आत्म पूजा उपनिषद--भाग-2
ग्यारहवाँ-प्रवचन--संतुलन का मध्यबिंदु
प्रश्न
- ज्ञान और भक्ति में क्या अंतर है?
- यदि धर्म निषेधात्मक तथा विधायक दोनों विरोधी ध्रुवों को समाविष्ट कर लेता है तो फिर रूपान्तरण का क्या अर्थ हुआ?
- आप अंतर्राष्ट्रीय नव-संन्यास के अन्तर्गत क्या कर रहे हैं?
भगवान सोऽहं-‘मैं ही वह हूँ’ अथवा ‘अहम ब्रह्मास्मि’ अर्थात ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ या ‘अनलहक’-ये सारे कथन ज्ञानी के कथन मालूम पड़ते हैं। कल रात्रि का सूत्र कहता है, ‘ सोऽहं-मैं ही वह हूँ-यही नमस्कार है। इसका दूसरा भाग भवन का कथन प्रतीत होता है, जबकि पहला भाग ज्ञानी का मालूम पड़ता है। ऐसा जोड़ मुश्किल से ही कभी होता है। कृपया, बतायें कि क्यों एक ज्ञानी और भक्त के कथन को साथ-साथ रखा गया है?
- इस संदर्भ में कृपया यह भी बतलायें कि ज्ञानी व भक्त में क्या अन्तर है?
- किस भाँति कपिल ऋषि व शंकर जैसे ज्ञानी चैतन्य व मीरा जैसे भक्तों से भिन्न हैं?
- क्यों महान भक्तों ने अपने को भगवान से अलग रखा, जैसे मीरा ने कृष्ण से?
- क्या ज्ञान भक्ति में परिणत होता है और भक्ति ज्ञान में?
वह जो अल्टीमेट है, आत्यंतिक है वह जो एक है, लेकिन उसे बहुत-से कोणों से देखा जा सकता है। उसे देखने के बहुत से दृष्टिकोण हो सकते हैं। वह तो एक ही है लेकिन जब उसे अभिव्यक्त किया जाता है तब उसकी अभिव्यक्ति अंतर रूप ले सकती है। वह तो एक हीहै, लेकिन जब कोई उसकी ओर जाता है तो मार्ग अलग-अलग होते हैं। और एक मार्ग से जो भी कहा जाएगा वह पूर्ण सत्य नहीं होगा, वह सत्य का सिर्फ एक पहलू ही होगा। वह पूर्ण सत्य नहीं होगा।
समग्र का अनुभव तो संभव है, लेकिन समग्र की अभिव्यक्ति संभव नहीं है। अभिव्यक्ति हमेशा ही आंशिक हैं तुमे समग्र को अनुभव कर सकते हो। लेकिन जैसे ही तुम उसे व्यक्त करने जाते हो, वैसे ही वह एक दृष्टिकोण हो जाता है, वह कभी भी समग्र नहीं होता।
ये दोनों आधारभूत मार्ग हैं, उस तक पहुँचने के-ज्ञान का मार्ग तथा प्रेम का मार्ग। मनुष्य का मन इन दो में बँटा हुआ है। ये दो उस आत्यंतिक सत्य के विभाजन नहीं हैं, ये मनुष्य के मन के दो विभाजन हैं। सत्य की ओर मन कभी ज्ञानी की भाँति भी देख सकता है और प्रेमी की तरह भी। यह उस आखिरी सत्य पर निर्भर नहीं है, बल्कि यह तुम पर निर्भर करता है। यदि तुम एक प्रेमी की आँख से देखो, तो तुम्हारा अनुभव तो वही होगा जबकि तुम एक ज्ञानी की आँख से देखो, लेकिन तब तुम्हारी अभिव्यक्ति में अन्तर होगा। जब तुम प्रेम से देखोगे तब तुम्हारी अभिव्यक्तिबिल्कुल ही अलग होगी।
यह भेद क्यों है? यह इतना भेद क्यों है? क्योंकि प्रेम की अपनी भाषा है, ज्ञान की अपनी भाषा है। प्रेम की अपनी एक अलग ही भाषा है। ये भाषायें एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। उदाहरण के लिए, ज्ञान सदैव एक के लिए कोशिश करता है, और प्रेम असंभव हैं यदि वहाँ दो नहीं हो तो। प्रेम संभव ही तब है जबकि वहाँ दो हों। लेकिन मैं शीघ्रता से यह भी जोड़ना चाहता हूँ कि प्रेम एक बहुत ही रहस्यपूर्ण अनुभव है। यह दो के बीच एकता है। दो होने ही चाहिए, लेकिन वहाँ दो हों, तो जरूरी नहीं है कि प्रेम होगा ही। जब दो आपस में एक गहरी एकात्मता अनुभव करने लगें, तब प्रेम होता है।
प्रेम में दोहरा द्वैत होता है : दो में एकता। द्वैत वहाँ होना ही चाहिए और फिर भी एक होने का अनुभव हो। और प्रेम की भाषा इस द्वैत को बनाये रखेगी? प्रेमी व प्रेमिका। ये दो ध्रुव हैं। इन दो ध्रुवों में एकता का अनुभव किया जाता है, किन्तु वह एकता इन दो ध्रुवों के बिना नहीं हो सकती।
प्रेमी कहेगा, ‘मैं मेरी प्रेमिका के साथ एक हो गया मेरी प्रेमिका मुझ में ही है।’ लेकिन वह ज्ञान की बात नहीं कर सकता। लेकिन वह नहीं कह सकता कि द्वैत खो गया है। वह इतना ही कहेगा कि दो का होना भ्रामक है। हम दो हैं किन्तु फिर भी हम दो नहीं हैं। यह विरोधाभास कि हम दो हैं किन्तु भी दो नहीं हैं, यह विरोधाभास कि हम दो हैं फिर भी दो नहीं हैं, यह प्रेम का भाषा है। यह गणित की बात नहीं है, यह भावना की भाषा है।
तुम बिना एक हुए भी एक होने का अनुभव कर सकते हो। एक होने की कोई जरूरत भी नहीं है, वह असंगत है। तुम बिना मिले भी, बिना डूबे भी एक हो सकते हो। तुम बाहरी रूप से दो रह सकते हो और भीतर तुम एक हो सकते हो। और भक्ति का मार्ग, प्रेम का मार्ग कहता है कि एक होने का मतलब यदि दो का मिट जाना है, तो ऐसी ऐक्यता किसी काम की न होगी, वह बिल्कुल सपाट होगी। उस एक होने में कोई काव्य नहीं होगा, वह बिल्कुल रूखी होगी। वह गणित की तरह एक होना होगा। प्रेम कहता है कि एक होना एक जीवंत बात है, वह गणित की एकता नहीं है। प्रेमी और प्रेमिका दोनों होते हैं, फिर भी वे महसूस करने लगते हैं कि वे खो गये हैं। दुई रहती है लेकिन वह अधिकाधिक भ्रामक होने लगती है। एक होना ज्यादा वास्तविक मालूम पड़ता है बजाय दो होने के, किन्तु दो होना बना रहता है।
प्रेम के पथ पर चलने वाला साधक कहता है कि यही उसका सौन्दर्य है और उससे अनुभव समृद्ध होता है। और गणित की एकता का अर्थ होता है कि अनुभव समृद्ध होता ही नहीं। सीधा-सीधा कहें तो दो चीजें खो गईं और एक ही बची। इसमें कम रहस्य है। प्रेमी कहते हैं कि हम दो हैं और फिर भी हम दो नहीं हैं, और वे इस द्वैत में अद्वैत की बात करते चले जाते हैं, इस दो में एक होने की भाषा बोलते रहते हैं। एक होना बुनियादी बात है। सतह पर प्रेमिका प्रेमिका है और प्रेमी प्रेमी है और एक अन्तराल। लेकिन भीतर गहरे में यह अन्तराल विलीन हो गया है। प्रेम अस्तित्व की ओर काव्यात्मक ढंग से जाना है। और मन भिन्न-भिन्न होते हैं।
मुझे एक ब्रिटिश वैज्ञानिक की एक घटना का स्मरण आता है जो कि नोबल पुरस्कार भी प्राप्त कर चुका था। उसका नाम था डेरिक। डेरिक के एक मित्र ने जो कि एक रशियन वैज्ञानिक था, जिसका कि नाम कपिक्सज़ा था, उसे डोस्टेवस्की का एक बहुत प्रसिद्ध उपन्यास-‘क्राइम एण्ड पनिशमेंट’-पढ़ने के लिए दिया। कपिक्सज़ा ने डेरिक से कहा कि इस उपन्यास कोढ़ जाओ और फिर मुझे अपने इंप्रेशन्स, अपने मनोभाव बतलाना। जब डेरिक ने वह किताब लौटाई तब उसने कहा कि यह उपन्यास अच्छा है लेकिन इसमें एक कमी है, एक गलती है कि लेखक कहता है कि दिन में दो बार सूरज उगता है। एक ही दिन में दो बार सूरज उगता है।
कहानी में डोस्टेवस्की से यह भूल हो गई कि सूरज एक ही दिन में दो बार उगता है। इसलिए डेरिक कहता है कि यही बस एक गलती है और मुझे कुछ भी नहीं कहना है। और यही एक मात्र बात वह डोस्टेवस्की के महान उपन्यास-‘क्राइम एण्ड पनिशमेंन्ट’ के बारे में बोला। और वह कोई साधरण आदमी नहीं है, लेकिन एक ैानिक का रुख, एक गणितज्ञ का रुख। एक कवि का रुख नहीं है, एक कलाकार, एक प्रेमी का रुख नहीं है। यह जो रुख है बिल्कुल पक्षपात रहित है, एक णितज्ञ का ढंग है। केवल इतना ही उसके पास कहने के लिए था कि एक ही गलती है कि एक ही दिन में सूरज दो बार नहीं उग सकता। इतने बड़े सृजन में, इतनी बड़ी कलाकृति में केवल यह बात उसके ख्याल में आई।
क्यों? क्योंकि मस्तिष्क का प्रशिक्षण ही एक पक्षपातरहित ढंग से देखने का हुआ है, एक गणितज्ञ की आँख से देखने का हुआ है। इस गलती को कभी किसी ने भी नहीं खोजा था। वह पहला आदमी था। बहुतों को डोस्टेवस्की के उपन्यास में एक गहरी अंतर्दृष्टि का अनुभव हुआ था, एक गहरे मनोविज्ञान, एक महान काव्य, एक महान नाटक का दर्शन हुआ था किन्तु इस गलती को कोई भी न खोज पाया था, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम जगत को किस भाँति देखते हो।
एक प्रेमी दूसरी ही आँख से देखता है। जब एक प्रेमी उस आत्यंतिक अनुभव तक आता है, वह जानता है कि अब सब कुछ हो गया है, लेकिन वह कहता है कि यदि यह एकता साधारण एकता है, खाली एकता है, तो फिर मुर्दा है। यह एक जीवन्त एकता है, यह एक जीवन्त, गत्यात्मक घटना है। यह एक एकता है, एक गति है; एक जीवन्त प्रक्रिया है, जब कोई मुर्दा एकता नहीं है।
और सत्य कोबिल्कुल विपरीत दृष्टियों से भी देखा जा सकता है। वह जो गणितज्ञ का मन है, एक द्रष्टा का मन, तटस्थ द्रष्टा (यानी एक ज्ञान की राह पर चलनेवाला) वह कहेगा कि या तो दो हैं या फिर एक ही है। दोनों असंभव हैं।
यह एक तर्कयुक्त दृष्टिकोण है। तुम कैसे कह सकते हो कि एक ही है जबकि दो भी मौजूद है? या तो दो को मिटाओ, तब एक हो सकता है, या फिर एक की बात ही मत कहो, दो की बात करो। और वह भी अपनी तरह से ठीक है। यह उसका ढंग है। वह कहता है कि यदि तुमने एकता को उपलब्ध कर लिया है, तो फिर न तो प्रेमी ही है और न प्रेमिका ही है। दोनों खो गये, अब कोई भेद नहीं है। तुम प्रेमिका की, परमात्मा की, दिव्य की बात ही नहीं कर सकते। तुम भक्त की बात ही नहीं कर सकते। वह सब बेकार है। बन्द करो इसे और अब भी तुम इसे चालू रखते हो, इस द्वैत को, तो फिर तुम अभी एक पर नहीं आये हो, क्योंकि दोनों एक साथ नहीं हो सकते।
यह एक गणित की भाँति सोचने का ढंग है। लेकिन जीवन गणित नहीं है और जीवन विरोधी को भी समा लेता है, विपरीत को भी जगह दे देता है। इसलिए मैं इसे दूसरी तरह से ही समझाने की कोशिश करूँगा, वह आसान भी होगा।
इस सदी ने विज्ञान के जगत में बड़ी-से-बड़ी क्रान्ति को देखा है, और वही गणित को सिंहासन से नीचे उतार देती है। इलेक्ट्रॉन की खोज के बाद पुराने तर्क की व्यवस्था, बेकार हो गई है, कालबाह्य हो गई है।
तुमने शायद एक जर्मन विचारक इमैनुअल कांट के बारे में सुना होगा। उसके पास दो बिल्लियाँ थीं। एक बड़ी थी, एक छोटी थी। दोनों बिल्लियाँ उसके साथ सोती थीं, लेकिन एक कठिनाई थी। कभी-कभी वे समय पर नहीं आती थीं और तब कांट को बहुत परेशानी होती थी क्योंकि कांट समय का बड़ा पाबन्द था। वह घड़ी के हिसाब से चलता था। उसे बिल्लियों के लिए ठहरना पड़ता था, और तभी वह दरवाजा बन्द कर सकता था। अतः एक दिन उसने अपने नौकर को कहा कि किसी बढ़ई को बुलाकर लाये और दरवाजे में दो छोड़ कर दे-एक बड़ी बिल्ली के लिए और एक छोटी बिल्ली के लिए, तब बिल्लियाँ कभी भी आ सकती हैं और मैं मजे में सो सकता हूँ, उसने कहा।
नौकर ने उसे पागल समझा क्योंकि बिल्लियाँ एक छिद्र में से भी आ सकती हैं। दो छिद्रों की कोई भी जरूरत नहीं थी। लेकिन गणित के हिसाब से कांट की बात ठीक है। वास्तव में वह बिल्कुल बेवकूंफी की बात है, लेकिन गणित से वह बिल्कुल सही है। खैर, नौकर ने सोचा एक छिद्र काफी होगा, इसलिए उसने एक छिद्र बनवा दिया। जब कांट यूनिवर्सिटी से लौटकर आया तो उसने बड़ा छेद देखा बड़ी बिल्ली के लिए, तब उसने कहा कि मेरी छोटी बिल्ली भीतर कहाँ से घुसेगी? दूसरा छिद्र कहाँ है? नौकर ने उत्तर दिया कि वह भी इसी छिद्र से प्रवेश कर सकती है, वह कोई इतनी बड़ी दार्शनिक नहीं है। बिल्लियाँ व्यावहारिक हाती हैं, वे सैद्धान्तिक नहीं होतीं। इसलिए उनके बारे में चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह बात कांट के समझ में नहीं आई, अतः वह रुका। और जब उसने अपनी आँखों से दोनों बिल्लियों को एक ही छेद में से आते हुए देखा तब उसे चैन पड़ा।
हमें इस बात पर हँसी आती है, लेकिन अब ससे भी अधिक पागलपन की बात हुई है। इलेक्ट्रॉन की खोज के साथ भौतिकशास्त्र की सारी चीजें गड़बड़ हो गई हैं, क्योंक एक इलेक्ट्रॉन को यदि शीशे पर फेंका जाये, एक पर्दे पर फेंका जाये जिस पर कि दो छिद्र हों तो वह दोनों छिदों में से एक ही साथ पार निकलता है। एक इलेक्ट्रॉन को एक ही छिद्र से निकलना चाहिए। यदि तुम्हें खिड़की से बाहर फेंका जाए तो तुम दो खिड़कियों से एक साथ बाहर कैसे निकलोगे? लेकिन एक इलेक्ट्रॉन निकलता है।
जब इस बात को पहली दफे देखा गया तो इलेक्ट्रॉन बिल्कुल ही अव्यवावहारिक मालूम पड़ा। सारी बात ही जादुई लगने लगी। कैसे एक ही इलेक्ट्रॉन एक साथ दो छिद्रों में से निकल सकता है? लेकिन वह निकलता है, और इलेक्ट्रॉन कोई दार्शनिक तो होते नहीं हैं। अतः अब क्या करें और इस घटना को कैसे समझें?
विज्ञान को नई धारणा को विकसित करना पड़ा। अब वे कहते हैं कि इलेक्ट्रॉन जो है वह कण भी है और लहर भी है। वह दोनों है। इसलिए जब तुम उसे पर्दे पर फेंकते हो तो वह एक साथ दो छिद्रों से निकल जाता है क्योंकि एक लहर दो छिद्रों में से एक साथ गुजर सकती है लेकिन एक पदार्थ का कण नहीं निकल सकता। लेकिन जब तुम उसकी तरफ देखते हो, तो वह कण होता है, लेकिन वह व्यवहार लहर की तरह करता है।
अब पुराना गणित, पुरानी ज्यामिति, पुराना युक्लिड का गणित इस बात के लिए राजी नहीं होगा। क्योंकि एक कण, एक लहर नहीं कर सकते। हमें अपना गणित के हिसाब से चलो, तुम तर्क के हिसाब से चलो। भौतिकशास्त्र ने बहुत ही अजीब जगत की खोज की है जहाँ कि हमारे सब नियम गड़बड़ हो गये हैं। यदि तुम इलेक्ट्रॉन को देखो तो वह तुम्हें कण दिखलाई पड़ेगा-एक बिन्दु की तरह। यदि तुम उसका व्यवहार देखो तो वह एक लहर की तरह लगेगा-एक रेखा की भाँति।
यही बात आत्यंतिक सत्य के लिए भी है। यदि तुम उसे प्रेम की आँख से देखो तो वह एक लहर की तरह व्यवहार करता है। यदि तुम एक ज्ञाता की दृष्टि से देखो तो वह कण दिखाई पड़ता है। एक जानने वाले की आँख से वह एक दिखाई पड़ता है, और एक प्रेमी की आँख से वह दो दिखलाई पड़ता है। यह देखनेवाले पर निर्भर करता है। वह दोनों हैं, और दोनों ही नहीं है।
इसके कारण ही यदि कोई अपने ही बिन्दु पर जोर देता ही चला जाए तो फिर वह बिन्दु दूसरे की तुलना में विपरीत दिखाई पड़ेगा-क्योंकि यदि कोई कहता है कि इलेक्ट्रॉन कण है, और मैंने स्वयं देखा है, तो वह सही है इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन तब वह दूसरे को छोड़ देता है। तब दूसरा अपने आप ही गलत हो जाता है। यदि वह कहता है कि चूँकि मैं सही हूँ, तुम गलत हो, क्योंकि मैंने इलेक्ट्रॉन को एक कण के रूप में देखा है, वह लहर नहीं हो सकता, तब तुमने बिल्कुल ही मना कर दिया। तब विरोध पैदा होगा।
लेकिन यही बात दूसरे भी कह सकते हैं जिन्होंने कि उसे लहर की भाँति बर्ताव करते देखा है, जिन्होंने कि अपनी स्वयं की आँखों से दो छिद्रों में से एक साथ निकल जाते देखा है। तब वे कहते हैं कि यह कण जरा भी नहीं है, क्योंकि एक कण लहर की तरह व्यवहार नहीं कर सकता। तब वे उस पर जोर देते चलें जाते हैं। तब फिर वे संप्रदाय निर्मित करते हैं-अलग-अलग संप्रदाय।
यह सूत्र अनूठा है, यह दोनों को समाविष्ट कर लेता है। यह कहता है कि जब तुम जानते हो कि तुम्हीं वह हो, तभी नमस्कार होता है। पहला हिस्सा ज्ञान के मार्ग का है, और दूसरा हिस्सा भक्ति के मार्ग का है, प्रेम के मार्ग का है। दूसरे शब्दों में कहना चाहिए यह सूत्र कहता है कि जब तुम यह भी जान पाते हो कि तुम दो हो। अथवा, जब तुम्हें यह पता लगता है कि तुम दो हो, तभी तुम्हें उस आंतरिक एकता का अनुभव होता है।
यह दो का भाव तथा एक का भाव तुम्हारा ही है, सत्य का नहीं। सत्य तो दोनों ही है या दोनों नहीं है। एक प्रेमी की आँख के सामने यह दो कि भाँति व्यवहार करता है, यह दो में, प्रेमी व प्रेमिका में विभाजित हो जाता है। एक जानने वाले की आँख के सामने यह एक कण की तरह व्यवहार करता है-जैसे एक हो। वास्तव में कोई विपरीतता नहीं है, बल्कि वे दोनों एक दूसरे पर हँसेंगे। ज्ञान के मार्ग के खोजी भक्ति के मार्ग पर चलने वालों के लिए सदैव ऐसा महसूस करेंगे कि जैसे वे कुछ चूक रहे हैं, कि वे उस परम को नहीं पा सकेंगे। वे सही हैं-एक तरह से, क्योंकि उनके दृष्टिकोण से ऐसा ही है।
मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ जो कि मैंने एक दिन सुनी थी। एक सुबह जरा तड़के ही हुआ। सूर्य अभी उगने को है। एक केंचुआ आधा जागा है, आधा सोया है वह विश्राम कर रहा है अपने को चारों ओर से समेटकर। फिर सूर्य उगने लगता है, कोहरा खोने लगता है और इस केंचुए को दूसरे केंचुए की उपस्थिति का पता चलना शुरू होता है। वह पत्थर के चारों ओर देखता है। दूसरी तरफ से दूसरा केंचुआ भी आ रहा है। वह उसे देखकर उसके प्रेम में पड़ जाता है जैसी कि आदमी की और केंचुए की आदत होती है कि वे पहली ही नजर में प्रेम में पड़ जाते हैं। और जब उनके प्रेमालाप की प्राथमिक बातें पूरी हो जाती हैं तो पहला केंचुआ दूसरे से कहता है, ‘‘बेबी, मैं गहरे प्रेम में डूब गया हूँ। अब मैं तुम्हारे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। इसलिए मुझ से विवाह कर लो।’’ दूसरा अब तक चुपचाप था, वह हँसने लगा और बोला, ‘‘बेवकूफ। मैं तुम्हारा ही दूसरा छोर हूँ।’’
ज्ञान के मार्ग पर, भक्त मूर्ख नज़र आते हैं। लगता है कि वे अपने ही दूसरे छोर से बातें कर रहे हैं। वे परमात्मा को, प्रेमी, प्रेमिका नाम दे रहे हैं, दिव्य कहकर पुकार रहे हैं, लेकिन वे अपने ही दूसरे छोर से बातें कर रहे हैं। जो ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले लोग हैं, उन्हें वे मूर्ख लगते हैं। किन्तु वे अच्छे लोग हैं, क्योंकि वे अपनी मूर्खता को स्वीकार कर लेते हैं।
संत फ्रांसिस ने अपने को सदा परमात्मा कोमूर्ख कहकर पुकारा-गॉडस फूल। वह कहता कि मैं मूर्ख हूँ, लेकिन मूर्ख ही रहने दो। मैं विद्वान बनना नहीं चाहता, क्योंकि मैंने विद्वानों को देखा है। मैं भले ही पागल होऊँ लेकिन मुझे पागल ही रहने दो। यह मुझ में और परमात्मा में प्रेम काफी है।
भक्त मूर्ख हैं, लेकिन विधिपूर्वक। वे पागल हैं, लेकिन विधिवत। वे कहते हैं कि यह पागलपन ही एक मात्र बुद्धिमानी है। यदि तुम अपने को ही प्रेम नहीं कर सकते, तो फिर तुम प्रेम ही नहीं कर सकते। कोई हर्ज नहीं यदि वह दूसरा छोर ही हो, लेकिन प्रेम करना इतना अच्छा है, इतना सुन्दर है कि यदि किसी को स्वयं अपने आप को दो में भी बाँटना पड़े, प्रेम करने के लिए, तो भी बाँट देना चाहिए। इसीलिए तो भक्तों ने, प्रेमियों ने कहा कि यह संसार लीला है। राधा ही कृष्ण भी हैं-भेष बदले हुए हैं। परमात्मा स्वयं को ही प्रेम कर रहा है, कितने ही भेषों में। इसलिए भक्त इतने गंभीर नहीं हैं। वे कहते हैं कि हम मूर्ख लोग हैं, हम पागल आदमी हैं, लेकिन हम अपने पागलपन में प्रसन्न हैं। और हमें तुम्हारा रूखा ज्ञान नहीं चाहिए। माना कि वह एकदम सही है लेकिन रूखा है, मृत है। हमारा पागलपन जीवंत है।
वे जो कि ज्ञान के मार्गी हैं, उनके लिए प्रेम को समझना कठिन है। वे कहते हैं कि यदि तुम प्रेम करते हो, तो तुम जान नहीं सकते। प्रेम से पक्ष हो जाता है। तुम अलग नहीं रह सकते। एक खोजी को, तो अलग रहना चाहिए, उसे जुड़ नहीं जाना चाहिए। उसे तो अलग, दूर रहना है। उसे तो बाहर खड़े आदमी की तरह निरीक्षण करना है, उसे स्वयं प्रक्रिया में नहीं उतर जाना चाहिए।
एक प्रेमी अलग नहीं रह सकता। तुम मजनू को लैला से अलग रहने के लिए नहीं कह सकते, वह असंभव है। वह कहेगा कि लैला ही एकमात्र सुन्दर स्त्री है-इस समय की नहीं, बल्कि सारे समय की। यह बात बिल्कुल बेकार है, लेकिन वह प्रेम में डूबा है। प्रेम इस भावना को जन्म दे रहा है। वह प्रामाणिक है। जो भी वह कह रहा है, वैसा वह अनुाव भी कर रहा है। लेकिन प्रतीति एक आसक्त आदमी की है-उसकी, जो कि जुड़ गया है। वह चाहिए नहीं है।
वह लैला की तरफ तटस्थ होकर नहीं देख सकता, इसलिए ज्ञान के पथ के अनुयायी कहेंगे कि वह कभी भी सत्य तक नहीं पहुँच सकता। वह सदैव अपनी ही भ्रान्तियों में जीयेगा। जो भी वह कह रहा है, वह उसकी वैयक्तिक प्रतीति है, यह कोई वस्तुगत सत्य नहीं है। वे कहेंगे कि भक्त अपनी-अपनी भ्रांतियों की बात करते रहते हैं। यदि तुम्हें सत्य को जानना है, तो वस्तुगत आब्जेक्टिव बनो। तब फिर प्रेम नहीं होगा। वास्तव में तो प्रेम बाधा बन जायेगा क्योंकि वह हर चीज को रंग देता है।
संस्कृत में एक शब्द है ‘राग’ राग का अर्थ होता है, आसक्ति और राग का अर्थ होता है रंग। कोई भी राग वस्तु को रंग दे देता है। यह प्रक्षेपण है। ज्ञान का मार्ग कहता है कि बिल्कुल निरपेक्ष रूप से अलग रहो। वीतरागी बनो। कोई लगाव नहीं, कोई प्रेम नहीं, कोई भक्ति भाव नहीं। तभी केवल तुम सत्य तक पहुँच सकोगे।
यह बहस अनन्त तक चल सकती है क्योंकि हर बिन्दु पर ज्ञान के मार्गी भिन्न होंगे। और मैं कहूँगा कि वे सही हैं जहाँ तक उनका संबंध है। जो कुछ भी वे अपने बारे में कह रहे है वह सही है, लेकिन जेसे ही वे दूसरों के बारे में कहते हैं, वे वहीं गलत हो जाते हैं। जब ज्ञान मार्गी भक्तों के बारे में कुछ भी कहते हैं, तो वह गलत हो जाता है क्योंकि भक्तों का अनुभव उनका जरा भी अनुभव नहीं है। जो कुछ भी वे प्रेम के बारे में जानते हैं, वह एक बात है। और जो भी एक भक्त प्रेम के बारे में जानता है वह दूसरी ही बात है।
एक भक्त के लिए जो कि प्रेम के मार्ग पर चल रहा है, यह प्रक्षेपण नहीं है क्योंकि प्रेमी कहता है कि मैं तो अब हूँ ही नहीं, इसलिए अब प्रक्षेपण भी कौन करे? मेरी कुछ अपेक्षा नहीं है, कोई मांग नहीं है, कोई अच्छा भी नहीं है। तो फिर बिना किसी इच्छा के कोई प्रक्षेपण भी कैसे करेगा? जब कोई आकांक्षा नहीं, कोई अपेक्षा नहीं है, तो कैसा प्रक्षेपण? भक्त कहता है कि मैंने अपने को मिटा ही दिया है ताकि परमात्मा के लिए जगह हो जाये और वह मेरे भीतर उतर सके, और अब परमात्मा उतर गया है।
यह प्रेम, यह एक होना कोई प्रक्षेपण नहीं है, क्योंकि प्रक्षेपण सदा इच्छाओं से होता है। अतः यदि तुम कुछ इस एकता से चाह रहे हो, तो वह प्रक्षेपण नहीं हो सकता। इसलिए भक्तों ने कहा है कि हमें तुम्हारा मोक्ष नहीं चाहिए, हमें तुम्हारे वैकुण्ठ की, स्वर्ग की भी अपेक्षा नहीं है, हमें कोई पुण्य मिल जाये, यह भी हम नहीं चाहते, हम तो सिर्फ तुम्हें ही चाहते हैं।
भक्तों का कहना है कि जो लोग ज्ञान के मार्ग पर चल रहे हैं उन्हें मोक्ष चाहिए। उन्हें मोक्ष मुक्ति चाहिए, उन्हें स्वर्ग की कामना है। वे शुद्धता चाहते हैं। उन्हें मुक्ति की इच्छा है। उनका प्रयत्न महत्वाकांक्षी है। भक्त कहते हैं कि यदि वैकुण्ठ वहाँ है, स्वर्ग वहाँ है और तुम्हारे चरण यहाँ हैं तो फिर हम तुम्हारे चरण ही चुनते हैं। उन्होंने कभी मोक्ष, मुक्ति, स्वर्ग नहीं चाहा। वे कुछ भी नहीं मांगते। एक भक्त ने गीत गाया है कि मुझे वृन्दावन में कुत्ता ही हो जाने दो, मुझे वृन्दावन में सिर्फ वहाँ की धूल ही हो जाने दो, इतना काफी है और मैं तुम्हारे चरणों के लिए अनन्त तक प्रतीक्षा करूँगा। मुझे कुछ और नहीं चाहिए।
वस्तुतः गहराई में भक्त हमें ज्ञानी से कम महत्वाकांक्षी दिखलाई पड़ते हैं, लेकिन वे दोनों एक दूसरे को नहीं समझ सकते, वह कठिन है। तुम उन्हें नहीं समझा सकते, वह कठिन है। तुम उन्हें नहीं समझा सकते। उनमें बातचीत असंभव है, क्योंकि वे अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं। उनके क्षेत्र भी अलग-अलग हैं। वे अपने शब्दों को भिन्न ही अर्थ देते हैं। भक्त कहते हैं कि प्रेम ही एकमात्र मुक्ति है-एकमात्र मुक्ति। जो लोग ज्ञान के मार्ग पर हैं उनके लिए ज्ञान ही मुक्ति है, न कि प्रेम। प्रेम बन्धन है। जिस क्षण भी तुम प्रेम में होते हो, तुम बन्धन में होते हो। और भक्त कहते हैं कि प्रेम मुक्ति है, और यदि तुम्हें प्रेम बंधन लगता है तो फिर तुमने प्रेम जाना ही नहीं। वे भिन्न भाषाएँ बोल रहे हैं, उनका मिलना नहीं हो सकता।
केवल कभी-कभी, बहुत कम, कभी ऐसी घटना घटती है कि कोई आदमी दोनों होता है। यह एक बहुत कम घटित होने वाली घटना है। शताब्दियों पर शताब्दियाँ बीत जाती हैं कि कोई दोनों हो पाता है। लेकिन तब उसकी भाषा तुम्हारे लिए समझना और भी कठिन हो जाती है। इसे ऐसे देखें- एक भक्त एक ज्ञानी की बात नहीं समझ पाता है, एक ज्ञानी एक भक्त की बात नहीं समझ पाता है। लेकिन कोई व्यक्ति दोनों हैं तो लोग उसकी बात नहीं समझ पायेंगे। अपने आप में हर एक ही भाषा कठिन है। और जब दोनों भाषाएँ एक होती हैं, तो उसे समझना असंभव हो जाता है। ऐसा आदमी भक्तऔर ज्ञानी दोनों की बात समझ सकता है, लेकिन जन-समूह उसे बिल्कुल नहीं समझ सकता क्योंकि वह सदा अपना ही विरोध करता हुआ मिलेगा।
जब कभी वह ज्ञान के मार्ग की बात करेगा तो यह एक बात कहेगा और जब कभी वह प्रेम की भाषा बोलेगा; तो वह विरोधाभासी, एकदम विरोधाभासी भाषा बोलेगा। वह अपने ही विरोध में बोलता चला जाएगा और तुम सिर्फ उलझन में पड़ोगे। इसका मतलब क्या है? यह बहुत कम होता है, लेकिन जब कभी भी होता है तो ऐसी आदमी बिल्कुल समझ में नहीं आता।
यह उपनिषद ऐसे व्यक्ति का है जो कि दोनों है। तुमने कदाचित ध्यान नहीं दिया, इस उपनिषद का नाम ही है- आत्म पूजा। यह बड़ी फिजूल बात है। यह शीर्षक ही अर्थहीन है, विरोधाभासी है। तुम्हारी अपनी पूजा? पूजा तो सदैव किसी और की होती है, लेकिन यहाँ तुम ही पूजा करने वाले हो और तुम्हींपरमात्मा भी हो। पूजा का सारा अर्थ ही खो गया, और यह व्यक्ति लगातार विरोधाभासी भाषा बोल रहा है। हर एक वाक्य भक्त और ज्ञानी दोनों के लिए है। वह भक्त के प्रतीकों का उपयोग करता है और फिर ज्ञानी के अर्थ देने लगता है, न कि प्रेमी के। लगातार सारा उपनिषद यही कर रहा है। प्रतीक भक्तों के हैं-पूजा के, किन्तु जो अर्थ दिये हैं वे ज्ञानियों के हैं।
यह प्रतीति कि मैं हीवह हूँ-‘सोऽहं’-यही नमस्कार है।
इस सूत्र में भी यही बात है। यदि तुम जान गये कि तुम्हीं वह हो, तो वही पूजा है, नमस्कार है। इस असंगतिपूर्ण ‘संगति के रुख के कारण ही यहऋषि लगातार अपने ही विरोध में कहता जाता है और दोहरी भाषा का उपयोग करता है। यह दो भिन्न क्षेत्रों को मिश्रित कर रहा है। इस उपनिषद है और एक बहुत ही सुन्दर भी।
इसकी व्याख्या करना बहुत कठिन है, क्योंकि व्याख्याकार भी दो तरह के हैं। वे जो कि ज्ञान के मार्गी है, उनके लिए सारी भाषा ही दूसरे मार्ग की है। और प्रेम के मार्ग पर चलने वालों के लिए, सारे अर्थ पहले मार्ग वालों के लिए हैं। तो यह आत्म पूजा उपनिषद ऋषि सचमुच किसी मार्ग का नहीं है। और इसीलिए, यह उपनिषद उपेक्षित रहा। कभी इस पर किसी ने नहीं बोला।
इसलिए पहली बात यह है कि ये दो भाषाएँ हैं। प्रेम की अपनी भाषा होती है, ज्ञान की अपनी भाषा होती है। और वे दोनों ऊपर सतह पर नहीं मिल सकतीं। वे केवल व्यक्ति में मिल सकती हैं, न कि बातचीत में। कोई व्यक्ति इस अवस्था को उपलब्ध हो सकता है। लेकिन यह बहुत कम होता है। और बहुत कम क्यों? क्योंकि जब तुम एक मार्ग से चलकर मंजिल पर आ गये, तो फिर दूसरे मार्गों की फिक्र क्यों करना? कोई जरूरत नहीं है। तुम एक मार्ग से मंजिल पर पहुँच गये।
रामकृष्ण ने इसकी कोशिश की। वही एक व्यक्ति था जिसने कि इस युग में इस पर प्रयोग किया। वे चेतना की एक अवस्था तक पहुँच जाते और फिर उसे छोड़ देते और फिर दूसरे मार्ग से चलना शुरू करते, और फिर तीसरे मार्ग से। और वे तब रुके जबकि उन्होंने पाया कि वे कई मार्गों से उसी अवस्था में पहुँच सकते हैं। उन्होंने सूफियों का मार्ग अपनाया, उन्होंने बौद्धों की ध्यान की पद्धति अपनाई, उन्होंने हिन्दू विधियों का अनुसरण किया। गहरे में वे एक भक्त थे। बुनियादी रूप से वे प्रेम के मार्ग पर चलने वाले थे। किन्तु उन्होंने वेदान्त पर प्रयोग किया-ज्ञान का मार्ग। यह बहुत कठिन था, क्योंकि यह कोईआसान मामला नहीं था कि प्रेम के मार्ग से ज्ञान के मार्ग पर चले जाएं। तब सब कुछ विरोधी हो जाता है।
वे तोतापुरी से सीख रहे थे जो कि अपने समय का एक बड़ा भारी वेदान्ती था। और तोतापुरी निरपेक्ष रूप से वेदान्ती था-ज्ञान के मार्ग का अनुसरण करनेवाला। अतः वह रामकृष्ण पर हँसता और कहता कि तुम मूर्ख हो। यह रो-रोकर तुम क्या कर रहे हो? रो रहे हो, चिल्ला रहे हो, नाच रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो। वहाँ कोई भी नहीं है। किससे प्रार्थना कर रहे हो? फिर रामकृष्ण उसके शिष्य हो गये। और यह एक कभी-कभार घटने वाली घटना है क्योंकि रामकृष्ण ने वह सब पा लिया था जो कि तोतापुरी ने उपलब्ध किया था। यह उनकी विनम्रता थी। वे तोतापुरी के शिष्य हो गये। उन्होंने कहा कि मुझे बताओ, अब तुम्हारे मार्ग से चलूंगा।
तोतापुरी उनका गुरु हो गया और वह एक बड़ा कठोर गुरु था-एक बड़ा मास्टर था। और वह रामकृष्ण को भी उसी तरह सिखाता था जैसे ि कवह दूसरों को अ, ब, स से सिखाता था। अतः रामकृष्ण बुरी तरह रोने लगते। फिर तोतापुरी कहता कि इस बचपने से काम नहीं चलेगा।
एक दिन रामकृष्ण ने कहा कि यह तो कठिन है, यह असंभव है। जब भी मैं आँख बन्द करता हूँ, काली की प्रतिमा होती है। और मैं उसके चरणों में झुका हूँ, और तुम कहते हो, इसे फेंक दो, काट दो, नष्ट कर दो। मैं ऐसा कैसे करूँ? मैं देवी की प्रतिमा को कैसे नष्ट करूँ? और फिर यह इतनी सुन्दर है और इसका अनुभव भी इतना प्यार है। और मैं ऐसी सुख मनःस्थिति में होता हूँ कि मैं इस जगत में होता ही नहीं।
तोतापुरी ने कहा कि यह सब भ्रम है, तुम्हारे मन का प्रक्षेपण है। अपने हाथ में एक तलवार उठाओ और प्रतिमा के दो टुकड़े कर दो। मार डालो। रामकृष्ण ने कहा कि लेकिन तलवार कहाँ से लाऊँ? तोतापुरी ने कहा कि वही से जहाँ से कि यह प्रतिमा लाये हो-अपने भीतर से, कल्पना से, जहाँ से तुम इसे नष्ट नहीं करते हो, तो फिर मैं चलता हूँ। और तुमने शपथ ली है कि जो मैं कहूँगा करोगे और मेरे पीछे चलोगे। इसलिए जो कहा गया है, वह करो। वरना मैं इसी क्षण विदा होता हूँ।
अतः रामकृष्ण ने आँखें बंद कीं। वे रो रहे थे, उनकी आँखों में से आँसू बह रहे थे। और तोतापुरी ने हँसते हुए कहा कि क्या मूर्खता है। क्यों रो रहे हो? कोई भी सत्य तक रोते हुए नहीं पहँच सकता है। पुरुष बनो और देवी को समाप्त कर दो। और त बवह एक कांच का टुकड़ा उठा लाया और रामकृष्ण के ललाट पर उससे काट दिया है, उसी तरह तुम भी भीतर काट डालो।
और रामकृष्ण ने प्रतिमा काट डाली। यह अति कठिन काम था। किसी भी भक्त ने कभी नहीं किया। यह पहली दफा किया गया। लेकिन कोई भी भक्त इस मार्ग पर नहीं चलेगा। इसकी कोई जरूरत भी नहीं है।
और तब रामकृष्ण ने कहा कि आखिरी बाधा गिर गई। वह ज्ञान के मार्ग पर आखिरी बाधा थी, इसलिए तोतापुरी प्रसन्न था, आनंदित था। उसने कहा कि अब तुमने पा लिया। अब तुम मोक्ष को प्राप्त हुए।
और दूसरे दिन रामकृष्ण काली के मंदिर में थे और रो रहे थे। और उन्होंने स्वयं कहा था कि आखिरी बाधा गिर गई। और तब तोतापुरी उन्हें छोड़कर चले गये। उन्होंने कहा कि तुम लाइलाज हो।
लेकिन यह कोई मामला चिकित्सा का नहीं है। वे सिर्फ उसी बिन्दु को कई मार्गों से पहुँचने की कोशिश कर रहे थे। वे छः माह के लिए मुसलमान हो गये। तब वे काली के मंदिर में भी प्रवेश नहीं करते थे, क्योंकि एक मुसलमान काली के मंदिर में कैसे घुस सकता था? इसलिए वे बाहर तक जाते और अपनी देवी के बारे में पूछताछ कर लेते और तब वापस चले जाते। वे मस्जिद में ही सोते और छः माह तक सूफी ढंग से साधना करते। उस समय के लिए वे मुसलमान थे। फिर एक दिन वे वापस हँसते हुए लौट आये और बोले कि मैं अब वापस आ गया हूँ। माँ, मैं वापस आ गया हूँ। मैं वहाँ मुसलमान विधि से भी पहुँच गया हूँ।
कभी-कभी ही ऐसा किया गया है। यह उपनिषद ऐसे आदमी का है जो कि दोनों रास्ते जानता था और गहराई से जानता था, इसलिए वह एक से दूसरे मार्ग की भाषा बदलता जाता है। और वे दोनों भाषाएँ विरोधी हैं। यदि तुम इस बात को समझ लो, तो फिर कोई उलझन नहीं होगी।
भगवान, आपने कहा कि जीवन विपरीत ध्रुवों में जीता है-जन्म और मृत्यु, शुभ और अशुभ, शान्ति और हिंसा, दया और निर्दयता, सुन्दरता और कुरूपता।
ऐसा लगता है कि ये विपरीत ध्रुव अपरिहार्य हैं, और होंगे ही। तब हम धर्म के द्वारा किस बात के लिए प्रयत्न कर रहे हैं? तब फिर आध्यात्मिक रूपान्तरण का क्या अर्थ होता है?
संत और पैगंबर एक आध्यात्मिक समाज व संस्कृति को निर्मित करने को बदलना चाहते हैं? और यदि हम एक स्वस्थ आध्यात्मिक समाज निर्माण करने में सफल हो जायें, तो दूसरी विरोधी ध्रुव की बातों का-जैसे निर्दयता, हिंसा तथा कुरूपता का क्या होगा?
यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण समस्या है और इसके बारे में बहुत गलत फहमी पैदा हुई है। इसलिए पहले तो इसे ठीक से समझ लो कि धर्म कोई नीतिशास्त्र, कोई नैतिकता नहीं है। नैतिकता उन सब के विरुद्ध काम करती रहती है जो कि अशुभ है, बुरा है, अनैतिक है, पाप है। इसलिए नैतिकता एक लड़ाई है, एक संघर्ष है, बुराई के खिलाफ। नैतिकता एक नैतिक संसार बनाने का प्रयत्न् कर रही है, जहाँ कि कोई अनैतिकता नहीं होनी चाहिए। यह असंभव है। केवल तुम बदल सकते हो, लेकिन सन्तुलन वही रहता है।
यह प्रकृति का एक गहनतम नियम है किवह दो विपरीत ध्रुवों में जीती है। यदि तुम एक को नष्ट करो, तो दूसरा भी नष्ट हो जाएगा। जिस संसार में कुछ भी अशुभ नहीं है, वहाँ कुछ भी शुभ भी नहीं होगा। जहाँ कोई पापी नहीं होगा, वहाँ कोई संत भी नहीं होगा। वे एक दूसरे पर भी निर्भर हैं। इसलिए नैतिकता से ऐसा संसार निर्मित नहीं हो सकता, जहाँ केवल शुभ ही हो। यह एक कभी पूरी नहीं होनेवाली आशा है। और यह कभी भी पूरी नहीं होगी। ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि इसका अर्थ बुनियादी नियम को ही अस्वीकार करना होगा।
अभी भौतिकशास्त्री कहते हैं कि पदार्थ है ही इसलिए क्योंकि कुछ है जो कि पदार्थ के विपरीत है, ऐण्टी-मैटर है। एक ऐण्टी-मैटर का समानान्तर जगत मौजूद है। प्रकृति एक सन्तुलन है, तुम उस सन्तुलन को नष्ट नहीं कर सकते। यदि तुम एक ही ध्रुव की बात पर जोर देते चले जाओ, तो दो बातें संभव होंगी- या तो तुम उसे और भी मजबूत कर दोगे, और तब दूसरा ध्रुवीय तत्व भी उतना ही मजबूत हो जायेगा। या तुम दूसरे को नष्ट कर दोगे। तब जिसे तुम मजबूत करने का प्रयत्न कर रहे हो, वह भी नष्ट हो जायेगा।
जीवन एक प्रकार का सन्तुलन है, इसलिए नैतिकता एक व्यर्थ प्रयास है। जब मैं ऐसा कहता हूँ तो मेरा मतलब यह नहीं है कि नैतिक न होओ, क्योंकि तब फिर तुम सन्तुलन बिगाड़ दोगे। इसलिए वही होओ जो कि तुम हो सकते हो।
धर्म बिल्कुल दूसरे ही जगत की बात है। धर्म कोई अशुभ के खिलाफ शुभ जगत निर्मित नहीं करता। धर्म तो एक संतुलित जगत निर्मित करने के पीछे है, न कि किसी चीज़ के खिलाफ। जहां कि शुभ और अशुभ दोनों ही सन्तुलित हो जाते हैं, वे दोनों एक-दूसरे को काट देत हैं। और जब कोई व्यक्ति न तो साधु होता है और न असाधु, तब वह संत होता है। यह एक सन्तुलन व्यक्ति है-न तो साधु है और न असाधु। बस एग कहरा सन्तुलन है, एक आंतरिक सन्तुलन है दोनों विपरीत ध्रुवों-विरोधी की शक्तियों में।
जब दोनों ध्रुव सन्तुलित हो जाते हैं, तो तुम दोनों के पार हो जाते हो। इसे इस तरह देखो : कभी-कभी तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम स्वस्थ हो। यह असन्तुलन है। कभी-कभी तुम्हें लगता है कि तुम अस्वस्थ हो। यह भी असन्तुलन है। कभी-कभी तुम्हें न तो स्वस्थता का बोध होता है, और न ही अस्वास्थ्य का, यही सन्तुलन है, एक आंतरिक सन्तुलन है दोनों विपरीत ध्रुवों-विरोधी की शक्तियों में।
जब दोनों ध्रुव सन्तुलित हो जाते हैं, तो तुम दोनों के पार हो जाते हो। इसे इस तरह देखो : ध्रुव सन्तुलित हो जाते हैं, तो तुम दोनों के पार हो जाते हो। इसे इस तरह देखो : कभी-कभी तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम स्वस्थ हो। यह असन्तुलन है। कभी-कभी तुम्हें लगता है कि तुम अस्वस्थ हो। यह भी असन्तुलन है। कभी-कभी तुम्हें न तो स्वस्थता का बोध होता है, और न ही अस्वास्थ्य का, यही सन्तुलन है।
यह महसूस करना कि तुम स्वस्थ हो, इसका अर्थ होगा कि तुम दूसरे छोर पर पहुँच गये। अब तुम रुग्ण होओगे। इसे याद रखो, जब भी तुम्हें मालूम पड़े कि तुम स्वस्थ हो, तो तुम किनारे पर ही हो, अब तुम बीमार पड़ोगे। ऐसा रोज़ होता है, लेकिन तुम्हें इसका बोध नहीं है। जब कभी तुम्हें लगता है कि मैं प्रसन्न हूँ, प्रसन्नता खो जाती है। जब भी तुम्हें किसी चीज की प्रतीति होती है, तो इसका अर्थ होता है कि तुम दूर चले गये। अब लौट आओ। सन्तुलन वापस पाना है, और उस सन्तुलन को पाने के लिए तुम्हें उसके विरोधी छोर पर लौटना पड़ेगा।
यह ऐसा ही है जैसे कि सरकस में एक आदमी रस्से पर चलता है, वह लगातार बायें से दायें और दायें से बायें डोलता रहता है। लेकिन क्या कभी तुमने ध्यान दिया कि जब भी वह एक तरफ ज्यादा झुक जाता है तो उसे फौरन दूसरी तरफ लौटना पड़ता है, सन्तुलन बनाने के लिए। ज बवह देखता है कि बायें अधिक चला गया है और अब वह गिरेगा तो इसे सन्तुलित करने के लिए उसे दायें जाना पड़ेगा।
हम सब उस रस्सी पर चलने वाले आदमी की तरह हैं-लगातार शुभ से अशुभ, अशुभ से शुभ, स्वस्थ से अस्वस्थ और अस्वस्थ से स्वस्थ की ओर जाते रहते हैं। बुद्ध पुरुष वह है जो कि रस्से से नीचे उतर गया है। अब उसे बायें या दायें नहीं जाना है। वह दोनों के पार चला गया है।
धर्म अतिक्रमण है।
बुद्ध पुरुष जानता है कि अशुभ को नहीं मिटाया जा सकता क्योंकि वह सन्तुलन का एक हिस्सा है। शुभ अकेला नहीं हो सकता। दोनों आवश्यक हैं। इन्हीं दोनों विपरीत ध्रुवों के बीच अस्तित्व खड़ा है। इसे देखकर इसको जानकर वह जो कि ज्ञानी है, वह सिर्फ अपने को सन्तुलित करता है-दोनों के बीच। काई चुनाव नहीं है। उसने अशुभ के विरुद्ध शुभ को नहीं चुना है। यदि तुमने शुभ को अशुभ के खिलाफ चुना है, तो आगे-पीछे तुम्हें अशुभ कोशुभ के खिलाफ चुनना पड़ेगा। क्योंकि तुम एक दिशा में आगे बढ़ गये, तो तुम्हें दूसरी दिशा में भी आगे बढ़ना पड़ेगा।
इसलिए संत पाप की ओर बढ़ते रहते हैं और पापी संतत्व की ओर बढ़ते रहते हैं। संतों के भी अपने पाप के क्षण होते हैं, और पापियों के भी अपने संतत्व के क्षण होते हैं। हर एक में संत व पापी दोनों की संभावना बनी हुई होती है। और जब कभी भी पाप ज्यादा बढ़ जाता है तो पापी उसको सन्तुलित कर लेता है। इसलिए जो जानते हैं, वे कहते हैं कि तुम चौबीस घंटे संत नहीं रह सकते। तुम नहीं रह सकते। यह बहुत ज्यादा है। यह उबा देगा और बोझ हो जाएगा, इसलिए इससे भी भागना पड़ता है। इसलिए संतों को भी अपनी तरकीबें होती हैं कि इससे कैसे बचा जाए।
तुम सारे समय पापी भी नहीं रह सकते। यह कठिन है, असंभव है। तुम नीचे गिर जाओगे। तुम मर ही जाओगे। तुम्हें वहाँ से हटना ही पड़ेगा। इसलिए कभी-कभी ऐसा होता है कि तुम पापियों को ऐसे साधु कर्म करते हुए पाओगे जैसे कि संत भी नहीं कर सकते। कभी-कभी पापी इतने संतों की तरह होते हैं कि विश्वास नहीं होता। लेकिन वे सब सन्तुलन करते हैं।
धर्म का शुभ और अशुभ से कोई संबंध नहीं है। किसी चुनाव से कुछ संबंध नहीं है। धर्म तो एक चुनावरहित अतिक्रमण है। अस्तित्व की इस विरोधता को जानते हुए, ज्ञानी, वह जो कि इस विरोध को जानता है वह चुनना ही छोड़ देता है। तब फिर वह न तो दायें जाता है, और न बायें जाता है। वह बीच में रहता है। बुद्ध ने इसे ‘मज्झिम निकाय’ कहा है-मध्य मार्ग। बुद्ध कहते है हैं कि मैं चुनाव नहीं करूँगा। मैं बीच में रहूँगा-बिल्कुल ठीक बीच में।
जब तुम चुनाव नहीं करते, तो तुम बीच में होते हो और तब तुम अतिक्रमण कर जाते हो। यह संभव है। ऐसा हो सकता है, या नहीं भी हो सकता है, किन्तु यह संभव है। एक ऐसा जगत संभव है जहाँ कि हम इस लगातार दायें से बायें चुनने के चक्कर से अतिक्रमण कर जायें। पाप और संतत्व शुभ और अशुभ, अच्छाई और बुराई में डोलते रहने का अतिक्रमण कर जायें-जिसमें कि यह सारा संसार सन्तुलित है। वही एक धार्मिक जगत होगा। वह नैतिक नहीं होगा, वह अनैतिक भी नहीं होगा। वह सिर्फ धार्मिक होगा। इसलिए यह धर्म कोई नैतिकता नहीं है। नैतिकता चुनाव है, किसी चीज के खिलाफ और किसी चीज के पक्ष में।
मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। एक बार मुल्ला नसरुद्दीन एक बहुत बड़े विद्वान को सुन रहा था। वह विद्वान एक बहुत बड़ा धार्मिक आदमी था। बड़ा धर्मगुरु भी था। अतः जब प्रवचन पूरा हो गया तो उस धर्मगुरु ने जो लोग वहाँ मौजूद थे, उन सबसे पूछा कि तुममें से स्वर्ग कौन जाना चाहता है? जो स्वर्ग जाना चाहते हैं, वे अपना हाथ खड़ा करें। सबने अपने-अपने हाथ खड़े कर दिये, मुल्ला नसरुद्दीन को छोड़कर और वह सामने की ही कतार में बैठा था।
ऐसा पहली बार ही हुआ था। उस धर्मगुरु ने यह सवाल बहुत से गाँवों में पूछा था और कभी ऐसा नहीं हुआ था कि जो सामने ही बैठा हो, उसने हाथ नहीं उठाया हो-स्वर्ग में जाने के लिए। इसलिए पहली बार उसे दूसरा सवाल पूछना पड़ा। उसने वह सवाल पहले कभी नहीं पूछा था। उसने पूछा कि नर्क में कौन जाना चाहता है? जो नर्क जाना चाहते हैं अब वे अपना हाथ उठायें। किसी ने भी हाथ नहीं उठाया। मुल्ला नसरुद्दीन ने भी नहीं उठाया। तब उस विद्वान ने पूछा कि तुम मेरी बात सुनते भी हो? क्या तुम बहरे हो? कहाँ जाना चाहते हो तुम? मैंने स्वर्ग के लिए पूछा, तुम चुप रहे, मैंने नर्क के लिए पूछा और तुम तब भी चुप रहे। आखिर तुम जाना कहाँ चाहते हो?
मुल्ला ने जवाब दिया कि बस दोनों के बीच में। मैं कहीं भी नहीं जाना चाहता क्योंकि मैं जानता हूँ उनको जो कि स्वर्ग जाते हैं और नर्क में गिर जाते हैं। मैं नर्क भी नहीं चुनता क्योंकि नर्क से तुम फिर कहाँ जा सकते हो? तुम सिर्फ स्वर्ग ही जा सकते हो। इसलिए संभव हो, तो कृपया मुझे दोनों के बीच में ही रहने दें। तभी मैं शान्ति से रह सकूँगा। अन्यथा तो असंभव है। स्वर्ग में नर्क आकर्षक हो जाता है। नर्क में स्वर्ग का आकर्षण खींचता है। इसलिए यदि संभव हो तो मुझे दोनों के बीच में रहने दें।
अचुनाव का यह ढंग है। धर्म अचुनाव है, चुनाव रहितता है। लेकिन हम चाहें तो नैतिकता की भाषामें सोचते रह सकते हैं। और उसे धर्म समझने की भूल कर सकते हैं। नैतिकता रोजमर्रा की बात है। और नैतिकता से तुम नैतिक जगत नहीं बना पाये। वस्तुतः आदमी जितना अधिक नैतिकता के प्रतिजागरूक होता है उतनी ही अनैतिकता बढ़ती चली जाती है। असल में मामला यह है कि तुम नैतिकता के प्रति अत्यधिक सजग हो गये हो। संसार अनैतिक नहीं हुआ है, आदमी नैतिकता के प्रति अधिक सजग हो गया है। इसलिए संसार इतना अनैतिक दिखलाई पड़ता है। यह एक सन्तुलन है।
अभी हम युद्ध की सब जगह निंदा कर रहे हैं। अब युद्ध समग्ररूप से अनैतिक बात है। क्या तुम्हें पता है कि इतिहास में पहले हमने युद्ध को इतनी निंदा कभी नहीं की? हमने युद्ध लड़े हैं, लेकिन हमने उनकी कभी निंदा नहीं की। पहली बार हमने युद्ध की इतनी निंदा की है और और हम एटम बम बना रहे हैं। ये दोनों बातें सन्तुलित कर रही हैं। जितना युद्ध अधिक संघातक हो जायेगा, उतने ही अधिक हम युद्ध के विरुद्ध हो जायेंगे। और जितने हम विरुद्ध हो जायेंगे, उतने ही अधिक युद्ध संघातक हो जायेंगे
इसलिए जिस बात को तुम जितना मना करते हो, उतना ही तुम उसे निर्मित भी करते हो। दुनिया इतनी गरीब कभी भी न थी। और हम एटम बम बना रहे हैं। ये दोनों बातें सन्तुलित कर रही हैं। जितना युद्ध अधिक संघातक हो जायेगा, उतने ही अधिक हम युद्ध संघातक हो जायेंगे।
इसलिए जिस बात को तुम जितना मना करते हो, उतना ही तुम उसे निर्मित भी करते हो। दुनिया इतनी गरीब कभी भी न थी। और जब मैं यह बात कहता हूँ तो मेरा मतलब है कि दुनिया अपनी गरीबी के प्रति इतनी सजग कभी भी नहीं थी। दुनिया सदा से गरीब थी, आज से भी ज्यादा गरीब। दुनिया हमेशा ही इससे भी ज्यादा गरीब थी। जितने पीछे हम जाएँ उतनी ही गरीब दुनिया हमें मिलेगी। लेकिन गरीबी स्वीकृत थी, और धनवान होना अनैतिक नहीं था। अब धनवान होना अनैतिक हो गया है। धनवान आदमी अपने को अपराधी समझता है। और तुम्हारे पास में जो गरीब रहता है, वह तुम्हारा पाप है। पहली बार हम इतने अधिक नैतिकवादी हुए है कि धनी होना भी अपराध है और चारों और जो गरीबी है, वह धनिकों के द्वारा किया गया पाप है।
यह एक बात है : बहुत अधिक सजगता, बहुत अधिक इसका बोध, बहुत अधिक नैतिकता। और साथ ही, जो गरीब थे, वे और भी गरीब हो गये हैं। आर्थिक दृष्टि से वे नहीं हुए, लेकिन अब गरीबी उनकी छाती पर बोझ जैसी लगती है। अतः जो भी हम करें, वह दो दिशाओं में चला जाता है। वह दोनों तरफ एक साथ बराबर चढ़ जाता है, और उसके कारण हमेशा एक सन्तुलन निर्धारित हो जाता है।
धर्म कोई समृद्ध जगत के लिये नहीं है। क्योंकि समृद्ध जगत गरीबी-गहन गरीबी के बिना हो नहीं सकता। सभी आयामों में तुम परिस्थिति बदल सकते हो, नये नाम दे सकते हो, और तब वही बात नया मुखौटा पहने फिर खड़ी हो जाएगी। धर्म तो एक सन्तुलित जगत के लिए है-न अमीर, न गरीब। इसे समझने की कोशिश करें : न अमीर, न गरीब, बल्कि एक सन्तुलित संसार जहाँ कि कोई भी गरीबी के प्रति सजग नहीं है; और न कोई धन के प्रति सजग है। इसलिए एक धार्मिक जगत, एक बहुत ही गहन घटना है। यह एक असंभव क्रान्ति जैसी प्रतीत होती है। ये ध्रवीय-विपरीततायेंह ैं और वे सदैव होंगी। तुम केवल इतना ही कर सकते हो कि तुम इनका अतिक्रमण कर जाओ।
उदाहरण के लिए, हम इसको एक दूसरी दिशा से देखें। आदमी सदा से मृत्यु से लड़ रहा है। मनुष्य का सारा इतिहास कुछ नहीं है, बल्कि मृत्यु के विरुद्ध युद्ध है। वैद्यक का इतिहास, मानव-मन का इतिहास, मृत्यु के खिलाफ लड़ाई है। अभी मने जीवन को लम्बा कर दिया है। अब आदमी ज्यादा-से-ज्यादा जी रहा है, किन्तु कोई भी मानव समाज मृत्यु से इतना डरा हुआ नहीं था, जितने कि हम डरे हुए हैं। अब, उन्होंने पश्चिम में इस पृथ्वी पर लम्बी-से-लम्बी जिन्दगी खोज ली है।
हमने सुना है और हम बात भी करते रहते हैं कि पुराने समय में, स्वर्ण युग में मनुष्य सौ साल तक जीता था। यह कोई तथ्य नहीं है। यह सिर्फ एक कल्पना है। लेकिन इसके पीछे भी वास्तविकता छिपी है। हर एक आदमी को ऐसा लगता था ि कवह सौ साल जी लिया क्योंकि पीछे कोई गिनता नहीं था। गिनना तो एक नई बात है। किसी का जन्म-दिन याद रखना बिल्कुल नई बात है। लेकिन, स्मरण रहे, जब भी तुम जन्म-दिन याद करोगे, मृत्य-दिवस भी सदा तुम्हारे सामने उपस्थित रहेगा।
कोई भी पशु मृत्यु से भयभीत नहीं है क्योंकि कोई भी पशु जन्म के प्रति सजग नहीं है। अविकसित समाज मृत्यु भी वैसे ही होती है, जैसे जन्म होता है, और इसमें किसी प्रकार की गिनती नहीं होती ि कवे कितने समय तक जिये। जितनी बारीक तुम्हारी गिनती होती है, उतने ही अधिक तुम मृत्यु से भयभीत हो जाते हो। अभी अमेरिका मृत्यु की गिरफ्त में है। सभी हैं, लेकिन अमेरिका सबसे ज्यादा है मृत्यु की पकड़ में क्योंकि समय का बोध शिखर पर पहुँच गया है। हर कोई ही सजग है। लम्बी-से-लम्बी जिन्दगी संभव है, लेकिन तब मृत्यु बहुत ज्यादा डरावनी हो जाती है। क्यों? यह एक गहरा सन्तुलन है।
यदि तुम अपने जीवन को लम्बाते जाओ तो तुम अपनी मृत्यु को भी लम्बा कर दोगे। यदि तुम लम्बे समय तक जीते हो, तो तुम्हारी मृत्यु भी लम्बा मामला ही जायेगा। दोनों साथ-साथ ही बराबर बढ़ते हैं। तुम बच नहीं सकते, तुम चुनाव नहीं कर सकते।
वास्तव में, हमने बीमारियों से लड़ने के सारे संभव उपाय खोज लिये हैं। लेकिन फिर भी आदमी बीमार है- पहले से अधिक बीमार है। क्यों? क्यों तुम्हारी दवाइयों की खोज की दिशा में की गई प्रगति, बीमारी की भी प्रगति हो जाती है?
कार्ल गुस्ताव जुंग ने एक बड़ा अद्भुत विचार प्रस्तुत किया है। वह उसे ‘सिन्क्रोनिसिटी’ कहता है। वह कहता है कि जो कुछ भी किया जाता है उसके समानान्तर जगत भी बनता जाता है। और तुम कुछ भी नहीं कर सकते। यदि ज्ञान बढ़ता है, तो अज्ञान भी गहरा होता जाएगा। यदि स्वास्थ्य बढ़ता है तो बीमारियाँ भी बढ़ेंगी।
यदि तुम अच्छे हो जाते हो, तो कहीं कोई बुरा हो जाता है। और उसमें कोई भी गलत बात नहीं है, यह सिर्फ सन्तुलन है। यह संसार सिर्फ अच्छे सन्तुलन है। यह संसार सिर्फ अच्छे आदमियों से ही नहीं चल सकता। तब यह संसार एक बहुत उबाने वाला हो जाएगा। क्या तुम एक ऐसे संसार की कल्पना कर सकते हो, जिसमें सिर्फ महात्मा-ही-महात्मा हों? सारा संसार फिर आत्महत्या कर लेगा, क्योंकि तब एक दिन के लिए जीना भी इतना मुश्किल मामला होगा। चारों तरफ महात्मा-ही-महात्मा। तुम उनके मारे ही मर जाओगे।
जीवन एक सतत द्वन्द्वात्मकता है। उस विपरीत छोर से ही उसमें समृद्धि आती है। क्योंकि दोनों विपरीत छोर एक साथ जीते हैं। धर्म इन दोनों में चुनाव नहीं करता है। धर्म सिर्फ इस द्वन्द्वात्मक को समझता है और तब अचुनाव का रूख रखता है, कुछ भी चुनना नहीं है।
एक धार्मिक आदमी चुनाव नहीं करता। वह बिना चुने ही रहता है। यदि वह स्वस्थ है तो वह स्वस्थ है, यदि वह बीमार है, तो वह बीमार है। जब वह बीमार है, तो वह अपनी बीमारी में प्रसन्न है। तब वह स्वास्थ्य के लिए आकांक्षा नहीं करता। जब वह स्वस्थ है, तो वह अपनी स्वस्थता से प्रसन्न है। वह उसके प्रति भी सजग नहीं है। वह इन दोनों विपरीत ध्रवों में आराम से घूमता रहता है-बिना किसी चुनाव के। और धीरे-धीरे उसका कंपन, उसका घूमना कम हो जाता है। वह कंन छोटा, और छोटा, और छोटा हो जाता है। और एक क्षण ऐसा आता है कि फिर कोई हलन-चलन नहीं होती, कोई कंपन नहीं होता। यह निश्चलता इस अ-चुनाव से ही आती है। यदि तुम चुनाव करते हो, तो तुम कंपोगे। तुम यहाँ-वहाँ डोलोगे। यदि तुम चुनाव करते हो, तो तुम विपरीत को निर्मित कर दोगे।
यह बड़ा विरोधाभासी लगता है, लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि अच्छे बनने की कोशिश मत करो, वरना तुम बरे हो जाओगे। कुछ भी होने की चेष्टा मत करो वरना तुम उसके बिल्कुल विपरीत हो जाओगे। बिना किसी चुनाव की स्थिति में रहो। अ-चुनाव का रुख रखो। जो भी होता है, उसे होने दो; उसे होने देने में मदद करो।
यह बहुत कठिन है। यदि क्रोध आता है, तो उसे होने दो, चुनाव मत करो। यदि प्रेम घटित होता है, तो उसे होने दो, चुनाव मत करो। और जल्दी ही एक दिन ऐसा आएगा, जबकि न क्रोध आएगा और न प्रेम घटित होगा। यदि तुम चुनाव करते हो, तो तुम पकड़ में हो। तब तुम चक्र में हो, और तब पकड़ स्वचलित है। तब तुम एक से दूसरे में बदलते रहोगे। और यह एक सतत दोहरानेवाली प्रक्रिया रहेगी। तब सारा जीवन ही एक कंपन, एक बिन्दु से दूसरे पर जाना हो जाना है। रस्से पर सरकसबाजी मत करो; उससे नीचे उतर जाओ।
इसे इस तरह से देखो, तुम जमीन पर चल रहे हो। तुम एक संकरी पट्टी पर भी चल सकते हो। हम एक पट्टी चॉक से बना देते हैं-जमीन पर एक सफेद पट्टी और तुम उस पर चल सकते हो, बिना दायें गये कि बायें झुके। क्यों? अब हम दो मकानों के बीच उतनी ही चौड़ी पट्टी लगा देते हैं, उनकी छत्तों से। अब उस पर चलो। तुम उस पर नहीं चल सकोगे। तुम जमीन पर उतनी ही पट्टी पर बड़ी आसानी से चल सकते थे संतुलन बनाकर। लेकिन जब उतनी ही बड़ी पट्टी दो छातों से लगा दी गई है तो तुम एक कदम भी नहीं चल सकते। क्यों?
अब तुम सजग हो गये हो कि तुम नीचे भी गिर सकते हो। अब तुमने कुछ चुनाव कर लिया है, तुमने नीचे नहीं गिरने का चुनाव किया है। अब तुम आराम से नहीं चल सकते। चुनाव है कि नीचे नहीं गिरना है। तुमने चुनाव कर लिया है। इस चुनाव के कारण ही हर एक कदम गिरने की तरफ होगा। इसलिए तुम्हें बायें और दायें चलना पड़ेगा सन्तुलन बनाये रखने के लिये।
जीवन एक रस्सी है- एक कहुत संकरी रस्सी। यदि तुम चुनाव करते हो, तो तुमने यहां-वहां जाने को चुन लिया, कंपन को चुन लिया। न तो अच्छा न बुरा-वही एक शुभ है। न यह न वहा, यही एक मात्र धर्म है। उपनिषदों ने कहा है- ‘नेति, नेति,’ न यह, व वह। तुम चुनाव मत करो। यह एक बिना प्रयासरहित समझना है। यह सिर्फ एक सरल समझ है।
भगवन्! अंतर्राष्ट्रीय नव-संन्यास में आप क्या कर रहे हैं? क्या आजा की दुनिया की अधार्मिक स्थिति का सन्तुलन कर रहे हैं, अथवा आप दूसरा विपरीत ध्रुव निर्मित कर रहे हैं?
दूसरा विपरीत ध्रुव निर्मित नहीं किया जा सकता क्योंकि नव-संन्यास कोई चुनाव नहीं है। यह संसार के विपरीत नहीं है। यदि संन्यास संसार के विपरीत हो, तो यह चुनाव है। इसलिए यदि संन्यास संसार के विरुद्ध है तो हम एक बहुत ही सांसारिक समाज निर्मित कर देंगे। हमने ऐसा भारत में किया है। ये पाँच हजार साल भारत में संन्यास के लिए जान-बूझकर चुनाव के थे। त्याग के। त्याग, संन्यास लक्ष्य था। और भारतीय मन को देखो-सर्वाधिक सांसारिक है-सारे संसार में। क्यों? क्योंकि हमने निरपेक्ष रूप से एक अलग समाज निर्मित करने की कोशिश की। लेकिन भारतीय मन को देखो : सबसे अधिक लोभी। हम कहते रहे कि धन का मतलब कुछ भी नहीं होता वह मिट्टी है, और देखो हमारे समाज को-धन ही वहाँ सब कुछ है।
ऐसा क्यों हुआ? यह एक जान-बूझकर किया गया चुनाव था। हम संसार के विरुद्ध बातें करते रहते हैं। और सांसारिक ढंग से जीते रहते हैं।
यही बात लौटकर उलटी तरह से पश्चिम में होगी। उन्होंने संसार को चुना है, और अब उनके बच्चे संसार के खिलाफ जा रहे हैं। समाज के खिलाफ, संस्था के खिलाफ, उस सबके खिलाफ जा रहे हैं जो भी कीमती है। अमेरिका का धन के पक्ष में खड़ा हुआ और उसके बच्चे हिप्पी हो रहे हैं। वे धन के विरुद्ध हैं। अमेरिका एक साफ-सुथरा समाज था-सफाई, स्वच्छता को परमात्मा के बाद नम्बर दो पर जगह दी जाती थी, और अब हिप्पी इसके खिलाफ जा रहे हैं। वे सर्वाधिक गन्दे हैं।
क्यों? यदि तुम किसी भी चीज़ के खिलाफ जाते हो, तोकुछ न कुछ ऐसा होगा जो कि उसे सन्तुलित करेगा। यदि तुम धन को चुनते हो, तो तुम्हारे बच्चे धन के खिलाफ होंगे। यदि तुम कोई दूसरा संसार चुनते हो तो तुम्हारे बच्चे यह संसार चुनेंगे।
नव-संन्यास कोई चुनाव नहीं है। यह एक गहरी स्वीकृति है, न कि चुनाव। ने तो ये पक्ष में ही है, और न विपक्ष में। यह एक गहरी समझ है-दोनों के बीच में रहने की। चुनना नहीं, सिर्फ जीना। चुनना नहीं, मात्र बहना। यदि तुम बह सको अपने भीतर एक गहरी स्वीकृति से तो देर-अबेर वह दिन आयेगा जब कि तुम दोनों का अतिक्रमण कर जाओगे। संसार और संन्यास-दोनों का। मेरे लिए संन्यास का अर्थ त्याग नहीं, बल्कि अतिक्रमण है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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