आत्म पूजा उपनिषद--भाग-2
दसवाँ प्रवचन--मैं ही ‘‘वह’’ हूँ
सूत्र:
सोऽहं भावो नमस्कारः।मैं वही हूँ, यह भाव ही नमस्कार है।
अस्तित्व एक है। या कि कहें कि अस्तित्व एकता है, वन-नेस्ं। अलहिलाज मन्सूर को जिन्दा काट डाला गया क्योंकि उसने कहा कि मैं ही वह हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं ही परमात्मा हूँ, मैं ही हूँ वह-जिसने इस जगत का निर्माण किया। इस्लाम इस तरह की भाषा से बिल्कुल परिचित नहीं था। यह भाषा बुनियादी रूप से हिन्दू है। जब भी, जहाँ भी मनुष्य ने चिन्तन किया है मनुष्य एक द्वैत पर पहुँचा है : परमात्मा-सर्जक और संसार-सृजन। हिन्दू धर्म ने सबसे बड़ी हिम्मत का कदम उठाया यह कहकर कि जो सृजन है, वही सर्जक है। दोनों में बुनियादी भेद नहीं है।
इस्लाम को अथवा दूसरे द्वैतवादियों को यह कुफ्र की बात लगती है। यदि परमात्मा और संसार में कोई भी अन्तर नहीं है, यदि आदमी और परमात्मा एक ही है, तब, द्वैतवादियों को लगता है कि धर्म की संभावना नहीं हो सकती, तब कोई पूजा-अर्चना नहीं हो सकती, तब कोई सम्बोधन का सवाल ही न रहा। यदि तुम ही परमात्मा हो, तो फिर तुम किसकी पूजा करने जा रहे हो? यदि तुम स्वयं ही सर्जक हो, तो फिर तुमसे और बड़ा कौन है? पूजा तब असम्भव है।
किन्तु यह सूत्र कहता है कि यही एक मात्र पूजा है, यही एकमात्र सम्बोधन है : यह भाव कि मैं वहीं हूँ-इसकी प्रतीति ही-सम्बोधन है। साधारणतः यह सूत्र अर्थहीन है, विरोधाभासी है, क्योंकि यदि तुमसे कोई और ऊँची सत्ता नहीं है, यदि तुम ही सबसे ऊँचे हो, तो फिर तुम किसे प्रणाम करने जा रहे हो? तब तुम किसे आदर देने के लिए उद्यत हुए हो।
यही कारण है कि मन्सूर की हत्या कर दी गई, उसे मार डाला गया। यह बात ही गलत है। लोगों ने कहा कि यह नास्तिक है। यदि तुम कहते हो कि तुम ही परमात्मा हो, तो तुम परमात्मा को मना करते हो। तब तुम ही सर्वशक्तिमान हो जाते हो।
द्वैतवादी चिन्तकों को यह बात बड़ी अहंकारपूर्ण लगती है। भेद जारी रखना ही चाहिए। तुम निकट, और निकट आते जाओ, लेकिन तुम्हें स्वयं लौ नहीं बन जाना चाहिए। तुम परमात्मा की शक्ति से बिल्कुल ही निकट आ जाओ, लेकिन उसके साथ एक मत हो जाओ। तभी आदर संभव है, पूजा संभव है।
इसलिए तुम परमात्मा के चरणों तक पहुँच सकते। कैसे सृजन सर्जक हो सकता है। और यदि सृजन सर्जक हो जाता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि कोई सर्जक ही नहीं है।
यह एक तरह की धार्मिक विचारणा है-द्वैत की। इसके भी अपने तर्क हैं और साधारण मस्तिष्क को ठीक लगते हैं। इसलिए वस्तुतः जो हिन्दू की तरह पैदा हुए हैं वे भी हिन्दू नहीं हैं जब तक कि वे इस धारणा को आत्मसात न कर लें कि सर्जक के साथ हम एक हैं। कोई हिन्दू, पैदा हो सकता है, लेकिन बुनियादी रूप से हिन्दू में या मुसलमान में या ईसाई के रुख में कोई भेद नहीं होता। एक हमारा वास्तविक रुख होता है-एक रुख तो वह है जो कि हम सीखते हैं और एक वह है जो कि हम व्यवहार में लाते हैं।
एक हिन्दू वास्तव में एक गहरी अर्थहीनता में होता है क्योंकि वह एक असंभव छलाँग लगता है : कि सृजन सर्जक बन जाता है। और यह सूत्र कहता है कि यही एकमात्र बम्बोधन है। यदि परमात्मा वहाँ कहीं ऊपर बैठा है और तुम यहाँ नीचे खड़े हो, यदि तुम्हारे भीतर कोई चीज़ दिव्य नहीं है तो फिर कोई सेतु संभव नहीं है। तुम परमात्मा से संबंधित नहीं हो सकते। तुम उससे तभी संबंधित हो सकते हो जबकि तुम उससे पहले से ही संबंधित हो, अन्यथा एक ऐसा अन्तराल होगा कि जिस पर कोई सेतु संभव नहीं हो सके। परमात्मा तब परमात्मा रहेगा और तुम मात्र सृजन रहोगे।
इसके कारण ही एक तीसरी धारणा विकसित होती है-जैनों की धारणा। वे परमात्मा को बिल्कुल मना ही कर देते हैं क्योंकि वे कहते हैं कि यदि कोई परमात्मा है सर्जक की भाँति और हम सिर्फ सर्जित लोग हैं तो फिर हम कभी परमात्मा नहीं हो सकते। कैसे कोई चीज जो कि तुमसे निर्मित है तुम हो सकती है? सर्जित चीज जो कि तुमसे निर्मित है तुम हो सकती है? सर्जित चीज़ ‘सृजक’ का अर्थ यह भी होता है कि नष्ट करने की क्षमता, समाप्त कर देने की शक्ति। यदि परमात्मा ने यह संसार बनाया है तो वह हमें इसी क्षण नष्ट भी कर सकता है। वह तुम्हारे प्रति उत्तरदायी नहीं है। तुम उससे नहीं पूछ सकते कि क्यों? क्योंकि तुमने उससे कभी भी नहीं पूछा कि उसने यह दुनिया क्यों बनाई। इसलिए यदि परमात्मा की इसी क्षण कोई तुनक आ जाये, तो वह दुनिया को मिटा सकता है। तुम्हारे सारे पवित्र लोगों के साथ वे सारे पापियों के साथ यह दुनिया इसी क्षण नष्ट की जा सकती है।
इसलिए यदि कोई परमात्मा है तो जैन कहते हैं कि मनुष्य की कोई आत्मा नहीं है। तब वह सिर्फ एक बनायी गई चीज़ है, क्योंकि तब उसकी अपनी कोई स्वतंत्रता नहीं है। यदि परमात्मा ही सर्जक है तो फिर आदमी स्वतंत्र नहीं है और तब सभी कुछ अर्थहीन हो जाता है। परमात्मा सर्वशक्तिमान हो जाता है। वह कुछ भी कर सकता है, वह कुछ भी अनकिया कर सकता है। और वह तुम्हारे प्रति उत्तरदायी भी नहीं है। यदि तुमने कोई यांत्रिक चीज बनाई है, तो तुम उसे नष्ट भी कर सकते हो। तुम अपने यांत्रिक सृजन के प्रति उत्तरदायी नहीं हो। एक चित्रकार एक चित्र बनाता है, वह चाहे तो उसे नष्ट भी कर सकता है। चित्र नहीं कह सकता कि तुम मुझे नष्ट नहीं कर सकते। और यदि परमात्मा सर्जक है और आदमी सिर्फ एक सर्जित वस्तु है, तो वह सर्जित वस्तु कैसे बढ़कर परमात्मा हो सकती है? यह असंभव है। इसलिए जैन कहते हैं कि कोई परमात्मा नहीं है। केवल तभी मनुष्य दिव्य हो सकता है, क्योंकि केवल तभी आदमी स्वतंत्र हो सकता है। परमात्मा के रहते, हम दास ही रहेंगे, बिना किसी परमात्मा के ही हम स्वतंत्र हो सकते हैं।
नीत्शे ने यह बात कही है कि अब परमात्मा मर गया है और मनुष्य स्वतंत्र है। उसे पता नहीं था कि महावीर ने उसके पहले भी यह बात कही है। महावीर के साथ भी वही समस्या थी। यदि परमात्मा है तो मनुष्य स्वतंत्र नहीं हो सकता है। परमात्मा का होना ही मनुष्य की गुलामी है। परमात्मा का न होना ही मनुष्य की स्वतंत्रता है। इसलिए महावीर कहते हैं कि कोई परमात्मा नहीं है, और तभी केवल तुम दिव्य हो सकते हो। मुसलमान, ईसाई यहूदी, ये सब कहते हैं कि परमात्मा है, मनुष्य है लेकिन मनुष्य एक निर्मित अस्तित्व है। वह दिव्य की पूजा कर सकता है और उसके निकट आ सकता है। जितना वह निकट आ जायेगा, उतना ही वह दिव्य के साथ एक नहीं हो सकता, क्यांकि अगर वह दिव्य के साथ एक हो सके, तो इसका अर्थ हुआ कि कहीं बीज रूप में वह दिव्य ही था। क्योंकि इस जगत में वह कभी भी नहीं हो सकता जो कि बीज रूप में मौजूद न हो।
एक वृक्ष बड़ा होता है क्योंकि वृक्ष बीज में था। यदि तुम दिव्य हो सकते हो, तो तुम पहले से ही दिव्य हो। इसलिए यहूदी, ईसाई, मुसलमान कहते हैं कि यदि तुम पहल से ही दिव्य हो, तब फिर पूजा, प्रेम व्यर्थ है। यदि तुम बीज रूप में दिव्य हो, तो फिर कोई विकास नहीं हुआ। तब क्या विकास हुआ? और फिर तुम कुछ करो या न करो, तुम दिव्य तो रहते ही हो। ईसाई, यहूदी व मुसलमानों का मानना है कि धार्मिक विकास तभी संभव है जबकि मनुष्य मनुष्य है और परमात्मा परमात्मा है। तुम उसके निकट और निकट आते हो और वह निकट आना ही विकास है।
यह तुम्हारा चुनाव है? तुम निकट न आओ, तुम और दूर चले जाओ, यही तुम्हारी स्वतंत्रता है। लेकिन यदि तुम सचमुच ही ईश्वर स्वरूप हो, तो यहूदी, मुसलमान व ईसाई कहते हैं कि तब कोई वास्तविक विकास नहीं हुआ। तब फिर सारा विकास ही श्रम हो गया-एक स्वप्न जगत का विकास हो गया। तुम ईश्वरीय होने ही वाले हो क्योंकि बीज में पहले से ही दिव्य हो। तब सारी बात ही गड़बड़ हो जाती है, सारा विकास ही अर्थ-हीन हो जाता है।
हिन्दू इन दोनों के बीच अपना दृष्टिकोण खड़ा करते हैं। वे जैनों से सहमत हैं कि मनुष्य दिव्य है और वे ईसाई, यहूदी व मुसलमानों से भी सहमत हैं कि ईश्वर है-एक स्त्रष्टा के रूप में। और फिर भी वे कहते हैं कि विकास होता है। इवोल्यूशन होता है। लेकिन उनके लिए विकास का अर्थ है सिर्फ खुलना, अनफोल्डमेंट। एक बीज अंकुरित होता है और उसका उगना वास्तविक है, प्रामाणिक है क्योंकि एक बीज बीज भी रह सकता है। वह बिना उगे रह सकता है। भीतरी कोई आवश्यकता नहीं है कि वह उगे लेकिन एक बीज उगता है, एक खास वृक्ष होने के लिए, क्योंकि वह वृक्ष ही उसमें बीज रूप में छिपा है।
मनुष्य मनुष्य रह सकता है, मनुष्य चाहे तो नीचे भी गिर सकता है और पशु हो सकता है, अथवा वह चाहे तो दिव्य भी हो सकता है। यह उसका चुनाव है, यह उसकी स्वतंत्रता है। परन्तु यह संभावना कि मनुष्य दिव्य हो सकता है, यह बताती है कि कहीं गहरे में भीतर मनुष्य अपने बीज रूप में दिव्य है।
इसलिए यह एक प्रकार से खिलना है। कुछ जो भीतर छिपा था वास्तविक हो जाता है। कोई प्रसुप्त बीज प्रकट हो जाता है। कुछ जो कि हमें बीज की तरह दिखाई पड़ता था, वृक्ष हो जाता है। एक तरह से हिन्दू ईश्वर, मुसलमानों व ईसाइयों से बिल्कुल भिन्न ढंग का है क्योंकि हिन्दुओं के लिए मनुष्य परमात्मा हो सकता है और वे कहते हैं कि यदि तुम परमात्मा नहीं हो सकते तो वह निकट, और निकट आने की धारणा भी गलत है। क्योंकि यदि तुम उस ज्योति में छलाँग नहीं लगा सकते हो उसके निकट और निकट आने की धारणा भी गलत है। क्योंकि यदि तुम उस ज्योति में छलाँग नहीं लगा सकते तो उसके निकट और निकट आने का क्या अर्थ हुआ? तब तुममें और किसी और में क्या अन्तर हुआ जो कि निकट नहीं आया? यदि तुम निकट आते हो, तो तार्किक निष्पत्ति यह होगी कि तुम और निकअ आओ, निकटतम आते चले जाओ और अन्त में उसके साथ एक हो जाओ।
यदि तुम उसके साथ एक नहीं हो सकते, तो फिर एक सीमा है। और उस सीमा से आगे तुम में और परमात्मा में एक गैप है, एक अन्तराल है। यह दूरी, यह गैप सहन नहीं किया जा सकता तो फिर सारी कोशिश ही फिजूल है। हिन्दू कहते हैं-जब तक तुम स्वयं ही परमात्मा न हो जाओ, अभीप्सा पूरी नहीं होगी। और जितने निकट तुम होते हो, उतनी ही दूरी तुम्हें अधिक लगेगी, और उतनी ही तुम्हें यातना होगी। और जब तुम सीमा-रेखा पर जाते हो, जहाँ से कि कोई विकास सींव नहीं है, तो फिर तुम सड़ोगे और तब तो संताप असहनीय हो जायेगा-पूर्णरूप से असहनीय।
मनुष्य दिव्य हो सकता है क्योंकि वह पहले से ही दिव्य है। और हिन्दुओं का कहना है कि तुम वही हो सकते हो जो कि तुम पहले से ही हो। तुम वह नहीं हो सकते जो कि तुम नहीं हो। तुम कुछ और नहीं हो सकते विकसित होकर; तुम केवल तुम ही हो सकते हो।
इस धारणा के कई आयाम हैं। एक है-परमात्मा स्रष्टा है : हम उसकी कल्पना एक चित्रकार के रूप से कर सकते हैं, लेकिन हिन्दूओं ने उस भाँति नहीं सोचा। उन्होंने कहा कि स्रष्टा चित्रकार नहीं है, वरन्, वह एक नर्तक है। इसलिए एक धारणा है शिव की नटराज के रूप में। नृत्य में एक नर्तक कुछ सृजन कर रहा है लेकिन सृजन उससे भिन्न नहीं है, अलग नहीं है। चित्रकला में, चित्रकार तथा चित्र दो अलग चीजे़ं हैं। और जिस क्षण भी चित्र पूरा हुआ कि वह चित्रकार से स्वतंत्र हो जाता है। अब वह अपनी राह ले सकता है।
हिन्दुओं का कहना है कि परमात्मा स्रष्टा है एक नटराज की भाँति-एक नर्तक नाच रहा है, उसका नृत्य ही सृजन है। लेकिन तुम उसे नर्तक से अलग नहीं कर सकते। यदि नर्तक मर जाए, तो नृत्य भी मर जाएगा। और यदि नृत्य चलता है तो नर्तक भी वहाँ होगा।
एक बात और जो कि बुनियादी है और महत्वपूर्ण भी है : कि नृत्य नहीं हो सकता बिना नृत्यकार के, किन्तु नृत्यकार हो सकता है बिना नृत्य के। हिन्दू कहते हैं कि यह संसार एक सृजन है इसी भाँति। परमात्मा नाच रहा है, इसलिए जो भी सृजन होता है, वह उसी का हिस्सा है।
दूसरी बात : एक चित्रकार चित्र बनाता है। वह चित्र पूरा करके आराम से सो सकता है। लेकिन एक नृत्य सतत प्रक्रिया है सृजन की। परमात्मा सो नहीं सकता। इसलिए यह संसार किसी खास दिन नहीं बनाया गया था, यह तो सतत्, हर क्षण बनाया जा रहा है। ईसाई सोचते हैं कि यह संसार एक खास दिन व तारीख को बनाया गया, और उस दिन के पहले यह संसार नहीं था। वे कहते हैं कि छः दिन में परमात्मा ने इस सारे जगत को बनाया, और सातवें दिन वह आराम करने चला गया। अब यदि वह हो, तो भी उसकी कोई जरूरत नहीं है। इस बीच में वह मर भी गया हो यह हो सकता है। चित्रकार मर सकता है और चित्र चलता जा सकता है। चित्रकार पागल भी हो गया, तो भी चित्र में कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह वैसा ही रहता है।
हिन्दू कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि संसार बनाया गया था बल्कि ऐसा है कि संसार सतत हर क्षण बनाया जा रहा है। यह सृजन की सतत प्रक्रिया है, यह सृजन का सतत बहाव है। इसलिए यदि तुम चीजों को इस भाँति देखो, तो फिर परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा एक शक्ति है। तब परमात्मा कुछ ऐसा नहीं है जो कि ठहरा हुआ है बल्कि एक गति है। वह गत्यात्म है क्योंकि एक नृत्य गत्यात्मक प्रक्रिया है। तुम्हें उसमें हर क्षण होना पड़ेगा, केवल तभी वह हो सकता है। नृत्य एक अभिव्यक्ति है, एक आकर्षक प्रदर्शन है और तुम्हें उसमें सतत रहना पड़ता है।
यह संसार एक नृत्य है, न कि एक चित्र। और हर चीज इस नृत्य का हिस्सा है, और उसकी हर अभिव्यक्ति दिव्य की अभिव्यक्ति है। इसलिए हिन्दू एक बहुत मजेदार बात कहते हैं कि यदि हर चीज़ दिव्य नहीं है तो फिर कुछ भी दिव्य नहीं है। यदि हर चीज़ पवित्र नहीं है, तो फिर कुछ भी पवित्र नहीं है। यदि सभी कुछ परमात्मा नहीं है, तो फिर कुछ भी पवित्र नहीं है। यदि सभी कुछ परमात्मा नहीं है, तो फिर परमात्मा होने की कोई संभावना नहीं है। यह एक आयाम है, एकता को देखने का। वे नहीं कहते कि वह एक है, वह एक है। वे सदैव इतना ही कहते हैं कि वह दो नहीं है। क्योंकि हिन्दुओं का सोचना है कि यह कहना कि संसार एक ही है, अस्तित्व एक है, इससे भी यह बोध होता है कि एक भी तभी हो सकता है जबकि कुछ और भी साथ में हो। एक भी संख्या है। यदि दूसरी संख्याएँ भी हों-दो, तीन, चार तो ही एक भी हो सकता है। यदि और कोई संख्याएँ ही नहीं हों तो ‘एक’ भी कहना व्यर्थ है। तब तुम्हारे एक का भी क्या अर्थ है? चूँकि एक से लेकर नौ तक संख्या है, एक का अर्थ है। वह संख्याओं के संदर्भ में ही अर्थ रखता है। यदि सिर्फ एक ही हो, तो तुम इतना भी नहीं कह सकते कि एक ही है। तब संख्या व्यर्थ हो जाती है।
हिन्दू कहते हैं कि अस्तित्व अद्वैत है, न कि एक। उनका मतलब एक से है, लेकिन वे कहते हैं कि अद्वैत है। वे कहते हैं कि वह दो नहीं है। यह एक अप्रतिबद्ध कथन है। यदि तुम कहते हो कि एक ही है तो फिर तुमने कमिटमेंट कर दिया-प्रतिबद्धता कर ली। तो फिर तुमने बहुत तरह से कुछ कह दिया। यदि तुम कहते हो ‘एक’ है तो इसका यह अर्थ होता है कि तुमने नाप-जोख लिया। यदि तुम कहते हो ‘एक’ तो तुम कह रहे हो कि अस्तित्व सीमित है।
हिन्दू कहते हैं कि यह दो नहीं है। उनका अर्थ एक से ही है लेकिन वे उसे घुमा-फिरा कर कहते हैं, और यह बड़ा अर्थपूर्ण है। वे कहते हैं कि यह अद्वैत है, यह दो नहीं है। इससे वे इतना ही इशारा करते हैं कि यह एक है। इसे सीधा कभी भी नहीं कहा गया लेकिन इंगित किया गया। वे सिर्फ इतना ही कहते हैं कि वह दो नहीं है।
यह बहुत अर्थपूर्ण है क्योंकि जब हम कहते हैं कि नर्तक और नृत्य एक ही है, तब बहुत-सी कठिनाइयाँ खड़ी हो जाती है यदि नृत्य रुक जाता है, तो नर्तक भी खो जाता है-यदि वे एक ही हैं। इसलिए हिन्दू कहते हैं कि वे दो नहीं है। क्योंकि तब नृत्य रुक जाये तो भी नर्तक रहेगा। लेकिन नर्तक रुक गया, तो नृत्य नहीं चल सकता।
यह अद्वैत का होना छिपा हुआ है, और यह अनेक का होना प्रकट है। यह अनेकता प्रकट है, एकता छिपी हुई है। परन्तु यह ‘अनेकता’ तभी हो सकती है जबकि एकता कहीं छिपी हो। वृक्ष अलग है, पृथ्वी अलग है, सूर्य अलग है, चन्द्रमा अलग है, लेकिन अब विज्ञान कहता है कि नीचे गहरे में वे सब एक दूसरे से संबंधित हैं और एक हैं। वृक्ष पैदा नहीं हो सकते यदि सूर्य नहीं हो। लेकिन हमने सिर्फ इस एक तरफा बात को ही जाना है। हमने इतना ही जाना है कि यदि सूर्य नहीं हो तो वृक्ष नहीं हो सकती और फूल नहीं खिल सकते। लेकिन हिन्दू साथ ही यह भी कहते हैं कि यदि वृक्ष नहीं हों तो सूर्य भी नहीं हो सकता। यह दोनों तरफ जाती धारा है, हर चीज़ एक दूसरे से जुड़ी है।
जैन कहते हैं-यदि परमात्मा है, तो फिर मानव गुलाम होगा। मुसलमान कहते हैं कि यदि मनुष्य यह घोषणा करता है कि ‘मैं परमात्मा हूँ’ तो उसका मतलब होगा कि परमात्मा को सिहासन से उतार दिया गया और गुलाम मालिक बनने की कोशिश कर रहा है। हिन्दू कहते हैं कि न तो स्वतंत्रता है और न परतंत्रता है। अस्तित्व एक परस्पर-तंत्रता है, इन्टर डिपेन्डेन्स है। इसलिए स्वतंत्रता तथा परतंत्रता की भाषा में बात करना व्यर्थ है। सर्व एक परस्पर-तंत्रता की भाँति होता है। यहाँकुछ भी ऊँचा नहीं है, और कुछ भी नीचा नहीं है, क्योंकि ऊँचा भी हो नहीं सकता बिना उसके, जिसे कि तुम नीचे कहते हो।
क्या शिखर हो सकता है बिना घाटी के? क्या महात्मा हो सकता है बिना पापी के? क्या सौंदर्य हो सकता है बिना उसके जिसे कि तुम कुरूपता कहते हो? और यदि सौंदर्य व्यर्थ नहीं हो सकता बिना कुरूपता के तो फिर वह कुरूपता पर निर्भर है। और यदि शिखर नहीं हो सकता बिना घाटी के तो फिर शिखर को कुछ ऊचा कहने और घाटी को कुछ नीचा कहने में क्या अर्थ है?
हिन्दू कहते हैं कि वह जो सर्वाधिक नीचा है, वही सर्वाधिक ऊँचा है, और जो सबसे ऊँचा है, वह सर्वाधिक नीचा है। इस घोषणा से उनका अर्थ है कि सारा अस्तित्व एक परस्पर-तंत्रता के ढाँचे में बना है। और सारे धर्म निरपेक्ष हैं। ये सोचने के लिए विश्लेषण करने के लिए, समझने के लिए ठीक हैं, लेकिन वे आधारभूत रूप से झूठ हैं। और यह बड़ी-से-बड़ी छलाँग है।
ऋषि कहता है ‘‘सोऽहं भावो नमस्कारः’’-यह प्रतीति कि मैं वही हूँ, यही नमस्कार है।
जब तक कि निम्नतम यह महसूस नहीं कर लें कि वह उच्चतम है तब तक वह इस जगत में चैन से नहीं बैठ सकता। लेकिन यह कोई घाषणा नहीं है, यह तो प्रतीति है। तुम यह घोषणा भी कर सकते हो कि ‘‘मैं परमात्मा हूँ’’ वह तुम्हारी गहरी प्रतीति नहीं भी हो सकती है। वह मात्र एक अहंकार की घोषणा भी हो सकती है। यदि तुम कहते हो कि मैं परमात्मा हूँ और कोई दूसरा परमात्मा नहीं है तब तुम्हें कोई अनुभव नहीं है। जब यह प्रतीति होती है, तब तुम्हारी और से यह कोई घोषणा नहीं होती। यह तो सारे अस्तित्व की ओर से घोषणा है।
ऋषि कहता है कि मैं परमात्मा हूँ, मैं ही वह हूँ। वह यह कह रहा है कि प्रत्येक चीज़ परमात्मा है, प्रत्येक चीज वही है। उसके साथ सारा अस्तित्व ही यह घोषणा कर रहा है। इसलिए यह कोई व्यक्तिगत कथन नहीं है। अलहिल्लाज मन्सूर को काट डाला गया क्योंकि इस्लाम को इस भाषा का कुछ भी पता नहीं है। जब उसने कहा कि ‘‘मैं खुदा हूँ’ तो उन्होंने सोचा कि अलहिल्लाज कह रहा है कि वह खुदा है। वहां कोई अलहिल्लाज नहीं था सिर्फ इतनी ही बात थी कि अलहिल्लाज के मार्फत घोषणा कर रहा था। अलहिल्लाज तो अब बचा ही नहीं था क्योंकि यदि वह बचा होता, तो यह एक व्यक्तिगत कथन हो जाता। अतः यह एक दूसरा आयाम है।
मनुष्य तीन श्रेणियों में, तीन केटेगरीज़ में जीता है। एक जबकि वह कहता है कि ‘‘मैं हू’’ बिना जाने कि वह कौन है। यह साधारण अस्तित्व है सबका-यह प्रतीति कि ‘‘मैं नहीं हूँ’’ क्योंकि इस ‘हूँ’ को तुम जितनी गहराई से सोचोगे, जितने गहरे तुम इसे खोदोगे, उतना ही तुम जानोगे कि तुम नहीं हो और ‘मैं’ की सारी घटना ही विलीन हो जाती है, तुम उसे नहीं खोज सकते। इसलिए उसे विलीन करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। तुम सिर्फ उसे नहीं खोज पाते हो; वह वहाँ नहीं है।
यदि तुम बिना खोज किए होते हो, तो तुम्हें लगता है कि मैं हूँ। यदि तुम खोज करना शुरू करो तो तुम पाओगे कि तुम नहीं हो। यह दूसरी अवस्था है जबकि आदमी को पता चलता है कि वह नहीं है। पहले वह इस बात के भीतर गहरे खोज रहा था कि ‘मैं हूँ। अब वह इस बात के भीतर गहरे खोजता है कि ‘मैं नहीं हूँ।’
यह सर्वाधिक कठिन है। पहली बात कठिन है-बहुत कठिन है। दूसरी स्थिति तक आना भी एक लम्बी यात्रा है। बहुत से तो पहली पर रुक जाते हैं। वे कभी इसमें नहीं खोजते कि ‘मैं कौन हूँ’। बहुत थोड़े से लोग ही इस खोज पर जाते हैं जो कि इस बात की गहरी खोज करते हैं कि वह कौन है, भीतर जो कि कहता है कि ‘मैं हूँ’। फिर उन बहुत थोड़े से लोगों में से कुछ लोग एक नई यात्रा पर निकलते हैं, यह पता लगाने कि यह कौन है, जो कि कहता है कि मैं नहीं हूँ। यह मैं नहीं हूँ कि प्रतीति भी क्या है? यद्यपि मैं हूँ, फिर भी मैं यह नहीं कह सकता कि मैं हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि जैसे गहरी रिक्तता हो।
हिन्दुओं ने कहा है कि यह पहली स्थिति है ‘मैं हूँ’ की है; दूसरी ‘हूँ’ की है। ‘मैं’ गिर गया है, लेकिन मेरा अस्तित्व अभी है। यद्यपि मैं खाली हूँ, कुछ भी नहीं हूँ, फिर भी मैं ‘हूँ’। इसे ‘हूँ’ कहते हैं। पहले को वो कहते हैं अहंकार-ईगो, दूसरे को वे कहते-हैं-अस्मिता-ऐमनेस-‘हूँ’ का होना। यदि कोई भीतर गहरे जाता है अहंकार के, तो वह अस्मिता को पहुँचता है। और अब यदि कोई और भी गहरे जाए इस ‘हूँ’ के तो वह दिव्यता को पहुँच जाता है। तब वह कहता है, ‘‘मैं ही वह हूँ-अहं ब्रह्मास्मि : मैं ही ब्रह्म हूँ।’’ इस रिक्तता से ही कोई सर्व हो जाता है। इस नहीं होने से ही कोई होने का आधार बन जाता है। खोकर, मिटकर ही कोई वस्तुतः सब कुछ हो जाता है।’’यह सूत्र-‘सोऽहं भावो नमस्कारः’-यह तीसरी अवस्था की प्रतीति है। जबकि आदमी पूरी तरह खो जाता है, अहंकार विलीन हो गया है। यहाँ तक कि ‘हूँ’ भी अब नहीं रहा। अब कोई मूल स्रोत को ही पा गया, जैसे कि अब कोई नृत्य की कोरी भाव-भंगिमा ही रह गया-सिर्फ नृत्य की भाव-भंगिमा। उसने गहरी खोज की और अब वह उस नर्तक तक आ पहुँचा। अब नृत्य की भाव-भंगिमा ही है कि ‘‘मैं ही वह नर्तक हूँ।’’
यह भीतर की यात्रा है। पहले तुम अपने भीतर जाते हो, लेकिन तुम विश्व से संबंधित हो। इसलिए यदि तुम जाते जाओ, तो तुम अस्तित्व में गहरे उतरते जाओगे। यदि तुम जाते जाओ तो तुम परिधि से एक दिन केन्द्र पर पहुँच जाओगे।
जैसे हवा में लहराते हुए पत्ते का एक अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। यदि पत्ता अपने भीतर की यात्रा पर निकले तो देर-अबेर से वह अपने पार चला जाएगा, और शाखा मेंप्रवेश करेगा। यदि वह यात्रा करता ही चला जाए तो जल्दी ही वह पत्ता नहीं रह जायेगा, वह शाखा भी नहीं रहेगा, वह वृक्ष ही हो जाएगा। यदि वह यात्रा करता ही जाये तो वह वृक्ष भी नहीं रहेगा, वह वृक्ष ही हो जाएगा।
लेकिन पत्ता बिना भीतर की यात्रा पर गये भी रह सकता है। तब पत्ता सोच सकता है कि ‘‘मैं हूँ’’ यह पहली अवस्था है। यदि पत्ता भीतर जाता है, तो देर-अबेर वह पाएगा कि ‘‘मैं पत्ता नहीं हूँ; मैं कुछ ज्यादा हूद्द, मैं शाखा हूँ।’’ और फिर मैं शाखा नहीं हूँ, मैं उससे भी ज्यादा हूँ, मैं वृक्ष ही हूँ।’’ और फिर ‘‘मैं वृक्ष ही नहीं हूँ, मैं उससे भी ज्यादा हूँ, मैं जड़ें भी हूँ-छिपी हुई जड़ें।’’ और यात्रा चलती ही चली जाए तो जड़ों में से भी छलाँग लग जाएगी और वह पूरा अस्तित्व ही हो जाएगा।
यह एक प्रतीति है, एक बोध है। और यह और भी कठिन मामला है क्योंकि तुम्हारा अहंकार बुद्धि से यह घोषणा करना चाहेगा कि मैं परमात्मा हूँ, कि मैं दिव्य हूँ। बुद्धि हमेशा ऊपर होना चाहती है-शिखर पर। अहंकार की सारी कोशिश ही बड़ा होने की है। इसलिए यह तुम्हें आकर्षित कर सकता है। यह अहंकार को अच्छा लग सकता है। वह कह सकता है कि ‘‘ठीक है, मैं परमात्मा हूँ।’’
लेकिन यह सूत्र कहता है कि यही नमस्कार है। और नमस्कार एक गहरी विनम्रता है। यह कोई तुम्हें शिखर पर रखने की बात नहीं है क्योंकि तब वहाँ कोई नहीं है जिसे तुम नमस्कार कर सकते हो। यही समस्या इस्लाम के सामने पैदा हुई जब अलहिल्लाज ने घोंषणा की। उसने अपने को ही परमात्मा घोषित कर दिया और इस्लाम को लगा कि यह तो विनम्रता नहीं है; यह तो अहंकार की आखिरी सीमा हो गई। इसलिए जिन्होंने उसे काट डाला और उन्होंने सोचा कि उन्होंने बिल्कुल ठीक किया, धर्मानुसार किया। यह तो अहंकार की अन्तिम सी हो गई थी।
यह सूत्र विरोधाभासी है। यह कहता है कि तुम वही हो और यही नमस्कार है। यदि यह प्रतीति हो जाये, यदि इसका बोध हो जाये तो फिर शिखर घाटी को नमस्कार कर सकता है, क्योंकि अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जो कि दिव्य न हो। और अब शिखर को भी मालूम पड़ेगा कि वह भी घाटी पर निर्भर है। तब प्रकाश अन्धकार को नमस्कार करेगा, और जीवन मृत्यु को प्रणाम करेगा क्योंकि सभी कुछ एक दूसरे पर निर्भर करते हैं और अर्न्तसंबंधित हैं।
इस बोध के शिखर पर ही कोई विनम्र होता है-क्योंकि यह घोषणा कि ‘‘मैं वही हूँ’’ यह किसी के विरुद्ध नहीं है। यह सबके लिए है। अब ‘‘मेरे’’ द्वारा हर चीज़ अपनी दिव्यता की घोषणा कर रही है।
जब अलहिल्लाज को मारा गया तब वहाँ बहुत से लोग मौजूद थे, बहुत से लोग पत्थर फेंक रहे थे। वह हँस रहा था, वह प्रार्थनापूर्ण था, वह प्रेम से भरा था। उस भीड़ में एक सूफी फकीर भी मौजूद था। सारी भीड़ उस पर पत्थर बरसा रही थी, और उस सूफी फकीर ने, सिर्फ भीड़ के साथ एक होने के ख्याल से कि वह भीड़ से अलग नहीं है, कि कोई ऐसा नहीं सोचे कि वह उनसे अलग है, उसने एक फूल उसकी तरफ फेंका। वह पत्थर तो नहीं फेंक सका, इसलिए उसने एक फूल फेंका, सिर्फ, भीड़ के साथ एक होने के ख्याल से-ताकि सब यही सोचें कि वह भी उनमें से ही एक है, उन्हीं के साथ एक है।
मन्सूर रोने लगा। जब सूफी का फूल उसको लगा तो वह रोने लगा। सूफी बड़ा बेचैन हुआ। वह नजदीक आया और उसने मन्सूर से पूछा, ‘‘जब दूसरे तुम पर पत्थर मार रहे हैं और तुम पर हँस रहे हैं तो तुम उनके लिए प्रार्थना कर रहे हो। मैंने तो सिर्फ एक फूल ही फेंका है।’’ मन्सूर ने कहा, ‘‘तुम्हारा फूल मुझे चोट पहुँचाता है क्योंकि तुम जानते हो। यह घोषणा ‘मेरे’ लिए नहीं है। मैंने यह घोषणा तुम्हारे लिए की है। और यह तुम जानते हो, इसलिए तुम्हारा फूल भी चोट पहुँचा रहा है। उनके पत्थर भी फूलों की तरह हैं क्योंकि वे नहीं जानते। किन्तु यह घोषणा उन्हीं के लिए है।’’ ‘‘यदि मन्सूर परमात्मा है,’’ मन्सूर ने कहा, ‘‘तो फिर सभी कुछ परमात्मा है। मन्सूर यदि परमात्मा हो सकता है, तो फिर प्रत्येक चीज़ परमात्मा हो सकती है।’’ मन्सूर ने कहा, ‘‘मेरी तरफ देखो, मैं कुछ भी न था और फिर भी मैंने घोषणा की कि मैं दिव्य हूँ। तो अब हर चीज़ दिव्य हो सकती है।’’
यह अहंकार की घोषणा नहीं है। यह निरंहकार के बोध की घोषणा है। जब किसी को प्रतीति हो कि वह कुछ भी नहीं है, केवल तभी कोई इस जगह पहुँच सकता है। तब यह विनम्रता है। तब यह एक सर्वाधिक विनम्रता की संभावना बन जाती है। यह नमस्कार हो जाता है-सारे अस्तित्व को नमस्कार हो जाता है। तब यह सारा अस्तित्व ही दिव्यता है।
रहस्यवादियों ने मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों को मना कर दिया, इसलिए नहीं कि वे अर्थहीन हैं बल्कि इसलिए कि सारा अस्तित्व ही सारी समष्टि ही मंदिर है। रहस्यवादियों ने मूर्तियों के लिए मना कर दिया; इसलिए नहीं कि वे निरर्थक हैं बल्कि इसलिए कि सारा अस्तित्व ही परमात्मा की प्रतिमा है। लेकिन उनकी भाषा समझना कठिन है। वे हमें धर्मविरोधी दिखाई पड़ते हैं, प्रतिमाओं को मना करते हैं। मंदिर, गिरजा, शास्त्र जिसे भी हम धार्मिक समझते हैं उन सबका वे निषेध करते हैं। वे सिर्फ इसलिए मना करते हैं कि सारा अस्तित्व ही दिव्यता है। और यदि तुम एक हिस्से पर जोर देते हो, तो उसका अर्थ होता है कि तुम्हें संपूर्ण का कोई पता नहीं है।
यदि मैं कहता हूँ कि यह मंदिर दिव्य है, तो मात्र इतना कहने से ही मैंने कह दिया कि यह सारा जगत दिव्य नहीं है। यदि यह मंदिर किसी बड़े मंदिर का हिस्सा है तो फिर बात दूसरी है। लेकिन यदि यह मंदिर सर्व के विरुद्ध है-दूसरे मंदिरों के खिलाफ है, और दूसरे मंदिरों के विरुद्ध ही नहीं, यदि यह मंदिर किसी सामान्य घर के भी विरुद्ध है, यदि यह मंदिर कहता है कि दूसरे घर पवित्र नहीं है और केवल मंदिर ही पवित्र है तो यह भी सर्व का निषेध हो गया।
सर्व के लिए रहस्यवादियों ने अंशों को मना कर दिया। लेकिन हमारे लिए कोई वर्ग नहीं है। हम सर्व के बारे में कुछ भी नहीं जानते। इसलिए जबकि एक हिस्से को भी मना किया जाये, तो भी यह असुविधापूर्ण है क्योंकि इतना ही तो हम जानते हैं। यदि कोई कहता है कि कोई मंदिर नहीं है, तो हमारे लिए यह काफी है कि वह आदमी धार्मिक नहीं है। हो सकता है कि वह कह रहा हो कि चूँकि सभी कुछ मंदिर है, इसलिए किसी एक को मंदिर न बनाओ, क्योंकि सभी कुछ मंदिर है। यही नमस्कार है।
हम भी पूजा करते हैं। हम मंदिर भी जाते हैं, मस्जिद भी जाते हैं। हम शारीरिक क्रिया ही होती है। हमारे भीतर का अहंकार तो अडिग ही रहता है। बल्कि वह और भी अकड़ जाता है, क्योंकि तुम मंदिर गये थे, क्योंकि तुम तीर्थ को गये थे, पवित्र धाम को गये थे, क्योंकि तुम काबा गये थे। अब तुम कोई साधारण आदमी नहीं हो। अब तुम धार्मिक आदमी हो, इसलिए तुम झुके हो। लेकिन वह तुम्हारा शारीरिक हावभाव ही है। तुम्हारा अहंकार के लिए भोजन हो गया। तुम्हारा अहंकार जीवन्त हो गया, वह मरा नहीं।
इसलिए तथाकथित धार्मिक लोग ज्यादा अहंकारी होंगे-बजाय साधारण सांसारिक लोगों के। उनके पास कुछ ज्यादा है जो तुम्हारे पास नहीं है। वे ‘धार्मिक’ हैं, वे रोजाना प्रार्थना करते हैं। जब तुम सिनेमा जाते हो, तो तुम्हारे अहंकार को कोई बल नहीं मिलता। लेकिन जब तुम मंदिर जाते हो, तो उसे बल मिलता है क्योंकि मंदिर में तुम्हें कभी अपराध का भाव महसूस नहीं हो सकता। सिनेमा हाल में तुम्हें लग सकता है कि तुम अपराधी हो। एक होटल में तुम्हें लग सकता है कि तुम अपराधी हो। तुम वहाँ अपने को महान समझते हो, तुम और भी सम्मानित अनुभव करते हो, इससे तुम्हारे अहंकार में थोड़ी वृद्धि और हो जाती है।
मंदिर से निकलते हुए लोगों के चेहरे देखो। देखो कि उनका अहंकार और बढ़ गया है। ये कुछ पाकर लौट रहे हैं-यह उनके लिए विटेमिन है। तुम बिना झुके भी झुक सकते हो और वही समस्या है। झुकना तो आंतरिक होना चाहिए। और जब शरीर भी झुके तो फिर वह एक गहरा अनु
भव है। शरीर में भी एक गहरा अनुभव है। यदि तुम आंतरिक रूप से झुक रहे हो, इस भाव से भी कि सारा जगत ही दिव्य है तो फिर तुम जहाँ भी झुको, वहीं परमात्मा के चरण है। यदि तुम्हारा शरीर इस भाव से झुके, तो तुम्हारे शरीर को भी बहुत गहरा अनुभव होगा। और तब उसमें से तुम अधिक साधारण, अधिक निर्दोष, अधिक नम्र होकर बाहर आओगे।
तो फिर क्या करना चाहिए? आदमी ने बहुत उपाय खोजे हैं लेकिन उनसे कोई मदद नहीं मिली है। और आदमी का अहंकार इतना सूक्ष्म और चालाक है कि वह तुम्हें ऐसे सूक्ष्म मार्गों से धोखा देता है कि तुम उसे हरा नहीं सकते। यदि कहीं कोई परमात्मा स्वर्ग में बैठा है, तो तुम उसके आगे झुक सकते हो और सारे अस्तित्व के साथ तुम अहंकारपूर्ण व्यवहार कर सकते हो, क्योंकि तुम्हें लगता है कि यह संसार दिव्य नहीं है। तुम्हारी दिव्यता, तुम्हारा परमात्मा कहीं ऊपर स्वर्ग में हैं। इस जगत के साथ तुम कैसा ही व्यवहार करते रह सकते हो जैसे कि तुम पहले कर रहे थे। और अब तुम और भी खराब व्यवहार कर सकते हो क्योंकि अब तुम एक सर्वाधिक महान शक्ति से संबंधित हो। अब तुम्हारा सीधा संबंध है, तुम किसी भी क्षण उससे नम्बर मिला सकते हो। उससे तुम कुछ भी करने के लिए कह सकते हो।
जीसस एक गाँव के पास से गुजर रहे हैं। गाँव उनके बहुत खिलाफ है। जीसस के शिष्यों को उस गाँव में विश्राम नहीं करने दिया जाएगा। गाँव के लोगों ने मना कर दिया है। वे भोजन भी नहीं देंगे। पानी तक भी नहीं दिया जाएगा। इसलिए उन्हें आगे के गाँव में जाना पड़ेगा। शिष्यों ने जीसस से कहा-‘‘यही क्षण है। कुछ चमत्कार दिखाओ। इस गाँव को नष्ट कर दो। ऐसे अधार्मिक लोग जिन्दा रहने के योग्य भी नहीं हैं।’’ ये ही लोग थे जिन्होंने बाद में ईसाइयत को निर्मित किया। उन्होंने कहा कि इसी क्षण इस गाँव को नष्ट कर दो। यही समय है, अपने चमत्कार दिखाओ। ये जीसस से कह रहे थे कि सिद्ध कर दो कि तुम परमात्मा के बेटे हो, एक मात्र अकेले बेटे। अब अपने पिता, जो कि ऊँचे स्वर्ग में बैठे हैं उनसे कहो कि इस गाँव को नष्ट कर दें।
यह क्रोध क्यों है? क्यों है इतनी नाराजगी? और वे सब बड़े प्रार्थना करने वाले लोग थे। वे रोज प्रार्थना करते थे, वे जीसस के साथ रहते थे। फिर इतना क्रोध क्यों? गाँव में सीधे साधारण लोग रहते थे। उन्होंने सिर्फ उन्हें भोजन देने के लिए ही तो मना किया था। यह कोई पाप तो नहीं है, यह उनकी मरजी की बात है। यदि मैं तुम्हारे घर आऊँ और तुम मुझे भोजन देने से मना कर दो, ठीक है, कोई बात नहीं। यह तुम्हारी मरजी की बात है। यह आक्रोश क्यों? और फिर सारे शहर ने तो मना नहीं किया था, केवल कुछ थोड़े से लोगों ने मना कर दिया था। लेकिन शिष्यों ने कहा, इस सारे गाँव को नष्ट कर दो। यह सारा गाँव अभी और इसी वक्त नष्ट कर देना चाहिए।
वृक्षों ने उन्हें शरण देने से मना नहीं किया, लेकिन वे जीसस से कह रहे थे कि जो कुछ भी इस गाँव में हो उसे नष्ट कर दें। क्यों? प्रार्थना से, सम्बोधन से, पूजा से वे और भी क्रोधी हो गये। वे विनम्र नहीं हुए। विनम्रता उनसे बहुत दूर है। और यदि वे विनम्र नहीं हैं, तो वे धार्मिक कैसे हो सकते हैं। ऐसा सींव कैसे हुआ? क्योंकि परमात्मा स्वर्ग में है। तब उन्हें ऐसा लग सकता है कि जिस आदमी ने हमें भोजन देने के लिए मना कर दिया, वह दिव्य नहीं है, गाँव दिव्य नहीं है। परमात्मा कहीं स्वर्ग में है और हम उसके चुने हुए लोग हैं। ये लोग परमात्मा-विरोधी लोग हैं, इसलिए इन्हें नष्ट कर दो।
वास्तविक विनम्रता तभी संभव है जबकि परमात्मा दूर न हो। वह तो तुम्हारा पड़ोसी ही है-हर क्षण। जहाँ भी तुम हो, वहीं वह है। परमात्मा को कहीं भी दूर रखना बहुत आसान है, सुविधापूर्ण भी है क्योंकि तब तुम जैसा चाहो, वैसा अपने पड़ोसी से व्यवहार कर सकते हो और परमात्मा तुम्हारी तरफ होगा।
मैं कुछ पढ़ रहा था। एक फ्रांसीसी जनरल एक अंग्रेज जनरल से बात कर रहा था। दूसरे महायुद्ध के बाद की बात है। उस फ्रेंच जनरल ने कहा कि हम लगातार हारते गये और तुम नहीं हारे। ऐसा क्यों हुआ? अंग्रेज जनरल ने कहा, यह हमारी प्रार्थना का फल है। हम लड़ने के पहले प्रार्थना करते हैं। फ्रेंच जनरल ने कहा कि वह तो हम भी करते हैं। अंग्रेज जनरल ने कहा कि वो तो ठीक है, लेकिन हम अंग्रेजी में प्रार्थना करते हैं और तुम फ्रांसीसी भाषा में। यह तुमको किसने बताया कि परमात्मा को फ्रेंच भी आती है? उसे आ ही नहीं सकती।
इसी तरह तथाकथित मन दंभी हो जाता है। संस्कृत ही एक मात्र पवित्र भाषा है। तुम इस घटना पर हँस सकते हो। लेकिन क्या तुम इस बात पर भी हँस सकते हो कि संस्कृत ही एक मात्र भाषा है और वेट ही केवल शास्त्र हैं जो कि स्वयं परमात्मा ने रचे हैं। कुरान? यह कैसे संभव है? तुमको यह विचार ही कहाँ से हुआ कि ईश्वर को अरबी भाषा भी आती है। उसे सिर्फ संकृत ही आती है। फिर तुम कहते हो कि परमात्मा हमेशा मेरी तरफ है। यदि वह मेरी ओर नहीं होता है, तो मैं मेरा ईश्वर बदल लेता हूँ। यह सदैव मेरी सामर्थ्य में है। इस डर से वह सदा मेरी तरफ रहता है। वह मेरा परमात्मा है, उसे मेरा अनुकरण करना है।
ऐसा रुख इसलिए निर्मित होता है क्योंकि तुम्हारे लिए सारा अस्तित्व दिव्य नहीं है। यदि सारा अस्तित्व ही दिव्य है, तब फिर परमात्मा वृक्षों की भी भाषा समझता है, न केवल अरबी और संस्कृत, बल्कि पत्थरों की भाषा भी उसे आती है। और तब भाषा की कोई समस्या नहीं। तब भाषा असंगत है। अब प्रार्थना अर्थपूर्ण नहीं है, बल्कि प्रार्थनापूर्ण हृदय। और प्रार्थनापूर्ण हृदय प्रार्थना करने वाले मन से बिल्कुल भिन्न ही बात है।
यह सूत्र कहता है कि यही एक मात्र नमस्कार है प्रार्थना है-एक साथ विनम्रता है जो कि संभव है, लेकिन बड़े ही विरोधाभासी ढंग से।
मैं ही ईश्वर हूँ : इसे अनुभव करना ही नमस्कार हैं।’’
हम तो कहना पसन्द करते कि तुम परमात्मा हो और तब नमस्कार करना सरल है। लेकिन यह सूत्र कहता है कि मैं ही परमात्मा हूद्द-यही एक मात्र नमस्कार करने की। नमस्कार करने की आवश्यकता क्या है। यह कोई क्रिया तो नहीं है, यह तुम्हें करना नहीं है। यदि सारा अस्तित्व ही दिव्य है, तब तुम जो भी कर रहे हो, वही नमस्कार है।
बुद्धत्व के बाद भी कबीर वही करते रहे जो कि वे करते थे। तो उनसे पूछा गया। वे एक बुनकर थे, वे कपड़ा बुनते रहे। दूर-दूर से शिष्य आते और वे उनसे कहते कि आप यह क्या करते हैं? आप बुद्धत्व को उपलब्ध हैं, अब आप स्वयं ही बुद्ध हैं। अब भी आप कपड़ा क्यों बुनते रहते हैं? कबीर कहते, यही एक मात्र प्रार्थना है जो कि मैं जानता हू। मैं एक जुलाहा हूँ इसलिए मैं यही एक ढंग जानता हूँ, उसको नमस्कार करने का। लेकिन किसी ने कबीर से कहा कि बुद्ध जब ज्ञान को उपलब्ध हो गये, तो सब कुछ छोड़ दिया। कहते हैं कबीर ने कहा-कि वे एक राजा थे। उन्हें सिर्फ एक ही रास्ता पता था-राजा होने का। लेकिन मैं जुलाहा हूँ-एक गरीब जुलाहा, इसलिए मैं सिर्फ यही मार्ग जानता हूँ। यही मेरी प्रार्थना है। और जब मैं कपड़ा बुन रहा होता हूँ, तो मैं परमात्मा के लिए ही बुनता हूँ।
और फिर कबीर बाजार जाते उस कपड़े को बेचने के लिए। इसलिए किसी ने उनसे कहा कि लेकिन तुम तो बाजार भी जाते हो, उन्हें बेचने के लिए। तुम कहते हो कि ये कपड़े परमात्मा के लिए हैं, तो फिर मंदिर क्यों नहीं जाते और परमात्मा के चरणों में क्यों नहीं रख देते? कबीर कहते-‘‘मैं तो प्रभु के चरणों में ही रख देता हूँ, लेकिन मेरे परमात्मा बाजार में मेरी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। मेरा राम वहाँ मेरा इंतजार करता है। और मैं जीवित परमात्मा में विश्वास करता हूँ।’’
ऐसे रुख को किसी नमस्कार की आवश्यकता नहीं है। अब यह कोई कृत्य नहीं है जो कि करना है। बल्कि यह तो जीने का ढंग है। तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारे कृत्य का एक हिस्सा हो सकती है-एक काम बहुत से कामों में। लेकिन कबीर जैसे लोगों के लिए, यह कोई काम नीं है। यह जीने का एक ढंग है। इसलिए कबीर ने कहा, जो करूँ सो पूजा। ऐसा हो सकता है, लेकिन तब पूरा अस्तित्व ही दिव्य होना चाहिए। तब जो भी तुम कर रहे हो-यदि तुम भोजन कर रहे हा, तो भी यह प्रार्थना है क्योंकि वह भी अस्तित्व को ही जाता है। तब तुम नहीं खा रहे हो, किन्तु अस्तित्व ही तुम्हारे द्वारा भोजन कर रहा है। तब जब तुम चल रहे हो, तो भी प्रार्थना है क्योंकि अस्तित्व ही तुम्हारे द्वारा चल रहा है, गति कर रहा है।
जब तुम मर रहे हो तो वह भी प्रार्थना है क्योंकि तब अस्तित्व वापस ले रहा है, जो भी दिया गया था। जो प्रकट हुआ था वह वापस अप्रकट हो रहा है। तब तुम बीच में नहीं हो। तुम हो ही नहीं, तुम तो सिर्फ द्वार हो-अस्तित्व के लिए द्वार-एक खिड़की। अस्तित्व ही तुम्हारे द्वारा चलता है, भीतर और बाहर। तुम इस ‘न-होने’ के बीच कहीं भी नहीं आते। तब आदमी कह सकता है, ‘अहं ब्रह्मास्मि।’ मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं ही वह हूँ।
यह कोई अहंकार की घोषणा करो, तो तुम्हें-पैराडोक्सीकल-विरोधाभासी होने की जरूरत नहीं है। तुम तार्किक हो सकते हो। इसे समझना पड़ेगा। केवल साधारण सत्य ही बहुत कठिन होते हैं-व्यक्त करने के लिए, क्योंकि जितने वे साधारण उतने ही द्वंद्वातीत होते हैं। और जब केन्द्र पर आते हैं तो उन्हें सब प्रकार के द्वन्द्वों को अपने में समा लेना पड़ता है।
इसे इस प्रकार देखें : उपनिषद कहते हैं, ‘‘परमात्मा सबसे निकट है और परमात्मा सबसे दूर है।’’ यदि तुम कहो कि वह सिर्फ निकट है तो वह झूठ हो जायेगा। यदि तुम कहो कि वह दूर है तो यह बात भी झूठ हो जायेगी, क्योंकि जो निकट है, वह दूर हो सकता है और जो दूर है, वह निकट आ सकता है। तुम यात्रा कर सकते हो-तुम कर ही रहे हो। ‘‘वह सब कुछ है’’-इस साधारण से सत्य को बड़े ही विरोधाभासी ढंग से कहना पड़ता है कि वह दूर-से-दूर है और निकट से भी निकट है। वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, और विराट से भी विराट है। वह बीज भी है और वृक्ष भी है। वह मृत्यु भी है और जन्म भी है। क्योंकि यदि वह जीवन है, तब फिर उसे दोनों होना पड़ेगा-जन्म भी और मृत्यु भी।
इतना ही, क्योंकि नहीं कहे कि वह जीवन है? क्योंकि हमारे मन में जीवन मृत्यु के विपरीत है। इसलिए इस साधारण सत्य को, इस साधारण ढंग से नहीं कहा जा सकता। इसे विरोधाभासी ढंग से ही कहना पड़ेगा। वह जन्म भी है और मृत्यु भी। वह दोनों है। वि सिर्फ जीवन है क्योंकि वह दोनों है। वह मित्र भी है और शत्रु भी। वह दोनों है। हमें अच्छा लगता है जबकि वह सिर्फ मित्र की तरह ही हो और शत्रु की तरह न हो। लेकिन हमारी पसंद सत्य नहीं होती। वस्तुतः जब तक हमारी पसन्द और ना-पसन्द खो नहीं जाती, तब तक हम सत्य तक नहीं पहुँच सकते। हम उस तक नहीं पहुँच सकते क्योंकि हम चुनाव करते ही जायेंगे और प्रक्षेपण करते जायेंगे।
यह कथन एक विरोधाभास है। इसका पहला हिस्सा-यह प्रतीति कि मैं ही दिव्य हूँ, मैं ही वह हूँ-यही शिखर है; और दूसरा-‘‘ही नमस्कार है’’, यह घाटी है। यह शिखर व घाटी दोनों है। पहले सबसे अधिक अहंकार की घोषणा है-’’ मैं ही वह हूँ।’’ और फिर गिरना है हर चीज के चरणों तक झुक जाना है-नमस्कार है। ये दो सीमायें है, दो विपरीत ध्रुव हैं। और बहुत-सी बातें इनमें जुड़ी हैं।
यदि तुम अनुभव करो कि तुम निम्न हो और फिर तुम झुको तो वह नमस्कार नहीं है। यह सिर्फ तुम्हारी निम्नता का हिस्सा है। यदि तुम कहो कि तुम श्रेष्ठ हो, और तुम नहीं झुक सकते तो तुम वास्तव में श्रेष्ठ नहीं हो सकते। और जो झुक नहीं सकता वह मुर्दा है, वह श्रेष्ठ नहीं हो सकता। और जो झुक नहीं सकता, वह कहीं-न-कहीं अपनी श्रेष्ठता के प्रति भयभीत है। उसे डर है कि यदि मैं झुका तो मैं श्रेष्ठ नहीं रहूँगा। केवल वही जो अपने श्रेष्ठ होने के प्रति आश्वस्त है, झुक सकता है। केवल वही जो हीनता के पार चला गया है, झुक सकता है। और ‘मैं वही हूँ। यही सबसे ऊँचा शिखर है जो कि संभव हो सकता है और तब तुम झुकते हो, वहाँ से।
बुद्ध ने अपनी पिछली जिन्दगी के बारे में बताया है। एक जीवन में, वे कहते हैं कि मैं बिल्कुल अज्ञानी था। मुझे कुछ भी पता नहीं था। तब एक व्यक्ति, जो कि बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया था वह मेरे गाँव से गुजरा। मैं उसके चरण छूने के लिए गया। मैंने उसके चरण छूए लेकिन साथ ही मैंने देखा कि वह भी कुछ कर रहा है। वह नीचे झुक रहा था और फिर उसने मेरे पाँव छू लिए। मैं तो डर गया और बोला कि आप यह क्या कर रहे हैं। मुझे आपके चरण छूने चाहिए। यह होना चाहिए। लेकिन आप मेरे पाँव क्यों स्पर्श कर रहे हैं?
वह व्यक्ति जो कि ज्ञान को उपलब्ध हो गया था, बोला, तुम मेरे चरण छू रहे हो क्योंकि मैं बुद्धत्व हो गया हूँ। लेकिन मैं तुम्हारे पाँव इसलिए छू रहा हूँ क्योंकि तुम भी बुद्ध ही हो। गौतम बुद्ध ने अपनी पिछली जिन्दगी में तब उसे उत्तर दिया-‘‘लेकिन मैं तो बुद्ध नहीं जानता हूँ। मैं तो कुछ भी नहीं हूँ।’’ उस बुद्ध व्यक्ति ने कहा कि चूँकि तुम यह नहीं जानते कि तुम क्या हो, तुम यह भी नहीं जानते कि तुम क्या हो सकते हो? तुम वर्तमान बुद्ध के आगे झुक रहे हो, लेकिन मैं भविष्य में होनेवाले बुद्ध के आगे झुक रहा हूँ। मैं प्रकट हो गया हूँ, तुम प्रकट होने को हो। केवल समय की ही बात है।
यह जो ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति का झुकना है, वही इस सूत्र का रहस्य है। वह एक शिखर था और वह एक अज्ञानी के सामने झुक रहा था। अब वह इस शिखर से दूसरे शिखर देख सकता है जो कि अज्ञान में छिपे हैं। वे उसके लिए नहीं छिपे हैं, उसके लिए तो, वे बिल्कुल साफ हैं।
तुम इस साधारण अस्तित्व के आगे झुक सकते हो लेकिन तभी जबकि तुम्हें इस बात की प्रतीति हो कि तुम वही हो। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जब तक परमात्मा ही नहीं हो जाते, तुम नमस्कार नहीं कर सकते। जब तक परमात्मा ही नहीं हो जाते तुम विनम्र नहीं हो सकते। जब तक परमात्मा ही नहीं हो जाते, तुम निर्दोष नहीं हो सकते। वह निर्दोषिता ही इस सूत्र में अभिव्यक्त की गई है। नमस्कार हम जानते हैं, हम परमात्मा के बारे में भी जानते हैं, हम प्रणाम करना भी जानते हैं। लेकिन यह सूत्र बहुत कठिन है। इसे समझना असंभव है। यह तुम्हें परमात्मा ही बना देता है। और यह सूत्र तुम्हारे परमात्मा होने को नमस्कार की शर्त बना देता है।
हमारे लिए, हम सदा अपने से बड़े को अभिवादन करते हैं-उसे जो कि हमसे बड़ा है। लेकिन यह सूत्र तुम्हें सबसे बड़ा बना देता है और वही इसकी बुनियादी शर्त है। किसे नमस्कार करना है? तुम सबसे ऊँचे हो, इसलिए अब जो सबसे नीचा है, उसे नमस्कार करो। नीचे की तरफ से ऊपर को नमस्कार करना-यह बिल्कुल साधारण बात है। इसमें कुछ भी नहीं है। यह तो साधारण मन काम कर रहा है। राजनीतिक मन, महत्त्वाकांक्षी मन काम कर रहा है। वह अपने से ऊँचों को नमस्कार करने का काम कर रहा है। लेकिन तुम सबसे अधिक ऊँचे हो। अब मन कहेगा कि अब तुम्हें किसी को नमस्कार करने की आवश्यकता नहीं, अब तो सारा अस्तित्व ही तुम्हें प्रणाम करे। तुम सबसे ऊपर हो। अब सारे जगत को तुम्हें प्रणाम करने को आना चाहिए अब सारे अस्तित्व को ही तुम्हारे चरणों में झुक जाना चाहिए।
अब तुम्हारी भावना ऐसी होगी। यदि जैसे तुम हो, यदि तुम इस सूत्र को वैसे ही समझो, तो यही तुम्हारी भावना होगी कि सारा जगत आये और तुम्हारे चरणों में सिर रख दे। लेकिन यह सूत्र कहता है कि यही आधारभूत शर्त है, तुम्हारे लिए परमात्मा को नमस्कार करने की।
जब कोई भी नहीं हो जिसे कि तुम प्रणाम करने के लिए कह सको, तो अहंकार मरने लगता है। जब तुम्हें हीन भावना लगती है, तो तुम चाहते हो कि कोई तुम्हें प्रणाम करे। यह भूख है-भोजन के लिए भूख। यह इस बात की खबर देता है कि अभी भी तुम मन की पहली ही सीढ़ी पर खड़े हो। और इस सीढ़ी के नीचे शून्यता है। इसलिए जो भी तुम इसमें डालते हो कि ‘मैं हूँ’ वह गहरे नीचे खाई में गिर जाता है और ‘मैं’ सदैव खाली का खाली ही रहता है।
एक दिन एक साधक मुल्ला नसरुद्दीन के पास आया, यह पूछने कि सत्य को कैसे खोजें। नसरुद्दीन ने कहा कि तुम्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया जाये, इसके पहले बहुत-सी शर्तें हैं। इसलिए मेरे साथ आओ, मैं कुएँ पर पानी भरने जा रहा हूँ। वह वहाँ गया। रास्ते में उसने उस होने वाले शिष्य से कहा कि कुछ भी प्रश्न मत पूछना क्योंकि मैंने तुम्हें अभी शिष्य की तरह स्वीकार नहीं किया है। जब मैं तुम्हें स्वीकार कर लूँ, तब तुम पूछ सकते हो। केवल देखना, बीच में कुछ पूछना मत। यदि घर वापस लौटने के पहले तुमने कुछ भी पूछा, तो फिर तुम्हें अयोग्य समझा जायेगा।
अतः उस भावी शिष्य नें सोया कि यह तो कोई कठिन काम नहीं है कि कुएँ पर जाना है, पानी भरता है और लौट के आ जाता है। मैं बिल्कुल चुप रहूँगा, उसने सोचा। अतः वह चुप रहा। लेकिन मुल्ला ऐसी मूढ़ता का काम कर रहा था कि चुप रहना असंभव था। उसके पास दो बाल्टियाँ थीं, एक पानी खींचने के लिए और बड़ी बाल्टी से पानी खींचता और फिर उस बिना पेंदे वाली बड़ी बाल्टी में भरता। पानी बाहर बह जाता और तब वह फिर उसे भरने लग जाता।
इसलिए इस होनेवाले शिष्य ने कहा कि यह आप क्या कर रहे हैं? मुल्ला ने कहा, तुम अयोग्य साबित हो गये। अब कोई प्रश्न नहीं, बस अब तुम जाओ। यह तुम्हारे लिए नहीं है। तुम कौन होते हो, मुझसे पूछने वाले? उस होनेवाले शिष्य ने कहा, मैं जा रहा हूँ। और मुझे चले जाने के लिए कहने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि मेरे लिए आपके पास रुकने की आवश्यकता नहीं है। मैं जा रहा हूँ, लेकिन एक सलाह आपको देना चाहता हूँ। तुम इस बाल्टी पर अपनी सारी जिन्दगी भी मेहनत करो, तो भी यह भरने वाली नहीं है।
मुल्ला ने कहा, ‘‘मेरा संबंध ऊपरी सतह से है, न कि पेंदी से। मैं सतह पर देख रहा हूँ। जब सतह ठीक है, तो मैं अपने घर वापस चला जाता हूँ यह सोचकर कि पेंदी से क्या लेना-देना। वह भावी शिष्य चला गया लेकिन रात वह सो नहीं सका। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि आखिर वह आदमी किस तरह का है। उसका रहस्य क्या है? और वह बहुत-सी बातें सोचने लगा, और धीरे-धीरे उसके समझ में आने लगी कि हो सकता है कि वह मेरी परीक्षा ले रहा था कि मैं ऐसी स्थिति में भी मौन रह सकता हूँ, जहाँ चुप रहना असंभव हो।
अतः वह सुबह दौड़ता हुआ मुल्ला नसरुद्दीन के पास गया और बोला, मुझे क्षमा कर दें, मुझसे भूल हो गई। मुझे माफ करें, मेरी गलती थी। मुझे चुप रहना चाहिए था। लेकिन उसका रहस्य क्या था?
मुल्ला ने कहा, चूँकि मैं तुम्हें अपने शिष्य की तरह स्वीकार नहीं करने वाला हूँ, इसलिए मैं तुम्हें रहस्य बता देता हूँ। रहस्य यह है कि वह बाल्टी कुछ और नहीं बल्कि मनुष्य के मन की पहली अवस्था है। तुम उसे भरते जाओ और वह कभी भी नहीं भरता। लेकिन किसी को भी पेंदे से मतलब नहीं है, सब लोग सतह से ही मतलब रखते हैं। तुम उसे ध्यान से, प्रतिष्ठा से, धन से, भरते चले जाते हो। तुम सिर्फ सतह की परवाह करते हो। एक दिन तुम्हारा अहंकार भर जाता है, लेकिन किसी को भी पेंदी से मतलब नहीं है-कि इस बाल्टी के पेंदी भी है या नहीं।
शिष्य तो रोने लगा और कहने लगा कि मुझे स्वीकार कर लें, आप ही सही आदमी हैं। मुल्ला ने कहा कि अब तो देर हो गई। यह बाल्टी मेरे लिए बड़े काम की है। जब कभी कोई आदमी मेरे पास शिष्य बनने आता है तो यह बाल्टी उसको अयोग्य साबित कर देती है। और इसने बहुतों को अयोग्य साबित कर दिया है और मुझे बहुत से श्रम से बचा दिया है। लेकिन यह बाल्टी उस आदमी को अयोग्य साबित नहीं कर सकती जो कि यह जानने आया है कि उसका मन इस बाल्टी की तरह बिना पेंदे के है। तब वह मेरा शिष्य होने के योग्य है क्योंकि सारी शिष्यता ‘मैं हूँ’ से ‘मैं नहीं हूँ’ की और है।
इसलिए पेंदे से खड्ड में गिर जाना मन की दूसरी पर्त पर चले जाना-एक प्रकार से शिष्य होने के लिए है। तब फिर शून्यता होती है और शून्यता के पार ही उसकी प्रतीति होती है : ‘‘अहं ब्रह्मास्मि। मैं ही वह हूँ।’’
आज इतना ही।
thank you guruji
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