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शनिवार, 18 अगस्त 2018

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन--फूल खिलने का क्षण

मेरे प्रिय आत्मन्!
पिछली चर्चाओं के संबंध में एक मित्र ने बहुत अजीब प्रश्न पूछा है। अजीब इसलिए कि पहली अजीब बात तो यह है कि वह प्रश्न ही नहीं है। उन्होंने पूछा है, प्रश्न भी पूछा है, साथ लिखा है, अगर आपको पता न हो, तो मैं इसका उत्तर आपको आकर दे सकता हूं।
उन्हें उत्तर पहले से पता है तो व्यर्थ पूछने की परेशानी नहीं करनी चाहिए। और अक्सर ऐसा होता है कि हम पूछते हैं लेकिन उत्तर हमें पता है तो हमारा पूछना झूठा हो जाता है, अॅाथेंटिक नहीं रह जाता। अगर पता ही है, तो बात खत्म हो गई। अगर पता नहीं है, तो ही पूछने में रस है, अर्थ है, खोज का आनंद है। लेकिन हम सभी को...
(बीच में प्रश्नकर्ता द्वारा कुछ हस्तक्षेप)
....मैं उत्तर दे रहा हूं, पूरा कर लेने दें। बड़ी कृपा की कि आप पता भी चल गए कि कौन हैं। उत्तर दे रहा हूं। उत्तर मैं देता हूं।
मैंने सोचा था, नाम उनका न लूंगा कि वे पता न चल जाएं, लेकिन वे मानते नहीं, ठीक है।

मुझे उत्तर तो दे लेने दें?
पहली तो बात यह है कि अक्सर हम पूछने के पहले ही हमारा उत्तर तैयार रखते हैं। जिस आदमी का उत्तर तैयार है, वह आदमी सुनने में भी असमर्थ होता है। सुनने के लिए जो तैयारी चाहिए, वह भी उसके भीतर नहीं होती, उसके भीतर अपना उत्तर ही घूमता रहता है। वह सुनने को तो, सुनने के लिए मुक्त और खुला उसका मन भी नहीं होता।
दूसरी बात है, उन्होंने बड़े मजे की बात लिखी है, उन्होंने लिखी है, कि वे रियलाइज्ड सोल हैं, खुद आत्मा को जान चुके हैं, ज्ञान उन्हें उपलब्ध हो चुका है, प्रकाश उन्होंने पा लिया है। और यह भी लिखा है कि मनुष्य-जाति में अब तक कोई आदमी जिस गहराई पर नहीं पहुंचा उस पर वे पहुंच कर वापस आ गए हैं। तब मुझे बड़ी हैरानी हुई कि मुझ जैसे अज्ञानी को सुनने इतने ज्ञानियों को नहीं आना चाहिए।

(बीच में किसी मित्र का अवरोध। )
सुन तो लें पूरी बात, इतनी जल्दी तो नहीं है। इतनी जल्दी...पूरी बात...
बैठ जाइए। बैठ जाइए।
असल में, न, आप परेशान न हों, आप परेशान न हों। न, न, उनसे कुछ न कहिए, उनको बैठा रहने दीजिए। बीच-बीच में बोले तो हर्जा भी नहीं है, थोड़ा ज्यादा आनंद आएगा। उनको बैठे रहने दीजिए। न, न, कोई हर्ज नहीं है, बीच में थोड़ा बोलेंगे तो...
नहीं, उनमें इतनी उत्सुकता मत लीजिए, आप तो बैठ जाएं। उनमें इतनी उत्सुकता लेने की कोई बात नहीं है। आप लोग बैठ जाएं, उनको, उनको बैठने दें। कुछ कहते हैं तो हर्ज भी नहीं है, बैठें, आप उनकी फिकर न करें थोड़ी भी।

जिस मनुष्य को भी, जिस व्यक्ति को भी ऐसा ख्याल पैदा हो जाए कि उसे ज्ञान उपलब्ध हो गया है, उसे अब किसी और ज्ञान की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जिसे भी यह ख्याल हो जाए, उसने परमात्मा को पा लिया है, अब पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता है। उसकी खोज खत्म हो गई है। एक अर्थ में वह आदमी, वह व्यक्ति अब और किसी अन्वेषण पर जाने में असमर्थ हो गया, अंतिम खोज पूरी हो गई।
बहुत लोगों को यह ख्याल पैदा हो सकता है। मैं नहीं कहता उनका ख्याल गलत है। लेकिन एक बात पक्की है, चाहे सही हो चाहे गलत, जिस आदमी को यह ख्याल हो गया है कि मैंने सब जान लिया है, अब जानने का उसमें और उपाय नहीं बचता है। उसकी जानने की कोशिश अब व्यर्थ परेशानी पैदा करती है और कुछ भी पैदा नहीं करती।
एक व्यक्ति ही नहीं पूरा समाज भी इस भ्रम में पड़ सकता है कि हमने जान लिया। हमारा देश ऐसे ही भ्रम में बहुत दिन तक रहा है कि हमने सब जान लिया है। और उस सब जानने के भ्रम के कारण तीन हजार वर्षों से भारत में ज्ञान की कोई नई किरण नहीं उतरी, कोई नया द्वार नहीं खुला, हमने कोई नई खोज नहीं की। क्योंकि जब पूरे समाज को यह ख्याल पैदा हो गया कि सब जान लिया गया, तो अब और जानने को क्या शेष रह जाता है?
आइंस्टीन से कोई पूछ रहा था मरने के आठ ही दिन पहले कि आप एक वैज्ञानिक बुद्धि के व्यक्ति में और एक अवैज्ञानिक बुद्धि के व्यक्ति में क्या फर्क करते हैं? आइंस्टीन ने जो कहा, वह सुनने-समझने जैसा है। आइंस्टीन ने कहा कि अगर एक वैज्ञानिक व्यक्ति से आप सौ प्रश्न पूछें, तो निन्यानबे प्रश्नों के संबंध में तो वह कह देगा कि मुझे पता नहीं है, सौवें प्रश्न के संबंध में वह कहेगा, मुझे पता है लेकिन बहुत थोड़ा, क्योंकि कल और पता हो जाएगा, परसों और पता हो जाएगा, ज्ञान रोज विकासमान है, इसलिए जो मैं कहता हूं इस शर्त के साथ कि अभी तक जो जाना गया है वह इतना है। ज्ञान पूरा नहीं है, पूर्ण नहीं है। लेकिन एक अवैज्ञानिक आदमी से आइंस्टीन ने कहा: अगर आप सौ प्रश्न पूछें, तो वह सौ की जगह एक सौ एक के उत्तर देगा और हर उत्तर पर दावा करेगा कि यह उत्तर पूर्ण है और आखिरी है, इसके आगे उत्तर नहीं हो सकता।
मनुष्य को अज्ञान में रखने का बड़े से बड़ा कारण जो है वह ज्ञान की सर्वज्ञता, पूर्णता का भ्रम है। जिस समाज को, जिस व्यक्ति को, जिस राष्ट्र को यह मस्तिष्क में आप्शेसन, यह पागलपन पकड़ जाए कि सब जान लिया गया है। उस आदमी के ज्ञान की सब यात्राएं समाप्त। उसकी नौका किनारे से बंध गई, अब यात्रा आगे नहीं हो सकेगी। मैं नहीं कहता वह गलत है, लेकिन इतना मैं कहता हूं, अब उसकी जीवन में कोई अर्थवत्ता और जरूरत नहीं, वह व्यर्थ हो गया। इसीलिए तो पुराने लोग कहते हैं, जिसका ज्ञान पूर्ण हो जाता है उसे फिर पृथ्वी पर भेजने की कोई जरूरत नहीं पड़ती, उसे मोक्ष में भेज देते हैं। फिर यहां कोई जरूरत नहीं है।
यहां जीवन अधूरा है प्रतिदिन और सब ज्ञान अधूरा रहेगा सदा। कितना ही हम जानें फिर भी जानने को अनंत शेष रह जाता है। यही तो परमात्मा की अनंतता, इनफिनिटी है। हम एक तरफ कहते हैं, परमात्मा अनंत है और दूसरी तरफ एक आदमी कहता है, मैंने परमात्मा को जान लिया है। इन दोनों में क्या अर्थ हुआ?
अगर परमात्मा अनंत है तो मैं कितना ही जान लूं तो भी अनंत जानने को सदा शेष रह जाएगा, और मैं कभी दावा नहीं कर सकता कि मैंने जान लिया है। परमात्मा के अनंत होने का एक ही अर्थ हो सकता है कि हम सीमित, कितना जान सकेंगे? हम एक किनारे से थोड़ा सा स्वाद ले लें, काफी है। लेकिन जो स्वाद ले लेगा अनंत का, जो भी थोड़ा सा स्वाद ले लेगा, जो थोड़ा सा भी आंख खोल सकेगा उस प्रकाश की तरफ, वह यह भूल ही जाएगा कि मैं और जानता हूं? क्योंकि उस प्रकाश में मैं तो खो जाता है ऐसे ही जैसे सुबह सूरज निकलता है पत्तों पर पड़े ओस के कण सूरज की रोशनी में विलीन हो जाते हैं। ऐसे ही हम हमारे मैं उस प्रकाश की रोशनी में विलीन हो जाते हैं।
इसलिए उपनिषदों ने कहा है कि जो कहता हो, मैं जानता हूं, जान लेना कि वह कम से कम निश्चित है कि नहीं जानता है। जो कहता हो कि मैं जानता हूं, निर्णय दे दिया उसने कि वह नहीं जानता है। क्योंकि यह दावा बहुत गहरे में सूक्ष्मतम अहंकार है। कोई आदमी दावा कर सकता है मैं धनी हूं, कोई आदमी दावा कर सकता है मैं पद वाला हूं, कोई आदमी दावा कर सकता है मैं ज्ञानी हूं, कोई आदमी दावा कर सकता है मैं त्यागी हूं। लेकिन सब दावे के पीछे एक ही खड़ा हुआ है मैं। और वह मैं ज्ञान की, सत्य की, प्रकाश की यात्रा में सबसे बड़ी बाधा है।
मैं कोई पूर्णज्ञानी नहीं हूं। इसलिए किसी से कोई झगड़ा नहीं है। कोई झगड़ा नहीं है। और मुझे अपने को अज्ञानी मान लेने में जितना सुख मालूम पड़ता है उतना किसी और चीज में मालूम नहीं पड़ता। क्योंकि अज्ञानी हूं तो खोज सकता हूं। तो परमात्मा और शेष रह गया है उसे और जाना जा सकता है। और कभी नहीं चाहता कि यह खोज बंद हो जाए। उसे हम जानते ही चलें, जानते ही चलें, हम उसे कितना ही जान लें फिर भी वह शेष रह जाए। क्योंकि जिस दिन ऐसा हो जाए कि परमात्मा भी पूरा जान लिया गया उस दिन आत्महत्या के सिवाय और क्या उपाय रह जाएगा? फिर करने को क्या बचता है? सब खत्म।
बट्रेंड रसल ने कहीं एक मजाक लिखी है। लिखा है कि मैं स्वर्ग या मोक्ष जाने से बहुत डरता हूं। किसी ने पूछा: क्यों? बट्रेंड रसल ने कहा कि इसलिए डरता हूं, एक तो मोक्ष में कोई प्रश्न नहीं होंगे, क्योंकि वहां सभी ज्ञानी होंगे, पूर्णज्ञानी वहां रहते हैं, कोई बातचीत नहीं हो सकेगी, क्योंकि किससे कौन बात करेगा? और बड़े मजे की बात है वहां खोजने को कुछ न होगा, करने को कुछ न होगा, जीने को कुछ न होगा, बस बैठे रहना, बैठे रहना, होना और होना। बहुत बोर्डम पैदा हो जाएगी। बट्रेंड रसल कहता है, मोक्ष जाने से बहुत डर लगता है और वहां से लौटने का भी उपाय नहीं है। एंट्रेंस है, एक्झिट नहीं है मोक्ष से। एक दफा चले गए, वापस लौटने का उपाय नहीं है। कितना ही तड़पो, लौटने का रास्ता ही नहीं है। मोक्ष से लौटने का सवाल कहां है? बट्रेंड रसल कहता है, अज्ञानी भले पूर्ण ज्ञान से क्षमा चाहते हैं।
रवींद्रनाथ मर रहे थे। जिस दिन मृत्यु हुई है, सुबह ही एक आदमी ने आकर रवींद्रनाथ को कहा, बूढ़ा आदमी है, रवींद्रनाथ को प्रेम करता है। कहा कि अब प्रभु से प्रार्थना करो कि अब दुबारा जगत में न भेजे, मुक्ति दे दे, मोक्ष दे दे, आवागमन से छुटकारा दे दे। रवींद्रनाथ आंख बंद किए पड़े थे, आंख खोली कहा, क्या कहते हैं? मैं और मुक्ति मांगूं! नहीं, मैं तो मांगूंगा निरंतर मुझे वापस भेज देना, अभी बहुत जानने को शेष रह गया, अभी बहुत जीने को शेष रह गया। और मैं मुक्ति मांगूं तो परमात्मा पर बड़ा एतराज हो जाएगा। उसने भेजा और मैं मुक्त होना चाहता हूं! मैं मुक्ति नहीं मांगूंगा क्योंकि उसके बंधन भी बड़े आनंदपूर्ण थे। और इस जगत की यात्रा भी बड़ी रस से भरी थी। मैं चाहूंगा कि अगर मुझे योग्य पाया हो तो बार-बार भेज देना ताकि यह खोज, यह जीना, ये जीवन के अनंत-अनंत दिशाओं में यात्रा जारी रहे। मैं, मैं मुक्ति नहीं मांग सकता हूं।
लेकिन कुछ लोग, कुछ समाज, कुछ परंपराएं मृत हो गई हैं। यही धारणा पकड़ कर सब जान लिया, सब पा लिया, सब हो गया, फिर? फिर सिवाय मृत्यु के, महामृत्यु के, महाअंत के और क्या?

उन मित्र ने जो प्रश्न पूछा है वह भी बहुत बढ़िया है, उस पर भी थोड़ी बात कर लेनी चाहिए।
उन्होंने पूछा है कि क्या आप भारतीय संस्कृति को गलत मानते हैं?

भारतीय और अभारतीय का सवाल नहीं है। आज तक मनुष्य के जीवन में जिस संस्कृति से हमने व्यवस्था दी है अगर वह सही होती तो जीवन के सारे दुख, सारी पीड़ाएं, सारे तनाव, सारी चिंताएं विदा होनी चाहिए थीं। पांच हजार वर्ष के प्रयोग के बाद चिंताएं निरंतर बढ़ती चली गई हैं, दुख गहरा होता चला गया है। आदमी ज्यादा पीड़ित, ज्यादा परेशान होता चला गया है।
पांच हजार वर्ष के...

(पुनः हस्तक्षेप। )
बैठें, बैठें, उन्हें जाने दें। कोई बात नहीं। न, उनको जाने दें जाना हो तो। दरवाजा खोल दें। वे परेशान हो रहे हैं, उनको जाने दें। न, बैठिए, बैठिए।

मनुष्य की जो भी समाज-व्यवस्था, जो भी सभ्यता, जो भी संस्कृति हमने निर्मित की है, हम उसी के फल हैं, हमने जो धारणाएं निर्मित की हैं, जो संस्कार निर्मित किए हैं, उनका हम परिणाम हैं। यह सवाल भारतीय-अभारतीय का बिल्कुल नहीं है। यह सवाल है इस बात का कि पुराना ठीक है या हम नये की खोज करें? अगर पुराना ठीक है तो फिर हम पुराने ढांचे में ही जीए चले जाएं। और अगर पुराना ठीक साबित न हुआ हो, तो हम नये संस्कार, नई संस्कृतियों, नई शिक्षाओं, नई दिशाओं की खोज करें, यह सवाल है। यह भारतीय-अभारतीय का सवाल ही नहीं है।
आज तक पीछे मनुष्य ने एक ढंग से सोचा था। उस ढंग से सोच कर हमने प्रयोग भी किया है। आदमी ने जीने की कोशिश भी की है, परिणाम क्या है? परिणाम अत्यंत ट्रेजिक, अत्यंत दुखद आया है। जीवन हमारे सामने खड़ा है, यह परिणाम है। क्या इस जिंदगी को ही आगे दोहराए चले जाना है या फिर बदलाहट चाहिए?
जैसे मैं उदाहरण के लिए दो-चार बातें कहूं। जैसे हमने पुराने समस्त इतिहास में सब मनुष्यों को राष्ट्रीयता सिखाई..भारतीयता, चीनी होना, जापानी होना, जर्मनी, इंग्लैंड, अमरीकी, रूसी, पुरानी पूरी संस्कृतियां देशी-राष्ट्रीय एक भूगोल की सीमा को मान कर जीती थीं। उनका आग्रह था हम विशिष्ट हैं दूसरों से। भारतीय होना विशिष्ट होना है, चीनी होना विशिष्ट होना है, जापानी होना विशिष्ट होना है, सारी संस्कृतियां राष्ट्रीय थीं। राष्ट्रीय संस्कृतियों ने जितने युद्ध और हिंसा और परेशानी दी है, अब आगे भी राष्ट्रों को बनाए रखना है या विदा कर देना है? क्या मनुष्यता को एक होना चाहिए, पूरी पृथ्वी को या खंड-खंड में टूट कर ही हमें जीए चले जाना है?
पुरानी सब संस्कृतियां राष्ट्रीय थीं, भविष्य की संस्कृति अंतर्राष्ट्रीय ही हो सकती है। अगर हमने सोच-विचार कर काम किया तो वह भारतीय नहीं होगी, चीनी नहीं होगी, जापानी नहीं होगी, मानवीय होगी, ह्यूमन होगी, जागतिक होगी, युनिवर्सल होगी। खंड-खंड में तोड़ कर हमने कितना उपद्रव पैदा किया है, आज सोचना बहुत मुश्किल मालूम पड़ता है।
अगर हम तीन हजार वर्ष का इतिहास उठाएं, तो आदमी रोज लड़ता रहा है..राष्ट्र के नाम पर, धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, आदमी लड़ता ही रहा है। अगर पूरे इतिहास की किताब पढ़ कर कोई कहे, तो कहना पड़ेगा, मनुष्य की परिभाषा करने में अरस्तू कहता है: मैन इ.ज ए रेशनल एनिमल, आदमी बुद्धिशाली प्राणी है। इतिहास देख कर कहना पड़ेगा, नहीं, मैन इ.ज ए वॅारिंग एनिमल, आदमी युद्ध करने वाला प्राणी है।
तीन हजार साल सिवाय युद्ध के हमने कुछ भी नहीं किया। और सारी शक्ति युद्ध के अस्त्र-शस्त्र खोजने में लगा दी। आज जमीन पर इतनी गरीबी है, इतना दुख है, लेकिन सारी जमीन की साठ प्रतिशत संपत्ति और नये बम ईजाद करने में संलग्न है। राष्ट्रों के कारण। अगर राष्ट्र न हों तो यह सारी संपत्ति मनुष्य को सुखी करने में संलग्न हो सकती है। नहीं, पुरानी खंड-खंड पृथ्वी आगे अखंड होनी चाहिए।
रूसी पहला अंतरिक्ष यात्री यूरी गागरिन आकाश में उठा। पहला आदमी जिसने पृथ्वी के वायुमंडल को छोड़ा। लौट कर उसके मित्रों ने पूछा: ऊपर जाकर तुम्हें कैसा भाव उठा, पहला क्या भाव उठा? रूस की याद आई?
यूरी गागरिन ने कहा: क्षमा करना, रूस की याद नहीं आई, याद आई मेरी पृथ्वी की, माई अर्थ, माई रसा नहीं, मेरा रूस नहीं, क्योंकि उस दूरी से देखने पर सारी पृथ्वी एक मालूम पड़ी। पहली दफा पता चला कि पृथ्वी एक है, खंड सब आदमी के बनाए हुए हैं। पृथ्वी बिल्कुल एक है, कोई खंड नहीं हैं। मेरी पृथ्वी ऐसा भाव उठा उसमें अमरीका भी था, रूस भी था, चीन भी था, सब थे, और पृथ्वी अखंड थी।
मनुष्य जितना ऊंचा उठेगा, चाहे आकाश में और चाहे अंतरात्मा में, उतने खंड गिरते चले जाएंगे। जितना ऊंचा उठेगा आदमी, उतने खंडों के ऊपर उठेगा। जितना नीचे गिरेगा आदमी, उतना खंडों में गिरेगा।
भारतीय संस्कृति भी बड़ा खंड है। अगर भारत में गांव-गांव घूमें तो पता चलेगा, महाराष्ट्र अलग संस्कृति है, गुजरात अलग संस्कृति है, तमिल अलग, आंध्र अलग, बंगाली अलग। और गुजरात में भीतर प्रवेश कर जाएं, तो पता चलेगा कि सौराष्ट्र अलग, गुजरात अलग। और भीतर घुसते चले जाएं, तो पता चलेगा कि सबके अपने-अपने बहुत ही छोटे-छोटे आंगन हैं। इन छोटे-छोटे आंगनों को पृथ्वी में बांट दें अगर हम, तो सिवाय कलह के और युद्ध के क्या पैदा हो सकता है?
इसलिए मैं कहता हूं, अब तक की संस्कृतियां भारतीय थीं, जापानी थीं; अगर अच्छी दुनिया बनानी है, तो आने वाली संस्कृति भारतीय नहीं होगी, जापानी नहीं होगी; पूर्वीय नहीं होगी, पश्चिमी नहीं होगी, संस्कृति होगी, मनुष्य की होगी, पूरी पृथ्वी की होगी, सार्वलौकिक होगी, सार्वजनीन होगी, हम सबकी होगी, एक पृथ्वी, वन वल्र्ड, एक जगत की होगी।
इसलिए भारतीय संस्कृति और गैर-भारतीय के भेद में और विचार में पड़ने का कोई प्रयोजन नहीं है। यह भी ध्यान रहे, अब तक की सारी संस्कृतियां मनुष्य के संबंध में बहुत गहरे अज्ञान पर खड़ी थीं। असल में मनुष्य के संबंध में हमारा ज्ञान ही बहुत कम है। हम पदार्थ के संबंध में जितना जानते हैं उतना मनुष्य के संबंध में नहीं जानते।
तीन हजार, साढ़े तीन हजार साल पहले मनु ने एक संस्कृति का आधार रखा। साढ़े तीन हजार वर्ष पहले आदमी के संबंध में ज्ञान इतना कम था जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। उस ज्ञान के आधार पर मनु ने कुछ सूत्र बनाए, उस समय के ज्ञान के लिए शायद वे श्रेष्ठतम सूत्र रहे होंगे। साढ़े तीन हजार वर्षों में आदमी के ज्ञान ने अदभुत गति की है। इतना विकास हुआ है कि अगर हम आदमी के पूरे ज्ञान का प्रयोग करें तो एक बिल्कुल ही और तरह की संस्कृति निर्मित होगी जो कि अतीत में कभी निर्मित नहीं हुई थी।
उदाहरण के लिए एक आदमी सिगरेट पी रहा है, तो पुरानी संस्कृति कहती है, सिगरेट पीना पाप है, बंद करो, सिगरेट मत पीयो। पांच हजार साल से हम समझा रहे हैं, सिगरेट मत पीयो। कोई फर्क नहीं पड़ता सिगरेट पीने वाला पीए ही चला जाता है। रोज सिगरेट पीने वाला बढ़ता चला जाता है। अरबों-खरबों रुपयों की आदमी सिगरेट पीता है, तंबाकू पीता है, चिलम पीता है। हजारों उपाय हैं, कितना हमने चिल्लाया, सिगरेट मत पीयो, कितना हमने समझाया है, नुकसान होता है, लेकिन आदमी पीए चला जाता है। क्या हम चिल्लाते रहें आगे भी? पांच हजार साल काफी नहीं हैं चिल्लाने के लिए?
नहीं, नया ज्ञान मनुष्य के बाबत यह कहता है कि जो आदमी तंबाखू खाता है या सिगरेट पीता है उसके शरीर में निकोटिन की कमी है, और जब तक निकोटिन की कमी है कोई शिक्षा काम नहीं करेगी। निकोटिन पूरा हो, आदमी सिगरेट, धूम्रपान से मुक्त हो सकता है।
मैक्सिको में एक बड़ी लेबोरेटरी पिछले पंद्रह वर्षों से काम करती रही है और नतीजे बहुत अदभुत हैं। एक बूंद निकोटिन की आपके शरीर में डाल दी जाए फिर आप सिगरेट पीएं तो बिल्कुल कचरा मालूम पड़ेगी। वह सिगरेट से जो निकोटिन जा रहा है वही आपको जरूरी मालूम पड़ रहा है, उसी के लिए आप सिगरेट पीए चले जा रहे हैं। नया मनुष्य अब इसकी फिकर छोड़ देगा कि समझाओ, सिगरेट मत पीयो। जो बच्चे सिगरेट पीने जाते हैं मां-बाप उनके परीक्षण करवा सकें कि उनको निकोटिन की कमी तो नहीं है? कमी है तो निकोटिन की कमी पूरी कर दो। सिगरेट पीने वाला बच्चा खबर दे रहा है कि शरीर में कहीं कुछ कमी है। और आप हैरान होंगे, अस्सी परसेंट लोगों के शरीर में निकोटिन की कमी है। थोड़े बहुत लोगों के शरीर में नहीं है कमी। वह कुछ प्राकृतिक भूल मालूम पड़ती है। बहुत कम लोगों के शरीर में निकोटिन पूरा है। लेकिन जिसके शरीर में पूरा है वह सिगरेट न पीने से महात्मा हो जाएगा। मामला सिर्फ निकोटिन का है और कुछ भी नहीं है।
मनुष्य के संबंध में हमारा ज्ञान इतना बड़ा है, एक-एक चीज के संबंध में हमारा ज्ञान इतना बड़ा है कि अब हम पुरानी बातों को दोहराए चले जाएं जिनसे कोई फल नहीं निकला, परिणाम नहीं निकला, बहुत गलत बात है। हम हजारों साल से मानते रहे हैं कि एक आदमी इसलिए गरीब है कि उसके भाग्य में गरीब होना लिखा है। अब यह बात नहीं मानी जा सकती, यह बात सरासर झूठ है। किसी के भाग्य में गरीब होना नहीं लिखा है। समाज की व्यवस्था गरीब और अमीर को पैदा करती है। अगर समाज की व्यवस्था बदल जाए तो गरीब-अमीर को मिटाया जा सकता है बिना किसी के भाग्य की रेखा को जरा भी छुए।
बीस करोड़ लोग रूस में एक भाग्य के हो गए? बीस करोड़ लोग वही खोपड़ी है? वही हाथ की रेखाएं हैं? कोई फर्क नहीं पड़ा हाथ की रेखाओं में। हम अभी अपने मुल्क में जानते हैं, सैकड़ों राजा थे मुल्क में, एक व्यवस्था से वे विदा हो गए। सैकड़ों राजाओं के हाथ की रेखाएं, एकदम से राजा होने की न रह गई हों ऐसा नहीं हो सकता। हिरोशिमा में एटम गिरा एक लाख आदमी मरे, उनके हाथ की रेखाएं देखें, किस-किस की मौत आ गई थी अभी? एक लाख आदमियों की मौत आ गई थी एक साथ, एक घड़ी में? हाथ की रेखाएं झूठी साबित हो गई हैं।
भाग्य की रेखाएं समाज की व्यवस्था की सुरक्षा हैं। भाग्य की कोई रेखा नहीं है इस तरह की किसी को गरीब बनाए, किसी को अमीर बनाए। पुरानी सारी संस्कृति भाग्य पर, कर्म पर और एक-एक आदमी की अपनी जीवन-व्यवस्था पर निर्भर थी। समाज की व्यवस्था का कोई बोध नहीं था, सोशल कंसेप्ट ही नहीं था, कोई समाज की धारणा नहीं थी। क्या हम इसी को दोहराए चले जाएं? एक भिखमंगे को यही कहें, तेरा भाग्य है कि तू भीख मांग रहा है और धनपति को समझाएं कि तुम दो पैसे इसे दान देते चले जाओ, क्योंकि तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम्हें दान देने का अवसर मिला है। यह हम कहते रहे हैं। इससे गरीबी तो नहीं मिटी, इससे गरीबी नहीं मिट सकती है, आगे भी नहीं मिट सकती है। और जिस समाज को, जिस जाति को, जिस देश को यह ख्याल हो जाए भाग्य का, वह देश एकदम शक्तिहीन हो जाता है। भाग्य एकदम इंपोटेंस ला देता है, सब तरफ निर्वीर्य छा जाता है। क्योंकि भाग्य! फिर हम खत्म हो गए।
अगर भाग्य नहीं है और हमें कुछ करना है तो शक्तियां जगती हैं। परमात्मा सबके भीतर है और बड़ी शक्तियां लिए भीतर है। लेकिन भाग्य ने सबके परमात्मा को एकदम शक्तिहीन कर दिया है।
पुरानी सारी संस्कृति भाग्यवादी थी, फैटलिस्ट थी। मनुष्य की भविष्य की संस्कृति भाग्यवादी नहीं हो सकती है। मनुष्य की भविष्य की संस्कृति पुरषार्थ की होगी। अगर गरीबी है तो मिटाएंगे, अगर बीमारी है तो मिटाएंगे, अगर उम्र कम है तो बढ़ाएंगे। नहीं, अब यह नहीं चलेगा कि एक आदमी मान कर बैठ जाए कि मेरी उम्र सत्तर साल की थी इसलिए सत्तर साल जीया। आदमी की उम्र कितनी भी बढ़ाई जा सकती है। और वैज्ञानिक इस ख्याल में हैं कि कोई भी आदमी कितने ही लंबे समय तक जीवित रखा जा सकता है। और आज नहीं कल पचास वर्षों के भीतर हम वह सूत्र खोज लेंगे कि आदमी को अंतहीन काल तक जीवित रखा जा सके।
एक अमरीका के अरबपति ने, मर गया है पांच वर्ष पहले, अपनी लाश को वैज्ञानिकों को सौंप गया है। और कई करोड़ रुपये का फंड सौंप गया है साथ में कि उसकी लाश को फ्रीज करके, ठंडा करके सुरक्षित रखा जाए तब तक जब तक मनुष्य को पुनरुज्जीवित करने और लंबी उम्र देने का नियम न मिल जाए। जिस दिन मिल जाए उस दिन उसकी लाश को पुनरुज्जीवित किया जाए। वह लाश सुरक्षित है, उस पर भारी खर्च हो रहा है। और वैज्ञानिकों को आशा है कि जिस दिन सूत्र मिल जाएगा, उस लाश को पुनरुज्जीवन दिया जा सकेगा।
दुनिया कहां जा रही है? मनुष्य का ज्ञान क्या खोज रहा है? लेकिन नहीं, वह पुराने ढांचे की बुद्धि वह क्या कहती है? पुरी के शंकाराचार्य ने अभी क्या कहा? उन्होंने कहा कि यह चांद पर आदमी गया ही नहीं। यह आर्मस्ट्रांग वगैरह, यह सब कपोल-कल्पनाएं, यह सब झूठी बकवास है। कोई कहीं गया नहीं, ये सब अफवाहें हैं, एक। और अगर पहुंच भी गए हों तो यह असली चांद नहीं है, असली चांद हमारा शास्त्रों का सूरज के आगे है।
दुनिया हंसेगी हम पर, हमारे बच्चे भी कल हंसेंगे हम पर और सोचेंगे कि किस तरह के लोग हैं? उसका कारण है, पुरानी संस्कृति मानती थी सब पा लिया गया, सब जान लिया गया, आगे अब कुछ जानने को नहीं है। उन्होंने जो सूत्र और नियम बनाए थे उस समय के ज्ञान के लिए पर्याप्त थे, लेकिन ज्ञान रोज आगे बढ़ रहा है। जिन्होंने गणना की है वे लोग कहते हैं कि अठारह सौ वर्षों में जीसस से लेकर जितना ज्ञान विकसित हुआ था उतना पिछले डेढ़ सौ वर्षों में विकसित हुआ। और पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना ज्ञान विकसित हुआ था पिछले पंद्रह वर्षों में हुआ है। और पिछले पंद्रह वर्षों में जितना विकसित हुआ है आने वाले डेढ़ वर्षों में होगा। इतनी तीव्रता से ज्ञान का विस्तार और फैलाव है।
हम जीवन के बाबत इतना जान रहे हैं जिसकी कि कल्पना करनी कभी संभव नहीं थी। इस सबको ध्यान में रख कर नई संस्कृति निर्मित करनी पड़ेगी। नई संस्कृति का पुराने से कोई बहुत संबंध होने वाला नहीं है। नई संस्कृति के सारे आधार नये होंगे। बच्चों को हम शिक्षा दे रहे हैं, सारी शिक्षा हमारी बहुत पुराने ढांचे की है। जो नवीनतम खोज हो गई हैं उसकी एप्लीकेशन अभी मुश्किल मालूम पड़ रही है।
रूस में वे एक नया प्रयोग कर रहे हैं। वे प्रयोग कर रहे हैं कि बच्चों को बजाय दिन में शिक्षा देने के रात में स्लीप-टीचिंग देना ज्यादा उचित होगा। दिन भर बच्चे खेलें, क्योंकि बच्चों का खेलना छूट जाता है, जो कि एक बहुत बड़ा नुकसान है। पांच साल के बच्चे को हम स्कूल में भरती कर देते हैं। उसका बचपन बुढ़ापे में बदलना शुरू हो गया। पांच साल के बच्चे को स्कूल में भरती कर दिया, वह कभी खेल नहीं पाया, आनंद से नाच नहीं पाया, तैर नहीं पाया, वृक्षों पर चढ़ नहीं पाया, पहाड़ियों पर दौड़ नहीं पाया, बस्ते का बोझ ही उसका पहाड़ बन गया, स्कूल की सीढ़ियां उतरना-चढ़ना ही उसका सारा खेल हो गया। पांच-छह घंटे पांच साल के बच्चे को हम स्कूल में बिठा देते हैं, उसकी सारी बुद्धि को जड़ता उपलब्ध हो जाती है, सारा मन कुंठित हो जाता है। अभी दौड़ने का वक्त था, छलांग लगाने का। कहीं रुकने का नहीं, चंचल होने का, हमने थिर होकर उसको पांच घंटे बिठा दिया।
स्कूल से छुट्टी होते वक्त देखा है आपने, बच्चे कैसे जोर से चिल्लाते हुए स्कूल से निकलते हैं जैसे किसी कारागृह से बाहर निकले हों। वह कारागृह हो गया है। वह कारागृह है। लेकिन अभी तक कोई उपाय नहीं था, तो हमारी समझ के बाहर था कि हम क्या करें। रूस में कुछ मनोवैज्ञानिकों ने नया प्रयोग सफल कर लिया है। और वे कहते हैं कि बच्चों को दिन भर खेलने दो, कूदने दो, नाचने दो, जो उन्हें करना है। उनका बचपन मत छीनो। क्योंकि बचपन एक बार छीन लिया गया, फिर दुबारा नहीं मिलेगा। और ध्यान रहे, जिसका बचपन छीन लिया गया, उसकी जवानी भी थोड़ी अधूरी रहेगी, क्योंकि वे जो बचपन के जो आधार उसकी जवानी को ताजगी देते, वे कभी रखे ही नहीं गए, वे छिटक गए, वे बिखर गए।
दिन भर खेलने दो उससे बचपन मत छीनो उसका, रात में उसके सोते में स्लीप-टीचिंग हो सकती है। रात सोते में उसके कान के पास टेप-रिकार्डर लगा कर उसे सारी शिक्षा दी जा सकती है, जो दिनों में, महीनों में नहीं दी जा सकती। उस पर वे सफल होते चले जा रहे हैं। निश्चित ही आने वाले स्कूल रात में लगा करेंगे, बच्चे स्कूल में जाकर सो जाएं। दिन भर घर रहें, रात स्कूल में सो जाएं, सुबह घर लौट आएं। यह संभावनाएं बढ़ती चली जा रही हैं। और भी अदभुत संभावनाएं आदमी खोज रहा है।
एक शिक्षक मरता है, तो अब तक हमारे पास एक ही उपाय है कि अगर मैं कुछ जानता हूं तो मैं आपको बताऊं, तभी आपको पता चलेगा। एक शिक्षक मरेगा, तो उसका जो ज्ञान है उसकी स्मृति है, वह सब उसके साथ नष्ट हो जाएगी। वैज्ञानिक सफल हो गए हैं इस बात में कि मेमोरी को ट्रांसप्लांट किया जा सके। एक आदमी मरे तो उसकी सारी स्मृति को एक नये बच्चे को दिया जा सके, सारी स्मृति, उसका पूरी स्मृति का ढांचा निकाल कर बच्चे को दिया जा सके। यह इतनी बड़ी संभावनाएं हैं कि सारी शिक्षा दूसरी होगी, मनुष्य के संबंध दूसरे होंगे। अब तक हम यही सोचते थे कि हर बच्चे को मां-बाप के पास पाला जाना चाहिए, यह बहुत सोचने-विचारने पर गलत साबित होता चला जा रहा है।
और इतनी हैरानी की बात पता चल रही है कि मां-बाप के पास जब तक बच्चे पलते हैं तब तक अच्छे बच्चे पैदा करना मुश्किल है। उसके कई कारण समझ में आते हैं। हमें ख्याल में भी नहीं हो सकता, एक बच्चा अपनी मां के पास बड़ा होता है, बीस साल तक वह एक ही स्त्री को जानता है अपनी मां को, उसके प्रेम को जानता है, और किसी स्त्री को नहीं जानता, और किसी के प्रेम को नहीं जानता, उसके मन में स्त्री का एक इमेज, एक धारणा बन जाती है। उसके अचेतन मन में स्त्री की एक कल्पना प्रविष्ट हो जाती है जो उसकी मां के आधार पर निर्मित होती है। अगर उसको ऐसी पत्नी मिल जाए जो ठीक उसकी मां जैसी है, तब तो यह दांपत्य सफल होगा, अन्यथा कलह निश्चित है। और हर आदमी अपनी पत्नी से उसी कलह में पड़ा हुआ है। वह मां की खोज कर रहा है जाने-अनजाने, और मां कहां मिलने वाली है? और हर पत्नी अपने पिता की खोज कर रही है पति में, लेकिन पिता कहां मिलने वाला है? वह जो इमेज उनके मन में बैठ गया है पुरुष और स्त्री का, वही खोज चल रही है। इसलिए सारी दुनिया का दांपत्य एक कलह...ऊपर से हम कुछ कहें, ऊपर से हम मुस्कराएं, ऊपर से हम बताएं कि सब ठीक है, लेकिन जो खोज करते हैं, जो खोज में भीतर जाते हैं, उन्हें पता है कि चेहरे पर मुस्कुराहटें हैं, भीतर बड़ी कलह है।
मैंने सुना है, एक आदमी की औरत मर गई, वह रो रहा है, औरत की अरथी बांधी गई है और घर के बाहर निकाली जा रही है। बाहर एक पीपल का दरख्त है, अरथी उससे टकरा गई, वह औरत मरी नहीं थी सिर्फ बेहोश थी, टकराने से हिल गई और उसने आवाज दी कि मुझे बांधा हुआ क्यों है? अरथी उतारनी पड़ी। वह औरत तीन साल और जिंदा रही। फिर दुबारा मरी। जब अरथी निकाली जाने लगी, वह आदमी रो रहा है, लेकिन अरथी निकालने वालों से उसने कहा, भाइयो, जरा सम्हाल कर निकालना, फिर दरख्त से न टकरा जाए।
भीतर सब कलह हो गई है। भीतर छुटकारे का भाव है। कितनी बार पत्नी सोचती है आत्महत्या कर लें, नहीं करती यह दूसरी बात। कुछ तो कर ही लेती हैं। कितनी बार पति सोचता है कहां चला जाऊं, मर जाऊं, कट जाऊं, कहां चला जाऊं। लेकिन पुरानी संस्कृति उस ढांचे को जरा भी नहीं समझ पाती कि बात क्या है? मनस्शास्त्र कहेगा, बात यह है कि वे जिसे खोज रहे हैं वह नहीं मिल सकता तो किसी बच्चे को मां के पास एकदम पालना बहुत खतरनाक है।
इजराइल में, वे उन्होंने कुछ प्रयोग किए हैं किबुत्स नाम की एक व्यवस्था का। बच्चों को स्कूल में पाला जा रहा है, नर्सरीज में पाला जा रहा है। एक नर्स तीन महीने से ज्यादा बच्चे के पास नहीं रहेगी। बीस साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते बच्चे के करीब बहुत तरह की स्त्रियां आएंगी। मां भी आएगी कभी, मिलने आएगी, चली जाएगी। कभी बच्चा दिन दो दिन के लिए घर जाएगा, फिर वापस लौट आएगा। एक बच्चा इतनी स्त्रियों के परिचय में आएगा कि उसके पास स्त्री की कोई फिक्सड इमेज, कोई ठहरा हुआ चित्र नहीं होगा। वह किसी भी स्त्री के साथ एडजेस्ट हो सकता है। फिक्सड इमेज हुआ, ठहरा हुआ चित्र हुआ, तो फिर समायोजन बहुत मुश्किल है।
बीस साल के अनुभव से उन्होंने जो नतीजे निकाले हैं वे यह कि इजराइल में पति-पत्नी के बीच जैसा प्रीतिपूर्ण संबंध पैदा हो रहा है वैसा पृथ्वी पर कभी भी कहीं नहीं रहा होगा। मां से छुड़ाना पड़ा बच्चे को। और आमतौर से हम सोचते हैं कि मां के पास बच्चा नहीं पलेगा तो सब गड़बड़ हो जाएगा। और एक मजे की बात हुई कि मां के पास बच्चा पलता है तो मां चैबीस घंटे तो प्रेम नहीं दे सकती। चैबीस घंटे प्रेम देना बड़ा टिडिएस काम है, बड़ा महंगा, मुश्किल काम है। चैबीस घंटे प्रेम देना पड़े, घंटे, आधे घंटे चलता है। प्रेम चैबीस घंटे चलाओ तो भारी, वजनी हो जाता है। मां चैबीस घंटे प्रेम तो नहीं दे सकती। घड़ी आधी घड़ी प्रेम देगी, नाराज भी होगी, मारेगी भी, चिल्लाएगी भी, डांटेगी भी, क्रोधित भी होगी। बच्चे के मन में मां के प्रति प्रेम भी पैदा होगा, घृणा भी पैदा होगी। दोनों एकसाथ होंगे। जब वह नाराज होगी तब बच्चा घृणा करेगा। और जब वह प्रेम करेगी तब बच्चा प्रेम करेगा। एक ही आब्जेक्ट, एक ही व्यक्ति के प्रति प्रेम और घृणा बच्चे का मन बड़ा खतरनाक कांप्लेक्स हो जाएगा। और इसलिए फिर बाद में वह जिसको भी प्रेम करेगा उसको साथ में घृणा भी करेगा। यह बड़ी मुश्किल बात है, हम जिसको प्रेम करते हैं उसको हम कहीं किसी कोने पर घृणा भी करते हैं। इसीलिए प्रेम के घृणा में बदल जाने में क्षण भर की देर नहीं लगती। प्रेम कभी भी घृणा बन सकता है। अगर मेरी आपसे बहुत दोस्ती है, बहुत प्रेम है, एक जरा सी बात और सब घृणा में बदल जाएगा। घृणा पीछे खड़ी है। दूसरा हिस्सा है, इसी सिक्के का दूसरा हिस्सा है।
वे कहते हैं, मां के पास बच्चे को अगर पाला पूरे वक्त, तो घृणा और प्रेम एक ही व्यक्ति से जुड़ जाएंगे। जो जिंदगी भर व्यक्ति के मन को द्वंद में रखेंगे, कांफ्लिक्ट में रखेंगे। उचित है कि बच्चे को मां से दूर पालो। मां कभी मिलने आएगी तो प्रेम करेगी। बच्चा कभी घर जाएगा तो प्रेम करेगी। प्रेम का ही भाव मां के प्रति बनेगा, घृणा का नहीं। और एक व्यक्ति के प्रति अगर प्रेम का बीस साल तक भाव बने तो वह व्यक्ति कांफ्लिक्ट के बाहर होता है, वह एक व्यक्ति को बिना घृणा किए प्रेम करने में सफल हो जाता है। पूरी संस्कृति के आधार, परिवार के आधार बहुत गलत हैं, बहुत ही गलत हैं। लेकिन जो नया ज्ञान मनुष्य के जीवन के संबंध में रोज नये अध्याय खोल रहा है, हम कुछ अंधे हैं, हम उस सबका कुछ प्रयोग नहीं करना चाहते हैं।
नई कार आती है, हम उसका उपयोग कर लेते हैं। नया मकान बनता है, हम नया मकान बना लेते हैं। आदमी, आदमी के संबंध में जो नई खोज होती है उसका उपयोग नहीं करता। और सब चीजों में नया हो जाता है। फाउंटेनपेन नया आ जाएगा, कार नई आ जाएगी, सड़क नई बन जाएगी, हवाई जहाज नया आ जाएगा। पदार्थ के संबंध में जितनी खोज होती है आदमी उसका उपयोग करता है। आदमी के संबंध में जो खोज होती है उसके बाबत आदमी बहुत डरता है। क्योंकि खुद के संबंध में प्रयोग करने में पूरे जीवन की व्यवस्था बदलनी पड़ेगी। और उसमें डर लगता है। तो हम उसके मामले में पुराने ही बने चले जाते हैं। सब नया हो गया है, सिर्फ आदमी पुराना है। और सब नये के साथ पुराना आदमी बहुत बेमौजू हो गया है, एब्सर्ड हो गया है, उसका कोई तालमेल नहीं बैठ रहा। और इसलिए तकलीफ हो गई। फिर कुछ बुद्धिमान लोग कहते हैं, जो नया हो गया है उसको भी पुराना कर दो। हवाई जहाज छोड़ो, रेलगाड़ी छोड़ो, मशीन छोड़ो, बड़ी मशीन की जरूरत नहीं, सब छोड़ दो, पुराने हो जाओ, बाहर भी पुराना कर लो। एक रास्ता तो यह है कि हम बाहर भी सब पुराना कर लें।
मनु के जमाने में जो बैलगाड़ी थी उस पर ही चलें तो मनु की स्मृति की समाज-व्यवस्था चल सकती है। और मनु के जमाने में जो इंतजाम था जीवन का वही हम बाहर भी स्वीकार करें? नहीं; बाहर तो हमने आइंस्टीन तक आई हुई दुनिया को स्वीकार कर लिया। और मनुष्य के भीतर मनु को पकड़े हुए हुए हैं। आइंस्टीन और मनु के बीच साढ़े तीन हजार साल का फासला है। हमने हर आदमी के भीतर साढ़े तीन हजार साल का टेंशन पैदा कर दिया है। हम उसको चिंता में डाले हुए हैं, मुश्किल में डाले हुए हैं।
दो रास्ते हैं, या तो बाहर भी हम पीछे लौट चलें। कोई राजी नहीं होगा, कोई राजी नहीं है, होना भी नहीं चाहिए। कौन राजी होगा वापस लौट जाने को पीछे आदिम हो जाने के लिए? फिर दूसरा रास्ता यह है कि हम आदमी को आगे ले आएं। आदमी के संबंध में जो भी नवीनतम ख्याल आए हैं उनका भी हम प्रयोग कर लें। सब बदलना पड़ेगा..विवाह की व्यवस्था, परिवार की व्यवस्था, मां-बाप के संबंध, सब बदलने पड़ेंगे, तो शायद अब तक जो हमने बनाया उससे एक भिन्न समाज बन जाए। जो खोजते हैं, उन्हें क्या दिखाई पड़ता है? उन्हें यह दिखाई पड़ता है कि हर आदमी इतना पीड़ित और परेशान है कि अपनी पीड़ा और परेशानी निकालने के हजार उपाय खोजता है।
रास्ते पर कोई आदमी लड़ रहा है, आप भीड़ लगा कर खड़े हो जाते हैं। कभी आपने सोचा, आप क्यों देखने के लिए उत्सुक हैं? दो आदमी लड़ रहे हैं आपको क्या मतलब है? नहीं; आप हजार जरूरी काम छोड़ कर भीड़ में खड़े हो गए हैं। और भीतर से दिल धड़क रहा है और बड़ी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि हो जाए कुछ जोरदार, कुछ कश्मकश हो जाए, मुक्केबाजी हो जाए तो आनंद आ जाए। पुलक आ रही है भीतर। हालांकि ऊपर से भीड़ लगे हुए लोग कहेंगे भाई, क्यों लड़ते हो? लड़ो मत। भीतर कहेंगे कि कहीं ऐसा न हो कि लड़ें ही न, लड़ जाएं तो आनंद हो जाए। अगर उन्होंने मान लिया भीड़ की बात और कहा, अच्छा आप कहते हैं तो हम नहीं लड़ते हैं, तो भीड़ बड़ी उदास वापस लौटेगी। कुछ भी नहीं हुआ, बेकार समय जाया हुआ। और अगर वे लड़ गए, तो हमें भी बहुत रस आएगा। किस बात का रस आ रहा है? हम भी लड़ना चाहते हैं, लड़ नहीं पाते हैं तो आइडेंटिटी खोज रहे हैं, कहीं लड़ाई हो रही हो तो हम भी देख लें।
फिल्म देखते हैं आप, डिटेक्टिव फिल्में हैं, स्टंट पिक्चर्स हैं, गोलियां चल रही हैं, कारें एक-दूसरे के पीछे पागल होकर दौड़ रही हैं, तब आपने देखा फिल्म के हाल में क्या हो जाता है? सबकी रीढ़ एकदम से सीधी हो जाती है। योगी कितना ही सिखाएं कि रीढ़ सीधी रखना, कोई नहीं सुनता। लेकिन जब स्टंट फिल्म में कोई कार किसी के पीछे दौड़ती है पागल होकर, पहाड़ी रास्तों पर मोड़ लेती है, तब आप देखें, फिल्म के भीतर एक आदमी कुर्सी से टिका हुआ मिल जाए तो समझना बहुत अदभुत आदमी है। सबकी रीढ़ सीधी हो जाएगी। जरा भी चूक न जाए। और सबके हाथ-पैर में गति आ जाएगी; जैसे आप ही कार को चला रहे हों या आपका ही पीछा किया जा रहा हो। हम आइडेंटिटी कर रहे हैं। नहीं तो स्टंट फिल्में कौन देखेगा? और जासूसी कहानियां कौन पढ़ेगा? जो पढ़ रहे हैं, जो देख रहे हैं, उसके पीछे भीतरी कारण हैं। युद्ध में कौन रस लेगा? युद्ध होता है तो कितनी ताजगी छा जाती है! सुबह जो आदमी आठ बजे उठता था वह पांच बजे उठ कर रेडियो खोलने लगता है कि क्या खबर है? जो कभी सुबह देखा नहीं, जिसने सूरज उगते नहीं देखा, वह बाहर खड़ा होकर रास्ता देखता है अखबार वाला कब आ जाए? युद्ध के वक्त आपने देखा, आदमी कितने ताजे मालूम पड़ते हैं, गति मालूम पड़ती है, हाथ-पैर में ताकत मालूम पड़ती है, शिथिल ढीले-ढाले नहीं, तेज हो जाते हैं कुछ हो रहा है! भीतर हमारे युद्ध की बड़ी आकांक्षा है कुछ हो जाए। बुरे की बड़ी आकांक्षा है क्योंकि हम बहुत क्रोध में, बहुत दुख में, बहुत पीड़ा में जी रहे हैं। कुछ हो जाए, उस कुछ हो जाने में हम बड़ा रस लेते हैं। उस रस में रुग्ण भाव है। जब तक मनुष्य का जीवन भीतर से दुख से भरा है तब तक बाहर के युद्ध बंद नहीं हो सकते। जब तक मनुष्य भीतर से परेशान है तब तक बाहर से शांति की सब बातें फि जूल हैं।
विनोबा से लेकर बट्रेंड रसल तक सारे लोग शांति की बातें करते हैं। लेकिन शांति नहीं हो सकती। क्योंकि आदमी को जो आपने व्यवस्था दी है वह उसे भीतर से अशांत और परेशान कर देती है। एक-एक आदमी अशांत है तो दुनिया शांत कैसे हो सकती है?
जब तक एक-एक आदमी शांत न हो जाए, दुनिया में शांति खोजनी असंभव है, क्योंकि दुनिया हम सबका जोड़ है और क्या है? संस्कृति बदलनी पड़ेगी। यह सवाल भारतीय का नहीं है। यह संस्कृति पुरानी है। वह जो अब तक हमने सोचा और जाना था उससे बहुत ज्यादा जाना गया उसका प्रयोग करना पड़ेगा। घबड़ाहट क्या है? पुराने का प्रयोग हो चुका, काफी हो चुका, पांच हजार वर्ष किसी भी प्रयोग को देने के लिए काफी हैं। नये के प्रयोग करने की हिम्मत जुटानी चाहिए। हो सकता है, नया भी असफल हो जाए, तो हम और नये को खोजेंगे, डर क्या है? जिंदगी तो खोज है निरंतर। अगर यह भी असफल हुआ और नया खोजेंगे। असफलता भी नये की तरफ ले जाएगी।
आइंस्टीन एक युवक के साथ एक रिसर्च का, शोधकार्य में लगा हुआ था। उन्होंने सात सौ प्रयोग किए। सब प्रयोग असफल हो गए। वह युवक इस बूढ़े के साथ थक गया। सात सौ प्रयोग? हर प्रयोग असफल होता चला गया। और आइंस्टीन रोज सुबह दूसरे दिन ताजा फिर आकर खड़ा हो जाता है। फिर नया प्रयोग करने लगता है। वह युवक थक गया है उसकी दस साल उम्र बढ़ गई ऐसा उसे लगने लगा कि यह क्या पागलपन है? सात सौ बार असफलता हो गई और यह आदमी रोज सुबह फिर हाजिर है उतनी ही खुशी से फिर प्रयोग शुरु कर रहा है? उसने आइंस्टीन से पूछा कि हम सात सौ बार असफल हो गए, आप थक नहीं गए? आइंस्टीन ने कहा: असफल? हम सात सौ बार असफल नहीं हुए; सात सौ दिशाओं में हमने खोज लिया, सात सौ दिशाएं असफल हो गईं; हम जीतते चले जा रहे हैं। अब कम दिशाएं बची हैं, धीरे-धीरे और एलिमिनेशन हो जाएगा, और दिशाएं खत्म हो जाएंगी; फिर वह एक ही बच जाएगी जहां कि सफल होना निश्चित है। हमारी जीत चल रही है।
सिर्फ एक तरह के लोग हार जाते हैं जो प्रयोग करना बंद कर देते हैं। हमने तो बंद ही कर दिए हैं प्रयोग हजारों साल से। हम कोई प्रयोग नहीं कर रहे हैं। हम छोटा-मोटा प्रयोग भी नहीं करते हैं। हम तो बंधी हुई लीक पर चलने के ऐसे आदी हो गए हैं कि आटोमैटा मशीन हो गए हैं, आदमी नहीं हैं। बस बंधी हुई लीक हैं..पिता ऐसा करते थे, उनके पिता ऐसा करते थे, उनके पिता ऐसा करते थे, उनके बेटे भी वैसा ही किए चले जा रहे हैं। यह शुभ नहीं है। बगावत चाहिए, विद्रोह चाहिए, नये के प्रयोग की कोशिश चाहिए। नया भी गलत हो सकता है। लेकिन प्रयोग न करने से गलत कोई प्रयोग नहीं हो सकता। प्रयोग करना ही चाहिए। होगा गलत, छोड़ेंगे और नये की खोज करेंगे। पुराना मनुष्य का ढांचा असफल हो गया है, यह कोई कहने की बात? हम अपने को देख कर कह सकते हैं। हम फल हैं उस ढांचे के।

एक और प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि भीतर जाने में यदि कोई पागल हो जाए तो क्या करें?

उन मित्र को पता नहीं कि जब तक कोई बाहर है तब तक ही पागल होता है। भीतर जाने में पागलपन छूटना शुरू होता है। लेकिन ऐसा हो सकता है कि भीतर गया हुआ आदमी दूसरों को पागल मालूम पड़ने लगे।
मेरे एक मित्र हैं, वे पागल हो गए थे, उन्नीस सौ छत्तीस में, बूढ़े आदमी हैं अब तो वे। पागल हो गए हैं, घर से भाग गए। तो कहीं भी कुछ उपद्रव किया। आगरा में..अदालत में उनको छह महीने की सजा दे दी। लेकिन देखा अदालत ने कि आदमी पागल है, तो उन्होंने कहा कि यह सजा पागलखाने में बिताई जाए, इलाज भी चले और पागलखाने में छह महीने की सजा भी बिताई जाए। वे लाहौर के पागलखाने में भेज दिए गए। वे मुझसे कहते थे कि दो महीने तक बड़े मजे में दिन कटे, क्योंकि मैं भी पागल था, और तीन सौ पागल और मिल गए थे, मित्र मिल गए थे, समाज मिल गया था। बहुत मजे में दिन कटे। दो महीने बाद फिनायल का एक डिब्बा कहीं रखा हुआ मिल गया पागलखाने में, वे उसे उठा कर पी गए। फिनायल का डिब्बा पी लिया, तो इतनी कै, इतने दस्त हुए कि सारे मस्तिष्क की और शरीर की गर्मी निकल गई, तो वे ठीक हो गए। लेकिन वे मुझसे कहते थे, जब मैं ठीक हो गया तब मेरी असली मुसीबत शुरू हुई। क्योंकि तीन सौ आदमी पागल थे..कोई मेरी टांग खींचता है, कोई मेरा कान पकड़ता है, कोई चांटा मार जाता है, कोई मेरे ऊपर बैठ जाता है। दो महीने तक मैं भी यह कर रहा था तो कोई गड़बड़ न थी, सब ठीक था। अब वहां तीन सौ पागल के बीच एक आदमी जो पागल नहीं है उसकी मुसीबत, वह चिल्ला-चिल्ला कर कहता है डाक्टरों से कि मैं पागल नहीं हूं, लेकिन डाक्टर कहते हैं, यह तो सभी पागल कहते हैं। यह कोई बात ही नहीं है। वह जितना जोर से चिल्लाता है, डाक्टर कहते हैं, शांत रहो, यह सभी पागल कहते हैं, और जोर से चिल्लाओगे तो और कड़ी सजा हो सकती है।
वे मुझसे कहते थे चार महीने मैंने ऐसा नरक भोगा कि मैं भगवान से रोज प्रार्थना करता कि कोई तरकीब से मुझे फिर पागल कर दे। पागलों के बीच ठीक हो जाना बड़ा मुश्किल मामला है।
भीतर जाने वाला आदमी पागल नहीं होता, लेकिन बाहर की भीड़ को पागल दिखाई पड़ सकता है।
जीसस हमें पागल ही दिखाई पड़े, नहीं तो हम सूली पर लटकाते? लगा कि यह आदमी पागल है, खत्म करो इस आदमी को। सुकरात हमें पागल ही मालूम पड़ा, नहीं तो हम जहर पिलाते? लगा, यह आदमी पागल है, इसे खत्म करो।
भीतर गया आदमी हमें पागल मालूम पड़ सकता है। लेकिन भीतर गया आदमी पागल होता नहीं। बाहर ही हम पागल हैं। हम करीब-करीब पागल हैं। हमारे पागलपन में डिग्री के फर्क हैं। एक आदमी ज्यादा पागल है, तो दिखाई पड़ने लगता है। हम नार्मल पागल हैं, तो हमें कभी पता नहीं चलता। जिंदगी चलती चली जाती है। लेकिन अगर हम थोड़ी खोज-बीन करेंगे, तो हमें पागलपन के लक्षण अपने में मिलने कठिन नहीं हैं। एकांत में चले जाएं, द्वार बंद कर लें, एक कागज और कलम ले लें और लिखें कि आपके मन में क्या चलता है। आधा घंटे तक जो भी चलता हो उसे लिख डालें और फिर किसी मित्र को दिखाएं। वह एक दफा कागज को देखेगा और दूसरी तरफ आपको देखेगा, फिर कागज देखेगा फिर आपको देखेगा और कहेगा, जल्दी बैठिए रिक्शे में, किसी डाक्टर के पास ले चलें। आपके दिमाग को यह क्या हो गया? ये तुम्हारे भीतर बातें चलती हैं? हालांकि अगर वह मित्र भी एकांत में बैठ कर लिखेगा, तो यही बातें उसके भीतर भी चलती हैं। और अगर वह जिस डाक्टर के पास ले जा रहा है, वह भी एकांत में लिखेगा, उसके भीतर भी यही बातें चलती हैं। इससे कोई फर्क नहीं।
लेकिन हम भीतर झांकते ही नहीं कि कैसा पागलपन है भीतर। कभी आप, आप कभी झांके, खोजें, तो पता चलेगा क्या-क्या पागलपन के ख्याल उठते हैं, कैसे-कैसे विचार उठते हैं। हम उन्हें दबाए हुए हैं। पागल वह है जो दबाना भूल गया और निकल गया। हम संयमी पागल हैं, संयम साधे हुए हैं। लेकिन जरा में संयम टूट सकता है। दीवाला निकल जाए, पत्नी मर जाए, कुछ भी हो जाए, जरा में सब गड़बड़ हो सकता है। और भीतर की सब भाप बाहर आ सकती है। जरा सी स्थिति में बदलाहट हो सकती है। निन्यानबे डिग्री पर सब उबल रहे हैं, सौ डिग्री हो जाए, भाप बन जाए। यह जो हमारी हालत है यह स्वस्थ हालत नहीं है। भीतर जितने हम गहरे जाएंगे उतना हम स्वास्थ्य के करीब पहुंचेंगे, क्योंकि भीतर वह सोर्स, वह केंद्र है, जहां से जीवन की धाराएं मिलती हैं।
आपने ख्याल किया होगा, पागल आदमी की नींद चली जाती है। और जिसकी नींद चली जाए उसके पागल होने का डर पैदा हो जाता है। क्यों? क्योंकि नींद में भर हम भीतर जाते हैं थोड़ा सा, बस, जिंदगी में जागते तो कभी जाते नहीं। गहरी नींद हो जाती है तो भीतर चले जाते हैं। और भीतर से जो जीवन के रसस्रोत हैं उनको लेकर वापस लौट आते हैं, इसलिए सुबह हम ताजा लगते हैं। सुबह की ताजगी रात भीतर उतर जाने का फल है। जो जितनी गहरी नींद सोता है उतना ताजा हो जाता है। अगर रात भर नींद न आए तो सुबह हम पागल जैसे हो जाते हैं। अगर दस-पंद्रह दिन नींद न आए...
चीन में वे एक काम करते थे। सजा देते थे। एक कठिन से कठिन सजा थी, जिसको फांसी से भी ज्यादा कठिन सजा देनी होती, अब फांसी से ज्यादा कठिन और क्या होगा? तो उसे एक खास सजा देते थे। वह सजा यह थी कि उसे एक कोठरी में खड़ा कर देते थे, जिस कोठरी में चारों तरफ से भाले छिदे होते थे, वह आदमी जरा भी यहां-वहां हो, तो भाले छिद जाएं, और उसकी खोपड़ी पर एक बूंद-बूंद पानी टपकता रहता था: टप टप टप। चैबीस घंटे नींद उसको आ नहीं सकती। हिलेगा-डुलेगा, जरा ही नींद आई, झपकी लगी कि भाला छिद जाएगा और वह टप टप जो है वह उसकी खोपड़ी को खा रही है ऊपर से। टप टप, अब वह परेशान हुआ जा रहा है, वह धीरे-धीरे टप टप ऐसा मालूम होने लगेगा जैसे पहाड़ टूट रहा है निरंतर-निरंतर और नींद आ नहीं सकती। पंद्रह दिन में वह आदमी विक्षिप्त हो जाएगा। पंद्रह दिन भी बहुत ताकतवर लोग टिक सकते हैं। आमतौर से तीन दिन में आदमी पागल हो जाएगा।
यह सबसे बड़ी सजा थी। फांसी के बाद ईजाद करने वाले लोग हुए हैं, खतरनाक लोग हैं, वे क्या-क्या ईजाद कर लें नहीं कहा जा सकता। लेकिन एक बात तय है कि हम जितनी गहरी नींद में जाते हैं उतने ताजे होकर वापस लौटते हैं। भीतर हम जितने उतरते है...
अभी नींद का बहुत विश्लेषण चलता है। अमरीका में कोई दस लेबोरेट्रीज खड़ी की गई हैं, जिनमें कोई दस हजार लोगों पर प्रयोग चलता है। रोज रात को सैकड़ों आदमी सुलाए जाते हैं उनकी नींद की जांच करने के लिए। जिस आदमी को सपने चलते रहते हैं वह आदमी सुबह उठ कर कहता है कि ताजगी नहीं आई और रात भर करीब-करीब सपने चलते रहते हैं। बहुत कम लोग हैं जिनको थोड़ी-बहुत देर के लिए सपने बंद होते हैं। जितनी देर के लिए सपना बंद होता है उतनी देर तक नीचे एक डुबकी लग जाती है। और अब तो जांचने के उपाय हैं, मशीन जांच लेती है कि आदमी कितना गहरा गया नींद में। सपने में चलता है तो ग्राफ ऊपर बनता है, गहरा जाता है तो नीचे। क्योंकि जो खोपड़ी की नसें हैं वे सपने में चलती हैं, तेजी से नींद आती है शिथिल हो जाती हैं, और नींद आती है बंद हो जाती हैं, गति बिल्कुल धीमी हो जाती है। कौन आदमी कितनी गहरी नींद में गया है, उन्होंने जो हिसाब लगाया है वह यह है कि जो आदमी जितनी गहरी नींद में चला जाता है वह आदमी के पागल होने की उतनी कम संभावना है। और जो आदमी नींद में ऊपर ही ऊपर घूमता रहता है उसके पागल होने का कभी भी डर है। छोटी सी चीज उसे पागल कर दे।
तो नींद में तो हम बेहोश होकर भीतर जाते हैं और धर्म हमें वह प्रक्रिया सिखाता है कि हम होश से भीतर पहुंच जाएं। नींद तो, बेहोश भीतर हम जाते हैं। धर्म हमें वह प्रक्रिया और विज्ञान और मेथड सिखाता है कि हम कैसे होशपूर्वक भीतर पहुंच जाएं। तो भीतर जाने से कोई कभी पागल नहीं होता। दूसरों को पागल दिखाई पड़ सकता है। लेकिन अगर कोई भी आदमी भीतर जाना शुरू करेगा तो पहले-पहले उसको भी लगेगा कि कहीं मैं पागल तो नहीं हो रहा? उसका कारण है। उसका कारण यह है कि उसने कभी भीतर झांका ही नहीं, पागल तो हम हैं। भीतर कभी झांका नहीं इसलिए पता नहीं चलता। झांकेंगे तो पता चलेगा।
एक लड़का खेल रहा है हाकी, उसके पैर में चोट लग गई, खून बह रहा है। वह खेल में तल्लीन है। सारी भीड़ को दिखाई पड़ रहा है कि उसके पैर से खून बह रहा है, उसको भर पता नहीं है। पता नहीं होने से खून नहीं बह रहा है, ऐसा नहीं है, खून तो बह रहा है लेकिन उसकी पूरी अटेंशन, पूरा ध्यान खेल में उलझा हुआ है। खेल बंद हुआ और वह एकदम कहता है, अरे, मेरे पैर में चोट लग गई। चोट अभी नहीं लगी, चोट लगी ही थी, अब पता चला, क्योंकि ध्यान उस तरफ गया। जो लोग बाहर ही बाहर भटक रहे हैं..दुकान में, बाजार में, मंदिर में, मस्जिद में घूम रहे हैं, उनको भीतर का ध्यान भी नहीं है कि वहां पागलपन इकट्ठा हो रहा है। जब कोई आदमी भीतर जाएगा तो पहली दफा उसे पता चलेगा कि यह क्या है, कहीं मैं पागल तो नहीं हो रहा? पागल नहीं हो रहे हैं, पागलपन था भीतर, पहली दफे ध्यान गया है, और अगर ध्यान गया है तो पागलपन मिट सकता है, क्योंकि ध्यान से बड़ी चीज पागलपन को मिटाने की और कोई भी नहीं। और अगर ध्यान बाहर ही बाहर भटकता रहा तो पागलपन भीतर इकट्ठा होता चला जाएगा।
जुंग ने जिसने अपनी जिंदगी में शायद पृथ्वी पर सर्वाधिक पागलों का इलाज किया और पागलों के संबंध में इससे बड़ा कोई जानकार खोजना मुश्किल है। जुंग ने लिखा है कि मैं जितने लोगों को अनुभव किया हूं कि जो पागल हो गए हैं उनमें मुझे ऐसा मालूम पड़ता है वे लोग अधिक हैं जिनका धार्मिक साधना से कोई भी संबंध नहीं रहा है। एक मनोवैज्ञानिक यह कहे..हैरानी की बात है! कह रहा है वह यह कि जो लोग पागल हो गए हैं मुझे ऐसा लगता है कि उनकी जिंदगी में धर्म से कोई भी संबंध नहीं रहा।
पश्चिम में जोर से पागलपन ब.ढ़ा है, पूरब में पागलपन थोड़ा कम है। पश्चिम में जोर से बढ़ा है। अमरीका में तो डर है कि अगर सौ-पचास वर्ष ऐसे ही चला तो कौन किससे इलाज करवाएगा यह तय करना मुश्किल हो जाएगा। जोर से पागलपन बढ़ता चला गया है। स्वीकृत हो गया, सामान्य बीमारी हो गई है। क्यों? भीतर जाने के सब द्वार हमने छोड़ दिए हैं। भीतर हम जाते ही नहीं। नींद का एक द्वार था, प्राकृतिक, वह भी छोड़ दिया। रोशनी पैदा हो गई है, रात दिन में बदल गई। अब रात सोने की कोई जरूरत नहीं है। रात नाचो, तीन-चार बजे तक गीत गाओ, कूदो, खेलो, घड़ी दो घड़ी..रात भर का तनाव, दिन भर का तनाव, लेटो बिस्तर पर, करवटें बदलो, सुबह फिर उठ आओ, फिर दौड़ शुरू हो जाए। आदमी पागल नहीं होगा तो और क्या होगा?
भीतर जाना बंद हुआ है, उससे आदमी पागल हो रहा है। भीतर हम जितने जाएंगे उतने हम ओरिजिनल सोर्श, वह जो हमारे भीतर उदगम है जीवन का, शक्ति का, वहां हम पहुंचते हैं। वहां से हम उतनी ही ताकत लेकर बाहर आते हैं। अगर कोई व्यक्ति यह कला सीख जाए भीतर जाने की, तो दिन में कई बार भीतर जा सकता है। जब आंख बंद करे भीतर चला जाए, एक डुबकी ले, ताजा हो बाहर आ जाए। जिंदगी बिल्कुल और हो जाएगी। हम अपने दरवाजे पर खड़े हैं, घर के दरवाजे पर बाहर धूप है हम भीतर चले आते हैं, फिर भीतर सर्दी लग रही है, अंधेरा है, हम बाहर चले आते हैं। अगर जीवन समझपूर्वक जीया जाए तो अपने भीतर और बाहर जाना इतना ही आसान है जैसे घर के बाहर जाना और भीतर आना। इतना ही आसान है। और जिस दिन इतना आसान अनुभव धीरे-धीरे प्रविष्ट हो जाता है उस दिन आदमी देखता है कि बाहर तो सिर्फ जीना है जीवन के मूलस्रोत भीतर हैं। बाहर तो केवल संबंध हैं, सत्य भीतर है। बाहर तो केवल एक विस्तार है, गहराई भीतर है। और जो भीतर जितना ज्यादा उतरता है उतना अपने ही भीतर नहीं दूसरे के भी भीतर देखने में समर्थ हो जाता है।
जिस दिन गहराइयां दिखाई पड़ने लगती हैं उस दिन आपका चेहरा ही दिखाई नहीं पड़ता, आपकी गहराई, डेफ्थ दिखाई पड़ती है। जिस दिन आपका शरीर नहीं दिखाई पड़ता आप दिखाई पड़ते हैं उस दिन यह सारा जगत परमात्मा हो जाता है। उस दिन इस जगत में पत्थर खोजना मुश्किल है। उस दिन इस जगत में पत्ता, फूल खोजना मुश्किल है, उस दिन सब तरफ परमात्मा की गहराई में आंदोलित मालूम होने लगता है। यह जो प्रतीति है परम आनंद की, यह जो प्रतीति है परम स्वास्थ्य की, यह जो प्रतीति है परम अमृत की, क्योंकि जैसे ही यहां कोई पहुंचा भीतर उसने यह भी जान लिया कि मृत्य झूठ है, मृत्यु से बड़ा झूठ कुछ भी नहीं है। कोई कभी नहीं मरा है और कोई कभी मरेगा भी नहीं। लेकिन हम बाहर जीते हैं, हमें पता ही नहीं अमृत का, रोज मरने-मरने से घिरे रहते हैं। हमें पता ही नहीं कि ऐसा भी कुछ है जो कभी नहीं मरता।
एक फकीर के पास कोई गया था और उस फकीर से पूछने लगा कि मैं पूछने आया हूं, जीवन और मृत्यु क्या है? उस फकीर ने कहा: भाग जाओ यहां से, अगर जीवन के संबंध में पूछना हो तो मुझसे पूछो और मृत्यु के संबंध में पूछना हो तो किसी मरे हुए आदमी को खोजो। मैं कभी मरा ही नहीं। और जिस दिन से भीतर गया हूं मैं हैरान हूं कि लोग मृत्यु में कैसे गुजर जाते हैं? उन्हें पता ही नहीं है कि भीतर जो है वह मरता ही नहीं।
एक, कुछ है जो सब मृत्यु को जीत कर पार निकल जाता है। लेकिन भीतर जाएंगे, तो ही उसका पता चलेगा। आप तो कह रहे हैं, पागल। भीतर गए, पागलपन असंभव है। भीतर गए, मृत्यु असंभव है। कि भीतर जो है वह शाश्वत है, चिरंतन है, सदा है। लेकिन हम वहां कभी गए ही नहीं। हम अपने ही बाहर भटके हैं। जन्मों-जन्मों में, बहुत बार वहीं-वहीं घूमते रहे हैं। एक कोल्हू का चक्कर है जिसमें हम घूमते रहे, उसी में घूमते चले जाते हैं। नये बच्चों को भी दीक्षित कर देते हैं कि तुम भी घूमो, हम भी उसी में घूमते चले जाते हैं।
कोई नहीं लौटता अपनी तरफ, और जो लौट आता है उसकी जिंदगी में जो पाने जैसा है उसका सुराग मिल जाता है, द्वार खुल जाता है। ऐसा नहीं है कि भीतर पहुंच कर हमने सब पा लिया, भीतर पहुंच कर सिर्फ पाने की शुरुआत होती है। सिर्फ द्वार खुलता है एक प्रकाश का जहां अनंत प्रकाश है, और अनंत जीवन है, और अनंत आनंद है, और ऐसी सुगंध है जो हमने नहीं जानी, और ऐसा संगीत है जो किसी वीणा से कभी पैदा नहीं होता, और ऐसे फूल हैं जो कभी मुरझाते नहीं, लेकिन उस तरफ हम जाएंगे तभी। और मैं कहूं इससे क्या हो सकता है? मैं कहूं इससे क्या हो सकता है? मैं जो कह रहा हूं उससे कुछ भी पता भी तो नहीं चलता। जाएंगे तो ही पता चलेगा, उतरेंगे तो ही पता चलेगा। किताबों में सब लिखा है उसे पढ़ लेंगे तो पता नहीं चल सकता है।
एक आदमी तैरने के संबंध में सब कुछ पढ़ ले तो भी तैरना नहीं जानता और उसे यह भी पता नहीं चलता कि तैरने की पुलक और आनंद क्या है? और सागर की लहरों के साथ जूझना क्या है? सूरज की किरणों में सागर में तैर जाना क्या है, उतरा जाना क्या है, चुपचाप पड़े रह जाना क्या है? उसे कुछ पता नहीं है। किताब पढ़ लेता है तैरने के संबंध में, सब किताबें पढ़ ले तैरने के संबंध में, खुद भी किताब लिख सकता है, व्याख्यान भी दे सकता है, लेकिन उस आदमी को भूल कर नदी में धक्का मत दे देना। धक्का दिया कि सब किताबों के सहित वह डूब जाएगा। तैरने का उसे कोई भी पता नहीं है।
तो जिस भीतर की मैं बात कर रहा हूं वहां जाए बिना कोई रास्ता नहीं है। मेरी बात सिर्फ एक प्यास जगा सके तो पर्याप्त है, एक ख्याल पैदा कर सके कि है कुछ भीतर खोजें। मैं नहीं कहता कि मान लें। मैं नहीं कहता कि मैं कहता हूं तो मान लें, हो सकता है मैं भ्रम में होऊं? भ्रम में होने की सदा संभावना है। मैं नहीं कहता मेरी बात मान लें, इतना कहता हूं कि कुछ मुझे दिखाई पड़ता है वहां, थोड़ा झांकें शायद आपको भी दिखाई पड़ जाएगा।
और जिस दिन दिखाई पड़ जाएगा उस दिन आप उसी हालत में आ जाएंगे।
एक अंतिम घटना अपनी बात पूरी कर दूं।
एक गांव में बुद्ध गए हैं और उस गांव के कुछ लोग एक अंधे आदमी को पास ले आए और कहा, यह मानता नहीं कि प्रकाश है, हम क्या करें? बहुत समझाते हैं, समझता नहीं।
बुद्ध ने कहा: तुम पागल हो। अंधे को समझाने से क्या प्रयोजन है? इसे किसी वैद्य के पास ले जाओ, विचारक के पास नहीं। इसके आंख का इलाज करवाओ, उपचार करवाओ। उपदेश नहीं। ठीक हो जाएगी आंख तो प्रकाश दिख जाएगा। समझाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा: हम तो आए थे आपके पास कि आप बुद्धिमान हैं, आप शायद समझा सकें।
बुद्ध ने कहा: मैं इतना बुद्धिमान हूं कि समझाऊंगा नहीं। तुमने समझाया यह बुद्धिहीनता की बात थी। समझाने की क्या जरूरत है इसमें? इसे ले जाओ चिकित्सा के लिए।
उसकी चिकित्सा के लिए ले गए, उसकी आंख ठीक हो गई। छह महीने बाद वह नाचता हुआ गांव में फिर आया और उसने कहा कि मैं भूल में था, प्रकाश तो था, मेरे पास आंख नहीं थीं। और मैं पागल कहता था कि प्रकाश नहीं है। मैं कहता था, प्रकाश मुझे छूकर देखना है, अब मैं जानता हूं कि प्रकाश को कोई छूकर कैसे बतला सकता था? मैं कहता था, प्रकाश को बजाओ, मैं उसकी आवाज सुन लूं, अब मैं जानता हूं कि प्रकाश को कोई कैसे बजा सकता था? मैं कहता था, लाओ प्रकाश को मेरे पास, मैं चख लूं, स्वाद ले लूं, अब मैं जानता हूं प्रकाश का कोई स्वाद नहीं है, लेकिन प्रकाश है। मेरे पास आंख नहीं थी।
आंख की खोज धर्म है। एक ऐसी आंख की जो भीतर उतार देती है। उस आंख के संबंध में कल सुबह हम बात करेंगे।

आपने मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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