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सोमवार, 17 अगस्त 2015

साधना--पथ--(प्रवचन--11)

निविषय—चेतना का जागरण—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 6 जून, 1964; संध्‍या।
मुछाला महावीर, राणकपुर।

चिदात्मन्!

मैं आपको देख कर कितना आनंदित हूं! सत्य के लिए आपकी जिज्ञासा और प्यास कितनी गहरी है। उसे मैं आपकी आंखों में देख रहा हूं उसे मैं आपकी श्वास—श्वास में अनुभव कर रहा हूं। और सत्य के लिए आंदोलिन आपके हृदय मेरे हृदय को भी आंदोलिन कर रहे हैं। और सत्य के लिए आपकी प्यास मुझे भी छू रही है। यह कितना आनंदपूर्ण है, और यह सब कितना रसमय और सुंदर है!
सत्य के लिए अभीप्सा से सुंदर, मधुर और प्रिय इस धरा पर कुछ भी नहीं है।
आनंद के इस अभूतपूर्व क्षण में मैं क्या आपसे कहूं! आपकी प्यास और प्रतीक्षा के इस क्षण में मैं क्या आपसे कहूं!

शब्द कितने ओछे, पार्थिव और अपारदर्शी हैं, यह ऐसे क्षणों में ही बोध होता है। शब्द कितने व्यर्थ और असमर्थ हैं और कितने शक्तिहीन, यह ऐसे क्षणों में ही ज्ञात होता है। कुछ कहने जैसा यदि न हो तो वे अवश्य कह पाते हैं, पर कुछ कहने जैसा हो तो एकदम अपर्याप्त पड़ जाते हैं।
यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि सत्य का बोध या आनंद की अनुभूति या सुंदर का साक्षात इतनी अपार्थिव घटनाएं हैं कि उन्हें कोई भी पार्थिव रूप देना संभव नहीं है। और पार्थिव रूप देने से ही वे अनुभूतियां मृत हो जाती हैं।
फिर हमारे हाथों में वह जीवित नहीं आता है जो कि जाना और जीया गया था, आती है केवल उसकी मृत देह। आत्मा पीछे ही छूट जाती है और शब्द जिसे सवांदित करते हैं, वह सत्य नहीं रह जाता है।
फिर मैं क्या कहूं?
क्या इस समय यह अच्छा नहीं था कि हम न कुछ बोलते, न कुछ सुनते, और चुप और मौन हो जाते—बिलकुल निःशब्द हो जाते— और उस मौन में, उस शून्य, साइलेंस में जागते और देखते— केवल जागते और देखते, वॉचफुल एंड सीइंग और उसे अनुभव करते—’जो है’ तो शायद जो मैं कहना चाहता हूं वह बिना कहे ही कह दिया जाता, और मैं कहने से बच जाता और आप सुनने से बच जाते, और सत्य भी कह दिया जाता; क्योंकि वह तो प्रत्येक के भीतर ही है।
यह संगीत, जिसकी कि हम खोज में हैं, प्रतिक्षण स्वयं की ही गहराइयों में निनादित हो रहा है।
सत्य की प्यास के क्षण यदि मौन के क्षण भी हों, तो वे प्रार्थना, स्टेट ऑफ प्रेयर की स्थिति में परिणत हो जाते हैं। प्रभु—प्यास और निःशब्द प्रतीक्षा ही—प्रार्थना है।
मनुष्य जिसकी खोज में है, वह उसके भीतर ही है। आप जिसे मुझसे पूछने और जानने आए हैं, वह सदा आपके साथ ही है। उसे न कभी आपने खोया है, न कभी खो सकते हैं, क्योंकि वही तो आपका अस्तित्व और होना, बीइंग है।
वह अकेली ही ऐसी संपदा है, जो कि खोई नहीं जा सकती है, क्योंकि वह आप स्वयं ही हैं। पर हम सब उसे ही खोज रहे हैं, जो खो नहीं सकता है, उसे ही खोज रहे हैं! कैसा मजा है, कैसी लीला है।
एक अदभुत प्रवचन मुझे याद आ रहा है। कब दिया, किसने दिया, यह कुछ भी मुझे याद नहीं। एक संध्या किसी मंदिर में बहुत भीड़ थी। बहुत से भिक्षु इकट्ठे थे। बड़ी प्रतीक्षा के बाद बोलनेवाले का आना हुआ।
वह बोलने उठा। और तभी किसी ने खड़े होकर पूछा’ सत्य क्या है?' एक अत्यंत जीवित और प्रतीक्षातुर सन्नाटा छा गया। जिससे पूछा गया था, वह जानता था, इसलिए उसके एक—एक शब्द का मूल्य था। पर जानते हैं, उसने क्या कहा? उसने बहुत जोर से कहा’ ओ, भिक्षुओं, ओ मॉन्‍व’स!' और उस अपूर्व शांति में उसके वे दो शब्द गंजे और सभी आंखें उसकी ओर उठीं, और सभी ने उसकी ओर देखा।
सभी मौन थे, निस्तब्ध थे और सजग, वाँचफुल थे। फिर बोलने वाला और कुछ नहीं बोला। उसकी बात पूरी हो गई थी। उसे जो कहना था, उसने कह दिया था। आप समझे कि उसने क्या कहा? कुछ भी तो नहीं कहा न! पर मेरे देखे उसने सब कह दिया। जो कहने जैसा है, उसके कहने में सब आ गया है। मैं भी वही कहना चाहता हूं। वही कहूंगा। वही केवल कहने जैसा है। जो शब्द नहीं कह पाते हैं, वही केवल कहने जैसा है।
उसने क्या कहा? उसने कहा था, सत्य को और कहीं मत खोजो और किसी से मत पूछो, वह है तो तुम्हारे भीतर है, अन्यथा कहीं भी नहीं है।
इसलिए, यद्यपि सत्य के संबंध में उससे पूछा गया था, पर सत्य के संबंध में तो उसने कुछ भी नहीं कहा, बल्कि पूछने वालों को ही उसने पुकारा था। उसने वैसे ही उन्हें पुकारा था, जैसे कोई किसी को निद्रा से पुकारता है। सत्य की खोज के लिए यही उत्तर है। नींद से जागना ही उसे पाना है, अन्यथा कोई मार्ग नहीं है।
हम निद्रा में हैं, इसलिए जो स्वयं के पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता— जो हम स्वयं हैं, उसका दर्शन नहीं होता है। और हम स्वप्न में दूर—दूर उसकी ही खोज करते हैं—जो खोजने वाले में ही है, उसकी ही खोज करते हैं। जैसे कस्तूरी—मृग कस्तूरी की खोज में भटकता है, ऐसी ही हमारी भटकन और तलाश है। पर कितना ही हम खोजें जो स्वयं में है, वह किसी भी खोज से नहीं मिलेगा, क्योंकि खोज से वह मिल सकता है जो बाहर है। स्वयं को उसी भांति की खोज से नहीं पाया जा सकता है।
वह खोजने से नहीं, जागने से मिलता है। इसलिए उसने पुकारा था। इसलिए महावीर पुकारते हैं, बुद्ध पुकारते हैं, कृष्ण पुकारते हैं, क्राइस्ट पुकारते हैं। वह बोलना नहीं, पुकारना है। वह शिक्षा नहीं, संबोधन है। मैं भी बोलना नहीं, पुकारना चाहता हूं।
क्या आप सुनेंगे? क्या आप आशा देंगे कि मैं आपकी नींद को तोडूं, और आपके स्वप्नों को खंडित करूं? यह भी हो सकता है कि जो स्वप्न आप देख रहे हों, वे बहुत सुखद हों, पर जो स्वप्न सुखद होते हैं वे ही घातक होते हैं; क्योंकि वे जागने नहीं देते हैं, और नींद की मादकता को और घना करते हैं।
मैं स्वयं जाग कर जो आनंद अनुभव कर रहा हूं उसमें आपको भी साझीदार बनाना चाहता हूं। इसलिए तय किया है कि आपको पुकारूंगा। आपसे बोलंगूा ही नहीं, आपको बुलाऊगा भी। यह पुकार आपकी तंद्रा तोड़ दे और आपके स्वप्नों के धुएं को तितर—बितर कर दे, तो मुझे क्षमा करना।
मैं असमर्थ हूं। स्वप्न तोड़े बिना सत्य के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। एक निद्रा हमें घेरे हुए है। इस निद्रा के बने रहते हमारा कुछ भी करना सार्थक नहीं है। उसके बने रहते हम जो भी करें, वह सब करना, वह सब जानना स्वप्न में है। सर्वप्रथम बात निद्रा से जागना है। शेष सब उसके बाद है। उसके पूर्व कुछ भी नहीं है। इस निद्रा में उपलब्ध किए विचार और साधे गए आचार, किन्हीं का भी कोई मूल्य मत मानना। वह सब समझना कि जैसे स्वप्न में ही हो रहा है।
मैं स्वयं ही अभी जब स्वयं को अज्ञात हूं तो मुझसे अभी कुछ भी सम्यक होना संभव नहीं है। मेरा ज्ञान, मेरा आचरण, अभी सभी मिथ्या होने को आबद्ध है। मेरी श्रद्धा, मेरी आस्था, मेरे विश्वास, सभी अभी अंधे होंगे।
मैं अभी किसी भी रास्ते पर चलूं वह मुझे सत्य तक नहीं ले जा सकेगा। अभी तो चलने का सवाल ही नहीं है। निद्रा में क्या कोई चलता है? वहां तो केवल चलने का स्वप्न ही होता है।
आत्म—अज्ञान ही वह निद्रा है जिसके संबंध में मैं आपसे कह रहा हूं। उससे जागना आवश्यक है। उससे जागने के लिए वह सब समझना जरूरी है जो कि आपको नहीं जागने दे रहा है। और धर्म को जानने के पहले उससे परिचित होना आवश्यक है जो कि धर्म नहीं है, और जिसे आप धर्म समझ कर पकड़े हुए हैं, और जो जागने की विधि की जगह, कहीं नींद लाने की ही दवा ज्यादा है!
मार्क्स ने धर्म को अफीम का नशा कहा है। धर्म तो नशा नहीं है, पर साधारणत: जिसे धर्म समझा जाता है, वह नशा ही है। मार्क्स भूल में था, क्योंकि उसने धर्म को नशा समझ लिया था। और आप भी भूल में हैं क्योंकि आपने नशे को ही धर्म समझ लिया है।
यह समझना जरूरी है कि क्या नशा है? और क्या धर्म है?
सबसे पहले उसका विचार करें जो कि धर्म नहीं है, और फिर उसका अनुभव करेंगे जो कि धर्म है। अधर्म का विचार ही काफी है। वह उतने से ही समाप्त हो जाता है। पर धर्म के लिए विचार पर्याप्त नहीं है। वह साधना से आता है।
मैं आपको एक बात कहूं कि अगर धार्मिक जीवन में, सच ही कहीं पहुंचना हो, तो कोई भी मान्यता लेकर नहीं चलना चाहिए। अगर सत्य को जानना हो तो कोई भी पूर्व—धारणा नहीं बनानी चाहिए। सत्य के पास हमें बिलकुल शांत और शून्य और बिना किसी धारणा, कनसेप्शन के पहुंचना चाहिए।
पूर्व— धारणाएं और पक्ष, दृष्टि को विकृत और धूमिल कर देते हैं। जो हम जानते हैं वह सत्य नहीं, अपने ही विचार का प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन होता है। उस भांति सत्य हम पर अवतरित नहीं होता, विपरीत हम ही उस पर आरोपित हो जाते हैं। सत्य के और हमारे बीच में कोई पक्ष, कोई सिद्धात न हो तो ही हम जो जानेंगे वह सत्य होगा। अन्यथा हम अपने चित्त—घेरे के बाहर नहीं हो पाते हैं, और वही जानते रहते हैं, जो कि जानना चाहते हैं। यह ज्ञान, नॉलेज नहीं है, कल्पना, इमेजिनेशन है।
मनुष्य में कल्पना की असीम शक्ति है। सत्य और उसके बीच यही दीवार है। सत्य, आत्मा, परमात्मा—इनके बाबत अगर पूर्व से कोई निर्णय ले लें, तो हमारा चित्त उस निर्णय को परिकल्पित कर लेगा, और हम जानेंगे कि हमने कुछ जाना है, जब कि हमने कुछ भी नहीं जाना है, और हम केवल कल्पना मात्र में विचरण किए हैं। यह सत्य का नहीं, स्वप्न का दर्शन है।
यह तो आप जानते ही हैं कि मन स्वप्न देखने में अपूर्वरूप से समर्थ है। जो नहीं है, उसे भी कामना दिखा देती है। वह मृग—मरीचिकाए पैदा कर देती है और जो है वह छिप जाता है, और जो नहीं है वह प्रत्यक्ष बन जाता है। पर आप कहेंगे कि स्वप्न तो निद्रा में होते हैं। निश्चय ही स्वप्न निद्रा में होते हैं। पर निद्रा साधी जा सकती है, और एक अर्थ में जागते हुए भी आप सोए हुए हो सकते हैं।
दिवास्वप्न भी तो हम देखते हैं। फिर यदि कोई निरंतर सत्य की या परमात्मा की किसी धारणा को करे और सोते—जागते उसकी कल्पना—स्मृति से भरा हुआ हो, तो निश्चय ही प्रक्षेप हो जाता है और साक्षात भी होता है, जो कि दिवास्वप्न का ही प्रगाढ़ रूप है। आंखों के सामने तो कुछ भी नहीं होता है, पर जिसे आंखों के पीछे बहुत दिन पोषित किया है, वही सामने आ जाता है। यही प्रक्षेपण है। स्वप्न इसी भांति दिखते हैं, तथाकथित पूर्व— धारणा आधारित सत्य के साक्षात भी ऐसे ही संभव होते हैं।
क्राइस्ट का भक्त क्राइस्ट को देख लेता है, कृष्ण का भक्त कृष्ण को देख लेता है, और किसी का भक्त और किसी को देख लेता है। यह सत्य का या परमात्मा का अनुभव नहीं है। यह अपनी ही कल्पनाओं का विस्तार है, क्योंकि सत्य और परमात्मा दो नहीं हो सकते हैं।
सत्य एक है, उसकी अनुभूति भी एक है। और जो इस एक को जानना चाहता है, उसे अनेक धारणाओं और कल्पनाओं को छोड़ना होता है। मैं किसी एक धारणा के पक्ष में अन्य धारणाओं को छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। मैं तो धारणा मात्र को छोड़ने को कह रहा हूं। ये धारणाएं ही धर्म के नाम पर प्रचलित और प्रतिष्ठित संप्रदायों के प्राण हैं, और इनके कारण ही संप्रदाय तो बहुत हैं, पर धर्म का होना असंभव हो गया है।
सत्य को जानना है, तो सत्य के संबंध में सब सिद्धांतों को छोड़ना आवश्यक है, क्योंकि उस निष्पक्ष, पूर्वाग्रह मुक्त, प्रिज्युडिस—मुक्त और अतएव, निर्दोष स्थिति में ही जो है, उसे जाना जा सकता है। जहां पूर्व धारणा नहीं है, जहां पूर्व कल्पना नहीं है, जहां पूर्व अपेक्षा, एक्सपेक्टेशन नहीं है, वहा स्वप्न निर्मित नहीं होते, वहां सत्य का दर्शन होता है।
सत्य—दर्शन की साधना वस्तुत:, सत्य—दर्शन की साधना न होकर, केवल स्वप्न मुक्ति की साधना है। सत्य को क्या जानना है, बस स्वप्न से ही मुक्त होना है। वह मुक्ति ही सत्य—दर्शन है। स्वप्नों में खोए हैं, इसलिए जो है, वह निरंतर उपस्थित होकर भी, अनुपस्थित जैसा है। सत्य तो है, क्योंकि जो है, उसी का नाम तो सत्य है। उसे कहीं से लाना नहीं है। वह तो नित्य उपस्थित ही है, पर स्वप्नों में खोए होने के कारण हम उसके प्रति उपस्थित नहीं हैं।
सत्य को नहीं, स्वयं को लाना है। यह लाना परमात्मा के प्रति और नये स्वप्न देखने से नहीं होगा। यह होगा सब स्वप्न छोड़ देने सें—जागने से। इसलिए मैंने कहा कि सत्य की कोई कल्पना नहीं करनी है, वरन जानना है कि चित्त जब किसी भी कल्पना में नहीं होता है, तब वह सत्य में होता है।
संसार सविकल्प चित्त का साक्षात है। सत्य निर्विकल्प चित्त का साक्षात है। सब धारणाएं, सब मान्यताएं, बिलीक्स विकल्प हैं, इसलिए वे सत्य का द्वार नहीं हैं। वे बाधाएं हैं और कहीं पहुंचाती नहीं, विपरीत अटकाती हैं। उनमें होकर नहीं, उनसे उठ कर सत्य का मार्ग जाता है।
इसलिए कोई विचार, कोई रूप, कोई आकार, कोई आस्था सत्य की मत बनाइए। जो आस्था बनाएगा, वह अनुभव हो जाएगी। पर वह अनुभव वास्तविक नहीं, मानसिक ही होता है। ऐसे अनुभव आत्मिक नहीं हैं। सत्य को जानने को अज्ञान में बताई गई सब मान्यताएं गलत हैं।
यह मत विचारिए कि सत्य क्या है, और कैसा है? ऐसा सब चिंतन अंधा है। वह वैसा ही है, जैसे कोई चक्षुहीन प्रकाश की कोई कल्पना करे। वह बेचारा क्या कल्पना करेगा? जब आंख ही नहीं है, तो प्रकाश के संबंध में कुछ भी सोच—विचार संभव नहीं है।
वह जो भी सोचेगा, आधार से ही गलत होगा। प्रकाश तो दूर, अंधेरे तक की कल्पना वह सही नहीं कर सकता है, क्योंकि उसे भी देखने को आंखें जो चाहिए। फिर चक्षुहीन क्या करे? मैं कहूंगा—प्रकाश का विचार न करे, आंख का उपचार करे। विचार नहीं, उपचार ही सहायक और सार्थक हो सकता है। पर मैं क्या देखता हूं कि उसे उपदेश दिए जा रहे हैं, प्रकाश का तत्वज्ञान समझाया जा रहा है, पर उपचार की किसी को कोई चिंता नहीं है।
और, यह देख कर जो और भी आश्चर्य होता है कि जो उपदेश में संलग्न हैं, प्रकाश के दर्शन उन्हें भी नहीं हुए हैं, और उन्होंने भी प्रकाश के संबंध में ही जाना है, प्रकाश को नहीं जाना है। यह मैं इसलिए कहता हूं कि यदि उन्होंने प्रकाश को जाना होता तो वे अवश्य ही उपदेश की व्यर्थता को समझ गए होते, और उनकी चिंता और हृदयता उपचार पर केंद्रित होती। आंख ठीक हो जाए तो प्रकाश का अपने आप अनुभव हो जाता है। वह तो निरंतर मौजूद है। केवल आंख की ही जरूरत है। स्मरण रहे कि यदि आंख नहीं हैं तो प्रकाश होकर भी नहीं हो जाता है।
यह कहना चाहूंगा कि आंख है तो प्रकाश है। आंख और प्रकाश ये दो शब्द बड़ी भिन्न दिशाओं में ले जाने में समर्थ हैं। प्रकाश की चितना तत्वमीमांसा, फिलॉसफी में ले जाती है। वह दिशा मात्र चिंतन की है। उसकी निष्पत्ति में अनुभूति नहीं आती है। वह कोरा विचार है।
उसमें चलना तो बहुत है, पर पहुंचना कहीं भी नहीं होता है। निष्कर्ष तो बहुत आते हैं, पर अंतिम निष्कर्ष नहीं आता है। ऐसा निष्कर्ष नहीं आता है जो समाधान हो। यह स्वाभाविक ही है। पानी का पूर्णतम विचार भी अल्पतम प्यास को कैसे मिटा सकता है? प्यास की परितृप्ति का रास्ता कुछ दूसरा है।
वह प्रकाश के विचार का नहीं, आंख की साधना का है। मैंने कहा, प्रकाश की चितना तत्व—मीमांसा, फिलॉसफी है, और अब मैं कहना चाहूंगा कि आंख की साधना धर्म, रिलिजन है। विचार से बौद्धिक निष्पत्तियां हाथ आती हैं, साधना से आत्मिक अनुभूतियां उपलब्ध होती हैं। एक पानी का विचार है, एक प्यास की परितृप्ति है। एक समस्या ही है, एक समाधान है।
मैं प्रत्येक से यही पूछता हूं—प्रकाश जानना चाहते हैं, या कि प्रकाश के संबंध में जानना चाहते हैं? सत्य को जानना है, या कि सत्य के संबंध में जानना है? पानी के संबंध में जानना है, या कि प्यास को मिटाना है
और आपके उत्तर पर निर्भर करेगा कि आप जान, नॉलेज के पिपासु हैं या कि मात्र जानकारी, इनफॉर्मेशन के। यह स्मरण रहे कि ये दोनों दिशाएं बिलकुल विपरीत हैं; एक अहंकार—विसर्जन पर ले जाती है और दूसरी अहंकार—संवर्धन पर। एक से आप सरल होते हैं और दूसरी से और जटिल हो जाते हैं। ज्ञान’ मैं' को मिटा देता है, जानकारी उसे और भर देती है। सब संग्रह, सब परिग्रह’ मैं' को भरते हैं, इसलिए अहं को उनकी आकांक्षा और लालसा होती है। विचार भी सूक्ष्म परिग्रह है। वह भी अहंकार का खाद्य है।
पंडितों में जो दंभ परिलक्षित होता है, वह अनायास और आकस्मिक नहीं है। वह विचार का सहज परिणाम है। विचार संगृहीत होते हैं। वे बाहर से आते हैं, वे अंतस से जाग्रत नहीं होते। इसलिए वे आवरण ही हैं, आत्मा नहीं हैं। अंधे व्यक्ति को प्रकाश की जानकारी बाहर से दी जा सकती है, पर दृष्टि की संवेदना उसमें भीतर से जगानी होती है। एक संग्रह है, दूसरी शक्ति है।
जानकारी, इनफॉर्मेशन और ज्ञान, नॉलेज में संग्रह और शक्ति का भेद है। संग्रह बाहर से आता, शक्ति भीतर से आती है। संग्रह शक्ति का भ्रम देता है। वह भ्रम बहुत प्रबल है। उस भ्रम से ही अहंकार परिपुष्ट होता है।
अहंकार शक्ति नहीं है, शक्ति का भ्रम है। वह अशक्ति ही है, क्योंकि सत्य की एक किरण मात्र उसे वाष्पीभूत कर देती है। इसलिए ही वास्तविक शक्ति सदा ही निर—अहंकार देखी जाती है।
मैं समझता हूं कि आप पांडित्य और प्रज्ञा के भेद को समझे होंगे? वह समझना बहुत जरूरी है। अज्ञान से भी बड़ी बाधा सत्य—साधक के मार्ग में मिथ्या—ज्ञान की है। पाडित्य मिथ्या—ज्ञान है। मिथ्या—ज्ञान का अर्थ है कि न जानते हुए भी जानना कि मैं जान रहा हूं।
दूसरों के विचार—संग्रह से यह भ्रांति सहज ही पैदा हो जाती है। शास्त्र—ज्ञान, शब्द—ज्ञान, इस भ्रांति को पैदा कर देता है। शब्द जानते—जानते लगता है कि सत्य जान लिया। शब्द स्मृति के हिस्से हो जाते हैं, और प्रत्येक प्रश्न का उत्तर ज्ञात मालूम होने लगता है। विवेक उधार विचारों से दब जाता है, और इसके पूर्व कि कोई समाधान अंतस में खोजा जा सके, विचारों का आवरण उत्तर दे देता है। इस भांति हम समस्या को जीने से बच जाते हैं और परिणामत: समाधान से वंचित हो जाते हैं।
समस्या मेरी है तो किसी दूसरे का उधार मांगा समाधान काम नहीं दे सकता है। समस्या मेरी है तो समाधान भी मेरा ही चाहना होगा। जीवन उधार नहीं मांगा जा सकता है, न ही जीवन का समाधान मांगा जा सकता है। समस्या के बाहर से समाधान नहीं आता है। वह समस्या के भीतर से ही विकसित होता है। समस्या अंतस में है, तो सत्य बाहर नहीं हो सकता है।
वह इसलिए सीखा नहीं जा सकता है। उसे तो उघाड़ना होगा, आविष्कृत करना होगा। वह शिक्षा से नहीं, साधना से आता है। शास्त्रविद होने और आत्मविद होने में यही मौलिक अंतर है। संसार के संबंध में शास्त्रविद होना पर्याप्त है। स्वयं के संबंध में वह प्रारंभ भी नहीं है।
संसार की, पदार्थ की, पर की केवल जानकारी ही हो सकती है। जो बाहर है, उसका ज्ञान नहीं हो सकता। जो भी हमसे बाहर है, उसे हम बाहर से ही जान सकते हैं। हम उसके कितने ही निकट हों, तब भी दूर ही होंगे। उससे दूरी कितनी ही कम हो, पर समाप्त नहीं होगी। तब हम जो’ स्व' नहीं है, उससे परिचित ही हो सकते हैं। उसका ज्ञान हमें नहीं हो सकता है। हम उसके संबंध में जान सकते हैं, उसे ही नहीं जान सकते हैं।
ज्ञान के लिए दूरी का न होना जरूरी है, तभी अंत:सत्ता में प्रवेश होता है। पर जिससे दूरी है, उससे दूरी मिट नहीं सकती है। दूरी जिससे नहीं है उससे ही मिट सकती है। दूरी भ्रम हो तो मिट सकती है, वास्तविक हो तो मिटना असंभव है। एक ही सत्ता है जिससे मेरी दूरी नहीं है, जिससे मेरी दूरी होनी असंभव भी है। वह सत्ता मैं स्वयं हूं। इस सत्ता का ही केवल जान हो सकता है। इस सत्ता से जो दूरी है, वह निश्चय ही भ्रम है, क्योंकि स्वयं से ही दूरी हो कैसे सकती है? मैं ही मेरे लिए एकमात्र केंद्र हूं जिसमें आत्यंतिक रूप से मेरा आंतरिक प्रवेश है, आंतरिक निवास और प्रतिष्ठा है। इस बिंदु को ही केवल जाना जा सकता है। मात्र इसका ही ज्ञान हो सकता है।
यह भी आपको स्मरण दिला दूं कि जिस भांति संसार ज्ञान का नहीं हो सकता है, केवल परिचय, एक्‍वेंटेंस और जानकारी ही हो सकती है— और ज्ञान केवल स्वयं का ही हो सकता है—उसी भांति आत्मा की कोई जानकारी नहीं हो सकती है, उसका केवल ज्ञान, नॉलेज ही हो सकता है। यही कारण है कि संसार के, पदार्थ के संबंध में शास्त्रविद होना ही पर्याप्त है, स्वयं के संबंध में नहीं है। विज्ञान, साइंस शास्त्र है। धर्म शास्त्र नहीं है। क्योंकि विज्ञान पदार्थ की जानकारी है, धर्म स्वयं का ज्ञान है। विज्ञान शास्त्र है, धर्म साधना है। मैं उपदेश नहीं देता हूं वह दिशा ही निरर्थक है। उपदेश नहीं, उपचार का प्रश्न है। सत्य के संबंध में सिद्धांत नहीं देने हैं। उनका कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य उस विधि का है, जिससे सत्य का दर्शन होता है।
विधि से उपचार होता है और आंख खुलती है। फिर प्रकाश को सोचना नहीं पड़ता है, उसका दर्शन होता है। आंख न हो तो सोचना पड़ता है, आंख हो तो सोचने की बात ही नहीं है। विचारणा, थिंकिंग अंधेपन में आंख की जगह काम करती है। आंख के आते ही वह व्यर्थ हो जाती है।
इससे मेरे देखे—विचार ज्ञान का नहीं, अज्ञान का लक्षण है। ज्ञान निर्विचार होता है। वह सोचना नहीं अंतर्दृष्टि है।
सत्य के संबंध में कोई भी सिद्धांत यह अंतर्दृष्टि, इनसाइट नहीं दे सकता है। वह बौद्धिक परिग्रह होकर ही रह जाता है। वह स्मृति का अंश बन जाता है, ज्ञान नहीं बन सकता। सिद्धांत सिखाए जा सकते हैं, पर उनसे किसी का व्यक्तित्व परिवर्तित नहीं होता। वस्त्रों की भांति वह ऊपर से भेद ला देते हैं, पर भीतर जो था वह वैसा का वैसा ही बना रहता है। अंतस उनसे अछूता ही रह जाता है, केवल आवरण नये रूप—रंग ले लेता है। इसी भांति व्यक्ति प्रज्ञा में तो जाग्रत नहीं होता, उलटे पाखंड, हिपोक्रेसी में पतित हो जाता है। उसके’ होने’ और’ जानने’ में एक खाई बन जाती है। वह होता कुछ है, जानता कुछ है। उसके दो व्यक्तित्व हो जाते हैं। अंतस और आवरण में विरोध और द्वैत आ जाता है। इसकी स्वाभाविक परिणति ही पाखंड है। ऐसा व्यक्ति जो उसके अंतस में नहीं है उसे दिखाने में लग जाता है, और जो है उसे छिपाने में लग जाता है। यह अभिनय धार्मिकता नहीं है। और इससे दूसरों का नहीं, स्वयं का ही जीवन नष्ट होता है।
यह आत्म—वंचना है। पर इसे ही धार्मिकता समझा और समझाया जाता है। सिद्धांतों की कोरी बौद्धिक शिक्षा केवल इतना ही कर सकती है। उससे आवरण परिवर्तन हो सकता है। आत्म—क्रांति के लिए कुछ और दिशा चाहिए। वह दिशा सिद्धांत की नहीं, साधना की है। वह दिशा उपदेश की नहीं, उपचार की है। वह दिशा सत्य के संबंध में विचारणा की नहीं, सत्य के प्रति आंख खोलने की है।
धर्म आंख खोलने की विधि है। आंख खुल जाए तो’ जो है' उसका दर्शन सहज है। पर सिद्धांतों से आंखें नहीं खुलती हैं, विपरीत जो उनकी मूर्च्छा में पड़े रहते हैं, वे भूल ही जाते हैं कि उनकी स्वयं की आंखें अभी बंद हैं और वे जिन सत्यों की चर्चा कर रहे हैं, वे उनकी स्वयं की नहीं, किन्हीं अन्य की आंखों से देखे गए हैं।
पर, दूसरे की आंख से देखा गया सत्य वैसा ही है जैसे दूसरे के द्वारा किया गया भोजन। उसकी सार्थकता किसी दूसरे के लिए कुछ भी नहीं है। सत्य की अनुभूति अत्यंत वैयक्तिक और निजी है और उसे कोई भी किसी दूसरे को हस्तांतरित नहीं कर सकता है।
वह ली—दी नहीं जा सकती है। उसे तो स्वयं ही पाना होता है। उसकी चोरी का या उसे दान में पाने का कोई मार्ग नहीं है। वह संपत्ति नहीं है, स्वत्व है।
सत्य संपत्ति नहीं, स्वत्व है, इसलिए अहस्तांतरणीय, अनट्रांसफरेबल है। आज तक उसे किसी ने भी किसी को नहीं दिया है और न भविष्य में ही कोई कभी उसे किसी को दे सकेगा। क्योंकि जिस दिन भी वह दिया जाएगा, उसी दिन सत्य नहीं, वस्तु हो जाएगा। वस्तु ली—दी जा सकती है। सत्य को स्वयं में और स्वयं से ही पाना होता है।
वह वस्तुत:’ पाना’ भी नहीं है, वह’ होना' है। वह हमारी स्व—सत्ता है। उसे सीखने का प्रश्न कहां है? उसे तो उघाड़ना है। सीखने, लर्निंग से तो और पर्तें बनती हैं, और स्व आच्छादित होता है। बाहर से जो भी सीख, टीचिंग मिलती है, वह आवृत्त ही करती है। बाहर से जो भी आएगा वह आवृत्त ही करेगा। बाहर से आवरण ही हो सकता है।
विचारों के वस्त्र’ स्व' को ढांकते जाते हैं। इन सब वस्त्रों को छोड़ कर नग्न होना होता है। स्वयं को जानने को सब वस्त्र छोड़ देने होते हैं। सीखना नहीं, अनसीखना, अनलर्निग करना होता है। बाहर से आए हुए अतिथि जब नहीं होते हैं, तब वह जाना जाता है, जो कि अतिथि, गेस्ट नहीं, आतिथेय, होस्ट है।
सत्य तो नहीं सिखाया जा सकता, पर सत्य को जानने की विधि सिखाई जा सकती है। आज इस विधि की कोई चर्चा नहीं है। सत्य की चर्चा तो बहुत है, पर सत्य—दर्शन की विधि की चर्चा नहीं है।
इससे बड़ी भूल नहीं हो सकती है।
यह तो प्राण को छोड़ देह को पकड़ लेने जैसा ही है। इसके परिणाम स्वरूप ही धर्म तो बहुत हैं, धर्म नहीं है। आज जो संप्रदाय धर्म के नाम पर चलते दिख रहे हैं, वे धर्म नहीं हैं। धर्म तो एक ही हो सकता है। उसमें विशेष नहीं लग सकता। वह तो विशेषण—शून्य है।
धर्म—’ यह' धर्म और’ वह’ धर्म नहीं हो सकता है। जहां’ यह' और’ वह’ है, वहां धर्म नहीं है।
सत्य के संबंध में सिद्धांतों के कारण, इन संप्रदायों का जन्म हुआ है। सिद्धांतों पर जब तक जोर और आग्रह है, तब तक संप्रदाय भी बने ही रहेंगे। सिद्धात शब्द—आग्रह है। इन्हीं शब्दों के केंद्र पर संप्रदाय बनते हैं। इन शब्दों पर संघर्ष चलता है और वैमनस्य और विद्वेष पलता है। ये शब्द मनुष्य को मनुष्य से तोड़ देते हैं। और कैसा आश्चर्य है कि विश्वास किया जाता है कि जो मनुष्य को मनुष्य से तोड़ रहा है, वह मनुष्य को परमात्मा से नहीं जोड़ सकेगा?
जो मनुष्य को मनुष्य से तोड़ता है, वह न तो उसे स्वयं से जोड़ सकता है और न सत्य से जोड़ सकता है। धर्म का सिद्धांतों में यह विघटन सिद्धांतों के कारण हुआ है, शब्दों के कारण हुआ है, विश्वासों और मान्यताओं के कारण हुआ है।
यह विघटन ज्ञान पर नहीं, अज्ञान पर आधारित है। सत्य का कोई संप्रदाय नहीं है, सब संप्रदाय सिद्धांतों के हैं। सत्य—बोध— संप्रदाय—मुक्ति बन जाता है। उसी क्षण धर्म में प्रवेश होता है—उस धर्म में, जो न हिंदू है, न जैन है, न ईसाई है, जो मात्र धर्म है, जो मात्र प्रकाश है, जो मात्र चैतन्य है।
धर्म स्वरूप—साक्षात है। संप्रदाय धार्मिक नहीं हैं। धर्म का संगठन से क्या वास्ता? सब संगठन, ऑर्गनाइजेशन राजनैतिक और सामाजिक हैं। संगठन मात्र सांसारिक हैं। वे एक दूसरे के भय पर खड़े होते हैं। और जहां भय है, वहां घृणा है। उसका जन्म सत्य से नहीं, सुरक्षा के लिए होता है। राष्ट्र हों, समाज हों, या संप्रदाय हों, वे सब भय से उत्पन्न होते हैं। और जो भय से उत्पन्न होता है, उसकी सार्थकता यही है कि वह दूसरों में भय उत्पन्न करे।
सारे संप्रदाय यही करते हैं। वे किसी को धार्मिक नहीं बनाना चाहते हैं। वे सब अपनी संख्या बढ़ाना चाहते हैं क्योंकि संख्या शक्ति है और सुरक्षा का आश्वासन है। वह आत्म—रक्षा भी है और आक्रमण की क्षमता भी है। संप्रदाय यही करते रहे हैं, कर रहे हैं, और करते रहेंगे। उन्होंने मनुष्य को धर्म से जोड़ा नहीं, तोड़ा है। धर्म एक सामाजिक घटना नहीं, एक अत्यंत वैयक्तिक क्रांति है। उसका दूसरों से कोई संबंध नहीं, स्वयं से ही संबंध है। व्यक्ति दूसरों के साथ क्या करता है इससे नहीं, उसका संबंध इस बात से है कि व्यक्ति स्वयं अपने साथ क्या करता है?
'मैं' अपने निपट अकेलेपन में, अपने साथ क्या करता हूं—इस बात का संबंध धर्म से है।
मैं अपने निपट अकेलेपन में क्या हूं यह जानना है। मैं क्या हूं यह जानना है। मेरी सत्ता का बोध ही मुझे धर्म में ले जाएगा। और कोई मार्ग धर्म में नहीं ले जाता है। कोई मंदिर, कोई मस्जिद, कोई शिवालय, कोई चर्च मुझे वहां नहीं पहुंचाते, जहां मैं हूं। वहा जाने के लिए बाहर की कोई सीढ़ियां पार नहीं करनी हैं। सब शिवालय बाहर हैं, सब मंदिर संसार के हिस्से हैं। उनके द्वार’ स्व’ तक पहुंचाने में समर्थ नहीं हैं। बाहर की गई कोई भी यात्रा, तीर्थयात्रा नहीं है। वह तीर्थ तो भीतर है जहां धर्म का अनुभव होता है और उस रहस्य का, उस आनंद का, उस सौंदर्य का, उस जीवन का उदघाटन होता है, जिसे पाए बिना सब दुख है, सब व्यर्थ है और सब अर्थहीन, मीनिंगलेस है।
मैंको जानने को बाहर नहीं, भीतर चलना है। पर मनुष्य की सारी इंद्रियां उसे बाहर ले जाती हैं। वे सब बहिर्गामी हैं। उसकी आंखें बाहर देखती हैं, उसके हाथ बाहर फैलते हैं, उसके चरण बाहर चलते हैं। उसका मन भी बाहर को ही प्रतिबिंबित और प्रतिध्वनित करता है। और यही कारण है कि उसने भगवान की मूर्तियां बना ली हैं, और सत्य के मंदिर खड़े कर लिए हैं। ताकि उसकी आंखें भगवान के दर्शन कर सकें और उसके चरण सत्य की यात्रा कर सकें! यह आत्म—वंचना स्वयं हमने कर ली है। और यह विष स्वयं हमने अपने हाथों पी लिया है और इस वंचना और इस विष की मूर्च्छा में हम अपना सारा जीवन व्यय और व्यतीत कर देते हैं। इंद्रियों की सुविधा के लिए हमने धर्म की, बाहर ही कल्पना और सृष्टि कर ली है, जब कि धर्म को जानने को हमें इंद्रियों के पीछे जाना जरूरी है। जो ज्ञान, जो चेतना इंद्रियों के माध्यम से जगत को जानती है, उसे ही स्वयं जानना हो तो इंद्रियां माध्यम नहीं हो सकतीं। जो जान रहा है, जो ज्ञान है, वह स्वयं ही ज्ञेय की भांति नहीं जाना जा सकता।
जो द्रष्टा है, जो दर्शन की शक्ति है, उसका स्वयं दृश्य की भांति दर्शन नहीं हो सकता है। विषय, सब्जेक्ट कभी भी विषयी, ऑब्जेक्ट में परिणत और पतित नहीं हो सकता। यह सरल सी, सीधी सी बात ध्यान में न आने से सारी भूल हो गई है। परमात्मा की खोज होती है, जैसे वह कोई बाह्य वस्तु है। उसे पाने के लिए पर्वतों और वनों की यात्राएं होती हैं, जैसे वह कोई बाह्य व्यक्ति है। यह सब कैसा पागलपन है? उसे खोजना नहीं है। जो खोज रहा है, उसे ही जानने से वह मिल जाता है। वह वहीं है। खोज में नहीं, खोजने वाले में ही वह छिपा है।
सत्य आपके भीतर है। सत्य मेरे भीतर है। वह कल आपके भीतर नहीं होगा, वह इसी क्षण अभी और यहीं आपके भीतर है। मैं हूं' यह होना ही मेरा सत्य है। और जो भी मैं देख रहा हूं वह हो सकता है कि सत्य न हो, हो सकता है कि वह सब स्वप्न ही हो, क्योंकि मैं स्वप्न भी देखता हूं और देखते समय वे सब सत्य ही ज्ञात होते हैं। यह सब दिखाई पड़ रहा संसार भी स्वप्न ही हो सकता है। आप मेरे लिए स्वप्न हो सकते हैं। हो सकता है कि मैं स्वप्न में हूं और आप उपस्थित नहीं हैं। लेकिन देखने वाला द्रष्टा असत्य नहीं हो सकता है। वह स्वप्न नहीं हो सकता है, अन्यथा स्वप्न देखना उसे संभव नहीं हो सकता था।
स्वप्न ही स्वप्न को नहीं देख सकता है। असत्य ही असत्य को नहीं जान सकता है। स्वप्न देखने को कोई चाहिए जो कि स्वप्न न हो। असत्य दर्शन को भी सत्य द्रष्टा अपरिहार्य है। इसलिए मैं कहता हूं कि मैं सत्य हूं। सत्य ही मेरा होना, बीइंग है। इसे खोजने कहीं नहीं जाना है। इसे अपने में ही खोज लेना है। कुआं खोदते हैं न? वैसे ही इसे भी खोद लेना है। मिट्टी की कुछ पर्तें जल—स्रोत को दबाए रहती हैं, उन पर्तों को हटाना भर है और जल—स्रोत उपलब्ध हो जाते हैं। स्वयं को कुछ’ पर' की, अन्य की पर्तों ने दबा रखा है। उन्हें तोड़ना भर है— और वह उपलब्ध हो जाता है जिसकी कि जन्म—जन्म से खोज थी। और जिसका पाना नहीं हो सका है, क्योंकि उसे हम दूर खोजते रहे हैं जब कि वह निकट ही है— जब कि वह वही है, जो कि खोज रहा है।
आत्मा का कुआं खोदना है। उस खुदाई का उपकरण ध्यान, मेडिटेशन है। ध्यान की कुदाली से स्वभाव पर बैठी’ पर— भाव’ की मिट्टी की पर्तें खोदनी होती हैं। यही उपचार है। इसकी ही मैं चर्चा करना चहता हूं। स्वभाव पर, मेरी स्व—सत्ता पर किसका आच्छादन है, यह जानना सबसे पहले जरूरी है। वह क्या है जो मुझे मुझसे ही छिपाए हुए है?
क्या आपको दिखता है? क्या आच्छादन समझ में नहीं आता है? जब भीतर जाते हैं तो किसे पाते हैं? ह्यूम ने कहा है, जब भी मैं भीतर गया तो विचारों और विचारों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया।उसे कोई आत्मा नहीं मिली। ऐसे तो आपको भी नहीं मिलेगी। वह आच्छादन से ही लौट आया था। वह उस खोल से ही लौट आया, जिसे तोड़ कर ही भीतर जो है उसके दर्शन किए जा सकते हैं।
जैसे कोई किसी झील पर जाए और उसकी सतह पर आच्छादित काई और पत्तों को देख कर लौट आए और कहे कि वहां तो कोई झील ही नहीं है—साधारणत ऐसा ही होता है। भीतर तो हम रोज आते हैं पर उन विचार—वस्त्रों को देख कर ही लौट आते हैं जो कि सतत ही वहां मौजूद हैं। विचार के अतिरिक्त आप कुछ नहीं जानते हैं। वही आपका संसार है। और जो केवल विचारों में ही जीता है, वही संसारी है। विचारों के पार किसी को जानना, धार्मिक होने का प्रारंभ है।
निर्विचार को जानना धर्म में प्रवेश है। यह हो सकता है कि आपके विचार संसार के न हों— आत्मा के हों, परमात्मा के हों, और आप भ्रम में हों कि आप धार्मिक हैं। मैं आपके इस भ्रम को तोड़ देना चाहता हूं। विचार मात्र आच्छादन है। विचार मात्र विकार है, क्योंकि विचार मात्र बाह्य है। कोई विचार स्व का नहीं होता है। स्व का विचार नहीं होता, ज्ञान होता है।
विचार का आच्छादन है—निर्विचार से उदघाटन हो सकता है। निर्विचारणा ध्यान है। जब कोई विचार नहीं होता है, तब हम उसे जानते हैं जो कि विचारों में छिपा हुआ था। बदलिया जब नहीं होती हैं, तब नीलाकाश प्रकट होता है।
मित्र! एक आकाश भीतर भी है—विचार की बदलियों को विदा करना है, ताकि वह जाना जा सके। यह हो सकता है, जब आंख शांत होती है और उसमें कोई विचार नहीं होता है, तभी उस मौन में, उस प्रगाढ़ निर्विचार, निर्विकल्प अवस्था में सत्य का दर्शन होता है।
क्या करें कि यह हो? एक बहुत सरल सी बात करनी है, पर वह बहुत कठिन मालूम होगी, क्योंकि हम बहुत जटिल हैं। एक अभी—अभी जन्मे बच्चे को जो संभव है, वही हमें असंभव हो गया है। फिर से जगत को और स्वयं को वैसे देखना है जैसा कि अभी—अभी जन्मा बच्चा देखता है। वह केवल देखता है और सोचता नहीं है। वह केवल देखता है। यह’ केवल देखना’, जस्ट सीइंग अदभुत है। यह वह रहस्य—कुंजी है जिससे सत्य का द्वार खोला जा सकता है।
मैं आपको देख रहा हूं। मैं बस देख रहा हूं। देखते हैं—मैं सोच नहीं रहा हूं। और तब एक अपूर्व सन्नाटा, एक जीवित शांति भीतर अवतरित हो जाती है। तब सब देखा जाता है, तब सुना जाता है। पर भीतर कुछ कंपित नहीं होता है और भीतर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है। विचार नहीं होते हैं और केवल दर्शन होता है।
सम्यक दर्शन, राइट अवेयरनेस ध्यान की विधि, मेथड ऑफ मेडिटेशन है। देखना है, मात्र देखना है, जो बाहर है उसे और जो भीतर है उसे भी। बाहर वस्तुएं हैं, भीतर विचार हैं। इन्हें देखना है, ऐसे ही जैसे हम सब निष्प्रयोजन उन्हें देख रहे हैं। कोई प्रयोजन नहीं है, बस देख रहे हैं। एक साक्षी, विटनेस मात्र हैं— तटस्थ साक्षी हैं। और देख रहे हैं। निरीक्षण, यह सजगता क्रमश: शांति में, शून्य में, निर्विचार में ले जाती है। करें और जानें। विचार जैसे—जैसे विलीन होते हैं, वैसे—वैसे चेतना जागती और जीवित होती है। कहीं भी, कभी भी— अनायास दो क्षण को रुक जाएं और देखें—सुनें—साक्षी हों— जगत के और स्वयं के। सोचें नहीं, साक्षी हों। और फिर देखें कि क्या होता है? फिर इस साक्षीभाव को फैलने दें। वह आपकी सारी शारीरिक और मानसिक क्रियाओं में उपस्थित हो। वह सतत साथ हो—वह होगा तो आप मिट जाएंगे और उसका दर्शन होगा जो कि वस्ततुः आप हैं।मैंतो मिट जाता है। और मैं मिल जाता है।
साक्षी—साधना में, तटस्थ द्रष्टा के निरीक्षण में, उस पर से जिसके कि हम साक्षी हैं, उस पर अनायास संक्रमण, ट्रांसफॉर्मेशन, परिवर्तन हो जाता है जो कि साक्षी है। विचारों को देखते—देखते ही उसकी झलकें आने लगती हैं जो कि उन्हें देख रहा है— और फिर जब एक दिन वह अपनी पूरी गौरव गरिमा में प्रकट होता है तो हमारी सारी दरिद्रता और दीनता मिट जाती है।
यह साधना ऐसी नहीं है कि कभी की— और मुक्त हुए। इसे तो सतत और अहर्निश साधना है। वह क्रमश: सारे समय पर व्याप्त हो जाती है। साक्षीभाव को करते—करते—उस भाव में जाते—जाते वह भाव घिर हो जाता है— वह भाव निरंतर उपस्थित रहने लगता है। उठते—बैठते, चलते—रुकते वह मौजूद रहता है। धीरे— धीरे जागते— सोते भी रहने लगता है। निद्रा में भी वह बना रहता है— और जब वह निद्रा में भी बना रहने लगे तो जानना चाहिए कि वह प्रगाढ़ हुआ है— और उसने भीतर प्रवेश किया है। अभी तो हम जागे हुए भी सोए हैं— तब सोए हुए भी जागे रहते हैं।
साक्षीभाव की साधना जागरण से विचार और निद्रा से स्वप्न को विसर्जित कर देती है। विचार और स्वप्न—शून्य चित्त अपनी तरंगें खो देता है। वह निस्तरंग होता है और निष्कंप— जैसे किसी सागर पर लहरें न हों और वह निस्तरंग, वेवलेस होता है और जैसे किसी ऐसे गृह में जहां हवा के झोंके नहीं होते हैं तो दीये की लौ निष्कंप होती है। इस स्थिति में जाना जाता है— जो स्व है, जो मैं हूं जो सत्य है। और प्रभु के भवन के द्वार खुलते हैं।
शास्त्रों में, शब्दों में नहीं, स्वयं में यह द्वार है। इसलिए मैंने कहा कि कहीं और न खोजें वरन अपने में ही खोजें। कहीं न जाएं, स्वयं में जाएं। इस जाने के लिए मैंने विधि को समझाया है।
आपकी आंखों में आई शांति और चमक से मैं समझता हूं कि आप समझे हैं। पर इतनी समझ ही काफी नहीं है। बौद्धिक समझ, अंडरस्टैंडिंग पर्याप्त नहीं है—वह नहीं, आत्मिक अनुभूति, एक्सपीरियंस ही सत्य जीवन का आधार बनती है। जो मैंने कहा है, उस दिशा में थोड़ा चल कर देखें—उस दिशा में थोड़ा होकर देखें। आप थोड़ा ही चलें तो बहुत पहुंच जाएंगे, क्योंकि सत्य की ओर चलने पर जैसे—जैसे हम उसके निकट होते हैं वैसे— वैसे उसका गुरुत्वाकर्षण, ग्रेविटेशन भी प्रभावी होता जाता है, और हम चलते ही नहीं, खींच भी लिए जाते हैं। और अंत में इतना स्मरण रखें कि जो चलते हैं वे अवश्य पहुंच जाते हैं।
परमात्मा की ओर उठाया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। मैं इस सत्य की गवाही दे रहा हूं।
मैं चाहता हूं कि एक क्षण भी उस सत्य को जानें और गवाही दे सकें। वह निकट ही है— केवल आपके जागने भर की बात है। सूरज तो निकला ही हुआ है— केवल आप आंख भर खोल लें! इस आंख खोलने के लिए ही मैं आमंत्रण दे रहा हूं—क्या आप मेरी पुकार सुनेंगे और आंख खोलेंगे? यह निर्णय और संकल्प आप पर और केवल आप पर ही निर्भर है।

आज इतना ही।

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