से हो
रहा है।
यह
सूत्र कहता है, 'जीवात्मा
की वासनाओं को
जीत लेने का
बड़ा और कठिन
कार्य युगों
का है।’ यह
कोई एक क्षण
में नहीं हो
जाता। अभी
मेरे पास अनेक
लोग आ जाते
हैं, वे
कहते हैं कि
हमारी
कुंडलिनी जग
गई है! कोई देवी
ने हाथ लगा
दिया और
कुंडलिनी जग
गई! और क्या
हुआ? वे
कहते हैं, और
कुछ नहीं हुआ,
बाकी सब
वैसा का वैसा
है। अभी एक
देवी हैं बंबई
में, वे
दस—पच्चीस लोग, जितने उनके
पास जाते हैं,
सभी
एनलाइटेंड हो
गए! पच्चीस के
करीब आदमियों को
बुद्ध बना
दिया
उन्होंने, एकदम!
और वे जो
बुद्ध बन गए
हैं, उनसे
पूछो कि और
क्या हुआ? वे
कहते हैं, और
कुछ नहीं हुआ,
बस बुद्ध बन
गए! क्योंकि
उन्होंने कहा
है कि तुम्हें
परम—ज्ञान हो
गया है।
आदमी
सस्ते के लिए
इतना उत्सुक
है और कोई कह दे, इसकी
कोशिश में
रहता है कि
तुम्हें यह हो
गया, वह हो
गया! वह मान
लेता है, वह
मानना ही
चाहता है।
जीवन इतना
सस्ता नहीं है।
वहां युगों की
तपश्चर्या है,
युगों का
श्रम है, युगों
की भटकन है, तभी कुछ
थोड़ा—बहुत हाथ
में आता है।
वह भी थोड़ा—बहुत।
यह
सूत्र कहता है
कि सब कुछ कर
लेने के बाद
भी, डचोढ़ी
पर पहुंचा हुआ
आदमी, परमात्मा
के दरवाजे पर
पहुंचा हुआ
आदमी भी, वापस
गिर सकता है।
थोड़ी
सी भूल, और दरवाजा
जो सामने था, युगों के
लिए खो सकता
है। और जितने
हम करीब
पहुंचते हैं,
उतनी ही भूल
खतरनाक होने
लगती है।
क्योंकि जब आप
मंजिल से बहुत
दूर हैं, तो
भटकाव का
ज्यादा डर
नहीं रहता।
क्योंकि आप इतने
दूर हैं कि
भटकेंगे भी तो
क्या होगा? दूर ज्यादा
और क्या होंगे
इससे, जितने
दूर हैं? जितने
करीब पहुंचते
हैं मंजिल के,
उतना एक—एक
कदम मुश्किल
का हो जाता
है। क्योंकि
अब एक कदम भी
भटके, तो
मंजिल चूक
सकती है।
महंगा सौदा हो
गया। दायित्व
बढ़ जाता है।
बोध ज्यादा
चाहिए। जितने
निकट पहुंचते
हैं, उतनी
ज्यादा
कठिनाई हो
जाती है।
लेकिन लोग बिना
चले ही पहुंच
जाते हैं! कोई
उनको वहम दिला
दे, बस वे
राजी हो जाते
हैं!
अमरीका
में एक सज्जन
हैं। उनके
शिष्य का एक
पत्र मेरे पास
आया कि अनेक
लोगों ने उनको
कह दिया कि वे
सिद्ध हो गए
हैं, और
हिंदुस्तान
से भी दो—तीन ज्ञानियों
ने उनको लिख
कर
सर्टिफिकेट
भेज दिया है
कि वे सिद्ध—
अवस्था को
प्राप्त हो गए
हैं, बस
आपके
सर्टिफिकेट
की और जरूरत
है। क्या पागलपन
है! और
जिन्होंने
लिख कर भेजा
है, उन तक
ने सिद्ध कर
दिया है कि वे
भी अभी सिद्ध
नहीं हैं। कोई
सर्टिफिकेट
का मामला है? किसी से
पूछने की
जरूरत है? कोई
निर्णय देगा
कि तुम पहुंच
गए हो? और
पहुंच कर भी
तुम दूसरे के
निर्णय की
प्रतीक्षा
करोगे?
लेकिन
आदमी बिना कुछ
किए कुछ हो
जाना चाहता है!
और धर्म में
जितनी आसानी
है बिना कुछ
किए हो जाने
की, उतनी
और कहीं भी
नहीं है।
क्योंकि कहीं
भी कुछ करना
ही पड़ेगा, तभी
कुछ हो
पाएंगे। धर्म
में तो ऐसा है
कि आप हो ही
सकते हैं, कोई
अड़चन नहीं है,
कोई कसौटी
नहीं है, कोई
बाधा नहीं डाल
सकता।
ध्यान
रखना इसका, कि
जैसे—जैसे
ध्यान गहरा
होगा, समाधि
करीब आएगी, वैसे—वैसे
उत्तरदायित्व
बढ़ रहा है।
खतरा भी बढ़
रहा है।
क्योंकि पहले
तो कुछ भी भूल
होती, तो
कुछ खास फर्क
न पड़ता था।
भटके इतने थे
कि अब और क्या
भटकना था? दूर
इतने थे कि और
दूरी क्या
होगी? लेकिन
अब तो इंच भर
की भूल, और
हजारों कोस का
फासला हो सकता
है। अब तो जरा सा
दिशा का
परिवर्तन और
भटकाव हो सकता
है। निकट
पहुंच कर बहुत
लोग भटकते हैं
और गिर जाते
हैं। और निकट
पहुंच कर अगर
अहंकार की जरा
सी भी रेखा रह
गई, तो वह
अहंकार भटका
देता है। वह
समाधि के पहले
ही घोषणा कर
देता है कि
समाधि हो गई, ध्यान के
पहले ही घोषणा
कर देता है कि
ध्यान हो गया।
और जब हो ही
गया तो यात्रा
उसी क्षण रुक जाती
है।
'जो
ज्ञान अब
तुम्हें
प्राप्त हुआ
है, वह इसी
कारण तुम्हें
मिला है कि
तुम्हारी
आत्मा सभी
शुद्ध आत्माओं
से एक हो गई है
और उस
परम—तत्व से
एक हो गई है।
यह ज्ञान
तुम्हारे पास
उस सर्वोच्च
(परमात्मा) की
धरोहर है।
इसमें यदि तुम
विश्वासघात
करो, उस
ज्ञान का
दुरुपयोग करो,
या उसकी
अवहेलना करो,
तो अब भी
संभव है कि
तुम जिस उच्च
पद पर पहुंच
चुके हो, उससे
नीचे गिर पड़ो।’
यह मैं
रोज देखता हूं
कि जैसे—जैसे
लोग करीब पहुंचते
हैं, वैसे—वैसे
अहंकार आखिरी
बल मारता है।
कल धन का
अहंकार था, पद का
अहंकार था, फिर वह
ध्यान का
अहंकार हो
जाता है। कि
मैं ध्यानी हो
गया! जैसे ही
यह अहंकार बल
मारता है, वैसे
ही तुम
विश्वासघात
कर रहे हो, वैसे
ही तुम
दुरुपयोग कर
रहे हो, वैसे
ही तुम
अवहेलना कर
रहे हो। और यह
संभव है कि
तुम वापस फेंक
दिए जाओ।
'बडे
पहुंचे हुए
लोग भी अपने
दायित्व का
भार न सम्हाल
सकने के कारण
और आगे न बढ़
सकने के कारण डचोढ़ी
से गिर पड़ते
हैं और पिछड़
जाते हैं।
इसलिए इस क्षण
के प्रति
श्रद्धा और भय
के साथ सजग
रहो और युद्ध
के लिए तैयार
रहो।’
श्रद्धा
और भय के साथ
सजग—इसको थोड़ा
समझ लेना चाहिए।
क्या अर्थ हुआ? श्रद्धा
और भय को एक
साथ क्यों रखा?
श्रद्धा और
भय तो बड़े
विपरीत मालूम
पड़ते हैं। क्योंकि
श्रद्धावान
को कैसा भय? और भयभीत को
कैसी श्रद्धा?
लेकिन
प्रयोजन इनका
महत्वपूर्ण
है। और दोनों
का तालमेल
बिठाने की बात
नहीं है, दो
अलग आयाम में
दोनों की
उपस्थिति है।
श्रद्धा
भविष्य के
प्रति और भय
पीछे गिर जाने
के प्रति।
श्रद्धा आगे
बढ़ने के लिए
और भय कि कहीं
पीछे न गिर
जाऊं। दोनों
का आयाम अलग
है, दोनों
साथ—साथ नहीं
हैं। भय इस
बात का सदा
रखना कि मैं
पीछे अभी भी
गिर सकता हूं।
भय रहेगा तो
तुम सजग
रहोगे। अभी भी
गिर सकता हूं।
अहंकार का
स्वर जहां भी
सुनाई पड़े, भयभीत हो
जाना। अभी तुम
पीछे खींचे जा
सकते हो, अभी
सेतु बिलकुल
नहीं मिट गया,
अभी रास्ता
बना हुआ है
पीछे जाने का।
अभी तुम रास्ते
को पकड़ सकते
हो।
और
श्रद्धा
भविष्य के
प्रति।
भविष्य के
प्रति पूरा
भरोसा। और
अतीत के प्रति
भय, जरा
भी भरोसा
नहीं। अगर ये
दो बातें
तुम्हारे खयाल
में रहें कि
अभी और बहुत
कुछ होने को
है, सब
नहीं हो गया
है, भविष्य
के प्रति यह
बोध। और अतीत
मिट गया है, लेकिन
बिलकुल नहीं
मिट गया है, अभी लौटना
संभव हो सकता
है। रास्ते
कायम हैं। और
जरा सी भूल और
तुम बहुत पीछे
लौट जा सकते
हो।
चढ़ना
बहुत कठिन है, उतरना
कठिन नहीं है।
एक क्षण में
तुम न मालूम कितना
उतर जा सकते
हो, गिर जा
सकते हो। उठने
में युगों लग
जाते हैं। यह
भय है। और भविष्य
के प्रति
परिपूर्ण
आस्था, आशा।
ये दो बातें
खयाल में
रहें।
आज इतना
ही।
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