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शनिवार, 18 अगस्त 2018

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन--जीवन का सम्मान

मेरे प्रिय आत्मन्!
बाहर एक जगत है पदार्थ का, उससे हम परिचित हैं। भीतर एक जगत है परमात्मा का, उससे हम अपरिचित हैं। पदार्थ दिखाई पड़ता है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता है। पदार्थ छुआ जा सकता है, परमात्मा के स्पर्श का कोई उपाय नहीं है। शायद इसीलिए पदार्थ सब कुछ हो गया और परमात्मा कुछ भी नहीं।
कैसे इस भीतर के परमात्मा से संबंध हो सके? कैसे हम बाहर पकड़ गए हैं और रुक गए हैं? किसने हमें पदार्थ के पास बांध रखा है? पदार्थ ने? पदार्थ तो किसी को कैसे बांध सकेगा। हम ही बंध गए होंगे। बंधने की कड़ियां कुछ और होंगी, जो हमने ही निर्मित की होंगी।
एक बड़े मकान के सामने मैं खड़ा था। आग लग गई है। मकान का मालिक रो रहा है, चिल्ला रहा है। उसका मकान जल गया है। पास से दौड़ कर किसी ने उस आदमी को कहा: मत रोओ, व्यर्थ परेशान हो रहे हो। कल तुम्हारे बेटे ने मकान बेच दिया है, रुपये मिल गए हैं।

मकान अब भी जल रहा है। वह आदमी हंसने लगा। मकान थोड़ी देर पहले भी जल रहा था, यही मकान। यही आदमी रोता था। पता चला है, रुपये मिल गए हैं, मकान बेच दिया गया है। यही आदमी है, वही मकान है। यह आदमी हंस रहा है। मकान अब भी जल रहा है।
क्या फर्क पड़ गया है? मकान मेरा नहीं रहा। मकान बांधे था बाहर, तो अब भी यह आदमी रोता-चिल्लाता। मकान अब भी जल रहा था। नहीं, मकान नहीं बांधे था। मकान के आस-पास इस आदमी ने मैं का, मेरे का एक जाल फैलाया था। और वह बांधे था। वह मकान बिक गया है। वह मेरा नहीं रहा है। अब जले, न जले, कोई फर्क नहीं। वह आदमी हंस रहा है।
लेकिन तभी किसी और आदमी ने उससे कहा कि मकान बेच दिया, यह तो ठीक, लेकिन रुपये अभी नहीं मिले हैं। और खबर आई है कि अब जले हुए मकान को वह आदमी लेने को राजी नहीं है।
वह आदमी फिर रोने लगा है। मकान वही है। वह आदमी फिर छाती पीट रहा है। मेरा मकान फिर हो गया है। फिर पीड़ा शुरू हो गई है। फिर दुख शुरू हो गया है। कौन बांधे है बाहर? पदार्थ?
पदार्थ किसी को बांधने में समर्थ नहीं है। बांधता है ममत्व, बांधता है मेरा होना। बांधता है मेरे मैं का विस्तार। मेरा मैं जहां-जहां फैल जाता है वहीं-वहीं मैं बंध जाता हूं। मैं के फैलाव का नाम मेरा है। मैं के फैलाव का नाम ममत्व है।
वह हमारा जो ईगो है, वह जो मेरा मैं है, जहां-जहां फैला लेता हूं, जितने दूर तक फैला लेता हूं..मेरा बेटा है, मेरी पत्नी है, मेरा मित्र है, मेरा धर्म है, मेरा देश है, मेरी जाति है, मेरा मकान है। वह जहां-जहां मैं पहुंच जाता है, वहीं-वहीं मैं बंध जाता हूं।
बंधने का सूत्र क्या है? गुलामी का सूत्र क्या है? परतंत्रता का मूल आधार क्या है? पदार्थ? नहीं, बंधने का मूल आधार मैं हूं, मेरा मैं है, मेरे मैं का फैलाव है। और हम सबने मैं का फैलाव किया है। बल्कि हम उस आदमी को सफल कहते हैं, जो जितनी बड़ी सीमा तक अपने मैं को फैला ले। जो जितने दूर तक कह सके, मेरा, वह आदमी उतना सफल हो जाता है। और जिसके पास अपने को छोड़ कर मेरा कहने जैसा कुछ भी न हो, हम कहेंगे, बहुत दीन-हीन है।
पाम्पेई नगर में ज्वालामुखी फूटा। नगर आग से भर गया। लाखों लोग आधी रात को अपना सामान लेकर भागना शुरू कर दिए। एक दार्शनिक, एक फकीर भी उस गांव में था। वह भी चल पड़ा है। रास्ते पर सारे भागते हुए लोग हैं। कोई अपने आभूषण, हीरे-जवाहरात, धन, कोई कुछ और, जो जिसके पास है, सब बोझ से दबे हैं। वह अकेला एक आदमी निर्बोझ सुबह घूमने की छड़ी लेकर चल पड़ा है। रास्ते पर जो भी है उससे पूछता है, क्या आप कुछ बचा कर नहीं लाए? वह कहता है, जो भी मेरा था वह मेरे साथ है, उसे मैं बचा लाया हूं। जो भी मिलता है रास्ते पर, देखता है, सिर पर बोझ नहीं, हाथ खाली हैं, वह पूछता है, क्या सब छूट गया, सब जल गया, कुछ बचा नहीं पाए? वह कहता है, मेरा कुछ था ही नहीं। जल भी नहीं सकता था, छूट भी नहीं सकता था, और जो मैं हूं वह साथ है।
वह सारा गांव रोता हुआ जा रहा है। सब कुछ बचा कर ले आए, लेकिन फिर भी कुछ पीछे छूट गया है। बड़े महलों में ज्यादा पीछे छूट गया है, छोटे झोपड़ों में भी पीछे छूट गया है। कम से कम झोपड़े तो पीछे छूट गए हैं। कुछ भी बचा लाए हैं, फिर भी पीछे छूट गया है।
और जिनका ‘मेरा भाव’ जितना विस्तीर्ण होता है, उन्हें जो बच जाता है वह दिखाई नहीं पड़ता, जो छूट जाता है वह दिखाई पड़ता है; क्योंकि जो बच गया है उसके साथ तो मेरा मैं अब भी जुड़ा है। जो छूट गया है उससे मेरे मैं को तोड़ना पड़ रहा है। वह मकान जो पीछे रह गया उससे मैं को खींचना पड़ रहा है। कष्ट है, पीड़ा है। मैं छूटता नहीं है। वे सभी लोग रोते हुए जा रहे हैं। वह एक आदमी उस लाखों की भीड़ में हंस रहा है।
लोग उससे पूछते हैं, हंसते हो? कुछ बचा भी नहीं पाए, फिर कैसे हंसते हो?
वह कहता है, कुछ खोने को ही नहीं था, बचाने का सवाल नहीं था। और हंसता हूं इसलिए, सिर्फ इसलिए हंस रहा हूं कि तुम सबको देखता हूं, इतना बचा लाए, फिर भी रो रहे हो। तुम्हें देख कर हंस रहा हूं।
हम सबके फैलाव हैं। हम सबके आंसू भी हैं। फैलाव की मात्रा में आंसू भी बढ़ जाते हैं। हम सबके फैलाव हैं, हम सबकी पीड़ाएं भी हैं। हम सबका फैलाव है, हम सबके बंधन भी हैं।
कौन बांधे है बाहर? अगर इसे हम ठीक से न समझ लें, तो भीतर पहुंचना बहुत मुश्किल है। कौन बांधे है अंधेरे के बाहर, जो प्रकाश तक नहीं पहुंचने देता?
लोग कहेंगे, संसार बांधे है, वे लोग झूठ कहते हैं। संसार किसी को भी बांधे हुए नहीं है। हम नहीं होंगे, तो भी संसार होगा। हम नहीं थे, तो भी संसार था। संसार हमारे लिए नहीं है। संसार हमें बांधे हुए नहीं है। जो भी कहते हैं, संसार बांधे हैं, गलत कहते हैं। हम संसार से बंध जाते हैं, दूसरी बात है। संसार किसी को बांधता नहीं है। इसलिए जो कहते हैं, संसार बांधे है, वे संसार को व्यर्थ ही गाली दिए चले जाते हैं।
संसार का कोई संबंध हमें बांधने से नहीं है। अगर मैं एक खूंटी पर अपने कोट को टांग दूं और कहूं कि खूंटी मेरे कोट को टांगे हुए है, और खूंटी पर नाराज हो जाऊं, तो लोग मुझे पागल कहेंगे। वे कहेंगे, अपना कोट उतार लो, खूंटी ने कभी कहा नहीं कि टांगो। टांगा है, इसलिए खूंटी टांगे हुए है। निकाल दो तो खूंटी ने कभी किसी को कहा नहीं कि टांगो, और नहीं टांगा था, तो खूंटी बुलाने नहीं आई थी। निकाल लोगे, खूंटी एतराज नहीं करेगी। खूंटी कुछ टांगती नहीं, हम कुछ टांगते हैं। तो खूंटी टंग जाने के लिए राजी हो जाती है। खूंटी इनकार भी नहीं करती।
संसार किसी को बांधता भी नहीं, स्वतंत्र भी नहीं करता। हम चाहें तो बंध जाएं, चाहे तो स्वतंत्र हो जाएं। संसार को कुछ मतलब ही नहीं है। संसार की धारा को हमसे कोई संबंध भी नहीं है। उसकी यात्रा अपनी है। हम अलग हैं, चाहें तो बंध जाएं, चाहें तो अलग हो जाएं। बंध जाएं तो अपने से छूट जाते हैं स्वयं से व भीतर से। और छूट जाएं बाहर से तो पहुंच जाते हैं वहां जहां हमारा असली होना है। भीतर की यात्रा में यह समझ लेना जरूरी है कि संसार किसी को बांधे नहीं है।
लेकिन आदमी बहुत बेईमान है, और आदमी बहुत धोखेबाज है। आदमी उन सब चीजों को भी दूसरों पर थोप देना चाहता है जो उसने ही निर्मित की हैं। बंधते हम हैं, संसार को गाली दिए चले जाते हैं। कोई कहता है, पत्नी बांधे हुए है; कोई कहता है, बेटे बांधे हुए हैं; कोई कहता है, धन बांधे हुए है। न पत्नी किसी को बांधती है, न पति किसी को बांधता है, न बेटा, न धन। कुछ भी नहीं बांधता।
संसार बिल्कुल असमर्थ है किसी को भी बांधने में। हम बंधते हैं, तो बंध जाते हैं। बंधना हमारी अपनी च्वाइस, अपना चुनाव है। हम गुलाम होना चाहते हैं, इसलिए गुलाम हो जाते हैं। हम बाहर रुकना चाहते हैं, इसलिए रुक जाते हैं।
एक आदमी नाटक देखता है, नाटक से भी बंध जाता है। देख रहा है, नाटक है। देख रहा है, जो सीता चोरी गई है वह असली सीता नहीं है। रामलीला चल रही है। और जो राम रो रहे हैं और वृक्षों से पूछ रहे हैं, मेरी सीता कहां है? वह राम बिल्कुल झूठे हैं। और थोड़ी देर बाद सीता और राम दोनों पर्दे के पीछे चाय पीते मिल जाएंगे। लेकिन देखने वाला रोने लगा है। सीता चोरी चली गई है, देखने वाला रोने लगा है। नाटक देख कर भी हम बंध जाते हैं, ख्याल भूल जाता है कि नाटक है।
टाल्सटाय ने लिखा है कि मेरी मां नाटक देखने की बड़ी शौकीन थी। रोज ही किसी थियेटर में मौजूद होती थी और थियेटर में पूरे समय रोती रहती थी। रूमाल आंसुओं से गीले हो जाते थे। टाल्सटाय छोटा है, वह अपनी मां को पूछता है कि तू रोती क्यों है? नाटक ही तो है।
बच्चे ऐसे सवाल पूछ लेते हैं, तो हम उन्हें कहते हैं, नासमझ हो, तुम्हें अभी कुछ अनुभव नहीं है। वह टाल्सटाय पूछता है, रोती क्यों हो? नाटक ही तो है, कहानी तो ही है, और तो कुछ भी नहीं।
हम भी नाटक से बंध जाते हैं, कहानी से। स्मरण ही नहीं रह जाता है कि जो देखते हैं कहानी है। तो फिर जिंदगी से बंध जाना तो बहुत आसान है। मंच पर पर्दे से बंध जाते हैं। फिर पहले तो नाटक होते थे, अब तो नाटक भी नहीं हैं। अब तो खाली पर्दे पर दौड़ती हुई तस्वीरें हैं। तस्वीरें भी क्या हैं, सिर्फ धूप-छाया का खेल है, सिर्फ प्रकाश और अंधेरे का खेल है। उसमें भी रोते हैं, उसमें भी दुखी और पीड़ित हो जाते हैं।
अगर अंधेरा न हो सिनेमागृह में तो लोगों को बड़ी परेशानी होगी, क्योंकि चारों तरफ लोग देखें कि कौन रो रहा है। अभी भी रोते हैं तो देख लेते हैं पास-पड़ोस के लोग देखते तो नहीं? चुपचाप आंसू पोंछ लेते हैं।
पर्दे पर कुछ भी नहीं है, पर्दा बिल्कुल खाली है। सच तो यह है कि जितना खाली है उतना ही अच्छा पर्दा है। एक-एक पर्दे के पचास-पचास हजार रुपये भी खर्च करने पड़ते हैं, खाली होने की ही कीमत है। पर्दा बिल्कुल खाली है, एक रेखा भी उस पर नहीं है। बिल्कुल कोरा है, एकदम कोरा है। जितना कोरा है, उतना कीमती है। उस पर सिर्फ धूप-छाया का खेल है और लोग रो रहे हैं। अगर हम सोचेंगे तो बड़ी हैरानी होगी।
हम सपनों से भी बंध जाते हैं। रात सपना देखा है, नींद खुल गई है, लेकिन छाती धड़कती चली जा रही है। अभी घबड़ाहट लगी है। वह सपने में जो देखा था वह अभी पीछा कर रहा है। सपनों से बंध जाते हैं, नाटक से बंध जाते हैं, तो जिंदगी जो इतनी सच है बाहर उससे तो हम बंध ही जाएंगे। हमारी बंधने की कीमिया, केमिस्ट्री है कुछ। हमारे बंधने की कोई भीतरी तरकीब है जो कहीं भी बांध देती है। हम बंधने को राजी हैं, कुछ भी मिल जाए, उसी से बंध जाते हैं।
एक आदमी घर छोड़ कर चला जाता है। बंधने की तरकीब साथ लिए चला जाता है। फिर आश्रम से बंध जाता है। घर छोड़ा था, फिर आश्रम बंध जाता है। बच्चे छोड़े थे, बेटे-बेटियां छोड़े थे, फिर शिष्य-शिष्याएं इकट्ठे हो जाते हैं। फिर वह उनसे बंध जाता है।
एक बहुत बड़े जैन मुनि की मैं जीवन-कथा पढ़ रहा था। लिखा है कि एक शिष्य से उन्हें बड़ा प्रेम था। निश्चित ही, मुनि प्रेम करे तो आध्यात्मिक ही करता है। साधारण लोग प्रेम करें तो शारीरिक होता है। आध्यात्मिक प्रेम था। कभी उस शिष्य का साथ नहीं छोड़ते थे। निरंतर उसी के साथ विहार करते थे।
फिर दूसरे शिष्यों को ईष्र्या हो गई। संन्यासियों को भी ईष्र्या होती है। ईष्र्या तो साथ चली जाती है, संन्यास से क्या संबंध? दूसरे शिष्यों ने कहा: यह नहीं चलेगा। इसको कभी तो छोड़िए। इसको किसी दूसरे रास्ते पर, दूसरे मार्गों पर, दूसरे गांवों में भ्रमण करने दीजिए।
गुरु बामुश्किल राजी हुए। एक गांव में खुद चैमासा किया, दूसरे गांव में शिष्य ने चैमासा किया। बीच में नदी है, वर्षा के दिन हैं, लेकिन दोनों नदी के किनारे दोनों तरफ सुबह आकर खड़े होकर एक-दूसरे को देख लेते हैं। तब तृप्ति मिलती है।
उनका प्रेम आध्यात्मिक है? और अगर आप अपनी पत्नी को सुबह देखे बिना तृप्त न हों, तो यह शारीरिक है? नाम बदल लेते हैं। आदमी भीतर अगर वही रह गया, तो नाम बदल लेने से कुछ भी नहीं हो जाता है।
मैं एक और महात्मा का जीवन पढ़ता था। तीस साल पहले उन्होंने घर छोड़ दिया। फिर उनकी पत्नी मरी तीस साल बाद। वे बनारस में थे। पत्नी के मरने की खबर पहुंची, तो उन संन्यासी ने कहा: चलो झंझट मिटी। उनकी जीवन-कथा में उनके शिष्यों ने लिखा है: इतना महान आदमी कि िपत्नी मरी तो उसने राग का एक शब्द न कहा, उसने कहा, चलो झंझट मिटी।
मैंने पढ़ा तो मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने उस किताब लिखने वाले लेखक को एक पत्र लिखा और मैंने पूछा, अपने गुरु से पूछना, तीस साल पहले जिस पत्नी को छोड़ आए थे, उसकी झंझट अभी बाकी थी कि उसके मरने से मिटी? झंझट कहीं भीतर बाकी रह गई होगी। कहीं भीतर सब वही चलता रहा होगा। वह पत्नी अभी भी पत्नी थी।
पत्नी छोड़ कर भाग जाने का सवाल नहीं है, मेरे होने की धारणा अगर बाकी है तो हजार मील दूर भी जो है वह मेरा है। छोड़ कर भाग जाऊं, तो भी मेरा है। आंख बंद कर लूं, तो भी मेरा है। वह मर जाए, तो भी मेरा है। मेरे का भाव, उसका फैलाव, नये रास्ते खोज लेगा। और एक खूंटी छोड़ेगा दूसरी खूंटी पर टंग जाएगा। एक जगह से हटेगा दूसरी जगह फिर निर्माण कर लेगा।
हमारा, मेरा, मैं, मेरे संसार का निर्माता है। हम क्रिएटर्स हैं। एक संसार हम बनाते हैं, एक संसार परमात्मा ने बनाया है। वह सत्यों का संसार है। वहां ट्रुथ्स हैं, वहां फैक्ट्स हैं, तथ्य हैं। एक संसार हम सब भी बनाते हैं। वहां सपने हैं, फिक्शंस हैं।
कौन बंधता है? कौन बांधता है? यह ठीक से समझ लेना जरूरी है। यह एक बार ठीक से ख्याल में आ जाए, तो भीतर की यात्रा बड़ी सुगम है। भीतर की यात्रा कठिन नहीं है। लेकिन बाहर से बंधे हुए भीतर की यात्रा कैसे हो सकती है? और हम सब बंधे हैं। लेकिन हम कहेंगे, बाहर हमें बांधे हुए है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम क्या करें? पत्नी-बच्चे बांधे हुए हैं, मकान-दुकान बांधे हुए हैं। मैं बहुत हैरान होता हूं कि कौन किसको बांधे हुए है? कौन किसको बांध सकता है? हम बंधे हुए हैं, इस सीधे से सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहते, इसे भी दूसरों पर थोप देते हैं।
तो साधु-संन्यासी स्त्रियों को गाली दिए चले जा रहे हैं कि स्त्री नरक का द्वार है। वह तो स्त्रियां किताबें नहीं लिखती हैं, नहीं तो पुरुष को नरक का द्वार लिखतीं। उन्होंने किताबें लिखी नहीं, इस झंझट में वे पड़ी ही नहीं। सब किताबें पुरुष लिखते हैं, तो वे लिखते हैं, स्त्रियां नरक के द्वार हैं। कौन नरक का द्वार हो सकता है, अगर हम ही खुद नरक के द्वार नहीं हैं तो? लेकिन मनुष्य का तर्क सदा खुद को बचा लेता है।
आप मुझे गाली देंगे, मैं क्रोध से भर जाऊंगा, तो मुझे कभी ख्याल नहीं आएगा कि क्रोध मुझमें था, इसलिए गाली क्रोध को जगा सकी। अगर क्रोध न होता तो गाली नपुंसक हो जाती, व्यर्थ हो जाती, निकल जाती, छेद नहीं पाती कहीं। लेकिन कहूंगा मैं यह कि तुमने मुझे क्रोध करवा दिया। कहूंगा मैं यह कि लोग मुझे क्रोध करवा रहे हैं, मैं क्या कर सकता हूं?
और ध्यान रहे, जितनी मनुष्य के मन की खोज-बीन होती है, उतना पता चलता है कि जो आदमी क्रोध करता है, अगर उसे कोई गाली न दे, कोई क्रोध का मौका न दे, तो भी वह आदमी मौके खोज कर क्रोध करेगा ही। वह बच नहीं सकता।
अगर एक आदमी को हम कमरे में बंद कर दें, जहां कोई भी नहीं है, तो भी वह आदमी क्रोध करेगा। हो सकता है फाउंटेनपेन को गाली दे और पटक दे। अब फाउंटेनपेन बिचारा तो गाली नहीं दे सकता है। हो सकता है दरवाजे को धक्का मार कर खोले और दरवाजे के साथ ऐसा व्यवहार करे जैसा दुश्मन के साथ कर रहा हो। और हो सकता है कपड़े इस भांति फेंके कि उनकी हत्या कर रहा हो। और जूते इस भांति उतारे जैसे जन्मजात शत्रुता उनसे हो। वह आदमी क्रोध तो जारी रखेगा, वह क्रोध जारी रखेगा। वह दीवालों को गाली देने लगेगा। वह सपने में लड़ना शुरू कर देगा। अकेला आदमी भी क्रोध करेगा। क्रोध भीतर है, तो निकलेगा। बाहर तो सिर्फ खूंटियां हम खोजते हैं।
और इसलिए अगर किसी क्रोधी आदमी को ऐसे लोगों के साथ रहने मिल जाए जो क्रोध का मौका न दें, तो इस बात से भी उसे बहुत क्रोध आएगा कि कैसे लोग मिल गए हैं? उसे पता नहीं चलेगा कि यह क्या हो रहा है, लेकिन वह परेशान और बेचैन हो जाएगा। क्रोध हमारे भीतर है, बाहर सिर्फ खूंटियां हैं। लेकिन हम जोर यह देते हैं कि दूसरे लोग क्रोध करवाते हैं, इसलिए हम क्रोधित हो जाते हैं।
बुद्ध एक गांव के पास से निकले हैं। कुछ लोगों ने बहुत गालियां दी हैं, पत्थर फेंके हैं। बुद्ध ने उनसे कहा कि मैं जाऊं, मुझे जल्दी दूसरे गांव पहुंच जाना है। अगर तुम्हारी बातें पूरी हो गई हों तो मुझे आज्ञा दो या कि मैं थोड़ी देर और रुकूं? बातें बाकी हैं?
उन लोगों ने कहा: बातें? हम सीधी गालियां दे रहे हैं, समझ नहीं पड़ता आपको? हम सीधे तीर चला रहे हैं, ख्याल में नहीं आता आपको? ये बातें नहीं हैं। हम जितनी गंदी गालियां दे सकते थे हमने दी हैं। आप क्रोधित नहीं हो रहे हैं?
बुद्ध ने कहा: कौन कब किसको क्रोधित कर सका है। आज तक सुना तुमने कि कोई किसी को क्रोधित कर सका हो? हां, कोई चाहे तो क्रोधित हो सकता है।
लोग क्रोधित होते हैं, कोई किसी को क्रोधित नहीं करता। बहाने बन जाते हैं, दूसरे लोग खूंटियां बन जाते हैं। टांगते हम सदा अपने को ही हैं।
बुद्ध ने कहा: तुमने गालियां दीं, मैंने सुनीं। मैं समझा कि तुम बड़े क्रोध में हो। बात खत्म हो गई। गालियां तुम दे रहे हो, मेरा क्या संबंध है? अब मैं तुमसे कहता हूं, अगर मैं न निकलता तो तुम किसी और को भी गालियां देते, तुम कोई और खोज लेते, जिसको गालियां देते हैं।
अगर असली आदमी न मिले, तो लोग मूर्तियां बना कर, कपड़े के पुतले बना कर, उन्हीं को गालियां देकर जला देते हैं। असली आदमी मिलना जरूरी थोड़े ही है। अगर पाकिस्तान से झगड़ा हो जाए, तो अयूब खां का पुतला ही जला कर बड़ी तृप्ति मिलती है। अब आदमी पागल है। और रावण का पुतला तो हम जलाए ही चले जा रहे हैं हजारों साल से। हम ऐसे भी निकाल लेते हैं।
बुद्ध ने कहा: मैं न आता तो तुम कोई और खोज लेते। मुझसे क्या संबंध है? तुम्हें गाली देनी है। फिर मैंने तुम्हारी गालियां सुन लीं, लेकिन मैं तुम्हारी गाली लेने को राजी नहीं हूं। मैं तब लेता था जब मुझे क्रोध करने में रस आता था। तब मैं गालियां ले लेता था; क्योंकि बिना गालियां लिए क्रोध करना मुश्किल है। मैं तत्काल ले लेता था। तुम देते नहीं कि मैं फौरन ले लेता। अब मैं लेता नहीं।
दस वर्ष पहले तुम्हें आना था, तो बड़ा मजा आता, तुमको भी बड़ा मजा आता। तुम खाली हाथ न जाते, मैं भी तुम्हें गालियां लौटा देता। लेकिन आज तुम्हें खाली हाथ वापस लौटना पड़ेगा, या अपनी ही गालियों को वापस ले जाना पड़ेगा। और कोई उपाय नहीं है।
मैं लेता नहीं हूं। मैं मजबूर हूं। मैंने लेना बंद कर दिया है, क्योंकि मेरे भीतर जो लेने वाला तत्व था, वह विदा कर दिया है। अब मेरे भीतर क्रोध नहीं है, तुम्हारी गालियां व्यर्थ हैं। मेरे क्रोध में तुम्हारी गालियों की सार्थकता थी। तुम्हारे क्रोध का अर्थ, तुम्हारी गाली का अर्थ मेरे क्रोध में था। वह खत्म हो गया है। गालियां सुन ली हैं मैंने, जैसे कोई सूने भवन में चिल्ला दे। आवाज गूंजे और विदा हो जाए, भवन फिर सूना हो जाए। मैं जाऊं? दूसरे गांव मुझे जल्दी पहुंचना है।
वे लोग तो बड़ी मुश्किल में पड़ गए। चलते वक्त बुद्ध ने कहा: तुम्हें देख कर मुझे बड़ी दया आती है। दूसरे गांव में कुछ लोग मिठाइयां लाए थे, मैंने कहा: मेरा पेट भरा है, वे वापस ले गए। क्या किया होगा उन लोगों ने उन मिठाइयों का?
एक आदमी ने उस भीड़ में से कहा: गांव में बांट दी होंगी, और क्या किया होगा!
बुद्ध ने कहा: तुम क्या करोगे? तुम गालियों के थाल सजा कर लाए थे, अब वापस ले जाना पड़ेगा। तुम क्या करोगे? मैं तो लेता नहीं हूं। तुम बड़े गलत आदमी के पास आ गए हो।
लेकिन दस साल पहले यह बुद्ध भी यही कहता कि तुमने मुझे क्रोधित करवा दिया है। हमारी दलील और हमारा तर्क यह है कि हम सब दूसरे पर टांग देते हैं। दूसरे हमें बांधे हुए हैं। दूसरे क्रोध करवा रहे हैं। दूसरे मोह पैदा करवा रहे हैं। धन बांधे हुए है, पद बांधे हुए है, गांव-घर बांधे हुए है।
कोई किसी को बांधे हुए नहीं है। हम बंधना चाहते हैं, इसलिए बहाने खोज लेते हैं। और एक बहाना छोड़ेंगे और हमारे बंधने की पुरानी आदत जीवित रहेगी। हम दूसरा बहाना खोज लेंगे और उससे बंध जाएंगे।
बंधन की हमारी आतुरता है। हम भीतर से गुलाम होने को बहुत उत्सुक हैं। बिना जंजीरों के हमें अच्छा नहीं लगेगा। लेकिन अगर यह हमें ख्याल आ जाए कि हम ही बंधते हैं, तो फिर बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर एक ही सवाल रह जाएगा, नहीं बंधना है, तो बंधने वाले सूत्रों को भीतर से तोड़ दो।
अभी हम क्या करते हैं? अभी भी बंधन से लोग भागते हैं। सूत्र नहीं तोड़ते। सिर्फ खूंटियां बदल लेते हैं। खूंटियां बदलने वाले लोगों को हम संन्यासी कहते हैं। सूत्र नहीं तोड़ते। वह जो गुलामी की भीतरी आकांक्षा है, वह नहीं टूटती। एक स्त्री अपने पति को छोड़ देती है, फिर वह कृष्ण की मूर्ति के सामने कहती है कि तुम्हीं मेरे पति हो। मामले में फर्क नहीं पड़ता है। दिमाग वही है, और वह कृष्ण से यह कहती है कि कब मेरी सेज पर आओगे? वह चल रहा है भीतर। वही दिमाग है, वही बनावट है, सोचने का वही ढांचा है, वही प्रोजेक्शन है, वही कल्पनाएं फिर पकड़ने लगी हैं। अब पति छूट गया है, तो कृष्ण पति हो गया है, लेकिन पति पैदा करने की जो कामना है, वह जाएगी नहीं, वह जा नहीं सकती।
वह ऐसे कैसे जाएगी? पति को छोड़ने से जाएगी? घर छोड़ने से जाएगी? तो मेरा आश्रम, फौरन खड़ा हो जाएगा, और वह आश्रम उतना ही पकड़ लेगा। जाएं आश्रमों में, खोजें साधु-संन्यासियों को, खातेबही खोले हुए हिसाब-किताब रख रहे हैं आश्रमों का। जाएं, देखें, आश्रमों के मकान बना रहे हैं..खड़े हैं धूप में, बरसात में। ऐसा साधारण आदमी भी, गृहस्थ आदमी भी खड़ा नहीं होता। लेकिन गृहस्थ खड़ा होगा, तो वे कहेंगे, बंधन में पड़े हो। आश्रम बनाने से आदमी बंधन में पड़ता ही नहीं?
लेकिन आदमी भीतर अगर वही है, तो क्या फर्क पड़ सकता है कि हम क्या कर रहे हैं। धोखा जरूर हम अपने को दे सकते हैं। खूंटी बदलने से धोखा पैदा होता है। मैं आपसे इस बात को जोर देकर कहना चाहता हूं, बाहर कोई भी आपको बांधे हुए नहीं है। शिकायत मन में कभी किसी की मत लेना कि किसी ने मुझे बांधा है। किसी ने आज तक पृथ्वी पर किसी को नहीं बांधा। और पदार्थ बेचारा क्या बांधेगा? पत्थर मिट्टी क्या बांधेंगे? मकान की ईंटें क्या बांधेगी? सोना-चांदी क्या बांधेगा किसी को? बंधते हम हैं। बंधना हम चाहते हैं। फिर हम बंध जाते हैं। फिर सोने-चांदी की भी जरूरत नहीं, कागज का नोट भी बांध लेगा। फिर सोने-चांदी की जरूरत नहीं, फिर कागज का नोट भी बांध सकता है। किसी स्त्री की ही जरूरत है बांधने के लिए। कोई जरूरत नहीं है। उसकी स्मृति भी बांध सकती है।
बंधते हम हैं, बंधने की हम तलाश में हैं। यह सत्य ठीक से ख्याल में आ जाए, तो भीतर जाना बहुत आसान है। क्योंकि तब हमें किसी को छोड़ना नहीं। तब हमें बंधने की प्रवृत्ति को ध्यानपूर्वक देखना, जानना, पहचानना है कि मैं कब और कहां बंध जाता हूं? मैं कैसे बंध जाता हूं? मेरा ममत्व कैसे फैल जाता है? मेरा मैं कैसे विस्तीर्ण हो जाता है?
स्वामी राम अमरीका गए, तो लोग बड़े परेशान हुए। उनके बोलने का ढंग बहुत अजीब था। अमरीका के आदमी को ख्याल में भी नहीं आ सकता था कि कोई ऐसा बोलेगा। राम हमेशा थर्ड पर्सन में ही बोलते थे। वे कभी यह नहीं कहते थे कि मुझे भूख लगी है। वे यही कहते थे, अब मालूम होता है राम को भूख लग रही है। वे कभी यह नहीं कहते थे कि रात मुझे बहुत ठंड लगी, वे यही कहते थे, रात बड़ा मजा आया, राम ठंड में बहुत सिकुड़ते रहे। वे कभी यह नहीं कहते थे कि रास्ते पर कुछ लोग मिल गए और मुझे गालियां देने लगे, लौट कर भी यही कहते थे, आज बड़ा मजा आया, हम खड़े देखते रहे, राम को बहुत गालियां पड़ीं। वे ऐसे ही बोलते थे, जैसे राम कोई दूसरा आदमी है। राम कोई और है, मैं कोई और हूं।
जो आदमी ममत्व को तोड़ना चाहता है उसे स्वयं को और स्वयं के होने की जो तस्वीर बन गई है दुनिया में उसको और ही तरह देखना जरूरी है। नहीं तो ममत्व नहीं टूटता।
उनसे अमरीका में किसी ने पूछा, कि आप कहते हैं, राम को भूख लगी है, आपको भूख नहीं लगती?
वे कहते: मुझे सिर्फ पता चलता है कि राम को भूख लगी है। मैं जानने वाला हूं कि राम को भूख लगी है। फिर मैं जानने वाला हूं कि अब राम का पेट भर गया है। कई दफा तो ऐसा होता है कि मैं जान लेता हूं कि पेट भर गया और राम खाए ही चले जाते हैं। ऐसा भी हो जाता है कई बार।
यह जो राम, यह जो पर्सनैलिटी, यह जो एक व्यक्तित्व हमारे चारों तरफ खड़ा है, यह व्यक्तित्व और मैं भिन्न हूं। पर्सनैलिटी व्यक्तित्व और आत्मा भिन्न हैं। इसका थोड़ा सा बोध गहरा हो, तो ममत्व टूटना बंद हो जाता है। ममत्व की सीमा सिकुड़नी शुरू हो जाती है।
ममत्व का मूल सूत्र एक ही है कि मैंने व्यक्तित्व को ही मैं समझ रखा है। फिर व्यक्तित्व से संबंधित सारी चीजें मैं होती चली जाती हैं। एक आदमी बड़े मकान में है, इस आदमी को झोपड़े में रख दें, आपको पता है? इसकी पर्सनैलिटी में फर्क पड़ गया है, इसका व्यक्तित्व और हो गया है। बड़े मकान में यह बड़ा आदमी था, इसके व्यक्तित्व में बड़े होने का भाव था। इसका मकान छिन गया, इसे एक झोपड़े में रख दें, यह आदमी छोटा हो गया। हो सकता है झोपड़े में सब सुविधा हो, फिर भी यह आदमी छोटा हो गया। इसके व्यक्तित्व को सिकुड़ना पड़ा।
व्यक्तित्व हमारे शरीर पर सीमित नहीं है। व्यक्तित्व हमारे सारे ममत्व पर सीमित है। सारा ममत्व हमारा व्यक्तित्व है। जितना ममत्व है, उतना ही हमारा व्यक्तित्व है। बाप बेटे को अपना हिस्सा समझता है, एक्सटेंशन है वह उसी का। मां अपने बेटे को अपना हिस्सा समझती है, मेरा ही फैला हुआ एक हाथ है। बेटे को चोट लगती है तो मां तकलीफ में पड़ जाती है। अपना ही फैला हुआ एक हाथ पीड़ित होता है।
मकान को आग लगती है, तो मालिक तकलीफ में पड़ जाता है। खुद का व्यक्तित्व कहीं से जलने लगता है। किसी आदमी से उसका पद छीनो, वह कितना बेचैन हो जाता है। पद छीनने से क्या फर्क पड़ता है? एक आदमी को कुर्सी से उतार दो। उतर कर कुर्सी से खड़े हो जाना चाहिए।
नहीं, इतना आसान नहीं है। कुर्सी उसके व्यक्तित्व का हिस्सा हो गई थी, उसकी पर्सनैलिटी हो गई थी। कुर्सी थी, तो वह था। कुर्सी नहीं है, तो सब मामला गड़बड़ हो गया है। उसे अब कुछ और होना पड़ेगा। इसलिए देखें, जैसे ही कोई आदमी भूतपूर्व हो जाता है..भूतपूर्व और बहुत भूतपूर्व..हमारे मुल्क में मिनिस्टर हैं। गांव-गांव में वही हैं। भूतपूर्व मिनिस्टर बढ़ते चले जाते हैं। एक जमाना तो ऐसा आएगा कि हमें बताना पड़ेगा कि यह आदमी भूतपूर्व मिनिस्टर नहीं हैं; क्योंकि इतने लोग भूतपूर्व मिनिस्टर होते चले जाते हैं। भूतपूर्व मिनिस्टर को देखा है आपने कैसा हो जाता है? जैसे कपड़े की क्रीज निकल जाए, ऐसा हो जाता है। एकदम व्यक्तित्व लोचपोच हो जाता है। एकदम व्यक्तित्व गया। वही व्यक्तित्व था, वही सब कुछ था, वही जान थी, वही अकड़ थी, वही चारों तरफ का फैलाव था, वह गया, एकदम सिकुड़ गया आदमी।
तो आदमी मर जाना पसंद करता है, लेकिन पद छोड़ना पसंद नहीं करता। इसलिए जब तक कोई न मर जाए, उससे पद छुड़ाना बड़ा मुश्किल होता है। मर जाता है, बेचारे को मजबूरी हो जाती है, लोग जल्दी से लाश उठा कर ले जाते हैं। इधर लाश नहीं उठ पाती और जो रो रहे हैं चारों तरफ बैठे हुए इस फिकर में लग जाते हैं कि जरा गड़बड़ न हो जाए, कौन कुर्सी पर बैठ जाए! इधर लाश नहीं उठी है कि कुर्सी पर बैठने का विचार शुरू हो गया है।
आदमी मरघट पर पीछे पहुंचता है, कुर्सी पर बैठने का इंतजाम पहले होने लगता है। वे ही सारे लोग जो रो रहे हैं, उसके मरघट पर खड़े होंगे, कि बड़ा दुख हुआ कि आप मर गए और चित्त में भगवान को धन्यवाद दे रहे हैं कि अगर यह न मरता तो वह जगह खाली होने वाली नहीं थी। अब जगह खाली है, अब जल्दी यह निपटारा हो तो भागूं, उस कुर्सी पर कोई और न बैठ जाए तब तक।
हमारा व्यक्तित्व, हमारे धन, हमारे मकान, हमारे पद, हमारी प्रतिष्ठा सबसे जुड़ा हुआ है। हिटलर जिस दिन अपनी आत्महत्या किया, मरने के पहले कितना सिकुड़ गया होगा? मरते दम तक हिटलर यह घोषणा करता रहा है रेडियो पर कि हम जीत रहे हैं। बर्लिन में दुश्मन आ गया, जर्मनी तो गया, राजधानी जा रही है। बर्लिन के बाहर के हिस्सों में बम गिर रहे हैं, बर्लिन के ऊपर दुश्मन के जहाज उड़ रहे हैं, लेकिन हिटलर अपने मकान के बाहर आकर देखने को राजी नहीं है।
उसके मित्रों ने कहा: आप क्या कह रहे हैं? सब गया है।
लेकिन हिटलर कहता है कि तुम गद्दार हो, तुम झूठ हो, बाहर निकल जाओ। मुझसे हार की बात मत करो। और वह रेडियो पर घोषणा करता है कि हम जीत रहे हैं। हमारी जीत में कोई शक नहीं है।
पागल हो गया होगा। क्या हुआ होगा उसको? उसके दरवाजे के बाहर गोलियां चल रही हैं। दुश्मन के सिपाहियों की चोटें और पैरों की आवाजें उसके घर के बाहर आ रही हैं और वह रेडियो पर कह रहा है कि हम जीत रहे हैं। हमारी जीत सुनिश्चित है।
और जो मित्र उससे कहते हैं कि क्या आप कह रहे हैं? पागल हो गए हैं?
वह उनसे कहता है, गोली मरवा दूंगा, बाहर हो जाओ। इस तरह की झूठी बातें मुझसे मत कहो, हम कभी हार सकते हैं? जर्मनी कभी हार सकता है?
कैसा, क्या हो गया होगा उसके मन को? विक्षिप्त, वह अपने व्यक्तित्व को छोड़ने को राजी नहीं है। वह जीतता हुआ, फैलता हुआ। हेल। फ्यूहरर, वह व्यक्तित्व इतना बड़ा, वह कैसे मान ले कि हम हार रहे हैं। वह मरना मान सकता है, हारना नहीं मान सकता।
और जब उसे पता ही चल गया है पक्का, कि हार सुनिश्चित हो गई है, और जर्मन पार्लियामेंट के ऊपर दुश्मन का कब्जा हो गया है। तब वह मर जाना पसंद करता है। वह गोली मार कर मर जाता है। लेकिन मरते वक्त तक भी वह फ्यूहरर, मरते वक्त तक भी वह विजेता है। वह हारा हुआ आदमी नहीं है।
हमारे व्यक्तित्व का फैलाव है, और उस व्यक्तित्व को हम पकड़े हुए हैं। और वही हमारी जकड़ है, वहीं से हम भीतर आत्मा तक नहीं पहुंच पाते हैं। पर्सनैलिटी से जो जकड़ गया है वह इसेंस तक नहीं पहुंचता। व्यक्तित्व से जो जकड़ गया है वह आत्मा तक नहीं पहुंचता।
तो एक बोध भीतर विकसित करना जरूरी है अंतर्यात्रा के लिए, अंधेरे से प्रकाश की तरफ जाने वाले यात्री के लिए कि मैं कौन हूं? यह पद मैं हूं? पद नहीं था तब भी मैं था, पद नहीं होगा तब भी मैं रहूंगा, तो निश्चित ही पद तो मैं नहीं हो सकता। यह धन मैं हूं? धन नहीं था तो भी मैं था, धन नहीं होगा तो भी मैं रहूंगा, यह धन मैं हूं? तो धन तो मैं नहीं हो सकता। ये बेटे, पत्नी, ये मित्र, यह समाज, यह संगठन, यह राज्य, यह देश, यह मैं हूं? इसका सचेत बोध भीतर होना चाहिए।
और जैसे-जैसे बोध होता है, वैसे-वैसे लगता है कि कुछ है जो मैं नहीं हूं और मैंने मान रखा है कि मैं हूं। कुछ है जो मैं बिल्कुल नहीं हूं, लेकिन मैं जोर से चिपक गया हूं उससे और मान रहा हूं कि मैं हूं। यह मुझे बाहर रोके हुए है, यह मेरे बाहर से बंधन हैं। व्यक्तित्व, ममत्व, मेरे बाहर से जुड़ा हुआ, मेरा बंधन है।
हिटलर ने कभी शादी नहीं की। मरने के दो घंटे पहले शादी की थी। शादी नहीं की जिंदगी भर, क्योंकि हिटलर कभी किसी को अपने बराबर मानने को राजी नहीं हो सका। हिटलर का कोई मित्र नहीं था। कोई उसे तू नहीं कह सकता था हिटलर से। उसके व्यक्तित्व को भारी चोट लग जाती। तू कोई भी नहीं कह सकता। हिटलर के कंधे पर कोई मित्र-भाव से हाथ नहीं रख सकता था। उसी दिन खत्म कर दिया जाता।
हिटलर की आज्ञा में कोई इनकार नहीं कर सकता था। इसलिए पत्नी जैसी निकटतम किसी को पास लाना खतरनाक है। वह तू भी कह सकती है, कंधे पर हाथ भी रखेगी। तो हिटलर ने शादी नहीं की।
एक लड़की से प्रेम था। एक वर्ष तक वह उसके पास थी। एक दिन उस लड़की ने कहा कि मुझे मां से मिलने जाना है।
हिटलर ने कहा: नो, नहीं। हिटलर चला गया दफ्तर।
उस लड़की ने कहा: इसमें क्या बात है नहीं की? मैं मिल कर घंटे भर में आ जाती हूं।
वह मिलने गई। हिटलर लौट कर आया। उसने आकर पूछा, तू मां से मिलने गई थी?
उसने कहा: हां।
उसने उसे गोली मार दी उसी वक्त। मित्रों ने कहा: यह तुम क्या करते हो, तुम इतना प्रेम करते हो?
उसने कहा: मैं सिर्फ हां को प्रेम करता हूं; नहीं को मैं बिल्कुल प्रेम नहीं करता। यह औरत किसी मतलब की नहीं है। इसने इनकार किया, इसने मेरी बात नहीं मानी, हिटलर की! फ्यूहरर की! वह व्यक्तित्व, वही मैं हूं।
मरने के दो घंटे पहले शादी की। उस औरत को वह दस-बारह साल से प्रेम करता था, लेकिन टालता रहा, उससे विवाह नहीं किया। मित्रों ने कहा, तो उसने कहा: विवाह नहीं कर सकता हूं, क्योंकि कोई मेरे कंधे पर हाथ रख दे, या कोई मुझसे तू कह कर बोले दे। यह असंभव है। मैं फ्यूहरर हूं!
दो घंटे पहले, जब मरने के करीब आ गया, आत्महत्या करनी है, एक पादरी को दौड़ा कर उठवाया, सोए हुए किसी भी पादरी को उठा लाओ। उस औरत को नींद से बुलवाया और कहा कि जल्दी तलघरे में...नीचे तलघरे में शादी हो गई है। कोई मौजूद न था। एक पादरी था, एक दो मित्र थे, एक हिटलर था, वह औरत थी।
उस औरत ने कहा कि इतनी जल्दी क्या पड़ी है?
उसने कहा: अब देर नहीं। अब समय नहीं है। शादी हो गई और शादी के बाद जो पहला काम किया, वह आत्महत्या..दोनों ने आत्महत्या कर ली।
हिटलर से उस पादरी ने पूछा भी कि मरते वक्त क्यों कर रहे हो?
उसने कहा: जीते-जी करना मुश्किल था; मैं किसी को निकट और समान नहीं मान सकता हूं।
हम सब भी छोटे-मोटे हिटलर तो हैं ही, बड़े नहीं होंगे। छोटे-मोटे सब हैं। और सबका एक व्यक्तित्व का ढांचा है। उस व्यक्तित्व के ढांचे को बचाने के लिए जिंदगी भर लड़ते हैं। उसी लिए धन, उसी लिए पद, उसी लिए सब।
बाप अपने बेटे को कहता है, मेरी इज्जत का ख्याल रखना। ऐसा कोई काम मत करना कि मेरी इज्जत पर आंच आ जाए। यह बेटा भी इज्जत बचाने के लिए एक साधन है। यह बेटा भी एक उपकरण है, एक मीन्स है कि बाप की इज्जत बचे। हमारा कुल, हमारा परिवार, हम विशिष्ट हैं, इसे बचाना।
हम साधारण लोग नहीं है। सब अहंकार का प्रक्षेपण। इसीलिए तो बेटा न हो तो बाप को बड़ी बेचैनी होती है। क्योंकि फिर अहंकार को प्रक्षेपण करने के लिए आगे कौन बचेगा, इसलिए बेटा होना जरूरी है।
ये हमारी सारी चेष्टाएं किसलिए हैं? एक व्यक्तित्व की हमारी धारणा है कि मैं कुछ हूं। और इस मैं को हम मजबूत करते हैं सब तरफ से। यही मजबूती हमारा बंधन है, यही हमें बाहर से बांध लेती है।
नहीं। खोज करनी पड़ेगी, मैं हूं? कपड़ों में, इज्जत में, प्रतिष्ठा में, सम्मान में, मैं हूं या मैं कुछ अलग हूं?
ईरान में एक सम्राट अपने दरबार के बुद्धिमान लोगों को कहा कि मुझे एक ऐसा सूत्र लिख कर दे दो जो हर समय काम आ सके..सुख में भी, दुख में भी; जीत में भी, हार में भी; जीवन में भी, मृत्यु में भी, एक सूत्र। ज्यादा नहीं चाहता हूं।
बुद्धिमानों ने बहुत खोजा। बड़े-बड़े शास्त्र बुद्धिमान ला सकते थे, एक सूत्र लाना बहुत मुश्किल था। जितना कम बुद्धि का आदमी हो उतनी बड़ी किताब आसानी से लिख सकता है। छोटा सूत्र खोजना बहुत मुश्किल बात है। बड़ी कठिन बात है।
रुजवेल्ट से कोई पूछ रहा था कि अगर आपको दस मिनट बोलना हो, तो कितनी तैयारी करनी पड़ती है? रुजवेल्ट ने कहा: दस मिनट? दो दिन तैयारी करनी पड़ती है।
और उसने कहा: अगर दो घंटे बोलना हो?
तो उसने कहा: तैयारी की कोई जरूरत ही नहीं है, फिर तो मैं बोलना शुरू कर दूंगा।
बुद्धिमान जिनको हम कहते हैं, पंडित जिनको हम कहते हैं, वे बहुत फैलाव कर सकते हैं, लेकिन सिकुड़ना बहुत मुश्किल बात है। सीड्स, बीज पकड़ना बहुत मुश्किल बात है।
पंडित बहुत मुश्किल में हो गए। एक सूत्र जो सुख में भी काम आ सके, दुख में भी; जीत में भी, हार में भी; जीवन में भी, मृत्यु में भी? उन्होंने कहा: यह तो बड़ा मुश्किल है।
फिर एक फकीर के पास गए। उस फकीर ने कहा: यह सूत्र मैं लिखे देता हूं, लेकिन तुम मत देखना, क्योंकि तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। तुम्हारी समझ में आ सकता होता तो तुमने खुद ही खोज लिया होता। इसे बंद कर देता हूं एक ताबीज में। यह ताबीज सम्राट को दे देना और कहना, जब जरूरत पड़े खोल कर सूत्र पढ़ लेना।
ताबीज सम्राट को दे दिया गया। दो वर्ष तक ख्याल भी नहीं रहा, ताबीज पड़ा रहा गले में। फिर सम्राट हारा, दुश्मन जीत गया। सम्राट भाग रहा है। दुश्मन की ताकत पीछे आ रही है। सेनाएं सब भाग गईं हैं, बिखर गई हैं। हार निश्चित हो गई है। सम्राट जान बचाने को जंगल में भाग रहा है। दुश्मन पीछे हैं।
तेज घोड़ा सम्राट का आगे जाकर खड्ड पर ठहर गया है। नीचे खड्ड है, जहां आगे अब कोई जाने का एक क्षण भी, एक पल भी उपाय नहीं है। एक कदम आगे नहीं जाया जा सकता। पीछे दुश्मन आ रहा है। आवाजें बढ़ती जा रही हैं घोड़ों की टापों की। उसे ख्याल आया, अब क्या करूं? ख्याल आया, ताबीज। ताबीज खोला, एक छोटा सा वाक्य लिखा है, जिसका अर्थ है: दिस टू विल पास अवे, यह भी चला जाएगा। पढ़ा, हंसने लगा। कहा: देखें। देखें चला जाता है या नहीं? ख्याल आया कि जिंदगी में सब तो आया और चला गया, तो यह भी कैसे रुक जाएगा? हो सकता है चला जाए। और सच ही घोड़ों की तेज आती हुई टापें बिखर गईं।
जीवन के बहुत अनुभव उसे भी ज्ञात थे..सब आता है, सब चला जाता है। हो सकता है जो आज आ गया है यह भी चला जाए। अभी घबड़ा रहा था, अब हंस कर प्रतीक्षा करने लगा कि देखें, चला जाता है या नहीं?
अब तक खुद हिस्सेदार था, भाग था खेल का, अब द्रष्टा हो गया। देखें यह भी चला जाता है या नहीं? भूल गया कि मैं ही हिस्सा हूं अभिनय का एक। मैं ही मुसीबत में पड़ा हूं, यह भूल गया। मैं ही मौत के करीब खड़ा हूं, यह भूल गया। ख्याल आया, देखूं, यह भी चला जाता है या नहीं?
खड़े होकर घोड़े पर बैठे देखने लगा, द्रष्टा हो गया। आश्चर्य, पीछे से घोड़ों के टापों की बढ़ती आवाज धीमी-धीमी हो गई। वे कहीं और रास्ते पर भटक गए हैं जंगल में। जिंदगी के जंगल के रास्ते बहुत बड़े हैं। भटक गए कहीं। वह घोड़ा लौटा कर वापस लौट आया है। ताबीज बंद कर लिया, हंस रहा है।
और पंद्रह दिन बाद उसकी सेनाएं इकट्ठी हो गईं। वह जीत गया, वापस राजधानी लौट रहा है। स्वागत-सत्कार है, फूलमालाएं हैं, दीये जले हैं, धूप जली है, नृत्य है, राजमहल सजा है, वह वापस लौट रहा है। सीढ़ियां चढ़ कर खड़ा हो गया, सोने के सिंहासन पर बैठने को है, तब उसे फिर ख्याल आ गया। ताबीज खोल कर देखा, लिखा है: दिस टू विल पास अवे, यह भी बीत जाएगा। और खूब हंसने लगा है।
दरबारी पूछने लगे, आप हंसते हैं?
उसने कहा: अब हंसता ही रहूंगा। अब एक ख्याल आ गया है। सब बीत जाता है। और जो नहीं बीत जाता, वही मैं हूं। चीजें आती हैं और चली जाती हैं। सब आता है, बीत जाता है। जो बीत जाता है, उसी को पकड़ लेना व्यक्तित्व है, पर्सनैलिटी है।
अंग्रेजी का शब्द पर्सनैलिटी बहुत अदभुत है। वह ग्रीक ड्रामा में जो लोग ऊपर मुंह पर मुखौटे पहन कर नाटक करते थे, उस मुखौटे को कहते थे, परसोना। नाटक में चेहरा दूसरा लगा लिया, उस दूसरे चेहरे को कहते थे, परसोना। उसी से बना है पर्सनैलिटी। वह जो हम चेहरे लगाए हुए हैं जिंदगी में, और उन्हीं को पकड़ लिया है जोर से, वही हमारा व्यक्तित्व है।
उस सम्राट ने कहा: अब कोई फिकर नहीं। सिंहासन भी वही है, मौत भी वही है, हार भी वही है, जीत भी वही है। क्योंकि सभी बीत जाता है। जब सभी बीत जाता है, तो सभी समान है। सुख भी वही है, दुख भी वही है। मित्र भी वही, शत्रु भी वही। अपना भी वही, पराया भी वही। जब सभी बीत जाता है तो बराबर है। जो शेष रह जाता है, अब मैं उसकी ही खोज करूंगा। उस फकीर से जाकर पूछो कि शेष क्या रह जाता है? सब बीत जाता है, शेष क्या रह जाता है?
वे भागे हुए फकीर के पास गए। उस फकीर ने कहा: मुझसे मत पूछो। जो बीत जाता है, तुम उसको देखते रहो। तुम्हें उसका पता चल जाएगा जो शेष रह जाता है। वह मुझसे पूछने मत आओ, तुम सिर्फ इतने द्रष्टा बन जाओ कि जो बीत जाता है उसे देखते रहो। फिर जो शेष रह जाता है वही रह जाएगा। तुम वही हो, तुम वही हो जो शेष रह जाता है।
लेकिन क्या हम वही हैं जो शेष रह जाता है? क्या हम वही हैं जो जन्म के पहले थे? क्या हम वही हैं जो मृत्यु के बाद होंगे?
नहीं। हमने बहुत कुछ जोड़ लिया है। न मृत्यु के बाद हो सकते हैं, न जन्म के पहले थे। हमने बीच में बहुत कुछ जोड़ लिया है, इकट्ठा कर लिया है। वही हमारा ममत्व है, वही हमारा व्यक्तित्व है, वही हमारा फैलाव है, वही हमारा बंधन है, वही कारागृह है। कोई और नहीं बांधे है। हमने मैं को जितना फैला लिया है, उतने हम बंध गए हैं।
और ‘मैं’ हमने किस पर फैला लिया है? जो बीत जाता है। जो बीत ही रहा है। जो टिकता नहीं क्षण भर, रोज बीत जाता है। कल आप क्या थे, आज आप वही हैं? आप इस कमरे में आए थे, जो थे वही आप इस कमरे के बाहर जा सकेंगे? असंभव है। घंटे भर में गंगा का बहुत पानी बह गया।
आपके व्यक्तित्व का भी बहुत पानी बह गया। घड़ी भर पहले जो आप थे अब आप वही नहीं हैं। लेकिन मन यही माने चला जाएगा कि मैं वही हूं जो घड़ी भर पहले था। हम बंधे हुए, बहते हुए व्यक्तित्व को बांध कर बैठ गए हैं। आप वही सोच रहे हैं जो आप कल थे। वही हैं?
कोई वही नहीं है जो कल था। यहां तो सब बह रहा है। हां, गंगा के किनारे जाकर खड़े हो जाएं, तो ऐसा लगेगा, वही गंगा है जो कल आए थे। लेकिन जो जानता है वह कहेगा, वह गंगा अब कहां? वह पानी अब कहां? सब गया, अब सब नया है वहां, अब कुछ और ही बह रहा है। लेकिन भ्रम पैदा होता है, वही गंगा है। ऐसे ही भ्रम पैदा होता है कि वही मैं हूं जो कल था। वही आप नहीं हैं, वही मैं नहीं हूं, सब बह जाता है। लेकिन इस बहे हुए को हम पकड़े हैं कल्पना में, स्मृति में और अपने को समझे हैं कि मैं वही हूं।
इससे बहुत भ्रम पैदा होता है। बंधन और जाल पैदा होते हैं और व्यक्तित्व की तरलता ठोस, पथरीली हो जाती है, सालिड हो जाती है, पत्थर की तरह बोझिल हो जाती है।
कौन बांधे है, संसार? कौन बांधे है, पदार्थ? नहीं, हमारा ममत्व, हमारा मैं का भाव, हमने अपने को जो समझ रखा है। और क्या समझ रखा है? बहाव को समझ रखा है कि मैं हूं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि शरीर रोज बदल रहा है। कुछ मर रहा है, कुछ नया आ रहा है। आपके पास शरीर वही नहीं है घड़ी भर बाद। कुछ मर कर शरीर से बाहर फिंक रहा है, कुछ नया जीवित रोज शरीर को मिल रहा है। अभी एक क्षण पहले आपने जो श्वास ली थी बाहर हो गई है, अब वह आपके पास नहीं है। दूसरी श्वास आ गई है, और आप जान भी नहीं पाएंगे कि वह बाहर हो जाएगी। इतनी ही तेजी से सब बदल रहा है।
वैज्ञानिक कहते हैं, सात साल में पूरा शरीर बदल जाता है। एक कण भी वही नहीं बचता जो पहले था। और मन तो और तेजी से बदल रहा है। एक क्षण मन वही नहीं है जो था। सुबह क्रोध में थे, अब शांति में हो सकते हैं। अभी गाली दे रहे थे, अभी प्रार्थना कर रहे हो सकते हैं। अभी मन में आग लगी थी, अभी वर्षा हो रही हो सकती है। अभी कांटे ही कांटे थे, अभी फूल खिल गए हैं। मन प्रतिपल बदल रहा है, भाग रहा है, सब बदल रहा है।
शरीर और मन के इस बदलती हुई दुनिया को हमने समझ रखा है..मैं हूं, तो हम बड़े असत्य में उलझ गए हैं। और इस असत्य में उलझे हुए ज्ञान की, प्रकाश की यात्रा कैसे हो सकती है?
असत्य ही अंधकार है, असत्य ही अज्ञान है, और उसे हम पकड़े हुए हैं जोर से। छोड़ने का हमारा जरा भी हमारा मन नहीं है। मरते दम तक नहीं छोड़ना चाहते हैं। आखिरी क्षण तक हम अपने को पकड़े हुए हैं। जो छूट ही रहा है, जा ही रहा है, उसको पकड़े हुए हैं। मरने की यही तो पीड़ा है, बूढ़े होने की यही तो पीड़ा है, बदलने की यही तो पीड़ा है कि जिसे पकड़ते हैं वही छूटता चला जाता है।
लेकिन पकड़े हैं, पकड़ना नहीं छोड़ते हैं। जिसे पकड़ते हैं वह छूट जाता है, लेकिन पकड़ना नहीं छोड़ते हैं, फिर पकड़ लेते हैं, फिर पकड़ लेते हैं। ऐसा किं्लगिंग माइंड, यह पकड़ने वाला जो चित्त है, यह चित्त भीतर की यात्रा पर सबसे बड़ा अवरोध है, सबसे बड़ा हिंडरेंस है।
नहीं, संसार नहीं रोके हुए है, हम रुके हुए हैं। और यह स्मरण आ जाए, और यह ख्याल आ जाए, तो इस बंधन को तोड़ देना कठिन है? यह जरा भी कठिन नहीं। क्योंकि जो बंधन मैंने बनाए हों उन्हें तोड़ना कठिन कैसे हो सकता है?
एक छोटी सी कहानी और इस सुबह की चर्चा को मैं पूरा करूंगा।
मैंने सुना है, रोम पर एक बार हमला हुआ और वहां के सौ नागरिक पकड़ लिए गए। उन सबकी हत्या की जाने वाली है। वे जंगल में फेंक दिए जाएंगे। उसमें एक लोहार भी है। कुशल लोहार, जिसने जीवन भर लोहे के सामान बनाए हैं, वह भी पकड़ लिया गया। निन्यानबे लोग रो रहे हैं, वह लोहार हंस रहा है। उसके घर के लोगों ने कहा: तुम हंसते हो? हमारी, हमारी जिंदगी मिट गई तुम्हारे साथ। हम मरे! तुम खो रहे हो, हम कैसे बच सकेंगे तुम्हारे बिना? और तुम हंस रहे हो?
उसने कहा: घबड़ाओ मत, तुम जानती हो, तुम जानते हो, पत्नी से कहा, बेटों से कहा कि मैं लोहार हूं, जिंदगी भर मैंने लोहे के सामान बनाए, मेरी सारे जगत में यही ख्याति थी कि मुझसे बड़ा कोई कारीगर नहीं। मैं इन जंजीरों को तोड़ कर सांझ तक वापस आ जाऊंगा। घबड़ाओ मत। सूरज के ढलते मेरी प्रतीक्षा करना।
फिर वे सौ ही बड़े नागरिक दुश्मनों ने पकड़ कर जंजीरें पहना कर, ऐसी जंजीरें जो कभी नहीं खोली जातीं, जिनमें कोई ताला नहीं होता, जो मर जाएं, तो हाथ काट कर ही खुलती हैं..पैरों में, हाथों में जंजीरें डाल दीं। उन सौ ही आदमियों को जंगल में फेंक दिया। वे निन्यानबे आदमी तो रोते हुए जंगल में फेंके गए गड्ढों में, जंगली जानवर उन्हें खा जाएंगे। वह सौवां आदमी हंसता हुआ गड्ढे में गया।
गड्ढे में गिरते ही जो पहला काम उसने किया, जो कोई भी समझदार करता, हालांकि हम कभी नहीं करते, उसने जो पहला काम किया, जंजीरें गौर से देखीं कि जंजीरें क्या हैं? बहुत कम लोग हैं जो जंजीरें गौर से देखें कि जंजीरें क्या हैं?
रोना-चिल्लाना एक तरफ, पहले जंजीरें देखीं कि जंजीरें क्या हैं? जंजीरें गौर से देखीं, उसे पता है कि कितनी ही मजबूत जंजीर बनाई जाए, एक जगह कमजोर होती है जहां से जोड़ी गई होती है। कितनी ही मजबूत जंजीर भी एक जगह तो कमजोर होगी जहां से जोड़ी जाएगी। जोड़ सदा कमजोर होता है। जोड़ से ही चीजें टूटती हैं, ध्यान रहे, और कहीं से नहीं टूटती हैें। उसने कहा: जोड़ खोज लूं, जोड़ कहां है? जंजीर पर गौर किया, जोड़ तो था। लेकिन छाती पीट कर वह लोहार रोने लगा। अब तक हंसता था, अब रोने लगा।
एक फकीर ने गांव में देखा था इन सौ आदमियों को जाते हुए। फकीर ने देखा, निन्यानबे आदमी रो रहे हैं एक आदमी हंस रहा है। मालूम होता है इस आदमी को जिंदगी का राज मिल गया है। वह फकीर इसी खोज में था कि जिंदगी का राज मिल जाए। और जिंदगी का राज जिसको मिल जाता है वह मौत के सामने हंस सकता है। यह आदमी मरने को है, हंस रहा है?
फकीर पीछे हो लिया था कि जब दुश्मन छोड़ कर चले जाएंगे, इससे पूछू लूंगा जिंदगी का राज क्या है? मुझे भी बता दे, इसी की खोज में हूं, मौत के सामने मैं भी खड़े होकर हंस सकूं। यह मुझे भी बता दे। वह पीछे-पीछे छिपे चला आया था, वृक्ष के पीछे छिप कर खड़ा था।
जब लोहार को रोते देखा, तो वह हैरान हो गया। उसने कहा: मेरे मित्र, मुझे व्यर्थ तुमने भटकाया। इतनी देर हंसते रहे, अब रोते हो? और मैं यह पूछने आया था कि मौत के सामने हंसने की कला क्या है?
उस लोहार ने कहा: इससे मैं नहीं हंस रहा था। मुझे मौत-जिंदगी का कुछ पता नहीं, मैं तो सिर्फ लोहार हूं, बेड़ियां, कड़ियां बनाना जानता हूं। सोचा था, तोड़ दूंगा, लेकिन बहुत मुश्किल है। उसने कहा: क्यों? उसने कहा: बेड़ी पर मेरे हस्ताक्षर हैं, मेरी आदत थी जो भी मैं बनाता था उस पर हस्ताक्षर कर देता था। ये मेरी ही बनाई हुई जंजीरें हैं, इसलिए रो रहा हूं। यह कभी सोचा भी नहीं था कि जंजीरें ढाल रहा हूं वे मेरे ही ऊपर पड़ जाएंगी, नहीं तो कभी जंजीरें नहीं ढालता। आज रो रहा हूं, अपनी ही बनाई हुई जंजीर अपनी मौत बनी जाती है।
उस फकीर ने कहा: पागल, यह रोने की नहीं, हंसने की बात है। अगर तेरी ही बनाई जंजीरें हैं, तो तू तोड़ सकता है।
उस लोहार ने कहा: वही सोच कर हंसता रहा था कि तोड़ सकूंगा, लेकिन मुझे कमजोर चीज बनाने की आदत नहीं है। टूटना बहुत मुश्किल है। यही तो मेरी प्रसिद्धि थी कि मैं कमजोर चीजें नहीं बनाता हूं। बड़ी मजबूत जंजीरें हैं, टूटना बहुत मुश्किल है।
उस फकीर ने कहा: तू बिल्कुल पागल है। मजबूत कितनी ही हो जंजीरें, बनाने वाले से ज्यादा मजबूत नहीं हो सकतीं। बनाने वाले से बनाई गई चीज कैसे मजबूत हो सकती है? कोई चित्र किसी चित्रकार से बड़ा हो सकता है? असंभव। कितना ही बड़े से बड़ा चित्र चित्रकार से बड़ा नहीं हो सकता। और कितना ही बड़ा गीत गीतकार से बड़ा नहीं हो सकता। और कितना ही अदभुत संगीत संगीतज्ञ से बड़ा नहीं हो सकता। क्योंकि जो जिससे पैदा होता है उससे छोटा ही रह जाता है।
क्रिएटर से क्रिएशन बड़ा नहीं हो सकता। परमात्मा से दुनिया बड़ी नहीं होगी। कोई उपाय नहीं है। बनाने वाला सदा बड़ा रह जाता है। हम कितनी ही बड़ी मशीनें बना लें, कोई मशीन आदमी से बड़ी कभी नहीं हो सकती। वह बनाने वाला सदा पीछे बड़ा रह जाता है।
उस फकीर ने कहा: तू घबड़ा मत। अच्छा मैं जाता हूं। मुझसे तेरा कोई मतलब नहीं। मैं समझा था, तूने जिंदगी का राज पा लिया है, इसलिए आ गया। लेकिन इतना कहे जाता हूं कि घबड़ा मत। तू अगर जंजीरें बनाता रहा है, तो कोई जंजीर तुझसे बड़ी नहीं हो सकती। तू तोड़ सकता है।
और मैंने सुना है, सांझ होते वह लोहार अपने घर वापस पहुंच गया। उसने जंजीरें तोड़ ली होंगी।
लेकिन हममें से कितने लोग सांझ होते घर वापस पहुंचेंगे, यह कहना मुश्किल है। जंजीरें हमारी ही बनाई हुई हैं। जंजीरें हमसे कमजोर हैं। जंजीरों में कमजोर कड़ियां हैं, क्योंकि जहां से हमने जोड़ा है वहां वे कितनी ही मजबूत हों, तो भी मजबूत नहीं हो सकती हैं।
हम तोड़ कर घर वापस पहुंच सकते हैं। सांझ होते घर पहुंच जाएं, अच्छा है। उस घर को ही मैं प्रकाश कह रहा हूं। वह भीतर का जो घर है, उसको ही प्रकाश कह रहा हूं। और हमारी जो भटकन है चारों तरफ, उसी को मैं अंधकार कह रहा हूं। पहुंच सकते हैं घर आप भी। उधर घर में बहुत प्रतीक्षा हो रही है कि आओ। हम बाहर भटके चले जा रहे हैं।
एक तो हम जंजीरें कभी देखते नहीं कि किसकी बनाई हुई हैं। और अगर देख भी लेते हैं, तो रोते-चिल्लाते हैं और दूसरे को दोष देते हैं कि तुमने जंजीरें पहना दीं। ऐसे जंजीरें नहीं टूटतीं। किसी ने पहनाई हों, किसी की बनाई हों, जंजीरें तोड़नी पड़ेंगी। लेकिन यहां तो मजा यह है कि निश्चित ही सब जंजीरें हमारी बनाई हुई हैं, और जंजीरें हम तोड़ सकते हैं, और सांझ होते घर पहुंच सकते हैं।
अंतिम सूत्र के संबंध में कल सुबह बात करूंगा। सांझ आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा। जो भी प्रश्न हों वह लिख कर दे दें।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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