सातवां प्रवचन--ज्योति का स्पर्श
सम्राट बूढ़ा हो गया था, और जैसे-जैसे मृत्यु की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी और जैसे-जैसे मृत्यु की छाया गहरी होने लगी उसे स्मरण आया कि मैं जी तो लिया लेकिन जीवन को अभी जान नहीं पाया हूं। शायद बहुत अधिक लोगों को मृत्यु के आने पर ही पहली बार बोध होता है कि जीवन अपरिचित, अनजाना छूट गया है। मौत करीब आने लगी, मौत की छाया घिरने लगी, तो उसे लगा जीवन तो हाथ से निकल गया और मैं जीवन को जान नहीं पाया।जो बाहर ही जीते हैं वे जीवन को जान भी नहीं पा सकते हैं; क्योंकि जीना तो बाहर है, जीवन भीतर है। और बहुत लोग जीने मात्र को ही जीवन समझ लेते हैं, तो बड़ी भूल हो जाती है।
उस सम्राट ने तत्काल ही अपनी राजधानी के बुद्धिमान लोगों को बुलाया और उनसे पूछा कि जीवन क्या है? यह मुझे बताओ।
एक भूल तो उसने यह की कि मौत तक प्रतीक्षा की जीवन को जानने के लिए, जब कि जीवन रोज मौजूद था, प्रतिपल मौजूद था। दूसरी भूल उसने यह की कि जीवन को जानने के लिए भी किसी और को बुलाया कि तुम मुझे बताओ कि जीवन क्या है? जीवन मैं ही हूं, तो किसी और से पूछने जाऊंगा तो कोई मुझे क्या बता सकेगा? मेरे जीवन को तो मुझे ही जानना पड़ेगा। मेरे भीतर मेरे अतिरिक्त और कोई उतर नहीं सकता..न कोई मेरी जगह मर सकता है, न कोई मेरी जगह जी सकता है। मेरी जगह कोई खड़ा भी नहीं हो सकता। एक क्षण भी जहां मैं हूं कोई और नहीं हो सकता। कोई दूसरा कैसे बताएगा।
लेकिन अक्सर सभी लोग यही भूल करते हैं। वही भूल उस सम्राट ने भी की। प्रश्न उठा तो सोचा किसी से पूछ लें। जब भी प्रश्न उठता है तो हम किसी से पूछने को निकल जाते हैं। कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनके उत्तर दूसरों से मिल जाएंगे। लेकिन कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनके उत्तर किसी से भी कभी नहीं मिलते। जिन प्रश्नों के उत्तर दूसरों से मिल जाएं उन प्रश्नों का धर्म से कोई भी संबंध नहीं है। जिन प्रश्नों के उत्तर किसी से भी नहीं मिलते, खुद ही खोजने पड़ते हैं, उन प्रश्नों का संबंध ही धर्म से है।
उसे प्रश्न उठा था, जीवन क्या है? लेकिन बुलाया बुद्धिमानों को, बुद्धिमान आ भी गए, क्योंकि जो आदमी पूछने जाएगा उत्तर देने वाले भी मिल ही जाते हैं। बुद्धिमान अपने बड़े-बड़े शास्त्र लेकर राजमहल में उपस्थित हो गए। अक्सर बुद्धिमानों के पास सिवाय शास्त्रों के और कुछ होता भी नहीं। जीवन तो वे भी नहीं जानते थे, शास्त्र जानते थे। इतना ही फर्क था सम्राट में और उनमें। सम्राट भी जीवन नहीं जानता था, वे भी जीवन नहीं जानते थे। सम्राट शास्त्र भी नहीं जानता था, वे शास्त्र जानते थे। वे शास्त्र लेकर आ गए, क्योंकि अगर वे जीवन जानते होते तो शास्त्र लेकर आने का कोई भी अर्थ न था। किसी भी शास्त्र में कहीं भी जीवन नहीं है। शास्त्र तो मृत है, मरा हुआ है, शास्त्र में तो कोई जीवन नहीं, राख है अंगार की, खुद अंगार नहीं है। किसी ने जीवन जाना होगा उसने कुछ कहा है वह शास्त्र में इकट्ठा हो गया है। वह कहा हुआ राख है, अंगार को जानना था। कहा हुआ राख से ज्यादा नहीं हो सकता। वे बड़ी किताबें लेकर आ गए हैं।
सम्राट ने कहा कि मैं जानना चाहता हूं जीवन क्या है? बताओ।
उन्होंने कहा: बहुत शास्त्र हैं, सभी आपको जानने पड़ेंगे।
सम्राट ने कहा: जितने भी शास्त्र हों, मैं पूर्ण जीवन जानना चाहता हूं। तुम सब शास्त्र ले आओ, जल्दी करो, मौत करीब आती मालूम पड़ती है। सम्राट सत्तर के करीब पहुंच गया है। वे बुद्धिमान गए, बहुत जल्दी की उन्होंने। लेकिन बुद्धिमानों की जल्दी भी बड़ी देर की होती है। पांच वर्ष बाद लौटे, पांच सौ ऊंट लेकर लौटे। पांच सौ ऊंटों पर लदे हुए शास्त्र लेकर लौटे। सम्राट से कहा कि पृथ्वी पर जितना भी जीवन के संबंध में जाना गया, सब हम ले आए।
सम्राट ने कहा: तुम पागल मालूम पड़ते हो, मैं मरने के करीब हूं, पांच सौ ऊंटों पर लदे हुए शास्त्रों को मैं कब पढ़ूंगा? कौन पढ़ेगा? फुरसत कहां है? समय कहां है? संक्षिप्त करो।
फिर पांच वर्ष लग गए। वे संक्षिप्त करके पांच किताबें लेकर लौटे। तब सम्राट अस्सी वर्ष के करीब हो रहा था। आंखें जवाब दे गई थीं, दिखाई नहीं पड़ता था, चल नहीं सकता था, उठ नहीं सकता था। पांच गं्रथ देख कर उसने कहा, तुम निपट पागल हो, पांच वर्ष लगा दिए संक्षिप्त करने में, और अब पांच ग्रंथ लेकर आए हो? अब जब कि मैं बिल्कुल मरने के करीब हूं। आंखों से दिखाई नहीं पड़ता, ये पांच ग्रंथ पूरे कौन पढ़ेगा? और संक्षिप्त करो। वे पंडित दो वर्ष बाद और संक्षिप्त करके लौटे। अब वे पांच ही पन्ने लेकर आए थे। लेकिन सम्राट बेहोश पड़ा था, मरने के करीब था। आखिरी सांस चल रही थी। उन्होंने उसे हिलाया और कहा हम संक्षिप्त कर लाए हैं। सम्राट ने कहा: अब तो पांच पन्ने भी पांच सौ ऊंटों के बराबर हैं, और संक्षिप्त करो। एक ही शब्द में कह सको तो कह दो अन्यथा मैं जा रहा हूं। वे पंडित किसी तरह पांच पन्नों को पांच शब्दों में उतार पाए। सम्राट के पास गए कि कम से कम पांच शब्द तो सुन लें। लेकिन सम्राट डूब रहा था। डूब ही चुका था। हिलाया उसे, उसके कान में, वह बेहोश था, एक ही शब्द वे कह पाए कि उसकी श्वास टूट गई। पता नहीं उन्होंने क्या शब्द कहा? कुछ लोग कहते हैं, उन्होंने कहा, धर्म, धर्म ही जीवन है। कोई कहते हैं, उन्होंने कहा, परमात्मा, परमात्मा ही जीवन है। कोई कहते हैं, उन्होंने कहा, ज्ञान, ज्ञान ही जीवन है। और बहुत लोग बहुत तरह की बातें कहते हैं। लेकिन उन्होंने क्या कहा, कुछ पता नहीं है।
कुछ भी कहा हो, कहा हो परमात्मा, कहा हो ज्ञान, कहा हो धर्म, कहा हो योग, कहा हो मोक्ष, सम्राट को, उस बेहोश पड़े सम्राट को क्या फर्क पड़ा होगा? कुछ भी कहा हो, सब व्यर्थ हो गया होगा। एक शब्द में भी कहा हो तो भी व्यर्थ हो गया होगा। सम्राट को क्या हुआ होगा? सुन ही लिया होगा और क्या हुआ होगा।
हममें से भी बहुत लोग सुन ही लेते हैं और कुछ भी नहीं होता है। सुनने से कुछ होगा भी नहीं।
कल ही कोई मित्र मेरे पास आए, उन्होंने कहा, हम आपको पांच वर्षों से सुनते हैं, कुछ होता नहीं?
मैंने कहा: मैंने कब कहा है कि मेरे सुनने से और कुछ हो सकेगा? किसी के सुनने से भी कुछ नहीं हो सकेगा। कुछ करना भी पड़ेगा। जानना बहुत गहरे में किसी करने से उपलब्ध होगा। जानना सिर्फ सुनने से, पढ़ लेने से कैसे उपलब्ध होगा। लेकिन हम या पढ़ते हैं, या सुनते हैं; शब्दों का संग्रह इकट्ठा कर लेते हैं। कोई एक शब्द इकट्ठा करता होगा, कोई पांच ग्रंथ, कोई पांच सौ, कोई पांच सौ ऊंटों पर लदे ग्रंथ इकट्ठे कर लेता होगा। लेकिन उससे बोझ बढ़ जाता है, जानना नहीं होता। बोझ एक बात है, जानना बिल्कुल दूसरी बात है।
हम सब भी बहुत कुछ जानते हैं। वह सुना हुआ है, पढ़ा हुआ है, जाना हुआ बिल्कुल भी नहीं। जानें कैसे? इस संबंध की ही बात आज सुबह के सूत्र में आपसे करना चाहता हूं। जानें कैसे? क्या उपाय है सत्य को जानने का? क्या उपाय है जीवन के साक्षात का? चाहे हम उसे परमात्मा कहें, चाहे कोई और नाम दे दें, जो है उसे जानने का उपाय क्या है? और जो है उसे हम जान क्यों नहीं पाते? हम कुछ और क्यों जान लेते हैं? जो है उसे क्यों नहीं जान पाते?
मजनू की कहानी हम सबने सुनी है। उसके गांव के राजा ने उसे बुलाया था और कहा था तू पागल हो गया है। लैला बहुत साधारण सी लड़की है। उससे बहुत सुंदर लड़कियां हम तुझे दे सकते हैं। तेरी पीड़ा से हमें भी पीड़ा होती है। तेरे बहते आंसुओं से और गांव के आस-पास तेरे गूंजते हुए गीतों की आवाजों से हमें भी पीड़ा होती है। तू व्यर्थ परेशान है। लैला बड़ी साधारण लड़की है। हमने बहुत सुंदर लड़कियां बुलवा भेजी हैं। तू देख ले, तुझे जो पसंद हो वह चुन ले।
मजनू बहुत हंसने लगा, उसने कहा, आपको पता ही नहीं कि लैला कौन है? लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। मेरे सिवाय कोई नहीं जानता कि लैला कौन है!
सम्राट ने कहा: मैंने देखा है तेरी लैला को और मेरे दरबारियों ने देखी, बड़ी साधारण सी लड़की है। क्यों पागल हुआ चला जाता है?
मजनू ने कहा: वह होगी साधारण। मजनू के लिए नहीं, मजनू की आंख के लिए नहीं।
उस सम्राट ने कहा: ऐसा मालूम होता है लैला जैसी है वैसी तू नहीं देखता, तू जैसी देखना चाहता है वैसी देख लेता है, प्रोजेक्शन है कोई।
हम कोई भी वह नहीं देखते जो है, हम जो देखना चाहते हैं वह तस्वीर हम ऊपर से ढ़ाल देते हैं। जिसे हम मित्र देखना चाहते हैं हम मित्र के भाव उसके ऊपर आरोपित कर देते हैं। और जिसे हम शत्रु देखना चाहते हैं शत्रु के भाव आरोपित कर देते हैं। और जो भाव हम इंपोज कर देते हैं, आरोपित कर देते हैं, वही हमें दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। हम वह नहीं देखते जो है, हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। इसीलिए एक ही आदमी किसी को प्यारा मालूम होता है, किसी को हत्यारा मालूम होता है। किसी को मित्र, किसी को दुश्मन मालूम होता है। एक ही बात किसी को बहुत अमृत मालूम होती है, किसी को बहुत जहर मालूम होती है। हम जो थोप देते हैं वही हम देख लेते हैं। हम देखते नहीं, हम व्याख्या करते हैं। और जब तक हम व्याख्या करते हैं तब तक हम देख नहीं सकते। हम अपने को भी नहीं देख सकते। हम अपनी भी व्याख्या कर लेते हैं।
एक आदमी है वह मान लेता है कि पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, सब शरीर है। उसने जाना नहीं है कुछ, एक धारणा बना ली है कि सब शरीर है, सब पदार्थ है, मृत्यु के साथ सब मर जाता है। मैं देह के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हूं। भोजन है, खाना है, पीना है, बस यही जीवन है। ऐसी उसने व्याख्या कर ली। अब वह जो है उसे कभी नहीं जान पाएगा। सदा इसी व्याख्या को आरोपित करके देखता रहेगा। और बार-बार इसी व्याख्या से देखने पर उसे लगेगा कि मेरी व्याख्या ठीक थी, क्योंकि जो मैंने सोचा था वही तो दिखाई पड़ता है। ऐसा एक विसियस सर्कल पैदा होता है, जो हम मान लेते हैं वह दिखने लगता है। जब वह दिखने लगता है तो हम कहते हैं हमारी मान्यता सही थी, क्योंकि देखो वही तो दिखाई पड़ रहा है जो हमने माना था। वह हमारे मानने के कारण ही दिखाई पड़ रहा है।
एक दूसरा आदमी है वह मान लेता है कि मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं हूं। परमात्मा हूं, ब्रह्म हूं, अहं ब्रह्मास्मि! वह यही दोहराने लगता है। वह भी व्याख्या कर रहा है। उसे ऐसा ही लगने लगेगा कि मैं ब्रह्म हूं, मैं आत्मा हूं। उसे ऐसा ही लगने लगेगा कि कुछ भी नहीं मरेगा। लेकिन यह भी व्याख्या है। और जब लगने लगेगा तो वह कहेगा, देखो, जो मैंने माना था वह ज्ञान कितना सत्य था। वही दिखाई पड़ने लगा है।
हम व्याख्याएं पहले पकड़ लेते हैं, सत्य सदा पीछे छूट जाता है। जो व्याख्या पकड़ता है वह सत्य को कभी उपलब्ध नहीं होता। और दूसरों के संबंध में हम छोड़ दें, अपने संबंध में भी हम व्याख्याएं पकड़ कर ही जी लेते हैं। आस्तिक आस्तिक होकर जी लेता है। नास्तिक नास्तिक होकर जी लेता है। हिंदू हिंदू, मुसलमान मुसलमान होकर जी लेता है। बौद्ध बौद्ध होकर जी लेता है। लेकिन सब व्याख्याएं पकड़ कर जी लेते हैं। और व्याख्याओं के कारण जो है, दैट व्हीच इ.ज, वह दिखाई भी नहीं पड़ पाता। वह कभी दिखाई नहीं पड़ पाता।
स्वयं की खोज में, सत्य की खोज में आखिरी सूत्र है सब व्याख्या छोड़ देना। उसे देखने निकलना जो है। और अगर उसे देखने निकलना है जो है तो अपनी तरफ से कोई भी भाव मत करना कि यह होना चाहिए या ऐसा होगा। खाली, शून्य, रिक्त मन से जो जाएगा वह जान पाता है कि क्या है। भरे मन से जो जाएगा वह वही जान लेता है जो वह सोच कर जाता है कि होना चाहिए। इसीलिए तो सब धर्मों के लोग समझते हैं कि वे सही हैं, क्योंकि जो व्याख्या लेकर वे जाते हैं वही देख लेते हैं।
एक आदमी क्राइस्ट की कल्पना करता है, क्राइस्ट को देख लेता है। एक आदमी राम की कल्पना करता है, धनुर्धारी राम को देख लेता है। एक आदमी कृष्ण की कल्पना करता है, बांसुरी बजाते कृष्ण को देख लेता है। इन तीनों आदमियों को एक ही कमरे में बंद कर दो..क्राइस्ट को देखने वाले आदमी को राम और कृष्ण बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ेंगे। राम दिखाई पड़ने वाले आदमी को क्राइस्ट और कृष्ण बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ेंगे। वही कृष्ण दिखाई पड़ने वाले आदमी का भी हाल होगा।
सुबह उनसे पूछो, वे कहेंगे कि क्राइस्ट मौजूद था। एक कहेगा, राम, कृष्ण कोई मौजूद नहीं थे। दूसरा कहेगा, राम मौजूद थे। तीसरा कहेगा, कृष्ण मौजूद थे। वे तीनों लड़ेंगे। वे तीनों इसलिए लड़ रहे हैं कि उन्होंने तीन व्याख्याओं को प्रोजेक्ट किया है। तीन व्याख्याओं में अपने को सम्मोहित किया है।
वे अॅाटो-हिप्नोसिस में खुद को सम्मोहित करके जो देखना चाहे थे वह देख लिए हैं। दूसरा, मेरी कल्पना को दूसरा नहीं देख सकता, मेरी कल्पना को मैं ही देख सकता हूं। तो हमारी सबकी अलग-अलग कल्पनाएं हैं। हम अपनी-अपनी कल्पनाएं देख लेते हैं, इसलिए दुनिया में सब धर्म चले जाते हैं। क्योंकि सब धर्मों को यह लगता है कि जो हमारे ग्रंथों में कहा है वह हमने देखा, जाना, पहचाना। और मजा उलटा है। वह ग्रंथों में सत्य कहा है इसलिए नहीं बल्कि हमने उसे पकड़ लिया वह दिखाई पड़ गया है।
सत्य की खोज में जिसे जाना है उसे सब ग्रंथ, सब धारणाएं, सब कंसेप्टस छोड़ देने पड़ेंगे। उसे रिक्त और खाली खड़ा हो जाना पड़ेगा। और उसे कहना पड़ेगा अपने पूरे अंतर्तम में मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। मैं ज्ञान लेकर तुम्हारे पास नहीं आता हूं क्योंकि अगर मैं ज्ञान लेकर आऊंगा तो सत्य को कैसे जान सकूंगा? ज्ञानी ज्ञान के भ्रम से भरे हुए लोग सत्य को कभी नहीं जान पाते हैं। उसे तो जानना पड़ेगा..मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। ऐसा कहना ही नहीं पड़ेगा, ऐसे पूरे अंतर्तम में, पूरे पर्त-पर्त में प्राणों की अनुभव करना पड़ेगा..मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। और सच ही हम जानते क्या हैं? रास्ते पर पड़े पत्थर को भी नहीं जानते हैं और परमात्मा को जानने का दावा शुरू कर देते हैं।
डी. एच. लारेंस एक लेखक और विचारक था। एक बगीचे में घूम रहा है। एक छोटा बच्चा उसके साथ है, वह बच्चा उससे पूछता है, वॅाय दीज ट्रीज आर ग्रीन? ये वृक्ष हरे क्यों हैं? लारेंस हंसने लगता है और कहता है, सच-सच बता दूं? तो बच्चा कहता है, सच ही सच जानना है। तो लारेंस थोड़ी देर वृक्ष के पास खड़ा रहता है और फिर कहता है, जहां तक मैं जानता हूं, दीज ट्रीज आर ग्रीन बिकाज दे आर ग्रीन। वृक्ष हरे हैं क्योंकि हरे हैं। वह बच्चा कहता है कि यह कोई उत्तर हुआ? लारेंस ने कहा: मतलब मेरा यह है कि मैं नहीं जानता। इतना ही है कि वृक्ष हरे हैं। और मैं नहीं जानता। और वृक्ष का हरा होना बड़ा आनंदपूर्ण है। मुझे कुछ पता नहीं है।
ऐसा व्यक्ति, ऐसे व्यक्ति की मनःस्थिति सत्य को खोज की हो सकती है। वह कुछ आरोपित नहीं करता। वह कोई व्याख्या नहीं करता। जीवन के तथ्यों के सामने चुप खड़ा हो जाता है। हम चुप कभी खड़े होते ही नहीं। हम जीवन के किसी तथ्य के सामने कभी चुप होकर नहीं खड़े हुए। हमारी अपनी धारणा को हमने तथ्य पर थोप दिया है। तथ्य हट गया है, हमारी धारणा ही वहां बैठ कर रह गई है। इसीलिए एक ही तथ्य को दस लोग दस तरह से देख लेते हैं। हजार लोग हजार तरह से देख लेते हैं। तथ्य तो एक ही होता है।
सत्य भी एक ही है, लेकिन हम अपनी-अपनी व्याख्या करके भटक जाते हैं। स्वयं की यात्रा में अंधकार से प्रकाश की ओर आखिरी सूत्र है। कोई व्याख्या, कोई ज्ञान, कोई विचार लेकर अपने पास मत जाना, गए कि वही मिल जाएगा जो लेकर हम गए हैं। वह नहीं जो है। जो है वह बात ही और है।
हमारी आंखों पर चश्मे हों रंग-बिरंगे, वही रंग दिखाई पड़ने लगते हैं। पीलिया के मरीज को सब पीला दिखाई पड़ने लगे। और अगर एक कोई गांव ऐसा हो जिसमें सभी पीलिया के मरीज हों और एक आदमी पैदा हो जाए जिसे पीलिया न हो, तो उस गांव के लोग उसको इंजेक्शन लगवा कर पीलिया करवा देंगे कि यह बेचारा गलत पैदा हो गया, अस्वस्थ पैदा हो गया है। एक गांव में अंधे लोग हों और एक आंख वाला आदमी पैदा हो जाए, तो उस गांव के सर्जन, उस गांव का मेडिकल कालेज उसकी आंखों का आपरेशन कर देगा कि यह बेचारे को कुछ गड़बड़ चीजें निकल आईं, क्योंकि आंखें तो होती ही नहीं। जो हमें दिखाई पड़ता है वह हमारा थोपा हुआ है। और अगर भीड़ किसी चीज को थोप ले तो बहुत मुश्किल हो जाता है। एक-एक आदमी को शक भी पैदा हो सकता है, भीड़ के साथ शक भी पैदा नहीं होता। इसीलिए हम भीड़ बांध कर खड़े होते हैं। हिंदू अलग भीड़, जैनियों की अलग भीड़, पारसियों की अलग भीड़, सिक्खों की अलग भीड़, हम भीड़ बांध कर खड़े होते हैं। क्यों? क्योंकि एक-एक आदमी को शक पैदा हो जाएगा कि मैं जो मानता हूं वह ठीक है या नहीं? लेकिन जब चारों तरफ और लोग भी कहते हैं कि बिल्कुल ठीक है, तुम जो मानते हो यही ठीक है, यही हम भी मानते हैं, तो उसका बल बढ़ जाता है, उसका आत्मविश्वास बढ़ जाता है। वह पक्का हो जाता है मजबूत। फिर वह अपने को सम्मोहित कर सकता है। फिर वह वही देख सकता है जो भीड़ दिखाना चाह रही है। भीड़ से सत्य का क्या संबंध हो सकता है? व्याख्या के साथ सत्य का क्या संबंध हो सकता है?
नहीं; छोड़ कर जाना पड़ेगा खाली और शून्य, जैसे कोई दर्पण खाली हो, बिल्कुल खाली, ताकि जो भी सामने आए वह बन सके दर्पण पर, प्रतिबिंबित हो सके। जैसे कोई झील लहरों से खाली हो, तो झील के ऊपर आकाश हो, तो तारे और चांद दिखाई पड़ सकें झील के भीतर। अब झील लहरों से भरी है, तो चांद-तारे दिखाई नहीं पड़ेंगे। चांद-तारे प्रतिबिंबित होंगे तो भी झील में छितर जाएंगे, बिखर जाएंगे, चांद फैल जाएगा, चांदी फैल जाएगी। झील की लहरों पर चांद नहीं दिखाई पड़ेगा, फैला हुआ विस्तार दिखाई पड़ेगा। जिसका चांद से कोई भी संबंध नहीं है। और अगर हमने उसी फैले हुए विस्तार को, चांदी को, फैली हुई चमक को, छितरे हुए चांद के टुकड़ों को चांद समझ लिया तो बड़ी भूल हो जाएगी।
हमारा मन भी बहुत लहरों से..व्याख्याओं की, विचारों की, सिद्धांतों की लहरों से भरा हुआ है। उसमें सत्य का कोई प्रतिबिंब कभी नहीं बन पाता है। जो भी बनता है सब विकृत हो जाता है। हमारा मन विकृति का एक उपकरण है। अशांत मन विकृति का उपकरण है। अशांत मन डिस्टार्ट करता है। जो भी है उसे वैसा नहीं देखने देता, कुछ और ही कर देता है। सब गड़बड़ कर देता है। इस मन को बदले बिना, इस मन को खाली किए बिना कोई भी अंतर्यात्रा प्रकाश की ओर, सत्य की ओर न कभी हुई है न हो सकती है। कैसे हम इस मन को सारी व्याख्याओं से खाली करें?
तीन सूत्र। इस एक सूत्र के तीन हिस्से आपसे कहना चाहता हूं। पहली बात, ज्ञान को छोड़ दें। ज्ञान को जोर से न पकड़ कर बैठ जाएं। किसी बात को ऐसा पकड़ कर न बैठ जाएं कि मैं जानता हूं। थोड़ा खोजें कि जानता हूं? नींव खिसक जाएगी नीचे से कि कहां जानता हूं! लेकिन हम डर के कारण अपने से पूछते भी नहीं कि यह मैं जानता हूं? ईश्वर को मैं जानता हूं कि मैं दोहराए चले जा रहा हूं? और जोर से दोहरा रहा हूं ताकि खुद को भी विश्वास आ जाए कि जानता हूं। और अगर कोई आया और संदेह खड़ा करे कि ईश्वर को जानते हो, तो लड़ने खड़ा हो जाऊंगा। उससे नहीं लड़ रहा हूं, मैं अपने से ही लड़ रहा हूं कि कहीं संदेह ऊपर न उठ आए, दबा रहे, भीतर दबा रहे।
मेरे एक शिक्षक हैं, गांव जाता हूं अपने, वृद्ध हो गए हैं, तो उनके पास मिलने चला जाता हूं। पिछले कुछ वर्ष पहले गया था गांव, तीन-चार दिन वहां था, रोज उनके घर मिलने गया। तीसरे दिन उन्होंने एक चिट्ठी भेजी अपने लड़के के हाथ और कहा, तुम आते हो बहुत खुशी होती है, तुम नहीं आते हो वर्ष भर मैं प्रतीक्षा करता हूं और डरता हूं पता नहीं इस बार बचूंगा या नहीं? तुम आओगे, मिलूंगा या नहीं? लेकिन तीन दिन से तुमने मुझे मुश्किल में डाल दिया। अब तुम मेरे घर मत आना। मैं बहुत डर गया हूं कल रात की बात के बाद। जब मैं सुबह प्रार्थना करने अपने मंदिर में बैठा, जहां मैं चालीस वर्ष से मूर्ति की पूजा करता हूं, वहां एकदम हाथ जोड़ कर बैठा और मुझे ऐसा लगा कि यह सब मैं कहीं पागलपन तो नहीं कर रहा हूं? यह मूर्ति तो मैं ही चालीस साल पहले बाजार से खरीद लाया था। यह आदमी की बनाई हुई मूर्ति और मुझे कुछ भी पता नहीं कि इसमें भगवान है या नहीं? मान कर चलता हूं कि भगवान है। चालीस साल से बड़ा आनंद आता था प्रार्थना में..आंसू बहते थे, गदगद हो जाता था। कल सुबह मुश्किल में पड़ गया। न आंसू बहे, न गदगद हुआ, बल्कि चिंता में पड़ गया। शक पकड़ लिया कि पता नहीं यह मूर्ति सिर्फ मूर्ति ही न हो? पत्थर ही न हो? कोई भगवान न हो और मैं व्यर्थ ही हाथ जोड़े चिल्लाए चला जा रहा हूं। लेकिन मैं डर गया हूं। मेरी आस्था को मत मिटाओ। अब आना ही मत। इस घर में ही मत आना। मैं तुम्हारी राह देखूंगा, लेकिन तुम मत आना। मुझे बहुत डर लग गया है।
मैंने उन्हें चिट्ठी लिख कर भेजी कि एक बार तो और आऊंगा। दुबारा आने की कोई खास जरूरत भी नहीं। एक बार मैं और गया। मैंने उनसे पूछा कि यह मेरे कारण संदेह पैदा हो गया? चालीस साल की प्रार्थना संदेह को नहीं मिटा पाई? चालीस साल घंटों हाथ जोड़ कर बैठने से संदेह नहीं मिटा और मेरी घंटे भर की बात से संदेह पैदा हो गया? तो प्रार्थना बड़ी कमजोर मालूम पड़ती है।
चालीस साल पहले भी संदेह रहा होगा। उस संदेह को दबा लिया है भीतर। ऊपर से पर्त-पर्त विश्वास की पकड़ ली हैं, भीतर संदेह मौजूद है, वह गया नहीं है। संदेह ऐसे जाता नहीं है। संदेह ज्ञान के पहले कभी नहीं जाता। और जिस ज्ञान को हम पकड़ लेते हैं वह संदेह को सिर्फ दबाता है। जो उधार है ज्ञान, वह संदेह को दबा देता है, मिटाता नहीं है। चालीस साल पहले भी वह संदेह रहा होगा।
मैंने पूछा: जिस दिन मूर्ति खरीद कर लाए थे उस दिन का स्मरण करें। उन्होंने आंख बंद कर लीं और कहा कि ठीक ही कहते हो, चालीस साल पहले भी यही संदेह था। लेकिन अपना मन गलत है। यह सोच कर दबाए चला गया, फिर धीरे-धीरे भूल गया था। तुमने फिर जगा दिया है। मैंने कहा: जो भूल गया था वह साथ है, वह भीतर छिपा है। मेरे जगाने का सवाल नहीं है। अच्छा है कि जग गया।
लेकिन कितना ही आरोपित करो पत्थर पर भगवान को, कितना ही विश्वास करो, कितनी ही मान्यता करो, वह एक असत्य ही रहेगा। वह वह नहीं है जो है। भगवान जरूर है, सत्य जरूर है, लेकिन हमारे आरोपण करने की बात नहीं है, हमारे विश्वास करने की बात नहीं है, हमारे खाली होने की बात है, हमारे शून्य होने की बात है, हमारे शांत होने की बात है। उस शांति में जो दिखाई पड़ेगा वह है। और हम अशांत विश्वास किए चले जाते हैं, माने चले जाते हैं।
आदमी मान रहा है कि मैं आत्मा हूं, आत्मा अमर है और बंदूक उसके सामने लेकर खड़े हो जाओ और वह हाथ-पैर जोड़ने लगा है और वह कहता है कि मुझे मार मत डालना। देखो मुझे मार मत डालना। अभी वह कह रहा था, आत्मा अमर है। आत्मा की अमरता वाला आदमी मरने से डरेगा? हंसेगा। नहीं, लेकिन आत्मा की अमरता मानने वाला बहुत डरता है। हमारा मुल्क तो कितनी आत्मा की अमरता मानता है और हमसे ज्यादा मरने से डरने वाली कौम पृथ्वी पर खोजनी बहुत मुश्किल है। जितना हम मरने से डर जाते हैं और आत्मा की अमरता की बात किए चले जाते हैं। दोनों बातें एक साथ। कहीं न कहीं कोई गड़बड़ है। हमारी यह बात सिर्फ बात ही मालूम पड़ती है। यह हमारा अनुभव नहीं है। अगर हमें अनुभव हो जाए तो बात खत्म हो गई।
सिकंदर हिंदुस्तान से लौटता था। मित्रों ने कहा था कि हिंदुस्तान से जब लूट लेकर लौटो, धन लाओ, हीरे-जवाहरात लाओ तो एक संन्यासी को भी ले आना। संन्यासी हमने देखा नहीं। सिकंदर सब लूट तो ले गया, मुल्क के बाहर हो रहा था, आखिरी गांव में उसे ख्याल आया कि एक संन्यासी को भी ले जाना है। सिपाहियों को कहा कि जाओ, किसी संन्यासी को पकड़ लाओ।
...उन्होंने कहा कि यह तुम फिकर छोड़ो, हम सिकंदर के सैनिक हैं। पता है, हम अगर पहाड़ को कहें कि चलो साथ तो चलना पड़ेगा। संन्यासी की क्या हैसियत है। हथकड़ियां डाल देंगे, जंजीरें, और बांध कर हाथ साथ कर लेंगे।
गांव के लोग हंसे, उन्होंने कहा कि मालूम होता है कि तुम्हें संन्यासी से कोई मुलाकात कभी नहीं हुई। गांव के बाहर नदी के किनारे एक संन्यासी है। तुम चले जाओ। वे सैनिक गए हैं। उन्होंने जाकर संन्यासी से कहा है कि महान सिकंदर की आज्ञा है कि आप हमारे साथ यूनान चलें। आपका शाही स्वागत होगा, शाही व्यवस्था होगी, आप राज्य के मेहमान होंगे, कोई तकलीफ नहीं होगी। आप चलें, हम बड़े सम्मान से आपको लेने आए हैं। उस संन्यासी ने कहा: महान सिकंदर! यह तुम कहते हो कि सिकंदर खुद भी अपने को महान कहता है? उन्होंने कहा: सिकंदर खुद अपने को महान कहता है। तो संन्यासी ने कहा: जाओ, उस पागल से कहना कि जो अपने को महान कहता है उसे अभी हीनता का भाव भूला नहीं, अभी वह भीतर हीन है, बाहर महानता की घोषणाएं किए चला जाता है। और जो अपने को महान कहता है उससे छोटा आदमी खोजना मुश्किल है। जाओ, उससे कह देना।
उन्होंने कहा: तुम्हें पता नहीं, तुम किससे कहलवा रहे हो? लौट कर तुम्हारी गर्दन बचेगी नहीं। उस फकीर ने कहा: तुम्हें पता ही नहीं कि जिस दिन हम संन्यासी हुए गर्दन हमारी नहीं है। उसी दिन हमने जान लिया। अब उसका कोई डर भी नहीं।
सिकंदर खुद गया नंगी तलवार लेकर और उसने कहा कि अगर साथ नहीं चलोगे तो गर्दन गिर जाएगी। तुमने कहा नहीं और गर्दन नीचे गिरी। उस संन्यासी ने कहा: शायद आपको पता नहीं है, गर्दन अगर नीचे गिरेगी तो तुम भी देखोगे कि गर्दन नीचे गिर रही है और हम भी देखेंगे कि गर्दन नीचे गिर रही है। गिर जाएगी और गर्दन गिरनी है। गर्दन तुम्हारी भी गिर जाएगी, बिना गिराए भी। गिराने से भी गिर सकती है, बिना गिराए भी गिर जाएगी। यह कोई बड़ा सवाल नहीं है। तुम गर्दन गिराओ।
सिकंदर को पहली दफा एक ऐसा आदमी मिला है जो मरने से बिल्कुल भी भयभीत नहीं, जरा भी। सिकंदर ने उससे कहा: मरने से डरते नहीं हो?
उसने कहा: जब तक नहीं जानते थे स्वयं को तब तक डरते थे, तब तक मौत ही सत्य थी। और जबसे अपने को जाना है तबसे जीवन ही सत्य हो गया, तबसे मौत असत्य हो गई है। अब मरने का कोई सवाल नहीं है। अब मरने का कोई उपाय नहीं, जो गिर जाएगा वह मैं नहीं हूं।
सिकंदर ने तलवार भीतर रख ली। उसके सैनिकों ने कहा: गर्दन नहीं काटिएगा? सिकंदर ने कहा: जो आदमी मरने के प्रति ऐसा सरलता से निर्भय है, उसकी गर्दन काटनी बेमानी। और मेरी तलवार पहली दफा व्यर्थ हो गई है। उसे मैं रख कर लौट जाता हूं।
आत्मा की अमरता जान लेनी बिल्कुल और बात है, आत्मा की अमरता मान लेनी बिल्कुल और बात है। मानने वाला आदमी मौत से भयभीत होने के कारण मान लेता है कि आत्मा अमर है। मैं परमात्मा हूं, ब्रह्म हूं, इस तरह की धारणाएं कर लेने वाला आदमी भलीभांति जानता है कि यह मैं नहीं हूं। इनको थोप रहा है अपने ऊपर। थोपता रहेगा वर्षों तक, भूल जाएगा। वह भूलना वैसे ही होगा जैसे कोई भी पुनरुक्ति किसी को भी भुला दे सकती है। अगर एक ही बात दोहराई जाए, दोहराई जाए, दोहराई जाए, मनों में बैठती चली जाती है, बैठती चली जाती है।
रास्ते पर विज्ञापन लगे हुए हैं बिजली के, लिखा है, बिनाका पहले तो स्थिर शब्दों में लिखा होता था, फिर मनोवैज्ञानिकों ने कहा, स्थिर शब्दों में मत लिखो, बिजली के जलते-बुझते अक्षरों में लिखो। क्यों? क्योंकि जितनी बार अक्षर जलेंगे-बुझेंगे उतनी बार रिपीट होगा, उतनी बार पढ़ना पढ़ेगा बिनाका, फिर बुझ गया। और आप चले जा रहे हैं फिर जला बिनाका और फिर पढ़ना पड़ा, फिर बिनाका, फिर बिनाका। रास्ते से गुजरते वक्त कम से कम पच्चीस दफा आप गुजरेंगे, जलेगा-बुझेगा, हजार दफे मन पर चोट होगी बिनाका। बिनाका ही ठीक टूथपेस्ट है, और मन में बैठता चला जाएगा। रेडियो खोलेंगे और बिनाका, अखबार खोलेंगे और बिनाका, फिल्म देखने जाएंगे और बिनाका। और जहां भी, जहां भी वहां बिनाका। आपको ख्याल भी नहीं रहेगा कि कब बिनाका भीतर प्रविष्ट हो गया। फिर आप दुकान पर गए हैं खरीदने और दुकानदार पूछता है कौन सा टूथपेस्ट चाहिए? आप कहते हैं, बिनाका। और आप सोचते हैं मैं सोच कर कह रहा हूं, तो आप गलती में हैं, आपसे कहलवाया जा रहा है। आपके दिमाग में ठोक-ठोक कर भर दिया गया है। वह आपसे कहलवाया जा रहा है। आप सिर्फ मशीन का काम कर रहे हैं। आप सिर्फ रिप्रोड्यूस कर रहे हैं। जो भीतर भर दिया है उसे आप रिकार्ड को वापस बाहर निकाल रहे हैं। लेकिन क्या परमात्मा और सत्य भी बिनाका की तरह भीतर प्रविष्ट हो सकते हैं?
लेकिन हमने यही किया है, परमात्मा और सत्य को भी हम बिनाका की तरह भीतर प्रविष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। हो जाता है प्रवेश, लेकिन मन से गहरा नहीं। और शब्द से ज्यादा मूल्य का नहीं। और भीतर बैठ जाता है। और जो बैठ जाता है वह दिखाई पड़ने लगता है। प्रतीत भी होने लगता है। वह प्रतीति झूठी, वह दर्शन झूठा, सत्य का उससे कोई संबंध नहीं।
क्या करें? इसलिए पहली बात कुछ मानें मत। कुछ भी मत मानें। अंतस जीवन के संबंध में कुछ भी मान कर मत जाना, नहीं तो कभी भीतर नहीं पहुंच सकेंगे। मानना ही मत। वहां बिलीफ सबसे ज्यादा खतरनाक है। विश्वास वहां सबसे ज्यादा बाधक है। वहां मान कर मत जाना, वहां बिना माने जाने की कोशिश करना, यह पहली बात। दूसरी बात, चित्त तो बहुत जोर से चंचल है। सब लहर ही लहर हैं वहां, विचार ही विचार हैं वहां। इतने विचार, इतने लहर से भरे चित्त में भीतर प्रवेश कैसे होगा? तो लोग कहते हैं, लड़ो चित्त से। हटाओ लहरों को। लेकिन कभी ख्याल किया है, अगर नदी बह रही हो और लहरें उठी हों और एक आदमी उसमें उतर जाए और लहरों को दबाने लगे, हटाने लगे, तो लहरें कम होंगी कि ज्यादा हो जाएंगी? लहरे ज्यादा हो जाएंगी। इस आदमी का उतरना, लहरों को दबाना, हटाना, पानी को और बेचैन कर देगा। जो आदमी भी मन को शांत करने गया है, उसने अक्सर पाया है कि मन और अशांत हो गया है। शांत करने वाले लोग और अशांत हो जाते दिखाई पड़ते हैं। धार्मिक आदमी और अशांत हो गया होता है। जितनी कोशिश करता है शांत हो जाऊं उतना टेंशन और तनाव बढ़ता चला जाता है। हटाता है मन की लहरों को, दस नई लहरें पैदा हो जाती हैं। अब तक यही समझाया जाता रहा है कि हटाओ मन को, दबाओ मन को। मन को दबाने और हटाने से कोई लहर शांत न कभी होती है, न हो सकती है।
एक बार बुद्ध एक पहाड़ के पास से गुजरते थे। दोपहर है, भरी धूप है, तेज सूरज है। वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए हैं और उन्होंने साथ के भिक्षु आनंद को कहा, मुझे बहुत प्यास लगी है, तू पानी ला सकेगा? पीछे हम जहां से आए हैं अभी एक पहाड़ी झरना मिला था, तूू जा और पानी ले आ। दो-तीन फर्लांग दूर, पीछे पहाड़ के झरने पर आनंद वापस लौटा भिक्षापात्र को लेकर। जब वे आए थे तो झरना बड़ा निर्मल था, लेकिन जब आनंद वहां पहुंचा तो उसके सामने ही कुछ घुड़सवार, कुछ बैलगाड़ियां उस नाले से गुजरे थे। नाला एकदम गंदा हो गया। कीचड़ ही कीचड़ थी, पत्ते ही पत्ते थे, सूखे पत्ते, दबे पत्ते सब उभर आए थे, नीचे जमी कीचड़ सब ऊपर फैल गई थी, सारा नाला गंदा हो गया था। वह पानी पीने योग्य नहीं था। आनंद उतर गया नाले में कि थोड़ा साफ कर ले। उतरने से ही तो वे गंदे पत्ते ऊपर उठे थे। जो थोड़े-बहुत बैलगाड़ी गुजर जाने से बैठ गए होंगे आनंद के उतरने से वे भी ऊपर उठ आए हैं। उसने पानी को हटाने की, गंदगी को दूर करने की कोशिश की है। दूर करने में और पानी बेचैन और चंचल हो गया है, पानी और गंदा हो गया है। वह वापस लौट आया।
उसने बुद्ध से कहा: वह पानी पीने योग्य नहीं, पानी बहुत गंदा हो गया। बैलगाड़ियां निकल गई हैं। मैंने भी घुस कर उस पानी को शांत करने की कोशिश की थी। बुद्ध ने कहा: तू बड़ा पागल है। जब तूने देखा कि बैलगाड़ियों के निकलने से पानी गंदा हुआ तो तेरे उसमें जाने से पानी और गंदा हो जाएगा। तुझे तो किनारे चुपचाप बैठ रहना था, कुछ करना नहीं था। आनंद ने कहा: सिर्फ बैठ रहने से कुछ होता है? सिर्फ बैठ रहने से क्या होगा? कुछ तो करना पड़ेगा।
हम सभी इसी भाषा में सोचते हैं कि कुछ करने से होगा। बैठ रहने से क्या होगा? बैठ रहना भी एक बहुत बड़ा करना है, यह हमें कभी ख्याल में भी नहीं आता।
बुद्ध ने कहा: तू वापस जा। तू सिर्फ बैठ रह, कुछ करना मत, देखते रहना। बैठ जाना और देखना। बैठ जाना और देखना, बैठे रहना और देखना बस इतना ही करना।
आनंद बेमन से वापस लौटा। उसे समझ नहीं पड़ा कि मेरे सिर्फ बैठ जाने से और मात्र देखने से नाला शांत कैसे हो जाएगा? पवित्र कैसे हो जाएगा? स्वच्छ कैसे हो जाएगा? गया। बुद्ध ने कहा तो लड़ भी नहीं सका। वापस लौटा, जाकर किनारे बैठ गया। अब वह जानता है, कुछ होगा नहीं, क्योंकि बैठने से कहीं कुछ हुआ है? हम सब यही भाषा में सोचते हैं, बैठने से कहीं कुछ हुआ है? हम सोचते हैं सब कुछ करने से ही होता है। निश्चित ही बाहर की दुनिया में सब कुछ करने से ही होता है। भीतर की दुनिया में बैठ रहने से भी कुछ होता है। भीतर की दुनिया में चुप, खाली, विश्राम करने से भी कुछ होता है। भीतर की दुनिया में एफर्टलेस एफर्ट जैसी कोई चीज भी है। भीतर की दुनिया में बिना प्रयास के प्रयास भी है, बिना श्रम के श्रम भी है।
वह बैठ गया, लेकिन बेमन से बैठा है, आंख बंद कर ली है, एक वृक्ष से टिक गया है। कि जब कुछ करना ही नहीं है तो आंख बंद कर लो और बैठे रहो, घड़ी भर बाद लौट कर उठ चलेंगे। घड़ी भर बाद आंख खोली है। चलने के पहले देखा है कि पत्ते बहुत बह गए हैं, बहुत धूल नीचे बैठ गई है, पानी कुछ साफ हो गया है। हैरान हुआ! सोचा, और थोड़ी देर बैठूं, बैठने का फल हुआ है। वह फिर बैठ गया है। फिर घड़ी बीत गई है। अब वह देखता रहा है आंख खोल कर कि क्या हो रहा है? झरना बहा जा रहा है, पत्ते बहे चले जा रहे हैं, कीचड़ नीचे वापस बैठने लगी है। घड़ी दो घड़ी, पानी निर्मल और शांत हो गया। वह पानी भर कर लौट आया है। वह पानी भर कर ही नहीं लौटा, वह एक बहुत बड़े सत्य का दर्शन भी करके लौट आया है। बुद्ध के हाथ में पानी देकर वह बुद्ध के चरणों को पकड़ कर रोने लगा है और उसने कहा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो नाले के साथ हुआ वही मन के साथ भी हो सकता हो? मैं मन में कूद-कूद कर बहुत शांत करने की कोशिश करता हूं। आपको शांत देखता हूं लगता है मैं भी इतना शांत कैसे हो जाऊं? बड़ी दौड़ चल रही है, भीतर बहुत लड़ाई चल रही है। शांति नहीं होती बल्कि मैं जब आया था उससे भी ज्यादा अशांत हो गया हूं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मन का झरना भी बैठे रहने से शांत हो जाए?
बुद्ध ने कहा: ऐसा ही है। और यह तुझे दिखाई पड़ सके इसलिए तुझे वापस भेजा था। मन के झरने के किनारे भी चुपचाप बैठ जा, कुछ कर मत।
जापान में मेडिटेशन को, ध्यान को जो नाम वे देते हैं, वह है, झाझेन। झाझेन का मतलब होता है: जस्ट सिटिंग। जस्ट सिटिंग, बस बैठ रहना। कुछ करना नहीं, सिर्फ बैठ रहना। कुछ भी नहीं करना है, न नाम-जप करना है, क्योंकि वह नाले में उतर जाना है। न भगवान का नाम-स्मरण करना है, क्योंकि विक्षिप्त मन भगवान का स्मरण करके और विक्षिप्त होगा। वैसे ही तो पागल है और एक पागलपन सिर पर चढ़ जाएगा। न किसी दीये की लौ पर एकाग्र करना है, क्योंकि विक्षिप्त मन को एकाग्र करने का कोई परिणाम नहीं होता सिवाए मूच्र्छा के, सिवाय बेहोशी के। सिर्फ बैठ रहना है और मन के बहते हुए नाले को, उसकी कीचड़ को, उसकी गंदगी को, पत्तों को, जो भी है उसमें उसे चुपचाप देखना है। जस्ट सिटिंग।
दूसरा सूत्र है, मन के किनारे बैठने की प्रक्रिया में थोड़ी गति। हम तो चैबीस घंटे मन में कूदे हुए हैं। कभी मन के किनारे बैठे नहीं, कभी नहीं बैठे। इसलिए पता भी नहीं कि किनारे बैठने का क्या मतलब। चैबीस घंटे मन की धारा में खड़े हैं। इतना खड़े हैं जन्म के बाद मृत्यु तक, सुबह से सांझ तक। रात सपनों में भी मन की धारा में खड़े हैं। क्या हम यह भूल ही गए हैं कि हम अलग हैं और मन की धारा अलग है।
अगर एक बच्चा नदी में ही पैदा हो, नदी में ही तैरे, जीए, बड़ा हो, नदी में ही सोए, जागे, जवान हो, बूढ़ा हो, तो उसे शायद भूल जाए कि मैं नदी से अलग हूं। मन की धारा में ही हम पैदा होते हैं, उसी में दीक्षित होते हैं, शिक्षा उसी में जाना सिखाती है, समाज उसी में गति सिखाता है, मां-बाप उसी में धक्के देते हैं, सब मिल कर मन की धारा में पहुंचाते हैं, क्योंकि बाहर के जगत का सारा काम मन से ही होता है। और भीतर के जगत का कोई भी काम मन से नहीं होता। बाहर जाना हो तो मन वाहन है। भीतर जाना हो तो मन से एकदम उतर जाना पड़ता है। उस रथ को छोड़ देना पड़ता है। बाहर जाने के लिए मन सवारी है, इंस्ट्रूमेंट है, साधन है। भीतर जाने के लिए मन हिंडरेंस है, बाधा है। लेकिन बाहर जाते-जाते हम भूल जाते हैं। मन की सवारी के साथ एक हो जाते हैं और ऐसा लगने लगता है मैं मन हूं। इसके किनारे बैठने का थोड़ा अभ्यास उपयोगी है।
तो दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं, चैबीस घंटे में घड़ी आधा घड़ी को द्वार बंद कर एकांत में बैठ जाना, कुछ मत करना। लड़ना भी मत मन से। लड़े कि उतर गए। यह भी मत कहना कि यह बुरा विचार चल रहा है, क्योंकि बुरा विचार चला और आपको ख्याल आया कि बुरा है, लड़ाई शुरू हो गई। बहुत सूक्ष्म तल पर शुरू हो गई। जिसे हमने बुरा कहा उससे लड़ाई शुरू हो गई। मत कहना कि यह विचार अच्छा है, क्योंकि जिसे हमने अच्छा कहा उसे पकड़ने का मन शुरू हो गया। नहीं, अच्छा है, बुरा है, जो भी है बह रहा है, हम किनारे बैठे सिर्फ देख रहे हैं। सिटिंग, जस्ट सिटिंग, बैठे हैं, और जस्ट सीइंग, बस देख रहे हैं।
एक आधा घंटे को मन के किनारे चैबीस घंटे में कोई भी बैठ कर सिर्फ देखे और कुछ भी न करे, तो धीरे-धीरे उसे अदभुत अनुभव होने शुरू होंगे। एक तो उसे यह अनुभव पहली दफा होगा कि मैं मन से अलग हूं, यह मन यह जा रहा, मन की यह गति जा रही है, मन के ये विचारों की तरंगें जा रहीं। यह मन बह रहा है और मैं देख रहा हूं। मैं भिन्न हूं मन से। यह बोध अदभुत अर्थ रखता है अंतर की खोज में। क्योंकि जैसे ही यह पता चल गया कि मैं मन नहीं हूं, भीतर की यात्रा शुरू हो गई, हम अंदर जाने शुरू हो गए। दूसरी बात पता चलेगी कि चुपचाप किनारे बैठने से मन के विचार धीरे-धीरे बहने लगते हैं। पत्ते बह जाते हैं, कीचड़ बैठ जाती है, मन निर्मल होने लगता है। एक आधा घड़ी चुपचाप बैठ कर देखने पर पता चलता है कि विरल अब कभी कोई विचार आता है। कभी नहीं भी आता है, कभी गैप, कभी खाली जगह छूट जाती है, कोई विचार नहीं होता, पानी ही होता है। कोई पत्ता नहीं होता, कोई कीचड़ नहीं होती।
और जब निर्मल मन की थोड़ी सी झलक मिलेगी, तो इतनी शांति, इतनी गहरी साइलेंस का अनुभव होगा जिसका जीवन में कभी भी नहीं हुआ। क्योंकि वहां जहां मन शांत हुआ वहीं एक डुबकी लग जाएगी। और धीरे-धीरे कुछ दिनों के बाद मन में गैप लंबा होने लगेगा, अंतराल लंबा होगा, इंटरवल बड़ा होगा, विचार आएगा फिर नहीं आएगा। बहुत देर तक कोई लहर नहीं होगी, सन्नाटा छा जाएगा। उसी सन्नाटे में आदमी अपने भीतर डूबना शुरू होता है। भीतर की यात्रा शुरू होती है। वह जो गैप, वह जो खाली जगह है, वहीं से छलांग लगती है। वहीं से हम नीचे उतरते हैं। वहीं से हम भीतर जाते हैं। वह सीढ़ी है जहां से हम कूद जाते हैं भीतर। लेकिन वह गैप पैदा होता है जब हम चुपचाप बैठ कर मन को देखें।
तो दूसरी बात, मन के किनारे बैठने का थोड़ा अभ्यास करना। वह कुछ करना नहीं है, खाली बैठना है। या बहुत बड़ा करना भी है, क्योंकि खाली बैठना बड़ी मुश्किल बात है। एक मिनट बैठना मुश्किल बात है। आधा घंटा बहुत घबड़ाने वाला है। आज घबड़ाएगा, कल घबड़ाएगा, लेकिन बैठे ही चले जाना। जल्दी ही मन रेसिस्टेंस छोड़ देता है, विरोध छोड़ देता है। खाली जगह आनी शुरू हो जाती है। और खाली जगह में से छलांग लगनी भी शुरू हो जाती है।
और तीसरी बात, तीसरी बात है कि दिन के चैबीस घंटे में, चलते, उठते, बैठते, खाते, पीते, बात करते, सुनते, थोड़ा मन से दूर खड़े रहने का, थोड़ा मन से भिन्न होने का ध्यान रखना है। जस्ट रिमेंबरिंग, सिर्फ एक स्मृति और कुछ भी नहीं। उस आधा घंटे तो गहरा प्रयोग है कि हम बैठे हैं। चैबीस घंटे थोड़ा सा स्मरण। भोजन करते वक्त अचानक रिमेंबर करना, अचानक स्मरण करना, मैं भोजन कर रहा हूं या कि भोजन हो रहा है, यह देख रहा हूं। भोजन करते वक्त एक क्षण को स्मरणपूर्वक देखेंगे, तो पता चलेगा, भोजन शरीर कर रहा है, मैं सिर्फ देख रहा हूं। कोई गाली दे, तो एक क्षण स्मरण करना कि गाली कहां चोट कर रही है, मुझे या कहीं और? तो फौरन दिखाई पड़ेगा, मेरे अहंकार को, मेरे मन को चोट हुई है, मैं दूर खड़ा देख रहा हूं। हमारे भीतर त्रिकोण है। एक आदमी गाली दे रहा है वह, एक मेरा मन जो गाली ले रहा है वह, और एक मैं जो दोनों को देख सकता हूं। लेकिन देख नहीं पाता, क्योंकि मैं मन के साथ आइडेंटिटी किए हुए हूं, मन के साथ एक हो गया हूं।
तो दो ही रह गए हैं हमारी जिंदगी में, गाली देने वाला और मैं गाली लेने वाला। लेकिन हैं तीन..गाली देने वाला, गाली लेने वाला मेरा मन और मैं। दिन के चैबीस घंटे की प्रक्रिया में कभी भी, कभी भी एक क्षण को, सिर्फ एक...मैं यही हूं। रास्ते पर चलते वक्त देखना, मैं चल रहा हूं, और फौरन दिखाई पड़ेगा शरीर चल रहा है, मन चल रहा है, मैं कहां चल रहा हूं, मैं तो कभी नहीं चला हूं। बीमार हो गए हो, बिस्तर पर पड़े हो, तो कभी स्मरण करना, मैं बीमार हूं, तो फौरन दिखाई पड़ेगा, शरीर बीमार है, मैं तो बीमार हूं ऐसा जान रहा हूं।
मेरे एक बूढ़े मित्र हैं, सीढ़ियों से गिर पड़े। बिस्तर से लगा दिए गए। चिकित्सकों ने कहा: तीन महीने तक हिलना-डुलना नहीं, नहीं तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। गया उन्हें देखने, वे रोने लगे और कहा कि मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। इससे तो मर जाता तो बेहतर था। ये तीन महीने कैसे बीतेंगे? यह तो सीधा नरक हो गया? चलता-फिरता कुछ काम में लगा रहता तो भूल भी जाता, अब तो दर्द ही दर्द मालूम होता है, पूरे पैर दर्द दे रहे हैं। मैंने उनसे कहा: एक काम करें, मैं आपके पास बैठा हूं, आंख बंद कर लें और गौर से देखें, दर्द कहां है और आप कहां हैं? दोनों एक हैं या दो हैं? आंख बंद कर लें, थोड़ा देखें, दर्द तो हो ही रहा है। इस देखने से और कोई दर्द नहीं बढ़ जाएगा।
मैं बैठ गया पास। उन्होंने आंख बंद कर ली हैं। शायद ही उन्होंने जिंदगी में कभी आंख बंद करके दो क्षण वे चुप बैठे हों। कोई नहीं बैठता, कोई बैठता ही नहीं। आंख बंद कर ली हैं। बिस्तर पर पड़े हैं। मैंने कहा कि पंद्रह मिनट बाद आंख खोल कर मुझे कहना। पंद्रह मिनट बीत गए, बीस मिनट बीत गए, तीस मिनट बीत गए, घंटा बीतने को हो गया। उनका चेहरा मैं देख रहा हूं, एकदम शांत हो गया है, रिलैक्सड हो गया है। सब रेखा, रेखा का तनाव छूट गया है। फिर मैंने उन्हें हिलाया, मैंने कहा, अब मैं जाऊं? मैं पूछना चाहता हूं, क्या हुआ? उन्होंने कहा कि इतना सुखद था कि छोड़ने का मन नहीं हो रहा था जो हो रहा था। दो बातें मुझे जीवन में पहली बार दिखी हैं। शायद अब मैं वही आदमी नहीं रहूंगा जो मैं था। एक तो जब मैंने गौर से देखा कि दर्द कहां है, तो दर्द उतना ही दूर होता चला गया, जितना मैंने गौर से देखा, दर्द और मेरी दूरी बढ़ती चली गई।
जितना हम कम गौर से देखते हैं, दर्द और मेरी दूरी कम हो जाती है, हम एक ही हो जाते हैं। बिना अटेंशन के देखें, गौर से देखते हैं, दर्द बहुत दूर, डिस्टेंस पर कहीं और होने लगा, हो रहा है। कहीं खटक उसकी जारी है और मैं बहुत दूर खड़ा देख रहा हूं।
और जैसे ही यह पता चला कि दर्द और है मैं और हूं, एक गहरी शांति भीतर छा गई, जो मेरे जीवन में कभी भी नहीं छाई थी। मैंने उनसे कहा: तीन महीने भगवान ने मौका दिया है, इन तीन महीने खाट पर भी पड़े रहें और भीतर इस प्रयोग को जारी रहने दें। हो सकता है जो वर्षों की साधना से न हो, वह इन तीन महीनों में हो जाए। तीन महीने बाद मैं उन्हें मिला। उन्होंने कहा कि अब मैं भगवान को पूरे मन से धन्यवाद दे पाता हूं कि तूने मेरे पैर तोड़े, सीढ़ियों से गिराया, तेरी बड़ी कृपा है! नहीं तो मैं ऐसे ही मर जाता, बिना यह जाने कि मैं कुछ और ही हूं, जिसका कोई पता नहीं।
तो तीसरी बात, जीवन के छोटे-मोटे अनुभव में, चैबीस घंटे में कभी क्षण भर को रास्ते पर चलते हुए, दफ्तर में बैठे हुए, किसी से बात करते हुए, एकदम चैंक कर अवेयर हो जाना, यही मैं हूं या कुछ फर्क है? धीरे-धीरे फर्क दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। और धीरे-धीरे फर्क चैबीस घंटे में अनस्यूत हो जाता है और तब पता चलता है कि मैं सिर्फ साक्षी हूं, बाकी सब जो हो रहा है वह मुझसे बाहर है।
ये तीन सूत्र अगर पूरे हो जाएं..ज्ञान छोड़ देना, मन के किनारे चुपचाप बैठना, और जीवन के प्रत्येक पल में कभी-कभी जाग कर देखना कि मैं कौन हूं? कहां हूं? अगर ये तीन सूत्र कोई पूरे करे, तो अचानक भीतर की दुनिया में प्रवेश हो जाता है। जहां हम कभी नहीं गए वहां पहुंच जाते हैं। और एक बार वहां पहुंच जाएं फिर कोई कठिनाई नहीं। फिर तो क्षण भर में कभी भीतर, कभी बाहर हो सकते हैं। और जो मनुष्य भीतर जाने का रहस्य जान जाता है वह जीवन के सारे रहस्यों का मालिक हो जाता है। दुख उसके लिए अर्थहीन हो जाते हैं। मृत्यु उसके लिए असत्य हो जाती है। और आनंद उसकी श्वास-श्वास बन जाती है। और अमृत, अमृत उसके कण-कण में छा जाता है। ऐसे हुए बिना जीवन व्यर्थ है। ऐसे नहीं हम हो पाएं और प्रतीक्षा करते रहे हैं कि कोई और हमें दे जाएगा, तो नहीं होगा। हमें कुछ करना पड़ेगा।
ये तीन बातें मैंने कहीं, इन पर थोड़ा प्रयोग करेंगे। मुझे सुनने से नहीं, इन पर प्रयोग करने से कुछ होगा। और कुछ होगा तो जो मैं कह रहा हूं वह समझ में आएगा। नहीं तो वह भी ठीक से समझ में नहीं आ सकता है कि मैं आपसे क्या कह रहा हूं। एक बहुत दूसरी दुनिया की बात कह रहा हूं। जहां हम सब जा सकते हैं, लेकिन जाते नहीं। एक और ही लोक की खबर दे रहा हूं, जहां हम बिल्कुल किनारे खड़े हैं। झांकें और वह हमें मिल जाए। लेकिन नहीं झांकेंगे तो वह नहीं मिल सकता है।
संध्या आपके प्रश्नों के जो उत्तर होंगे वह मैं दूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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