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रविवार, 2 दिसंबर 2018

सहज मिले अविनाशी-(प्रवचन-01)

सहज मिले अविनाशी-(अंतरंग वार्ताएं)

पहला प्रवचन

कविता और काव्य


घर में मैं दिन भर खोज कर कुछ नहीं पा सका, उस अंधेरे में तुम क्या खोजोगे? लेकिन आ गए हो तो कविता सुन कर जाना।

तुम एक ही लिबास नहीं पहन सकते
तुम एक ही लिबास नहीं पहन सकते, और वह है सफर
यानी मैं सफर पहनता हूं
यानी आज सत्ताइस बरस के इस अर्सये बे जमीन पर
महज सफर पहन कर चलता रहा हूं
और वह मैं हूं।
तुम नहीं देख सकते दिमाग के पीछे उस रोशनी को
तुम नहीं देख सकते दिमाग के पीछे उस रोशनी को

जिसके अनदेखे धब्बे कहीं चकरा रहे हैं
जिसके अनदेखे धब्बे कहीं चकरा रहे हैं
तुम नहीं देख सकते दरख्तों की उन चोटियों को

जो रुकी हुई हैं, चलती नहीं हैं
लेकिन मैं चल रहा हूं,
सत्ताइस साल से चल रहा हूं।
मैं उनमें से नहीं हूं
जो प्रेमिकाओं से मिलने से पहले ही
एक साल तक महज फूलों के नाम याद करते रहे

या वे लोग जो महज इस फिक्र में घुल गए
कि उनका अपमान क्यों किया गया?
मैं जहां हूं वहां जिंदगी रफ्तार को दोहराती है
मैं जहां हूं वहां जिंदगी रफ्तार को दोहराती है
और मैं वहां भी हूं
जब मौत के बाद रफ्तार बहुत तेज हो जाती है
तुम एक ही लिबास नहीं पहन सकते, और वह है सफर।

अब मैं वेणु गोपाल जी से प्रार्थना करूंगा--
इनकी जितनी कविता थी, मैं उतने में दो कविता सुना देता हूं।

बहुत बढ़िया।

रिहायत दे रहे हैं थोड़ी सी।

नाप से कविता नापते हो। ठीक है। चलो।

नहीं सुनाने के उससे।

अक्सर लोग क्या करें, पूछते हैं
और अंधेरे की बातें करते हैं।
अक्सर लोग क्या करें, पूछते हैं
और अंधेरे की बातें करते हैं।
मगर कहां है अंधेरा?
अब तो पानी की धार की तरह साफ हो चुका है क्षितिज
अब तो पानी की धार की तरह साफ हो चुका है क्षितिज
सिर्फ कंधों पर लाद कर भागना बाकी है।
सिर्फ कंधों पर लाद कर भागना बाकी है।

यह कविता है।
दूसरी है--

मुझे हरगिज नहीं पूछना चाहिए था प्रश्नों से
मुझे हरगिज नहीं पूछना चाहिए था प्रश्नों से
कि क्या ये रास्ते उत्तरों तक ले जा सकेंगे?
सुन कर आस-पास के पेड़ तक हंस पड़े थे
अट्टहास कर अघटित की तहें खुलने लगी थीं
अघटित की तहें खुलने लगी थीं
रास्ते उठ कर खड़े हो गए
अपने को अपमानित महसूस कर
रास्ते उठ कर खड़े हो गए
अपने को अपमानित महसूस कर
और रुई के गालों की तरह उड़ गए
शून्य में धुंधलाइत होते हुए
उमरों के मूल्य नामी सत्य
उमरों के मूल्य नामी सत्य

सूखी देहों में टीन के कनस्तर से बजने लगे।
उमरों के मूल्य नामी सत्य,
सूखी देहों में टीन के कनस्तर से बजने लगे।
पावों में लिपटी हुई गति
पावों में लिपटी हुई गति
धीरे-धीरे अपनी गुंजलक खोल
सम्मोहित सी सरक गई
उन आवाजों की ओर
धीरे-धीरे अपनी गुंजलक खोल
सम्मोहित सी सरक गई
उन आवाजों की ओर
बाहों में सिमटी हुई मांसल वर्तुलताएं
कसमसाने लगीं अलग होने को
चांद और सूरज दोनों ने
अस्वीकृति में सिर हिला दिया
असमर्थता प्रकट कर दी
साथ-साथ चलने में आकाश दबे पांव दूर हट गया
आकाश दबे पांव दूर हट गया
तो समय पर बोझा पड़ा
और वह किसी कमजोर लकड़ी की तरह चरमराने लगा
आकाश दबे पांव दूर हट गया
तो समय पर बोझा पड़ा
और वह किसी कमजोर लकड़ी की तरह चरमराने लगा
और मैं दौड़ पड़ा बेतहाशा
कुछ पूर्व निर्धारित कल्पित पड़ावों की ओर
अपनी आधी मूकता को गुहारते हुए।

हूं, हूं, बहुत अच्छी। वाह! और भी है!

अंधेरे गलियारे में मैं हूं
और मिट्टी की सोंधी उबकमें गौरिए के बच्चे सा कांपता मेरापन
मैं उसे खरगोश की तरह सहेजना चाहता हूं
कि वह छिपा-छिपा काला कंकाल मुझे रक्त की रक्तिम रेखाओं में बांध रहा है
खेलते-खेलते दिन बहुत हो गए
रातें बूढ़ी हो गईं
वृक्ष झुक गए
अपनी डालियों से जड़ों में पड़ी गांठें खोलने के लिए
सब साए आकाश पी गया
खेल चलता ही रहा
कितनी बार मैं उससे अलग होकर शहरों में आया
हर बार मुझे सम्मान दिया गया
मेरे सम्मान में पंक्तिबद्ध ज्यामिति के कोण बनाती हुई टुकड़ियों ने कवायद की
परेड थम, और एक लिंगी संसार नपुंसक हो गया।
उसी से मिलने मैं आज आया हूं वर्षों बाद
लेकिन काले समुद्र में तैरती कौड़ियां
मुझे पहचानने से इनकार कर रही हैं
कौन मेरी पैरवी करेगा?
ये खारे कगार मैंने ही खड़े किए हैं
वो ठंडक मैं ही श्मशान की बियाबान रातों से चुरा लाया था
मैं उसे सहेज रहा हूं
अंधेरे गलियारे का साथी दूर भागा जा रहा है
कान में सीटी मार कर
परेड थम, अच्छा वक्त हो गया,
ईंटों को सरका दो।

बड़ा अच्छा! बहुत अच्छा!

कृष्ण कल्याण जी से कहूंगा--

आज मेरे पास नई कविता है, शीर्षक हैः ‘आ मिलूंगी प्राण तुमसे।’

जब क्षितिज की बांसुरी से
जब क्षितिज की बांसुरी से
स्वर मधुर रिमझिम झरेंगे
जब क्षितिज की बांसुरी से
स्वर मधुर रिमझिम झरेंगे
जब युगों की प्यास के स्वर
जब युगों की प्यास के स्वर
तृप्ति का अमृत धरेंगे
इंद्रधनुषी रंग लेकर
इंद्रधनुषी रंग लेकर
गीत धीरज के सुनाती
कोकिला के मधु स्वरों में
आ मिलूंगी प्राण तुमसे।
आ मिलूंगी प्राण तुमसे।

स्वर्ण की परियां
स्वर्ण की परियां प्रतीची में
सुभर दीवट सजाए
स्वर्ण की परियां प्रतीची में
सुभर दीवट सजाए
जब निराश्रित सी लहर में
जब निराश्रित सी लहर में
ज्योति को अपनी मिलाए
रंग स्वप्निल से बिखरतीं
रंग स्वप्निल से बिखरतीं
लीन उसमें हो रहेंगी
द्वार मैं भूली पवन सी
आ मिलूंगी प्राण तुमसे
आ मिलूंगी प्राण तुमसे...

जब निराश्रित ओ पराजित
जब निराश्रित ओ पराजित
हार कर सर्वस्व अपना
जब निराश्रित ओ पराजित
हार कर सर्वस्व अपना
तुम व्यथित, चिंतित, ठगे से
तुम व्यथित, चिंतित, ठगे से
वार दोगे अंतस अपना
बाट में अवसान की
बाट में अवसान की
नतग्रीव हो बैठें विकल से
तब नया जीवन सजाए,
आ मिलूंगी प्राण तुमसे...

आज तो मन चाहता है
आज तो मन चाहता है
बांह में यह काल भर लूं
आज तो मन चाहता है
बांह में यह काल भर लूं
एक ही क्षण के मिलन हित
एक ही क्षण के मिलन हित
मृत्यु को भी आज वर लूं
आज मैं मजबूर
आज मैं मजबूर
होती दूर सारस सा समय यह
आज मैं मजबूर
होती दूर सारस सा समय यह
कल कहीं ठहरे न ठहरे
पर मिलूंगी प्राण तुमसे।
आ मिलूंगी प्राण तुमसे।

कालीचरण की रचना हैः ‘शस्य-श्यामला।’ चित्रण है--

ऊर्वरा है ये धरा, पुनीत ये वसुंधरा
ऊर्वरा है ये धरा, पुनीत ये वसुंधरा
समुद्र के वसन लहर, पर्वतीय वक्ष पर
सूर्य रश्मियां चमक-चमक रहीं, प्रखर-प्रखर
समुद्र के वसन लहर, पर्वतीय वक्ष पर
सूर्य रश्मियां चमक-चमक रहीं, प्रखर-प्रखर
है उदय पुनीत सा, तो अस्त भी है रंग भरा,
उर्वरा है ये धरा, पुनीत ये वसुंधरा...

मखमली ये क्यारियां, उच्च वृक्ष झारियां
झिलमिलाते झील, ताल, निर्झरी खुमारियां
मखमली ये क्यारियां, उच्च वृक्ष झारियां
झिलमिलाते झील, ताल, निर्झरी खुमारियां
सुप्रवाहिता नदी श्वेत तो निलंबरा
ऊर्वरा है ये धरा, पुनीति ये वसुंधरा...
मखमली ये क्यारियां, उच्च वृक्ष झारियां
झिलमिलाते झील ताल निर्झरी खुमारियां
सुप्रवाहिता नदी श्वेत तो निलंबरा
ऊर्वरा है ये धरा, पुनीत ये वसुंधरा...

आज एक बात है, दुश्मनों की घात है
यूं निकलते दिन पे आज बढ़ चली जो रात है
आज एक बात है, दुश्मनों की घात है
यूं निकलते दिन पे आज बढ़ चली जो रात है
हो सजग जुटो अभी, स्वार्थ छोड़ कर जरा
ऊर्वरा है ये धरा, पुनीत ये वसुंधरा...
ऊर्वरा है ये धरा, पुनीत ये वसुंधरा...
चरण हैं--
अब सतर्क हो चलो
खून की कहानियां, अब लिखे जवानियां
भेंट में स्वतंत्रता की दो सभी निशानियां
खून की कहानियां, अब लिखे जवानियां
भेंट में स्वतंत्रता की दो सभी निशानियां
धान के ही खेत में है कीमती सोना भरा
ऊर्वरा है ये धरा, पुनीत ये वसुंधरा...

अब सतर्क हो चलो, सिंह की तरह पलो
दुश्मनों के झुंड को रोंद दो दलो-दलो
अब सतर्क हो चलो, सिंह की तरह पलो
दुश्मनों के झुंड को रौंद दो दलों-दलों
उनके सर उतार दो, जिनमें द्रोह हो भरा
ऊर्वरा है ये धरा, पुनीत ये वसुंधरा
ऊर्वरा है ये धरा, पुनीत ये वसुंधरा...

यह है महात्मा गांधी के एक हत्यारे को, या उस सिलसिले में किसी को रिहा कर दिया गया था, और पूना में उसको फूलमालाएं पहनाई गई थीं, तो उस सिलसिले में खयाल जगा था, तो ऐसे ही लिखने बैठ गया था--

जमना के किनारे बस्ती में
जब वह खून से लिथड़ी शाम
जब वह खून से लिथड़ी शाम, मुझे अब तक न भुलाए भूली है
जब वह खून से लिथड़ी शाम, मुझे अब तक न भुलाए भूली है
जमना के किनारे बस्ती में, इंसा ने जो दागी गोली है।
कि धरती पर हवाएं चीख उठीं, सागर की जुबानों ने पूछा
इंसा की जुबां से जो निकली, हे राम! वह कैसी बोली है?
कि हे राम! वह कैसी बोली है? यह राज अभी तक राज ही है
और मैं सोच रहा हूं आज भी, यह क्या दर्द न उस आवाज में है
क्या दर्द न उस आवाज में है, क्यों राज अभी तक राज में है
ऐ खून से लिथड़े हाथ कहो, क्या दर्द न उस आवाज में है
क्यों खून शराफत करके भी, हम खुद को मोहज्जीब कहते हैं
इंसा के लहू की जिसमें महक, क्यूं नाज उसी पर करते हैं
क्यूं नाज उसी पर करते हैं, जो बायसे फक्रोनाज नहीं
इबलीस पर तोहमत ठीक मगर, आदम के भी कम अंदाज नहीं।
हम बायसे फक्रोनाज नहीं, इन खूनी हाथों के होते,
सकते हैं हमें अब नाज नहीं, इन गंदे जहीनों के होते
तो फारूख उठो, इंसाफ करो, विक्रम के सिंहासन तुम बोलो
हैं खून का बदला खून यहां, जहांगीर जबां अपनी खोलो।
ऐ अहले चमन क्यों ओंठों पर है, सबकी ये मोहरे खामोशी
क्यूं आज बुतों के मानिंद हम यह देख रहे हैं गुलपोशी
तो मुस्लिम है कुराने पाक कहां, यंजीर कहां पर ईसाई
हिंदुओ तुम्हारे वेद कहां, गुरुग्रंथ कहां पर सिख भाई?
क्या इनमें कहीं पर लिखा है, आवाज खिलाफे जुल्म न हो
हो नील का चलना बंद अगर, न हुक्म खलीफाये दूवम हो
क्या वक्त की साजिश के हाथों हम अपनी हकीकत बेच चुके
इंसाफ का परचम फाड़ चुके, इस खून की गैरत बेच चुके
क्या आज वतन में मेरे कोई, तौहीकपरस्त खुद्दार नहीं
जो बांगे खुदा इंसाफ करे, सरकम जो करे, सरेदार नहीं
मैं ऐसे जहां पर से सक्ते हर एक इमामत कर दूंगा
बोसों से खवाएं भर दूंगा, सजदों से जमीं शक कर दूंगा
मैं जोशे मशर्रक में लिल्लाह, आदम को खुदा तक कह दूंगा
और भूले से खुदा गर रोकेगा, मैं उससे बगावत कर दूंगा।
मैं उससे बगावत कर दूंगा, इंसान की अजमत की खातिर
तौहीने खुदी करने के लिए, इस मुल्क से साजिश की खातिर
इस मुल्क की अजमत-गैरत का बरदाश्त नहीं नीलाम मुझे
और अब तक न भुलाए भूली है वह खून से लिथड़ी शाम मुझे।

मैं एक लंबी, बहुत लंबी चीज सुनाता हूं।
लड़ाई चल रही थी, तो लड़ाई के अंदर सब, मैं भी चीनी शायर बन गया था। तो एक जख्मी सिपाही है, उसके नाम पर एक खत लिखा था कि भाई उसने, देशवासियों से खत लिखा है, दोस्त उसका जवाब देता है। बहुत लंबी है, मैं पढ़ नहीं पाऊंगा इतनी लंबी शायद--

कि कसम मैदाने जंग में मरने वाले हर सिपाही की
कि कसम मैदाने जंग में मरने वाले हर सिपाही की
और कसम उन माओं, बीबी, बेटियों की ठंडी आहों की
और कसम उस खून की जो जम गया है बर्फ के ऊपर
और कसम जन्नत में की अपने वतन के नाखुदाओं की
वतन वालो बा आवाजे बुलंद ऐलान कर दो अब
नहीं बरदाश्त हमको है, फलक बिजली गिराना अब
और निगाहें फेर ले दुनिया के दस्तूरे चमन बदला
और चमन के कानादारों ने अमन का पैरहन बदला
किसी ने गर छुई सरहद तो सर तन से जुदा होगा
जमीं न दफ्न को होगी, न लाशों को कफन होगा
और कयामत से कहीं पहले कयामत का चलन होगा
वो मंजर देख कर हैरां जिसे चरखे कहन होगा
कि यह है आरजू अपने वतन के उस सिपाही की
कि जिसने जोरे बाजू से बदल दी रह तबाही की
कि जिसने खून से धो दी हर एक घाटी हिमालय की
कि जिसकी मौत ने इज्जत बढ़ा दी मुल्क वालों की
लिखा है ऐ वतन वालों मुझे देना यकीं होगा
मैं मरता जिसकी खातिर हूं, नहीं मकसद फना होगा
अगर होगा तो बस ये कि वतन ये सर्खुरू होगा
रहेगा मुल्क जिंदा और दुश्मन सिर निगूं होगा
कि जिन कदरों की मैंने जान देकर आन रखी है
कि जिन कदरों ने माजी में वतन की शान रखी है
करोगे तुम हिफाजत मर कर भी उसकी वतन वालो
यका इस मरने वाले की यकीं है लाज रखोगे
कि आखिर इसके खातिर ही तो मैंने था जहां छोड़ा
गली छोड़ी, मकां छोड़ा, वतन जन्नत निशां छोड़ा
कि बच्चे छोड़ कर मैंने खुशी का कारवां छोड़ा
और बिछड़ के मां की ममता से नहीं क्या दो जहां छोड़ा
मगर क्या यह भी मुमकिन है कि दूरी याद को रोके?
खयालों को करे पाबंद किसी के ख्वाब को रोके
बर्फ है या कि आतिश है, मेरी हर सांस जलती है
यहां हर एक शय ताजा मेरे जज्बात करती है,
कि जब भी बर्फ पर कोई किरन रंगी फिसलती है,
किसी के सर से आंचल का सरकना याद आता है,
कि जब भी बर्फ को छूकर हवाएं मुखसे मिलती हैं,
किसी की मरमरी बाहें मुझे भी याद आती हैं,
किसी की जुल्फ का साया, किसी की गर्म सी सांसें
किसी की लाज का आंचल, कही कुछ अनकही बातें
किसी का खिलखिला हंसना, फुलाना मुंह शरारत पर
किसी का रूठ कर रोना, मनाना सौ बहानों से
वह बरगद जिसके साए में मेरा हर प्यार फूला था,
वह अमराई जहां हर साल हमने झूला, झूला था
वे बलखाती हुई नदियां, वे झरने साफ पानी के
वे म.ेढें खेत की उन पर थिरकते पांव चांदी के
वे हाथों पर रची मेंहदी, वे काजल से सनी आंखें
शहद पत्तों पर गिरता हो, किसी की मद भरी बातें
वह मोती से सजे दांतों में तिनका दाब कर हंसना
वह कनखियों से टकना, और नागन जुल्फ लहराना
वह चलना झूम कर जैसे कोई मदमस्त हथनी हो,
वह रुकना घूम कर जैसे कि बिच्छु डंक मारे हो
वह कद आदमफसल अठखेलियां बादे बहारां की
बहुत बेसुर रसीले पर किसी दहकान के गाने
वो पनघट पर चरखचों की सदा आलाप बिरहा का
वह गागर को कमर रख कर चलना गांव गोरी का
वह मिट्टी की सदा पर थाप ढोलक की मंजीरों की
वह कजरी और बिदेसिया और वह चौपाई तुलसी की
वह मंदिर की सदा बेदार करती जो मौहज्जम को
वो मस्जिद की अजां मोमिन बना देती जो काफिर को
वो खित्ता अर्ज जिस पर सिर्फ वहदत की इबादत है
वो खित्ता अर्ज मोमिन को जमीं पर जो कि जन्नत है
वह खित्ता अर्ज वतन वालो, वो जन्नत छोड़ दी मैंने
चले आया हिमालय पर मसर्रत छोड़ दी मैंने
मुबादा मेरी कुरबानी तुम्हारे काम आ जाए,
तुम्हें खुशियां मुअस्सर हों, वतन की आन रह जाए
नहीं देखा किसी की आंख में वह तैरता आंसू
नहीं देखा कोई हाथों से अपना पेट है दाबे
नहीं देखा किसी मासूम चेहरे पर रंगी उलझन
नहीं देखा किसी बूढ़ी कमर में आ गई ऐंठन
मुबादा ये मेरी कदमों की सब जंजीर बन जाएं
मुझे बुजदिल बना दें, मुल्क की तकदीर बन जाएं
सिपाही देश का मैं मुझको लाजिम जंग करना है
वतन की जिंदगी जीकर, लहू दुश्मन का पीना है
कफन को बांध कर सर पर वतन के वास्ते यारो
लड़ाई में लिया हिस्सा अमन के वास्ते यारो
उदू को रोक कर उसकी सतहें सब साफ कर डालीं
मगर यह फर्ज था अपना, नहीं एहसान कुछ प्यारों
मगर एक हक भी होता है जिसे हम अपना कहते हैं,
कभी कुछ ले भी लेते हैं, कभी कुछ दे भी देते हैं
अगर तुमको पसंद आए तो बस इतना यकीं दे दो,
हमारी मौत का मकसद कभी न रायगां होगा
मैं जख्मी हूं मकां को अपने वापस आ न पाऊंगा
मगर देखूंगा जन्नत से वफा को आजमाऊंगा
वफा वालो वफा करना, वफा पर हर्फ न आए
यकीं जो मुझको तुम पर है कहीं वह टूट न जाए
वतन ने जिंदगी दी है, वतन को जिंदगी देना
मयारे कौम है अपने वतन को जिदंगी देना
कि कलमा है ये अल्लाह का प्रणव अक्षर हैं वेदों का
अमल पैराई इस पर फर्ज लाजिम हक शहीदों का
कसम तुमको खुदा की, अपने ईमां की, यकीनों की
और कसम हर रहरवे मंजिल के पाके आबदीनों की
और कसम तुमको तुम्हारे घर के हर नन्हें नगीने की
और कसम तुमको वतन की आबरू मजहर सफीनों की
उठो ललकार दो जिससे जमीनों आसमां दहले
और उदू का दिल लरस जाए, अमन बन कामरां बोले
जमीं पर हर जगह मेरी हुकूमत बेखलल होगी
और जमीं पर जंग न होगी, जमीं पर जंग न होगी।

लेकिन इस देश के अंदर भी एक खून है, इसने भी इसका जवाब देना पसंद किया, कि ऐ दोस्त! तू इतना बड़ा यकीन क्यूं तोड़ता है मुझसे? इसको भी एक छोटा सा हिसाब।

वह भी सुन लिया जाए, तो पूरा हो जाए। तो कहते हैं।

तो तुमने खत लिखा है मौत की वादी से ये मुझको
और सुनाई है खबर वो ही सुनानी जो न थी मुझको
उठा सर, आंख भर आई, अजब जज्बात उभरे हैं
मैं हंसता हूं या रोता हूं, नहीं इसकी खबर मुझको
कि गया बन परचमें हिंदुस्तां तेरा कफन साथी
और गरज कर गन के गोलों ने कहा है, अलविदा साथी
और दुआएं मांओं ने मांगी तेरी खाकर कदम छूकर
कि खुदाया ऐसा बेटा दे, जनाजा जब उठा साथी
मगर ऐजाज की बारिश,
मगर ऐजाज की बारिश यह हलका गम नहीं करती
और जगी बदले की जो ख्वाहिश यकीनन कम नहीं करती
यही अहसास होता है, मुझे सरहद बुलाती है
और बहा जिस जगह खूं तेरा, वही धरती बुलाती है
यकी कर खून तेरा रायगां हरगिज न जाएगा
है असली खूने हिंद खून का बदला चुकाएगा
सुकूं जब मरके दुश्मन को मुअस्सर हो न पाएगा
और वतन का हर जवां अब तैख पर ईमान लाएगा
जो पीरी या नहीं फीसे शरीके जंग न होंगे
वो अपने जांनिसारों के लिए एक ढाल अब होंगे
ये अपनी मां, बहन, बेटी, ये बीवी ओ बहू सब ही
सफेअव्वल के पीछे इक नई शफ में खड़े होंगे
अगर फिर भी जरूरत पड़ गई कुछ और लोगों की
तो अपनी फसलनों की बालियां तेगाज उठाएंगी
हुसैनो हस्न की नस्लें, अभिमन्यु के बादल की
गुलुनाजुक पकंजर खूनियों का झेल जाएंगी
जुकां से जुक्तगल्ला अब न तहकानों में जाएगा
कोई ताजर नहीं जिंसो के कीमत अब बढ़ाएगा
जमीं तिगनी फसल देगी, मिलें रुकने न पाएंगी
जवां हर एक घर से फौज की ताकत बढ़ाएगा
वो हिंदू हो, मुसलमां हो या कोई और क्यूं न हो
वतन का दोस्त ही वो हो, कोई उदू का यार वो न हो
नहीं बरदाश्त होगा मुल्क का गद्दार गर वह हो
मिटा देंगे बजुजमत्वा कि पुश्तिवार अब न हो
और चलेगी कैद अबके तोड़ कर सरहद की कैदों को
और बहेगी फौज अबके रौंद कर नस्ली अजीदों को
पता चल जाए ताके अम्न को बदतर हरीफों को
हिमाकद जैद देती है, महज कमजर्फ कौमों को
सिफैदी कौम के कूने न थी और आ न पाएगी
तेरी औलाद को क्या चार दानें दे न पाएगी
अरे यह वह अमानत है, खयानत हो न पाएगी
अगर होगी तो क्या हर एक शहादत जल न जाएगी
मगर जज्बात के तूफान से कुछ दूर हट कर मैं
कसम अपने हर एक अहसास की खा करके कहता हूं
तेरी हर एक ख्वाहिश फर्ज तेरी कौम पर होगी
और जमीं पर जंग तो होगी, अमन की जंग अब होगी।

क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो
क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो
क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो
पूछना है तो आने वाले भूकंपों से तुम पूछो
पूछना है तो आने वाले भूकंपों से तुम पूछो
क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो
बात अगर इंसानों की होती तो हम बतला देते
बात अगर इंसानों की होती तो हम बतला देते
बात तो खून के प्यासों की है, खून के प्यासों से पूछो
बात तो खून के प्यासों की है, खून के प्यासों से पूछो
फिर भी तसल्ली हो न सके तो अपने तमाशों से पूछो
फिर भी तसल्ली हो न सके तो अपने तमाशों से पूछो
क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो
बात अगर इंसानों की होती तो हम बतला देते
बात तो खून के प्यासों की है, खून के प्यासों से पूछो
फिर भी तसल्ली हो न सके तो अपने तमाशों से पूछो
क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो

दूसरा ख्याल है--
 जुल्म के सरताजों को ऊपर,
जुल्म के सरताजों को ऊपर बोलो किसने उठाया है?
जुल्म के सरताजों को ऊपर बोलो किसने उठाया है?
जौहर किसने लगाए हैं ये...
जौहर किसने लगाए हैं ये अपनी कहानी से पूछो
जड़ तो तुम हो, फिर जड़ की बे शर्म जवानी से पूछो
क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो
पूछना है तो आने वाले भूकंपों से तुम पूछो।

सह न सकेगा चोट तुम्हारे सिर की छोटा सा पत्थर
सह न सकेगा चोट तुम्हारे सिर की छोटा सा पत्थर
फोड़ के सिर को चट्टानों से, फिर चट्टानों से पूछो
फोड़ के सिर को चट्टानों से, फिर चट्टानों से पूछो
ओढ़ के अपने कर्मों को फिर दोष विधानों से पूछो
क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो

किसने छुटाए खून के धब्बे,
किसने छुटाए खून के धब्बे, खूंखारों के कपड़ों से ये
किसने छुटाए खून के धब्बे, खूंखारों के कपड़ों से ये
अपने हाथों से पूछो, अपनी फटकारों से पूछो
अपने हाथों से पूछो, अपनी फटकारों से पूछो
या तुम जीवन सौदे के,
या तुम जीवन सौदे के बेरहम उधारों से पूछो
क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो
पूछना है तो आने वाले भूकंपों से तुम पूछो

मानवता का चीर खिंचा है,
मानवता का चीर खिंचा है अणु अंकुश के पहरे में
मानवता का चीर खिंचा है अणु अंकुश के पहरे में
खींचने वाला कितना बड़ा है,
खींचने वाला कितना बड़ा है, घूर जहालत से पूछो
नापने वाला कितना बुरा है, नीच खुशामद से पूछो
क्या होगा इस दुनिया का इस बात को हमसे मत पूछो
पूछना है तो आने वाले...

प्रश्नः मैं एक साहित्यकार की हैसियत से, एक नये साहित्यकार की हैसीयत से मूल्यों के इस बिखरे हुए युग में, यानी युग वह है जब मूल्य बिखर गए हैं, महसूस करता हूं, तो मुझे यह महसूस होता है कि अदब का या साहित्य का मुस्तकबिल, उसका भविष्य क्या है? मैं यह चीज, मेरे जहन में अक्सर यह सवाल खटकता रहता है, बाहैसीयत देख कर एक नये साहित्यकार कि अब तक तो पुराना साहित्य था जो वह तो बहुत हद तक मूल्यों का साथ देता रहा या मूल्य उसका साथ देते रहे, अब मूल्य नहीं हैं, अब सिर्फ साहित्य है या उसकी कुव्वत है, तो हमें यह प्रस्टीया करना है या हमको कोई ऐसा आधार बनाना है कि हम तय कर सकें कि आइंदा हमारे अदब का, हमारे साहित्य का मुस्तकबिल क्या होगा? हमारे जेहन में कोई उसका समाधान है। आपका क्या विचार है?

पहली दफा साहित्य का जन्म हो रहा है। मूल्यों के विघटन से साहित्य का भविष्य अंधकारपूर्ण नहीं है, बल्कि मूल्यों के ढांचे में जो साहित्य था; वह साहित्य नहीं था, केवल प्रचार-साहित्य था। मूल्य के ढांचे में कोई साहित्य नहीं होता, केवल प्रचार होता है, प्रोपेगेंडा होता है। मूल्य के आधार पर साहित्य निर्मित भी नहीं होता। वस्तुतः इधर जो लगता है कि मूल्यों का बिखराव हुआ है, इससे पहली दफा मनुष्य का चित्त एक मुक्त सृजन में संलग्न हो सकेगा, हुआ है। साहित्य मूल्य के ढांचे में पैदा नहीं होता, बल्कि साहित्य का जन्म हो तो उसके बाई-प्रॉडक्ट की तरह मूल्य अपने आप पैदा होते हैं। मूल्य से साहित्य का जब जन्म होता है, तो साहित्य झूठा होता है। और जब साहित्य से मूल्य पैदा होते हैं, तो मूल्य शक्तिशाली होते हैं, अर्थपूर्ण होते हैं।
अब तक हमारा यही खयाल था कि मूल्य के पीछे साहित्य आना चाहिए; तो जरूर इस तरह का साहित्य आया। लेकिन मूल्यों के पीछे जो साहित्य आता है, वह साहित्यकार के प्राणों से नहीं आता, वह आता है उसकी बुद्धि से, उसके विचार से। उसकी आत्मा से नहीं आता। क्योंकि जहां मूल्य का विचार है, वहां साहित्यकार सचेतन होकर साहित्य का निर्माण करता है। और जब कि जानने-सोचने की बात यह है कि जैसे ही साहित्यकार सचेतन हो जाता है, सचेष्ट हो जाता है, एफर्ट, प्रयत्न पीछे आ जाता है, वैसे ही जो निर्मित होता है वह आदमी के बहुत छोटे हाथों की कृति होती है। लेकिन ठीक-ठीक साहित्य का जन्म तो जब साहित्यकार निश्चेष्ट होता है, निष्प्रयास में होता है, एफर्टलेस, सचेतन भी नहीं होता।
मुझे एक मित्र ने मुझे बताया कि वे रवींद्रनाथ के आश्रम में शुरू-शुरू गए। पहले दिन मेहमान थे, तो उन दिनों नया-नया शांति निकेतन का काम शुरू हुआ था। थोड़े ही लोग थे, रोज संध्या को रवींद्रनाथ सभी मित्रों को बुला कर अपने हाथ से ही चाय बना कर पिलाते थे। थोड़े दिन चली होगी वह बात, जब तक थोड़े लोग थे। मेरे मित्र भी थे, वे भी उस दिन आमंत्रित थे, तो वे तो बहुत खुश थे। दिन भर खुश थे कि आज रवींद्रनाथ के हाथ की बनी हुई चाय पीने को मिलेगी। पांच-सात मित्र इकट्ठे हुए, तो उन्होंने चाय बनाई, वे चाय लेकर आए, सबको प्यालियां दे दीं और केतली से सबकी प्यालियों में चाय ढाली, लेकिन दो-तीन को ही वे चाय दे पाए थे कि केतली उनके हाथ से छूट गई। और उनकी आंखें बंद हो गईं और वे बैठ गए। लोग चुपचाप उठ गए। मेरे मित्र को भी किसी ने इशारा किया कि हट आओ। उनकी कुछ समझ में ही नहीं पड़ा कि यह क्या हुआ? लोग तो चले गए, लेकिन वे बाहर जाकर द्वार के पास छिप कर खड़े हो गए।
रवींद्रनाथ की आंखों से आंसू बहने लगे और वे कुछ, एक कंपन, जैसे वे होश में न हों, बेहोश हों... और यह कोई आधा घंटे तक वे रोते रहे, रोते रहे। वे छिपे हुए देखते रहे, उन्हें कुछ समझ में नहीं आया कि यह हुआ क्या, लेकिन देखना चाहते थे, यह क्या हो रहा है? वे आधा घंटे के बाद आंख खोली, उठ कर टेबल तक गए, कुछ लिखा।
उन्होंने भीतर जाकर पूछा कि यह क्या हुआ? उन्होंने कहाः दो तरह की कविताएं मैंने लिखी हैं। एक तो मैंने लिखी हैं और एक जब मैं नहीं था, उतरी हैं, आई हैं। जो मैंने लिखी हैं, वे कविताएं तो हैं, लेकिन काव्य उनमें नहीं है। और जो मैंने नहीं लिखी हैं, चाहे उन्हें कोई कविता कहने को राजी हो या न हो, लेकिन काव्य उनमें है। जो मैंने लिखी हैं, उनका अर्थ स्पष्ट है, और मैं बता सकता हूं कि क्या अर्थ है। उनका मूल्य भी साफ है। उनका अभिप्राय भी सुनिश्चित है। लेकिन जो मैंने नहीं लिखी हैं और उतरी हैं, मैं खुद भी भौचक्का हूं, खुद भी पूछना चाहता हूं कि उनका अर्थ क्या है? मैं उतना ही उन कविताओं का दर्शक हूं जितना कोई और। स्रष्टा होने का भ्रम मुझे उन कविताओं के बाबत नहीं है। लेकिन उन कविताओं की कोई पूछ नहीं होती, उनको कोई पूछता नहीं, मैं खुद बताने में डरता हूं।
यह जो काव्य है, यह जो काव्य है, यह जो साहित्य है, जो उस समय उतरता है जब कि आप नहीं होते हैं। यह किसी मूल्य के ढांचे में नहीं हो सकता। क्योंकि मूल्य का ढांचा आपका है, तो वैल्यू सब आपकी हैं। वैल्यूज को साहित्य के ऊपर थोपना, आप अपने को उसके ऊपर थोप रहे हैं--अपने समाज को, अपनी परंपरा को, अपनी धारणाओं को। इधर इन तीन-चार हजार वर्षों में जो भी निर्मित हुआ है, वह मूल्य के ढांचे पर बनाया हुआ साहित्य है। तो मेरी दृष्टि में तो उसका साहित्य होने का भी मूल्य नहीं। कोई मूल्य नहीं है।
जितनी कविताएं हैं दुनिया में वह सब में काव्य नहीं है। और पूरी एक कविता में भी सभी पंक्तियों में काव्य नहीं होता, जहां-जहां कवि आ जाता है वहीं-वहीं काव्य नहीं होता। जहां कवि मौजूद नहीं होता, अनुपस्थित होता है, वहां जो पंक्ति उतरती है वह काव्य की है, उसमें मूल्य नहीं होगा। इन अर्थों में मूल्य नहीं होगा कि मूल्य का कोई ढांचा सचेतन रूप से उसको नहीं पहनाया गया। लेकिन वैसा काव्य, वैसा साहित्य अपने साथ मूल्य की एक सुगंध लाता है। उसे पहचानने में वक्त लग सकता है, वर्ष लग सकते हैं, सदियां भी लग सकती हैं। लेकिन चाहे कितना ही वक्त लगे, सदियां लग जाएं, साहित्य तो मैं उसे ही कहूंगा। मनुष्य द्वार बनता है साहित्य के लिए, मनुष्य स्रष्टा नहीं है।

या एक पुल।

हूं।

या एक पुल बनता है।

पुल कहें, द्वार कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। पुल इसलिए नहीं कह रहा हूं कि पुल किसी चीज से आपको जोड़ता है, द्वार किसी चीज को आपके भीतर से आने देता है। पुल तो कोई और चीज है, पुल बन जाएं तो द्वार भी बन सकते हैं। कहीं से जुड़ जाएं तो कुछ आपसे निकल भी सकता है, लेकिन कवि द्वार बनता है। और यह द्वार वह उतना ही श्रेष्ठ बन जाता है जितने अर्थों में वह अनुपस्थित हो जाता है, एब्सेंट हो जाता है।
तो यह जो कल तक का साहित्य था, वह साहित्यकार के द्वारा निर्मित था। उसमें मूल्य थे। लेकिन जरूर एक साहित्य आ रहा है, उसकी हलकी छायाएं आनी शुरू हुई हैं--चाहे पेंटिंग्स में, चाहे पोएट्री में, चाहे कहीं और, उसकी छायाएं आनी शुरू हुई हैं, पहली दफा। साहित्यकार, कलाकार जान रहा है कि वह मीडियम से ज्यादा नहीं है, वह क्रिएटर नहीं है। तो इसलिए उसको हट जाना है रास्ते से। स्रष्टा तो मिट जाएगा साहित्यकार का आने वाले दिनों में। वह जो आप भविष्य पूछते हैं कि भविष्य क्या है? स्रष्टा नहीं बचेगा। साहित्यकार माध्यम रह जाएगा, स्रष्टा नहीं। इसलिए साहित्यकार के अहंकार को चोट बड़ी लगी है, इसलिए वह खींच-खींच कर मूल्यों की वापस बात कर रहा है कि मूल्य को वापस लाओ, मूल्य को बैठाओ। उसका अहंकार टूट रहा है। क्योंकि मूल्य आ जाए तो जो साहित्यकार का जो ईगो है, जो अहंकार है, वह वापस प्रतिष्ठित होता है, वह फिर निर्माता हो जाता है।
आने वाले भविष्य का साहित्यकार स्रष्टा नहीं हो सकेगा। यह अहंकार उसे छोड़ देना पड़ेगा कि वह स्रष्टा था। वह जो हस्ताक्षर लगा देने की बहुत प्रवृत्ति है उसको, वह जाएगी। हो सकता है कि बिना हस्ताक्षर का साहित्य जन्मे। क्योंकि जब मूल्य चले जाएंगे, तो आपको भी हट जाना पड़ेगा, आप कहां बीच में रहने को खड़े रह जाएंगे, मूल्य थे तो आप थे।
तो अभी मूल्य हट रहे हैं, कल आपको अपने दस्तखत भी हटा लेने पड़ेंगे। भविष्य में साहित्य तो होगा, साहित्यकार नहीं होगा। मूल्य भी नहीं होगा। अगर ठीक से यह मूल्यों का विघटन पूरा हुआ, यह जरूरी नहीं कि मूल्यों का विघटन पूरा हो जाए, क्योंकि हमारी सबकी चेष्टा है कि उसको हम वापस बिठा दें; पुराने मूल्य को न बिठाएं तो किसी नये मूल्य को गढ़ कर बिठा दें। मनुष्य का अहंकार इस बात को छोड़ने को राजी नहीं है कि मैं निर्माता हूं, मैं स्रष्टा हूं। तो, तो शायद हम फिर से कुछ नई व्यवस्था बिठा लेंगे, नया पैटर्न बना लेंगे। लेकिन भविष्य यह है कि अगर यह मूल्यों का विघटन पूरा हुआ, और इसने अगर अपनी चरम स्थिति पाई, तो साहित्यकार तो नहीं रह जाएगा, साहित्य रहेगा। इसलिए साहित्य के लिए मत घबड़ाइए, साहित्यकार के लिए घबड़ाइए। वह जाएगा। वह जाएगा।

प्रश्नः मेरे जेहन में जो चीज थी वह यह थी, आपने बात बहुत हद तक सुझा दी, लेकिन जहां मैंने मूल्यों की बात की थी, इससे अलहदा मैंने जब साहित्य की बात की थी तो मैंने कहा था कि या तो साहित्य ताकतवर है मूल्यों के ऊपर, जो अपना भविष्य खुद बनाएगा या नये मूल्य खड़ा करेगा। लेकिन साहित्यकार से एक मुराद ले लीजिए, व्यक्ति जो अपनी जगह पर यह महसूस करता है जहां मूल्य नहीं हैं, तो उसकी वदाहत में मैं चंद चीजें जब तक वे चीजें वाजा नहीं होंगी, मैं शायद अपनी बात--मैं जब देखता हूं, एक लफ्ज भूख है, भूख कोई मूल्य नहीं है, लेकिन उससे मूल्य पैदा होते हैं। उस पर बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन मैं जिस देश में जिंदा हूं, जब से पैदा हुआ हूं, उस वक्त से मैंने यह महसूस किया है कि हां भूख नहीं है। अगर भूख होती तो उसकी ताजगी का अहसास होता। ताजा भूख बड़ी अच्छी लगती है। और उसके वजूद का अहसास होता है। लेकिन जब वह भूख बहुत पुरानी हो जाती है, बहुत ज्यादा दोहराई जाती है, तो फिर मस्क हो जाती है, उसकी शक्लें बिगड़ जाती हैं। इसी तरीके से भूख के अलावा जितनी-जितनी समस्याएं हैं, जिनसे मूल्य पैदा होते हैं, वे सब मस्क हैं, उनकी शक्लें बिगड़ी हुई हैं। तो ऐसे हालात में जब एक साहित्यकार, साहित्यकार को भी जाने दीजिए, वह व्यक्ति जो इस चीज को महसूस करता है, ये मस्कशुदा चीजें, जो बिगड़ी हुई हैं, यहां तक कि सौंदर्य जिसको हम सौंदर्य कहते हैं, सौंदर्य की शक्लें बिगड़ी हुई हैं; जो हमारी मंजिल हो सकते हैं, ऐसी-ऐसी विशृंखलता में, ऐसी उलझन में हम क्या करें? हमारे सामने सवाल पैदा होता है।

समझा। समझा।

हमारे अहंकार को तो चोट लगती है, महसूस करते हैं?

यह जो, यह जो बात कहते हैं, यह आपको खयाल आता होगा, कि मूल्य विघटित हो गए हैं, इसलिए ऐसा हुआ है। ऐसा नहीं है। बल्कि मूल्यों का भार इस देश के ऊपर बहुत दिन तक रहा है, इसलिए ऐसा हुआ है। इसको थोड़ा समझें।
मूल्यों के अतिभार ने इस मुल्क को जीवन की जो ताजगी है, उससे वंचित कर दिया। मूल्यों का भार बहुत बढ़ जाए, तो भूख की ताजगी अनुभव नहीं हो सकती। भूख की ताजगी उसे अनुभव हो सकती है जिसके चित्त पर मूल्यों का भार न हो। हुआ यह है कि मूल्यों की, वैल्यूज की इस चिंतना में, संस्कृति की और धर्म की इस चिंतना में जीवन से हमारे सारे संबंध टूट गए। लाइफ निगेटिव हैं हमारी वैल्यूज। जीवन को निषेध करती हैं। मोक्ष से उनका संबंध होगा, आत्मा से उनका संबंध होगा, परमात्मा से उनका संबंध होगा, परलोक से उनका संबंध होगा, जीवन से उनका कोई संबंध नहीं है, जीवन-विरोधी हैं, जीवन की शत्रु। तो तीन-चार हजार वर्ष तक अगर ऐसे मूल्यों के भीतर किसी कौम के मस्तिष्क को रहना पड़ा हो, जो जीवन-विरोधी हो, लाइफ अफरमेटिव न हो, जीवन की विधायकता को स्वीकार न करता हो, बल्कि जिसके पीछे कहीं न कहीं यह कोशिश हो कि किस भांति इस जीवन से छुटकारा हो जाए, उस मुल्क में अगर जीवन की ताजगी खो गई हो, तो इसमें आश्चर्य कैसा? लेकिन यह मूल्यों के विघटन का परिणाम नहीं है, यह मूल्यों के होने का परिणाम है। अगर मूल्य विघटित हो गए तो भूख की ताजगी यह मुल्क फिर अनुभव कर सकेगा। अगर नहीं विघटित हुए, तो नहीं कर सकेगा। सब बोथला-बोथला हो गया है।
क्यों? जीवन की जो ताजगी है, जीवन की ताजगी जीवन की मांसलता से जुड़ी है। और भूख शरीर को लगती है, आत्मा को नहीं। और ये हमारी सारी जो बातें हैं जो जीवन-विरोधी हैं वे मूलतः शरीर-विरोधी भी हैं। क्योंकि जो बात जीवन-विरोधी होगी वह शरीर-विरोधी भी होगी। और ये हमारे सारे मूल्य अशरीरी हैं। यह, यह सारा का सारा मूल्यों का... और जहां शरीर आता है वहीं तो हम कहने लगते हैं कि यह तो मूल्यों का विघटन हुआ। और जहां जीवन आता है वहीं हम कहने लगते हैं कि यह तो मूल्यों का विघटन हुआ।
तो यह हम सौंदर्य की बातें करते हैं, लेकिन सौंदर्य की स्वीकृति हमारे मूल्यों में है नहीं। क्योंकि सौंदर्य शरीर से मुक्त नहीं हो सकता। और सौंदर्य आकार से मुक्त नहीं हो सकता। तो फिर जब हम सौंदर्य की बातें करने लगते हैं और भीतर से निषेध जीवन का होता है, विरोध जीवन का होता है, तो एक अशरीरी सौंदर्य की बातें शुरू हो जाती हैं, जिसका कोई रूप नहीं, जिसका कोई आकार नहीं, वह एकदम बोथला और धुंधला-धुंधला होता है, उसकी बातें करते-करते, उसका चिंतन करते-करते, वह जो जीवंत सौंदर्य है उसे देखने में भी हम समर्थ नहीं रह जाते। बल्कि हम भयभीत भी हो जाते हैं, उसके होने से, हम डर भी जाते हैं।
डरे हैं हम दो हजार साल से, जीवन को जीने से डरे हुए हैं। उसको हम कहीं जीते नहीं, किसी तल पर जीते नहीं, बातें करते हैं, चिंतन करते हैं, सारी बातें करते हैं, शास्त्र लिखते हैं, प्रवचन करते हैं, भाषण करते हैं, वार्ता करते हैं, किताबें लिखते हैं, सब, लेकिन जीवन को जीने से बहुत डरते हैं।
तो यह जीवन का जो भय पैदा हुआ है, जीवन को मुक्त मन से जीने के प्रति एक बड़ी घबड़ाहट पैदा हो गई, एक दीवाल खड़ी हो गई, तो भूख फिर ताजी नहीं रह सकती। भूख ताजी रह सकती थी हम जीवन को जीते तो।
पशु भी हमसे ज्यादा भूख की ताजगी को अनुभव करते हैं, लेकिन हम तो पशु को बुरा मानते हैं और हम कहते हैं कि आदमी पशु हुआ जा रहा है। जैसे ही आदमी जीना शुरू करता है, हम कहते हैं कि यह तो हुआ जानवर, यह तो हो गया पशु। आदमी को हम मानते ही हैं कि वह जीए न। जो आदमी जितना कम जीता है उतना बड़ा महात्मा हो जाता है हमारे लिए। जितना कम जीता है, अगर बिल्कुल नहीं जीता, बिल्कुल मुर्दे की तरह डेड होकर बैठ जाता है, तो हम कहते हैं, परम पूज्य हो, तुम सिद्ध हो।
हम जीवन को कोई, कोई जगह नहीं दिए हैं। और तब एक विद्रोह खड़ा हो रहा है, इस मुल्क में ही नहीं, सारी दुनिया में। क्योंकि सारी दुनिया में धर्मों के प्रभाव में जिन मूल्यों को हमने बनाया था, वे मूल्य थोथे साबित हुए। उन्होंने जीवन को बढ़ाया नहीं, गहरा नहीं किया, जीवन को डेप्थ नहीं दी और जीवन की गहराई में जाकर जीवन को जानने का मौका नहीं दिया। जीवन से तोड़ा, अलग किया, वंचित किया। कुछ प्रलोभन दिए उन्होंने आगे के जीवन के लिए, मगर इस जीवन से तोड़ा। उसके खिलाफ ही एक बगावत मन में इकट्ठी होती गई सारी दुनिया पर। और यह पीढ़ी बहुत सौभाग्यशाली है कि बगावत उस जगह पहुंची है जहां कि विस्फोट हो जाए, चीजें टूट जाएं। शायद हम फिर से जीवन को सीधा-सीधा बीच में मूल्यों को न लें और जी सकें। इतना कठिन हो गया है, इतना कठिन हो गया जिसका कोई हिसाब नहीं। इतनी तड़प, तो उस तड़प में चीजें टूट रही हैं। वह बिल्कुल टूट जानी चाहिए, जरा भी बचे न एक टुकड़ा इनमें से, सब टूट जाना चाहिए, तो शायद हम जीवन-सहयोगी, जीवन के प्रति मित्रतापूर्ण मूल्यों को पैदा कर सकें।
तो ऐसे मुझे तो शुभ लगता है और अच्छा लगता है कि यह सब टूट जाए। लेकिन अभी बहुत सचेतन रूप से हम जागरूक नहीं हैं कि यह टूट रहा है। तो एक बड़ी क्रांति हो रही है, यह कोई ह्नास नहीं हो रहा है। और अगर हमारे चित्त में यह खयाल रहा कि एक पतन हो रहा है, ह्नास हो रहा है, तो शायद हम तोड़ने में बाधा डालेंगे, हम किसी न किसी तरह से सम्हाल-सम्हूल कर पुराने मकान को कुछ और दीवालें बना कर, ईंटें लगा कर, कुछ पलस्तर छाप कर हम कोशिश करेंगे। और अगर दिखा कि गिर ही रहा है, तो भी हम पुरानी शक्ल में फिर कोई नया मकान बनाने की कोशिश करेंगे। लेकिन क्या बिना मकान के नहीं जीया जा सकता? क्या बिना मूल्यों के नहीं जीया जा सकता? और क्या जीवित, वह जो जीवन का सीधा संपर्क होगा, उससे कोई लाइव वैल्यूज पैदा नहीं हो सकती? मुझे यह लगता है कि मूल्यों को लेकर जो जीता है वह जी ही नहीं पाता, उसका जीवन फॉल्स हो जाता है। होगा, मिथ्या होगा। क्योंकि वह मूल्य को पहले लेगा और जीवन को पीछे लाएगा और मूल्य के आधार पर जीवन को ढालेगा। वह सारा का सारा जीवन मिथ्या हो जाएगा। और तब वह थोथा-थोथा हो जाएगा। रस उससे विलीन हो जाएगा, आनंद उससे विलीन हो जाएगा। और जब रस और आनंद विलीन हो जाएगा तो वह सारे जीवन की निंदा करेगा, कि सारा जीवन असार है, ये सारा जीवन व्यर्थ है।
तो कोई ऐसे जीवन की खोज करेगा जहां कि इस जीवन से भिन्न कोई सार्थक जीवन, कोई पारलौकिक जीवन, कोई मैटाफिजिकल, जहां फिजिकल जीवन अर्थहीन कर दिया जाए, तो फिर मैटाफिजिकल जीवन रह जाता है। इसलिए धर्मों ने इस बात का पूरा फायदा उठाया कि जिस भांति भी हमारा यह जीवन अर्थहीन हो जाए, दुखद हो जाए, इसमें कोई रस न रह जाए, इसमें कोई आनंद न रह जाए, तो फिर, फिर उनकी तरफ हमारी गति होगी, उस दिशा में हम काम करना शुरू कर देंगे। एक कांसपेरेसी है जो कोई तीन हजार साल से चल रही है। उसको वैल्यूज के नाम पर छिपाया जा रहा है। एक बड़ा षडयंत्र है जो आदमी के साथ खेला जा रहा है। और इतना बड़ा पाप आदमी के साथ दूसरा नहीं हुआ है। आप आदमी की हत्या कर देते, इतनी बुरी बात नहीं थी, लेकिन उसको जीवन से वंचित कर दिया, बीच में ऐसी बातें खड़ी कर दीं कि जहां भी वह जीने के लिए जाता है वहीं हाथ को दीवाल से टकराया हुआ पाता है। अगर मैं आपको प्रेम करने आऊं, तो बीच में दीवाल पाऊंगा, प्रेम नहीं कर सकूंगा। पच्चीस दीवालें खड़ी हो जाएंगी। और मैं फिर प्रेम नहीं कर पाऊंगा। तड़फड़ाऊंगा, कोशिश करूंगा हाथ बढ़ाने की उस तरफ, लेकिन मेरे मूल्य भी हैं और आपके मूल्य भी हैं, और सीधे हम मिल नहीं सकते। और दोनों मूल्य मिल कर एक जो काम करेंगे वह यह करेंगे कि धीरे-धीरे शायद मुझे यह लगेगा यह प्रेम ही असार है, इससे कुछ होता नहीं, यह सब व्यर्थ है। और तब मैं प्रेम से ही ऊब जाऊंगा। और जो प्रेम से ही ऊब जाएगा वह प्राणों से, जीवन से ऊब जाएगा। और जीवन से ऊब जाएगा तो फिर परलोक है और मैटाफिजिक्स है, स्वर्ग है, नरक है, परमात्मा है, उसकी खोज करेगा।
मुझे यह दिखाई पड़ता है कि और ऐसा आदमी कभी परमात्मा को पा नहीं सकेगा। क्योंकि जो प्रेम ही नहीं पा सका वह परमात्मा क्या पाएगा? और ऐसा आदमी कभी उस जीवन के केंद्र को नहीं जान सकेगा। क्योंकि उसने इस जीवन को भी नहीं जाना जो उसे मिला था।
तो मुझे तो यह लगता है कि इस जीवन को जो जानेगा जितनी गहराई से, इस जीवन को जिसको कि हम कहते हैं, भौतिक, शारीरिक, ये सब कंडमनेशन के शब्द हो गए हैं आपकी वैल्यूज के परिणाम में। यह सब कंडेमनेशन हो गया है कि यह शारीरिक है, यह भौतिक है, यह मैटीरियल है, फलां है, ढिकां है। जब तक हम इस जीवन को जो कि आधार है, जब तक हम इसको पूरी-पूरी इसकी सघनता में नहीं जानेंगे, इसकी सघनता में जानने पर ही यह संभावना उठती है कि हम इसकी सघनता में जान कर उसको भी जान सकें जो इसके पीछे छिपा है। लेकिन जो इसके विरोध में खड़ा हो जाता है वह तो उसे कभी जान नहीं सकेगा।
तो मेरा कहना यह है कि जीवन मुझे उसके सब रूपों में स्वीकार है। सब रूपों में उसके स्वीकार है। और उसके हर रूप में यह संभावना है कि अगर हम उसमें गहरे डूब जाएं, तो वह हमें अतिक्रमण करा दे, पार ले जाए, पार ले जाए।
तो यह जो हो रहा है, यह जीवन में एक, एक बड़ी क्रांति के तल पर मनुष्य खड़ा है। और वह क्रांति का तल यह है कि कोई तीन-चार या पांच हजार वर्षों की संस्कृति ने उसे प्रकृति से तोड़ा है। और एक वक्त है कि वह वापस यह चाहता है कि हम प्रकृति से जुड़ जाएं। और मुझे लगता है कि यह बड़ा शुभ है, बड़ा मंगलदायी है। जरूर इसकी, इसकी अपनी इस स्थिति से अपने मूल्य पैदा होंगे। लेकिन वे मूल्य पैदा होंगे इसके पीछे, वे इसके आगे नहीं। यानी आने वाले जगत में हम मूल्यों को जीवन के आगे नहीं रखेंगे, जीवन जीएंगे और मूल्य उसके पीछे आएंगे। मैं आपको प्रेम करूं, उसी प्रेम से कोई मूल्य पैदा होने चाहिए जो हमारे जीवन को घेरें, लेकिन मैं कोई मूल्य बनाऊं कि मैं इस भांति प्रेम करूंगा और यही प्रेम सच्चा है और बाकी प्रेम झूठा है, और इस ढांचे को लेकर प्रेम करने जाऊं, तो मैं प्रेम तो कभी कर ही नहीं पाऊंगा। और तब जो एक विफलता और फ्रस्ट्रेशन पैदा होगा, वह दुनिया में पैदा होगा। तो मूल्यों की हत्या में सहयोगी बनें। इसमें कोई, इसमें कोई, इसमें कोई जरा भी, जरा भी सोच-संकोच न करें।

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