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रविवार, 2 दिसंबर 2018

सहज मिले अविनाशी-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

सृजन की शक्ति

वह बनाने वाला अलग होता है और जैसे-जैसे चित्र बनता जाता है वैसे-वैसे चित्र अलग होता जाता है। जब तक नहीं बना तब तक बनाने वाला और चित्र एक हैं। जब तक चित्र नहीं बना था तब तक चित्रकार ही है और वही चित्र भी है अभी। फिर उसने बनाया है, फिर चित्र अलग हो गया और चित्रकार अलग हो गया।
तो एक तो ऐसा सृजन है जहां स्रष्टा सृष्टि से अलग हो जाता है।
लेकिन दूसरा उदाहरण लें, एक नृत्यकार है, वह नाचता है, लेकिन नृत्य अलग नहीं होता, नृत्य और नृत्यकार एक ही रह जाते हैं। जब नहीं नाच रहा था, तब भी एक थे, अब जब नाच रहा है, तब भी एक है। और नाच बंद हो जाएगा, तो नृत्यकार ही मिलेगा, नाच कहीं खोजने से मिलने वाला नहीं है। यानी वहां क्रिएटर और क्रिएशन एक ही हैं।

ये दो उदाहरण इसलिए लेता हूं, अब तक आमतौर से परमात्मा को इस तरह सोचा गया है जैसे वह बना कर अलग हो जाता है। वह गलत है दृष्टि। परमात्मा क्रिएटर नहीं है, स्रष्टा नहीं है। क्योंकि स्रष्टा हमेशा सृष्टि से अलग हो जाता है। परमात्मा है क्रिएटिविटी, परमात्मा है सृजन की शक्ति। जैसे नृत्य और नृत्यकार, कि वह अलग

नहीं हो जाता। यानी सृष्टि और स्रष्टा एक ही है। जो हमें दिखाई पड़ने लगता है वह सृष्टि है, जो प्रकट हो जाता है वह सृष्टि है। और जो अप्रकट रह जाता है और नहीं दिखाई पड़ता वह स्रष्टा है। जैसे नृत्यकार अभी नहीं नाच रहा है, तो अभी प्रकट नहीं हुआ है नृत्य, कहीं सोया पड़ा है, नाचेगा तो प्रकट हो जाएगा।
परमात्मा और प्रकृति या स्रष्टा और सृष्टि, दो चीजें नहीं हैं, इन्हें एक बार दो मान लिया तो यह सवाल उठेगा। और इन्हें अगर एक ही मान लिया, तो ऐसा नहीं है कि कोई है तय करने वाला और हम हैं उसे निभाने वाले। नहीं, वह जो तय करने वाला है वह हम ही हैं। वह तय करने वाला और हम दो नहीं हैं, वे हम ही हैं। और वह हमारे कृत्य से ही तय करता है। उसके पास तय करने का और कोई उपाय नहीं है, यानी हम ही हैं वह। तो जब हम कुछ कर रहे हैं तब हम एक अर्थों में परिपूर्ण स्वतंत्र हैं। इस अर्थ में कि हम वही हैं और एक अर्थ में हम बिल्कुल बंधे हैं। वह इस अर्थ में कि हम वे पूरे नहीं। वह पूरा हमसे बहुत बड़ा है। हम उसके सिर्फ एक हिस्से हैं।
जैसे एक सागर पर एक लहर, एक अर्थ में स्वतंत्र है, एक अर्थ में स्वतंत्र है। हिलती है, डुलती है, इस अर्थ में स्वतंत्र है कि वह भी सागर का हिस्सा है। लेकिन इस अर्थ में परतंत्र है कि वह सिर्फ एक लहर है। और सागर बहुत बड़ा है और भी लहरें हैं। और ऐसा भी सागर है जहां लहरें नहीं भी हैं। इसका मतलब यह हुआ कि हम जो कर रहे हैं, अगर हम अपने को अलग मान लें तो यह सवाल उठता है कि हम करने वाले हैं या नहीं? और अगर हम वही हैं, करने वाला ही हम हैं, तो यह सवाल ही नहीं उठता कि हम बंधे हैं या स्वतंत्र हैं। हम ही हैं अकेले, कोई न बांधने वाला है, न कोई स्वतंत्र करने वाला है। और जो भी हो रहा है वह हमारे द्वारा ही हो रहा है, वह हमसे बिना हो भी नहीं सकता है। सारी कठिनाई इसलिए पैदा हुई कि कहीं भूल कर हमने अपने को अलग मान रखा है। एक-एक लहर अपने को अलग मान रही है। इसलिए लहर पूछती है कि मैं स्वतंत्र हूं कि परतंत्र हूं? लेकिन पूछने में उसने यह मान ही लिया है कि मैं अलग हूं। और अलग है तो यह प्रश्न सार्थक है कि स्वतंत्र है या परतंत्र? और अगर अलग है ही नहीं तो स्वतंत्र किससे होना है, परतंत्र किससे होना है?
मेरी दृष्टि में हम न स्वतंत्र हैं और न परतंत्र हैं। क्योंकि हमारे अलावा कुछ है ही नहीं। इसी अर्थ में हम परतंत्र हो सकते हैं कि हम सिर्फ एक हिस्से हैं, एक लहर हैं, पूरा सागर नहीं हैं। और इस अर्थ में हम स्वतंत्र हो जाते हैं कि अगर हमें पता चल जाए कि यह लहर सागर के सिवाय कुछ भी नहीं है। यानी मेरा मतलब यह हुआ कि जितना अहंकार गहरा है उतने हम परतंत्र हैं और जितना अहंकार विसर्जित है उतने हम स्वतंत्र हैं। अहंकार के अतिरिक्त हमारी और कोई परतंत्रता नहीं है। हम हैं यही हमारी परतंत्रता है और अगर हम नहीं हैं तो परतंत्रता का कोई उपाय ही नहीं है, स्वतंत्रता ही शेष रह गई है। अहंकार अकेली परतंत्रता है। और अहंकार का मिट जाना स्वतंत्रता है। और परमात्मा अगर है तो ऐसे ही है जहां अहंकार नहीं है। और हम अगर हैं तो ऐसे हैं जहां अहंकार है। इसलिए हम परमात्मा से भिन्न होने के खयाल में हैं।
एक मैं कहानी कहता रहा हूं निरंतर। एक रूसी कवि है, जिसने एक कविता लिखी, लिखा है कि एक अंगूर की बेल है और जो एक राजमहल पर चढ़ी हुई है। और अंगूर की बेल, क्योंकि राजमहल में विवाद होते हैं बहुत बार, राजा संन्यासियों से पूछता है कि हम स्वतंत्र हैं कि परतंत्र? बहुत विवाद सुने उसने, और एक दिन उसने चर्चा सुनी कि कोई आदमी कह रहा है कि सब स्वतंत्र हैं, क्योंकि परमात्मा है ही नहीं। और परमात्मा ही नहीं है तो परतंत्र कौन करेगा? दो रास्ते हैं स्वतंत्रता के, या तो परमात्मा न हो तो हम स्वतंत्र हैं और या हम न हों तो स्वतंत्र हैं। क्योंकि फिर परमात्मा ही रह जाता है, दो हों तो परतंत्रता रहेगी। क्योंकि दूसरा जो है वह किसी न किसी तरह की सीमा बांधेगा और परतंत्र करेगा। अगर एक ही है तो ही स्वतंत्रता हो सकती है। नास्तिक एक तरह से स्वतंत्र होने की कोशिश करता है, ईश्वर को खत्म करके। आस्तिक एक तरह से स्वतंत्र होने की कोशिश करता है, अपने को खत्म करके। मगर अगर एक रह जाए तो परतंत्रता का कोई उपाय नहीं है।
उसने उस उसने दिन सुना है कि ईश्वर है ही नहीं, फिर सब स्वतंत्र हैं, तो उसने उस बेल ने परमात्मा से चिल्ला कर कहा, चूंकि है ही नहीं तू और हम स्वतंत्र हैं, इसलिए आज से मैं बढ़ने से इनकार करती हूं। बहुत हो गया, बढ़ते-बढ़ते परेशान हो गई, थक गई हूं। कितने पत्ते निकाले, कितने अंगूर निकाले, हर वर्ष वही-वही काम; बहुत थक गई हूं, अब मैं बंद करती हूं। अगर मैं स्वतंत्र हूं, तो अब बंद करती हूं, यह बढ़ना। लेकिन उसने यह कहा जरूर, दूसरे दिन सुबह देखा कि बढ़ना तो हो गया है--पत्ते नये निकल आए हैं, बेल लंबी हो गई है। उसने बहुत चिल्ला-चिल्ला कर कहा कि अब मैं स्वतंत्र हूं, अब मुझे नहीं बढ़ना है, लेकिन वह रोज बढ़ती चली गई। अब बेल किससे स्वतंत्र होना चाह रही है? बढ़ना बेल का ही हिस्सा है। उसमें स्वतंत्र होने का कोई उपाय नहीं। हम सिर्फ उससे स्वतंत्र हो सकते हैं जो हमसे अलग और भिन्न हो। हम उससे स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं जो हम ही हैं।
अब बेल का बढ़ना जो है, उसकी जो ग्रोथ है, वह तो उसका स्वभाव है। और वह कह रही है कि अब मैं बढ़ना बंद करती हूं, अब मैं स्वतंत्र हो गई हूं, अब मैं नहीं बढ़ती। लेकिन उसे बढ़ना पड़ रहा है। असल में वह समझ नहीं पा रही है। बेल का होना, उसका बीइंग ही बढ़ना है। यह दोनों दो चीजें नहीं हैं कि बेल स्वतंत्र हो जाए। बेल तो बढ़ेगी ही, बेल तो फलेगी ही। यह फलना और बढ़ना एक अर्थ में परतंत्रता है, अगर बेल बढ़ने और फलने से अपने को अलग समझ ले। अगर बेल ऐसा समझती हो कि बढ़ना, पत्ते लगना, फलना एक अलग चीज है, मैं अलग हूं। ऐसी कहीं बेल है कोई जो न बढ़ती हो, न पत्ते लगते हों, न फल आते हों, ऐसी बेल ही नहीं है। असल में बेल सिर्फ एक नाम है इसी सब ग्रोथ का--बढ़ने का, फलने का, फूल लगने का, फल लगने का, इस सबका इकट्ठा नाम बेल है। और बेल को भ्रम हो जाए अगर कि मैं अलग हूं इस सबसे और वह कहे कि मैं नहीं बढूंगी, तो कोई उपाय नहीं है, तब वह परतंत्र अनुभव करेगी।
तब वह बेल कहने लगी, मैं बड़ी परतंत्र हूं, मैं बढ़ना नहीं चाहती हूं और बढ़ रही हूं। और मैं फूलना नहीं चाहती हूं और फूल रही हूं। आदमी को भी अगर यह खयाल हो जाए कि हम अलग हैं, तो सवाल उठना शुरू हो जाता है कि हम परतंत्र हैं कि स्वतंत्र? और अगर यह खयाल मिट जाए कि मैं अलग हूं, तो सवाल कहां है परतंत्रता-स्वतंत्रता का। यानी परतंत्रता-स्वतंत्रता का सवाल ही अहंकार केंद्रित है। और जब तक अहंकार है तब तक वह सवाल मिट नहीं सकता, चाहे कोई उपाय करो। कोई कहे कि बिल्कुल स्वतंत्र हो, तो भी बात हल नहीं होती, क्योंकि आपके मां-बाप ने जो आपको अणु दे दिया, आप उससे कैसे स्वतंत्र हैं? और वह अणु पहले से चला आ रहा है। उस अणु में लिखा था कि इतनी उम्र में आपके बाल सफेद हो जाएंगे, उस अणु में यह भी लिखा था कि आंख का रंग क्या होगा, और उस अणु में यह भी लिखा था कि मस्तिष्क कैसा होगा, उस अणु में चमड़े का रंग भी था और लंबाई भी थी शरीर की, और उस अणु में गहरे में यह भी तय था कि यह अणु कितनी देर चल पाएगा और बिखर कर टूट जाएगा और मृत्यु आ जाएगी। उस अणु में सब यह किसी बहुत गहरे कोड में लिखा था, तो स्वतंत्र कैसे हैं? स्वतंत्रता हल नहीं करती। और अगर कोई कहे कि बिल्कुल परतंत्र हैं, तो बात झूठी है। बात इसलिए झूठी है कि अगर हम परतंत्र हैं बिल्कुल, तो मैं यहीं बैठ जाता हूं, और तब सब जो मैं कर रहा हूं वह खत्म हो जाता है। मैं बैठता हूं वह सब खत्म हो जाता है, फिर वह नहीं चलता। मैं चलाता हूं तो वह चलता है।
मोहम्मद का एक शिष्य, अली, हजरत अली। हजरत अली एक गांव से गुजर रहा है, मोहम्मद साथ हैं, और हजरत अली ने मोहम्मद से पूछा कि मैं बड़ा परेशान हूं कि आदमी स्वतंत्र है कि परतंत्र? तो मोहम्मद ने कहा कि तू एक पैर ऊपर उठा ले, जो भी तेरी मर्जी हो। तो उसने बायां पैर ऊपर उठा लिया। मोहम्मद ने कहा कि अब तू दूसरा भी ऊपर उठा ले। अब बहुत मुश्किल है। मोहम्मद ने कहाः तू दायां भी ऊपर उठा ले। उसने कहाः बहुत मुश्किल है। मोहम्मद ने कहाः लेकिन पहले मुश्किल नहीं था, तू चाहता दायां भी उठा सकता था। अब मुश्किल हो गया, क्योंकि बायां तूने उठा लिया है। और मुश्किल इसलिए हो गया कि बायां तू उठाए हुए है। बाएं को नीचे रख दे, अभी दायां ऊपर उठ जाएगा। अली ने कहाः मैं समझा नहीं। मोहम्मद ने कहाः मैं तुझे यह कह रहा हूं कि आदमी आधा परतंत्र है और आधा स्वतंत्र है। एक पैर उठा लेता है और दूसरा बंध जाता है। क्योंकि जब भी हम एक चीज चुनते हैं तब और चुनाव खत्म हो जाते हैं। अगर मैं आपको घृणा करता हूं, तो फिर प्रेम करना मुश्किल हो जाता है। मैंने चुनाव कर लिया, बायां पैर उठा लिया, अब दायां नहीं उठता। और प्रेम करता हूं, तो घृणा करनी मुश्किल हो जाती है। तो मेरी स्वतंत्रता प्रतिपल मेरी परतंत्रता भी निर्मित करती है। क्योंकि मैं जो चुन लेता हूं वह बंध जाता है और जो मैं छोड़ देता हूं वह छूट जाता है। तो मोहम्मद उससे कह रहे हैं कि तू आधा परतंत्र है, और आधा स्वतंत्र है।
लेकिन मेरा मानना यह है कि दो उपाय हैं, एक तो रास्ता यह है कि आदमी कहे कि बिल्कुल परतंत्र है, जैसा भाग्यवादी कहते हैं। और एक रास्ता है, पुरुषार्थवादी कहते हैं कि आदमी बिल्कुल स्वतंत्र है। वे दोनों गलत सिद्ध हुए। एक रास्ता मोहम्मद का है, कि मोहम्मद कह रहे हैं कि आदमी आधा परतंत्र है और आधा स्वतंत्र, यह तीसरा रास्ता है। मैं इसको भी गलत मानता हूं।
क्योंकि मेरा मानना है कि स्वतंत्रता और परतंत्रता आधी-आधी जुड़ ही नहीं सकती। असल में स्वतंत्रता परतंत्रता में जोड़ ही नहीं हो सकता। इनमें कोई तालमेल ही नहीं हो सकता। स्वतंत्रता का परतंत्रता से कैसे तालमेल होगा? यह कोई बायां और दायां पैर नहीं हैं। दायां और बायां पैर बिल्कुल एक जैसी चीजें हैं। स्वतंत्रता-परतंत्रता बिल्कुल उलटी चीजें हैं। इनका कोई मेल नहीं होता। तो आदमी आधा स्वतंत्र और आधा परतंत्र असंभव है। तब मैं यह कहता हूं कि चौथा विकल्प है और वह मेरा विकल्प है। और मैं यह कहता हूं कि न आदमी स्वतंत्र है, न आदमी परतंत्र है; क्योंकि आदमी के अलावा कोई है ही नहीं जिससे वह परतंत्र हो जाए या जिससे स्वतंत्र हो जाए। वही है। परतंत्र होने के लिए भी कोई चाहिए और स्वतंत्र होने के लिए भी कोई चाहिए। किसी से हम स्वतंत्र होंगे और किसी से हम परतंत्र होंगे। और अगर कोई भी नहीं है, एक ही ऊर्जा काम कर रही है, तो कैसी परतंत्रता और कैसी स्वतंत्रता? ये चार विकल्प हैं, उनमें मैं तीन को गलत मानता हूं। न तो आदमी परतंत्र है, न आदमी स्वतंत्र है, न आदमी दोनों है, आदमी दोनों नहीं है। क्योंकि आदमी जैसी कोई चीज ही नहीं है जो कि हो सके। वह ईगो ही नहीं है, वहां कोई अहंकार ही नहीं है, वहां कोई, वस्तुतः कुछ नहीं है।
बुद्ध का सारा जोर इस बात पर है, इसलिए शायद बुद्ध की गहराई कोई नहीं छू पाता। बुद्ध आत्मा को इनकार कर देते हैं, इतना परमात्मवादी आदमी नहीं हुआ दुनिया में जो आत्मा को भी इनकार कर दे। क्योंकि वे यह कहते हैं कि अगर आत्मा है तो परमात्मा कैसे हो सकेगा? अगर तुम हो, सब गड़बड़ हो जाएगा। बुनियादी बात यह है कि तुम नहीं हो, तुम हो ही नहीं।

प्रश्नः आपने कहा कि एक तरह से स्वतंत्र हैं, दूसरी के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। दूसरा उत्तर है कि स्वतंत्र नहीं हैं। तीसरा विकल्प आपने दिया कि बोथ आर फिफ्टी-फिफ्टी। आपने चौथा विकल्प सजेस्ट कियाः न स्वतंत्र रहो, न परतंत्र रहो; लेकिन न फिफ्टी-फिफ्टी हो।

न।

कुछ नहीं?

नहीं।

वॉट इ.ज योर मैसेज?

हां, इसका मतलब साफ तुम्हें हो जाएगा। हां, इसको अगर ठीक से समझोगे तो इसका मतलब बहुत साफए हो जाएगा।

समझ तो रहा हूं।

इसका मतलब यह हुआ कि अगर मैं अकेला ही हूं, तो न तो स्वतंत्र होने का उपाय है, न परतंत्र होने का उपाय है। क्योंकि मुझसे दूसरा चाहिए। समझे न?

हां जी।

मुझसे दूसरा चाहिए। और चूंकि एक ही ऊर्जा है जगत में, एक ही जीवन है--वह वृक्ष में भी वही है, मुझमें भी, तुममें भी, वह एक ही जीवन है। न वह परतंत्र हो सकता, न वह स्वतंत्र हो सकता। क्योंकि कोई उसके अलावा नहीं है। तो यह जहां स्वतंत्रता भी नहीं है, परतंत्रता भी नहीं है, उसका गहरा मतलब यह हुआ कि यहां अहंकार ही नहीं है अलग-अलग, यहां एक ही परमात्मा है। और परमात्मा को तुम स्वतंत्र नहीं कह सकते। क्योंकि उसके परतंत्र होने का उपाय ही नहीं है। जो परतंत्र हो सके उसको हम स्वतंत्र भी कह सकते हैं। और तुम परमात्मा को परतंत्र नहीं कह सकते, क्योंकि उसे कोई परतंत्र करने वाला नहीं, वह अकेला है। एकदम अकेला है। अकेला ही है। और हम सब उस अकेले के ही हिस्से हैं। यानी हमसे भिन्न कुछ है ही नहीं। अगर इस भांति दिखाई पड़ जाए, तो स्वतंत्रता-परतंत्रता का प्रॉब्लम गिर जाता है। उत्तर नहीं दे रहा हूं मैं, मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि वह प्रश्न ही गलत है, वह प्रश्न है ही नहीं कहीं। वह अहंकार से पैदा हुआ है। और अहंकार सबसे बड़ा झूठ है। और इसलिए अगर अहंकार को मान लेते हो, तो तुम कोई सवाल हल कर ही नहीं पाओगे, कि तुमने पहली झूठ मान ही ली।
जैसे कि मैं अभी अमृतसर था। एक वेदांती थे, स्वामी हरी गिरीश। वे मुझसे कुछ नाखुश रहे होंगे। मेरी बातों से बहुत से लोग नाखुश हो जाते हैं। जो भी नहीं समझ पाता वह नाखुश हो जाता है। तो वे सीधे मेरे विवाद में पड़ गए। मैं बोला और उन्होंने खड़े होकर कहा कि मैं शास्त्रार्थ करूंगा। मैं तो विवाद करूंगा। तो मैंने कहाः कैसे वेदांती हो, विवाद किससे करोगे? कहते हो, अद्वैत है, विवाद किससे करोगे? कहते हो कि एक ही है, तो विवाद किससे करोगे? मुझे मानते हो अलग, तो फिर विवाद हो जाए। लेकिन तब तुम पहले ही हार गए, अब तुम अद्वैत को सिद्ध न कर पाओगे। तुम अद्वैत को अब सिद्ध न कर पाओगे, क्योंकि विवाद किससे है? अगर तुम कहते हो कि आप गलत कहते हैं, तो भी तुम यह कहते हो कि परमात्मा गलत भी बोलता है। और क्या मतलब हुआ? अद्वैत का मतलब यह है, परमात्मा गलत भी बोलता है कभी तो अब परमात्मा के गलत और सही को निर्णय कौन करेगा? कि परमात्मा गलत बोलता है वह ठीक है कि परमात्मा सही बोलता है वह ठीक है, परमात्मा ही दोनों बोलता है। तो मैंने कहा कि अगर अद्वैतवादी हो तो विवाद का उपाय नहीं है। और अगर द्वैतवादी हो तो विवाद हो सकता है। लेकिन तब तुम हार कर शुरू करते हो, फिर अद्वैत की बात मत करना।
यानी मेरा मानना यह है, अगर... वह प्रश्न हो ही नहीं सकता, फिर प्रश्न क्या है? प्रश्न कहां है? फिर उन्होंने एक कहानी कही। बहुत पुरानी कहानी है। दूसरे दिन बोलते थे, तो उन्होंने कहानी कही थी। दस आदमी नदी पार किए, पार जाकर गिनती की है तो अपने को छोड़ गया आदमी, नौ की गिनती की। और तब वे रोने लगे हैं कि एक आदमी खो गया है शायद। कोई पास से गुजरा है, उसने गिनती करवा दी है, वे दस हैं। तो मैंने उनसे कहा कि यह कहानी शुरू से ही गलत है। शुरू से गलत इसलिए है कि नदी के उस पार वे दस की गिनती करके चले थे, अगर दस की गिनती उन्होंने ही की थी तो बड़े पागल आदमी थे कि इस पार गिनती ठीक कर ली और उस पार जाकर भूल गए। यह पता कैसे था कि वे दस थे? गिनती नदी के इस पार की होगी। और जब गिनना जानते थे हद की बात है कि नदी बड़ी अदभुत थी कि उसमें से गुजरे और आदमी अपने को गिनना भूल गया और बाकी को गिन लिया। मैंने कहाः यह कहानी से कुछ चलेगा नहीं, क्योंकि इसमें पहले यह बताना पड़ेगा कि दस की गिनती हुई कैसे थी? किसने की थी वह गिनती? और अक्सर ऐसा हो जाता है कि सवाल के पहले ही कुछ गलती हो जाती है। और फिर हम पीछे हल करने बैठते हैं। तब सब मुश्किल हो जाता है। पहले ही कहीं कुछ भूल हो गई, कहीं कोई हाइपोथेटिकल भूल है, जो शुरू में खड़ी हो गई, इसलिए फिर कभी हल नहीं हो पाती।
यह जो हम पूछते हैं कि आदमी स्वतंत्र है कि परतंत्र, इसमें हमने आदमी को मान लिया, वहीं भूल हो गई। और आदमी है नहीं। और सवाल आदमी को मानने से शुरू हुआ, और आदमी है नहीं। ऐसा कोई नहीं है एनटायटी अलग-अलग। फिर सवाल गिर जाता है। मैं सवाल का उत्तर नहीं दे रहा, मैं यह कह रहा हूं कि सवाल गलत है।

प्रश्नः हमें कोई हक नहीं है न किसी को बुरा या भला कहने का?

हक ही नहीं है। हक ही नहीं है। क्योंकि कोई है ही नहीं वहां। वहां कोई है नहीं।

प्रश्नः कोई ऊंचा नहीं, कोई नीचा नहीं; कोई चोर नहीं, कोई राजा नहीं।

नहीं, कोई है ही नहीं।

प्रश्नः अगर हम अपने एक्शंस के लिए रिस्पांसिबल नहीं हैं तो कोई... नहीं, कोई है ही नहीं।

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