आठवां प्रवचन--आध्यात्मिक साम्यवाद
चार दिनों की चर्चाओं के संबंध में बहुत सारे प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। आज ज्यादा से ज्यादा प्रश्नों पर चर्चा कर सकूं ऐसी कोशिश करूंगा। और इसलिए बहुत थोड़े में उत्तर देना चाहूंगा।एक मित्र ने पूछा है: क्या आप प्रच्छन्न साम्यवादी हैं?
प्रच्छन्न होने की कोई जरूरत नहीं है, मैं स्पष्ट ही साम्यवादी हूं। किसने कहा कि प्रच्छन्न साम्यवादी हूं? मेरी दृष्टि में जो भी आदमी धार्मिक है वह साम्यवादी हुए बिना नहीं रह सकता। सिर्फ अधार्मिक आदमी साम्यवादी हुए बिना रह सकता है। जिस व्यक्ति को भी यह ख्याल है कि सबके भीतर एक ही परमात्मा का वास है, वह यह मानने को राजी नहीं हो सकता कि समाज में अर्थ की इतनी असमानताएं हों, इतनी गरीबी, इतनी अमीरी, इतने फासले हों। वह यह भी मानने को राजी नहीं हो सकता कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को विकास का समान अवसर न मिल सके।
साम्यवाद का एक ही अर्थ है कि हम प्रत्येक मनुष्य को बराबर मूल्य देना चाहते हैं और उसके जीवन की जो छुपी संभावनाएं हैं, उनके विकास का बराबर अवसर देना चाहते हैं। बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट और लाओत्सु, उन्होंने कभी साम्यवादी शब्द सुना भी नहीं होगा, लेकिन मेरी दृष्टि में वे सभी कम्युनिस्ट थे।
दुनिया का कोई भी अच्छा आदमी कभी भी कम्युनिस्ट न रहा हो, ऐसा होना मुश्किल है, असंभव। उन सबके मन में एक ही कामना है कि सारी मनुष्यता समान तल पर कैसे पहुंच सके। उन्होंने आत्मा की समानता की घोषणा की कि एक-एक व्यक्ति के भीतर बराबर समान स्तर की, समान मूल्य की आत्मा है, समान मूल्य का परमात्मा है। लेकिन वह घोषणा व्यर्थ चली गई। क्योंकि जब तक आर्थिक परिस्थितियां समान न हों, आत्मा की समानता को तय करना बहुत मुश्किल है। और जब तक बाहर भी समानता की सुविधा न हो, भीतर की समानता सिर्फ शब्द रह जाती है।
क्राइस्ट और बुद्ध और महावीर और लाओत्सु हार गए चिल्ला कर, क्योंकि बाहर की परिस्थितियां बिल्कुल ही असाम्यवादी हैं, असमानता की हैं, तो भीतर की समानता की बात सिर्फ शास्त्रों में रह जाती है।
मुझे लगता है कि आने वाली दुनिया में हम बाहर के जीवन की सारी असमानताओं को मिटा सकेंगे, और तभी पृथ्वी पर पहली बार ठीक धार्मिक संसार का निर्माण होगा, उसके पहले नहीं। जब तक समता स्थापित नहीं होती तब तक भीतर के समान परमात्मा का अनुभव भी बहुत मुश्किल है। और यह भी मेरी दृष्टि है कि जब तक गरीबी नहीं मिटती तब तक गरीब आदमी परमात्मा की तरफ वस्तुतः उत्सुकभी नहीं हो सकता है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि उनके कोई मित्र गरीब हैं, वे भी ईश्वर को पाना चाहते हैं। लेकिन रोटी-रोजी की तकलीफ में ही पड़े रहते हैं। क्या वे भी ईश्वर को पा सकते हैं?
यह सवाल ही कितना दुखद है और कितना पीड़ादायी है। एक आदमी ईश्वर को पाना चाहे, लेकिन रोटी-रोजी कमाने में ही जीवन गंवा देना पड़े, और फिर भी वह न मिल पाए। ऐसा हमने कुरूप, ऐसा हमने अजीब सा समाज निर्मित किया है कि कोई ईश्वर की खोज भी करने चला जाए, जाना चाहे, तो रोटी जैसी छोटी चीज बाधा बन जाए।
निश्चित ही रोटी बाधा बन सकती है। जीसस ने कहा है: मैन कैन नॅाट लिव बाइ ब्रेड अलोन। आदमी अकेली रोटी पर नहीं रह सकता। इसके साथ एक बात और जोड़ देनी जरूरी है कि आदमी रोटी के बिना भी नहीं जी सकता है। अकेली रोटी भी काफी नहीं है। रोटी मिलते ही और आवश्यकताएं शुरू हो जाती हैं। लेकिन अगर रोटी न मिले, तो सब आवश्यकताएं समाप्त हो जाती हैं और आदमी को बिल्कुल शरीर के तल पर जीना पड़ता है।
गरीब आदमी का सबसे बड़ा दुख है कि वह शरीर के तल के अतिरिक्त और कहीं जीने का रास्ता नहीं पाता। गरीब आदमी की सबसे बड़ी मजबूरी है कि उसे शरीर के आस-पास ही जीना पड़ता है। क्योंकि जहां जरूरत है..अगर पैर में कांटा गड़ा है, तो सारी आत्मा पैर के कांटे के पास ही इकट्ठी हो जाती है। सारी चेतना, सारी कांशसनेस पैर के कांटे में उलझ जाती है। सारा शरीर भूल जाता है, बस वह कांटा ही दृष्टि में और ध्यान में रह जाता है। उस समय कांटा ही परमात्मा हो जाता है।
गरीब आदमी की बड़ी गरीबी उसके धन की कमी नहीं है, मकान की कमी नहीं है, बड़ी गरीबी यह है कि उसे मजबूरी में शरीर के आस-पास ही जीना पड़ता है..कपड़े नहीं हैं, खाना नहीं है; बच्चा बीमार है, दवा नहीं है। और हमने जो समाज बनाया है, उसमें अधिक लोगों को हम ईश्वर की तरफ जाने का कोई मौका नहीं छोड़े।
दुनिया से गरीबी मिटे तो ही दुनिया में ईश्वर की खोज व्यापक पैमाने पर हो सकती है। दुनिया से गरीबी मिटे तो हर आदमी के लिए ईश्वर एक प्यास बन ही जाएगी। क्योंकि तब छोटी प्यासें पूरी हो जाएंगी। और जैसे ही छोटी प्यासें पूरी हो जाती हैं, छोटी जरूरतें निपट जाती हैं, बड़ी जरूरतें जिंदगी में पैदा होती हैं। जैसे ही शरीर का काम तृप्त हो जाता है वैसे ही आत्मा की यात्रा शुरू होती है।
मैं कहूंगा उन मित्र से जिन्होंने पूछा है कि वह गरीब आदमी क्या करे ईश्वर को पाने के लिए?
बहुत मुश्किल बताना मालूम पड़ता है कि गरीब आदमी ईश्वर को पाने के लिए क्या करे। यह ऐसे ही है जैसे कोई आदमी कहे कि एक बीमार आदमी भी कुश्ती लड़ना चाहता है, वह बीमार आदमी कुश्ती लड़ने के लिए क्या करे? वह बीमार आदमी शरीर से बीमार है। वही तो अड़चन बन गई है उसकी। गरीब आदमी की भी वही अड़चन बन गई है कि वह शरीर के तल पर बिल्कुल असमर्थ है। वह असमर्थता इतनी ज्यादा है कि उसे पूरा करना पहले जरूरी है, तभी पीछे उसकी कोई और आकांक्षा पैदा हो सकती है।
और अगर गरीब आदमी भगवान की खोज में भी जाए, अगर वह मंदिर में हाथ जोड़ कर भी खड़ा हो, और हम उसके हृदय को खोल सकें, तो हम पाएंगे कि वहां प्यास परमात्मा की नहीं है, वहां हाथ जा.ेड कर वह फिर रोटी मांग रहा है, नौकरी मांग रहा है, कपड़े मांग रहा है। भगवान के सामने भी वह भगवान के लिए जा सकता। उसकी जरूरतें बहुत नीचे की हैं। और इसमें वह कसूरवार नहीं है, इसमें हम सब जिम्मेवार हैं, इसमें हमारा पूरा समाज जिम्मेवार है।
हम कुछ लोगों को गरीब होने के लिए मजबूर किए हैं और हमने जो व्यवस्था चुनी है वह ऐसी है कि उसमें कुछ लोग अनिवार्य रूप से अमीर हो जाएंगे और अधिक लोग अनिवार्य रूप से गरीब हो जाएंगे। और जो अमीर होंगे उनका अमीर होना गरीबों के गरीब होने पर ही निर्भर होगा। यहां जितनी गरीबी बढ़ती जाएगी वहां उतनी अमीरी बढ़ती जाएगी। यह व्यवस्था एकदम अवैज्ञानिक, अधार्मिक, पापपूर्ण। इस पापपूर्ण व्यवस्था को तोड़ना जरूरी है।
लेकिन वे मित्र तो पूछेंगे कि मैं तो अभी गरीब हूं, यह व्यवस्था कब टूटेगी और कब यह व्यवस्था बदलेगी? मैं क्या करूं?
उनसे इतना ही कह सकता हूं, अगर सच में ही उनके मन में ईश्वर की प्यास पैदा हो गई है, तो मैंने तीन दिनों में जिन सूत्रों की बात कही है, आज सुबह विशेषकर जिन तीन सूत्रों की बात कहा हूं, उन पर थोड़े प्रयोग करें। कठिन होगा, लेकिन अगर संकल्प मजबूत हो, तो शरीर की जरूरतों को भूला जा सकता है और भीतर प्रवेश किया जा सकता है। हालांकि बहुत कठिन है।
उपनिषद में एक कथा है: उद्दालक ऋषि का बेटा गुरु के आश्रम से शिक्षा पाकर वापस लौटा है। गुरु के आश्रम में उसने वेदांत की ऊंची से ऊंची बातें सीखीं, बह्मज्ञान की चर्चाएं सुनीं। वह घर आया। और जैसे कि युवक ज्ञान से भरे हुए घर लौटते हैं विश्वविद्यालय से, ऐसा ही विश्वविद्यालय से ज्ञान से भरा हुआ घर लौटा। घर आकर उसने सुबह-सांझ ज्ञान की बातें शुरू कर दीं। वह, वह जब भी बात उठती, ब्रह्म की बात ले आता। उसका पिता बहुत हंसता।
उस बेटे ने पूछा, आप हंसते क्यों हैं? उसने कहा कि थो.ड़े दिन बाद तुम्हें बताऊंगा। तुम पंद्रह दिन का उपवास कर लो। उसके बेटे ने कहा: यह किसलिए? उसके बाप ने कहा: कुछ जरूरी बात तुम्हें बतानी है, इसलिए उपवास करना जरूरी है। उस बेटे ने उपवास किया। तीन दिन की भूख के बाद उसका बाप उससे पूछता है, क्या सोच रहे हो? वह कहता, सिवाय भूख के और कुछ सोच में नहीं आता। सिर्फ रोटी ही रोटी ख्याल में आती है। सात दिन बीत गए, बाप पूछता है, क्या सोच रहे हो? फिर पंद्रह दिन बीत गए, बाप ने कई बार पूछा। एक दफा उसने नहीं कहा कि ब्रह्म का विचार कर रहा हूं। पंद्रहवें दिन तो वह गुस्से में आ गया कि क्या बार-बार पूछते हैं कि क्या सोच रहा हूं, सिवाय भूख के और कुछ भी नहीं सोच रहा हूं। सिवाय रोटी के कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता।
उसके पिता ने कहा: ब्रह्म का कोई विचार नहीं आता? उसके बेटे ने कहा: ब्रह्म? पंद्रह दिन से कोई भी स्मरण नहीं है। तो उसके बाप ने कहा: मैं तुझे एक शिक्षा देना चाहता हूं, अन्न पहला बह्म है।
पहली जरूरत पूरी न हो तो ऊपर की बातें सब व्यर्थ हैं। तीन दिन खाना खाया है, फिर बह्मज्ञान वापस लौट आया है। इसका यह मतलब नहीं है कि बह्मज्ञान झूठा है। इसका कुल मतलब इतना है कि जीवन-चेतना पहली बुनियादी जरूरतों को पहले पूरा करती है, फिर बाद की जरूरतें हैं, ऊंची जरूरतें हैं।
हम एक मंदिर बनाते हैं, तो हम नींव के पत्थर पहले रखते हैं, पहले शिखर नहीं बनाते। पहले शिखर बनाने का क्या अर्थ है? नींव के पत्थर पहले रखते हैं, हालांकि नींव जमीन में दब जाएगी, कोई देखने नहीं आएगा। कोई मंदिर बनाने वाला सोच सकता है कि नींव के पत्थर क्यों भरते हैं, इसे तो कोई देखने आता नहीं है, नींव जमीन में दब जाएगी। लेकिन उसी पर पूरा मंदिर खड़ा होगा। और नींव के पत्थर ही अगर कमजोर हों, या न हों, तो शिखर के खड़े होने की कोई उम्मीद नहीं।
शरीर बुनियाद है मनुष्य के जीवन की, आत्मा शिखर है। शरीर ही मुश्किल में पड़ा हो तो शिखर की तरफ जाना बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन सामूहिक रूप से तो बहुत मुश्किल है कि गरीब समाज धार्मिक हो सके, लेकिन एक-एक व्यक्ति के तल पर चेष्टा की जा सकती है। लेकिन बड़ा श्रम लगेगा, व्यर्थ श्रम लगेगा। और वह श्रम यह होगा कि शरीर को थोड़ा विस्मरण करने की जरूरत पड़ेगी। रोज की सामान्य जरूरतों को घंटे भर के लिए कम से कम भूल जाने की चेष्टा करनी पड़ेगी। मुश्किल पड़ेगी यह बात। धनी को भूल जाना बहुत सुलभ है। और इसीलिए महावीर और बुद्ध राजाओं के बेटे सहज ही साधना की गहराइयों में जा सके, सहज ही।
आज अमरीका में संभावना है, रूस में भी कल संभावना है कि धर्म का एक बिल्कुल नवोत्थान हो जाए। और उसका कारण यह है कि सब जरूरतें पूरी हो गईं, आदमी पूछता है, शरीर की सब जरूरतें पूरी हुईं, अब क्या? और अब पहली दफा उसे लगता है और कोई नई दिशा मिलनी चाहिए, जीवन की चेतना जहां विकास करे।
लेकिन व्यक्तिगत रूप से गरीब से गरीब आदमी भी परमात्मा की तरफ जा सकता है। सामूहिक रूप से नहीं। जाने में संकल्प की जरूरत पड़ेगी। जाने में ध्यान रखना पड़ेगा..भूख का भी ध्यान रखना पड़ेगा। अगर भूख भी पेट में है, तो ध्यान रखना पड़ेगा कि भूख मुझे है या मैं भूख को जान रहा हूं? इस पर थोड़े श्रम उठाने पड़ेंगे। थोड़ी साधना करनी पड़ेगी।
जीवन की छोटी-छोटी जरूरतें मेरे बाहर हैं। पूरी नहीं हो रही हैं, तकलीफ है, उनका दंश है, घाव है, वह घाव मुझको ही लग रहा है या मैं अलग हूं? कठिन होगा।
स्वस्थ शरीर में शरीर को भूल जाना बहुत आसान है। बीमार शरीर में शरीर को भूलना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन भूला जा सकता है। शरीर से ऊपर उठा जा सकता है। दुख में भी हम जाग सकते हैं, सुख में भी जाग सकते हैं। दुख में भी हम जान सकते हैं कि दुख बाहर है, सुख में भी जान सकते हैं, सुख बाहर है और मैं पृथक हूं। और एक ही स्मरण आ जाए कि मैं पृथक हूं, तो जीवन में धर्म की शुरुआत हो जाती है।
नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कोई आदमी को धार्मिक बनना हो तो पहले वह धन कमाने की यात्रा पर निकल जाए। न, यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि पहले वह सम्राट हो जाए, तब धार्मिक हो सकेगा। मैं समाज के तल पर जरूरत की बात कह रहा हूं कि गरीब समाज का धार्मिक होना कठिन है, मुश्किल है। गरीब व्यक्ति हो भी सकता है।
सिकंदर हिंदुस्तान की तरफ आता था। जीतने निकला था सारी दुनिया को। रास्ते में यूनान छूटता था, तब किसी ने खबर दी कि पास ही एक नदी के तट पर एक डायोजनीज फकीर है, नग्न रहता है। सुना है सिकंदर कभी उसके बाबत। लोग कहते हैं कि बड़े से बड़े सम्राट भी उसके सामने फीके हैं। सिकंदर ने कहा: क्या? क्या है उस फकीर के पास? उन लोगों ने कहा: यही मजे की बात है, उसके पास कुछ भी नहीं है, एकदम नग्न नदी के तट पर वह पड़ा है। सिकंदर ने कहा: फिर मैं उसे देखना चाहूंगा।
सिकंदर गया है, सुबह का समय है, धूप निकली है, सर्दी के दिन हैं। नंगा डायोजनीज लेटा है रेत में। सिकंदर जाकर खड़ा हो गया है और डायोजनीज से उसने कहा है, आपके पास कुछ भी नहीं है और आप इतने आनंद से लेटे हुए हैं?
डायोजनीज ने कहा: तुम्हारे पास सब कुछ है, तुम आनंद में हो?
सिकंदर एक बार संदेह में खड़ा रह गया। कहा हंस कर कि ठीक कहते हो, सब कुछ है, लेकिन आनंद तो नहीं है। तो डायोजनीज ने कहा: सब कुछ होने से आनंद के होने का क्या संबंध है? और अगर सब कुछ होने पर भी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता कि आनंद नहीं मिला, और अभी भी तुम और बड़े साम्राज्यों को जीतने जाते हो, तो बड़े पागल हो! देखता हूं कई दिन से फौज-फाटे चले जा रहे हैं, तोपें जा रही हैं, सैनिक जा रहे हैं। कहां निकले हो? क्या इरादे हैं?
सिकंदर ने कहा: पहले एशिया माइनर जीतना है, फिर हिंदुस्तान जीतना है, फिर सारी दुनिया जीत कर वापस लौटना है।
डायोजनीज ने कहा, क्या मैं पूछूं, कि सारी दुनिया जीत कर क्या करोगे? अंत में क्या उद्देश्य है?
सिकंदर ने कहा: बस, आखिर में सब जीत कर आराम करना चाहता हूं। शांति से आराम करना चाहता हूं। वह डायोजनीज जोर से अपने कुत्ते को बुलाया जो उसके झोपड़े में बैठा था कि सुन, इधर आ। सिकंदर तो बहुत हैरान हो गया! डायोजनीज का कुत्ता भागा हुआ आया। उसने कहा कि देख पागल, कुत्ते से कहा, सिकंदर को देख, यह कह रहा है कि सारी दुनिया जीत लूंगा तब आराम से रहूंगा। और हम दोनों यहां बिना दुनिया को जीते आराम से रह रहे हैं। हमने बड़ी गलती कर दी, हम भी दुनिया जीत लेते! सिकंदर से कहा, लेकिन मैं पूछता हूं, अगर आराम से ही जीना है, तो मैं सबूत हूं कि आराम से जी रहा हूं। तो तुम भी आ जाओ, यह झोपड़ा काफी बड़ा है, हम दोनों इसमें समा जाएंगे। तुम भी यहीं आराम करो। आओ, लेट जाओ।
सिकंदर ने कहा: निमंत्रण के लिए धन्यवाद। और हिम्मत का निमंत्रण है, लेकिन बीच से कैसे लौट सकता हूं? अभी तो जाना पड़ेगा। निकल ही पड़ा हूं, तब तो दुनिया जीतनी पड़ेगी।
डायोजनीज ने कहा: तुम्हें हमें पता है कि दुनिया की यात्रा कभी पूरी नहीं होती। और जिसे लौटना हो आधे से ही लौटना पड़ता है। और क्या भरोसा, जिंदगी पूरी हो जाए और यात्रा पूरी न हो, तुम न आ पाओ? सिकंदर ने कहा: नहीं, कोशिश करूंगा। लौटते वक्त फिर मिलूंगा।
डायोजनीज अपने कुत्ते से फिर कहने लगा, ध्यान रखना, यह वायदा दे रहा है, हालांकि आदमी का क्या वायदे का भरोसा? आज है कल मौत आ जाए। क्या भरोसा? फिर सिकंदर ने कहा: मैं बहुत खुश हुआ मिल कर। इतना हिम्मतवर आदमी मैंने कभी नहीं देखा। वह अभी भी लेटा है। सिकंदर ने कहा: मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं? मेरे पास सब है।
डायोजनीज ने कहा: मेरे लिए क्या कर सकते हो, यह तुमने बड़ा कठिन सवाल पूछा। क्योंकि मेरे लिए करने को कुछ भी नहीं बचा है, सिर्फ एक कृपा करो, थोड़ा धूप छोड़ कर खड़े हो जाओ। धूप आ रही थी, तुम बीच में बाधा बन गए हो। इतना भर कृपा करो, थोड़ा धूप छोड़ दो। और ध्यान रहे, किसी की भी धूप मत छीन लेना। तुम आदमी खतरनाक मालूम पड़ते हो। तुम किसी की भी धूप छीन सकते हो। तुम्हारे हाथ में तलवार खतरनाक है।
सिकंदर हंसता हुआ, लेकिन मन में रोता हुआ विदा हुआ। बात तो चोट खा गई उसे कि एक आदमी जिसके पास कुछ भी नहीं है, आनंद को उपलब्ध हुआ है।
हो सकता है एक आदमी आनंद को उपलब्ध जिसके पास कुछ भी न हो। लेकिन बड़े साहस की, बड़े संकल्प की जरूरत है। जब कुछ पास न हो तब यह जानने की कि कुछ भी मिलने से कुछ न मिलेगा, बहुत कठिन है। जब सब मिल जाए तब यह जान लेना बहुत सरल है कि सब मिलने से कुछ भी नहीं मिल जाता है।
कुछ लोग कोशिश करें, तो नितांत दीनता में भी जान सकते हैं कि सब मिलने से भी कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन बहुत थोड़े लोग इतना संकल्प कर सकते हैं। लेकिन सब किसी को भी मिल जाए, साधारण से साधारण संकल्प के आदमी को समस्त मिल जाए, सारी पृथ्वी का राज्य मिल जाए, सब मिल जाए, तो उसे भी दिखाई पड़ सकता है कि कुछ भी नहीं मिला। सब मिल गया और कुछ चूक गया है। कुछ जिसकी प्यास थी वह नहीं मिल पाया है।
सिकंदर मन में रोता हुआ, ऊपर से हंसता हुआ लौटा।
हम सभी ऐसे हैं, मन में रोते हैं, ऊपर से हंसते रहते हैं।
उसके सेनापतियों ने उससे कहा भी कि आपकी हंसी आज बड़ी झूठी मालूम पड़ती है। फिर सिकंदर हिंदुस्तान के बाद वापस लौटा लूट कर और बहुत संपत्तियां लेकर। सोचा था कि डायोजनीज से जरूर मिलता चला जाऊंगा। लेकिन रास्ते में सिकंदर मर गया, पहुंच नहीं पाया।
हममें से बहुत लोग भी बाहर की खोज की यात्रा पर निकलते हैं, रास्ते में ही डूब जाते हैं, भीतर के घर तक पहुंच नहीं पाते। सिकंदर भी नहीं पहुंच पाया। मरते वक्त ख्याल तो आया होगा डायोजनीज का कि कहा था उस फकीर ने, पता नहीं, लौट पाओ, न लौट पाओ। अब उसका कुत्ता और वह दोनों हंस रहे होंगे कि देखो, सिकंदर नहीं लौट पाया।
लेकिन संयोग की बात कि जिस दिन सिकंदर मरा उसके घंटे भर बाद डायोजनीज भी मर गया। और यूनान में दोनों के मर जाने के बाद किसी होशियार आदमी ने एक कहानी प्रचलित कर दी कि उन दोनों का वैतरणी पर स्वर्ग में प्रवेश करते वक्त फिर मिलना हो गया। सिकंदर आगे है घंटे भर पहले मरा है, पीछे डायोजनीज है घंटे भर बाद मरा है। डायोजनीज नंगा फकीर था जब सिकंदर मिला था। सिकंदर बहुत कीमती आभूषणों और वस्त्रों से ढंका था। लेकिन आज सिकंदर भी नंगा है। डायोजनीज तो नंगा था ही, वह वैसा का वैसा है।
सिकंदर बहुत डरने लगा मन में। पीछे से खड़बड़ की आवाज सुनी, लौट कर देखा, डायोजनीज आ रहा है। उसके तो प्राण निकल गए होंगे। नंगा हूं आज, डायोजनीज ने उसी दिन सलाह दी थी कि आ जाओ, यहीं लेट जाओ, जगह काफी है। आज डायोजनीज फिर जोर से हंसेगा। डायोजनीज हंसने ही लगा। सिकंदर रुका। डायोजनीज के हंसने में कहीं डर न जाऊं, इसलिए उसने भी हंसने की कोशिश की। और जोर से हिम्मत बढ़ाने के लिए कहा, अपनी हिम्मत बढ़ाने के लिए। जैसे अंधेरे में आदमी जोर से गीत गाने लगे और सीटी बजाने लगे, ऐसा जोर से डर कर उसने भीतर हिम्मत बढ़ाने के लिए कहा, अच्छा, डायोजनीज हो! कितनी खुशी की बात है, एक बादशाह का एक फकीर से मिलना वैतरणी पर शायद ही पहले कभी हुआ हो?
डायोजनीज खूब हंसने लगा, उसने कहा, बिल्कुल ठीक कहते हो। लेकिन थोड़ी सी भूल करते हो। भूल यह करते हो कि कौन बादशाह है और कौन फकीर है, इसमें भूल करते हो। बादशाह पीछे है, फकीर आगे है। सिकंदर आगे है, डायोजनीज पीछे है।
डायोजनीज कहने लगा, तुम क्या लेकर आए हो, सब खोकर आए हो। और मैं कुछ भी खोकर नहीं आया, क्योंकि जो भी खोया जा सकता था वह मैंने खुद ही छोड़ दिया था। मैंने वही बचाया था जो खोया नहीं जा सकता। और तुमने वह सब इकट्ठा किया था जो खो ही जाएगा। कहां हैं तुम्हारे राज्य? कहां हैं तुम्हारे धन? कहां हैं तुम्हारे महल? कहां हैं तुम्हारी विजय की कहानियां? वे वेशभूषाएं कहां गईं? वे कीमती वस्त्र कहां गए? नग्न खड़े हो आज। हम यही सोच कर पहले ही नग्न हो गए थे कि न मालूम कब सब छिन जाए, तो हम नंगे ही दीन-हीन पड़े थे। तुमने उस दिन समझा होगा इसके पास कुछ भी नहीं है। हमने वही बचा लिया था जो बचता है अंत में। वह छोड़ दिया था जो छूट ही जाता है। और ध्यान रहे, जो चीज छूटनी है, जब छुड़ाई जाती है, तो दुख देती है और जब छोड़ दी जाती है तो सुख दे जाती है।
नहीं, गरीब भी धार्मिक तो हो सकता है, लेकिन बड़े संकल्प की जरूरत है, बड़े साहस की। लेकिन यह मेरा मानना है कि समाज, गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता है। इतना संकल्प कहां से जुटाएंगे? इतनी साधना कहां से लाएंगे? समाज तो समृद्ध होना ही चाहिए। समाज की समृद्धि जितनी बढ़ेगी, उतने धर्म के अवसर, संभावना बढ़ेगी। और इसलिए मेरी दृष्टि में पृथ्वी उस क्षण के करीब पहुंच रही है जहां हम गरीबी को मिटा देंगे, जहां हम दरिद्रता को पोंछ डालेंगे और जहां हम एक-एक आदमी की शरीर की सारी जरूरतें पूरी कर देंगे, उस दिन कितनी मानव चेतना इकट्ठी होकर परमात्मा की तरफ गमन करेगी, इसे आज कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन पृथ्वी अब तक अधार्मिक रही है। कुछ लोग धार्मिक हुए हैं। मनुष्य अधार्मिक रहा है, कुछ मनुष्य धार्मिक हुए हैं।
किसी दिन अगर हम जमीन को सुख और शांति और समृद्धि से भर दें, तो समाज धार्मिक होगा, व्यक्ति नहीं। व्यक्तियों के धार्मिक होने से कुछ होता भी नहीं है। कितना ही बड़ा व्यक्ति हो..महावीर हो, बुद्ध हो, कृष्ण हो, क्राइस्ट हो, क्या होता है? एक तारा चमक जाता है और फिर अंधेरे में खो जाता है। और हमारा घना अंधेरा अपनी राह पर चलता रहता है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है।
एक-एक व्यक्तियों के धार्मिक होने से मनुष्य का यह अधर्म का इतना अंधकार नहीं मिटेगा। सामूहिक तल पर, कलेक्टिव कांशसनेस के तल पर, सामूहिक चेतना के तल पर धर्म का अभ्युदय होगा, करोड़-करोड़ लोग एक साथ प्रभु की पुकार और प्यास से भरेंगे और खोज से भरेंगे जिस दिन उसी दिन पृथ्वी का सारा वातावरण बदलेगा। उसके पहले नहीं बदल सकता है।
बहुत घना अंधकार है। एक-एक दीया जलाने से नहीं टूटेगा। हजार-हजार, करोड़-करोड़ दीये जलने की जरूरत है कि अंधेरा टूट जाए। बहुत घनी दुर्गंध है, एकाध फूल खिल जाए पृथ्वी पर, सुगंध नहीं फैलेगी। गांव-गांव, घर-घर, एक-एक आदमी के प्राण पर फूल खिलेगा, तो सुगंध फैलेगी।
मनुष्य बहुत दुख में जीया है और बहुत पाप में और बहुत कष्ट में, बहुत चिंता में। उस चिंता, उस कष्ट, उस पाप को हम गरीबी को मिटाए बिना नहीं मिटा सकते हैं। इसलिए यह मुझसे मत पूछें कि मैं प्रच्छन्न कम्युनिस्ट हूं, छिपा हुआ कम्युनिस्ट? कोई नासमझ ऐसा कहता होगा। मैं तो बिल्कुल सीधा कम्युनिस्ट हूं।
लेकिन कम्युनिस्ट होने का मेरा मतलब किसी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होने से नहीं है। कम्युनिस्ट होने से मेरा मतलब यह नहीं है कि जो चीन में हो रहा है वह हिंदुस्तान में हो। कम्युनिस्ट होने से मेरा मतलब यह नहीं है कि रूस में एक करोड़ आदमियों की हत्या की गई तो हिंदुस्तान में की जाए। कम्युनिस्ट होने से मेरा मतलब यह है कि करुणा, प्रेम और सदभाव के जन्म से और लोकतांत्रिक जीवन-पद्धति के मार्ग से हम जितनी शीघ्रता से जीवन के पुराने ढांचे को तोड़ सकें उतना अच्छा है।
और कोई कम्युनिस्ट जो हिंसक है, मेरी दृष्टि में ठीक अर्थों में कम्युनिस्ट नहीं है, साम्यवादी नहीं है। क्योंकि हिंसा किसकी करोगे? जिन पर करुणा करके एक सुख का समाज निर्मित करना है उनकी ही। रूस में एक करोड़ लोगों की हत्या स्टैलिन के समय में हुई है। ये एक करोड़ लोग अरबपति तो नहीं हो सकते। एक करोड़ अरबपति होते रूस में तो फिर कहना ही क्या था? ये एक करोड़ लोग कौन होंगे? ये साधारण मजदूर थे, गरीब किसान थे, भिखमंगे थे। इनमें सब सम्मिलित थे। एक करा.ेड लोगों की हत्या के बाद अगर जबरदस्ती हम समाजवाद लाएं, वह कितनी देर टिकेगा? और स्टैलिन के मरने के बाद जैसे ही सख्ती थोड़ी ढीली हुई है, वह समाजवाद जो जबरदस्ती लाया गया था, बिखरना शुरू हो गया है। स्टैलिन के मरने के बाद रूस के कदम पूंजीवाद की तरफ रोज-रोज पड़े हैं। एक बहुत चमत्कारपूर्ण घटना घटनी शुरू हुई है। अमरीका रोज-रोज समाजवाद की तरफ कदम उठा रहा है, रूस रोज-रोज पूंजीवाद की तरफ कदम उठा रहा है। भविष्य में संभावना इस बात की है कि वे दोनों एक जगह आकर मिल जाएं, जहां रूस पूंजीवाद से समझौता कर ले, जहां अमरीका समाजवाद से समझौता कर ले, और एक बीच की व्यवस्था पैदा हो जाए। शायद वही सम्यक और स्वाभाविक व्यवस्था भी हो।
हिंसा से कोई समता नहीं लाई जा सकती है, क्योंकि हिंसा का भाव ही समता का विरोधी है। समता तो लाई ही जा सकती है करुणा से, प्रेम से, और इसलिए धर्म की एक चेतना फैलाने की जरूरत है।
मेरा कम्युनिस्टों से इस मामले में बुनियादी विरोध है कि वे अधार्मिक हैं या धर्म-विरोधी हैं? मेरी कल्पना के भी बाहर है कि धर्म के विरोध में होकर दुनिया में समता लाने का उपाय क्या है? और मेरी कल्पना के यह भी बाहर है कि जो आदमी मनुष्य के भीतर आत्मा को इनकार करता है और जगत में परमात्मा को इनकार करता है, फिर उसको गरीब के दुख की बात करनी फिजूल है। एक मशीन है, दुख में या सुख में, इससे क्या फर्क पड़ता है। एक मशीन को कोई दुख होता है? किसी मशीन को आप गरीब कहते हैं? किसी कार को अगर पैट्रोल न मिले तो गरीब हो गई? और किसी कार को पैट्रोल मिले तो अमीर हो गई? और हम लड़ाई-झगड़ा करेंगे कि जिस कार को पैट्रोल नहीं मिल रहा है इसकी मशीन को बड़ा दुख हो रहा है।
अगर माक्र्स की यह बात सच है कि मनुष्य पदार्थ है, तो दुनिया में समाजवाद लाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि आदमी नहीं है, मशीनें हैं, और मशीनों में न दुख होता है, न सुख होता है। तेल मिल जाए तो मशीन चलने लगती है, न मिले तो नहीं चलती है, खत्म हो जाती है। खत्म हो जाए, हर्ज क्या है। इसी वजह से स्टैलिन जैसा व्यक्ति एक करोड़ लोगों की हत्या कर सका, क्योंकि मशीनें हैं, काट दो, हर्जा क्या है। न कोई भीतर आत्मा है, न कोई संवेदनशील चेतना है। मरने पर कुछ बचता नहीं है। कम्युनिज्म की यह बात मौलिक रूप से कम्युनिज्म के विरोध में है। इसलिए मेरी जरा मुसीबत है। कम्युनिस्ट समझते हैं, मैं कम्युनिस्टों का दुश्मन हूं। कम्युनिस्टों के दुश्मन समझते हैं, मैं कम्युनिस्ट हूं।
मैं धर्म की जितनी गहराइयों में देख पाता हूं, मुझे दिखाई पड़ता है, धर्म और साम्यवाद एक ही चीज के दो पहलू हैं। धर्म भीतरी साधना है, साम्यवाद उसी साधना से हुए अनुभव का बाहर विस्तार है। अगर मैं अपने भीतर जाऊं और मुझे दिखाई पड़े प्रभु, और जिस दिन मुझे अपने भीतर उसकी ज्योति दिखाई पड़ती है, उसी दिन सबके भीतर उसकी ज्योति दिखाई पड़ने लगती है। तब द्वार पर भीख मांगते भिखमंगे को देख कर बहुत पीड़ा शुरू हो जाती है, क्योंकि मैं ही उसकी तरफ से खड़े होकर भीख मांग रहा हूं। और तब एक आदमी को सड़क पर भूखे मरते देख कर पीड़ा होनी स्वाभाविक है। क्योंकि आदमी नहीं है, परमात्मा ही भूखा तड़प रहा है और मर रहा है। और हम सब उसके पास से संवेदनहीन, इंसेंसिटिव, जड़ गुजरे चले जा रहे हैं!
नहीं, धर्म और साम्यवाद मेरे लिए एक ही अर्थ रखते हैं। कोई मुझसे पूछे, क्या आप धार्मिक हैं? तो मैं कहूंगा, हां। और कोई मुझसे पूछे कि आप साम्यवादी हैं? तो मैं कहूंगा, हां, मैं बिल्कुल साम्यवादी हूं। क्योंकि बिल्कुल धार्मिक होने के कारण साम्यवादी होने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। और अगर कोई धार्मिक आदमी, कोई साधु-संत, कोई महात्मा कहता हो कि वह साम्यवाद के विरोध में है, तो समझना कि उसे धर्म का भी अनुभव अभी शुरू नहीं हुआ, उसे धर्म की कोई प्रतीति शुरू नहीं हुई। वह किसी न किसी रूप में पूंजीवाद के एजेंट का काम ही कर रहा है और करता चला जाएगा।
और हजारों साल से साधु-संन्यासियों ने पूंजीवाद के एजेंट का काम किया है। एक सांठ-गांठ, एक कांसप्रेसी है, एक शड्यंत्र है। पूंजीवाद संन्यासी को बचाता है। मठ-मंदिर बनाता है, पीठ बनाता है, संन्यासी के लिए आश्रम बनाता है। पूंजीवाद संन्यासी को बचाता है। संन्यासी पूंजीवाद के लिए आड़ बनता है। वह गरीबों को समझाता है, ये अपने पुण्यों का फल भोग रहे हैं, तुम अपने पापों का फल भोग रहे हो। गड़बड़ नहीं करना। इसमें कुछ गड़बड़ किए, तो और पाप हो जाएगा। बगावत मत करना, विद्रोह की बात मत सोचना, संतोष रखो। गरीब को समझाता है, संतोष रखो, धैर्य रखो, सब ठीक हो जाएगा। भगवान अगर कष्ट भी दे रहा है, तो तुम्हारे ही हित में दे रहा है, उसमें भी कोई रहस्य छिपा होगा। और अगले जन्म में सब ठीक हो जाएगा। वह गरीब को समझाता है, गरीब रहने के लिए। अमीर को कहता है, तुम अपने पुण्यों का फल भोग रहे हो। ऐसे अमीर जितने पाप करता है उनको तो पुण्य का मुलम्मा देता है और ऊपर से सोने की वर्क चढ़ा देता है। और अमीर को भुलावा देता है कि पाप से नहीं हो रहा है धन इकट्ठा, पिछले जन्मों के पुण्य से हो रहा है।
अमीर के भीतर भी दंश पैदा हो सकता है, पीड़ा पैदा हो सकती है, गिल्टी, उसको भी लग सकता है कि मैं कोई अपराध कर रहा हूं। संन्यासी उसके अपराध-भाव को मारता है। उसकी जो गिल्ट फीलिंग है, उसको हटाता है। वह कहता है, तुम्हारे पुण्यों का फल है, तुमने पिछले जन्मों में किया होगा, उसका फल भोग रहे हो। पुण्यों के फल के कारण तुम अमीर के घर में पैदा हुए हो। पुण्यों के फल के कारण धन चला आ रहा है। जब कि धन मौलिक रूप से पाप के बिना न आता है, न इकट्ठा होता है। असल में हम कुछ पापों को पहचानते ही नहीं।
जब तक कुछ लोग गरीब न हो जाएं तब तक मैं अमीर नहीं हो सकता। कुछ लोगों को गरीब करके ही अमीर हो सकता हूं, यह अपराध नहीं है? प्रूधो ने कहा है, धन चोरी है। और ठीक कहा है। मगर ऐसी चोरी है जो समाज को स्वीकृत है। दो तरह की चोरियां हैं। एक, जिसको समाज स्वीकार नहीं करता। उस चोर को हम जेलखाने में बंद रखते हैं। एक ऐसी चोरी है जिसे समाज स्वीकृत करता है, उस चोरी को हम आदर देते हैं, सम्मान देते हैं।
संन्यासी ने, साधु ने सुरक्षा की है धनपति की और धनपति के भीतर अपराध-भाव पैदा होने से रोका है। और गरीब को संतोष दिया है। और इस भांति संन्यासी बीच में एक पर्त बन कर खड़ा हो गया है, जो जिंदगी और समाज को बदलने नहीं देता।
इसलिए हिंदुस्तान जैसे देश में, जो हमेशा से गरीब है, सबसे ज्यादा गरीब है, लेकिन जहां क्रांति की कोई बात भी पैदा नहीं हो सकती। क्योंकि हिंदुस्तान में संन्यासियों की बड़ी कतार गरीब और अमीर के बीच शॅाक एब्जार्वर का काम कर रही है। ट्रेन के डिब्बों के बीच में शॅाक एब्जार्वर लगे होते हैं। डिब्बे को धक्का लगता है, एब्जार्वर पी जाता है, डिब्बे के भीतर यात्रियों को पता नहीं चलता है। कार में सिं्प्रग लगे होते हैं, गड्ढा आता है सिं्प्रग गड्ढे को पी जाते हैं, भीतर बैठे आदमी को पता नहीं चलता।
हिंदुस्तान में क्रांति के धक्के पैदा ही नहीं हो पाते। साधु, महात्माओं, मंदिरों, मस्जिदों, पुरोहितों, पंडितों की एक लंबी कतार शॅाक एब्जार्वर का काम करती है, वह बीच में सब धक्के पी जाती है। गरीब को कहती है गरीब रहो, यह तुम्हारे कर्मों का फल है। और अगर अभी गड़बड़ की तो आगे भी गरीब रहोगे। शांति रखो, प्रार्थना करो, आगे ठीक हो जाएगा। अमीर को कहते हैं, तुम अपने पुण्यों का फल भोग रहे हो, उसकी अपराध-भावना को कम कर देती है। यह कतार धार्मिक नहीं है। धार्मिक होना मुश्किल है।
धार्मिक होने का इतना ही मतलब नहीं होता कि एक आदमी रोज भगवान के सामने घंटी बजाता हो, कि एक आदमी रोज तिलक-टीका लगाता हो, कि एक आदमी तीन घंटे जप करता हो। धार्मिक होने का इतना ही मतलब नहीं होता। धार्मिक होने का मतलब है: इतना संवेदनशील होना कि जीवन का सारा तथ्य दिखाई पड़ने लगे, जीवन के सारे तथ्य दिखाई पड़ने लगें। आंख इतनी संवेदनशील होनी चाहिए, चेतना इतनी निर्मल होनी चाहिए कि सब दर्पण की तरह दिखाई पड़ने लगे।
धार्मिक व्यक्ति को साफ-साफ दिखाई पड़ेगा, गरीब और अमीर जुड़े हैं। दोनों के बीच लेन-देन चल रहा है। एक शोषण की एक धारा बह रही है। एक नहर खुदी है, जहां से सब अमीर की तरफ चुपचाप चला आता है। सारा श्रम धीरे-धीरे अमीर के पास धन की तरह इकट्ठा हो जाता है। हमें पता नहीं कि ताजमहल किसने बनाया? एक कारीगर के नाम का पता नहीं? जिसने बनाया उसका कोई पता नहीं। जिसने कभी नहीं बनाया, जो कभी देखने भी नहीं गया होगा बनते वक्त, उसका नाम हमें पता है।
पिरामिड किसने खड़े किए इजिप्त में? कहते हैं, एक-एक पत्थर को चढ़ाने में पचास-पचास लोग मर गए, लेकिन कौन मरा उन पत्थरों को चढ़ाने में? क्योंकि के्रन तो नहीं थी। इतने-इतने बड़े पत्थरों को ऊपर चढ़ाने में निश्चित ही लोग मरे होंगे। हजारों लोगों का खून है, उनका कोई पता नहीं है। लेकिन जिसकी आज्ञा से यह हुआ...
और इजिप्त में जब बन रहे थे पिरामिड, तो एक बड़े पत्थर को जो आदमी की जान लेने वाला हो, उठाना बहुत कठिन है। तो पीछे घोड़ों पर सवार कोड़े मारने वाले लोग रहते थे कि जरा शिथिल हुआ मजदूर कि उसने कोड़े चलाए। कोड़ों की चोट में, कोड़ों से बचने के लिए बड़े से बड़े पत्थर को लेकर मजदूर चढ़ रहा है, फिसल पड़ा है पत्थर, दस-पचास मजदूर दब कर मर गए हैं। मजदूरों की लाशें हटा दी गईं, पचास दूसरे मजदूर जोत दिए गए हैं। पिरामिड खड़ा हो गया।
इतिहास बड़ा गुणगान करते हैं पिरामिड का कि बड़ी सुंदर कृति है। और ताजमहल का गुणगान करते हैं कि बड़ी सुंदर कृति है। लेकिन कितने लोगों का खून समा जाता है? कितने लोगों का श्रम समा जाता है? अगर हम दुनिया की सब बड़ी-बड़ी सुंदर कृतियां भी, उनके भीतर उतर कर देखें, तो उनकी कुरूपता बहुत महंगी मालूम प.ड़ेगी।
यह जो हमने संस्कृति और सभ्यता खड़ी की है, यह कितने शोषण पर खड़ी हुई है, यह कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन अब आगे यह नहीं हो सकता। आगे धार्मिक आदमी शॅाक एब्जार्वर का काम नहीं करेगा, और करेगा तो उसका दुनिया में बचने का अब कोई उपाय नहीं है। आज नहीं कल उसे विदा होना पड़ेगा। धार्मिक आदमी की एक बिल्कुल नई तस्वीर आने वाले भविष्य में प्रकट होनी चाहिए, तो ही धर्म बचेगा, वह तस्वीर।
अभी सुबह यहां कोई पढ़ रहा था, ओम् शांतिः शांतिः शांतिः। बहुत दिन से संन्यासी यही कहते रहे हैं। आने वाले संन्यासी को कहना प.ड़ेगा, ओम् क्रांतिः क्रांतिः क्रांतिः। बहुत हो गया शांति का स्वर, बहुत हो गया। बहुत दिन से सुन रहे हैं शांतिः शांतिः। कोई कहे क्रांति भी। और ध्यान रहे, क्रांति के बिना शांति नहीं हो सकती। इतनी अशांति है कि इस पूरी व्यवस्था को बदले बिना शांति नहीं हो सकती।
तो मैं कम्युनिस्ट हूं। छिपा हुआ कम्युनिस्ट नहीं, प्रच्छन्न कम्युनिस्ट नहीं, बिल्कुल स्पष्ट। लेकिन अपने किस्म का अकेला ही हूं, किसी पार्टी वगैरह में नहीं हूं। और कोई पार्टी बनाने को उत्सुक भी नहीं हूं, क्योंकि पार्टी सब नकलचियों की होती हैं। अकेले रहना ठीक है।
एक मित्र ने पूछा है, एक मित्र पूछते हैं: भगवान को जानें ही क्यों? क्या जानने की आवश्यकता है? इसके बगैर नहीं चल सकता?
चलाने की कोशिश तो हम सभी करते हैं, चल नहीं पाता। नहीं चल सकता है। भगवान शब्द का सवाल नहीं है, गहरे में सत्य की खोज का सवाल है, गहरे में स्वयं की खोज का सवाल है, और गहरे में आनंद की खोज का सवाल है।
इस सवाल को ऐसा पूछें कि हम आनंद को खोजें ही क्यों? क्या आनंद को बिना खोजे नहीं चल सकता? चल सकता हो, बिल्कुल चला लीजिए। चल नहीं सकता। चलाने की कोशिश हम करते हैं। भगवान शब्द से बड़ी गड़बड़ पैदा हो गई है। उसके भीतर जो छिपा है, वह छूट ही गया। भगवान से ख्याल आता है कहीं हनुमान जी का, कहीं रामचंद्र जी का, कहीं मंदिर का, कहीं मस्जिद का। भगवान से कुछ दूर और बाहर की चीज का ख्याल आता है, जो गलत है।
भगवान से मतलब केवल है सत्य का, जीवन के परम सत्य का। कैसे चल सकता है सत्य को जाने बिना? एक आदमी अंधेरे में चलते हुए कहे, प्रकाश के बिना नहीं चल सकता है? हम कहेंगे, कोशिश करो। टकराहट होती है, सिर फूटता है, गिर पड़ते हैं, टकरा जाते हैं। वह आदमी कहता है, बिना चलाने से कोई हर्ज है? हम कहते हैं, चलाओ। लेकिन चलता नहीं। रोज की टक्कर बताती है, दुख-संताप बताता है कि चलता नहीं है।
खोजना ही पड़ेगा आनंद को। धार्मिक आदमी उसे भगवान कहते हैं। वह सिर्फ नाम की बात है। आनंद कहें, ठीक होगा। सत्य कहें, ठीक होगा। प्रेम कहें, ठीक होगा। इन सबके जोड़ का इकट्ठा नाम है भगवान।
भगवान कोई व्यक्ति नहीं है कहीं दूर आकाश में बैठा हो, जिसे खोजने जाने की जरूरत हो। कोई जरूरत नहीं है। बैठे हो, बैठे रहो। अगर जरूरत हो, तुम खोजने आ जाना। ऐसा कोई भगवान नहीं है जिसे खोजने हमें कहीं जाना है। भगवान कोई व्यक्ति नहीं है। हमारे ही भीतर जो जीवन की ऊर्जा है, जो लाइफ एनर्जी है, हम जो हैं उसे बिना जाने कैसे चलेगा! हम अपने को ही नहीं जानते फिर हम दूसरे को भी नहीं जान पाते। फिर सारा जीवन कष्ट हो जाता है, संघर्ष हो जाता है। अज्ञान में चलेंगे, तो कष्ट होगा ही। हम अपने को पहचानते ही नहीं, इसलिए जो भी करते हैं वह हमें कष्ट में उतार देता है। जहां भी जाते हैं, कष्ट में उतर जाते हैं। यही पता नहीं कि क्यों जा रहे हैं, कौन है जो जा रहा है, क्या प्रयोजन है जाने का?
आप पूछते हैं: ‘बिना जाने नहीं चल सकता? ’
नहीं चल सकता। कभी नहीं चला। और अगर कोई चलाएगा तो सारी जिंदगी दुख और पीड़ा की लंबी कहानी हो जाती है। सारी जिंदगी, जन्म से लेकर मृत्यु तक एक दुख की लंबी यात्रा हो जाती है। सुख की आशा रहती है, दुख का अनुभव मिलता है। आशा सुख की रहती है, कल मिलेगा; मिलता दुख है रोज-रोज। कल की आशा में आज के दुख को हम झेल लेते हैं और चलते चले जाते हैं। मरते तक मौत आ जाती है, पता नहीं चलता।
ययाति की बहुत पुरानी कथा है। ययाति मरने को हुआ, सौ वर्ष का हो गया था। एक सम्राट था पुराना। मरने को हुआ, मौत आ गई। द्वार पर मौत ने कहा: ययाति, तैयार हो जाओ, मैं द्वार पर प्रतीक्षा करती हूं। ययाति ने कहा: आ गई तुम? अभी तो कुछ भी नहीं हुआ है; मैं कुछ कर ही नहीं पाया..न कोई सुख जाना, न कोई आनंद। अभी नहीं जा सकता हूं। ययाति घबड़ाने लगा। मौत ने कहा: लेकिन मुझे तो ले जाना पड़ेगा। अगर तुम्हारा बेटा कोई राजी हो, तो मैं उसको ले जाऊं। बिना लिए मैं जाने वाली नहीं हूं। पहले मौत नरम रही होगी, अब तो ऐसी नरम नहीं दिखाई पड़ती। अब तो उसी को ले जाती है जिसको ले जाना हो। पुराने जमाने की बात है, भोली-भाली रही होगी।
ययाति ने अपने बेटों को बुलाया। वे भी पुराने जमाने के बेटे थे, आज के जमाने के बेटे होते तो बुलाने से आते ही नहीं और मौत के वक्त तो बिल्कुल नहीं आते। बाप जिंदा हो, जेब गर्म हो, आ भी जाते। मरते बाप के पास कौन आता है? कहते हैं कि जल्दी-जल्दी समाप्त करो। लेकिन पुराने बेटे थे, आ गए।
बेटों से बाप ने कहा कि मुझे मौत लेने आई है और मैंने तो अभी जिंदगी में सुख जाना नहीं, तुममें से कोई अपनी जिंदगी दे दो, तो मौत के साथ चले जाओ।
बड़े बेटे तो होशियार थे। वे तो इधर-उधर देखने लगे। जैसे उम्र बढ़ती है आदमी की चालाकी बढ़ जाती है। छोटा बेटा था, वह इतना चालाक नहीं था। उसने कहा: ठीक है, मैं चला जाता हूं। और फिर उसने कहा कि जब तुम्हें सौ वर्ष में कुछ सुख नहीं मिल पाया, तो मैं नाहक सौ वर्ष क्यों मेहनत करूं, चला ही जाऊं। सौ वर्ष के बाद मुझको जाना पड़ेगा, यह मेहनत मैंने देख ली। तुम्हें सौ वर्ष में नहीं मिला, तो मैं चला जाता हूं। बुद्धिमान भी रहा होगा। जो चालाक नहीं होते, वे ही बुद्धिमान भी हो सकते हैं। चालाक आदमी बुद्धिमान कभी नहीं होता। लेकिन चालाकी अक्सर बुद्धिमानी मालूम पड़ती है।
बेटा चला गया, मौत ले गई। फिर सौ वर्ष बीत गए कब, पता नहीं चला। जिंदगी कब बीत जाती है, पता चलता ही नहीं। बीत जाती है, तभी पता चलता है। जा चुकी होती है, तभी पता चलता है। उसकी छाया दिखती है जाती हुई। आती हुई जिंदगी दिखती नहीं। बस गई और पता चलता है कि निकल गई हाथ से। सौ वर्ष फिर बीत गए। कब बीत गए, पता न चला। ययाति ने सोचा, सौ वर्ष बहुत बड़े हैं, खोज लेंगे। मौत फिर आ गई, द्वार पर दस्तक दी, ययाति घबड़ाया। उसने कहा: फिर तुम आ गई? क्या सौ वर्ष पूरे हो गए? मौत ने कहा: तुम कहते क्या हो? क्या किया इतने दिन? तुम फिर वैसे ही उदास दिखाई पड़ते हो? उसने कहा: लेकिन अभी तो कुछ नहीं हो पाया। रोज-रोज खोजता हूं सुख को, मालूम होता है, कल मिलेगा। आज निकल जाता है, कल आ जाता है, आशा फिर कल पर चली जाती है। और रोज दुख मिलता है, आशा में सुख रहता है। सौ वर्ष और दे दो, अभी तो मैंने कुछ जाना नहीं। मौत ने कहा: यह तो बहुत मुश्किल है। फिर किसी बेटे को राजी करो।
सौ वर्ष में फिर नये बेटे पैदा हो गए थे, पुराने बेटे तो मर चुके थे। फिर एक बेटा राजी हो गया, ऐसी कहानी चलती है। ययाति इस तरह एक हजार वर्ष जीया। और एक हजार वर्ष के बाद जब मौत ने दस्तक दी, तब वह ठीक उसी हालत में था जैसी पहली बार सौ वर्ष की उम्र पर दस्तक दी थी। उसने कहा: अच्छा, अब ले ही चलो। हालांकि सुख अभी मिला नहीं, लेकिन अब वह मिलेगा भी नहीं।
ययाति की कहानी तो कहानी है। लेकिन जो जानते हैं, वे कहेंगे, हम भी बहुत सौ बार जी चुके हैं। शरीर बदल जाता है। ययाति का भी बदल गया। बेटे का मिल जाता था। उम्र मिल जाती थी, शरीर बदल जाता है। बहुत जन्म हम भी ले चुके हैं, बहुत बार जी चुके, फिर वही सुख की खोज है, वह मिलता नहीं। मरते हुए आदमी से पूछो, सुख मिला? अगर वह बेईमान न हो, या बच्चों को धोखा न देना चाहे, और बूढ़े बच्चों को धोखा दे रहे हैं। अगर बूढ़े सब सत्य प्रकट कर दें, जिंदगी बहुत और दूसरी हो जाए। लेकिन जो उनके बूढ़ों ने उन्हें धोखे दिए थे, वह अपने बेटों को दिए चले जाते हैं। इल्युजन, भ्रम कायम रहता है। पूछो मरते हुए आदमी से, सुख मिला? वह इतना ही कहेगा: मिलने की आशा थी, मिला नहीं।
एण्ड्रू कारनेगी मर रहा था, अमरीका का एक बहुत बड़ा अरबपति। शायद पृथ्वी पर इतना पैसा किसी दूसरे आदमी के पास नहीं था। कहते हैं, दस अरब रुपया पीछे छोड़ कर मरा। मर रहा है, उसकी जीवन-कथा लिखने वाला लेखक उससे मरने के दिन पूछा कि कारनेगी, आप तो प्रसन्न मर रहे होंगे, दस अरब रुपये दुनिया में शायद ही कोई कभी छोड़ गया हो। आपको आनंदित होना चाहिए, आप एक सफलतम व्यक्ति हो। कारनेगी ने क्रोध से कहा: सफल! क्या कहते हो? सिर्फ दस अरब! मेरे सौ अरब कमाने के इरादे थे। सब असफल हो गया। और अगर कार्नेगी जिंदा रह जाता और सौ अरब कमा लेता, तो भी वह ऐसे ही कहता, सौ अरब! जैसे सौ नये पैसे। क्योंकि तब तक आकांक्षा की यात्रा और आगे चली गई होती।
सुख हमारी आकांक्षा है, दुख हमारा अनुभव। और दुख के अनुभव को हम झेल लेते हैं सुख की आकांक्षा के कारण। और रोज-रोज झेल लेते हैं और भूल जाते हैं, और भूल जाते हैं, और भूल जाते हैं। रोज-रोज वही और जन्म-जन्म वही। अगर चला सकते हो ऐसा ही तो चला लें। लेकिन धर्म कहता है, ऐसे नहीं चल सकता।
सत्य को जानना ही पड़ेगा। क्योंकि सत्य को जाने बिना आनंद नहीं मिलता, सिर्फ सुख की आशा बनी रहती है। और सत्य को जानते ही आनंद उपलब्ध होता है, दुख विलीन हो जाता है। सत्य को जाने बिना मृत्यु निरंतर खड़ी ही रहती है। सत्य को जाने बिना चिंता मिट ही नहीं सकती। सत्य को जाने बिना हमारे भटकाव का, हमारे कहीं भी उतराने-तैरने, किन्हीं भी तटों पर भटकने का यह व्यर्थ क्रम नहीं मिटता। सत्य को जानते ही हम एक दूसरी जीवन यात्रा में प्रविष्ट होते हैं, जहां अर्थ है, मीनिंग है, जहां आनंद है, बिलिस है और जहां एक शांति है। जिसे हमने कभी नहीं जाना, जो अपरिचित है, जिसकी हमें कोई पहचान नहीं।
तो मित्र पूछते हैं: ‘चल जाएगा ईश्वर को जाने बिना? ’
कोशिश करें। चल जाए तो अच्छा है। वैसे कभी किसी का चला नहीं; कोशिश असफल हो गई है सदा। और आखिर में पता चला है कि भटक गया जीवन। अगर इतनी ताकत सत्य को, स्वयं को, प्रभु को खोजने में लगाई होती तो पता नहीं क्या हो जाता। चैबीस घंटे कुछ और करते रहें, पांच मिनट भी उसकी खोज जारी रखें, तो जीवन के अंत में पाएंगे कि बाकी चैबीस घंटे व्यर्थ गए, वह जो पांच मिनट उसकी तरफ लगाए थे, वही साथ बच गए हैं, वही संपत्ति बन गए हैं। बाकी सब विपत्ति सिद्ध हुआ है। लेकिन स्मरण नहीं आता है।
एक मित्र ने और पूछा है कि क्या युवक आदमी भी धर्म की बातों में पड़ जाएं? यह तो एक उम्र के बाद की बातें हैं।
ऐसा ही समझाया गया है आज तक। आज तक यही बताया गया है कि वृद्ध का काम है धर्म। अगर वृद्ध का काम धर्म है, तो फिर जवान का काम अधर्म हो जाए, तो इसमें आश्चर्य नहीं है। आखिर जवान भी तो कुछ करेगा। अगर वृद्ध का काम धर्म है, तो जवान क्या करेगा? तो हमने यह मान लिया है कि जवान अधर्म करे तो चलेगा, वृद्ध भर को धार्मिक होना चाहिए। लेकिन वृद्ध को ही क्यों धार्मिक होना चाहिए? उसका ही क्या कसूर है? उसके कारण दूसरे हैं।
जैसे ही मौत करीब आती है, आदमी के पैर डगमगा जाते हैं। जैसे ही मौत सामने आने लगती है, वैसे ही आदमी को लगता है जो मैंने किया वह व्यर्थ गया। मौत के सामने लड़ने में मैंने जो कमाया है उसकी क्या ताकत। मेरे रुपये किस काम आएंगे इस मौत के सामने आने पर, मेरा पद रोकेगा मुझे, यह मौत सामने खड़ी। वह घबड़ाने लगता है। वह सोचता है: अब परमात्मा को पुकार लूं, ईश्वर को खोजूं। अब मौत से डर कर खोजता है। डर से कहीं सत्य की खोज हुई है।
मरते वक्त लोग सोचते हैं, ईश्वर का स्मरण कर लेंगे, और बेईमानों ने यह सिखाया है कि मरते वक्त एक दफा नाम भी ले लोगे तो सब ठीक हो जाएगा। अब ये बिल्कुल झूठी बातें हैं। जिस आदमी की पूरी जिंदगी और थी, वह मरते वक्त राम का नाम ले कैसे सकेगा? मरते क्षण में तो वही हमारी चेतना में होगा, जो जीवन भर का निचोड़ और निष्कर्ष है। मृत्यु के क्षण में तो सारे जीवन का सार हमारी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है। जो लोग कभी पानी में डूबे हैं और मर नहीं पाए, उन लोगों का अनुभव यह है कि डूबते वक्त जब लगता है कि मर रहे हैं, तो सारी जिंदगी की तस्वीरें एकदम से घूम जाती हैं, जैसे फिल्म के पर्दे पर तेजी से फिल्म घूम गई हो, एक सेकंड में सारी जिंदगी घूम जाती है। और वह जिंदगी का जो सार है आंख के सामने खड़ा हो जाता है।
मरते वक्त हमारे चित्त में वही होगा जो जीवन भर हमने संवारा है। मरते वक्त राम नहीं हो सकता। कैसे होगा? लेकिन होशियार और चालाक लोग कहते हैं कि अगर तुम्हारे मन में न भी हो तो कोई हर्ज नहीं, एक किराए का पंडित बुला लेना, वह कान में राम-राम, राम-राम करता रहेगा। अब कहीं किराए से भी धर्म उपलब्ध हुआ है? कि एक आदमी तुम मरना और एक आदमी भगवत गीता पढ़ेगा। तुम मरना और एक आदमी इधर नमोकार-मंत्र पढ़ेगा, तो मरना और कान में सब कह देगा जो कहना है कि तुम्हें जानना है। मरते क्षण सुनने की हैसियत भी नहीं रह जाती है आदमी की, और अगर उसका वश चले तो वह कहेगा बकवास बंद करो। क्योंकि उसे सब यह बकवास मालूम पड़ेगी। वह तो बेहोश हो रहा है इसलिए कुछ कह नहीं सकता। सुन रहा है बेचारा, तुम बके चले जा रहे हो। जिसने जिंदगी भर इसको बकवास समझा, आज मरते वक्त यह सार्थक कैसे हो जाएगी?
जीवन एक सतत धारा है। जैसे गंगा बहती है गंगोत्री से गंगासागर तक। एक सतत धारा है। जो गंगोत्री में है वही सागर में गिरते वक्त है बड़ी होकर। वही मूल-स्रोत बढ़ता हुआ चला आया है। कोई कहे कि गंगा काशी तक तो पवित्र नहीं रहती अपवित्र रहती है और काशी पर आकर एकदम पवित्र हो जाती है, तो हम नहीं मानेंगे कि हो कैसे जाएगा? अपवित्र गंगा की धारा काशी पर भी अपवित्र रहेगी। जो धारा आई है उसी की कंटिन्युटी, उसी का सातत्य तो रहेगा। जीवन की चेतना एक धारा है। जीवन भर जिस धारा में जो रहा है, मरते क्षण भी वही रहेगा। धारा नई कैसे हो जाएगी?
नहीं, जवान आदमी को ही नहीं छोटे बच्चे को भी धार्मिक होने की जरूरत है। अगर मृत्यु के क्षण तक प्रभु का साक्षात्कार कर लेना हो, तो जन्म के पहले दिन से ही यात्रा की व्यवस्था शुरू हो जानी चाहिए। यह अंत में छोड़ देने की बात नहीं, कल पर टाल देने की बात नहीं। क्योंकि सबसे ज्यादा अल्टिमेट, सबसे ज्यादा चरम प्रश्न ही यही है कि मैं स्वयं को और सत्य को कैसे जान लूं, मैं वहां कैसे पहुंच जाऊं जहां अंधकार नहीं प्रकाश।
नहीं, इसे हम अंत पर नहीं छोड़ सकते हैं। यह आखिर में नहीं होगा। यह हमें रोज जीना पड़ेगा। हम मान लेते हैं आखिर में होने की बात, क्योंकि हमको खुद पोस्टपोन करने में सुविधा मालूम पड़ती है कि कल देखेंगे, परसों देखेंगे, नरसों देखेंगे। कल का भरोसा है? परसों का भरोसा है? एक क्षण का भरोसा नहीं है। इस क्षण में जो जरूरी है, वह मुझे कर लेना चाहिए। और सबसे ज्यादा जरूरी धर्म है, बाकी सब चीजें उससे पीछे हैं, नंबर दो हैं। नंबर एक और कोई चीज नहीं हो सकती।
तो मैंने ये जो, ये जो बातें कहीं, ये वृद्धजनों के लिए नहीं कहीं। और वृद्धजनों में भी केवल वे ही इन बातों को कर पाएंगे जो शरीर से ही वृद्ध हो गए हैं, मन से युवा हैं। असल में करने के लिए युवापन चाहिए ही। चाहे शरीर में, चाहे मन में। युवा ही कुछ कर सकता है। जैसे-जैसे वृद्ध होता जाता है व्यक्ति शरीर से, तो होता ही है, अगर मन से भी वृद्ध हो जाए, तो फिर नया कुछ भी करना असंभव हो जाता है।
वृद्ध होने का एक ही लक्षण है: नया सीखने की असमर्थता। वृद्ध नया नहीं सीख सकता, पुराने को सिर्फ दोहरा सकता है। सीखने की क्षमता कम हो जाती है। जो सीख लिया उसी में जीने की क्षमता रहती है। जीवन भर सीखा संसार, मरते वक्त सत्य कैसे आ जाएगा? जीवन भर सीखा अधर्म, अंतिम क्षण में धर्म कैसे आ जाएगा? बीज हम जिसके बोएंगे, फल भी उसी के उपलब्ध होते हैं। और कडुए बीज बोए हैं, तो मीठे फलों की संभावना नहीं।
इसलिए यह बात बिल्कुल जड़ से उखड़ कर फिंक जानी चाहिए कि धर्म वृद्धों का काम है। धर्म पूरे जीवन की साधना है पहले दिन से। बल्कि जो बहुत गहरे में जानते हैं, वे कहेंगे, गर्भाधारण के क्षण से, जिस क्षण से मां के पेट में गर्भ निर्मित हुआ है, उस क्षण से धर्म की साधना शुरू हो गई। और अगर मां समझदार हो तो अब इन नौ महीनों में एक जीवन जो उसके भीतर विकसित हो रहा है, अगर उसका उसे थोड़ा भी ध्यान हो, तो शायद बिल्कुल दूसरे तरह का व्यक्ति पैदा हो सके।
लेकिन वह लड़ रही है, क्रोध कर रही है, गालियां दे रही है। सब संघर्ष चल रहा है, सब चिंता चल रही है। इस सबके संस्कार उस छोटे से भ्रूण पर पड़ते हैं। वह सब निर्मित हो रहा है। कल वह बच्चा क्रोधी की तरह खड़ा होगा, तब यह मां सिर पीटेगी कि यह दुष्ट कहां से पैदा हो गया? यह दुष्ट और कहीं से पैदा नहीं हुआ, आपसे ही पैदा हुआ है। बाप कहेगा कि ऐसा नालायक लड़का पैदा हो गया है। लायक बाप को नालायक लड़का पैदा हो कैसे जाएगा?
जीवन के प्रथम क्षण से निर्माण शुरू हो गया है। किस क्षण में, किस भाव में, किस प्रार्थना के मन में बच्चे का गर्भाधारण हुआ है वह उसके पूरे जीवन की यात्रा का बीज शुरू हो गया है। बलात्कार से भी एक बच्चा पैदा हो सकता है, लेकिन उस बच्चे की संभावना बहुत भिन्न होगी। अत्यंत प्रेम से भी एक बच्चा पैदा हो सकता है, उसकी संभावना भिन्न होगी। और अत्यंत प्रेयरफुल मूड में, प्रार्थना से भरे हुए भी एक बच्चा पैदा हो सकता है, लेकिन उसकी संभावना और भी भिन्न होगी। कैसे बच्चा, शुरू हुई है यात्रा उसकी...फिर मां के पेट में नौ महीने, मां ने क्या किया है, उस घर में क्या हुआ है।
अभी तो मनोवैज्ञानिक परीक्षण करते हैं, तो बहुत हैरान हैं। वे तो यह कहते हैं कि मां के पेट में बच्चा है और अगर चारों तरफ लाल रंग की दीवालें पोत दी जाएं, तो बच्चा क्रोधी हो जाएगा। क्योंकि लाल रंग क्रोध को पैदा करता है। छोटे-छोटे बच्चों को हम लाल रंग के खिलौने देते हैं, वैज्ञानिक नहीं है। बच्चों को लाल रंग के खिलौने देना एकदम खतरनाक है। क्योंकि लाल रंग सब तरफ से भीतर क्रोध के परमाणुओं को सजग करता है। इसीलिए तो क्रुद्ध लोग लाल रंग को चुनते हैं। कम्युनिस्ट लाल झंडा चुनते हैं। क्रुद्ध, वह जो क्रोध का प्रतीक है वह। क्रोध है, तो उसके लिए लाल रंग चुन लेते हैं।
आप जंगल में जाते हैं, वृक्षों को देख कर मन शांत हो जाता है। वह सिर्फ हरे रंग का प्रभाव है, और कुछ भी नहीं है। लंबी हरियाली मन के सारे परमाणुओं को शांति की तरफ झुका देती है। अगर एक मां के पेट में बच्चा है, तो दीवालें लाल हों कि हरी, यह भी धार्मिक आदमी विचार करेगा कि दीवाल कैसी हो, मां कैसे कपड़े पहने, कैसा संगीत सुने।
संगीत के नाम पर तो सिवाय लड़ाई-झगड़े के और कुछ संगीत सुनने को मिलता नहीं। लड़ाई-झगड़ा चल रहा है वही संगीत है। घर में वही संगीत है। चैबीस घंटे कलह चल रही है बहुत-बहुत रूपों में। उसी का ताल, पद, जो भी है, वही कलह भी है। सितार कहो, संगीत कहो, वही कलह जो चैबीस घंटे चल रही है, वही कलह है। उस कलह के बीच बच्चा निर्मित हो रहा है। एक छोटा-छोटा और फिर मां के पेट से बच्चा आया है तो हमें ख्याल ही नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं। अगर धार्मिक जीवन की तरफ चेतना को ले जाना हो तो अत्यंत छोटी बातों पर ध्यान रखना पड़ेगा।
मैंने सुना है, नेपोलियन छह महीने का था, झूले पर सोया हुआ है, एक जंगली बिल्ली सवार हो गई उसकी छाती पर। नौकरानी जरा बाहर चली गई होगी। आवाज सुनी रोने की, भीतर आई। बिल्ली को हटा दिया। कोई नुकसान नहीं हुआ था। लेकिन बिल्ली नेपोलियन की छाती पर चढ़ गई थी..छह महीने का बच्चा। आप जान कर हैरान होंगे, नेपोलियन जिंदगी भर बिल्ली से डरता रहा। शेर से नहीं डरता था, बिल्ली से डरता था। और यह जान कर आप और भी हैरान होंगे कि जिंदगी में सिर्फ एक बार नेपोलियन हारा। और जिस युद्ध में हारा, उसमें नेल्सन, उसका दुश्मन, सत्तर बिल्लियां फौज के सामने बांध कर लाया हुआ है। और जैसे ही नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं, उसने अपने बगल के सेनापति को कहा, अब तुम सम्हाल लो, मेरी हिम्मत टूटती है। क्योंकि मैं जानता हूं, बिल्ली से डरने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन मैं अवश हूं। बिल्ली दिखती है, बस मेरा सब होश-हवाश सब खो जाता है।
राजनीतिज्ञ कहेंगे कि नेल्सन ने हराया, मनोवैज्ञानिक कहेंगे, बिल्लियों ने हराया। और सच में बिल्लियों ने ही हराया। नेल्सन की ताकत नेपोलियन को हराने की नहीं थी। छह महीने की उम्र में बिल्ली का छाती पर बैठना इतना बड़ा संस्कार ला सकता है कि सारी मनुष्य-जाति का इतिहास दूसरा हो। अगर नेपोलियन जीतता, इतिहास दूसरा होता। नेपोलियन हारा, इतिहास दूसरा हुआ। एक छोटी सी बिल्ली का एक बच्चे की छाती पर चढ़ना करोड़ों वर्षों के लिए मनुष्य-जाति के इतिहास को बदल देगा। इतनी छोटी घटना!
अगर हमें एक धार्मिक समाज पैदा करना हो, तो मां के पेट में गर्भ के क्षण से लेकर बच्चे का प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल कैसे विकसित हो, कैसी उसके आस-पास की सारी हवा हो, किस दिशा में उसकी चेतना के द्वार खोलने के लिए हम साथी बनें, और किन गलतियों से हम बचें कि हम उस पर थोप न दें, तो मुझे नहीं लगता कि पृथ्वी पर...क्यों, कौन सा कारण है कि एक अच्छी दुनिया, एक आनंद से भरा हुआ जगत पैदा न हो सके। लेकिन पुरानी भूल छोड़ देनी होगी। धर्म झूले से शुरू होता है, और पुरानी भूल कहती है कि धर्म जब कब्र में एक पैर उतर जाए तब, तब शुरू होता है। कब्र पर धर्म शुरू नहीं होता, झूले से शुरू होता है। झूले से ही शुरू करना पड़ेगा। और अगर यह हमें स्मरण में साफ-साफ हो तो हम व्यक्तित्व को विकसित होने में, चेतना को एक दिशा देने में सहयोगी हो सकते हैं। लेकिन यह तो आने वाले बच्चों की बात हुई। आप अब दुबारा फिलहाल बच्चे नहीं होने को हैं, थोड़ा वक्त लगेगा मरने के बाद, फिर हो सकते हैं। अभी आप क्या करेंगे?
आज का क्षण ही शुरुआत होनी चाहिए। यह मत सोच लेना कि अपने झूले के दिन तो निकल गए, बात खत्म हुई, अब जब दुबारा झूला मिलेगा तब सोचेंगे। आपके लिए तो आज, अभी, यही क्षण प्रारंभ हो जाना चाहिए। जिंदगी को अगर आनंद, शांति और सत्य की तरफ ले जाना है, ले जा सकते हैं। थोड़े श्रम की जरूरत है। बिना श्रम के कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। और परमात्मा जैसी परम संपत्ति को हम सिर्फ हाथ जोड़ कर पाना चाहते हों, तो नहीं मिल सकता है। न कोई गुरु देगा, न कोई शास्त्र देगा, न कोई मंदिर-मस्जिद दे सकता है। आपको, आपको ही पाना पड़ेगा। आपको ही थोड़ा श्रम करना पड़ेगा।
उस श्रम के लिए मैंने इन चार दिनों में कुछ बातें की हैं। आपने उन बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है, परमात्मा करे उन्हें आप इतनी ही शांति और प्रेम से कर भी सकें। क्योंकि सुनना व्यर्थ है अगर उसके पीछे कुछ किया न जा सके। प्रभु से प्रार्थना करता हूं, बल दे, संकल्प दे कि आप एक कदम, कम से कम एक कदम उठा सकें प्रभु की तरफ। और ध्यान रहे, जो एक कदम उसकी तरफ उठाता है, वह हजार कदम हमारी तरफ उठाने को हमेशा तैयार है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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