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रविवार, 2 दिसंबर 2018

सहज मिले अविनाशी-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

नये चित्त का जन्म

और इस जीवन की पूरी प्रफुल्लता को पूरी मुक्ति देनी पड़े और इस तरह सोचना पड़े कि एक आदमी अधिकतम कैसे सुख पा सकता है--हम वैसी जीवन-व्यवस्था भी बनाएं, वैसा परिवार भी बनाएं। लेकिन हमने जो सब ढांचा बनाया था, वह ऐसा था कि कैसे भाग जाएं। और सबके दृष्टिकोण अलग होंगे। अगर तुम इस घर को घर समझ रहे हो, तो एक बात होगी और तुम इसको वेटिंग-रूम समझ रहे हो स्टेशन का, तो बिल्कुल दूसरी बात होगी। एक वेटिंग-रूम समझने वाला आदमी इस घर के साथ दूसरा व्यवहार करेगा।

प्रश्नः लेकिन इन बातों को भी हमने निश्चय से तो नहीं माना, इस श्रद्धा में भी सच्चाई तो हमने कभी नहीं रही।


सच्चाई का सवाल नहीं है, इस श्रद्धा में जो दूसरी श्रद्धा खड़ी होनी थी उसको नहीं होने दिया खड़ा और आपको कनफ्यूजन में छोड़ दिया। तो कनफ्यूजन ही तो जान लेने वाला है। अगर यही आप मान लेते हो--सब मर जाते हो, सब मुक्त हो जाते, तो भी झंझट बाहर हो जाती, तो भी दिक्कत नहीं थी। जीना तो यहीं पड़ता है।
नीत्शे ने एक वाक्य लिखा है, कि धर्मों ने जीवन से मुक्त तो किसी को नहीं किया, लेकिन गलत बातें कह कर जीवन को विषाक्त कर दिया। जीवन तो रहेगा ही, वह तो कहीं जाता नहीं, जीना तो पड़ेगा ही, लेकिन गलत दिशाएं दिमाग को पकड़ा कर जीवन को हम विषाक्त जरूर कर सकते हैं।


आप अपनी पत्नी को प्रेम करेंगे, प्रेम कर भी रहे हैं और डर भी रहे हैं। और पूरे वक्त आपको खयाल है कि यह नरक का रास्ता है। भीतर बहुत अनकांशस तक यह गहरे में बैठा हुआ है। आप खाना खा रहे हैं, और स्वाद नहीं लेना है, यह भी दिमाग में बैठा हुआ है। कपड़े पहनने हैं, लेकिन अच्छे कपड़े पहनना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है, वह भी भीतर बैठा हुआ है। एक डबल माइंड है। भाग तो सकते नहीं। प्रेम भी करना पड़ेगा, घर भी बनाना पड़ेगा, जीना भी पड़ेगा। लेकिन यह सब विषाक्त हो जाएगा। इसमें आनंद नहीं रह जाएगा। इसमें जो रस आना चाहिए था, जो प्रफुल्लता होनी चाहिए थी, जो नृत्य होना चाहिए था, वह खो जाएगा। और मेरा कहना है, भाग ही गए होते तो हर्जा भी नहीं था, झंझट खत्म होती है, भाग कर कहां जाओगे?

प्रश्नः लेकिन मैजोरिटी तो आज बिलीव नहीं करती इस चीज को।

सवाल यह नहीं है। सवाल यह नहीं है कि इसमें आप बिलीव करते हैं या नहीं। सवाल यह है कि आपकी दूसरी बिलीफ पैदा हुई कि नहीं? यह सवाल नहीं है। यह सवाल नहीं है कि इस कमरे पर हम विश्वास करते हैं कि नहीं, सवाल यह है कि और कोई कमरा है? चाहे विश्वास करो या न करो, बैठे तो इसी में हैं। बैठना तो यहीं पड़ेगा। वह जो हमारा पूरा का पूरा एनवायरमेंट है, वह तो यही है। उसमें हम बैठे हैं, चाहे विश्वास करें और चाहे न विश्वास करें। उसमें हम खड़े हुए हैं, उसमें खड़े रहना पड़ेगा। आप दूसरा बना नहीं रहे हो।
यानी यह तो बात सच है कि पुरानी जड़ ढीली पड़ी है, लेकिन नई कोई जड़ विकसित नहीं हो रही है। और पुरानी जड़ अगर ढीली भी पड़ जाए, अगर वही अकेला झाड़ है, तो करोगे क्या, उसी की छाया में बैठना पड़ेगा। गाली भी देते रहोगे और बैठे भी रहोगे।
यह जो, यह बिल्कुल सच है कि एक अनास्था पैदा हुई है, लेकिन अकेली अनास्था काफी नहीं है। अनास्था इस अर्थों में होनी चाहिए कि एक नई आस्था का जन्म हो। तब तो वह जीवंत हो जाती है, पाजिटिव हो जाती है। नहीं तो निगेटिव हो जाती है और खतरनाक हो जाती है।
उससे एक अर्थ में पुराना आदमी बेहतर है। वह चाहे गलत ही मानता हो, वह उसको मान कर जीता तो है। आपका वह जीने का ढंग भी छूट गया, कोई नया ढंग भी नहीं है सामने।
हमें खयाल में नहीं है, हमें चाहे पता हो या न हो, चाहे हम ऊपर से कांशसली कहते भी हों कि हम विश्वास नहीं करते, लेकिन हमारे अनकांशस सब विश्वास वही के वही हैं जो पुराने आदमी के हैं।
एक मेरे एक परिचित हैं, बड़े आदमी हैं, और उनको यह खयाल था कि मैं तो बिल्कुल ही नये चित्त का आदमी हूं। मैं कुछ पुरानी चीजों में विश्वास नहीं करता। मैंने उनसे कहा कि आप जो इतना जोर देकर बार-बार कहते हैं कि मैं पुरानी चीजों पर विश्वास नहीं करता, इससे मुझे शक होता है। इस पर इतना कांशस नहीं होना चाहिए। अगर बात खत्म हो गई तो खत्म हो गई। यानी इसको यह कहना बार-बार कि मैं पुरानी चीज पर बिल्कुल विश्वास नहीं करता, इससे थोड़ा शक होता है। मैंने उनसे कहा, इसमें भीतर कहीं न कहीं गांठ है। फिर मैंने कहा, वक्त आएगा तो पता चलेगा।
भाग्य की बात है, मेरी यह बात हुई उससे छह या सात महीने बाद उनको हार्ट अटैक हो गया। तो मैं उनको देखने गया। तो वे करीब-करीब अर्द्धचेतन हालत में हैं, बहुत खराब हालत है। और एकदम राम-राम, राम-राम उनके मुंह से निकल रहा है। आंखें बंद हैं। मैंने उनको हिलाया और मैंने कहाः यह क्या कर रहे हो? राम-राम कर रहे हो? वे एकदम डर गए और कहा कि उस दिन ठीक कहा था, अभी जब मुझे बिल्कुल ऐसा लगा कि मैं मरता हूं, तो मैंने कहा, पता नहीं, शायद राम अगर हों, तो अपना बिगड़ता क्या है, मैं राम-राम जपता हूं! मेरा मतलब समझे न? जो माइंड हमारा, डबल माइंड, वह ऊपर से तो सब ठीक था, वे इतने दिन से तो कहते, लेकिन जब मौत करीब आई तो वही निकल आया भीतर जो छिपा था।
तो आप सुख में हों तो सब अनास्था चलेगी, दुख आया कि सब आस्था शुरू हो जाती है। हनुमान जी का मंदिर सार्थक मालूम पड़ने लगेगा, ज्योतिषी दिखाई पड़ने लगेगा, ताबीज अर्थपूर्ण मालूम होने लगेगा, जब दुख आया। तो मैं मानता हूं कि दुख में आप अपनी सही शक्ल में होते हैं। सुख में नहीं होते। क्योंकि दुख में आप जब घबड़ाते हैं तब पता चलता है कि भीतर से आपके असली संबल क्या हैं? दुख में ही कसौटी है। और इसलिए मरते-मरते अधिक नास्तिक आस्तिक हो जाते हैं--मरते-मरते। जिंदा तो ठीक रहते हैं, मरते-मरते, जैसे-जैसे मौत करीब आई कि उनके पांव डगमगाने लगते हैं। और इसका कारण यह नहीं है कि आस्तिकता जीत जाती है, इसका मतलब भय फिर जीत जाता है, और भीतर का जो छिपा हुआ है फिर प्रकट हो जाता है।
वही हमें उखाड़ना चाहिए और नये सीखने के कुछ आधार रखने चाहिए। अगर नया हम सीख जाएं, तो इसके उठने की कोई जरूरत नहीं रहेगी। नया सीखा नहीं है कुछ, पुराना है और पुराने पर विश्वास चला गया है। मगर वह भीतर बैठा है और नये ने कोई जगह नहीं भरी, जगह, वैक्यूम खाली है।
जिस दिन भी घबड़ाहट होगी वह भीतर से आकर जगह भर देगा। और आप पाएंगे कि बस विश्वास लौट आया है। यह जो, यह कोई, बल्कि पश्चिम में जो आस्था डगी है, वह हमसे गहरी डगी है। हमारी आस्था तो बिल्कुल ऊपरी डगी है। और आस्था के डिगने का हमारा तो कुल कारण इतना है कि हमारी शिक्षा जो है वह पूर्वी ही नहीं रही। मां-बाप तो सब पूर्वी हिसाब ही दिमाग में डालते हैं। फिर शिक्षा जो है वह उसमें सहारा नहीं बनती। फिर जो शिक्षा हम देते हैं वह तो रीजन की है, तर्क की है, सांइस की है उसकी। और हमारा माइंड जो है वह इससे बिल्कुल उलटा है। वह भीतर दबा रह जाता है। सात साल के बच्चे का जो माइंड है, वह हमारे भीतर बैठा हुआ है। ऊपर से एक दूसरा माइंड हमने खड़ा कर लिया है। तो जब भी मुसीबत पड़ेगी, तो मुसीबत में आदमी रिग्रेसिव हो जाता है, पीछे लौट जाता है फौरन।
आप हैरान होंगे जान कर कि अगर आप, जब जैसे मुसीबत पड़ जाती है, तो एक आदमी रोने लगता है, वह रोने का कोई मतलब नहीं है, वह पांच-छह साल का हो गया है। वह वापस उस जगह पहुंच गया है जहां वह रो लेता। वह ठीक माइंड उसका उस जगह खड़ा हो गया है अब। तो बिल्कुल रिग्रेस हो जाएगा। और यहां तक हालत होती है कल्याण जी कि अगर बहुत दुख पड़े तो आदमी अंगूठा चूसने लगता है। सिगरेट चूसना उसी तरह का है, वैसे कोई बहुत फर्क नहीं है। अंगूठा चूसने का ज्यादा सब्स्टीट्यूट है। और मुसीबत, दुख में वह जल्दी से उस तरफ उतर जाता है। रिग्रेसिव है, हमारे भीतर जो सात साल का आदमी छिपा हुआ है वह तैयार है वहां, हमेशा प्रतीक्षा कर रहा है कि आओ, वापस आओ। बुढ़ापे में, बीमारी में, परेशानी में, दिवाला निकल जाए, तो उसमें आप वापस चले जाएंगे।
ऊपर से गई है, बहुत ऊपर से गई है, इतनी स्किन डीप भी नहीं है वह, जरा ही चमड़ी उघाड़ दो भीतर से निकल आएगा। इसलिए नया माइंड नहीं पैदा हो रहा।
एक मैं पढ़ रहा था, एक रूसी क्रांतिकारी था, व्हीलिस। वह सूली पर लटकाने ले जाया गया। उसके सामने बाइबिल करके पादरी कहता है कि आखिरी वक्त में ईश्वर को स्मरण कर लो। उसकी बाइबिल पर थूक देता है, बाइबिल फेंक देता है और उससे कहता है कि क्या तू मुझे दो दिमाग का समझता है कि मरते वक्त दूसरा दिमाग हो जाएगा, जीते वक्त दूसरा दिमाग था। यह जो सूली पर लटक रहा है। फिर उसको वह पादरी जाकर कहता है कि तू क्षमा मांग ले, तूने बाइबिल पर थूका है। तख्ते पर खड़ा है। तू क्षमा मांग ले और अपने पापों के लिए प्रायश्चित्त कर ले, भगवान बहुत दयावान है, वह यह भी क्षमा कर देगा। तो वह क्रांतिकारी उससे कहता है, क्षमा जरूर मांगने का मन होता है, लेकिन उन पापों के लिए नहीं जो किए, बल्कि उन पापों के लिए जो नहीं कर पाया, उनका दुख रह गया है मन में। कहता है कि जो नहीं कर पाया हूं पाप उनका अफसोस है, जो किए उनका कोई अफसोस नहीं है।
इस सूली पर लटकते हुए और इतनी श्रद्धा से जो मरने चला जा रहा है, इसके तो भीतर से कुछ बात कहीं, इसके भीतर नया माइंड पैदा हो सकता है, यह सिचुएशन बन गई।
अभी नया माइंड इसके भीतर भी पैदा नहीं हुआ है। पुराना चला गया है, लेकिन नया पैदा नहीं हुआ है। लेकिन, पुराना चला गया है इसलिए नया पैदा हो सकता है। हमारा पुराना गया ही नहीं है, सिर्फ जाया हुआ मालूम पड़ता है। ऊपर-ऊपर है, भीतर कोई उत्तर नहीं है। न, और अगर ऊपर से चला गया मालूम पड़े, तो हम भीतर की फिकर ही छोड़ देते हैं, हमें याद ही नहीं रहता कि वह भीतर है।
यह अगर बहुत ठीक से समझें, तो पुराने माइंड का लास्ट डिफेंस है यह। जो वह यह तरकीब करता है कि ऊपर से कहता है गया और भीतर मौजूद है। खतरनाक है भारी। बल्कि ऊपर भी हो, तो यह तो रहता है कि है, हम इसको कुछ करें। वह भी मिट गया, हमें तो कुछ करना भी नहीं है, वह तो गया। और वह गया नहीं है, वह पूरी तरह मौजूद है। उसको वहां से जड़ें हीं सतीश उखाड़नी पड़ेंगी।

प्रश्नः ऊपर की खाल निकल जाए, ऊपर की खाल, कवर निकल जाए, तो आज मैं, असली मतलब जो चीज है वह बाहर आने लगे, मेरे खयाल से हर आदमी इंडिविजुअल जीना पसंद करेगा ज्यादा। और जब इंडिविजुअल जीता है आदमी तो कोई ऐसा समाज बना सकता है या खुद ही जी लेता है? या कोई ऐसे समाज की रचना हो सकती है?

यह बिल्कुल हो सकती है। बिल्कुल होगी। आज तो जिसे हम समाज कहते हैं, वह समाज नहीं है। वह समाज है ही नहीं। सिर्फ भीड़ है। भीड़ है और भीड़ को हम समाज समझे हुए हैं। क्या समाज है आज? कौन सा समाज है? एक भीड़ है। और भीड़ को मैनेज करने के लिए एक व्यवस्था है। भीड़ को मैनेज करने के लिए।

प्रश्नः नहीं, यह भी अपना-अपना दृष्टिकोण है।

जी?

प्रश्नः अपना-अपना दृष्टिकोण है।

हां-हां, अपना-अपना ही होना चाहिए। तो मैं कह रहा हूं यह कि समाज, पहली तो बात यह है कि समाज की शर्त यह है कि व्यक्ति होना चाहिए, तब आप समाज बना सकते हैं। व्यक्ति तो ईंट बने ही न, इंडिविजुअल नहीं है आपके पास, समाज आप बनाइएगा कैसे? ज्यादा से ज्यादा भीड़ बना सकते हैं। मेरा मतलब समझ रहे हैं न? कि मैं क्यों कहता हूं कि समाज नहीं है? मेरा मतलब समझे न? मैं यह कह रहा हूं कि समाज के बनाने की ईंट इंडिविजुअल है। इंडिविजुअल कहां है? इंडिविजुअल हो जाए तो समाज बन सकता है। दस इंडिविजुअल्स के मेल का नाम समाज है। और दस जो इंडिविजुअल नहीं हैं बिल्कुल, उनके जोड़ का नाम भीड़ है। समझे न? क्राउड मैं इसको कह रहा हूं। इंडिविजुअल ही नहीं है, पहली बात तो यह है। इंडिविजुअल होने की हिम्मत ही कहां है। आप वही कह रहे हैं जो पिताजी कहते थे, वही कह रहे हैं जो कृष्ण महाराज कहते थे, तो आप कहां हो? आपने क्या कहा कुछ जो आपने कहा हो? तो आप इंडिविजुअल नहीं हो।
आप वही दोहरा रहे हैं जो पूरी सोसाइटी आपको सिखा रही है, तो आप इंडिविजुअल नहीं हो। आप कभी भी इस तरह नहीं जीए कि जब आप जीए हों। पत्नी को प्रेम करना चाहिए, इसलिए प्रेम कर रहे हो। हद हो गई! बाप की सेवा करनी चाहिए, इसलिए सेवा कर रहे हो। मित्र को सहायता करनी चाहिए, इसलिए सहायता कर रहे हो। आप हो कुछ? नहीं हो कुछ भी। आपका होना क्या है? आपको प्रेम है तो प्रेम करो और नहीं है तो कहो कि बात खत्म हो गई।
यानी मैं यह नहीं कहता कि पत्नी को प्रेम करना चाहिए, मैं कहता हूं, जिससे प्रेम हो वह पत्नी है। यह तो समझ में आने वाली बात हुई। पत्नी को प्रेम करना चाहिए, यह तो बिल्कुल फिजूल बात है। यानी, यानी तब तो, तब तो इंडिविजुअल है भीतर। और अगर ऐसे दो इंडिविजुअल मिलें और शादी करें, तो एक परिवार बनेगा। अभी परिवार भी नहीं बनता, वह भी एक तरीके की भीड़ है। तो परिवार बनेगा, दो इंडिविजुअल मिलेंगे। और उनकी इंडिविजुअलिटी बचाई जा सके, तो अच्छा समाज है। और जो समाज उनकी इंडिविजुअलिटी को मारता है और तोड़ता है, वह खतरनाक समाज है। वह अच्छा समाज नहीं है।
तो एक तो इंडिविजुअल बनता नहीं, होता नहीं, समाज बनने नहीं देता, समाज बरदाश्त नहीं करता इंडिविजुअल को। समाज चाहता है सोशल यूनिट्स। आप समाज की एक इकाई रहो बस, इससे ज्यादा उसकी मांग नहीं है। वह यह नहीं कहता कि आप एक व्यक्ति बनो, क्योंकि व्यक्ति खतरनाक हो सकता है। क्योंकि व्यक्ति कहेगा कि मैं अपने ढंग से जीऊंगा और चलूंगा। और उसके जीने और चलने का ढंग हो सकता है समाज के ढंग से विपरीत हो, मुश्किल में डाल दे, झंझट में डाल दे। तो समाज सोशल यूनिट चाहता है। एक कलपुर्जे की तरह आप रहो, आपकी कोई हैसीयत न होनी चाहिए। और जब आपकी कोई हैसीयत नहीं होगी, तो समाज बनेगा नहीं। क्योंकि दस हैसीयत वाले लोग मिलते हैं, तो समाज बनता है।
यह भीड़-भड़क्का है, इस भीड़-भड़क्का में जो जितना भीड़ का हिस्सा है, समाज उसको उतना ही अच्छा आदमी कहेगी। कि मैं मानता हूं कि दो तरह के लोगों के पास व्यक्तित्व होता है, या तो जिनको हम पापी कहते हैं, उनके पास व्यक्तित्व होता है, या जिनको हम महात्मा कहते हैं, उनके पास व्यक्तित्व होता है। अभी, अभी दो ही तरह के लोगों के पास व्यक्तित्व है। और दोनों तरह के व्यक्तित्व बड़ी मुश्किल के हैं। महात्मा को शीर्षासन करके खड़ा होना पड़ता है, तब कहीं उसका व्यक्तित्व बन पाता है। यानी समाज, जब वह बिल्कुल ही उलटा खड़ा हो जाए, सिर के बल, और समाज सब तरह के धक्के देगा पहले गिराने के कि महात्मा बन न जाए, क्योंकि बन गया तो फिर इंडिविजुअल हो जाएगा, लेकिन अगर कोई टिका ही रहे, टिका ही रहे, तो आखिर में महात्मा बन जाता है। और या फिर वह पापी होकर इंडिविजुअल हो सकता है, सारे नियम तोड़ दे।

प्रश्नः महात्मा की जानकारी दें?

महात्मा खुद अपने को दुख देता है और पापी वह है जिसको समाज दुख देता है। बस इतना ही फर्क होता है दोनों में। जो-जो पापी को समाज सजा देगा वह महात्मा अपने को देता है। तो जो अपने को देता है उसको हम महात्मा कहते हैं। और जिसको समाज को देनी पड़ती है उसको हम पापी कहते हैं। लेकिन दोनों दुख से गुजरते हैं। एक खुद दुख देता है, एक दूसरे से दुख बुलवाता है।
लेकिन यह कोई अच्छी हालत नहीं है। मेरा कहना है कि यह कोई अच्छी हालत नहीं है। हमको ऐसा समाज चाहिए जहां व्यक्ति होना सरलतम हो। इतने ही उपद्रव से गुजरना पड़े कि एक आदमी को या तो पापी बनना पड़े या एक आदमी को महात्मा बनना पड़े। ये दोनों अतियां हैं। सुखद नहीं हैं, दुखद हैं। यानी किसी समाज में महात्मा पैदा हो, यह अच्छा समाज नहीं है। अच्छे आदमी हों, बात अलग है, महात्मा अच्छा आदमी नहीं है। मैं उनको अच्छा आदमी नहीं मानता, यानी वह गड़बड़ आदमी है। और गड़बड़ी की वजह से वह चाल चल गया और अपने को कष्ट देकर खड़ा हो गया।
न तो महात्मा की जरूरत है समाज में, न पापी की जरूरत है। तो मेरा मानना है, दोनों एक साथ जाएंगे। जब जाएंगे, दोनों में से एक नहीं जा सकता। दोनों काउंटर पार्ट्स हैं। बिल्कुल ही जुड़े हुए हैं। जब तक पापी पैदा होता है तब तक आपका महात्मा चल सकता है, जिस दिन पापी बंद, महात्मा गया। महात्मा गया कि पापी गया। वे दोनों जुड़े हुए हैं।

प्रश्नः चोर-सिपाही जैसे।

वे बिल्कुल जुड़े हुए हैं। काउंटर पार्ट्स हैं। लेकिन ऐसा समाज चाहिए जो इतनी सरलता से मौका देता हो हर आदमी को व्यक्ति होने का कि उसको शीर्षासन भी न करना पड़े, उसको क्रिमिनल भी न बनना पड़े, वह सहज हो सके और जी सके और इंडिविजुअल हो सके। उसको मैं कहूंगा कि वह साइंटिफिक समाज हुआ।
और यह तुम ध्यान रखना, यह डर हमें लगता है कि अगर बहुत तरह के इंडिविजुअल होंगे, और आदमी अपनी-अपनी तरह का होगा, तो समाज टूट तो नहीं जाएगा? पहली तो मैं कहता हूं, अभी समाज है ही नहीं, टूटने का डर ही नहीं है। मैं कहता हूं, समाज बनना शुरू होगा। पहली दफा समाज बनना शुरू होगा। और यह ध्यान रहे, कि जो आदमी इंडिविजुअल होता है, उस आदमी का पहला लक्षण तो यह है कि वह दूसरे की इंडिविजुअलिटी का हमेशा आदर करेगा अनिवार्य। यह उसके लिए असंभव है कि वह तुम्हारी इंडिविजुअलिटी को तोड़े। अगर तोड़ता है, तो वह इंडिविजुअल है ही नहीं। अभी उसे इंडिविजुअलिटी का आनंद ही पता नहीं चला।
अगर मैं इंडिविजुअल हूं, तो जिसको मैं पत्नी की तरह ले आऊंगा, उसको मैं पत्नी बनाना नहीं चाहूंगा। क्योंकि वह पत्नी बनी, तो उसकी इंडिविजुअलिटी गई। उसका मैं पति बनना नहीं चाहूंगा, मैं उसके पूरे व्यक्तित्व को खड़ा करना चाहूंगा। और मजा यह कि वह जितनी व्यक्ति होगी, उतना ही हम दोनों आनंदित हो सकते हैं। क्योंकि चीजों से मिलने में कोई आनंद नहीं। इस गिलास से मिलने में क्या आनंद हो सकता है? इसको तुम जहां चाहो वहां उठा कर रख दो, यह वहां बैठा रहता है। और पति ऐसी पत्नी चाहता है, अभी वह जहां उठा कर रख दे वहीं बैठ जाए। पत्नी भी ऐसा ही पति चाहती है, वह कहे बस यहां बैठो तो वह वहां बैठा रहे। तो फिर सुख नहीं होता। क्योंकि चीजें हो गईं, यह थिंग्स हो गईं, इंडिविजुअल्स नहीं रहे। इंडिविजुअल का मतलब ही यह है कि वह मेरे कहने से नहीं कहीं बैठ जाएगा। बैठना उसे आनंदपूर्ण होगा, तो बात अलग है। तो इंडिविजुअल तो हमेशा दूसरे को भी इंडिविजुअलिटी देगा।

प्रश्नः वैसे हर आदमी का नेचर, स्वभाव एक पजेसिव माइंड होता है।

पजेसिव माइंड इसीलिए है सतीश कि हमारी जिंदगी में कोई सुख नहीं है, इसलिए पजेसिव माइंड है। सुखी आदमी का माइंड कभी पजेसिव नहीं होता, सिर्फ दुखी आदमी का होता है। जो आदमी तिजोरी भर रहा है, भला उसके पास करोड़ रुपये हैं, मैं मानता हूं इसके पास अभी गरीब का ही दिमाग है, कि अभी अमीर हुआ नहीं। माइंड जो है इसका वह गरीब आदमी का है, वह दुखी आदमी का है। जब उसने गरीबी देखी है तभी यहसोचता था, जोड़ो, जोड़ो, नहीं तो मर जाएंगे, भूखे मर जाएंगे। अब इस... जुड़ गया, भूखे-वूखे मरने से कोई संबंध नहीं, लेकिन पुरानी आदत चली जा रही है--वह तिजोरी भरते चले जा रहा है, भरते चला जा रहा है। यह है गरीब आदमी अभी भी। इसका जो मेंटल मेकअप है वह गरीब आदमी का है। मेरा मतलब समझ रहे हैं न? एक आदमी ज्यादा खाए चला जा रहा है...

प्रश्नः भूख मिटी नहीं उसकी।

हां। वह जब कभी भूखा था, वह खयाल मन में घूम रहा है--वह ज्यादा खाए चला जा रहा है, ज्यादा खाए चला जा रहा है।
और यह जो पजेसिव हम कहते हैं न, तुम किस चीज को पजेस करना चाहते हो? अगर गौर से देखोगे, तो तुम हैरान होओगे, कि जिस चीज को तुम पजेस करोगे जिस मात्रा में उसी मात्रा में मर जाएगी। सिर्फ मरी हुई चीज पजेस हो सकती है। जिंदा चीज को पजेस किया नहीं जा सकता। तुम पंखे के मालिक हो सकते हो, तुम मकान के मालिक हो सकते हो, तुम आदमी के मालिक नहीं हो सकते। तुम एक लड़के, एक लड़की के मालिक नहीं हो सकते। लेकिन चीज को पजेस करने में मजा नहीं आता, इसीलिए क्योंकि वह रेसिस्ट नहीं करती। तो आदमी को पजेस करने में मजा आता है, क्योंकि वह रेसिस्ट करता है। लेकिन तुम हैरान होंगे कि डबल माइंड जो मैं कहता हूं, तुम जितना पजेस करोगे उतना ही मजा कम होने लगेगा, क्योंकि वह रेसिस्ट करना बंद हो जाएगा, वह पजेस्ड हो जाएगा। जिस दिन पजेस्ड हो जाएगा उस दिन बेकार हो गया। इसलिए प्रेयसी अच्छी लगती है, पत्नी अच्छी नहीं लगती। पत्नी पजेस प्रेयसी है, और वह पजेस हो गई, अब वह बेकार हो गई। पजेस करने का मजा खत्म हो गया। अब क्या करोगे?
तो पजेस करके तुम मारते हो और मरे हुए से तुम कोई सुख नहीं ले सकते कभी भी। जीवित चाहिए। और जितना जीवित चाहिए उतना कम पजेस करो। पजेस ही मत करो, तो पूरा जीवन होता है। और क्यों है यह पजेसिव माइंड? और सारे लोग समझाते हैंः पजेसिव माइंड नहीं चाहिए। यह है क्यों पजेसिव माइंड? यह और मुझे खयाल में आता है कि जो आदमी खुद को पजेस नहीं करता है वह इसकी कमी दूसरों को पजेस करके पूरी करता है। जो खुद को पजेस नहीं करता वह इसकी कमी पूरी करता है। तुम अपने ही मालिक नहीं हो बिल्कुल, अब यह कमी तुम्हें बहुत अखरती है मालिक होने की। इसको तुम चीजों को पजेस करके, आदमियों को पजेस करके पूरी करते हो।
लेकिन अगर तुम अपने को पजेस कर लो... मेरा मानना है कि इंडिविजुअलिटी अगर विकसित हो, तो तुम अपने को पजेस कर लेते हो, तुम अपने मालिक हो जाते हो। फिर तुम किसी को पजेस करने की कोशिश नहीं करते। और यह भी ध्यान रहे, कि जितना पजेसिव माइंड होगा उतना ही प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता। पजेशन में और प्रेम में दुश्मनी है। पजेस करने वाला प्रेम नहीं कर सकता। चाहे वह बेटे को पजेस करे, चाहे मित्र को, चाहे किसी को भी। पजेस करने वाला गर्दन पकड़ लेता है और धीरे-धीरे हाथ दबाए चला जाता है। पहले उसने इस तरह पकड़ा था कि लगता था आलिंगन कर रहा है, फिर पता चलता है बाद में उसने गर्दन दबा ली, अब वह छोड़ता नहीं है।
लेकिन वह दूसरा भी क्यों बरदाश्त करता है, इसलिए बरदाश्त करता है कि वह भी मिच्युअली आपकी गर्दन दबा रहा है। और दोनों एक-दूसरे की दबाए चले जा रहे हैं। इसलिए चलता है और कोई कारण नहीं है, नहीं तो अभी टूट जाए, इसी वक्त टूट जाए।

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