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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-27)

आत्म पूजा उपनिषद--भाग-2

नवाँ प्रवचन--दुःख-जागरण की एक विधि

प्रश्नसार:

यद्यपि ज्ञान दुःख के प्रति सजग करता है क्या फिर भी वह जीवन को एक गहराई नहीं देता?क्या बुद्ध की भाँति जीसस ने आंतरिक पूर्णचन्द्र चैतन्य की उस स्थिति को उपलब्ध कर लिया था?
भगवन्! आपने एक रात्रि कहा कि सजगता से ज्ञान होता है और ज्ञान आदमी को उसके भीतर की बहुत-सी समस्याओं, दुःखों के प्रति सजग करता है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि सजगता और ज्ञान मनुष्य के जीवन को अधिक समृद्ध करते हैं, बढ़ाते हैं और एक गहराई देते हैं?
कृपया, आदमी की इस विरोधाभासी स्थिति के बारे में समझायें और ज्ञान के पार जाने की विधि पर भी प्रकाश डालें।

अज्ञान आनंदपूर्ण है क्योंकि अज्ञान में आदमी को किसी भी समस्या का पता नहीं होता। लेकिन साथ ही उसे अपनी आनन्दपूर्ण स्थिति का भी पता नहीं होता। वह एक आनन्द की स्थिति है वैसी ही, जैसे कि तुम गहरी नींद में सोये होते हो। तब वहाँ कोई दुःख नहीं है, कोई चिन्ता नहीं है, क्योंकि जब तुम सोये हो किसी समस्या की कोई संभावना नहीं है। ज्ञान के साथ ही कोई बहुत-सी समस्याओं के प्रति जागता है, और बहुत दुःख नहीं है, कोई चिन्ता नहीं है, क्योंकि जब तुम सोये हो किसी समस्या की कोई संभावना नहीं है। ज्ञान के साथ ही कोई बहुत-सी समस्याओं के प्रति जागता है, और बहुत दुःख पैदा होता है। यह दुःख रहेगा, जब तक कि कोई ज्ञान के भी पार नहीं चला जाता।
अतः मनुष्य के मन की तीन स्थितियाँ है : प्रथम है-अज्ञान-इग्नोरेंस, जिसमें कि तुम आनन्द में होते हो, पर तुम्हें उसका कुछ पता नहीं होता। दूसरी है-ज्ञान-नॉलेज, जिसमें कि तुम्हें पता तो होता है, किन्तु तुम आनन्दपूर्ण नहीं होते, और तीसरी स्थिति है बुद्धत्व जागरण की, जिसमें कि तुम जागे हुए भी होते हो और आनन्दपूर्ण भी। एक अिर् में जागरण अज्ञान की भाँति ही होता है और दूसरे अर्थ में ज्ञान की भाँति। एक अर्थ में यह अज्ञान की तरह होता है क्योंकि यह आनन्दपूर्ण होता है, और ज्ञान की भाँति नहीं होता क्योंकि कोई दुःख नहीं होता। दूसरे अर्थ में यह ज्ञान की तरह होता है क्योंकि होश तो पूरा होता है, और अज्ञान की भाँति नहीं होता क्योंकि अज्ञान में होश जरा भी नहीं होता।
एक सजगता से परिपूर्ण आनन्दमय स्थिति बुद्धत्व है। ज्ञान मार्ग है, वह एक यात्रा है। तुमने अज्ञान छोड़ दिया है, तुमने अभी जागरण उपलब्ध नहीं किया। तुम दोनों के बीच में हो। इसी कारण ज्ञान तनाव है। या तो तुम ज्ञान से पीछे की ओर लौट जाओ और या तुम पार चले जाओ। और पीछे लौटना संभव नहीं है। तुम्हें अतिक्रमण के लिए ही संघर्ष करना पड़ेगा।
पूछा गया है कि क्या ज्ञान से समृद्धि आती है, आदमी का जीवन बढ़ता और गहरा होता है? बिल्कुल होता है। वह समृद्धि प्रदान करता है। क्योंकि जैसे ही तुम सजग होते हो, उस बढ़ती हुई सजगता के साथ तुम भी बढ़ते हो, फैलते हो। उस बढ़ती हुई सजगता के कारण तुम और-और बढ़ते जाते हो, क्योंकि तुम तुम्हारी सजगता ही हो। जब अज्ञान में होते तो, जैसे तुम होते ही नहीं। तुम्हें पता भी नहीं होता कि तुम हो। अस्तित्व है लेकिन बिना किसी गहराई के, बिना किसी ऊचाई के। ज्ञान के साथ, तुम अपने व आयामी अस्तित्व को महसूस करने लगते हो। लेकिन यह समृद्धि भी दुःख ही आती है।
दुःख समृद्धि के कुछ विपरीत नहीं है। दुःख ही तुम्हें समृद्ध करते हैं। दुःख पीड़ादायी है किन्तु वह तुम्हें गहराई देता है। एक जो कि कभी दुःखी हुआ, बहुत सतही होगा। जितना तुम दुःख भोगोगे-उतनी ही गहरी पर्तें तुम छू लोगे। इसीलिए एक बहुत संवेदनशील व्यक्ति अधिक भोगता है, और एक कम संवेदनशील व्यक्ति कम दुःख भोगता है। एक उथला मन कतई दुःख नहीं पाता। जितना गहरा मन होता है, उतनी ही पीड़ा गहरी हो जाती है।
इसलिए दुःख पीड़ा भी समृद्धि है। पशु दुःखी नहीं होते, केवल आदमी को दुःख होता है। पशु कष्ट में हो सकते हैं, लेकिन कष्ट दुःख नहीं है। जब कि मन पीड़ा को महसूस करने लगे और उसके बारे में सोचने लगे, उसके अर्थों के बारे में विचार करने लगे और उनके पार जाने की संभावना पर गौर करने लगे, तब वह दुःखी होता है। यदि तुम्हें सिर्फ पी़ा होती है, तो वह बहुत उथली बात है।
ऐसा देखा गया है कि चूहों की सोचने की क्षमता चार मिनट की होती है। वे चार मिनट भविष्य में और चार मिनट ही अतीत में सोच सकते हैं। चार मिनट से ज्यादा की बात उनके लिए नहीं है। उनकी सोचने की रेंज इतनी ही है। दूसरे चलनेवाले पशु है जिनके सोचने की रेंज बारह घंटे है। बन्दरों की रेंज चौबीस घंटे है। अतः जो संसार चौबीस घंटे पहले था, वह उनकी चेतना से गिर जाता है और चौबीस घंटे के बाद का संसार भी उनके लिए नहीं होता है। उनके दिमाग की सीमा चौबीस घंटे की होती है, इसलिए वे गहरे नहीं जा सकते।
मनुष्य की सीमा बड़ी होती है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक की रेंज होती है, और जो अधिक संवेदनशील व्यक्ति होते हैं, उनके लिए सीमा और अधिक बड़ी होती है। वे अपने पिछले जीवन भी याद कर सकते हैं और वे इस जीवन के बाद भविष्य के बारे में पूर्वकथन कर सकते है। इस सीमा के साथ गहराई भी उपलब्ध होती है, लेकिन दुःख भी प्राप्त होता है।
यदि एक चूहा चार मिनट से ज्यादा की बात नहीं सोच सकता तो उसके लिए भविष्य में दुःख की बात ही असंभव हो गई, अतीत के लिए भी दुःख असंभव हो गया। तीन मिनट के दायरे में ही सारा संसार होता है। इसलिए यदि चार मिनट पहले कोई दर्द था तो वह चार मिनट बाद खो जाता है। कोई स्मृति नहीं होती। यदि चार मिनट बाद का कोई डर है तो वह भी नहीं होता। उसे सोचा भी नहीं जा सकता उसे देखा नहीं जा सकता। वह है ही नहीं।
आदमी के साथ दुःख गहरा हो जाता है क्योंकि मन अतीत में जा सकता है और भविष्य की कल्पना कर सकता है। इतना ही नहीं, मनुष्य किसी और को दुःखी होते भी महसूस कर सकता है। पशु इसे अनुभव नहीं कर सकते। ऊँचे पशुओं को थोड़ी बहुत झलक होती है जो कि निम्न पशुओं को नहीं होती। निम्न पशुओं में यदि कोई समूह का पशु मर गया हो, तो वे उसके बारे में भूल जाते हैं। वे ऐसे ही चलते चले जाते हैं। मृत्यु कोइ्र समस्या ही नहीं है। न तो वे स्वयं अपनी मृत्यु की बात सोच सकते हैं और न ही वे ऐसा सोच सकते है कि उनके समूह के किसी सदस्य को कुछ हो गया है। यह असंभव है। यह ऐसा ही है जैसे कुछ भी न हो।
परन्तु आदमी सोचता है, महसूस करता है, विचार करता है-अपने दुःख के बारे में भी तथा दूसरों के दुःख के लिए भी। बहुत अधिक सहानुभूतिपूर्ण आदमी के लिए सहानुभूति स्वानुभूति भी हो जाती है। तुम्हें सख्त दर्द हो रहा है, मुझे महसूस हो रहा है कि तुम्हें दर्द हो रहा है। मैं जानता हूँ, और मैं सहानुभूति से भरा हूँ। परन्तु यदि मेरा मन अधिक संवेदनशील हुआ, तो मैं वही दर्द अनुभव भी कर सकता हूँ। तब वह स्वानुभूति हो जाती है।
रामकृष्ण एक दिन नाव से गंगा नदी पार कर रहे थे। अचानक वे जोर-जोर से चिल्लाने लगे, ‘‘मुझे मत मारो’’ उन्हें कोई नहीं मार रहा था। जो भी वहाँ मौजूद थे, वे सब उनके शिष्य थे, परम भक्त थे। वे बोले, ‘‘आप क्या कहते हैं? आपको कौन मार रहा है?’’
रामकृष्ण की आँखों में से आँसू बह रहे थे और वे चिल्ला रहे थे, ‘‘मुझे मत मारो।’’ शिष्यों की समझ में कुछ न आया, और तब रामकृष्ण ने उन्हें बताया कि दूसरे किनारे पर एक आदमी को कुछ लोग मार रहे थे। फिर उन्होंने अपनी पीछ खोलकर बतलाई, उनकी पीठ पर मार के निशान बने थे। जब वे उस किनारे पहुँचे, वे उस आदमी के पास गये जिसे कि पीटा जा रहा था। उन्होंने उनकी पीछ भी देखो। वे तो हतप्रभ रह गये। यह तो चमत्कार था। बिल्कुल वैसे ही निशान उसकी पीठ पर भी थे जैसे कि रामकृष्ण की पीठ पर थे।
यह स्वानुभूति है, एम्पैथी है। रामकृष्ण को तुमसे अधिक पीड़ा भोगनी पड़ती है क्योंकि अब दुःख उनका अपना ही नहीं है। सूक्ष्म रूप से सारे जगत की पीड़ा उनकी भी पीड़ा हो गई है। जहाँ कहीं दुःख है, रामकृष्ण को भी दुःख होगा। लेकिन इससे रामकृष्ण को गहराई उपलब्ध होगी। दुःख ही गहराई है। अतः ज्ञान से दुःख आता है और ज्ञान से गहराई भी मिलती है। यह जीवन को समृद्ध कर जाता है।
सकुरात ने कहा है कि यदि सुअर पूरी तरह भी आनन्द में है, तो भी मैं सुकरात होना ही पसन्द करूँगा, चाहे सुकरात होना दुखपूर्ण ही क्यों न हो। क्यों? यदि सूअर प्रसन्न है तो सूअर हो जाओ। क्यों सुकरात होते हो और दुःखी होते हो? कारण है गहराई। एक सूअर के पास गहराई नहीं होती। सुकरात के पास दुःख है, सबसे अधिक दुःख है, लेकिन फिर भी वह सुकरात होना ही पसदन्द करता है अपने सारे दुःखों के साथ।
यह जो दुःख है यह भी समृद्धि है। एक सूअर गरीब है। यह ऐसा है जैसे कि कोई व्यक्ति कोमा की स्थिति में मूर्च्छित पड़ा हो। उसे कोई दुःख नहीं है। क्या तुम कोमा की हालत में मूर्च्छित होना पसन्द करोगे? तो तुम्हें कोई दुःख नहीं होगा। यदि यह चुनाव नहीं हो, तो तुम, तुम होना पसन्द करोगे चाहे कितना भी दुःख क्यों न हो। तब तुम कहोगे कि मैं सचेतन रहूँगा और दुःख सहन करूँगा, बजाय कोमा की स्थिति में पड़े रहने के और बिना किसी यातना के। क्योंकि वह बिना दुःख की हालत मृत्यु के समान है। वहाँ दुःख है, लेकिन फिर भी एक समृद्धि है-अनुभूति की समृद्धि, मन की समृद्धि, जीवन की समृद्धि।
स्टनबेक ने कहीं पर अपनी डायरी में लिखा है, बिल्कुल ही प्रेम न करने के बजाय जीना और प्रेम करना अच्छा है। टेनीसन ने कहा है, बिल्कुल ही प्रेम न करने से तो प्रेम करना और फिर उसे खो देना अच्छा है। प्रेम का अपना दुःख होता है। वास्तव में, बिना किसी प्रेम के जीवन कम दुःखपूर्ण होता है। इसलिए यदि तुम प्रेम छोड़ सको तो तुम बहुत से दुःखों से छूट जाओगे। और यदि तुम प्रेम के लिए खुले हो, तो तुम अधिक दुःखी होओगे। परन्तु प्रेम गहराई देता है, समृद्धि देता है। इसलिए यदि तुमने प्रेम का दुःख नहीं भोगा है तो तुम वास्तव में जिए ही नहीं हो। प्रेम गहरा ज्ञान है।
जिसे हम नॉलेज कहते हैं, ज्ञान कहते हैं वह सिर्फ एक परिचय है-किसी को जानना, किसी वस्तु को जानना, सिर्फ बाहर से। जब तुम किसी को प्रेम करोगे, तो तुम उसे भीतर से भी जानोगे। अब यह परिचय नहीं है। जब तुम किसी के भीतर गहरे उतर गये हो तो अब तुम अधिक दुःख भोगोगे, लेकिन प्रेम तुम्हें जीवन का एक दूसरा ही आयाम प्रदान करेगा। इसलिए जिस आदमी ने प्रेम नहीं किया, वह मानव के तल पर जिया ही नहीं। और चूँकि प्रेम इतना दुःख लाता है कि हम उससे दूर भागते हैं। हर आदमी प्रेम से बचता है। हमने प्रेम से बचने के लिए बहुत-सी तरकीबें खोज लीं हैं। क्योंकि प्रेम से दुःख आता है लेकिन यदि तुम प्रेम से बचने में सफल हो गये हो, तो तुम एक विशिष्ट गहराई से बचने में भी सफल हो गये हो, जो कि केवल प्रेम ही ला सकता है। ज्ञान में बढ़ो और तुम दुःख में बढ़ जाओगे। प्रेम में आगे बढ़ो और तुम और अधिक दुःख में बढ़ जाओगे-क्योंकि और भी गहरा ज्ञान है।
जिसे हम नॉलेज कहते हैं, ज्ञान कहते हैं वह सिर्फ एक परिचय है-किसी को जानना, किसी वस्तु को जानना, सिर्फ बाहर से। जब तुम किसी को प्रेम करोगे, तो तुम उसे भीतर से भी जानोगे। अब यह परिचय नहीं है। जब तुम किसी के भीतर गहरे उतर गये हो तो अब तुम अधिक दुःख भोगोगे, लेकिन प्रेम तुम्हें जीवन का एक दूसरा ही आयाम प्रदान करेगा। इसलिए जिस आदमी ने प्रेम नहीं किया, वह मानव के तल पर जिया ही नहीं। और चूँकि प्रेम इतना दुःख लाता है कि हम उससे दूर भागते हैं। हर आदमी प्रेम से बचता है। हमने प्रेम से बचने के लिए बहुत-सी तरकीबें खोज लीं हैं। क्योंकि प्रेम से दुःख आता है। लेकिन यदि तुम प्रेम से बचने में सफल हो गये हो, तो तुम एक विशिष्ट गहराई से बचने में भी सफल हो गये हो, जो कि केवल प्रेम ही ला सकता है। ज्ञान में बढ़ो और तुम दुःख में बढ़ जाओगे। प्रेम में आगे बढ़ो और तुम और अधिक दुःख में बढ़ जाओगे-क्योंकि और भी गहरा ज्ञान है।
समृद्धि तो होगी लेकिन यही विरोधाभास है और इसे गहराई से समझ लेना चाहिए। जब तुम अधिक चाहिए। जब तुम अधिक धनवान हो जाते हो, तो तुम्हें अपनी गरीबी का अधिक पता चलता है। जब कभी तुम्हें समृद्धि का पता चलेगा, तो साथ ही तुम्हें अपनी गरीबी का भी अधिक पता चलेगा। वास्तव में एक गरीब आदमी-एक वस्तुतः गरीब आदमी-अपने को कभी गरीब अनुभव नहीं कर पाता। केवल एक धनवान आदमी ही एक गहरी दरिद्रता का अनुभव करता है। यदि तुम एक भिखारी को देखो, तो वह अपने थोड़े से पैसों में प्रसन्न है। तुम सोच भी नहीं सकते कि वह कितना प्रसन्न है। वह सारे दिन में थोड़े से पैसे इकट्ठे कर पाता है, लेकिन फिर भी वह बहुत प्रसन्न है।
एक अमीर आदमी की ओर देखें। उसने इतना इकट्ठा कर लिया है कि वह उसका उपयोग भी नहीं कर सकता। लेकिन वह प्रसन्न नहीं है। क्या हो गया है? जितना तुम्हारा धन होता जाता है उतना ही अधिक तुम्हें अपनी दरिद्रता का अनुभव होता है। और ऐसा हर दिशा में होता है। जब तुम ज्यादा जानते हो, तो तुम्हें ज्यादा एहसास होता है कि तुम कुछ नहीं जानते। एक आदमी जो कि कुछ भी नहीं जानता उसे कभी महसूस नहीं होता कि वह अज्ञानी है। उसे अपने अज्ञान का पता ही नहीं चलता। यह असंभव है क्योंकि ऐसा महसूस होना भी ज्ञान का ही हिस्सा है। जितना अधिक तुम जानते हो, उतना ही तुम्हें पता चलता है कि और भी बहुत जानने को शेष है। जितना अधिक तुम जानते हो, उतना ही तुम्हें पता चलता है कि और भी बहुत जानने को शेष है। जितना अधिक तुम जानते हो उतना ही तुम्हें लगता है कि तुम कुछ भी नहीं जानते।
न्यूटन ने कहा है कि मैं समुद्र के किनारे खड़ा हुआ हूँ और जो कुछ भी मैंने इकट्ठा कर लिया है वह मेरी मुट्ठी में रेत है-उससे अधिक नहीं। यह एक अनंत असीम विस्तार ह। जो भी मैंने जाना है, वह मेरे हाथ में थोड़े से रेत के कण हैं और जो मैं नहीं जानता हूँ वह इस असीम सागर का विस्तार है। अतः न्यूटन को अपने अज्ञान का अनुभव होता है जितना कि तुम्हें भी नहीं होता, क्योंकि वह भाव भी ज्ञान का ही हिस्सा है।
यदि तुम प्रेम कर सको तो तुम्हें प्रेम की असम्भवता की अनुभूति होती है। तब तुम्हें पता चलेगा कि यह वस्तुतः असम्भव है कि कोई किसी को प्रेम कर सके। लेकिन यदि तुम किसी को प्रेम नहीं करते तो फिर तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा कि प्रेम एक बड़ी कठिन यात्रा है। क्योंकि जब तुम किसी भी चीज़ के भीतर उतरते हो, तभी तुम अपनी सीमित सामर्थ्य और असीम विस्तार के बारे में जान पाते हो। जब मैं अपने घर से बाहर निकलता हूँ, तभी मुझे आकाश का सामना करना पड़ता है। यदि मैं अपने घर के भीतर ही रहता चला जाऊँ, तो कभी सामना नहीं होगा। और अन्ततः मैं यह विश्वास करने लग जाऊँगा कि यह सारा विश्व है।
जितना कम तुम जानते हो उतने ही तुम दृढ़ होते हो। जितना अधिक तुम जानते हो उतना ही कम तुम्हारा विश्वास हाता है। जितना अधिक ज्ञान होगा, उतनी मन में हिचकिचाहट होगी कुछ भी कहने में-कि क्या सही है और क्या गलत है। जितना कम ज्ञान होगा उतना ही अधिक तुम दृढ़ होगे, निश्चित होगे।
अभी पचास साल पहले ही विज्ञान पूर्णरूप से निश्चित था, आन्तरिक रूप से निश्चित। सब कुछ स्पष्ट था, और पूरा था। और उसके बाद आया आइन्सटीन जो कि शायद पहला वैज्ञानिक था जिसे कि जगत के पूरे विस्तार का साक्षात किया था। तब सभी कुछ अनिश्चित हो गया। आइन्सटीन ने कहा किसी भीचीज के लिए निश्चित होने का अर्थ है कि तुम नहीं जानते। यदि तुम जानते हो तो ज्यादा-से-ज्यादा तुम सापेक्ष रूप से निश्चित हो सकते हो। सापेक्ष रूप से निश्चित होने का अर्थ है अनिश्चित होना। आइन्सटीन कहता है, जब हर चीज सापेक्ष है जब विज्ञान कभी निरपेक्ष, अबसोल्यूट नहीं हो सकता। और अब हम इतना कुछ जान गये हैं। इस सारे ज्ञान के कारण कि हर चीज़ गड़बड़ हो गई है और सब कुछ टूट गया है। सारी निश्चिततायें सो गई हैं।
मनुष्य जाति के इतिहास में, महावीर, जो कि बहुत ही गहन प्रवेश करनेवाली बुद्धि रखनेवाले व्यक्ति हैं : वे कोई भी वक्तव्य बिना पहले ‘शायद’ लगाये नहीं बोलेंगे। यदि तुम उनसे पूछो कि क्या परमात्मा है? तो वे कहेंगे कि शायद परमात्मा है और शायद नहीं है। यदि तुम उनसे इतना भी पूछो कि क्या तुम वस्तुतः हो? तो वे कहेंगे, शायद मैं वस्तुतः हूँ, और शायद मैं वस्तुतः नहीं हूँ, क्योंकि किन्हीं अर्थों में मैं वास्तविक हूँ कि मैं वस्तुतः हूँ? एक दिन मैं वाष्पीभूत हो जाऊँगा और तुम नहीं कह सकोगे कि मैं कहाँ विलीन हो गया हूँ। तब फिर मैं कैसे कह सकता हूँ कि मैं वस्ुततः हूँ। एक दिन मैं वाष्पीभूत हो जाऊँगा और तुम नहीं कह सकोगे कि मैं कहाँ विलीन हो गया हूँ। तब फिर मैं कैसे कह सकता हूँ कि मैं वस्तुतः हूँ। मैं ऐसे ही खो जाऊँगा जैसे कि सुबह सपना खो जाता है। परन्तु फिर भी मैं निश्चित होकर यह बात नहीं कह सकता हूँ कि मैं वास्तविक नहीं हूँ। क्योंकि यह कहने के लिए कि मैं वस्तुतः नहीं हूँ, एक वास्तविकता की आवश्यकता है। सपना देखने के लिए किसी की आवश्यकता है जो कि वास्तविक हो। इसलिए वे कहेंगे-‘‘शायद मैं वास्तविक हूँ, शायद मैं वास्तविक नहीं हूँ।’’
इसके कारण ही महावीर बहुत-से अनुयायी इकट्ठे नहीं कर सके। कैसे तुम अनुयायी इकट्ठे कर सकते हो यदि तुम स्वयं ही इतने अनिश्चित हो? अनुयायियों को तो निरपेक्षता चाहिए, पूर्णरूपेण दृढ़ता चाहिए। कहो कि यह सही है और यह गलत है। चाहे वह सही है या नहीं-यह बात दूसरी है। लेकिन निश्चित होना जरूरी है तभी अनुयाइयों को आश्वस्त किया जा सकता है। क्योंकि वे जानने आये हैं, न कि खोजने। वे निश्चितता को जानने आये हैं। वे सिद्धांतों की खोज में आये हैं, न कि वास्तविक खोज के लिए इसलिए एक महावीर से कम जाननेवाला ज्यादा अनुयायी इकट्ठे कर लेगा, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति निश्चितता की खोज में है। तब वे अपने को सुरक्षित अनुभव करते हैं।
महावीर के साथ सभी कुछ अनिश्चित प्रतीत होगा। और वे इतने जोर देकर कहेंगे। कि यदि तुम एक प्रश्न पूछा, तो वे उसके सात उत्तर देंगे। वे सात उत्तर देंगे, और प्रत्येक उत्तर पहले को काटता हुआ होगा। तब सारी बात ही इतनी जटिल हो जायेगी कि आप पहले से भी अधिक मूढ़ होकर वहाँ से लौटेंगे।
आइन्सटीन के साथ ही कदाचित महावीर की प्रतिमा विज्ञान में प्रविष्ट कर गई है। सापेक्षता महावीर की धारणा है। वे कहते हैं कि हर चीज सापेक्ष है, कुछ भी निरपेक्ष नहीं है। और विपरीत ध्रुव भी सत्य हैं किन्ही-किन्ही अर्थों में। परन्तु तब उनके कथन इतने रिलेटिव हो जाते हैं, इतने कोष्टक में होते जाते हैं कि तुम उनके बारे में जरा भी आश्वस्त नहीं हो सकते।
इसी कारण भारत में केवल पच्चीस लाख जैन रहते हैं। यदि महावीर ने पच्चीस लाख जैन रहते हैं। यदि महावीर ने पच्चीसकरोड़ हो गये होते। पच्चीस सदियों में केवल पच्चीस लाख? क्या हुआ? महावीर वस्तुतः किसी को बदल ही न सके। ऐसा तीव्र मस्तिष्क बदल नहीं सकता। उसके लिए कम प्रखर बुद्धि की आवश्यकता है। जितना मूर्ख नेता होता है, उतना ही अच्छा है, क्योंकि वह बड़ी दृढ़ता के साथ ‘हाँ’ या ‘ना’ कह सकता है बिना कुछ भी जाने।
वस्तुतः जब तुम्हें ज्ञान होता है तब होता है? तुम्हें अज्ञान का पता हो जाता है। और वस्तुतः समृद्धि का अर्थ होता है दोनों विपरीत ध्रुव को जानते हो। जब तुम दोनों विपरीत ध्रुवों को जानते हो, जब तुम दोनों आखिरी सिरों को जानते हो, तब ही तुम समृद्ध होते हो।
उदाहरण के लिए यदि तुम सुन्दरता को जानते हो और तुम्हें कुरूपता का कोई पता नहीं है, तो तुम्हारा सौन्दर्य का भाव कोई बहुत गहरा नहीं है। कैसे हो सकता है? वह सदैव उसी अनुपात में होता है। जितने अधिक सौंदर्य का पता चलता है, उतना ही अधिक तुम्हें कुरूपता का भी पता चलने लगता है। वे दो चीज़ें नहीं हैं, किन्तु एक ही चीज़ की दो गतियाँ है, एक अर्थ में, दो भिन्न दिशाओं में। किन्तु संवेदना एक ही है। तुम नहीं कह सकते कि मैं सिर्फ सौन्दर्य को जानता हूँ। कैसे जान सकते हो? इस संवेदना के साथ ही, इस संवेदना के सत्य अनुभव के साथ ही, कुरूपता की अनुभूति भी आ जाती है। जगत अधिक सुन्दर हो जाता है लेकिन साथ ही ज्यादा कुरूप भी हो जाता है। और वही विरोधाभास है।
जब तुम्हें सूरज के डूबने के सौन्दर्य का आनन्द अनुभव होता है लेकिन तब तुम्हें चारों तरफ फैली गरीबी की कुरूपता का भी अनुभव होता है। यदि कोई आदमी कहता है कि मुझे सूरज के डूबने के सौंदर्य का अनुभव होता है और मुझे गरीबी और गन्दे झोपड़ों की कुरूपता का अनुभव नहीं होता, तो या तो वह स्वयं अपने को धोखा दे रहा है या फिर वह दूसरों को धोखा दे रहा है। यह असम्भव है। जबकि डूबता सूरज सुन्दर प्रतीत होता है, तो गन्दे झोपड़े, कुरूप दिखलाई देते हैं। और जब डूबते सूरज के संदर्भ में जब तुम गन्दी बस्तियों की ओर देखोगे, तो तुम एक साथ स्वर्ग और नर्क में होओगे। हर एक बात में ऐसा ही है और हर एक बात में ऐसा ही होगा। हर चीज़ अपना विपरीत पैदा कर देगी।
इसलिए यदि तुम सौन्दर्य को नहीं जानते, तो तुम करूपता को भी नहीं जान पाओगे। यदि तुम सौन्दर्य के प्रति सजग हो गये हो तो तुम कुरूपता के प्रति भी जाग जाओगे। तुम्हें आनन्द आयेगा। तुम सौन्दर्य के आनन्द का अनुभव करोगे और तब तुम दुःख पाओगे। यह विकास का हिस्सा है। विकास का अर्थ है दोनों धुवों का ज्ञान होना जिससे कि जीवन निर्मित होता है। इसलिए जब भी आदमी सजग होता है तो वह यह जान पाता है कि वह बहुत-सी चीज़ों के बारे में नहीं जानता और इसलिए वह दुःखी होता है।
कई बार मैंने देखा है कि लोग मेरे पास ध्यान के लिए आते हैं। वे कहते हैं कि ‘‘मैं बहुत ज्यादा परेशान हूँ, भीतर बहुत दुःख है, पीड़ा है। किसी तरह मेरी मदद करें, कि मेरा मन शान्त हो जाये।’’ मैं उन्हें कुछ करने के लिए कहता हूँ। तब एक सप्ताह बाद वे फिर आते हैं और कहते हैं कि ये आपने क्या किया। यह तो मैं पहले से भी ज्यादा अशान्त हो गया। ऐसा कैसे हुआ? क्योंकि जब वे ध्यान करने लगे, थोड़ीशान्ति का अनुभव करने लगे, तो वे भीतर की अशान्ति का अनुभव भी अधिक करने लगे। उस शान्ति के विपरीत अशान्ति का और भी ज्यादा अनुभव होगा। पहले वे सिर्फ अशान्त थे, बिना किसी भी भीतरी शान्ति के। अब उनके पास कुछ है जिसके विरुद्ध वे निर्णय कर सकते हैं, तुलना कर सकते हैं। अब वे कहते हैं कि मैं पागल हो जाऊँगा।
इसलिए यदि तुम ध्यान प्रारंभ करो और तुम्हें दुःख न हो, तो उसका अर्थ होता है कि वह ध्यान नहीं है बल्कि सिर्फ आत्म-सम्मोहन है। उसका अर्थ है कि तुम अपने को मूचि्र्छत किये हो। तुम और अधिक मूचि्र्छत हो रहे हो। वास्तविक, प्रामाणिक ध्यान से तुम अधिक सन्तप्त होओगे क्योंकि तुम अधिकाधिक जागरूक होओगे। तुम अपने क्रोध की कुरूपता को देखोगे, तुम अपनी ईर्ष्या की निर्दयता को अनुभव करोगे, अब तुम अपने ही व्यवहार के साक्षी होओगे। अब तुम अपने प्रत्येक व्यवहार में छिपे अपने एक पशु को देखोगे, और तुम्हें अधिक पीड़ा होगी। लेकिन इसी भाँति कोई विकसित होता है। एक बच्चा जब गर्भ से बाहर आता है, तो उसे पीड़ा होती है। इसलिए यह सही है कि सजगता और ज्ञान से मनुष्य के जीवन में अधिक समृद्धि और विकास तथा गहराई आती है। इसलिए नहीं कि आदमी पीड़ा नहीं पाता, बल्कि इसलिए कि वह पीड़ित होता है।
यदि किसी ने कृत्रिम जीवन ही जिया है, जैसा कि धनिक परिवारों में होता है। तुम्हें प्रतीत होगा कि तुम देखोगे कि यदि कोई आदमी धनिक परिवारों में होता है। तुम्हें प्रतीत होगा कि तुम देखोगे कि यदि कोई आदमी धनिक पैदा हुआ है, यदि वह बिना पीड़ित हुए जिया है, जीने के दुःख को बिना जाने जिया है, तो बिना कुछ जाने कि इधर मांग हुई और इधर उसकी मांग पूरी हो गई। उसने कुछ भी दुःख नहीं जाना। जो कुछ भी मांगा, वह दे दिया गया। बल्कि मांग होने के पहले ही दे दिया गया।
लेकिन तब ऐसे आदमी की आँखों में देखो : तुम्हें वहाँ कोई गहराई नहीं मिलेगी। यह ऐसा ही है कि वह जिया ही नहीं उसने कोई संघर्ष नहीं किया। उसे पता ही नहीं कि जीवन क्या है। इसलिए ऐसे आदमी में कोई भी गहराई पाना बड़ा कठिन है। वे बहुत उथले लोग हैं। यदि वे हँसते हैं तो उनकी हँसी ऊपरी है। वह सिर्फ होठों पर होती है, कभी हृदय में नीं होती। यदि वे रोते हैं तो उनका रोना भी ऊपरी होता है। वह उनके अस्तित्व की गहराई से नहीं होता, वह सिर्फ कोरी औपचारिकता होती है। जितना अधिक संघर्ष होता है, उतनी ही गहराई होती है। यह गहराई, यह समृद्धि, यह ज्ञान, ऐसी जटिलता उत्पन्न कर देगा कि तुम इससे बचना चाहोगे। जब तुम दुःख भोगोगे तो तुम इससे बचना चाहोगे। यदि तुम दुःख से बचने का उपाय कर रहे हो, तब शराब तुम्हें प्रीतिकर लग सकती है, एल.एस.डी. या मारीजुआना या कुछ ऐसा ही तुम्हें खींच सकता है।
धर्म का अर्थ होता है, दुःख से, पीड़ा से भागना नहीं बल्कि उसके साथ जीना। उसके साथ जीना, उससे भागना नहीं। और यदि तुम उसके साथ जीते हो, तो अधिकाधिक सजग हो जाओगे। यदि तुम बचकर भागना चाहो तो तुम्हें सजगता को छोड़ना पड़ेगा। तब तुम्हें किसी भी भाँति मूर्च्छित होना पड़ेगा।
बहुत-सी विधियाँ हैं। शराब सबसे सरल है, लेकिन एकमात्र विधि नहीं है और न ही सर्वाधिक बुरी। तुम चाहो तो जाओ और संगीत को सुनो और उसमें डूब जाओ। तब तुम संगीत का भी शराब की भाँति ही उपयोग कर रहे हो। तब कुछ समय के लिए तुम्हारा मन संगीत में लग जाता है आर तुम सब कुछ भुल जाते हो। संगीत सब कुछ के लिए शराब का काम कर रहा है। अथवा, तुम मंदिर जा सकते हो, या तुम मंत्र का जाप कर सकते हो। तुम इन चीजों का शराब की भाँति उपयोग कर सकते हो, एक मादक द्रव की तरह काम में ले सकते हो।
जो कुछ भी तुम्हें अपने दुःख के प्रति कम सजग करे, वह धर्म के खिलाफ है। कुछ भी जो तुम्हें अपने दुःख के प्रति और अधिक होश से भरे, और जो तुम्हारी मदद-उसका सामना करने के लिए करे, न कि बचकर भागने के लिए, वह सब धार्मिक है। यही मतलब है तप का। तप का यही अर्थ होता है : कि दुःख से बचकर नहीं भागना, बल्कि वही रहना और पूरे होश के साथ रहना। यदि तुम नहीं भागते हो, यदि तुम अपने दुःख के साथ ही रहते हो, तो एक दिन दुःख विलीन हो जायेगा और तुम अपनी सजगता में और बढ़ जाओगे।
दुःख दो तरह से विलीन होता है : तुम मूचि्र्छत हो जाओ, तब भी तुम्हारे लिए दुःख विलीन हो जाता है। लेकिन, वास्तव में दुःख तो वहाँ बचा रहता है। वह विलीन नहीं हो सकता। वह वहीं रहता है। वास्तव में, सिर्फ तुम्हारी चेतना चली गई है, इसलिए तुम्हें वह महसूस नहीं होता, तुम्हें उसका पता नहीं चलता। यदि तुम अधिक सजग हो जाओ, तो उसी बीच तुम्हें और दुःख भोगना होगा। परन्तु दुःख को विकास के एक हिस्से की भाँति स्वीकार कर लो-एक प्रशिक्षण, एक अनुशासन की तरह ले लो। और तब तुम्हारी चेतना एक दिन सब दुःखों के पार चली जाएगी। दुःख सिर्फ तुम्हारे लिए ही विलीन नहीं हो जाएगा, बल्कि वस्तुगत भी विलीन हो जाएगा।
दुःख का सीढ़ी की तरह उपयोग करो, उससे बचो मत। यदि तुम उससे बचोगे, तो तुम नियति से बच रहे हो, ज्ञान के पार जाने की संभावना से बच रहे हो। तुम दुःख का एक उपाय की भाँति उपयोग कर सकते हो।
महावीर ने कहा है, कभी-कभी ऐसा होता है कि जैसे कोई दुःख नहीं है, तब दुःख को पैदा करो। कोई भी क्षण ऐसा मत जाने दो जिसमें और अधिक सजगता पैदा नहीं की जाती। महावीर लम्बे उपवास पर चले जाते थे, ताकि दुःख पैदा हो-उसका सामना करो क्योंकि दुःख का साक्षात्कार करने से अवेयरनेस, सजगता बढ़ती है। वे नग्न रहते थे। चाहे गर्मी हो, चाहे सर्दी हो, चाहे वर्षा का मौसम हो, लेकिन वे नग्न रहते थे। हर गाँव में जहाँ भी नग्न जाते, लोग उनके दुश्मन हो जाते। वे लोग उनको बहुत तरह से सताने का उपाय खोजते थे, लेकिन वे चुप रहते। बारह वर्ष तक वे मौन रहे। यदि तुम उनको पीटो, तो भी वे न बोलेंगे। तुम कुछ भी करो, लेकिन वे प्रतिक्रिया न करेंगे। ये सब जानबूझ कर पैदा किए गये दुःख हैं।
बुद्ध महावीर की बात से सहमत नहीं थे, लेकिन फिर भी बुद्ध को महा-तपस्वी कहा गया है। वास्तव में महावीर की कोई तुलना नहीं है जानबूझ कर अपने लिए दुःख निर्मित करने में। क्यों? क्योंकि जब तुम होशपूर्वक दुःख में जीते हो, तब तुम बढ़ते हो। तुम उसका अतिक्रमण कर जाते हो। वास्तव में, जब भी तुम दुःख में होते हो, तो तुम्हारे पास एक अवसर होता है, अतः उसका उपयोग करो। जब तुम दुःख में नहीं हो, तो वह समय बेकार जाएगा। केवल वे ही क्षण जबकि तुम दुःख में हो, काम में लाये जा सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, हम दुःख से बचने की कोशिश करते हैं। हम कितने ही जन्मों से ऐसा कर रहे हैं।
कोई एक प्रयोग करो-कोई भी एक प्रयोग और देखो कि क्या होता है। रात बड़ी है और तुम छत पर नंगे खड़े हो। सर्दी का अनुभव करो, उससे भागो मत। उसे रहने दो, और तुम भी रहो। उसे महसूस करो, उसके साथ चलो, उसके साथ जियो, और देखो कि क्या होता है। एक विशेष बिन्दु के बाद सर्दी भी होगी, तुम भी होओगे लेकिन तुम्हारे ओर सर्दी के बीच एक अंतराल होगा। अब वह ठंडक तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं कर सकती। तुम उसका अतिक्रमण कर गये।
तुम भूखे हो, भूखे रहो और एक बिन्दु के बाद तुम्हें, मालूम पड़ेगा कि तुम भूखे नहीं हो। भूख कहीं और है, और तुम्हारे और भूख के बीच एक गैप है। जब तुम्हें उस गैप का पता चलना शुरू हो जायेगा तब तुम उसके पार चले जाओगे।
लेकिन दुःख का निर्माण करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि दुःख पहले ही बहुत हैं। उसकी कोई जरूरत नहीं है। हर रोज दुःख को प्रभु की अनुकम्पा में बदल सकते हो।
और यही अर्थ है तप का। यह एक रासायनिक प्रक्रिया है। तब तुम निम्न को उच्चतर में बदल देते हो। मिट्टी को सोने में बदल देते हो। लेकिन उस निम्न धातु को अग्नि से गुजरना होगा और जो झूठ है उसे जल जाना होगा। तभी वह जो प्रामाणिक है, बाहर निकलेगा। अतः ज्ञान अग्नि है। अज्ञानी आत्मा को इस अग्नि से गुजरना होगा, और तभ शुद्ध सोना उसमें से निकलेगा।
वह शुद्ध सोना ही आत्मज्ञान है। जब तुमने सारे दुःखों को सजग रूप से भोग लिया, तो दुःख खो जाएगा, विलीन हो जाएगा, क्योंकि उसका जो मुख्य कारण था, वही खो गया। तुम आगे बढ़ते ही जाओगे और दुःख पीछे छूटता चला जाएगा, और तुम शिखर हो जाओगे। यह शिखर उसके पार चला जाएगा। यही आत्मज्ञान है, जागरण है, एनलाइटेनमेंट है।
तीन अवस्थाएँ हैं : अज्ञान, ज्ञान, परम-ज्ञान। अज्ञान के पार चले जाओ लेकिन यह मत भूलो कि ज्ञान अन्तिम नहीं है। वह केवल माध्यम है। तुम्हें उसके भी पार जाना है। और जब कोई ज्ञान के भ्ी पार चला जाता है, तो वह बुद्ध हो जाता है। तब वह बुद्धिमान है, न कि अधिक जानकारी रखने वाला। ऐसा नहीं है कि उसने बहुत ज्ञान का भंडार पा लिया है। वह सिर्फ अधिक विद्वान है, केवल अधिक जागरूक। इसलिए ज्ञान भी अच्छा है क्योंकि वह तुम्हें अज्ञान से बाहर लाता है, किन्तु यदि तुम उसी के साथ चिपक जाओ तो वह ज्ञान ठीक नहीं है। यदि वह एक पकड़ हो जाए, तो वह ठीक नहीं है। ज्ञान का उपयोग अज्ञान के पार जाने के लिए करो और फिर उसके भी पार चले जाओ।
बुद्ध एक कहानी कहते हैं जो कि उन्हें बहुत प्रिय थी। उन्होंने यह कहानी हजारों बार कहीं होगी। उन्होंने कहा कि ज्ञान एक नाव की तरह है। तुम नाव पर बैठकर नदी के पार जाते हो, और तब तुम नाव को छोड़ देते हो और आगे बढ़ जाते हो। बुद्ध कहते हैं कि पाँच बड़े ज्ञानी पंडित लोग थे। उन्होंने एक नदी को पार करने में मदद की है, अतः हमें इस नाव को सिर पर उठाकर ले जाना चाहिए। अब इसके प्रति अहसान कैसे भूलें। यह तो साधारण कृतज्ञता है।
अतः वे पाँचों ज्ञानी अपने सिरों पर उस नाव को लेकर बाजार में गये। तब वहाँ सारा गाँव इकट्ठा हो गया और उन्होंने पूछा, ‘‘यह तुम क्या कर रहे हो? यह तो एकदम नई बात है।’’ उन्होंने उत्तर दिया कि अब हम इस नाव को नहीं छोड़ सकते। इस नाव ने हमारी नदी पार करने में सहायता की है, और ये वर्षा के दिन हैं, और नदी में बाढ़ आई है। इस नाव के बिना पार जाना असींव था। यह नाव हमारी मित्र है, और हम कृतज्ञता जतला रहे हैं।
सारा गाँव हँसने लगा। उन्होंने कहा- ‘‘सच है कि यह नाव मित्र थी, लेकिन अब यह नाव शत्रु है। अब तुम इस नाव के कारण ही दुःख पाओगे। अब यह तुम्हारे लिए एक बन्धन हो जायेगी। अब तुम कहीं भी नहीं जा सकते, अब तुम कुछ भी नहीं कर सकते।’’
ज्ञान नाव है-अज्ञान के पार जाने के लिए, लेकिन तब तुम्हें उसे सिर पर उठाकर घूमने की जरूरत नहीं है जैसा कि इन ज्ञानियों ने किया। वास्तव में, ‘ढोना’ कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि बोझ इतना ज्यादा होगा कि उसको लेकर अब वे कहीं भी नहीं जा सकते। इस नाव को फेंको। उसे फेंकना भी कठिन है क्योंकि इसने तुमको बचाया है। तुम नदी के पार आये हो और तुम्हारा तर्क कह सकता है कि यदि हम इस नाव को फेंक देंगे तो वापस उसी हालत में पहुँच जायेंगे, जिसमें कि हम पहले थे। यह तर्कसंगत लगता है, लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि जब नाव नहीं थी तो तुम नदी के किनारे पर थे। जब तुमने नाव का प्रयोग किया तो तुम दूसरे किनारे पर आ गये और यदि तुमने इसको फेंक दिया तो तुम फिर से उसी अवस्था में नहीं पहुँच सकते।
आदमी ज्ञान को उतारकर फेंकने से डरता है, क्योंकि उसको भय लगता है कि वह वापस अज्ञान की अवस्था में पहुँच जायेगा। तुम फिर से अज्ञानी नहीं हो सकते। जिसने एक बार जान लिया, वह फिर से अज्ञानी नहीं हो सकता। लेकिन यदि वह इस ज्ञान से चिपकेगा, इसे पकड़ेगा तो वह उसके पार नहीं जा सकेगा। फेंको इसे। तुम अज्ञान में गिरनेवाले नहीं हो। तुम संबोधि में उठनेवाले हो।
कोई जब अज्ञान को फेंक देता है, तो ज्ञान में उठता है, और जब कोई ज्ञान को भी फेंक देता है तो वह संबोधि में उठता है। अतः यह अच्छा है कि अज्ञानी को ज्ञान सिखाया जाये, और यह भी अच्छा है, कि जो सीख गया है उसको फिर से एक तरह से अनसीखा किया जाये। किसी को एक दूसरे ही आयाम में अज्ञानी होना पड़ता है, उसका गुणधर्म ही अलग हो जाता है-ज्ञान का फेंक देने से।
इसलिए यह भी अनिवार्य है कि कि कोई ज्ञान के पास आये। लेकिन तब यह अपरिहार्य नहीं है कि कोई वहीं रहे। तुम्हें उसके भी पार जाना होगा। यह भी जरूरी है। इसे भी छोड़ा नहीं जा सकता। लेकिन तुम वहीं मत रहो। तुम्हें चलना होगा, ज्ञान से आगे चलना होगा। यही तो अर्थ है। इस ज्ञान से कैसे आगे बढ़ें? जैसा मैंने कहा कि यदि तुम दुःख के प्रति सजग हो जाओ, तो तुम उसका अतिक्रमण कर जाते हो। यदि तुम इस ज्ञान के प्रति भी सजग हो जाओ तो तुम इसका भी अतिक्रमण कर जाओगे। सजगता ही एकमात्र विधि है अतिक्रमण की। चाहे कोई भी समस्या क्यों न हो। सजगता, होश, जागरूकता ही एकमात्र विधि है अतिक्रमण की।
तुम बहुत-सी बातें जानते हो। तुम उन सबसे तादात्म्य कर लेते हो तब यदि कोई तुम्हारे जानने को मना करे अथवा उसका विरोध करे, तो तुम्हें चोट लगती है। ऐसा लगता है कि जैसे वह तुम्हें ही मना कर रहा है-जैसे कि वह तुम्हारा ही विरोध कर रहा है। तुम्हारा जानना तुमसे कुछ भिन्न है। इस गैप को जानो। तुम तुम्हारा ज्ञान नहीं हो, तब उसके प्रति सजग रहो। इस बात के प्रति सजग रहो कि यह मैं जानता हूँ और यह मैं नहीं जानता हूँ और जो बात मैं जानता हूँ, वह सही हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। उस बात के लिए पागल मत हो जाओ, उसके साथ एक मत हो जाओ।
सुकरात कहा करता था, वह सदैव कहता था जहाँ तक मेरा ज्ञान है, वहाँ तक यह बात सत्य मालूम होती है-केवल सत्य मालूम होती है। और वह भी जहाँ तक मेरा ज्ञान जाता है। वह सच न भी हो क्योंकि ज्ञान उससे भी आगे जा सकता है, सह सत्य नहीं भी हो सकता है क्योंकि वह सिर्फ मुझे ही सत्य प्रतीत होता है। बल्कि वह आदमी उसकी मदद कर रहा है। उससे वह दुखी क्यों हो?
यदि कोई कहता है कि तुम गलत हो, तो वह तुम्हें और अधिक ज्ञान दे रहा है, कुछ भिन्न बता रहा है। यदि तुम तादात्म्य नहीं करो, तो तुम उसके प्रति कृतज्ञ होओगे, यदि तुम तादात्म्य किये हो, तो तुम्हें चोट लग जायेगी। तब यह ज्ञान का सवाल नहीं है। फिर यह अहंकार का चक्कर है। तब सवाल इस बात का नहीं है कि उसने कहा कि जो कुछ तुम कहते हो, वह गलत है, बल्कि अब तो यह सवाल हो गया कि उसने कहा है कि ‘‘तुम ही गलत हो’’। तुम ऐसा अनुभव करते हो। और यदि तुम ऐसा अनुभव करते हो, तो तुम फिर कभी भी ज्ञान के प्रति सजग नहीं हो सकते। सजग रहो। यह इकट्ठा करना है, किन्तु इसने भी मदद की है। इसकी उपयोगिता है।
बौद्धों का, झेन बौद्धों का ज्ञान के लिए एक शब्द है-‘उपाय’ वे उसे सिर्फ साधन की तरह लेते हैं। उसका उपयोग करो, लेकिन पागल मत हो जाओ, उससे ही भर मत जाओ, उससे तादात्म्य मत करो। उसे अलग रहो, तटस्थ रहो। यह दूरी, यह तटस्थता पहली अनिवार्यता है। और तब होश रखो। जब भी तुम कुछ कहो, तो पूरा होश रहे कि यह तुम नहीं हो बल्कि यह सिर्फ तुम्हारा ज्ञान है। यह सजगता ही तुम्हें उसके पार ले जाएगी।
अतः जो भी समस्या हो, उसके साथ तादात्म्य करना मूचि्र्छत करेगा और तुम पीछे गिर जाओगे। उसके प्रति होश रखने से सजगता निर्मित होगी और तुम उसके पार चले जाओगे।
भगवन्। एक रात्रि आपने कहा कि ईसाईयत अधूरी रह गई क्योंकि जीसस ईसाईयों के लिए तैंतीस वर्ष की अवस्था में ही मर गये जबकि वे आग से भरे थे, विद्रोही थे और सक्रिय थे और जबकि उनका आंतरिक केन्द्र सूर्य की तरह चैतन्य था।
क्या उसका अर्थ यह है कि जीसस पूर्ण आध्यात्मिक विकास, आंतरिक मौन, आंतरिक शान्ति तथा आंतरिक पूर्ण चन्द्र की स्थिति को उपलब्ध नहीं हो सके जिस तरह कि बुद्ध और महावीर हुए थे?
कृपया हमें इस बारे में समझायें?
बहुत-सी बातें ध्यान में रखनी पड़ेगी। पहली, जीसस ईसाईयत के लिए तैंतीस वर्ष की उम्र में मर गये। इसे याद रखें-ईसाईयत के लिए। क्योंकि वास्तव में, वे नहीं मरे, वे एक सौ बारह वर्ष तक जीवित रहे। लेकिन वह बिल्कुल दूसरी ही कहानी है, जिसका ईसाईयत से कोई सम्बन्ध नहीं है। और वे पूर्ण बुद्धत्व को उपलब्ध होकर ही मेरे जैसे कि महावीर बुद्ध अथवा कृष्ण। इसलिए यह पहली बात ठीक से समझ लेनी है।
ईसाईयत के पास सिर्फ इतना ही कहने के लिए है कि क्रॉस पर लटकाने के बाद भी उन्हें जीवित देखा गया। तीन दिन तक कुछ शिष्यों के द्वारा कहीं पर देखे गये और फिर कहीं और देखा गया किन्हीं और शिष्यों के द्वारा, और उसके बाद वे गायब हो गये। इसलिए एक बात पक्की है, और ईसाईयत भी ऐसा सोचती है कि चाहे वे क्रॉस पर मरे या नहीं, किन्तु क्रॉस पर लटकाये जाने के बाद तीन दिन तक उन्हें देखा गया।
वे सोचते हैं कि वे क्रॉस पर मर गये और फिर वे पुनर्जीवित हो गये परन्तु फिर उनके पास उन पुनर्जीवित जीसस का क्या हुआ? कहने के लिए कुछ भी नहीं है। बाइबिल इस बारे में मौन है। उस आदमी का क्या हुआ जो कि देखा गया था? वह फिर से कब और कहाँ मरा? वह कहीं-न-कहीं फिर से मरा ही होगा क्योंकि वह क्रॉस पर नहीं मरा था। अतः इस जीसस नामक आदमी का क्या हुआ? बाइबिल अधूरी है क्योंकि जीसस इजराइल से अदृश्य हो गये।
कश्मीर में एक कब्र है जिसे जीसस की कब्र माना जाता है। ये कश्मीर में रहे, भारत में, और जब मरे तब वे एक सौ बारह वर्ष के थे। क्रॉस पर चढ़ाने के समय वे चन्द्र के केन्द्र में प्रवेश ही कर रहे थे। उसी दिन वे उस केन्द्र में प्रवेश किये थे-क्रॉस पर लटकाने के दिन ही। यह दूसरी बात समझने की है।
बाइबिल में जीसस बुद्ध, महावीर अथवा लाओत्से की भाँति नहीं है। वे उनके जैसे नहीं हैं। तुम बुद्ध के बारे में कभी कल्पना भी नहीं कर सकते कि वे मन्दिर में जाकर सूदखोरों को मारेंगे। तुम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन जीसस ने ऐसा किया। वे मंदिर में गये, वार्षिक उत्सव मनाया जा रहा था। जेरुसलम के इस मंदिर से बहुत-सी चीजें जुड़ी हैं। उससे रुपये के लेनदेन का एक बहुत बड़ा व्यापार जुड़ा था। ये मंदिर के सूदखोर सारे देश का शोषण कर रहे थे। लोग वार्षिक त्यौहार तथा दूसरे त्यौहारों के दिन वहाँ आते थे, और वे ऊँचे ब्याज पर रुपया उधार लेते थे। और यह मंदिर अधिकाधिक समृद्ध होता जा रहा था। यह एक धार्मिक सामंतशाही थी। सारा देश गरीब था और दुःखी था, लेकिन इस मंदिर में रुपया अपने आप आता रहता था।
एक दिन जीसस हाथ में हंटर लेकर मंदिर में घुस गये। उन्होंने सूदखोरों के तख्ते पलट दिये, और फिर उन्हें मारना शुरू कर दिया और उन्होंने मन्दिर में एक तूफान खड़ा कर दिया। तुम बुद्ध के लिए ऐसा नहीं सोच सकते। असम्भव।
जीसस पहले कम्युनिस्ट थे। और, इसीलिए ईसाईयत, कम्युनिज़्म (साम्यवाद) को जन्म दे सकी। हिन्दू उसे कभी नहीं जन्मा सका। जीसस के साथ यह संगत है। वे पहले कम्युनिस्ट थे और वे अग्नि से भरे थे, तथा विद्रोही थे।
वे जो भाषा काम में लेते हैं वह भी भिन्न है। वे ऐसी चीजों के प्रति भी क्रोधित हो जाते हैं जिसका कि हम विश्वास भी नहीं कर सकते-जैसे कि अंजीर का वृक्ष। उन्होंने उसे नष्ट कर दिया क्योंकि वे और उनके शिष्य भूखे थे और वृक्ष कोई फल नहीं देता था। उन्होंने उसे नष्ट कर दिया। उन्होंने ऐसे डरानेवाले शब्दों का उपयोग किया कि बुद्ध कभी भूल के भी नहीं बोल सकते थे। जो भी उनमें और उनके परमात्मा के राज्य में विश्वास नहीं करेंगे वे नर्क की अग्नि में फेंक दिये जायेंगे-नर्क की शाश्वत अग्नि में-फिर वहाँ से वे कभी वापस न आ सकेंगे।
केवल ईसाई नर्क शाश्वत है। शेष सारे नर्क अस्थायी रूप से सजा देते हैं। तुम वहाँ जाते हो, सजा पाते हो और लौटकर आ जाते हो। लेकिन जीसस का तर्क शाश्वत है, इटरनल है। यह बड़ा अन्यायपूर्ण लगता है। पूर्णतया अन्यायपूर्ण बात है। चाहे कैसा भी पाप हो, लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए सजा तो न्यायसंगत नहीं है। ऐसा हो नहीं सकता और क्या है पाप? बर्ट्रेंड रसेल कहते हैं कि यदि मैं वे सारे पाप जो कि मैंने सिर्फ सोचे हैं, कभी किये नहीं हैं स्वीकार कर लूँ, तब भी तुम मुझे पाँच साल से ज्यादा की सजा नहीं दे सकते। शाश्वत सजा। कभी खत्म नहीं होनेवाली सजा?

जीसस एक क्रान्तिकारी की भाषा बोलते हैं। क्रान्तिकारी सदैव दूसरे सिरे पर देखते हैं, अतिशयोक्ति करते हैं। वे धनवान आदमी को कहते हैं-ऐसा तुम बुद्ध और महावीर को कहते हुए कभी नहीं सोच सकते ‘‘चाहे ऊँट सुई के छेद से निकल जाएँ किन्तु धनवान आदमी मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता।’’ वह नहीं गुजर सकता। य कम्युनिज़्म का बीज है-बुनियादी बीज। जीसस एक क्रान्तिकारी थे। वे केवल अध्यात्मवादी ही नहीं थे वरन उनका संबंध अर्थशास्त्र, राजनीति तथा सबसे था। वस्तुतः वे यदि केवल आध्यात्मिक ही होते तो उन्हें सूली पर नहीं लटकाया जाता, लेकिन चूँकि वे हर बात के लिए खतरनाक थे, सारे सामाजिक ढाँचे के लिए ही-वैसा जो कुछ भी था उस सब के लिए ही-इसीलिए उन्हें क्राँस पर लटकाया गया।
परन्तु वे लेनिन व माओ की तरह भी क्रान्तिकारी नहीं थे। फिर भी मार्क्स व माओ इतिहास में जीसस के बिना नहीं सोचे जा सकते। वे उस जीसस से संबंधित थे, शुरू के जीसस से जो कि क्रॉस पर लटकाया गया था। वह एक आग से भा हुआ आदमी था-विद्रोही, हर चीज को नष्ट करने को तत्पर। लेकिन वह कोरा क्रान्तिकरी ही नहीं था। वह आध्यात्मिक आदमी भी था। वह किसी भाँति महावीर व माओ का मिश्रण था। परन्तु माओ को तो क्रॉस पर लटका दिया गया और अंत में महावीर रह गए।
जिस दिन जीसस को क्रॉस पर टांगा गया था उस दिन उन्हें सिर्फ सूली ही नहीं लगी, वह उनके लिए एक गहरे आंतरिक रूपान्तरण का दिन भी था। जिस दिन उन्हें क्रॉस पर लटकाया जानेवाला था, पाइलेट, एक रोमन गवर्नर ने उससे पूछा, सत्य क्या है? जिसस मौन रह गये। यह जीसस जैसा व्यवहार नहीं था। यह तो एक झेन गुरु की तरह हुआ। यदि तुम जीसस की पहले की सारी जिन्दगी देखो, तो यह चुप रह जाना-ऐसा पूछे जाने पर-तो बिल्कुल भी जीसस का स्वभाव नहीं था। वे ऐसे गुरु नहीं थे कि मौन रह जाएँ।
वे चुप क्यों रह गये? क्या हो गया था? क्यों नहीं बोल रहे थे वे? किस बात से मौन हो गये क्या था जिसने उन्हें नहीं बोलने दिया? वे दुनिया के महानतम वक्ताओं में से एक थे या हम बिना हिचकिचाये यह कहें कि वे महानतम वक्ता थे। उनके शब्द भीतर उतर जाते थे। वे बोलनेवाले आदमी थे, चुप रहनेवाले नहीं। अचानक फिर वे मौन क्यों हो गये? वे क्रॉस की तरफ कदम उठा ही रहे थे कि पाइलेटने पूछा कि सत्य क्या है? वे क्रॉस की तरफ कदम उठा ही रहे थे कि पाइलेट ने पूछा कि सत्य क्या है? अपने सारे जीवन भर वे वही एक बात समझा रहे थे। सारी जिन्दगी वे केवल सत्य के बारे में बोलते रहे थे। इसीलिए पाइलेट ने पूछा था। लेकिन वे चुप रह गये।
जीसस के भीतरी जगत में क्या हो गया था? इसके बारे में कभी भी कुछ नहीं कहा गया क्योंकि यह बहुत कठिन है कहना कि क्या हो गया था। और ईसाई धर्म उथला रह गया क्योंकि जीसस के भीतरी जगत की व्याख्या केवल भारत में हो सकती है और कहीं भी नहीं हो सकती। केवल भारत ही आंतरिक रूपांतरण को जानता है कि भीतर क्या हो गया था।
अचानक क्या हो गया है? जीसस मरने के करीब हैं। उन्हें क्रॉस पर लटकाया जानेवाला है। अब सारी क्रान्ति बेकार हो गई है। जो कुछ भी वे बोल रहे थे सब व्यर्थ हो गया है। जिसके लिए भी वे अब तक जी रहे थे वह अे अन्त पर आ गया है। सभी कुछ खत्म होने जा रहा है। और चूंकि मृत्यु इतनी निकट है, अब उन्हें भीतर सरक जाना चाहिए। अब समय नहीं खोया जा सकता है। एक क्षण भी अब खोया नहीं जा सकता। उन्हें भीतर चले जाना है। इसके पहले कि उन्हें क्रास पर चढ़ाया जाए, उन्हें आंतरिक यात्रा पूरी कर लेनी है।
वे अपनी आंतरिक यात्रा पर थे किन्तु वे बाहर भी थे, बाहरी समस्याओं में उलझे थे और बाहरी समस्याओं के कारण ही वे अपने अंतस के उस शीतल बिन्दु को नहीं पहुँचे थे जिसे कि उपनिषद ‘चन्द बिन्दू’ कहते हैं। वे अग्नि की भाँति उष्ण रहे-गरम। एक तरह से वे उसे जानकर ही कर रहे थे।
एक कथा है कि विवेकानन्द को समाधि की पहली झलक जब लगी जिसे कि सतोरी कहते हैं तो रामकृष्ण ने कहा कि अब इस कुंजी को मैं अपने पास रखूँगा। अब मैं इसे तुम्हें नहीं दूँगा। यह तुम्हें तुम्हारी मृत्यु के तीन दिन पहले यह कुंजी तुम्हें वापस दे दी जाएगी। अब समाधि की ओर झलक नहीं, बस।
विवेकानन्द तो रोने लगे और उन्होंने कहा-‘‘क्यों? मुझे कुछ और नहीं चाहिए। मुझे जगत का सारा माग्राज्य भी नहीं चाहिए। मुझे केवल मेरी समाधि दे दें। एक झलक भी इतनी सुन्दर थी कि मुझे कुछ और नहीं चाहिए।’’ रामकृष्ण ने कहा, ‘‘संसार को तुम्हारी जरूरत है, और कुछ करना अभी शेष है। और यदि तुम समाधि में चले गये तो तुम कुछ भी नहीं कर सकोगे। इसलिए जल्दी मत करो। तुम्हारे लिए समाधि रुकी रहेगी। संसार में यात्रा करो और मेरा संदेश पहुँचाओ। और जब संदेश पहुँच जाएगा, तब चाबी तुम्हें वापस मिल जाएगी।’’
रामकृष्ण तो मर गये, लेकिन ये कोई दिखाई देनेवाली चाबी नहीं थी। और अपनी मृत्यु के ठीक तीन दिन पहले, विवेकानंद को समाधि उपलब्ध हुई-केवल तीन दिन पहले। इसलिए यह एक बहुत सचेतन बात थी कि जीसस ‘चन्द्र’ बिन्दु को पहले नहीं चले गये क्योंकि एक बार तुम वहाँ पर चले जाओ, तो तुम पूर्णतया निष्क्रिय हो जाते हो।
एक कहानी और-जीसस की दीक्षा जॉन बाप्टिस्ट द्वारा हुई थी। वे जॉन बाप्टिस्ट के शिष्य थे जो कि स्वयं एक बहुत बड़ा क्रान्तिकारी था और एक महान आध्यात्मवादी भी। वह जीसस के लिए वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा था। जिस दिन जॉरडन नदी में उसने जीसस को दीक्षित किया उस दिन जीसस से कहा था कि अब तुम मेरा काम संभालो ताकि मैं अदृश्य हो सकूँ। अब बहुत हो गया। और उस दिन के बाद मुश्किल से ही उसे देखा गया। वह जंगल में अदृश्य हो गया। आंतरिक भाषा में वह सूर्य बिन्दु से चन्द्र बिन्दु पर चला गया। वह मौन हो गया। उसका काम समाप्त हो गया और उसने उस काम को दूसरे को सौंप दिया जो कि उसे पूरा करे।
क्रॉस पर लटकाये जानेवाले दिन जीसस को अवश्य यह प्रतीत हुआ होगा कि जो काम वे कर रहे थे, वह पूरा हो गया। उन्होंने ऐसा सोचा होगा कि अब और ज्यादा संभावना नहीं है। मैं इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकता। अब मुझे भीतर चले जाना चाहिए। यह अवसर नहीं खोना चाहिए। इसीलिए जब पाइलेट ने पूछा कि सत्य क्या है, तो वे चुप रह गये। यह जीसस की तरह व्यवहार नहीं था। यह तो झेन मास्टर की भाँति था, यह बुद्ध से अधिक मेल खाता था। और इसीलिए जो चमत्कार घटित हुआ वह ईसाइयत के लिए रहस्य ही रह गया।
यह चमत्कार घटित हुआ कि इसीलिए जब वे अपने इस सर्द सर्वाधिक सर्द बिन्दु-‘चन्द्र’ बिन्दु पर सरक रहे थे, उन्हें क्रास पर लटका दिया गया। और जब कोई पहली दफा चन्द्र बिन्दु पर आता है उसकी श्वास रुक जाती है, क्योंकि श्वास लेना भी सूर्य बिन्दु की क्रियात्मकता है। हर चीज मौन हो जाती है, हर चीज जैसे मृत हो जाती है।
वे भीतर चन्द बिन्दु को चले गये जबकि उन्हें क्रॉस पर लटकाया गया। और उन्होंने सोचा कि मर गये जबकि वे वास्तव में नहीं मरे थे। यह एक गलत धारणा है, नासमझी है। जो उन्हें क्रॉस पर लटका रहे थे उन्होंने सोचा कि वे मर गये, किन्तु वे सिर्फ ‘चन्द्र’ बिन्दु पर थे जहाँ कि श्वास भी रुक जाती है। तब कोई भीतर आती, बाहर जाती श्वास नहीं होती। वे उस अंतराल में थे।
जब कोई अंतराल में होता है तो वह एक इतना गहरा सन्तुलन होता है कि वह वस्तुतः मृत्यु ही होती है। लेकिन वह मृत्यु नहीं थी। इसलिए वे, जो कि जीसस को क्रॉस पर लटकाने वाले थे, जीसस को मौत के घाट उतारने वाले थे उन्होंने सोचा कि जीसस मृत हो गये, इसलिए उन्होंने शिष्यों को शरीर को नीचे उतारने दिया। जैसा कि यहूदी परम्परा में प्रचलित था उनके शरीर को पड़ोस की गुफा में तीन दिन तक संभालकर रखा जाता था और उसके बाद परिवार के लोगों को उसे दे दिया जानेवाला था। ऐसा कहा जाता है और ईसाईयत के पास केवल कुछ अंश है कि जब उनका शरीर गुफा की ओर ले जाया जा रहा था तो वह किसी पत्थर से टकरा गया और उससे खून बहने लगा। यदि वे सचमुच ही मर गये थे, तो खून का बहना असंभव था।
वे मृत नहीं हुए थे। और जब तीन दिन बाद गुफा को खोला गया तो वे वहाँ नहीं थे। मृत शरीर अदृश्य हो चुका था। और इन तीन दिनों में उन्हें देखा गया था। चार या पाँच आदमियों ने उन्हें देखा था, लेकिन किसी ने उनका भरोसा नहीं किया। वे लोग गाँव में गये और उन्होंने कहा कि जीसस पुनर्जीवित हो गये, लेकिन उनकी बात का किसी ने विश्वास नहीं किया।
अतः वे जेरुसलम से निकल गये। वे कश्मीर में आ गये और वहाँ रहे। लेकिन तब यह जीवन जीसस का जीवन नहीं था, बल्कि क्राइस्ट का जीवन था। जीसस सूर्य-बिन्दु थे और क्राइस्ट चन्द्र-बिन्दु थे। और वे पूर्णतः मौन रहे। इसीलिए इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। वे कुछ नहीं बोले, उन्होंने कोई संदेश नहीं दिया, कोई उपदेश नहीं दिया। उसके बाद वे समग्ररूप से मौन रहे। 5तब वे क्रान्तिकारी नहीं थे। वे सिर्फ एक मास्टर (गुरु) थे जो कि अपने मौन में जी रहा था। इसलिए अब बहुत कम लोग उसके पास यात्रा करके जायेंगे।
जिन्हें बिना किसी बाह्य सूचना के उनकी खबर लगेगी, वे ही उन तक यात्रा करेंगे। और ऐसे लोग बहुत कम भी नहीं थे, बहुत थे। कम केवल संसार की तुलना में-वैसे बहुत थे। और उनके चारों ओर एक गाँव बस गया। उस गाँव को अब भी बिथलहेम के नाम से जाना जाता है। कश्मीर में उस गाँव को आज भी जीसस के जन्म स्थान बिथलहेम के नाम से लोग जानते हैं और वह कब्र भी संभालकर रखी हुई है जो कि जीसस की कब्र है।
मैंने कहा कि ईसाईयत अधूरी है क्योंकि उसे पहले के जीसस का ही पता है और इसी कारण से वह कम्युनिज्य को जन्म दे सकी। लेकिन जीसस एक पूर्ण बुद्धत्व को उपलब्ध होकर मरे। एक पूर्ण चन्द्र की भाँति।
आज इतना ही।  

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