शील मुक्ति है, चरित्र—बंधन—(प्रवचन—दसवां)
प्यारे
ओशो!
संस्कृत
में एक
सुभाषित है कि
यदि शील
अर्थात शुद्ध
चरित्र न हो
तो
मनुष्य के
सत्य, तप, जप, ज्ञान,
सर्व
विद्या और
कला
सब निष्फल
होते हैं—
सत्यं
तपो जपो
ज्ञानं सर्वा
विद्या: कला
अपि।
नरस्य
निष्फल? संति
यस्य शील न
विद्यते।।
प्यारे
ओशो! निवेदन
है कि इस
सूक्ति पर कुछ
कहें।
आनंद
किरण! सुभाषित
शब्द तो बहुत
प्यारा है।
संभवत: दुनिया
की किसी और
भाषा में वैसा
शब्द नहीं। उस
शब्द से बहुत—सी
बातों की
ध्वनि उठती है—खिले
हुए फूलों की, बजती
हुई
बांसुरी की, अमृत के स्वाद की, मिठास की। जीवन में यूं तो जहर है—लेकिन जो न पहचाने, न जाने, उसके लिए। जो पहचान ले, जान ले, जीवन ही अमृत भी हो जाता है। नासमझ तो घर को खाद से भर ले सकता है और तब दुर्गंध ही दुर्गंध हो जाएगी। समझदार खाद को घर में नहीं भरता, बगिया में फैलाता है। उसी खाद से फूलों की सुगंध उठती है। शब्द ही गालियां बन जाते हैं और शब्द ही सुभाषित।
बांसुरी की, अमृत के स्वाद की, मिठास की। जीवन में यूं तो जहर है—लेकिन जो न पहचाने, न जाने, उसके लिए। जो पहचान ले, जान ले, जीवन ही अमृत भी हो जाता है। नासमझ तो घर को खाद से भर ले सकता है और तब दुर्गंध ही दुर्गंध हो जाएगी। समझदार खाद को घर में नहीं भरता, बगिया में फैलाता है। उसी खाद से फूलों की सुगंध उठती है। शब्द ही गालियां बन जाते हैं और शब्द ही सुभाषित।
सुभाषित
हमने उन
शइक्तयों को
कहा है, जो
बुद्धों ने
कहीं, जाग्रतपुरुषों
ने कहीं—जिनके
शब्दों में
शून्य की
झंकार है। वे
शून्य में ही
मीठे नहीं, सुभाष ही
नहीं, जीने
में और भी
मीठे हैं।
इशारे हैं
उनमें, इंगित
हैं, दूर
चांद की तरफ
उठी हुई
अंगुलियां
हैं। जैसे फूल
खिलता है—सुबह—सुबह
कमल का खिला
फूल; कीचड़
से निकलता है।
कीचड़ को देखकर
किसे भरोसा
आये कि इससे
कमल भी पैदा
हो सकता है।
कमल शब्द का
ही अर्थ कीचड़
से पैदा हुआ, मल से पैदा
हुआ।
कमल
के लिए
संस्कृत शब्द
है. पंकज।’पैक'
का अर्थ
होता है : कीचड़;
'ज' का
अर्थ होता है.
जन्मा। कीचड़
से जन्मा।
संस्कृत की
कुछ खूबियां
हैं! क्योंकि
जिन लोगों ने
उसे रचा, बुना,
उसे रूप
दिया, रंग
दिया, उनमें
बहुतों के हाथ
बुद्धों के
हाथ थे।
बांसुरी
किसके हाथ में
पड जाएगी, इस
पर सब निर्भर
है। बांसुरी
तो पोली है, कौन गाएगा
गीत......।
बुद्धों ने
शब्दों को
छूकर भी समाधि
का रूप दे
दिया। कमल कीचड़
से खिलता है।
कीचड़ से ही
उठता है, कीचड़
से ही जन्मता
है। कीचड़ में
ही छिपा था। न
तो कीचड़ को
देखकर कोई कह
सकता है कि
कमल इसमें
छिपा होगा और
न कमल को
देखकर कोई कह
सकता है कि यह
कीचड़ से पैदा
हुआ होगा। मगर
कमल और कीचड़
के बीच सारे
जीवन की कथा
है। पैदा तो
हर एक व्यक्ति
कीचड़ की तरह
होता है, लेकिन
संभावना लाता
है कमल होने
की।
फिर
कमल झील पर
तैरता है—फिर
भी झील का जल
उसे छू नहीं
पाता। झील में
होकर भी झील
में नहीं। झील
में तो होता
है,
लेकिन
अछूता। झील
में तो होता
है, अस्पर्शित।
कमल तो झील
में होता है
लेकिन झील कमल
में नहीं हो
पाती। यही
संन्यासी की
जीवनचर्या है।
और
सुभाषित भी
ऐसे ही हैं।
शब्दों में
हैं लेकिन
शब्दों में मत
पकड़ना नहीं तो
चूक जाओगे।
शब्दों से
बहुत ज्यादा
उनमें भरा है।
शब्द को ही
पकडा तो कुछ
पकड़ में न
आएगा। खोल ही
हाथ लगेगी, भीतर
का सार चूक
जाएगा। खोल को
तो अलग कर दो, शब्दों को
तो हटा दो।
शब्दों के जाल
में मत उलझ
जाना। उसी जाल
में उलझे हुए
लोगों का नाम
पंडित है।
शब्दों के
भीतर झांको, उसमें मौन
को सुनो, सन्नाटे
को अनुभव करो।
शब्द अगर
विचारे तो
दर्शन का जंगल
है फिर, जिसका
कोई अंत नहीं,
झाड़ियों पर
झाड़ियां। और
रोज घनी होती
जाती हैं। और
उलझाव बढ़ता
जाता है।
शब्दों पर
ध्यान करो!
सुभाषित
ध्यान करने के
लिए हैं। उनको
पीओ! चुप, मौन, उनको भीतर
उतरने दो।
उन्हें मांस—मज्जा—हड्डी—खून
बनने दो। वे
तुम्हारे
भीतर रसधार की
तरह बहने लगें।
यह एक अलग ही
प्रक्रिया है।
विचारना बुद्धि
की बात है; पी
जाना, पचा
लेना
अस्तित्वगत
है, बौद्धिक
नहीं। और तब
ये छोटे—छोटे
वचन—ये छोटे —छोटे
फूल—इतना
छिपाये हुए
हैं। एक—एक
सुभाषित में
एक—एक वेद छिपा
है।
'सत्यं
तपो जपो
ज्ञानं
सर्वा
विद्या: कला
अपि।
क्रस्ट
निष्फल? संति
यस्य
शील न विद्यते।।’
जहां
शील न हो वहां
तप,
सत्य, जप,
ज्ञान, विद्या,
कला सब
व्यर्थ हैं।
यह शील क्या
है?
आनंद
किरण, तुमने
जहां से भी
अनुवाद लिया,
वहीं भूल है।
अनुवाद में ही
भूल आ गयी।
पांडित्य आ
गया। जिसने भी
किया हो यह
.अनुवाद, चूक
गया। निशाना
ठीक जगह नहीं
लगा। अनुवाद
करनेवाले लोग
शब्दों का
अनुवाद करते
हैं। काश, ये
सुभाषित
सिर्फ शब्द ही
होते तो इनका
अनुवाद बड़ा
आसान था इनका
अनुवाद तो
केवल ध्यानी
ही कर सकते
हैं, समाधिस्थ
ही कर सकते
हैं। अनुवाद
तुमने जो दिया
है : शील
अर्थात्
शुद्ध चरित्र
यह जो 'अर्थात्
आ गया और 'शुद्ध
चरित्र' आ
गया, फिर
सब भ्रांति हो
गयी; फिर
सब गडबड़ हो
गया; फिर
तुमने गुड़
गोबर कर दिया;
फिर कमल
कीचड़ हो गया।
कहां
शील और कहां
चरित्र! जमीन—आसमान
का फर्क है।
उस भेद को ही
समझो. तो
सुभाषित का
अर्थ प्रगट होने
लगेगा।
चरित्र
होता है ऊपर
से आरोपित।
दूसरे सिखाते
हैं तुम्हें
जो,
वह चरित्र
और जो
तुम्हारे
अंतर से
आविर्भूत
होता है, वह
शील। शील का
अर्थ है.
ध्यान से खुली
हुई आंख, फिर
तुम्हारा जो
हलन—चलन है, गति है, तुम्हारे
जीवन की जो
विधि है, शैली
है, वह शील।
खुद की तो आंख
बंद है, खुद
तो अंधे हो, किसी ने
लाठी पकड़ा दी
है, किसी
ने दिशा बता
दी है, किसी
ने कहा यूं
जाना, यूं
जाना, बाएं
मुड़ जाना, दाएं
मुड़ जाना—और
चल पड़े हो।
तुम्हें
पक्का नहीं
तुम क्या कर
रहे हो, तुम्हें
यह भी पक्का
नहीं कि तुम
ठीक चल रहे हो
कि नहीं चल
रहे हो, तुम्हें
यह भी पक्का
नहीं है कि
जिसका तुमने मार्ग—निर्देश
लिया है वह भी
अंधा था या आंखवाला
था, कहीं
ऐसा तो नहीं
कि उसने भी
किसी से
निर्देश लिया
हो! यूं
सदियों—सदियों
निर्देश चलते
रहते हैं।
नानक ने कहा
है, अंधा—अधम
ठेलिया, दोनों
कूप पड़त। अंधे
अंधों को
धक्के दे रहे
हैं, अंधे
अंधों को चला
रहे हैं और
दोनों कुएं
में गिर रहे
हैं।
अंधों
की अपनी
दुनिया है।
अंधे अनुकरण
ही कर सकते
हैं। चरित्र
है अनुकरण।
मुल्ला
नसरुद्दीन
गया था ईद की
नमाज पढ़ने ईदगाह।
जब नमाज करने
झुका तो उसके
कुर्ते का एक
छोर पाजामे
में अटका रह
गया पीछे।
उसके पीछे के
आदमी ने देखा, शोभा
योग्य नहीं था,
तो उसने
झटका देकर
कमीज को
पाजामे से
छुटकारा दिला
दिया। वह जो
पाजामे में
अटक गया था
छोर, उसको
मुक्त कर दिया।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
सोचा, होगा
जरूर इसमें
कोई राज! नहीं
तो क्यों
पीछेवाला
आदमी झटका
देगा! होगा
इसमें कोई
रिवाज! सो उसने
आगेवाले आदमी
के कमीज को
पकड़कर झटका
दिया।
आगेवाले आदमी
ने भी सोचा कि
शायद नमाज का
यह हिस्सा है,
सो उसने
आगेवाले आदमी
की कमीज को
पकड़कर झटका दिया।
आगेवाला आदमी
चौंका, उसने
कहा कि क्यों
मेरी कमीज को
झटका दे रहे हो?
उसने कहा कि
भाई, मुझसे
न पूछो, पीछेवाले
से पूछो।
पीछेवाले से
पूछा; उसने
कहा, मुझसे
न पूछो, यह
मुल्ला
नसरुद्दीन जो
मेरे पीछे
बैठा है!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा मुझे तो
बीच में डालो
ही मत! मेरे
पीछे जो बैठा
है इसी कमबख्त
ने मेरी कमीज
को झटका दिया।
फिर यह सोचकर
कि नमाज तो
व्यवस्था से
करनी चाहिए, मैंने भी
झटका दिया।
मेरा इसमें
कोई हाथ नहीं।
और
सदियों—सदियों
से ऐसा तुम कर
रहे हो। इस
करने का नाम
चरित्र है।
चरित्र है.
अनुकरण। न बोध
है,
न बुद्धि
है. न सोचा है, न समझा है, न ध्याया है;
और कर रहे
हैं तो तुम भी
कर रहे हो।
किसी एक घर
में पैदा हुए
हो, वहा एक
चरित्र की
व्यवस्था थी
तो तुम भी
पूरा कर रहे
हो। नहीं कर
पाते हो तो
अपराध अनुभव
होता है और
करते हो तो जीवन
में कोई फूल
नहीं खिलते।
चरित्र
की यह दुविधा
है—और यही
उसकी पहचान भी।
पूरा
करो,
तो जीवन
उदास—उदास। न
पूरा करो, तो
ग्लानि, आत्मग्लानि।
हर हाल में
मुसीबत! पूरा
करो तो मुसीबत।
तुम्हारे
संतों को देखो,
महात्माओं
को देखो! उदास।
न मुस्कुराहट
है जीवन में, न हंसी की
फुलझड़ियां
हैं, न
आनंद का उत्सव
है, न दीये
जलते हैं, न
रंग है, न
गुलाल है, न
होली, न
दीवाली।
मरुस्थल की
तरह रूखे—सूखे
लोग, उनको
देखकर किसी को
भी विरक्ति
पैदा हो जीवन
से, उनको
देखकर जीवन
व्यर्थ मालूम
पड़ने लगे इसमें
कुछ आश्चर्य
नहीं। और यही
उनका उपदेश और
उनका जीवन और
उनके उपदेश का
प्रमाण कि
जीवन व्यर्थ
है। और मैं
तुमसे कहता
हूं : जीवन
व्यर्थ नहीं
है। क्योंकि
जीवन में ही
छिपा है सत्य
और जीवन में
ही छिपा है
मोक्ष और जीवन
में ही छिपा
है परमात्मा।
जीवन में छिपा
है सारा
साम्राज्य
शाश्वत का, सनातन का।
एस धम्मो
सनंतनो। यही
जीवन तो सनातन
धर्म। और यह
जीवन कितने
रंगों में, कितने रूपों
में प्रगट हो
रहा है।
मगर
अगर तुम किसी
की बात मानकर
चलते रहे, मानकर
ही चलते रहे, तो तुम्हें
कभी इस जीवन
से संबंध न
जुड़ पाएगा, तुम टूटे—टूटे
रह जाओगे, तुम
उदास हो जाओगे।
अनुकरण का
अर्थ है : थोथा
हो जाना, नकली
हो जाना; झूठा
सिक्का, पाखंड।
चरित्र तो
पाखंड होता है।
इसीलिए मैं
कहता हूं :
संन्यासी का
कोई झूठा चरित्र
नहीं होता।
शील तो होता
है, लेकिन
चरित्र नहीं
होता। चरित्र
है बाह्य
व्यवस्था।
इसलिए हिन्दू
का चरित्र अलग
होता है, मुसलमान
का अलग होता
है, जैन का
अलग होता है, बौद्ध का
अलग होता है, सिख का अलग
होता है, पारसी
का अलग होता
है। लेकिन शील
तो अलग—अलग
नहीं होते।
बुद्ध का भी
वही, कृष्ण
का भी वही, महावीर
का भी वही, लाओत्सु
का भी वही, जरथुस्त्र
का भी वही।
शील तो अलग—अलग
नहीं हो सकते।
लेकिन आचरण तो
अनंत प्रकार
के हो सकते
हैं।
दुनिया
में ऐसी कोई
चीज नहीं है
जो कहीं किसी देश
में,
किसी जाति
में, किसी
काल में
अनादृत न रही
हो। और ऐसी भी
कोई चीज नहीं
है जो किसी
देश में, किसी
जाति में
अनादृत न रही
हो। पृथ्वी पर
हजारों तरह के
कबीले हैं। जो
तुम सोच भी
नहीं सकते, उसे
करनेवाले लोग
भी हैं। और जो
तुम कर रहे हो,
उस पर
हंसनेवाले
लोग भी हैं।
चरित्र के साथ
यह दुविधा
रहेगी।
एक
ईसाई मिशनरी
को अफ्रीका के
जंगलों में
आदमखोर लोगों
ने पकड़ लिया।
ईसाई मिशनरी
ने समझाने की
कोशिश की कि
तुम यह क्या
कर रहे हो, आदमी
को मार रहे हो,
मुझे मार
रहे हो! मुझे
बचने की उतनी
फिक्र नहीं, मगर तुम यह
कर क्या रहे
हो! क्या आदमी
को खाना उचित
है? वे
आदमखोर बोले—दूसरे
महायुद्ध के
जमाने की बात
है—कि तुम और
हमें सिखाते
हो! लाखों लोग
मारे जा रहे
हैं, खबरें
हम तक भी आती
हैं, हम
तुमसे यह
पूछते हैं, इतने
आदमियों को
मारते हो तो
करते क्या हो?
अरे, खाने
के लिए कोई
मारे तो समझ
में आता है। न
खाना है, न
पीना है, सिर्फ
मारना है! यह
बात निपट
मूर्खतापूर्ण
है। हम तो
मारते हैं तभी
जब खाना होता
है। और तुम तो
खाना भी नहीं
होता और मारे
चले जाते हो!
और एक दो नहीं,
लाखों को
मारते हो। और
हमने तो सुन
रखा है कि यही
तुम्हारा
इतिहास है। और
हम को तुम
कहते हो, अमानवीय!
और तुम मनुष्य
हो!
बात
तो बड़ी सोचने
जैसी है। तीन
हजार साल में
आदमी ने पांच
हजार युद्ध लड़े
हैं। और वह
लोगों को काटा
है! और यह
काटनेवाले
लोग सोचते हैं
कि आदमखोर जो
हैं,
आदमियों को
खानेवाले जो
लोग हैं, यह
पशु से भी गये—बीते
हैं। और यह
अरबों को
मारनेवाले
लोग ये ईसाई
हैं, मुसलमान
हैं, हिन्दू
हैं, जैन
हैं, बौद्ध
है—ये धार्मिक
लोग हैं!
महाभारत
के युद्ध का
अगर हम
शास्त्रीय
विवरण स्वीकार
करें, जो कि
करने योग्य
नहीं है, तो
अंदाजन सवा
अरब आदमी
महाभारत के
युद्ध में मरे।
सवा अरब आदमी!
अभी भी पृथ्वी
की कुल आबादी
चार अरब है।
सवा अरब आदमी
उस युद्ध में
मरे! और
मारनेवाले लोग
धर्म के नाम
पर मार रहे थे.
धर्मक्षेत्रे,
कुरुक्षेत्रे!
वह जो कुरुक्षेत्र
था, वह
धर्म का
क्षेत्र था।
धर्म की रक्षा
के लिए मारकाट
की जा रही थी।
अरे, किसी
और चीज के लिए
मारकाट करो तो
समझ में भी आ जाए,
धर्म की
रक्षा के लिए
मारकाट!
मारकाट से
धर्म की रक्षा
होगी! अधर्म
से धर्म की
रक्षा होगी!
ठीक
कहा उस आदमखोर
ने कि हम तो
कभी—कभी खाते
हैं,
और हम तभी
किसी को मारते
हैं जब भूखे
होते हैं, यूं
हम नहीं मारते
तुम्हारे
जैसे! तुम हो
पशुओं से गये—बीते!
मिशनरी तो
बहुत हैरान
हुआ इस तर्क
से। बात में
तो बल था। फिर
भी अपनी जान
तो बचाने के
लिए उसे कोशिश
और भी करनी
जरूरी थी।
उसने कहा कि
तुम को धर्म
का कोई भी
स्वाद नहीं।
उन्होंने कहा,
है जी! पहले
भी हम दो
मिशनरी खा
चुके हैं! कोई
तुम नये थोडे
ही हो। हम तो
मिशनरियों की
प्रतीक्षा ही
करते हैं।
हमें और धर्म
का स्वाद
नहीं! तुम्हें
नहीं है।
तुमने कभी
मिशनरी खाया?
पादरी—पुरोहित—पंडित
तुमने कभी
खाया? साधु?
अरे हम सबको
पचाये हैं।
अनुभव से कहते
हैं, सबका
स्वाद लिया है।
और तुम हमसे
पूछ रहे हो कि
धर्म का स्वाद
है या नहीं!
आचरण
तो अजीब—अजीब
तरह के होंगे।
अफ्रीका
का एक कबीला
चींटे और
चींटियों का
भोजन करता है।
एकदम चींटे—चींटियां
इकट्ठा करता
रहता है। छोटे—छोटे
बच्चे चींटा
दिखा कि गप्प
कर जाते हैं
और तुम्हरी तो
सब्जी में भी
चींटा दिख जाए
चींटा मिल जाए
मरा हुआ, तो
सब्जी भी खायी
न जाए तुमसे!
और वे इसको
स्वादिष्ट
मानते हैं।
चींटे—चींटियों
को इकट्ठा
करते हैं, सुखाकर
रखते हैं।
मौके—बेमौके
मेहमान आ जाएं
तो चींटे—चींटियों
का नाश्ता।
चीन
में लोग सांप
को खाते हैं। सांप
की सब्जी बहुत
बहुमूल्य
सब्जी समझी
जाती है। और
साधारण आदमी
ही नहीं खाते, बौद्ध
भिक्षु भी
खाते हैं।
प्रसिद्ध
बौद्ध भिक्षु
लिंची के
संबंध में यह
उल्लेख है कि
कोई मेहमान
आया हुआ था—प्रतिष्ठित; वजीर
था, बड़े
ओहदे पर था, धनपति था—उसके
स्वागत में
लिंची ने पूरे
अपने आश्रम को
भोजन दिया था।
पांच सौ
भिक्षु उसके
साथ भोजन करने
बैठे। लिंची
के पास ही
वजीर बैठा था।
और जब रसोइयों
ने आकर भोजन
परोसा और
प्रधान रसोइये
ने आकर वजीर
की और लिंची
की थाली में
सब्जी परोसी
तो लिंची थोड़ा
हैरान हुआ।
उसने कुछ
उठाकर दिखाया
रसोइये को—यह
क्या है? सांप
का मुंह था।
मुंह नहीं
डाला जाता, मुंह काटकर
फेंक दिया
जाता है, क्योंकि
मुंह में जहर
की ग्रंथि
होती है।
सब्जी बाकी
शरीर की बनती
है, मुंह
को छोड़कर।
लेकिन
यह कहानी झेन
शास्त्रों
में बहुत आदर
से उल्लिखित है।
आदर का कारण
है।
जब
उसने मुंह
उठाकर दिखाया
तो उस रसोइये
ने क्या किया? वह
भी भिक्षु था,
आश्रम का
रसोइया था
उसने झट से
मुंह हाथ में
लिया, अपने
मुंह में डाल
दिया और कहा
धन्यवाद! गुरु
तो बहुत
प्रसन्न हुआ।
न जरा झिझका, न जरा
परेशान हुआ, सांप के
मुंह को भी
अपने मुंह में
डाल दिया। बात
को यूं पचा
गया। किसी की
समझ में ही
नहीं आया, क्या
हुआ! लोग यही
समझे कोई मीठी
चीज, कोई
स्वादिष्ट
भोजन
प्रसादरूप
में भिक्षु को
मिला है।
लेकिन
सांप की सब्जी
खायी जाती थी।
अब भी खायी
जाती है।
अभी
कल के अखबार
में खबर थी कि
एक आदमी रोज ही
एक सांप खाता
है चीन में।
जिस दिन सांप
नहीं मिलता उस
दिन उसकी
तबीयत ढीली हो
जाती है, सुस्त
हो जाता है।
सांप चाहिए ही
चाहिए।
पौष्टिक आहार
है 1 उसके बिना
वह नहीं जी
सकता। दुनिया
में कहीं भी
कोई सांप को
खाने का खयाल
न करे!
मगर
बिच्छू को
खानेवाले लोग
भी हैं।
और
जो जिस घर में
पैदा हुआ है, जिस
परिवार में, जिस संस्कार
में, उसको
ही पकड़ लेता
है। और तो कुछ
पकड़ने को होता
भी नहीं। मां—बाप
सिखा देते हैं;
शिक्षक, गुरु,
पंडित—पुरोहित,
सब सिखा
देते हैं, वह
वैसा ही आचरण
करना शुरू कर
देता है। इस
आचरण का नाम
शील नहीं है।
यह तो बिलकुल
थोथी बात है।
यह तो ऊपर से
पहनाये गये
वस्त्रों
जैसी है। यह
तो मुखौटा है।
जैसे
किसी
ने चेहरे को
रंग दिया हो, सुंदर
बना दिया हो।
यह तो पानी पड़
जाए एक तो बह
जाए।
बूंदाबांदी
हो जाए तो सब
राज खुल जाए।
इसलिए, आनंद
किरण, शील
का अर्थ शुद्ध
चरित्र न करो।
और तुम्हारा
मन—या जिसने
भी यह अनुवाद
किया हो—सिर्फ
चरित्र से ही
न माना, उसमें
शुद्ध और जोड़
दिया। चरित्र
काफी नहीं, शुद्ध भी
होना चाहिए।
प्रेम काफी
नहीं, शुद्ध
प्रेम।.......दूध
काफी नहीं, शुद्ध दूध..
मिलावटी दिमांग
हो गया हमारा।
हर चीज में
मिलावट है।
आजकल तो
प्रेमी भी
प्रेयसियों
से कहते हैं
कि बिलकुल
खालिस प्रेम
है, सौ टका।
ऐसा मत समझना
कि कुछ मिलावट
है कि पानी
वगैरह मिलाया
हुआ है, बिलकुल
शुद्ध प्रेम
है, कोई
फिल्मी नहीं
है।
अब
तो कोई चीज
शुद्ध नहीं है।
इसलिए शुद्ध
का आग्रह बढ़ता
जा रहा है। जब
शुद्ध घी
मिलता था तो
दुकानों पर
तख्तियां
नहीं लगती थीं
कि शुद्ध घी
बिकता है। तब 'घी
बिकता है' इतना
ही काफी था।
जब से शुद्ध
घी नहीं मिलता,
तबसे 'शुद्ध
घी बिकता है।’
अब तो हालत
और बिगड गयी।
अब तो शुद्ध
डालडा भी
बिकता है। अब
तो डालडा भी
शुद्ध कहां है?
इसलिए अब
शुद्ध डालडा
की भी तख्ती
लगी रहती है
कि यहां 'शुद्ध
डालडा मिलता
है।’ पहले
डालडा यानी
अशुद्ध ही चीज
थी। अब डालडा
शुद्ध चीज है,
क्योंकि
उससे भी रही
घी को
मिलानेवाले
लोग हैं। घी
भी नहीं है, उसको भी
मिलानेवाले
लोग हैं।
चर्बी मिला
दें, कुछ
भी मिला दें।
अब
तो दवाओं का
भी कोई भरोसा
नहीं है। अब
तो तुम इंजेक्शन
ले रहे हो और
सोच रहे हो इंजेक्शन
है,
हो सकता है
सिर्फ पानी हो।
और वह पानी भी
जरूरी नहीं कि
शुद्ध हो।
तो
हम इतने से ही
राजी नहीं
होते कि
चरित्र।
चरित्र
पर्याप्त है।
चरित्र का
अर्थ ही होना
चाहिए शुद्ध।
और
चरित्रहीनता
का अर्थ होगा
अशुद्ध।
शुद्ध चरित्र
का क्या मतलब? लेकिन
हमारे दिमाग
में मिलावट
घुस गयी है।
एक तो चरित्र
शील का अर्थ
नहीं है—यह
बाहरी आडंबर
है—दूसरा
इसमें भी 'शुद्ध'
जोड़ रहे हो!
आडंबर को और
भी झूठा बना
रहे हो।
शील
का अर्थ होता
है : ध्यान के
शून्य में
जिसने अपने
अंतःकरण को
पहचाना है; जिसने
शून्य में
अपने केन्द्र
से संबंध जोड़े
हैं; जो
अपने प्राणों
के प्राण से
संयुक्त हुआ
है; जिसने
पहली दफा जाना
है कि मैं
परिधि ही नहीं
हूं केन्द्र
भी हूं। और
जिसकी परिधि
केन्द्र से
प्रभावित
होने लगी है।
उसका नाम शील
है। शील है
तुम्हारे
भीतर से खट्ट
हुआ और चरित्र
है ऊपर से
थोपा हुआ।
जैसे कोई
कागजी फूल
लाकर वृक्षों
पर अटका दे।
हो सकता है
राह चलते
राहगीरों को
धोखा हो जाए।
मगर तुम किसको
धोखा दे रहे
हो? क्या
मधुमक्खियों
को धोखा दे
पाओगे? कोई
एक मधुमक्खी
भी तुम्हारे
कागज के फूल
पर न बैठेगी।
क्या तुम
भंवरों को
धोखा दे पाओगे?
कोई भंवरा
तुम्हारे
कागज के फूलों
के पास गुनगुन
करके गीत न
गाएगा। तुम
किसे धोखा दे
रहे हो? और
तुम सबको भी
धोखा दे दो, मगर तुम्हें
तो पता ही
रहेगा कि ये
फूल कागजी हैं।
तुमने ही
लटकाए हैं।
तुम अपने को
तो धोखा न दे
पाओगे। तुम
वृक्ष को तो
धोखा न दे
पाओगे। इन
कागजी फूलों
को वृक्ष रस
नहीं देने
लगेगा। और अगर
दिया भी उसने
रस तो ये गल
जाएंगे। ये मर
जाएंगे। वह
जीवनदायी रस
इनके लिए
मृत्यु हो
जाएगा। असली
फूल वृक्ष में
लगते हैं।
उसका अंग होते
हैं।
शील
है : असली फूल—तुम्हारे
भीतर कत, तुम्हारे
भीतर लगा।
नकली नहीं है,
बाजारू
नहीं है, कागजी
नहीं है। और
तब इस सुभाषित
का अर्थ खुल
सकेगा। तो मैं
शील का अर्थ
शुद्ध चरित्र
नहीं करता हूं।
यह 'अर्थात
शुद्ध चरित्र'
छोड दो!
खयाल से भी
हटा दो! इतना
ही कहो कि शील
न हो तो मनुष्य
के जीवन में
सत्य नहीं
होता। क्या
होगा? अगर
सत्य हो तो
शील ही होगा; अगर शील हो
तो सत्य भी
होगा। जिसने
अपने जीवन के
केन्द्र को
जान लिया, उस
जानने को, उस
पहचानने को ही
तो सत्य का
अनुभव कहते
हैं। और जिसके
जीवन में आत्म—अनुभव
हो, उसके
जीवन में तप
होता है।
तप
का क्या अर्थ
होता है? तप
शब्द को समझना
चाहिए।
लोग
सोचते हैं तप
का अर्थ है
अपने को सताना, गलाना,
परेशान
करना, हैरान
करना। तब तो
तप एक तरह की
आत्महिंसा हो गयी।
तो फिर दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं :
दूसरों को
सतानेवाले और अपने
को सतानेवाले।
इनमें कुछ
फर्क नहीं है,
जहां तक
सताने का
संबंध है ये
एक जैसे हैं।
इनकी कोटियां
अलग—अलग नहीं
हैं। कोई
दूसरे को अगर
सताये तो हम
उसको दुष्ट
कहते हैं। और
अपने को सताये
तो उसको संत
कहते हैं। गजब
के लोग हैं! हम
भी गजब के लोग
हैं! हमारी
कोटियां भी
गजब की, हमारी
व्याख्याएं
भी अदभुत! अरे,
दूसरे को जो
सताये वह उतना
दुष्ट नहीं है,
क्योंकि
दूसरा अपनी
आत्मरक्षा भी
कर सकता है।
लेकिन जो खुद
को सताये, वह
तो बहुत ही
दुष्ट है, क्योंकि
खुद की अब कोई
आत्मरक्षा
करनेवाला भी
नहीं है। अब
तो जिसको हमने
रक्षक समझा था,
वही सता रहा
है। अब तो
जिससे हम बचना
चाहते थे, वही
मार रहा है।
अब कौन बचाएगा?
जिसको हमने
सुरक्षा मानी
थी, वही
झूठी सिद्ध हो
गयी। इसलिए जो
कायर हैं और
दूसरों को
सताने में डरते
हैं—क्योंकि
दूसरों को
सताने में
खतरा है, दूसरों
को छेड़ने में
खतरा है! जैसे
कोई मधुमक्खी
का छत्ता छेड़
दे! दूसरे को
छेड़ोगे तो
दूसरा बदला
लेगा, आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों।
और कौन जाने
खतरनाक आदमी
हो!
मुल्ला
नसरुद्दीन
चला जा रहा था
एक रास्ते से, ऊपर
से एक ईंट
गिरी, उसकी
खोपड़ी पर पड़ी।
भनभना गया।
तमतमा गया।
उठायी ईंट और
गुस्से में
गया जीना चढ़कर
ऊपर कि सिर
खोल दूंगा!
कौन हरामजादा
है जिसने ईंट
पटकी? देखता
भी नहीं! उधर
जाकर देखा तो
एक पहलवान खड़ा
था। अभी दंड—बैठक
लगाकर ही उठा
था। पहलवान को
देखकर मुल्ला
चौकड़ी भूल गये।
पहलवान ने
पूछा, कहो,
क्या काम है?
उसने कहा, कुछ नहीं, आपकी ईंट
गिर गयी थी, वह वापिस
करने आया हूं।
अरे, कभी
भी जरूरत हो
तो पड़ोस में
ही रहता हूं
आवाज दे दी।
कोई चीज गिर
जाए, कुछ
हो तो उठाकर
ला दूंगा।
सेवा तो हमारा
धर्म है!
भूल
गये चौकड़ी!
गये तो थे कि
खोल दूंगा सिर, ईंट
लौटाकर वापिस
अपना सिर मलते
आ गये!
एक
दिन मुल्ला घर
लौटा, देखा कि पत्नी
के बिस्तर पर
कोई सोया हुआ
है। दोनों
कंबल के भीतर
हैं। आगबबूला
हो गया। सोचा
कि निकाल लूं
तलवार कि
पिस्तौल। पर
इसके पहले कि
पिस्तौल
निकालने जाऊं,
जरा देख तो
लूं कि कौन है?
कंबल उठाया,
वही पहलवान?
जल्दी से
कंबल उढा दिया।
पत्नी ने कहा,
'क्यों, क्या
करते हो?' अरे,
उसने कहा, 'बेचारे
पहलवान को ठंड
न लग जाए! और एक
कंबल ले आऊं, भैया? शांति
से सोओ!'
मगर
दिल तो भनभना
रहा था। यह तो
हद हो गयी! ईंट
भी ठीक थी, मगर
अब जरा बात
आगे बढ़ गयी
बहुत! कंबल तो
उढाकर बाहर
लौट आया, पहलवान
का छाता रखा
था, उसका
छाता अपनी टांग
पर रखकर तोड़
दिया और कहा
कि हे प्रभु, अब ऐसा हो कि
जमकर बरसे, पानी ऐसा
बरसे कि
कमबख्त को पता
चल जाए! घर पहुंचने
में मजा आ जाए
इसको भी!
अब
और क्या करोगे? उसका
छाता तोड़कर
परमात्मा से
प्रार्थना कर
रहे हैं।
जो
लोग दूसरों को
नहीं सता सकते, क्योंकि
दूसरों को
सताना खतरे से
खाली नहीं है,
जोखम का काम
है, वह
अपने को सताने
लगते हैं। और
मजा यह है कि
यही कायर
तुम्हारे
महात्मा बन
जाते हैं। यही
तुम्हारे संत
बन जाते हैं।
इन्हीं के
चरणों में तुम
सिर झुका रहे
हो। इन्हीं
कायरों की
पूजा चल रही
है।
तप
का यह अर्थ
नहीं है। तप
का अर्थ होता
है—तप शब्द
में ही अर्थ
छिपा हुआ है :
तप यानी तपिश—एक
ऊर्जा, एक
गर्मी। जैसे
भीतर सूरज
ज्या आया हो।
जैसे जीवन की
सारी ऊर्जा
जाग्रत हो गयी
हो। जैसे सोये
स्रोत खुल गये
हों। झरने फूट
पड़े हों। एक
दीप्ति, एक
ओजस—जिस
व्यक्ति ने
स्वयं के सत्य
को जाना है, उसके जीवन
में एक गर्मी
होगी—क्रांति
की, बगावत
की। उसके जीवन
में एक
आग्नेयता
होगी।
क्योंकि उसके
भीतर
आत्मज्योति
का दीया जलेगा;
उसके भीतर
ठंडा बरफ जैसा
हृदय नहीं
होगा, मुर्दा
हृदय नहीं
होगा, जीवंत
हृदय होगा। तप
का अर्थ है :
ऊर्जा, गर्मी।
जैसे सूरज
निकल आता है
तो फूल जो बंद
थे रातभर, खुल
जाते हैं, पक्षी
जो रातभर सोये
रहे, जग
जाते हैं; जिनके
कंठ रातभर चुप
थे, अचानक
गीतों में फूट
पड़ते हैं, वैसे
ही सत्य के
अनुभव के साथ
तुम्हारे
जीवन में
ऊर्जा का
पदार्पण होता
है। सूरज ऊगता
है, फूल
खिलते हैं, जागरण आता
है—और गीत और
नृत्य और
उत्सव। उत्सव।
तप
अपने को सताना
नहीं है, अपनी
जीवन ऊर्जा को
उसकी
पराकाष्ठा पर
प्रगट होने
देना है। और
जिसकी जीवन
ऊर्जा
परकाष्ठा पर
प्रगट होगी, निश्चित ही
उसका अंतिम
परिणाम सृजन
होगा, कला
होगी।
क्योंकि
ऊर्जा
तुम्हें
सृष्टा
बनाएगी। तुम
गीत रचो कि मूर्ति
रचो कि चित्र
बनाओ कि तुम
जो कुछ भी
करोगे, उस
सब में एक
सौष्ठव होगा,
उस सब में
एक संस्कृति
होगी। तुम
मिट्टी छुओगे
तो सोना हो
जाएगी। और
मिट्टी को
छूकर सोना बना
देने का काम
ही कला है।
जब
तक स्वयं के
सत्य को नहीं
जाना, शील को
नहीं पहचाना,
अपने भीतर
के केन्द्र को
अनुभव नहीं
किया, तब
तक सब झूठ है; उसके साथ ही
सब सच हो जाता
है। एक को जान
लो तुम, स्वयं
को, तो
तुम्हारे
जीवन में फूल
ही फूल खिल
जाते हैं कि
तुमने कभी
कल्पना भी न
की थी। इतने
गीत कि तुमने
कभी सोचा भी न
था कि तुम्हारे
भाग्य में
होंगे! इतना
आनंद, इतना
नृत्य, इतनी
ऊर्जा कि
नृत्य तो
फूटेगा ही, आनंद तो
जगेगा ही।
ऊर्जा तो अपने—आप
नाचती है।
ऊर्जा बिना
नाचे नहीं रह
सकती! झरने
फूट पड़ेंगे!
और
तभी जप।
यह
बैठकर जो
रामनाम की
चदरिया ओढ़े
हुए और माला
हाथ में लिए
हुए जप कर रहे
हैं,
मुर्दों की
भांति, इनके
जप को कोई
मूल्य नहीं है।
लेकिन जप का
अर्थ होता है.
जब तुम्हारे
जीवन में आनंद
की पुलक आयी, लहर दौड़ी और
तुम्हारे
भीतर अनुग्रह
का भाव उठा।
परमात्मा को
या परमात्मा
शब्द को भी
बीच में न लाओ
तो भी चलेगा—अस्तित्व
को जब धन्यवाद
देने के लिए
तुम झुके, उस
झुकने का नाम
जप है। फिर वह
मौन भी हो
सकता है, मुखर
भी हो सकता है।
उस
स्वानुभूति
के पहले जो
ज्ञान है, कचरा
है, किताबी
है, शास्त्रीय
है। उस
स्वानुभव के
बाद ही ज्ञान
है। ज्ञान एक
ही है : अपने को
जानना।
उपनिषदों
ने बड़ी अनूठी
व्याख्या की
है। दुनिया
में कभी ऐसी
व्याख्या
नहीं की गयी।
जिसको आज हम
विज्ञान कहते
हैं,
उसको
उपनिषद
अविद्या कहते
हैं। बाहर का
शान अविद्या।
ये भूगोल और
यह इतिहास और
यह गणित और यह
भौतिकी और यह
रसायन—बाहर का
सब शान उपनिषद
अविद्या कहते
हैं। और भीतर
के ज्ञान को
विद्या कहते
हैं। तो ज्ञान
तो एक ही बचा फिर.
स्वयं को
जानना, आत्मसाक्षात्कार।
और शेष सब
अविद्या हो
गया। शेष सब
कामचलाऊ है।
उपादेयता है
उसकी, लेकिन
उससे कोई
मुक्ति नहीं
बनती। और उससे
जीवन में कोई
आनंद नहीं
निर्मित होता
और अमृत नहीं
निचुडता।
ज्ञान तो वह
है जो
मुक्तिदायी
हो।
सा
विद्या या
विमुक्तये। वही
है विद्या जो
मुक्ति लाये।
यह परिभाषा
हुई विद्या की—जो
मुक्ति लाये
वह विद्या। जो
बांध दे, वह
विद्या नहीं।
जो बांध दे, वह विद्या
नहीं। जो खोल
दे सारे बंधन,
वही विद्या,
वही ज्ञान।
'सत्यं
तपो जपो
ज्ञानं
सर्वा
विद्या: कला
अपि।
नरस्य
निष्फल? संति
यस्य
शील न विद्यते।।'
शील
न हो तो कुछ भी
नहीं। भीतर
अंधेरा हो तो
कुछ भी नहीं।
भीतर उजाला हो
तो सब कुछ।
इसलिए मेरा
जोर एक ही बात
पर है—सिर्फ
एक बात पर कि
कुछ भी हो, किसी
भी कीमत पर हो,
समाधि को
पाना है।
ध्यान को
जगाना है।
ध्यान की
अंतिम चोटी को
छूलेना है।
वही समाधि है,
संबोधि है,
बुद्धत्व
है। उसको छू
लिया तो शेष
सब रूपांतरित
हो जाएगा। और
उसको न छुआ, तो तुम लाख
वीणा बजाओ—तकनीकी
दृष्टि से तुम
शायद
वीणावादक हो
जाओगे लेकिन
तुम्हारे
वीणा बजाने
में प्राण
नहीं होंगे।
तार
झनझनाएंगे, गीत भी ओठों
से आएगा मगर
हृदय से नहीं।
अकबर
ने तानसेन से
कहा था कि
तेरा
वीणावादन
देखकर कभी—कभी
यह मेरे मन
में खयाल उठता
है कि कभी
संसार में
किसी आदमी ने
तुझसे भी
बेहतर बजाया
होगा या कभी
कोई बजाएगा? मैं
तो कल्पना भी
नहीं कर पाता
कि इससे
श्रेष्ठतर
कुछ हो सकता 'है। तानसेन
ने कहा, क्षमा
करें, शायद
आपको पता नहीं
कि मेरे: गुरु
अभी जिन्दा हैं।
और एक बार अगर
आप उनकी वीणा
सुन लें तो
कहां वे और
कहां मैं!
बड़ी
जिज्ञासा जगी
अकबर को। अकबर
ने कहा तो फिर
उन्हें बुलाओ!
तानसेन ने कहा, इसीलिए
कभी मैंने
उनकी बात नही
छेड़ी। आप मेरी
सदा प्रशंसा
करते थे, मैं
चुपचाप पी
लेता था, जैसे
जहर का घूंट
कोई पीता है, क्योंकि
मेरे गुरु अभी
जिन्दा हैं, उनके सामने
मेरी क्या
प्रशंसा! यह यूं
ही है जैसे
कोई सूरज को
दीपक दिखाये।
मगर मैं
चुपचाप रह
जाता था, कुछ
कहता न था, आज
न रोक सका
अपने को, बात
निकल गयी।
लेकिन नहीं
कहता था
इसीलिए कि आप तत्क्षण
कहेंगे, 'उन्हें
बुलाओ'। और
तब मैं
मुश्किल में
पढूंगा, क्योंकि
वे यूं आते
नहीं। उनकी
मौज हो तो
जंगल में
बजाते हैं, जहां कोई
सुननेवाला
नहीं। जहां
कभी—कभी जंगली
जानवर जरूर
इकट्ठे हो
जाते हैं सुनने
को। वृक्ष सुन
लेते हैं, पहाड़
सुन लेते हैं।
लेकिन फरमाइश
से तो वे कभी
बजाते नहीं।
वे यहां दरबार
मे न आएंगे। आ
भी जाएं किसी
तरह और हम
कहें उनसे कि
बजाओ तो वे
बजाएंगे नहीं।
तो अकबर ने
कहा, फिर
क्या करना पड़े,
कैसे सुनना
पड़े? तो
तानसेन ने कहा,
एक ही उपाय
है कि यह मैं
जानता हूं कि
रात तीन बजे
वे उठते हैं, यमुना के तट
पर आगरा में
रहते हैं—हरिदास
उनका नाम था—हम
रात चलकर छुप
जाएं—दो बजे
रात चलना होगा;
क्योंकि
कभी तीन बजे बजाए,
चार बजे —बजाए,
पांच बजे
बजाए; मगर
एक बार (जरूर
सुबह—सुबह
स्नान के बाद
वे वीणा बजाते
हैं— तो हमें
चोरी से ही
सुनना होगा, बाहर झोपड़े
के छिपे रहकर
सुनना होगा।..
शायद ही
दुनिया के
इतिहास में
किसी सम्राट ने,
अकबर जैसे
बड़े सम्राट ने
चोरी से किसी
की वीणा सुनी
हो!.. लेकिन अकबर
गया।
दोनों
छिपे रहे एक
झाड़ की ओट में, पास
ही झोपड़े के
पीछे। कोई तीन
बजे स्थान
करके हरिदास
यमुना सै आये
और उन्होंने
अपनी वीणा
उठायी और
बजायी। कोई
घंटा कब बीत
गया—यूं जैसे
पल बीत जाए!
वीणा तो बंद
हो गयी, लेकिन
जो राग भीतर अकबर
के जम गया था
वह जमा ही रहा।
आधा घंटे बाद
तानसेन ने
उन्हें
हिलाया और कहा
कि अब सुबह
होने के करीब
है, हम
चलें! अब कब तक
बैठे रहेंगे।
अब तो वीणा
बंद भी हो.
चुकी। अकबर ने
कहा, बाहर
की तो वीणा
बंद हो गयी
मगर भीतर की
वीणा बजी ही
चली जाती है।
तुम्हें
मैंने बहुत
बार सुना, तुम
जब बंद करते
हो तभी बंद 'हो जाती है।
यह पहला मौका
है कि जैसे
मेरे भीतर के
तार छिड़ गये
हैं।। और आज
सच में ही मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
ठीक ही कहते
थे कि कहा तुम
और कहां
तुम्हारे
गुरु!
अकबर
की आंखों से आंसू
झरे जा रहे
हैं। उसने कहा, मैंने
बहुत संगीत
सुना, इतना
भेद क्यों है?
और तेरे
संगीत में और
तेरे गुरु के
संगीत में
इतना भेद
क्यों है? जमीन—
आसमान का फर्क
है। तानसेन ने
कहा, कुछ
बात कठिन नहीं
है। मैं बजाता
हूं कुछ पाने
के लिए; और
वे बजाते हैं
क्योंकि
उन्होंने कुछ
पा लिया है।
उनका बजाना
किसी उपलब्धि
की, किसी अनुभूति
की
अभिव्यक्ति
है। मेरा
बजाना तकनीकी
है। मैं बजाना
जानता हूं मैं
बजाने का पूरा
गणित जानता
हूं मगर गणित!
बजाने का अध्यात्म
मेरे पास
नहीं! और मैं
जब बजाता होता
हूं तब भी इस
आशा में कि आज
क्या आप देंगे?
हीरे का हार
भेंट करेंगे,
कि मोतियों
की माला, कि
मेरी झोली
सोने से भर
देंगे, कि
अशार्फेयों
से? जब
बजाता हूं तब
पूरी नजर
भविष्य पर
अटकी रहती है,
फल पर लगी
रहती है। वे
बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई
भविष्य, वर्तमान
का क्षण ही सब
कुछ है। उनके
जीवन में साधन
और साध्य में
बहुत फर्क है,
साधन ही
साध्य है; ओर
मेरे जीवन में
अभी साधन और
साध्य में कोई
फर्क नहीं है।
बजाना साधन है।
पेशेवर हूं
मैं। उनका
बजाना आनंद है,
साधन नहीं। वे
मस्ती में हैं।
वे पीये हैं।
और
जो परमात्मा
को पीये है, उसके
बजाने में
जरूर वही शराब
कुछ तो कह ही
आएगी! उन तक भी
बह आएगी
जिन्होंने
तौबा कर —रखी
है; कि कभी
न पीएंगे; उनके
कंठों में भी
उतर जाएगी।
किसी सच्चे
पीनेवाले के
पास अगर बैठ
गये, किसी
पियक्कडु के पास
अगर बैठ गये
तो तुम्हारी
तौबा के जीने
से ही उतर—उतरकर
तुम्हारे
हृदय तक शराब
पहुंच जाएगी।
तुम्हारी
कसमों को तोड़
देगी।
तुम्हारे
नियम—व्रत—उपवास
तोड़ देगी।
आनंद तुम्हें
बहा ले जाएगा।
बह जाओगे तभी
पता चलेगा कि
अरे,
कितनी दूर
निकल आये? बहुत
दूर निकल आये!
शील
हो तो शेष सब आ
जाता है। और
शील न हो तो
तुम जमाते रहो, बिठाते
रही सब साज—सामान,
बस कचरा ही
इकट्ठा कर रहे
हो। मुक्ति
नहीं होगी और
कचरे से दब
जाओगे। शील
मुक्ति है।
चरित्र बंधन
है।
आज
इतना ही।
'लगन
महूरत झूठ सब'
प्रवचनमाला
से
दिनांक
25 नवम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
thank you guruji
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