मेरा
स्वर्णिम भारत
(ओशो)
(उपनिषाद—सूत्रों,
संस्कृत
सुभाषितों
एवं वेद व ऋषि—वाक्यों
पर ओशो से
प्रश्नोत्तर—प्रवचनांश)
भारत
केवल एक भूगोल
या इतिहास का
अंग ही नहीं है।
यह सिर्फ एक
देश, एक राष्ट्र, एक जमीन का
टुकडा मात्र
नहीं है। यह
कुछ और भी है—एक
प्रतीक,एक
काव्य,
कुछ अदृश्य
सा—किंतु फिर
भी जिसे छुआ
जा सके। कुछ
विशेष ऊर्जा—तरंगों
से स्पंदित
है यह जगह,
जिसका दावा
कोई और देश
नहीं कर सकता।
......सदियों
से, सारी
दुनिया से
साधक इस धरती
पर आते रहे
है। यह देश
दरिद्र है,
उसके पास भेज
देनें को कुछ
भी नहीं है, पर जो
संवेदनशील है
उनके लिए इससे
अधिक समृद्ध
कौम इस पृथ्वी
पर कहीं और
नहीं है। यह
समृद्धि
आंतरिक है।
रजनीश
उपनिषाद से
उपनिषद
अनूठे है।
पृथ्वी पर
कहीं भी, किसी
काल, किसी
देश में वैसा
उपूर्व घटना
नहीं घटी है....।
.....उपनिषद
सदगूरू और
शिष्य के बीच
शून्य में
हुआ संवाद है।
आंखों—आंखों
में बात हो गई
है। ह्रदय से
ह्रदय पर गीत
गाया है न तो
गुरु ने कुछ
और न शिष्य
ने कुछ सुना
है, फिर भी गुरु
ने सब कह दिया
और शिष्य ने
सब सुन लिया
है.....।
इस
पुस्तक से
मनुष्य
में जो श्रेष्ठ
है वह सब
अदृश्य है और
मनुष्य में
जो भी सुगम है
वह सब अदृष्य
है। और मनुष्य
में जो दृश्य
दिखाई पड़ रहा
है, वह केवल
यंत्र है। और
यंत्र के भीतर
बैठा हुआ मालिक, उसका
उपभोक्ता इस
घर का निवासी
बिलकुल अदृश्य
है।........
जो
सामने टकराता
था, जिसको सारी
जिंदगी कहती
थी ‘है’
उसको हम पाँच
हजार साल से
कहते थे—यह
सिर्फ आभास है, यह वस्तुत:
नहीं,
सिर्फ सपना
है। तो जो
बिलकुल सपने
जैसा है,
जो दिखाई भी
नहीं
पड़ता......उसके
इंकार में
हमें कुछ देर
लग सकती है।
स्वर्ण
पाखी था जो
कभी और अब है
भिखारी जगता
का
.....इस
भूमि से सारी
मनुष्यता को
बचाने वाले धर्म
का अभ्युदय
हो सकता है,
पनुरोदय हो
सकता है।
अभागे होंगे
भारतवासी,
अगर वे लाभान्वित
न हो।
.....मगर
यह सूरज
उगेगा। यह उग
ही चुका
है।....यह काम जारी
रहेगा....। ....मैं
कहता हूं—आग
लगाओ इस लाश
को। जो मर गया
है। उस जलाओ,
ताकि हम नये
के लिए जगह
बना सकें।
इस
पुस्तक से
प्रसतावना:
(निरूपमा
सेवती)
उपनिषदों, वेदों
और अद्भुत ऋषि—ग्रंथों
के सूत्रों की
अनमोल
व्याख्या दी
है ओशो रजनीश
ने। और जो
लगभग तीस
वर्षों से
प्यारे ओशो
निरंतर अपने
प्रवचनों से
बोध—अमृत बरसा
रहे हैं—यह भी
अपने में एक
विरल घटना है।
परम प्रवचन
हैं। अपूर्व
है, अनूठी
है यह प्यारी
घटना—कि जब आज
का युग अपने
क्षुद्र
स्वार्थों
में, एक
अर्थहीन तेजी
में, जिए
चला जा रहा है—तो
ऐसे में संबुद्ध—पुरुष
ओशो रजनीश भी
हैं, जो
परम करुणावश
मनुष्य को
उसकी सच्ची
पहचान देने के
लिए अपनी
ईश्वरीय—ऊर्जा
निरंतर लुटा
रहे हैं—कभी
सद्वचनों
द्वारा तो कभी
युगानुकूल
साधना—सूत्रों
के रूप में।
और
अनूठी से
अनूठी है यह
बात कि जब
सांस्कृतिक
पूरब का
सिरताज भारत
अपनी संपदा
धूल में मिलने
दे रहा है, जड़
धर्म
व्याख्याओं
को केवल
नुमायशी चीज
बनाकर रख दिया
गया है, तो
ऐसे में ओशो
रजनीश ने
ऋषियों की
वाणी को नए
संदर्भों में,
उनके
अंतर्निहित
अर्थों को साफ—साफ
रोशन किया है।
सच ही है कि
ऋषियों की
वाणी को कोई
ऋषि ही उद्भासित
कर सकता है।
और ऋषि तो वही
है न, जिसने
अपने भीतर
भगवान को जान
लिया, अंतस, की परम
भगवत्ता का
बोध पा लिया।
ऋषि—ग्रंथों
की भाषा में
कहें, तो
चारों ओर बहते,
भीतर बहते 'ऋत् को
पहचान लिया—विराट
अस्तित्व के
कण—कण को
जोड़ने वाले
परम
अंतर्सूत्र
को खोज लिया, पा लिया।
तो
शाश्वत ऋचाओं
की जो
व्याख्याएं
ओशो रजनीश ने
दी हैं वे
स्वयं भी
ऋचाएं ही हैं।
जैसे कोई
निरंतर
प्रवाहित
अदृश्य ऊर्जा—
धारा—जो कभी भी—किसी
भी युग में
प्रकट होती है
तो केवल संबुद्ध—पुरुषों
की वाणी में
ही। धारा एक
ही है जो कभी
उपनिषदों में, परम—ग्रंथों
में उत्ताल
तरंगों सी
तरंगित हुई; तो आज
अंतःसलिला से
तीर्थमयी नदी
बनती हुई प्रवाहित
हुई है ऋचाओं
की इन लयबद्ध,
गहनतम
लेकिन
सुस्पष्ट
व्याख्याओं
में; जो इस
सामयिक
पुस्तक में आ
समायी हैं, संग्रहीत
हुई हैं।
ये
वचन शाश्वत तो
हैं ही, साथ
ही समसामयिक
भी हैं।
क्योंकि आज के
समय में जब
धर्म
सांप्रदायिकता
के जंजाल में
उलझ मोहरा भर
बनकर रह गया
है, धर्म
में राजनीति
की घुसपैठ के
कारण आंतरिक
नहीं, आतंकी
हो गया है, सतही
हो गया है—तो
यह प्रश्न
स्वयं ही अपनी
पूरी
विकरालता सहित
सामने आ खड़ा
होता है कि
मात्र बाहरी—यात्रा
मनुष्य को
आखिर ले जाएगी
तो कहां? .. यंत्र—मानवों
की दुनिया में
या कि परमाणु—युद्ध
से जली हुई
जीवन विहीन
धरती पर!
और
खूब मजे की
बात तो यह है
कि इन तमाम
खतरों से ऊब
पश्चिम में तो
फिर भी कभी कहीं
सच्चे अर्थों
में भीतर की
यात्रा में
उतर किसी
वास्तविक
धर्म को खोज
लेने की तपस
उठती है।
लेकिन भारत
में,
जहां हर कोई
स्वयं को
ज्ञानी, योगी
मान बैठता है,
गीता आदि
सुनकर ही—तो
वहा किसी खोज
की कोई
प्रेरणा ही
नहीं उठती।
क्योंकि सुने—सुनाए
सूत्र हैं तो
सच में ही बड़े
गूढ़, बड़े
अर्थवान
लेकिन उन्हें पढ़—सुनकर
ही यह मान
लेना कि 'हम
सब जानते हैं'—यह भी है वह
घातक अहंकार,
जो भारत की
छाती पर
चट्टान सा आ
जमा है—जो अंतस्—ऊर्जा
को तरल नहीं
होने देता, प्रवाहित
नहीं होने
देता।
और
जब प्रवाह में
ही जड़ता होगी
तो कैसे नए—नए
मार्गों पर
अन्वेषण के
फूल खिलेंगे—कैसे
प्रवाहित
होंगे बाहरी
सतह की
शुष्कता के
नीचे छिपे
करुणा के
स्रोत; जो सह—अनुभूति
की तरल ऊष्मा
से विलीन कर
देते हैं तमाम
दंगे—फसाद; जो ढहा देते
हैं कितने शोषण,
कितने
युद्ध, महायुद्ध!
तो
बहुत जरूरी है
भीतर की रोशनी
के साथ जीना! और
यह रोशनी 'ऋषि—वाक्य'
बहुत सहजता
से बरसा देते
हैं— ''सूत्र
का अर्थ होता
है जिसे पकड़कर
हम परमात्मा
तक पहुंच
जायें'' —यह
बताते हुए ओशो
रजनीश ने
द्वार खोले
हैं शाश्वत
सूत्रों की उन
सद्व्याख्याओं
के जो आज के
समय में बड़े
से बड़ा संकेत
दे जाती हैं—ऐसी
मनुष्य—चेतना
के निर्माण का,
जो संपूर्ण
हों—जिस में न
बाहर का आग्रह
हो न भीतर का, जहां मनुष्य
स्वयं के भीतर
भी उतरे और
साथ ही जुड़
जाए समष्टि के
वास्तविक
अंतर्सूत्र
से।
ओशो
रजनीश ने
स्वयं बताया है
कि केवल बाहर—बाहर
जीकर भीतर की
समझ पाने में
व्यक्ति असमर्थ
होता जाता है— ''ऋषि
भीतर की कहते
हैं और तुम
बाहर की समझते
हो, इसलिए
हर शास्त्र
गलत समझा गया
है। गलत
टीकाएं, व्याख्याएं
की गयी हैं।’' अथर्ववेद की
एक गूढ़ ऋचा के
अर्थ खोलते
हुए भी
उन्होंने यही
बताया है कि
उसमें
पार्थिव—लोक,
अंतरिक्ष—लोक,
ज्योतिर्मय—लोक
की जो बात हुई
है, वह
किन्हीं
भौगोलिक
लोकों से
संबंधित नहीं
है— ''सदियों
तक शब्दों की
भ्रांतियों
के दुष्परिणाम
होते रहे हैं—लोक
शब्द से ऐसा
लगता है कि
कहीं बाहर, कहीं दूर
यात्रा करनी
है।’' उन्होंने
आगे स्पष्ट
किया है कि ''ये लोक
तुम्हारी
चेतना के
भिन्न आयामों
के नाम है—यह
तुम्हारे
भीतर की बात
है, तुम्हारे
अंतर लोक की।’'
पार्थिव
लोक से ऊपर
उठकर
अंतरिक्ष लोक
तक आरोहण करने
की यह भारतीय
चेतना सच में
बड़ी ऊर्ध्वगामी
है, बडी
विराट है।
तभी
मनुष्य के अति
शरीरी होते
जाने के खतरे
को ओशो रजनीश
ने सीधा—साफ
बताया है।’'जो
शरीर में खोया
है वह शूद्र।
और अधिकतम लोग
शरीर में हैं।
शरीर ही उनका
सब कुछ है—भोजन,
वस्त्र, काम,
धन—दौलत, पद—प्रतिष्ठा—बस,
यहीं सब
समाप्त हो
जाता है।’' अंतर—ऊर्जा
को घुन की तरह
खानेवाली भोग—मानसिकता
को बखूबी
समझाया है ओशो
रजनीश ने।
संसार को
जगाते हुए
भारत को भी
झकझोरा है ताकि
वह अपनी
प्राचीन
संपदा को खोए
नहीं, जो
शाश्वत
मूल्यवत्ता
के कारण
अर्वाचीन भी है—
''उपनिषद्
अनूठे हैं।
पृथ्वी पर
कहीं भी किसी
काल, किसी
देश में वैसी
अपूर्व घटना
नहीं घटी है.......! ''
इतने
गहन प्रेम से
भरे प्यारे
शब्दों में
स्मरण किया है
भारत के ऋषि—ग्रंथों
को। याद आती
हैं वे
स्वर्णिम
बौछारें, जो
एक सुबह चारों
ओर से खुले
प्रवचन—हाल के
वर्तुलाकार
को आच्छादित
कर झीना सा आवरण
चमकाते हुए
बरस रही थीं
और पहुंचाए दे
रही थीं किसी
अद्भुत लोक में।
सुबह की नरम
धूप में घुली—मिली
बारिश सुनहरी
चमक से भरी
हुई थी—और
प्यारे ओशो
रजनीश की परम
रस बरसाती
वाणी का संगीत—वर्षा
की हर बूंद
गुनगुना उठी
थी।
अपार
प्रेम में
डूबे सुर
गुंजा गए थे
भारत संबंधी
वचन जो
उन्होंने
ब्रह्म—सूत्र
के
व्याख्याकार
की पत्नी के
संबंध में कहे
थे कि ' भारत
में ही घट
सकती है ऐसी
अपूर्व घटना'—घटना यही कि
जीवन—साथी के
साथ रहते हुए
भी उस स्त्री
की कभी ठीक से
बात न हो पायी
अपने साथी से।
और वर्षों की
प्रतीक्षा के
बाद मिलन की
घड़ी आयी—जब
ब्रह्म—सूत्र
की व्याख्या
का ग्रंथ
समाप्त हुआ—तब
उसके आत्म—अस्तित्व
को समझते हुए
उसे संन्यस्त
होने दिया—चुपचाप,
मौन, प्रेम
से सराबोर
होकर—समग्र
अस्तित्व में
डूबकर!
श्री
रजनीश ने बहुत
बार भारत
संबंधी
अपूर्व घटनाओं
को ऐसे
संपूर्ण
प्रेम से याद
किया है।
क्योंकि वे
सारी सृष्टि
के—संपूर्ण
अस्तित्व के
प्रेम में हैं।
और इसी पूरे
ब्रह्मांड का
ही एक अंश है
भारत भी। जो
अंश जहां भी
सम्यक् होगा, जो
बात 'ऋत्
की कसौटी पर
पूरी उतरती
होगी उसे वे
बड़े प्यार से '
अपना' कहेंगे।
जिस' अपनत्व'
को भाषा की
सीमाओं के
कारण 'मेरा'
कहना पड़ता
है, लेकिन 'मेरे—पन' की
सत्तात्मकता
की कोई कठोरता
उसमें नहीं
होती—उसमें
होती है गहनतम
प्रेम के
अपनत्व की
उमडाव भरी
तरलता।
यही
'ऋत् शब्द ही
बहुत बार
प्रयुक्त हुआ
है भारत के
स्वर्णिम
ग्रंथों में।
ओशो रजनीश ने,
इसकी तुलना
लाओत्सु के 'ताओ' से
की है। ऋग्वेद
के 'ऋतस्य
यथा प्रेत' के ऋत् का
भ्रांतिपूर्ण
अनुवाद
प्राकृत कर
दिया जाता है।
उन्होंने
बताया है कि
ऋत् का अर्थ
है : जो सहज है, स्वाभाविक
है, जिसे
आरोपित नहीं
किया गया।
इस
सूत्र के
संबंध में भी
उन्होंने बड़ी
प्रेमपूर्णता
से कहा है कि ''जैसे
हजारों गुलाब
के फूलों से
कोई इत्र निचोडे
ऐसा, हजारों
प्रबुद्ध
पुरुषों की
अनूभूति इस
सूत्र में आ
समायी है। इस
सूत्र को समझा
तो सब समझा।’'
ऋत्
को फिर धम्म
कहा है, धर्म
कहा है— '' धर्म
यानी जिसने सब
को धारण किया
है, धर्म
यानी जिसके
आधार पर हम जी
रहे हैं। उसको
ही पहचान लो।’
ध्यान' उसी
के आविष्कार
की कला है।
ध्यान कुदाली
है। हर एक के
भीतर ऋत् है।
जरा खोदो।
समाज ने बहुत—सी
मिट्टी
तुम्हारे ऊपर
जमा दी है।
पत्थर, मिट्टी
तोड़ डालों और
तुम्हारे
भीतर झरना फूट
पड़ेगा। वही
झरना तुम हो, तुम्हारा
स्वभाव है, तुम्हारी
निजता है। फिर
तुम जैसा भी
जीओगे वही ठीक
है, वही
सम्यक् है, वही पुण्य
है।’' स्पष्ट
कर दिया है कि ''ऋत् प्रज्ञा
का प्रकाश है,
चरित्र की
व्यवस्था
नहीं।’' और
प्रकाश ही तो
मूल्यवान है,
न कि आरोपित
व्यवस्था की
बनावट का
अंधकार।
वस्तुत:
ऋत् की पहचान
ही उस विराट
प्रेम तक पहुंचा
देती है— ''प्रेम
व्यक्तियों
पर केंद्रित
हो जाए तो
वासना हो जाता
है, वह
फैलता चला जाए—वृक्षों
पर फैले, पहाड़ों
पर फैले, तारों
पर फैले—फैलता
चला जाए। धीरे—धीरे
प्रेम रिश्ता—नाता
न रह जाए
बल्कि
तुम्हारा गुण
हो जाए। और
अंतत: गुण भी न
रह जाए।
तुम्हारी
सत्ता हो जाए,
तुम
प्रेमपूर्ण
हो जाओ—जिस
दिन तुम प्रेम
हो जाओगे उसी
दिन परमात्मा
का अनुभव है।’'
प्रेम
का विराट रूप
ही तो है कि एक
अंतर्राष्ट्रीय
बिरादरी का
जन्म हुआ एक
छोटे से आश्रम
में,
सद्गुरु
ओशो रजनीश की
आशीषमयता तले।
और तमाम
विरोधी
परिस्थितियों
के बावजूद गहन
सामूहिक—चेतना
अब भी मौजूद
है। क्योंकि यह
कोई पदार्थगत
बात नहीं, यह
साम्राज्य है
भाव—चेतना का,
आत्म—विस्तार
का, विराट
प्रेम का।
और
आरोपित चीजें
ओशो रजनीश की
प्यारी
दुनिया में
कहीं नहीं हैं, एकदम
नहीं हैं। ऋत्
के प्रतिकूल
होता है 'आरोपण'—जो एक विकृत
स्थिति है। जो
मनुष्य—चेतना
को भी खंडित
करती है। तभी
तो गजब की
घटना घटी है
कि लाखों लोग
ओशो रजनीश के
दिए उपहार नव
संन्यास में
रंग गए लेकिन
फिर भी
उन्होंने बता
दिया कि ''न
मैं आदेश देता,
न उपदेश
देता। मैंने
जो जाना है, जो मैंने
जीया है, उसे
सिर्फ
अभिव्यक्त कर
देता हूं।
मेरे
संन्यासियों
से मेरी कोई
अपेक्षा नहीं।
जैसे दीया
जलता है, अब
उसकी रोशनी का
तुम्हें जो
करना हो वह कर
लो। फूल खिलता
है, उसकी
गंध का
तुम्हें जो
करना हो कर लो।’'
मतलब साफ है
कि वे केवल
बोध देते हैं
जिससे जागरण
मिलता है। फिर
जागरण से जो
ठीक लगे वही
होता है
सम्यक् मार्ग।
हां
तो ओशो रजनीश
ने नयी चेतना
दी है, निष्प्राण
होती जा रही
भारतीय युवा—मानसिकता
को भी। जरा सी
भी निरीक्षण—दृष्टि
का प्रयोग
करने पर यह
बात सहज ही
जानी जा सकती
है, पिछले
दो दशकों में
आए परिर्वतन
देखकर! बीस वर्ष
पहले ' भजन'
केवल वृद्ध
लोगों की चीज
माना जाता था,
आज भजन—दौर,
भजन—संवेदना
प्रत्येक आयु
के व्यक्ति को
छू रही है।
क्योंकि
रूढ़ियों के
प्रति
विद्रोह की
चिंगारी के
साथ ही
उन्होंने सही
धर्म को जानने
की भाव— भूमि
भी दी है।
भारत
में जितने भी
महत्व के धर्म—दर्शन
उदित हुए, उन
सभी की सम्यक्
व्याख्याएं
दी हैं—पहली
बार एक ही
.सद्गुरु, प्यारे
सद्गुरु, ओशो,
रजनीश ने।
धर्म संपदा से
आपूरित
भारतीय—ग्रंथों
को केवल पढ़ते—सुनते
जाने से अलग
जीने की भी
जबरदस्त जीवन—ऊर्जा
दी है
उन्होंने।
क्योंकि उनकी
वैज्ञानिकता
और
रहस्यदर्शिता
को एक साथ
समझा दिया है।
और
भारत के
प्यारे
इतिहास में, मनुष्य—जाति
के सदियों—सदियों
के इतिहास में
यह अनूठी घटना
घटी है कि
लाखों लोग
पूरी तरह
समर्पित हैं
किसी सद्गुरु
के प्रति और
फिर भी उन्हें
सच्चे अर्थों
में मुक्त
किया है उनके
सद्गुरु ने।
इस पर सहज ही
पूरे आकाश में
इन
सद्पक्तियों
को गुंजा देने
को जी चाहता
है... 'बलिहारी
गुरु अपिकी, गोविंद दियो
बताय।’
जिस
त्वरा से इतना
प्यारा
समर्पण घटित
हुआ कि ईर्ष्या, वैमनस्य
भरी आंखें
उसके तेज
प्रकाश से जल—
भुन जाएं, उसी
तेजी से
उन्होंने
मुक्त किया है
अपने ही दिए
संन्यास—प्रतीकों
से कि— ''ये
तो मात्र
इशारे हैं परम
तक पहुंचने के।’'
फिर उनसे नए
रूप में मिली
संन्यस्त—चेतना
भी तो पूरब की
अनुपम देन है
सारे संसार को—
''साधना तो
जिन्दगी में
है। साधु की
क्या साधना है?
जंगल भाग गए
भगोडे हैं, पलायनवादी
हैं—इनकी
साधना क्या? साधना तो
वहां, जहां
चारों तरफ
लपटें हैं। जहां
ईर्ष्या, वैमनस्य,
अपमान, सम्मान
की भीड़ लगी
हुई है—वही
साधना है।’'
यही
नहीं, संन्यासी
की ऐसी ही
पहचान
उन्होंने
मैत्रेय उपनिषद्
के सूत्र
द्वारा भी दी
है—'कर्मत्यागान्न
संन्यासी' यानी
कर्म को छोड़
देना संन्यास
नहीं है। इसकी
व्याख्या
करते हुए
बताया है— ''पतंजलि
ने दो तरह की
समाधियां
कहीं—सबीज
समाधि और
निर्बीज
समाधि। सबीज
समाधि का अर्थ
है. अहंकार तो
भीतर है, लेकिन
बीज की तरह है।’'
—अगर अहंकार
है तो खोज ही
लेगा कुछ—न—कुछ
पीड़ित होने को।
बीज को तो
अवसर चाहिए।
संसार में
अवसर है। जहां
अवसर है वहीं
रहना उचित है,
क्योंकि
वहीं निर्बीज
समाधि फलित हो
सकती है।’' —संन्यास
तो बाजार में
ही परीक्षित
होगा, वही
कसौटी है। यह
जो भगोड़ा
संन्यासी है,
यह तो ऐसा
सोना है जो
कसौटियों से
भाग गया।’'
अपने
संन्यासी का
स्वरूप
योगवासिष्ठ
के एक सूत्र
द्वारा भी
व्यक्त किया
है—'वर्तमान
निमेषंतु
हसन्नेवानुनर्तंते।’
''हंसो, आनंदित
होओ!
मग्नचित्त
होकर जीओ! यह
तो पुराने
संन्यासी पर
लागू नहीं हो
सकता—'हंसते
हुए वर्तमान
में जीना।’ पुराना
संन्यासी तो
कहेगा कि यह
योगवासिष्ठ भी
भ्रष्ट है।’'
लेकिन
सूत्रों की
व्याख्याओं
के संबंध में
उन्होंने यह
भी स्पष्ट कर
दिया है कि ''मैं
जब किसी सूत्र
का समर्थन
करूं तो खयाल
रहे उसी सूत्र
का समर्थन कर
रहा हूं।’' अर्थात्
वे किसी विशेष
ग्रंथ का
समर्थन नहीं करते।
एक ग्रंथ का
कोई एक सूत्र
ठीक हो सकता
है तो दूसरा
नहीं।’'सोने
को सोना
कहूंगा; मिट्टी
को मिट्टी
कहूंगा। फिर
वह चाहे योगवासिष्ठ
में ही रखी
हुई मिट्टी
क्यों न हो।
और सोना अगर
कचरे में भी
पड़ा हो तो भी
उसे सोना ही
कहूंगा।’' —तभी
योगवासिष्ठ
के एक अन्य
सूत्र के लिए
उन्होंने कहा
है कि ''यह
आत्मसम्मोहन
का सूत्र है, आत्मजागरण
का नहीं।’'
सच
में ही दो टूक
कहते हुए
उन्होंने शाट्यायनीय
उपनिषद् के
गुरु—स्तुति
वाले सूत्र को
जहर भी कहा है
और अमृत भी।
और मनुस्मृति
द्वारा उगले
सामाजिक जहर
शूद्र वर्ण—व्यवस्था
पर करारी—सीधी
चोट की है।
वास्तव में
प्राचीन—ग्रंथों
का सार—सत्य
ही उनकी वाणी
में प्रवाहित
हुआ है। जो
गैर—जरूरी है
वह प्रवाह के
किनारे—किनारे
पड़े रह जाने
वाले पत्थरों
सा स्वयं ही छूट
गया है।
’बोध' की, सत्य की खरी
कसौटी पर
परखते हुए, ओशो रजनीश
ने जहां
मुंडकोपनिषद्
के एक जटिल सूत्र
की
विक्षिप्तता
को रेखांकित
किया है वहीं
पैंगल
उपनिषद् के
चार
महावाक्यों
का—जिनमें 'तत्वमसि' भी निहित है—महत्व
भी समझाया है।
इसी भांति
अनुपम
छादोग्य
उपनिषद्
श्वेताश्वतर
उपनिषद् शतपथ
ब्राह्मण, ऐतरेय
ब्राह्मण, श्रीमद्भागवत
आदि ऋषि—ग्रंथों
के सूत्रों, श्लोकों में
छिपे अनमोल
खजानों को
अपनी सद्व्याख्याओं
द्वारा
प्रकाशित
किया है।
और
एक बड़ी अद्भुत, एकदम
नयी गहरी
अर्थवत्ता दी
है, उपनिषद्
के 'तमसो
मा
ज्योतिर्गमय'
वाले सूत्र
को— ''पृथ्वी
के किसी
शास्त्र में,
किसी समय
में, किसी
काल में इतनी
अपूर्व
प्रार्थना को
जन्म नहीं
मिला। इसमें
पूरब की पूरी
मनीषा
सन्निहित है।’'
—और ऋषि—ग्रंथों
की तमाम
अर्थवत्ताओं
को प्रकाशित करने
के बावजूद
उन्होंने ऐसी
बात कह दी है
जो पूरब के
अतीत—ऐश्वर्य
से अति
प्रभावित
लोगों को एक
ऐतिहासिक
जोखम लग सकती
है अपनी क्रांतिकारिता
के कारण— ''मगर
शब्द कितने ही
प्यारे हों, शब्दों से
क्या हो सकता
है? इनमें
अनुभव का अर्थ
कौन डालेगा? वह तुम ही
डाल सकते हो।’'
बात
साफ है कि ओशो
रजनीश ने
शास्त्र से
ऊपर स्वयं के
अनुभव को
ज्यादा
अर्थवान कहा
है। वे मनुष्य—तत्व
को इतना बडा
सम्मान देते
हैं। तभी न कई—कई
बार बताया है
कि दृष्टि
आकाश की ओर हो, लेकिन
पांव धरती से
जुड़े रहें।
तभी तो ध्यान
संबंधी व्यावहारिक
तल का भी एक
परम संकेत
देते हैं अपने
सत्संगियों
को—
''भारत के
जितने अद्भुत
शास्त्र हैं,
वे सब एक
अपूर्व शब्द
से शुरू होते
है : 'अथातो'। जैसे
ब्रह्मसूत्र
भारत का
अद्भुत
शास्त्र है।
नहीं इसकी कोई
तुलना है
दुनिया में।
ब्रह्मसूत्र
शुरू होता है :
अथातो
ब्रह्मजिज्ञासा।’
अब हम
ब्रह्म की
जिज्ञासा
करें। ऐसा ही
नारद का
भक्तिसूत्र
है —'अथातो
भक्ति
जिज्ञासा।’ ' अब!' यह ' अब' इस
बात की खबर
देता है कि
तुम बहुत कुछ
कर चुके, अब
आओ असली बात
करें। इसके
पहले
तुम्हारे
सारे जीवन, अनंत—अनंत
जीवन गुजर
चुके। नहीं
उससे तुमने
कुछ पाया। अब ??
आओ
ठीक दिशा में
प्रयाण करें!
लेकिन—
''जगत भी सत्य
है, ब्रह्म
भी सत्य है।
देह भी सत्य, आत्मा भी
सत्य। जितनी
ज्योति सत्य
है, उतना
ही दीया भी
सत्य है। और
दोनों मिलकर
समग्र सत्य है।’'
—उनकी
सम्यक् वाणी
ने जो अमृत—रस
जाने कितने
प्यासे, छटपटाते
हृदयों पर बरसाया
है उसमें
अखंडता हर
कहीं
प्रवाहित है।
कई
संबुद्धों का
संस्पर्श जगा
जाती है यह
वाणी—फिर भी
इस परम—वाणी
के महासागर की
तरंगों पर जो
बह निकलता है
वह उस शाश्वत
अखंडता का
दर्शन सहज ही
पा लेता है—जिसे
वर्षों—वर्षों
की कोशिशें भी
नहीं पा सकतीं।
—वस्तुत: ओशो
रजनीश के साथ
ही प्रारंभ
होता है
प्राचीन बुद्धत्व
का नवीनतम
युग!
निरुपमासेवती
एम. ए.
(हिन्दी), नृत्यविशारद,
एच. पी. एस., एम
डी. ई. एच.
ए— 3
गीतांजलि, वासवानी
मार्ग,
सात बंगला, जेपी.
रोड, अंधेरी,
वरसोवा
बम्बई—400061
(निरुपमा
सेवती—उनका
लेखन —जीवन
श्वास में
पूरी तरह घुल
मिल गया है; और
नृत्य, संगीत
ही है अब उनके
जीवन की
गतिशीलता!
सुप्रसिद्ध
कथा —लेखिका 'निरुपम'
की 14 कहानी —संग्रहों
में कहानियां
संग्रहीत हुई
हैं। उनके
स्वयं के 6
कहानी —संग्रह
एवं 5 उपन्यास
प्रकाशित हुए
हैं। विभिन्न
पत्र —पत्रिकाओं
में भी अनेकों
लेख प्रकाशित।’नवनीत' पत्रिका
में प्रकाशित '
अध्यात्म, संगीत और
साम्यवाद' लेख,
जो श्री
रजनीश के
प्रति ही
समर्पित था—बहुचर्चित,
प्रशंसित
रहा।
1967 में 17
वर्ष की ही
उम्र से लेखन—कार्य
प्रारंभ कर
अल्पायु में
ही उन्होंने ख्याति
उपलब्ध की है।)
thank you guruji
जवाब देंहटाएं