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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-26)

आत्म-पूज़ा उपनिषद--भाग-2

आठवाँ प्रवचन --मौनके तीन आयाम

प्रश्न

  1. कृपया, आंतरिक स्थिरता को आंतरिक मौन के अलावा किसी और आयाम से भी समझायें?
  2. आज के मनुष्य के लिए आंतरिक स्थिरता कठिन क्यों हो गई है और उसके लिए क्या मार्ग है?

भगवन! कल रात्रि आपने आंतरिक स्थिरता को आंतरिक मौन के आयाम से समझाया। कृपया आंतरिक स्थिरता को किसी अन्य आयाम से भी समझाने की अनुकंपा करें?
स्थिरता के बहुत से आयाम हैं। एक है मौनः यह ध्वनि का विपरीत ध्रुव है। यह ध्वनि न होना है। दूसरा आयाम है अ-गति यह गति का विपरीत धूव है। मन एक गति है जैसे कि मन एक ध्वनि है। ध्वनि यात्रा करती है और मन भी। मन सतत चलता रहता है, बिना जरा भी रुके।
तुम फिर मन के बारे में भी सोच भी नहीं सकते। ऐसी कोई चीज़ नहीं होती, क्योंकि जब स्थिरता, स्टिलनेस होती है तो मन नहीं होता। जब मन होता है, तो गति भी होती है। अतः मन की गति क्या है? इसके द्वारा हम स्थिरता के दूसरे आयाम के बारे में सोच सकते है : अ-गति।

बाह्य रूप से हम जानते हैं कि गति का क्या अर्थ है : एक जगह से दूसरी जगह जाना : एक स्थान से दूसरे स्थान को हटना, ‘अ’ से ‘ब’ को पहुँचना। यदि तुम ‘अ’ स्थान पर हो, और फिर तुम ‘ब’ स्थान पर चले जाते हो, तो गति हुई। इसलिए मन के बाहर गति का अर्थ होता है कि स्पेस में रिक्त स्थान में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। यदि कोई रिक्त स्थान न हो, तो तुम नहीं चल सकते। तुम्हें बाहर चलने के लिए स्पेस की, खाली स्थान की आवश्यकता है।
भीतरी गति खाली स्थान में न होकर समय में होती है। यदि कोई समय न हो, तो तुम भीतर नहीं जा सकते। समय भीतरी आकाश : एक सेकंड से तुम दूसरे सेकंड को, इस दिन से उस दिन को; यहाँ से वहाँ, अभी से तब में समय में गति करते हो। समय ही आंतरिक आकाश है। अपने मन का विश्लेषण करो, और तुम देखोगे कि सदा अतीत से भविष्य या भविष्य से अतीत में गति कर रहे हो। या तो तुम अतीत की स्मृतियाँ में गतिमान हो, और या तो भविष्य की इच्छाओं में दौड़ रहे हो।
जब तुम अतीत से भविष्य या भविष्य से अतीत में जाते हो केवल तभी तुम वर्तमान क्षण का उपयोग करते हो, लेकिन बस एक मार्ग की तरह। वर्तमान मन के लिए केवल अतीत और भविष्य का एक विभाजन करनेवाली रेखा है। मन के लिए सचमुच वर्तमान है ही नहीं, उसका अस्तित्व ही नहीं है। वह सिर्फ एक विभाजन करने वाली रेखा है जहाँ से तुम अतीत या भविष्य में होने में असमर्थ हो। इसे समझ लो। तुम वर्तमान में गति करने में असमर्थ हो। वर्तमान में कोई समय नहीं होता। वर्तमान सदैव एक क्षण होता है। तुम कभी भी दो क्षणों में नहीं होते। केवल तुम्हारे पास सदा एक क्षण होता है। तुम ‘अ’ से ‘ब’ को नहीं जा सकते क्योंकि केवल ‘अ’ ही होता है। कोई ‘ब’ नहीं होता।
समय के इस गुण को, वर्तमान को ठीक से समझ लो : कि सदा तुम्हारे पास एक क्षण होता है। चाहे तुम सड़कपर भीख मांगने वाले भिखारी हो और चाहे सम्राट, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी समय की सम्पदा वही है। एक बार में केवल एक क्षण। और तुम उसमें प्रवेश नहीं कर सकते, वहाँ कोई जगह नहीं है जहाँ कि जाया जा सके। और मन सदा गति में पाया जाता है, इसलिए मन वर्तमान का उपयोग कभी नहीं करता। वह कर ही नहीं सकता। वह पीछे अतीत में चला जाता है। वहाँ बहुत से बिन्दु हैं जहाँ कि गति की जा सकती है। लम्बी स्मृति है, तुम्हारा सारा अतीत वहाँ मौजूद है।
या फिर वह भविष्य में चला जाता है। फिर तुम कल्पना कर सकते हो क्योंकि भविष्य भी मूलतः अतीत का ही प्रक्षेपण है। तुम जिये हो, तुमने बहुत से अनुभव किये हैं। तुम उन्हें पुनः पाने की इच्छा करते हो या फिर तुम उनसे बचना चाहते हो। यही तुम्हारा भविष्य है। तुमने किसी से प्रेम किया है, और वह सुन्दर था, आनन्दपूर्ण था। तब तुम उसे पुनः करना चाहोगे, अतः तुम प्रक्षेपण करोगे कि तुम भविष्य में बीमार नहीं पड़ो। इसलिए तुम्हारा भविष्य तुम्हारा प्रक्षेपित अतीत ही होता है, और तुम भविष्य में गति कर सकते हो।
परन्तु मन इस जीवन के भविष्य से सन्तुष्ट नहीं होता। वह स्वर्ग को भी प्रक्षेपित करता है, वह भविष्य के जीवनों की कल्पना करता है। वह मामूली से भविष्य से सन्तुष्ट नहीं होता, इसलिए वह मृत्यु के बाद भी समय निर्मित कर देता है। अतीत और भविष्य बहुत बड़े प्रदेश हैं। तुम उनमें आसानी से गति का सकते हो। वर्तमान के साथ तुम गति नहीं कर सकते। अ-गति का अर्थ हल्ला है, वर्तमान में होना। वही स्थिरता का दूसरा आयाम है। यदि तुम क्षण में ठहर सको, अभी और यहीं, तो तुम स्थिर हो जाओगे। फिर स्थिर होने के सिवाय दूसरी कोई भी संभावना नहीं है।
अभी में जियो, और गति रुक जाएगी क्योंकि मन रुक जाएगा। अतीत की मत सोचो, और उसे भविष्य में भी प्रक्षेपित न करो। जो कुछ तुम्हें मिला है, वह बहुत है। उसी में ठहर जाओ, वहीं रुक जाओ, उससे सन्तुष्ट हो जाओ। यह क्षण ही वास्तविक अस्तित्व का समय है।
उसके सिवा कुछ और नहीं है। अतीत केवल स्मृति है। वह सिर्फ तुम्हारे मस्तिष्क में है-सिर्फ संगृहीत धूल, संगृहीत अनुभव। अस्तित्व में कोई अतीत नहीं होता, अस्तित्व में कोई भविष्य नहीं होता। अस्तित्व सदा वर्तमान है।
यदि इस पृथ्वी पर आदमी नहीं होता तो कोई अतीत या भविष्य नहीं होता। फूल उगते लेकिन वर्तमान में होते। सूर्य भी निकलता लेकिन वर्तमान में। पृथ्वी कुछ भी अतीत की बात नहीं जानती होती, और न ही भविष्य के सपने देखती। कोई अतीत नहीं होता, और न ही कोई भविष्य। अतीत मन में होता है, स्मृति में होता है, और उस स्मृति के कारण ही भविष्य में प्रक्षेपित किया जाता है। अतः साधारणतः हम समय को तीन बिन्दुओं में बाँटते हैं : अतीत, वर्तमान व भविष्य। किन्तु वस्तुतः अतीत और भविष्य समय के हिस्से नहीं है। वे मन के हिस्से हैं, न कि समय के हिस्से। समय का केवल एक ही आयाम होता है। यदि तुम उसे हिस्सा करना चाहो, तो वह सिर्फ वर्तमान होता है।
समय सदा ही वर्तमान होता है। ये तीन विभाजन समय के विभाजन नहीं हैं। अतीत और भविष्य मन के हिस्से हैं : न कि समय के। समय से केवल वर्तमान ही संबंधित है। लेकिन तब उसे वर्तमान कहना भी संभव नहीं है क्योंकि हमारे लिए भाषा में वर्तमान का अर्थ होता है कुछ ऐसा जो कि अतीत और भविष्य के मध्य में है। वह अतीत के संदर्भ में है, वह भविष्य के भी संदर्भ में है। यदि कोई अतीत और भविष्य नहीं है, तब फिर वर्तमान का सारा अर्थ ही खो जाएगा।
सुना है मैंने, एकहार्ट ने कहा है कि समय जैसी कोई चीज़ नहीं, सिर्फ एक इंटरनल नाऊ है-शाश्वत अभी है। एक शाश्वत अभी है, और एक असीम यहीं है। जब हम कहते हैं वहाँ, तो हम जहाँ होते हैं उसके ही संदर्भ में कहते हैं, अन्यथा केवल ‘‘यही’’ है। यदि ‘‘मैं’’ यहाँ नहीं हूँ तो फिर यहाँ क्या बिन्दु होगा और वहाँ क्या बिन्दु होगा? मेरे संदर्भ में ही मेरे निकट की जगह को मैं कहता हूँ ‘‘यहाँ’’ और जो मुझसे निकट नहीं है, मैं कहता हूँ ‘‘वहाँ’’ यह यहाँ कहाँ समाप्त होता है और यह ‘‘वहाँ’’ कहाँ प्रारंभ होता है? हम कोई रेखा नहीं खींच सकते। वस्तुतः यह सब ‘‘यहाँ’’, हियर।
मन के कारण ही हम उस समय को विभाजित करते हैं। तब हमने जो अनुभव कर लिया है, अतीत हो जाता है, और जो हमें अनुभव करने की आशा है, भविष्य हो जाता है। किन्तु यदि कोई मन नहीं हो, तो फिर एक असीम नाऊ होगा, एक शाश्वत अभी होगा। यहीं और अभी ही सत्य है। वहाँ ‘वह’ सब मन के हिस्से हैं न कि वास्तविकता के हिस्से।
दूसरे आयाम से स्थिरता की बात सोचने का अर्थ होता है, क्षण-क्षण जीने का प्रयत्न करना। तब तुम स्थिर हो जाओगे। तुम मौन हो जाओगे। तब भीतर कोई कंपन नहीं होगा, कोई हलचल नहीं होगी कोई गति नहीं होगी। प्रत्येक चीज़ एक गहरी शान्ति का सरोवर हो जाएगी।
हमारा मन अतत और भविष्य में क्यों जाता है? बुद्ध ने इच्छा को, तृष्णा को ‘तन्हा’ कहकर पुकारा है। बुद्ध कहते हैं कि चूँकि तुमने कुछ अनुभव किया है, इसलिए तुम उसकी पुनः कामना करते हो। चूँकि तुम कामना करते हो, तुम भविष्य में गति करते हो। कोई कामना मत करो और कोई भविष्य नहीं है। यह कठिन है क्योंकि मन जब सुख का अनुभव करता है तो वह पुनरुक्ति की कामना करता है। और जब मन दुःख का अनुभव करता है तो वह नहीं चाहता कि वह पुनरुक्त हो। वह उसे टालना चाहता है। इसी कारण यह बहुत प्राकृतिक बात है कि भविष्य निर्मित होता है। और इसी भविष्य के कारण हम वर्तमान से चूक जाते हैं।
यदि तुम सुन रहे हो तो सिर्फ सुनो, सोचो मत कि तुमसे क्या कहा जा रहा है, उसका अर्थ खोजने का भी प्रयास मत करो, क्योंकि तुम दो बातें वर्तमान में नहीं कर सकते। सुनना पर्याप्त है। और यदि तुम सिर्फ सुन रहे हो तो, तुम वर्तमान में हो, और सुनना भी ध्यान हो जाता है।
महावीर ने कहा है कि यदि तुम सम्यक रूप से सुन सको तो फिर कुछ और करने की आवश्यकता नहीं है। केवल श्रावक हो जाने से ही, सम्यक श्रोता हो जाने से ही तुम जो कुछ भी पाने योग्य है उसे पा लोगे। केवल श्रावक होने से ही- सम्यक सुनने वाले होने से ही-क्योंकि सुनना सिर्फ सुनना नहीं है, वह एक बड़ी घटना है। और एक बार तुम्हें रहस्य का पता चल जाये तो फिर तुम किसी भी जगह उसका उपयोग कर सकते हो। तब केवल भोजन करना भी ध्यान हो जाएगा, सिर्फ चलना भी ध्यान हो जायेगा, केवल सोना भी ध्यान हो जाएगा। तब जिस कार्य में तुम उस क्षण में होओगे; बिना भविष्य में गति किए, वही ध्यान हो जाएगा।
लेकिन हम ऐसा कोई कृत्य नहीं जानते जिसमें हम वर्तमान में हो सकें। या तो हम अतीत की बात सोचने लगते हैं या फिर भविष्य की। वर्तमान लगातार चूक जाता है। उसका अर्थ होता है कि हम अस्तित्व को चूकते चले जाते हैं। और तब यह श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया हो जाती है, तब यह एक आदत बन जाती है।
एक शाम मुल्ला नसरुद्दीन सड़क पर आ रहा था। सड़क सूनी थी और अचानक उसे कुछ घुड़संवारों की आवाज सुनाई दी, कुछ सैनिकों की आवाज सुनाई दी जो कि उसकी तरफ आ रहे थे। उसका मस्तिष्क काम करने लगा। उसने सोचा कि वे लोग डाकू भी हो सकते हैं, वे उसे कत्ल भी कर सकते है। और राजा के सिपाही भी हो सकते हैं और उसे जबरदस्ती सेना में भरती कर सकते हैं या कुछ भी ऐसा-वैसा कर सकते हैं। वह अपने आप ही भयभीत हो गया और घोड़े और उनकी आवाज निकट आई तो वह भागा, जोर से भागा और एक कब्रस्थान में कूद गया और उन लोगों से छिपने के लिए एक खुली कब्र में जाकर लेट गया।
इस आदमी को इसी तरह अचानक भागते हुए देखकर वे घुड़सवार जो कि महज यात्री थे, चौकन्ने हो गये कि आखिर क्या मामला है। वे मुल्ला के पीछे दौड़े और उसकी कब्र के पास पहुँचे। मुल्ला वहाँ ऐसे लेटा था, जैसे मर गया हो। उन्होंने पूछा कि क्या बात है? उन्होंने मुल्ला से पूछा कि आखिर मामला क्या है जिससे वह इतना डर गया है? तब मुल्ला को महसूस हुआ, उसने अकारण ही अपने को डरा दिया। उसने अपनी आँखें खोली और कहा कि ‘‘मामला बड़ा जटिल है-बड़ा उलझनपूर्ण है। यदि तुम नहीं ही मानते और जानना ही चाहते हो कि मैं यहाँ पर क्यों हूँ, तो मैं तुमसे कहूँगा कि मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे कारण से और तुम यहाँ पर हो मेरे कारण से।’’
यह एक दुष्ट-चक्र है। यदि तुमने कामना की, तो तुम भविष्य में चले गये और इससे फिर एक दुष्ट-चक्र निर्मित होगा। जब वह भविष्य वर्तमान बनेगा, तो तुम फिर भविष्य में यात्रा कर जाओगे। आज मैं कल के बारे में सोचूँगा, यह एक आदत बन जाएगी। और कल तो कभी आता नहीं, वह आ ही नहीं सकता, वह असंभव है। जब भी वह आता है, तब वह फिर आज की तरह आता है, और मैंने हमेशा आज से कल में यात्रा करने की एक आदत बना ली है। इसलिए जब भी कल आता है वह आज की तरह आता है, तब वह फिर आज की तरह आता है और मैंने हमेशा आज से कल में यात्रा करने की एक आदत बना ली है। इसलिए जब भी कल आता है वह आज की तरह आता है, और तब मैं फिर कल में गति कर जाऊँगा।
यह शृंखला है। और जितना ज्यादा तुम ऐसा करते हो उतने ही तुम उसमें कुशल हो जाते हो। और कल तो कभी आता नहीं है। जब भी आता है, आज ही आता है और आज से तुम्हारा कोई संबंध नहीं है। तुम्हारी यांत्रिकता है : चूँकि यह आज है तुम आगे गति कर जाते हो। यह बहुत बड़ी आदत है-इसी जीवन की नहीं, बल्कि जन्मों-जन्मों की। इसे तोड़ना पड़ेगा, इसमें से बाहर निकलना पड़ेगा। जो भी तुम कर रहे हो, एक ही बात स्मरण रखो, वर्तमान मे रहो, उसे करते समय। यह बहुत कठिन है, बड़ी मुश्किल बात है, और तुम एकदम से सफल भी नहीं होओगे। एक लम्बी आदत को तोड़ना पड़ेगा। यह एक कड़ा संघर्ष है, लेकिन प्रयत्न करें। प्रयत्न करना भी अन्तराल पैदा कर देगा, और यह प्रयास ही कभी तुम्हें वर्तमान के कुछ क्षण दे देगा। और यदि तुम एक बार इसका स्वाद चख लो तो फिर तुम मार्ग पर हो।
लेकिन तुम अभी वर्तमान का स्वाद भी नहीं जानते। तुमने कभी उसे चखा ही नहीं। तुमने कभी उसे जिया ही नहीं। मैं कहता हूँ, वही तो है, जो कुछ भी जीवन में है।
जीसस कहते हैं कि हम सब मरे हुए हैं, जीवित नहीं हैं। एक दिन वे सवेरे जबकि अभी सूरज निकलने को ही था, एक मछुए के पास से गुजर रहे थे। मछुए ने अपना जाल पानी में फेंक दिया है, और जीसस उसके कन्धे पर हाथ रखते हैं और कहते हैं-‘‘क्या तुम अपना सारा जीवन यूं मछली पकड़ने में ही गवाँ देना चाहते हो? मैं तुम्हें कुछ इससे अच्छी चीज़ पकड़ना सिखा सकता हूँ। मैं तुम्हें जीवन का मछुआ बना सकता हूँ।’’ मछुआ जीसस की ओर इस तरह देखने लगा जैसे कि कोई चुम्बक उसे खींच रहा हो। उसने अपना जाल फेंका और जीसस के साथ हो गया।
अभी वे गाँव से बाहर निकल ही रहे थे, कि कोई दौड़ता हुआ आया और मछुए से कहने लगा-‘‘तुम्हारे पिता की मृत्यु हो गई है। वे अभी-अभी मर गये हैं, अतः घर चलो। तुम जा कहाँ रहे हो?’’ मछुए ने आज्ञा मांगी। वह जीसस से बोला, ‘‘मुझे, घर जाने की आज्ञा दे दें। मैं जल्दी ही लौटकर आ जाऊँगा। मुझे अपने मृत पिता को दफनाने जाने दें।’’ जीसस ने कहा, ‘‘मुर्दे-मुर्दों को दफना देंगे। तुम्हें जाने की आवश्यकता नहीं। गाँव में इतने मृत लोग रह रहे हैं। वे मुर्दे को दफना देंगे।’’
जीसस के लिए हम सब मुर्दे हैं क्योंकि हमने जीवन को चखा ही नहीं कभी वर्तमान का स्वाद लिया ही नहीं। अस्तित्व को कभी जाना ही नहीं। हम सब मृत अतीत में जीते हैं। और हम मरे हुए अतीत को भविष्य पर प्रक्षेपित करते रहते हैं। इसी कोशंकर ‘माया’ कहते हैं : इल्यूजन, भ्रम। शंकर को बहुत गलत समझा गया। जब शंकर कहते हैं कि यह संसार माया है तो उनका मतलब है कि आदमी का संसार भ्रम है, न कि यह संसार।
हम इस संसार के बारे में कुछ भी नहीं जानते। हमने अपने मानसिक संसार बना रखे हैं। प्रत्येक का अपना एक जगत है- अतीत और भविष्य का एक जगत स्मृतियों और कामनाओं का एक जगत यह जगत झूठा है, भ्रम है। अतः जब शंकर कहते हैं कि वह जगत झूठा है तो उसका अर्थ है कि तुम्हारा जगत न कि यह जगत। और जब तुम्हारा जगत नहीं हो जाएगा, तभी तुम वास्तविक जगत को जानोगे। और शंकर कहते हैं कि वही ब्रह्म है, वही सत्य है-निरपेक्ष सत्य।
अभी ऐसा है कि हम एक सपनों के जगत में रह रहे हैं। प्रत्येक अपने-अपने सपनों से घिरा हुआ है, सपनों के बादलों के कोहरे में खोया है। प्रत्येक अपने सपनों से घिरा हुआ चल रहा है। और इन सपनों के कारण ही हम उसे नहीं देख सकते जो कि सत्य है, जो कि वास्तविक है। वास्तविक हमारे सपनों के पीछे छिपा है। यह सपनों से भरा चित्त ही अस्थिर मन है। वह जो सपनों से मुक्त चित्त है वही स्थिर मन है। किन्तु कामनाएँ ही सपनों को जन्म देती है। तुम रात को सपने देखते हो क्योंकि तुम दिन में इच्छाएँ करते हो। यदि तुम दिन में इच्छाएँ न करो, तो तुम रात में सपना नहीं देख सकते।
एक बुद्ध सपने नहीं देख सकते क्योंकि सपने ही इच्छाएँ हैं और इच्छाएँ ही सपने हैं। जब वे दिन में होती हैं तो तुम उन्हें कामनाएँ कहते हो, जब वे रात में होती हैं तो तुम उन्हें सपने कहते हो। लेकिन प्रत्येक कामना सपना है। क्यों? क्योंकि प्रत्येक कामना भविष्य में है जो कि अभी नहीं है। प्रत्येक कामना भविष्य की कामना है जो कि नहीं है। भविष्य है ही नहीं।
हम सपने देखते ही रहते हैं। इसे तोड़ना पड़ेगा। यह सपने देखना ही गति है-एक सतत गति। तुम सपनों से भरे हो-सपने जो कि टूट गये हैं, जल गये हैं और नये निर्मित किये गये हैं। प्रतिदिन हमें पुराने सपनों को फेंकना पड़ता है और नये निर्मित करने पड़ते हैं।
किसी भी क्षण, किसी भी कार्य में, यहीं और अभी में रहने का प्रयत्न करो। प्रयत्न भी एक बाधा है, लेकिन प्रारंभ में प्रयत्न करना पड़ेगा। शुरू में तुम्हें प्रयत्न करना ही पड़ेगा। प्रयत्न भी एक बाधा है क्योंकि हर प्रयत्न तुम्हें भविष्य में ले जाता है। लेकिन शुरू में यह करना ही पड़ेगा फिर दूसरे चरण में प्रयत्नरहित प्रयत्न करना होता है, और फिर तीसरे चरण में प्रयत्न विलीन हो जाता है और तुम वर्तमान में होते हो। तुम सड़क पर चल रहे हो, तब केवल चलो, कुछ भी और करने का प्रयत्न मत करो। यह बहुत सरल मालूम पड़ता है। यह सरल नहीं है। ऐसा लगता है कि हम सब यह कर ही रहे हैं। ऐसा नहीं है। जब तुम चल रहे हो, तो तुम्हारा मन हजारों दूसरी बातें कर रहा होता है। प्रत्येक कदम के साथ चलो। केवल चलो।
बुद्ध ने कहा है कि जब तुम चल रहे हो, तब सिर्फ चलो, जब तुम खा रहे हो, तब सिर्फ खाओ, जब तुम सुन रहे हो, तब सिर्फ सुनो। उस कृत्य में पूरे ही हो जाओ। अपने मन को कहीं और मत जाने दो। और यह एक बहुत ही आश्चर्यजनक अनुभव है क्योंकि अचानक वर्तमान प्रवेश कर जाएगा। तुम्हारे सपनों के संसार में वास्तविकता का जगत प्रवेश कर जाएगा। और यदि तुम्हें उसकी एक झलक भी एक क्षण के लिए मिल जाये, तो तुम दूसरे ही आदमी हो जाओगे। तब तुम उसे जानोगे जो कि अभी और यहीं है, तुम्हारे चारों तरफ है, और तुम उसे चूक रहे हो। तुम उसे अपनी यांत्रिक आदत के कारण ही चूक रहे हो। और कोई कुछ भी नहीं कर सकता सिवाय इसके कि वह अ-यांत्रिक हो जाए।
कभी-कभी सजगता से बड़े चमत्कार घटित हो जाते हैं। मैं पढ़ रहा था कि रूस में पुराने दिनों में क्रान्ति के पहले एक छोटे से गाँव में एक नाटक खेला जा रहा था। अचानक मैनेजर को पता चला कि एक आदमी, जो कि अन्तिम दृश्य में अत्यन्त आवश्यक है, गायब है। एक आदमी की आवश्यकता थी, एक विशेष पार्ट में जबकि वह हकलाता है। वह आदमी गायब था, इसलिए उन्होंने किसी दूसरे आदमी की खोज की जो कि उसकी जगह काम कर सके। तब किसी ने कहा कि यह तो उस समय बड़ा कठिन होगा। लेकिन गाँव में एक लड़का था, जो कि कुशल था। उसे किसी प्रशिक्षण की भी जरूरत नहीं थी क्योंकि वह स्वाभाविक ही हकलाता था। अतः लड़के को लाया गया। बहुत से चिकित्सकों ने उसका इलाज करने की कोशिश की थी लेकिन उसका हकलाना जारी था।
इसलिए उस लड़के को बुलाया गया और उसे वह रोल दे दिया गया। अभ्यास करने की भी आवश्यकता नहीं थी, जब वह लड़का स्टेज के भीतर घुसा तो उसने हकलाने का प्रयत्न किया लेकिन वह नहीं हकला सका। वह बिना किसी गलती के बोलने लगा जैसा कि कोई भी बोलता है। जितना उसने कोशिश की उतना असंभव हो गया। क्या हो गया? पहली बार हकलाने की जो यांत्रिक आदत थी, सजगता के कारण टूट गई। अब वह उसे पूरी जागरूकता के साथ कर रहा था। वह अब उसे करने का प्रयत्न कर रहा था। वह सजग हो गया था, और उसकी बीमारी विलीन हो गई थी। वह एक यांत्रिक आदत थी, परन्तु उसे सजगतापूर्वक करने की कोशिश ने असंभव कर दिया।
मैं एक शहर में था। एक प्रोफेसर को मेरे पास लाया गया। वह एक कॉलेज में प्रोफेसर था। एक बहुत सुशिक्षित, समझदार, तथा तार्किक आदमी था। लेकिन उसे एक रोग था और वह बड़े कष्ट में था। क्योंकि उसने स्त्रियों की तरह चलने की आदत डाल ली थी। और वही उसकी समस्या थी, विशेषतः एक कॉलेज में सब लोग हँसते थे। उसकी मनोचिकित्सा हुई, उसे अस्पताल में रखा गया, लेकिन किसी भी प्रयत्न से कुछ भी नहीं हुआ। और जितना उसने प्रयत्न किया, जितना उसने संकल्प किया, उसे नहीं करने का, उतना वह ज्यादा करने लगा। और इस तरह वह भारी उलझन में पड़ गया।
उसे मेरे पास लाया गया। मैंने उससे कहा कि अपनी इस आदत से लड़ो नहीं, बल्कि इसे होशपूर्वक करो। जब तुम सड़क पर चलो स्त्रियों की तरह चलो। स्त्रियों की तरह चलने का प्रयत्न करो। उसने कहा, आप क्या करने को कह रहे है? मैं पहले ही इतनी परेशानी में हूँ, और यदि मैं भी अपनी ओर से प्रयत्न करूँ, तो फिर इससे भी बुरा हो जाएगा। मैंने उससे कहा कि तुमने बीस वर्ष से कोशिश करके देख लिया कि तुम स्त्रियों की तरह न चलो। अब इसका उलटा करो। इसका उलटा भी करके देख लो। तुम यहाँ खड़े हो जाओ। यहाँ मेरे सामने ही इस कमरे में चलो।
उसे बड़ी शर्म मालूम हुई। फिर भी उसने कोशिश की और चला। लेकिन वह चल नहीं सका। उसने कहा, क्या हो गया? यह आने क्या किया? क्या आपने कुछ किया है? यह तो चमत्कार है। मैं कोशिश कर रहा हूँ और मैं स्त्रियों की तरह नहीं चल पा रहा। मैंने उससे कहा कि अब तुम जाओ और ऐसा करते रहो। अपने कॉलेज जाओ। प्रत्येक कदम पर स्त्री की तरह चलने का प्रयत्न करो। शाम को वह मेरे पास आया। वह तो आनन्द से भरा था। उसने कहा कि मैं आपको कैसे धन्यवाद दूँ। यह तो असंभव है, लेकिन चमत्कार है। यह तरकीब तो काम कर गई। मैं चल ही नहीं सकता। यदि मैं चलने की कोशि करता हूँ तो मैं नहीं चल सकता हूँ। हो क्या गया?
जिस क्षण भी तुम अपनी सजगता किसी यांत्रिक आदत के पास लाते हो, तो वह रुक जाती है क्योंकि कोई भी यांत्रिक आदत तुम्हारी मूर्च्छा पर निर्भर होती है। इसलिए संकल्पशक्ति काम नहीं देगी, सजगता काम देगी। और इस भेद को स्मरण रखो। संकल्प में तुम आदत से लड़ने का प्रयत्न करते हो, और यदि तुम उससे लड़ते हो, तो तुमने उसे स्वीकार कर लिया। और जब मैं कहता हूँ सजगता से, होशपूर्वक तो मेरा मतलब है बिना उससे लड़े। उसे आप अपना पूरा साथ दे दें, उसके खिलाफ जरा भी न हो।
तुम सड़क पर चल रहे हो, अपने चलने के मथ पूरी तरह समग्र हो जाओ। उसके साथ एक ही जाओ, जो हो रहा हो, उसके प्रति जागे रहो। अब यह बायां पाँव, अब यह दायाँ पाँव चल रहा है। हर एक गति होशपूर्वक अनुभव करो। उस क्षण में रहो, अपने मन को कहीं भी और मत जाने दो। यदि पुरानी आदत के अनुसार मन कहीं भी चला जाये- तो उसे वापस ले आओ। निराश न को। यदि मन चला जाता को तो यह न कहें कि ‘‘यह असंभव है, मुझसे नहीं होगा1’’ नहीं, अपने मन को वापस ले आओ। पुनः प्रयत्न करो, और आगे पीछे तुम्हें कुछ क्षणों का पता चलेगा, चाहे वे कितने भी कम हो, जब तुम वर्तमान के अनुभव का स्वाद ले पाओगे। वर्तमान का अनुभव करना कितना प्रीतिकर है। और एक बार भी तुम वर्तमान को अनुभव कर लो, तो तुम अस्तित्व के द्वार के निकट ही हो, तुम उसमें प्रवेश कर सकते हो।
इस आयाम में स्थिरता का अर्थ है कि मन को कोई गति अतीत में या भविष्य में नहीं जाती। कोई गति नहीं। बस केवल वर्तमान में रहो। तुम इसे बुद्धि से समझ सकते हो, तुम्हें लग सकता है कि ठीक है, समझ गये। लेकिन बौद्धिक समझ काम नहीं देगी। बल्कि वह और भी बड़ी प्रवंचना होगी। वह बड़ी प्रवंचना साबित होगी। तुम्हें उसे करना पड़ेगा। सोचने समझने से कुछ भी न होगा।
तुम अपने बिस्तर पर लेटे हुए हो, तुम सोने जा रहे हो। इस लेटे होने की स्थिति को अनुभव करो। बिस्तर का स्पर्श अनुभव करो, चादर का स्पर्श अनुभव करो और चारों और की आवाजें-सड़क पर चलनेवाली गाडियों की आवाजें आदि सुनो। अनुभव करो उस सबको, वहीं रुक जाओ। सोची नहीं, केवल अनुभव करो, वर्तमान में हो जाओ। और उस अनुभव की स्थिति में सो जाओ। उस रात तुम्हें सपने कम आयेंगे, तुम्हारी नींद गहरी हो जाएगी।
सवेरे तुम्हारा जागरण अधिक ताजा होगा। जब सवेरे तुम्हें मालूम पडे, पहली वार कि नींद टूट गई तो एकदम से बिस्तर के बाहर कूदकर मत आ जाओ। वहीं पडे़ रहो पाँच मिनट। पुनः चादर का अनुभव करों। उष्णता का अनुभव करो, सर्दी का, छत पर पड़रहीं वर्षा का, अथवा सड़क पर फिर से चालू हो गये ट्रैफिक की आवाज का अनुभव करो, अथवा जगत का अनुभव करो। जो कि जाग गया है-शोर, पक्षियों का गीत-इस सबको पुनः अनुभव करो। तुरन्त दिन में छलांग न लगाओ। सुबह के साथ रहो। अन्यथा तुम्हारी नींद टूट जाएगी और तुम बाहर निकलकर दौड़ पड़ोगे, भविष्य में चले जाओगे।
यह दूसरा आयाम है। और एक तीसरा आयाम भी है, और अच्छा होगा कि उसके बारे में भी जान लें। एक आयाम है ध्वनि के विपरीतः मौन। यह एक आयाम है : निर्ध्वनि। दूसरा आयाम स्थिरता का है गति के विरुद्ध। वह है निश्चलता-कोई गति नहीं। और तीसरा है अहंकार के विरुद्ध-अहंशून्यता। तीसरा सबसे अधिक गहरा है।
बुद्ध ने कहा है-‘‘जब तुम मिट ही नहीं जाते तुम स्थिर नहीं हो सकते। तुम ही समस्या हो। तुम ही शोर हो, तुम ही गति हो। इसलिए जब तक तुम पूरी तरह मिट न जाओ, तुम पूर्ण स्थिरता को उपलब्ध नहीं हो सकते।’’ इस कारण ही बुद्ध को ‘‘अनात्मवादी’’ कहते हैं अर्थात जो किसी आत्मा में विश्वास नहीं करते।
हम सोचते चले जाते हैं कि हम हैं-‘कि मैं हूँ।’ यह ‘मैं’ बिल्कुल ही मिथ्या है। और इस ‘मैं’ के कारण ही बहुत-सी बीमारियों का प्रारंभ होता है। इस ‘मैं’ के कारण ही तुम अतीत को इकट्ठा करते जाते हो, इस ‘मैं’ के कारण ही तुम अतीत के सुखों को पुनरूक्त करने की विचारते रहते हो। सब कुछ इस ‘मैं’ पर टिका है-अतीत, भविष्य, इच्छाएँ।
बुद्ध ने गहरे ध्यान में जाना कि हम संसार की सारी इच्छाओं को छोड़ सकते हैं, किन्तु यदि यह ‘मैं’ रहता है तो यह मोक्ष की इच्छा करने लगता है-परम मुक्ति, परमात्मा के साथ एक होने की स्वतन्त्रता ब्रह्म के साथ एक होने की मुक्ति। यदि यह ‘मैं’ रहता है तो इच्छाएँ रहेंगी, चाहे उनकी दिशा कोई भी क्यों न हो और उनका उद्देश्य कुछ भी क्यों न हो।
बुद्ध कहते हैं, इस ‘मैं’ केन्द्रित अस्तित्व को गिरा दो। परन्तु कैसे गिरायें इसे? कौन गिरायेगा? यदि कोई ‘मैं’ ही नहीं है तो कौन गिरायेगा? गिराने का अर्थ है कि अपने भीतर जाये और इसे खोजें-उसकोढूढ़ें कि वह कहाँ हैं, कि वह है भी या नहीं। क्योंकि जो भी भीतर गए हैं और जिन्होंने भी खोजा है, उन्हें यह नहीं मिला। केवल वे ही जो कभी भीतर नहीं गये हैं, और जिन्होंने उसे कभी नहीं खोजा हैं, वे ही विश्वास करते हैं कि वह है। कोई भी आज तक खोज कर नहीं बता पाया है कि ‘मैं’ है।
जब मैं कहता हूँ कि मैं हूँ तो ‘‘हूँ’’ ही वास्तविकता है न कि ‘मैं’ जब तुम भीतर जाते हो, तो तुम्हें कुछ होने की प्रतीति होती है। एक विशेष अस्तित्वगत अनुभूति होती है। तुम्हें प्रतीति होती है कि कुछ है, लेकिन वह तुम नहीं हो। ‘‘मैं’’ की कोई प्रतीति नहीं होती। केवल एक विकेन्द्रित हूँ के होने की प्रतीति होती है। अस्तित्व की अनुभूति होती है बिना किसी ‘मैं’ के।
अतः तीसरे आयाम में प्रवेश करने के लिए एक और बात-जब भी तुम्हारे पास समय हो-जब भी-तो यह जानने का प्रयज्न करो कि यह ‘‘मैं’’ कहाँ है। तुम्हें किसी मन्दिर में जाने की जरूरत नहीं है। यदि तुम जाते हो, तो अच्छा है, लेकिन कोई जरूरत नहीं है। तुम रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे हो, अपनी आँखें बन्द कर लो, कोशिश करो, जानने की कि यह ‘‘मैं’’ कहाँ है? क्या शरीर में? क्या मस्तिष्क में? कहाँ है वह? खुले मन से जाओ। खोजो कि वह कहाँ है। अपनी कार में बैठे हुए या बिस्तर पर लेटे हुए, जब भी तुम्हारे पास थोड़े-से क्षण हों, अपनी आँखें बन्द कर लो और बस एक ही प्रश्न-यह ‘‘मैं’’ कहाँ पर है? कहाँ है यह? ‘‘मैं’’ कहाँ है।
रमण महर्षि ने ध्यान की विधि बतलाई है। वह उसे ‘‘मैं कौन हूँ’’ ध्यान कहते हैं। बुद्ध कहते हैं कि इससे काम नहीं चलेगा क्योंकि जब तुम पूछते हो कि ‘मैं कौन हूँ’ तो तुमने पहले से ही यह मान लिया कि तुम हो। तब वह तो पूछा ही नहीं गया। यदि प्रश्न यही है कि ‘‘मैं कौन हूँ,’’ तो ‘‘मैं हूँ’’ इतना तो पक्का हो गया। तुमने उसे पहले से ही मान लिया। अब तुम सिर्फ पूछ रहे हो, ‘‘मैं कौन हूँ? ‘‘मैं’’ के लिए सवाल नहीं उठाया गया। बौद्ध ध्यान कहता है कि पूछो, मैं कहाँ हूँ? न कि ‘‘मैं कौन हूँ।’’
भीतर हर एक कोने में चले जाओ, खुले मन से खोजो, और तुम अपने को कहीं भी नहीं खोज पाओगे। तुम एक मौन अस्तित्व ही पाओगे। बिना किसी ‘‘मैं’’ के। और ऐसा नहीं सोचें कि यह बहुत कठिन है। यह कठिन नहीं है। यदि तुम जहाँ भी अपनी आँखें बंद कर लो और भीतर खोजने की कोशिश करो कि मैं कहा हूँ? तो तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। तुम्हें बहुत-सी चीजें मिलेंगी। तुम्हारा हृदय धड़कता हुआ मिलेगा, तुम्हारी श्वास होगी, तुम्हें बहुत से मन में तैरते हुए विचार मिलेंगे। तुम्हें बहुत-सी चीज़ें मिलेंगी, लेकिन तुम्हें कोई ‘‘मैं’’ नहीं मिलेगा, कोई अहंकार नहीं मिलेगा।
बुद्ध कहते हैं कि अहंकार एक सामूहिक कल्पना है-जैसे कि ‘‘समाज’’ है, जैसे कि ‘‘देश’’ है, जैसे कि ‘‘मनुष्यता’’ है। तुम उन्हें कहीं भी नहीं खोज सकते। हम यहाँ बैठे हैं। हम इसे एक क्लास कह सकते हैं, लेकिन हम इसे कहीं भी खोज नहीं सकते। यदि हम इसे खोजने निकले तो हमें व्यक्ति मिलेंगे, कोई क्लास नहीं मिलेगी। कोई समूह नहीं मिलेगा, केवल व्यक्ति ही मिलेंगे। ग्रुप सिर्फ समूह का नाम है। हम बहुत से वृक्षों को जंगल कहते हैं। जंगल जैसी कोई चीज़ नहीं होती, केवल वृक्ष और वृक्ष। यदि तुम भीतर जाओ, तो तुम्हें वृक्ष मिलेंगे और जंगल विलीन हो जाएगा।
अतः तीसरा आयाम है न होना अथवा अहंकार शून्यता। जब किसी को पता चलता है कि वह नहीं है, लेकिन फिर भी है, तो स्थिरता स्टिलनेस उपलब्ध हो गई। यदि कोई अहंकार नहीं है तो फिर तुम तनावपूर्ण नहीं रह सकते, अब तुम अस्थिर नहीं हो सकते, तुम भीतर गहरे शोर में डूबे नहीं हो सकते। सारा खेल ही समाप्त हो जाता है।
लेकिन हम कर क्या रहे हैं? हर क्षण हम ऐसी बातें कर रहे हैं जिससे कि इस ‘‘मैं’’ को और ज्यादा भोजन मिल रहा है। इसे और अधिक शक्ति मिल रही है, और अधिक ऊर्जा मिल रही है, और ईंधन मिल रहा है। हम हर क्षण इसको बनाये रखने का प्रबन्ध कर रहे हैं। यह एक मिथ्या धारणा है, लेकिन इसे संभाला जा सकता है और बनाये रखा जा सकता है। तुम इसमें विश्वास करते चले जा सकते हो ऐसी स्थितियाँ बनाते जाओ जिससे कि इसमें विश्वास करना सरल हो जाये। ‘‘मैं’’ एक विश्वास है, यह कोई तथ्य नहीं है।
प्रत्येक आदमी अहंकार में विश्वास करता है। लोग पूछते है कि परमात्मा कहाँ है? जब तक हमें वह मिल ही न जाये हम उसमें विश्वास नहीं कर सकते। वे लोग भी अपने अहंकार में विश्वास करते हें बिना यह जानने का प्रयत्न किये कि क्या ऐसी भी कोई चीज है? यह चमत्कार है। हम परमात्मा में सन्देह करते हैं, लेकिन हम कभी अपने पर सन्देह नहीं कर सकते। और जब तक हम अपने पर सन्देह नहीं करते, हम स्थिरता में प्रवेश नहीं कर सकते। उस सन्देह के साथ सभी कुछ बिखर जाता है। एक धार्मिक आदमी का जन्म अपने अहंकार पर तथा अपने पर सन्देह करने से होता है।
हमने उसे तो मान ही लिया है, हम उसके बारे में कभी नहीं पूछते कि क्या वह वस्तुतः है या नहीं। और यदि कोई हमें यह बतलाता है कि वह नहीं है, तो वह हमें दुश्मन मालूम पड़ता है। मित्र वे हैं जो कि हमारे अहंकार को मजबूत करने में मदद करते हैं। हमारा परिवार हमारा समाज, हमारे देश में सब हमारे अहंकार में केन्द्रित होने में हमारी सहायता करते हैं। धर्म तुम्हें सिंहासन से नीचे उतार देता है। तुम अपने सिंहासन से नीचे उतार दिये जाते हो। तुम हो ही नहीं और यदि तुम नहीं हो तो स्थिरता की गहरी खाई में होगे-अंतहीन खाई, जिसकी कोई और छोर नहीं होगा। क्योंकि यह ‘‘मैं’’ ही सब गड़बड़ करनेवाला है, यह ‘‘मैं’’ ही सारी बीमारी है। यह ‘‘मैं’’ ही सारे उपद्रव की जड़ है। यही एक मात्र समस्या है।
टंका एक गाँव में ठहरा हुआ था। कोई उसके पास आया और बोला,-‘‘मेरी सहायता करो, मुझे सिखाओ, मुझे दीक्षित करो। मैं मुक्त होना चाहता हूँ। मैं मोक्ष प्राप्त करना चाहता हूँ।’’ टंका ने उससे कहा, ‘‘मैं तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता। मैं तुम्हारे इस ‘‘तुम’’ को विलीन कर सकता हूँ, लेकिन मैं तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता।’’
‘‘मैं’’ के लिए कोई मुक्ति नहीं है। केवल एक ही मुक्ति है और वह है ‘‘मैं’’ से मुक्ति। ‘‘मैं’’ के लिए कोई मोक्ष नहीं है। केवल एक ही मोक्ष है-वह है ‘‘मैं’’ से मोक्ष, न कि ‘‘मैं’’ के लिए मोक्ष।
अतः तुम क्या कर सकते हो? तुम बिना किसी पूर्व-धारणा के उस पर विचार कर सकते हो। जब कभी तुम्हारे पास समय हो, अपनी आँखें बंद कर लो, भीतर जाओ और खोजो कि तुम कहाँ पर हो। जल्दी ही तुम इस तथ्य पर पहुँच जाओगे कि तुम इस अनन्त अस्तित्व के हिस्से की भाँति हो, न कि एक अलग द्वीप की तरह। हम एक असीम महाद्वीप के हिस्से हैं। ‘मैं’ तुम्हें एक द्वीन होने का मिथ्या ख्याल देता है और तब हर मुसीबत खड़ी होती है। ‘मैं’ ही सब दुःखों की जड़ है। हर हिस्सा, युद्ध, अपराध हर विक्षिप्तता इसी ‘मैं’ से निर्मित होती है। हम इससे चिपकते चले जाते हैं, और हम चिपके हुए है। यह पकड़ छूटनी चाहिए।
इसलिए ऐसा होता है कि जिस आदमी ने बहुत तपस्या की हो वह बहुत सूक्ष्मरूप से अहंकारी हो जाता है। वह और भी अधिक ‘‘मैं’’ हो जाता है। एक विस्तार का, एक महाद्वीप का हिस्सा होने के बजाय वह अहंकार का शिखर हो जाता है। यह प्रत्येक के लिए संभव है। अतः केवल धन या, मान-सम्मान, या संसार की वस्तुएँ या सम्पति ही इस ‘‘मैं’’ के लिए भोजन नहीं बनती। यह ‘‘मैं’’ किसी भी चीज़ को अपने भोजन में बदल सकता है।
इसलिए अध्यात्म के मार्ग पर प्रवेश करने के पहले बुद्ध की सलाह सदैव स्मरण रखनी चाहिए। उन्होंने कहा है कि इसके पहले कि तुम किसी भी मार्ग में प्रवेश करो, यह देख लो कि यह ‘‘मैं’’ भी है या नहीं? केवल तभी तुम्हारा मार्ग आध्यात्मिक होगा। अन्यथा, कोई भी मार्ग हो, वह अन्ततः सांसारिक ही साबित होगा, क्योंकि यह ‘‘मैं’’ उसका पोषण करेगा।
एक बार मुल्ला नसरुद्दीन राजधानी से गाँव लौटकर आया। सारा गाँव उसके चारों ओर इकट्ठा हो गया कि राजधानी की क्या खबर है, कि वहाँ पर क्या हो रहा है। और उन दिनों जबकि कोई अखबार भी नहीं निकलता था यह गाँव के लिए बहुत बड़ी बात थी। एक आदमी राजधानी गया था और वह वापस लौटकर आया है और वह भी कोई मामूली आदमी नहीं, बल्कि मुल्ला नसरुद्दीन खुद गाँव का एक अकेला पढ़ा-लिखा आदमी। जब सब लोग इकट्ठे हो गये, मुल्ला चुप बैठा था, बहुत गंभीर था। वह अभी राजधानी से लौटकर ही आया था। सारा गाँव पागल हो रहा था, यह जानने के लिए कि वहाँ क्या हो रहा है। तब मुल्ला बोला-‘‘अभी मैं तुम्हें ज्यादा कुछ नहीं बताऊँगा, केवल एक बात कि मैं सम्राट से मिला था। और इतना ही नहीं, बल्कि वह मुझसे बोला भी था। लेकिन मैं तुम्हें सारी बात बाद में बताऊँगा।’’
गाँव के लोग चले गये। सारा गाँव बड़ा उत्सुक हो गया केवल एक बात पर कि मुल्ला नसरुद्दीन सम्राट से मिला है। और इतना ही नहीं बल्कि सम्राट उससे बोला भी है। लेकिन एक आदमी वहीं पर रहा और उसने जोर देकर पूछा-‘‘सम्राट ने क्या कहा, मुल्ला मुझे बताओ, वरना मैं जाने वाला नहीं हूँ। मैं अब सो नहीं सकता, क्योंकि मैं इतना उत्तेजित हूँ।’’ उसने क्या कहा-‘‘थोड़ा ही बताओ। विस्तार में मत जाओ, लेकिन सार तो बता दो।’’ अतः मुल्ला बोला, ‘‘ज्यादा कोई लम्बी-चौड़ी बात नहीं है। जब उसने मुझे खड़े हुए देखा, तो वह चिल्लाया, ‘मेरे रास्ते से हटो।’ यही एक बात मुझसे बोला था।’’
लेकिन वह गाँव का आदमी संतुष्ट हो गया क्योंकि ये कोई साधारण शब्द नहीं थे। वे सम्राट के द्वारा बोले गये थे। और वे ही शब्द उसने सुने हैं। जिस आदमी ने पूछा था वह बड़ा सन्तुष्ट हुआ, और उसने कहा कि मुल्ला, ‘‘मैं कितना खुशनसीब हूँ कि मैं तुम्हारे गाँव में पैदा हुआ। सोचो कि मैंने वे ही शब्द जो कि सम्राट ने तुम्हें कहे थे, तुम्हारे लिए। सम्राट ने स्वयं तुम्हें कहा था, ‘मेरे रास्ते से हटो।’’ नसरुद्दीन ने कहा- ‘‘हाँ, सम्राट ने स्वयं कहे थे। वह मेरे निकट आया और धीरे से नहींबोला बल्कि इतने जोर से बोला कि हर एक ने सुना। ‘मेरे रास्ते से हटो’- वह चिल्लाकर बोला। सचमुच, वह जोर से चिल्लाया था।’’
ऐसा ही है मन। ऐसा ही अहंकार। वह हर तरह से अपने को भरने की कोशिश करता है। उसके रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं, गूढ़ भी हैं, लेकिन सूक्ष्म। यदि तुम अध्यात्म की ओर कुछ भी करना चाहो तो अहंकार उसे विषैला कर देता है। इसके पहले कि उस आयाम में जाओ, याद रखो कि तुम अहंकार नहीं हो। यदि एक बार भी तुम इसे खोज लो कि तुम अहंकार नहीं हो, तब सभी कुछ आध्यात्मिक होजाता है, और हर मार्ग आध्यात्मिक मार्ग हो जाता है। तब तुम जहाँ भी जाते हो, तुम परमात्मा के पास ही जाते हो। तब हर मार्ग परमात्मा की ओर ही जाता है। अहंकार के साथ कोई मार्ग परमात्मा की तरफ नहीं जाता। अहंकार के साथ यदि तुम मक्का या जेरुसलम या काशी भी चले जाओ, तो भी तुम नर्क में जाओगे।
तुम और कहीं जा ही नहीं सकते क्योंकि अहंकार ही नर्क है। बिना अहंकार के कहीं भी जाओ, नर्क भी चले जाओ तो भी वहाँ तुम्हें स्वर्ग मिलेगा। क्योंकि बिना अहंकार के सब कहीं स्वर्ग ही है। अहंकार ही सब दुखों की मूल जड़ है।
ये तीन, स्थिरता के, स्टिलनेस के लिए आयाम हैं : मौन ध्वनिशून्यता की भाँति, मौन मन की अ-गति की भाँति, मौन अहंकारशून्यता की भाँति किसी से भी प्रारभ करो, और दूसरे पीछे-पीछे आ जायेंगे। अथवा तुम तीनों पर एक साथ काम कर सकते हो, तब सारा काम बड़ी तीव्र गति से होगा। लेकिन खाली विचार मत करते रहो। क्योंकि सोचना गति है, सोचना शोर है, सोचना अहंकार की प्रक्रिया है।
सोचना बन्द करो, और करना शुरू करो। केवल करना ही काम आयेगा। केवल करना ही तुम्हें अस्तित्वगत बनायेगा। केवल करने के द्वारा ही छलांक संभव होगी और विस्फोट होगा।
भगवान, तीव्र गतिमानता, सक्रियता तथा तनावों से भरे इस औद्योगिक काल में आज का आदमी दैनिक कार्य के बाद अपने कोबिल्कुल थका-मांदा पाता है। ऐसी हालत में उसके लिए यह आंतरिक मौन या स्थिरता पाना बहुत कठिन है।
कृपया बताएँ कि इसके क्या कारण हैं और उसके लिए क्या उपाय हैं?
स्थिति ऐसी दिखलाई पड़ती है। ऐसा है नहीं, वरन स्थिति बिल्कुल इससे उलटी है। तुम इस औद्योगिक युग के कारण थके हुए नहीं हो, इस कार्य और इन तनावों के कारण भी थके हुए नहीं हो। तुम थके हुए हो क्योंकि तुमने अपने भीतर की स्थिरता से संबंध खो दिया है। कार्य कोई समस्या नहीं है, तुम ही समस्या हो। युग भी समस्या नहीं है। तुम ही समस्या हो।
ऐसा मत सोचो कि आज का आदमी अधिक बोझ से लदा हुआ है। वह कम भारग्रस्त है। एक पुरातन आदमी ज्यादा भारग्रस्त था। यांत्रिकता, औद्योगिकीरण, ये सब समय बचाते हैं। ये सब समय बचानेवाले हैं और इनके कारण समय बचा है।
लेकिन चूँकि अब तुम्हारे पास समय तो है परन्तु कोई स्थिरता नहीं है, चूँकि तुम्हारे पास समय तो है और उसका कोई उपयोग नहीं है, इसलिए इससे समस्या पैदा होती है। एक पुरातन आदमी की समस्याएँ कम हैं, इसलिए नहीं कि वह शान्त है और स्थिर है, परन्तु इसलिए कि उसके पास समय ही नहीं है, कोई समय नहीं है कि वह अपने लिए समस्याएँ खड़ी कर सके। तुम्हारे पास बहुत समय है, और तुम्हें पता नहीं कि तुम उसका क्या करो?
इस समय का उपयोग आंतरिक यात्रा के लिए किया जा सकता है। और यदि आदमी इसका उपयोग अन्तर्यात्रा के लिए नहीं करता तो वह नष्ट होता है। तब उसके लिए कोई आशा नहीं है, क्योंकि अब और अधिक समय बचेगा। जल्दी ही सारा संसार स्वचालित यांत्रिकता के अन्तर्गत आ जाएगा। तुम्हारे पास समय होगा और तुम्हें यह पता नहीं होगा कि तुम उसका क्या करो। और इतिहास में पहली बार आदमी कल्पना का स्वर्ग प्राप्त कर लेगा। जिसके लिए कि वह हमेशा से कामना कर रहा था। तब वह बड़ी उलझन में होगा कि वह उसका क्या करे।
तुम्हारे पास किसी भी युग से अधिक समय है। और तुम काम के कारण थके हुए नहीं हो। तुम थके हुए हो क्योंकि तुम्हारा अपने भीतर से संबंध-विच्छेद हो गया है। अथवा तुम्हें पता नहीं है कि अपने भीतर गहरे कैसे जायें और ऊर्जा को कैसे प्राप्त करें। तुमने सोने की क्षमता, भी खो दी है। वह एक प्राकृतिक मार्ग था-भीतर जाने का। तब कोई सवेरे ताज़ा होता था-नई ऊर्जा से भरा, रि-चार्ज्ड। लेकिन अब हमने सोने की क्षमता खो दी है, और हमने यांत्रिक क्रान्ति के कारण उसे खो दिया है। क्योंकि अब तुम्हारा शरीर काम करने के लिए बाध्य नहीं है। कम काम के कारण तुम कम थके हुए हो, और कम थकान के कारण तुम सो नहीं सकते।
एक गाँव का आदमी अभी भी गहरी नींद सोता है, क्योंकि उसका शरीर इतना थक गया है कि वह गहरी नींद सो जाता है। तुम्हारा शरीर थका हुआ नहीं है, इसलिए तुम बिस्तर में करवटें बदलते रहते हो। मशीनों ने श्रम को हटा दिया, और अब तुम कम थके हुए हो-इसे स्मरण रखो। और इस कारण तुम सो नहीं सकते और इस तरह जो प्राकृतिक स्रोत था-नई ऊर्जा प्राप्त करने का-वह भी खो गया। सवेरे तुम और भी अधिक थके हुए उठते हो, शाम से भी अधिक, और फिर सारा दिन पुनः प्रारंभ होता है और तुम फिर अपने को थका हुआ पाते हो।
तुम एक थकान भरा जीवन जी रहे हो। ऐसा नहीं है कि तुम शाम को ही थके हुए हो। सवेरे भी तुम थके हुए हो। क्या हो गया है? मनुष्य को आंतरिक स्रोत से सतत संबंधित रहने की आवश्यकता है। इसलिए मुझसे यह नहीं पूछें कि कैसे थका हुआ आदमी ध्यान करे? यह ऐसा ही है जैसे कि तुम पूछो कि कैसे कोई बीमार आदमी औषधि ले। उसे आवश्यकता है। केवल उसे ही उसकी आवश्यकता है।
तुम थके हुए हो, इसलिए ध्यान तुम्हारे लिए दवा होगी। और यह भी न कहें कि तुम्हारे पास समय नहीं है। तुम्हारे पास बहुत समय है। इतना समय है कि तुम उसका उपयोग नहीं कर पाते। प्रत्येक आदमी न जाने कितने तरीकों से समय बर्बाद कर रहा है। लोग ताश खेल रहे हैं। यदि तुम उनसे पूछो तो वे कहेंगे कि हम समय काट रहे हैं। सिनेमाघर भरे हुए हैं। क्या कर रहे हैं वहाँ लोग? किलिंग टाइम। वे होटलों में जा रहे हैं, क्लब जा रहे हैं। क्या कर रहे हैं वहाँ वे लोग? किलिंग टाइम। समय काट रहे हैं?
परन्तु तुम समय को नहीं मार सकते। समय ही तुम्हें मार सकता ह। इसलिए आज कोई भी आदमी ऐसा नहीं है। जिसके पास समय नहीं है। और ऐसा भी न सोचें कि समय सीमित है। ऐसा नहीं सोचें कि समय सीमित है। ऐसा नहीं सोचें कि दिन चौबीस घंटे का होता है-नहीं। यह तुम पर निर्भर है। यह तुम पर निर्भर है कि तुम उसे कितने घंटे का बनाते हो। यह तुम पर निर्भर करता है।
किसी ने इमर्सन से पूछा, ‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘तीन सौ साठ वर्ष।’’ यह अविश्वसनीय था, इसलिए उस आदमी ने कहा, ‘‘क्षमा करें, लगता है मैंने आपकी बात ठीक से नहीं सुनी फिर से कहें। आपने कितने वर्ष कहा?’’ इमर्सन ने जोर से कहा, ‘‘तीन सौ साठ वर्ष।’’ लेकिन उस आदमी ने कहा-‘‘मैं विश्वास नहीं कर सकता। यह असंभव है। तुम साठ साल से ज्यादा के नहीं हो।’’ इमर्सन ने कहा, ‘‘यह बात सही है, तुम्हारी बात सही है। मेरी वास्तविक उम्र साठ वर्ष ही है, लेकिन मैं तुमसे छः गुना ज्यादा जीया हूँ। मैंने वास्तविक उम्र साठ वर्ष ही है, लेकिन मैं तुमसे छः गुना ज्यादा जीया हूँ। मैंने अपने साठ साल इस तरह से बिताये हैं कि वे तीन सौ साठ वर्ष साबित हुए हैं।’’
वह आदमी करीब पचास वर्ष का था और इमर्सन ने कहा-‘‘यदि तुम कहते हो कि तुम पचास साल के हो, तो वह मेरे लिए समस्या होगी। मैं उस पर विश्वास नहीं कर सकता क्योंकि तुम मुझे तीस से ज्यादा नजर नहीं आते। तुमने सिर्फ जीवन गंवाया है। तुम जिये नहीं।’’
समय का खोना एक बात है, जीना दूसरी बात है। इसलिए हरेक दिन निश्चित बात नहीं है। एक बुद्ध उसे इस तरह उपयोग में ला सकते हैं वह एक जीवन हो जाये। कितना समय है इस पर कुछ भी निर्भर नहीं है। अंततः यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम इसमें कितना डाल पाते हो।
तुम ही निर्माता हो। हम स्वयं अपना समय निर्मित करते हैं, हम अपना क्षेत्र निर्मित करते हैं, उसे जीकर। इसलिए जीवन में तुम्हारी कोई भी स्थिति हो, कोई भी काम हो, कोई भी बाहरी स्थिति हो, उसे बहाना न बनायें। तुम उसी तरह ध्यान कर सकते हो। और ध्यान के लिए समय की आवश्यकता नहीं है। उसके लिए गहरी समझ की आवश्यकता है न कि समय की।
और वह किसी अन्य बातों के खिलाफ नहीं है। उदाहरण के लिए यदि तुम भोजन कर रहे हो, तो होशपूर्वक भोजन करो, अलग समय की जरूरत नहीं है। बल्कि इससे तुम्हारा समय बचेगा, क्योंकि तुम कम शक्ति खर्च करोगे। और सारे दिन के काम के बाद भी तुम सुबह की तरह ताज़ा होओगे, क्योंकि काम के कारण तुम नहीं थकते, केवल रुख के कारण थकते हो।
तुम अपने दफ्तर दो मील पैदल चलकर जाते हो, और तुम थक जाते हो। परन्तु यदि वह रविवार का दिन है और तुम सिर्फ घूमने निकले हो और तुम अपने दफ्तर तक भी चले जाते हो और वापस लौट आते हो, तब वह सिर्फ खेल है और उससे तुम नहीं थकते। बल्कि, उससे तुम ताज़ा हो जाते हो। यदि तुम किसी काम को काम की तरह कर रहे हो, तो वह तुम्हें थका देगा। यदि तुम किसी काम को खेल की तरह कर रहे हो, तो वह तुम्हें ताजा कर देगा। काम के कारण नहीं बल्कि तुम्हारे रुख के कारण ऐसा होता है। जो मन ध्यानी होता, वह खेल को भी काम बना लेता है।
जरा लोगों की ओर देखो जो कि ताश खेल रहे हैं। वे तनाव से भरे हैं। वे ताश नहीं खेल रहे हैं। यह उनके लिए काम हो गया है। यह अब जिन्दगी और मौत का सवाल है, अब यह कोई खेल नहीं है। यदि वे हार जायें, तो रात उन्हें नींद नहीं आयेगी। और यदि वे जीत भी जायें तो रात को उन्हें नींद नहीं आयेगी। दोनों तरह से वे उत्तेजित हो जायेंगे। यह खेल नहीं है, यह उन्हें ताजा नहीं करेगा, यह उन्हें थका डालेगा।
बच्चों को देखो। वे तुमसे ज्यादा काम कर रहे हैं, लेकिन वे कभी नहीं थकते। वे सदा ऊर्जा से भरे हुए है। क्यों? क्योंकि उनके लिए सभी कुछ खेल है। और औद्योगिकीरण के कारण, समग्र यांत्रिक संरचना और स्वचालित यन्त्रों के कारण आज नहीं कल आदमी के लिए एक ही आयाम होगा और वह होगा खेल का आयाम। काम तब बेकार हो जाएगा और पुरानी सब शिक्षाएँ कि काम ही परमात्मा का परम कर्तव्य है, वे सब व्यर्थ की बात हो जायेगी।
आराम, खेल, आनन्द, उत्सव-ये सब भविष्य के लिए विशेष अर्थ रखेंगे। गंभीरता को एक बीमारी समझा जाएगा, और मस्ती आनन्द को स्वास्थ्य का चिन्ह माना जाएगा। रोज-रोज ज्यादा समय बचेगा और वृद्धों को भी बच्चों की तरह खेलना पड़ेगा। तभी केवल वे बच सकेंगे। वरना उन्हें आत्म-हत्या करनी पड़ेगी।
अभी तक मनुष्य का सारा इतिहास कार्य-केन्द्रित रहा है, अब इसके द्वारा वह खेल-केन्द्रित होगा। और ध्यान तुम्हें नया बचपन प्रदान करता है, एक नई निर्दोषिता, एक नया उत्सव। तब यह सारा जीवन एक आनन्दोत्सव हो जाता है, काम नहीं रहता।
अतः बहाने न खोजो। वे तुम्हें ठीक दिखाई पड़ सकते हैं, लेकिन वे खतरनाक हैं। और ध्यान किसी भी चीज़ के खिलाफ नहीं है। यदि तुम अपने दफ्तर जा रहे हो तो ध्यानपूर्वक जाओ। यदि तुम दफ्तर में काम कर रहे हो तो ध्यानपूर्वक करो, विश्रामपूर्वक करो। तब तुम थके हुए अनुभव नहीं करोगे। हर चीज़ को खेल की तरह लो, और तुम नहीं थकोगे। बल्कि तब कार्य भी खेल हो जायेगा।
ध्यान से तुम्हें मन की एक नई गुणवता मिलती है। अतः यह सवाल ही नहीं है कि तुम्हारे पास समय है या नहीं। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम तीन घंटे रोजाना ध्यान करो-कि तुम अपने जीवन में से तीन घंटे अलग निकाल लो, अपने काम की जिन्दगी में से-नहीं। यदि तुम निकाल सको, तो अच्छा है। यदि तुम नहीं निकाल सको, तो बहाना मत बनाओ। तब पीछे मुड़कर सिर्फ अपने कार्य को ही ध्यान में बदल लो। जो भी करो ध्यानपूर्वक करो।
तुम कुछ लिख रहे हो, पूरी सजगता के साथ लिखो। तुम जमीन में कोई गढ्ढ़ा खोद रहे हो, तो होशपूर्वक खोदो। चाहे तुम सड़क पर काम कर रहे हो अथवा दफ्तर में, अथवा बाजार में, उसे पूरी सजगता से करो।
सदैव वर्तमान में रहो और फिर देखो कि तुम नहीं थकोगे। तुम्हारे पास ज्यादा समय होगा, ज्यादा ऊर्जा होगी, शक्ति कम नष्ट होगी। और अन्ततः तुम्हारा जीवन एक खेल हो जाएगा।
आज इतना ही।  

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