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रविवार, 23 अगस्त 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--3) प्रवचन--33

संभोग से ब्रह्मचर्य की यात्रा—(प्रवचन—तैतीसवां)

सूत्र—

48—काम—आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक
      अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए
अंत में उसके अंगारे से बचो।
49—ऐसे काम—आलिंगन में जब तुम्‍हारी इंद्रियां पत्‍तों
      की भांति कांपने लगें, उस कंपन में प्रवेश करो।
50—काम आलिंगन के बिना ऐसे मिलन का स्‍मरण
      करके भी रूपांतरण होगा।
51—बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो
      हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन हो जाओ।
52—भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी
      का स्‍वाद ही बन जाओ,और उसमें भर जाओ।


सिग्‍मंड फ्रायड ने कहीं कहा है कि मनुष्य मन के तल पर रुग्ण, बीमार जन्म लेता है। यह आधा ही सत्य है। मनुष्य रुग्ण नहीं पैदा होता, वह एक रुग्ण मनुष्यता में पैदा होता है। उसके चारों ओर का समाज देर—अबेर प्रत्येक मनुष्य को रुग्ण बना देता है। मनुष्य जन्म से सहज, सामान्य और प्रामाणिक होता है। लेकिन ज्यों ही वह नवजात शिशु समाज का अंग बनता है, उसकी रुग्णता आरंभ हो जाती है।
हम जैसे हैं, गा हैं। यह रुग्णता विभाजन से पैदा होती है—गहन विभाजन से। तुम एक नहीं हो, तुम दो हो, या अनेक भी हो। यह बात गहराई से समझने जैसी है, तभी हम तंत्र में गति कर सकते हैं। तुम्हारे भाव का केंद्र और विचार का केंद्र टूट गए हैं, दो भिन्न चीजें हो गए हैं। यही बुनियादी रोग है। तुम्हारे भाव का जीवन और विचार का जीवन अलग—अलग हो गए हैं। और तुमने अपने विचार के साथ तादात्म्य कर लिया है, भाव से तुम टूट गए हो।
और भाव विचार से ज्यादा असली है, ज्यादा यथार्थ है। भाव विचार से ज्यादा स्वाभाविक है। तुम अपने साथ भावपूर्ण हृदय लेकर आए थे। और विचार तो सिखाया गया है, संस्कारजन्य है। विचार तुम्हें समाज से मिला है। लेकिन तुम्हारा भाव दमन का शिकार हो गया है। तुम जब कहते हो कि यह मेरा भाव है तो दरअसल तुम विचार कर रहे हो कि यह मेरा भाव है। भाव मर गया है। और ऐसा कई कारणों से हुआ है।
जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो वह एक भाव—प्रवण प्राणी है, वह चीजों को महसूस करता है। वह अभी विचार करने वाला प्राणी नहीं हुआ है। वह सहज और स्वाभाविक है, वैसे ही जैसे प्रकृति की हर चीज, चाहे पेड़ हो या पशु, सहज और स्वाभाविक होती है। लेकिन हम उसे ढांचे में ढालने लगते हैं, संस्कारित करने लगते हैं। उसे अपने भावों को दबाना पड़ता है, क्योंकि भावों को दबाए बिना वह सदा कठिनाई में होगा। जब वह रोना चाहता है तो वह नहीं रो सकता, क्योंकि उसके मां—बाप को रोना पसंद नहीं है। रोने पर उसकी निंदा होगी, उसे प्रशंसा और प्रेम नहीं मिलेंगे। बच्चा जैसा है वैसा स्वीकृत नहीं है, उसे व्यवहार सीखना होगा।
उसे एक विशेष आदर्श जैसा और विशेष ढंग का व्यवहार सीखना होगा तो ही उसे प्रेम मिलेगा। जैसा वह है वैसा ही रहने पर उसे प्रेम नहीं मिल सकता। प्रेम पाने के लिए उसे कुछ नियमों का पालन करना होगा।
और वे नियम ऊपर से लादे जाते हैं, वे सहज—स्वाभाविक नहीं हैं। फलत: तुम्हारा सहज—स्वाभाविक जीवन दमित हो जाता है और अस्वाभाविक—अयथार्थ जीवन ऊपर से ओढ़ लिया जाता है। यही अयथार्थ, यही नकली तुम्हारा मन है। और एक क्षण आता है कि यह विभाजन, यह बंटाव इतना बड़ा हो जाता है कि उसे जोड्ने का कोई उपाय नहीं रह जाता, तुम बिलकुल भूल जाते हो कि तुम्हारा सच्चा स्वभाव क्या था—या है। तुम जो झूठा चेहरा ओढ़ लेते हो वही हो जाते हो और मौलिक चेहरा खो जाता है। और तुम मौलिक को महसूस करने से भी डरते हो, क्योंकि जिस क्षण तुम उसे महसूस करोगे, पूरा समाज तुम्हारे विरोध में हो जाएगा। इसलिए तुम खुद भी अपने सच्चे स्वभाव के विरोध में हो जाते हो।
और इससे चित्त की बहुत रुग्ण अवस्था पैदा होती है। तब तुम्हें पता नहीं रहता कि तुम क्या चाहते हो, तब तुम्हें मालूम नहीं रहता कि तुम्हारी असली, प्रामाणिक जरूरत क्या है। और तब तुम अप्रामाणिक जरूरतो के पीछे भागते हो। क्योंकि भावुक हृदय ही तुम्हें तुम्हारी प्रामाणिक जरूरतो का दिशा—बोध दे सकता है। जब प्रामाणिक जरूरतें दबा दी जाती हैं तो तुम उनकी जगह झूठी जरूरतें पैदा कर लेते हो। उदाहरण के लिए, तुम ज्यादा भोजन लेना शुरू कर दे सकते हो, तुम खाते चले जा सकते हो और तुम्हें कभी नहीं लगेगा कि तृप्ति हुई। यह दरअसल प्रेम की जरूरत है, भोजन की जरूरत यह नहीं है। लेकिन भोजन और प्रेम आपस में गहन रूप से जुड़े हैं। इसलिए जब प्रेम की मांग पूरी नहीं होती है या दमित हो जाती है तो उसकी जगह भोजन की झूठी जरूरत पैदा हो जाती है और तुम ज्यादा खाने लगते हो। और क्योंकि जरूरत झूठी है, इसलिए वह कभी पूरी नहीं हो सकती।
और हम झूठी जरूरतो के साथ जीते हैं। यही कारण है कि कभी तृप्ति नहीं मिलती है। तुम प्रेम पाना चाहते हो। वह बुनियादी जरूरत है, वह स्वाभाविक जरूरत है। लेकिन इस जरूरत को गलत आयाम में गतिमान किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, प्रेम की इस जरूरत को झूठा रूप मिल जाएगा, अगर तुम लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगे। अगर तुम चाहते हो कि दूसरे तुम पर ध्यान दें तो तुम राजनेता बन जा सकते हो। तब बड़ी भीड़ तुम पर ध्यान देने लगेगी। लेकिन तुम्हारी असली, बुनियादी जरूरत प्रेम पाने की है। इसलिए अगर सारा संसार भी तुम्हें ध्यान देने लगे तो भी यह बुनियादी जरूरत तृप्त नहीं होगी। वह जरूरत तो एक व्यक्ति भी पूरी कर सकता है, यदि वह तुम्हें सचमुच प्रेम करे, यदि वह प्रेम के कारण तुम पर ध्यान दे।
जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम उस पर ध्यान देते हो। प्रेम और ध्यान में गहरा तालमेल है। लेकिन अगर तुम प्रेम की मांग को दमित कर देते हो तो वह एक झूठी मांग का रूप ले लेती है। तब तुम दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगते हो। वह तुम्हें मिल भी जाए तो भी तृप्ति नहीं होगी, क्योंकि मांग झूठी है, स्वाभाविक और बुनियादी मांग के साथ उसका तालमेल नहीं रहा। व्यक्तित्व का यह विभाजन ही रोग है।
तंत्र बहुत क्रांतिकारी धारणा है—सबसे पुरानी और सबसे नयी। तंत्र सबसे पुरानी परंपराओं में एक है और साथ ही वह गैर—परंपरावादी भी है, परंपरा—विरोधी भी है। क्योंकि तंत्र कहता है कि जब तक तुम अखंड, पूर्ण और एक नहीं हो, तुम पूरे जीवन से चूक रहे हो। तुम्हें विभाजित, खंडित अवस्था में नहीं रहना है, तुम्हें अखंड होना है।
इस अखंड होने के लिए क्या करना है? तुम सोच—विचार कर सकते हो, लेकिन उससे कुछ नहीं होगा। सोच—विचार तो विभाजन की विधि है। विचार विश्लेषण है, वह बांटता है, तोड़ता है। भाव जोड़ता है, संश्लिष्ट करता है, भाव चीजों को एक करता है। तुम चिंतन, अध्ययन, मनन करते रह सकते हो, लेकिन उससे कुछ नहीं होगा। जब तक भाव के केंद्र पर नहीं लौटते, कुछ होने वाला नहीं है।
लेकिन वह बहुत कठिन काम है। क्योंकि जब हम भाव के केंद्र के बारे में विचार करते हैं तो भी बस विचार ही करते हैं। जब तुम किसी को कहते हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं तो ध्यान रहे, यह तुम्हारा विचार है या भाव है?
अगर वह विचार ही है तो तुम कुछ चूक रहे हो। भाव अखंड होता है, उसमें तुम्हारा शरीर, तुम्हारा मन, तुम्हारा सब कुछ संलग्न रहता है। विचार में सिर्फ तुम्हारी बुद्धि संलग्न होती है, वह भी समग्रता से नहीं, बस आशिक रूप से। वह एक भागता हुआ विचार हो सकता है, अगले क्षण वह विलीन हो सकता है। तुम्हारा एक खंड ही इसमें भाग लेता है और उसी से जीवन में बहुत दुख पैदा होता है। क्योंकि आशिक विचार से तुम ऐसे वादे करते हो जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता। तुम किसी को कह सकते हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और मैं तुम्हें सदा प्रेम करूंगा। यद्यपि वादे का यह जो दूसरा हिस्सा है वह कभी पूरा नहीं होगा, क्योंकि आशिक विचार ने यह वादा किया है। इसमें तुम्हारा समूचा अस्तित्व संलग्न नहीं हुआ है। और कल तुम क्या करोगे—जब यह खंड विदा हो जाएगा और उसके साथ विचार भी? अब यह वादा बंधन बन जाने वाला है।
सार्त्र ने कहीं कहा है कि हरेक वादा झूठा होने को बाध्य है। तुम पूरे नहीं हो, इसलिए तुम्हारे वादे की कीमत नहीं है। एक खंड वादा करता है। लेकिन जब वह खंड सिंहासन से उतर जाएगा और दूसरा उसकी जगह लेगा तो तुम क्या करोगे? तब कौन वादा पूरा करेगा? उससे ही पाखंड का जन्म होता है। क्योंकि जब तुम वादा पूरा करने का प्रयत्न करते हो, जब तुम उसे पूरा करने का ढोंग करते हो, तब सब कुछ झूठा हो जाता है।
तंत्र कहता है अपने भीतर भाव के केंद्र पर उतर आओ। यह उतरना कैसे हो? इसके लिए क्या किया जाए? अब मैं सूत्रों में प्रवेश करता हूं। ये सूत्र, इनमें से प्रत्येक सूत्र तुम्हें अखंड बनाने का प्रयत्न है।

 पहला सूत्र:
काम— आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।
ई कारणों से काम—कृत्य गहन परितृप्ति बन सकता है और वह तुम्हें तुम्हारी अखंडता पर, स्वाभाविक और प्रामाणिक जीवन पर वापस पहुंचा सकता है। उन कारणों को समझना होगा।
एक कारण यह है कि काम—कृत्य समग्र कृत्य है। इसमें तुम अपने मन से बिलकुल अलग हो जाते हो, छूट जाते हो। यह कारण है कि कामवासना से डर लगता है। तुम्‍हारा तादात्म्य मन के साथ है और काम अ—मन का कृत्य है। उस कृत्य में उतरते ही तुम बुद्धि—विहीन हो जाते हो, उसमें बुद्धि काम नहीं करती। उसमें तर्क की जगह नहीं है, कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। और अगर मानसिक प्रक्रिया चलती है तो काम—कृत्य सच्चा और प्रामाणिक नहीं हो सकता। तब आर्गाज्य संभव नहीं है, गहन परितृप्ति संभव नहीं है। तब काम—कृत्य उथला—उथला हो जाता है, मानसिक कृत्य हो जाता है। ऐसा ही हो गया है।
सारी दुनिया में कामवासना की इतनी दौड़ है, काम की इतनी खोज है, उसका कारण यह नहीं है कि दुनिया ज्यादा कामुक हो गई है। उसका कारण इतना ही है कि तुम काम—कृत्य को उसकी समग्रता में नहीं भोग पाते हो। इसीलिए कामवासना की इतनी दौड़ है। यह दौड़ बताती है कि सच्चा काम खो गया है और उसकी जगह नकली काम हावी है। सारा आधुनिक चित्त कामुक हो गया है, क्योंकि काम—कृत्य ही खो गया है। काम—कृत्य भी मानसिक कृत्य बन गया है। काम मन में चलता रहता है और तुम उसके संबंध में सोचते रहते हो।
मेरे पास अनेक लोग आते हैं और कहते हैं कि हम काम के संबंध में सोच—विचार करते हैं, पढ़ते हैं, चित्र देखते हैं, अश्लील चित्र देखते हैं। वही उनका कामानद है, सेक्स का शिखर अनुभव है। लेकिन जब काम का असली क्षण आता है तो उन्हें अचानक पता चलता है कि उसमें उनकी रुचि नहीं है। यहं। तक कि वे उसमें अपने को नपुंसक अनुभव करते हैं। सोच—विचार के क्षण में ही उन्हें काम—ऊर्जा का अहसास होता है, लेकिन जब वे कृत्य में उतरना चाहते हैं तो उन्हें पता चलता है कि उसके लिए उनके पास ऊर्जा ही नहीं है। तब उन्हें कामवासना का भी पता नहीं चलता, उन्हें लगता है कि उनका शरीर मुर्दा हो गया है।
उन्हें क्या हो रहा है? यही हो रहा है कि उनका काम—कृत्य भी मानसिक हो गया है। वे इसके बारे में सिर्फ सोच सकते हैं, वे कुछ कर नहीं सकते। क्योंकि कृत्य में तो पूरे का पूरा जाना पड़ता है। और जब भी पूरे होकर कृत्य में संलग्न होने की बात उठती है, मन बेचैन हो जाता है। क्योंकि तब मन मालिक नहीं रह सकता, तब मन नियंत्रण नहीं कर सकता।
तंत्र काम—कृत्य को, संभोग को तुम्हें अखंड बनाने के लिए उपयोग में लाता है। लेकिन तब तुम्हें इसमें बहुत ध्यानपूर्वक उतरना होगा। तब तुम्हें काम के संबंध में वह सब भूल जाना होगा जो तुमने सुना है, पढ़ा है; जो समाज ने, संगठित धर्मों ने, धर्मगुरुओं ने तुम्हें सिखाया है। सब कुछ भूल जाओ और समग्रता से इसमें उतरो। भूल जाओ कि नियंत्रण करना है। नियंत्रण ही बाधा है। उचित है कि तुम उस पर नियंत्रण करने की बजाय अपने को उसके हाथों में छोड़ दो, तुम ही उसके बस में हो रहो। संभोग में पागल की तरह जाओ। अ—मन की अवस्था पागलपन जैसी मालूम पड़ती है। शरीर ही बन जाओ, पशु ही बन जाओ। क्योंकि पशु पूर्ण है।
जैसा आधुनिक मनुष्य है, उसे पूर्ण बनाने की सबसे सरल संभावना केवल काम में है, सेक्स में है। क्योंकि काम तुम्हारे भीतर गहनतम जैविक केंद्र है। तुम उससे ही उत्पन्न हुए हो। तुम्हारी प्रत्येक कोशिका काम—कोशिका है। तुम्हारा समस्त शरीर काम—ऊर्जा की घटना।
यह पहला सूत्र कहता है: 'काम— आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।
इसी में सारा फर्क, सारा भेद निहित है। तुम्हारे लिए काम—कृत्य, संभोग महज राहत का, अपने को तनाव—मुक्त करने का उपाय है। इसलिए जब तुम संभोग में उतरते हो तो तुम्हें बहुत जल्दी रहती है, तुम किसी तरह छुटकारा चाहते हो। छुटकारा यह कि जो ऊर्जा का अतिरेक तुम्हें पीड़ित किए है वह निकल जाए और तुम चैन अनुभव करो। लेकिन यह चैन एक तरह की दुर्बलता है। ऊर्जा की अधिकता तनाव पैदा करती है, उत्तेजना पैदा करती है और तुम्हें लगता है कि उसे फेंकना जरूरी है। जब वह ऊर्जा बह जाती है तो तुम कमजोरी अनुभव करते हो और तुम उसी कमजोरी को विश्राम मान लेते हो। क्योंकि ऊर्जा की बाढ़ समाप्त हो गई, उत्तेजना जाती रही, इसीलिए तुम्हें विश्राम मालूम पड़ता है।
लेकिन यह विश्राम नकारात्मक विश्राम है। अगर सिर्फ ऊर्जा को बाहर फेंककर तुम विश्राम प्राप्त करते हो तो यह विश्राम बहुत महंगा है। और तो भी वह सिर्फ शारीरिक विश्राम होगा। वह गहरा नहीं होगा, वह आध्यात्मिक नहीं होगा।
यह पहला सूत्र कहता है कि जल्दबाजी मत करो और अंत के लिए उतावले मत बनो, आरंभ में बने रहो। काम—कृत्य के दो भाग हैं. आरंभ और अंत। तुम आरंभ के साथ रहो। आरंभ का भाग ज्यादा विश्रामपूर्ण है, ज्यादा उष्ण है। लेकिन अंत पर पहुंचने की जल्दी मत करो। अंत को बिलकुल भूल जाओ।
'काम—आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो।
जब तुम ऊर्जा से भरे हो तो उससे छुटकारे की मत सोचो, इस ऊर्जा की बाढ़ के साथ रहो। वीर्य—सख्‍लन की फिक्र मत करो, उसे पूरी तरह भूल जाओ। इस प्रेमपूर्ण आरंभ में पूरी तरह उपस्थित होकर स्थिर रहो। अपनी प्रेमिका या प्रेमी के साथ ऐसे हो रहो मानो दोनों एक हो गए हों। एक वर्तुल बना लो।
तीन संभावनाएं हैं। दो प्रेमी प्रेम में तीन आकार, ज्यामितिक आकार निर्मित कर सकते हैं। शायद तुमने इसके बारे में पढ़ा भी होगा, या कोई पुरानी कीमिया की तस्वीर भी देखी हो, जिसमें एक स्त्री और एक पुरुष तीन ज्यामितिक आकारों में नग्न खड़े हैं। एक आकार चतुर्भुज है, दूसरा त्रिभुज है और तीसरा वर्तुल है। यह एल्केमी और तंत्र की भाषा में काम—क्रोध का बहुत पुराना विश्लेषण है।
आमतौर से जब तुम संभोग में होते हो तो वहां दो नहीं, चार व्यक्ति होते हैं। वही है चतुर्भुज। उसमें चार कोने हैं, क्योंकि तुम दो हिस्सों में बंटे हो। तुम्हारा एक हिस्सा विचार करने वाला है और दूसरा हिस्सा भावुक हिस्सा है। वैसे ही तुम्हारा साथी भी दो हिस्सों में बंटा है। तुम चार व्यक्ति हो। दो नहीं, चार व्यक्ति प्रेम कर रहे हैं। यह एक भीड़ है और इसमें वस्तुत: प्रगाढ मिलन की संभावना नहीं है। इस मिलन के चार कोने हैं और मिलन झूठा है। वह मिलन जैसा मालूम पड़ता है, लेकिन मिलन है नहीं। इसमें प्रगाढ़ मिलन की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि तुम्हारा गहन भाग दबा पड़ा है, तुम्हारे साथी का गहन भाग दबा पड़ा है। केवल दो सिर, दो विचार की प्रक्रियाएं मिल रही हैं, भाव की प्रक्रियाएं अनुपस्थित हैं। वे दबी—छिपी हैं।
दूसरी कोटि का मिलन त्रिभुज जैसा होगा। तुम दो हो, आधार के दो कोने और किसी
क्षण अचानक तुम दोनों एक हो जाते हो—त्रिभुज के तीसरे कोने की तरह। किसी आकस्मिक क्षण में तुम्‍हारी दुई मिट जाती है और तुम एक हो जाते हो। यह मिलन चतुर्भुजी मिलन से बेहतर है, क्योंकि कम से कम एक क्षण के लिए ही सही, एकता सध जाती है। वह एकता तुम्हें स्वास्थ्य देती है, शक्ति देती है। तुम फिर युवा और जीवंत अनुभव करते हो।
लेकिन तीसरा मिलन सर्वश्रेष्ठ है। और यह तांत्रिक मिलन है। इसमें तुम एक वर्तुल हो जाते हो, इसमें कोने नहीं रहते। और यह मिलन क्षणभर के लिए नहीं है, वस्तुत: यह मिलन समयातीत है। उसमें समय नहीं रहता। और यह मिलन तभी संभव है जब तुम स्खलन नहीं खोजते हो। अगर स्खलन खोजते हो तो फिर यह त्रिभुजी मिलन हो जाएगा। क्योंकि सख्‍लन होते ही संपर्क का बिंदु, मिलन का बिंदु खो जाता है।
आरंभ के साथ रहो, अंत की फिक्र मत करो। इस आरंभ में कैसे रहा जाए? इस संबंध में बहुत सी बातें खयाल में लेने जैसी हैं। पहली बात कि काम—कृत्य को कहीं जाने का, पहुंचने का माध्यम मत बनाओ। संभोग को साधन की तरह मत लो, वह अपने आप में साध्य है। उसका कहीं लक्ष्य नहीं है, वह साधन नहीं है। और दूसरी बात कि भविष्य की चिंता मत लो, वर्तमान में रहो। अगर तुम संभोग के आरंभिक भाग में वर्तमान में नहीं रह सकते, तब तुम कभी वर्तमान में नहीं रह सकते, क्योंकि काम—कृत्य की प्रकृति ही ऐसी है कि तुम वर्तमान में फेंक दिए जाते हो।
तो वर्तमान में रही। दो शरीरों के मिलन का सुख लो, दो आत्माओं के मिलन का आनंद लो। और एक—दूसरे में खो जाओ, एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम्हें कहीं जाना है। वर्तमान क्षण में जीओ, जहां से कहीं जाना नहीं है। और एक—दूसरे में मिलकर एक हो जाओ। उष्णता और प्रेम वह स्थिति बनाते हैं जिसमें दो व्यक्ति एक—दूसरे में पिघलकर खो जाते हैं। यही कारण है कि यदि प्रेम न हो तो संभोग जल्दबाजी का काम हो जाता है। तब तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो, दूसरे में डूब नहीं रहे हो। प्रेम के साथ तुम दूसरे में डूब सकते हो।
आरंभ का यह एक—दूसरे में डूब जाना अनेक अंतर्दृष्टियां प्रदान करता है। अगर तुम संभोग को समाप्त करने की जल्दी नहीं करते हो तो काम—कृत्य धीरे— धीरे कामुक कम और आध्यात्मिक ज्यादा हो जाता है। जननेंद्रिया भी एक—दूसरे में विलीन हो जाती हैं। तब दो शरीर—ऊर्जाओं के बीच एक गहन मौन मिलन घटित होता है। और तब तुम घंटों साथ रह सकते हो। यह सहवास समय के साथ—साथ गहराता जाता है। लेकिन सोच—विचार मत करो, वर्तमान क्षण में प्रगाढ़ रूप से— विलीन होकर रहो। वही समाधि बन जाती है। और अगर तुम इसे जान सके, इसे अनुभव कर सके, इसे उपलब्ध कर सके तो तुम्हारा कामुक चित्त अकामुक हो जाएगा। एक गहन ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है। काम से ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है!
यह वक्तव्य विरोधाभासी मालूम पड़ता है कि काम से ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि हम सदा से सोचते आए हैं कि अगर किसी को ब्रह्मचारी रहना है तो उसे विपरीत यौन के सदस्य को नहीं देखना चाहिए उससे नहीं मिलना चाहिए। उससे सर्वथा बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। लेकिन उस हालत में एक गलत किस्म का ब्रह्मचर्य घटित होता है। तब चित्त विपरीत यौन के संबंध में सोचने में संलग्न हो जाता है। जितना ही तुम दूसरे से बचोगे उतना ही ज्यादा उसके संबंध में सोचने को विवश हो जाओगे। क्योंकि काम मनुष्‍य की बुनियादी आवश्यकता है, गहरी आवश्यकता है।
तंत्र कहता है कि बचने की, भागने की चेष्टा मत करो, बचना संभव ही नहीं है। अच्छा है कि प्रकृति को ही उसके अतिक्रमण का साधन बना लो। लड़ो मत, प्रकृति के अतिक्रमण के लिए प्रकृति को स्‍वीकार करो।
 अगर तुम्हारी प्रेमिका या तुम्हारे प्रेमी के साथ इस मिलन को अंत की फिक्र किए बिना लंबाया जा सके तो तुम आरंभ में ही बने रह सकते हो। उत्तेजना ऊर्जा है और शिखर पर जाकर तुम उसे खो सकते हो। ऊर्जा के खोने से गिरावट आती है, कमजोरी पैदा होती है। तुम उसे विश्राम समझ सकते हो, लेकिन वह ऊर्जा का अभाव है।
तंत्र तुम्हें उच्चतर विश्राम का आयाम प्रदान करता है। प्रेमी और प्रेमिका एक—दूसरे में विलीन होकर एक—दूसरे को शक्ति प्रदान करते हैं। तब वे एक वर्तुल बन जाते हैं और उनकी ऊर्जा वर्तुल में घूमने लगती है। वे दोनों एक—दूसरे को जीवन—ऊर्जा दे रहे हैं, नवजीवन दे रहे हैं। इसमें ऊर्जा का हास नहीं होता है, वरन उसकी वृद्धि होती है। क्योंकि विपरीत यौन के साथ संपर्क के द्वारा तुम्हारा प्रत्येक कोश ऊर्जा से भर जाता है, उसे चुनौती मिलती है।
और अगर तुम उस ऊर्जा के प्रवाह में, उसे शिखर तक पहुंचाए बिना, विलीन हो सके; अगर तुम काम—आलिंगन के आरंभ के साथ, उत्तप्त हुए बिना सिर्फ उसकी उष्णता के साथ रह सके तो वे दोनों उष्णताएं मिल जाएंगी और तुम काम—कृत्य को बहुत लंबे समय तक जारी रख सकते हो।
यदि सख्‍लन न हो, यदि ऊर्जा को फेंका न जाए तो संभोग ध्यान बन जाता है और तुम पूर्ण हो जाते हो। इसके द्वारा तुम्हारा विभाजित व्यक्तित्व अविभाजित हो जाता है, अखंड हो जाता है। चित्त की सब रुग्णता इस विभाजन से पैदा होती है। और जब तुम जुड़ते हो, अखंड होते हो तो तुम फिर बच्चे हो जाते हो, निर्दोष हो जाते हो।
और एक बार अगर तुम इस निर्दोषिता को उपलब्ध हो गए तो फिर तुम अपने समाज में उसकी जरूरत के अनुसार जैसा चाहो वैसा व्यवहार कर सकते हो। लेकिन तब तुम्हारा यह व्यवहार महज अभिनय होगा, तुम उससे ग्रस्त नहीं होगे। तब यह एक जरूरत है जिसे तुम पूरा कर रहे हो। तब तुम उसमें नहीं हो, तुम मात्र अभिनय कर रहे हो। तुम्हें झूठा चेहरा लगाना होगा, क्योंकि तुम एक झूठे संसार में रहते हो। अन्यथा संसार तुम्हें कुचल देगा, मार डालेगा।
हमने अनेक सच्चे चेहरों को मारा है। हमने जीसस को सूली पर चढ़ा दिया, क्योंकि वे सच्चे मनुष्य की तरह व्यवहार करने लगे थे। झूठा समाज इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता है। हमने सुकरात को जहर दे दिया, क्योंकि वे भी सच्चे मनुष्य की तरह पेश आने लगे थे। समाज जैसा चाहे वैसा करो, अपने लिए और दूसरों के लिए व्यर्थ की झंझट मत पैदा करो। लेकिन जब तुमने अपने सच्चे स्वरूप को जान लिया, उसकी अखंडता को पहचान लिया तो यह झूठा समाज तुम्हें फिर रुग्ण नहीं कर सकता, विक्षिप्त नहीं कर सकता।
'काम— आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।
अगर स्खलन होता है तो ऊर्जा नष्ट होती है और तब अग्नि नहीं बचती। तुम कुछ प्राप्त किए बिना ऊर्जा खो देते हो।
दूसरा सूत्र:

ऐसे काम— आलिंगन में जब तुम्हारी इंद्रियां पत्तों की भांति कांपने लगे उस कंपन में प्रवेश करो।
ब प्रेमिका या प्रेमी के साथ ऐसे आलिंगन में, ऐसे प्रगाढ़ मिलन में तुम्हारी इंद्रियां पत्तों की तरह कांपने लगें, उस कंपन में प्रवेश कर जाओ।
तुम भयभीत हो गए हो, संभोग में भी तुम अपने शरीर को अधिक हलचल नहीं करने देते हो। क्योंकि अगर शरीर को भरपूर गति करने दिया जाए तो पूरा शरीर इसमें संलग्न हो जाता है तुम उसे तभी नियंत्रण में रख सकते हो जब वह काम—केंद्र तक ही सीमित रहता है। तब उस पर मन का नियंत्रण रह सकता है। लेकिन जब वह पूरे शरीर में फैल जाता है तब तुम उसे नियंत्रण में नहीं रख सकते। तुम कांपने लगोगे, चीखने—चिल्लाने लगोगे। और जब शरीर मालिक हो जाता है तो फिर तुम्हारा नियंत्रण नहीं रहता।
हम शारीरिक गति का दमन करते हैं। विशेषकर हम स्त्रियों को दुनियाभर में शारीरिक हलन—चलन करने से रोकते हैं। वे संभोग में लाश की तरह पड़ी रहती हैं। तुम उनके साथ जरूर कुछ कर रहे हो, लेकिन वे तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं करतीं, वे निष्‍क्रिय सहभागी बनी रहती हैं। ऐसा क्यों होता है? क्यों सारी दुनिया में पुरुष स्त्रियों को इस तरह दबाते हैं?
कारण भय है। क्योंकि एक बार अगर स्त्री का शरीर पूरी तरह कामाविष्ट हो जाए तो पुरुष के लिए उसे संतुष्ट करना बहुत कठिन हो जाएगा। क्योंकि स्त्री एक श्रृंखला में, एक के बाद एक अनेक बार आर्गाज्म के शिखर को उपलब्ध हो सकती है, पुरुष वैसा नहीं हो सकता। पुरुष एक बार ही आर्गाज्म के शिखर—अनुभव को छू सकता है, स्त्री अनेक बार छू सकती है। स्त्रियों के ऐसे अनुभव के अनेक विवरण मिले हैं। कोई भी स्त्री एक श्रृंखला में तीन—तीन बार शिखर—अनुभव को प्राप्त हो सकती है, लेकिन पुरुष एक बार ही हो सकता है। सच तो यह है कि पुरुष के शिखर—अनुभव से स्त्री और—और शिखर—अनुभव के लिए उत्तेजित होती है, तैयार होती है। तब बात कठिन हो जाती है। फिर क्या किया जाए?
स्त्री को तुरंत दूसरे पुरुष की जरूरत पड़ जाती है। और सामूहिक कामाचार निषिद्ध है। सारी दुनिया में हमने एक विवाह वाले समाज बना रखे हैं। हमें लगता है कि स्त्री का दमन करना बेहतर है। फलत: अस्सी से नब्बे प्रतिशत स्त्रियां शिखर—अनुभव से वंचित रह जाती हैं। वे बच्चों को जन्म दे सकती हैं, यह और बात है। वे पुरुषों को तृप्त कर सकती हैं, यह भी और बात है। लेकिन वे स्वयं कभी तृप्त नहीं हो पातीं। अगर सारी दुनिया की स्त्रियां इतनी कड़वाहट से भरी हैं, दुखी हैं, चिड़चिड़ी हैं, हताश अनुभव करती हैं तो यह स्वाभाविक है। उनकी बुनियादी जरूरत पूरी नहीं होती।
कापना अदभुत है। क्योंकि जब संभोग करते हुए तुम कापते हो तो तुम्हारी ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होने लगती है, सारे शरीर में तरंगायित होने लगती है। तब तुम्हारे शरीर का अणु— अणु संभोग में संलग्न हो जाता है। प्रत्येक अणु जीवंत हो उठता है, क्योंकि तुम्हारा प्रत्येक अणु काम—अणु है।
तुम्हारे जन्म में दो काम—अणु आपस में मिले और तुम्हारा जीवन निर्मित हुआ, तुम्हारा शरीर बना। वे दो काम—अणु तुम्हारे शरीर में सर्वत्र छाए हैं। यद्यपि उनकी संख्या अनंत गुनी हो गई है, लेकिन तुम्हारी बुनियादी इकाई काम—अणु ही है। जब तुम्हारा समूचा शरीर कांपता है तो प्रेमी—प्रेमिका के मिलन के साथ—साथ तुम्हारे शरीर के भीतर प्रत्येक पुरुष—अणु स्त्री—अणु से मिलता है। यह कंपन यही बताता है। यह पशुवत मालूम पड़ेगा। लेकिन मनुष्य पशु है और पशु होने में कुछ गलती नहीं है।
यह दूसरा सूत्र कहता है : 'ऐसे काम—आलिंगन में जब तुम्हारी इंद्रियां पत्तों की भाति कांपने लगें।
मानो तूफान चल रहा है और वृक्ष कांप रहे हैं। उनकी जड़ें तक हिलने लगती हैं, पत्ता—पत्ता कांपने लगता है। यही हालत संभोग में होती है। कामवासना भारी तूफान है। तुम्हारे आर—पार एक भारी ऊर्जा प्रवाहित हो रही है। कंपो! तरंगायित होओ! अपने शरीर के अणु—अणु को नाचने दो! और इस नृत्य में दोनों के शरीरों को भाग लेना चाहिए। प्रेमिका को भी नृत्य में सम्मिलित करो। अणु— अणु को नाचने दो। तभी तुम दोनों का सच्चा मिलन होगा। और वह मिलन मानसिक नहीं होगा, वह जैविक ऊर्जा का मिलन होगा।
'उस कंपन में प्रवेश करो।
और कापते हुए उससे अलग— थलग मत रहो, दर्शक मत बने रहो। मन का स्वभाव दर्शक बने रहने का है। इसलिए अलग मत रहो, कंपन ही बन जाओ। सब कुछ भूल जाओ और कंपन ही कंपन हो रहो। ऐसा नहीं कि तुम्हारा शरीर ही कापता है, तुम पूरे के पूरे कांपते हो, तुम्हारा पूरा अस्तित्व कापता है। तुम खुद कंपन ही बन जाओ। तब दो शरीर और दो मन नहीं रह जाएंगे। आरंभ में दो कंपित ऊर्जाएं हैं और अंत में मात्र एक वर्तुल है। दो नहीं रहे।
इस वर्तुल में क्या घटित होगा? पहली बात कि तब तुम अस्तित्वगत सत्ता के अंश हो जाओगे। तुम एक सामाजिक चित्त नहीं रहोगे, अस्तित्वगत ऊर्जा बन जाओगे। तुम पूरी सृष्टि के अंग हो जाओगे। उस कंपन में तुम पूरे ब्रह्मांड के भाग बन जाओगे। वह क्षण महान सृजन का क्षण है। ठोस शरीरों की तरह तुम विलीन हो गए हो, तुम तरल होकर एक—दूसरे में प्रवाहित हो गए हो। मन खो गया, विभाजन मिट गया, तुम एकता को प्राप्त हो गए।
यही अद्वैत है। और अगर तुम इस अद्वैत को अनुभव नहीं करते तो अद्वैत का सारा दर्शनशास्त्र व्यर्थ है। वह बस शब्द ही शब्द है। जब तुम इस अद्वैत अस्तित्वगत क्षण को जानोगे तो ही तुम्हें उपनिषद समझ में आएंगे। और तभी तुम संतो को समझ पाओगे कि जब वे जागतिक एकता की, अखंडता की बात करते हैं तो उनका क्या मतलब है। तब तुम जगत से भिन्न नहीं होगे, उससे अजनबी नहीं होगे। तब पूरा अस्तित्व तुम्हारा घर बन जाता है। और इस भाव के साथ कि पूरा अस्तित्व मेरा घर है सारी चिंताएं समाप्त हो जाती हैं, फिर कोई द्वंद्व न रहा, संघर्ष न रहा, संताप न रहा।
उसको ही लाओत्सु ताओ कहते हैं, शंकर अद्वैत कहते हैं। तब तुम उसके लिए कोई अपना शब्द भी दे सकते हो। लेकिन प्रगाढ़ प्रेम—आलिंगन में ही उसे सरलता से अनुभव किया जाता है। लेकिन जीवंत बनो, कांपो, कंपन ही बन जाओ।

 तीसरा सूत्र:
काम— आलिंगन के बिना ऐसे मिलन का स्मरण करके भी रूपांतरण होगा।

क बार तुम इसे जान गए तो प्रेम—पात्र की, साथी की जरूरत भी नहीं है। तब तुम कृत्य का स्मरण कर उसमें प्रवेश कर सकते हो। लेकिन पहले भाव का होना जरूरी है। अगर भाव से परिचित हो तो साथी के बिना भी तुम कृत्य में प्रवेश कर सकते हो।
यह थोड़ा कठिन है, लेकिन यह होता है। और जब तक यह नहीं होता, तुम पराधीन रहते हो; एक पराधीनता निर्मित हो जाती है। और यह प्रवेश अनेक कारणों से घटित होता है। अगर तुमने उसका अनुभव किया हो, अगर तुमने उस क्षण को जाना हो जब तुम नहीं थे, सिर्फ तरंगायित ऊर्जा एक होकर साथी के साथ वर्तुल बना रही थी तो उस क्षण साथी भी नहीं रहता है, केवल तुम होते हो। वैसे ही उस क्षण तुम्हारे साथी के लिए तुम नहीं होते, वही होता है। वह एकता तुममें होती है, साथी नहीं रह जाता है। और यह भाव स्त्रियों के लिए सरल है, क्योंकि स्त्रियां आख बंद करके ही संभोग में उतरती हैं।
इस विधि का प्रयोग करते समय आख बंद रखना अच्छा है तो ही वर्तुल का आंतरिक भाव, एकता का आंतरिक भाव निर्मित हो सकता है। और फिर उसका स्मरण करो। आख बंद कर लो और ऐसे लेट जाओ मानो तुम अपने साथी के साथ लेटे हो। स्मरण करो और भाव करो। तुम्हारा शरीर कांपने लगेगा, तरंगायित होने लगेगा। उसे होने दो। यह बिलकुल भूल जाओ कि दूसरा नहीं है। ऐसे गति करो जैसे कि दूसरा उपस्थित है। शुरू में कल्पना से ही काम लेना होगा। एक बार जान गए कि यह कल्पना नहीं, यथार्थ है; तब दूसरा मौजूद है।
ऐसे गति करो जैसे कि तुम वस्तुत: संभोग में उतर रहे हो, वह सब कुछ करो जो तुम अपने प्रेम—पात्र के साथ करते; चीखो, डोलो, कांपो। शीघ्र वर्तुल निर्मित हो जाएगा। और यह वर्तुल अदभुत है। शीघ्र ही तुम्हें अनुभव होगा कि वर्तुल बन गया, लेकिन अब यह वर्तुल स्त्री—पुरुष: से नहीं बना है। अगर तुम पुरुष हो तो सारा ब्रह्मांड स्त्री बन गया है और अगर तुम स्त्री हो तो सारा ब्रह्मांड पुरुष बन गया है। अब तुम खुद अस्तित्व के साथ प्रगाढ़ मिलन में हो और उसके लिए दूसरा द्वार की तरह अब नहीं है।
दूसरा मात्र द्वार है। किसी स्त्री के साथ संभोग करते हुए तुम दरअसल अस्तित्व के साथ ही संभोग में होते हो। स्त्री मात्र द्वार है, पुरुष मात्र द्वार है। दूसरा संपूर्ण के लिए द्वार भर है। लेकिन तुम इतनी जल्दी में हो कि तुम्हें इसका एहसास नहीं होता। अगर तुम प्रगाढ़ मिलन में, सघन आलिंगन में घंटों रह सको तो दूसरा विस्मृत हो जाएगा, दूसरा समष्टि का विस्तार भर रह जाएगा।
अगर एक बार इस विधि को तुमने जान लिया तो अकेले भी तुम इसका प्रयोग कर सकते हो। और जब अकेले रहकर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हें एक नयी स्वतंत्रता प्रदान करेगा, वह तुम्हें दूसरे से स्वतंत्र कर देगा। तब वस्तुत: समूचा अस्तित्व दूसरा हो जाता है, तुम्हारी प्रेमिका या तुम्हारा प्रेमी हो जाता है। और फिर तो इस विधि का प्रयोग निरंतर किया जा सकता है और तुम सतत अस्तित्व के साथ आलिंगन में, संवाद में रह सकते हो।
और तब तुम इस विधि का प्रयोग दूसरे आयामों में भी कर सकते हो। सुबह टहलते हुए इसका प्रयोग कर सकते हो। तब तुम हवा के साथ, उगते सूरज के साथ, चांद—तारों के साथ, पेड़—पौधों के साथ लयबद्ध हो सकते हो। रात में तारों को देखते हुए इस विधि का प्रयोग कर सकते हो। चांद को देखते हुए कर सकते हो। तुम पूरी सृष्टि के साथ काम—भोग में उतर सकते हो, अगर तुम्हें इसके घटित होने का राज पता चल जाए। लेकिन मनुष्यों के साथ प्रयोग आरंभ करना अच्छा रहेगा। कारण यह है कि मनुष्य तुम्हारे सबसे निकट हैं, वे तुम्हारे लिए जगत के निकटतम अंश हैं। लेकिन फिर उन्हें छोड़ा जा सकता है, उनके बिना भी चलेगा। तुम छलांग ले सकते हो और द्वार को बिलकुल भूल सकते हो।
'ऐसे मिलन का स्मरण करके भी रूपांतरण होगा।
और तुम रूपांतरित हो जाओगे, तुम नए हो जाओगे।
तंत्र काम का उपयोग वाहन के रूप में करता है। वह ऊर्जा है, उसे वाहन या माध्यम बनाया जा सकता है। काम तुम्हें रूपांतरित कर सकता है। वह तुम्हें अतिक्रमण की अवस्था को, समाधि को उपलब्ध करा सकता है। लेकिन हम गलत ढंग से काम का उपयोग करते हैं। और गलत ढंग स्वाभाविक ढंग नहीं है। इस मामले में पशु भी हमसे बेहतर हैं, वे स्वाभाविक ढंग से काम का उपयोग करते हैं। हमारे ढंग बड़े विकृत हैं। काम पाप है, यह बात निरंतर प्रचार से मनुष्य के मन में इतनी गहरी बैठ गई है कि अवरोध बन गई है। उसके चलते तुम कभी अपने को काम में उतरने की पूरी छूट नहीं देते, तुम कभी उसमें उन्‍मुक्‍त भाव से नहीं प्रवेश करते। तुम्हारा एक अंश सदा अलग खड़े होकर उसकी निंदा करता रहता है।
और यह बात नयी पीढ़ी के लिए भी सच है। वे भला कहते हों कि हमारे लिए काम कोई समस्या नहीं रही, कि हम उससे दमित और ग्रस्त नहीं हैं, कि वह हमारे लिए टैबू नहीं रहा। लेकिन बात इतनी आसान नहीं है। तुम अपने अचेतन को इतनी आसानी से नहीं पोंछ सकते, वह सदियों—सदियों में निर्मित हुआ है। मनुष्य का पूरा अतीत तुम्हारे साथ है। हो सकता है कि तुम चेतन में काम की निंदा न करते होओ, तुम उसे पाप न भी कहो, लेकिन तुम्हारा अचेतन सतत उसकी निंदा में लगा है। तुम कभी समग्रता से काम—कृत्य में नहीं होते हो। सदा ही कुछ अंश बाहर रह जाता है। और वही बाहर रह गया अंश विभाजन पैदा करता है, टूट पैदा करता है।
तंत्र कहता है, काम में समग्रता से प्रवेश करो। अपने को, अपनी सभ्यता को, अपने धर्म को, संस्कृति और आदर्श को भूल जाओ। काम—कृत्य में उतरो, पूर्णता से, समग्रता से उतरो। अपने किसी भी अंश को बाहर मत छोड़ो। सर्वथा निर्विचार हो जाओ। तभी यह बोध होता है कि तुम किसी के साथ एक हो गए हो। और तब एक होने के इस भाव को साथी से पृथक किया जा सकता है और उसे पूरे ब्रह्मांड के साथ जोड़ा जा: सकता है। तब तुम वृक्ष के साथ, चांद—तारों के साथ, किसी भी चीज के साथ काम—क्रीड़ा में उतर सकते हो। एक बार तुम्हें वर्तुल बनाना आ जाए तो किसी भी चीज के साथ यह वर्तुल निर्मित किया जा सकता है—किसी भी चीज के बिना भी बनाया जा सकता है।
तुम अपने भीतर भी इस वर्तुल का निर्माण कर सकते हो; क्योंकि मनुष्य दोनों है, पुरुष और स्त्री दोनों है। पुरुष के भीतर स्त्री है और स्त्री के भीतर पुरुष है। तुम दोनों हो, क्योंकि दोनों ने मिलकर तुम्हें निर्मित किया है। तुम्हारा निर्माण स्त्री और पुरुष दोनों के द्वारा हुआ है, इसलिए तुम्हारा आधा अंश सदा दूसरा है। तुम बाहरी सब कुछ को पूरी तरह भूल जाओ और वह वर्तुल भीतर निर्मित हो जाएगा।
इस वर्तुल के बनते ही तुम्हारा पुरुष तुम्हारी स्त्री के आलिंगन में होता है और तुम्हारी भीतर की स्त्री भीतर के पुरुष के आलिंगन में होती है। और तब तुम अपने साथ ही आंतरिक काम—आलिंगन में होते हो। और इस वर्तुल के बनने पर ही सच्चा ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। अन्यथा सब ब्रह्मचर्य विकृति है और उससे समस्याएं ही समस्याएं जन्म लेती हैं। और जब यह वर्तुल तुम्हारे भीतर निर्मित होता है तो तुम मुक्त हो जाते हो।
तंत्र यही कहता है. कामवासना गहनतम बंधन है, लेकिन उसका उपयोग परम मुक्ति के लिए वाहन के रूप में किया जा सकता है। तंत्र कहता है : जहर को औषधि बनाया जा सकता है, लेकिन उसके लिए विवेक जरूरी है।
तो किसी चीज की निंदा मत करो, वरन उसका उपयोग करो। किसी चीज के विरोध में मत होओ, उपाय निकालों कि उसका उपयोग किया जाए, उसको रूपांतरित किया जाए। तंत्र जीवन का गहन स्वीकार है, समग्र स्वीकार है। तंत्र अपने ढंग की सर्वथा अनूठी साधना है, अकेली साधना है। सभी देश और काल में तंत्र का यह अनूठापन अक्षुण्ण रहा है। और तंत्र कहता है, किसी चीज को भी मत फेंको, किसी चीज के भी विरोध में मत जाओ, किसी चीज के साथ संघर्ष मत करो। क्योंकि द्वंद्व में, संघर्ष में मनुष्य अपने प्रति ही विध्वंसात्मक हो जाता है।
सभी धर्म कामवासना के विरोध में हैं, वे उससे डरते हैं। क्योंकि कामवासना महान ऊर्जा है। उसमें उतरते ही तुम नहीं बचते हो, उसका प्रवाह तुम्हें कहीं से कहीं बहा ले जाता है। यही भय का कारण है। इससे ही लोग अपने और इस प्रवाह के बीच एक दीवार, एक अवरोध खड़ा कर लेते हैं, ताकि दोनों बंट जाएं, ताकि यह प्रबल शक्ति तुम्हें अभिभूत न करे, ताकि तुम उसके मालिक बने रहो।
लेकिन तंत्र का कहना है—और केवल तंत्र का कहना है—कि यह मालकियत झूठी होगी, रुग्ण होगी, क्योंकि तुम सच में इस प्रवाह से पृथक नहीं हो सकते। वह प्रवाह तुम हो। सभी विभाजन झूठे होंगे, सभी विभाजन थोपे हुए होंगे। बुनियादी बात यह है कि विभाजन संभव ही नहीं है, क्योंकि तुम्हीं वह प्रवाह हो, तुम उसके अंग हो, उसकी एक लहर हो। संभव है कि तुम बर्फ की तरह जम गए हो और इस तरह तुमने अपने को प्रवाह से अलग कर लिया है, लेकिन वह जमना, वह अलग होना मृतवत होना है। सारी मनुष्यता मृतवत हो गई है। कोई भी आदमी वास्तव में जीवित नहीं है। तुम नदी में बहते हुए मुर्दों जैसे हो। पिघलो!
तंत्र कहता है : पिघलने की चेष्टा करो। हिमखंड की तरह मत जीओ, पिघलो और नदी के साथ एक हो जाओ। नदी के साथ एक होकर, नदी में विलीन होकर बोधपूर्ण होओ और तब रूपांतरण घटित होगा। तब रूपांतरण है। संघर्ष से नहीं, बोध से रूपांतरण घटित होता है।
ये तीन विधियां बहुत वैज्ञानिक विधियां हैं। लेकिन तब काम या सेक्स वही नहीं रहता है जो तुम उसे समझते हो, तब वह कुछ और ही चीज है। तब सेक्स कोई क्षणिक राहत नहीं है, तब वह ऊर्जा को बाहर फेंकना भर नहीं है। तब इसका अंत नहीं आता, तब वह ध्यानपूर्ण वर्तुल बन जाता है।

 इससे संबंधित कुछ और विधियां :

बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है उस हर्ष में लीन होओ। उस हर्ष में प्रवेश करो और उसके साथ एक हो जाओ। किसी भी हर्ष से काम चलेगा।
ह एक उदाहरण भर है।
'बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है।'
तुम्हें अचानक कोई मित्र मिल जाता है जिसे देखे हुए बहुत दिन, बहुत वर्ष हो गए है। और तुम अचानक हर्ष से, आह्लाद से भर जाते हो। लेकिन अगर तुम्हारा ध्यान मित्र पर है, हब यात्रा
पर नहीं तो तुम चूक रहे हो। और यह हर्ष क्षणिक होगा। तुम्हारा सारा ध्यान मित्र पर केंद्रित होगा, तुम उससे बातचीत करने में मशगूल रहोगे, तुम पुरानी स्मृतियों को ताजा करने में लगे रहोगे। तब तुम इस हर्ष को चूक जाओगे और हर्ष भी विदा हो जाएगा। इसलिए जब किसी मित्र से मिलना हो और अचानक तुम्हारे हृदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस करो, उसके साथ एक हो जाओ। और तब हर्ष से भरे हुए और बोधपूर्ण रहते हुए अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि पर रहने दो और तुम अपने सुख के भाव में केंद्रित हो जाओ।
अन्य अनेक स्थितियों में भी यह किया जा सकता है। सूरज उग रहा है और तुम अचानक अपने भीतर भी कुछ उगता हुआ अनुभव करते हो। तब सूरज को भूल जाओ, उसे परिधि पर ही रहने दो और तुम उठती हुई ऊर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो जाओ। जब तुम उस पर ध्यान दोगे, वह भाव फैलने लगेगा। और वह भाव तुम्हारे सारे शरीर पर, तुम्हारे पूरे अस्तित्व पर फैल जाएगा। और बस दर्शक ही मत बने रही, उसमें विलीन हो जाओ।
ऐसे क्षण बहुत थोड़े होते हैं जब तुम हर्ष या आह्लाद अनुभव करते हो, सुख और आनंद से भरते हो। और तुम उन्हें भी चूक जाते हो, क्योंकि तुम विषय—केंद्रित होते हो। जब भी प्रसन्नता आती है, सुख आता है, तुम समझते हो कि यह बाहर से आ रहा है।
किसी मित्र से मिलते हो, स्वभावत: लगता है कि सुख मित्र से आ रहा है, मित्र के मिलने से आ रहा है। लेकिन यह हकीकत नहीं है। सुख सदा तुम्हारे भीतर है। मित्र तो सिर्फ परिस्थिति निर्मित करता है। मित्र ने सुख को बाहर आने का अवसर दिया और उसने तुम्हें उस सुख को देखने में हाथ बंटाया।
यह नियम सुख के लिए ही नहीं, सब चीजों के लिए है, क्रोध, शोक, संताप, सुख, सब पर लागू होता है। ऐसा ही है। दूसरे केवल परिस्थिति बनाते हैं जिसमें जो तुम्हारे भीतर छिपा है वह प्रकट हो जाता है। वे कारण नहीं हैं, वे तुम्हारे भीतर कुछ पैदा नहीं करते हैं। जो भी घटित हो रहा है वह तुम्हें घटित हो रहा है। वह सदा है। मित्र का मिलन सिर्फ अवसर बना, जिसमें अव्यक्त व्यक्त हो गया, अप्रकट प्रकट हो गया।
जब भी यह सुख घटित हो, उसके आंतरिक भाव में स्थित रहो और तब जीवन में सभी चीजों के प्रति तुम्हारी दृष्टि भिन्न हो जाएगी। नकारात्मक भावों के साथ भी यह प्रयोग किया जा सकता है। जब क्रोध आए तो उस व्यक्ति की फिक्र मत करो जिसने क्रोध करवाया, उसे परिधि पर छोड़ दो और तुम क्रोध ही हो जाओ। क्रोध को उसकी समग्रता में अनुभव करो, उसे अपने भीतर पूरी तरह घटित होने दो।
उसे तर्क—संगत बनाने की चेष्टा मत करो, यह मत कहो कि इस व्यक्ति ने क्रोध करवाया। उस व्यक्ति की निंदा मत करो। वह तो निमित्त मात्र है। उसका उपकार मानो कि उसने तुम्हारे भीतर दमित भावों को प्रकट होने का मौका दिया। उसने तुम पर कहीं चोट की और वहां एक घाव छिपा पड़ा था। अब तुम्हें उस घाव का पता चल गया। अब तुम वह घाव ही बन जाओ।
विधायक या नकारात्मक, किसी भी भाव के साथ प्रयोग करो और तुम में भारी परिवर्तन घटित होगा। अगर भाव नकारात्मक है तो उसके प्रति सजग होकर तुम उससे मुक्त हो जाओगे। और अगर भाव विधायक है तो तुम भाव ही बन जाओगे। अगर यह सुख है तो तुम सुख बन जाओगे। लेकिन अगर वह क्रोध है तो क्रोध विसर्जित हो जाएगा। और नकारात्मक और विधायक भावों का भेद भी यही है। अगर तुम किसी भाव के प्रति सजग होते हो और उससे वह भाव विसर्जित हो जाता है तो समझना कि वह नकारात्मक भाव है। और यदि किसी भाव के प्रति सजग होने से तुम वह भाव ही बन जाते हो और वह भाव फैलकर तुम्हारे तन—प्राण पर छा जाता है तो समझना कि वह विधायक भाव है। दोनों मामलों में बोध अलग—अलग ढंग से काम करता है। अगर कोई जहरीला भाव है तो बोध के द्वारा तुम उससे मुक्त हो सकते हो। और अगर भाव शुभ है, आनंदपूर्ण है, सुंदर है तो तुम उससे एक हो जाते हो। बोध उसे प्रगाढ़ कर देता है।
मेरे लिए यही कसौटी है। अगर कोई वृत्ति बोध से सघन होती है तो वह शुभ है और अगर बोध से विसर्जित हो जाती है तो उसे अशुभ मानना चाहिए। जो चीज होश के साथ न जी सके वह पाप है और जो होश के साथ वृद्धि को प्राप्त हो वह पुण्य है। पुण्य और पाप सामाजिक धारणाएं नहीं हैं, वे आंतरिक उपलब्धियां हैं।
अपने बोध को जगाओ, उसका उपयोग करो। यह ऐसा ही है जैसे कि अंधकार है और तुम दीया जलाते हो। दीए के जलते ही अंधकार विदा हो जाएगा। प्रकाश के आने से अंधेरा नहीं हो जाता है। क्योंकि वस्तुत: अंधेरा नहीं था। अंधकार प्रकाश का अभाव था, वह प्रकाश की अनुपस्थिति था। लेकिन प्रकाश के आने से वहां मौजूद अनेक चीजें प्रकाशित भी हो जाएंगी, प्रकट भी हो जाएंगी। प्रकाश के आने से ये अलमारियां, किताबें, दीवारें विलीन नहीं हो जाएंगी। अंधकार में वे छिपी थीं, तुम उन्हें नहीं देख सकते थे। प्रकाश के आने से अंधकार विदा हो गया, लेकिन उसके साथ ही जो यथार्थ था वह प्रकट हो गया। बोध के द्वारा जो भी अंधकार की तरह नकारात्मक है—घृणा, क्रोध, दुख, हिसा—वह विसर्जित हो जाएगा और उसके साथ ही प्रेम, हर्ष, आनंद जैसी विधायक चीजें पहली बार तुम पर प्रकट हो जाएंगी।
इसलिए 'बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।

 पांचवीं तंत्र विधि:

भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी का स्वाद ही बन जाओ और उससे भर जाओ।

म खाते रहते हैं, हम खाए बगैर नहीं रह सकते। लेकिन हम बहुत बेहोशी में भोजन करते हैं—यंत्रवत। और अगर स्वाद न लिया जाए तो तुम सिर्फ पेट को भर रहे हो।
तो धीरे— धीरे भोजन करो, स्वाद लेकर करो और स्वाद के प्रति सजग रही। और स्वाद के प्रति सजग होने के लिए धीरे— धीरे भोजन करना बहुत जरूरी है। तुम भोजन को बस निगलते मत जाओ। आहिस्ते—आहिस्ते उसका स्वाद लो और स्वाद ही बन जाओ। जब तुम मिठास अनुभव करो तो मिठास ही बन जाओ। और तब वह मिठास सिर्फ मुंह में नहीं, सिर्फ जीभ में नहीं, पूरे शरीर में अनुभव की जा सकती है। वह सचमुच पूरे शरीर पर फैल जाएगा। तुम्हें लगेगा कि मिठास—या कोई भी चीज—लहर की तरह फैलती जा रही है। इसलिए तुम जो कुछ खाओ, उसे स्वाद लेकर खाओ और स्वाद ही बन जाओ।
यहीं तंत्र दूसरी परंपराओं से सर्वथा भिन्न और विपरीत मालूम पड़ता है। जैन अस्वाद की बात करते हैं। महात्मा गांधी ने तो अपने आश्रम में अस्वाद को एक नियम बना रखा था। नियम है कि खाओ, लेकिन स्वाद के लिए मत खाओ। स्वाद मत लो, स्वाद को भूल जाओ। वे कहते हैं कि भोजन आवश्यक है, लेकिन यंत्रवत भोजन करो। स्वाद वासना है, स्वाद मत लो। तंत्र कहता है कि जितना स्वाद ले सकी उतना स्वाद लो। ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनो, जीवंत बनो। इतना ही नहीं कि संवेदनशील बनो, स्वाद ही बन जाओ। अस्वाद से तुम्हारी इंद्रियां मर जाएंगी, उनकी संवेदनशीलता जाती रहेगी। और संवेदनशीलता के मिटने से तुम अपने शरीर को, अपने भावों को अनुभव करने में असमर्थ हो जाओगे। और तब फिर तुम अपने सिर में केंद्रित होकर रह जाओगे। और सिर में केंद्रित होना विभाजित होना है।
तंत्र कहता है अपने भीतर विभाजन मत पैदा करो। स्वाद लेना सुंदर है, संवेदनशील होना सुंदर है। और तुम जितने संवेदनशील होंगे, उतने ही जीवंत होंगे। और जितने तुम जीवंत होगे, उतना ही अधिक जीवन तुम्हारे अंतस में प्रविष्ट होगा। तुम अधिक खुलोगे, उन्‍मुक्‍त अनुभव करोगे।
तुम स्वाद लिए बिना कोई चीज खा सकते हो, यह कठिन नहीं है। तुम किसी को छुए बिना छू सकते हो, यह भी कठिन नहीं है। हम वही तो करते हैं। तुम किसी के साथ हाथ मिलाते हो और उसे स्पर्श नहीं करते। स्पर्श करने के लिए तुम्हें हाथ तक आना पड़ेगा, हाथ में उतरना पड़ेगा। स्पर्श करने के लिए तुम्हें तुम्हारी हथेली, तुम्हारी अंगुलियां बन जाना पड़ेगा—मानो तुम, तुम्हारी आत्मा तुम्हारे हाथ में उतर आयी है। तभी तुम स्पर्श कर सकते हो। वैसे तुम किसी का हाथ हाथ में लेकर भी उससे अलग— थलग रह सकते हो। तब तुम्हारा मुर्दा हाथ किसी के हाथ में होगा। वह छूता हुआ मालूम पड़ेगा, लेकिन वह छूता नहीं है।
हम स्पर्श करना भूल गए हैं। हम किसी को स्पर्श करने से डरते हैं, क्योंकि स्पर्श करना कामुकता का प्रतीक बन गया है। तुम किसी भीड़ में, बस या रेल में अनेक लोगों को छूते हुए खड़े हो सकते हो, लेकिन वास्तव में न तुम उन्हें छू रहे हो और न वे तुम्हें छू रहे हैं। सिर्फ शरीर एक—दूसरे के संपर्क में हैं, लेकिन तुम दूर—दूर हो। और तुम इस फर्क को समझ सकते हो। अगर तुम भीड़ में किसी को वास्तव में स्पर्श करो तो वह बुरा मान जाएगा। तुम्हारा शरीर बेशक छू सकता है, लेकिन तुम्हें उस शरीर में नहीं होना चाहिए। तुम्हें शरीर से अलग रहना चाहिए, मानो तुम शरीर में नहीं हो, मानो कोई मुर्दा शरीर स्पर्श कर रहा है।
यह संवेदनहीनता बुरी है। यह बुरी है, क्योंकि तुम अपने को जीवन से बचा रहे हो। तुम मृत्यु से इतने भयभीत हो और तुम मरे हुए ही हो। सच तो यह है कि तुम्हें भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि कोई भी मरने वाला नहीं है। तुम तो पहले से ही मरे हुए हो। और तुम्हारे भयभीत होने का कारण भी यही है कि तुम कभी जीए ही नहीं। तुम जीवन से चूकते रहे और मृत्यु करीब आ रही है।
जो व्‍यक्‍ति जीवित है वह मृत्यु से नहीं डरेगा, क्योंकि वह जीवित है। जब तुम वास्तव में जीते हो तो मृत्यु का भय नहीं रहता। तब तुम मृत्यु को भी जी सकते हो। जब मृत्यु आएगी तो तुम इतने संवेदनशील होंगे कि मृत्यु का भी आनंद लोगे। मृत्यु एक महान अनुभव बनने वाली है। अगर तुम सचमुच जिंदा हो तो तुम मृत्यु को भी जी सकते हो। और तब मृत्यु मृत्यु नहीं रहेगी। अगर तुम मृत्यु को भी जी सको—जब तुम अपने केंद्र को लौट रहे हो, जब तुम विलीन हो रहे हो, उस क्षण यदि तुम अपने मरते हुए शरीर के प्रति भी सजग रह सको, अगर तुम इसको भी जी सको—तो तुम अमृत हो गए।
'भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी का स्वाद ही बन जाओ, और उससे भर जाओ।
पानी पीते हुए पानी का ठंडापन अनुभव करो। आंखें बंद कर लो, धीरे—धीरे पानी पीओ और उसका स्वाद लो। पानी की शीतलता को महसूस करो और महसूस करो कि तुम शीतलता ही बन गए हो। जब तुम पानी पीते हो तो पानी की शीतलता तुममें प्रवेश करती है, तुम्हारा अंग बन जाती है। तुम्हारा मुंह शीतलता को छूता है, तुम्हारी जीभ उसे छूती है और ऐसे वह तुम में प्रविष्ट हो जाती है। उसे तुम्हारे पूरे शरीर में प्रविष्ट होने दो। उसकी लहरों को फैलने दो और तुम अपने पूरे शरीर में यह शीतलता महसूस करोगे। इस भांति तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ेगी, विकसित होगी और तुम ज्यादा जीवंत, ज्यादा भरे—पूरे हो जाओगे।
हम हताश, रिक्त और खाली अनुभव करते हैं। और हम कहते हैं कि जीवन रिक्त है। लेकिन जीवन के रिक्त होने का कारण हम स्वयं हैं। हम जीवन को भरते नहीं हैं। हम उसे भरने नहीं देते हैं। हमने अपने चारों ओर एक कवच लगा रखा है—सुरक्षा—कवच। हम वलनरेबल होने से, खुले रहने से डरते हैं। हम अपने को हर चीज से बचाकर रखते हैं। और तब हम कब बन जाते हैं—मृत लाशें।
तंत्र कहता है जीवंत बनो, क्योंकि जीवन ही परमात्मा है। जीवन के अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं है। तुम जितने जीवंत होगे उतने ही परमात्मा होगे। और जब समग्रत: जीवंत होगे तो तुम्हारे लिए कोई मृत्यु नहीं है।

आज इतना ही।

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