सूत्र:
भयंकर आधी
के पश्चात जो
निस्तब्धता
छा जाती है,
उसी में
फूल के खिलने
की प्रतीक्षा
करो, उससे
पहले नहीं।
जब तक आधी
चलती रहेगी, जब
तक युद्ध जारी
रहेगा,
तब तक वह
उगेगा, बढ़ेगा,
उसमें
शाखाएं और
कलियां
फूटेंगी!
परंतु जब
तक मनुष्य का
संपूर्ण
देहाभाव विघटित
होकर घुल न
जाएगा,
जब तक
समस्त आंतरिक
प्रकृति
अपने
उच्चात्मा से
पूर्ण हार
मानकर उसके
अधिकार में न
आ जाएगी,
तब तक फूल
नहीं खिल सकता।
तब एक ऐसी
शांति का उदय
होगा,
जैसी गर्म
प्रदेश में
भारी वर्षा के
पश्चात छा
जाती है।
जो सिद्ध
कर देगी कि
मार्ग की
प्राप्ति हो
गई है।
फूल खिलने
का क्षण बड़े
महत्व का है,
यह वह क्षण
है जब ग्रहण—शक्ति
जाग्रत होती
है।
इस जागृति
के साथ—साथ
विश्वास,
बोध और निश्चय
भी प्राप्त
होता है।
जब शिष्य
खीखने के योग्य
हो जाता है,
तो वह स्वीकृत
हो जाता है,
शिष्य मान
लिया जाता है और
गुरूदेव उसे ग्रहण
कर लेते है।
ऐसा होना अवश्यंभावी
है,
क्योंकि
उसने अपना दीप
जला लिया है
और दीपक की यह
ज्योति छिपी
नहीं रह सकती।
ऊपर लिखे
गए नियम उन
नियमों में से
आरंभ के हैं,
जो नियम
परम—प्रज्ञा
के मंदिर की
दीवारों पर
लिखे हैं।
जो
मांगेंगे, उन्हें
मिलेगा, जो
पढ़ना चाहेंगे,
वे पढ़ेंगे;
जो सीखना
चाहेंगे, वे
सीखेंगे।
तुम्हें
शांति
प्राप्त हो।
पूछते
हैं लोग कि
यदि परमात्मा
सभी का स्वभाव
है तो संसार
की जरूरत क्या
है?
और अगर
आत्मा सभी को
मिली ही हुई
है तो इस अज्ञान
में पड़ जाने
का कारण क्या
है? क्या
है प्रयोजन
इतने उलझाव का?
अगर भीतर सब
सहज और सत्य
ही है, तो
बाहर इतना
उपद्रव क्यों
है? और अगर
हम उसे पा ही
लेंगे, जो
हमें मिला ही
हुआ है, तो
यह बीच का
इतना भटकाव, यह बीच की
इतनी यात्रा
सार्थक नहीं
मालूम होती!
अगर ब्रह्म ही
सबका स्वाभाव
है, स्वरूप
है, तो
संसार क्यों
है?
और
इस प्रश्न का
उत्तर देने के
बहुत प्रयास
किए गए हैं।
लेकिन सभी
प्रयास करीब—करीब
असफल हैं।
क्योंकि किसी
भी भांति समझाने
की कोशिश की
जाए,
मूल प्रश्न
अछूता रह जाता
है। कोई कहता
है कि
तुम्हारे
पिछले जन्मों
के कारण तुम
भटक रहे हो।
लेकिन यह
उत्तर बहुत
बचकाना है।
क्योंकि
पिछले जन्मों
के कारण यह
जीवन भटकाव हो
सकता है, लेकिन
पहला जीवन किस
कारण भटका
होगा? तो
कुछ हैं, जो
इस उत्तर में
जो भूल है, उससे
बचने के लिए
कहते हैं कि
पहला कोई जन्म
ही नहीं है, तुम अनंत से
भटक रहे हो।
जैनों
की दृष्टि यही
है कि तुम
अनंत से भटक
रहे हो, अनादि
से! लेकिन तब
भी बात वहीं
की वहीं खड़ी
रह जाती है—
आत्मा क्यों
अनादि से भटक
रही है? आत्मा
क्यों निगोद
में पड़ती है? कारण क्या
है अनादि से
भटकने का? अगर
कहो कि अकारण
भटक रही है, तो फिर
मोक्ष का कोई
उपाय नहीं है।
अगर अकारण भटक
रही है, तो
किस कारण को
काट कर आप
मुक्ति
पाएंगे? अगर
कोई कारण ही
नहीं है भटकाव
का, तो
छुटकारे का
कोई उपाय ही
नहीं है। अगर
कोई कारण है
भटकाव का, तो
कारण को तोड़ा
जा सकता है, तो छुट्टी
है, स्वतंत्रता
है, मुक्ति
हो सकती है।
कुछ
हैं,
जो कहते हैं,
परमात्मा
की लीला है।
लेकिन लीला
बड़ी कठोर
मालूम पड़ती
है। और लीला
बहुत बेहूदा
मजाक मालूम
पड़ती है। ऐसी
कैसी लीला है
कि आदमी
व्यर्थ, अकारण
जन्मों—
जन्मों तक कष्ट
पाए? ऐसा
परमात्मा
सैडिस्ट
मालूम पड़ता है,
दुष्ट, सताने
में कुछ रस
होगा। अन्यथा
इतने—इतने
जीवन को, इतनी—इतनी
आत्माओं को
इतने लंबे
भटकाव और
सताने की यात्रा
पर फिर भेजने
का प्रयोजन
क्या है? और
फिर अगर वह
सर्व—शक्तिशाली
है तो ऐसे ही
मुक्ति दे
सकता है। इतना
लंबा और इतने
दुख का मार्ग!
जरूर उसे कुछ
रस आता होगा
कि लोग पीड़ित
और परेशान हों।
यह लीला तो
ऐसी ही हुई
जैसे कि छोटे
बच्चे मेंढक
को पकड़ कर सता
रहे हों। तो
आदमी की गर्दन
को ऐसा पकड़ कर
सताने का क्या
प्रयोजन है?
कुछ
हैं,
जो कहते हैं
कि यह सब जो
दिखाई पड़ रहा
है, स्वप्नवत
है, माया
है। लेकिन वे
जो कहते हैं
कि माया है, वे भी इससे
छूटने का बड़ा
उपाय करते
हैं! अगर यह सच
में ही स्वप्नवत
है, तो
छूटने की
जरूरत क्या है?
जो स्वप्नवत
ही है, उससे
छूटने का
प्रयोजन क्या
है? उससे डर
क्या है? लेकिन
वे जो माया
कहते हैं, वे
संसार से
भागते हैं!
जरूर उनको भी
यह यथार्थ
मालूम होता है,
नहीं तो
भागेंगे नहीं।
जो है ही नहीं,
उससे भाग कर
जाइएगा कहां?
उससे भागने
का अर्थ क्या
है? और अगर
संसार माया है,
तो त्याग
व्यर्थ है।
क्योंकि
त्याग करिएगा
क्या? झूठ
का भी कोई
त्याग हो सकता
है? स्वप्न
का भी कोई
त्याग हो सकता
है? जो है
ही नहीं, उसका
त्याग क्या
करिएगा?
अगर
संसार माया है
तो संन्यास
व्यर्थ है।
क्योंकि फिर
क्या अर्थ
रहा! संसार
वास्तविक हो, तो
ही संन्यास का
कोई मूल्य है।
और अगर संसार
माया है, तो
मोक्ष भी माया
हो गया।
क्योंकि जब
बंधन ही माया
है, तो
मुक्ति कैसे
सार्थक और
सच्ची होगी।
अगर मेरा
जेलखाना ही
झूठ है, तो
मेरा छुटकारा
कैसे सच होगा।
क्योंकि
छुटकारा तो
जेलखाने के सच
होने पर ही
निर्भर है।
अगर जेलखाना
झूठ है, तो
मेरी मुक्ति
भी झूठ होगी।
ऐसे
बहुत—बहुत
उत्तर दिए गए
हैं,
लेकिन कोई
उत्तर छूता नहीं
है। और हर
उत्तर के साथ
अड़चन हो जाती
है। और हर
उत्तर कहीं
बुनियाद में
लगता है कि
समझाने का
उपाय है, सत्य
नहीं है। और
यही बात है।
यह सूत्र एक
उत्तर देता है,
जो मेरी
दृष्टि से
सर्वाधिक
सत्य के करीब
पहुंचता है।
यह सूत्र एक
वैज्ञानिक
उत्तर देता है,
दार्शनिक
नहीं।
यह
सूत्र यह कहता
है कि जीवन की
सारी
अनुभूतियां
विपरीत पर
निर्भर हैं।
यह सूत्र किसी
ईश्वर को बीच
में नहीं लाता, किसी
माया को बीच
में नहीं लाता,
किसी
दार्शनिक
सिद्धात की आड़
नहीं लेता। यह
सूत्र कहता है
कि जीवन के
सभी अनुभव
विपरीत पर
निर्भर हैं।
अगर
शांति का
अनुभव चाहिए
तो अशांति से
गुजरना वैज्ञानिक
रूप से जरूरी
है,
नहीं तो
शांति की कोई
प्रतीति न
होगी। आप शांत
भी हो सकते
हैं, तो भी
आपको शांति की
प्रतीति तभी
होगी, जब
आप अशांति से
गुजर जाएं।
अगर आपने जीवन
में अशांति
नहीं जानी, तो आप शांति
को कैसे
जानिएगा! कोई
उपाय जानने का
नहीं है।
अशांति की
पृष्ठभूमि
चाहिए, तो
शांति उभरती
है।
अगर
जीवन का अनुभव
लेना है तो
मृत्यु
अनिवार्य है।
किसी
परमात्मा की
लीला के कारण
नहीं। मृत्यु
इसलिए
अनिवार्य है
कि जीवन उभर
ही नहीं सकता, मृत्यु
की भूमि के
बिना। वह
मृत्यु जो है,
भूमि है। और
जीवन अंकुरित
होता है, मृत्यु
की भूमि में।
मृत्यु जीवन
को नष्ट करने
वाली नहीं है,
जीवन को
जन्म देने
वाली है। वह
जो विपरीत है,
उसके बिना
कोई भी अनुभव
नहीं हो सकता।
अगर शब्द न हो,
तो मौन का
कैसे अनुभव
करिएगा!
यह
सूत्र कहता है
कि अगर संसार
न हो,
तो परमात्मा
का कोई अनुभव
नहीं हो सकता।
तो संसार कोई
लीला नहीं है,
परमात्मा
के अनुभव की
प्रक्रिया है।
और अनिवार्य
प्रक्रिया है।
आप परमात्मा
में भी हो
सकते हैं। आप
थे, अभी भी
हैं; आप
कभी परमात्मा
के बाहर नहीं
हो सकते।
लेकिन संसार
में फिंकना
जरूरी है, ताकि
आपको यह पता
चल सके कि आप
परमात्मा में
हैं।
इसे
ऐसा समझिए कि
आप एक मछली
हैं सागर की।
एक बार आपको
सागर से निकाल
कर तट पर
फेंका जाना
जरूरी है, तभी
आपको सागर का
पता चलेगा। आप
सागर में ही
हैं, सागर
में ही पैदा
हुए हैं— मछली
हैं। सागर के
बाहर कभी
झांका नहीं, बाहर कभी गए
नहीं— आपको
सागर का कोई
पता नहीं
चलेगा। सागर
इतना निकट
होगा, इतना
जुड़ा होगा
आपसे कि एक
श्वास भी उसके
बिना नहीं ली
है, तो
उसका पता नहीं
चलेगा। सागर
का पता—उलटा
सुनाई पड़ता है,
समझ में
नहीं आता है—लेकिन
जब मछली पहली
दफा रेत के
किनारे पर
पड़ती है, तभी
पता चलता है
कि सागर है।
वह जो तड़पन
मालूम होती है
रेत के किनारे
पर, वह
सागर से छूटने
की जो पीड़ा है,
वही फिर
सागर से मिलने
का रस बनती है।
और जो मछली एक
बार मछुए के
जाल में फंस
कर बाहर आ गई, दुबारा सागर
में आती है—वह
वही मछली नहीं
है, जो
सागर में पहले
थी। अब यह
सागर एक आनंद
है। अब उसे
पता है कि यह
सागर उसका
जीवन है। अब
उसे पता है कि
यह सागर कैसा
रहस्य है। अब
उसे पता है कि
यह सागर क्या
है! इसकी
अर्थवत्ता अब
उसके अनुभव
में है।
तो
परमात्मा कोई
दुखवादी नहीं
है कि आपको
सता रहा है।
परमात्मा कुछ
कर ही नहीं
रहा है।
लेकिन
जीवन की
अनिवार्यता
यह है, जीवन का
नियम यह है, कि विपरीत
से गुजरे बिना
कोई अनुभव
नहीं होता।
मोक्ष
और संसार एक
दूसरे के
विपरीत हैं।
मोक्ष की
अनुभूति
संसार से गुजर
कर होती है।
आप वहीं
पहुंचते हैं, जहां
आप थे, लेकिन
आप भिन्न हो
कर पहुंचते
हैं। आप वही
पाते हैं, जो
मिला ही हुआ
था, लेकिन
खो कर पाते
हैं। और वह जो
खोना है बीच
में, वह
बहुत
महत्वपूर्ण
है। उसके बिना
कोई अनुभूति
नहीं हो सकती।
इसलिए संसार
प्रशिक्षण है
और अनिवार्य
प्रशिक्षण है।
और
यह वैसा ही
नियम है, जैसे
कि वैज्ञानिक
नियम होते हैं।
वैज्ञानिक
कहता है कि
हाइड्रोजन और
आक्सीजन के
मिलने से पानी
बनता है। और
हाइड्रोजन के
दो अणु और
आक्सीजन का एक
अणु मिल जाएं,
तो पानी
निर्मित हो
जाता है। आप
उससे पूछें, लेकिन ऐसा
क्यों? तीन
हाइड्रोजन के
अणु हों और एक
आक्सीजन का हो
तो पानी क्यों
नहीं बनता? तो
वैज्ञानिक
कहेगा, क्यों
का कोई सवाल
नहीं, हम
उतना ही कहते
हैं, जो
होता है। बस
ऐसा होता है
कि दो
हाइड्रोजन और
एक आक्सीजन का
अणु मिल कर
पानी बनाते
हैं। क्यों का
कोई सवाल नहीं
है, ऐसा है।
वितान
' क्यों' का
उत्तर नहीं
देता, ' क्या
' का उत्तर
देता है। वह
यह नहीं कहता
कि ऐसा क्यों
है, इतना
ही कहता है कि
ऐसा है। इसलिए
विज्ञान तथ्य
से कभी नहीं
हटता। और
दर्शन अक्सर
क्यों के
उत्तर में
विलीन हो जाता
है। क्यों!
ये
सूत्र बड़े
वैज्ञानिक
हैं और इन
सूत्रों की पकड़
क्या पर है, क्यों
पर नहीं है।
यह सूत्र यह
नहीं कहता कि
ऐसा क्यों है।
यह सूत्र यह
कहता है कि
ऐसा है।
विपरीत
के अनुभव के
बिना कोई
अनुभव नहीं
होता।
इसको
खयाल में ले
लें और विपरीत
के इस महान नियम
को ठीक से समझ
लें,
तो आपके
जीवन की पूरी
दृष्टि बदल
जाएगी। और तब
आप दुख में भी
सुखी हो
सकेंगे, क्योंकि
आप जानते हैं,
दुख के बिना
कोई सुख की
प्रतीति नहीं
हो सकती। और
आप अशांति में
भी शांत हो
सकेंगे, क्योंकि
तब आप जानते
हैं कि अशांति,
शांति का
प्रशिक्षण है।
और तब आप
मृत्यु को भी
आनंद से
स्वीकार कर
सकेंगे, क्योंकि
तब आप जानते
हैं कि जीवन
का फूल मृत्यु
की भूमि में
ही खिलता है।
तब आप अवसाद
को भी झेल
लेंगे धन्यभाग
से, क्योंकि
उसके बिना कोई
अहोभाग्य
नहीं है। तब
आप अपमान को
भी स्वीकार कर
लेंगे हंसते
हुए, क्योंकि
आप जानते हैं
कि सम्मान का
भी वही द्वार
है। तब आप
अज्ञान से
भागेंगे नहीं,
घबड़ा के
नहीं, बल्कि
अज्ञान में
पूरी आंख खोल
कर खड़े हो
जाएंगे, क्योंकि
अज्ञान में आंख
खोल कर खड़े हो
जाना ही ज्ञान
के मंदिर में
प्रवेश की
कुंजी है। तब
जीवन की
विपरीतता से
आप विक्षुब्ध
न होंगे। तब
जीवन की सारी
विपरीतता भी
आपको किसी
सार्थक अंत की
ओर ले जाती
हुई मालूम
पड़ेगी।
कुछ
भी व्यर्थ
नहीं है। कुछ
भी व्यर्थ
नहीं हो सकता
है। आपको भले
ही सार्थकता
का पता न हो, यह
बात दूसरी है।
लेकिन जो भी
है, उसकी
सार्थकता है।
और उसकी
सार्थकता यही
है कि वह अपने
से विपरीत की
तरफ ले जा रहा
है। अब हम इस
सूत्र को
समझें।
'भयंकर आधी
के पश्चात जो
निस्तब्धता
छा जाती है, उसी में फूल
के खिलने की
प्रतीक्षा
करो, उससे
पहले नहीं।’
आधी
जरूरी है
निस्तब्धता
के लिए। और जो
चाहता है कि
आधी न हो, सिर्फ
निस्तब्धता
हो, उसकी
निस्तब्धता
मृत होगी, उसमें
कोई जीवन न
होगा। यह बड़े
मजे की बात है
कि
निस्तब्धता
का जीवन भी
आधी में है।
निस्तब्धता
अपने आप में
व्यर्थ है, जब तक उसके
चारों ओर आधी
न हो। आधी ही
प्राण डालती
है, आधी ही
निस्तब्धता
को सजीव करती
है, आधी ही
निस्तब्धता
में आनंद
उपस्थित करती
है। आधी, जो
विपरीत मालूम
पड़ती है, अगर
आपने बोध—पूर्वक
आधी को अनुभव
किया है, तो
आधी के बाद जो
निस्तब्धता
आती है, उसकी
कोई तुलना
नहीं है।
लेकिन
यह भी हो सकता
है कि आप आधी
से इतने
परेशान हो जाएं
कि वह जो
निस्तब्धता
आती है, चूक
ही जाए। आपको
पता ही न चले।
आप आधी से
इतने परेशान
हो सकते हैं
कि जब निस्तब्धता
आए, तब भी
आप परेशान बने
रहें। वह आधी
का सिलसिला
जारी रहे और
आप चूक ही
जाएं।
दुख
के बाद जो सुख
की ताजी
अनुभूति होती
है,
वह आप चूक
जाते हैं।
बीमारी के बाद
जो स्वास्थ्य
की हवा बहती
है, वह
आपके खयाल में
नहीं आ पाती।
आप पुरानी
बीमारी से ही,
जो जा चुकी
है, उससे
इतने आच्छन्न
होते हैं, कि
वह जो अब घट
रहा है, वह
चूक जाता है।
दुख के बाद
सुख का जो
स्वाद है, वह
किसी और तरह
नहीं मिलता।
लेकिन
हम दुख से ऐसे
भर जाते हैं, और
दुख से इतने
परेशान हो
जाते हैं, कि
दुख जब जा
चुका होता है,
तब भी हम
उसी की चिंता
में लीन होते
हैं। और वह जो
बारीक क्षण है
दुख के बाद का,
जब कि सुख
का स्वाद मिल
सकता था, जब
कि सुख के
स्वर्ग का
द्वार क्षण भर
को खुलता है, वह हम चूक ही
जाते हैं।
हमारी आंखें
पुराने दुख
में ही उलझी
रहती हैं।
हर
घटना के पीछे
उससे विपरीत
क्षण आता है।
हर घटना के
पीछे उससे
विपरीत मौजूद
रहता है।
क्योंकि इस
जगत में बिना
विपरीत के कुछ
भी नहीं है।
इसकी
प्रतीक्षा
करना। जब दुख
तुम्हें घेर
ले,
तो तुम दुख
से बहुत
उद्विग्न मत
हो जाना। दुखी
होना, लेकिन
उद्विग्न मत
होना।
उद्विग्नता
का अर्थ समझ
लेना।
दुख
काफी दुख है, हम
दुख से तो
दुखी होते ही
हैं, फिर
दुख के कारण
दुखी होते हैं।
ये दोनों
भिन्न बातें
हैं। दुख से
दुखी होना
शुद्ध है। फिर
हम इसलिए दुखी
होते हैं कि
हम क्यों दुखी
हुए! कि जगत
में दुख क्यों
है, हम
इससे दुखी
होते हैं! कि
दुख नहीं होना
चाहिए, इससे
दुखी होते
हैं! यह दूसरा
दुख दार्शनिक
है और खतरनाक
है। इस दूसरे
दुख से बचना, यह सत्य
नहीं है।
क्योंकि यह
दूसरा दुख
पहले वाले दुख
के पीछे जो सुख
की किरण आती
है, उसको
डुबा लेगा।
अब
यह बड़े मजे का
मामला है कि
आदमी कैसे
उलझता है! आप
परेशान हैं, कुछ
बुरा नहीं है।
लेकिन फिर परेशानी
से परेशान हैं,
वह बहुत
बुरा है। आप
अशांत हैं, कुछ बुरा
नहीं है, शिक्षण
का हिस्सा है।
फिर आप अशांति
से अशांत हैं,
तब आप खतरे
में पड़ गए, तब
आप एक ऐसे
चक्कर में पड़
रहे हैं, जिसका
कोई अंत नहीं
है। वह अंतहीन
है। इसलिए
कहता हूं कि
अंतहीन है, कि अब आप
कितने भी
अशांत हो सकते
हैं, और इस
अशांति से
शांति का कभी
भी कोई अनुभव
नहीं होगा।
समझिए
ऐसा,
कि मैं
अशांत हूं फिर
इसलिए अशांत
हूं कि क्यों
अशांत हूं।
मैं और भी
अशांत हो सकता
हूं कि अब मैं
क्यों अशांत
हूं। जैसा
मैंने आपसे
कहा कि अशांति
से अशांत मत होइए।
आप पुराना तो
जारी रख सकते
हैं, मेरी
शिक्षा और जोड़
ले सकते हैं।
तब आप अशांत
हो रहे हैं; फिर उससे
अशांत हो रहे
हैं अपनी आदत
की वजह से; फिर
मुझे सुन लिया,
अब आप तीसरी
अशांति पैदा
कर रहे हैं कि
अशांति से
अशांत नहीं
होना चाहिए।
अब यह तीसरी
अशांति है। यह
इनफिनिट है।
अब आप इसमें
जा सकते हैं
अंतहीन और कोई
सुख का, शांति
का क्षण इसमें
से न आएगा।
वास्तविक
अशांति के
पीछे शांति का
क्षण है।
काल्पनिक
अशांति के
पीछे कोई
शांति का क्षण
नहीं है।
क्योंकि
कल्पना तथ्य
नहीं है, उस पर
जगत के नियम
लागू नहीं
होते। वह आपके
मन का ही खेल
है। इसलिए
ध्यान रखना, वास्तविक
दुख बुरा नहीं
है, काल्पनिक
सुख भी बुरा
है, क्योंकि
आप सपने में
घूम रहे हैं।
वास्तविक दुख
की एक मौज है, क्योंकि
उसके पीछे
वास्तविक सुख
का क्षण आएगा
ही, अनिवार्य
है, इससे
अन्यथा नहीं
हो सकता।
मगर
आप अगर दूसरे—तीसरे
दुख में पड़ गए, झूठे
दुख में पड़ गए,
दुख के कारण
आपने और नए
मानसिक दुख
खड़े कर लिए, तो उनमें आप
इतने ज्यादा
डूब जाएंगे, इतने बादलों
से घिर जाएंगे,
कि वह जो
किरण सुख की
पैदा होती है,
जो होती ही
है, उससे
आप चूक जाएंगे।
अंधेरी रात के
बाद सुबह है।
लेकिन रात से
अगर आप इतने
भयभीत, और
अंधेरे से
इतने पीड़ित हो
गए हों, कि आंख
ही बंद करके
बैठे रहें, कि अंधेरा
इतना ज्यादा
है कि क्या
फायदा आंख
खोलने से, तो
आप सुबह को
चूक जाएंगे, जो कि रात के
बाद है।
निस्तब्धता
के अनुभव में
आधी की
पृष्ठभूमि है।
'भयंकर आधी
के पश्चात जो
निस्तब्धता
छा जाती है, उसी में फूल
के खिलने की
प्रतीक्षा
करो, उससे
पहले नहीं।’
हम
दो तरह की
शांति उपलब्ध
कर सकते हैं।
एक,
जो आधी के
बाद सहज फलित होती
है। दूसरी, जो चेष्टा
से आधी के
बिना आरोपित
होती है।
मुझसे
लोग निरंतर
पूछते हैं कि
आप जैसा ध्यान
हमने कभी नहीं
देखा! लोग
ध्यान करते
हैं,
तो आंखें
बंद करके, पद्यासन
में शांत हो
कर बैठते हैं।
यह कैसा ध्यान
है कि लोग
नाचते हैं, कूदते हैं, पागल हो
जाते हैं? मैं
उनको कहता हूं
कि यह
निस्तब्धता
आधी के बाद की
है। और वे जो
पालथी मार कर,
आंख बंद
करके बैठ गए
हैं, वे
आधी से बच रहे
हैं। और आधी
के बिना कोई
निस्तब्धता
का अनुभव नहीं
है। और वे जो
आधी से बच रहे
हैं, वे
अगर
निस्तब्धता
का अनुभव भी
कर लेंगे, तो
वह
निस्तब्धता
थोथी है, कोरी
है, निर्जीव
है, ऊपर—ऊपर
होगी। उनके
भीतर तो आधी
उबलती ही
रहेगी। आधी को
निकाल डालों,
आधी में कूद
पड़ो, आधी
बन जाओ; घबराहट
क्या है? आधी
को जी लो, आधी
चली जाएगी, उसके पीछे
एक क्षण होगा।
उस क्षण में
अगर हम जाग
जाएं, तो
वह द्वार खुल
जाएगा, जो
शाश्वत का है।
तो
शांति दो तरह
की हो सकती है।
कल्टीवेटेड़, आरोपित—
आप बैठ सकते
हैं पत्थर की
मूर्ति की तरह,
अभ्यास कर
सकते हैं।
ध्यान
रहे,
आप बुद्ध को
बैठे देखते
हैं बोधि
वृक्ष के नीचे।
लेकिन आपको
पता नहीं कि
इसके पहले छह
साल की भयंकर
आधी है। उसका
कोई चित्र
हमारे पास
नहीं है, क्योंकि
नासमझों ने मूर्तियां
बनाई हैं।
नहीं तो पहली
मूर्ति वह
होनी चाहिए, जो बुद्ध की
औंधी का क्षण
है। छह साल तक
भयंकर आधी में
बुद्ध जीए हैं।
वह हम बात ही
छोड़ दिए हैं!
बस हमने पकड़
ली है मूर्ति
आखिरी क्षण
में, जब
बुद्ध शांत हो
गए हैं।
हम
क्या करेंगे? हम
शुरू से ही
बुद्ध की तरह
एक वृक्ष के
नीचे बैठे
जाएंगे!
हमारा
बुद्धत्व
बिलकुल झूठा
और नकली है, सर्कस
वाला है। वह
असली नहीं हो
सकता।
क्योंकि उसका
असली क्षण, कीमती क्षण,
उसका
प्रारंभिक
हिस्सा मौजूद
ही नहीं है।
जिसके पीछे यह
बुद्ध का जन्म
हुआ है, इस
बोधि वृक्ष के
नीचे यह जो
शांत चेतना
जन्मी है, यह
जो निष्कंप
दीए की लौ है, यह जो मौन है,
महा—मौन है,
यह जो
प्रकाश का महा—अवतरण
है—इसके पहले
की आधी कहा है?
वह छह साल
जो विक्षिप्त
की तरह बुद्ध
का भटकना है, एक—एक द्वार—दरवाजे
को ठोंकना है,
एक—एक गुरु
के चरण में
सिर रखना है, अनेक—अनेक
मार्गों का
उपाय करना है,
सब तरह का
विषाद, सब
तरह का संताप
झेलना है—वह
कहां है? आप
बैठ गए सीधे
ही बोधि वृक्ष
के नीचे, कुछ
भी नहीं होगा।
आप थोथे बुद्ध
हैं। आप बैठ
भी सकते हैं।
अभ्यास से
क्या नहीं हो
सकता? आप
अभ्यास कर
सकते हैं बैठने
का और बिलकुल
शांत बैठ सकते
हैं, लेकिन
भीतर! भीतर
कोई शांति न
होगी।
यह
भी हो सकता है
कि भीतर भी आप
इतना अभ्यास
करें, तो एक
तरह की निद्रा
घटित हो जाएगी,
जो शांति
नहीं है। एक
तरह का आत्म—सम्मोहन
हो जाएगा, ऑटो—हिप्नोटाइब्द
हो जाएंगे; लेकिन नींद
में खो जाएंगे।
वह नींद सुखद
भी हो सकती है,
क्योंकि
विश्राम तो
मिलेगा ही, लेकिन वह
आध्यात्मिक
शांति नहीं है।
उस निद्रा में
कोई जीवन नहीं
है। वह केवल
विश्राम है, और वह भी
आरोपित है, अभ्यास—जन्य
है। वह स्फुरणा
नहीं है, भीतर
से आई हुई
शांति नहीं है,
बाहर से
थोपी हुई शांति
है। ऐसी झूठी
शांति हम पैदा
कर ले सकते
हैं।
लेकिन
तब हमारे जीवन
में कोई आनंद
न होगा, तब
हमारे जीवन
में कोई नृत्य
न होगा, कोई
सौंदर्य न
होगा। तब
हमारे जीवन
में वह ताजगी
न होगी, जो
सुबह की ओस
में होती है।
और हमारे जीवन
में वह मौन न
होगा, जो
रात के तारों
में होता है।
और हमारी आंखों
में वैसे फूल
न खिलेंगे, जैसे वृक्ष
में तत्पर खिल
जाते हैं। वह
नहीं होगा। हम
एक जड़वत हो
जाएंगे।
पत्थर की
मूर्ति जैसे
हो जाएंगे।
हिलेगे—डुलेंगे
नहीं, अशांत
भी नहीं होंगे,
लेकिन शांत
भी नहीं होंगे।
ध्यान
रहे,
जीवन की
अनिवार्य
प्रक्रिया
में से कुछ भी
छोड़ा नहीं जा
सकता। जीवन के
अनुभव में आप
कुछ भी छोड़ कर
नहीं निकल सकते।
और जो अनुभव
आप छोड़ देंगे,
वह अनुभव
आपको लौट कर
करना ही पड़ेगा।
यहां कोई
शॉर्टकट, कोई
छोटे रास्ते
नहीं हैं, जिनसे
आप कुछ चीजें
छोड़ कर और आगे
निकल जाएं।
आधी को
छोड़ेंगे, तो
वह जो
निस्तब्धता
आधी के बाद
आती है, वह
आपको कभी भी
उपलब्ध न होगी।
यह
सूत्र कहता है, 'उसी
में फूल के
खिलने की
प्रतीक्षा
करो, उससे
पहले नहीं।’
क्योंकि
उससे पहले अगर
कोई फूल तुमने
खिला भी लिया, तो
वह कागज का
होगा, वह
आत्मा का नहीं
होगा, यथार्थ
नहीं होगा। तुम
खिला भी सकते
हो कोई फूल, कागज का मिल
सकता है, बाजार
में उपलब्ध है।
अब तो
प्लास्टिक के
उपलब्ध हैं, वे तो और भी
ज्यादा
टिकेंगे। एक
दफा खरीद लिया
तो सदा के लिए
हो गया।
शास्त्रों से
जो फूल मिल
जाते हैं, वे
कागजी हैं।
उनको तुम
चिपका ले सकते
हो अपनी छाती
से और किसी
वृक्ष के नीचे
बुद्ध बन कर
बैठ भी सकते हो।
लेकिन
तुम्हारे
भीतर कोई फूल
नहीं खिला है।
वह फूल खिलता
ही नहीं आधी
के बिना। आधी
ही, अंधड़
ही उस फूल को
जन्माता है।
अंधड़ की शक्ति
में ही उस फूल
की ऊर्जा आती
है। और जब
अंधड़ चला जाता
है, आधी
चली जाती है, तो आधी से
पैदा हुई
ऊर्जा शेष रह
जाती है—वही
ऊर्जा असली
फूल बनती है।
तो
जल्दी मत करना।
और तूफान से
बचना मत, संसार
से भागना मत, तो ही मोक्ष
का वास्तविक फूल
खिल सकेगा। यह
उलटा मालूम
पड़ता है।
इसलिए मेरी
शिक्षा को गलत
ढंग से समझना
बहुत ही आसान
है। पर मैं
कहता हूं कि
यह उलटा नहीं
है। यही है
जीवन का सार—नियम।
संसार
से भागना मत।
अगर तुम्हें
वास्तविक
मोक्ष की तलाश
हो,
तो कारागृह
से भागना मत, कारागृह के
अनुभव से
गुजरना।
क्योंकि
कारागृह में
जो बंधन
तुम्हें पीड़ा
देंगे, जितनी
गहरी वह पीड़ा
होगी, उतना
ही उन बंधनों
के गिरने पर तुम्हें
आनंद का अनुभव
होगा।
कारागृह का
पूरा दुख भोग
लेना। वह दुख
निखारता है, वह दुख
मांजता है, वह दुख
स्नान करा
देगा। उस दुख
से गुजर कर
तुम कुंदन बन
जाओगे, कचरा
जल जाएगा और
खालिस सोना रह
जाएगा।
कारागृह के
बाहर जब तुम
आओगे तो
मुक्ति का तुम्हें
जो संस्पर्श होगा,
वह कारागृह
से भागे हुए
व्यक्ति को
नहीं हो सकता,
क्योंकि वह
कारागृह से बच
गया। बाहर आ
सकता है, निर्बंध
हो सकता है, लेकिन
मुक्ति का
अनुभव नहीं कर
सकता। उसे
कारागृह में
वापस जाना ही
पड़ेगा।
जो
लोग संसार से
भाग— भाग कर
मोक्ष पाने की
कोशिश करते
हैं,
उन्हें बार—बार
संसार में आना
पड़ता है।
तुम्हारे
संसार में बार—बार
आने के
बुनियादी
कारणों में
यही कारण है कि
तुम बार—बार
बचने की कोशिश
किए हो अनुभव
से। तुम उन
बच्चों की
भांति हो, जो
गणित की
प्रक्रिया से
बचने की कोशिश
करते हैं और
पुस्तक के
पीछे जो उत्तर
लिखा है, उसे
याद कर लेते
हैं। वह उत्तर
बिलकुल सही है,
लेकिन
तुम्हारे लिए
बिलकुल गलत है।
उत्तर में कोई
गलती नहीं है,
वह
जानकारों ने
ही लिखा है, गणित का
सवाल हल करके
ही लिखा है।
लेकिन जिस
गणित की
प्रक्रिया से
तुम नहीं गुजरे,
तुम्हारा
सच्चा उत्तर
भी झूठा ही है,
कागजी है।
प्रक्रिया से
गुजर कर ही जो
उत्तर आता है,
आधी से गुजर
कर जो शांति
आती है, संसार
से गुजर कर जो
मुक्ति आती है,
जो संन्यास
आता है, वही
वास्तविक है।
लेकिन चोर
बच्चों की तरह
हम भी यही कर
रहे हैं—शास्त्रों
से उत्तर चुरा
लेते हैं, सोच
लेते हैं
हमारे उत्तर
हैं! और यह सच
है कि वे
उत्तर सही हैं,
लेकिन फिर
भी तुम्हारे
लिए सही नहीं
हैं।
तुम्हारा
उत्तर तो
तुम्हारे ही
अनुभव से आएगा,
तभी सही
होगा।
यह
मैं नहीं कह
रहा हूं कि
शास्त्र गलत
हैं। वे जो
गणित की किताब
के पीछे उत्तर
लिखे हैं, वे
बिलकुल सही
हैं। बस, शास्त्र
भी उतने ही
सही हैं।
लेकिन वे सही
उसके लिए हैं,
जो उत्तर से
सीधा संबंध
नहीं जोड़ता; सीधा संबंध
प्रक्रिया से
जोड़ता है, विधि
से जोड़ता है, गणित की
प्रक्रिया से
गुजरता है और
फिर उत्तर को
लाता है। जिस
दिन तुम्हें
अपना उत्तर
मिल जाता है, उस दिन
किताब उलट कर
देखना बड़ा
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
किताब उलट कर
देखने में
तुम्हें आश्वासन
मिलता है कि
तुमने जो खोजा
है, वही
सत्य है—
शास्त्र
साक्षी है। जब
तुम अपना
अनुभव कर लोगे,
तब शास्त्र
को पढ़ोगे, तो
तुम्हें
लगेगा कि ठीक
है। जहां मैं
चल रहा हूं
ठीक है। औरों
ने भी ऐसा ही
पाया है, शास्त्र
गवाही हैं।
लेकिन तुम
चोरी मत करना
शास्त्रों की,
उनको
कंठस्थ मत
करना, अन्यथा
सारी बात ही
व्यर्थ हो
जाती है।
विपरीत
से मत बचना।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
तुम विपरीत
में सदा ही
पड़े रहना। यह
कहा ही इसलिए
जा रहा है, ताकि
तुम विपरीत के
पार जा सको।
'भयंकर आधी के
पश्चात जो
निस्तब्धता
छा जाती है, उसी में फूल
के खिलने की
प्रतीक्षा
करो।’
प्रतीक्षा!
तुम्हें कुछ
करना नहीं है, तुम्हें
आधी से गुजरना
है ठीक से और
फिर जब आधी जा
चुकी हो, तब
आधी की चिंता
छोड़ देनी है।
वह जो अतीत हो
गया, जा
चुका; और
फिर तुम्हें
कुछ करना नहीं
है। औंधी के
बाद जो
सन्नाटा छा
जाता है, उस
सन्नाटे में
सिर्फ
प्रतीक्षा
काफी है, और
फूल खिल जाएगा।
इसलिए
यहां मैं जो
ध्यान की
प्रक्रिया दे
रहा हूं वह इस
सूत्र में है।
तीस मिनिट
भयंकर आधी से
गुजरना है।
जितना भी तुम
पागल हो सको, हो
जाना है। और
तीस मिनिट के बाद
तुम्हें कुछ
भी नहीं करना
है, तुम्हें
बिलकुल मौन
प्रतीक्षा
करनी है। अगर
तीस मिनिट
तुमने सच में
ही तूफान पैदा
कर लिया, तो
तीस मिनिट के
बाद जो शांति
आएगी, वह
अपूर्व होगी।
अगर तुम्हारा
तूफान ही
नपुंसक और
कमजोर रहा, तो जो शांति
आएगी, वह
भी उसी कोटि
की होगी। अगर
तुम्हारा
तूफान झूठा
रहा, बे—मन
से रहा, तो
जो शांति आएगी,
वह भी झूठी
और बे—मन से
आएगी।
तुम्हारे तीस
मिनिट के
तूफान पर ही
निर्भर करेगा
कि तीस मिनिट
के बाद जो
निस्तब्धता
आती है, वह
कैसी है!
एक
मित्र ने मुझे
खबर दी है
किसी के संबंध
में। कि कोई
दर्शक की तरह
आया होगा, तो
उसने बाकी तीस
मिनिट का
हिस्सा तो छोड़
दिया, चुपचाप
खड़ा रहा, देखता
रहा— लोग
तूफान में थे।
फिर जब सबने आंखें
बंद की, तो
उसने भी आंखें
बंद कर लीं।
फिर खबर भेजी
मुझे कि दस
मिनिट आंखें
बंद किए रहा, लेकिन कुछ
हुआ नहीं। यह
कहा किसने है
कि दस मिनिट आंख
बंद करने से
कुछ होगा? वह
जो तूफान था, वह छोड़ दिया,
दस मिनिट आंख
बंद कर ली।
सोचा कि सबको
ऐसा कुछ हो
रहा है, अपने
को भी हो
जाएगा!
आंख
बंद करने से
कुछ नहीं होता।
जो हो रहा है, वह
उस तीस मिनिट
के तूफान में
है। कितनी
आथेंटिक, कितनी
प्रामाणिक
आधी है भीतर, उतनी ही गहन
शांति हो
जाएगी। कितने
शिखर पर उठते
हैं आप तूफान
के, उतनी
ही गहन
निस्तब्धता
की खाई में
प्रवेश कर जाएंगे।
वह अनुपात सदा
बराबर रहेगा।
इसलिए
आप पर निर्भर
है। वह तीस
मिनिट में जरा
सी भी कंजूसी
सब खराब कर देगी।
इसलिए मैं
देखता हूं कि
आप हिल—डुल भी
रहे हैं तो
ऐसा जैसे कि
अगर न हिले—डुले
होते तो अच्छा
था। अगर मैं
आज्ञा दे देता
कि बिलकुल
हिलो—डुलो मत, तो
अच्छा। लेकिन
वह भी नहीं
मान सकते हैं
आप। जब मैं
कहता हूं कि
बिलकुल हिले—डुले
मत, तब
कहीं खांसने
का मन, कहीं
हिलने का मन, कहीं कुछ
करने का मन
होता है। वह
भी इसलिए होता
है कि तीस
मिनिट में आधी
नहीं निकल पाई
पूरी, अभी
बाकी है। उसको
जब निकालने का
वक्त है, तब
रोकते हैं। जब
नहीं निकालना
है, तब फिर
वह निकलना
शुरू हो जाती
है।
कैसी
दुविधा आप
अपने लिए खुद
ही पैदा करते
हैं! जब मैं कह
रहा हूं कि
तीस मिनिट कूद
लें,
उछल लें, जो भी करना
है, कर लें—
तो कर ही
डालें, फिर
रोकें मत। एक—एक
रोआं नाच ले
आपके शरीर का,
और एक—एक कण
विक्षिप्त हो
जाने दें।
इसके बाद जो
निस्तब्धता
आएगी, वह
आपको लानी
नहीं है; वह
तो तूफान का
अनिवार्य
परिणाम है, वह उसकी
छाया है। और
उस
निस्तब्धता
में सिर्फ
प्रतीक्षा
करनी है, जस्ट
अवेटिंग। उस
प्रतीक्षा
में वह फूल
खिलता है, उससे
पहले नहीं।
'जब तक आधी
चलती रहेगी, जब तक युद्ध
जारी रहेगा, तब तक वह
उगेगा, बढ़ेगा,
उसमें
शाखाएं और
कलियां
फूटेंगी।’
जब
आप आधी में से
गुजर रहे हैं, तब
आप ऐसा मत
समझना कि यह
आधी दुश्मन हे
उस फूल की।
'जब तक आधी
चलती रहेगी, जब तक युद्ध
जारी रहेगा, तब तक वह
उगेगा।’
तब
बीज अंकुरित
हो रहा है
शांति का।
क्योंकि वह भी
कोई आकस्मिक
थोड़े ही हो
जाएगी। इस
तूफान के क्षण
में भी वह बीज
बढ़ रहा है।
'तब तक वह
उगेगा, बढ़ेगा,
उसमें
शाखाएं और
कलियां
फूटेंगी।
परंतु जब तक
मनुष्य का
संपूर्ण
देहभाव विघटित
हो कर घुल न
जाएगा, जब
तक समस्त आंतरिक
प्रकृति अपने
उच्चात्मा से
पूर्ण हार मान
कर उसके
अधिकार में न
आ जाएगी, तब
तक वह फूल
नहीं खिल सकता।’
आधी
में भी उसका
बीज सरक रहा
है। अंधेरे
में दबा है, जमीन
के गर्भ में
है, फूट
रहा है, अंकुरित
हो रहा है, आकाश
की तरफ उठ रहा
है, पत्ते
निकल रहे हैं,
शाखाएं बढ़
रही हैं।
लेकिन फूल तो
तभी खिलेगा, जब आधी ने
संपूर्ण रूप
से आपको मथ
डाला है। आधी
ने आपको
संपूर्ण रूप
से हिला डाला
है। आधी ने—आपके
भीतर जो भी
रोग था, जो
भी विषाद था, जो भी क्रोध
था, हिंसा
थी, सब आधी
ले गई अपने
साथ— आपकी
सारी धूल को
झाडू—पोंछ
डाला। आपके
भीतर जो भी
रुग्ण था, वह
आधी में गल
गया और नष्ट
हो गया। तब
अंतिम क्षण
में वह फूल
खिलेगा। इस
आधी में आप
नष्ट नहीं
होते, सिर्फ
आपका जो निम्न
अस्तित्व है,
वही झड़ जाता
है और नष्ट हो जाता
है। इस आधी
में आपकी
आत्मा नहीं
नष्ट होती, आपका अहंकार
नष्ट हो जाता
है। और अहंकार
ही बाधा डालता
है आधी में।
खयाल
करें, जब आप
सोचते हैं कि
मैं
विश्वविद्यालय
का अध्यापक, या मैं किसी
राज्य का
मंत्री, या
मैं एक बडा
डाक्टर, या
मैं एक बड़ा
उद्योगपति, कैसे नाच
सकता हूं? मेरी
प्रतिष्ठा है,
मैं कैसे
चीख—पुकार मचा
कर रो सकता
हूं? यह
बच्चों जैसा
काम, मेरा
जैसा
बुद्धिमान
आदमी कैसे कर
सकता है? यह
पागलों जैसी
हरकत, मेरे
जैसा
सम्मानित
व्यक्ति नहीं
कर सकता है।
कौन बाधा डाल
रहा है इस सब
में?
अहंकार
बाधा डालता है
आधी के आने
में। क्यों? क्योंकि
अहंकार भयभीत
है, आधी
उसे ही जला
जाएगी। आप तो
नहीं मिटेंगे,
अहंकार मिट
जाएगा।
प्रतिष्ठा, सम्मान, पद;
आपके पद्मभूषण,
आपकी
उपाधियां, वह
सब आधी में झड़
जाएंगी।
वह
भयभीत है। वह
जो आपका निम्न
अस्तित्व है, वह
ड़रा हुआ है
औंधी से। वह
निम्न अस्तित्व
कहता है, ऐसे
ही बैठ जाओ
शांत और फूल
को खिला लो।
वह निम्न
अस्तित्व
जानता है कि
फूल ऐसे कभी खिलता
नहीं, कितने
ही बैठे रहो।
कितने ही बैठे
रहो, ऐसे
वह फूल कभी
खिलता नहीं।
उस फूल के लिए
निम्न
अस्तित्व को
दांव पर लगाना
जरूरी है, क्योंकि
वही बाधा है।
आधी, आपमें
जो—जो गलत है, उसे अपने
साथ ले जाएगी।
और आधी के बाद
आपमें जो—जो
श्रेष्ठ है, जो—जो
शाश्वत है, वही बच
रहेगा। उसका
बचना ही फूल
का खिलना है।
'तब एक ऐसी
शांति का उदय
होगा, जैसी
गर्म प्रदेश
में भारी
वर्षा के
पश्चात छा
जाती है। और
उस गहन और
नीरव शांति
में वह
रहस्यपूर्ण
घटना घटित
होगी, जो
सिद्ध कर देगी
कि मार्ग की
प्राप्ति हो
गई है।’
जैसी
गर्म प्रदेश
में भारी
वर्षा के
पश्चात छा
जाती है, ऐसी
शांति का तब
उदय होगा। और
उस गहन और
नीरव शांति
में वह
रहस्यपूर्ण घटना
घटित होगी, जो सिद्ध कर
देगी कि मार्ग
की प्राप्ति
हो गई है। उस
घटना को सिद्ध
करने का कोई उपाय
नहीं है, जब
तक वह घट न जाए।
मुझसे
लोग आ कर
पूछते हैं कि
हमें यदि
अनुभव हो
जाएगा, तो
कैसे पता
चलेगा कि
अनुभव हो गया
है? अगर
सिद्धि हो
जाएगी, साधना
फलित हो जाएगी,
पूर्ण हो
जाएगी, आत्म—शान
भी हो जाएगा, हमें कैसे
पता चलेगा कि
हो गया है?
तो
मैं उनसे कहता
हूं कि जब
आपके पैर में
कांटा गड़ता है, तो
आपको कैसे पता
चलता है कि
कांटा गड़ गया?
वे कहते हैं,
पीड़ा होती
है। फिर आप
किसी से पूछने
जाते हैं कि
मेरे पैर में
कांटा गड़ा या
नहीं? आपकी
पीड़ा ही गवाही
होती है।
जैसे
पैर में कांटा
गड़ने से पीड़ा
होती है और
पैर में से
कांटा खींच
लेने से पीड़ा
से मुक्ति
होती है।
लेकिन दोनों
अनुभव आपके
निजी हैं, आपको
होते हैं। ठीक
ऐसे ही जब
भीतर वह घटना
घटती है, तो
जीवन की सारी
पीड़ा तिरोहित
हो जाती है, सारा बोझ
विनष्ट हो
जाता है; पंख
लग जाते हैं, निर्भार हो
जाते हैं; न
कोई अतीत रह
जाता है, न
कोई भविष्य, न कोई चिंता,
न कोई पीड़ा—शुद्ध
अस्तित्व।
उसकी प्रतीति
आपको किसी से
पूछने न जाना
पड़ेगी कि मुझे
हुई या नहीं।
वह जब होगी, तब आपको
फौरन प्रतीति
हो जाएगी कि
हो गई। फिर
सारी दुनिया
भी आपसे कहे
कि नहीं हुई, तो भी आप
सारी दुनिया पर
हंस सकते हैं।
रामकृष्ण
के पास
केशवचंद्र
मिलने आए थे।
तो केशवचंद्र
ईश्वर के
खिलाफ बहुत से
तर्क देने लगे।
बुद्धिमान थे, तर्कनिष्ठ
थे। रामकृष्ण
हंसते रहे। और
रामकृष्ण ने
कहा कि तुम जो
कहते हो, ठीक
तर्कपूर्ण है,
लेकिन मैं
क्या करूं? मुझे उसका
अनुभव हो गया
है। तुम जो
कहते हो, अगर
मुझे अनुभव न
हुआ होता, तो
मैं भी कहता
कि ठीक है। और
अब भी कहता
हूं कि जहां
तक तर्क है, वहां तक
बिलकुल ठीक है।
लेकिन मेरी
बड़ी मुसीबत है,
कि मुझे
उसका अनुभव हो
गया है। और
मैं गैर पढ़ा—लिखा
आदमी, मैं
तुम्हारे
तर्क का खंड़न
भी नहीं कर
सकता। तुम
जहां खड़े हो, वहां एक दिन
मैं भी खड़ा था।
एक दिन मुझे
भी शक था कि वह
है या नहीं।
और उस दिन
तुम्हारे सभी
तर्क मुझे ठीक
मालूम पड़े
होते। लेकिन
मेरी बड़ी
मुसीबत है
केशवचंद्र, रामकृष्ण ने
कहा था, मेरी
बड़ी मुसीबत है,
क्योंकि
मुझे उसका
अनुभव हो गया
है, अब मैं क्या
करूं? अब
तुम कितना ही
कहो, सारी
दुनिया कहे, तो भी मैं
अपने अनुभव को
नहीं झुठला
सकता, वह
मुझे हो गया
है—वह है। अब
तो एक ही उपाय
है कि तुम भी
उसके अनुभव
में लगो। तो
चलते वक्त जब
केशव विदा
होने लगे, तो
रामकृष्ण ने
कहा था, एक
बात पक्की है
कि आज नहीं कल,
तुम उसके
अनुभव में
जरूर लगोगे।
क्योंकि तुम
जैसा
बुद्धिमान
आदमी कब तक
शब्दों और
तर्कों में
उलझा रहेगा?
केशवचंद्र
ने लिखा है
अपने
संस्मरणों
में,
कि फिर इस
शब्द को मैं
कभी भूल न
पाया—
रामकृष्ण का
यह कहना कि
तुम जैसा
बुद्धिमान आदमी
कब तक तर्कों
में उलझा
रहेगा! तुम
जरूर उसका
अनुभव करोगे।
उनका यह कहना,
केशव ने
लिखा है कि
मेरे सब
तर्कों को
खराब कर गया।
उन्होंने न
मेरा खंड़न
किया, न
मुझे इंकार
किया; मुझे
पूरे हृदय से
स्वीकार किया।
और साथ में यह
भी कहा कि तुम
जैसा
बुद्धिमान आदमी...।
और यह भी कहा
कि तुम्हें
देख कर मुझे
ईश्वर पर और
भरोसा आ गया, क्योंकि
उसके बिना ऐसी
बुद्धि कैसे
पैदा हो सकती
है— यह जो आदमी
ईश्वर के
खिलाफ बोल रहा
है—तुम्हें
देख कर मुझे
उस पर और
भरोसा आ गया, क्योंकि
उसके बिना ऐसी
बुद्धि का फूल
कैसे खिल सकता
है?
जिसको
अनुभव है, उसे
पूछने नहीं
जाना पड़ता है।
अनुभव स्वयं—सिद्ध
है, वह
स्वत: ही
प्रकट कर जाता
है। जिस दिन
इस तरह की
नीरव शांति की
घटना घटती है,
उसी दिन वह
परम रहस्य का
द्वार खुल
जाता है। और
सिद्ध हो जाता
है कि मार्ग
की प्राप्ति
हो गई।
'फूल खिलने
का क्षण बड़े
महत्व का है।
यह वह क्षण है,
जब ग्रहण—शक्ति
जाग्रत होती
है। इस जागृति
के साथ—साथ
विश्वास, बोध
और निश्चय भी
प्राप्त होते
हैं।’
फूल
खिलने का अर्थ
है,
एक ट्रस्ट।
फूल को देखें।
सुबह सूरज
निकला और फूल
खिला। किसलिए
खिलता है फूल
सुबह? ताकि
सूरज को पी
सके पूरा—कली
बंद है, न
पी सकेगी—
ताकि सूरज को
आत्मसात कर
सके पूरा, ताकि
अपने हृदय का
द्वार सूरज के
लिए खुला कर सके।
फूल खिलता है
सूरज को अपने
भीतर लेने के
लिए।
कली
तो है बंद, फूल
है खुला। वह
जो कली के
भीतर हृदय है,
मर्मस्थल
है, उसे वह
उघाड़ देता है
सूरज के लिए।
उसका खुलना एक
गहरी आस्था है,
एक भरोसा, एक विश्वास,
कि तुम जीवन
हो, कि तुम
मेरे भीतर आए
तो परम—जीवन
आया, कि
तुम्हारे
बिना मेरा
हृदय अंधेरा
है, कि
तुम्हारे
बिना मैं बंद
हूं मृत हूं
तुम्हीं
बनोगे नृत्य,
तुम्हीं
बनोगे मेरी
सुगंध, तुम्हीं
मुझे मुझसे
दूर और पार ले
जाओगे।
तुम्हीं में
मैं लीन हो
जाऊंगा। मेरी
जो पार्थिव
देह है, वह
खो जाएगी, लेकिन
अपार्थिव
सुगंध जो है, वह हवाओं
में
विस्तीर्ण हो
जाएगी, वह
अनंत को छू
लेगी।
ठीक
भीतर भी—इसीलिए
फूल की उपमा
को चुना है
बार—बार हमने—
भीतर भी जब
शांति की
अपूर्व घटना
घटती है, तूफान
के बाद आने
वाली शांति
प्रकट होती है,
तो हृदय का
फूल खिलता है।
उस परमात्मा
के प्रति, उस
महासूर्य के
प्रति एक
भरोसे के साथ
कि अब तुम
मेरे भीतर आ
जाओ। एक भरोसे
के साथ कि अब
मुझे बंद होने
की कोई जरूरत
नहीं। अब मैं
तुम्हें
ग्रहण करूंगा,
अब मैं
तुम्हारे लिए
गर्भ बन
जाऊंगा। अब
तुम मुझमें आ
जाओ। अब मैं
हृदय के किसी
भी कोने को
तुमसे खाली न
रखूंगा।
बहुत
रह लिया
अंधेरे में, बहुत
रह लिया बंद।
और बंद इसी डर
से था कि कहीं
कोई दुर्घटना
न हो जाए।
भीतर का वह
मर्मस्थल
खुला छोड़ दिया
जाए, तो
कोई नुकसान न
पहुंचा दे, कोई नष्ट न
कर दे, कुछ
गलत भीतर
प्रवेश न कर
जाए। तो सब
तरफ से द्वार—दरवाजे
बंद रखे थे, दीवालें खड़ी
की थीं और
अपने को भीतर
रख छोड़ा था।
लेकिन
अब वह क्षण आ
गया है, जब
मैं अपने को
पूरा खोल सकता
हूं। ग्रहण, ग्राहकता, रिसेप्टिविटी—
अर्थ है उस
खुलने का। कि
अब मैं अपने
को जरा भी
बचाऊंगा नहीं,
अब मैं पूरा
तुम्हारे सामने
नग्न हूं।
मेरे हृदय की
इस नग्नता में
तुम प्रवेश कर
जाओ। अब मेरे
अंतर्गृह में
आ जाओ, अब
मैं तुम्हारे
लिए मंदिर
बनने को
उत्सुक हूं।
'जब शिष्य
सीखने के
योग्य हो जाता
है, तो वह
स्वीकृत हो
जाता है, शिष्य
मान लिया जाता
है और गुरुदेव
उसे ग्रहण कर
लेते हैं। ऐसा
होना
अवश्यंभावी
है, क्योंकि
उसने अपना दीप
जला लिया है
और दीपक की यह
ज्योति छिपी
नहीं रह सकती।’
'जब शिष्य
सीखने के
योग्य हो जाता
है......।’
और
यही है सीखने
की क्षमता
आत्यंतिक
अर्थों में।
खुलना ही
सीखने की
क्षमता है।
संपूर्ण रूप
से ग्रहणशील
हो जाना ही
सीखने की
क्षमता है।
संपूर्ण रूप
से अपने हृदय
के सब द्वार—दरवाजे
तोड़ कर खुलापन
स्वीकार कर
लेने का यह
राजी भाव शिष्यत्व
है। और जिस
दिन ऐसा होता
है,
जिस दिन आप
एक फूल की तरह
खिलते हैं, उस दिन वह
परम—गुरु आपको
स्वीकार कर
लेता है।
परमात्मा ही
परम—गुरु है।
इसलिए
जिन्होंने
गुरु में
परमात्मा को
देखा है, उनके
देखने में
सार्थकता है।
गुरु में
परमात्मा को
देखने की
सार्थकता है,
क्योंकि
अंततः
परमात्मा ही
गुरु है।
शुरुआत तो
करनी पड़ती है
गुरु में
परमात्मा देखने
से, और एक
दिन अंत होता
है परमात्मा
में गुरु को खोज
लेने से। उसी
क्षण वह परम—गुरु
स्वीकार कर
लेता है।
'ऐसा होना
अवश्यंभावी
है.......।’
इससे
अन्यथा नहीं
होता।
क्योंकि जिस
दिन आप खुले
हैं और राजी
हैं,
उस दिन
परमात्मा
देने को तैयार
है। जब तक आप
बंद हैं, तभी
तक उसके हाथ
भी देने में
असमर्थ हैं।
उसके हाथ सदा
देना चाहते हैं,
लेकिन आपके
बंद होने के
कारण देने का
कोई उपाय नहीं
है। जिस दिन
आप खुले हैं, उसी दिन
उसका दान शुरू
हो जाता है।
गुरु
स्वीकार कर
लेता है, क्योंकि
शिष्य ने अपना
दीप जला लिया,
और दीपक की
यह ज्योति
छिपी नहीं रह
सकती।
आप
चकित होंगे
जानकर, अध्यात्म
के गुह्य शास्त्र
में, एसोटेरिक
विद्या में, इसके बहुत
अर्थ हैं। अगर
सच में ही आप
गुरु के प्रति
समर्पित हैं,
ग्रहणशील
हैं, तो
आपका पूरा
आभामंड़ल बदल
जाता है। उसी
क्षण बदल जाता
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
दीक्षा दे
दें, संन्यास
में प्रवेश
करा दें। पर
उन लोगों में
बहुत थोड़े से
ही लोग होते
हैं, जो सच
में ग्रहणशील
होते हैं। तब
उनके चेहरे के
आसपास की आभा
अलग होती है।
तब उनकी आंखों
की ज्योति अलग
होती है, जैसे
भीतर कोई दीया
जल रहा है।
कुछ
लोग हैं, जो आ
जाते हैं
किन्हीं और
कारणों से
दीक्षा लेने।
उनके भीतर कोई
रोशनी नहीं
होती, कोई
उजाला नहीं
होता। उनके
आसपास कोई
आभामंड़ल
नहीं होता। तब
उन्हें
दीक्षा भी दे
दी जाए, तो
व्यर्थ है।
क्योंकि उनके
हाथ खुले ही
नहीं होते
लेने को।
उन्हें भी मैं
दीक्षा दे
देता हूं कि
चलो कोई हर्ज
नहीं। दीक्षा
लेने का मन
उठा है, कारण
अभी गलत है, पर निराश
करना उचित
नहीं। शायद
समझ आ जाए कल, गलत कारण
छूट जाए और
दीक्षा
वास्तविक हो
जाए। और हर्ज
तो वैसे भी
कुछ नहीं है।
क्योंकि अगर
आदमी गलत है, तो दीक्षा
के बाद भी गलत
ही रहेगा।
ज्यादा गलत
नहीं हो जाएगा,
जितना गलत
था, उतना
ही गलत रहेगा।
हर्ज कुछ भी
नहीं है। लेकिन
संभावना
खुलती है कि
शायद ठीक हो
जाए, शायद
रूपांतरित हो
जाए।
पर
जो व्यक्ति सच
में ही ग्रहण
करने के भाव
से भरा हुआ
आता है—वह
दीक्षित हो ही
चुका। उसे
दीक्षा देना
अब सिर्फ एक
औपचारिक बात
है,
सिर्फ एक
स्वीकृति है,
जो उसे
आह्लादित
करेगी; एक
स्वीकृति है,
जो उसे दृढ़
करेगी; एक
स्वीकृति है,
जो उसकी
आस्था को
प्रगाढ़ करेगी,
उसका
आत्मविश्वास
बढ़ाएगी।
लेकिन
दीक्षित वह हो
ही चुका।
ग्रहणशीलता
ही दीक्षा है।
और
जैसे ही कोई
ग्रहणशील
होता है, वैसे
ही उसके आसपास
प्रकाश
फैलाना शुरू
हो जाता है।
वह प्रकाश
वस्तुत: देखा
जा सकता है।
अगर आप भी
ग्रहणशील
व्यक्ति के
पास शांत हो कर
बैठें, तो
आपको उसके
प्रकाश की
प्रतीति हो
सकती है। गुरु
को तो सहज ही
हो जाती है।
वह दिखाई ही
पड़ जाता है।
आता हुआ आदमी
ही अपने साथ
अपनी ज्योति
या अपना
अंधेरा ले कर
आता है।
बंद
आदमी है, जिसकी
कली बिलकुल
बंद है, झुकने
को जो बिलकुल
राजी नहीं—उसके
आसपास अंधेरे
का एक वर्तुल
चलता है। खुला
आदमी है, जिसकी
ज्योति प्रकट
हुई है—उसके
आसपास एक
प्रकाश का, आह्लाद का
वातावरण चलता
है। और जब
आपके आसपास
अंधेरा होता
है, तो
आपके सिर पर
बोझ होगा। जब
आपके आसपास
प्रकाश होता
है, तो आपका
सिर निर्भार
होता है।
'ऊपर लिखे गए
नियम उन
नियमों में से
आरंभ के हैं, जो नियम परम—प्रज्ञा
के मंदिर की
दीवारों पर
लिखे हैं। जो
मांगेंगे, उन्हें
मिलेगा। जो
पढ़ना चाहेंगे,
वे पढ़ेंगे।
जो सीखना
चाहेंगे, वे
सीखेंगे।
तुम्हें
शांति
प्राप्त हो।’
जो
मांगेंगे, उन्हें
मिलेगा—इस
सूत्र को हृदय
में गहरे से
खोद लेना।
'जो मांगेंगे,
उन्हें
मिलेगा। जो
पढ़ना चाहेंगे,
वे पढ़ेंगे।
जो सीखना
चाहेंगे, वे
सीखेंगे।’
जीसस
ने कहा है, नीक,
एंड़ दि
डोर्स शैल बि
श्रोन ओपन
अनटु यू।
खटखटाओ, और
द्वार
तुम्हारे लिए
खोल दिए
जाएंगे। आस्क
एंड़ इट शैल
बि गिवेन टु
यू। मांगो और
मिलेगा।
पर
हम इतने दीन
हैं कि द्वार
भी नहीं
खटखटाते! हम
इतने दीन हैं
कि हम मांगते
भी हैं, तो
क्षुद्र ही
मांगते हैं, विराट का
संस्पर्श
नहीं! हम
परमात्मा के
द्वार पर भी
जाते हैं, तो
न मालूम क्या
क्षुद्र
मांगें ले कर
जाते हैं! कुछ
ऐसा मांगने
जाते हैं, जो
संसार में ही
मिल सकता था, उसके लिए
परमात्मा के
द्वार तक जाने
की कोई जरूरत
न थी। और जो
संसार की ही
चीजें मांगता
हुआ परमात्मा
के द्वार पर
जाता है, वह
परमात्मा के
द्वार पर
पहुंचता ही
नहीं। उसके
लिए मंदिर भी
बाजार है, मंदिर
भी दुकान है, मंदिर भी
संसार है।
नाममात्र को
ही वह मंदिर
में जाता है, वह रहता
अपने संसार
में ही है।
लेकिन
अगर कोई
परमात्मा को
ही मांगे, तो
तत्क्षण मिल
जाता है। पर
मांगने के लिए
तैयारी चाहिए।
और मांगने के
लिए हृदय में
स्थान चाहिए
कि हम जिसे
मांग रहे हैं,
वह अगर आ ही
जाए, तो
जगह है भीतर? ग्रहणशीलता
चाहिए।
इसलिए
इन सूत्रों के
बाद ही यह
सूत्र है, कि
जो फूल की तरह
खिल रहा है उस
निस्तब्धता
में, जो
आधी के बाद
आती है, वह
मांग सकता है।
वह जो भी
मांगेगा, वह
मिल जाएगा। और
जो का मतलब एक
ही है अब उसके
लिए मांग, वह
मांगेगा परम—प्रज्ञा,
वह मांगेगा
परम—मुक्ति, वह मांगेगा
परम—प्रभु को।
वह जो जीवन का
आत्यंतिक है,
अंतिम है, आखिरी है, जिसके पार
कुछ मांगने को
नहीं बचता, वही मांग
लेगा।
उस
मांग को शब्द
में बनाने की
जरूरत भी नहीं
है। उसका हृदय
ही खुलते क्षण
में वह मांग
होगा। उसका
फूल खिलते हुए
ही वही मांग
रहा है, कि आ
जाओ तुम मेरे
भीतर। इसके
लिए शब्द देने
की कोई जरूरत
नहीं है। शब्द
तो गिर गए आधी
के साथ, यह
तो मौन प्यास
होगी। यह तो
पूरे प्राणों
की अभीप्सा
होगी। वह तो
पढ़ना चाहेगा
जो जीवन के
परम मंदिर पर,
वह जो जीवन
का आत्यंतिक
शिखर है जहां
जीवन के सारे
रहस्य—सूत्र
लिखे हैं। यह
तो सिर्फ एक
उपमा है। अगर
वह पढ़ना
चाहेगा तो पढ़
लेगा। अगर वह
सीखना चाहेगा
जीवन के अंतिम
रहस्यों को, तो सीख लेगा।
इस
क्षण, फूल के
खिलते हुए
क्षण में जो
भी हृदय की
प्यास होगी, वह पूरी हो
जाएगी। इस फूल
के खिलने के
क्षण में आप
कल्पवृक्ष के
नीचे हैं, और
जो भी भाव
होगा, वह तत्क्षण
यथार्थ हो
जाएगा, साकार
हो जाएगा।
मगर
तूफान निकल
जाने के बाद।
अगर तूफान का
थोड़ा सा भी
हिस्सा भीतर
रह गया, तो
आपकी मांगें
क्षुद्र की
होंगी, वे
पूरी हो
जाएंगी। आपकी
मांगें
व्यर्थ की
होंगी, वे
पूरी हो
जाएंगी।
टालस्टाय
ने एक छोटी सी
कहानी लिखी है।
टालस्टाय ने
लिखा है कि एक
आदमी ने एक
प्रेत को
प्रसन्न कर
लिया। तो बड़े
सालों तो लगे
प्रसन्न करने
में,
जब वह
प्रसन्न हो
गया प्रेत, तो उसने कहा,
तू तीन
वरदान मांग ले।
तो उस आदमी ने
कहा कि अभी
एकदम तो मेरी
समझ में नहीं
आता, लेकिन
आप तीन वरदान
मेरे पूरे
करेंगे, तो
मैं पीछे जैसा
समय जरूरी
होगा, उस
वक्त मांग
लूंगा। तो
प्रेत ने कहा
कि ठीक, लेकिन
ध्यान रखना, चौथा नहीं, बस तीन! पर उस
आदमी ने सोचा
कि तीन भी
पर्याप्त हैं।
तीन में तो
सारा संसार
पाया जा सकता
है, तीनों
लोक पाए जा
सकते हैं।
वह
घर आया सोचता
हुआ कि क्या
मांग लूं तीन
में कि कुछ
चूक न जाए! घर
आते से ही
पत्नी से झगड़ा
हुआ तो उसने
पहला वरदान
मांग लिया कि
खतम करो इसको।
वह पत्नी खतम
हो गई। खतम
होते से ही वह
घबड़ाया कि
बच्चों का
क्या होगा? पास—पड़ोस
में खबर लग
जाएगी। और यह
पत्नी मर गई।
फिर उसे याद
आया कि वह
प्रेम भी करती
थी, झगड़ती
तो थी ही। फिर
उसे याद आया
कि अब दूसरी
शादी करनी इस
उम्र में, झंझट—बखेड़ा
होगा। उम्र भी
ज्यादा हो गई,
साठ के पार
हो गई, अब
कोई लड़की भी
कहां मिलेगी?
तो उसने
सोचा कि यह
गलती हो गई।
उसने कहा कि
हे प्रेत!
मेरी पत्नी को
जिंदा कर दे।
तो वह पत्नी
जिंदा हो गई।
दो वरदान खतम
हो गए। अब
उसकी बड़ी
मुश्किल हो गई,
एक ही बचा।
तो वह इतना
चिंतातुर हो
गया कि क्या
मांगू कि रात
नींद न आए, उसका
दिमाग पागल
होने लगा—यह
मांग कि यह
मांग! और एक ही
बचा है। और अब
यह डर भी पैदा
हो गया कि
किसी उपद्रव
के क्षण में
कहीं ऐसा फिर
कुछ न कर बैठूं
कि पत्नी मर
जाए, या यह
हो जाए, तो
अब दुबारा
जिंदा करने का
भी उपाय नहीं
है। तीन दिन
के भीतर वह
इतना व्यथित
हो गया, इतना
मुश्किल में
पड़ गया, कि
उसने प्रेत से
कहा कि हे
प्रेत! वह
तीसरा वरदान
वापस ले ले; कि वह मैं न
मांगू ऐसा कर
दे। क्योंकि
मैं मर जाऊंगा,
मुझे कुछ
सूझता नहीं है।
वह तीसरा वापस
हो गया।
क्षुद्र शेष
हो भीतर, तो
आपको वरदान भी
मिल जाएं, तो
आप करिएगा
क्या? वह
जो क्षुद्रता
है, वही
बाहर आ जाएगी।
तूफान
निकल ही जाना
चाहिए। अभागे
हैं वे लोग, जो
थोड़ा—बहुत
तूफान ले कर
उस क्षण में
पहुंच जाएं—जब
जो मांगो, वह
पूरा हो जाए।
खतरा है।
इसलिए मेरा
बहुत जोर है
कि तूफान को
सब भांति निकाल
डालना। तब एक
ही मांग रह
जाएगी।
वह
मांग कहना ठीक
नहीं है, प्यास
है। प्यास भी
कहना ठीक नहीं
है, क्योंकि
उसका कोई बोध
भी नहीं होगा।
ऐसा नहीं होगा
कि आप प्यासे
हैं, और
आपको प्यास का
पता चला रहा
है। कुछ ऐसा
होगा कि आप
प्यास हो गए
हैं। अलग नहीं
हैं, आप
अभीप्सा बन गए
हैं। तब जो
मांगेंगे, उन्हें
मिलेगा। जो
पढ़ना चाहेंगे,
वे पढेंगे।
जो सीखना
चाहेंगे, वे
सीखेंगे।
'तुम्हें
शांति
प्राप्त हो।’
लेकिन
इन सबका आधार
है,
तुम्हें
शांति
प्राप्त हो।
उसके पहले यह
सब किसी अर्थ
का नहीं है।
सब कल्पना—जाल
है फिर। और
तुम्हें
शांति
प्राप्त न हो,
तो उस दिशा
में कोई भी
यात्रा असंभव
है।
आज
इतना ही।
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