अंतर—आकाश—(प्रवचन—पांचवां)
प्यारे
ओशो!
ऋचो
अक्षरे परने
व्योमन्
यस्मिन्
देवा अधि
विश्वे
निषेदु:।
यस्तं
न वेदं किमृचा
करिष्यति
य
इत् तद्
विदुस्त इने
समासते।।
जिसमें सब
देवता भली—
भांति स्थित
हैं उसी
अविनाशी परम
व्योम में सब
वेदों का
निवास है। जो
उसे नहीं
जानता वह
वेदों से क्या
निष्कर्ष
निकालेगा? परन्तु
जो जानता है
उसे वह उसी
में से भली—
भांति मिल
जाता है।
प्यारे
ओशो!
श्वेताश्वर
उपनिषद् के इस
सूत्र को
हमारे लिये
खोलने की
अनुकंपा करें।
सत्यार्नद!
यह सूत्र उन
थोड़े से
अद्भुत
सूत्रो में से
एक है जिन्हें
गलत समझना तो
आसान, सही
समझना बहुत
मुश्किल। एक—एक
शब्द की गहराई
में उतरना
जरूरी है। एक—एक
शब्द जैसे
जीवन अनुभव का
निचोड़ है।
हजारों
गुलाबों से
जैसे इत्र की
कुछ बूदें बनें,
ऐसे हजारों
समाधि के
अनुभव इस एक
सूत्र में पिरोए
हुए हैं।
पहले
एक—एक शब्द को
अलग—अलग समझ
लें,
फिर उनकी
माला बना लेना
कठिन न होगा। पहला
शब्द है. ऋचा।
विश्व की किसी
भाषा में ऐसा
शब्द नहीं है।
ऋचा का साधारण
अर्थ तो होता
है कविता, मगर
वह तो कविता
से ही प्रकट
हो जाता है; उसके लिये
ऋचा शब्द की
कोई आवश्यकता
नहीं है।
कविता के
पर्यायवाची
शब्द दुनिया
की सभी भाषाओं
में हैं, संस्कृत
अकेली भाषा है,
जिसमें
कविता के लिये
दो शब्द हैं—कविता
और ऋचा। कविता
वह, जो
मनुष्य
निर्मित करता
है, बांधता
है छंद में, राग में, गीत
में, सौंदर्य
देता है, निखारता
है, रूप
देता है, रंग
देता है।
जैसे
कोई चित्रकार
तितली बनाए :
प्यारे हों रंग, सुन्दर
हो आकृति; अब
उड़ी तब उड़ी
ऐसा लगे—मगर
उड़े कभी भी
नहीं, उड़
सके ही नहीं।
केनवास पर ही
रहेगी न कहीं
आएगी न कहीं
जाएगी। बगीचे
में फूल भी
खिलेंगे तो भी
वह तितली केनवास
पर ही रहेगी।
सूरज भी
निकलेगा, किरणें
संदेश भी
लाएंगी कि चलो
यात्रा पर चलो,
हवाएं भी
आएंगी, शायद
केनवास भी
फड़फड़ाका; लेकिन
तितली के पंख
नहीं खुलेंगे।
नहीं खुल सकते
हैं। वह तो
केवल तसवीर है।
कविता
मात्र आदमी के
द्वारा बनाई
गई तसवीर है।
कितनी ही
प्यारी हो फिर
भी तस्वीर है।
और ऋचा जब
मनुष्य मिट
जाता है। मन
मिट जाता है, तो
मनुष्य मिट
जाता है—मन
नहीं तब ध्यान।
उस ध्यान में
जो उतरता है
आकाश से, अंतरिक्ष
से—वह है ऋचा।
उसके छंद नहीं
बिठाने होते।
उसके बंध नहीं
बिठाने होते।
उसकी
मात्राएं
नहीं जुटानी
होतीं। वह गीत
जीवित, वह
जीवंत काव्य
है। वह बहता
है। जैसे
तितली उड़ती है।
जैसे असली फूल
खिलते हैं। वह
कागज का फूल
नहीं, गुलाब
की झाड़ी पर खिला
फूल है। वह
तसवीर नहीं है
दीए की, सच
में ही दीया
है।
ऋचा
उतरती है
समाधिस्थ
चेतना में।
काव्य है
सौंदर्य की
संवेदनशीलता।
और ऋचा है
परमात्मा को
अपने में से
बहने देना। जब
कोई बांस की
पोगरी की तरह
हो जाता है
शून्य, खाली,
तो बस
परमात्मा के
होंठों पर
बांसुरी बन
जाता है।
इसलिये
कविता तो कवि
की होती है, ऋचा
ऋषि की होती
है। दोनों ही
गाते हैं, दोनों
ही गुनगुनाते
हैं; मगर
दोनों की
गुनगुनाहट के
स्रोत अलग हैं।
ऋषि वह है जो
परमात्मा के
साथ एक हो गया।
उस एकता से जो
आनन्द की
लहरें उठती
हैं, उस
एकता से जो
नृत्य उठता है,
जो पूंघर बज
उठते है—वह है
ऋचा। उस एकता
के बिना
मनुष्य अपने
सौंदर्य—बोध
से, अपने
मन से, जो
निर्मित करता
है—कितना ही
प्रीतिकर हो,
मगर रहेगा
मुर्दा।
परमात्मा के
बनाए बिना
किसी चीज में
कोई जीवन नहीं
होता है। आदमी
केवल लाशें गूढ़
सकता है, मूर्तियां
बना सकता है, लेकिन उनमें
प्राण का
संचरण नहीं कर
सकता, उनमें
श्वास नहीं
फूंक सकता।
ऋचा
है सांस लेती
हुई कविता।
ऋचा है सप्राण
काव्य। कविता
है केवल देह।
जब देह में
आत्मा भी
विराजित होती
है तो ऋचा।
दूसरा शब्द है
: अक्षर।
वर्णमाला को
हम—केवल हम, सारी
पृथ्वी पर, अक्षर से
शुरू करते हैं।’
अ' अक्षर
का प्रतीक है।
अच्छा नहीं
किया लोगों ने
कि अभी कुछ
वर्षों से
वर्णमाला क ख
ग से शुरू
होने लगी। वह
अ से ही शुरू
होनी चाहिये।
अ यानी अक्षर।
अक्षर
परमात्मा का
दूसरा नाम है।
सभी यात्रा
उसी से शुरू
होनी चाहिये।
शब्द की
यात्रा के पहले
कदम में ही
अक्षर की झलक
होनी चाहिये।
इसलिये हमारी
वर्णमाला
अक्षरमाला है।
हम ही हैं
केवल पृथ्वी
पर जो अक्षर
जैसे अनूठे
भाव का प्रयोग
कर रहे है
वर्णमाला के
लिये। और
वर्णमाला की
यात्रा का जो
पहला कदम है, अ, वह
अक्षर का
संकेत है—जिसका
क्षय न हो; जो
कभी झरे न; जो
कभी मिटे न; जो है—सदा था—सदा
रहेगा।
तीसरा
शब्द है :
व्योम। आकाश
ही कहने से चल
जाता। लेकिन
आकाश वह है जो
हमारे बाहर
फैला है। और
व्योम आकाश से
भी बड़ा है। व्योम
का अर्थ है :
बाहर का आकाश + भीतर
का आकाश। एक
तो अस्तित्व
है जो हमारे
बाहर फैलता
चला गया है; कहो संसार, कहो विश्व, ब्रह्मांड।
और एक है
अस्तित्व जो
हमारे भीतर
फैलता चला गया
है। दोनों के
जोड़ का नाम
व्योम है।
व्योम का अर्थ
होता है : जो
सदा ही
विस्तीर्ण होता
चला जा रहा है,
फैलता जा
रहा है, जिसकी
कोई सीमा नहीं
आती। कितना ही
चलो, लेकिन
कभी ऐसा क्षण
न आयेगा कि कह
सको कि बस, अब
आगे और कुछ भी
नहीं है। फिर
भी शेष है।
फिर भी शेष है,
जो सदा शेष
है, कितनी
ही डुबकी मारो,
जिसकी थाह
नहीं मिलती; और कितना ही
विचार करो, जिसका वर्णन
नहीं होता है
और कितने ही
गीत गाओ, जो
अनगाया ही रह
जाता है—उसका
नाम है व्योम।
व्योम में अन्तर
आकाश
सम्मिलित है।
अब
तुम्हें पहली
पंक्ति का
अर्थ समझ में
आ सकता है।
ऋचो अक्षरे
परमे व्योमन्।
ऋचा अविनाशी
परम व्योम में
झरती है। वह
फूल उस अंतर
आकाश में
खिलता है। वह
कमल चैतन्य की
झील में उमगता
है और उस कमल की
गंध ही ऋचा बन
जाती है, वेद
बन जाती है।
वेद से तुम
अर्थ न लेना
उन चार वेदों
का। उनमें तो
निन्यान्नबे
प्रतिशत
व्यर्थ की बातें
हैं। कहीं
भूले, चूके
कोई हीरा मिल
जाये—मिल जाये।
नहीं, तो
सब कंकर—पत्थर
हैं। वेद का
अर्थ होता है
तुम्हारे
भीतर जो जानने
की क्षमता है,
उसका परम
निखार—विद् का
परम निखार।
विद् यानि
ज्ञान, बोध।
बुद्धत्व है,
वेद का अर्थ।
इसलिये बुद्ध
ने चारों
वेदों को
इनकार कर दिया।
क्योंकि जिसे
पांचवां वेद
उपलब्ध हो उसे
चारों को
इनकार करना ही
होगा। उन चार
में जो खो
जाता है वह
पांचवें को
नहीं पाता है।
'यस्मिन देवा
अधि विश्वे
निषेदु:।’
और
इस व्योम में
ही विश्व के
सारे देवताओं
का निवास है।
देवता
शब्द भी समझने
जैसा है, नहीं
तो भ्रांति हो
जाएगी।
क्योंकि
तुमने देवता
शब्द सुना कि
तुमने समझा
श्री गणेशाय
नम—कि गणेश जी,
कि हनुमान
जी, कि
इन्द्र
महाराज, कि
ब्रह्मा—विष्णु—महेश।
इन सबसे देवता
का कोई संबध
नहीं है।
देवता शब्द
बड़ा
वैज्ञानिक
शब्द है।
देवता बनता है,
दिव से। दिव
का अर्थ होता
है प्रकाश।
उसी से दिवस
बना है, दिन!
उसी से
अंग्रेजी का 'डे' बना
है—दिव से।
उसी से
अंग्रेजी का
डिवाइन बना है।
उसी से हिन्दी
का दिव्य बना
है। और तुम
चकित होओगे
जानकर, उसी
से अंग्रेजी का
'डेविल' बना है।
दिव्य भी उसी
से और अदिव्य
भी उसी से।
क्योंकि वही
है, और कोई
भी नहीं है।
उठो तो उसमें,
गिरो तो
उसमें। जागों
तो उसमें, सोओ
तो उसमें।
डेविल का अर्थ
होता है जो
सोया है; जो
गिर गया है; जो सिर के बल
खड़ा है मगर
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
है तो उसकी
ऊर्जा भी
दिव्य। यूं
समझोगे तो
तुम्हें यह
बात समझ में आ
जाएगी कि
क्यों चांद को
देवता कहा गया
है, तो
क्यों सूरज को
देवता कहा गया
है—इसलिये कि
वे प्रकाश के
स्रोत हैं।
प्रकाश के
कारण ही
उन्हें देवता
कहा गया है।
इसलिये अग्नि
को देवता कहा
गया है।
लेकिन
लोग तो नासमझ
हैं। वे अग्नि
की पूजा करने
लगे। वे सूर्य—नमस्कार
करने लगे।
उन्होंने
समझा कि सूर्य
देवता है। जैन
मुनि तो बहुत
नाराज थे, जब
पहली दफा
अमरीकी
यात्री चांद
पर उतरे। जैन
मुनियों ने तो
एक भारी संगठन
खड़ा किया कि ऐसा
नहीं होना
चाहिये, क्योंकि
देवता के ऊपर
और मनुष्य के
चरण पड़े, आदमी
और देवता पर
चलें, यह
बात शोभा देती
है? क्योंकि
हमने देवता का
अर्थ ही गलत
समझ लिया है।
यूं तो पृथ्वी
भी देवता है।
जिन्होंने
चांद पर खड़े
होकर पृथ्वी
को देखा वे
चकित हुए, क्योंकि
देखा कि
पृथ्वी भी
इतनी ही
ज्योतिर्मय
है, जैसा
चांद। चांद से
पृथ्वी
ज्योतिर्मय
मालूम होती है,
चांद
मिट्टी रह
जाता है—दूर
के ढोल
सुहावने! जमीन
से चांद लगता
है प्रकाशित।
चांद से पृथ्वी
लगती है
प्रकाशित।
क्योंकि
प्रकाशित
लगने का कारण
सूर्य की किरणों
का वापिस
लौटना है।
सूर्य की
किरणें चांद
पर पड़कर वापिस
लौटती हैं, वापिस लौटती
किरणें जब
तुम्हारी आंखों
को मिलती हैं
तो लगता है कि
चांद
प्रकाशित है।
चांद पर खड़े
देखोगे तो
पृथ्वी से
सूरज की किरणें
वापिस लौट रही
हैं। वे
तुम्हारी आंखों
से मिलती हैं
तो लगता है
पृथ्वी
प्रकाशित है।
जैसे
कि कोई टार्च
को दर्पण के
ऊपर मारे तो
दर्पण से
ज्योति
निकलनी शुरू
हो जाए; दर्पण
प्रतिफलित कर
देगा प्रकाश
को—और तुम्हें
लगेगा कि शायद
दर्पण से
ज्योति आ रही
है। ठीक ऐसा
ही चांद है, ऐसी ही
पृथ्वी है, ऐसा ही मंगल
है। ये कोई
व्यक्ति नहीं,
लेकिन
देवता शब्द से
व्यक्ति की
भ्रांति पैदा
होती है।
सिर्फ अर्थ है
: इस जगत में जो
भी प्रकाशित
है, इस जगत
में जो भी
प्रकाश है, आलोक है, वह
सब इसी परम
अविनाशी
व्योम में, इसी भीतर के
महाशून्य में,
उसका .स्रोत
है।
'जिसमें सब
देवता भली
भांति स्थित
हैं उसी अविनाशी
परम व्योम में
सब वेदों का
निवास है।’ और जहां से
यह प्रकाश आ
रहा है, जहां
से तुम्हारी
चेतना आ रही
है, क्योंकि
चेतना से
ज्यादा
प्रकाशित इस
जगत में और
कुछ भी नहीं—न
चांद, न
सूरज, न
तारे। चेतना
इस जगत में
सबसे
ज्योतिर्मय
है, सर्वाधिक
प्रकाशोज्वल
अनुभूति है—इस
चेतना में ही
सब वेदों का
निवास है, अर्थात
सारे ज्ञान का
निवास है।
यही
मैं तुमसे कह
रहा हूं रोज
कि खोदो अपने
भीतर। कहीं और
जाना नहीं है—न
वेद में, न
गीता में, न
कुरान में, न बाईबिल
में। खोदो
अपने भीतर। लो
ध्यान की
कुदाली और
खोदो अपने
भीतर। जो अपने
भीतर खोदता है
उसको मैं
संन्यासी कहता
हूं। जो बाहर
की खुदाई में
लगा है वह
संसारी है। जो
भीतर की खुदाई
में लग गया है
वह संन्यासी है।
और जिसने भीतर
खोदा उसने सब
वेद पा लिये, सब कुरान पा
लिए, सब
बाईबिलें पा
लीं। उसके
भीतर बुद्ध भी
मिल गये, महावीर
भी मिल गये, कृष्ण भी
मिल गये, जरथुस्त्र
भी, जीसस
भी। उसके भीतर
मुहम्मद भी
बोले, फरीद
भी बोले, कबीर
भी बोले, पलटू
भी बोले। उसके
भीतर सारे.
संतों का समांगम
हो गया। सारे
देवता वहां
विराजमान हैं।
सारे वेदं
वहां
विराजमान हैं।
क्योंकि बोध
वहां
विराजमान है।
'जो उसे नहीं
जानता वह
वेदों से क्या
निष्कर्ष निकालेगा?'
सूत्र
बड़ा प्यारा है।
यस्तं न वेद
किमृचा
करिष्यति! और
जिसने भीतर के
वेद को नहीं
पहचाना वह
पागल बाहर के
वेदों के अर्थ
कर रहा है!
पंडित लगे हैं
व्याख्याएं करने
में। अपना पता
नहीं है और
शास्त्रों के
अर्थ कर रहे
हैं। अर्थ
क्या करेंगे, अनर्थ
कर रहे हैं!
अर्थ कर ही
नहीं सकते।
उनसे अर्थ हो
ही नहीं सकता,
केवल अनर्थ
ही हो सकता है।
मगर मजे से
करते चले जाते
हैं।
चैतन्य
कीर्ति ने
पूछा है कि एक
जैन मुनि श्री
मधुकर ने आपके
खिलाफ एक लेख
लिखा है जिसमें
उन्होंने
लिखा है कि
संभोग से
समाधि असंभव
है।
जहां तक
मुझे याद पड़ता
है,
मधुकर मुनि
मुझे मिले हैं।
राजस्थान में
ब्यावर में
तीन दिन तक
मुझे रोज मिले
हैं। और एक ही
उनकी
जिज्ञासा थी
कि ध्यान कैसे
लगे। ध्यान का
पता नहीं और
संभोग और
समाधि की व्याख्या
में लगे हैं!
दोनों शब्द एक
ही बीज से निकले
हैं : सम—संभोग
भी और समाधि
भी। जहां समता
है, जहां
सब सम्यक् हो
गया, वहीं
संभोग है।
क्षणभर को
होगा, लेकिन
उस क्षण को सब
ठहर गया, सब
सम हो गया, कुछ
विषम न रहा।
कोई विचार न
रहा, कोई
चिन्ता न रही,
कोई मैं—तू
का भाव न रहा—ऐसी
ही घड़ी को तो
संभोग कहते
हैं। वह एक
क्षण को
ठहरेगी, फिर
खो जाएगी।
समाधि ऐसा
संभोग है जो
आया तो आया, फिर जाता
नहीं है। अगर
संभोग बूंद है
तो समाधि सागर
है। मगर दोनों
सम से ही बने
हैं, खयाल
रहे। संभोग
शब्द को गाली
मत देना। उसे
गाली दी तो
तुम सम शब्द
को गाली दे
रहे हो।
लेकिन
उन्हें ध्यान
का तो कुछ पता
है नहीं, न
समाधि का कुछ
पता है लेकिन
पंडित हैं तो
उन्होंने
व्याख्या कर
दी समाधि की :
सम + आधि।
और संभोग
रहेगा तो, तो
आधि रहेगी, आधि से
व्याधि पैदा
होगी, व्याधि
से उपाधि पैदा
होगी। चले अब
शब्द में से
शब्द निकलते
जाएंगे।
समाधि का कोई
अनुभव नहीं है।
समाधि की कोई
झलक नहीं है।
लेकिन समाधि
शब्द की
व्याख्या
शुरू हो गई और
फिर व्याख्या
में अनर्थ तो
होनेवाला है।
समाधि की क्या
व्याख्या की!
कि जो आधियों
के बीच अपने
मन को संतुलित
रखता है। सुख
आए कि दुख आए, आधियां आती
हैं; सफलता
मिले कि
असफलता मिले!
जो दोनों के
बीच अपने मन
को सम रखता है—वह
समाधिस्थ है।
मन को सम रखता
है? मन कभी
सम होता ही
नहीं! मन है ही
विषमता का नाम।
जब तक यह
दिखाई पड़ रहा
है कि यह
सफलता है और
यह असफलता, क्या खाक मन
को सम रखोगे? जिस दिन मन
नहीं रहता उस
दिन समता आती
है। मन का
अभाव है समता।
मन कभी सम
नहीं होता। मन
का तो स्वरूप
विषम है। मन
तो डांवाडोल
ही रहेगा, नहीं
तो मन ही न
रहेगा।
लेकिन
भाषा में हम
इस तरह के
उपयोग करते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक होटल खोली
और पहला ही आदमी
भीतर आया—चंदूलाल
मारवाड़ी।
मुल्ला ने तो
सिर पीट लिया
कि यह कहां
सुबह सुबह
मारवाड़ी
दिखाई पड़ गया!
और पहले ही दिन
होटल खोली है, हो
गया भंटा ढार!
लेकिन अब क्या
कर सकता था? कहा कि
विराजिए; क्या
सेवा करूं?
चंदूलाल
बोले कि बड़ी
गर्मी है, बड़ी
धूप पड़ रही है,
एक पानी का
गिलास!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा,
पानी का
गिलास? असंभव!
पानी का गिलास
यहां है ही
नहीं। गिलास
में पानी दे
सकता हूं
लेकिन पानी का
गिलास कहीं और
खोजो। रास्ता
पकड़ो!
भाषा
में चल जाता
है,
पानी का
गिलास। मगर
मुल्ला
नसरुद्दीन भी
मुल्ला है, मौलवी है।
अरे, किसी
मुनि से पीछे
थोड़े ही है!
किसी मधुकर
मुनि से पीछे
थोड़े ही हैं!
आधि से व्याधि,
व्याधि से
उपाधि—चले!
उसने वहीं
तरकीब निकाल
ली। मारवाडी
को वहीं ठंडा
कर दिया कि जा—
भाग, कहां
पानी का गिलास
मांग रहा है!
पानी का कहीं गिलास
होता है?
तूफान
आता है, सागर
में लहरें ही
लहरें उठ आती
हैं; उलुंग
लहरें, जैसे
आकाश को छू
लेंगीं।
नावें
डावांडोल
होती हैं, डूबती
हैं, जहाजें
टकराती हैं।
फिर तूफान चला
गया। तुम कहते
हो, तूफान
शांत हो गया
लेकिन यह
सिर्फ उसी तरह
का शाब्दिक
उपयोग है, जैसे
पानी का गिलास।
तूफान शात हो
गया या नहीं
हो गया? तूफान
शात होने का
अर्थ तो यह है
कि तूफान है तो,
मगर अभी शात
है। अगर शब्द
को ही पकड़ो... और
पंडित के पास
कुछ और तो पकड़ने
को होता नहीं,
सिर्फ शब्द
ही पकड़ने को
होते हैं।
तूफान शांत है,
इसका अर्थ
है कि तूफान
तो है मगर
शान्त है और कब
अशात हो जाएगा,
क्या पता? जंजीरें डाल
दी हैं, शांत
बैठा है। है
तो, लेकिन
जब तुम कहते
हो तूफान शांत
हो गया, तो
असल में
तुम्हारा
मतलब यह है कि
तूफान नहीं हो
गया, अब
तूफान नहीं हो
गया, अब
तूफान नहीं है।
मन
शांत नहीं
होता। मन को
शात कहने का
कोई अर्थ नहीं
है। मन को शात
कहने का अर्थ
है : अमनी दशा।
नानक ने कहा :
अमनी दशा। मन
नहीं रहा। वही
शांति है, मन
का न होना।
जहां मन नहीं
है वहा समाधि
है।
मगर
मधुकर मुनि
व्याख्या कर
रहे हैं : 'सफलता
में, असफलता
में, सुख—दुख
में, हार
में, जीत
में—समभाव
रखना।’ मगर
अभी हार और
जीत दिखाई तो
पड़ती है न! जब
दिखाई पड़ती है
तो समभाव कैसे
रहेगा? हार
हार है, जीत
जीत है।
मिट्टी पड़ी है,
सोना पड़ा है;
दोनों के
बीच समभाव से
बैठे हैं मधुकर
मुनि, कि
समभाव रखना है—सोना
सोना है, मिट्टी
मिट्टी है, अपने को
क्या लेना
देना? मगर
जब तक सोना
सोना दिखाई पड़
रहा है और
मिट्टी
मिट्टी दिखाई
पड़ रही है, तब
तक तुम लाख
अपने को
समझाकर बिठाए
रखो, यह
जबरदस्ती
थोपा हुआ संयम
तो हो सकता है,
लेकिन
समाधि नहीं।
समाधि तो बड़ी
और बात है!
कबीर
का बेटा था :
कमाल। कबीर ने
उसे नाम ही 'कमाल'
दिया—इसीलिये
कि कबीर से भी
एक कदम आगे
छलांग ली उसने।
कबीर का ही
बेटा था, आगे
जाना ही
चाहिये। वह
बेटा ही क्या
जो बाप को
पीछे न छोड़े!
हर बाप की यही आकांक्षा
होनी चाहिये
कि मेरा बेटा
मुझे पीछे छोड
दे। हर गुरु
की यही आकांक्षा
होनी चाहिये
कि मेरा शिष्य
मुझे पीछे छोड
दे। यही उसकी
सफलता है। यही
उसका सौभाग्य
है।
कबीर
के पास लोग धन
ले आते चढ़ाने, सोना
ले आते। कबीर
कहते, 'नहीं
भाई, यह सब
तो मिट्टी है।
इस मिट्टी को
क्या करेंगे,
ले जाओ!' कमाल
कबीर के
झोंपडे के
बाहर ही बैठा
रहता। वह कहता,
'भैया, मिट्टी
लाए और मिट्टी
फिर ले जा रहे!
अरे रख जाओ, मिट्टी ही
है! जब मिट्टी
ही है तो कहां
ले जा रहे हो? एक तो लाने
की भूल की, अब
कम से कम
दूसरी तो भूल
न करो। रख दे, रख दे!'
कबीर
को लोगों ने
शिकायत की, कि
आप ऐसे
महात्यागी और
यह लड़का तो
शैतान है! आप
तो भीतर से कह
देते हो लोगों
को कि यह
मिट्टी है, ले जा भाई, हम क्या
करेंगे, हम
तो फकीर आदमी
हैं; और यह
लोगों से कहता
है कि 'अरे
मिट्टी है, कहां ले जा
रहे हो? एक
तो यहां तक
ढोयी, यह
कष्ट सहा; अभी
भी अज्ञान में
पड़े हो? अरे
छोड़ दे, रख
दे! यहीं रख दे!'
रखवा लेता
है।
कबीर
ने कहा, 'यह
बात तो ठीक
नहीं।’ कमाल
को कहा कि यह
बात ठीक नहीं।
कमाल ने कहा, ' आप ही कहते
हो कि मिट्टी
है, तो फिर
बात ठीक क्यों
नहीं? बेचारों
ने यहां तक
ढोया, अब
उनको फिर ढोने
के लिये कह
रहे हो! कुछ तो
दया करो! अरे, दया ममता तो
होनी ही
चाहिये फकीर
में, संन्यासी
में!'
कबीर
ने कहा कि
मेरी तेरी
नहीं बनेगी, तू
अलग ही एक
झोपड़ा बना ले।
तो उसने अलग
ही झोपड़ा बना
लिया। काशी
नरेश कबीर के
पास आते थे, उन्होंने
पूछा, बहुत
दिन से कमाल
दिखाई नहीं
पड़ता; वह
तो बाहर ही
बैठा रहता था।
कबीर ने कहा, 'उसे अलग कर
दिया, क्योंकि
वह लोगों से
धन—पैसा ले
लेता था।’
काशी
नरेश ने कहा
कि देखें, परीक्षा
करें। वे गये
एक बडा
बहुमूल्य
हीरा लेकर।
कमाल बैठा था
अपने झोपड़े
में।
उन्होंने
हीरा चढ़ाया।
कमाल ने कहा, ' अरे, क्या
पत्थर लाए! न
खा सकते, न
पी सकते, क्या
पत्थर लाए!
कुछ लाते काम
की चीज।’
काशी
नरेश ने सोचा, यह
तो बात बड़ी
गजब की कह रहा
है और उसको
कबीर ने अलग
कर दिया! उसने
उठाकर—वह अपने
हीरे को वापिस
अपनी जेब में
रखने लगे। अरे,
कमाल ने कहा,
अब छोड़ दों—अरे
मूरख, यहां
तक ढोया पत्थर,
अब कहा ले
जा रहा है, रख!
तब
काशी नरेश ने
समझा कि यह तो
आदमी होशियार
है! यह तो बड़ा.
अब इससे कुछ
कह भी नहीं
सकते, क्योंकि
इनकार ही अगर
करना था कि
पत्थर नहीं है
तो पहले ही
करना था। पहले
तो ही भर ली कि
ही भई, है
तो पत्थर ही, अब कैसे
इनकार करें, किस मुंह से
इनकार करें? इसने तो खूब
फंसाया।
तो
काशी नरेश ने
पूछा, 'कहां रख
दूं?' कमाल
ने कहा, 'वही
गलती, गलती
पर गलती। अरे
पत्थर को कोई
पूछता है, कहां
रख दूं? अभी
भी तुम हीरा
ही मान रहे हो?
अरे कहीं भी
रख दो, जहां
रखना हो। या
पड़ा रहने दो
जहां पड़ा है।
रखना क्या?'
मगर
काशी नरेश भी
तय करके आया
था कि परीक्षा
पूरी कर लेनी उचित
है। तो उसने...
बहुमूल्य
हीरा था, मुश्किल
था उसको पड़ा
देना... छप्पर
में खोंस दिया।
पंद्रह दिन
बाद लौटा।
सोचा उसने कि
मैं इधर बाहर
लौटा कि इसने
हीरा निकाला।
पंद्रह दिन
बाद वापिस
लौटा, इधर
उधर की बात की,
आया तो पता
लगाने था हीरे
का। पूछा कि
मैं पंद्रह
दिन पहले हीरा
लाया था, क्या
हुआ, हीरे
का क्या हुआ? कमाल ने कहा,
'गजब करते
हो! कैसा हीरा?
कब लाए थे? मैंने तो
नहीं देखा।’
काशी
नरेश ने कहा, 'अरे
हद्द! मेरे
सामने ही झूठ
बोल रहे हो!
मेरा वजीर भी
मौजूद था, मैं
उसको साथ लेकर
आया हूं गवाह।
तो कबीर ठीक
ही कहते हैं
कि यह आदमी
गड़बड़ है।’
कमाल
ने कहा, 'कि
अरे, तुम
उस पत्थर की
बात तो नहीं
कर रहे जो एक
दिन लाए थे, पंद्रह बीस
दिन पहले? उसी
पत्थर को हीरा
कह रहे हो, अभी
भी हीरा कह
रहे हो? यह
तो तय हो गया
था, यह तो
निर्णय हो
चुका था, पत्थर
है।’
काशी
नरेश ने कहा, 'हां
निर्णय हो गया
था, मैं
उसको खोंस गया
था झोपड़े में।
तूने निकाला
होगा।’
कमाल
ने कहा, 'मुझे
क्या पड़ी
निकालने की? तुम देख लो।
अगर कोई और
निकालकर ले
गया हो तो मैं
कुछ नहीं कर
सकता, क्योंकि
मैं कोई
पहरेदार नहीं
हूं यहां
तुम्हारे
पत्थरों का।
और अगर किसी
ने न निकाला
हो तो होगा
झोपड़े में।
नरेश चकित हुआ
देखकर, हीरा
वहीं के वहीं
झोपड़े में
खुसा हुआ था।
पैरों पर गिर
पड़ा कमाल के
और कहा, 'मुझे
क्षमा कर दो।’
पर उसने कहा,
'इसमें
क्षमा करने की
बात ही क्या
है? तुम
गलती ही गलती
किये चले जा
रहे हो। अरे
पत्थर है, उसको
मैंने नहीं
निकाला तो
इसमें खूबी की
क्या बात है? पत्थर तो
बाहर बहुत पड़े
हैं। कोई
पत्थर बीनने
के लिये यहां
बैठा हूं।
यहां पैरों पर
किसलिये पड
रहे हो? अगर
तुम उसे हीरा
ही मानते हो
तो भैया ले
जाओ और दुबारा
इस तरह की
चीजें यहां मत
लाना।’
हिम्मत
तो नहीं पड़ी, ले
जाने की काशी
नरेश की।
लेकिन
यह कमाल कबीर
से भी गहरी
बात कह रहा है।
अगर तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगा कि सोना
मिट्टी है, तो
फिर मिट्टी और
सोने में फर्क
ही कहा रह जाएगा?
फिर समता का
सवाल ही कहां
है? अगर
सफलता और
असफलता सच में
ही समान हो
गये तो किसको
सफलता कहोगे,
किसको
असफलता कहोगे?
किसको
प्रशंसा, किसको
अपमान?
ये
मधुकर मुनि
सिर्फ लफ्फाजी
कर रहे हैं। न
इन्हें संभोग
शब्द का अर्थ
पता है
क्योंकि अनुभव
का पता नहीं, समता
का कोई अनुभव
ही नहीं। एक
क्षण नहीं
जाना समता का।
मेरे सामने
गिड़गिड़ाते थे,
पूछते थे कि
ध्यान कैसे
लगे। और उस
लेख में
उन्होंने
ध्यान समझाया
है—'चित्त
की एकाग्रता
ध्यान है। और
धारणा ध्यान
बन जाती है जब
मजबूत होती है।
और ध्यान जब
मजबूत होता है
तो समाधि!' मजबूत!
जैसे धारणा
डंड—बैठक लगाए
तो ध्यान बने,
फिर ध्यान
अखाडाबाजी
करे तो समाधि
बने! मजबूत!
कौन करेगा
धारणा? धारणा
के मन में
होती है। अगर
धारणा मजबूत
होगी तो मन
मजबूत होगा, ध्यान मजबूत
नहीं होगा। और
चित्त की
एकाग्रता से
तो चित्त ही
मजबूत होगा, इससे समाधि
कैसे आ जाएगी?
मगर यही
चलता है!
यह
सूत्र ठीक
कहता है कि जो
उसे नहीं
जानता, जो
स्वयं के भीतर
के वेद को
नहीं पढ़ा है
अभी, वह
वेदों से क्या
निष्कर्ष
निकालेगा।
मगर वे ही लोग
व्याख्याएं
कर रहे हैं, टीकाएं कर
रहे हैं, बड़ी
विस्तीर्ण
व्याख्याएं
लिखते हैं।
ब्रह्म का कोई
अनुभव नहीं है
और ब्रह्म—सूत्र
पर भाष्य
लिखते हैं।
योग की कोई
झलक भी नहीं
मिली। योग
मतलब जोड़।
परमात्मा से
मिलने की कोई
प्रतीति ही
नहीं हुई और
पंतजलि के योग—सूत्र
पर लिखे चले
जाते हैं। अभी
भगवान ने कोई
गीत भीतर गाया
नहीं, अभी
भगवद्गीता
जन्मी नहीं——हा,
मगर वह जो
बाहर की गीता
है उस पर
कितनी टीकाएं हैं!
एक हजार तो
प्रसिद्ध
टीकाएं हैं और
अनेक हजार
अप्रसिद्ध
टीकाएं होंगीं।
'यस्तं न वेद
किमृचा
करिष्यति 'पहले
भीतर के वेद
को तो खोल लो।
वह कोरी किताब
तो पढ लो। उसे
पढ़ते ही सब
समझ में आ
जाता है।
क्यों? क्यों
सब समझ में आ
जाता है? इसलिये
कि 'य हुए
तद् विदुस्त
इने समासते :
क्योंकि जो भीतर
को जानता है
वह भीतर के
साथ एक हो
जाता है। जो
उसे जानता है,
जो चैतन्य
को जानता है, वह चैतन्य
की
परिपूर्णता
को उपलब्ध हो
जाता है, वह
चैतन्य के साथ
तदाकार हो
जाता है। बूंद
सागर को जानने
जायेगी, सागर
में उतरेगी कि
सागर हो
जायेगी। और
जानने का
एकमात्र यही
उपाय है—वही
हो जाओ। बाकी
सब जानना बाहर—बाहर
से है।
यही
विज्ञान और
धर्म का भेद
है। विज्ञान
यूं है जैसे
फूल के चारों
तरफ चक्कर लगाओ, लगाए
जाओ चक्कर—इधर
से जानो, उधर
से जानो। इस
कोने से देखो,
उस कोने से
देखो। इधर से
परखो, उधर
से परखो—बाहर—बाहर।
और धर्म है, फूल में
प्रवेश कर जाओ।
चीन
की एक बहुत
पुरानी झेन
कथा है। एक
सम्राट ने, जिसे
हिमालय से
बहुत प्रेम था,
एक झेन फकीर
को कहा, जो
उस समय का
सर्वाधिक बड़ा
कलाविद था, चित्रकार था—कि
क्या तुम मेरे
लिये हिमालय
की छवि उतार
दोगे? मेरे
सोने के कमरे
में, पूरी
दीवाल पर
हिमालय के वे
उड़ा आकाश को
छूते हुए
शिखर! वे
हिमाच्छादित
शिखर! वे
कुंवारे हिमाच्छादित
शिखर, जिन
पर कोई कभी
चला नहीं!
उनकी तुम छवि
बना दो। उस
चित्रकार ने
कहा, 'बनाऊंगा।
लेकिन समय
बहुत लगेगा।
जब तक पूरी
बात न हो जाए, पूरा चित्र
न बन जाए, भीतर
किसी को आने
की आज्ञा न
होगी।’
सम्राट
राजी हुआ। तीन
वर्ष लगे।
प्रतीक्षा
बढ़ती गयी, उत्सुकता
बढ़ती गयी कि
तीन वर्ष झेन
फकीर क्या कर
रहा है! तीन
वर्ष बाद उसने
एक दिन कहा कि
बस आज आप आएं।
दरवाजा खोला,
सम्राट
भीतर गया।
उसके दरबारी
भीतर गये, उसकी
रानी भीतर गयी।
अवाक खड़ा रह
गया, आंख
की पलकों ने
झपकना बंद कर
दिया। हिमालय
देखा था, मगर
उस फकीर ने तो
गजब कर दिया
था। ऐसा सजीव
हो उठा था
हिमालय दीवार
पर कि वह भूल ही
गया कि यह
चित्र है! वह
पूछने लगा, 'यह कौन सा
शिखर है? यह
कौन सा शिखर
है? यह कौन
सी नदी बह रही
है? और तभी
उसने पूछा कि
यह पहाड़ के
पास एक पगडंडी
जाती है, यह
कहा जाती है? उस फकीर ने
कहा कि इस
पगडंडी पर
जाकर मैंने देखा
नहीं। मैं जरा
जाकर देखूं।
और कहते हैं
कि वह फकीर उस
पगडंडी पर जो
गया सो गया, लौटा ही
नहीं।
अब
यह कहानी बड़ी
बेबूझ हो गयी।
कहीं कोई
चित्र की
पगडंडी पर जा सकता
है। और जाए भी
तो लौटे ही
नहीं! थोडी
दूर तक तो
सम्राट को
दिखाई पड़ता
रहा,
फिर पहाड़ की
ओट में चली
गयी थी पगडंडी,
पीछे की तरफ
मुड़ गयी थी, फिर उसका
कोई पता न चला।
मगर
यह कहानी बड़ी
प्रीतिकर है।
यह कहानी यही
कह रही है कि
धर्म के जानने
का ढंग
विज्ञान के
जानने के ढंग
से भिन्न है।
विज्ञान बाहर
से जानता है, चारों
तरफ चक्कर
मारता है।
इसलिये
विज्ञान में
ज्ञान नहीं है,
केवल परिचय
है, पहचान
है। धर्म
ज्ञान है, वेद
है, बोध है।
व्यक्ति
प्रविष्ट हो
जाता है। यूं
प्रविष्ट हो
जाता है कि
लौटने की जगह
ही नहीं बचती।
अब बूंद सागर
में उतरेगी तो
फिर क्या
लौटेगी? यही
कह रही है यह
कहानी।
ठीक
कहता है यह
सूत्र : 'जो
उसे जानता है
वह उसी में
भलीभांति मिल
जाता है।’ और
जब तक हम
एकाकार न हो
जाएं
अस्तित्व से
तब तक हमने
जाना नहीं।
बुद्ध ने इसी
व्योम को
शून्य कहा है।
कबीर ने भी
इसी व्योम को 'सुन्न गगन' कहा है।
निर्वाण कहो
इसे। लेकिन
बात एक ही है।
इस तरह मिट
जाना है कि
खोजने से भी
अपना पता न चले।
जिस दिन तुम
इस भांति मिट
जाओगे कि अपना
कोई पता न
चलेगा उसी दिन
पता चलेगा कि
परमात्मा क्या
है। और उसी
दिन पता चलेगा
जीवन का अर्थ,
जीवन का गीत,
जीवन का नृत्य,
जीवन का
उत्सव इ!
ऋचो
अक्षरे परने व्योमन्
यस्मिन
देवा अधि
विश्वे
निषेदु :।
यस्तं न
वेदं किमृचा
करिष्यति
य इत् तद्
विदुस्त इने
समासते।।
'सहज
आसिकी नाहिं'
प्रवचनमाला
से
दिनांक
10 दिसम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम; पूना ।
thank you guruji
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