दिनांक, 5
जून, 1964;
सुबह।
मुछाला
महावीर,
राणकपुर।
चिदात्मन्!
मैं
आपको सत्य
देने में
असमर्थ हूं।
और कोई कहे
समर्थ है तो
वह प्रारंभ से
ही असत्य दे
रहा है! सत्य
देने में कोई
भी समर्थ नहीं
है। यह देने
वाले की
असमर्थता का
नहीं, सत्य के
जीवंत होने का
संकेत है। वह
वस्तु नहीं है
कि उसे लिया—दिया
जा सके। वह
जीवंत
अनुभूति है और
अनुभूति
स्वयं ही पानी
होती है।
मृत
वस्तुएं ली—दी
जा सकती हैं, अनुभूतियां
नहीं। क्या वह
प्रेम—प्रेम
की वह अनुभूति
जो मैंने जानी
है, मैं
आपके हाथों
में रख सकता
हूं? क्या
वह सौंदर्य और
संगीत जो मुझे
अनुभव हुआ है,
मैं आपको
दान कर सकता
हूं? उस
आनंद को मैं
कितना चाहता
हूं कि आपको
दे दूं जो
मेरी इस
साधारण सी
दिखती देह में
असाधारण रूप
से घटित हुआ
है, पर कोई
रास्ता उसे
देने का नहीं
है! मैं तड़प कर
ही रह जाता
हूं— कितनी
असमर्थता है!
एक
मेरे मित्र थे, उनके
पास जन्म से
ही आंखें नहीं
थीं। मैंने
कितना चाहा कि
मेरी दृष्टि
उन्हें मिल जाए,
पर क्या वह
हो सकता था? शायद एक दिन
वह हो भी जाए, क्योंकि आंखें
शरीर की अंग
हैं, और
हस्तांतरित
हो सकती हैं, पर वह
दृष्टि जिसे
सत्य उपलब्ध
होता है, उसे
तो कुछ भी चाह
कर नहीं दिया
जा सकता—वह
शरीर की नहीं
आत्मा की
शक्ति है।
आत्मा
के जगत में जो
भी पाया जाता
है,
वह स्वयं ही
पाया जाता है।
आत्मा के जगत
में कोई ऋण
संभव नहीं है।
वहां कोई पर—निर्भरता
संभव नहीं है।
किसी दूसरों के
पैरों पर वहां
नहीं चला जा
सकता है।
स्वयं के
अतिरिक्त
वहां कोई भी
शरण नहीं है।
सत्य
को पाना है तो
स्व—शरण बनना
आवश्यक है। वह
शर्त
अनिवार्य है।
इसलिए मैंने
कहा कि मैं
सत्य नहीं दे
सकता हूं।
हस्तांतरण
में केवल शब्द
ही संवादित
होते हैं—निर्जीव
और निष्प्राण—
और सत्य सदा
पीछे ही छूट
जाता है। और
निश्चय ही
मात्र शब्दों
का संवादित
होना, कोई
संवाद नहीं है।
वह जो जीवित
है—वह अर्थ, वह अनुभूति,
जो कि उनका
प्राण है, वह
उनके साथ नहीं
जाता है। वे
खाली
कारतूसों की
तरह हैं, या
मृत देहों, लाशों की
भांति, जो
आपके ऊपर बोझ
तो बन सकते
हैं, पर
आपको मुक्त
नहीं करते।
शब्दों में
सत्य की लाश
ही हमारे
हाथों पड़ती है,
जिसमें
सत्य के हृदय
की धड़कन
बिलकुल भी
नहीं होती है।
सत्य
तो नहीं दिया
जा सकता, पर
मैं आपके इस
बोझ को उतारने
में अवश्य
सहयोगी हो
सकता हूं जो
सदियों ने
आपके ऊपर घना
और भारी कर
दिया है।
शब्दों के बोझ
से मुक्त हो
जाना आवश्यक
है।
यात्रियों पर
रास्ते की धूल
इकट्ठी हो
जाती है। जीवन
की यात्रा में
भी शब्दों और
विचारों की धूल
इकट्ठी हो
जाती है। यह
सहज ही है। इस
धूल को झाड़
देना आवश्यक
है।
शब्द
मृत हैं, वे
सत्य नहीं हैं।
किसी के भी शब्द
सत्य नहीं हैं।
उन्हें
इकट्ठा न करें।
उनका परिग्रह
घातक है। उनके
बोझ के नीचे
दब कर फिर
सत्य की
यात्रा नहीं
हो सकती है।
पहाड़ों
पर चढ़ने को, ऊंचाइयां
छूने को
पर्वतारोही
को निर्भार होना
होता है। ऐसे
ही सत्य की
यात्रा पर जो
निकले हैं, अच्छा है कि
वे शब्दों से
निर्भार हो
जाएं। शब्द से
स्वतंत्र
चेतना सत्य की
ऊंचाइयां छूने
में समर्थ हो
जाती है।
मैं
एक ही
अपरिग्रह
सिखाता हूं :
शब्द और विचार
का अपरिग्रह।
उनका मृत बोझ
आपकी यात्रा
को बहुत
दुर्गम कर रहा
है।
च्चांगत्सु
ने कहा है. 'जाल
मछलियां
पकड़ने को है।
कृपा कर मछलियां
पकड़ लें और
जाल को फेंक
दें।’ पर
हम ऐसे मछुए
हैं कि हमने
जालों को पकड़
लिया है और
मछलियों को
भूल गए हैं।
अपने सिर पर
देखें। नावों
को आप सिर पर
लिए हैं, और
उन पर यात्रा
करना भूल गए
हैं!
शब्द
संकेत है। वह
इशारा है। वह
स्वयं सत्य
नहीं है।
इशारा समझ लें
और उसे फेंक
दें। उसे
इकट्ठा करना
लाशें इकट्ठी
करने से भिन्न
नहीं है।
शब्द
चांद को इशारा
करती हुई
अंगुलियों की
भांति हैं, फिंगर्स
प्याइंटिंग
टु दि मून। जो
इन अंगुलियों
पर ही ध्यान
केंद्रित कर
लेता है, वह
लक्ष्य से चूक
जाता है।
अंगुलियों
की सार्थकता
यही है कि वे
आपको अपने से
दूर ले जा
सकें। वे आपको
अपने में ही
उलझा लें तो
व्यर्थ ही नहीं, अनर्थ
भी हो जाती
हैं।
सत्य
के संबंध में
जो शब्द आपने
सीख लिए हैं, क्या
वे ऐसे ही
अनर्थ नहीं हो
गए हैं? क्या
उन्होंने ही
आपको एक—दूसरे
से—मनुष्य को
मनुष्य से
नहीं तोड़ दिया
है? क्या
तथाकथित
धर्मों के नाम
पर हुई समस्त
मूढ़ताएं और
कूरताएं
किन्हीं
शब्दों के
कारण ही नहीं हुई
हैं? क्या
धर्मों के रूप
में खड़े सारे
संप्रदाय शब्द—
भेद पर ही
नहीं खड़े हुए
हैं?
सत्य
तो एक ही है और
एक ही हो सकता
है। पर शब्द
अनेक हैं।
जैसे चांद तो
एक है, पर
इशारा करती
अंगुलियां
अनंत हो सकती
हैं।
सत्य
को इंगित करते
इन अनेक
शब्दों को
जिन्होंने
पकड़ लिया है, उन्होंने
धार्मिक
संप्रदायों
को जन्म दिया है।
धर्मों का
जन्म सत्य से
नहीं, शब्दों
से हुआ है।
सत्य
एक है। धर्म
भी एक ही है।
और जो शब्दों
को छोड़ने में
समर्थ हैं, वे
इस अद्वय धर्म
को, अद्वय
सत्य को जान
पाते हैं।
इसलिए
मैं आपके शब्द—
भार को और
शब्दों से
भारी नहीं
करना चाहता हूं।
शब्दों के
नीचे तो आपकी
कमर टूटी जा
रही है, आपकी
झुकी हुई
गर्दनों को
मैं भलीभांति
अनुभव कर रहा
हूं।
सत्य
को जिन्होंने
जाना है, उनके
ओंठ बिलकुल बंद
हैं, उसके
संबंध में
उनसे कोई भी
शब्द आता हुआ
नहीं मालूम
होता है। क्या
इससे वे काफी
नहीं कह रहे
हैं! क्या वे
नहीं कह रहे
हैं कि
निशब्दता में
ही सत्य है या
कि निःशब्दता
ही सत्य है? पर हम इसे
नहीं समझ पाते
हैं। हम शब्द
के बिना कुछ
भी नहीं समझ
पाते हैं।
हमारी सब समझ
शब्द की है और
तब वे शब्द से
बोलते हैं।
उसे शब्द से
बोलते हैं, जो कि शब्द
से बोला ही
नहीं जा सकता
है! उनकी करुणा
शब्दों के
द्वारा एक
असंभव चेष्टा
करती है और
हमारा अज्ञान
उन शब्दों को
ही पकड़ लेता
है।
शब्द
और अज्ञान मिल
कर संप्रदाय
बन जाते हैं।
शब्द
फ़ अज्ञान न
संप्रदाय।
और
इस भांति हम
पुन: सत्य से
वंचित रह जाते
हैं। और धर्म
जितना दूर था, उतना
ही दूर रह
जाता है। शब्द
से ऊपर उठना
आवश्यक है, तभी शब्द के
पीछे जो है, उसका बोध
होता है।
शब्द
स्मृति को ही
भरते हैं, ज्ञान
स्वयं उनसे
नहीं आता है।
और स्मृति, मेमोरी को
जान, नॉलेज
न समझ लेना।
जानना कि जो
स्मृति है, वह मात्र
स्मृति ही है।
वह जानकारी, लर्निग है, वह ज्ञान
नहीं है।
रमण
को कोई पूछता
था कि मैं
सत्य को जानने
को क्या करूं? उन्होंने
कहा ' जो
जानते हो, वह
सब भूल जाओ।’
काश!
जो आप जानते
हैं,
उस सबको भूल
सकें तो उस
मूलने से, उस
निर्दोषता, इनोसेंस और
सरल चित्तता,
सिम्प्लिसिटी
का जन्म होगा,
जिसमें
स्वयं को और
सत्य को जाना
जाता है। शब्द
और शब्दों से
निर्मित
विचार जब आपकी
चेतना पर भीड़
की भांति नहीं
छाए होते हैं,
तब उस मुक्त
क्षण में
प्रकाश के लिए
द्वार मिलता
है और आप ज्ञान
से संयुक्त
होते हैं।
चेतना
के द्वार और
खिड़कियां
खोलनी हैं।
वस्तुत: चेतना
को घेरने वाली
दीवालें ही
तोड़ देनी हैं, तब
उस प्रकाश से
मिलन होता है,
जो कि हमारा
स्वरूप है।
निश्चय
ही,
आकाश से
मिलने के लिए
आकाश जैसा
होना ही जरूरी
है—उतना ही
रिक्त और
शून्य, उतना
ही मुक्त और
असीम। विचार
यह नहीं होने
देते। वे
बदलियों की
भांति हमें
घेरे हैं। इन
बदलियों को
विसर्जित
करना है, तो
मैं आपके
चित्त पर
विचारों के और
बादल कैसे
छोडूं?
मैं
जो कह रहा हूं
या जो कि कहना
चाहता हूं और
नहीं कह पा
रहा हूं—वह
कोई विचार, कोई
प्रत्यय, आइडिया
नहीं है। वह
एक अनुभव है, एक साक्षात
है। विचार ही
होता तो कहा
भी जा सकता था
और अनुभव भी
बाहर का होता
तो कोई न कोई
शब्द उसकी
सूचना दे ही
देते, लेकिन
वह अनुभव बाहर
का नहीं है।
वह उसका है जो
कि सब अनुभव
करता है। वह
ज्ञाता का ज्ञान
है, इससे
कठिनाई है।
साधारणत:
ज्ञान में
ताता और ज्ञेय
भिन्न होते हैं—साक्षात
और साक्षी
भिन्न होते
हैं,
पर स्वयं के
साक्षात में
वे भिन्न नहीं
हैं। वहां ज्ञान,
ताता, ज्ञेय
एक ही है।
इससे शब्द
एकदम ही
व्यर्थ हो
जाते हैं। वे
उस संदर्भ के
लिए निर्मित
ही नहीं हैं।
उस सीमा में
उनका प्रयोग—
उनकी
सामर्थ्य और
संभावना के
बाहर उन्हें
खींचना है। इस
खींचतान में
वे बिलकुल
अपंग और
निष्प्राण हो जाते
हों तो कोई
आश्चर्य नहीं
है। और तब वे
सत्य के शरीर
की सूचना तो
दे देते हैं, उसकी आत्मा
का स्पर्श
उनसे नहीं
होता।
सत्य
तब जाना जाता
है,
जब शब्द
उपस्थित नहीं
होते हैं, तो
वे उसे प्रकट
कैसे कर सकते
हैं? जो
निर्विचारणा
में उपलब्ध
होता है, वह
विचार में
नहीं बांधा जा
सकता है।
क्या
आकाश को
बांधने का कोई
उपाय है? और
क्या जो बंध
सके उसे हम
आकाश कह
सकेंगे?
पर
हम सत्य के
संबंध में यही
क्यों नहीं
सोचते? सत्य
क्या आकाश से
कम असीम है, या कम अनंत
है? आकाश
गठरियों में
बंधा हुआ
बाजार में
बिकता हो तो
कोई भी नहीं
खरीदेगा, पर
सत्य को हम
खरीद लेते हैं।
सत्य, परमात्मा,
मोक्ष सब
बाजार में
बिकते हैं।
इसमें बेचने
वालों का दोष
नहीं है। वे
तो केवल
खरीददारों की
मांग की
पूर्ति करते
हैं।
और
जब तक सत्य के
खरीददार हैं, ग्राहक
हैं, तब तक
सत्य की
दुकानें भी
उठाई नहीं जा
सकतीं।
धर्म
के नाम पर
चलने वाले
सारे संगठन, सारे
संप्रदाय, दुकानों
में परिणत हो
गए हैं। वहां
बना—बनाया, रेडिमेड
सत्य आपको मिल
जाता है।
वस्त्र ही बने—बनाए
नहीं मिलते
हैं, सत्य
भी मिल जाते
हैं।
मैं
आपको बना—बनाया
सत्य नहीं दे
सकता हूं
क्योंकि ' बना—बनाया
सत्य ' जैसी
कोई चीज होती
ही नहीं है!
एक
कथा मुझे
स्मरण आ रही
है। एक सदगुरु
ने अपने शिष्य
से कभी कोई
प्रश्न पूछा
था— सत्य के
संबंध में कुछ
पूछा था। उसने
कोई उत्तर
दिया। गुरु ने
कहा : 'ठीक है। ठीक
है।’
पर
दूसरे दिन
गुरु ने फिर
वही प्रश्न
पूछा। शिष्य
ने कहा : 'कल तो
मैंने आपको
उत्तर दिया था?'
गुरु ने कहा
'आज फिर दो।’
शिष्य ने
वही उत्तर
दोहरा दिया था,
तो गुरु ने
कहा था ' नहीं,
नहीं।’ शिष्य
हैरान हुआ।
उसने पूछा कल
आपने कहा 'हां'
आज 'नहीं',
ऐसा क्यों
कहते हैं?
गुरु
ने क्या कहा.
जानते हैं? कहा,
'कल 'हां'
था, आज 'नहीं' है!'
इस
कथा का अर्थ
क्या है? आप
समझे? अर्थ
ही है कि
उत्तर बंधा
हुआ हो गया, वह एक ढांचे,
पैटर्न में
कैद हो गया।
वह एक धारणा, कॉनसेप्ट
में आबद्ध हो
गया, इसलिए
वह उत्तर जीवित
न रहा, मर
गया। वह
स्मृति का ही
हिस्सा था, वह ज्ञान
नहीं था।
हमारी स्मृति
ऐसे ही मृत
उत्तरों से
भरी हुई है और
इसलिए जो
जीवित है, उसका
इन मुर्दों के
कारण
आविर्भाव
नहीं हो पाता।
मित्र!
स्मृति नहीं, अनुभव
को, अनुभूति
को जगाना है।
स्मृति मृत—
भार है, अनुभूति
जीवित मुक्ति
है। सत्य के
अनुभव को
पूर्व
निश्चित नहीं
किया जा सकता
है। उसे किसी
भी दर्शन, किसी
भी धर्म और
किसी भी विचार—प्रणाली
की बंधी—बधाई
शब्दावली और
परिभाषा में
आबद्ध नहीं किया
जा सकता। वह
किसी भी
विचारसरणी या
विचार—सूत्र,
फॉर्मूला
के अनुकूल ही
सिद्ध हो, यह
आकांक्षा भी
नहीं की जा
सकती है। उसे
बांधने के सब
उपाय व्यर्थ
हैं। उसे नहीं
बांधना है, विपरीत अपने
को ही खोलना
है। उसे पाने
का उपाय उसे
बांधना नहीं,
वरन स्वयं
को ही खोलना
है।
सत्य
को मत बांधो, अपने
को खोलो। यही
एकमात्र राह
उसे पा लेने
की है।
सत्य
का अनुभव, अनुभव
से ही उपलब्ध
होता है।
स्वानुभव के
पूर्व उसे
किसी और भांति
नहीं जाना जा
सकता है। केवल
अनुभव और केवल
अनुभव ही
निर्णायक है।
मैं
एक पर्वतीय
झरने के करीब
था। उसके जल
को मैंने पीआ
और जाना कि वह
मीठा था। ऐसा
ही सत्य के
संबंध में भी
है। पीओ और
जानो। वह एक
ऐसा स्वाद है, जो
बस केवल लेकर
ही जाना जा
सकता है। सत्य
आपके ज्ञान की
उत्पत्ति
नहीं है, वह
आपका सृजन
नहीं है। उसे
आप बनाते नहीं
हैं। कोई भी
नहीं बनाता, न बना सकता
है। वह तो है।
इसलिए वह बना
बनाया नहीं
मिल सकता। वह
तो सदा से है।
आप आख खोलते
हैं तो वह दिखता
है, आप आख
बंद रखते हैं
तो वह नहीं
दिखता। वह
प्रकाश की ही
भांति है।
उसे
खरीदना नहीं
है,
बंद आख ही
खोलनी है। और
तब सत्य अपनी
पूर्ण
मौलिकता में,
अपनी पूर्ण
शुद्धता में,
अपनी पूर्ण
सत्ता में
उठता है और
आपको परिवर्तित
कर देता है।
यह हो सके, इसके
लिए जरूरी है
कि अपने को
बासी और उधार
विचारों से
विकृत मत करो
और किसी की
जूठन और उतारे
हुए वस्त्रों
को ग्रहण मत
करो।
क्या
आपको ज्ञात
नहीं है कि
जीवन किसी भी
बासी और मृत
चीज को स्वीकार
नहीं करता है?
फिर
मैं आप से
क्या कहूं? सत्य
के संबंध में
तो नहीं
कहूंगा, फिर
किस संबंध में
कहूं?
सत्य
को कैसे जाना
जा सकता है, इस
संबंध में मैं
आपसे कहूंगा।
प्रकाश के
संबंध में तो
नहीं, पर आंखें
कैसे प्रकाश
के प्रति खोली
जा सकती हैं, इस संबंध
में मैं
कहूंगा। मैं
जो देख रहा
हूं वह तो
नहीं, लेकिन
कैसे मैं देख
रहा हूं वह
कहूंगा। वही
कहा जा सकता
है। और यह भी
सौभाग्य है कि
कम से कम उतना
तो कहा जा सकता
है।
धर्म
का संबंध—
वास्तविक
धर्म का संबंध
सत्य के
सिद्धांत, डॉक्ट्रिन
से नहीं, सत्य
को जानने की
विधि, मेथड
से है।
मैं
इसलिए सत्य के
संबंध में तो
कुछ भी नहीं कहूंगा।
मैं उसे आपको, जानने
से पहले जाना
हुआ नहीं बनना
चाहता। मैं तो
आपको उस स्थान
तक ले चलना
चाहता हूं जहां
आप स्वयं उसे
जान सकेंगे—
उस बिंदु तक
जहां से उसके
दर्शन संभव
हैं—उत्ताप के
उस क्षण तक
जहां आपका अज्ञान
वाष्पीभूत हो
जाता है और उस
अग्नि—शिखा से
मिलन होता है
जो कि आप
स्वयं हैं।
इसलिए
अब हम उस विधि
की बात करें।
सत्य
के मार्ग पर
जाने वालों को
दो द्वार मालूम
होते हैं। एक
मार्ग है सत्य
के विचार का, एक
है सत्य की
साधना का। एक
है तर्कणा का,
एक है योग
का। एक है
तत्व—चिंतन का,
एक है तत्व—साधना
का। ऐसे दो
द्वार मालूम
होते हैं, पर
मेरे देखे तो
द्वार एक ही
है। दूसरा है
नहीं, केवल
प्रतीत ही
होता है। वह
दूसरा आभास ही
है। सत्य के
विचार का
द्वार
वास्तविक
द्वार नहीं है।
वह आभास—द्वार
है और अनेक उस
भ्रम में खो
जाते हैं।
सत्य पर विचार
से— विचार के
द्वार से कहीं
पहुंचते नहीं
हैं। वह ले
जाता है, पर
कहीं पहुंचाता
नहीं है। उस
पर बहुत चल कर
भी पाया जाता
है कि आप वहीं
खड़े हैं, जहां
से प्रारंभ
किया है। वह
प्रारंभ ही है,
अंत उसमें
नहीं है और
जिसका अंत
नहीं है, उसका
प्रारंभ केवल
आभास ही हो
सकता है।
विचार
में क्या
करेंगे? सत्य
को विचारेंगे
कैसे? जो
ज्ञात नहीं है,
वह विचारा
नहीं जा सकता।
विचार अज्ञात
को कैसे
विचारेगा? उसकी
तो जात के
भीतर ही गति
है।
विचार
समस्याएं दे
सकता है, समाधान
उससे नहीं आता।
जो उसके ही
पीछे चलेगा वह
एक अराजकता, अनार्की में
खो सकता है— एक
विक्षिप्तता
में उसकी
चित्त की
परिणति हो सकती
है। अनेक
विचारकों का
विक्षिप्त हो
जाना आकस्मिक
और अनायास नहीं
है। वह विचार
का अंतिम
निष्कर्ष है।
वह विचार की
चरम गति है।
सत्य
के साक्षात के
लिए विचार का
मार्ग कोई मार्ग
ही नहीं है।
एक
अदभुत कथा
कहूं। एक आदमी
दुनिया के
अंतिम छोर की
तलाश में निकला।
बहुत यात्रा
के बाद वह एक
ऐसे मंदिर के
पास पहुंचा, जहां
लिखा हुआ था ' यहां दुनिया
समाप्त होती
है। दिस इज द
एंड ऑफ दि
वर्ल्ड।’ वह
हैरान हुआ, पर विश्वास
नहीं कर सका।
बात भी कितनी
अविश्वसनीय!
वह और भी आगे
बढ़ता गया और
अंतत: जल्दी
ही उस जगह
पहुंच गया, जहां कि
विश्व का अंत
था। एक अनंत खड्ड
और अनंत शून्य
सामने था।
उसने झांका।
वहां तो कुछ
भी नहीं था, लेकिन उसकी
श्वासें बंद
सी हो गईं और
उसका सिर चकरा
गया। वह लौट
कर भागा और
फिर वह पीछे
लौट कर नहीं
देख सका था।
यह
कथा विचार के
अंत की कथा है।
हम यदि सत्य
के संबंध में
सोच रहे हैं
तो हम सोचेंगे, सोचेंगे
और तब हम एक
ऐसी जगह
पहुंचेंगे
जहां और नहीं
सोचा जा सकता।
वही अंत है—
विचार का अंत।
एक अनंत खड्ड
सामने होगा और
हमारा मन और
आगे कदम लेने
से इनकार कर
देगा। विचार
में यह घड़ी
आती है। यदि
हम अंत तक
उसका अनुसरण
करें, तो
वह अपरिहार्य,
इनएविटेबल
है। और यदि आपको
लगता हो कि
अभी कुछ और
विचार करने को
शेष है, तो
आप समझें कि
अभी वास्तविक
अंत नहीं आया
है। जब कुछ भी
विचार करने को
शेष नहीं है
और एक भी कदम
आगे नहीं
उठाया जा सकता,
तब यह
वास्तविक अंत
है और आप उस
मंदिर के करीब
पहुंच गए हैं
जहां कि
दुनिया
समाप्त होती
है!
वही
आदमी जो कि
दुनिया के अंत
पर पहुंच गया
था,
यदि मुझसे
पूछता कि अब
वह क्या करे, तो मैं उसे
भागने की सलाह
नहीं देता!
जानते हैं कि
मैं उसे क्या
सलाह देता? मैं उसे
कहता कि इतनी
यात्रा की है
तो अब एक कदम
और उठा लो—
अंतिम और सबसे
महत्वपूर्ण
कदम। वह खड्ड,
वह शून्य जो
सामने है, उसको
साहसपूर्वक
कूद जाओ। एक
ही कदम की और
आवश्यकता है
और स्मरण रहे
कि जहां जगत
का अंत होता
है, वहीं
से प्रभु का
प्रारंभ होता
है।
वह
बिंदु जो कि
जगत के अंत का
है,
उससे
महत्वपूर्ण
बिंदु और कोई
भी नहीं है, क्योंकि वही
प्रभु के
प्रारंभ का
बिंदु भी है।
विचार
जहां समाप्त
होता है, वहीं
दर्शन
प्रारंभ होता
है।
विचार
जहां समाप्त
होता है, वहीं
सत्य का
साक्षात है।
विचार
से निर्विचार
में कूदना है, शब्द
से शून्य में
कूदना है—यही
विधि है, यही
साहस है, यही
तप है, यही
साधना है।
इस
जगह यदि आपको
ब्रह्मा—विष्णु—महेश
दिखाई पड़ते
हों,
तो जानना कि
आप अभी भी सोच
रहे हैं। यदि
महावीर, बुद्ध
या कृष्ण
दिखाई पड़े, तो जानना कि
आप अभी भी
स्वप्न देख
रहे हैं। फिर
यह वास्तविक
अंत नहीं है।
वास्तविक अंत
तब है जब कि
सोचने को कुछ
भी नहीं है, देखने को
कुछ भी नहीं
है, जानने
को कुछ भी
नहीं है। आप
हैं और शून्य
है— आप भी कहां
हैं? शून्य
ही है!
दुनिया
के अंत पर खड़े
हैं। चित्त
लौटना चाहेगा—पूरी
शक्ति से
लौटना चाहेगा।
इसी समय साहस
की अपेक्षा है
और एक और कदम
उठाने की
जरूरत है। एक
कदम और—एक
छलांग ही बस
अपेक्षित है
और फिर सब बदल
जाता है। फिर
विचार नहीं है, दर्शन
है।
फिर
आप जानते हैं।
सब जानना
छोड़ते हैं, तब
जान पाते हैं।
सब देखना
छोड़ते हैं, तब देख पाते
हैं। और सब
भांति जब मिट
जाते हैं, तब
हो पाते हैं।
साधना
मृत्यु में
कूदना है पर
उसके द्वारा
ही अमृत का
साक्षात होता
है।
विचार
नहीं, विचार
से छलांग विधि
है। विचार से
छलांग ध्यान,
मेडिटेशन
है। मैं रोज
उसकी ही बात
कर रहा हूं।
विचार चैतन्य
के सागर पर
उठी तरंगें
हैं—
क्षणभंगुर
बुदबुदे जो कि
बन भी नहीं
पाते कि मिट
जाते हैं।
उनसे
विक्षुब्ध और
अशांत सतह की
सूचना मिलती है।
उनमें जो है, वह गहराई
में नहीं हो सकता।
उसमें होना ही
उथले में होना
है।
विचारमात्र
उथले हैं। कोई
विचार गहरा
नहीं हो सकता
है, क्योंकि
कोई लहर गहरे
में नहीं हो
सकती है—लहर
सतह की ही
संभावना है।
विचार भी
चेतना की सतह
के खेल हैं।
लहरों में झील
नहीं है, झील
में लहरें हैं।
लहरें बिना
झील के नहीं होंगी,
पर झील बिना
लहरों के हो
सकती है।
विचार
बिना चेतना के
नहीं हो सकते
हैं,
पर चेतना
निर्विचार हो
सकती है। वह
मूल है, आधार
है। उसे जानना
है तो लहरों
के पीछे चलना
होगा, लहरों
का अतिक्रमण
करना होगा।
सागर के
किनारे नहीं
बैठे रहना है।
कबीर ने कहा
है 'मैं
बौरी खोजन गई,
रही किनारे
बैठ!' ऐसे
आप भी मत बैठ
जाना। किनारे
पर कुछ भी
नहीं है, जिसका
किनारा है, उसमें चलना
है। किनारा
केवल उसमें
कूद जाने के
लिए ही उपयोगी
है!
पर
यह भी हो सकता
है कि कोई
किनारे पर तो
न हो,
पर लहरों
में तैरे।
मेरी दृष्टि
में वह भी
किनारा ही है।
जो डूबने से
रोके वही
किनारा है।
विचार में
तैरते हुए लोग
ऐसे ही हैं।
वे किनारा
छोड़ने के भ्रम
में हैं, पर
उन्होंने
किनारा छोड़ा
नहीं है।
महावीर
का निर्वाण
हुआ तो
उन्होंने
बाहर गए अपने
प्रिय गौतम के
लिए एक दिशा—सूचक
सूत्र छोड़ा था।
उन्होंने कहा
था '
गौतम को कह
देना कि तू
सारी नदी तो
पार कर गया है,
पर अब
किनारे को
क्यों पकड़े है,
उसे भी छोड़
दे।’ वे
किस किनारे की
ओर इशारा कर
रहे थे? मैं
भी उसी की बात
कह रहा हूं।
वह विचार का
किनारा है। वह
विचार में
तैरने का
किनारा है।
सत्य
तैरने से नहीं, डूबने
से मिलता है।
तैरना सतह पर
है, डूबना
उन गहराइयों
में ले जाता
है जिनका कि
कोई अंत नहीं
है।
विचार
के किनारे से
शून्य की
गहराई में
कूदना है।
बिहारी
की एक मीठी
पंक्ति है 'अनबूड़े,
बूड़े तरे
जे बूड़े सब
अंग।’ जो
अधूरे डूबे थे,
वे डूब ही
गए और जो
संपूर्ण डूब
गए थे वे तर गए!
आपके क्या इरादे
हैं? पार
होना है तो
डूबने का साहस
आवश्यक है!
मैं
वही डूबना, वही
मिटना सिखा
रहा हूं ताकि
आप पार हो
सकें, ताकि
आप वह हो सकें,
जो कि आप
हैं।
आज
इतना ही।
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