प्रश्नसार:
1—दमन इतना
सहज सा हो गया
है कि हम कैसे
जाने
कि हममें असली
क्या है?
2—कृपया
मंत्र—दीक्षा
की प्रक्रीया
और उसे गुप्त
रखने
के कारणों पर
प्रकाश
डालें।
3—सक्रिय
ध्यान के
अराजक संगीत
और पश्चिमी
रॉक
संगीत में क्या
फर्क है?
पहला
प्रश्न :
दमन
हमारे शरीर और
मन की
स्वचालित
प्रक्रिया बन
गया है जिसे
हम न पहचानते
हैं, और न
बदलना ही
चाहते है। इस
हालत में हम
कैसे जानें कि
हमारा झूठा
चेहरा कौन सा है
और सच्चा
चेहरा कौन सा
है?
कई चीजें
समझने जैसी
हैं। एक तो यह
कि तुम्हारे
सभी चेहरे
झूठे हैं; तुम्हारा
कोई चेहरा
सच्चा नहीं है।
इसीलिए यह
प्रश्न उठता
है कि कौन सा
चेहरा झूठा है
और कौन सा
सच्चा। अगर
तुम्हारा
सच्चा चेहरा
होता तो
तुम्हें उसका
पता होता; तब
यह प्रश्न कभी
नहीं उठता।
सभी चेहरे
झूठे हैं, नकली
हैं। इसीलिए
तुम्हारे पास
तुलना करने को
कुछ भी नहीं
है।
कठिनाई
यह है कि
तुम्हें
यथार्थ का, असली
का पता नहीं
है। तुमने
यथार्थ को
नहीं देखा है।
और यथार्थ
सरलता से
दिखाई भी नहीं
पड़ता; उसको
देखने के लिए,
उसे पाने के
लिए बहुत
प्रयत्न की
जरूरत है।
झेन
संत कहते हैं
कि तुम्हारा
मौलिक चेहरा, तुम्हारा
सच्चा चेहरा
वह है, जो
तुम्हारे
जन्म के पहले
था और जो फिर
तुम्हारी
मृत्यु के बाद
होगा। उसका
मतलब है कि
जीवन के, तथाकथित
जीवन के सभी
चेहरे झूठे
हैं। फिर
सच्चे चेहरे
को कैसे खोजा
जाए?
तुम्हें
अपने जन्म के
पूर्व लौटना
होगा। असली
चेहरे को
खोजने का वही
उपाय है।
क्योंकि जन्म
की घड़ी से ही
तुम झूठ बोलना
शुरू कर देते
हो। और तुम
झूठ बोलना
इसलिए शुरू कर
देते हो क्योंकि
झूठ बोलने में
लाभ है। बच्चा
जन्म लेते ही
राजनीतिज्ञ
होने लगता है।
जिस क्षण वह
संसार से
संबंधित होता
है,
मां—बाप से,
परिवार से
जुड़ने लगता है,
वह राजनीति
में उतर जाता
है। अब उसे
अपने चेहरे की
फिक्र करनी
होगी। अब वह
रिश्वत के रूप
में
मुस्कुराएगा।
वह खयाल करेगा
कि मैं कैसा
व्यवहार करूं
कि मुझे ज्यादा
स्वीकृति
मिले, ज्यादा
प्यार मिले, ज्यादा
सराहना मिले।
देर—अबेर
बच्चा जान
जाएगा कि उसके
मां—बाप की
नजर में, परिवार
की निगाह में
क्या—क्या
निंदनीय है और
वह उसका दमन
करना शुरू कर देगा।
तभी उसमें झूठ
प्रवेश कर
जाता है।
तुम्हारे
सभी चेहरे
झूठे हैं।
अपने मौजूदा
झूठे चेहरों
में सच्चे
चेहरे की खोज
व्यर्थ है। वे
सबके सब झूठे
हैं,
समान रूप से
झूठे हैं।
लेकिन वे
उपयोगी हैं; इसीलिए तो
तुमने उन्हें अपनाया
है। वे उपयोगी
है, लेकिन
सच्चे नहीं।
और
सबसे बड़ा धोखा
यह है कि जब भी
तुम्हें पता चलेगा
कि मेरे चेहरे
झूठे हैं, तुम
कोई दूसरा
चेहरा
निर्मित कर
लोगे और
सोचोगे कि यह
सच्चा चेहरा
है। उदाहरण, एक आदमी
सामान्य जीवन
जीता है, सामान्य
दुनिया में
रहता है, एक
दुकानदार है।
उसे अपने पूरे
झूठ का, जीवन
की समस्त
अप्रामाणिकता
का बोध हो
जाता है और वह
उस जीवन का
त्याग कर देता
है। वह संन्यासी
हो जाता है और
संसार को
त्याग देता है।
वह आदमी सोच
सकता है कि अब
मेरा चेहरा
सच्चा है।
लेकिन यह भी
झूठा चेहरा है,
यह दूसरे
चेहरों की
प्रतिक्रिया
में ग्रहण किया
गया है। और
प्रतिक्रिया
के जरिए तुम
यथार्थ को
नहीं प्राप्त
कर सकते। झूठे
चेहरे की
प्रतिक्रिया
में जो चेहरा
अपनाओगे वह भी
झूठा ही होगा।
तो इस हालत
में क्या किया
जाए?
सच्चा
चेहरा कोई ऐसी
चीज नहीं है
जिसे उपलब्ध करना
है। झूठे
चेहरे
तुम्हारी
उपलब्धि हैं।
सच्चे को
उपलब्ध नहीं
करना है और न
उसका अभ्यास
ही करना है।
उसका
आविष्कार
करना है, उसे
प्रकट करना है।
वह है, सदा
है, उसे
पाना नहीं है।
क्योंकि पाने
की चेष्टा फिर
किसी झूठे
चेहरे को
निर्मित कर
देगी।
झूठे
चेहरे के लिए
प्रयत्न
जरूरी है; उसका
अभ्यास करना
होता है।
सच्चे चेहरे
के लिए कुछ भी
नहीं करना है,
वह है। अगर
तुम झूठे
चेहरों के
प्रति अपना लगाव
छोड़ दो तो
झूठा चेहरा
गिर जाएगा और
सच्चा प्रकट
हो जाएगा। जब
छोड़ने को कुछ
भी न बचे, जब
वही बचे जिसे
छोड़ा न जा सके,
तो तुम उसे
पा लोगे जो
सच्चा है।
और
झूठे चेहरों
को छोड़ने का
मार्ग ध्यान
है। यही कारण
है कि
निर्विचार पर
इतना जोर दिया
जाता है, क्योंकि
विचार के बिना
तुम झूठा
चेहरा नहीं
निर्मित कर
सकते। बोध की,
निर्विचार
की अवस्था में
तुम सच्चे हो
जाओगे; क्योंकि
विचार ही
बुनियादी रूप
से झूठे चेहरों
और मुखौटों का
निर्माण करते
हैं। जब विचार
नहीं रहेंगे
तो चेहरे भी
नहीं रहेंगे।
तब तुम बिना
चेहरे के होगे,
या तब
तुम्हारा
मौलिक चेहरा
होगा। दोनों
बातें एक ही
अर्थ रखती हैं।
तो
अपने विचारों
के प्रति, विचार—प्रक्रिया
के प्रति सजग
रहो। उनसे
लड़ों मत, उनका
दमन मत करो।
सिर्फ बोध रखो
कि विचार आकाश
में तैरते
बादलों जैसे
हैं और तुम
उन्हें किसी
पूर्वाग्रह
के बिना, किसी
पक्षपात के
बिना देख रहे
हो। अगर तुम
उनके विरोध
में हो तो तुम
उनसे लड़ने लगोगे
और वह लड़ाई ही
नई विचार—
श्रृंखला को
जन्म दे जाएगी।
और यदि तुम
उनके पक्ष में
हो तो तुम
अपने को भूल
जाओगे और तुम
उस विचार—प्रवाह
के साथ बहने
लगोगे। तब तुम
सचेतन साक्षी
की तरह वहां
मौजूद नहीं
रहोगे। अगर पक्ष
में हो तो
प्रक्रिया के
अंग बन जाओगे
और अगर विपक्ष
में हो तो तुम
प्रतिक्रिया
की दूसरी
प्रक्रिया
आरंभ कर दोगे।
इसलिए
न पक्ष लो और न
विपक्ष।
विचारों को
बहने दो, वे जहां
चाहें उन्हें
जाने दो, तुम
अपनी ओर से सब
तनाव छोड़ दो
और मात्र
साक्षी रहो।
जो भी हो रहा
है, उसे
सिर्फ देखो, साक्षी रहो।
कोई निर्णय मत
लो, मत कहो
कि यह भला है
कि यह बुरा।
अगर किसी देवी—देवता
के विचार उठें
तो मत कहो कि
कितना सुंदर
है। जिस क्षण
तुम यह कहते
हो, उसके
साथ तुम्हारा तादात्म्य
हो जाता है, तुम उस
विचार—
श्रृंखला के
साथ सहयोग
करने लगते हो।
ऐसा कहकर तुम
उसकी सहायता
करते हो; तुम
उसे ऊर्जा
प्रदान करते
हो। ऐसा कहकर
म् तुम उसे
भोजन देते हो।
और अगर तुम
उसे भोजन दोगे
तो वह कभी
जाने का नाम न
लेगा। वैसे ही
अगर कामुकता
के विचार उठें
तो यह मत कहो
कि यह बुरा है,
यह पाप है।
क्योंकि जैसे
ही तुम कहते
हो कि यह पाप
है, तुमने
विचारों की
दूसरी
श्रृंखला
शुरू कर दी। कामवासना
विचार है; पाप
भी विचार है।
वैसे ही ईश्वर
भी विचार है।
न पक्ष लो न विपक्ष; सिर्फ
पूर्वाग्रह—मुक्त
आंखों से देखो,
उदासीन
होकर देखते
रहो।
इसमें
समय लगेगा।
कारण यह है कि
तुम्हारा मन
धारणाओं से
इतना ग्रस्त
है कि तटस्थ
निरीक्षण
कठिन हो जाता
है। जैसे ही
हम कोई चीज
देखते हैं, हम
उसके बाबत
तुरंत निर्णय
ले लेते हैं।
हम रुकते नहीं
हैं; एक
क्षण का भी
अंतराल नहीं
होता है। तुम
एक फूल को
देखते हो और
देखते ही कह
बैठते हो कि
यह सुंदर है।
देखने में ही
व्याख्या
प्रवेश कर
जाती है।
निर्णय लेने
की इस
यांत्रिक आदत
को छोड़ने के लिए
तुम्हें सतत
जागरूक रहना
होगा। तुम कोई
चेहरा देखते
हो और तुरंत
निर्णय ले लेते
हो कि यह
कुरूप है, या
अच्छा है, या
बुरा है, या
ऐसा है, या
वैसा है। यह
निर्णय लेने
की आदत इतने
गहरे चली गई
है कि हमारे
लिए किसी चीज
को मात्र
देखना असंभव
हो गया है। मन
तुरंत प्रवेश
कर जाता है।
तब वह
व्याख्या हो
जाती है, वह
सरल दर्शन
नहीं रहता।
व्याख्या मत
करो, केवल
देखो।
आराम
से बैठ जाओ या
लेट जाओ, आंखें
बंद कर लो और
विचारों को
चलने दो। अगर
तुम कहते हो
कि ये बुरे
हैं, अगर
तुम निंदा
करते हो, तो
तुम उनका दमन
कर रहे हो, तुम
उन्हें
स्वच्छंदता
से बहने नहीं
दे रहे हो।
यही कारण है
कि स्वप्नों
की इतनी जरूरत
है। तुम दिन
में जिसे भी
दबाओगे, रात
में उसे प्रकट
होने का मौका
देना होगा। जो
भी दमित होता
है, वह
अभिव्यक्त
होने के लिए
जोर लगाता है;
उसे
अभिव्यक्ति
की जरूरत पड़ती
है। इसलिए तुम
जिसका दमन
करते हो उसे
ही सपने के रूप
में देखते हो।
सपने रेचन का
काम करते हैं।
नींद के ऊपर
जो आधुनिक शोध
हुई है वह
कहती है कि
यदि तुम्हें
सोने न दिया
जाए तो उससे
अधिक हानि
नहीं होगी, लेकिन तुम्हारे
सपने बहुत
जरूरी हैं।
पुरानी धारणा
कि नींद बहुत
आवश्यक है, गलत सिद्ध
हुई है। नींद
नहीं, सपने
जरूरी हैं। और
नींद सिर्फ
इसलिए जरूरी
है क्योंकि
उसके बिना
सपने देखना
मुमकिन नहीं
है।
शोधकर्ताओं
ने ऐसी
विधियां
विकसित की हैं, जिनके
द्वारा बाहर
से जाना जा
सकता है कि
तुम सपने देख
रहे हो या
सिर्फ सोए हो।
जब तुम सोए हो
तो वे
तुम्हारी
नींद में बाधा
डालेंगे—सारी
रात बाधा
डालेंगे। और
जब तुम सपने
देख रहे हो तो
वे उसे चलने
देंगे। जब
सपने नहीं चल
रहे हैं, तब
वे नींद में
बाधा देंगे।
और पाया गया
है कि इसका
कोई
दुष्परिणाम नहीं
होता। लेकिन
अगर वे
तुम्हारे
स्वप्न में
बाधा दें और
स्वप्नहीन
नींद को बिना
बाधा के चलने
दें तो तीन
दिन के भीतर
तुम्हें
चक्कर आने
लगेंगे और सात
दिन के भीतर
तुम्हें गहरी
बेचैनी होने
लगेगी।
तुम्हारे
शरीर और मन
दोनों बीमार
अनुभव करेंगे।
और तीन सप्ताह
के भीतर तुम
एक तरह के
पागलपन के
शिकार हो
जाओगे। क्या
होता है?
कारण
यह है कि सपने
रेचन का काम
करते हैं। और
अगर तुम दिन
में विचारों
और भावों का
दमन करते हो
और रात में
उन्हें सपनों
के जरिए प्रकट
नहीं होने
देते तो वे
तुम्हारे
भीतर इकट्ठे हो
जाते हैं। दमन
का यही संग्रह
पागलपन पैदा
करता है।
तो
ध्यान में
तुम्हें किसी
विचार का दमन
नहीं करना है।
लेकिन यह कठिन
है,
क्योंकि तुम्हारा
सारा मन
निर्णयों, सिद्धांतों,
धर्मों और
पंथों से भरा
है। जो आदमी
किसी विचार—दर्शन
या धर्म से
बहुत ग्रस्त
है, वह
ध्यान में
प्रवेश नहीं
कर सकता। यह
कठिन इसलिए है
कि उसकी
ग्रस्तता
बाधा बन। अगर
तुम ईसाई, हिंदू
या तुम्हारे
लिए ध्यान में
उतरना कठिन होगा।
क्योंकि
तुम्हारा
दर्शनशास्त्र
तुम्हें निर्णय
देता चलेगा कि
यह शुभ है और
यह अशुभ है, इसे दबाना
है और इसे
नहीं होने
देना है। सभी
दर्शनशास्त्र
दमनकारी हैं;
सभी धर्म, सभी आदर्श
दमनकारी हैं।
क्योंकि वे
तुम्हें जीवन
जैसा है, उसे
वैसा ही नहीं
देखने देते
हैं; वे उस
पर अपनी
व्याख्या
थोपते हैं।
जो
व्यक्ति
ध्यान में
गहरे उतरना
चाहता है उसे
आदर्शवाद की, सिद्धांतवाद
की इस मूढ़ता
से, व्यर्थता
से सावधान
रहना चाहिए।
मात्र आदमी
होकर जीओं—जिसका
न कोई
दर्शनशास्त्र
है और न कोई
दृष्टिकोण।
महज साधक रहो—जो
खोज रहा है, जो गहन शोध
कर रहा है कि
जीवन क्या है,
उसके ऊपर
कोई आदर्शवाद,
कोई सिद्धांत,
कोई धारणा
मत आरोपित करो।
तब ध्यान में
गति आसान हो
जाएगी।
यही
कारण था कि
इतिहास के
सबसे बड़े
ध्यानी गौतम
बुद्ध इस बात
पर जोर देते
थे कि
दर्शनशास्त्र
जरूरी नहीं है, आदर्शवाद
जरूरी नहीं है,
जीवन की
बंधी हुई
धारणा जरूरी
नहीं है।
ईश्वर है या
नहीं है, यह
बात व्यर्थ है,
अप्रासंगिक
है। मोक्ष है
या नहीं, यह
बात अर्थहीन
है। आत्मा अमर
है या नहीं, यह बात
व्यर्थ है।
बुद्ध दर्शन—विरोधी
थे—इसलिए नहीं
कि वे दर्शन—विरोधी
थे, बल्कि
इसलिए कि
दर्शन का अभाव
ध्यानी को अज्ञात
में छलांग
लेने के लिए
आधार— भूमि का
काम देता है।
दर्शनशास्त्र
का अर्थ है कि
अज्ञात को
जाने बिना ही
उसके संबंध
में कुछ मानना।
वह पूर्व
धारणा है, परिकल्पना
है, मनुष्य—निर्मित
आदर्शवाद है।
इस
बात को बहुत
आधारभूत तथ्य
की भांति
स्मरण रखो, कोई
निर्णय मत लो।
मन को सहजता
से बहने दो।
जैसे नदी बहती
है, वैसे
ही मन को
सहजता से बहने
दो। तुम नदी
के किनारे
बैठकर प्रवाह
को चुपचाप देखते
रहो। यह दर्शन
शुद्ध दर्शन
हो, उसमें
किसी तरह की
व्याख्या न
मिली हो। देर—
अबेर पानी बह
जाएगा। जब
दमित विचार
निकल जाएंगे
तो अंतराल आने
शुरू हो
जाएंगे। एक
विचार चला
जाएगा और
दूसरे विचार
के आने में
देर होगी; दोनों
के बीच अंतराल
होगा, खाली
जगह होगी। उस
अंतराल में
शून्य घटित
होता है। उस
अंतराल में
तुम्हें अपने
सच्चे चेहरे
की, मौलिक
चेहरे की पहली
झलक मिलेगी।
जब
विचार नहीं है
तो समाज नहीं
है। जब विचार
नहीं है तो
दूसरा भी नहीं
है। और जब
समाज भी नहीं
रहा,
दूसरा भी
नहीं रहा, तब
तुम्हें
चेहरे की कोई
जरूरत न रही।
निर्विचार
होना चेहरे के
बिना होना है।
उस अंतराल में,
जब एक विचार
जा चुकता है
और दूसरा अभी
नहीं आया है, तुम पहली
बार जानोगे कि
तुम्हारा
मौलिक चेहरा
क्या है—जो
जन्म के पूर्व
था और मृत्यु
के बाद होगा।
इस जीवन के
सभी चेहरे
झूठे हैं। और
एक बार तुमने
जान लिया कि
तुम्हारा
सच्चा चेहरा
क्या है, एक
बार तुमने उस आंतरिक
स्वभाव को
अनुभव कर लिया
जिसे बौद्ध
बुद्ध—स्वभाव
कहते हैं, एक
बार यदि तुमने
उस स्वभाव को
जान लिया तो
उसकी एक झलक
से भी तुम
दूसरे
व्यक्ति हो
जाओगे।
क्योंकि अब
तुम निरंतर
जानते हो कि
सच क्या है और
झूठ क्या है।
तब तुम्हें
कसौटी मिल
जाएगी। तब तुम
तुलना कर सकते
हो; तब
तुम्हें पूछना
नहीं पड़ेगा कि
क्या सच क्या
झूठ। प्रश्न
ही तब उठता है
जब तुम नहीं
जानते हो म् कि
सत्य क्या है।
और जो भी तुम
जानते हो वह
झूठ है।
ध्यान
से ही तुम जान
सकोगे कि झूठा
चेहरा क्या है
और सच्चा
चेहरा, प्रामाणिक
चेहरा क्या है।
यह सही है कि
मन स्वचालित
है और जो भी
तुमने किया है
वह यांत्रिक
हो गया है। इस
यांत्रिकता
को तोड़ना कठिन
काम है। इस
संबंध में
पहली बात यह
समझने की है कि
यह
यांत्रिकता
जीवन की जरूरत
है। तुम्हारे
शरीर की अपनी आंतरिक
संरचना है।
कोलिन विल्सन
ने उसे आंतरिक
रोबोट कहा है;
तुम्हारे
भीतर एक रोबोट
है, यंत्र—मानव
है। जब तुम
किसी चीज में
प्रशिक्षण
प्राप्त करते हो
तो वह
प्रशिक्षण उस
रोबोट के
हवाले कर दिया
जाता है। तुम
उसे स्मृति कह
सकते हो, तुम
उसे मन कह
सकते हो; कुछ
भी कह सकते हो।
लेकिन रोबोट
शब्द अच्छा है;
क्योंकि वह
बिलकुल
यांत्रिक है,
स्वचालित
है। वह अपने
ही ढंग से काम
करता है।
तुम
कार चलाना सीख
रहे हो। जब
सीख रहे हो, तुम्हें
सजग और सावधान
रहना होगा।
खतरा है।
तुम्हें कार
चलाना नहीं
आता है और कुछ
भी हो सकता है।
इसलिए
तुम्हें सदा
सजग रहना होगा।
यही कारण है
कि सीखना दुखदायी
काम है, आदमी
को निरंतर होश
सम्हाले रहना
पड़ता है।
लेकिन फिर जब
तुमने कार
चलाना सीख
लिया तो यह काम
मन के रोबोट
के सुपुर्द कर
दिया जाता है।
अब
तुम कार चलाते
हुए सिगरेट पी
सकते हो, गीत
गुनगुना सकते
हो, रेडियो
सुन सकते हो, किसी मित्र
से बातचीत कर
सकते हो, यहां
तक कि अपनी
प्रेमिका को
प्रेम भी कर
सकते हो। तुम
कुछ भी करते
रह सकते हो और
तुम्हारा
रोबोट कार
चलाता रहेगा।
अब तुम्हारी
जरूरत न रही, तुम भार से
मुक्त हो गए।
रोबोट सब कुछ
करेगा।
अब
तुम्हें यह भी
स्मरण रखने की
जरूरत नहीं है
कि कहं। मुड़ना
है। रोबोट यह
भी जानता है
कि कहां मुड़ना
है,
कहां रुकना
है, कहां
नहीं रुकना है,
क्या करना
है, क्या
नहीं करना है।
तुम्हारी
जरूरत न रही, तुम काम से
मुक्त हो गए।
रोबोट सब कुछ
कर रहा है। ही,
जब कुछ
आकस्मिक घटित
होगा, कोई
दुर्घटना या
ऐसा कुछ होगा
जिसे रोबोट
नहीं सम्हाल
पाएगा, जिसके
लिए वह
प्रशिक्षित
नहीं है, तभी
तुम्हारी
जरूरत होगी।
तब अचानक
तुम्हारे
शरीर में एक
झटका लगेगा, रोबोट हट
जाएगा और तुम
उसकी जगह ले
लोगे। जब कोई
दुर्घटना
होने को होगी
तो तुम अपने
भीतर झटका
अनुभव करोगे
और रोबोट
तुरंत हटकर
तुम्हें
तुम्हारी जगह
दे देगा। अब तुम
कार चला रहे
हो। लेकिन
दुर्घटना से
बचने के बाद
तुरंत ही रोबोट
तुम्हारी जगह
ले लेगा। अब
तुम आराम
करोगे और
रोबोट कार
चलाएगा।
और
यह जीवन में
जरूरी भी है, क्योंकि
बहुत सारे काम
करने को हैं—अनगिनत।
और उन्हें
करने के लिए
रोबोट न रहे
तो तुम कतई न
कर पाओगे।
रोबोट जरूरी
है, उसकी
जरूरत है। मैं
रोबोट के
विरोध में
नहीं हूं।
तुमने जो कुछ
सीखा है उसे
रोबोट के
हवाले कर दो, लेकिन तुम
मालिक बने रहो।
रोबोट को
मालिक मत बनने
दो।
यही
समस्या है।
रोबोट मालिक
बनने की
चेष्टा करेगा; क्योंकि
रोबोट तुमसे
ज्यादा कुशल
है। देर— अबेर
रोबोट मालिक
बनने की
चेष्टा करेगा।
वह तुमसे
कहेगा कि आप
पूरी छुट्टी
ले लें, आपकी
जरूरत नहीं है;
मैं ज्यादा
कुशलता से सब
कर सकता हूं।
लेकिन
तुम मालिक बने
रहो। रोबोट के
मालिक बने
रहने के लिए
तुम्हें क्या
करना होगा? एक
ही काम करना
है। एक ही काम
संभव भी है।
और वह यह है कि
कभी—कभी खतरे
के बिना भी
बागडोर अपने
हाथ में ले लो।
रोबोट से
विश्राम करने
को कहो और खुद सीट
पर आ जा कार
चला। यह तब
करो जब कोई
खतरे की बात न
हो; क्योंकि
खतरे में बात
फिर स्वचालित
हो जाती है।
खतरे में झटका
लगना और रोबोट
की जगह लेना
अपने आप हो
जाता है।
इसलिए कार
चलाते हुए
अचानक, जरूरत
के बिना ही
रोबोट को आराम
करने को कहो, खुद सीट पर आ
जाओ और कार
चलाओ।
वैसे
ही जब तुम चल
रहे हो तो
अचानक याद करो
और शरीर से
कहो कि अब मैं
होशपूर्वक
चलूंगा; रोबोट
की जरूरत नहीं
है, अब मैं
बोधपूर्वक
चलूंगा। तुम
मुझे यहां सुन
रहे हो; यह
दरअसल
तुम्हारा
रोबोट है जो
सुन रहा है।
अचानक उसे एक
झटका दो, मन
को बीच में मत
आने दो और
मुझे सीधे
सुनो, बोधपूर्वक
सुनो। जब मैं
कहता हूं कि
बोधपूर्वक
सुनो तो उसका
क्या मतलब है?
जब
तुम बेहोशी
में सुनते हो
तो तुम्हारा
पूरा अवधान
मुझ पर होता
है और अपने को
तुम बिलकुल
भूल जाते हो।
मैं तो होता
हूं बोलने
वाला तो होता
है;
लेकिन
सुनने वाला
बेहोश है। तुम
श्रोता के रूप
में अपने
प्रति
बोधपूर्ण नहीं
हो। जब मैं
कहता हूं कि
बागडोर अपने
हाथ में ले लो तो
उसका मतलब है
कि दो बिंदुओं
पर तुम्हें
बोधपूर्ण
रहना है—वक्ता
के प्रति और
श्रोता के
प्रति। और जब
तुम दोनों
बिंदुओं पर
सजग होते हो
तो तुम स्वयं
तीसरे हो जाते
हो, साक्षी
हो जाते हो।
यह
साक्षी ही
तुम्हें
मालिक बनने
में मदद करेगा।
और अगर तुम
मालिक हो तो
तुम्हारा
रोबोट तुम्हारे
जीवन में
उपद्रव नहीं
करेगा। अभी वह
तुम्हारे
जीवन में
उपद्रव कर रहा
है। इस रोबोट
के कारण ही
तुम्हारा
समग्र जीवन
उपद्रव बन गया
है। यह रोबोट
सहयोगी है, कुशल
है; इसलिए
वह तुमसे सब
कुछ लिए ले
रहा है—वे
चीजें भी जो
उसे नहीं दी
जानी चाहिए।
तुम
प्रेम में पड़
गए हो, किसी से
तुम्हारा
प्रेम हो गया
है। आरंभ में
यह बहुत सुंदर
लगता है; क्योंकि
अभी वह रोबोट
के सुपुर्द
नहीं किया गया
है। तुम सीख
रहे हो। तुम
जीवंत हो, सावचेत
हो, अभी
प्रेम में
सौंदर्य है।
लेकिन देर—अबेर
रोबोट उसे भी
अपने हाथ में
ले लेगा। तुम
पति या पत्नी
हो जाओगे और
तुम सब भार
रोबोट पर छोड
दोगे। फिर तुम
अपनी पत्नी से
कहोगे कि मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं; लेकिन
यह तुम नहीं
कह रहे होगे, रोबोट कह
रहा होगा। तब
वह ग्रामोफोन
के रेकार्ड
जैसा हो जाएगा;
वह बार—बार
दोहराया जाता
रहेगा। और
तुम्हारी
पत्नी को भी
उसे समझने में
कठिनाई नहीं
होगी; क्योंकि
जब रोबोट कहता
है कि मैं
प्रेम करता
हूं तो उसका
कोई मतलब नहीं
होता। और जब
तुम्हारी
पत्नी कहेगी
कि मैं
तुम्हें प्रेम
करती हूं तो
तुम भी जानोगे
कि उसका कोई मतलब
नहीं है।
ग्रामोफोन से
निकला हुआ कोई
वाक्य सिर्फ
शोर ही पैदा
करता है; उसका
कोई अर्थ नहीं
होता।
फिर
तुम सब कुछ
करना चाहोगे, लेकिन
दरअसल तुम
नहीं करते हो।
तब प्रेम बोझ
बन जाता है और
आदमी प्रेम से
भी बचना चाहता
है। तब
तुम्हारे सभी
भाव, सभी
संबंध रोबोट
के द्वारा
संचालित होते
हैं। यही कारण
है कि कभी—कभी
कोई काम तुम
नहीं करना
चाहते हो, लेकिन
तुम्हारा
रोबोट उसे
करने पर जोर देता
है; क्योंकि
वह उसमें
प्रशिक्षित
है। और उसमें
तुम सदा हारते
हो और रोबोट
सदा जीतता है।
तुम
कहते हो कि
मैं अब कभी
क्रोध नहीं
करूंगा, लेकिन
तुम्हारा यह
कहना अर्थहीन है।
रोबोट को
क्रोध करने का
प्रशिक्षण
प्राप्त है और
यह प्रशिक्षण
लंबा और गहरा
है। इसलिए
तुम्हारे मन
का एक वाक्य
कि मैं अब
क्रोध नहीं
करूंगा, कोई
असर नहीं रखता
है। रोबोट को इसका
लंबा
प्रशिक्षण
मिला हुआ है।
फिर जब कोई
तुम्हें
अपमानित
करेगा तो तुम्हारा
क्रोध नहीं
करने का
निर्णय काम
नहीं आएगा; रोबोट तुरंत
भार सम्हाल
लेगा और अपने
प्रशिक्षण के
अनुसार क्रोध
कर गुजरेगा।
और फिर आखिर
में जब रोबोट
क्रोध कर
चुकेगा तो तुम
पश्चात्ताप
करोगे।
लेकिन
बडी कठिनाई यह
है कि यह
पश्चात्ताप
भी रोबोट ही
कर रहा है।
तुमने यह सदा
किया है; क्रोध
करने के बाद
तुमने सदा
पश्चात्ताप
किया है।
रोबोट ने यह
तरकीब भी सीख
ली है; वह
पश्चात्ताप
भी करेगा।
लेकिन
पश्चात्ताप
के बाद तुम
फिर क्रोध
करोगे। इसी
कारण से तुम
कभी—कभी सोचते
हो कि मैंने
अपने बावजूद
यह किया, या
यह कहा। अपने
बावजूद करने
का क्या अर्थ
होता है? उसका
अर्थ है कि
तुम्हारे
भीतर एक दूसरे
तुम भी हो जो
तुम्हारे
बावजूद कुछ कर
सकता है। वह
दूसरे तुम कौन
हो? वही
रोबोट है। तो
करना क्या है?
यह
व्रत मत लो कि
मैं फिर क्रोध
नहीं करूंगा।
यह व्रत टूटने
ही वाला है; वह
तुम्हें कहीं
नहीं ले जा
सकता। उसके
बजाय बेहतर
होगा कि जो
कुछ भी करो, होशपूर्वक
करो। किसी
साधारण से
मामले में
रोबोट के हाथ
से बागडोर
अपने हाथ में
ले लो। उदाहरण
के लिए, जब
खाना खाओ तो
होशपूर्वक
खाओ, उसे
यंत्रवत मत
करो, जैसे
हर रोज करते
आए हो। जब
सिगरेट पीयो
तो सजग होकर
पीयो। अपने
हाथ को बेहोशी
में जेब से
पैकेट या पैकेट
से सिगरेट मत
निकालने दो।
सचेतन रहो; सजग रहो। और
बड़ा फर्क हो
जाएगा।
मैं
अपना हाथ
यांत्रिक ढंग
से उठा सकता
हूं या मैं
वही हाथ बोध
से भरकर भी
उठा सकता हूं।
प्रयोग करो और
तुम्हें फर्क
मालूम हो
जाएगा। जब तुम
जागरूक हो तो
तुम्हारा हाथ
बहुत धीरे—
धीरे, बहुत
आहिस्ता
उठेगा और तुम
महसूस करोगे
कि हाथ बोध से
भरा है, हाथ
में बोध प्रवाहित
है। और जब हाथ
बोध से भरा
होगा तो मन
निर्विचार होगा,
क्योंकि
तुम्हारा
समस्त बोध हाथ
में होगा और विचार
करने के लिए
ऊर्जा नहीं
बचेगी। जब तुम
यांत्रिक ढंग
से हाथ उठाते
हो तो तुम्हारा
मन विचार करता
रहता है और
हाथ गति करता
रहता है। उस
हाथ को
तुम्हारा
रोबोट चला रहा
है। अब तुम
उसे स्वयं
चलाओ। दिन में
कभी भी कुछ भी
करते समय इस
प्रयोग को करो,
रोबोट के
हाथ से काम
अपने हाथ में
ले लो। जल्दी
ही तुम रोबोट
के मालिक बन
जाओगे।
लेकिन
कठिन
स्थितियों
में यह प्रयोग
मत करो। वह
आत्मघातक
होगा। हम सदा
कठिन
स्थितियों
में प्रयोग
करते हैं और
इस कारण ही
सदा हार हाथ
आती है। तो
आसान
स्थितियों से
शुरू करो। अगर
तुम कुशल नहीं
भी हो तो भी इन
स्थितियों में
हानि नहीं
होने वाली है।
लेकिन हम
हमेशा कठिन
स्थितियों
में प्रयोग करते
हैं।
उदाहरण
के लिए, कोई
आदमी सोचता है
कि मैं क्रोध
नहीं करूंगा।
अब क्रोध बहुत
कठिन स्थिति
है और रोबोट
उसे तुम्हारे
हाथ में नहीं
छोड़ेगा। और यह
अच्छा है कि
रोबोट ही उसे
करे, क्योंकि
वह तुमसे
ज्यादा जानता
है, वह
ज्यादा कुशल
है। तुम
कामवासना के
संबंध में कोई
निर्णय लेते हो,
कुछ करने या
कुछ नहीं करने
का फैसला करते
हो। लेकिन तुम
उस निर्णय को
क्रियान्वित
नहीं कर सकते।
रोबोट उसे कर
लेगा। स्थिति
बहुत जटिल है
और उसे अधिक
कुशलता से
सम्हालने की
जरूरत है। और
अभी तुम्हारी
क्षमता उतनी
नहीं है। जब
तक तुम पूरी
तरह सजग नहीं
हो जाते कि
किसी जटिल स्थिति
को रोबोट के
बिना सम्हाल
सको, तब तक
रोबोट उस
स्थिति को
तुम्हारे हाथ
में नहीं देगा।
और यह आवश्यक
है, यह
डिफेंस मेजर
है। अगर ऐसा
नहीं होता, अगर तुम
कठिन
स्थितियों
में भी रोबोट
से चीजें ले
सकते होते तो
तुम्हारा
जीवन और भी
बड़ी दुर्गति
में पड़ जाता।
तो
प्रयोग करो।
टहलने जैसी
आसान चीजों से
शुरू करो। तुम
रोबोट से कह
सकते हो कि
मैं कहीं नहीं
जा रहा हूं बस
टहलने जा रहा हूं,
इसमें कोई
हानि नहीं
होने वाली है,
यह काम
तुम्हारे
बिना भी हो
सकता है; इसमें
अकुशल रहकर भी
चल जाएगा। और
तब सजग होकर
धीरे— धीरे
टहलो। अपने
पूरे शरीर में
बोध से भर जाओ।
जब एक कदम आगे
बढ़े तो तुम भी
उसके साथ आगे
बढ़ो। जब एक
कदम जमीन छोड़े
तो तुम भी
उसके साथ—साथ
जमीन छोड़ो। जब
दूसरा कदम
जमीन को
स्पर्श करे तो
तुम भी जमीन
को स्पर्श करो।
पूरी तरह होश
में रहो। मन
के जरिए कोई
दूसरा काम मत
करो; पूरे
मन को होश ही
बन जाने दो।
यह
कठिन होगा; क्योंकि
रोबोट निरंतर
दखल देगा। हर
क्षण वह कहेगा
कि यह क्या कर
रहे हो, मैं
यह काम तुमसे
ज्यादा बेहतर
ढंग से कर
सकता हूं। और
वह निश्चित ही
बेहतर कर सकता
है। इसलिए गैर—गंभीर
चीजों के साथ,
गैर—जटिल
चीजों के साथ,
हलकी—फुलकी
चीजों के साथ
प्रयोग शुरू
करो।
बुद्ध
ने अपने शिष्यों
को कहा है कि
बोध से चलो, बोध
से भोजन करो, बोध से सोओ।
अगर तुम इन
आसान चीजों को
कर सके तो तुम
कठिन चीजों
में भी
बोधपूर्वक
प्रवेश करना
जान जाओगे।
तभी कठिन
चीजों के साथ
प्रयोग करना।
लेकिन
हम सदा कठिन
चीजों के साथ
प्रयोग करते हैं
और तब हमें
पराजय ही हाथ
लगती है। और
वह पराजय
तुम्हें अपने
प्रति
निराशावादी बना
देती है। तुम
सोचने लगते हो
कि मैं कुछ भी
नहीं कर सकता।
यह बात रोबोट
के लिए बड़े
काम की होती
है। रोबोट सदा
कठिनाई की
हालत में
तुम्हें कुछ
करने को
उकसाएगा, ताकि
तुम हार जाओ।
फिर रोबोट तुम
से कहेगा : इसे
मुझ पर छोड़
दो; मैं
तुम से बेहतर
कर सकता हूं।
तो
आसान
स्थितियों के
साथ प्रयोग
करो।
झेन
संत अनेक बार
यह आसान
प्रयोग करते
पाए गए हैं।
झेन संत बाशो
से किसी ने
पूछा, आपका
ध्यान क्या है?
आपकी साधना
क्या है? उसने
कहा: ’जब मुझे
भूख लगती है
तो मैं भोजन
करता हूं और
जब मुझे नींद
लगती है तो सो
जाता हूं। यही
कुल साधना है।’
पूछने
वाले ने कहा, लेकिन
यह तो हम सभी
करते हैं; इसमें
विशेषता क्या
है? बाशो
ने फिर वही
बात दोहराते
हुए कहा: ’जब
मुझे भूख लगती
है तो भोजन
करता हूं और
जब नींद लगती
है तो सोता
हूं।’
यही
फर्क है। जब
तुम्हें भूख
लगती है तो
तुम्हारा
रोबोट भोजन
करता है और जब
नींद लगती है
तो तुम्हारा
रोबोट सोता है।
बाशो ने कहा
कि ये काम मैं
खुद करता हूं
यही फर्क है।
अगर तुम अपने
रोज—रोज के
काम में
ज्यादा
जागरूक हो जाओ
तो बोध बढ़ेगा, होश
बढ़ेगा। और उस
बोध के साथ
तुम यांत्रिक
नहीं रहोगे।
पहली बार तुम
व्यक्ति
बनोगे—अभी तुम
नहीं हो।
व्यक्ति का
अपना एक चेहरा
होता है।
यांत्रिक चीज
के कई मुखौटे
होते हैं, उसका
चेहरा नहीं
होता। और अगर
तुम व्यक्ति
हो—जीवत, सजग
और बोधपूर्ण—तो
तुम्हारा
जीवन
प्रामाणिक
होगा। अगर तुम
महज यंत्र हो
तो तुम्हारा जीवन
प्रामाणिक
नहीं हो सकता।
हरेक क्षण
तुम्हें बदल
देगा; हरेक
स्थिति
तुम्हें बदल
देगी। तुम हवा
में उड़ते
तिनके की भांति
होगे, जिसके
भीतर आत्मा
नहीं होती।
बोध तुम्हें आंतरिक
उपस्थिति
प्रदान करता
है। उसके बिना
तुम्हें लगता
तो है कि मैं
हूं लेकिन
दरअसल तुम नहीं
हो।
बुद्ध
से किसी ने
पूछा : मैं
मनुष्यता की
सेवा करना
चाहता हूं; कृपया
बताएं कि कैसे
करूं? बुद्ध
ने उस आदमी को
गहराई से, अंतस
तक उतर जाने
वाली दृष्टि
से और करुणा
से भरकर देखा
और कहा. लेकिन
तुम हो कहां? अभी तुम ही
नहीं हो तो
सेवा कौन
करेगा? अभी
तुम ही नहीं
हो। पहले होओ!
और जब तुम
होओगे तो
तुम्हें
पूछने की
जरूरत न पड़ेगी।
जब तुम होओगे
तो तुम कुछ
करोगे जो अपने
आप ही तुम्हें
घटित होगा और
जो करने योग्य
होगा।
गुरजिएफ ने
लिखा है कि
हरेक आदमी यह
खयाल लेकर आता
है कि मैं हूं
मैं हूं ही।
कोई गुरजिएफ
के पास आया और
उसने कहा, मैं
अपने अंदर
बहुत
विक्षिप्त
हूं। मेरा मन
सदा द्वंद्व
और
अंतर्विरोध
से ग्रस्त
रहता है। कृपा
करके मुझे
बताएं कि इस
मन को विलीन
कैसे करूं? मानसिक शाति,
आंतरिक
निश्चलता
कैसे पाऊं? गुरजिएफ ने
उसे कहा, मन
के बारे में
मत सोचो; तुम
कुछ नहीं कर
सकते। पहली चीज
तो यह है कि
तुम्हें
मौजूद होना है।
पहले तुम्हें
होना है। तब
तुम कुछ कर
सकते हो। अभी
तुम नहीं हो।
इस
तुम नहीं हो
का क्या अर्थ
है?
इसका अर्थ
है कि तुम
रोबोट हो, एक
यंत्र हो, जो
यांत्रिक
नियमों के
अनुसार काम
करता है। सजग
होना शुरू करो।
तुम जो भी कर
रहे हो उसे
सजगता से करो,
होशपूर्वक
करो। और आसान
चीजों से शुरू
करो।
दूसरा
प्रश्न:
मंत्र—दीक्षा
के अर्थ और उपक्रम
को समझाने की
कृपा करें। और
क्या कारण है
कि लोगों को
मंत्र गुप्त
रखने के लिए
कहा जाता है?
पहले तो
यह समझने की
कोशिश करो कि
दीक्षा क्या है।
यह गुरु और
शिष्य के बीच
गहन संवाद है, यह
गुरु से शिष्य
को ऊर्जा का
गहन
हस्तांतरण है।
ऊर्जा सदा ऊपर
से नीचे की ओर
बहती है। जैसे
पानी नीचे की
तरफ बहता है, वैसे ही
ऊर्जा भी नीचे
की तरफ बहती
है। गुरु वह
है, जिसने
पा लिया है, जिसने जाना
है, जो हो
गया है; वह
ऊर्जा का उच्चतम
शिखर है, शुद्धतम
ऊर्जा का
गौरीशंकर है।
यह ऊर्जा नीचे
खड़े उस
व्यक्ति की
तरफ बह सकती है
जो ग्राहक है,
जो झुका हुआ
है, जो
समर्पित है।
उस ऊर्जा को
पाने के लिए
यह समर्पण का
भाव, यह
ग्राहकता, यह
विनम्रता
जरूरी है।
अन्यथा तुम
अगर खुद शिखर
हो, घाटी
नहीं हो, तो
यह ऊर्जा
तुम्हारी तरफ
नहीं बहेगी।
तुम
भी शिखर हों—दूसरे
ही ढंग के
शिखर। तुम
अहंकार के
शिखर हो—ऊर्जा
के नहीं, आनंद
के नहीं, चेतना
के नहीं। तुम
अहंकार की
सघनता हो—मै—पन
की सघनता। तुम
शिखर हो और इस
शिखर के रहते
दीक्षा संभव
नहीं। अहंकार
ही बाधा है; क्योंकि अहंकार
तुम्हें बंद
कर देता है और
तुम समर्पण
नहीं कर सकते।
शिष्य
होने के लिए, दीक्षित
होने के लिए
समग्र समर्पण
की जरूरत है।
और समर्पण आधा—
अधूरा नहीं
होता है। समर्पण
का अर्थ ही है, समग्र
समर्पण। तुम
यह नहीं कह
सकते कि मैं
आशिक समर्पण
करता हूं।
उसका कोई भी
अर्थ नहीं है।
तब तुम्हारा
अहंकार ज्यों
का त्यों
तुम्हारे साथ
खड़ा है।
अहंकार को ही
समर्पित करना
है। और जब तुम
अहंकार को
समर्पित कर
देते हो तो तुम
ग्राहक हो
जाते हो, खुल
जाते हो। तब
तुम घाटी बन
जाते हो। और
तब शिखर
तुम्हारी ओर
प्रवाहित
होगा। यह बात
मैं प्रतीक के
रूप में नहीं
कह रहा हूं; यही
वास्तविक
स्थिति है।
क्या
तुमने कभी
प्रेम किया है? तब
तुम समझ सकते
हो कि दो
शरीरों के बीच
प्रेम सच में
बहता है। यह
एक वास्तविक
बहाव है।
इसमें ऊर्जा
का संप्रेषण
हो रहा है, हस्तातरण
हो रहा है, लेन—देन
हो रहा है।
लेकिन प्रेम
समान तल पर है।
तुम दोनों
अहंकार के
शिखर रह सकते
हो, फिर भी
प्रेम हो सकता
है।
लेकिन
गुरु के साथ
तुम समान तल
पर नहीं रह
सकते। अगर तुम
समान तल पर
रहने की
चेष्टा करोगे
तो दीक्षा
असंभव हो
जाएगी। समान
तल पर प्रेम
संभव है, लेकिन
दीक्षा असंभव
हो जाती है।
दीक्षा तो तभी
संभव है जब
तुम नीचे तल
पर हो—झुके
हुए, विनम्र,
समर्पित, ग्राहक।
शिष्य
स्त्रैण होता
है—गर्भ की
भांति, ग्रहण
करने को तत्पर।
दीक्षा में
गुरु की
भूमिका पुरुष
की है।
दीक्षा
का रहस्य अब
बिलकुल खो गया
है। जितने ही
हम शिक्षित, सभ्य
और सुसंस्कृत
होते जाते हैं,
उतने ही
अहंकारी भी
होते जाते हैं।
अब समर्पण
करना असंभव हो
गया है। कठिन
तो वह सदा से
रहा है, अब
असंभव हो रहा
है।
दीक्षा
आंतरिक ऊर्जा
का,
वास्तविक
ऊर्जा का
हस्तांतरण है।
और गुरु तभी
तुममें
प्रवेश कर
सकता है, तभी
तुम्हें
रूपांतरित कर
सकता है, जब
तुम तैयार हो,
ग्राहक हो।
उसके लिए
प्रगाढ़
श्रद्धा की
जरूरत है।
प्रेम में
जितनी
श्रद्धा की
जरूरत है, उससे
भी ज्यादा
जरूरत दीक्षा
में है।
क्योंकि
तुम्हें नहीं
मालूम कि क्या
होने वाला है;
तुम बिलकुल
अंधेरे में हो।
केवल गुरु को
पता है कि
क्या होने
वाला है और वह
क्या कर रहा
है। वह जानता
है; तुम
नहीं जान सकते।
और ऐसी चीजें
हैं जिनमें यह
नहीं बताया जा
सकता कि क्या
होने वाला है,
क्योंकि
मनुष्य के मन
की बहुत सी
उलझनें हैं।
एक उलझन यह है
कि अगर कोई
चीज होने के
पहले बता दी
जाए तो वह
घटना को बदल
देगी। वह नहीं
बतायी जा सकती।
अनेक चीजें हैं
जिन्हें गुरु
तुम्हें नहीं
बता सकता। वह
उन्हें तुमसे
करा सकता है, लेकिन बता
नहीं सकता। वह
कराना ही
दीक्षा है।
गुरु सच में
तुम्हारे
शरीर में, तुम्हारे
चित्त में
प्रवेश करता
है। वह
तुम्हें
निर्मल करता
है, तुम्हें
बदलता है। और
इसमें एक ही
चीज जरूरी है,
तुम्हारी
समग्र
श्रद्धा।
क्योंकि
श्रद्धा के
बिना द्वार
नहीं है; श्रद्धा
के बिना वह
तुममें
प्रवेश नहीं
कर सकता।
तुम्हारे
द्वार—दरवाजे
बंद हैं। तुम
सदा अपना बचाव
करने में लगे
हो। जीवन
संघर्ष है—जीवित
रहने के लिए
संघर्ष। इस
संघर्ष के
कारण तुम बंद
हो जाते हो।
तुम बंद हो, भयभीत
हो। तुम खुले
रहने से भयभीत
हो, तुम्हें
डर है कि कोई
तुममें
प्रवेश न कर
जाए, कोई तुम्हारे
साथ कुछ कर न
दे। इस भय से
तुम सिकुड़ गए
हो, अपने
में छिप गए हो,
बंद हो गए
म् हो, और
तुम अपना बचाव
कर रहे हो।
दीक्षा
में तुम्हें
यह सुरक्षा
गिरा देनी होगी, सुरक्षा—कवच
को उतार
फेंकना होगा।
तब तुम खुलते
हो, द्वार
देते हो; और
तब गुरु
तुममें
प्रवेश करता
है। यह गहरे
प्रेम—कृत्य
जैसा ही है।
तुम किसी
स्त्री पर
बलात्कार कर
सकते हो, लेकिन
शिष्य पर
बलात्कार
नहीं किया जा
सकता। तुम
स्त्री पर
बलात्कार कर
सकते हो; क्योंकि
वह शारीरिक
कृत्य है।
बिना किसी की
मर्जी के भी
उसके शरीर के
साथ जबरदस्ती
की जा सकती है,
उसमें
प्रवेश किया
जा सकता है।
स्त्री की
इच्छा के
विरुद्ध भी
तुम उस पर बलात्कार
कर सकते हो, यह जबरदस्ती
होगी। शरीर
पदार्थ है और
पदार्थ के साथ
जबरदस्ती की
जा सकती है।
गहन
प्रेम जैसा ही
दीक्षा में
होता है। गुरु
तुम्हारी
आत्मा में
प्रवेश करता
है,
शरीर में
नहीं। इसलिए
जब तक तुम
तैयार नहीं हो,
ग्रहणशील
नहीं हो, तब
तक प्रवेश
संभव नहीं है।
शिष्य के साथ
बलात्कार
नहीं किया जा
सकता; क्योंकि
यह शारीरिक
बात नहीं है।
यह बात आत्मा
की है और
आत्मा में
बलात प्रवेश
नहीं किया जा
सकता। उसके
साथ हिंसा
करना संभव
नहीं है।
इसलिए जब
शिष्य तैयार
होता है, खुला
होता है, जब
वह
प्रेमपूर्ण
स्त्री की
भांति
निमत्रणपूर्ण
और ग्राहक
होता है, जब
वह निरस्त्र
होकर समर्पित
होता है, तभी
गुरु उसमें
प्रवेश कर
सकता है, काम
कर सकता है।
और सदियों का
काम क्षणों
में किया जा
सकता है। जो
काम तुम अनेक
जन्मों में
नहीं कर सकते,
वह क्षण में
हो सकता है।
लेकिन तब
तुम्हें
वलनरेबल होना
होगा, समग्रत:
आस्थावान
होना होगा।
तुम्हें पता
नहीं है कि
क्या होने
वाला है और गुरु
तुम्हारे भीतर
क्या करने
वाला है।
एक
स्त्री भयभीत
होती है, क्योंकि
संभोग उसके
लिए अज्ञात की
यात्रा है। जब
तक वह पुरुष
को प्रेम नहीं
करेगी, जब
तक वह पीडा को
झेलने को, बच्चे
का बोझ ढोने
को, नौ
महीनों तक
बच्चे को गर्भ
में रखने को
तैयार नहीं
होगी, जब
तक वह जीवनभर
के लिए प्रतिबद्ध
न हो लेगी, तब
तक वह पुरुष
को अपने शरीर
में प्रवेश
नहीं करने
देगी। यह
सिर्फ उसके
शरीर का सवाल
नहीं है, यह
उसकी पूरी
जिंदगी का
सवाल है। जब
वह प्रगाढ़
प्रेम में
होती है, तभी
वह पीड़ा झेलने
को राजी होती
है। और प्रेम
में त्याग और
दुख भी आनंदपूर्ण
होता है।
शिष्य
के साथ यह
समस्या और भी
बड़ी और गहरी
है। यह सिर्फ
शारीरिक जन्म
की और एक नए
बच्चे के जन्म
की बात नहीं
है;
यह उसके
स्वयं के
पुनर्जन्म की
बात है। स्वयं
उसका
पुनर्जन्म
होने वाला है।
एक अर्थ में
उसकी मृत्यु
होगी और किसी
दूसरे अर्थ
में उसका
पुनर्जन्म
होगा। और यह
तभी संभव होगा
जब गुरु उसमें
प्रवेश पाएगा।
और गुरु इस
संबंध में
जबरदस्ती
नहीं कर सकता है।
जबरदस्ती
संभव नहीं है।
शिष्य इसके
लिए आमंत्रण
दे सकता है।
आध्यात्मिक
शिष्यता के
जगत में यह एक
बड़ी समस्या है; क्योंकि
शिष्य सदा
अपना बचाव
करता है, अपने
चारों ओर कवच
पर कवच
निर्मित किए
जाता है। वह
गुरु के साथ
भी वैसे ही
व्यवहार करता
है जैसे वह
संसार में
दूसरों के साथ
करता है, एक
ही सुरक्षा—यंत्र
काम करता रहता
है। और तब
उसमें व्यर्थ
समय नष्ट होता
है, ऊर्जा
नष्ट होती है
और वह बात टल
जाती है जो अभी
घटित हो सकती
थी। लेकिन यह
स्वाभाविक है।
और कभी—कभी तो
महान गुरुओं
के संग रहकर
भी शिष्य चूक
गए हैं।
आनंद
बुद्ध का
प्रधान शिष्य
था और उनके
बहुत निकट था।
लेकिन वह
बुद्ध के जीते
जी
बुद्धत्व को
नहीं उपलब्ध
हो सका। बुद्ध
आनंद के साथ
चालीस वर्ष
रहे;
लेकिन आनंद
ज्ञान छ
उपलब्ध हुआ। आनंद
के बाद आने बाले
अनेक लोग
बुद्धत्व को
उपलब्ध गए; और फिर तो यह
समस्या बन गई।
और आनंद बुद्ध
के सर्वाधिक
करीब था। वह
निरंतर चालीस
वर्षों तक
बुद्ध के साथ
ही सोया था; बुद्ध के
साथ ही चला था।
वह बुद्ध की
छाया की भांति
था। वह बुद्ध
के संबंध में
इतना जानता था
जितना बुद्ध
भी नहीं जानते
थे। लेकिन वह
उपलब्ध नहीं
हुआ, वह
वैसा का वैसा
रहा।
एक
बहुत छोटी सी
बात बाधा बन
गई। वह बुद्ध
का चचेरा भाई
था और उनसे
उम्र में बड़ा
था। वही
अहंकार बन गया।
बुद्ध
की मृत्यु हुई।
बुद्ध के
वचनों का
संग्रह करने
के निमित्त महासंघ
की बैठक हुई।
बुद्ध ने जो
कुछ कहा था
उसे लिपिबद्ध
करना था। जो
लोग बुद्ध के
साथ रहे थे वे
थोड़े ही दिनों
में नहीं
रहेंगे, इसलिए
सब कुछ को
रिकार्ड कर
लेना था, लिख
लेना था।
लेकिन महासंघ
में आनंद को
प्रवेश नहीं
मिला, यद्यपि
आनंद को ही
बुद्ध के जीवन,
बुद्ध के
वचन, बुद्ध
के अनुभव के
संबंध में
सर्वाधिक पता
था। आनंद को
सब मालूम था; उतना किसी
को भी नहीं
मालूम था।
लेकिन
महासंघ ने तय
किया कि चूंकि
आनंद को अभी
बुद्धत्व
नहीं प्राप्त
हुआ है, इसलिए
उसे प्रवेश
नहीं दिया जा
सकता। वह
बुद्ध के वचन
रिकार्ड नहीं
करा सकता, क्योंकि
अज्ञानी का
भरोसा नहीं किया
जा सकता है।
वह धोखा नहीं
देगा; लेकिन
अज्ञानी
व्यक्ति का
क्या भरोसा? वह सोच सकता
है कि यही
घटित हुआ और
वह उसे प्रामाणिक
समझकर
रिकार्ड करा
सकता है।
लेकिन वह अभी
जाग्रत नहीं
है और उसने
नींद में जो
देखा और सुना
है उस पर
भरोसा नहीं
किया जा सकता।
महासंघ ने तय
किया कि जो
जाग्रत हो गए
हैं, वे ही
लिखवा सकते
हैं।
आनंद
द्वार के पास
बैठा रो रहा
था। महासंघ का
द्वार बंद हो
गया और आनंद
वहां बैठा
चौबीस घंटे
रोता रहा, आंसू
बहाता रहा।
लेकिन
उन्होंने उसे
प्रवेश नहीं
दिया। चौबीस
घंटों तक आनंद
रोता रहा, रोता
रहा। और फिर
अचानक उसे बोध
हुआ कि कारण
क्या था कि
मैं बुद्ध के जीते
जी बुद्धत्व
को नहीं
उपलब्ध हुआ? बाधा क्या
थी?
उसने
अपनी
स्मृतियों
में लौटकर
देखा—बुद्ध के
साथ चालीस
वर्षों का
लंबा जीवन!
उसे स्मरण आया
वह पहला दिन
जब वह बुद्ध
के पास दीक्षा
लेने आया था।
लेकिन उसकी एक
शर्त थी, जिसके
कारण वह पूरी
दीक्षा ही चूक
बैठा। उस शर्त
के कारण सही
अर्थों में वह
दीक्षित ही
नहीं हुआ। वह
दीक्षित नहीं
हुआ, क्योंकि
उसने एक शर्त
लगा रखी थी।
वह
बुद्ध के पास
आया और उसने
कहा : मैं आपका
शिष्य बनने
आया हूं। जब
मैं आपका
शिष्य बन
जाऊंगा तो आप
मेरे गुरु
होंगे और मैं
आपका शिष्य
होऊंगा और तब
आप जो कहेंगे
वह मुझे करना
होगा। मुझे
आपकी आज्ञा का
पालन करना
होगा। लेकिन
अभी मैं आपका
बड़ा भाई हूं
अभी मैं आपको आज्ञा
दे सकता हूं
और आपको उसका
पालन करना होगा।
अभी आप गुरु
नहीं हैं और
मैं शिष्य
नहीं हूं। एक
बार मैं दीक्षित
हो जाऊंगा तो
आप मेरे गुरु
होंगे और मैं
आपका शिष्य, तब
मैं कुछ नहीं
कह सकूंगा।
इसलिए शिष्य
बनने के पहले
मेरी तीन
शर्तें हैं
जिन्हें आप
स्वीकार कर
लें और तब
दीक्षा दें।
शर्तें
बहुत बड़ी नहीं
थीं,
लेकिन शर्त
शर्त है। और
शर्त के साथ
तुम्हारा
समर्पण समग्र नहीं
होता है।
शर्तें तो
बहुत छोटी थीं
और बहुत
प्रेमपूर्ण थीं।
उसने कहा कि
पहली शर्त यह
है कि मैं सदा
आपके साथ
रहूंगा, आप
मुझे कहीं और
जाने को नहीं
कह सकेंगे। जब
तक जीऊंगा, मैं आपकी
छाया बनकर
रहूंगा; आप
मुझे अपने पास
से हटा नहीं सकेंगे।
अभी ही वचन दे
दें, क्योंकि
बाद में जब
मैं आपका
शिष्य हो
जाऊंगा तो आप
जो भी कहेंगे
वह मुझे करना
होगा। आनंद ने
कहा कि अभी
बड़े भाई के
नाते मैं यह
वचन ले रहा
हूं कि मैं
सदा आपके साथ
रहूंगा; आप
मुझे अपने से
दूर नहीं कर
सकेंगे। मैं
आपकी छाया
बनकर रहूंगा;
उसी कमरे
में सोऊंगा
जहां आप
सोएंगे।
दूसरी
शर्त कि मैं
जिस आदमी को
भी आपसे
मिलाने
लाऊंगा, आप
उससे जरूर
मिलेंगे; न
मिलने के जो
भी कारण हों, आपको उस
आदमी से मिलना
होगा। अगर मैं
किसी आदमी को
आपके दर्शन के
लिए लाऊंगा तो
उसे दर्शन
देना होगा। और
तीसरी शर्त कि
मैं जिस
व्यक्ति को
दीक्षा देने
के लिए आपसे
कहूंगा, आप
उसे इनकार
नहीं करेंगे।
ये तीन वचन
मुझे दे दें
और तब मुझे
दीक्षित करें।
इसके बाद मैं
कोई मांग नहीं
करूंगा, क्योंकि
तब मैं आपका
शिष्य हो
जाऊंगा।
महासंघ
के द्वार पर
बैठकर रोते
हुए,
अपनी
पुरानी
स्मृतियों के
पन्ने उलटते
हुए जब आनंद
को यह स्मरण
आया तो उसे अचानक
बोध हुआ कि
मेरी दीक्षा
तो हुई नहीं; क्योंकि मैं
ग्राहक नहीं
था। बुद्ध ने
उसकी शर्तों
को मान लिया
था, और
उन्होंने
जीवनभर उनका
पालन किया।
लेकिन आनंद
चूक गया। जो
निकटतम था, वही चूक गया।
और
इस बोध के साथ
ही आनंद
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गया।
जो बात बुद्ध
के जीते जी न
हुई,
वह उनके
जाने के बाद
हो गई। आनंद
ने समर्पण
किया। और यदि
समर्पण हो तो
गैर—मौजूद
गुरु भी
तुम्हारी
सहायता कर
सकता है। यदि
समर्पण न हो
तो जीवित गुरु
भी कुछ नहीं
कर सकता। तो
दीक्षा में, किसी भी
दीक्षा में, समर्पण
अनिवार्य है।
मंत्र—दीक्षा
का अर्थ है कि
जब तुम समर्पण
करते हो तो
गुरु तुममें
प्रवेश कर
जाता है, वह
तुम्हारे
शरीर, मन, आत्मा में
प्रविष्ट हो
जाता है। गुरु
तुम्हारे
अंतस में जाकर
तुम्हारे
अनुकूल ध्वनि
की खोज करेगा।
वह तुम्हारा
मंत्र होगा।
और जब तुम
उसका उच्चारण
करोगे तो तुम
एक भिन्न आयाम
में एक भिन्न
व्यक्ति
होओगे।
जब
तक समर्पण
नहीं होता, मंत्र
नहीं दिया जा
सकता है।
मंत्र देने का
अर्थ है कि
गुरु ने
तुममें प्रवेश
किया है, गुरु
ने तुम्हारी
गहरी
लयबद्धता को,
तुम्हारे
प्राणों के
संगीत को
अनुभव किया है।
और फिर वह
तुम्हें
प्रतीक रूप
में एक मंत्र
देता है जो
तुम्हारे
अंतस के संगीत
से मेल खाता
हो। और जब तुम
उस मंत्र का
उच्चार करते
हो तो तुम आंतरिक
संगीत के जगत
में प्रवेश कर
जाते हो, तब
आंतरिक
लयबद्धता
उपलब्ध होती
है।
मंत्र
तो सिर्फ चाबी
है। और चाबी
तब तक नहीं दी
जा सकती जब तक
ताले को न जान
लिया जाए। मैं
तुम्हें तभी
चाबी दे सकता
हूं जब
तुम्हारे
ताले को समझ
लूं। चाबी तभी
सार्थक है जब
वह ताले को
खोले। किसी भी
चाबी से काम
नहीं चलेगा।
प्रत्येक
आदमी विशेष
ढंग का ताला
है,
उसके लिए
विशेष ढंग की
चाबी जरूरी है।
यही
कारण है कि
मंत्रों को
गुप्त रखा
जाता है। अगर
तुम अपना
मंत्र किसी और
को बताते हो
तो वह उसका
प्रयोग कर
सकता है।
लेकिन हो सकता
है,
वह चाबी
उसके ताले के अनुकूल
न पड़े। और कभी—कभी
गलत चाबी प्रयोग
करने से ताला
खराब सकता, बिगड़ सकता
है। ताला इतना
बिगड़ सकता है
कि फिर वह सही
चाबी के मिलने
पर भी न खुले।
यही कारण है
कि मंत्रों को
बिलकुल गुह्य
रखा जाता है, उन्हें
दूसरों को
नहीं बताया
जाता। शिष्य
को यह वचन
देना पड़ता है।
गुरु तुम्हें
जो चाबी देता
है वह
तुम्हारे लिए
ही है। तुम
उसे दूसरों
में नहीं बांट
सकते, वह
अनेक के लिए
नुकसानदेह भी
हो सकती है।
हं।, जब
तुम्हारा
ताला खुल जाए
तो तुम दूसरों
को चाबी दे
सकते हो।
लेकिन तब तुम
वही चाबी नहीं
दोगे जो गुरु
से तुम्हें
मिली है। तब
तुम दूसरों
में प्रवेश
करने में
समर्थ हो जाओगे।
तब तुम उनके
ताले को समझकर
उनके अनुकूल
चाबियां
निर्मित करोगे।
गुरु
ही चाबी का
निर्माण करता
है। अगर कहीं
कोई चाबियों
का गुच्छा
दिखाई पड़े तो
गैर—जानकारी
में लगेगा कि
सब चाबियां एक
जैसी हैं।
उनमें बहुत
थोड़ा फर्क है, बहुत
हलका फर्क है।
एक ही शब्द
भिन्न—भिन्न
ढंग से
प्रयुक्त हो
सकता है।
उदाहरण के लिए
ओम है। उसमें
तीन ध्वनियां
हैं : अ, उ और
म। अगर उ पर, बीच की
ध्वनि पर बल
दिया जाए तो
उससे एक अलग
चाबी बनेगी।
अगर अ पर बल
दिया जाए तो
दूसरी चाबी
बनेगी। और अगर
म पर बल दिया
जाए तो और ही
चाबी बन जाएगी।
और वे तीनों
चाबियां अलग—
अलग ताले
खोलने में
समर्थ होंगी।
यही
कारण है कि मंत्र
के सही—सही
उपयोग पर इतना
जोर दिया जाता
है। गुरु से
जिस रूप में
मंत्र मिले, उसे
ठीक उसी रूप
में प्रयोग
करना चाहिए।
इसीलिए गुरु
कान में मंत्र
देता है; वह
उसका सही
उच्चार बताने
के लिए मंत्र
को कान में
उच्चारित
करता है। जब
गुरु
तुम्हारे कान
में मंत्र का
उच्चार करे उस
समय तुम्हें
इतना सजग रहना
है कि
तुम्हारी
सारी चेतना
तुम्हारे कान
में आ जाए। वह
उच्चारण करता
है और मंत्र
तुममें
प्रवेश करता
है। अब
तुम्हें उसे
स्मरण रखना है,
उसके ठीक—ठीक
उच्चार और
उपयोग को
स्मरण रखना है।
यही
कारण है कि
लोगों को अपने—
अपने मंत्र
गुप्त रखने
चाहिए, उन्हें
सार्वजनिक
बनाना ठीक
नहीं है। वह
खतरनाक है।
तुम दीक्षित
हुए हो तो तुम
जानते हो, तुम
उसका मूल्य
जानते हो, तुम
उसे बांटते
नहीं फिर सकते।
यह दूसरों के
लिए हानिकर हो
सकता है। यह
तुम्हारे लिए
भी हानिकर हो
सकता है। इसके
कई कारण हैं।
पहली
बात कि तुम
वचन तोड़ रहे
हो। और जैसे
ही वचन टूटता
है,
गुरु के साथ
तुम्हारा
संपर्क टूट
जाता है। फिर
तुम गुरु के
संपर्क में
नहीं रहोगे।
वचन पालन करने
से ही सतत
संपर्क कायम
रहता है।
दूसरी बात, दूसरे को
बताने से, दूसरे
के साथ उसके
संबंध में
बातचीत करने
से मंत्र मन
की सतह पर चला
आता है और
उसकी गहरी
जड़ें टूट जाती
हैं। तब मंत्र
गपशप का
हिस्सा बन
जाता है। और
तीसरा कारण है
कि गुप्त रखने
से मंत्र गहराता
है। जितना
गुप्त रखोगे
वह उतना ही
गहरे जाएगा; उसे गहरे
में जाना ही
होगा।
मारपा
के संबंध में
खबर है कि जब
उसके गुरु ने
उसे गुह्य
मंत्र दिया तो
उससे वचन ले
लिया कि वह
उसे बिलकुल
गुप्त रखेगा।
उसे कहा गया
कि तुम इसे
किसी को भी
नहीं बताओगे।
फिर मारपा का
गुरु उसके
स्वप्न में
प्रकट हुआ और
उसने पूछा कि
तुम्हारा
मंत्र क्या है? और
स्वप्न में
भी मारपा ने
वचन का पालन
किया; उसने
बताने से
इनकार कर दिया।
और कहा जाता
है कि इस भय से
कि कहीं
स्वप्न में गुरु
फिर प्रकट हों
या किसी को
भेजें और वह इतनी
नींद में हो
कि गुप्त
मंत्र को
प्रकट कर दे
और वचन टूट
जाए, मारपा
ने बिलकुल सोना
ही छोड़ दिया।
वह सोता ही नहीं
था।
ऐसे
सोए बिना
मारपा को सात—
आठ दिन हो गए
थे। फिर जब
उसके गुरु ने
पूछा कि तुम
सोते क्यों नहीं
हो?
मैं देखता
हूं कि तुमने
सोना छोड़ दिया
है। बात क्या
है? मारपा
ने गुरु से
कहा : आप मेरे
साथ चालबाजी
कर रहे हैं।
आपने स्वप्न
में आकर मुझसे
मेरा मंत्र
पूछा था। मैं
आपको भी नहीं
बताने वाला
हूं। जब वचन
दे दिया तो
मैं उसका स्वप्न
में भी पालन
करूंगा।
लेकिन फिर मैं
डर गया। नींद
में, कौन
जाने, किसी
दिन मैं भूल
जा सकता हूं!
अगर
तुम अपने वचन
के प्रति इतने
सावधान हो कि स्वप्न
में भी उसका
स्मरण रहता है
तो उसका अर्थ
है कि वह
गहराई में उतर
रहा है। वह
अंतस में उतर
रहा है; वह
अंतरस्थ
प्रदेश में
प्रवेश कर रहा
है। और वह
जितनी गहराई
को छुएगा, वह
उतना ही
तुम्हारे लिए
चाबी बनता
जाएगा।
क्योंकि ताला
तो अंतर्तम
में है।
किसी
चीज के साथ भी
प्रयोग करो।
अगर तुम उसे
गुप्त रख सके
तो वह गहराई
प्राप्त
करेगा। और अगर
तुम उसे गुप्त
न रख सके तो वह
बाहर निकल
आएगा। तुम
क्यों कोई बात
दूसरे से कहना
चाहते हो? तुम
क्यों बातें
करते रहते हो?
सच
तो यह है कि
जिस चीज को
तुम कह देते
हो,
उससे मुक्त
हो जाते हो।
एक बार तुमने
किसी से कह
दिया, तुम्हारा
उससे छुटकारा
हो जाता है।
वह चीज बाहर
निकल गई।
मनोविश्लेषण
का पूरा धंधा
इसी पर खड़ा है।
रोगी बोलता
रहता है और
मनोविश्लेषक
सुनता रहता है।
इससे रोगी को
राहत मिलती है।
वह अपनी
समस्याओं के
बारे में, अपने
दुख के बारे
में जितना ही
बोलता है, वह
उनसे उतनी ही
छुट्टी पा
लेता है।
और
इसके ठीक
विपरीत घटित
होता है जब
तुम किसी चीज
को छिपाकर
रखते हो, गुप्त
रखते हो।
इसीलिए
तुम्हें कहा
जाता है कि
मंत्र को किसी
से कभी मत कहो।
तब वह गहरे से
गहरे तल पर
उतरता जाता है
और किसी दिन
ताले को खोल
देता है।
एक और
प्रश्न :
ध्वनि
पर आधारित जो
ध्यान—
विधियां हैं उनके
संदर्भ में
कृपया बताएं कि
आपके सक्रिय
ध्यान में जो
अराजक संगीत
बजाया जाता है
उसमें और पश्चिम
के जाज या रॉक
संगीत में
क्या भेद है?
तुम्हारा
मन एक अराजकता
है। उस
अराजकता को
सक्रिय करके
बाहर निकालना
है। जब तुम
ध्यान कर रहे
होते हो, अगर
उस समय अराजक
संगीत बजाया
जाए या अराजक
नृत्य का
आयोजन किया
जाए तो उससे
अराजकता को
बाहर निकालने
में सहयोग
मिलता है। तुम
उसके साथ बहने
लगोगे, तुम्हें
अराजकता को
अभिव्यक्त
करने में भय नहीं
होगा। यह
अराजक संगीत
तुम्हारे
अराजक चित्त
के भीतर चोट
करेगा और
अराजकता को
बाहर निकालेगा।
यह संगीत
सहयोगी है।
रॉक, जाज
या दूसरे
अराजक संगीत
भी किसी चीज
को बाहर लाने
का ही काम
करते हैं और
वह चीज है
तुम्हारी
दमित कामुकता।
मैं तुम्हारे
सभी भांति के
दमन की फिक्र
करता हूं। आधुनिक
संगीत सिर्फ तुम्हारे
दमित काम की फिक्र
करता है। लेकिन
दोनों में एक
समानता है।
हालांकि मैं
तुम्हारे
दमित काम की
ही नहीं, सभी
तरह के दमनों
की चिंता लेता
हूं—चाहे
कामुक हों या
गैर—कामुक।
पश्चिम
में रॉक या उस
जैसे संगीत
प्रभावी हो गए
हैं,
उसका कारण
ईसाइयत है।
ईसाइयत दो
हजार वर्षों
से काम का दमन
करती रही है।
उसने
कामवासना का
इतना दमन किया
है कि हरेक आदमी
अपने भीतर
विकृत हो गया
है। इसलिए
पश्चिम अब
अराजक संगीत,
अराजक
नृत्य, अराजक
चित्रकला, अराजक
कविता के जरिए
सभी आयामों से
उस पाप को धो
रहा है जो
ईसाइयत ने
उसके साथ, उसके
चित्त के साथ
किया है।
पश्चिम में
सदियों—सदियों
के दमन से मन
को किसी तरह
मुक्त करना है,
सर्वथा मुक्त
करना है। और
वे इसके लिए
सब कुछ कर रहे
हैं। आज वहां
जो कुछ भी
प्रभावी है, वह अराजक है।
लेकिन
मात्र
कामवासना ही
नहीं है और भी
चीजें हैं।
काम बुनियादी
है,
बहुत
महत्वपूर्ण
है, लेकिन
दूसरी चीजें
भी हैं।
तुम्हारा
क्रोध दमित है,
तुम्हारा
दुख दमित है।
यहां तक कि
तुम्हारा सुख
भी दमित हुआ
पड़ा है।
मनुष्य
जैसा है, वह
दमित है। सच
तो यह है कि वह
अपनी मर्जी से
कुछ भी नहीं
कर सकता है।
उसे नियमों के
अनुसार चलना
पड़ता है। वह
स्वतंत्र
नहीं है, वह
खरीदा हुआ
गुलाम है।
समूचा समाज एक
बड़ा कारागृह
है। इस
कारागृह की
दीवारें बहुत
सूक्ष्म हैं;
वे काच की
हैं, पारदर्शी
हैं। वे दिखाई
नहीं पड़ती; लेकिन वे
हैं। और वे
चारों तरफ हैं।
तुम्हारी
नैतिकता, तुम्हारी
संस्कृति, तुम्हारा
धर्म—सब तरफ
दीवारें ही
दीवारें हैं।
वे पारदर्शी
हैं, दिखाई
नहीं पड़ती।
लेकिन जब भी
तुम उनके पार
जाना चाहते हो,
तुम पीछे
फेंक दिए जाते
हो।
चित्त
की यह अवस्था
बहुत रुग्ण है।
सारा समाज
रुग्ण है, बीमार
है। यही वजह
है कि मैं
अराजक ध्यान
पर, सक्रिय
ध्यान पर इतना
जोर देता हूं।
अपने को दमन
के बोझ से
मुक्त करो।
समाज ने तुम
पर जो कुछ
थोपा है, परिस्थितियों
ने तुम पर जो
कुछ आरोपित
किया है, उन्हें
फिर से बाहर
फेंको। उनका
रेचन करो; उनसे
मुक्त हो जाओ।
इसमें
संगीत सहयोगी
होता है। जो
कुछ भी
तुम्हारे
भीतर दमित है, अगर
तुम उसे
निकालकर बाहर
फेंक सको तो
तुम फिर से
सहज—स्वाभाविक
हो जाओगे, तुम
फिर से बच्चे
जैसे हो जाओगे।
और बच्चे जैसे
होते ही अनेक
संभावनाओं के
द्वार खुलते
हैं। तुम जैसे
हो, बिलकुल
बंद हो। जब
तुम फिर से
बच्चे हो
जाओगे, तभी
तुम्हारी सब
ऊर्जा
रूपांतरित हो
सकेगी। तब तुम
निर्दोष और
पवित्र होगे;
और
निर्दोषता और
पवित्रता से
ही रूपांतरण
संभव है।
विकृत ऊर्जा
रूपांतरित
नहीं हो सकती,
प्रकृत और
सहज—स्फूर्त
ऊर्जा चाहिए।
यही
कारण है कि
मैं रेचन पर
इतना जोर देता
हूं ताकि तुम
समाज को अपने
भीतर से बाहर
निकाल सको।
समाज
तुम्हारे
भीतर बहुत
गहरा प्रवेश
कर गया है।
उसने तुम्हें
कहीं से भी
खाली नहीं
छोड़ा है, सभी
दिशाओं से वह
तुममें दाखिल
है। मानो कि
तुम एक किला
हो और समाज
सभी दिशाओं से
तुममें घुस
आया है। उसकी
पुलिस, उसके
पुरोहित, सब
ने मिलकर
तुम्हें
गुलाम बनाया
हुआ है। तुम
स्वतंत्र
नहीं हो। और मनुष्य
तभी आनंद को
उपलब्ध हो
सकता है, जब
वह पूरी तरह
स्वतंत्र हो
जाए। और पूरी
तरह स्वतंत्र
होने के लिए
समाज को तुम्हारे
भीतर से निकाल
देना बहुत
जरूरी है।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि तुम
समाज—विरोधी
बन जाओ। समाज
को बाहर
फेंकने के बाद, अपनी
आंतरिक स्वतंत्रता
से, शुद्ध स्वतंत्रता
से परिचित होने
के बाद तुम समाज
के साथ मजे
में रह सकते
हो। समाज—विरोधी
होने की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन तब समाज
फिर तुममें
प्रवेश नहीं
कर सकेगा, तुम
उसमें रह सकते
हो, उसमें
काम कर सकते
हो, लेकिन
तब वह एक नाटक
ही होगा। अब
तुम अभिनेता
हो। अब समाज
तुम्हारी
हत्या नहीं कर
सकता, तुम्हें
गुलाम नहीं
बना सकता है।
अब तुम
समझपूर्वक
अभिनय कर रहे
हो।
जो
लोग भी समाज—विरोधी
बनते हैं, वे
यही खबर देते
हैं कि वे अब
भी उसी पुराने
समाज से बंधे
हैं। पश्चिम
में चलने वाले
सभी समाज—विरोधी
आंदोलन
प्रतिक्रियावादी
हैं, उन्हें
क्रांतिकारी
बिलकुल नहीं
कहा जा सकता।
तुम पुराने
समाज से ही
प्रतिक्रिया
कर रहे हो; तुम
विपरीत ढंग से
उसी समाज से
जुड़े हो। तुम
बस शीर्षासन
कर रहे हो; लेकिन
तुम आदमी वही
के वही हो।
समाज तुम्हें
जो कुछ करने
को कहता है, तुम उससे
उलटा करते हो;
लेकिन ऐसा
करके तुम अब
भी समाज का
अनुसरण कर रहे
हो। इससे काम
नहीं चलेगा।
अगर तुम सिर्फ
विरोधी हो तो
तुम कभी समाज
के पार नहीं
जा सकते। तब
तुम उसके ही
हिस्से हो।
अगर समाज
मरेगा तो तुम
भी मरोगे।
थोड़ा
खयाल करो, वे
अभी पश्चिम
में उसे
स्टैब्लिशमेंट
कहते हैं—जो
प्रतिष्ठित
समाज है और
फिर
हिप्पियों, इप्पियों का
वैकल्पिक
समाज है। यह
स्टैब्लिशमेंट
का ही हिस्सा
है। अगर
स्टैब्लिशमेंट
खो जाए तो यह
वैकल्पिक समाज
भी कहीं नहीं
रहेगा। वह
अपने बल पर नहीं
जी सकता, वह
प्रतिक्रिया
भर है।
तुम
हिप्पियों का
अलग समाज नहीं
बना सकते।
हिप्पी
स्टैब्लिशमेंट
के साथ
वैकल्पिक समाज
के रूप में, उनकी
प्रतिक्रिया
के रूप में ही
रह सकते हैं।
वे स्वतंत्र
रूप से नहीं
रह सकते हैं।
वे भला सोचें
कि हम
स्वतंत्र हैं;
वे
स्वतंत्र
नहीं हैं। वे
स्टैब्लिशमेंट
के विरोध में
हैं; लेकिन
स्टैब्लिशमेंट
ही उनका आधार
है, उनका
जीवन है।
स्टैब्लिशमेंट
अगर समाप्त हो
जाए तो वे
संकट में पड़
जाएंगे कि कहां
जाएं और क्या
करें। वे जो
भी करते हैं, एक तरह से
समाज के इशारे
पर ही करते
हैं। वे उसके
विरोध में हैं;
लेकिन
उन्हें
मार्गदर्शन
या आदेश उसी
स्टैब्लिशमेंट
से मिलता है।
अगर
स्टैब्लिशमेंट
छोटे बालों का
समर्थन करता
है तो हिप्पी
बाल बढ़ा लेते
हैं। लेकिन
स्टैब्लिशमेंट
न रहे तो वे
क्या करेंगे? स्टैब्लिशमेंट
अगर सफाई पर
जोर देता है
तो तुम गंदे
हो जाते हो।
लेकिन अगर
स्टैब्लिशमेंट
सफाई के लिए
हल्ला न मचाए
तो तुम कहीं
के नहीं रहोगे।
स्टैब्लिशमेंट
कुछ कहता है
और तुम कुछ और
करते हो, लेकिन
तो भी तुम
स्टैब्लिशमेंट
का ही अनुसरण करते
हो।
समाज—विरोधी
लोग क्रांतिकारी
नहीं हैं, वे
प्रतिक्रियावादी
हैं। वे एक ही
थैले के चट्टे—बट्टे
हैं। वे उसी
समाज के
हिस्से हैं, उसकी ही उपज
हैं। वे बस
घबड़ाहट के
कारण, गुस्से
के कारण उसके
विपरीत हो गए
हैं।
ध्यानी
या संन्यासी
समाज—विरोधी
नहीं है। वह
बस समाज के
पार है। न वह
समाज के विरोध
में है और न
उसके पक्ष में, वह
उसे गैर—गंभीरता
से लेता है।
वह जानता है
कि वह
एक
अभिनय कर रहा
है और उसमें
अभिनेता की
भांति रहता है।
और अगर तुम
समाज में
रंगमंच
के अभिनेता की
तरह रह सको तो फिर
समाज तुम्हें
कभी नहीं स्पर्श
करेगा। तब तुम
उसके पार हो।
इसलिए न समाज
का पक्ष लो और
न उसका विरोध
करो। लेकिन यह
कैसे संभव
होगा?
यह
तभी संभव होगा
जब तुम समाज
को अपने भीतर
से निकाल फेंकोगे।
अगर वह
तुम्हारे
भीतर है तो
फिर दो ही
उपाय हैं. या
तो उसका
अनुगमन करो या
विरोध। लेकिन
तुम बंधे हो, उसके
गुलाम हो।
पहले अपने को
समाज से
बिलकुल मुक्त
कर लेना है, तभी तुम
व्यक्ति होते
हो। अभी तुम
व्यक्ति नहीं,
एक सामाजिक
इकाई भर हो।
जब समाज को
चित्त से
निकाल बाहर
करोगे, जब
उसकी पूरी
मौजूदगी से
मुक्त हो
जाओगे, तब
तुम फिर अपने
बचपन में लौट
जाओगे, तब
तुम निर्दोष
हो जाओगे।
और
इस निर्दोषता
में बच्चे की
निर्दोषता से
ज्यादा गहराई
है;
क्योंकि
तुमने उसके
पतन को भी जाना
है और फिर
उसके उदय और
उत्थान को भी।
यह पुनर्जन्म
है। तुमने
अनुभव किया है,
तुमने पूरी
मूढ़ता को
पहचाना है। अब
तुम फिर
निर्दोष हो, पवित्र हो।
यह पवित्रता
ही परमात्मा
का द्वार है।
एक
बार तुम समाज
को अपने चित्त
से निकाल दो, बिना
कड़वाहट के, बिना
प्रतिक्रिया
के अपने से
उसे अलग कर दो,
तो
परमात्मा
तुममें
प्रवेश कर जाए।
जब तक समाज है
परमात्मा
बाहर रहेगा; समाज के
बाहर जाते ही
परमात्मा
प्रवेश कर जाता
है। परमात्मा
का अर्थ
अस्तित्व है।
समाज मनुष्य
का निर्माण है,
स्थानीय
घटना है।
अस्तित्व बड़ा
है, विराट
है। उसको
मनुष्य, उसकी
नीति और
परंपरा से कुछ
लेना—देना
नहीं है, वह
तो होने के
मूलाधार से ही
जुड़ा है।
तो
स्मरण रहे, समाज
के पार जाना
है, उसके
विरोध में
नहीं। और यह
अराजक विधि
सहयोगी है। यह
एक प्रकार का
रेचन है।
आज
इतना ही।
Thank you Master Osho
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