सूत्र:
7—जो
तुम्हारे
भीतर है, केवल
उसी की इच्छा
करो।
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर समस्त
संसार का प्रकाश
है,
वही
प्रकाश जो
साधना—पथ को
प्रकाशित कर
सकता है।
यदि
तुम उसे अपने
भीतर नहीं देख
सकते,
तो
उसे कहीं और
ढूंढना
व्यर्थ है।
8—जो
तुमसे परे है,
केवल उसी की
इच्छा करो।
वह
तुमसे परे है,
क्योंकि
जब तुम उसे
प्राप्त कर
लेते हो,
तो
तुम्हारा
अहंकार नष्ट
हो चुका होता
है।
9—जो
अप्राप्य है,
केवल उसी की
इच्छा करो।
वह
अप्राप्य है, क्योंकि
पास
पहुंचने पर वह
बराबर दूर
हटता जाता है।
तुम
प्रकाश में
प्रवेश करोगे,
किंतु
तुम ज्योति को
स्पर्श कदापि
न कर सकोगे।
इन
सूत्रों के
साथ यात्रा
गहरी होती है।
धर्म की भाषा
थोड़ी बेबूझ है।
होना
अनिवार्य है, क्योंकि
धर्म का संबंध
तथ्य से कम, रहस्य से
ज्यादा है।
तथ्य
तो उसे कहते
हैं जो समझ
में आ जाता है।
रहस्य उसे
कहते हैं जो
समझ में आता
भी है और नहीं
भी आता है।
इतना ही समझ
में आता है कि
समझ में न आ
सकेगा। तथ्य
तो वह है, जो
बुद्धि के
नीचे है।
रहस्य वह है, जिसके नीचे
स्वयं बुद्धि
है। तथ्य की
गहराई को
बुद्धि नाप
पाती है, रहस्य
की गहराई को
खोजने जाती है
तो खुद खो जाती
है।
रामकृष्ण
कहते थे, जैसे
कोई नमक का
पुतला सागर की
गहराई खोजने जाए,
तो खोज न
पाएगा। शुरू
तो करेगा, लेकिन
मंजिल का अंत
कभी न आएगा।
क्योंकि नमक
का पुतला ठहरा,
जैसे—जैसे
सागर में गहरे
उतरेगा, वैसे—वैसे
गलेगा भी,
खोएगा भी। गहराई
में पहुंचते—पहुंचते
स्वयं मिट
चुका होगा।
खबर देने को
भी नहीं बचेगा
कि लौट कर कह
सके कि सागर
कितना गहरा है।
लेकिन
नमक का पुतला
ही सागर की
गहराई को जान
सकता है।
पत्थर को डाल
दें तो गहराई
तक पहुंच
जाएगा, लेकिन
सागर के
प्राणों से
अस्पर्शित।
जो गलेगा
ही नहीं, वह
सागर के
प्राणों को
छुएगा कैसे? जो मिटेगा
ही नहीं, जो
लीन ही नहीं
होगा, वह
सागर की
वास्तविक गहराई
को कैसे माप
पाएगा? सागर
की एक गहराई
तो वह है जो
गजों से नापी
जा सकती है।
और एक सागर के
अस्तित्व की
गहराई है, जिसे
गजों से नापने
का कोई उपाय
नहीं है। नमक
का पुतला ही
नाप पाएगा, क्योंकि वह
मिटने को राजी
है, डूबने
को राजी है, खोने को
राजी है। वह
सागर के साथ
एक हो जाएगा, सागर के साथ
तल्लीन हो
जाएगा। उस
तल्लीनता में
ही जान पाएगा।
लेकिन तब लौट
कर कहने का
कोई भी उपाय
नहीं।
रहस्य
का अर्थ है कि
जिसे खोजने तो
आप निकलेंगे, लेकिन
जिस दिन आप
उसे खोज लेंगे,
उस दिन आपका
कोई पता न
होगा। तथ्यों
को हम अपनी
मुट्ठी में रख
लेते हैं।
रहस्य हमें
अपनी मुट्ठी
में रख लेगा।
ये
सूत्र गहरे
हैं अब, अब
नदी थोड़ी गहरी
होगी, थोड़ा
ध्यान से
समझेंगे तो ही
समझ में आ
सकेगा।
सातवां
सूत्र, 'जो
तुम्हारे
भीतर है, केवल
उसी की इच्छा
करो।’
बड़ा
उलटा है। दो
अर्थों में
उलटा है। एक
तो,
हम सदा उसकी
इच्छा करते
हैं, इच्छा
ही उसकी होती
है, जो
हमारे भीतर
नहीं है।
इच्छा का अर्थ
ही यह होता है
कि जो हमारे
पास नहीं है, जिसका अभाव
है, उसकी
ही इच्छा होती
है। इच्छा का
अर्थ ही यह
हुआ कि अभी
हमारे पास नहीं
है, कल हो
सके। कल हो
सकेगा, इसकी
वासना ही तो
इच्छा है।
यह
सूत्र कहता है, 'जो
तुम्हारे
भीतर है, केवल
उसी की इच्छा
करो।’
तो
पहली तो बात
कि जो
तुम्हारे
भीतर नहीं है, उसकी
इच्छा मत करना।
और हमारी सारी
इच्छाएं तो
उसी की हैं, जो हमारे
भीतर नहीं है।
हम तो उसी को
मांग रहे हैं,
जो हमारे
पास नहीं है।
और यह
तर्कयुक्त भी
है कि हम उसी
को मांगें, जो पास नहीं
है। जो पास है
ही, उसे
मांगने का
क्या अर्थ? इसलिए पहली
तो बात यह है
कि इच्छा, जो
भीतर है, उसकी
होती ही नहीं।
इसलिए सूत्र
बड़ा उलटा है।
और
दूसरे इसलिए
भी यह सूत्र
बड़ा गहरा और
उलटा है कि
जीवन में
मिलता केवल
वही है, जो हमारे
पास था। वह तो
कभी मिलता ही
नहीं, जो
हमारे भीतर था
ही नहीं। कुछ
भी हम पा लें, वह बाहर ही
रह जाएगा। और
जो बाहर ही रह
जाएगा, वह
हमें मिला
कहां? वह
हमसे छीना जा
सकता है।
कितना ही कोई
धन इकट्ठा कर
ले, उसकी
चोरी हो सकती
है, उस पर
डाका पड़ सकता
है। और न चोरी
हो, न डाका
पड़े, न
राज्य
समाजवादी हो,
कुछ भी न हो,
तो भी मौत
छीन लेगी। मौत
के क्षण में, जो भी आपने
चाहा था, इकट्ठा
किया था, वह
आपके हाथ से
गिर जाएगा। वह
आपके पास था, लेकिन आपका
नहीं हुआ था।
आपका हो जाता,
तो कोई भी
उसे छीन न
सकता था।
इसलिए
धर्म की
दृष्टि में
संपदा का अर्थ
है,
वह जो आपसे छीनी न जा
सके। जो आपसे छीनी जा
सके, उसका
नाम विपदा है।
क्योंकि उसको
बचाओ, उसका
कष्ट भोगो
बचाने का। उसे
दूसरों से छीनो,
झपटो, उसका कष्ट
भोगो। और सारा
कर लेने के
बाद भी ड़रे
रहो, चौबीस
घंटे कंपते
रहो कि वह छिन
न जाए। और फिर
आखिर में वह छिने भी।
तो धर्म कहता
है कि इसको
संपत्ति
नासमझ कहते होंगे,
यह विपत्ति
है।
संपत्ति
तो वही है जो
तुम्हारे पास
से छीनी न
जा सके। तो ही
अपनी है, तो ही
अपनी कहने का
कोई अर्थ है।
लेकिन ऐसी
क्या संपत्ति
होगी जो आपसे
न छीनी जा
सके? अगर
ऐसी कोई
संपत्ति है, तो वह आपके
भीतर मौजूद ही
होगी, तो
ही।
जो
भी हम बाहर से
डालेंगे, वह
वापस लिया जा
सकता है। जो
हमारे स्वभाव
के साथ ही
उपलब्ध हुआ है,
वही हमसे
नहीं छीना जा
सकता। जो
हमारी आत्मा
में ही बसा है,
वही हमसे
नहीं छीना जा
सकता। जो
तुमसे छीनी
न जा सके, उस
सत्ता का नाम
ही आत्मा है।
बहुत
लोगों के पास
आत्मा होती
नहीं। जब मैं
ऐसा कहता हूं
तो आप बहुत चौकेंगे, क्योंकि
हम तो मान कर
चलते हैं कि
सभी के पास आत्मा
होती है। वह
ठीक है, सभी
के पास आत्मा
हो सकती है, इस अर्थ में
होती है।
लेकिन सभी के
पास होती नहीं।
अगर आप हिसाब
लगाएं कि आपके
पास जो कुछ भी
है, क्या
उसमें कुछ भी
ऐसा है, जो
छीना न जा सके,
तो आपको पता
चल जाएगा कि
आत्मा आपके
पास है या नहीं।
आप
जरा एक फेहरिश्त
बनाएं
अपनी संपत्ति
की,
जो भी आपके
पास है। और एक
लाल स्याही की
कलम ले कर बैठ
जाएं निशान लगाने
को कि इसमें
क्या—क्या है,
जो छीना जा
सकता है! तो आप
पाएंगे कि
पूरी फेहरिश्त
लाल हो गई।
उसमें एक भी
चीज बचती नहीं,
जो छीनी
न जा सके। तो
फिर आपके पास
आत्मा नहीं है।
अगर ऐसी कोई
चीज आपके
अनुभव में आए
कि आपके पास
है, जिसे
कोई भी छीन न
सकेगा, मृत्यु
भी नहीं, तो
ही समझना कि
आपके पास
आत्मा है।
शास्त्र
में पढ़ लेने
से सभी को यह
भ्रम हो जाता
है कि आत्मा
तो है ही।
निश्चित है!
लेकिन जिसका
आपको पता ही
नहीं है, उसके
होने न होने
का क्या
प्रयोजन? और
जिसका आपको
कोई अनुभव ही
नहीं है, वह
हो भी तो उसका
करिएगा क्या?
वह ऐसा हीरा
है जो कहां
आपके घर में गड़ा है, आपको
पता नहीं। वह
हो या न हो, उसकी
बाजार में
क्या कीमत है?
और आप यह
कहें कि मेरे
घर में हीरा गड़ा है और
मुझे पता नहीं,
इसलिए मैं
सम्राट हूं!
लेकिन फिर भी
आपको भीख तो
मांगनी ही
पड़ेगी।
क्योंकि वह
हीरा किसी भी
काम का नहीं।
और जब तक वह
मिल न जाए, तब
तक भरोसा क्या
आपका कि सच
में गड़ा
है। जब तक
उघाड़ न लिया
जाए, तब तक
यह भी कहना कि गड़ा है
मेरे घर में, क्या अर्थ
रखता है? क्या
आप कहेंगे कि
शास्त्रों
में लिखा है
इसलिए! लेकिन
शास्त्रों का
क्या भरोसा? आपको कुछ भी
तो पता नहीं, नक्शा आपके
पास नहीं, शक्ल—सूरत
उसकी कुछ पता
नहीं, नाम—
धाम कुछ पता
नहीं, बस
आप सुनते हैं
कि आत्मा है।
ऐसी आत्मा के
होने न होने
का कोई भी
अर्थ नहीं है।
यह
सूत्र कहता है, 'जो
तुम्हारे
भीतर है, केवल
उसी की इच्छा
करो।’
क्यों
इधर—उधर की
इच्छा में समय
और जीवन—ऊर्जा
को नष्ट किया
जाए?
क्योंकि पा
भी लिया जाए, तब भी खो
जाता है। तो
सारा श्रम
व्यर्थ हो
जाता है पानी
पर खींची गई
लकीरों की तरह।
हम खींच भी
नहीं पाते और
वे मिट जाती
हैं। ठीक वैसी
ही हमारी सारी
संपदा है। हम
उपलब्ध भी
नहीं कर पाते
कि सब खोना
शुरू हो जाता
है।
इच्छा
ही करनी है तो
उसकी इच्छा
करो,
जो पानी पर खींची
लकीर सिद्ध न
हो। और वह
संपत्ति
तुम्हारे
भीतर है। उस
संपत्ति को
व्यक्ति पैदा
ही होता है ले
कर। इस
अस्तित्व में
कोई भी दरिद्र
नहीं है।
अस्तित्व सभी
को सम्राट की
तरह पैदा करता
है। दरिद्र हम
अपने हाथों से
हो जाते हैं।
दरिद्रता
अर्जित है, बड़ी मेहनत
से हम दरिद्रता
को कमाते हैं।
संपदा ले कर
पैदा होते हैं।
साम्राज्य
हमारे भाग्य
में ही लिखा
होता है। वह
हमारे भीतर ही
छिपा होता है।
लेकिन
जो हमारे भीतर
छिपा है, उसे
भी पाना पड़ता
है। क्योंकि
उसका विस्मरण
है, क्योंकि
उसकी हमें कोई
याददाश्त
नहीं है। जान
कर हम अपने मन
को ऐसे
रास्तों पर ले
गए हैं, जहां
उसकी
विस्मृति हो
गई है। हमारा
ध्यान बाहर
चला गया है।
और भीतर ध्यान
को लाने का हम
मार्ग भूल गए
हैं।
और
बाहर जाने का
कारण है। किसी
पाप के कारण
ऐसा नहीं हो
गया है कि
ध्यान बाहर
चला गया है।
ध्यान बाहर
जाने का
प्राकृतिक
कारण है।
क्योंकि जीवन
की सुरक्षा के
लिए ध्यान का
बाहर जाना
जरूरी है। अगर
बच्चा ध्यान
भीतर लिए हुए
पैदा हो, तो
जिंदा न रह
सकेगा। बच्चे
का ध्यान बाहर
जाना जरूरी है।
क्योंकि शरीर
के लिए, अस्तित्व
के लिए, बचाव
के लिए, सुरक्षा
के लिए उसे
चौकन्ना होना
जरूरी है। भूख
लगेगी तो भोजन
भीतर नहीं
मिलेगा, भोजन
बाहर मिलेगा।
तो भूख लगेगी
तो बच्चे का
ध्यान बाहर
जाएगा, जहां
से भोजन
मिलेगा।
इसीलिए
आपको खयाल हो
न हो,
स्त्री
जाति के स्तन
पुरुषों को, बूढ़े भी हो
जाएं, तो
भी आकर्षक
मालूम होते
हैं। वह बचपन
की पहली
अनुभूति है, जो छूटती
नहीं। बच्चे
ने पहला जो
संबंध बनाया
है जगत से, वह
स्तन से बनाया
है। जीवन की
सुरक्षा का
पहला आधार
स्तन में मिला
है। स्तन ही
जगत था बच्चे
के लिए पहला।
और जो पहला
संस्पर्श है
बाहर की
दुनिया से और प्रीतिकर
संस्पर्श, जिससे
जीवन बढ़ा, विकसित
हुआ, बचा—वह
स्तन है। इसलिए
बूढ़ा भी हो
जाए पुरुष तो
भी स्त्री के
स्तन से लगाव
नहीं छूटता।
फिल्में हों,
चित्र हों,
मूर्तियां
हों, पुरुष
स्त्री के
स्तन को बड़े
ध्यानपूर्वक
निर्मित करता
है। वह बचपन
की याद है, जो
छूटती नहीं है।
और जिस दिन वह
छूट जाए, समझ
लेना, उस
दिन ही आप
संसार से मुक्त
हुए। वह आपका
पहला संसार है।
वहां से संसार
शुरू हुआ है।
वह संसार का
पहला आधार है।
तो
बच्चे को भूख
लगेगी तो
ध्यान बाहर
जाएगा। प्यास
लगेगी तो
ध्यान बाहर
जाएगा।
जरूरतें पूरी
होंगी बाहर से।
आत्मा कोई
जरूरत नहीं है।
और आत्मा को
बाहर से
मांगना भी
नहीं है, वह भीतर
है। चूंकि
उसकी कोई
जरूरत नहीं है,
इसलिए उसका
स्मरण खो जाता
है। जिसकी
जरूरत है, उसकी
याद बनी रहती
है।
आपको
भी खयाल होगा
कि अगर पैर
में कांटा गड़
जाए तो पता
चलता है कि
पैर है। सिर
में दर्द हो
तो सिर का पता
चलता है। और
जब आपके सिर
में दर्द नहीं
होता, तब आपको
पता चलता है
क्या कि सिर
है? अगर
पता चले तो आप
समझना कि दर्द
है। बिना दर्द
के सिर का कोई
पता नहीं चलता।
शरीर का पता
ही बीमार आदमी
को चलता है, स्वस्थ आदमी
को पता नहीं
चलता।
स्वास्थ्य
की परिभाषा ही
यही है। विदेह
स्वास्थ्य की
परिभाषा है, जहां
देह का पता न
चलता हो। तो
ही आप स्वस्थ
हैं। अगर देह
का पता चलता
हो तो उसका
मतलब है कि
देह रूग्ण है।
रोग में ही
पता चलता है।
क्योंकि रोग
में जरूरत
पैदा हो जाती
है और ध्यान
का जाना जरूरी
हो जाता है।
जब पैर में
कांटा गड़ा
है, तो
पूरे शरीर की
जरूरत हट गई
एक तरफ, कांटे
को अलग करना
पहली जरूरत हो
गई। तो सारा
ध्यान कांटे
की तरफ जाएगा,
तभी तो
कांटा हटेगा।
अगर ध्यान न
जाए तो कांटा
लगा ही रहेगा,
जहर हो
जाएगा। सिर
में दर्द है
तो सारा ध्यान
सिर की तरफ
जाएगा।
इसीलिए
तो चिकित्सा—शास्त्र
ने ऐसी
तरकीबें
निकाली हैं कि
आपके सिर में
दर्द भी हो, तो
आपको एक गोली
दे देने से
दर्द नहीं
मिटता, लेकिन
दर्द तक ध्यान
जाने की जो
व्यवस्था थी,
वह टूट जाती
है। तो फिर
आपको दर्द का
पता नहीं चलता।
दर्द गोली से
नहीं मिटता, गोली तो
सिर्फ भुलावा
है। और आपके
ध्यान जाने की
जो प्रक्रिया
है दर्द तक, उसको तोड़
देती है, बीच
के स्नायुओं
को शिथिल कर
देती है, कि
वहां से खबर
नहीं आ सकती।
तो फिर आपरेशन
में आपका पैर
भी काट डाला
जाता है तो
आपको पता नहीं
चलता। एक इंजेक्शन
दे दिया, तो
इंजेक्शन
आपके दर्द को
नहीं रोकता, दर्द तो
होगा ही, लेकिन
दर्द तक ध्यान
को नहीं जाने
देता। इसलिए
दर्द का कोई
पता नहीं चलता।
आपके पूरे
शरीर को काटा
जा सकता है और
आपको पता भी न
चले। बस पता
चलने का एक ही
उपाय है कि
ध्यान जाना चाहिए।
और ध्यान
जाएगा। जहां
भी पीड़ा होगी,
वहां ध्यान
जाएगा।
आत्मा
में कोई पीड़ा
नहीं है, इसलिए
ध्यान जाने का
कोई उपाय नहीं
है। आत्मा में
सदा आनंद है, इसलिए ध्यान
को बुलाने की
कोई जरूरत
नहीं है।
शरीर
में सदा
उपद्रव है, कहीं
न कहीं कोई
मुसीबत है।
शरीर बड़ा
यंत्र है, जटिल
है बहुत।
पृथ्वी पर अब
तक हम कोई ऐसा
यंत्र नहीं
बना पाए जो
शरीर से
ज्यादा जटिल
हो। और
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
एक आदमी के
साधारण शरीर
में जो घटना
घट रही है, अगर
उतनी घटना
हमें घटानी
हो, तो कम
से कम दस वर्गमील
की फैक्टरी
बनानी पड़े। और
इतना उपद्रव
और शोरगुल मचे
उस फैक्टरी
में और आदमी
के भीतर सब
चुपचाप हो रहा
है!
आदमी
एक बहुत बड़ी
घटना है। उसके
शरीर में, एक
आदमी के शरीर
में, कोई
सात अरब
जीवाणु हैं।
उन सात अरब
जीवाणुओं की
भीड़ है आपका
शरीर। उन सात
अरब जीवाणुओं
का समाज है, उनकी
व्यवस्था है।
और उनकी
व्यवस्था बड़ी
अनूठी है। अब
तक आदमी ऐसी
कोई व्यवस्था
नहीं बना पाया।
हमारे बड़े से
बड़े राज्य भी
उतने
व्यवस्थित नहीं
हैं, जितने
व्यवस्थित भीतर
के सात अरब
जीवाणु हैं।
आपको खयाल
नहीं है उनके
काम का। अगर
आप शरीर की
पूरी काम—प्रक्रिया
को समझें, तो
चकित हो
जाएंगे। जरा
सी चोट लगती
है तो काम
शुरू हो जाता
है। भोजन आप
जरा सा पेट
में डाल लेते
हैं तो काम शुरू
हो जाता है।
आप कुछ भी
नहीं करते, तो भी आपके भीतर
का बड़ा यंत्र
कार्य में लगा
हुआ है। जरूरी
है कि इस जटिल
यंत्र की तरफ
जहां भी जरा सी
उलझन हो, फौरन
ध्यान जाए।
अगर ध्यान
नहीं जाएगा तो
आप मर जाएंगे।
तो
बच्चा अगर
भीतर का
ध्यानी हो
पैदा, तो बच
नहीं सकता।
इसलिए तो हम
कहते हैं, जो
परम— ध्यान को
उपलब्ध हो जाते
हैं, उनका
फिर जन्म नहीं
हो सकता। उसका
कारण भी है।
जन्म हो भी
नहीं सकता, क्योंकि जो
परम— ध्यान को
उपलब्ध हो
जाता है, उसकी
लीनता भीतर हो
जाती है। भीतर
लीनता होने से
नए शरीर से
संबंध ही निर्मित
नहीं होता।
संबंध भी
निर्मित हो
जाए तो बच्चा
जी नहीं सकता।
क्योंकि बाहर
की जरूरत, मांग
वह पूरी न कर
पाएगा। बाहर
की चुनौती का
वह मुकाबला
नहीं कर पाएगा।
शरीर
की जरूरत है, जीवन
की जरूरत है
कि ध्यान बाहर
जाए। और शरीर
में इतनी पीड़ाएं
हैं, इतनी जटिलताएं
हैं कि ध्यान
की पुकार
निरंतर वहां
बनी रहती है।
इसलिए हमें
शरीर का तो पता
चलता है, इंद्रियों
का पता चलता
है, संसार
का पता चलता
है, सिर्फ
एक का पता
नहीं चलता— वह
जो हम हैं!
क्योंकि एक तो
वहां कोई पीड़ा
नहीं है। वहां
कभी कोई पीड़ा
नहीं हुई। और
कभी कोई पीड़ा
वहां हो नहीं
सकती।
इससे
आप समझें कि
आदमी को आत्म—विस्मरण
क्यों है?
आत्म—विस्मरण
इसलिए है कि
आत्म—स्मरण की
कोई जरूरत
नहीं मालूम
होती। जिनको
जरूरत मालूम
होती है आत्म—स्मरण
की,
वे तत्काल
आत्म—स्मरण को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
किनको
जरूरत मालूम
होती है? यह भी
थोड़ा खयाल में
ले लें। किन
व्यक्तियों
के जीवन में
जरूरत पैदा
होती है आत्म—स्मरण
की?
शरीर
के स्मरण की
जरूरत सबके
जीवन में है।
लेकिन वे थोड़े
से ही लोग हैं, जिनके
जीवन में आत्म—स्मरण
की जरूरत पैदा
होती है। वह
कब पैदा होती
है?
वह
तब पैदा होती
है,
जब शरीर के
सारे अनुभव से
गुजरने के बाद
यह खयाल में
आता है कि
चाहे कैसी भी
करो व्यवस्था,
शरीर में
दुख बना ही
रहेगा। चाहे
कुछ भी करो
उपाय बाहर, सुख के पाने
की सुविधा
नहीं है।
कितना ही
आयोजन करो
संसार में बहिर्दृष्टि
हो कर, किसी
तरह के आनंद
की कोई किरण, कोई सुर
सुनाई नहीं
पड़ता। जब ऐसी
प्रतीति किसी
को होती है और
बाहर का सारा
का सारा जीवन
दुख हो जाता है...।
ध्यान
रखना, एक दुख
होगा तो फर्क
नहीं पड़ेगा, क्योंकि
दूसरे सुख की
आशा बनी रहेगी।
दस दुख हो
जाएंगे, तो
दस सुखों की
आशा साथ खड़ी
रहेगी। तो हम
बाहर दौड़ते
रहेंगे। एक
सुख को छोड़
देते हैं, क्योंकि
दुख हो गया, दूसरे सुख
की तलाश करने
लगते हैं।
लेकिन जब बाहर
का पूरा जीवन
ही दुख अनुभव
हो जाएगा—
इसीलिए बुद्ध
ने कहा है कि
जीवन दुख है—
जब पूरा जीवन
ही दुख मालूम
होगा, तब
अचानक खयाल
आएगा कि बाहर
तो सब दुख है
तो मैं भीतर
भी खोज कर के
देख लूं कि
वहां क्या है।
बाहर जब सब
व्यर्थ हो
जाता है, तो
व्यक्ति भीतर
की तरफ उन्मुख
होता है।
बच्चा तो पैदा
होता है बाहर
की तरफ उन्मुख।
कभी—कभी कोई
जीवन के गहन
अनुभव से गुजर
कर भीतर की तरफ
उन्मुख होता
है। भीतर की
उन्मुखता के
लिए ही यह
सूत्र है।
'जो तुम्हारे
भीतर है, केवल
उसी की इच्छा
करो।’
तो
ही परम आनंद
की,
तो ही परम
मुक्ति की
संभावना है।
जो तुम्हारे
भीतर है, उसकी
इच्छा करो।
लेकिन हम तो
अगर भीतर की
भी इच्छा करते
हैं, तो वह
भी नाममात्र
को ही भीतर की
होती है, वह
भी बाहर की ही
होती है।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते हैं
कि अगर हम
ध्यान करें, तो क्या सुख—संपदा
बढ़ेगी? ध्यान में
आकांक्षा है,
संपदा बढ़े।
मेरे पास लोग
आते हैं, वे
कहते हैं कि
अगर हम ध्यान
करें, तो
क्या सफलता
संसार में
मिलेगी? उन्हें
पता ही नहीं
कि वे क्या कह
रहे हैं!
ध्यान
का मतलब ही है
कि संसार अब
विफल हो गया।
वहां कोई
सफलता है ही
नहीं, इस बात
की प्रतीति तो
ध्यान की
शुरुआत है। ध्यान
की शुरुआत तो
होती ही तब है,
जब पता चल
जाता है कि
बाहर संपदा है
ही नहीं।
मिलने का और न
मिलने का कोई
सवाल नहीं है,
वहां संपदा
है ही नहीं, वहां केवल
संपदा का भ्रम
है। जब किसी
का भ्रम टूट
जाता है, तो
ध्यान का सवाल
उठता है।
लेकिन
भ्रम नहीं
टूटा है। बाहर
सब तरह की
कोशिश कर ली
है और संपदा
नहीं मिली है।
लेकिन बाहर
संपदा है, यह
पक्का है। अब
सोचते हैं कि
शायद ध्यान से
बाहर संपदा मिल
जाए! तो चलो
ध्यान कर लें।
लेकिन ध्यान
से कोई
प्रयोजन नहीं
है, प्रयोजन
संपदा से है।
जब
तक प्रयोजन
बाहर है, जब तक
इच्छा बाहर है,
तब तक कोई
अध्यात्म की
यात्रा में बढ़
नहीं सकता।
इसलिए इस
सूत्र को बहुत
खयाल में रख
लेना।
'
जो
तुम्हारे
भीतर है, केवल
उसी की इच्छा
करो। क्योंकि
तुम्हारे
भीतर समस्त
संसार का प्रकाश
है, वही
प्रकाश जो
साधना—पथ को
प्रकाशित कर
सकता है। यदि
तुम उसे अपने
भीतर नहीं देख
सकते, तो
उसे कहीं और
ढूंढना
व्यर्थ है।’
जो
भी पाने योग्य
है,
तुम्हारे
भीतर है। चाहे
उसे कहो
प्रकाश, चाहे
उसे कहो आनंद,
चाहे उसे
कहो परमात्मा,
चाहे उसे
कहो मुक्ति, चाहे कहो
निर्वाण, वह
जो भी पाने
योग्य है, वह
तुम्हारे
भीतर है।
बुद्धों ने, महावीरों ने,
कृष्णों ने, क्राइस्टों ने जो पाया
है, वह
तुम्हारे
भीतर है।
लेकिन
हम उसे भी
बाहर ही खोजते
हैं! जो हमारे
भीतर है, उसे
भी हम बाहर ही
खोजते हैं!
हमारी खोज ही
बाहर की तरफ
दौड़ती है। हम
जानते ही हैं
एक ढंग खोजने
का—बाहर। जीवन
की जरूरत से
यह ढंग पैदा
हो गया। इस
ढंग को तोड़ेंगे
नहीं, तो
आप बाहर ही
दौड़ते रहेंगे।
और
बाहर की दौड़
में आपको बहुत
बार लगेगा कि
सुख करीब है, करीब
है— अब मिला, अब मिला। और
हर बार जब
पहुंचेंगे
वहां, तो
पाएंगे कि
इंद्रधनुष की
तरह खो गया।
इंद्रधनुष
दिखते बहुत
प्यारे हैं, लेकिन दूर
से ही उनमें
रंग होते हैं।
अगर आप पास
पहुंच जाएं तो
वे खो जाते
हैं। उनको
देखने के लिए
फासला चाहिए।
वह फासले से
पैदा हुआ भ्रम
है। पास पहुंच
गए, भ्रम
टूट जाता है।
सब
सुख
इंद्रधनुष ही
हैं—दूर हैं।
अगर
आप सड्कों
पर भीख मांग
रहे हैं तो
आपको लगता है, महलों
में सुख है, क्योंकि महल
बहुत दूर है।
वह जो महल में
बैठा है, उसे
सुख का बिलकुल
पता नहीं चल
रहा है। वह हो
सकता है कि इस भिखमंगे
से भी ज्यादा
दुखी हो।
क्योंकि भिखमंगे
को कम से कम
आशा तो है कि
महल में सुख
है। वह कभी न
कभी महल में
पहुंच ही
जाएगा। इस आशा
के भरोसे भी
जी तो लेता है।
लेकिन वह जो
महल में पहुंच
गया है, उसकी
यह आशा भी
तिरोहित हो गई
है, महल
में कोई सुख
नहीं मालूम
हुआ। लेकिन वह
भी सोचता है
कि किसी और
बड़े महल में सुख
जरूर है। जहां
हम नहीं हैं, वहा सुख
दिखाई पड़ता है।
और
ऐसा नहीं है
कि यह बात
महलों के
संबंध में ही
सच हो। यह भी
हो जाता है कि
महलों में रह
कर ऊब गया
आदमी कभी—कभी
सोचने लगता है
कि झोपड़ों
में रहने वाले
लोग बड़े सुखी
हैं। शहरों
में रहने वाले
लोग सोचते हैं, गांवों
में रहने वाले
लोग बड़े सुखी
हैं। गांवों
में रहने वाले
लोग शहर की
तरफ दौड़ रहे हैं!
गांव के किसी
आदमी से कहो
कि तुम परम—आनंद
में हो, तो
वह भरोसा नहीं
करता आपका कि
कहां का आनंद?
मगर शहरों
में लोग हैं
कि वे सोचते
हैं, गांवों
में आनंद बरस
रहा है!
कविताएं
लिखते हैं, किताबें
लिखते हैं कि
गांवों में
बड़ा आनंद है!
हालांकि
गांवों में वे
भी जाते नहीं।
रहते वे भी
शहर में हैं।
जाएं तो
उन्हें पता
चलता है कि
भारी दुख है।
जो जाते हैं, वे फौरन
वापस लौट आते
हैं।
यह
बड़े मजे का
मामला है।
जहां हम नहीं
हैं,
वहां सुख
दिखाई पड़ता है।
और जहां हम
हैं, वहां
दुख दिखाई
पड़ता है।
लेकिन जिन
जगहों पर हम
नहीं हैं, वहां
भी कोई है।
उससे हम पूछने
का भी कष्ट
नहीं उठाते, कि वहां
तुझे क्या मिल
रहा है! वह भी
वहां तृप्त
नहीं है।
खोजते
हैं हम बाहर
और बाहर वह
कभी भी नहीं
मिलेगा।
क्योंकि बाहर
वह है नहीं, मिलने
का कोई कारण
नहीं है। और
जिसकी हम तलाश
कर रहे हैं, वह हमने
भीतर खो दिया
है। और भीतर
खो दिया है इस
जीवन की जरूरत
के कारण।
ध्यान चला गया
बाहर। और
ध्यान चौबीस
घंटे बाहर
व्यस्त है। और
भीतर हम बे—
ध्यान हो गए
हैं। भीतर बे—
भान हो गए हैं
और सारा भान
बाहर चला गया
है। अगर यह
खयाल में आ
जाए, तो हम
भान को भीतर
ले जा सकते
हैं।
इसलिए
ध्यान के
आखिरी चरण में
मैं आपसे कहता
हूं कि आप
जैसे हैं, मुर्दे
की भांति हो
जाएं। कुछ भी
हो रहा हो, मुर्दे
की भांति हो
जाएं। नहीं तो
ध्यान की जो
शक्ति जगती है,
उसको भी आप
बाहर ले
जाएंगे, वह
तब्धण
बाहर चली
जाएगी। अगर
आपको आंखें
खुली रखने का
मौका दिया जाए
तो वह ध्यान
की जो शक्ति
जगी है, आपकी
आंखों से तत्क्षण
बाहर घूमने
लगेगी। आप
किसी व्यर्थ
चीज पर उसको
नष्ट कर देंगे।
पास में खड़ी
कोई स्त्री
दिखाई पड़
जाएगी, कोई
आदमी नाचता
हुआ दिखाई पड़
जाएगा, कोई
व्यक्ति पागल
सा मालूम
पड़ेगा। आपको
पता नहीं कि
आप क्या कर
रहे हैं!
लेकिन आपकी आंखें
अभी ताजी हैं,
भीतर ध्यान
पैदा हुआ है।
आप उस ध्यान
को नष्ट किए
दे रहे हैं एक
क्षण में।
घंटों में जो
पैदा होता है,
वह एक क्षण
में खोया जा
सकता है।
इसलिए
कहता हूं आंखें
बांध कर रखें।
ताकि वह जो
ध्यान पैदा
हुआ है, आख से
बाहर न बहे।
इसलिए कहता
हूं शरीर को
मुर्दे की
भांति छोड़ दें,
जरा भी
हिलाए—डुलाए
न। क्योंकि
आपको अपनी ही बेईमानियो
का कोई पता
नहीं है। कहीं
लगेगा कि पैर
में दर्द हो
रहा है, कहीं
लगेगा कि हाथ
जरा ठीक कर
लें, कहीं
लगेगा सिर में
खुजलाहट आ रही
है। अगर आ भी
रही है सिर
में खुजलाहट,
तो दस मिनट
में क्या
बिगड़ने वाला
है? जिंदगी
पड़ी है, खुजला लेना। और
अगर दस मिनट
पैर में थोड़ी
तकलीफ भी हो
रही है, तो
क्या बिगड़ा
जा रहा है? कोई
मौत नहीं आ
जाएगी। और अगर
एक चींटी पैर
पर चढ़नी
शुरू हो गई, तो क्या
बिगाड़ लेगी? काट ही सकती
है। कोई सांप
भी नहीं चढ़
गया है, चींटी
ही चढ़ रही है!
मगर एक चींटी
आपको बेचैन कर
देती है।
चींटी बेचैन
नहीं कर रही, चींटी बहाना
है। आपके भीतर
जो ध्यान की
शक्ति पैदा
हुई है, वह
कोई भी बहाने
बाहर बहना
चाहती है। आप
हाथ से चींटी
को हटा लेंगे—
आपको पता नहीं
कि उस हाथ की
उस छोटी सी
हरकत में आपने
ध्यान बाहर
भेज दिया।
इसलिए
कहता हूं कि
जब ध्यान की
ऊर्जा जगती है, तो
सब तरफ से रुक
जाएं। बस
पत्थर की तरह
हो जाएं। इस
दस मिनट में
बाहर की दुनिया
रही ही नहीं।
तो ही किसी
दिन, किसी
क्षण, मौका
आएगा कि ध्यान
धक्का मारेगा—बाहर
जाने का उपाय
नहीं होगा—तों
धक्का मारेगा
और भीतर की एक
झलक मिल जाएगी।
एक झलक मिल
जाए तो फिर
आपको रस और
स्वाद आ गया।
तो फिर आप
भीतर की तरफ
जा सकते हैं।
लेकिन
आप छोटी चीजों
में खोने को
तैयार हैं, बहुत
क्षुद्र
चीजों में।
अगर सोचेंगे
तो आपको भी
लगेगा कि क्या
क्षुद्र बात
थी! इसमें
खोने जैसा
क्या था? खड़े
थे, थक गए
थे, तो
इसमें क्या
अड़चन आ रही थी?
लेकिन मैं
देखता हूं कि
आप अपने को
कैसा धोखा दे
लेते हैं!
जल्दी से बैठ
जाते हैं। मैं
कहता हूं रुक
जाएं। आप
जल्दी से बैठ
जाते हैं! मैं
कह रहा हूं
रुक जाएं, जैसे
हैं वैसे ही।
आप जल्दी से
बैठ कर ठीक
आसन लगा लेते
हैं! आपको पता
नहीं कि आप कर
क्या रहे हैं।
किसको धोखा दे
रहे हैं? कोई
मुझे धोखा दे
रहे हैं? मुझे
धोखा देने का
क्या सार है? आपने ही तीस
मिनट इतना
श्रम लिया और
आप एक सेकेंड़
में उसको खो
रहे हैं, क्योंकि
आप ध्यान बाहर
दे रहे हैं।
शक्तियां
जरा से छिद्र
से बह जाती
हैं। और आप यह
मत सोचना कि नाव
में केवल एक
छेद है, इसलिए
क्या हर्ज है?
पार हो
जाएंगे। एक
छेद का सवाल
नहीं है। छेद
है, इतना
काफी है। एक
छेद नाव को डुबा
देगा। और ये बेईमानियां
छेद बन जाती
हैं।
'जो तुम्हारे
भीतर है, केवल
उसी की इच्छा
करो।’
और
अगर तुम उसे
भीतर नहीं पा
सकते हो, तो
बाहर ढूंढना
व्यर्थ है, क्योंकि वह
बाहर नहीं है।
आठवां सूत्र,
'जो तुमसे
परे है, केवल
उसी की इच्छा
करो।’
यह
भी बहुत सोचने
जैसा है, 'जो
तुमसे परे है,
केवल उसी की
इच्छा करो।’
हम
हमेशा जो
हमारे हाथ के
भीतर है, उसी
की इच्छा करते
हैं। जिसमें
हम पाते हैं
कि सफल हो ही जाएंगे,
उसकी ही
इच्छा करते
हैं। जिसमें
हमें पक्का
भरोसा है कि
हम कुशल हैं, उसी की
इच्छा करते
हैं। इसका
अर्थ यह हुआ
कि आप अपने से
बड़े कभी भी न
हो पाएंगे। आप
जैसे हैं, जो
हैं, वहीं
रुक जाएंगे।
सदा अपने से
पार की इच्छा
करनी चाहिए—
तो ही होती है
गति, तो ही
होता है विकास।
क्योंकि वह जो
पार है अपने
से, उसको
पाने में ही
आप बड़े होते
हैं।
लेकिन
क्या है पार
आपके? जगत में
ऐसी कोई भी
चीज नहीं, जो
मनुष्य के पार
हो। सभी कुछ
मनुष्य पा
लेता है, आप
भी पा सकते
हैं। माना कि
सिकंदर बहुत
पा लेता है।
आप थोड़े छोटे
सिकंदर हैं, उतना नहीं
पा सकते। वह
अगर बडा
साम्राज्य
बना लेता है, तो आप एक
छोटा सा बनाते
हैं, लेकिन
असंभव कुछ भी
नहीं है। अगर
आप भी वैसे ही
पागल और
जिद्दी हों, जैसा सिकंदर
है; अगर
आपको भी मद का
वैसा ही नशा
चढ़ जाए, तो
आप भी पा
लेंगे। एक बात
तय है कि
सिकंदर जो
पाता है, वह
कोई भी आदमी
पा सकता है।
उसमें आदमी के
पार कुछ भी
नहीं है। हो
सकता है कि
कोई डिल्क,
कोई एंड़रू
कार्नेगी,
कोई रॉकफेलर
अरबों रुपए
कमा लेता है, तो आप भी कमा
सकते हैं, पार
कुछ भी नहीं
है। अगर आप एक
पैसा कमा सकते
हैं तो अरब
रुपए भी कमा
सकते हैं।
क्योंकि अरब
रुपए और एक
पैसे में अंतर
परिमाण का है,
गुण का नहीं।
जो
एक पैसा कमा
सकता है, वह दो
क्यों नहीं
कमा सकता है? और एक पैसा, और एक पैसा, और एक पैसा, जुड़ते—जुड़ते
अरब हो जाते
हैं। तो जो
फर्क है, वह
कोई गुणात्मक
नहीं है, क्यालिटेटिव नहीं है, क्वांटिटी का है। तो
अगर मैंने एक
पैसा कमा लिया,
तो मैंने
दुनिया की सब
संपत्ति कमा
ली। मैं कमा
सकता हूं।
क्योंकि एक
पैसा, मौलिक
सीढ़ी मेरे हाथ
में आ गई। अब
व्यर्थ है कि
अरब कमाऊ, कि
दो अरब कमाऊ।
एक पैसा कमाने
में रास्ता
साफ हो गया।
वह मैं कमा
सकता हूं वह
परे नहीं है।
यह
सूत्र कहता है, 'जो
तुमसे परे है,
केवल उसी की
इच्छा करो।’
क्या
है तुमसे परे? तुम
ही! वह
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है, वही
तुमसे परे है।
बाकी सब
तुम्हारे हाथ
के भीतर है।
बाकी सब आसान
है। कितना ही
कठिन मालूम
पड़ता हो, आसान
है। बाकी सब
क्षुद्र है।
एक तुम्हारे
भीतर जो छिपी
संपदा है, वही
एक तुमसे पार
मालूम पड़ती है।
उस तरफ जाने
का न कोई उपाय
सूझता है, न
कोई मार्ग
दिखाई पड़ता है।
न उस तरफ हाथ
फैला सकते हो,
क्योंकि
हाथ बाहर जाते
हैं। न उस तरफ
आख खोल सकते
हो, क्योंकि
आख बाहर खुलती
है। न उस तरफ
कान दे सकते
हो, क्योंकि
कान बाहर
सुनते हैं।
सारी
इंद्रियां
बाहर जाती हैं
और उसकी तलाश
भीतर करनी है।
मन बाहर जाता
है और उसकी
तलाश भीतर
करनी है। वह
तुमसे परे है।
तुमसे
परे है, तुम्हारा
होना। इसका
अर्थ हुआ कि
तुम दो तरह के
हो। एक तो
तुम्हारा
बाहर जाने
वाला रूप है—तुम्हारी
इंद्रियां, तुम्हारा
शरीर, तुम्हारा
मन, तुम्हारा
अहंकार। इन
सबके जोड़ का
नाम है अहंकार।
यह बाहर जाने
वाला है। इस
अहंकार के परे
है तुम्हारा
वास्तविक
स्वरूप, तुम्हारी
आत्मा। अगर
इच्छा ही करनी
है तो केवल
उसकी इच्छा
करो, जो
तुमसे परे है।
'वह तुमसे
परे है, क्योंकि
जब तुम उसे
प्राप्त कर
लेते हो, तो
तुम्हारा
अहंकार नष्ट
हो चुका होता
है।’
वह
तुमसे परे
इसलिए है कि
तुम उसे पाने
में नष्ट हो
जाओगे। इस
सूत्र को समझ
लें।
जिसको
पाने में तुम
नष्ट नहीं
होते, वह
तुमसे परे
नहीं है।
जिसको पाने
में तुम्हें
अपना अहंकार
नहीं चुकाना
पड़ता, वह
तुमसे परे
नहीं है।
जिसकी कीमत
में तुम्हें
खुद को देना
पड़ता है, वही
तुमसे परे है।
और जिस दिन
कोई व्यक्ति
आत्मा को
उपलब्ध होता
है, उस दिन
उसका वह
पुराना रूप, जो यात्रा
पर निकला था, वैसे ही छूट
गया होता है, जैसे सांप
की केंचुली
छूट जाती है।
जिस दिन कोई
अपने को पाता
है, उस दिन
बड़ी हैरानी
में पड़ता है
कि यह मैं वह
तो बचा ही नहीं,
जो खोजने
निकला था।
कबीर
ने कहा है, ' हेरत—हेरत हे
सखी, रह्या कबीर हेराय!'
खोजते—खोजते
कबीर खो गया, तब हुआ मिलन।
तब हुआ मिलन!
लेकिन जो
खोजने निकला
था, वह बचा
नहीं—तब हुआ
मिलन! कबीर ने
बड़ी मीठी बात
कही है। खोजने
निकला था मैं,
सोचता था पा
लूंगा उसे। जब
तक वह नहीं था,
तब तक मैं
था। और जब उसे
पाया, तो
देखा कि जो
खोजने निकला
था, वह
तिरोहित हो
गया। और मजे
की बात कही है
कि जब मैं खो
गया, तब
देखा कि ' हरि
लागे
पाछे फिरे, कहत
कबीर कबीर!'
जब मैं बचा
नहीं, तब
खुद भगवान
मेरे पीछे
चिल्लाने लगे,
ढूंढने लगे
मुझे और कहने
लगे कबीर—कबीर!
' हरि लागे
पाछे फिरे, कहत
कबीर कबीर।’ जब तक मैं था
और चिल्ला रहा
था जोर से कि
मैं हूं तब तक
उनकी कोई झलक
न मिली! और अब
जब मैं खो गया,
तो वे मेरे
पीछे लगे
फिरते हैं, मुझे पूछते
हैं कि कबीर—कबीर!
वह जो मिट गया,
उसकी इतनी
पूछ हो रही है!
और वह जब था, तो उसकी कोई
भी पूछ न थी!
तुम्हें
तुम्हारा
पूरा सम्मान
उस दिन मिलेगा, जिस
दिन तुम मिट
जाओगे।
तुम्हारा
पूरा गौरव उस
दिन खिलेगा, जिस दिन तुम
नहीं होओगे।
बीज जब टूट
जाता है, तो
जन्म होता है
पौधे का। नदी जब
खो जाती है, तो सागर बन
जाती है। यह
जो क्षुद्र है
अहंकार, इसके
परे है वह
विराट, जो
तुम्हारे
भीतर ही छिपा
है।
नौवां
सूत्र, 'जो
अप्राप्य है,
केवल उसी की
इच्छा करो।’
जो
अप्राप्य है, केवल
उसी की इच्छा
करो। जो मिल
सकता है, उसकी
भी क्या इच्छा
करनी? उसे
भी क्या
मांगना जो मिल
ही जाएगा? मांग
ही करनी हो, इच्छा ही
करनी हो तो
उसकी करना, जो मिल नहीं
सकता।
बड़ी
अजीब बात है।
क्योंकि अगर
वह मिल ही
नहीं सकता, तो
मांग करने से
भी क्या होगा?
अगर
निश्चित ही वह
अप्राप्य है,
मिल नहीं
सकता, तो
उसकी इच्छा
करने से भी
क्या होगा? और अगर
इच्छा करने से
वह मिल सकता
है, तो फिर
उसको
अप्राप्य
कहने का क्या
प्रयोजन? वह
प्राप्य ही था,
इच्छा करने
से मिल गया।
तो
इस सूत्र को
समझना पड़ेगा।
क्या है
अप्राप्य? जो
मिल सकता है, वह तो
अप्राप्य
नहीं है। फिर
कौन सी चीज
अप्राप्य है?
एक ऐसी चीज
भी है, जो
अप्राप्य
इसलिए है, कि
वह तुम्हें
मिली ही हुई
है, उसे
पाने का कोई
सवाल नहीं है।
उसे प्राप्त
करने का कोई
सवाल नहीं है।
पाया तो उसे
जाता है, जो
मिला न हो।
तुम्हारा आंतरिक
अस्तित्व तो
तुम्हें मिला
ही हुआ है। वह
अप्राप्य
नहीं है, वह
प्राप्य ही है।
इसलिए उसे अप्राप्य
कहा है। उसे
पाने का कोई
उपाय नहीं है,
उसे सिर्फ उघाड़ने का
उपाय है। उसे
पाने की कोई
जरूरत नहीं है,
उसे केवल
पहचानने की
जरूरत है। प्रतिभिज्ञा,
पहचान, स्मृति—
बस इतना काफी
है। उसे पाने
के लिए कुछ और
करना नहीं है,
सिर्फ एक
पर्दा सरकाना
है और वह
मौजूद है। वह
सदा से मौजूद
है अपनी पूरी
सत्ता में
तुम्हारे
भीतर।
बुद्ध
को जब ज्ञान
हुआ,
तब किसी ने
पूछा कि क्या
मिला आपको? हमें भी
बताएं! तो
बुद्ध ने कहा
है कि मिला
कुछ भी नहीं, खोया जरूर
बहुत। मिला
कुछ भी नहीं!
इसलिए कि जो
मिला, वह
पहले से ही
मिला हुआ था।
हम नासमझ थे
कि हमें पता
ही नहीं था।
खोया बहुत, अपने को
खोया, अज्ञान
को खोया, सारे
सपने, सारी
वासनाएं, सारी
इच्छाएं, वह
खोई। लेकिन जो
पाया है, उसे
कहा नहीं जा
सकता कि पाया,
क्योंकि वह
तो था ही। जो
प्राप्त ही था,
उसी को पाया
है।
इसलिए
सूत्र कहता है, अप्राप्य!
'जो अप्राप्य
है, केवल
उसी की इच्छा
करो। वह
अप्राप्य है,
क्योंकि
पास पहुंचने
पर वह बराबर
दूर हटता जाता
है।’
एक
और अर्थ में
भी वह
अप्राप्य है, क्योंकि
पास पहुंचने
पर वह बराबर
दूर हटता जाता
है।
'तुम प्रकाश
में प्रवेश
करोगे, किंतु
तुम ज्योति को
स्पर्श कदापि
न कर सकोगे।’
इस
अर्थ में भी
वह अप्राप्य
है कि तुम कभी
उस पर अपनी
मुट्ठी न बांध
सकोगे।
क्योंकि जैसे—
जैसे तुम भीतर
जाओगे, तुम
मिटने लगोगे।
वह तुम्हें
कभी नहीं
मिलेगा। उसके
मिलने के पहले
तुम मिट चुके
होओगे।
हेरत—हेरत हे
सखी रह्या
कबीर हेराय—उसे
पाने के पहले
तुम मिट चुके
होओगे। इसलिए
तुम्हें वह
कभी नहीं
मिलेगा।
तुम्हारे लिए
वह अप्राप्य
है। तुम उसके
प्रकाश में तो
प्रवेश करोगे, लेकिन
उसकी ज्योति
को कभी न पा
सकोगे। जैसे
पतंगा दौड़ता
है दीए की तरफ।
प्रकाश में तो
प्रवेश करता
है, दीए के
प्रकाश में आ
जाता है। और
जैसे—जैसे करीब
आने लगता है, वैसे—वैसे
मिटने की घड़ी
भी करीब आने
लगती है। और
जब ज्योति के
बिलकुल पास आ
जाता है और
ज्योति को छू
लेता है, तो
मर जाता है।
ज्योति को कभी
पा नहीं पाता।
ज्योति को
पाने के पहले
ही मिट जाता
है।
अगर
हम इस प्रतीक
को थोड़ा आगे
खींच लें, तो
पतंगे का
शरीर तो गिर
जाता है, उसकी
आत्मा ज्योति
से मिल जाती
होगी। हम जब
भीतर जाते हैं
तो हमारा
अहंकार तो पतंगे
की तरह गिर
जाता है। फिर
हमारी आत्मा...।
लेकिन
हम,
जैसे हम
जानते हैं
अपने को अभी, अभी जो
हमारा रूप है,
अभी जो हमने
समझा है कि
मेरा यह नाम, ठिकाना, पता,
यह जो मैं
हूं अभी हमारा
जो तादात्म्य
है, यह तादात्म्य
कभी भी उसे
उपलब्ध नहीं
कर पाता। यह
प्रकाश में
प्रवेश जरूर
करता है, यह
मंदिर की
सीढ़ियों पर
जरूर चढ़ता
है यह अहंकार,
लेकिन
मंदिर के
द्वार के बाहर
ही गिर जाता
है। और भीतर
जो प्रवेश
करता है, वह
अहंकार नहीं
है। जैसे जूते
तुम मंदिर के
बाहर उतार
देते हो, ऐसे
ही तुम भी उतर
जाओगे असली
मंदिर के बाहर।
वह भी खोल है—तुम्हारा
होना, जो
तुमने जाना है
अभी कि मैं यह
हूं यह हूं यह
हूं—वह भी खोल
है। वह भी
मंदिर के बाहर
ही गिर जाएगी।
तुम जरूर
मंदिर में
प्रवेश करोगे,
लेकिन उस 'तुम' का
तुम्हें कोई
पता नहीं है।
और तुम मंदिर
में कभी
प्रवेश नहीं
करोगे, जिस
'तुम' का
तुम्हें पता
है। तुम जो
जानते हो अपने
को, वह
बाहर गिर
जाएगा। और
जिसे तुम
जानते ही नहीं
हो, वह
भीतर प्रवेश
करेगा। वह
ज्योति के साथ
एक हो जाएगा।
इसलिए भी
सूत्र कहता है,
वह
अप्राप्य है।’
जो
अप्राप्य है, केवल
उसी की इच्छा
करो।’
आज
इतना ही।
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