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सोमवार, 20 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां

बंबई, रात्रि, दिनांक 24 फरवरी, 1972

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, परमात्मा को समर्पित करने के संदर्भ में, कृपया बतलाएं कि संकल्प व समर्पण का क्या महत्व है? संकल्प और समर्पण की क्या भिन्नताएं और समानताएं हैं?
अंत तो सदैव एक ही होता है, किंतु प्रारंभ भिन्न-भिन्न होता है और जितनी भी भिन्नताएं हैं, वे प्रारंभ की हैं। जितने ही करीब आप पहुंचते हैं, उतना ही मार्गों में अंतर कम होता जाता है।
प्रारंभ में संकल्प और समर्पण एक दूसरे के पूरी तरह विरोधी हैं। समर्पण का अर्थ होता हैः ‘संपूर्ण संकल्प-शून्यता’। आपका अपना कोई संकल्प नहीं है; आप बिल्कुल निःसहाय अनुभव करते हैं। आप ऐसा महसूस करते हैं कि आप कुछ नहीं कर सकते। आप इतने निःसहाय हैं कि आप इतना भी नहीं कह सकते कि संकल्प जैसी कोई चीज होती भी है। संकल्प की पूरी धारणा ही भ्रांतिपूर्ण है। आपका कोई संकल्प नहीं है, बल्कि, इसके विपरीत, आपकी नियति है, न कि संकल्प। अतएव आप केवल समर्पण कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि समर्पण आप करते हैं, वरन तथ्य ऐसा है कि आप कुछ और कर ही नहीं सकते।

अतएव, समर्पण कोई कृत्य नहीं है, वरन एक प्रत्यभिज्ञा है। वह कोई कृत्य नहीं है। समर्पण कृत्य कैसे हो सकता है? आप समर्पण कैसे कर सकते हैं? यदि आप ही समर्पण करते हैं, तो फिर आप उसे समर्पण कैसे पुकार सकते हैं, जबकि आप मालिक बने रहते हैं! यदि आप ही समर्पण करते हैं, तो फिर आप संकल्प करने वाले ही बने रहते हैं। समर्पण भी संकल्पित किया गया! और ये दोनों चीजें एक दूसरे के पूर्णतः विपरीत हैं। आप समर्पण का संकल्प नहीं कर सकते। अतएव समर्पण कोई कृत्य नहीं है, वरन एक प्रत्यभिज्ञा है-संकल्पशून्यता की घटना के घटित होने की प्रत्यभिज्ञा।
कोई संकल्प नहीं है, इसलिए आप संकल्प नहीं कर सकते। आप कुछ भी नहीं कर सकते। प्रत्येक बात मात्र घटना है। आप हुए हैं और जो कुछ भी उसके पीछे-पीछे हुआ है वह सब मात्र होना है-जस्ट ए हैपनिंग। इसे अनुभव करना, इसे जानना ही प्रत्यभिज्ञा है। अचानक आपको पता चलता है कि आपके भीतर कोई विल (संकल्प) नहीं है। इस जानकारी के साथ ही इगो(अहं) गायब हो जाता है, क्योंकि अहंकार तभी तक जी सकता है, जब तक कि संकल्प है।
अतः अहंकार का मतलब होता है विकसित कृत्यों की समग्रता। यदि संकल्प है, तो आप हो सकते हैं। यदि कोई विकल्प नहीं है, तो आप अदृश्य हो जाते हैं। तब आप महासागर में एक लहर की तरह से है और आप किसी चीज का भी संकल्प नहीं कर सकते। आप बस एक हैपनिंग हैं, होना हैं; तब फिर आप अपनी तरफ से नहीं हैं। एक महासागर में एक लहर क्या कर सकती है? वह तो सिर्फ सागर के द्वारा लहराई गई है। वह है नहीं, वह तो सिर्फ दिखलाई पड़ती है।
इसलिए यदि आप ऐसा अनुभव करते हैं और ऐसी अनुभूति स्वयं के भीतर एक गहरी खोज है कि क्या कोई संकल्प है? तब आप पाते हैं कि आप तो एक मृत पत्ते के समान हैं जो कि हवा के द्वारा उड़ाया गया है। इसलिए आप कभी उत्तर जाते हैं, और आप कभी दक्षिण जाते हैं। हां, कभी मृत पत्ता सोचने लग सकता है कि वह दक्षिण जा रहा है। परंतु केवल हवा चल रही है और पत्ता तो सिर्फ उसमें उड़ा जा रहा है।
यदि आप अपने भीतर जाएं तो आप समग्र संकल्पशून्यता से परिचित होंगे। उसकी प्रत्यभिज्ञा ही समर्पण है। वह कोई कृत्य नहीं है। और यदि आप समर्पण करते हैं, यदि समर्पण घटित होता है तो फिर अर्पण करने की कोईजरूरत नहीं। आप कर ही नहीं सकते। अतएव समर्पण के मार्ग में, वस्तुतः अर्पित करना संभव नहीं है, क्योंकि अर्पित करना, वास्तव में, संकल्प पर ही आधारित है। आप अर्पण करते हैं, आप वहां हैं। समर्पण की रहा पर अर्पण घटित होता है, परंतु समर्पण का पता भी नहीं चलता। वह जान ही नहीं सकता; वह कह ही नहीं सकता-‘मैंने अपने मन को परमात्मा को अर्पित कर दिया है।’ वस्तुतः वह कृत्यों की भाषा में बोल ही नहीं सकता; वह केवल घटनाओं की भाषा में बोलता है।
अतः यादा से यादा, वह इतना ही कह सकता है, ‘अर्पण घटित हो गया है।’ बिना संकल्प के आपके पास अहं नहीं हो सकता और बिना अहं के आप किसी भी बात के बारे में कर्ता की तरह नहीं बोल सकते। अतएव ‘होना’, हैपनिंग ही घटना है समर्पण के मार्ग में। समर्पण स्वयं ही एक ‘होना’ है, ‘हैपनिंग’ है।
किंतु संकल्प के मार्ग में दूसरी ही प्रक्रिया है। जैसे ही मैं कहता हूं, ‘संकल्प का मार्ग’, संकल्प को स्वीकार कर लिया गया। आप कुछ करते हैं। संकल्प के मार्ग में यह तथ्य है जो कि स्वीकार कर लिया गया है। इस पर कभी प्रश्न ही नहीं किया जाता, क्योंकि जो संकल्प का मार्ग अपनाते हैं, वे कहते है कि किसी चीज के लिए प्रश्न करना भी संकल्प को स्वीकार करना है। किसी भी वस्तु पर प्रश्न करने का अर्थ होता है कि संकल्प वहां है। प्रश्न की कर्म है; उत्तर देना भी कर्म है, संशय करना भी कर्म है; कहना भी कर्म है। अतएव संकल्प पर प्रश्न नहीं किया जा सकता है। संकल्प के मार्ग में संकल्प पर प्रश्न नहीं किया जा सकता। वही आधारभूत हाईपोथेसिस (परिकल्पना) है।
समर्पण के मार्ग में, संकल्प-शून्यता ही मूलभूत परिकल्पना है। आप उस पर प्रश्न नहीं कर सकते। अतएव इसे समझ लेना चाहिए। हर एक मार्ग पर कुछ न कुछ परिकल्पना है। वह तो होगी ही, क्योंकि आपको कहीं से भी शुरू तो करना ही है और आपको अज्ञान में ही प्रारंभ करना है। इन दो कारणों में एक परिकल्पना की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए आप विज्ञान में भी, कुछ अनुमान लेकर ही चलते हैं-कुछ मानकर, जिस पर कि प्रश्न नहीं किया जा सकता। और यदि आप उस पर प्रश्न उठाते हैं, तो पूरा ढांचा गिर जाता है।
उदाहरण के लिए, एक बड़ा सही वैज्ञानिक आयाम है रेखागणित का। परंतु आप अनुमान से, हाईपोथेसिस से शुरू करते हैं। आप कुछ मानकर प्रारंभ करते हैं जिसे कि न तो सिद्ध किया जा सके, न ही असिद्ध किया जा सके, क्योंकि वही बात सिद्ध की जा सकती है जो कि असिद्ध की जा सकती है। अतएव, शुरू करने के लिए आप कुछ भी ले लेते हैं अज्ञान में, श्रद्धा से। अतः विज्ञान भी, वस्तुतः, उतना वैज्ञानिक नहीं है जितना कि दिखलाई पड़ता है। यदि आप प्रारंभ पर वापस लौटें तोप्रत्येक साइंस हाईपोथेसिस (अनुमान) से शुरू होती है, और यदि आप हाईपोथेसिस पर ही प्रश्न करें, तो कोई उत्तर संभव नहीं होगा और यह वैसा का वैसा ही रहना चाहिए क्योंकि आप ‘न-कहीं’ से प्रारंभ नहीं कर सकते।
इसको इस तरह देखेंः यदि मैं एक अजनबी देश में जाऊ और किसी से पूछूं कि ‘अ’ नाम का व्यक्ति कहां रहता है। वह कह सकता है कि ‘अ, ब का पड़ोसी है।’किंतु मैं कहता हूं-‘यह को उत्तर नहीं हुआ, क्योंकि मैं बस को भी नहीं जानता। ब कहां रहता है?’ तब वह कहता है-‘ब, स का पड़ोसी है।’ परंतु मैं कहता हूं-‘मैं एक नए देश में आया हूं। मैं ब, स और ड, किसी के बारे में नहीं जानता हूं, अतः कृपया इस तरह बतलाएं कि मैं समझ सकूं। हर बात मेरे लिए अनजानी है, इसलिए कहां से शुरू करूं!’
यदि वह कहता है, ‘क, ख, ग, घ’, तो वे सब के सब अनुमान है। इसलिए कहां से प्रारंभ करूं? प्रारंभ संभव है यदि मैंने कुछ तो मान लिया है कि यह जाना हुआ है, हालांकि वस्तुतः वह भी अनजाना ही है। अन्यथा कोई उत्तर संभव नहीं है। और यही स्थिति है, ऐसी स्थिति में हम संसार में हैंः सब कुछ आत्मा है। अतः कहां से शुरू करें! यदि आप कहें कि ज्ञान से प्रारंभ करें, तो आप किस भांति शुरू कर सकते हैं? जहां कि सब कुछ अज्ञात हो, वहां से आप कैसे शुरू कर सकते हैं; किसी भी वस्तु से, एक ज्ञात तथ्य की तरह? तब आप शुरू ही नहीं कर सकते। और यदि आप अज्ञात तथ्य से प्रारंभ करने की कोशिश की, तब भी आप शुरू नहीं कर सकते।
एक परिकल्पना का अर्थ होता है कि एक अज्ञात तथ्य को अनुमान कर के ज्ञात की तरह ले लेना। एक परिकल्पना का अर्थ होता है कि एक अनजान बात को जानी हुई समझना। आप प्रारंभ कर सकते हैं। अतएव एक परिकल्पना पर कभी भी प्रश्न नहीं किया जा सकता-गणित में भी नहीं।
इसलिए संकल्प के मार्ग में विधि हाईपोथेसिस है, व समर्पण के मार्ग में संकल्प-शून्यता हाईपोथेसिस हैं। अतः यदि एक मार्ग आपको ठीक लगता है, तो आप दूसरे को नहीं समझ सकते, क्योंकि दोनों की परिकल्पनाएं विरोधी ध्रुव हैं। यदि संकल्पशून्यता आपको ठीक लगती है, तो संकल्प आपको ठीक नहीं लगेगा, वरन वह अर्थहीन लगेगा। और यदि संकल्प आपको ठीक लगता है, तब समर्पण अर्थहीन मालूम होगा।
संकल्प के साथ यह मान लिया गया है कि आप कर सकते हैं, अब यह प्रश्न होता है कि क्या करें। आप ऐसा कुछ कर सकते हैं कि जिससे कि आप परमात्मा से दूर चले जाएं और आप ऐसा भी कुछ कर सकते हैं जो कि आपको परमात्मा के निकट ले आए। और दोनों स्थितियों में आप ही जिम्मेवार होंगे। यह मैंने कल बतलाया हैः कैसे आप धीरे-धीरे उसके निकट होते चले जाएं, और कैसे आप अंततः समग्र हो जाएं अपने संकल्प में, कैसे अपने मन को पूर्णतया तीर की तरह साध लें उसकी ओर? परंतु यह बात स्मरण रखें कि संकल्प को आपने एक परिकल्पना की तरह लिया है। एक बार उसे परिकल्पना की तरह से लेकर आप संकल्प करते चले जा सकते हैं; अंततः आप संकल्प को समग्र कर सकते हैं, मतलब कि आप चित्त को उसकी ओर पूर्ण रूप से साध सकते हैं। उसे समग्र तनाव में, शिखर पर, आखिरी ऊंचाई पर, संकल्प धुल जाता है, क्योंकि पूर्णता मृत्यु है। जिस क्षण भी कोई पूर्ण होता है, वह मर जाता है।
इसीलिए लाओत्सू कहता है-‘कभी कुशल मत होना, आधे में ही रुक जाना; कभी अंत को मत जाना।’ यदि आप अंत तक गए तो सफलता, विफलता हो जाएगी, और जीवन मृत्यु में परिणत हो जाएगा। यदि आप अंतिम छोर तक गए, तोप्रेम घृणा में परिणत हो जाएगा, मित्रता शत्रुता हो जाएगी, क्योंकि पूर्णता का अर्थ होता है मृत्यु। और जब कोई चीज मरती है, तो वह अपने से विपरीत ध्रुव में ही मरती है।
अतएव जब संकल्प पूर्ण होगा, जब मन पूर्णतः उधर ही तीर की तरह सधा होगा, ‘संकल्प’ मर जाएगा, संकल्प विलीन हो जाएगा-क्योंकि पूर्णता वाष्पीकरण का बिंदु है, जैसे कि सौ डिग्री तक गरम करने पर पानी भाप बन जाता है। सौ डिग्री की सीमा पूर्णता की सीमा है। जहां तक पानी का सवाल है, गर्मी अपनी चोटी पर है। अब यदि गर्मी चालू रखी जाती है, तो पानी नहीं बचेगा। यदि पानी को रहना हो, तो गर्मी चोटी तक नहीं आनी चाहिए।
अतः यदि आप सौप्रतिशत संकल्प वाले होते हैं, तो आप विस्फोट के एकदम निकट होते हैं। आप मर जाएंगे; आपका संकल्प मर जाएगा। संकल्प की सारी घटना ही विलीन हो जाएगी और जब संकल्प ही विलीन हो जाएगा, तो आप उसी बिंदु पर पहुंचेंगे जहां कि कोई जो संकल्प-शून्यता से शुरू करके पहुंचता है। अब यह संकल्प-शून्यता है। अतएव चाहे शून्य और चाहे पूर्ण-दोनों एक ही बिंदु पर पहुंचते हैं। यह आप पर निर्भर करेगा, आपके मन के टाइप पर। यदि आप संकल्पशून्यता को समझ सकें, तो फिर कोईप्रश्न ही नहीं रहता। परंतु यह मुश्किल है, केवल मुश्किल ही नहीं, एक तरह से असंभव है। एक खास तरह से यह असंभव है, यह समझा नहीं जा सकता।
यह होता है; कभी-कभी यह घटित भी होता है। परंतु यह होना भी लंबी, बहुत लंबी संकल्प की कोशिश का ही परिणाम है। कई-कई जीवन संकल्प के साथ जीने के बाद पता चलता है कि आप स्वषन देख रहे थे। किसी व्यक्ति ने जिसने कि एक लंबे समय तक संकल्प की साधना की और फिर भी कहीं नहीं पहुंचा, वह ऐसे बिंदु पर पहुंच सकता है जहां कि उसे ऐसा लगे कि वह उस पर काम कर रहा है जो कि है ही नहीं।
जैसे कि एक बुद्ध उस अंतिम को पहुंचते हैं संकल्पशून्यता से। परंतु छह साल तक बहुत मेहनत से संकल्प के मार्ग पर वे इस जीवन में परिश्रम करते रहे। वे हर एक गुरु के पास गए, हर बात पर भारी मेहनत की जो भी बतलाया गया, हर एक मार्ग की खोज की और अपनी ओर से कुछ भी कसर नहीं उठा रखी। एक मानव जो भी कर सकता था, वह सब उन्होंने किया, और हर एक गुरु के पास उन्होंने कड़ी मेहनत की। और कोई गुरु यह नहीं कह सका कि ‘तुम्हें उपलब्धि नहीं हो रही है, क्योंकि तुम मेहनत नहीं कर रहे हो,’ क्योंकि वह गुरु से भी अधिक परिश्रम कर रहे थे। इसलिए हर एक गुरु को उनसे कहना पड़ा-‘मैं नहीं कह सकता कि तुम श्रम नहीं कर रहे हो। तुम पूरा श्रम कर रहे हो-इतना जो असंभव है। परंतु इतना ही है मेरे पास जो कि मैं सिखला सकता हूं। अब तुम कहीं और जाओ।’
और बिहार उन दिनों बड़ा उन्नतिशील प्रदेश था। केवल दो ही बार इतिहास में ऐसे शिखर छुए गए हैं। एक बार एथेन्स में, ग्रीक सभ्यता में। एथेन्स भी एक बड़ा समृद्ध शहर था और हर एक संभावना की स्थिति एथेन्स में ही घटित हुई। और दूसरी बार बिहार में। ऐसा हुआ कि बिहार शिखर को उपलब्ध हुआ उस सबके लिए जो कुछ भी मन कर सके। और बिहार में, बुद्ध के समय में हर प्रकार की पद्धति को जान लिया गया था और हरएक पद्धति का अपना गुरु था। और बुद्ध उन सबके पास रहे। उन्होंने बड़ा श्रम किया और बड़ी लगन के साथ किया। किंतु हर एक गुरु को कहना पड़ा कि तुम जाओ। क्योंकि वे समग्र होकर काम कर रहे थे और कुछ भी परिणाम नहीं निकल रहा था।
वास्तव में, वे आदमी ही ठीक नहीं थे, कम से कम संकल्प के मार्ग के लिए। महावीर जो कि उनको समकालीन थे संकल्प के मार्ग से गए थे, और उन्होंने उपलब्धि हुई थी, किंतु बुद्ध को कुछ भी प्राप्त न हो सका। सब तरह से श्रम करने के पश्चात एक निःसहायता की स्थिति में अचानक वे हताश हो गए और अपने को निःसहाय महसूस करने लगे। उन्होंने सब कुछ किया और कुछ भी उपलब्ध न हुआ, और वे वही के वही रहे बिना किसी रूपांतरण के। एक पूर्ण निराशा का भाव उनमें भर गया और एक दिन उन्होंने सब कुछ छोड़ दिया।
पहले उन्होंने संसार को छोड़ दिया था। वह प्रथम छोड़ना था। परंतु दूसरा जो कि शास्त्रों में नहीं लिखा है वह उससे भी बड़ा है। बौद्ध उसके बारे में बात ही नहीं करते। एक विशेष, पहले से भी बड़ा त्याग घटित हुआ थाः छह साल तक कड़ी मेहनत करने के बाद, बुद्ध ने संकल्प के मार्ग को छोड़ दिया था। उन्होंने कहा-‘मैं निःसहाय अनुभव करता हूं और ऐसा लगता है कि कुछ भी संभव नहीं है, कुछ भी किया नहीं जा सकता, इसलिए मैं सब प्रयत्न छोड़ता हूं।’
वह एक पूर्णिमा की रात थी और वे एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। संसार उन्होंने पहले ही त्याग दिया था। अब, उन्होंने सारे धर्म, सारे दर्शनशास्त्र, सारी विधियां भी उस शाम को त्याग दीं। वे उस पेड़ के नीचे विश्राम करने को लेट गए। प्रथम बार वे विस्तब्धता को उपलब्ध हुए-कई-कई जीवनों के बाद। किसी न किसी तरह वे सदैव ही काम करते रहे थे, कुछ न कुछ करते ही रहे थे और और पाने में लगे रहे थे। परंतु उस शाम उनमें वह जो उपलब्धि लुब्ध चित्त होता है, नहीं था। इतने समग्रतः निःसहाय थे कि समय मिट गया, भविष्य गिर गया, वासनाएं अर्थहीन हो गई। प्रयत्न अब संभव नहीं था, संकल्प अब नहीं खोजा जा सकता था।
अतएव वे वस्तुतः मृत हो गए-मनोवैज्ञानिक रूप से मृत। एक वृक्ष जैसे जीवित होता है, उसी अर्थ में वे भी केवल जीवित थे-बिना वासनाओं के, बिना किसी भविष्य के, बिना किसी संभावना के। वे उसी वृक्ष के सदृश थे जिसके नीचे कि वे सो रहे थे। इसे समझें, इसे समझने की कोशिश करें। यदि कोई इच्छाएं न हों, कोई भविष्य न हो, कोई सुबह आने को न हो, कुछ भी उपलब्ध करने को न हो, और हर चीज बस बेकार हो गई हो तब यह विचार कि ‘मैं नहीं कर सकता’ गहरे प्रवेश कर जाए, तब आप में और पेड़ में क्या अंतर रह जाता है? कोई अंतर नहीं है। वे ऐसे ही विश्राम में थे, जैसे कि वह पेड़ था। वे इतने ही आराम से थे, जैसे कि पास में बह रही नदी थी!
वे सो गए। यह सोना जरा विचित्रप्रकार का था। कोई सपना नहीं था, क्योंकि सपने सदा वासनाओं के होते हैं-प्रयत्न के, संकल्प के होते हैं। वे ऐसे सो गए, जैसे वृक्ष सो जाते हैं। वह सोना समग्र था। वे ऐसे थे, जैसे कि मृत हों। मन के भीतर कोई गति नहीं, भीतर कोई उकसाहट नहीं। सब कुछ रुक गया, समय भी रुक गया।
सुबह पांच बजे उन्होंने आंखें खोलीं। अच्छा हो कि यूं कहें कि आंखें खुली, क्योंकि उनकी कोई मरजी नहीं थी। जैसे कि आंखें शाम को बंद हो गई थीं, सुबह वे खुल भी गई। नींद से, विश्राम से, गहन निर्वासना से ताजा हुए बुद्ध ने आंखें खोलीं। आकाश में तब आखिरी तारा डूब रहा था और ऐसा कहा जाता है कि मात्र उस अंतिम तारे को डूबते हुए देखकर बुद्ध जाग्रत हो गए। उन्होंने पा लिया।
ऐसा क्यों हुआ? ऐसा हुआ, क्योंकि कोईप्रयत्न नहीं था। प्रयत्न खो गया था। कोई वासना भी नहीं थी। अब कोई निराशा भी नहीं थी, क्योंकि निराशा भी, इच्छा व आशा का ही हिस्सा है। यदि वास्तव में आशाएं मिट जाएं, तो कोई निराशा नहीं होती। वे मांग नहीं रहे थे, वे प्रार्थना नहीं कर रहे थे, वे ध्यान नहीं कर रहे थे। वे कुछ भी नहीं कर रहे थे। वे वहां केवल खाली बैठे थे। जब आखिरी तारा डूबा, तो उनके भीतर भी कुछ डूब गया। वे एक खाली जगह हो गए; वे मात्र एक शून्य रह गए।
यह समर्पण है-बिना समर्पण की भावना के, क्योंकि कौन समर्पण करे और किसको करे? अतएव ऐसा भी एक लंबी साधना के शिखर पर होता है। यही वह है जो कि मैं कहना चाहता हूं; कि किसी को भी संकल्प से शुरू करना पड़ेगा। संकल्प से शुरू करें। यदि आप उस टाइप के व्यक्ति हैं जो कि पूर्ण संकल्प को पहुंच सके, तो आप शिखर पर पहुंच कर खो जाएंगे। यदि आप उस टाइप के व्यक्ति न हुए तो विषाद की पूर्णता को उपलब्ध होंगे, और विषाद के उस शिखर से आप खो जाएंगे। यदि पहला ठीक है, तो संकल्प का मार्ग बन जाएगा; यदि दूसरा वाला ठीक है, तो वह समर्पण का मार्ग होगा।
अतएव संकल्प से शुरू करें और अपना सब कुछ उसमें लगा दें। केवल तभी आप जान सकेंगे कि यह मार्ग आपके लिए उपयुक्त है या नहीं। यदि वह काम करता है, तो फिर सब ठीक है। तब आप पूरे अहंकार को पहुंचते हैं, और जब इगो अहंकार पूर्ण हो जाता है, तो बुलबुला फट जाता है। और यदि आप उस टाइप के नहीं है तो आप गोल-गोल ही घूमते रहेंगे विषाद में, निराशा में। तब आप दूसरे शिखर को पहुंचते हैं-विषाद का शिखर-और समर्पण घटित हो जाता है।
इसलिए समर्पण के लिए ऐसा न सोचें कि आपको कुछ नहीं करना है; इसे याद रखें! ऐसा न सोचें-क्योंकि मन बड़ा चालाक है और मन कह सकता है, ‘समर्पण ही मार्ग है।’ उसका मतलब हैः ‘मैं कुछ भी करने वाला नहीं हूं’-समर्पण ही मेरा मार्ग है!
यह एक बारीक धोखा है। यदि समर्पण ही आपका मार्ग है, तो समर्पण इस क्षण भी हो सकता है, क्योंकि समर्पण में कोई समय नहीं लगता। उसके लिए कल नहीं होता। यदि आप कहते हैं कि समर्पण ही मेरा मार्ग है तो कल के लिए न ठहरें, क्योंकि समर्पण तो अभी और यहीं हो सकता है। समर्पण के लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है और समय की भी कोई जरूरत नहीं है।
यदि वह इसी क्षण घटित नहीं हो रहा है, तो जानें कि वह आपका रास्ता नहीं है। यह मन धोखा दे रहा है; यह मन प्रयत्न स्थगित कर रहा है। और मन सब कुछ कर सकता है। मन तर्क देने की कोशिश कर रहा है-‘कि संकल्प की जरूरत नहीं क्योंकि कोई संकल्प नहीं है, और मैं संकल्पशून्यता के मार्ग पर जाने को तत्पर हूं।’
किंतु स्मरण रहे कि आपकी तैयारी कुछ नहीं करेगी। आपकी तैयारी वास्तविक तैयारी नहीं है। आपकी ‘तैयारी’ वस्तुतः कोई योग्यता नहीं है समर्पण के लिए। आपकी समग्र निःसहाय अवस्था ही योग्यता है। क्या वस्तुतः ही आप पूर्ण रूपेण निःसहाय हैं? क्या आपने ऐसा महसूस किया है कि कुछ नहीं किया जा सकता? यदि आपने ऐसा अनुभव किया है, तो समर्पण इसी क्षण संभव है।
समर्पण स्थगित नहीं किया जा सकता, परंतु संकल्प को स्थगित किया जा सकता है। इसलिए संकल्प में आप वर्षों लगाते हैं-कोई जीवन, और आप धीरे-धीरे करते चले जा सकते हैं। परंतु समर्पण में कोई बाधा नहीं है और आप उसे भविष्य के लिए स्थगित नहीं कर सकते। इसमें भविष्य की सुविधा नहीं है। इसलिए यदि आप कहते हैं कि ‘समर्पण ही मेरा मार्ग है और किसी दिन वह हो जाएगा’, तो आप स्वयं कोधोखा दे रहे हैं। यदि समर्पण ही आपका मार्ग है, तो समर्पण अब तक हो गया होता।
किसी ने मोजार्ट से पूछा कि ‘आपका गुरु कौन है? आपने संगीत किससे सीखा?’ मोजार्ट ने कहा-‘मेरा कोई गुरु नहीं है। मैंने अपने आप ही इसे सीखा है-बिल्कुल अकेले।’ फिर प्रश्नकर्ता ने पूछा, ‘तो बतावें क्या मैं भी अपने आप अकेला सीख सकता हूं?’ मोजार्ट ने कहा-‘मैंने यह सवाल किसी से नहीं पूछा था। इतनी-सी बात जानने के लिए भी तुम मेरे पास आए हो। अतः अकेले संगीत सीखना तुम्हारे लिए मुश्किल होगा। यह भी तुम्हें किसी और से पूछना पड़ता है कि तुम अपने आप बिना किसी गुरु के संगीत सीख सकते हो कि नहीं, इसे निश्चित करने के लिए ही यदि एक गुरु की आवश्यकता पड़ती है तो तुम नहीं सीख सकोगे।’ उस आदमी ने आग्रह किया। उसने कहा-‘क्यों?’ जब तुम सीख सकते हो, तो मैं क्यों नहीं सीख सकता?’ मोजार्ट ने कहा-‘यदि तुम इस योग्य होते, तो अब तक कब के ही सीख गए होते।’
अतएव यदि समर्पण हो सकता हो और आप उसके लिए वास्तव में तैयार हों, तो वह हो चुका होगा। आप उसे चुन नहीं सकते। चुनें संकल्प को, क्योंकि संकल्प के साथ चुनाव का मेलजोल है। समर्पण के साथ चुनाव का कोई मेलजोल नहीं। चुनाव के लिए चाहिए संकल्प। अतः चुनें संकल्प को और डटकर श्रम करें। और केवल दो ही संभावनाएं हैं; या तो आप सफल होंगे या असफल। परंतु श्रम इतना करें कि आप यदि आप सफल होते हैं, तो पूर्ण सफल हों। अथवा यदि आप असफल होते हैं, तो आप पूर्ण असफल हों। और आपकी समग्रता ही तय करेगी कि क्या होना है।
अतः हलके व बीच के प्रयत्न कहीं नहीं ले जाते, क्योंकि तब मध्य के प्रयत्नों से आप कभी यह निश्चित नहीं कर सकते कि आपका टाइप कौन-सा है। हलके, कुनकुने प्रयत्नों से आप कभी तय नहीं कर सकते कि आपका टाइप क्या है। आप इसे कभी नहीं जान सकते। घोर परिश्रम करें; या तो पूरे सफल हों या पूरे असफल। दोनों ही तरह से आप उसी बिंदु को पहुंच जाएंगे। यदि आप पूर्णतः सफल हो जाते हैं, तो संकल्प खो जाता है। पूर्ण हो जाने से वह मर जाता है। यदि आप पूर्णतः असफल हो जाते हैं तब संकल्पशून्यता की प्रत्यभिज्ञा हो जाती है और समर्पण पीछे-पीछे चला आता है।
सारे प्रयत्न, सारी साधना संकल्प के मार्गों की है। जब कोई पूरे हृदय से कोशिश करता है और असफल हो जाता है, तब ही दूसरा मार्ग खुलता है। यह मार्ग अचानक खुलता है। यह संकटकालीन द्वार की तरह से है। किसी भी हवाई-दुर्घटना में आपके पास कूदने के लिए संकटकालीन द्वार होते हैं। भले ही आपको उनका पता न हो। जिससे आप भीतर जाते हैं, बाहर आते हैं, वह सामान्य द्वार है। वह जो संकटकालीन द्वार है, संकट के काल में ही खुलता है, तब जबकि संपूर्ण विफलता निश्चित हो जाती है कि अब सामान्य द्वार काम नहीं देगा।
समर्पण संकटकालीन द्वार है। आप संकल्प से शुरू करें। जब संकल्प पूरी तरह विफल हो जाए, तो संकटकालीन द्वार स्वतः खुलता है और आप उसके बाहर हो जाते हैं। और यदि आप सफल हो जाते हैं, तो फिर आपातकालीन द्वार के खुलने की कोई जरूरत नहीं है। बिना यह जाने कि कोई और द्वार भी था, आप अपनी मंजिल को पहुंच जाते हैं, वह आपातकालीन द्वार-जो कि किसी भी क्षण खुल सकता था, उसको बिना जाने।
अतएव आप समर्पण से प्रारंभ नहीं कर सकते; कोई भी नहीं कर सकता। प्रत्येक को संकल्प से ही शुरू करना पड़ेगा। उसमें जोबिंदु स्मरण रखने का है वह है-समग्र होना, ताकि आप किसी भी एक तरफ जाना तय कर सकें।

दूसरा प्रश्नः भगवान, आपने अकसर मन को अतीत के अनुभवों व स्मृतियों का संकलन बतलाया है जो कि सब मृत हैं। यहां तक कि उसकी दिखलाई पड़ने वाली शक्ति भी उसकी अपनी नहीं है। वह भी हमारे सच्चे स्वरूप (बीइंग) के स्रोत से प्राप्त की जाती है। कल रात आपने बतलाया कि मन ही एक ऐसी चीज है जो कि आप परमात्मा को अर्पित कर सकते हैं। किंतु क्या वह अर्पित करने योग्य है?

कुछ बातें समझ लेनी जरूरी है। प्रथम, मन के दो अर्थ होते हैं, एक-कंटेंट (विषय-वस्तु), दूसरा-कंटेनर-विषय-वस्तु का पात्र। जब मैं कहता हूं-‘कंटेंट’ तो मेरा मतलब है विचार, स्मृतियां, मृत-अतीत, उनका सबका इकट्ठा होना। किंतु वह केवल कंटेंट-विषय-वस्तु है। यदि सारे विषयों कोफेंक दिया जाए, तो भी कंटेनर बचता है। तब वह जो उन्हें रखने वाला है पात्र-वह बचता है। उस कंटेनर को अर्पित किया जा सकता है। ये विचार, ये स्मृतियां, अतीत, ये सब बेकार हैं-अर्पण करने योग्य नहीं, किंतु कंटेनर अर्पण करने योग्य है। अतएव मन के दो अर्थ हैं, और एक अर्थ है कंटेनर। उस कंटेनर को अर्पित किया जा सकता है और वही सूत्र का अर्थ है-‘मन के तीर का लक्ष्य निरंतर उसकी तरफ हो।’ उसका अर्थ है कंटेनर।
‘निरंतर उसकी तरफ सधा तीर हो’ का अर्थ है कि कंटेनर का अब कोई और कंटैंटस (विषय) नहीं सिवाय उसकेः कोई विचार नहीं, कोई स्मृति नहीं, कोई अतीत, कोई वासना नहीं, कोई भविष्य नहीं, कुछ भी नहीं। अब मन को एक कंटेनर की भांति एक ही विषय है-वह। यही अर्पण है।
ये सारे कंटेंटस (विषय) वस्तुतः मृत हैं, क्योंकि आपका मन इन्हें तभी ग्रहण करता है, जबकि ये मृत हो गए होते हैं। उदाहरण के लिए, आपका मन या तो अतीत में या भविष्य में डोलता रहता है। जब यह अतीत में डोलता है तो यह वहां डोलता है जहां कि यह मरा हुआ है। वहां सभी कुछ मर गया है; कुछ भी जीवित नहीं।
अतीत कहीं भी नहीं है सिवाय आपके मन के। कहां है अतीत? वह कहीं भी नहीं है। आप उसे कहीं भी नहीं पा सकते। वह केवल आपकी स्मृति में है। यदि मेरी कोई स्मृति है जो कि गुप्त है, मेरे पास रहस्य की तरह से है, और यदि वह केवल मेरी स्मृति है और कोई भी उसके बार में नहीं जानता, तब यदि मैं मर जाता हूं, तो वह स्मृति कहां होगी? वह कहीं भी नहीं होगी। इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह कभी थी भी या नहीं! क्या अंतर पड़ेगा इससे कि वह कभी हुई भी थी या नहीं! कोई भी अंतर नहीं पड़ेगा।
मृत अतीत केवल स्मृति में है। वह और कहीं भी नहीं। और इस अतीत के कारण, भविष्य प्रक्षेपित होता है। भविष्य है, क्योंकि अतीत है। मैंने तुमसे कल प्रेम किया, इसलिए मैं तुमसे कल भी प्रेम करना चाहता हूं। मैं उस अनुभव को दोहराना चाहता हूं। मैंने आपकी आवाज सुनी है और मैं उसको दोबारा सुनना चाहता हूं; मैं दोहराना चाहता हूं। अतीत अपने को दोहराना चाहता है। मृत फिर से जीवित होना चाहता है, इसलिए भविष्य निर्मित होता है।
ये ही दो मन के विषय हैं-अतीत वह भविष्य। यदि ये दोनों विषय गिर जाएं, और आपका मन खाली हो जाए, विचार-रहित, विषयरहित, तब आप बस यहां और अभी ही हैं, वर्तमान में, बिना किसी अतीत के, बिना किसी भविष्य के। और अभी और यहां ही ‘वह’ उपस्थित है। प्रत्येक वस्तु में एक साथ, युगपत ‘वह’ मौजूद है। जब आपका मन न हो, मेरा मतलब हैः जब आपका अतीत वह भविष्य न हो, आप ‘उसके’प्रति सजग होते हैं। और उस सजगता में ही केवल वह अनुभूति अथवा ‘उसकी’ अनुभूति ही एक मात्र कंटैंट (विषय) होती है। यही मतलब है सूत्र से-‘मन का तीर निरंतर उसकी तरफ सधा हो-वही अर्पण है।’ मन का कोई और विषय न हो सिवाय विश्व-सत्ता के अस्तित्व के।
जब मैं कहता हूं ‘मन को अर्पित करो’, तो मेरा मतलब कंटेनर से है, क्योंकि आप कंटैंटस को, विषयों को अर्पित नहीं कर सकते। वे अर्थहीन हैं, वे मृत हैं। जब आप कंटेनर को चड़ाते हैं-जीवंत मन को, जानने की जीवंत क्षमता को, होने की जीवंत क्षमता को-जब आप उसे समर्पित करते हैं, तो वही सच्चा अर्पण, ‘रियल ऑफरिंग’ है। और यह साधारण बात नहीं है; वह बड़ी दुर्लभ है, क्योंकि वह बड़ी कठिन है। और वह अर्पण करने योग्य है। और जब कभी कोई‘हैपनिंग’ होती है, जब कभी कोई बुद्ध, या कृष्ण, या क्राइस्ट स्वयं को अर्पित करते हैं, अपने मन को परमात्मा को समर्पित करते हैं, तो ऐसा नहीं है कि वे एक बुद्ध या एक जीसस ही समृद्ध होते हैं, वरन परमात्मा भी उनसे समृद्ध होता है।
यह समझना बहुत ही कठिन होगा। जब एक बुद्ध ने स्वयं कोप्रभु को समर्पित किया हो, तोप्रभु भी समृद्ध होता है, क्योंकि बुद्ध में भी प्रभु ही, दिव्य ही खिलता है, यहां तक कि बुद्ध में भी, दिव्य ही, प्रभु ही शिखर को पहुंचता है। इसलिए ऐसा नहीं है कि दिव्य कुछ अलग है। वह ऐसा नहीं है जो कि हममें न हो। अतएव अर्पण कुछ ऐसा नहीं है जो किसी अन्य को किया जाए। वह तो चेतना के सार्वभौम सागर को, सर्वसत्ता को, सामान्य स्वरूप को किया गया अर्पण है। इसलिए जब एक बुद्ध ने अर्पित किया तो बुद्ध ही समृद्ध होते हैं, क्योंकि तब बुद्ध समग्र हो जाते हैं। किंतु समग्र भी एनरिच (समृद्ध) होता है, क्योंकि बुद्ध के द्वार फिर एक शिखर छुआ गया।
परमात्मा आपमें जीता हैं; इसलिए जब आप गिरते हैं, तो परमात्मा गिर जाता है; जब आप उठते हैं, तो परमात्मा उठ जाता है। जब आप हंसते हैं तो परमात्मा हंसता है; जब आप रोते हैं तो परमात्मा रोता है, क्योंकि वह कुछ ऐसा नहीं है, जो कि सिर्फ देख रहा हो। वह आप में है। इसलिए हर एक कृत्य, हर एक हावभाव उसका ही है। इसलिए जो कुछ भी किया जाता है, उसके साथ ही किया जाता है, उसके द्वारा, उसके प्रति, उसमें ही किया जाता है।
कहानियां प्रचलित हैं। वे बहुत अनूठी हैं; वे काव्यात्मक हैं, परंतु वे बहुत कुछ दर्शाती भी हैं। ऐसा कहा जाता है कि जब बुद्ध को बुद्धत्व उपलब्ध हुआ, तो सारा जगत आनंद से भर गया-आकाश से फूल बरसे, देवता उनके चारों ओर नाचने लगे, इंद्र जो कि सब देवताओं का राजा है, हाथ जोड़कर उपस्थित हो गया। उसने भी बुद्ध के चरणों में सिर रख दिया। वृक्ष बिना मौसम के ही खिलने लगे। पक्षी बिना मौसम के गीत गाने लगे। सारा जगत एक समारोह हो गया।
यह काव्यात्मक है। वस्तुतः ऐसा कभी भी नहीं हुआ। परंतु बहुत गहरे अर्थों में ऐसा हुआ, और यह प्रतीकात्मक है, क्योंकि यह ऐसा ही है जैसा होना चाहिए। जब कहीं कोई बुद्धत्व को उपलब्ध हो, तो यह कैसे हो सकता है कि सारा अस्तित्व समृद्ध न हो? वह समृद्ध होगा और उसमें तरंगें प्राप्त होंगी। सारा जगत आनंद से भर जाएगा। इसलिए इन काव्य प्रतीकों द्वारा, वह प्रभाव दर्शाया गया है।
लेकिन मूर्खों, बेवकूफों का दिमाग है जो कि सोचता चला जाता है कि यह ऐतिहासिक सत्य होना चाहिए अथवा या काल्पनिक झूठ होना चाहिए-कि ये दो ही विकल्प हो सकते हैं। वे कहते हैं-‘यह एक ऐतिहासिक तथ्य होना चाहिए। अतः सबूत कहां है कि वृक्षों पर फल बिना मौसम के खिल उठे? कहां है प्रमाण? ऐतिहासिक सबूत चाहिए और यदि वह उपलब्ध नहीं है तो फिर यह बात झूठ है।’ वे नहीं जानते कि ऐसा भी एक क्षेत्र है, जो कि तथ्य के और झूठ के पर होता है-काव्य का क्षेत्र है-जो कि बहुत-सी बातों में व्यक्त करता है, जिन्हें कि किसी और तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह तो मात्र एक संकेत है कि सारा जगत एक समारोह हो गया। ऐसा होना ही चाहिए; ऐसा होना ही था और ऐसा हुआ भी!
अतएव जब यह मन अर्पित किया जाता है, निर्विषय-कंटैंटलेस, खाली खोखा-कंटेनर-विशुद्ध, पवित्र, खाली पात्र-जब ऐसा कंटेनर अपने आप को अर्पित कर रहा हो, तो वह अर्पण करने के योग्य है। तब प्रभु भी समृद्ध होता है, क्योंकि तब दिव्य भी और अधिक दिव्य होता है। अतः एक दूसरी बात, परमात्मा भी कोई ठहरी हुई चीज नहीं है। वह एक सृजनात्मक शक्ति है, एक सदैव गतिमान शक्ति है। इसलिए ऐसा नहीं है कि आदमी ही बन रहा है; परमात्मा भी विकसित हो रहा है।
हमारे में से जो कि सामान्य तर्क तक ही सीमित हैं, उनके लिए परमात्मा विकसित नहीं हो रहा है, क्योंकि हमारे लिए, यदि वह भी विकसित हो रहा हो तो फिर वह पूर्ण नहीं हुआ। पूर्णता कैसे विकसित हो सकती है! साधारण तर्क इस बात को नहीं समझ सकता कि कोई चीज पूर्ण से भी यादा पूर्णतर हो सकती है। वह सोच ही नहीं सकता। यह अतर्क्य लगता है।
किंतु यह जीवन आपके तर्कों में बंधा हुआ नहीं है और इसकी संभावनाएं हैं कि पूर्णता और अधिक पूर्ण बने, अधिक समृद्ध हो। पूर्णता भी विकसित हो सकती है। वह पूर्णता ही होगी हर क्षण। अभी भी वह ठहरी हुई नहीं होगी। उदाहरण के लिए, एक नर्तकः उसका हर एक हावभाव पूर्ण है। हर गति, हर मुद्रा पूरी तरह कुशल है। फिर भी, एक गत्यात्मकता है और उस सबका जोड़ हिस्सों से यादा कुशल है। हर एक नृत्य पूर्ण कुशल है; फिर भी अगला नृत्य अधिक कुशल हो सकता है।
महावीर की धारणा बहुत सुंदर है। वे कहते हैं कि अनंत पूर्णताएं हैं-बहु-पूर्णताएं हैं-इनफिनिस परफैक्शंस, मल्टीपरफैक्शंस। इसलिए परमात्मा विकसित हो रहा है। मेरे लिए परमात्मा एक विकसित होती हुई शक्ति है, अन्यथा कोई विकास नहीं हो सकता। यदि वह विकसित नहीं हो रहा, तो फिर कोई विकास नहीं है, क्योंकि विकास के द्वारा ही वह विकसित होता है। यही ‘दैट’ का, ‘उस’ का अर्थ है। यदि कोईफूल है, तो वह उसमें खिल रहा है। यदि कोई आदमी है, तो वह उसमें आदमी हो रहा है। अतएव जो कुछ भी हो रहा है, उसे ही हो रहा है और बिना उसके, बिना उसके बल के कुछ भी घटित नहीं हो सकता। अतः जब बुद्ध संबोधि कोप्राप्त होते हैं, तो समग्र भी अधिक समग्र हो जाता है।
बुद्ध कहते हैं कि ‘किसी देवता की पूजा करने जाने की जरूरत नहीं है; जागें, ज्ञान को उपलब्ध हों और वे तुम्हारी पूजा करने चले आवेंगे।’ और वे इस बात को किसी सिद्धांत की भांति नहीं कहते। देवतागण उन्हें पूजने आए थे। यह एक अनुभूति है। इसलिए यह बात सोचने जैसी है। केवल बौद्ध और जैनों ने ऐसा कहा हैः कि जब आप ज्ञान को उपलब्ध होंगे, तब देवता भी आएंगे और आपकी पूजा करेंगे। क्योंकि वे कहते हैं कि देवता भी बिना वासना के नहीं हैं। और जब आप ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं, तब आप वासनाशून्य हो जाते हैं, तो उनके भी पू य बन जाते हैं।
एक इंद्र भी बिना वासना के नहीं है। स्वर्ग में देवतागण हो सकते हैं, किंतु वे भी वासनामय हैं। अतएव बुद्ध और महावीर के साथ मनुष्य का गौरव अपनी अंतिम अवस्था तक ऊपर उठ गया। यदि आप वासनारहित हो जाते हैं, तोप्रत्येक वस्तु आपकी पूजा करती है, क्योंकि वासनारहित चेतना ‘उसके’ साथ एक हो जाती है। एक विषयरहित मन खाली अर्पण करने के योग्य ही नहीं है वरना परमात्मा के लिए भी जरूरी है। उसे भी उसकी आवश्यकता है, वह भी उसकी प्रतीक्षा में है। जब एक बच्चा ज्ञान कोप्राप्त होकर लौटता है, तो पिता समृद्ध होता है, घर की समृद्धि बड़ती है।
वास्तव में, जब एक बच्चा ज्ञान को उपलब्ध करके लौटता है, जब पिता अपने बालक को योतिर्मय देखता है, तो पिता वहीं नहीं रह सकता। इसलिए जब बुद्ध पल्लवित होते हैं तो सारा जगत उनके साथ खिल उठता है। वे उस संभावना कोफलित करते हैं, आखिरी संभावना को सिद्ध करते हैं। अभी आप उसको नहीं पहुंच सकते, परंतु इतना तो निश्चित है कि आप उसे प्राप्त कर सकते हैं। सारा विश्व आश्वस्त हो जाता है एक बुद्ध के घटित हो जाने पर। सारा जगत एक भरोसे से, एक आश्वासन से भर जाता है। वही बात हर एक कश, हर एक ‘मोनॉड’, हर एक मन के साथ हो सकती है; अब यह आप पर निर्भर करता है।
जब बुद्ध मर रहे हैं, आनंद बुद्ध पूछता है-‘आप वापस कब लौटेंगे?’ बुद्ध कहते हैं-‘यह असंभव है। अब मैं वापस नहीं लौटूंगा।’ आनंद रोने लगता है। बुद्ध उससे पूछते हैं-‘तुम क्यों रो रहे हो?’ तुम मेरे साथ चालीस साल से हो! यदि अब तक भी तुम्हें मुझसे लाभ नहीं मिला, तो तुम मुझे फिर से आने के लिए क्यों कहते हो?’
आनंद कहता है-‘मेरे लिए मैं नहीं कह रहा हूं। हमने यदि ‘उसे’ नहीं पाया है, तो भी आपने तो उसे पाया ही है और हम निश्चिंत हो चुके हैं। अब यह निश्चिंतता खो नहीं सकती। मैं दूसरों के लिए कह रहा हूं, जिन्होंने आपको नहीं देखा है। इसलिए कहें कि आप फिर कब आएंगे? क्योंकि यदि उन्हें उसकी झलक मिल सके, उस निश्चितता की जो कि आप हैं, तो ही वे अपने मार्ग पर आगे बड़ सकते हैं।
‘मैं अपने लिए नहीं कहता। भले ही कितने ही जीवन मैं भटकूं, किंतु यह भरोसा नहीं खो सकता। मैंने आपको देखा है, और मैंने यह शिखर की संभावना को देखा है। इसीलिए यह प्रश्न मेरे लिए नहीं है, यह तोदूसरों के लिए है। आप कब आएंगे फिर? आप ही एकमात्र भरोसा हैं। हम आपकी ओर देखते हैं और सारे संदेह गिर जाते हैं। हम आपकी ओर देखते हैं। हम वह सब करने में समर्थ नहीं है, इसलिए हम आपके पीछे चलते हैं। किंतु उस आदमी की ओर देखते हुए क्षण में, हम आप ही हो जाते हैं किसी खास अर्थ में। इसलिए कहें कि आप फिर कब आएंगे?’
इसलिए अर्पण मात्र करने योग्य ही नहीं है, बल्कि वह प्रतीक्षा भी है। परमात्मा प्रतीक्षा कर रहा है। समग्र, तुम्हारे समृद्ध होने की प्रतीक्षा कर रहा है, तुम्हारे वापस घर लौटने की, अपनी सभी प्रसुप्त संभावनाओं को पूर्णतः खिला कर; वह बीज की प्रतीक्षा कर रहा है, बीज की भांति ही लौटने की नहीं, बल्कि पूर्ण प्रकट होकर; वह उस विषयरहित मन की प्रतीक्षा कर रहा है। एक विषयों से भरे मन के लिए अर्पण बेकार है। आप कचरा अर्पित कर रहे हैं!
तीसरा प्रश्नः ध्यान के लिए प्रयत्नों के संबंध में समग्र संकल्प का क्या अर्थ है? ध्यान की कौन-सी अवस्था वांछित सफलता होगी?
‘समग्र’ होने का प्रथम अर्थ है कि आपका उसमें पूरी तरह संविलयन होना; आपका कोई बिना हिस्सा बाहर छूटे, बिना कुछ भी बचाए, बिना किसी विभाजन के। इस तरह कोई भी ध्यान की विधि काम देगी, यदि आप उसमें समग्र हो गए हैं, पूरे डूब गए हैं बिना किसी भी हिस्से के बाहर छूटे। यदि आप केवल ‘राम’ की आवाज करें समग्रता से, और आपका कोई भी अंग बाकी न बचे उसे देखने को भीतर या बाहर कि आप राम की पुकार कर रहे हैं, तो वह समग्र है। तब फिर एक पुकार पर्याप्त है। तब फिर बार-बार राम-राम-राम दोहराने की आवश्यकता नहीं है, उसकी कोई जरूरत नहीं है। एक समग्र पुकार, जिसमें पीछे कुछ भी नहीं बचे, काफी है। इसलिए केवल आप ही फैसला कर सकते हैं कि आप टोटल है या नहीं।
समग्रता का दूसरा मतलब यह है कि जो भी ध्यान की विधि आप कर रहे हैं, उसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। एक पल का संशय भी उस खंडित कर देगा, एक जरा-सा संदेह उसे समग्र नहीं होने देगा। किंतु वह भी आप ही तय कर सकते हैं कि क्या कोई संदेह है। हम कुछ भी करते चले जाते हैं भीतर संदेहों के साथ। वे संदेह हमारे सब प्रयासों को मार डालते हैं। ऐसा नहीं है कि आप इसलिए नहीं पहुंच रहे हैं कि आप काफी प्रयास नहीं कर रहे हैं। ऐसा अधिकतर इसलिए होता है कि पीछे संदेह खड़े रहते हैं। इसलिए जो कुछ भी आप करते हैं, उसे वह जो संदेह करने वाला चित्त का हिस्सा है, नकारता ही चला जाता है, संशय से भरता ही चला जाता है। यदि आप कुछ उपलब्ध भी कर लें, तो भी संदेहयुक्त मन संदेह उठाएगा उपलब्धि के संबंध में।
समग्रता का मतलब है कि कोई शंका नहीं है। प्रयास समग्र हो गया है। और तीसरी बात, हमारी ऊर्जा की बहुत सी परतें हैं, अतः हो सकता है कि आप पहली परत पर समग्र श्रम कर रहे हों और आपको दूसरी परत का कुछ भी पता नहीं हो। सारी परतें संलग्न हो जाएं; तभी टोटल होता है। इसलिए जब आप कर तो एक परत से रहे हों और महसूस यह कर रहे हों कि आप समग्रता से कर रहे हैं, तो इतनी जल्दी धोखे में न आ जाएं।
करते चले जाएं, और जब आपको ऐसा लगे कि ‘अब कुछ भी नहीं किया जा सकता; मैंने सब कुछ कर लिया और कोई शक्ति नहीं बची है,’ तब भी करते चले जाएं। यही क्षण है, करते चले जाने का-करते जाएं! और जल्दी ही आपको पता चलेगा कि अचानक शक्ति का एक प्रवाह दूसरी परत से आपके पास आ रहा है। एक नई भूमि तोड़ ली गई। तब भी करते चले जाएं। और जब आप पूरी तरह, समग्रता से सारी परतों के साथ संविलीन हो जाएं, तो आप कैसे जानेंगे?
कुछ चिन्ह हैं। एक चिन्ह यह है कि जब सारी परतें तोड़ दी जाती है और आपकी पूरी ऊर्जा उसमें लग जाती है, तो आप कभी भी थकान का अनुभव नहीं करेंगे। आप ऐसा अनुभव नहीं करेंगे कि एक बिंदु आ गया और इससे आगे मैं नहीं कर सकता। व भाव तभी होता है, जबकि एक परत थकती है। जब दूसरी परत थकती है तो वह भाव फिर लौटता है, और इस तरह सात परतें हैं। जब सातवीं परत भी तोड़ दी जाती है, तो वह भाव फिर कभी नहीं आता। तब आप कभी ऐसा महसूस नहीं करेंगे कि अब इससे आगे मैं नहीं कर सकता। आप और-और करते ही चले जाएंगे, और आप अनुभव भी करेंगे कि अभी और ऊर्जा बची है। तब आप जानें कि उसमें समग्र हुए।
समग्र कभी भी नहीं थकता-स्मरण रखें। केवल हिस्से ही थकते हैं। समग्र कभी भी नहीं थकता! आप उसे कभी खाली नहीं कर सकते। जितना आप उसे खाली करते हैं, उतना ही अधिक वह भर जाता है। इसलिए चाहे कुछ भी हो, आपकी समग्रता कभी नहीं थक सकती। यदि आपका प्रेम समग्रता से हो, तोप्रेम कभी भी नहीं थकता। यदि ध्यान भी आपकी समग्रता से हो, तो ध्यान भी कभी नहीं थक सकता।
मुझे बोकूजू का स्मरण आता है-एक झेन गुरु जिसे कि ज्ञान उपलब्ध हो गया था, जब वह केवल बीस साल का था। परंतु फिर भी वह ध्यान चालू रखता था। उसका गुरु आया और उसने कहा-बोकूजू, तुम यह क्या करते हो? अब कोई आवश्यकता नहीं है। मैं देखता हूं कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गए।’ परंतु बोकूजू ने कहा-‘मत्त ध्यान कैसे समाप्त कर सकता हूं? कोई अंत ही नहीं आता। मैं करता चला जाता हूं और मैं थकता ही नहीं हूं। इसलिए मत्त कैसे अंत करूं? मैं इसका को अंत ही नहीं देखता।’ गुरु ने कहा-‘जब काई अनंत में गिर जाता है, तब प्रारंभ तो होता है, पर कोई अंत नहीं आता। उसमें से बाहर आ जाओ। बाहर आ जाओ और घूमो। सच ही, मैं जानता हूं कि अब तुम उसमें से बाहर नहीं आ सकते। चलो और वह साथ होगा। बैठे मत रहो।’
वह सात सप्ताह लगातार बैठा रहा ज्ञान की उपलब्धि के बाद भी। वह बस बैठा था। उसके गुरु के लिए उस मोनेस्ट­ी के लिए सात सप्ताह हो गए। वह प्रकाश पा गया, उसे चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो गया। वह रूपांतरित हो गया। प्रत्येक को पता चल गया कि कुछ हो गया है। उसका गुरु आता और चला जाता, आता और चला जाता, हर दिन! उसने प्रतीक्षा की कि कब वह आंख खोले और कब वह उससे बातें करें। परंतु वह आंख खोलता ही नहीं था। तब अंततः गुरु को रोकना पड़ा और उसे कहना पड़ा कि बाहर आ जाओ।
उसने कहा-‘मैं कैसे बाहर आऊं? यह तो खतम ही नहीं होता। इसका तो कोई अंत ही नहीं है। और हर एक कह रहा है तुम्हें यहां बैठे हुए सात सप्ताह हो गए लगातार! इतना लंबा समय हो गया, परंतु मुझे कुछ याद नहीं। मुझे तो ऐसा लगता है कि जैसे एक क्षण भी नहीं गुजरा। मेरे लिए समय है ही नहीं।’
इसलिए जब समग्र ऊर्जा काम करती है, तो फिर कोई अंत नहीं आता, और समय गिर जाता है। आप समय को महसूस नहीं कर सकते। आप समय का अनुभव केवल आंशिक ऊर्जा से ही कर सकते हैं। क्योंकि वह थक जाती है। समय का अनुभव केवल सीमित को ही होता है; अन्यथा समय का अनुभव नहीं किया जा सकता।
समय केवल सीमितता का अनुभव है। अतः जिस किसी की भी सीमा है, उसके आसपास आप समय का अनुभव करेंगे। यह सापेक्ष है। इसलिए यह विचित्र घटना होती है। यदि तुम्हारा सारा दिन खाली हो बिना किसी घटना के, सिर्फ खाली हो, कुछ भी नोट करने योग्य न हो, कुछ भी काम की बात न हो, सारा दिन यूं ही गुजर जाए, तो समय बहुत लंबा लगेगा, जबकि वह निरंतर बीत रहा होगा।
अव्यस्त समय बहुत लंबा लगेगा। आपको लगेगा कि दिन आज समाप्त ही हनीं होगा, कि यह इतना लंबा हो गया! पर ऐसा तभी होगा, जब वह गुजर रहा हो। यदि आप बाद में स्मरण करें तो दिन बहुत छोटा लगेगा, क्योंकि बाद में बिना घटनाओं के आप समय को अनुभव नहीं कर सकते। अतः दिन बहुत छोटा दिखलाई पड़ेगा।
हमें किन्हीं खास वस्तुओं के इर्द-गिर्द समय का अनुभव होता है। इसलिए जब छुट्टी का दिन हो और बहुत-सी बातें हो रही हों, उस दिन समय बहुत छोटा लगेगा। क्योंकि कितना कुछ उसमें भर गया है, जिसकी तुलना में वह कम लगता है। परंतु यदि आप अपने छुट्टी के दिन को याद करें, जबकि आप वापस घर लौटे हों, तो वह बहुत लंबा लगता है क्योंकि हर एक घटना एक श्रंखला में फैल कर लंबी हो जाती हैं।
बोकूजू ने कहा-‘मुझे समय का कुछ भी पता नहीं। समय को क्या हुआ? वह तो रुक गया! महावीर कहते हैं कि एक मूल चीज जो कि पूर्णतः बदल जाती है, जब कोई समाधि में प्रवेश करता है, वह समय है। समय रुक जाता है। किसी ने जीसस से पूछा, ‘तुम्हारे प्रभु के रा य में क्या होगा?’ और वे कहते हैं-‘वहां कोई समय नहीं होगा।’ यही मूल इशारा है कि वहां समय ठहर जाता है, क्योंकि समय केवल आंशिक ऊर्जाओं से ही जाना जा सकता है।
इसीलिए एक बच्चा समय-शून्यता अनुभव करता है, क्योंकि वह यादा भरा-पूरा है। एक वृद्ध आदमी समय को यादा अनुभव करता है, क्योंकि वह अब खाली है। इसलिए बूड़े आदमी के लिए समय समस्या बन जाता है। बच्चे के साथ समय की कोई समस्या नहीं होती। वह समय-शून्यता में रहता है। और यही बात सभ्यताओं के साथ होती है। जब कभी कोई सभ्यता समय के प्रति यादा अधिक जागरूक हो जाती है, तो उसका मतलब होता है कि धीरे-धीरे वह सभ्यता मरने की ओर जा रही है। जब कभी कोई सभ्यता समय से बिल्कुल भी अवगत नहीं होती, तो उसका अर्थ होता है कि यह अपने बचपन में है निर्दोष। यह वृद्ध नहीं हुई। समय की सजगता का मतलब है कि मृत्यु निकट आ रही है। इसलिए जितना मृत तुम अनुभव करते हो उतना ही समय तुम्हें अधिक लगता है।
भारत में हमने समय को अनुभव नहीं किया, क्योंकि हमारे पास लगातार अनेकानेक जन्मों के वर्तुल की धारणा है। इसलिए हर बार आप मरते हैं, तो वह मृत्यु नहीं होती। आप फिर से जन्म ले लेते हैं। वस्तुतः भारत ने मृत्यु की धारणा को ही बिल्कुल नष्ट कर दिया। यदि आप फिर दोबारा जन्म जाते हैं, तो फिर वह मृत्यु कहां हुई? इसीलिए भारत कभी भी समय के प्रति सजग नहीं हुआ। हम इतने सुस्त हैं कि हम आसानी से भारत में समय को बर्बाद कर सकते हैं। इसका कारण यह है कि भारती चित्त में मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु के बाद जन्म है। अतएव अनंत समय है और कोई जल्दी नहीं है।
किंतु अमेरिकन चित्त, पश्चिमी चित्त समय के प्रति बहुत जागरूक है, क्योंकि उसका कारण ईसाईधर्म है, क्योंकि यदि आप यह कहते हैं कि एक ही जीवन है और मृत्यु अंतिम है और कोई पुनर्जन्म नहीं है, तब मृत्यु अर्थपूर्ण हो जाती है। और हर एक बात को उसके संदर्भ में ही लेना पड़ता है।
यदि मृत्यु अंतिम है और एक ही बार होती है, तो समय बहुत कीमती हो जाता है। उसे खोया नहीं जा सकता। और तब एक अजीब घटना घटती है। जितना अधिक आप समय के प्रति सजग होते हैं, उतना ही कम आप उसका उपयोग कर सकते हैं। आप केवल जल्दी कर सकते हैं और दौड़ सकते हैं। आप कम उपयोग कर सकते हैं, क्योंकि आप उतनी जल्दी में है। और समय का उपयोग करने के लिए आपको एक बड़े भारी धैर्यपूर्ण रुख की जरूरत है, एक बहुत धीरे-धीरे चलता हुआ रुख। तभी केवल आप उसका उपयोग कर सकते हैं।
अतः जब आपका मन समग्र रूप से संकल्प में होता है, तो समय की कोईधारणा नहीं होती और आती हुई ऊर्जा का कोई अंत नहीं होता। किंतु ये सब आंतरिक व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं। आप पूछ सकते हैं कि ‘क्या हम धोखा खा सकते हैं?’ हां, धोखा संभव है। परंतु जहां कहीं भी धोखा होगा आप जान जाएंगे। सजगता इस तरह से होगीः किसी भी आंतरिक अनुभव में, किसी भी आंतरिक प्रत्यभिज्ञा में यदि आपको शंका हो जाती है कि वह सच है या काल्पनिक, तब अवश्यमेव वह काल्पनिक है, क्योंकि सत्य इतना स्वतः प्रामार्यिं है कि आप उस पर संदेह कर ही नहीं सकते। संदेह करने वाला मन खो जाता है।
कभी-कभी मेरे पास कोई आता है और पूछता है-‘क्या मेरी कुंडलिनी जाग गई है। मेरा गुरु कहता है कि मेरी कुंडलिनी जाग गई है। तो कृपया मुझे बताएं।’ और मैं उससे कहता हूं कि जब तक तुम्हें, स्वतः प्रामार्यिं न हो जाए, किसी का विश्वास मत करना। जब वह घटना घटित होगी, तो तुम किसी के पास पूछने नहीं जाओगे कि ऐसा हुआ है या नहीं। यदि कोई तुम्हारे पास आए और पूछे कि ‘मुझे बतलाएं कि मैं जीवित हूं या नहीं?’ तुम क्या कहोगे? जरूर ही तुम मर गए हो! यदि यह भी पूछना पड़े कि तुम जीवित हो या मृत, तो निश्चित ही तुम मरे हुए हो।
जीवन एक स्वतःप्रमाणित तथ्य है। उसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। आपको अपना जीवन कैसा अनुभव होता है? क्या आपके पास उसका कोईप्रमाण है? कैसे तुम्हें पता चलता है कि तुम जिंदा हो? क्या कभी संदेह पैदा होता है कि मैं जिंदा हूं या नहीं?
देकार्त ने इसी भांति शुरू किया। वह किसी असंदिग्ध तथ्य की खोज में चला जिस पर कि कोई संदेह न किया जा सके। अतः वह इस तरह चलता गया-परमात्मा पर संदेह किया जा सकता है। स्वर्ग और नरक पर संदेह किया जा सकता है। प्रत्येक चीज पर संदेह किया जा सकता है। तब आखिर में वह स्वयं पर आया, और सोचने लगा-‘क्या मैं स्वयं पर भी संदेह कर सकता हूं? क्या मैं अपने लिए भी संदेह कर सकता हूं।’ तब वह स्वयंसिद्ध सत्य पर आया और उसने कहा-हालांकि मैं कहूं कि मैं नहीं हूं, पर फिर भी मैं हूं। अतः मैं इस तथ्य पर संदेह नहीं कर सकता। यह तथ्य उसके लिए आधार बन जाता है, इसलिए वह कहता है-कोजीटो इर्गो सूं-मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं-भले ही मैं संदेह ही करूं, मैं सोचता तो हूं; इसलिए मैं हूं। अतएव मत्त उसे नकार नहीं सकता।
जीवन एक स्वयंसिद्ध तथ्य है। आप उस पर संदेह नहीं कर सकते। वही बात होती है, जब अधिक जीवन घटित हो जाता है। जब आप बृहत्तर जीवन में प्रवेश करते हैं, जब आप समग्र जीवन में प्रवेश करते हैं, तो वह स्वतःप्रामार्यिं होता है। उसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ती; किसी गवाही की जरूरत नहीं होती। पूरा संसार भी इंकार करे, तो भी आप हंस सकते है। ये स्वतःसिद्ध अनुभूतियां हैं, इसलिए मैं इन्हें बतला सकता हूं। परंतु जब ये घटित होती हैं, तो आप जान जाते हैं कि वे हैं। आप जानते हैं और मन भी अपने में सुस्पष्ट हो जाता है। उसे किसी बाहरी सबूत की आवश्यकता नहीं होती, किसी बाहरी साक्ष्य की जरूरत नहीं होती। आपका जानना ही प्रमाण बन जाता है।
इसलिए रहस्यवादी कभी-कभी हमें बड़े अहंकारी प्रतीत होते हैं, जो वे वस्तुतः नहीं हैं। वे उतने नम्र हैं, जितना कोई हो सकता है, परंतु वे अहंकारी दिखलाई पड़ते हैं, और उनका अहंकार हमें महसूस होता है, क्योंकि उनकी अनुभूतियां स्वतः प्रामाणिक रूप से सत्य होती हैं। वे कोई सबूत नहीं देते; वे आपको कोई तर्क नहीं देते; वे कोई कारण भी नहींप्रस्तुत करते। वे केवल कहते हैं, ‘मैं जानता हूं।’
यह हमें बड़ा अहंकार दिखाई पड़ता है, परंतु वह ऐसा ही है जैसे मैं आपसे पूछूं कि ‘तुम्हें कैसे मालूम कि तुम जिंदा हो?’ क्या कह सकते हैं आप? आप इतना ही तो कह सकते हैं, ‘मैं जानता हूं।’ क्या यह घमंड है? यह एक सामान्य तथ्य है। कैसे आप उसे व्यक्त कर सकते हैं सिवाय यह कहने के कि मैं जानता हूं और स्वतः प्रामाणिक रूप से जानता हूं! इसके लिए कोई कारण नहीं है कि मैं हूं। मैं सिर्फ हूं।
ये उपनिषद के कथन भी ऐसे ही स्वतः प्रामाणिक कथन हैं। ये आपसे बहस नहीं करते। ये कहते चले जाते हैं-‘ऐसा-ऐसा है।’ आप नहीं पूछ सकते-क्यों? आप केवल पूछ सकते हैं-‘कैसे?’ आप कह सकते हैं-‘आप इसे कैसे उपलब्ध कर सकते हैं?’ आप पूछ नहीं सकते-क्यों? ‘क्यों ऐसा है?’ इसलिए जिस क्षण भी आप समग्रता में होते हैं, उस समग्रता में, आप उसे जान जाएंगे। और यह ऐसी घटना है कि आप सारे संसार पर संदेह कर सकते हैं सिवाय इसके। यहां तक कि यदि सारा संसार भी इसके खिलाफ साक्षी की तरह खड़ा हो जाए, फिर भी आपकी अनुभूति की प्रामाणिकता विचलित नहीं हो सकती।
इसीलिए एक जीसस मर सकते हैं, एक मंसूर कत्ल किए जा सकते हैं। उन्हें मार डाला जा सकता है, किंतु उन्हें बदला नहीं जा सकता, परिवर्तित नहीं किया जा सकता। उन्हें कनवर्ट नहीं किया जा सकता। आप एक मंसूर को काट सकते हैं, आप उसे बदल नहीं सकते। वह वही बात कहता चला जाएगा। मंसूर कह रहा था-‘मैं ही अल्लाह हूं।’ मुसलमानी की नजर में यह कुफ्र है-असत्य है, घमंड है। यह धार्मिक अभिव्यक्ति नहीं है। एक धार्मिक व्यक्ति को तो नम्र होना चाहिए, और यह मंसूर कहता चला जाता है, ‘मैं ही खुदा हूं-अनल हक-अहं ब्रह्मास्मि-मैं ही ब्रह्म हूं।’ इसलिए उन्होंने उसे मार डाला। उन्होंने सोचा कि जब वे उसे मारने लगेंगे, तो उसकी समझ लौट आएगी! परंतु वह हंसता चला जाता है और कोई पूछता है-‘मंसूर, तुम क्यों हंस रहे हो?’ मंसूर कहता है-‘मैं इसलिए हंस रहा हूं, क्योंकि तुम खुदा को नहीं मार सकते। तुम खुदा को नहीं मार सकते! अहं ब्रह्मास्मि-अनल हक-मैं ही खुदा हूं।’
जीसस अपने अंतिम शब्द में कहते हैं-हे परमपिता उन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि उन्हें पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं।’ वे जो कि उन्हें सूली पर लटका रहे हैं, उनके लिए वे परमात्मा से कह रहे हैं कि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं-‘दे डू नॉट नो व्हाट दे डू।’
किंतु मंसूर व जीसस पूरी दृड़ता से आश्वस्त हैं। यह आश्वस्ति सत्य की स्वतःप्रामाणिकता से आती है। और तो हर बात पर संदेह किया जा सकता है, किंतु वह अनुभूति जो कि आपकी समग्रता में आती है, उस पर संदेह नहीं किया जा सकता।
यदि आप समग्र संकल्प से भरे हैं, तो आप उसे जानेंगे जो कि स्वतः प्रामाणिक है। यदि आप पूर्ण समर्पण में हैं, तब भी आप कुछ ऐसा जानेंगे जो कि स्वतः प्रामाणिक है। यदि आप पूर्णरूपेण संदेह करने वाले हैं, तो भी उस चीज तब आ जाएंगे जो कि स्वतः प्रामाणिक है। केवल समग्रता ही मूल शर्त है। आपको उसमें समग्र होना चाहिए।
आज के लिए इतना ही।
बंबई, रात्रि, दिनांक 24 फरवरी, 1972

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