प्रवचन-आठवां
बंबई, रात्रि, दिनांक 22 फरवरी, 1972प्रश्न एवं उत्तर
पहला प्रश्नः भगवान, आपने कल रात्रि कहा कि मन को ऊपर की ओर बहाने के लिए किसी को पिछली पाशविक वृत्तियों और आदतों के विरुद्ध सतत प्रयत्न करना पड़ता है। कृपया बतलाएं कि आदतों के विरुद्धप्रयत्न करने में और दमन में क्या अंतर है?मन का रूपांतरण एक विधायक प्रयास है। मन का दमन निगेटिव है, निषेधात्मक है। अंतर यह है कि जब आप अपने मन को दबा रहे होते हैं, तो आपका प्रयास किसी के विरुद्ध होता है। अब आप अपने मन का रूपांतरण कर रहे होते हैं, तो आप सीधे किसी चीज के विरुद्ध नहीं होते। आप विधायक रूप से किसी चीज के पक्ष में होते हैं। आपका प्रयत्न किसी के पक्ष में होता है, न कि किसी वस्तु के विरुद्ध।
उदाहरण के लिए, यदि आप सीधे काम-वासना से लड़ रहे हैं, तो यह दमन होगा। लेकिन यदि आपका विधायक प्रयास काम-ऊर्जा के रूपांतरण के लिए है, तो यह दमन नहीं है। दमन का अर्थ होता है कि आपको ऊर्जा का प्राकृतिक द्वार ही बंद कर दिया, आपने उसका निसर्गसिद्ध बाहर बहना ही रोक दिया, और आपने दूसरा कुछ नया नहीं खोला। केवल रोक लगा दी गई। आप क्रोध के खिलाफ हैं अतः आप क्रोध को रोक देते हैं, किंतु वह ऊर्जा कहां जाएगी? वह ऊर्जा जो कि आपने भीतर दबा दी है, वह भीतरी जटिलताएं उत्पन्न करेगी। वह और भी अधिक विकृत होगी, इसलिए विकृत होने से कहीं यादा अच्छा है प्राकृतिक होना। विकृति रुग्णता है, प्राकृतिक होना स्वस्थ होना है।
सचमुच, केवल स्वस्थ होना ही अंतिम नहीं है। कोई स्वास्थ्य के पार भी जा सकता है। अतः ये तीन चीजें हैं-दमन, प्राकृतिक होना और अतिक्रमण। खाली प्राकृतिक होने का मतलब होता है केवल स्वस्थ होना। दि आप ऊर्जा को दबाते हैं और कोई विधायक द्वार उसके लिए नहीं है, कोई सृजनात्मक द्वार आपकी दमित ऊर्जा के लिए नहीं है, तो आप विकृत हो जाते हैंः आप स्वस्थ नहीं है। आप रुग्ण हो जाते हैं; आप बेचैन हो जाते हैं-डिस-ईज।
निषेधात्मक रूप से संबंधित न हों। ऊर्जा को बदल दें, उसका द्वार, मार्ग, रास्ता विधायक रूप से बदल दें, और जब क्रियात्मक रूप में परिवर्तन होगा, तो जो ऊर्जा काम-वासना में बह रही थी, नहीं बहेगी। जब कभी आप कोई ऊपरी द्वार खोल देते हैं तो वह उससे बहेगी। जब कभी आप कुछ ऐसा निर्मित कर सकें, जो कि प्रकृति से भी यादा अच्छा है, तब कोई दमन नहीं होता। इस भेद को ठीक से समझ लेना चाहिए।
केवल आदमी ही प्रकृति से नीचे गिर सकता है; कोई पशु प्रकृति से नीचे नहीं गिर सकता। कोई पशु असामान्य नहीं होता। केवल एक अपवाद होता हैः कभी-कभी पशु भी असामान्य हो जाते हैं, लेकिन तभी जबकि वे आदमियों के साथ रहते हैं-अकेले कभी नहीं। एक कुत्ता असामान्य हो सकता है, एक घोड़ा असामान्य हो सकता है, परंतु ऐसा वह कृत्रिम परिवेश में ही हो सकता है; अपनी प्राकृतिक स्थिति में कभी भी नहीं हो सकता। वे आदमी के साथ असामान्य हो सकते हैं आदमी के समाज के साथ! वे अजायबघर में भी असामान्य हो सकते हैं।
आदमी प्रकृति से नीचे गिर सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण लग सकता है, परंतु वस्तुतः ऐसा यह है नहीं, क्योंकि यह क्षमता एक दूसरी क्षमता से निकलती है; मनुष्य प्रकृति का अतिक्रमण कर सकता है। कोई पशु प्रकृति के पार नहीं जा सकता। आप प्रकृति के जितने ऊपर जा सकते हैं, उतने ही अनुमान में आप नीचे भी जा सकते हैं। प्रत्येक संभावना दोहरी संभावना होती है। प्रत्येक संभावना दो द्वारों को खोलती है, जो कि बिल्कुल विरोधी होते हैं। जब तक आप प्रकृति से नीचे नहीं गिर सकते, तब तक आप उसका अतिक्रमण भी नहीं कर सकते। यदि आपमें प्रकृति का अतिक्रमण करने की क्षमता है, तो आपमें उसके नीचे गिरने की भी क्षमता होगी।
पशु केवल प्राकृतिक होते हैं, न तो वे विकृत होते हैं, और न रूपांतरित हो सकते हैं। न तो वे कभी पशु से नीचे हो सकते हैं और न श्रेष्ठ पशु ही हो सकते हैं। वे केवल पशु होते हैं। आदमी एक तरल संभावना होता है। वह निसर्ग से नीचे गिर सकता है, विकृत हो सकता है, पागल भी हो सकता है, किंतु वह निसर्ग का अतिक्रमण भी कर सकता है, अतिमानव हो सकता है, बुद्ध हो सकता है।
दूसरी बातः पशु अपनी प्रकृति को लेकर पैदा होते हैं। एक तरह से वे पूर्ण होते हैं। एक पशु बड़ा हुआ-विकसित ही पैदा होता है। आदमी बिना किसी प्रकृति के पैदा होता है, और जन्म के समय पूर्ण विकसित नहीं होता। वह बाद में बदलता है, तब बहुत-सी संभावनाएं खुलती हैं। और संभावनाओं की एक बड़ी सीमा उसके सामने होती है। आदमी केवल मानसिक रूप से ही नहीं, शारीरिक रूप से भी अविकसित पैदा होता है। कोई भी पशु का बच्चा अविकसित शरीर के साथ पैदा नहीं होता। उसका शरीर पूरा होता है। इसीलिए जब पशु का बच्चा पैदा होता है, तो वह बिना माता-पिता के जीवित रहने की क्षमता रखता है।
आदमी का बच्चा अविकसित पैदा होता है यहां तक कि उसकी शारीरिक संरचना में भी कई चीजें उसके जन्म के बाद ही विकसित होती है और पूर्ण-विकसित होने में उसे कितने ही साल लग जाते हैं। मां के गर्भ में वह पूरा विकसित नहीं होता और इसी कारण उसे बाद में भी एक मां की आवश्यकता होती है, क्योंकि अभी मां का काम पूरा नहीं हुआ होता है।
यदि बच्चा पूर्ण विकसित पैदा हो तो फिर कोई मां की आवश्यकता नहीं होगी। कुटुंब की सारी व्यवस्था इससे ही पैदा हुई और परिणामतः सारा समाज-समाज का सारा विचार पैदा हुआ-क्योंकि बच्चा अविकसित पैदा होता है। उसकी देख-रेख की जरूरत है, लालन-पालन की आवश्यकता है। जन्म के भी बीस साल बाद वस्तुतः वह गर्भ से बाहर आएगा। इस बीस सालों में उसे कुटुंब की आवश्यकता होगी, एक प्यारी भरी देख-रेख की जरूरत होगी, एक समाज की आवश्यकता होगी, जिसमें कि वह पूर्णतः विकसित हो सके। यह एक बड़ा गर्भ होगा।
यहां तक कि जब वह शरीर की दृष्टि से पूरा हो जाता है, तब भी वह मानसिक रूप से संपूर्ण नहीं होता। उसे अपने मस्तिष्क को अभी और विकसित करना होगा। और वास्तव में, औसत मस्तिष्क कभी भी चौदह वर्ष की अवस्था से यादा का नहीं होता। दिमाग की औसत आयु साड़े तेरह वर्ष की होती है। एक व्यक्ति जो कि शरीर से सत्तर साल का है, मस्तिष्क से साड़े तेरह वर्ष का है। मस्तिष्क इतनी पुरातन, प्राथमिक स्थिति में होता है। शरीर पूरा हो जाता है, मस्तिष्क अधूरा रह जाता है और आत्मा को तो दुआ भी नहीं जाता और आम आदमी बिना अपने में किसी आत्मा को जाग्रत किए ही मर जाता है।
जब कभी गुरजिएफ से कोई पूछता कि ‘क्या हमारी आत्माएं हैं?’ तो वह जवाब देता-‘नहीं। कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी आदमी के पास आत्मा होती है। केवल कभी-कभी ही ऐसी घटना घटती है।’ गुरजिएफ कहता है-‘केवल कभी-कभी ही, बहुत कम, ऐसा होता है। तुम्हारे पास तो अभी मन भी पूरा नहीं है, तो फिर आत्मा कैसे हो सकती है?’
एक अधूरे शरीर के पास मन नहीं होता, और एक अधूरे मन के पास आत्मा नहीं हो सकती है, और एक आत्मा से हीन व्यक्ति कभी परमात्मा को नहीं जान सकता। वस्तुतः शरीर मन के लिए और मन एक आत्मा के लिए गर्भ की तरह काम करता है, और तब यह आत्मा परमात्मा के लिए एक गर्भ का काम करती है।
मनुष्य पूरा, पूर्ण उत्पन्न नहीं होता। वह अनेक संभावनाएं लेकर पैदा होता है, और वह प्रकृति के नीचे भी गिर सकता है। वह किसी भी पशु से अधिक पशु हो सकता है, और वह मानव से अति-मानव भी हो सकता है। चाहे तो वह परमात्मा भी हो सकता है। यह संभावनाओं का सीमा-क्षेत्र अनंत है।
अब आप दो बातें कर सकते हैंः यदि आपका चित्त निषेधात्मक, दमनकारी है, तो फिर आप उन सब चीजों से लड़ते चले जाएंगे जो कि अच्छी नहीं है। आप काम से लड़ेंगे, क्रोध से लड़ेंगे, लोभ से लड़ेंगे, ईर्ष्या से लड़ेंगे, हिंसा से लड़ेंगे; आप लड़ते ही चले जाएंगे। जब एक आदमी हिंसा से लड़ता है, तो वह कभी भी अहिंसक नहीं हो सकता, क्योंकि हिंसा से लड़ने के पहले उस को भी हिंसक होना पड़ेगा। आप बिना हिंसक हुए हिंसा से लड़ ही नहीं सकते; इसलिए आपके तथाकथित साधु सारे के सारे हिंसक हैं-गहरे हिंसक। हां, उनकी हिंसा दूसरों के प्रति नहीं है, उनकी हिंसा स्वयं के प्रति है। कोईप्रतिरोध भी नहीं करता। आप बल्कि उनकी प्रशंसा ही करते हैं। वे अपने ही खिलाफ है ओर बहुत यादा हिंसक हैं। बिना हिंसक हुए आप हिंसा से लड़ेंगे कैसे? आप बिना क्रोधित हुए क्रोध से लड़ेंगे कैसे? क्रोध से लड़ने का भाव ही सूक्ष्म क्रोध है। लड़ने का मतलब ही है कि आप क्रोध में हैं। आप अपने क्रोध के साथ स्वस्थ नहीं हैं।
आप चाहे तो निषेधात्मक रुख भी ले सकते हैं, और आप चीजों से लड़ते जा सकते हैं, किंतु जितना ही आप उनसे लड़ते हैं, उतने ही आप उनके जैसे होते जाते हैं। एक आदमी जो कि काम-वासना से लड़ रहा है, वह कामुक हो जाएगा। उसके सारे हावभाव कामुक हो जाएंगे। उसका बैठना उसका उठना, उसका चलना सभी कुछ कामुक हो जाएगा। वह लड़ाई के भाव से इतना भर जाएगा कि उसकी हर एक चीज में काम का रूप-रंग स्पष्ट झलकेगा।
जब आप किसी चीज से लड़ते हैं, तो आपको अपने दुश्मन की ही तरकीबें काम में लेनी पड़ती हैं। यदि आपको जीतना है तो आपको वे ही तरकीबें काम में लेनी पड़ेंगी जो कि आपका शत्रु ले रहा। यदि आप अंत में जीत भी जाते हैं, तो भी आप जीतेंगे नहीं, क्योंकि तरकीबें वहीं है। वास्तव में, आप हरा दिए जाएंगे। क्रोध से लड़ें, और यदि आप हार गए, तो क्रोध वहां मौजूद होगा ही। यदि आप जीत भी गए, तब भी क्रोध ही वहां होगा, आप नहीं। केवल क्रोध ही क्रोध के विरुद्ध जीत गया है आपका, तो अपना अस्तित्व ही क्रोध में खो गया।
यह निषेधात्मक लड़ाई आपकी चेतना को लगातार संकीर्ण से संकीर्णतर करती चली जाएगी। आप प्रत्येक बात से डरने लगेंगे, क्योंकि निषेधात्मक चित्त सदैव ही भयग्रसित होता है। उसके लिए हर बात पाप हो जाती है, और हर एक बात एक दोष का भाव पैदा करती है, और प्रत्येक चीज भय पैदा करती है। आप अपने अंतर्तम में प्रत्येक चीज से डरने लगते हैं। आपकी चेतना संकीर्ण हो जाएगी; वह बड़ेगी नहीं। आप इतने डर जाएंगे कि आप अपने आप में ही छिप जाएंगे, और सब कहीं आपके चारों ओर दुश्मन ही दुश्मन होंगे। आपने ही उनको पैदा किया है, क्योंकि आप निषेध को पकड़े हुए हैं।
यह दमन है, और यदि आपने इससे मुक्ति नहीं पा ली, तो आपका अंत एक पागलखाने में होगा। जो कुछ भी आपने दबाया है, उसे लगातार दबाना पड़ेगा। लड़ाई इतनी दूर तक चलेगी कि आप कुछ और कर ही नहीं सकेंगे। यदि आप काम-वासना से लड़ रहे हैं, तो वह काफी हो गया; अब आपकी पूरी जिंदगी एक लड़ाई में बीतेगी, यदि आप लोभ से लड़ रहे हैं, तो वह भी जीवन भर पर्याप्त है। स्वतः लोभ में भी इतनी ऊर्जा नहीं खोएगी, जितनी कि लोभ से लड़ने में। काम-वासना स्वयं भी इतनी ऊर्जा को विनष्ट नहीं करेगी, जितना कि काम-वासना से लड़ना। काम-वासना प्राकृतिक है, और लड़ाई निषेध खड़ा कर देती है। जब कभी आप निषेधात्मक हो जाते हैं, तो आप ऊर्जा को नष्ट करते हैं, कुछ भी लाभ नहीं होता; कुछ भी क्रियात्मक उपलब्धि नहीं होती। आप स्वयं को विनष्ट करने में लग जाते हैं।
अतः सदैव स्मरण रखें कि निषेधात्मक नहीं होना है; जब कोई दमन नहीं होगा। किंतु मैंने कहा है कि ‘धारा के विरुद्ध जाना ही मार्ग है मन के ऊपर की ओर बहने के लिए।’ क्या मतलब है मेरा धारा के विरुद्ध जाने से? भेद बहुत ही सूक्ष्म है, किंतु एक बार अनुभव में आ जाए, तो आप कभी रास्ता नहीं खोएंगे।
उदाहरण के लिए, आप नदी में तैर रहे हैं धारा के विरुद्ध। तब दो संभावनाएं हैंः एक, आप नदी से लड़ रहे हैं, इस डर से कि नदी कहीं आपको बहा न ले जाए-डुबो दे, बहाव में आप कहीं खो न जाएं-और इस डर से आप कंप रहे हैं और नदी से लड़े जा रहे हैं; आप निश्चित ही हार जाएंगे, क्योंकि यह बह जाने का डर और यह कंपता हुआ चित्त लेकर आप कभी नहीं जीत सकते। पराजय निश्चित हो गई है। कितनी देर आप धारा के खिलाफ लड़ पाएंगे? आपका सारा रुख ही निषेध का है और नदी बहुत विधायक है, जीवन की तरह। किंतु आप भय से भरे हैं और कंप रहे है। कैसे जीत सकते हैं आप? आगे-पीछे आप लड़ाई में सारी ऊर्जा को नष्ट कर देंगे और धारा आपको बहा कर ले ही जाएगी।
एक दूसरी बिंदु भी है, दूसरा आयामः कि आप नदी से नहीं लड़ रहे हैं, क्योंकि आप उससे डरे हुए नहीं हैं। प्रथम बार, डर के कारण ही लड़ाई निर्मित हुई। स्मरण रहे लड़ाई का मतलब है भय। भय पहले आता है, और तब आप लड़ने लगते हैं। आपका भय ही लड़ाई को पैदा करता है; आपका डर ही आपके दुश्मन को जन्म देता है। वस्तुतः, भय ही युद्ध की जड़ है। आप नदी से नहीं लड़ रहे हैं, क्योंकि आप नदी से डरे हुए नहीं हैं। क्योंकि आप जानते हैं कि नदी के लिए यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि वह नीचे की ओर बहे। यदि आप भी नीचे की ओर बहें तो उसमें भी कोई दोष का भाव नहीं है। वह हार नहीं है। हार तो तब होगी, जब आप लड़ेंगे। नदी नीचे की ओर बहती है और आप उसके साथ बहते हैं, यह बिल्कुलप्राकृतिक है। आप चाहें तो उसका आनंद भी ले सकते हैं। बिना किसी श्रम के नदी के साथ बहने का आनंद। जैसे-जैसे नदी आपको बहा कर ले जाए, वैसे-वैसे आप आनंद का अनुभव करें। इस प्रकार आप पराजय से तो बचेंगे ही, साथ-साथ आप अपनी ऊर्जा को भी बचा सकते हैं नीचे की तरह स्वभावतः बहते हुए।
अतः पहली बातः नीचे की ओर बहने से डरें नहीं; भयग्रस्त न हों। स्मरण रहे, यह स्वाभाविक है और नदी के साथ नीचे की ओर बहना यादा अच्छा है बजाय हार जाने के व बहा लिए जाने के, क्योंकि तब तो सारा आनंद ही खो जाएगा, जो कि प्राकृतिक तरीके से लिया जा सकता था। इसलिए पहली बातः स्वाभाविक होना पाप नहीं है, इसे याद रखें, क्योंकि तभी केवल आपका सारा प्रयास विधायक हो सकता है। अन्यथा वह निषेधात्मक होगा। स्वाभाविक होना पाप नहीं है। पाप तभी उत्पन्न होगा, जब आप लड़ेंगे प्रकृति से-निसर्ग से।
इतना पर्याप्त नहीं है; वह बिल्कुल दूसरी बात है। किंतु वह पाप नहीं है। यदि आप स्वभावतः बह रहे हैं, तो वह बिल्कुल ठीक है। जितनी देर ऐसा चले, बिल्कुल ठीक है। यह कोई पाप नहीं है; यह कोई अपराध नहीं है; यह कुछ अनैतिक बात नहीं है; यह स्वस्थ होना है। किंतु मैं कहता हूं, इतना काफी नहीं है। इतना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि आपकी संभावनाएं अभी बहुत अधिक हैं। वे सिर्फ स्वस्थ होने जितनी ही नहीं हैं। आप पवित्र, शुद्ध भी हो सकते हैं। इसलिए डरें नहीं, वह पहली बात है। प्रकृति की निंदा में न पड़ें, और तब निषेधात्मक मन नहीं होगा।
धारा से लड़ो नहीं; धारा के साथ खेलो। तब तुम नदी से लड़ नहीं रहे हो, वस्तुतः, तुम सिर्फ अपने को ऊपर की ओर जाने के लिए प्रशिक्षित कर रहे हो। इस अंतर को समझोः तुम नदी के साथ लड़ नहीं रहे हो; तुम तो सिर्फ अतिरिक्त शक्ति से भरे हो; तुम ऊर्जा से भरे हो और ऊर्जा को ऊपर की ओर जाने का प्रशिक्षण दे रहे हो।
अब नदी आपकी शत्रु नहीं है, बल्कि वह तो मित्र है जो कि आपको ऊपर जाने के लिए अवसर प्रदान कर रही है, अपने साथ खेलने दे रही है। अब लड़ाई वस्तुतः लड़ाई नहीं है। वह एक खेल है, एक क्रीड़ा है। नदी आपकी शत्रु नहीं है। वह तो एक अवसर है। जीवन एक अवसर है, प्रकृति भी एक अवसर है; वह कोई शत्रु नहीं है। वह तो मात्र एक अवसर है।
इसलिए अपनी आंतरिक ऊर्जा को ऊपर की ओर बहने के लिए प्रशिक्षित करें। आपका नीचे की ओर बहती हुई नदी से वस्तुतः कोई संबंध नहीं है। आपका संबंध तो एक दूसरी ही नदी से है-ऊर्जा की नदी, ऊपर की ओर जाती हुई। आपका मन मूलतः आंतरिक ऊर्जा से संबंधित है, जो कि ऊपर की ओर जाती है।
नदी के प्रति अनुग्रह महसूस करें, क्योंकि वह आपको पृष्ठभूमि प्रदान करती है, वह आपको अवसर देती है, वह आपकी मदद करती है वह आपको सहयोग देती है। आप अपने को केवल उसकी धारा से तौल सकते हो। आप अपने को नीचा अनुभव इसलिए कर सकते हो, क्योंकि नदी नीचे की ओर बह रही है। यह भाव कि जब नदी नीचे की तरफ जा रही है, आप ऊपर की ओर यात्रा कर सकते हैं, आपको एक नए ही तरह के आत्मविश्वास से भरता है। आप ऊपर जा सकते हैं! अतः जब आप विश्राम में भी हों और नदी के साथ नीचे को भी बह रहे हों, तब भी आप भली-भांति जानते हैं कि आप ऊपर की ओर भी जा सकते हैं। अब यह नदी के साथ नीचे की ओर बहना भी पराजय नहीं है।
आपने कुछ जान लिया-कुछ प्रकृति से भिन्न। यदि एक क्षण के लिए भी आपने प्रकृति से भिन्न ज्ञान की एक झलक पा ली है, तो आपने अपनी प्रसुप्त संभावना को जान लिया है। आप उसे उपलब्ध करें या न करें, यह दूसरी बात है। लेकिन अब आप केवल नीचे की ओर बहने के लिए ही नहीं हैं, ऊपर बहना भी आपके लिए संभव है। अब यह आप पर निर्भर करेगा। आप ही निर्णय करने वाले होंगे, न कि नीचे की ओर बहती हुईधारा, जिससे आपकी अब कोई शत्रुता नहीं है। यदि नदी नीचे की ओर बहती है, तो वह ठीक है। आपको बहने की कोई आवश्यकता नहीं है, आपको लड़ने की जरूरत नहीं है, आपको लड़ने की जरूरत नहीं है, आपको डरने की जरूरत नहीं है। आप ऊपर की ओर जा सकते हैं।
अंततः एक दूसरी संभावना होती है, जिसमें कि तंत्र बहुत गहरे गया है। तंत्र कहता है कि एक ऐसी भी संभावना है कि जब आप नीचे की ओर बह रहे हों नदी के साथ, तब भी आप ऊपर ही बहते हैं। तब धारा के साथ केवल आपका शरीर ले जाया जा रहा है। नदी कैसे आपको ले जा सकती है? वह केवल आपके शरीर को ले जा रही है। तंत्र ने बहुत-सी नीचे बहती नदियों का निर्माण किया। अतः नदी में उतरें, नीचे का बहना अनुभव करें, उसके साथ बहें और लगातार स्मरण रखें कि आप नहीं बह रहे हैं।
मैं कह रहा है कि काम-वासना से लड़ कर आप सारे समय सेक्स के ख्याल से ही भरे रहेंगे, किंतु एक दूसरी भी संभावना हैः सेक्स में बहुत गहरे जाकर आप बिल्कुल भी काम से भरे न हों, परंतु वह संभावना तभी खुलती है जबकि आपका प्रयास विधायक हो जाता है। यही मतलब है मेरा धारा के विरुद्ध विधायक प्रयास से। यह वस्तुतः धारा के खिलाफ नहीं है, यह चेतना के लिए है। धारा का भी एक अवसर की तरह उपयोग किया गया है-केवल आपको तौलने के लिए, केवल आपको खोज निकालने के लिए। ऊर्ध्वगमन को अनुभव करने के लिए अधोगमन की नीचे की ओर बहाव की आवश्यकता पड़ती है। जितनी अधिक धारा की शक्ति होगी, उतनी ही अधिक ऊपर जाने की संभावना होगी। अतः प्रकृति का एक अवसर की भांति उपयोग करें, न कि एक शत्रु की तरह उससे लड़ें। प्रवृत्तियों को मित्रों की तरह से काम में लें, न कि शत्रुओं की तरह उन्हें दबायें। वे मित्र हैं। केवल अपनी अनभिज्ञता के कारण ही आप उनको दुश्मन बना लेते हैं। वस्तुतः वे मित्र हैं।
जब कोई नदी के उदगम को, मूलस्रोत को पहुंचता है, उस शिखर को जहां से कि नदी निकलती है, तो वह धन्यवाद के भाव से भर जाता है, नदी के प्रति धन्यवाद, नदी के प्रति अनुग्रह, क्योंकि केवल उसी के द्वारा वह स्रोत को पहुंच पाया। ऐसे ही जब भी कोई चेतना के शिखर को पहुंचता है, तो वह प्रत्येक वृत्ति के प्रति अनुग्रह से भर जाता है, क्योंकि उन सबने उसकी बड़ी सहायता की, उन सबने वैसी स्थिति निर्मित की, उन सबने अवसर पैदा किया। और वे उलटी दिशा में बह रही थीं। अतः उनका उलटे बहना सचमुच आपके विरोध में नहीं है; नदी वस्तुतः आपके खिलाफ नहीं है। आप नदी के विरुद्ध हो सकते हैं, और यदि आप नदी के विरुद्ध हैं, तो आप कभी नहीं जीतेंगे। यादा संभावना यह है कि आप विकृत हो जाएं।
अतः प्रकृति का उपयोग उसके अतिक्रमण के लिए करें। जब आप देखें कि क्रोध है, तो सीधे क्रोध से न लड़ें। अपने को तौलें; ऊर्जा का अनुभव करें। क्रोध का अतिक्रमण कर जाएं; जब तक क्रोध है, चुप हो जाएं। क्रोध का अनुभव करें, स्वयं को अनुभव करें; स्वयं को तौलें। ऊपर की ओर बहना प्रारंभ करें। उसे खेल समझें। गंभीर न हों। गंभीरता एक रोग है। यदि आप प्रत्येक बात को निषेधात्मक ढंग से लेंगे, तो आप गंभीर हो जाएंगे। तब प्रत्येक बात आपको परेशान करेगी। यह क्रोध क्यों है? यह लोभ क्यों है? क्यों है यह मोह? क्यों है वह मद? यह प्रत्येक बात आपको परेशान करती है, और आप गंभीर हो जाते हैं।
हमारे तथाकथित साधु बड़े गंभीर हैं। वास्तव में, मैं सोख नहीं सकता कि कोई साधु गंभीर हो सकता है। वह तो सिर्फ फ्रुल्ल हो सकता है। उसकी गंभीरता बतलाती है कि वह लड़ रहा है। एक सिपाही, सचमुच गंभीर होगा। एक साधु की गंभीरता की कोई जरूरत नहीं है, होना ही नहीं चाहिए। वास्तव में, यह उसको साधुता के अयोग्य बना देती है। एक साधु को तोप्रसन्न, फ्रुल्ल होना चाहिए, क्योंकि अब कुछ भी उसके विरोध में नहीं है। सब कुछ उसके लिए है। वह हर बात को अपने लिए उपयोग कर सकता है।
जब मैं कहता हूं, ‘धारा के विरुद्धप्रयास’ तो उससे मेरा मतलब है-धारा के खिलाफ खेल-क्रीड़ा। प्रयास करें, देखें कि आप क्या कर सकते हैं। धरा नीचे की ओर बह रही है क्या आप ऊपर की ओर बह सकते हैं? क्रोध आ रहा है, किसी ने आपका अपमान कर दिया है, बटन दबा दिया गया है। क्या आप अक्रोध में रह सकते हैं? जरा खेलें-स्थिति के साथ खेलें; गंभीर न हो जाएं। जैसे ही आप गंभीर हो जाएंगे, आप क्रोधित हो जाएंगे। क्रोध बड़ी गंभीर बात है। अतः फ्रुल्ल रहें, हंसें और देखें कि क्रोध शुरू हो गया, संस्कारित मन चालू हो गया, क्रोध वहां उबल रहा है। अब धारा के विरुद्ध तैरें। उसे खेल की भांति लें, और देखें कि क्या यह संभव है कि किसी ने आपका अपमान कर दिया हो क्रोध भीतर तैयार हो गया हो और आप हंस रहे हैं! क्या सचमुच आप उसके पार तैर सकते हैं? किंतु लड़ें नहीं, यह शर्त है।
इसीलिए मैं कहता हूं कि भेद बहुत सूक्ष्म है। किनारे पर खड़े होकर आप इस भेद को नहीं समझ सकते, जब तक कि आप स्वयं नदी में नहीं हों और दोनों को स्वयं ही अनुभव न किया हो। आप किनारे पर खड़े हैं, और कोई नदी से लड़ रहा है, कोई अन्य नदी से मात्र खेल रहा है-ऊपर की ओर जाते हुए। किनारे से आप क्या इस अंतर को देख सकते हैं? हां, केवल एक ही संकेत हैः एक गंभीर होगा, और दूसरा खेलपूर्ण होगा। इससे ही यदि समझ सकें, तो ठीक है अन्यथा और कोई मार्ग नहीं है।
एक जो कि डरा हुआ है, भयभीत है, लड़ रहा है, गंभीर होगा, मृत्यु की तरह गंभीर। वह कैसे हंस सकता है? वह कैसे खेल सकता है? यदि धारा उसे धक्का मारती है, तो वह पराजित अनुभव करेगा। लेकिन दूसरा जो कि खेल रहा है बिल्कुल भी गंभीर नहीं होगा। वह हंस सकता है। वह नदी के साथ खेल सकता है। वह लहरों के साथ किलोल कर सकता है। और यदि लहरें उसे नीचे ढकेल देती है, तो वह हारा हुआ महसूस नहीं करेगा। वह फिर से प्रयत्न करेगा। वह गंभीर नहीं होगा। बल्कि वह नदी कोप्रेम करने लगेगा, क्योंकि वह धक्के मारती है। अंतर भीतरी होगा, गुणात्मक।
दमन एक गंभीर रोग है। स्वयं का रूपांतरण एक खेल है। वह गंभीर जरा भी नहीं। वह सच्चा है, किंतु गंभीर कदापि नहीं। वह प्रामाणिक है, पर गंभीर कभी नहीं। फ्रुल्लता का गुण वहां सदैव बना रहता है। वह ही तो उसकी आत्मा है।
विधायकता से आप भीतर कुछ निर्मित कर रहे है और यह भीतरी निर्माण ही वास्तविक चीज है। जोर किसी और बात पर है। वह नदी से लड़ने पर नहीं, जोर ऊपर बहने पर है। उदाहरण के लिए, मैं काले तखते पर कुछ लिख रहा हूं। मैं काले तखते का उपयोग करता हूं परंतु लिखता मैं सफेद चाक से हूं, क्योंकि काले तखते पर सफेद चाक स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। कारण है काले से सफेद का प्रतिविरोध। मत्त सफेद दीवार पर भी लिख सकता हूं। लिखना तो यह भी होगा, पर वह ऐसा होगा जैसे कि नहीं हो, क्योंकि वह विरोधी चीज नहीं है। अतः काला तखत सफेद खड़िया के खिलाफ नहीं है। वह सफेद चाक का शत्रु नहीं है, वह तो उसका मित्र है। जब वे परस्पर विरोध में होते हैं, तभी केवल सफेद पंक्तियां दिखलाई पड़ती हैं। सफेद दीवार पर तो वे खो जाएंगी। वे होकर भी कहीं नहीं होंगी।
अतएव कौन है शत्रु-सफेद दीवार या कि काला तखता? कौन है शत्रु? शत्रु है सफेद दीवार, क्योंकि वहां अक्षर खो जाते हैं। काला तखता शत्रु नहीं है। वस्तुतः वह तो मित्र है। उस पर सफेद और यादा सफेद दिखलाई पड़ता है; और भी स्पष्ट व साफ दिखलाई देता है। परंतु जब मैं काले तखते पर लिख रहा हूं, तो मेरा जोर काले तखते को नष्ट कर देने पर नहीं है। मेरी इच्छा सफेद पंक्तियों को स्पष्ट करने की है। यदि आप काले तखते को नष्ट करने की सोच रहे हों, तो काला तखता शत्रु है। इस भेद को देखें। यदि आप काले तखते को सफेद रंग कर नष्ट करने का प्रयत्न कर रहे हैं, तो फिर काला तखता शत्रु है। आप उसे सफेद पोत सकते हो, लेकिन तब वह एक ‘लड़ाई’ हो जाएगी। परंतु जब आप उस पर कुछ लिख रहे हैं और आप का जोर काले तखते पर नहीं है; वास्तव में आप उसे कभी याद ही नहीं करते। आपको याद करने की आवश्यकता भी नहीं है। वह आपकी चेतना में भी नहीं है, वह तो केवल आधार है। आप लिखते हैं, आपका जोर लिखने पर है, न कि काले तखते के कालेपन को नष्ट कर देने पर। आप याद रखते हैं उसे जो कि आप लिख रहे हैं, और काला तखता उसमें आपकी मदद करता है। वह कभी भी उसमें दखल नहीं देता। अतः काला तखता आपका मित्र है। यही विधायक दृष्टिकोण है।
इसलिए आपका जोर आप जो उपलब्ध करने जा रहे हैं उस पर होना चाहिए, न कि उस पर जिसके कि आप खिलाफ हैं। यदि आप प्रेम प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं, तो विधायक रूप से प्रेम से संबंधित रहें। घृणा को मिटाने में अपनी ऊर्जा खर्च न करें। आप उसे कभी भी मिटा नहीं सकते। आप उसे कभी नहीं मिटा सकेंगे। किंतु जिस क्षण भी प्रेम होगा, सारी ऊर्जा ही रूपांतरित हो जाएगी। वह प्रेम की तरफ बहने लगेगी।
अपनी शक्तियों, वृत्तियों, अथवा किसी भी चीज के प्रति निषेधात्मक न हों; विधायक हों। जब आप विधायक रूप से कुछ निर्मित कर रहे हैं, फ्रुल्ल रहें। वह आपका ‘स्वभाव’ है। उससे क्यों लड़ें? आपने ही उसको निर्मित किया है। वह आपकोप्रयत्न है। आप उसे निर्मित करना चाहते थे, इसलिए आपने उसे पैदा किया। आपने ही उसे चुना है। वह आपकी ही सृष्टि है। यदि आप क्रोधित हैं, तो वह आपकी भूल है। अतः आप उसके खिलाफ क्यों हों? वह आपका अपना चुनाव है। अनेक-अनेक जन्मों में आपने उसका उपयोग किया है, इसलिए वह है। उसके खिलाफ क्रोधित क्यों हों? किसी और ने उसे नहीं चुना है, सिवाय आपके। जो कुछ भी आप हैं, अपना ही निर्माण हैं।
इसलिए निषेध की भाषा में सोचना ही मूर्खतापूर्ण है। बल्कि यह महसूस करें कि यदि आपने अपने भीतर ऐसा विक्षिप्त आदमी पैदा कर लिया है, तब वस्तुतः आप कितनी ही बातें करने में समर्थ होंगे। यदि आप ऐसा नरक निर्मित कर सकते हैं, तो फिर स्वर्ग क्यों नहीं? नरक से संबंधित न हों; स्वर्ग से ही मतलब रखें और उसको निर्मित करना प्रारंभ करें। जब स्वर्ग बन जाएगा, तो नरक का पता भी नहीं चलेगा। वह पूर्णतया विलीन हो जाएगा, क्योंकि वह एक निषेध की तरह ही है, वह एक अभाव की भांति ही है।
चूंकि स्वर्ग नहीं है, इसलिए नरक को होना पड़ता है। चूंकि प्रेम नहीं है, अतः घृणा को होना पड़ता है। चूंकि प्रकाश नहीं है, इसीलिए अंधकार है। अंधकार से न लड़ें। प्रकाश को पैदा करें; केवल प्रकाश को पैदा करने का ध्यान रखें। जब प्रकाश होगा, तो अंधकार कहां होगा? किंतु आप तो सीधे लड़ सकते हैं। प्रकाश की सोचते ही नहीं, और सीधे अंधकार से लड़ना प्रारंभ कर देते हैं। किंतु आप कुछ भी करें, अंधकार नष्ट नहीं होगा। उसके विपरीत आप ही इस लड़ाई में नष्ट हो जाएंगे। आप सीधे अंधकार से कैसे लड़ सकते है? वह तो एक अभाव है। अंधकार का इतना ही मतलब है कि ‘प्रकाश नहीं’ है। अतः कृपया प्रकाश पैदा करें, अंधकार तो स्वतः नष्ट हो जाने वाला है।
नदी नीचे की ओर बह रही है, और आप उसके साथ बह रहे हैं, क्योंकि आप ऊपर की ओर बहने को जानते ही नहीं, आपने उसे जाना नहीं है, इतनी ही बात है। एक बार आप उसे जान लें, फिर चाहे सारी नदियां नीचे की ओर बहती रहें, किंतु आप नीचे की ओर नहीं बहेंगे। तब नदी के साथ आप सागर तक भी क्यों न चले जाएं, फिर भी आप नीचे नहीं जाते। नदी के बहाव ने उदगम की दिशा आपको दिखना दी है और आप उसे प्राप्त कर सकते हैं।
अंतर को समझना बहुत ही कठिन है। इसीलिए दुनिया में इतना दमन है। किसी ने उसे सिखाया नहीं है। हर एक ने उसे समझ तो लिया है, परंतु सिखाया किसीने भी नहीं है-न तो बुद्ध ने, न महावीर ने, न जीसस ने, और न कृष्ण ने। यह बड़ा चमत्कार है। किसी ने भी दमन नहीं सिखाया है, क्योंकि कोई सिखा ही नहीं सकता। यह महामूर्खतापूर्ण है। किंतु फिर भी प्रत्येक ने दमन किया है, और प्रत्येक दमन कर रहा है। भेद इतना सूक्ष्म है कि जब कभी रूपांतरण शुरू होता है तभी-केवल तभी दमन समझ में आता है।
जब कभी कोई गुरु पैदा होता है और रूपांतरण की बात करता है, तो अनुयायी इकट्ठे होते हैं और दमन के बारे में समझने लगते हैं, क्योंकि वह इतना नाजुक है, इतना बारीक है, तब तक, जब तक कि आप उसे समझ नहीं लेते, अनुभव नहीं कर लेते, तब तक पूरी संभावना है कि आप उसे गलत समझें। इसलिए उसे अनुभव करें। प्राथमिक आवश्यकताएं किसी भी वस्तु के विरुद्ध होने की नहीं है। सदैव उसके पक्ष में हों-किसी भी चीज के पक्ष में। किसी भी वस्तु के विरुद्ध न हों।
वस्तुतः, जब आप किसी भी चीज के विरुद्ध होते हैं, तो आपका भविष्य तब खुला नहीं रहता। केवल जब आप किसी बात के पक्ष में होते हैं, तभी आपका भविष्य खुलता है। जब आप विरुद्ध हैं किसी चीज के, तो इसका मतलब है कि आप अतीत से चिपके हैं। आप भविष्य के विरुद्ध कभी भी नहीं हो सकते। आप भविष्य के खिलाफ कैसे हो सकते हैं? आप केवल अतीत के विरुद्ध हो सकते हैं। अतः इस आयाम में भी इसे समझ लेना चाहिएः जब आप विरुद्ध हैं; तो आप अतीत के विरुद्ध हैं। आप मृत्यु से लड़ रहे हैं। अतीत अब कहीं भी नहीं है, इसलिए क्यों लड़ रहे हैं? भविष्य को जन्म दें। किसी चीज के पक्ष में हो जाएं, तब ही आप विधायक होते हैं।
स्वतंत्रताएं दो तरह की होती हैः एक किसी चीज से छुटकारा; मुक्ति, और दूसरी किसी चीज के लिए स्वतंत्रता। एक युवा आदमी अपने मात-पिता से स्वतंत्र होने के लिए लड़ रहा है। वह हिप्पी हो जाता है। तब कुछ समय के लिए लड़ाई चलती है। माता-पिता कुछ नहीं कर सकते और वे उसे भूल जाते हैं। पहली बार वह लड़का विचार करने लगता है कि ‘अब क्या करें?’ क्योंकि अब तक केवल विरोध में था। स्वतंत्रता माता-पिता से लेनी थी; वह कहीं ले जाती हुई नहीं थी। वह किसी चीज के लिए नहीं थी। वह मांग किसी चीज के विरोध में थी। विरोधी-माता-पिता हट गए। अब? वह किकर्त्तव्यविमूड़ हो जाता है। तब-तब वह टूटने लगता है। उसकी ऊर्जा उसे ही चाटने लगती है और वह आत्मघाती नशों में डूबने लगता है। ऐसा व्यक्तियों के साथ ही नहीं, जातियों, देशों के साथ भी होता है। ऐसा सदैव ही हुआ है। आप स्वतंत्रता के लिए लड़ते हैं विदेशियों के विरुद्ध अथवा किसी के भी विरुद्ध। अंततः आप स्वतंत्रता प्राप्त कर लेते हैं, और तब आप खालीपन, रिक्तता का अनुभव करने लगते हैं। क्या करें? आप किसी बात के लिए नहीं लड़ रहे थे, इसलिए आपकी शक्ति भी शत्रु के साथ मृत हो जाती है। या फिर आपको दूसरों की स्वतंत्रता छीनने पर मजबूर करती है। और यह चक्र लगातार चलता रहता है।
एक बहुत ही शिक्षित युवक मेरे पास आया। वह बुरी तरह एक लड़की के प्रेम में पड़ा था, किंतु उसके माता-पिता उस लड़की के साथ उस युवक के विवाह के लिए राजी नहीं थे, क्योंकि वह लड़की उसी धर्म की नहीं थी। वह युवक कह रहा था-‘चाहे कुछ भी हो, चाहे मुझे सड़क पर भीख ही मांगनी पड़े, मैं इस लड़की से शादी करके रहूंगा, किंतु मेरे पिता जी मुझे निकालने वाले हैं यदि मैंने इस लड़की से विवाह किया।’ उसके पिता एक अमीर आदमी हैं। अतः मैंने इस लड़के से पूछा कि ‘क्या तुम सच में ही उस लड़की से प्रेम करते हो अथवा सिर्फ अपने पिता से क्रोधित हो? पहले इस बात का फैसला हो जाए, क्योंकि ये दोबिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। क्या सच ही तुम इस लड़की से प्रेम करते हो? अथवा यह प्रेम खाली एक सह-उत्पत्ति है? शायद तुम, वास्तव में, अपने पिता के खिलाफ हो और इस प्रेम की लड़ाई का आधार बना रहे हो, लड़ने के लिए?’
वह हिचकिचाया। उसने कहा-‘मुझे इस बात पर सोचने दें, मैंने इस बात पर नहीं सोचा। किंतु आप ऐसा प्रश्न क्यों पूछते हैं? वास्तव में ही मैं उसे प्रेम करता हूं।’ मैंने कहा-‘तुम जाओ और इस पर सोचो।’ वह फिर आया और उसने कहा-‘नहीं, मैं प्रेम करता हूं।’ मैंने सिर्फ उसकी आंखों में देखा और वह बेचैन हो गया। मैं चुपचाप रहा और लगातार उसकी आंखों में देखता रहा। उसने कहा-‘आप क्या कर रहे हैं? क्या आप सोचते हैं कि मैं प्यार नहीं करता?’ मैं फिर भी चुप रहा। उसने फिर कहा-‘क्या मतलब है आपका? आप इतने चुप क्यों हैं? क्या आप सोचते हैं कि मैं झूठ बोल रहा हूं, या कि मैं तर्क कर रहा हूं?’ मैं चुप ही रहा। उसने कहा-‘ऐसा लगता है आपने मरे मन की बात जान ली है। जितना मैं इस बात पर सोचता हूं, उतना ही मुझे लगता है कि मैं वस्तुतः अपने पिता के विरुद्ध हूं। परंतु फिर भी मैं यह विवाह तो करूंगा ही।’ अतः मैंने कहा-‘ठीक है। करो विवाह।’
पांच साल बाद उस युवक ने आत्महत्या कर ली। उसने मुझे एक पत्र लिखा-‘आपने ठीक कहा था। जिस क्षण मैंने विवाह किया, सारा प्रेम मर गया, क्योंकि इस विवाह के साथ ही पिता के साथ मेरी लड़ाई भी खत्म हो गई, और उस क्षण में फिर कोई रोमान्स न रहा, मजा न रहा। वह एक लड़ाई थी पिता के विरुद्ध। वह किसी चीज के पक्ष में, किसी के लिए नहीं थी।’ और उसने लिखा-‘अब मैं आत्महत्या कर रहा हूं, क्योंकि जीवन अब अर्थहीन है।’
जीवन एक ऊब हो जाएगा, यदि आप सदैव ही किसी के विरुद्ध होंगे और कभी भी पक्ष में न होंगे। विरुद्ध कभी भी न हों; सदैव पक्ष में हों। इसलिए जब मैं कहता हूं-धारा के विरुद्ध, तो मेरा मतलब है, शिखर के लिए। कामवासना बुरी नहीं है, किंतु शिखर उससे भी अच्छा है। इसलिए कभी भी अच्छे और बुरे की भाषा में न सोचें। सदैव अच्छे व उससे भी अच्छे की भाषा में सोचें। बुरे कोफेंक देना अच्छा है, उसे कोई भी महत्व न दें, मन में भी नहीं। सदैव अच्छे तथा उससे अधिक अच्छे की भाषा में सोचें। और आपका रूपांतरण होने लग जाएगा।
एक बार आप अच्छे और बुरे का द्वंद्व पैदा कर लें, जल्दी ही आप देखेंगे कि अच्छा गिर जाएगा, और बुरा, फिर उससे बुरा, फिर उससे भी बुरा पीछा करेगा। इसलिए बुरा कुछ भी नहीं है, किंतु उससे भी अच्छी और चीजें संभव हैं। सदैव इसे स्मरण रखें, तथा बेहतर चीजों के लिए संघर्ष करें। तब विधायक प्रवाह आपको उपलब्ध होगा।
दूसरा प्रश्नः भगवान, कैसे जाने कि अब वह पूर्णतः पाशविक वृत्तियों से, विशेषतया इंद्रियों की वृत्तियों से मुक्त हो गया है?
पहली बात, जब आप सचमुच ही मुक्त होते हैं, जब आप वस्तुतः ही मुक्त होते हैं, तो आप मुक्तता को भी अनुभव नहीं कर सकते। वह सदैव दासता के विरुद्ध जानी जाती है। इसलिए जब आप सचमुच ही मुक्त होते हैं, तब न तो आप स्वतंत्रता को और न ही दासता को महसूस कर पाते हैं। तब आप पूर्ण स्वतंत्र हैं। यदि आप स्वतंत्रता का भी अनुभव करते हैं, तो इसका मतलब होता है कि कुछ दासता कहीं न कहीं मौजूद है, भले ही वह ‘स्वतंत्रता की दासता’ क्यों न हो! स्वतंत्रता का पता दासता के विरोध में होता है। जब आप वास्तविक स्वतंत्रता, मुक्ति में प्रवेश करते हैं, तब आप एक ऐसे अस्तित्व में प्रवेश करते हैं जो कि क्षण-क्षण जीया जाता है, न तो अ-मुक्त, और न मुक्त।
किंतु प्रश्न की बनावट ही मन को अपने साथ लाती है-प्रश्न की बनावट है कि-‘कैसे कोई जाने कि वह मुक्त हो गया है?’ हम किसी चीज के खिलाफ है, ‘कैसे कोई जाने कि वह मुक्त हो गया है, विशेषतः ऐंद्रिक चीजों से!’ क्यों? सारा चित्त, सारी शिक्षा, सारे उपदेश, नैतिकता, धर्म, वे सब एक ही बात सिखा रहे हैं कि जब तक कामुकता नष्ट नहीं हो जाएगी, तुम कभी भी मुक्त न हो सकोगे। वे कहते हैं, जब तक इंद्रियां ‘न’ नहीं हो जाएंगी, आप मुक्ति नहीं पा सकोगे। तो कामुकता जानी चाहिए, और तब आप मुक्त होओगे। इसलिए हम पूछते हैं।
वास्तव में, जहां तब मेरी दृष्टि है, कामुकता वहां नहीं होगी, किंतु आप तब और भी अधिक संवेदनशील होंगे, जब आप सचमुच ही मुक्त होंगे। आप अधिक संवेदनशील होंगे, और आपकोप्रत्येक इंद्रियां इतनी स्पष्ट होजाएगी। और आप सोच भी नहीं सकते कि आपकी इंद्रियां आपको कितना क्या दे सकती हैं! कामोत्तेजना कुछ और बात है। वह संवेदनशीलता नहीं है। कामोत्तेजना का अर्थ होता है, किसी वस्तु के लिए बुरी तरह से तीव्र इच्छा, उसका अर्थ है, हर समय वही ख्याल मन में भरा हो।’
उदाहरण के लिए, एक आदमी जो कि लगातार खाने के बारे में सोच रहा है, वह ध्यान नहीं कर सकता, वह प्रार्थना नहीं कर सकता, वह पड़ भी नहीं सकता। जो कुछ भी वह कर रहा हो, सारे समय उसे भीतर भोजन चल रहा होता है। वह कल्पना में भी भोजन का स्वाद ले रहा होता है। यहां तक कि यदि वह स्वर्ग की भी सोचे, तो भी वह भोजन की ही सोचेगा। कि ‘स्वर्ग में किस प्रकार का भोजन मिलेगा?’
इसलिए ऐसे लोगों ने कहा है कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष होते हैं। कुछ भी विचार करो, और वह तुरंत मिल जाता है, एकदम। आप भोजन के लिए, सोचो, भोजन हाजिर है। आप किसी स्त्री के लिए सोचो, और स्त्री मौजूद है। आप शराब के बार में सोचो, और शराब हाजिर है। यह आपकी हर इच्छा को पूरी करने वाला वृक्ष है। जिन्होंने इस वृक्ष की कल्पना की वे बहुत ही गहरे इंद्रियलोलुप लोग होने चाहिए। कुरान में कहा गया है कि बहिश्त में शराब की नदियां बह रही हैं। अतः जिसने भी यह विचारा, वह बहुत गहरे में इंद्रियलोलुपता से जकड़ा हुआ होगा, तीव्र इच्छा से भरा होगा-ऐसी तृष्णा से कि स्वर्ग में भी उसने शराब की कल्पना कर डाली होगी।
जब इस्लाम अरब के देशों में फैल रहा था, होमो-सेक्सुअलिटी (समलिंगीयौन) एक स्वीकृत बात थी। इसलिए केवल मुसलमानों के स्वर्ग में समलिंगीयौन की इजाजत है-किसी और स्वर्ग में नहीं। ऐसा कहा जाता है कि सुंदर स्त्रियां ही नहीं-हूरें ही नहीं, बल्कि सुंदर लड़के भी वहां उपलब्ध होंगे। यह इंद्रियालोलुपता है। आप स्वर्ग की कल्पना भी अपनी वासनाओं के बिना नहीं कर सकते।
मैं यह नहीं कहता कि चीजें नहीं होंगी; मैं वह कह भी नहीं रहा हूं। हो सकता है, वे वहां हों। किंतु आप उनके बार में क्यों सोचते हैं? मेरा इससे कुछ मतलब नहीं है कि वहां क्या है, और क्या नहीं है। किंतु आपका मन यह क्यों नहीं समझ पाता या क्यों नहीं स्वीकार कर पाता कि जिस किसी चीज के लिए आप बहुत आतुर हैं, आपको उसके लिए प्रोविजन बनाना पड़ता है, जगह बनानी पड़ती है, और आपको उसके लिए पूर्व-तैयारियां करनी पड़ती हैं, योजनाएं बनानी पड़ती हैं। यही इंद्रियों की वासना है।
यह विरोधाभासी हैः जितने अधिक आप इंद्रियलोलुप होते हैं, उतने ही कम आप संवेदनशील होते हैं। संवेदनशीलता सदैव वर्तमान में होती है, वासना सदैव भविष्य में होती है। अतः यदि कोई आदमी सतत भोजन के बारे में सोच रहा हो, तो जब उसे भोजन दिया जा रहा होगा, तब भी वह भोजन का आनंद न ले पाएगा। वस्तुतः वह भोजन लेता जाएगा और साथ ही दूसरे भोजनों के बारे में सोचता चला जाएगा। एक व्यक्ति जो कि लगातार काम के संबंध में सोचता रहता है, वह संभोग में गहरे नहीं जा सकता। जब वह संभोग में जा रहा होगा, तो तब भी वह अन्य स्त्री या अन्य पुरुष की बात सोच रहा होगा। और तब एक दुष्ट-चक्र का निर्माण होता है।
जितना ही वह कम आनंद पाता है, उतना ही वह और अधिक सोचता है और सब कुछ मस्तिष्क से संबंधित, मानसिक हो जाता है। वह मस्तिष्क से खोता है, न कि शरीर से। उसका यौन भी मानसिक हो जाता है; उसकी प्रत्येक चीज सेरिब्रल (मानसिक) हो जाती है। हर बात में उसका मस्तिष्क अधिकार ले लेता है, और मन सिवा सोचने के और कुछ भी नहीं कर सकता। अतः दिमाग सोचता और विचारता चला जाता है। और वस्तुतः एक ऐसी दीवार निर्मित हो जाती है उसके मन के चारों ओर कि वह कम, और अधिक कम संवेदनशील हो जाता है। इंद्रियों का जीवन खोता जाता है, और मन इंद्रियों के प्रत्येक अधिकार छीन लेता है, और उनका शोषण करता है। और मन इसके अतिरिक्त कुछ कर भी तो नहीं सकता, लेकिन केवल सोचना ही आपको सुख या तृप्ति नहीं दे सकता।
जितना अधिक आप अतृप्ति का अनुभव करते हैं, उतना ही अधिक आप सोचते हैं। तब आप एक दुष्ट-चक्र में गिर जाते हैं, और अंत में पूर्णतः किसी भी चीज को इंद्रियों से अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं। यह इंद्रियलोलुपता है। इंद्रियां चूंकि मन के द्वारा दास बना ली गई हैं, अतः भोगों का आनंद लेने में असमर्थ हैं और मन बिना इंद्रियों के आनंदोपभोग कर नहीं सकता अतः सदैव तरसता रहता है और इंद्रियों को भोगों की ओर धकेलता रहता है। यही इंद्रियों की लोलुपता है, वासना है।
एक मुक्त चेतना इंद्रिय-लोलुप नहीं होगी, बल्कि संवेदनशील होगी-बहुत गहनता से संवेदनशील व इंद्रियजय। वास्तव में, जब एक बुद्ध एक फूल को देखते हैं, वे उस फूल को उसकी समग्रता में देखते हैं, उसके समग्र सौंदर्य में, उसकी पूर्ण जीवंतता में। उसका रंग, उसकी सुवास, उसकी हर चीज बुद्ध समग्रता में देखते हैं और तब उनका मन पूर्ण तृप्त हो जाएगा। वे फिर कभी फूल के बारे में नहीं सोचेंगे। वे कभी भी विषयातुर नहीं होंगे। वे फिर उसे बार-बार देखने की वासना से नहीं घिरेंगे। इसलिए नहीं कि वे संवेदनशील नहीं हैं, वरन इसलिए कि वे समग्र रूपेण संवेदनशील हैं, और उन्होंने इस अनुभव को इतने गहरे अनुभव कर लिया है कि उसे दोबारा अनुभव करने की आवश्यकता ही नहीं हर गई।
अपने अनुभवों को बार-बार दोहराने की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि आप कोई भी क्षण उसकी समग्रता से नहीं जी सकते। इसलिए आप खाते हैं, और फिर से खाने का विचार करते हैं। आप प्रेम करते हैं और उसे पुनः दोहराने के लिए सोचते हैं। आपका संबंध जीवने से कम है बल्कि उसे फिर से दोहराने से यादा है। यह दोहराने की वासना ही इंद्रियलोलुपता है।
एक बुद्ध इस अर्थ में इंद्रियालोलुप नहीं हैं, किंतु वे बहुत संवेदनशील हैं। उनकी इंद्रियों के द्वार बिल्कुल साफ हैं, पारदर्शी हैं। वे हर बात को पूर्णतः अनुभव करते हैं, वे हर क्षण को समग्रता से जीते हैं, वे हर पल को समग्रता से प्रेम करते हैं। और वे इतनी गहराई से अनुभव करते हैं कि उसे दोहराने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, इसीलिए वे उस पर दोबारा कभी भी नहीं सोचते। वे आगे और आगे बड़ते चले जाते हैं, और हर एक क्षण इतना समृद्ध होता है कि पुराने क्षण को दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। कोई भी तो जरूरत नहीं है। आवश्यकता पैदा होती है तब जब आप वर्तमान क्षण में जीने में असमर्थ हों। आप उपभोग में असमर्थ हैं, इसलिए आप चाहते चले जाते हैं।
यदि मैं इस शहर से गुजरूं और सोचूं कि लंदन यादा अच्छा है, मुझे वहां होना चाहिए-इसका इतना ही मतलब होता है कि मैं इस शहर का अनुभव करने के योग्य नहीं हूं। इसलिए स्मृति आती है। अन्यथा यदि मैं इस शहर में रह सकूं, तो लंदन की याद की कोई आवश्यकता नहीं है। और स्मरण रहे इस प्रकार का मन जब लंदन में होगा, तो वह वहां भी नहीं रह पाएगा, क्योंकि ऐसा मन वर्तमान क्षण में नहीं रह सकता जो कि मौजूद है। ऐसा चित्त लंदन पहुंच कर भी टोकियो के बारे में कलकत्ते के बारे में और दूसरी जगहों के बारे में सोचेगा, और इस तरह वर्तमान नगर का आनंद खो देगा और निरंतर तरसता रहेगा।
जियो!
एक समग्र रूप से मुक्त मन, यह तक नहीं जानेगा कि वह स्वतंत्र है, मुक्त है। यह प्रथम बात है। वह इतना मुक्त होगा कि वह मुक्तता के बारे में भी नहीं जानेगा। किसी दासता के बारे में जानने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह केवल जोजिंदगी चल रही है-क्षण-क्षण जो गति कर रही है-उसे ही जानेगा। और यह क्षण बिना किसी उत्प्रेरण के है, यही मतलब है मुक्तता का। यह क्षण अनुत्प्रेरित है। यदि तुम किसी उत्प्रेरणा के कारण चलते हो, तो समझो कि तुम बंधे हो भविष्य की किसी तृष्णा से, जो उत्प्रेरित करती है।
यदि मैं किसी प्रेरणा के कारण, किसी उत्प्रेरणा के वश कुछ कह रहा हूं, तो फिर मैं मुक्त नहीं हूं। यह उत्प्रेरणा, वह प्रोत्साहन ही मेरा बंधन है। और यदि मैं बिना किसी प्रोत्साहन के-बिना इतनी ही इच्छा के कि मुझे आपको इसे समझाना ही है, कुछ कहूं-तभी यह स्वतंत्रता है। बिना किसी प्रोत्साहन के बात की जाती है, तभी यह अपने में एक आनंद है। और इतना पर्याप्त है। यदि इसके आगे कुछ अन्य उत्प्रेरणा न हो, तो यह मुक्त क्षण है। इसलिए मुक्तता में आप उत्प्रेरणा से भविष्य में नहीं जीएंगे, आप सीधे वर्तमान में ही जीएंगे। यही वर्तमान समय में जीना ही मुक्तता है। किंतु उसकी कोई सजगता या जानकारी नहीं होती, क्योंकि तुम उसे किसी बंधन के विरुद्ध ही अनुभव कर सकते हो। इंद्रियों को लोलुपता नहीं रहेगी, किंतु इंद्रियां तो रहेंगी-और अधिक गहरी वह अधिक जीवंत। और यही होना चाहिए।
एक जीसस अधिक प्रेम कर सकते सचमुच, केवल एक जीसस ही प्रेम कर सकते हैं। ऐसा किसी प्रेरणा की वजह से नहीं है। उनका होना ही प्रेम है। इंद्रियां हैं, वस्तुतः पहली बार, बिना मन के दखल के; वे अब समग्रता से काम कर रही हैं। आंखें अब देखती हैं जैसे कि उनको देखना चाहिए। वे अब बिना किसी विचार के देखती हैं, वे बिना किसी पूर्व-धारणा के देखती हैं। वे अब वह देखती है जो कि है। उन पर मन के द्वारा कुछ भी प्रक्षेपित नहीं किया जाता।
कान सुनते हैं वह जो कि कहा गया है बिना किसी विकृति के, क्योंकि मन अब वहां पर नहीं है। हाथ छूते हैं उसे जो कि है, बिना किसी वासना के, बिना किसी लालसा के, बिना किसी प्रेरणा के, बिना किसी कामना के। हाथ सिर्फ छूते हैं, तब स्पर्श शुद्ध हो जाता है, समग्र हो जात है बिना किसी दखल के। वे सिर्फ स्पर्श करते हैं, तब स्पर्श गहरा हो जाता है। तब हाथों से भी आत्मा को स्पर्श कर लिया जाता है। हाथ एक मार्ग बन जाते हैं।
इंद्रियां अब अधिक शुद्ध, अधिक गहरी, अधिक प्रामाणिक हो गई है। क्योंकि उनमें लोलुपता नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति इतना गहरा जीता है कि वह कुछ भी कभी दोहराना नहीं चाहता। और यदि कुछ दोहराया भी जाता है, उसे कभी यह अनुभव नहीं होता कि वह दोहरा रहा है, क्योंकि अब सब कुछ नया है, ताजा है क्योंकि अतीत की कोईप्रतिच्छाया उस पर नहीं है। भविष्य की कोई तृष्णा भी उसे कोंचती नहीं।
जितना कम आप जीते हैं, उतना ही अधिक मन को कल्पना से भरना पड़ता है। जितना अधिक आप जीते हैं, उतनी ही कम मन को उसे करने की जरूरत पड़ती है। जब आप प्रेम में होते हैं, उस समय मन की क्या जरूरत है? जब आप खा रहे हैं, तब मन की क्या आवश्यकता है? जब आप चल रहे हैं, तब मन की क्या आवश्यकता है?
आप मन के बिना भी चल सकते हैं। आप बिना मन के बीच में आएं, बिना किसी विचारधारा के खा सकते हैं। आप किसी को स्पर्श कर सकते हैं, आप किसी को चूम सकते हैं, आप किसी को छाती से लगा सकते हैं, बिना किसी विचार-प्रक्रिया को बीच में लाए। और तब आप समग्रता से जीते हैं। और यदि कोई भी क्षण समग्रता से जी लिया गया हो, तो आप कभी इच्छा नहीं करेंगे कि उसे दोहराया जाएं, क्योंकि आप उसकी ही कामना करते हैं जो कि अधूरा ही रह गया हो। मन पीछे और पीछे जाता रहता है उसे पूरा करने के लिए। वह बड़ा ही अनुपूरक कारीगर है। प्रत्येक चीज पूरी होनी चाहिए। अतः यदि कुछ भी अधूरा छूट गया हो तो मन पीछे, और पीछे लौट-लौट कर जाता है।
यह ऐसा ही है जैसे कि आपका दांत टूट जाता है और आपकी जीभ बार-बार, सारे दिन वहीं-वहीं उसी स्थान पर उस अभाव को महसूस करने जाती है। आप थक जाएंगे, परंतु फिर भी आप उस अभाव को स्पर्श करेंगे। आप जानते हैं कि दांत अब वहां नहीं है, लेकिन लगातार यह जीभ वहां उस स्थान पर क्यों जाती है, जबकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ? जब दांत वहां था, तो जीभ ने उसे कभी ऐसे न छुआ था। जब दांत था तो जीभी क्यों कभी उसे स्पर्श करने के लिए सजग नहीं हुई? जबकि दांत नहीं हैं, तो जीभ वहीं-वहीं जाती है और पागल सी हो जाती है। क्यों? क्योंकि जीभ अब कुछ अधूरा, अपूर्ण महसूस करती है,-कुछ अंतराल, और वह अंतराल बार-बार पुकारता है।
इसलिए कोई भी अनुभव जो कि समग्रता में जी लिया गया हो, आप उसे फिर से मन में महसूस नहीं करेंगे। यदि आपने किसी कोप्रेम किया वास्तव में, तो उसकी कोई स्मृति नहीं बनेगी। स्मृति का अर्थ होता है कि मन वहां बार-बार जा रहा है। यदि आपने प्रेम नहीं किया है, तो ही अभाव महसूस होता है। आप दोषी महसूस करते हैं और आपको लगता है कि कुछ अनुभव करने से रह जाता है और उसे पूरा करना है और मन याद करता चला जाता है।
जितने ही स्वतंत्र आप होते हैं, उतनी ही कम आवश्यकता होती है कि मानसिक क्रिया द्वारा पूर्ति करने की। और इंद्रियों की वासना एक परिपूरक क्रिया है। आप समझें मुझे! इंद्रियों की लोलुपता जो कुछ भी आप खोते जा रहे हैं उसकी परिपूर्ति के लिए है। इसलिए चेतना रूपांतरित हो जाती है और पवित्र हो जाती है, शुद्ध हो जाती है, तब पवित्रता की, शुद्धता की कोई भावना नहीं होती। इसलिए वास्तव में, साधु वह होता है, जो कि जानता ही नहीं कि वह साधु है। केवल पापी हो जानते हैं कि वे साधु हैं। केवल पापी ही!
एक वास्तव में अच्छा आदमी जानता ही नहीं कि वह अच्छा आदमी है। केवल बुरा आदमी ही जानता है कि वह अच्छा है। आप अपने स्वास्थ्य को कैसे अनुभव करते हो? केवल एक रुग्ण व्यक्ति, एक बीमार व्यक्ति ही अपने स्वास्थ्य के बारे में सोचता है। जब आप स्वस्थ हैं, तो आप स्वस्थ हैं। वस्तुतः आपको कभी ख्याल भी नहीं आता है कि आप स्वस्थ हैं। आप अपने शरीर के बारे में तभी महसूस करते हैं, जब आप बीमार हों। इसलिए जब कोई स्वास्थ्य के बारे में बात करता चला जाता हो, तो विश्वास रखें कि वह रुग्ण है।
ऐसा अकसर होता है कि रुग्ण लोग स्वास्थ्य के बारे में बहुत से सिद्धांत बनाते चले जाते हैं। बीमार लोग अकसर स्वास्थ्य की बात करते रहते हैं और इसमें बड़े निपुण हो जाते हैं। ऐसा सदैव होता है कि यदि आप रुग्ण हैं और अपनी रुग्णता के बाहर नहीं हो पाते हैं, तो आप प्राकृतिक चिकित्सा के मानने वाले हो जाएंगे। यदि दवाइयां मदद नहीं करतीं, तो क्या करें? बराबर सोचना और स्वास्थ्य के बारे में पड़ना आपकोप्राकृतिक चिकित्सा का अनुगामी बना देगा। प्राकृतिक चिकित्सा एक तरह से अच्छी है, क्योंकि तब हर एक मरीज डॉक्टर बन जाता है। किंतु यदि आप वस्तुतः ही स्वस्थ हैं, तो फिर उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। और यही बात सब जगह लागू होती है।
जब आप मुक्त हो जाते हैं, तब आपको पता ही नहीं चलता; जब आप शुभ होते हैं, आपको उसका अनुभव नहीं होता; जब आप नैतिक होते हैं, तो आप क्षण-क्षण जीने लगते हैं, समग्रता से-यह दूसरी बात है जो कि कही जा सकती है। हम विशिष्ट कभी नहीं हो सकते, क्योंकि यह अन्य-सापेक्ष है। उदाहरण के लिए मोहम्मद ने नौ स्त्रियों से विवाह किया। हम महावीर के लिए ऐसा कभी सोच भी नहीं सकते, हम ऐसा बुद्ध के लिए नहीं सोच सकते। बुद्ध विवाहित थे और उन्होंने अपना घर छोड़ दिया, किंतु मोहम्मद ने नौ शादियां कीं। यदि आप एक जैन से पूछें, तो वह कभी नहीं कह सकता कि मोहम्मद एक आत्म-ज्ञानी थे। कैसे हो सकते हैं वे? और वही बात मुसलमानों के लिए लागू होती है। वे सोच भी नहीं सकते कि ये पलायनवादी महावीर और बुद्ध, ज्ञान को उपलब्ध कर चुके थे, क्योंकि जब कभी कोई आदमी ज्ञान को उपलब्ध कर लेता है, तो डरता नहीं, वे कहते हैं। वह नौ स्त्रियों से शादी कर सकता है और ये बुद्ध तो एक को ही छोड़ भागते हैं; वे पलायन कर जाते हैं। क्यों?
जैन कभी सोच भी नहीं सकते कि कृष्ण ज्ञान को उपलब्ध कर चुके थे, क्योंकि वे इतने सामान्य थे, ऐसी साधारण बातें कर रहे थे। प्रेम एक सामान्य बात है और वे प्रेम कर रहे थे, गा रहे थे, और नाच रहे थे और लड़ रहे थे और सब बातें कर रहे थे! तो फिर वे कैसे बुद्ध हो सकते हैं?
जैन सोचते हैं कि कृष्ण मर गए और वे आखिरी नरक-सातवें नरक में गए। उनके अनुसार वे सातवें नरक में हैं! कृष्ण सबसे बड़े संभव पापी थे, जैन कहते हैं, क्योंकि उन्होंने अर्जुन को लड़ने के लिए तैयार किया, युद्ध के लिए। वे कहते हैं कि अर्जुन एक महात्मा होने जा रहा था, वह तो बच कर भागना चाह रहा था, जबकि इस आदमी कृष्ण ने उसको बहकाया, फुसलाया और जबरदस्ती लड़ने के लिए राजी किया। इसलिए यह आदमी-कृष्ण जैनों की दृष्टि में, सर्वाधिक हिंसक व्यक्ति है और यह नरक में सड़ रहा है।
ऐसा होता है; यह स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि हम व्यक्तियों के प्रकार से, टाइप से ग्रसित हो जाते हैं, और तब हम किसी और प्रकार की स्वतंत्रता नहीं दे सकते-और किसी बुद्धत्व को नहीं मान सकते। यह भी अन्य-सापेक्ष है। यह जो टाइप है, वैयक्तिकता है, यह अंतिम छोर तक जाती है, शिखर तक, और यह शुद्ध हो जाती है, किंतु यह जाती है। इसलिए एक बुद्ध को लग सकता है कि अब उन्हें किसी स्त्री से संबद्ध होने की जरूरत नहीं। यह उन पर, उनके टाइप पर निर्भर करता है। और वे मुक्त हैं अपनी राह चलने के लिए, और एक मोहम्मद बिल्कुल भिन्न हैं और वे भी स्वतंत्र हैं अपनी राह चलने के लिए। और जब कोई स्वतंत्र हो जाता है, तो वह अपनी राह चलता है। आप कोई भी टाइप उस पर लाद नहीं सकते।
उदाहरण के लिए, मोहम्मद संगीत में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं रखते थे। वे रख भी नहीं सकते। यह उनका टाइप है। किंतु तब मोहम्मद सोचेंगे कि कोई भी व्यक्ति जो संगीत से प्रेम करेगा वह पापी होगा, इसलिए एक मुस्लिम मस्जिद में आप संगीत नहीं बजा सकते। किंतु मोहम्मद सुगंध के बड़े प्रेमी थे, इसलिए, मुसलमान लोग सुगंध कोप्रेम करते चले जाते हैं।
एक गरीब से गरीब मुसलमान भी त्यौहार के रोज सुगंध का उपयोग अवश्य करेगा। सुगंध भी उतनी ही इंद्रियगत है, जितना कि संगीत-बल्कि यादा ही। अतः अंतर क्या है? सुगंध नाक के लिए संगीत है और कुछ नहीं, और संगीत कान के लिए सुगंध है और उससे यादा कुछ भी नहीं। किंतु यह टाइप पर निर्भर करता है।
जब मोहम्मद मुक्त हुए, पूर्ण मुक्त-ज्ञान को उपलब्ध, तो उनका टाइप स्वतंत्रता से घूमने लगा अपनी ही राह पर, और एक अचानक विस्फोट, और एक अचानक अनुभूति सुगंध की हुई-बिना किसी उत्प्रेरणा के। किंतु जब अनुयायी आते हैं, वे उत्प्रेरणाएं निर्मित करने लगते हैं। वे सोचने लगते हैं कि कोई तो कारण अवश्य होना चाहिए। किंतु कारण वस्तुतः कुछ भी नहीं है। यह सिर्फ टाइप की स्वतंत्रता है।
मीरा गाती चली जाती है और चैतन्य गांव-गांव नाचते फिरते हैं। मोहम्मद सोच भी नहीं सकते ऐसा। यह क्या मूर्खता की बात है, नाचना! कैसे यह भगवद-अनुभूति से संबंधित वही बात मुसलमानों के लिए लागू होती है। वे सोच भी नहीं सकते कि ये पलायनवादी महावीर और बुद्ध, ज्ञान को उपलब्ध कर चुके थे, क्योंकि जब कभी कोई आदमी ज्ञान को उपलब्ध कर लेता है, तो डरता नहीं, वे कहते हैं। वह नौ स्त्रियों से शादी कर सकता है और ये बुद्ध तो एक को ही छोड़ भागते हैं; वे पलायन कर जाते हैं। क्यों?
जैन कभी सोच भी नहीं सकते कि कृष्ण ज्ञान को उपलब्ध कर चुके थे, क्योंकि वे इतने सामान्य थे, ऐसी साधारण बातें कर रहे थे। प्रेम एक सामान्य बात है और वे प्रेम कर रहे थे, गा रहे थे, और नाच रहे थे और लड़ रहे और सब बातें कर रहे थे! तो फिर वे कैसे बुद्ध हो सकते हैं?
जैन सोचते हैं कि कृष्ण मर गए और वे आखिरी नरक-सातवें नरक में गए। उनके अनुसार वे सातवें नरक में हैं! कृष्ण सबसे बड़े संभव पापी थे, जैन कहते हैं, क्योंकि उन्होंने अर्जुन को लड़ने के लिए तैयार किया, युद्ध के लिए। वे कहते हैं कि अर्जुन एक महात्मा होने जा रहा था, वह तो बच कर भागना चाह रहा था, जबकि इस आदमी कृष्ण ने उसको बहकाया, फुसलाया और जबरदस्ती लड़ने के लिए राजी किया। इसलिए यह आदमी-कृष्ण जैनों की दृष्टि में, सर्वाधिक हिंसक व्यक्ति है और यह नरक में सड़ रहा है।
ऐसा होता है; यह स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि हम व्यक्तियों के प्रकार से, टाइप से ग्रसित हो जाते हैं, और तब हम किसी और प्रकार की स्वतंत्रता नहीं दे सकते-और किसी बुद्धत्व को नहीं मान सकते। यह भी अन्य-सापेक्ष है। यह जो टाइप है, वैयक्तिकता है, यह अंतिम छोर तक जाती है, शिखर तक, और यह शुद्ध हो जाती है, किंतु यह जाती है। इसलिए एक बुद्ध को लग सकता है कि अब उन्हें किसी स्त्री से संबंध होने की जरूरत नहीं। यह उन पर, उनके टाइप पर निर्भर करता है। और वे मुक्त हैं अपनी राह चलने के लिए, और एक मोहम्मद बिल्कुल भिन्न हैं और वे भी स्वतंत्र हैं अपनी राह चलने के लिए। और जब कोई स्वतंत्र हो जाता है, तो वह अपनी राह चलता है। आप कोई भी टाइप उस पर लाद नहीं सकते।
उदाहरण के लिए, मोहम्मद संगीत में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं रखते थे। वे रख भी नहीं सकते। यह उनका टाइप है। किंतु तब मोहम्मद सोचेंगे कि कोई भी व्यक्ति जो संगीत से प्रेम करेगा वह पापी होगा, इसलिए एक मुस्लिम मस्जिद में आप संगीत नहीं बजा सकते। किंतु मोहम्मद सुगंध के बड़े प्रेमी थे, इसलिए मुसलमान लोग सुगंध कोप्रेम करते चले जाते हैं।
एक गरीब से गरीब मुसलमान भी त्यौहार के रोज सुगंध का उपयोग अवश्य करेगा। सुगंध भी उतनी ही इंद्रियगत है, जितना कि संगीत-बल्कि यादा ही। अतः अंतर क्या है? सुगंध नाक के लिए संगीत है और कुछ नहीं, और संगीत कान के लिए सुगंध है और उससे यादा कुछ भी नहीं। किंतु यह टाइप पर निर्भर करता है।
जब मोहम्मद मुक्त हुए, पूर्ण मुक्त-ज्ञान को उपलब्ध, तो उनका टाइप स्वतंत्रता से घूमने लगा अपनी ही राह पर, और एक अचानक विस्फोट, और एक अचानक अनुभूति सुगंध की हुई-बिना किसी उत्प्रेरणा के। किंतु जब अनुयायी आते हैं, वे उत्प्रेरणाएं निर्मित करने लगते हैं। वे सोचने लगते हैं कि कोई तो कारण अवश्य होना चाहिए। किंतु कारण वस्तुतः कुछ भी नहीं है। यह सिर्फ टाइप की स्वतन्त्रता है।
मीरा गाती चली जाती है और चैतन्य गांव-गांव नाचते फिरते हैं। मोहम्मद सोच भी नहीं सकते ऐसा। यह क्या मूर्खता की बात है, नाचना! कैसे यह ‘भगवद अनुभूति’ से संबंधित है? और एक चैतन्य सोच भी नहीं सकते कि वे बिना नाचे कैसे रह सकते है जब उस मित्र का आगमन होता है। कैसे वह बिना नाचे रह सकते हैं? एक चैतन्य की समझ में ही नहीं आ सकता कि कैसे एक बुद्ध बैठे रह सकते हैं जबकि परमात्मा उनके द्वार पर आया है। कैसे वे बैठे ही रह सकते हैं जबकि प्रकाश उतरा है! तुम्हें नाचते ही जाना चाहिए! तुम्हें पागल हो जाना चाहिए। किंतु ये प्रकार हैं, टाइप हैं और सब प्रकार के टाइपों को हमें मानना चाहिए। तभी यह संसार अधिक समृद्ध हो सकता है।
अतः मैं नहीं कह सकता कि आपके साथ क्या होगा, जब आप मुक्त होंगे-कौन-सी इंद्रियां शुद्ध होंगी, और कौन-सी इंद्रियां आपकी आत्मा की अभिव्यक्ति करेंगी। कोई भी नहीं कह सकता; यह पूर्व निश्चित नहीं है। किंतु एक बात अवश्यंभावी हैः इंद्रिय-लोलुपता तब नहीं होगी। इंद्रियां तो होंगी-यादा कुशल और अधिक शुद्ध, उनका अनुभव भी और अधिक शुद्ध वह गहन हो जाएगी। संवेदनशीलता तो होगी, परंतु कोई इंद्रिय-लोलुपता नहीं होगी।
तीसरा प्रश्नः भगवान, जीवन के तर्क-संगत तथ्यों को देखते हुए क्या कोई विश्राम के मार्ग तथा प्रयास के मार्ग का एक साथ अभ्यास कर सकता है? कृपया इसे स्पष्ट करें।
नहीं, यह संभव नहीं है। आप दोनों का एक साथ अभ्यास नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों एक दूसरे के बिल्कुल विरोधी हैं। वे एक ही बिंदु पर पहुंचते हैं, किंतु वे उसी रास्ते से, उसी प्रदेश से नहीं गुजरते। वे बिल्कुल विरोधी हैं।
दोनों का अभ्यास आप नहीं कर सकते, जैसे कि एक ही स्थान पर जाने के लिए दो मार्गों पर एक साथ नहीं चल सकते। दो सड़कें स्टेशन जा रही होती हैं। आप स्टेशन जा रहे हैं और दोनों सड़कें भी स्टेशन जा रही होती है। किंतु आप दोनों सड़कों पर एक साथ नहीं चल सकते। और यदि फिर भी आप चलें, तो स्टेशन नहीं पहुंच पाएंगे। दोनों सड़कें स्टेशन जाती हैं, पर आप वहां नहीं पहुंचेंगे, क्योंकि तब आपको दस कदम एक सड़क पर चलना होगा, फिर लौटना पड़ेगा, तब फिर पहली बार चलना पड़ेगा। इस तरह आप चलेंगे तो बहुत, किंतु पहुंचेंगे कहीं भी नहीं।
प्रत्येक मार्ग एक विशिष्ट मार्ग है। उसके अपने रास्ते हैं, अपनी सीड़ियां हैं, अपने मील के पत्थर हैं, अपने चिन्ह हैं, अपना दर्शन है, अपनी पद्धतियां हैं, अपने वाहन हैं, गति के अपने मापदंड हैं। उसका सब कुछ अपना है। प्रत्येक मार्ग पूरा है, इसलिए कभी दो मनों में न जीएं। यह सिर्फ उलझन पैदा करेगा। एक के पीछे चलें। जब आप अंत को पहुंचेंगे, तब आप जान पाएंगे कि यदि आपने दूसरे पर भी चला होता, तो भी आप पहुंच जाते। जब आप पहुंच ही गए, तो अब खेल की भांति दूसरे को भी आजमा सकते हैं, वह दूसरी बात हैः कि दूसरे को भी जानें कि वह भी पहुंचा देता है या नहीं। किंतु दो मार्गों पर एक साथ-युगपत न चलें, क्योंकि दोनों ही मार्ग इतने पूर्ण हैं कि यह सिर्फ अड़चन पैदा करेगा।
वस्तुतः पुराने दिनों में दूसरे मार्गों के बारे में जानना भी मना था, क्योंकि वह जानना भी परेशानी पैदा करता था और हमारा मन इतना बचकाना और इतना उत्सुक है, इतना मूड़तापूर्ण उत्सुक है कि यदि हम दूसरे मार्ग के बारे में सुनें अथवा पड़ें भी, तो हम दोनों को मिलाना शुरू कर देते हैं। और हम नहीं जानते कि जो कुछ भी एक विशेष मार्ग पर अर्थपूर्ण है, वह दूसरे मार्ग पर हानिप्रद हो सकता है। इसलिए आप उन्हें मिश्रित नहीं कर सकते।
कोई पुर्जा एक मोटर कार के लिए इतना अर्थपूर्ण, इतने काम का हो सकता है कि उसके बिना कार नहीं चलेगी। परंतु वही पुर्जा दूसरी कार में अवरोध बन सकता है। उसे काम में न लें, क्योंकि हर एक पार्ट अपने ही ढांचे में, अपने ही ढंग से महत्वपूर्ण है। जैसे ही आप उसे दूसरे इंजन में लगाते हैं, वह पार्ट अवरोध बन जाता है।
धार्मिक जगत में इतनी उलझन पैदा हो गई है, क्योंकि हर एक धर्म प्रत्येक को पता हो गया है और प्रत्येक मार्ग का पता प्रत्येक को है। और आप परेशानी में पड़ गए हैं, उलझन में पड़ गए हैं। अब, एक ईसाई कोढूंढ पाना कठिन है, एक हिंदू को खोज पाना कठिन है, एक मुसलमान कोढूंढना मुश्किल है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति थोड़ा हिंदू है, थोड़ा मुसलमान है, थोड़ा ईसाई है, और इससे बड़ा खतरा पैदा हो जाता है, क्योंकि यह आत्मघाती भी साबित हो सकता है।
मार्ग की शुद्धता एक मूल अनिवार्यता है किसी के लिए भी चलने के लिए। यदि किसी को सिर्फ चिंतन ही करना हो तो फिर किसी प्रकार की शुद्धता की कोई आवश्यकता नहीं। आप चिंतन करते रह सकते हैं। किंतु यदि आपका मार्ग पर चलना है, तो मार्ग की शुद्धता बहुत अनिवार्य है। और आपको ध्यान रखना पड़ेगा कि आप कुछ गड़बड़ तो नहीं करते; किसी विजातीय तत्व को तो उसमें नहीं घुसेड़ देते!
इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरा गलत है। इसका इतना ही मतलब है कि दूसरा भी सही है, किंतु अपने मार्ग पर। तुम्हें इससे यह निष्कर्ष नहीं लेना है कि केवल मैं ही सही हूं और दूसरा गलत है। दूसरा भी सही है अपने मार्ग से। और यदि आपको उस पर चलना हो, तो उस पथ पर चले जाओ, परंतु अपने मार्ग को पूरी तरह छोड़ कर।
इसीलिए पुराने धर्म कभी किसी को बदलने को तैयार नहीं थे। और उसका कारण केवल इतना ही था कि वे बहुत पुरानी, बहुत गहरी परंपरा को जानते थे कि धर्म-परिवर्तन करना उलझन में डालना है। यदि कोईईसाई की तरह से पाला गया है, और यदि तुम उसे हिंदू बना देते हो, तो तुम उसे उलझन में डाल दोगे, क्योंकि जो कुछ भी उसने जाना है, उसे वह कभी भूल नहीं सकता। अब आप उसे धो-पोंछ नहीं सकते। वह वही रहेगा। और उस आधार-शिला पर, आप जो कुछ भी हिंदुत्व का उसे देंगे, उसका वही अर्थ नहीं होगा, जो आपके लिए है, क्योंकि वह पुराना आधार वहां सदैव रहेगा। आप उसे सिर्फ उलझा देंगे। और वह उलझन उसे धार्मिक नहीं बनाएगी। वह बना भी नहीं सकती।
अतएव पुराने धर्मों ने (और वस्तुतः दो ही पुराने धर्म हैं-यहूदी व हिंदू; दूसरे तो सब उनकी ही शाखाएं हैं) बड़ी कट्टरता से धर्म न बदलने पर विश्वास किया। हिंदू-धारणा की दयानंद ने गड़बड़ किया, क्योंकि उनका दिमाग धार्मिक ढंग से नहीं, राजनैतिक ढंग से काम कर रहा था। और उन्होंने लोगों को अपने धर्म में बदलना प्रारंभ किया। परंतु हिंदू-धारणा की अपनी सुंदरता है।
इसका अर्थ यह नहीं होता कि दूसरे धर्म बुरे हैं, इसका यह भी अर्थ नहीं कि वे सही नहीं हैं। इसका ऐसा कुछ भी मतलब नहीं। इसका इतना ही मतलब है कि यदि तुम एक विशेष धर्म में बड़े हुए हो, तो अच्छा यही है कि तुम उसी का अनुगमन करो। वह तुम्हारे हड्डी व खून में गहरा चला गया है, इसलिए अच्छा है कि उसी का अनुगमन करो।
परंतु यह सब अब बड़ा असंभव हो गया है और अब यह कभी संभव नहीं होगा, क्योंकि पुराना सारा ढांचा टूट गया है। अब कोई भी ईसाई नहीं हो सकता, कोई भी हिंदू नहीं हो सकता। वह अब संभव नहीं, इसलिए एक नए वर्गीकरण की आवश्यकता है। अब मैं हिंदू की तरह, ईसाई की तरह, मुसलमान की तरह वर्गीकरण नहीं करता। वह वर्गीकरण अब संभव ही नहीं है। वह मृत हो सकता है, और उसे फेंक देना चाहिए।
अब हमें हर एक पथ का वर्गीकरण करना होगा। उदाहरण के लिए दो आधारभूत विभाजन हो सकते हैं-विश्राम का मार्ग तथा प्रयत्न का-श्रम का मार्ग; समर्पण का मार्ग और संकल्प का मार्ग। यह आधारभूत विभाजन है। तब दूसरे विभाजन उनके पीछे-पीछे आ जाएंगे, किंतु ये दो आधारभूत हैं और दोनों ही बिल्कुल विरोधी हैं। विश्राम के मार्ग का अर्थ है कि समर्पण करो अभी और यहीं बिना किसी प्रयास के। यदि तुम समर्पण कर सकते हो, तो इसे ग्रहण कर सकते हो; यदि समर्पण नहीं कर सकते, तो इसे ग्रहण भी नहीं कर सकते; तब कोई दूसरा रास्ता नहीं है। समर्पण का मार्ग बड़ा सरल है। यदि आप पूछते हैं ‘कैसे’, तो फिर इस मार्ग के लिए नहीं हैं, क्योंकि यह ‘कैसे’ दूसरे ही मार्ग से संबंधित हैं। ‘कैसे’ का अर्थ होता हैः किस प्रयत्न से, किस विधि से। ‘कैसे मैं समर्पण करूं?’ यदि तुम पूछते हो, तो फिर तुम इस मार्ग के लिए नहीं हो। तब दूसरे मार्ग पर चले जाओ।
यदि तुम बिना यह पूछे कि ‘कैसे?’ समर्पण कर सको, तभी यह संभव है। इसलिए यह सरल तो लगता है, किंतु यह बहुत कठिन है, बहुत कठिन क्योंकि ‘कैसे’ तुरंत आ जाता है। यदि मैं कहूं, ‘समर्पण करो’, तो तुमने अभी शब्द सुना भी नहीं कि ‘कैसे’ आ जाता है। अतः आप इस मार्ग के लिए नहीं हैं। तब दूसरा मार्ग है संकल्प का, प्रयास का, श्रम का। वहां प्रत्येक ‘कैसे’ का उत्तर दे दिया जाता है, कि कैसे करें। इसके कितने ही तरीके हैं।
इसलिए समर्पण का एक ही मार्ग है, और उसकी कोई शाखाएं नहीं हैं। हो भी नहीं सकती। समर्पण भिन्न-भिन्न तरह का नहीं हो सकता। समर्पण तो केवल समर्पण ही है। उसके कोईप्रकार नहीं हैं। प्रकार तो विधियों से संबंधित हैं। कितनी ही विधियां हो सकती हैं। किंतु चूंकि यहां कोई विधि नहीं है, अतः समर्पण शुद्धतम मार्ग है बिना किसी विभाजन के।
दूसरा मार्ग है-संकल्प का मार्ग। उसके कितने ही विभाजन हैं। सारे योग, विधियां इस दूसरे मार्ग से ही संबंधित हैं। यह कहता है कि तुम अभी विश्राम में नहीं जा सकते, अतएव हम तुमको तैयार करेंगे। एक पूर्व-तैयारी की जरूरत है। इन-इन मार्गों का अनुगमन करो और एक क्षण आएगा कि तुम गिर पड़ोगे।
यह मुश्किल लगता है; किंतु कठिन यह है नहीं। यह कठिन दिखलाई पड़ता है, क्योंकि यह मार्ग कहता है कि तैयारी, विधियां, इनमें वर्षों के प्रशिक्षण की, अनुशासन की आवश्यकता है। इसलिए यह कठिन लगता है, किंतु यह कठिन है नहीं-क्योंकि जितना समय आपको दिया जाता है, उतनी ही प्रक्रिया सरल हो जाती है। समर्पण सर्वाधिक कठिन प्रक्रिया है, क्योंकि इसमें कोई समय नहीं दिया जाता। वह कहता है-अभी और यहीं। तुरंत यदि तुम कर सकते हो तो ठीक, और यदि नहीं कर सकते हो, तो फिर कभी नहीं कर सकते।
बासो, एक जेन फकीर था, जो कोई उसके पास आता उससे वह कहता-‘समर्पण करो।’ यदि वह व्यक्ति पूछता है कि कैसे? तो वह कह देता कि ‘कहीं और जाओ।’ उसने अपनी पूरी जिंदगी भर सिर्फ दो ही वाक्य लगातार काम में लिए-तीसरा कभी नहीं। वह कहता-‘समर्पण करो।’ यदि तुम पूछते-‘कैसे?’ तो वह कहता कि ‘कहीं और चले जाओ।
कभी-कभी कुछ लोग आते और नहीं पूछते कि ‘कैसे’ और समर्पण कर देते। किंतु ऐसी घटना कभी भी घटती। जैसे-जैसे हमारा आधुनिक मन प्रगति करता जाएगा, समर्पण बहुत ही कम होता जाएगा, समर्पण कठिन होता जाएगा, क्योंकि समर्पण का अर्थ होता है एक निर्दोषता, एक श्रद्धा से भरा चित्त। उसके लिए प्रयास की जरूरत नहीं होती, उसे तो श्रद्धा की आवश्यकता होती है। वह विधि के लिए नहीं पूछता, मार्ग वे सेतु के लिए नहीं पूछता; वह तो छलांग लगाता है। वह सीड़ियों के लिए नहीं पूछता; वह कुछ भी नहीं पूछता।
किंतु दूसरा मार्ग श्रम का है, तनाव का है। और इसमें बहुत ही पद्धतियां संभव हो सकती हैं, क्योंकि कुछ करने के लिए कितनी ही विधियां होती हैं। कितनी ही विधियां हैं कि कैसे अंतिम तनाव पैदा करें कि आप विस्फोटित हो जाएं।
परंतु दोनों का अनुगमन न करें। आप कर भी नहीं सकते; आप दोनों के बारे में केवल चिंतन कर सकते हैं। अतः उलझन में न पड़ें। स्पष्टता से, ठीक-ठीक जानें कि आपके लिए कौन-सा मार्ग है।
क्या आप भरोसा कर सकते हैं? क्या आप बिना किसी ‘कैसे’ के छलांग लगा सकते हैं? यदि नहीं, तो विश्राम की बात भूल ही जाएं। तब समर्पण का विस्मृत कर दें। तब शब्द को भी भूल जाएं, क्योंकि आप उसे समझ ही नहीं सकते। तब श्रम की, प्रयास की जरूरत है और यह उपनिषद श्रम की बात कर रहा है-ऊपर की ओर प्रयास, मन का एक सुसंधानित तीर ऊपर की ओर-शिखर को जाता हुआ।
आज के लिए इतना ही।
बंबई, रात्रि, दिनांक 22 फरवरी, 1972
thank you guruji
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