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मंगलवार, 14 अगस्त 2018

क्या ईश्वर मर गया है?-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन--(प्रेम की भाषा)

ईश्वर मर गया है। कैसे पुनरुज्जीवित हो सकता है, इस संबंध में पिछले तीन दिनों में थोड़ी-सी बात मैंने आपसे कही। उस बारे में बहुत से प्रश्न यहां आए हैं। उनमें से थोड़े-से प्रश्नों का, जो कि सभी प्रश्नों के प्रतिनिधि प्रश्न हैं, मैं आपको उत्तर दूंगा।
सबसे पहले तो बहुत-से मित्रों ने यह पूछा है--यह बात सुनकर कि ईश्वर मर गया है, हमें बहुत दुख हुआ है?
आपको दुख हुआ इस बात से, मुझे बहुत खुशी हुई है, क्योंकि मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं, जिनसे मैंने कहा कि ईश्वर मर गया है तो उन्होंने कहा, मर जाने दो, हर्जा क्या है? मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं जिनसे मैंने कहा कि ईश्वर मर गया है तो उन्होंने कहा--ईश्वरलाल ठेकेदार? अच्छा आदमी था बेचारा, कैसे मर गया?
मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं, जिनसे मैंने कहा कि ईश्वर मर गया तो उन्होंने कहा--उससे कहा किसने था कि वह जिंदा रहे? जब मुझे यह पता चला है कि आप में से बहुत-से मित्रों को दुख पहुंचा है तो मुझे खुशी हुई। ईश्वर के मरने की बात से जिन्हें दुख पहुंचा है, उन्हें ईश्वर से कोई न कोई लगाव है। न कोई प्रेम है। वे ईश्वर के संबंध में कुछ सोचते और विचार करते हैं। अगर दुनिया में लोगों को इस बात दुख हो रहा है कि ईश्वर मर गया है तो शायद वह पुनरुज्जीवित हो सके।

लेकिन अगर लोगों ने उपेक्षा ग्रहण कर ली तो फिर ईश्वर के पुनरुज्जीवित होने की कोई संभावना नहीं! नास्तिक कभी भी ईश्वर की हत्या नहीं कर सकता है, लेकिन जिनके मन में उपेक्षा है, इनडिफरेंस है, वे ईश्वर की हत्या कर सकते हैं। अगर सारी दुनिया उपेक्षा से भर जाए तो ईश्वर जिंदा भी रहे तो उसके जिंदा होने का अर्थ क्या होगा?
इसलिए मैं स्वागत करता हूं, अगर किसी को इस बात से दुख पहुंचा हो कि ईश्वर मर गया है। यह बहुत खुशी की बात है। लेकिन इस दुख में कहीं ऐसा न हो कि हम मरे-मराए ईश्वर को, अपना दुख भुलाने के लिए पूजते चले जाएं। कहीं ऐसा न हो कि मरे-मराए ईश्वर के मंदिर की ही हम पूजा किए चले जाएं, क्योंकि हमें यह जानकर बहुत दुख होता है कि ईश्वर मर गया है, इसलिए मानते चले जाएं कि अभी जिंदा है। यह खतरनाक बात होगी।
अगर ईश्वर मर गया है तो जो ईश्वर मर गया, जिन्हें दुख हो रहा हो, वे चाहे रोएं, चाहे आंसू बहाएं, लेकिन कृपा करें, उस ईश्वर को जाकर दफना दें। पिता मर जाता है, मां मर जाती है तो हम क्या करते हैं? रोते हैं, लेकिन दफना देते हैं। मुर्दे को घर में रखना, मरने से भी ज्यादा खतरनाक बात हो जाएगी। किसी का मर जाना उतना खतरनाक नहीं, लेकिन लाश को घर में रख लेना बहुत खतरनाक है, क्योंकि जो जिंदा है उनके भी मरने की संभावना पैदा हो जाएगी।
ईश्वर तो मर गया , लेकिन मनुष्य के मंदिरों में उसकी पूजा जारी है। इससे खतरा है कि कहीं मनुष्य भी न मर जाए, क्योंकि मुर्दे को घर में रखना बहुत खतरनाक है। यह तो मैंने कहा कि ईश्वर मर गया है, अब डर यह है कि कहीं आदमी भी न मर जाए। इसके पहले कि आदमी मरे, इस मरे हुए ईश्वर को दफना दें और जब तक इसे दफनाया न जाएगा, तब तक उस ईश्वर को नहीं पाया जा सकता है, जो कि न कभी जन्मता है और न कभी मरता है।
यह मनुष्य-निर्मित ईश्वर है, जो मरा है। यह मनुष्य-निर्मित धर्म है, जो बनते हैं और मिट जाते हैं। ये मनुष्य-निर्मित ग्रंथ हैं, जो लिखे जाते हैं और भूल जाते हैं। यह मनुष्य-निर्मित मूर्तियां हैं, जो गढ़ी जाती हैं और बिखर जाती हैं। मनुष्य जो भी बनाएगा, वह शाश्वत नहीं होगा। बनाया हुआ कुछ भी शाश्वत नहीं हो सकता है, क्योंकि जो बनाया गया है वह मिटने का बीज अपने में लिए होता है।
क्या आपका ईश्वर आपका बनाया हुआ है? अगर है तो चाहे उसे कितना ही छाती से संजोकर रखो, वह मरेगा। अगर आपका ईश्वर आपका बनाया हुआ नहीं है तो आप सब मिलकर कोशिश करें कि वह मर जाए तो भी नहीं मर पाएगा। लेकिन हमारा ईश्वर तो बनाया हुआ है। इसीलिए तो इतना कमजोर, इतना इम्पोटैंट है, इतना नपुंसक है। कहते तो हम हैं कि ईश्वर है सर्वशक्तिमान। लेकिन उस सर्वशक्तिमान ईश्वर के मंदिर के बाहर ही एक सिपाही को बंदूक लेकर खड़ा कर देते हैं कि तुम इसकी रक्षा करो।
बड़ा अदभुत सर्वशक्तिमान यह ईश्वर है, एक सिपाही जिसकी रक्षा के लिए बाहर खड़ा है। वह हमारा बनाया हुआ ईश्वर है, जिसको सिपाही की जरूरत है। जिसके चोरी हो जाने का भय है, जिसे दुश्मनों के द्वारा फोड़े जाने का खतरा है। फिर यह ईश्वर बड़ा कमजोर है। हम इसके सामने प्रार्थनाएं भी करते रहते हैं। कोई प्रार्थना कभी भी नहीं सुनी जाती है।
पिछले तीस-चालीस साल से सारी मनुष्य-जाति प्रार्थना कर रही है, कि अब युद्ध न हो। लेकिन दो महायुद्ध हो गए और दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हत्या हो गई। एक-आध आदमी मरने की बात नहीं सुनी ईश्वर ने। लेकिन हर दस-पांच वर्षों में युद्ध हों और करोड़ों लोग मर जाएं, करोड़ों हृदय प्रार्थना कर रहे हैं, और न सुने तो या तो ईश्वर बहरा है या फिर जिस ईश्वर के सामने हम प्रार्थनाएं कर रहे हैं, वह जिंदा ही नहीं है। बहरा ईश्वर भी सुन लेता है। कितना हम चिल्लाते हैं, कितना रोते, गिड़गिड़ाते हैं, लेकिन अब ईश्वर है ही नहीं। हम अपनी ही किसी कल्पित प्रतिमा के सामने खड़े होकर चिल्ला रहे हैं।
लेकिन अगर कोई वहम बहुत दिनों तक पोसा जाए तो हम भूल जाते हैं कि यह पागलपन है। घरों में छोटे-छोटे बच्चे गुड्डे-गुड्डी का विवाह रचाते हैं। हम हंसते हैं और हम रामचंद्र जी का विवाह रचवाते हैं तो समझते हैं कि यह धार्मिक है। उम्र बढ़ने से किसी का बचपन नहीं मिटता है। उम्र बढ़ जाती है, बच्चे बच्चे ही बने रहते हैं।
दो तरह के बच्चे होते हैं--एक छोटे बच्चे और एक बड़े बच्चे। बच्चे गुड्डे-गुड्डियों को कपड़े पहनाते हैं, मिठाई खिलाते हैं तो हम रोज भगवान की मूर्ति को भोग लगाते हैं और न मालूम क्या-क्या पागलपन करते हैं और सोचते हैं कि हम धार्मिक हैं, इडियाटिक हैं, मूर्खतापूर्ण हैं, जड़तापूर्ण हैं।
बच्चों को माफ किया जा सकता है, बूढ़ों को माफ नहीं किया जा सकता। बच्चे आखिर बच्चे हैं, लेकिन बूढ़े क्या हैं? और बच्चे तो गुड्डे-गुड्डी के साथ थोड़ी देर खेल खेलते हैं और फिर भूल भी जाते हैं, एक कोने में पटक देते हैं, अपना दूसरा काम करने लगते हैं।
लेकिन ये बड़े? जो भगवान की गुड्डे-गुड्डियों-सी मूर्ति बना लेते हैं, मौका आ जाए जो कल तलवार निकाल लेते हैं, हत्या कर देते हैं, लाखों लोगों को मार डालते हैं, क्योंकि इनके भगवान को चोट पहुंच गई, इनके भगवान का अंत कर दिया गया, इनके भगवान को गाली दे दी गई। खून करते हैं, हत्याएं करते हैं, आग लगाते हैं, न मालूम क्या-क्या करते हैं। क्या नहीं किया जमीन पर, क्या नहीं किया इन धार्मिक लोगों ने, इन पूजा करने वाले लोगों ने, मंदिर और मस्जिद बनाने वाले लोगों ने क्या नहीं किया है, जिसको पाप न कहा जा सके?
सब तरह के पाप किए हैं। एक-एक आदमी ने अकेले-अकेले कोई बड़ा पाप नहीं किया है। लेकिन समूहों, संगठनों और धर्मों के नाम पर ऐसे पाप किए गए हैं कि उनको अगर खयाल में भी ले आएं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यदि दुनिया में इतने धर्म नहीं होते तो शायद दुनिया ज्यादा धार्मिक होती। इनसे इतना अधर्म आया है, जिसका कोई हिसाब नहीं।
लेकिन हम कहते हैं कि हम धार्मिक हैं। ऐसे लोग, जिनका मस्तिष्क बिलकुल बचकाना है। यह हमारा बनाया हुआ भगवान किसी भी काम का साबित नहीं हुआ है, हो नहीं सकता। आदमी की कमजोरी है। आदमी जो भगवान बनाएगा वह उससे भी ज्यादा कमजोर होगा। स्रष्टा से उसकी सृष्टि कभी ज्यादा ताकत की नहीं होती है। मैं जो बनाऊंगा, वह मुझसे कमजोर होगा। आप जो बनाएंगे, वह आपसे कमजोर होगा। बनाने वालों ने जो चीज बनाई है, वह बड़ी नहीं हो सकती, ताकतवर नहीं हो सकती। यह भगवान तो हमारा बनाया हुआ है। यह हमसे ज्यादा ताकतवर नहीं हो सकता। इसकी सुरक्षा के लिए भी हमारी जरूरत पड़ती है और इसी के सामने हम हाथ जोड़े खड़े हैं, यह क्या पागलपन है? खुद मूर्तियां गढ़ लेते हैं और उनको प्रतिष्ठा देते हैं, उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। खुद ही प्रार्थनाएं बना लेते हैं और उनको करने लगते हैं।
यह भगवान मर गया है। न मरा हो तो मर जाना चाहिए। और जिनके मन में धर्म के प्रति थोड़ा प्रेम है, उन्हें इस भगवान के मर जाने में सहायता और सहयोग देना चाहिए। यह विदा हो जाएगा।
स्मरण रखिए--मनुष्य का मन भगवान से मुक्त नहीं हो सकता। लेकिन अगर झूठे भगवान विदा हो जाएं तो एक खालीपन पैदा होगा और उस खालीपन से प्यास पैदा होगी और हम भगवान की खोज में संलग्न होंगे। लेकिन यह जो सब्टीटयूट गॉड है, यह जो पूरक भगवान है, यह प्यास को पैदा नहीं होने देगा। प्यास पैदा नहीं होने पाती है और यह पूर्ति कर देता है।
यदि किसी आदमी को रुपये की तलाश हो और हम नकली सिक्के हाथ में दे दें तो वह निश्चिन्त हो जाएगा और सो जाएगा। उसकी खोज बंद हो जाएगी। वह तिजोरी में ताला लगा देगा और प्रसन्न मन घूमने लगेगा कि सिक्के मेरे पास आ गए, बात खत्म हो गई। अब सिक्कों की खोज भी बंद कर देंगे। अब उसका अन्वेषण भी बंद हो जाएगा, अब उसका श्रम भी बंद हो जाएगा।
यह जो हमारे हाथ में एक परिपूरक भगवान हमें मिल गया है, उससे हमारी असली भगवान की खोज बंद हो गई।
एक रात दो साधु एक पहाड़ी स्थान से निकले। एक साधु वृद्ध था। अपने कंधे पर वह झोली लटकाए हुए था। पीछे उसका युवा शिष्य था उसके साथ में। बार-बार वह साधु कहने लगा--जंगल है, अंधेरी रात है। अपने शिष्य से पूछने लगा--यहां कोई खतरा तो नहीं?
उसके शिष्य ने कहा--संन्यासी को और खतरा? रात अधिक हो तो हो। जंगल हो तो हो। खतरा क्या है। लेकिन थोड़ी बहुत दूर चलकर उस वृद्ध साधु ने फिर पूछा--रात बड़ी अंधेरी है, अमावस है, रास्ता खतरनाक तो नहीं है कुछ? पूछा था किसी को, गांव में पता लगाया था?
उसे हैरानी हुई कि इस भांति तो इस साधु ने कभी नहीं पूछा। फिर वे एक कुएं के पास ठहरे। उस साधु ने कहा--मैं थोड़ा हाथ-मुंह धो लूं। झोला अपने युवक शिष्य को दिया और कहा कि इसे संभालकर रखना। साधु हाथ-मुंह धोने गया तो युवक ने उस झोले के अंदर देखा कि एक सोने की ईंट पड़ी थी। उसे शक तो हो गया था कि साधु को खतरा है तो जरूर झोले में कुछ होना चाहिए। नहीं तो खतरा क्या होगा? उसने वह ईंट देखी। साधु अपने काम में लगा हुआ था। उसने ईंट फेंक दी गङ्ढे में और उसकी जगह एक पत्थर उठा कर उसकी झोली में रख दिया। सबस्टीटयूट ईंट रख दी। एक पूरक ईंट रख दी। वह साधु हाथ-मुंह धोकर आया। उसने अपना झोला जल्दी से कंधे पर टांगा और देखा कि वजन है और मजे से चलने लगा। फिर थोड़ी देर बाद उसने पूछा--अब तो रात गहरी हो गई, क्या कोई गांव करीब नहीं है कि हम रुक जाएं? खतरा तो नहीं है?
उस युवक ने कहा कि कोई खतरा नहीं है, बिलकुल चले चलिए। उस साधु ने कई बार पूछा था, लेकिन उस युवक ने यह नहीं कहा था कि कोई खतरा नहीं है। साधु को शक हुआ। उसने टटोलकर अपनी ईंट देखी। देखा कि ईंट अपनी जगह है। फिर उसने थोड़ी देर में कहा कि मुझे बहुत भय लगता है।
उस युवक ने कहा कि बिलकुल निर्भय हो जाइए, आपके भय को मैं पीछे गङ्ढे में फेंक आया हूं। उसने घबराकर अपनी झोली खोली। देखा कि उसमें पत्थर की ईंट रखी हुई थी। उसने कहा--निर्भय हो जाइए और मजे से चलिए, मैं भय को पीछे फेंक आया हूं। वह साधु बोला--हद हो गई! मैं तो इस ईंट को संभाले हुए चल रहा था, प्राणों से लगाए हुए चले जा रहा था। अगर कोई हमला कर देता मुझ पर ईंट को छीनने की कोशिश करता तो शायद खून-खराबा हो जाता और मैं अपनी जान दे देता, लेकिन इस ईंट को बचाता।
हमारे भगवान इसी तरह की ईंट हैं, जिसको आप संभाले चले जा रहे हैं और खून-खराबा किए जा रहे हैं और मरे जा रहे हैं और झोली खोलकर नहीं देखते कि सोने की ईंट बहुत पहले विलीन हो गई है और पत्थर की ईंट आप ढोए जा रहे हैं। यह मर गया है भगवान। इस मरे हुए भगवान को ढोते रहिए। आपकी मर्जी।
कुछ लोगों को बोझ ढोना अच्छा लगता है तो कोई क्या करे? लेकिन यह बहुत मंहगा पड़ रहा है। सारी मनुष्य-जाति मरी जा रही है। पत्थर के नीचे दबी जा रही है। थोड?ा देखिए खोलकर अपने भगवान को कि वह है क्या? इसे छोड़ना नहीं पड़ेगा। इसे खोलकर देखते ही आप निर्भय हो जाएंगे कि यह पत्थर की ईंट है। भय विलीन हो जाएगा और इसके मरने से दुख भी नहीं होगा। दुख इसलिए हो रहा है कि आप सोच रहे हैं कि ईंट सोने की न हो।
इसलिए अगर आपको कोई यह खबर दे दे कि वह ईंट खो गई तो आप परेशान होकर पूछेंगे कि ईंट के खोने से हमें बड़ा दुख हो रहा है। लेकिन अगर आपको पता चल जाए कि ईंट पत्थर की है तो आप कहेंगे कि ईंट उतर गई, गधे के बोझ से तो हमें बहुत आराम मिल रहा है। मैं आपको कहता हूं कि यदि ईश्वर मर गया है तो उन लोगों के हृदय के लिए खुशी का समाचार है, जिन्हें ईश्वर से कोई प्रेम है।
इस संबंध में बहुत-से प्रश्न पूछे हैं। करीब-करीब उस संबंध में मैंने तीन दिनों में बहुत-सी बातें कही हैं। इसलिए उस संबंध में और ज्यादा कहना ठीक नहीं होगा।
कुछ मित्रों से पूछा है कि कल मैंने कहा कि सेवा खतरनाक है। उन्होंने पूछा है, क्या सेवा प्रेम नहीं है?
मैं कहना चाहूंगा कि प्रेम तो सेवा है, लेकिन सेवा प्रेम नहीं है। फिर से दोहराऊं, प्रेम तो सेवा है, लेकिन सेवा प्रेम नहीं है।
जहां प्रेम होता है, वहां सेवा अनिवार्यतः आ जाती है, लेकिन उसको पता नहीं चलता है कि मैं सेवा कर रहा हूं। और अगर यह पता हो कि मैं सेवा कर रहा हूं तो समझ लेना कि प्रेम नहीं है। सेवक को पूरे वक्त पता चलता है कि मैं सेवा कर रहा हूं। पता न चले तो वह सेवा नहीं करे। वह सेवा करने के लिए सेवा करता है। सेवा उसके लिए एक कृत्य है, एक डयूटी है। सेवा उसके लिए एक साधन है, जिसके द्वारा मोक्ष पाना या ईश्वर पाना या कुछ और पाना है।
प्रेमी सेवा करता नहीं है। सेवक सेवा करता है। प्रेम सेवा करता नहीं है, प्रेम से सेवा होती है, निकलती है। जैसे फूल से सुगंध निकलती है, वैसे प्रेम से सेवा होती है, निकलती है। और अगर प्रेमी से पूछें कि क्या तुम सेवा कर रहे हो तो वह कहेगा कैसी सेवा, मैं तो जानता ही नहीं।
एक पहाड़ी पर एक छोटी सी लड़की--होगी कोई बारहत्तेरह वर्ष की, अपने छोटे भाई को कंधे पर बांध कर पहाड़ पर चढ़ रही थी। पीछे से संन्यासी आया और वह भी पहाड़ चढ़ रहा था।
वह लड़की तो जा रही थी अपने गांव और वह संन्यासी तीर्थ जा रहा था। पसीने से तर-बतर थी लड़की। संन्यासी भी अपना बिस्तर अपने कंधे पर लिए हुए था। लड़की अपने छोटे-से-भाई को कंधे पर बांधे हुई थी। जब वह करीब पहुंची, भरी दोपहर, सूरज ऊपर आग बरसा रहा था, पहाड़ की सीधी चढ़ाई, पसीने से तर-बतर, थकी-मांदी, श्वास ऊपर चढ़ रही थी। संन्यासी ने उस लड़की के पास जाकर कहा--बेटा! तुझे बहुत बजन लग रहा होगा?
लड़की ने उस संन्यासी की तरफ देखा और कहा--स्वामीजी वजन आप लिए हुए हैं। यह तो मेरा छोटा भाई है।
तराजू पर तौलें तो संन्यासी के बिस्तर में भी वजन होगा और उसके छोटे भाई में भी। लेकिन हृदय के तराजू पर बिस्तर में वजन है और छोटे भाई में वजन नहीं है।
सेवा का वजन होता है। प्रेम का कोई वजन नहीं होता। इसलिए सेवा अहंकार से घनीभूत होती है। सेवक का अहंकार कि मैं सेवक हूं। हम सभी उससे परिचित होंगे, लेकिन प्रेम का कोई अहंकार नहीं होता।
बड़े मजे की बात है। जितना सेवक सेवा करेगा, उतना ही अहंकार पुष्ट होगा कि मैं कुछ हूं। और जो प्रेम में जितना गहरा उतरेगा, वह पाएगा कि जितना अहंकार विलीन होता है, उतनी प्रेम में गहराई आती है।
प्रेम का फूल जब खिलता है तो अहंकार अनुपस्थित होता है, ऐबसेंस होता है और सेवा का चक्कर जब बहुत जोर से चलता है तो अहंकार घनीभूत होकर बीच में स्तंभ की भांति खड़ा हो जाता है।
इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम तो सेवा है, लेकिन सेवा प्रेम नहीं है। अब प्रेम एक हार्दिक संबंध है, सेवा एक बौद्धिक संबंध है। सोच-विचार से संबंध है सेवा का, इसलिए ऐसा अपमानजनक है। जिसकी हम सेवा करते हैं, उसे निश्चित अपना अपमान का अनुभव होता है।
प्रेम सम्मानजनक है। जिसे हम प्रेम देते हैं, वह गौरवांवित अनुभव करता है। प्रेम जिसे हम देते हैं, वह गौरवांवित होता है, क्योंकि प्रेम देने वाले के पास कोई अहंकार नहीं होता। सेवा जब हमारी कोई करता है तो हमें संकोच लगता है। अपमान मालूम होता है। किसी से सेवा न लेनी पड़े, ऐसा मालूम होता है, क्योंकि सेवा करने वाले का अहंकार सामने खड़ा होता है, वह मजबूत होता है।
सेवा तो धर्म नहीं है। यद्यपि धार्मिक व्यक्ति बहुत सेवा करते हैं। प्रेम जितना विकसित होता है, जीवन में सेवा की भूख अपने आप लगनी शुरू होती है।
कोई यह कहे कि जब प्रेम से सेवा आ जाती है तब सेवा से प्रेम भी आ सकता है। तर्क में और गणित में तो ऐसा दिखाई पड़ रहा है, जैसे एक घर में अंधकार छाया है और हम कहें कि अगर अंधकार को निकाल दें तो प्रकाश जल जाएगा, क्योंकि प्रकाश को जलाते हैं तो अंधकार निकल जाता है। तर्क तो बिलकुल ठीक है। लॉजिक का जहां तक सवाल है, बिलकुल ठीक है। प्रकाश को जलाते हैं तो अंधकार निकल जाता है तो अगर अंधकार को निकाल दें तो प्रकाश जल जाएगा, लेकिन ऐसा होगा नहीं।
जीवन में ऐसा नहीं होगा। प्रकाश जलेगा तो अंधकार तो निकल जाएगा, अंधकार निकालने गए तो खुद समाप्त हो जाएंगे। अंधकार को कभी निकाल ही नहीं सकते। प्रकाश के जलने का तो कोई सवाल ही नहीं। तो ऐसा तो होगा कि प्रकाश जल जाए, अंधकार निकल जाए। लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा कि अंधकार को आप निकाल दें और प्रकाश जल जाए। अंधकार निकाले नहीं जाते।
तो मेरा कहना है कि प्रेम का दीया जल जाए तो वह सारे तत्व जीवन में विलीन हो जाते हैं, जिनके कारण सेवा के खुलने में, फैलने में बाधा है। अगर प्रेम का तत्व उपलब्ध हो जाए तो सेवा के मार्ग के सारे अवरोध, सारे पत्थर फट जाते हैं। सेवा प्रवाहित होने लगती है। लेकिन कोई चाहे कि हम सेवा को प्रवाहित कर दें और इससे प्रेम का जन्म हो जाए, यह वैसे ही गलत है जैसे कोई सोचे कि हम अंधेरे को बाहर निकाल दें तो घर का दीया जल जाए। कभी नहीं जलेगा।
लेकिन यह भूल बहुत पुरानी है और मनुष्य-जाति ने जिन भूलों के कारण कष्ट उठाया है, यह दुनिया की दो-चार भूलों में से एक है। हम सभी को यह खयाल है। जिस आदमी को खयाल पैदा होता है कि मेरे मन में प्रेम होना चाहिए, वह सोचता है कि घृणा को निकाल कर बाहर कर दूं तो प्रेम आ जाएगा, यह गलत बात है। जिस आदमी के मन में खयाल आता है कि मेरे भीतर क्षमा होनी चाहिए, वह सोचता है कि क्रोध को निकाल कर बाहर कर दूं तो क्षमा आ जाएगी।
जिस आदमी को खयाल होता है कि मेरे भीतर ब्रह्मचर्य आ जाएगा। ये सब एक ही सारिणी की भूलें हैं। वही कि अंधकार को निकाल दें तो प्रकाश आ जाएगा। यह बिलकुल ही अबसर्ड, एकदम गलत है। एकदम गणित ही गलत है। यह कभी हो ही नहीं सकता।
यही तो वजह है कि ब्रह्मचर्य लाने वाला, सैक्स को निकालते-निकालते सैक्स में ही ढूंढता चला जाता है। और ब्रह्मचर्य कभी नहीं आता और क्रोध को निकालने वाला क्रोध को निकाल-निकाल कर और क्रोधी होता चला जाता है और कभी क्षमा नहीं आती।
एक क्रोधी सज्जन एक गांव में निवास करते थे। जैसा कि सभी गांव में सभी सज्जन निवास करते हैं। वह सज्जन भी उस गांव में निवास करते थे। बहुत क्रोधी थे। छोटी-छोटी बात पर क्रोध उनके भीतर जल जाता था। आग बन जाती थी। छोटी-छोटी बात पर आग-बबूला हो उठते थे। पत्नी की हत्या कर दी क्रोध में आकर। एक बच्चे को उठाकर कुएं में फेंक दिया। गांव घबरा गया। गांव में एक संन्यासी आए तो गांव के लोगों ने कहा कि यह परम क्रोधी है सारे गांव में। इसको कोई ठीक करने का उपाय नहीं? संन्यासी ने कहा--इसमें क्या कठिनाई है। क्रोध को छोड़ दो। बिलकुल सरल-सी तरकीब बताई। जैसा कि सभी संन्यासी बता रहे हैं। क्रोध को छोड़ दो, बात खत्म हो जाएगी!
जैसे कोई बीमार हो, कहे कि मैं बीमार हूं और डाक्टर आए और कहे कि इसमें क्या गड़बड़ी है, बीमारी छोड़ दो बात खत्म हुई। नुस्खा बहुत आसान है। मरीज सिर पकड़े बैठा रहेगा कि यह कहते तो आप ठीक हैं कि हम बीमारी छोड़ दें। कभी किसी ने बीमारी छोड़ी है? नहीं, आज तक दुनिया में कोई बीमारी नहीं छोड़ सकता। हां! स्वास्थ्य पैदा किया जाता है तो बीमारी छूट जाती है।
स्वास्थ्य "पोजिटिव हैल्थ' है। बीमारी तो नैगेटिव है, नकारात्मक है। बीमारी छोड़ी नहीं जाती। स्वास्थ्य पैदा किया जाए या स्वास्थ्य पैदा करने की कोशिश की जाए तो बीमारी नष्ट होती है। अपने आप विलीन हो जाती है। लेकिन उस संन्यासी ने कहा, क्रोध को छोड़ दो। वह आदमी तो पक्का क्रोधी था। उसने कहा कि मैं कसम खाता हूं कि क्रोध को छोड़कर रहूंगा।
क्रोधी आदमी ऐसे ही कसम खा लेते हैं अक्सर, क्रोध में। हालांकि उन्हें यह पता नहीं कि यह क्रोध का हिस्सा है। यह जो कसम कि मैं क्रोध छोड़कर रहूंगा, चाहे जान रहे या जाए। बातें वह वही बोल रहा था जो कल तक बोलता था। किसी से झगड़ा होता था तो वह कहता था कि मेरी जान रहेगी या तुम्हारी।
संन्यासी ने कहा कि क्रोध को छोड़ दो, यह सरल बात है। वह खड़ा हो गया तो उसने कहा मैं क्रोध छोड़कर रहूंगा, चाहे जान रहे या जाए। यह वही का वही क्रोध था। फर्क थोड़े ही था? लेकिन संन्यासी भी खुश हुए कि बड़ा संकल्पवान आदमी है। ऐसे मूढ़ अक्सर संकल्पवान समझ लिए जाते हैं। यह बड़ा विल-पावर का आदमी है। संन्यासी ने कहा कि अगर तूने ऐसे संकल्प ही कर लिया तो संन्यासी हो जा। वह आदमी संन्यासी हो गया। क्रोधी आदमी कुछ भी हो सकता है। जो हत्या कर सकता है अपनी पत्नी की, वह संन्यासी नहीं हो सकता? यह तो बिलकुल आसान बात है।
उसने कपड़े-लत्ते वहीं उतारकर फेंक दिए। वह गया बाजार में। कपड़े रंगा कर आ गया और संन्यासी हो गया। जैसे किसी को भी संन्यासी होना हो तो कपड़े बदल दे और रंग दे, संन्यासी हो जाए। वह भी संन्यासी हो गया। गांव के लोगों ने कहा कि है तो परमत्तपस्वी! मालूम भी होता है, कितनी शीघ्रता से कितने संकल्प से परिवर्तन हो गया है। बुद्धिमान आदमी में परिवर्तन धीरे-धीरे होता है, मूढ़ आदमियों में एकदम से हो जाता है। उस मुनि ने कहा--ठीक। मैंने बहुत से लोग देखे, लेकिन तेरा जैसा खोजी मैंने नहीं देखा कि दो मिनिट के भीतर तुझमें परिवर्तन हो गया। उस संन्यासी ने उससे कहा कि हम तेरा नाम मुनि शांतिनाथ रख देते हैं। वह शांति का अवतार मालूम होता है। इतनी शीघ्रता से।
मुनि शांतिनाथ जो अभी ढीले से बैठे थे, वह और अकड़कर सीधे हो गए और रीढ़ ऊंची कर ली। लोगों ने कहा कि मुनि शांतिनाथ! वह, जो कि परम क्रोधी था, बिलकुल आंख बंद करके शांत होकर बैठने लगा।
क्रोध ऐसे तो कहीं विलीन हो नहीं जाएगा। वह भीतर-भीतर घूमता है। पहले निकल जाता तो थोड़ा-बहुत छुटकारा भी होता। अब वह भी न रहा। अब निकास का कोई द्वार नहीं रहा। कोई "एग्जिट', कोई भी नहीं।
अब भीतर-भीतर उसका क्रोध घूमने लगा। क्रोध में वह बड़ी तेजी से भाषण करने लगा। क्रोध में कोई भी तेजी से भाषण कर सकता है। क्रोध में वह बड़े ऊंचे सिद्धांतों की बातें बोलने लगा, खंडन-मंडन करने लगा, शास्त्रार्थ करने लगा। क्रोधी कुछ भी कर सकता है और यह सब क्रोध के लक्षण हैं।
दस साल बीत गए। वह क्रोधी व्यक्ति जो कि मुनि शांतिनाथ हो गया, बहुत प्रसिद्ध हो गए। प्रसिद्धि के लिए जो भी गुण चाहिए, सभी उनमें थे। उनमें कोई कमी नहीं थी। नेता होने के लिए, गुरु होने के लिए, क्रोधी होना बहुत जरूरी था। नहीं तो हो नहीं सकता था। एक बड़ी राजधानी में आए। वहां उनके बचपन के साथी एक मित्र रहते थे। उन्हें तो हैरानी थी कि उनका वह परम मित्र और संन्यासी हो गया और सुनते हैं मुनि शांतिनाथ कहलाने लगा।
अब तो उन्होंने लंगोटी और कपड़े भी छोड़ दिए थे। अब वह नग्न भी रहने लगे थे। जब क्रोधी आदमी कोई काम करता है तो "एक्सट्रीम' तक करता है। बीच में कभी नहीं रुकता। उन्होंने लंगोट आदि सब छोड़ दिए। अब वह बिलकुल नग्न, परम दिगंबर हो गए थे। वह मित्र उनसे मिलने गया। मित्र तो उनको पहचान गया, लेकिन जो दस साल तक संन्यासी रह चुका था, वह कैसे मित्र को पहचान सकता था? संन्यासी का कोई मित्र होता ही नहीं। संन्यासी का कोई लाग-लगाव होता है?
यद्यपि वह पहचान तो गया, लेकिन बोला नहीं, क्योंकि मित्रता दिखाना एक सामान्य आदमी से अशोभन है। बड़े आदमी, छोटे आदमी से कोई मित्रता कभी नहीं रखते। उनके आप शिष्य हो सकते हैं, वे आपके गुरु हो सकते हैं। मित्र उनके कभी नहीं हो सकते हैं।
बड़ा आदमी हो गया था। महान त्यागी था। मित्र बैठा हुआ था तो उनकी तरफ देख भी नहीं रहा था। मैंने उनसे पूछा कि क्यों महानुभाव? उसके हिसाब से मित्र पहचान तो गया कि मुझे पहचान तो लिया है। बार-बार किनारे की आंख से देख लेता था, लेकिन पहचानना नहीं चाहता था।
जब कोई आदमी बड़ा आदमी हो जाता है, तो छोटे आदमियों को सड़क पर पहचानना पसंद नहीं करता, क्योंकि उनके पहचानने से यह पता भी चलता है कि तुम भी कभी छोटे थे। तब उनसे कभी दोस्ती रही होगी, इसलिए कोई नहीं पहचानता। कोई बड़ा आदमी किसी छोटे आदमी को नहीं पहचानता है। वह भी नहीं पहचाना। इसमें कोई कसूर की बात तो नहीं थी। इसमें उसको नाराज होने की कोई जरूरत भी नहीं थी। मित्र ने पूछा--महानुभाव! क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपका नाम क्या है? उसने कहा--मेरा नाम? क्या अखबार नहीं पढ़ते हो? आंखें बंद करके जिंदा रहते हो? सारी दुनिया मेरा नाम ले रही है--मुनि शांतिनाथ!
मित्र समझ तो गया कि यह आदमी वहीं का वहीं है, कहीं गया नहीं है। थोड़ी देर संन्यासी कुछ ब्रह्मचर्चा करते रहे। आत्मज्ञान, उपनिषद की बातें बताते रहे। फिर उस मित्र ने पूछा--महानुभाव! क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपका नाम क्या है? उन्होंने बड़े गुस्से से उसे देखा। बोले--हद हो गई। मैंने अभी तेरे को बताया है कि मेरा नाम मुनि शांतिनाथ है। भूल गया इतनी जल्दी?
बात आई गई हो गई, फिर ब्रह्मचर्चा चलने लगी। कोई दो मिनट बीते होंगे! उस मित्र ने फिर पूछा--महानुभाव! मैं पूछ सकता हूं कि आपका नाम क्या है? तो वह डंडा उठा लिए। उन्होंने कहा--कह तो दिया कि मेरा नाम मुनि शांतिनाथ है। अगर अबकी दफा पूछा तो वह मजा चखाऊंगा कि जीवन भर याद रहेगा। उस मित्र ने कहा--मैं पहचान गया कि आप वही शांतिनाथ हैं, जो अपने बचपन में साथ रहे और कोई फर्क नहीं हुआ है। इसी बात को पूछने के लिए मुझे तीन दफा नाम पूछकर आपको कष्ट देना पड़ा है।
क्रोध वहीं का वहीं है। ऐसे कहीं कोई क्रोध नहीं छोड़ता है, सो साधु-संन्यासी कभी अभिशाप देते रहे, शाप देते रहे। काहे के लिए ऋषि-मुनि अभिशाप देते रहे कि जाओ कई जन्मों तक भटको, नरक में जाओ, यह हो जाए।
कैसे लोग रहे होंगे? इनको ऋषि-मुनि कौन कहता रहा? वे परम क्रोधी लोग रहे होंगे। क्रोध से ही उनका संन्यास निकला होगा। वह क्रोध भीतर मजबूत रहा होगा। छोटी-छोटी बात पर अभिशाप! ऋषि से और अभिशाप? मुनि से और अभिशाप? यह तो अकल्पनीय है। इसकी तो कोई कल्पना नहीं हो सकती। लेकिन सारी कथाएं, सारे पुराण भरे हैं।
क्रोध ऐसे नहीं जाता है, न जा सकता है। जीवन में कोई भी निषेधात्मक, कोई भी नैगेटिव इमोशन कभी सीधे नहीं हटाया जा सकता। घृणा नहीं छोड़ी जा सकती, क्रोध नहीं छोड़ा जा सकता। हां प्रेम जगाया जा सकता है। और प्रेम जाग जाए तो क्रोध विलीन हो जाता है और घृणा छूट जाती है। वैसे ही जैसे दीया जल जाए तो अंधकार चला जाता है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि क्रोध छोड़ो। मैं नहीं कहता कि घृणा छोड़ो। मैं नहीं कहता कि कठोरता छोड़ो। मैं नहीं कहता कि सैक्स, काम छोड़ो। मैं नहीं कहता कि लोभ छोड़ो। छोड़ने की भाषा गलत है। मैं कहता हूं प्रेम को उपलब्ध करो, प्रकाश को उपलब्ध करो। उसकी उपलब्धि, इनका छोड़ना अपने आप बन जाएगी। उसे पा लेना इनका छूट जाना है।
इसलिए जो धर्म छोड़ना सिखाता है, वह धर्म ही नहीं है। जो धर्म पाना सिखाता है, उपलब्ध करना, पॉजिटिव, विधायक रूप से कुछ होना सिखाता है, वही सच्चा है। निषेधात्मक धर्म का ईश्वर मर गया, जो कहता था कि क्रोध छोड़ो, हिंसा छोड़ो।
विधायक धर्म के ईश्वर को जन्म देने का इरादा है क्या? जो कहे कि प्रेम को फैलाओ, प्रेम को विकसित करो, प्रकाश को जगाओ। अगर संसार में कभी भी किसी धर्म का राज्य होगा तो विधायक खोज से होगा निषेधात्मक निषेध से नहीं।
इसलिए मैं कहता हूं कि धर्म त्याग नहीं है, धर्म उपलब्धि है। धर्म छोड़ना नहीं है, धर्म है पाना। धर्म संसार का विरोध नहीं है, धर्म है ईश्वर को पा लेना। यह जो विरोध की भाषा है "छोड़ने', "त्यागने', की गलत है। इसलिए मैंने कहा कि प्रेम तो सेवा है, सेवा प्रेम नहीं है।
अंत में बहुत-से ऐसे प्रश्न हैं, जिनमें कोई तारतम्य और कोई संगीत नहीं है। जैसे कोई पूछता है कि ईश्वर कहां रहता है? ठीक है, उन्होंने सोचा कि जब मैंने खबर कर दी कि ईश्वर तो मर गया है तो इतना तो पता ही होगा कि रेजीडेंस कहां है उसका, रहता कहां है यह सज्जन?
तो पूछना उनका स्वाभाविक है कि ईश्वर कहां रहता है। कितने हाथ पैर हैं, कितने मुंह हैं, क्या शक्ल है। अगर आपने देखा है तो क्या उनका रूप बतला सकते हैं? स्वर्ग और नरक है या नहीं? हैं तो उनके बीच फासला क्या है? क्या कोई नरक से स्वर्ग जा सकता है?
दुनिया में जनसंख्या आदमी की बढ़ती जा रही है और कहते हैं कि आत्माएं सीमित होती हैं। फिर यह बढ़ती कैसे जा रही हैं? ऐसे बहुत प्रश्न हैं, अनेक-अनेक प्रकार के।
जब ऐसे बहुत-से प्रश्न मेरे पास होते हैं तो उस दिन मैं एक स्वप्न जरूर देखता हूं। आज भी मैंने वह सपना देखा। उसी सपने को मैं आपसे कहूंगा। जब भी ऐसे बहुत-से प्रश्न मेरे पास होते हैं तो उस दिन में एक सपना जरूर ही देखता हूं। आज दोपहर में मैंने एक सपना देखा। उस सपने को आप से कहूंगा। अब प्रश्नों के उत्तर नहीं दूंगा। हो सकता है उस सपने में इन प्रश्नों के बहुत-से उत्तर मिल जाएं और यह भी हो सकता है कि कोई भी उत्तर न मिले। सपने का क्या भरोसा?
दोपहर में सोया, मैंने एक सपना देखा कि मैं एक बहुत टूटे-फूटे से मकान के सामने खड़ा हूं। उसके सामने ही एक बहुत बड़ी हवेली है। सिर उठाकर देखता हूं तो उस हवेली के ऊपर का आखिरी हिस्सा दिखाई पड़ता है। वह आकाश में कहीं दूर उठता ही चला जाता है और उसके ही सामने एक टूटे-फूटे फाटक और उसके पीछे एक छोटा-सा झोपड़ा है।
सोचा कि यह क्या है? लेकिन स्वाभाविक है। जहां बहुत बड़े मकान होते हैं, उनके सामने छोटे झोपड़े होने जरूरी हैं, नहीं तो बड़े मकान होंगे कैसे? छोटे मकानों को और छोटा करके ही तो बड़े मकान और बड़े होते हैं।
तो एक मकान बड़ा होता चला गया, दूसरा मकान छोटा होता चला गया। धीरे-धीरे एक मकान आकाश छू लेगा और दूसरा मकान जमीन पर बिछ जाएगा और सो जाएगा। ठीक ऐसा ही किसी का मकान है तो मैंने देखा, वह जो टूटा-सा झोपड़ा है, उसके सामने एक तख्ती लगी है। वर्षा में उसके रंग उड़ गए हैं। शायद बहुत दिनों से उसकी पोताई नहीं हुई है। उस पर लिखा हुआ है "श्री भगवान'।
मैं बहुत घबराया। भगवान का मकान? दिखता है किसी शराबी ने होली का वक्त आया तो तख्ती बदल दी। भगवान का मकान तो बड़ा होना चाहिए। भगवान जो कि परम शक्तिशाली है, परमपिता, सबके बनाने वाले, वह कोई झोपड़े में रहेंगे, झोपड़े में?
लेकिन सामने जो तख्ती लगी है, वह तो लगी है। इधर तो लिखना चाहिए श्री भगवान। बिलकुल हिंदी में लिखा है और वह भी बड़े-बड़े अक्षरों में। उधर लिखा है डाक्टर डेविल डी० डी० "डाक्टर आफ डिवनिटी' डाक्टर डेविल।
शैतान का घर है यह। और इनको डी० डी० किसने दे दी है--यह "डाक्टर आफ डिवनिटी' कर रहा है। यह धर्माचारी कब हो गया है? डेविल, जो है एक शैतान!
तख्ती में कोई गड़बड़ है और यह श्री भगवान की तख्ती बहुत दिनों से पुती भी नहीं है और सन्नाटा है। उधर कोई दिखाई भी नहीं दे रहा है, फिर भी मैंने कहा कि जब पूछना ही है तो बजाय शैतान के घर में जाने के भगवान के घर में जाकर पूछूं।
मैंने वह फाटक खोला, उसमें इतनी धूल जम गई है, जिससे पता चलता है कि यहां कोई आता ही नहीं है। अंदर घुसा तो एक बहुत बड़े कुत्ते को उस झोपड़े के बाहर बैठा देखा तो मैं थोड़ा डरा, क्योंकि कुत्ते कई प्रकार के होते हैं, जैसे आदमी कई प्रकार के होते हैं। पता नहीं किस प्रकार का कुत्ता हो?
एक तो वह कुत्ता होता है, बिलकुल मरियल। उसकी जाति अलग होती है और उसको पहचानने का एक ढंग होता है। बच्चे अगर घर में मिठाई भी खा रहे हों और मरियल कुत्ता आ जाए तो मिठाई खाना छोड़कर फौरन पत्थर उठाकर उसके पीछे भागते हैं।
मरियल कुत्ते में कुछ मैगनिटिव फोर्स होता है, कोई जादू होता है और बच्चे एकदम पत्थर उठा लेते हैं और भागते हैं। चाहे लाख मिठाई खा रहे हों, गुड्डी खेल रहे हों, चाहे कुछ भी कर रहे हों। मरियल कुत्ता बाहर निकलता है तो बच्चे भागकर निकल आते हैं। पत्थर उठा लेते हैं। वह कुत्ता मरियल होता है। मरियल कुत्ता हमेशा कानून से चलता है। वह गरीब का कुत्ता है। उसको नियम पालन करना पड़ता है, नहीं तो पुलिस वाला कहेगा चलो, रास्ते से बायें चलो।
एक अलसेसियन डाग होता है। वह सड़क के बीच में चलता है। वह कभी बायें नहीं चलता है, क्योंकि पुलिस वाला उसको नमस्कार करता है, क्योंकि वह साहब का कुत्ता है। अब अलसेसियन कुत्ता जब निकलता है, तब बच्चे चाहे घर के बाहर गुल्ली-डंडा खेलते होते हों, वह फौरन दरवाजा बंद कर लेते हैं और होम-वर्क करने लगते हैं। उसको पत्थर नहीं मारते हैं।
वैसे कुत्ते कई तरह के होते हैं, क्योंकि दो तो खास जातियां हैं। तो मैंने कहा कि पता नहीं यह मरियल कुत्ता है या अलसेसियन कुत्ता है। इसके पास जाना उचित है कि नहीं। और फिर भी जाना तो था और धीरे-धीरे बढ़ा।
बढ़ने पर थोड़ी हैरानी हुई। करीब जाकर देखा तो वह कुत्ता बिलकुल आंखें बंद किए सो रहा था। तो मैंने सोचा श्री भगवान का कुत्ता है। शायद कोई योग-साधना करता हो। सत्संग से तो पत्थर तक जीवित हो गए हैं। यह तो कुत्ता है। तो सत्संग के प्रभाव से मालूम होता है कि आंखें बंद कर ली हैं। जैसा कि सुनते हैं ऋषि-मुनियों के घर तोते भी वेद-मंत्र पढ़ते थे। ऐसे ही शायद यह कुत्ता भी कोई ध्यान आदि कर रहा हो! कोई समाधि लगा रहा हो!
तो मैंने सोचा फिर भी संभलकर चलना चाहिए, क्योंकि कोई समाधि बगुले जैसी समाधि होती है। बगुला समाधि लगाकर बैठता है और मछली को ताकता भी जाता है। पास गए और कुत्ता कहीं धोखा दे दे और समाधि झूठी निकले तो मुश्किल हो जाएगी। जैसा कि अक्सर समाधियां झूठी निकलती हैं। पास जाओ तो टूट जाती हैं। दूर से समाधि मालूम पड़ती है, पास जाओ तो पता चलता है कि समाधि नहीं, धोखा है।
मैंने कहा पता नहीं किस प्रकार का योगी है। बगुला योगी है कि सचमुच योगी है, कुछ कहा नहीं जा सकता। योगी है। फिर भी पास जाना जरूरी था। और कितना ही पास चला गया, लेकिन वह तो परम ध्यान में है। वह हिलता-डुलता नहीं है।
तो मैंने कहा, चमत्कार है! एक कुत्ता भी देखो, आदमी को छोड़ो, एक कुत्ता भी भाव के साथ उपलब्ध हो गया है। पता नहीं ब्रह्मलीन है या और कुछ है। स्वभावतः मैंने हाथ जोड़े और उसको नमस्कार कर ही रहा था कि मुझे खयाल आया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि कुत्ता मर गया हो और हम सोचते हैं कि ब्रह्मलीन है।
कंकड़ मारकर देखा तो पता चला कि कुत्ता मरा हुआ था और जब मैं उसको हाथ जोड़ रहा था तभी एक बूढ़ा आदमी बाहर निकला और उसने कहा--क्या करते हो? मैंने कहा कि मुझे प्रतीत होता है कि यह जीव ब्रह्मज्ञान की स्थिति में है। इसको नमस्कार करता हूं तो उन्होंने कहा--यह कुत्ता ब्रह्मलोक उपलब्ध कर लिया है। यह अदभुत कुत्ता था। यह बड़ा साधक था और बड़ा योगी। इसने सब तरह के योग साधे और आखिर यह ब्रह्मगति को प्राप्त हो गया।
तो मैंने कहा कि क्या श्री भगवान यहीं रहते हैं? उन्होंने कहा--मालूम होता है आप कुछ भी नहीं जानते हैं। मैं ही श्री भगवान हूं। वह बूढ़ा आदमी बोला। उस बूढ़े आदमी को देखकर मुझे बहुत घबराहट हुई, क्योंकि कभी कल्पना नहीं की थी कि ऐसे श्री भगवान होंगे। उनके कपड़े भी फटे हुए थे। उनकी हालत बड़ी खराब थी। चश्मे उनके टूटे हुए थे। एक रस्सी बंधी हुई थी। तो मैंने कहा--विश्वास नहीं आता है। फिर मेरा विश्वास में विश्वास भी नहीं है। मुझे शक होता है।
उन्होंने कहा--विश्वास फलदायी होता है। शक करोगे तो भटक जाओगे। संदेह जिसने किया है, गए नरक में। मैं जो कहता हूं मानो। तो मुझे यद्यपि डर हुआ और मैंने सोचा कि ठीक ही कहते हैं, भगवान कई रूपों में प्रगट होते हैं, कई अदभुत छवि के रूप में प्रगट हुए हैं, क्या कहीं हो सकता है कि इस बार इन्हीं बूढ़े का रूप प्रगट किया हो? किस भेष में मिल जाएं, कुछ पता भी नहीं है। तो मैंने जल्दी से झुककर-नमस्कार किया। वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा--आओ, ऊपर आओ।
भीतर मैं गया तो मैं बहुत हैरान हो गया। मैंने देखा कि वहां तो कुछ भी नहीं था। कोई फर्नीचर भी नहीं था, कोई सामान नहीं था। हम तो सुनते थे कि बड़े सिंहासन पर भगवान बैठते हैं। वहां कुछ नहीं था। एक छोटी-सी चटाई पर बैठे हुए थे और कुछ कर रहे थे।
मुझे देखकर और हैरानी हुई। मैं तो सोचता था कि क्या इस दुनिया को बनाने की, बदलने की, गरीबों की, इसकी, उसकी योजना करते होंगे। नये-नये प्राणी बनाते होंगे! वे एक स्लेट-पट्टी लिए हुए, कुछ किताबें रखे हुए, सी-ए-टी-कैट, कैट मींस बिल्ली पढ़ रहे थे। आर-ए-टी-रैट, रैट यानी चूहा!
बहुत हैरान हुआ। कैसे भगवान हैं? मैंने उनसे पूछा--यह क्या कर रहे हैं आप?
वे बोले कि मैं संस्कृत के चक्कर में पड़ा-पड़ा बर्बाद हो आया, तब अंग्रेजी सीख रहा हूं। वह सामने जो शैतान रहता है, उसने पहले अंग्रेजी सीख ली। मैं इस भूल-भुलक्कड़ में पड़ा रहा कि संस्कृत देव-भाषा है, भटक गया। उसने सब जिंदगी, दुनिया जीत ली। वह अंतर्राष्ट्रीय भाषा सीख गया। हम संस्कृत के पीछे पड़े रहे।
अभी-अभी किसी ने कहा कि तुम पिछड़ते ही जा रहे हो। अंतर्राष्ट्रीय भाषा सीखो तो मैं अंग्रेजी सीख रहा हूं। वह अभी-अभी किसी ने कहा कि तुम पिछड़ते ही जा रहे हो। अंतर्राष्ट्रीय भाषा सीखो तो मैं अंग्रेजी सीख रहा हूं। वह जल्दी से अपनी किताब उठाकर बैठ गए और पढ़ने लगे सी-ए-टी कैट, कैट यानी बिल्ली। आर-ए-टी रैट, रैट यानी चूहा।
मुझे तो इतनी घबराहट होने लगी कि यह क्या हो रहा है। यह कैसे भगवान हैं! मैंने कहा--हद कर दी। इस उम्र में अंग्रेजी सीख रहे हो? तो उसने कहा--उम्र का क्या सवाल है? उम्र का सवाल होता है तुम्हारी दुनिया में, जहां आदमी मरते हैं। यहां मुसीबत है कि कोई मरता ही नहीं। उम्र का कोई सवाल ही नहीं है यहां तुम्हारी दुनिया में लोग चिल्लाते हैं कि भगवान हमें अमर कर दो और हम यहां अपनी छाती पर हाथ रखकर रोते हैं कि मरने का कोई उपाय मिल जाए तो ठीक है। कितने-कितने दिन से बैठे हैं? कोई रास्ता ही नहीं मिल रहा है, कोई उपाय ही नहीं है।
अमरता बड़ी खतरनाक है, क्योंकि कभी नहीं मर सकेंगे। इससे ऐसी घबराहट होती है कि यही बोझ रोज, यही बोर्डम रोज। यही सुबह से लोगों की प्रार्थनाएं, पतित-पावन चिल्ला रहे हैं दुनिया भर के लोग और हम सुन रहे हैं बैठे। कोई रघुपति राघव राजा राम कर रहा है तो कोई हम सुन रहे हैं बैठे। हम इसको सुन रहे हैं। हमारा दिमाग खराब हो रहा है।
इधर एक आदमी आया था और उसने सलाह दी कि तुम अपने कान में यंत्र लगवा लो तो हमने कान में यंत्र लगवा लिया है। जिसकी सुननी होती है यंत्र का बटन दबा देते हैं, जिसकी नहीं सुननी होती है यंत्र का बटन ऑफ कर देते हैं। तो जो बहुत अपने वाले हैं, उनकी सुन भी लेता हूं। जो नहीं हैं, उनकी नहीं भी सुनता हूं।
मुझे तो बहुत घबराहट हुई। मैंने तो सोचा यह ढंग दुनिया में ही चलता है, यहां भी चलता है। और बोले कि अंग्रेजी सीख रहा हूं। जल्दी आता है तो सीख लेंगे, शायद शैतान के मुकाबले कुछ जीत भी हो जाए। देखते हैं शैतान मकान बनाता जा रहा है। यहां जमीन छूटती जा रही है। मैंने उससे पूछा--लेकिन आपके ऋषि-मुनि कहां हैं, जो हजारों-हजारों हो गए और यहां स्वर्ग में आ चुके हैं। यह स्वर्ग है न? उन्होंने कहा--हां यह स्वर्ग है। तो मैंने कहा--वह सामने? तो उन्होंने कहा--वह नरक है। हमने तो सुना था कि नरक में आग की लपटें जलती हैं, लेकिन यहां तो बड़े आराम-घर बने हुए हैं। बढ़िया मकान और बगीचे लगे हैं। भगवान ने कहा--वह सब शैतान की करतूत है। उन्होंने सब गड़बड़ कर डाली है। और यहां? हमने कहा--कहां है वह कल्पवृक्ष? उन्होंने कहा--अब कहां है? नदी पर उन्होंने बांध बना लिया है। पानी इस तरफ आने नहीं देते। सारे राजनीतिज्ञ वहां इकट्ठे हो गए हैं। वह रोज एन्क्रोचमेंट किए चले जाते हैं। जमीन स्वर्ग की हड़पते चले जाते हैं। हमको पीछे हटना पड़ा है। हम अकेले रह गए हैं।
ऐसे सौ-दौ सौ थोड़े लोग हैं। बुद्ध हैं, महावीर हैं, क्राइस्ट हैं, राम हैं, कृष्ण हैं, वे ऐसे दस-पांच लोग यहां हैं। लेकिन उनसे कोई काम नहीं चलता। ये कोई भी लड़ाकू नहीं हैं। इनसे कहो तो ये कहते हैं कि तुम्हारे एक गाल पर कोई चांटा मारे तो तुम दूसरा गाल उसके सामने कर दो। अब क्या है? ये लड़ने को तैयार नहीं होते! ये कहते हैं कि जो बायें गाल पर चांटा मारे दायां भी उसके सामने कर दो। अब वह शैतान के सब आदमी, सारे प्राइम मिनिस्टर दुनिया के, वहां हैं। सारे मिनिस्टर वहां हैं। सारे प्रेसीडेंट वहां हैं। सारे धर्म-पुरोहित वहां इकट्ठे हैं। तो मैंने कहा--वे ऋषि-मुनि कहां गए, जो इतने आए थे?
उन्होंने कहा--चूंकि हम बहुत ज्यादा निकट हो गए हैं, मैं तुम्हें अपने दिल की बात कह देता हूं। सौ ऋषि-मुनि आते हैं तो यह मत सोचना कि सौ स्वर्ग में जाते हैं। सौ में से मुश्किल से एक आता है। और मैंने कहा--निन्यानवे? तो उन्होंने कहा--निन्यानवे तो लोगों को स्वर्ग भेजने का रास्ता बतलाते हैं और वह खुद पीछे के रास्ते से नरक में चले जाते हैं। इतने होशियार हैं ऋषि-मुनि कि जनता से कहते हैं "स्वर्ग जा रहा हूं' और पीछे से "सीक्रेट-पास' बना रखे हैं उन्होंने। किताबें भी हैं, "सीक्रेट-पास' पीछे से गुप्त रास्ते बना रखे हैं। उनसे खुद नरक चले जाते हैं। एकाध कोई भूल-चूक के चक्कर में फंसकर स्वर्ग में आ भी जाता है तो दोत्तीन दिन में घबरा जाता है और एकदम दरवाजे पर धरना दे देता है। कहता है कि हम उपवास करेंगे, अनशन करेंगे, हड़ताल कर देंगे। हमको नरक भेज दो। मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा हम तो जमीन पर से स्वर्ग आने की कोशिश करते हैं। यहां आए हुए लोग नरक जाना चाहते हैं? तो उन्होंने कहा--वह ऋषि-मुनि कहते हैं कि बिना भाषण के रात में नींद नहीं आती। यहां किसको भाषण करें? यहां स्वर्ग में तो कोई सुनने को राजी नहीं, क्योंकि जितने हैं, वे सब खुद ही भाषण देने वाले हैं। और ऋषि-मुनि कहते हैं कि बिना अनुयायियों के हमारे मन को राहत नहीं मिलती है। हमें अनुयायी से, फालोअर से बहुत प्रेम है और फालोअर सब नरक में हैं। वे कहते हैं हम वहीं जाएंगे। वे कहते हैं कि यहां सुबह अखबार नहीं छपता है।
स्वर्ग में कोई अखबार नहीं छपता है--भगवान ने बताया। और नरक में तो अखबार ही अखबार छपते हैं। तो वे ऋषि-मुनि कहते हैं कि बिना अखबार में सुबह नाम पढ़े, दिन भर हमें बड़ी बेचैनी रहती है, गर्मी लगती है। तो वहीं जाएंगे। तो दो दिन-चार दिन रहते हैं मुश्किल से, फिर नरक में चले जाते हैं। सौ-दो सौ आदमी यहां टिके हैं, हजारों-हजारों साल से। कोई रस नहीं है।
भगवान ने आगे कहा--कई दफा तो मेरा भी मन होता है कि नरक ही चला जाऊं। यहां कोई रस नहीं है। एकदम बोर्डम है। किसी से बात करो तो वह कहता है कि सब असार है। सब ज्ञानी यहां हैं। वे कहते हैं कि सब असार है, सब माया है। किसी बात में कोई रस नहीं है, कोई संगीत नहीं, कोई नृत्य नहीं।
तो मैंने कहा--यह तो बड़ी घबराहट की बात है। मुझे तो बहुत दया आने लगी है। मैंने तो सोचा था कि आपसे कुछ दया पाऊंगा और मुझे तो आप पर दया आने लगी है। यह तो बड़े दुख की स्थिति में आप फंसे हैं। आपका छुटकारा कैसे किया जाए?
उन्होंने कहा--एक तरकीब निकाल ली है। एक वृद्धजन आए थे, उनको मैंने कहा तो उन्होंने कहा कि एक तरकीब करो। पुराना ताला निकाल कर अलग करो। बीच में दीवाल है--नरक में और भगवान के स्वर्ग में और बीच में दरवाजा है, ताला है।
उन्होंने कहा--ताला अलग करो। नए ढंग का ताला लगाओ, जिसमें की-होल होता है, जिसमें छेद होता है, चाबी में। चाबी उस की-होल से निकाल कर नरक का मजा देखो कि क्या हो रहा है। उस बूढ़े ने कहा कि इसी तरह तो हम दुनिया में दिन गुजारते हैं। पड़ोसी के की-होल में से देखते रहते हैं कि क्या-क्या चल रहा है। दिन गुजर जाते हैं बड़े सुख से। रातें गुजर जाती हैं बड़े सुख के साथ। पड़ोसी की लीला देखते रहते हैं कि क्या चल रहा है। प्रेम हो रहा है कि लड़ाई हो रही है कि पत्नी पति को मार रही है कि क्या हो रहा है। उसे देखने से बड़ा रस आता है। उस बूढ़े ने तरकीब बताई।
हमने एक नया ताला लगा लिया है। उसी की-होल में से दिन गुजार देते हैं। या तो आर-ए-टी रैट, चूहा, सी-ए-टी कैट, बिल्ली, यह पढ़ते हैं या की-होल में से नरक का मजा देखते हैं।
मेरा भी मन हुआ कि उस की-होल में से नरक का मजा देखूं। कौन नहीं देखना चाहेगा? अगर आपके में से कोई होता तो उसका मन भी होता कि छोड़ो इन भगवान को। नरक का मजा देखें, क्या हो रहा है!
मैंने भी उस की-होल में से देखा तो उन्होंने कहा कि यह जो दरवाजा है, वह जो कल्पवृक्ष सूख गया है, जिसके नीचे बैठकर सभी इच्छाएं पूरी हो जाती थीं, उसी को काटकर बना लिया है। इस दरवाजे में एक खूबी है। जिसका भी स्मरण करोगे, इस की-होल में से वही दिखाई पड़ने लगेगा। तो मैंने कहा--हे ऋषि-मुनि! जो तुम नरक में निवास कर रहे हो, तुमको देखना चाहता हूं।
एकदम सामने की-होल में एक दृश्य आ गया। कोई दस हजार से ज्यादा ऋषि-मुनि रहे होंगे। बड़ी भारी सभा हो रही है। सब उस सभा में बड़ी गजब की बातें दिखाई पड़ती थी। उसमें एक बड़ी गजब की बात यह दिखाई पड़ी कि वह सभा बड़े डेमोक्रेटिक ढंग की थी। ऐसा नहीं था कि मैं यहां एक बोल रहा हूं, आप सब सुन रहे हैं और आप सबके साथ अन्याय कर रहा हूं और अकेला बोल रहा हूं।
उस डेमोक्रेटिक सभा में दस हजार आदमी इकट्ठे बोल रहे थे, क्योंकि उनका कहना है कि किसी मनुष्य को यह अधिकार नहीं है कि किसी के ऊपर अनाचार करे। तो वहां दस हजार माइक लगे हुए थे और दस हजार आदमी बोल रहे थे। वहां ऐसा तूफान मचा हुआ था, जो कुछ समझ में नहीं आता था।
मैंने श्री भगवान को कहा कि यह नरक के लोग तो हमसे बहुत आगे निकल गए। जमीन पर ऐसा होता है कि एक आदमी बोलता है, बाकी लोग भी बोलते हैं। लेकिन मन ही मन में बोलते हैं। ऐसा नहीं करते। एक आदमी बोलता है, बाकी लोग अपने मन ही मन में बोलते हैं। ऐसा नहीं होता कि सभी लोग बोलें। यह तो बहुत ही शिक्षित हो गए। यह तो सभी लोग बोलते हैं। यह तो हृयूमन इक्वैलिटी मनुष्य की समानता का सिद्धांत इन्होंने पूरा कर दिया। यह कोई किसी की सुन नहीं रहे हैं। किसको फुर्सत है?
जमीन पर भी ऐसा होता है। कोई किसी की नहीं सुनता, लेकिन फिर भी ढंग तो हम दिखलाते हैं, सुन रहे हैं, एक ढंग से बैठे रहते हैं, जिससे मालूम होता है कि वे सुन रहे हैं। बैठकर अपनी बातें भीतर-भीतर कहते रहते हैं, लेकिन यह क्या बात हुई?
भगवान ने कहा--यह नरक के लोग बड़े प्रोगैसिव हैं, बड़े प्रगतिशील हैं। इनके तो मुकाबले में हमारी पृथ्वी क्या, स्वर्ग को भी इन्होंने बर्बाद कर दिया। और दृश्य बदलते गए। ऋषि नाच रहे हैं, नदियों के किनारे, बड़े आधुनिक ढंग के नाच। देख कर बहुत घबराहट होने लगी।
पूछा तो उन्होंने कहा--इसमें कोई कसूर नहीं है। इन ऋषियों का कहना है कि हमने खूब त्यागत्तपश्चर्या की, अब हम उसका फल चाहते हैं। हमने बहुत कष्ट भोगे, बहुत उपवास किए, शरीर को सुखाया। अब हम फल चाहते हैं। हमें सुख चाहिए,। अच्छे मकान चाहिए, एयरकंडीशनर्स चाहिए, नाच चाहिए, शराब चाहिए और शराब के झरने बहा रहे हैं और बगीचे बसा रहे हैं।
मैंने कहा--यह तो बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसा तो हमारे मुल्क में भी हुआ है। आजादी के पहले कुछ लोग थोड़ा-सा जेल गए, तपश्चर्या की। पीछे वे कहने लगे, हमको गददी  चाहिए, हमको दिल्ली चाहिए, क्योंकि हमने त्याग किया। अब हम भोग करेंगे। ऐसा तो जमीन पर भी हुआ। वही यहां होगा, यह तो सब जगह होगा। जो त्याग किया करेगा, वह भोग करने के लिए ही तो त्याग करेगा।
उन्होंने कहा कि हम छोड़ते हैं तो हम पाने के लिए छोड़ते हैं। वह कहते हैं कि यहां छोड़ेंगे वहां स्वर्ग में हमें मिलेगा। स्वर्ग में नहीं मिला तो वे लोग नरक को चले गए। बहुत घबराहट, बहुत बेचैनी मालूम हुई। श्री भगवान से मैंने कहा--हालत तो बहुत खराब हो गई है। और छोड़िए, इस उम्र में इसको मत सीखिए। अंग्रेजी भाषा कोई आपके पल्ले अब नहीं पड़ेगी।
वे बोले कि कैसे करूं। एक टयूटर लगा छोड़ा है। वह आता है सिखाता है, बहुत डांट-डपट बताता है और बहुत परेशान करता है छोटी-छोटी बातों में कहता है, खड़े रहो, बैठो। पुराने ढंग का टयूटर है। बेंत बताता है, गाली बकता है, बड़ा गुस्सा जाहिर करता है। मैंने कहा--आपको पता नहीं है। होमवर्क न कर पाएं तो कापी में पांच रुपए का नोट छिपाकर बता दिया करें। उसी वक्त टयूटर भी आ गए। वह बूढ़े सज्जन थे। हिंदुस्तान के किसी हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक रहे थे। वह आए और उन्होंने आते ही डांटना शुरू किया कि होमवर्क किया है कि नहीं?
श्री भगवान थर-थर कांपने लगे। विषाद हो गया। बहुत घबराहट हुई। उन्होंने कापी निकाली। डरते-डरते पांच रुपए का नोट रखा और कापी दी।
टयूटर ने देखा और कहा--शाबाश! आज तुमने होमवर्क किया और अब तू बिलकुल बेफिक्र रह। और ऐसे ही तुमने होमवर्क और किया तो परीक्षा भी देने की अब कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। और सदा ही इसी तरह का अनुशासन, इसी तरह का डिसिप्लिन मानो और इसी तरह पंडित जी को पांच से दस, दस से पंद्रह, पंद्रह से बीस देता रहा तो पक्का मान तेरा मैरिट में स्थान निश्चित है। तो उसने कहा--मैं जरा सब्जी ले आऊं। तू आगे अपना काम कर। मैं थोड़ी देर में फिर आता हूं, फिर होमवर्क देखूंगा।
टीचर तो चला गया। भगवान ने कहा--धन्य हैं आप, आपने अच्छी तरकीब बताई। यह नया टेकनीक है शिक्षा-प्राप्ति का। हमको पता भी नहीं। हम तो पुराने ढंग से आर-ए-टी रैट, आर-ए-टी रैट रटते जा रहे थे। अब तो हम जरूर ही, न सही कुछ हो गए हैं। डी० डी० शैतान तो हम भी मैट्रिक तो पास हो ही जाएंगे। अब तो आशा बंधी। मैंने उनसे पूछा--आपकी मातृभाषा क्या है? कुछ लोग कहते हैं संस्कृत है, कोई कहता है अरबी है, कोई कहता है हिब्रू है। आपकी मदर-टंग क्या है?
भगवान ने कहा--बड़ी मुश्किल की बात है। सारी दुनिया के लोग मुझसे कहते हैं, हे अनाथों के नाथ! पर हम हैं सुप्रीम आरफन, हमारे मां-बाप हैं ही नहीं और दुनिया हमको कहती है, हे अनाथों के नाथ! और हमसे ज्यादा अनाथ कोई नहीं है, क्योंकि हमारे कोई मां-बाप नहीं है। जो जमीन पर अनाथ हैं, उनके मां-बाप रहे होंगे। मर गए होंगे। हमारे तो हैं ही नहीं, क्योंकि थे ही नहीं। हम तो परम अनाथ हैं, सुप्रीम आरफन। मैंने पूछा--आपकी कौन-सी मातृभाषा है? बड़ी मुश्किल हुई, हम तो यही सुनते थे कि आपकी कोई खास मातृभाषा है। उन्होंने कहा--मातृभाषा है ही नहीं, क्योंकि हमारी कोई मां ही नहीं है।
मैंने उनसे पूछा--यह बड़ी अजीब बात है। सारी दुनिया में भाषाएं मातृभाषा क्यों कही जाती है? पितृभाषाएं क्यों नहीं कही जातीं? फादर-टंग क्यों नहीं कहते? मदर-टंग क्यों कहते हैं?
वह बेचारे बहुत दिक्कत में पड़ गए। सिर खुजलाने लग गए। कहने लगे। यह तो मेरे कोश में कहीं लिखा भी नहीं है। और शिक्षक ने पढ़ाया भी नहीं है। परीक्षा में आएगा भी नहीं। आप कहां-कहां के प्रश्न पूछते हैं? तो मैंने उनसे कहा--फिर मुझसे पूछ लीजिए।
उन्होंने कहा--आप बता दें तो बड़ी कृपा होगी। मैं नोट कर लूं। उन्होंने अपनी कापी निकाल ली नोट करने के लिए। मैंने उनसे कहा--जहां तक मैं समझता हूं इसका एक ही कारण हो सकता है। बच्चों की भाषा, मातृभाषा इसलिए कहलाती है कि बच्चे कभी पिता को मां के सामने बोलते देख ही नहीं पाते। मां ही हमेशा बोलती है। पिता सुबह उठ भी नहीं पाता कि मां बोलना शुरू कर देती है। और न मालूम क्या-क्या बोलना शुरू कर देती है। पिता बेचारा डर के मारे अखबार पढ़ता है और मां बोलती चली जाती है। पिता किसी तरह नाश्ता करता है और मां बोलती चली जाती है। पिता दफ्तर से लौटता है, खाना खाता है और मां बोलती चली जाती है।
यही क्रम रात में, पिता सोकर सुस्ताने लगता है और मां बोलती चली जाती है। इसलिए बच्चे इसको कहते हैं मदर-टंग। यह मातृभाषा है। इसलिए दुनिया में कहीं भी पितृभाषा नहीं कही जाती।
भगवान ने जल्दी से इसे नोट कर लिया। वे बड़े उत्सुक विद्यार्थी मालूम पड़े। मैंने उनसे कहा--अब मैं जाऊं? मैं तो आया था आपसे कुछ पाने को। यहां तो हालत उलटी हुई जा रही है और आप मुझी से पूछने लगे। हम तो सोचते थे कि ज्ञान मिलेगा, यहां उलटा ज्ञान देना पड़ रहा है। मैं क्या कहूं?
मैं बाहर निकलने लगा तो वे भागे हुए बाहर आए और उन्होंने कहा कि अपना पता-ठिकाना तो देते जाइए, जरूरत पड़े तो? एक ऐसी तरकीब बता दी परीक्षा पास होने की। कोई और मौका आ जाए तो पूछने आ जाऊंगा।
मैंने कहा--पता मैं बताए देता हूं, लेकिन पहले से एपाइन्टमेंट अगर नहीं लिया तो मिलना बहुत मुश्किल है। तो मैंने उन्हें पता लिखा दिया, ५०५, कालबा देवी रोड, जीवन जागृति केंद्र। फोन नंबर लिखा दिया २२३३१ और कहा इसे रख लो। लेकिन पहले से एपाइन्टमेंट ले लेना, क्योंकि जीवन जागृति केंद्र के लोग बड़े मजबूत हैं। लाख सिर-पैर पटकोगे, वे बड़ी मुश्किल से भीतर घुसने देंगे। और मुझसे मिलने नहीं देंगे। लेकिन तुम भी हठयोग पकड़ कर बैठ ही जाना और कहना कि मैं जाऊंगा नहीं बिना मिले तो शायद किसी को दया आ जाए और तुमको भीतर ले आएं और चार-पांच मिनट मिलने का वक्त मिल जाए।
फिर मैंने कहा--मैं जाऊं? तुम्हारी घड़ी में कितने बजे हैं? उन्होंने कहा--घड़ी मेरी बहुत दिनों से बंद है। यह तो गांधी बुङ्ढा आया था, उस ने मुझको घड़ी भेंट कर दी थी। मैंने इसे लटका लिया। न इसमें कांटा है, न इसमें डायल है और न कुछ है, न कुछ है। लेकिन यहां कोई जरूरत ही नहीं पड़ती कि देखें कि कितना बजा है। तो मैंने कहा--मुझे जाने दो, मुझे ठीक साढ़े छः बजे क्रास मैदान में पहुंचना है। वहां कुछ लोग मनोरंजन के लिए इकट्ठा हुए होंगे। उनको देर हो जाएगी तो बहुत दिक्कत हो जाएगी। इसी घबराहट में मेरी नींद खुल गई। जागकर बहुत सोचने लगा कि यह कैसा सपना है। अब लेकिन अपने से कोई झगड़ा ही नहीं कर सकते कि कैसा सपना है।
यह कैसे श्री भगवान हैं, यह कैसा शैतान है? लेकिन हालत ऐसी हो गई है। शैतान के मकान बहुत बड़े होते चले गए। भगवान का मकान छोटा होता चला गया। शैतान ने लोगों की अंतर्राष्ट्रीय भाषा समझ ली, आदमी की कमजोरी समझ ली, इंटरनेशनल लैंग्वेज और कोई भी नहीं है।
आदमी कमजोर है। अंग्रेज भी उसी बात में कमजोर है जिसमें हिंदू। जर्मन भी उसी बात में कमजोर है, जिसमें अफ्रीकन। कमजोरियां, हृयूमन वीकनैसेस, एक ही हैं। शैतान ने आदमी की कमजोरी की भाषा समझ ली। अंतर्राष्ट्रीय भाषा समझ ली। वह अंग्रेजी, वह अंतर्राष्ट्रीय भाषा ने सारे मनुष्य से कहा है।
भगवान अभी तक अंतर्राष्ट्रीय भाषा नहीं समझ पाया और आदमी जो भगवान से प्रेम करता है, उन्होंने लोकल लैंग्वेज जान ली है कि हम हिंदू हैं, हम मुस्लिम हैं, हम ईसाई हैं। उन्होंने खंड-खंड बना लिए। क्या आपको पता है कि शैतान के शिष्यों के कितने संप्रदाय हैं?
स्वर्ग उजड़ता जा रहा है। नरक बसता जा रहा है। भगवान ने सोचा कि नरक में जाकर रहने लगें तो शायद कुछ राज मिल जाए। एक आदमी मरा। उसकी पत्नी ने एक प्रेतात्मविद से कहा कि क्या तुम मेरे पति की आत्मा को जिला सकते हो? उसने उसके पति की आत्मा को बुलाया। उसकी पत्नी ने उस आत्मा को पूछा कि तुम कहां हो? क्या तुम सुख में हो, आनंद में हो? उसके पति ने कहा, मैं परम आनंद में हूं। हे देवी! मैं बहुत परम आनंद में हूं। उसकी पत्नी ने कहा--क्या उससे भी ज्यादा आनंद में हो जितना मेरे साथ थे?
तो उसने कहा--अब तो भय का कोई कारण नहीं है। अब तो मैं काफी दूर हूं। मैं सच्ची बात कह दूं। तुम्हारे साथ था, उससे बढ़कर भी आनंद में हूं। उसकी पत्नी ने कहा--इसका मतलब स्पष्ट है कि तुम स्वर्ग में हो। उसके पति ने कहा--नहीं देवी! मैं नरक में हूं। वह बहुत घबराई। उसने कहा कि नरक में हो और यहां से आनंद में? उसके पति ने कहा कि जमीन नरक से भी ज्यादा बदतर हो गई है। अब तो नरक ही मुझे अच्छा लगता है।
तो अगर भगवान भी सोचने लगे हों कि नरक में बस जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि स्वर्ग बिलकुल उजाड़ हो गया है। वहां अब कोई भी नहीं जाता है। वहां के दरवाजे पर मिट्टी जमी है। धीरे-धीरे दरवाजे टूट जाएंगे दो-चार वर्षा में। दो-चार वर्षा और आएंगी। मनुष्य-जाति का वह मकान गिर जाएगा। दो-चार और तूफान आएंगे तो बल्लियां भी उखड़ जाएंगी। कुत्ता तो मर गया भगवान का, जो उनका रखवाला था। कौन जाने भगवान भी मर गया हो या किसी दिन मर जाए। मैंने आपको पूर्व सूचना दे दी कि भगवान मर चुके। वह भगवान जो हमने अब तक पुराणों की कथाओं के आधार पर गढ़े, जो हमने कल्पना के लोक निर्मित किए, वह जा चुके। क्या किसी दूसरे भगवान को जन्म देने की इच्छा है?
निश्चित ही वह भगवान किसी रूप का भगवान नहीं होगा। उसकी कोई शक्ल नहीं होगी। उसके हाथ-पैर नहीं होंगे, उसके नाम नहीं होंगे, उसके मंदिर नहीं होंगे, उसकी मस्जिदें नहीं होंगी। उस भगवान का एक व्यापक विस्तार होगा प्रेम का, आनंद का, शांति का, प्रकाश का, ज्योति का।
भगवान का अर्थ किसी व्यक्ति से नहीं है। इसलिए यह न पूछें कि उसकी शक्ल क्या है और वह कैसे रहता है? भगवान से अर्थ है एक अनुभूति का। कोई नहीं पूछता है कि प्रेम कैसा है और कहां रहता है? तो क्यों पूछते हैं कि परमात्मा कैसा है और कहां रहता है?
प्रेम है एक अनुभूति। प्रेम की ही पराकाष्ठा परमात्मा की अनुभूति है। एक व्यक्ति से मैं प्रेम करूं, वह प्रेम कहलाता है और अगर समस्त के प्रति मेरी वही भाव-दशा हो जाए तो यह परमात्मा कहलाता है। प्रेम का परम विकास है। यह बच्चों जैसी बात कि ईश्वर बैठा हुआ है ऊपर और दुनिया बना रहा है, दुनिया चला रहा है, यह बच्चों जैसी बातें छोड़ें। यह बातें गईं। ये बातें छोड़ें कि भगवान ने एक दिन तय किया और दुनिया बना दी और कहा कि जाओ बन गई दुनिया और चलो। ये बच्चों जैसी बातें छोड़ें।
भगवान ने ऐसी किसी दुनिया को नहीं बनाया है और भगवान और उसकी सृष्टि दो अलग बातें नहीं हैं। क्रिएटर और क्रिएशन दो अलग बातें नहीं हैं। क्रिएटिविटी सर्जनात्मक ऊर्जा जब अप्रगट होती है तो उसे हम परमात्मा कहते हैं और जब प्रगट होती है तो उसे हम सृष्टि कहते हैं। जब हृदय में कोई गीत उठता है तो वह परमात्मा है। और जब वह वाणी से प्रगट हो जाता है तो वह सृष्टि है।
यह समस्त सृष्टि, यह समस्त सत्ता, यह पूरा एग्जिस्टेंस किसी बहुत अंतर-निनाद को अपने भीतर लिए है। कोई गीत, कोई संगीत, कोई आनंद वह फूंकना चाहती है। वह प्रगट हो रहा है। वही प्रगटीकरण यह संसार है। संसार और परमात्मा दो विरोधी बातें नहीं हैं। परमात्मा का ही प्रकार संसार है और जो लोग प्रेम का अनुभव करेंगे, वह सब तरफ उस परमात्मा की "छवि को' छवि से भूल में न पड़ जाएं कि यह तो वही कृष्ण-कन्हैया वंशी बजाते हुए दिखे, लग रहे हैं। धनुर्धारी राम देखने लगे। वह परमात्मा के स्पर्श में सब तरह अनुभव करेंगे। सब तरफ जो है, वही है। लेकिन उसे जानने के लिए, उसे पाने के लिए खुद के भीतर "न कुछ' जानना पड़ेगा। शून्य हो जाना पड़ेगा।
मैंने कल इसकी बात आपसे कही है कि कैसे शून्य हो सकते हैं। ज्ञान को छोड़ दो और प्रेम को विकसित होने दो। जहां ज्ञान का तट छूटता है और प्रेम के फूल खिलने शुरू हो जाते हैं, वही वह संगीत पैदा होता है जो समस्त के भीतर छिपा है, जो और खुद के प्राणों को समस्त से जोड़ देता है, वह अनुभव ही परमात्मा है।
ये थोड़ी-सी बातें इन चार दिनों में मैंने आपसे कही हैं। इस आशा में नहीं कि मेरी बातों को आप मान लेना। मान लेने का मैं दुश्मन हूं। मेरी बातों को ढोना मत। मैं कोई उपदेशक नहीं हूं। न मैं कोई गुरु हूं और न मेरी कोई यह मंशा है कि मेरी बातें कोई माने। फिर मेरी मंशा क्या है?
मैंने जो कहा है उस पर सोच-विचार करना है और सोच-विचार भी उस सीमा तक करना है, जब तक कि उस बात के संबंध में जरा-सा भी संदेह शेष न रह जाए। जरा-सा भी संदेह शेष रहे तो और सोचना, और सोचना। सत्य के संबंध में बहुत जल्दी नहीं करना। बहुत धैर्य, बहुत शांति, बहुत "पैशैंस' से सोचना, संदेह करना।
और संदेह करते-करते, सोचते-विचारते किसी क्षण कोई चीज दिखाई पड़ेगी कि सत्य है तो फिर वह मेरा कहा हुआ सत्य न होगा, किसी और का कहा हुआ नहीं, वह आपका सत्य हो जाएगा और स्मरण रहे, खुद का सत्य ही केवल मुक्त करता है। किसी और का सत्य मुक्त नहीं करता।
तो अंत में एक निवेदन कर दूं। इसका खतरा रोज है। कहीं मेरी बातें आपके भीतर जाकर, बैठकर विश्वास न बन जाएं। कोई मेरी बातों को न मान ले, नहीं तो यह खतरा पैदा हो जाएगा। मेरी बातों को मानना मत, इतनी कृपा करना। चार दिन सुना है, बड़ी कृपा की। अंतिम कृपा की प्रार्थना यह करता हूं कि मेरी बातों को मानना मत। सोचना-विचारना, खोजना, काटना और अगर किसी दिन कुछ बच जाए, वह फिर आपका होगा। और जो आपका है, वही आपकी आत्मा है, वही आपका सत्य है, वही सत्य मुक्त करता है। परमात्मा करे सत्य आपको मुक्त करे, ऐसी प्रार्थना करता हूं। और इतने दिन इतनी शांति से न मालूम कितनी कड़वी-मीठी बातों को कितने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं।
अंत में पुनः सबके भीतर के परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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