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शनिवार, 1 दिसंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-15)

प्रवचन-पंद्रहवां

वर्तमान में जीना ही संन्यास है

 (अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! आपने कहा है कि हमें दूसरों के साथ संबंध नहीं जोड़ना चाहिए, लेकिन हममें से अधिकतम लोग जो पश्चिम से हैं, वहां हमारे मित्र और संबंधी हैं, हमने यहां जो कुछ पाया है, उसे उनके साथ बांटकर हम उन्हें अपना सहभागी बनाना चाहते हैं।
संन्यास के बारे में हमें उन्हें क्या बताना चाहिए? आपके बारे में हमें उन्हें क्या बताना चाहिए? और जो स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है, उसे हम कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं?


कुछ बातें ऐसी हैं, जिन्हें बताया नहीं जा सकता, तुम मौखिक रूप से उन्हें नहीं बता सकते। पर ऐसी बातों को बांटने का एक उपाय है और वह है तुम्हारे स्वयं के अस्तित्व के द्वारा।
लोगों को यह बताने के लिए कि संन्यास क्या होता है, केवल एक ही उपाय है कि तुम स्वयं एक सच्चे संन्यासी बनो। यदि तुम एक संन्यासी हो तो तुम्हारा पूरा सन्यस्त अस्तित्व ही वह सब कुछ कहेगा, जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता है। यदि तुम वास्तव में एक संन्यासी हो तब तुम्हारी पूरी जीवन-शैली इतनी प्रेरणादायक बन जाएगी कि जिसका विचार भी नहीं किया जा सकता है।


जो जीवंत है, उसे कहा नहीं जा सकता। भाषा उसे अभिव्यक्त करने में शक्तिहीन है। भाषा केवल मृत तथ्यों को ही बतला सकती है। तुम संन्यास के बारे में कुछ बातें बता सकते हो, लेकिन वह सत्य न होगा। तुम संन्यास के बारे में कोई बात कैसे बता सकते हो? संन्यास तो एक आंतरिक खिलावट है, वह तो एक आंतरिक स्वतंत्रता है, वह तो भीतरी परमानंद है और वह एक वरदान है।
निश्चित रूप से तुम संन्यास के बारे में बता सकते हो, लेकिन यह बताना तुम्हारे शब्दों से नहीं तुम्हारे अस्तित्व के द्वारा होगा, तुम्हारे प्रामाणिक अस्तित्व के द्वारा, तुम कैसे चलते हो, तुम कैसे बैठते हो, तुम कैसे देखते हो, तुम्हारी आंखें, तुम्हारा पूरा शरीर और तुम्हारी श्वास... अपने प्रामाणिक अस्तित्व द्वारा ही तुम उसे बांटोगे। तुम्हारे चारों तरफ का मौन, तुम्हारा निरंतर बढ़ता हुआ परमानंद ही सब कुछ बता देगा। तुम्हारी प्रेम तरंगे तुम्हारे बारे में सब कुछ बता देंगी और केवल वे ही बता सकती हैं।
केवल एक ही उपाय है कि संन्यासी बनो। संन्यास क्या है? संन्यास मन की स्वतंत्रता है। यदि तुम मन को नहीं समझते हो, तो संन्यास को समझना भी कठिन होगा। मन, अतीत का संग्रह है।
वह सब जो तुमने अनुभव किया है, वह सब जो तुमने जाना है, वह सब जो तुमने अभी तक जिया है, वह सब जिससे अब तक तुम गुजर कर आए हो, वह सब तुम्हारी स्मृति में एकत्रित हो गया है और यह संग्रहित अतीत ही मन है। चूंकि संग्रहीत अतीत ही मन है, इसलिए मन हमेशा मृत होता है, क्योंकि वह अतीत को ढोता है। वह हमेशा मुर्दा बना रहता है, वह कभी भी जीवंत नहीं होता है। जब भी कोई चीज़ मृत हो जाती है, वह मन का एक भाग बन जाती है। वह ठीक उस धूल की भांति है, जो यात्रा के दौरान एक यात्री के वस्त्रों पर जम जाती है।
तुम अभी और यहीं हो, परंतु मन हमेशा अतीत में रहता है। मन तुम्हारी छाया है जो तुम्हारा अनुसरण करती है।
संन्यास है : अतीत से मुक्त हो जाना और इसी क्षण में जीना। अतीत का बोझ अपनी खोपड़ी में लादे हुए न चलना ही संन्यास है। क्षण-क्षण में जीना, अतीत के प्रति मृत हो जाना जैसे मानो वह कभी था ही नहीं... मानो तुम्हारा एक नया जन्म हुआ है। प्रत्यके क्षण युवा, नूतन और निर्मल बने रहो। अपने अतीत को उठाकर अलग रख दो, उसकी धूल को एकत्र मत होने दो।
यदि तुम अतीत की धूल इकट्ठी करते हो तो तुम दिन-प्रतिदिन मंद और सुस्त होते चले जाओगे, तुम्हारी चेतना का दर्पण धूल से भरता चला जाएगा और तुम्हारा यह दर्पण रूपी अस्तित्व किसी भी चीज़ को प्रतिबिंबित करने में समर्थ न हो सकेगा। तुम जितना अधिक अतीत के साथ रहे हो, तुम्हारा दर्पण उतना ही अधिक धुंधला हो जाएगा और वह कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं करेगा। तुम्हारी संवेदनशीलता क्षीण होती जाएगी। ऐसा ही होता है।
संन्यास का अर्थ है : सभी बाधाओं को पार करना... अतीत की ओर देखकर यह समझना कि वह अब नहीं है और वह व्यर्थ है, एक बोझ है... उसे हटाकर अलग रख दो। तब तुम अभी और यहीं हो, वर्तमान में हो और इस प्रामाणिक क्षण में हो।
संन्यास का अर्थ है : समयातीत होकर रहना, न तो अतीत के द्वारा प्रभावित होना और न ही भविष्य के साथ कहीं दूर बह जाना। न तो अतीत का कोई भार हो और न भविष्य के लिए कोई कामना हो। संन्यास है लक्ष्यहीन और अकारण जीवंत होकर जीना।
यदि कोई कहता है कि संन्यास परमात्मा को प्राप्त करने का एक साधन है, तो वह व्यर्थ की मूर्खतापूर्ण बात कहता है। संन्यास इच्छा प्राप्ति का साधन नहीं है। संन्यास का अर्थ है इस तरह से जीना जैसे मानो तुमने संसार में सबकुछ प्राप्त कर लिया हो। अब कोई भी कामना नहीं है। चाहे तुम धन, शक्ति या प्रतिष्ठा की कामना करो अथवा परमात्मा या मोक्ष की कामना करो, इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। मूलभूत बात तो एक सी है कि तुम कामना कर रहे हो।
जब भी तुम कामना करते हो, तो भविष्य आ जाता है और जब भी भविष्य होता है तो वह कुछ और न होकर अतीत का ही एक प्रक्षेपण होता है। जब भी भविष्य होता है, वह एक संशोधित ज्ञात की सीमा में होता है और वह कभी भी अज्ञात नहीं होता। तुम अनजाने अज्ञात की कामना कैसे कर सकते हो? जिसे तुम जानते ही नहीं, तुम उसकी कामना कैसे कर सकते हो?
परमात्मा की कामना नहीं की जा सकती। यदि तुम कामना करते हो तो वह निश्चित ही परमात्मा नहीं है क्योंकि परमात्मा तो अज्ञात है, तुम उसकी कामना कैसे कर सकते हो? परमात्मा अनुभव के भी पार है, फिर तुम उसकी कामना कैसे कर सकते हो?
तुम सेक्स की कामना कर सकते हो, तुम शक्ति की कामना कर सकते हो, तुम अहंकार की कामना कर सकते हो क्योंकि तुम इन सब को जानते हो। तुम इन्हें अनेक जन्मों से जानते हो, लेकिन तुम परमात्मा की कामना कैसे कर सकते हो? तुम प्रेम की कामना कैसे कर सकते हो? तुम परमानंद की कामना कैसे कर सकते हो? तुमने यह सब कभी जाना ही नहीं और इनकी कामना करना असंभव है।
इसी कारण समस्त शास्त्र और सभी बुद्ध पुरूष यह कहते हैं कि परमात्मा तुम्हें घटित होता है, जब तुम कामनाहीन होते हो। मोक्ष तभी मिलता है, जब तुम कभी भी मोक्ष के पीछे भागते नहीं। तुम उस ओर जा ही नहीं सकते, क्योंकि तुम उसे नहीं जानते। निर्वाण केवल तभी घटता है, जब तुम कामनारहित होते हो।
संन्यास का अर्थ है : कामना रहित हो जाना। कामना रहित यानि वर्तमान में जीना। याद रखना, वर्तमान का क्षण समय का हिस्सा नहीं है, वह समय के पार है। समय केवल तभी आता है, जब तुम अतीत की भाषा में अथवा भविष्य की भाषा में सोचते हो। वर्तमान का एक प्रामाणिक क्षण समय का भाग नहीं है, और वह तुम्हारी घड़ी की पकड़ में नहीं आता है क्योंकि घड़ी हमेशा भविष्य में गतिशील होती है। वह हमेशा भविष्य की ओर दौड़ी चली जा रही है, घड़ी कभी भी ‘यहीं और अभी’ में नहीं होती है। वह अतीत से आ रही है और भविष्य की ओर जा रही है।
घड़ी तुम्हारे मन का प्रतिनिधित्व करती है। वह कभी भी वर्तमान में ठहरती नहीं है। जिस क्षण तुम कहते हो कि अब वह यहां है, तब तक वह और आगे बढ़ जाती है। जिस क्षण तुम देखते हो कि वह कहां है, वह क्षण अतीत बन जाता है। वह लगातार अतीत से भविष्य में छलांग लगा रही है। यदि तुम अपनी घड़ी को गौर से देखो, तो तुम देखोगे कि वह चल नहीं रही, वह छलांग लगा रही है। ऐसा लगता है कि मिनट की सुई धीमे-धीमे चल रही है परंतु उसकी छलांग बहुत छोटी है, लेकिन सेकेण्ड वाली सुई की छलांग तुम स्वयं देख सकते हो। वह शीघ्रता से, अतीत से भविष्य की ओर छलांग भरती है। वह कभी भी ‘यहीं और अभी’ में ठहरती नहीं है और यही मन का भी ढंग है।
‘अभी’ समय के पार है, वह समयातीत है, तुम उसे शाश्वत कह सकते हो। तुम कभी भी इससे दूर नहीं हो, वह हमेशा ही मौजूद होता है। तुम उसमें कभी भी जा नहीं सकते और न कभी तुम उससे बाहर आते हो, वह सदैव बना ही रहता है।
यदि तुम इस तरह से जीवन जी सको कि तुम्हारा पूरा जीवन ‘अभी’ के क्षण द्वारा आच्छादित हो जाए तो तुम एक संन्यासी हो। तुम कामनाविहीन हो, तुम परमात्मा की भी कामना नहीं करते।
जिस क्षण तुम परमात्मा की कामना करते हो, तुमने परमात्मा को भी एक वस्तु बना दिया। तब पंडितों और पुरोहितों द्वारा तुम्हारा शोषण किया जाएगा, क्योंकि वे परमात्मा को वस्तु के रूप में बेचते हैं। तब मंदिरों, मस्जिदों और गिरिजाघरों द्वारा तुम्हारा शोषण किया जाएगा, क्योंकि ये सब ऐसी दुकानें हैं, जहां परमात्मा वस्तु के रूप में बेचा जाता है। एक संन्यासी का मंदिरों और पूजागृहों से कोई भी लेना-देना नहीं होता है, क्योंकि परमात्मा कोई वस्तु नहीं है।
जब तुम कामना नहीं करते हो तो क्या होता है? इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपनी इच्छाओं का दमन करो, इसका यह भी अर्थ नहीं है कि तुम अपनी कामनाओं को मार दो? यह बात गहराई से समझ लेने जैसी है, क्योंकि ऐसी गलती हो चुकी है।
शास्त्र तथा जिन्होंने उस परमात्मा को जाना है वे लोग कहते हैं कि जब तुम कामनाहीन होते हो तो दिव्यता तुम पर घटित होती है। तब मन एक छलांग भरता है, ठीक उसी तरह जैसे एक बिल्ली चूहे को पकड़ने के लिए छलांग भरती है और मन इस कामनाहीनता को जोर से पकड़ लेता है और कहता है कि ठीक, यदि कामनाहीन होने से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है, तब मैं कामनाहीन होने की कामना करूंगा। अब एक और कामना बन जाती है तथा पुनः तुम चूक जाते हो। तब संन्यासी कामनाविहीन होने का प्रयास करने लगते हैं और तब कामनाहीन होना ही उनके लिए भविष्य का लक्ष्य बन जाता है।
इसलिए तुम क्या कर सकते हो? तुम कामना को मार सकते हो और सोच सकते हो कि तुम कामनाहीन हो। अपनी कामना की मृत्यु कर देना कामना से रहित होना नहीं है क्योंकि जब तुम्हारी कामना मरती है, तो तुम भी मृत हो जाते हो। यह बात बहुत रहस्यमयी, जटिल और सूक्ष्म है। यदि तुमने अपनी सभी कामनाओं को मार दिया, तो तुम भी मृतवत् हो जाओगे। यह कामनारहित होने का मार्ग नहीं है। कामनारहित होना, कामना की मृत्यु नहीं है बल्कि यह कामना का रूपांतरण है।
कामना का भविष्य में गतिशील हो जाना, कामना का एक ढंग है। ‘यहीं और अभी’ में वर्तमान क्षण का आनंद लेना कामना का दूसरा ढंग है और यह दूसरा ढंग ही कामना शून्य होने का सही ढंग है क्योंकि वह भविष्य की ओर उन्मुख नहीं है।
एक व्यक्ति जो वास्तव में कामनाशून्य है, वह मृत नहीं है। वह तुम्हारी अपेक्षा कहीं अधिक जीवंत है क्योंकि उसकी कामना ‘अभी और यहीं’ में केंद्रित हो गई है। यदि वह भोजन कर रहा है, तो तुम सोच भी नहीं सकते कि वह अपने सादे भोजन में भी कितना अधिक प्रसन्न है क्योंकि उसका पूरा अस्तित्व वहीं उस क्षण में है, वह खाद्य-सामग्री को केवल अपने अंदर फेंक नहीं रहा है।
एक मनुष्य जो भविष्य में रहता है, कभी भी ठीक से भोजन नहीं कर पाता है। वह केवल भोजन को अपने अंदर फेंकता है। उसकी भोजन में कोई रुचि नहीं होती है क्योंकि उसका मन तो कहीं और... भविष्य के साथ है। वह महत्त्वाकांक्षा के साथ जीता है। वह ठीक से भोजन का मज़ा नहीं ले पाता है क्योंकि हो सकता है कि उस क्षण में वह कल के भोजन को जुटाने के बारे में सोच रहा हो। वह इस क्षण भोजन का स्वाद नहीं ले सकता है। वह इस क्षण में भी, कल की कल्पना कर सकता है कि वह कल भोजन करने कहां जाएगा, वहां कितने पकवान होंगे... लेकिन उसका अभी का क्षण चूक गया और दुर्भाग्यवश आने वाला कल पुनः आज बन जाता है और इस तरह वह अपने पूरे जीवन भर चूक ही करता रहेगा।
वह जब भी प्रेम कर रहा है, वह कुछ भी अनुभव नहीं कर रहा है, वह निराश है, लेकिन उस समय भी वह किसी दूसरी स्त्री के बारे में सोच रहा है, जिससे वह भविष्य में कभी मिलेगा। प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक स्त्री के साथ ठीक ऐसा ही बहुत बार घटित होगा, क्योंकि वास्तविक मिलन तो‘अभी और यहां घटित हो रहा है परंतु मन हमेशा कल की ओर गतिशील हो सकता है। वह प्रेम करने में समर्थ न हो सकेगा। वह भलीभांति भोजन करने में समर्थ न हो सकेगा। वह प्रकृति की ओर से बरस रहे लगातार परमानंद का अनुभव करने समर्थ न हो सकेगा।
जैसे पतझड़ में वृक्ष की पत्तियां चुपचाप नीचे गिर जाती हैं, वैसे ही वह परमानंद भी प्रत्येक क्षण तुम्हारे चारों ओर बिना कोई शोर किए, शांति से लगातार बरस रहा है।
प्रकृति में सबकुछ बहुत सुंदर और मनोहारी है, प्रत्येक चीज़ एक वरदान है लेकिन तुम ही वर्तमान के क्षण में उपस्थित नहीं हो।
इसलिए संन्यासी का अर्थ यह नहीं है कि तुमने अपनी कामनाओं को मार दिया है। एक संन्यासी का तात्पर्य एक ऐसे व्यक्ति से है, जो अपनी समस्त कामना-शक्ति को वर्तमान में ले आया है और समग्रता से जी रहा है। वह जो कुछ भी कर रहा है, वह पूरी तरह उसमें तल्लीन हो जाता है, वह इतना तल्लीन होता है कि पीछे कुछ बचता ही नहीं है। वह विभाजित नहीं है।
जब वह भोजन कर रहा है, तो वह भोजन करना ही बन जाता है। जब वह प्रेम कर रहा है तो बस प्र्रेम करना ही बन जाता है और जब वह चल रहा है, तो वह बस चलना ही बन जाता है।
बुद्ध ने कहा है और उनके कहने का अर्थ बहुत थोड़े से लोगों ने ही समझा है। बुद्ध कहते हैं : ‘जब चलो तो केवल चलना ही रह जाए, चलने वाला न रहे, जब तुम बात करो तो केवल बात करना ही रह जाए, बात करने वाला न बचे, जब तुम सुनो तो सुनना ही रह जाए, सुनने वाला न बचे, जब तुम निरीक्षण करो तो केवल निरीक्षण करना ही रह जाए और निरीक्षण करने वाला न बचे।’
एक संन्यासी ऐसा ही होता है। संन्यासी की क्रिया इतनी अधिक समग्र हो जाती है कि उस क्रिया में कर्ता खो जाता है। पीछे कोई नहीं बचता, वहां कोई विभाजन नहीं होता है। तुम पूर्ण रूप से आगे बढ़ जाते हो। तुम उस क्रियाशीलता में बह जाते हो, चाहे जो भी क्रिया हो। तब आनंद परिपूर्ण बन जाता है।
इसलिए एक संन्यासी वह है जो कामनाविहीन है, न कि वह जो मृत कामनाओं को साथ रखे हुए चल रहा है। संन्यासी एक ऐसा व्यक्ति है, जिसकी कामना करने वाली शक्ति और समस्त ऊर्जा जो कामना कर सकती है, वे मुड़कर वर्तमान क्षण पर आ गई हैं। वे भविष्य में नहीं दौड़ रही हैं और वे मुड़कर वर्तमान क्षण पर आ गई हैं। उसकी कामनाएं यहीं और अभी में केंद्रित हो गई हैं। वह एक विश्व बन गया है। प्रत्येक चीज़ उसी के भीतर घटित हो रही है। कुछ भी भविष्य में नहीं जाता है, क्योंकि भविष्य मिथ्या है, वह अस्तित्वगत रूप से है ही नहीं।
यदि तुम्हारी कामनाएं भविष्य में जाती हैं, तो यह ऐसा है जैसे मानो एक नदी मरुस्थल में जा रही है। वह वहां मरूस्थल में ही सूख जाएगी और कभी भी सागर तक नहीं पहुंचेगी। वह कभी उस परमानंद का आनंद न ले सकेगी, जो एक नदी को सागर के साथ मिलने पर होता है। जब एक नदी सागर तक पहुंचती है तो संपूर्ण नदी सभी ओर से मिलन के सर्वोच्च आनंद का अनुभव करती है, वह परमानंद में होती है, वह नृत्य करती है, वह आशीष देती है, वह धन्यवाद देती है। यदि एक नदी सागर तक न पंहुचे और मरूस्थल में ही सूख जाए तो यह सब अनुभव खो जाएगा। वह वाष्पीभूत हो जाएगी और मर जाएगी। अस्तित्व के साथ उसका कोई भी संपर्क न बन पाएगा। जब कामना भविष्य में गतिशील होती है तो कामना रूपी नदी मरुस्थल की ओर गतिशील हो गई है। भविष्य कहीं भी नहीं है, हमेशा वर्तमान ही होता है। भविष्य मन का सृजन है : वह मिथ्या है, वह स्वप्न है। एक संन्यासी सपने में नहीं वास्तविकता में जीता है। वह वास्तविक सत्य का आनंद लेता है।
इसलिए यह स्मरण रखना- मैं बार-बार इस बात पर बल देता हूं कि एक संन्यासी जीवन विरोधी व्यक्ति नहीं है। वास्तव में वह ही एक ऐसा व्यक्ति है, जो जीवन के लिए है। संन्यासी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसने अपने अस्तित्व और अपनी कामनाओं को नष्ट कर दिया है और एक मुर्दा वस्तु बन गया है। संन्यासी तो जीवंत है, उसमें जीवन प्रचुरता में है। वह जीवंतता का एक स्रोत है।
क्या होता है? क्योंकि यह बहुत सूक्ष्म अंतर है। जैसे ही तुम भूख का अनुभव करते हो वैसे ही तुम भोजन के बारे में सोचना शुरू कर देते हो। तुम भूख को उसकी समग्रता में अनुभव नहीं करते हो, अन्यथा उसका भी अपना एक सौंदर्य होता है। एक व्यक्ति जो भूख का अनुभव नहीं कर सकता है, वह पहले ही से मृत है। जब भूख लगती है तो भूख वर्तमान में ही होती है, लेकिन तुम भोजन के बारे में सोचना शुरू कर देते हो। जब भोजन मौजूद होता है तो तुम किसी दूसरे पकवान के बारे में सोचना शुरू कर देते हो।
एक संन्यासी ऐसा व्यक्ति होता है, जो वर्तमान में जीता है। जब उसे भूख लगती है, तो वह उस क्षुधा का आनंद लेता है। वह पूर्ण रूप से भूख ही बन जाता है। उसके शरीर का प्रत्येक कोश भोजन की प्रतीक्षा कर रहा होता है, जैसे मानो बहुत दिनों से वर्षा न हुई हो और पृथ्वी आतुरता से वर्षा के जल की प्रतीक्षा कर रही हो। पृथ्वी का प्रत्येक रंध्र वर्षा होने की प्रार्थना कर रहा है, प्रतीक्षा कर रहा है, उसे आमंत्रित कर रहा है, वैसे ही पूरा शरीर भोजन की प्रतीक्षा कर रहा है, उसे आमंत्रित कर रहा है और भूखे होने का भी आनंद ले रहा है। जब भोजन सामने आता है, तब वह भोजन का आनंद लेता है और उस भोजन से जो संतुष्टि उसे प्राप्त होती है वह उसके पूरे अस्तित्व में, उसके पूरे शरीर में, मन और आत्मा में, यहां तक कि रोम-रोम में फैल जाती है। वह इस संतोष का आनंद लेता है।
एक झेन सदगुरु से पूछा गया- ‘ध्यान क्या है’
उसने कहा कि जब मुझे भूख लगती है तो मैं भूख ही बन जाता हूं और जब मुझे नींद आती है तब मैं सो जाता हूं।
 प्रश्नकर्ता इसे नहीं समझ सका। उसने कहा कि मैं आपके बारे में नहीं, ध्यान के बारे में पूछ रहा हूं।
सदगुरु ने कहा कि ध्यान के बारे में जो मैं जानता हूं, वह बस यही है। जब मुझे भूख लगती है तो मैं भूख का अनुभव करता हूं वहां कोई भी विभाजन नहीं होता है। जब मैं भोजन करता हूं तो मैं भोजन करता हूं और जब मुझे नींद आती है तो मैं सो जाता हूं।
जीवन के साथ कोई संघर्ष मत करो, उसमें अवरोध मत बनो- समर्पण करो, बस बहते रहो और एक श्वेत बादल बन जाओ। संन्यासी नीले आकाश में मंडराता हुआ एक श्वेत बादल है, जो प्रत्येक उस क्षण का आनंद लेता है, जो अस्तित्व ने उसे दिया है। वह अपने जीवन में प्राप्त प्रत्येक अनुकंपा से अनुग्रहित होता है। यदि यह संभव है और यह ही संभव है, ऐसा अनेक लोगों को घटित हुआ है और यह तुम्हें भी हो सकता है, केवल एक गहरी समझ की आवश्यकता है, तब कर्म-बन्ध नहीं बनते हैं। तब तुम किसी भी चीज़ का संग्रह नहीं करते हो। तुम भोजन करते हो तो प्रेम से करते हो, तुम जो भी कार्य करते हो वह इतनी अधिक समग्रता से करते हो कि कोई भी अहंकार या कोई भी स्मृति एकत्रित नहीं होती है। तुम कभी नहीं कहते कि मैंने ऐसा किया। तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? जब वहां कार्य हो रहा था, तुम वहां नहीं थे, इसलिए यह कौन कह सकता है कि मैंने इसे किया।
यदि तुम एक संन्यासी से कहो कि तुम भूखे थे और तुमने अपना भोजन ले लिया है, तो वह कहेगा कि मैं भूखा नहीं था और मैंने भोजन नहीं लिया है बल्कि भूख वहां थी और भूख ने ही भोजन ग्रहण किया है। मैंने कुछ भी नहीं किया है, मैं वहां नहीं था। यदि तुम वहां नहीं हो, यदि कर्ता ही वहां नहीं है, तो कौन कर्म इकट्ठे करेगा?
यही बात कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, परिस्थिति के अनुसार जो भी ठीक लगता है उसे करो और कर्ता को भूल जाओ। यह मत सोचो कि मैं कर रहा हूं, वस्तुतः ऐसा सोचो कि मेरे द्वारा परमात्मा ही कर रहा है।
यह इसी बात को कहने का एक दूसरा ढंग है कि मेरे द्वारा अस्तित्व ही कार्य कर रहा है। मैं केवल निमित्त मात्र हूं, एक उपकरण हूं, एक द्वार अथवा एक वाहन हूं। मैं तो केवल एक पोली बांसुरी हूं जिसके भीतर कुछ भी नहीं है। मुझ से गुजर कर यह अस्तित्व ही गीत गाए चला जाता है और नई-नई धुनें बनाकर, नूतन गीतों का सृजन कर रहा है। मैं केवल एक मार्ग हूं, मैं खोखले बांस से बनी एक पोली बांसुरी हूं।
संन्यासी एक द्वार जैसा ही होता है, वह बांस की पोली बांसुरी ही होता है। वह वहां नहीं है। उसके चारों ओर बहुत कुछ घटित हो रहा है, उसके द्वारा बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन वह वहां नहीं है। एक संन्यासी बनो क्योंकि ऐसा होना अत्यंत सुंदर है।
 तुम्हारे मन में यह बात आनी चाहिए कि तुम्हें कुछ बांटना है, कुछ देना है। तुम यहां हो और तुम्हारी मां, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा पति और तुम्हारे बच्चे घर पर प्रतीक्षा कर रहे होंगे... प्रेम सदा ही देता है। तुम वापस घर लौटोगे तो तुम अपने साथ कोई स्थूल या दृश्य चीज़ लेकर नहीं जाओगे... मां के लिए कोई उपहार या पत्नी के लिए गहना या इस देश से कोई चीज़ साथ लेकर नहीं जाओगे। तुम कुछ सूक्ष्म और कुछ अदृश्य चीज़ ले कर जा रहे हो।
इस अदृश्य के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता क्योंकि तुम कोई विचारधारा साथ नहीं ले जा रहे हो। मैं तुम्हें कोई दार्शनिक सिद्धांत नहीं दे रहा हूं, मैं तुम्हें कोई आदर्श नहीं दे रहा हूं। मैं तुम्हें एक अलग तरह का जीवन और एक अलग जीवनशैली दे रहा हूं। उन्हें इसके बारे में बताना कठिन होगा।
यदि वे प्रत्यक्ष रूप से पूछेंगे तो उन्हें कुछ भी बताना बहुत कठिन होगा। उनसे कुछ कहने का प्रयास ही मत करना क्योंकि उससे कुछ भी सहायता नहीं मिलेगी, बल्कि उससे समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। वस्तुतः उनके सामने अपने हृदय के द्वार खुले रखना, जिससे वे तुम्हारे आनंद में सहभागी बन सकें। वस्तुतः अति संवेदनशील बने रहना, उनके साथ हंसना, आनंद से भोजन करना, ध्यान करना और उन्हें बस इतना बताना कि वे तुम्हारे इस नए रूप में और नई जीवनशैली में, जिसका तुम्हें अनुभव हुआ है, सहभागी बने रहें। तुम्हारी प्रामाणिक उपस्थिति और तुम्हारा पूरा अस्तित्व, जो हंस रहा है, आनंदित हो रहा है, वह एक संक्रमण बन जाएगा और वह बनता ही है... वे उसका अनुभव करेंगे।
इसमें कुछ समय लगेगा। यह इतना आसान न होगा, यह कठिन होगा। इसलिए जाने से पूर्व तैयार रहना कि तुम्हें बांटना है और दूसरों को अपने आनंद में सहभागी बनाने के लिए पहले से तैयार रहना।
ऐसा हमेशा नहीं होगा कि वे हर बार तुम्हें समझेंगे। प्रारंभ में गलतफहमी भी हो सकती है और गलतफहमी होने की संभावना अधिक है क्योंकि उन्होंने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं होगा। यह अनजानी और अज्ञात चीज़ है। जब कभी भी अनजान और अज्ञात की तरफ से दस्तक होती है तो मन अकारण भयभीत हो जाता है, क्योंकि मन उसे संभाल नहीं पाता है। वह उसे वर्गीकृत नहीं कर पाता है। मन को आघात लगता है, वह टूटने लगता है। यदि मन किसी चीज़ को वर्गीकृत कर सके, तो वह प्रसन्न होता है और उसे एक कोने में रखते हुए उसका नामकरण कर देता है। मन उसकी व्याख्या कर देता है और बात समाप्त हो जाती है। मन हमेशा प्रसन्न होता है, यदि वह किसी चीज़ का विश्लेषण कर पाता है या उसे विभाजित कर पाता है या चीरफाड़ कर पाता है, बस ऐसा करते ही बात समाप्त हो जाती है।
लेकिन संन्यास को किसी कोटि या श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यह अस्तित्व का एक भिन्न गुण है जिसके लिए कोई भी कोटि या श्रेणी मौजूद ही नहीं है। संन्यास का विश्लेषण नहीं किया जा सकता। संन्यास को खंडों में तोड़ा नहीं जा सकता और उसके टुकड़े-टुकड़े कर फिर से जोड़ा नहीं जा सकता। नहीं, यह तो मूलभूत इकाई है। यदि तुम इसका विश्लेषण करोगे तो वह खो जाएगा और फिर तुम उसे वापिस प्राप्त नहीं कर पाओगे। यह असंभव है।
संन्यास एक जीवंत शक्ति है : यह एक मूलभूत इकाई है, ठीक एक फूल की भांति। यदि फूल का विश्लेषण करोगे, उसकी हर पंखुड़ी को अलग कर दोगे और तोड़कर उसमें कुछ ढूंढने का प्रयास करोगे तो तुम्हें यह संतोष जरूर होगा कि तुमने फूल का परीक्षण कर लिया है, परंतु उसके बाद सभी पंखुड़ियों को वापस जोड़ने कर रखने का प्रयास करोगे तो वह संभव नहीं होगा, क्योंकि उस समय तक फूल मर चुका होगा। जीवित फूल तो एक मूलभूत इकाई के रूप में था, वह कोई यंत्र नहीं था।
संन्यास मनुष्य की चेतना की खिलावट है। जैसे एक वृक्ष पर फूल आने का अर्थ है कि वृक्ष संपूर्ण रूप से विकसित हो गया है और यही फूल कभी न कभी फल बन जाएंगे। फूलों का खिलना केवल एक संकेत है कि वृक्ष अब फल देने के लिए तैयार है। वृक्ष परिपक्व हो गया है। फल आने से पहले, फूलों का खिलना तो वृक्ष के परमानंद की एक अभिव्यक्ति है। फल आने का अर्थ है : वृक्ष की परिपूर्णता अर्थात वृक्ष अपने अस्तित्व के चरमोत्मकर्ष पर है। अब वृक्ष प्रसन्न और आनंदित है कि उसका जीवन व्यर्थ नहीं गया और अब वह फल देने के लिए तैयार है।
संन्यास है फूल का खिलना और मोक्ष उसका फल है। संन्यास का अर्थ है कि अब तुम्हारी आंतरिक सत्ता या तुम्हारा आंतरिक वृक्ष, अज्ञात में एक बड़ी छलांग लगाने के लिए तैयार है और वह उस बिंदु तक पंहुच गया है जहां एक परम विस्फोट होने जा रहा है। यह सब घटित होने से पूर्व, पूरा अस्तित्व उसका आनंद लेता है, उसका उत्सव मनाता है कि अब तुम परिपूर्ण हुए। तुम्हारा यह जन्म व्यर्थ नहीं हुआ, कई जन्मों से तुम इस पल की प्रतीक्षा कर रहे थे। इतनी अधिक प्रतीक्षा और धैर्य के बाद आखिर वह घड़ी आई है जब तुम अपने घर पहुंच गए हो, अब तुमने उसे प्राप्त कर लिया है। ऐसे में पूरा अस्तित्व खिल उठता है।
हिंदुओं ने रंग-बिरंगे फूलों के कारण ही संन्यास के वस्त्रों के लिए लाल, नारंगी और गेरुआ रंगों को चुना। हरा और लाल प्रकृति के दो मौलिक रंग हैं। हरा वृक्ष का प्रतीक है और लाल फूल का प्रतीक है।
संन्यास से तुम्हारे अस्तित्व में फूल खिल उठते हैं। शीघ्र ही फल भी लगेंगे और पुनः उन फलों में बीज आएंगे। इस संपूर्ण खिलावट को अपने साथ लेकर चलो।
यह अच्छी बात है कि तुम सोचते हो कि अपने प्रियजनों के साथ यह आनंद कैसे बांटा जाए? कैसे अपने मित्र या अपनी पत्नी या अपने बच्चों को उसमें सहभागी बनाया जाए? यह बहुत सुंदर है, इस अनुभव को बांटने के बारे में सोचना ही धर्मपरायणता है।
लेकिन तुम केवल तभी बांट सकते हो, जब तुमने वास्तव में वह अनुभव किया है। यदि तुम केवल मुझे सुनते रहे हो और खिलावट के बारे में सोचते रहे हो पर खिलावट अभी हुई नहीं है, तो तुम उसे बांट नहीं सकते।
यदि तुम मेरे शब्दों का प्रयोग करते हो तो वे सच्चे पुष्प न होंगे, क्योंकि शब्द सच्चे और प्रामाणिक नहीं हो सकते, वे प्लास्टिक के फूल हैं। तुम यह शब्द रूपी नकली फूल अपने मित्रों को दे सकते हो, लेकिन उनमें कोई सुगंध नहीं होगी। यह नकली फूल मेरा संदेश न दे पाएंगे, यह मेरी बात को न समझा पाएंगे। इन उधार के शब्दों से भीतर का संवाद न हो सकेगा।
इसलिए यदि तुम संन्यास और ध्यान को बांटना चाहते हो, तो खुद संन्यासी बनो, खुद ध्यानी बनो। ध्यान की जीवनशैली में गहराई से डूबो।
कामनाशून्य बने रहो, लेकिन फिर भी भीतर उठने वाली हर कामना का आनंद लो। जो कुछ भी घटित होता है, उसे अस्तित्व के उपहार के रूप में लो, कुछ भी मांग न करो, कोई योजना न बनाओ। अपने विचारों में उलझे मत रहो, समग्रता से जिओ।
विचारों में प्रदूषित करने की शक्ति है। वे प्रत्येक चीज़ को पूरी तरह भ्रष्ट कर देते हैं, क्योंकि विचारों में चालाकी और बेईमानी होती है। अधिक सोच-विचार करने से यह चालाकी व्यक्तिगत प्रवृत्ति बन जाती है। तुम जितना अधिक सोच-विचार करते हो, तुम उतने ही अधिक चालाक होते जाते हो। तुम्हें लगता है कि तुम्हारा सोचना एक समझदारी है, तुम्हारा सोचना बुद्धिमत्ता है। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है क्योंकि यदि बुद्धिमत्ता और विवेक है तो विचार की आवश्यकता ही नहीं है। प्रज्ञा अपने आप में पर्याप्त है और विचार आवश्यक ही नहीं है। विचारों की आवश्यकता इसलिए ही होती है, क्योंकि वहां प्रज्ञा नहीं है। यदि तुम्हारे पास प्रज्ञा है, तब तुम क्षण प्रति क्षण जीते हो... तुम सहजता से हर घटना के साथ बहते हो तुम्हें यह सोचने की और योजनाएं बनाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है कि तुम्हें अब आगे क्या करना चाहिए? क्योंकि जब अगला क्षण आता है तो प्रज्ञा वहां होगी ही और तुम्हारे अंदर से स्वतः ही प्रत्युत्तर आएगा।
एक दर्पण कभी यह विचार नहीं करता है कि जब कोई व्यक्ति मेरे सामने आएगा तो मैं क्या करूंगा? यह सोचने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि दर्पण मौजूद है और वह हर चीज़ को प्रतिबिंबित करेगा। यदि प्रज्ञा है तो तुम आने वाली समस्या के बारे में सोचोगे नहीं, क्योंकि जब समस्या आएगी, तो तुम्हारा विवेक, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारी प्रज्ञा प्रत्युत्तर देगी। तुम उस पर भरोसा कर सकते हो। चूंकि हमारे पास प्रज्ञा नहीं है, इसलिए हम लगातार सोचते हैं। सोचना एक प्रतिस्थापना है, एक विकल्प है। प्रज्ञा और विवेक जितना अधिक होगा, सोच-विचार उतना ही कम होता जाएगा। जब प्रज्ञा पूर्ण होती है, तो कोई सोच-विचार होता ही नहीं है। एक बुद्ध पुरूष कभी सोचता नहीं है, उसे व्यर्थ के सोच-विचार की कोई आवश्यकता ही नहीं होती है। जीवन उसके सामने जो कुछ भी लाता है, वह अपनी प्रज्ञा से उसका प्रत्युत्तर दे देता है। तुम बहुत सोचते हो, क्योंकि तुम्हें अपनी प्रज्ञा पर भरोसा नहीं है, इसीलिए तुम्हें पहले से योजनाएं बनानी पड़ती हैं। जब कोई विशेष क्षण आता है तो तुम पहले से ही सोच-विचार कर बनाई गई योजना का अनुसरण करते हो, यह किस तरह का जीना है? तुम अतीत के सहारे जीते हो, तुम अतीत की बैसाखी पर जीते हो। हमेशा अतीत के आधार पर कार्य करने के कारण ही तुमसे अनावश्यक रूप से अनेकानेक गलतियां हो जाती हैं और सब कुछ दूषित तथा मृत हो जाता है क्योंकि तुम सदैव ही अतीत पर निर्भर हो। जीवन नदी की भांति प्रवाहित हो रहा है, जीवन प्रतिक्षण बदल रहा है, जीवन परिवर्तनशील है, जीवन कभी भी रुकता नहीं है, परंतु तुम अतीत में ही रुक गए हो।
तुम अतीत में बनाई गई योजना के सहारे ही चलते हो। जब कभी भी जीवन तुम्हारे सामने कोई समस्या लाता है, तब तुम अपने अतीत की स्मृति में झांकते हो और पहले से बनाई गई योजना के अनुसार कार्य करते हो। इसी कारण तुम चूक जाते हो। जीवन हमेशा, हर पल में नया होता है और तुम्हारी बनाई गई सारी योजनाएं पुरानी होती हैं।
जीवन ऐसा है जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं, वे कभी कोई पदचिन्ह नहीं छोड़ते, आकाश में कोई बना बनाया मार्ग नहीं होता है। जब पक्षी वापिस अपने घोसलें में चले जाते हैं, तो आकाश वैसे का वैसा कोरा रह जाता है, जैसा कि वह पहले था। वह पृथ्वी की तरह नहीं है जिस पर लोग चलते हैं और उनके चलने से, उनके पदचिन्हों से मार्ग निर्मित हो जाते हैं। जीवन एक आकाश की ही भांति है, इसमें बना बनाया मार्ग नहीं होता है।
एक संन्यासी आकाश में उड़ते हुए एक पक्षी की भांति होता है, वह किसी मार्ग का अनुसरण नहीं करता है, क्योंकि कोई मार्ग होता ही नहीं, इसलिए वह क्षण प्रति क्षण अपनी अतीत की स्मृति के द्वारा नहीं, बल्कि अपनी जीवंत प्रज्ञा के द्वारा गतिशील होता है।
परंतु हम सब इससे विपरीत काम करते हैं, हमने प्रत्येक चीज़ की योजना बना रखी है। यहां तक कि एक पति कार्यालय से वापस लौटते हुए यह सोचता है कि अपनी पत्नी से किस तरह मिलना है। वह अपने भीतर योजनाएं बनाते हुए स्वयं से ही बातें करने लगता है। वह सोचता है कि वह उसका हाथ थामेगा या उसे चुंबन देगा या उसे स्पर्श करेगा... इस बारे में योजना बनाने की आवश्यकता ही क्या है? क्या तुम्हारे भीतर अपनी पत्नी के प्रति प्रेम नहीं है?
यदि प्रेम नहीं है, तब योजना बनाना आवश्यक है, क्योंकि तुम स्वयं पर विश्वास नहीं कर सकते, तुम भूल सकते हो। प्रेम के अभाव में यदि तुमने पहले से योजना नहीं बनाई है, तो तुम घर पहुंच कर यह भूल सकते हो कि तुम्हारी पत्नी सुबह से तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही है, तुम्हारे लिए उसने भोजन बनाया है, तुम्हारे कपड़े धोये हैं और बस तुम्हारी यादों से घिरी हुई तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है और प्रतीक्षा करते करते वह अधीर हो रही है। पर शाम को तुम घर आते हो और तुम उसकी ओर देखते भी नहीं हो। तुम कुर्सी पर बैठ जाते हो और समाचारपत्र पढ़ना प्रारंभ कर देते हो या रेडियो एवं टीवी इत्यादि देखने लगते हो, जैसे मानो पत्नी का कोई अस्तित्व ही न हो। तुम्हारे इस भूलने के कारण पत्नी की जो प्रतिक्रिया होगी, तुम इसे भलिभांति परिचित हो, अतः भयभीत होकर तुम पहले ही योजना बनाने लगते हो। तुम याद रखने की हर संभव कोशिश करते हो। तुम स्वयं को याद दिलाते हो कि तुम्हें अपनी पत्नी अथवा प्रेमिका के साथ कैसा व्यवहार करना है? यह किस तरह का प्रेम है, जो बिना योजना बनाए प्रत्युत्तर नहीं दे सकता? यदि प्रेम मौजूद है, तो सोच-विचार की आवश्यकता ही नहीं होगी।
बुद्धिमत्ता और विचार के संदर्भ में भी यह सत्य है। यदि बुद्धिमत्ता है, यदि प्रज्ञा है तो ज्यादा सोच-विचार नहीं होगा। सोच-विचार करना एक विकल्प है। अत्याधिक सोच-विचार करना एक चालाकी है, चतुरता है, जिससे वास्तविक ज्ञान का भ्रम हो सकता है और यही चालबाजी है।
तुम बिना मुस्कुराहट के मुस्करा सकते हो। तुम्हारे होंठों पर मुस्कान होगी पर वह केवल होंठों पर ही होगी, वह नकली और थोपी हुई मुस्कान होगी जिसका तुम्हारे हृदय से कोई संबंध नहीं होगा। जो तुम्हारे अंतरतम से नहीं उठी है। तुम्हारे होंठों और तुम्हारे हृदय के बीच कोई भी सेतु नहीं है। वह मुस्कान तुम्हारे अस्तित्व के केंद्र से नहीं उठ रही है। वह तुम्हारे भीतर से नहीं आ रही है। तुमने केवल उसे मुखौटे की तरह पहन लिया है। सोच-विचार द्वारा ऐसा ही होता है और धीमे-धीमे तुम नकली और झूठे बनते चले जाते हो। चालाकी का अर्थ है कि तुम स्वयं के चारों ओर एक झूठा जीवन निर्मित कर रहे हो।
एक संन्यासी असली और प्रामाणिक होता है। यदि वह मुस्कराता है, तो उसकी मुस्कान उसकी आत्मा से आती है। यदि वह क्रोधित होता है, तो क्रोध उसके पूरे अस्तित्व से आता है। यदि वह प्रेम करता है, तो वह अपनी आत्मा से प्रेम करता है। संन्यासी नकली और झूठा नहीं है। वह सच्चा है और प्रामाणिक है, तुम उस पर भरोसा कर सकते हो। यदि वह प्रेम करता है तो बस प्रेम करता है। यदि वह एक मित्र है तो बस मित्र है। यदि वह मित्र नहीं है, तो नहीं है, तुम उस पर विश्वास कर सकते हो। वह धोखेबाज नहीं है।
एक धार्मिक व्यक्ति से मेरा यही आशय है : निर्दोष, प्रामाणिक और विश्वसनीय। वह जैसा भी है, वास्तव में वह भीतर से भी वैसा ही वहां है। वह मुखौटे नहीं लगाता है, वह नकली चेहरों का प्रयोग नहीं करता है। वह सत्य के साथ जीता है।
स्मरण रहे, तुम सत्य के पास तभी आ सकते हो, जब तुम खुद वास्तविक हो, असली हो। यदि तुम नकली हो, तब तुम सत्य तक नहीं आ सकते हो। जब तुम नकली और पाखण्डी हो, तो यह संसार भी एक पाखण्ड लगेगा, भ्रम लगेगा, तुम्हारे मुखौटे के कारण ही यह संसार तुम्हें माया लगता है। यदि तुम प्रामाणिक और सत्य हो तो माया का संसार विलुप्त हो जाता है, वह दिव्य और सत्य बन जाता है।
यह माया शब्द बहुत सुंदर है। माया का अर्थ है जिसे मापा जा सके, जिसकी नाप-तौल की जा सके। मन भी एक मापक है। मन चीज़ों की नाप-तौल करता है, वह विश्लेषण करता है। मन प्रत्येक चीज़ की नाप-तौल करने का प्रयास करता है। इसी कारण हिंदुओं ने इस संसार को माया कहकर पुकारा क्योंकि मन के द्वारा इसकी नाप-तौल की जा सकती है।
तुम्हारा विज्ञान क्या है? वह केवल नाप-तौल ही है। हिंदू विज्ञान को ‘अविद्या’ कहते हैं। वे विज्ञान को ज्ञान नहीं कहते बल्कि ज्ञान विरोधी कहते हैं, क्योंकि जो सत्य है, उसकी नाप-तौल नहीं की जा सकती है। सत्य मापा नहीं जा सकता, वह अनंत है। सत्य का न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत है। सत्य किसी भी माप से परे है। केवल असत्य को ही मापा जा सकता है। माप के साथ ही तर्क, सिद्धांत और कारण उत्पन्न हो जाते हैं, पर जहां माप असंभव है वहां यह सारे तर्क और कारण गिर जाते हैं। यह मन बहुत चालाक और बेईमान है, इसी मन ने ही भ्रम का संसार सृजित किया है।
संन्यासी आखिर है क्या? वह मन नहीं है। वस्तुतः इसके विपरीत वह एक निर्दोषता है। वह एक नवजात शिशु की भांति निर्दोष है, जिसका न कोई अतीत है और न ही भविष्य का कोई विचार है। एक संन्यासी प्रत्येक क्षण नवजात शिशु की भांति होता है। यह एक प्रक्रिया है कि प्रत्येक क्षण वह अपने अतीत के प्रति मर जाता है। जो कुछ बीत चुका है, वह उसे फेंक देता है, वह उसका परित्याग कर देता है, क्योंकि वह एक मृत चीज़ हो गई है, केवल धूल है, जिसे साथ लेकर चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं को साफ करता है, वह स्वयं को निखारता है, उसका दर्पण पुनः नया हो जाता है। वह अपने दर्पण को साफ करता है। इस सफाई को ही मैं ध्यान कहता हूं।
लोग मुझसे पूछते हैं कि हम कब ध्यान छोड़ सकते हैं? तुम ध्यान छोड़ने में सक्षम न हो सकोगे। ध्यान स्वयं ही छूट जाएगा, जब तुम नहीं बचोगे। परंतु तुम उसे छोड़ने में सक्षम न हो सकोगे, क्योंकि तुम्हें दर्पण को साफ करने की आवश्यकता होगी। तुम प्रत्येक क्षण में लगातार दूषित हो रहे हो, इससे धूल इकट्ठी हो जाती है, यही जीवन की प्रकृति है। प्रत्येक क्षण तुम्हें स्नान की आवश्यकता होती है। जब तुम नहीं हो, अथवा तुम्हारा अहंकार नहीं है, तब किसी भी स्नान की आवश्यकता नहीं है... तब वहां कोई भी समस्या नहीं है, क्योंकि तब वहां कोई है ही नहीं, जो गंदा हो सके। लेकिन तुम वहां हो, इसलिए ध्यान की आवश्यकता है। वह निर्दोष बने रहने का एक ईमानदार प्रयास है।
यदि तुम निर्दोष हो तो तुममें कोई भी कमी नहीं है। यदि तुम निर्दोष आंखों से नीले आकाश की तरफ देखते हो तो इसी निर्दोषता के कारण तुम स्वयं भी आकाश ही हो जाते हो। मन के साथ तुम नाप-तौल करने लगते हो। तुम हिसाब किताब लगाने लगते हो कि यह सुंदर है और वह सुंदर नहीं है, आज आकाश में बादल छाए हुए हैं और कल आकाश साफ होगा या बीते हुए कल में आकाश ज्यादा साफ लग रहा था। तुम नाप-तौल करना प्रारंभ कर देते हो।
लेकिन यदि तुम निर्दोष हो, एक चालाक मन नहीं हो, केवल एक चेतन सत्ता की भांति उपस्थित हो तो कुछ भी कहने का औचित्य ही नहीं है, कुछ भी सोचने की आवश्यकता ही नहीं है। आकाश वहां है और तुम भी आकाश ही हो। भीतर तथा बाहर का सुंदर मिलन हो रहा है। दोनों ही शून्यताएं एक दूसरे में विलीन हो जाती हैं और वहां कोई सीमा ही नहीं बचती है। दृष्टा साक्षी हो जाता है। यही बात कृष्णमूर्ति कहते हैं कि दृष्टा साक्षी हो जाता है। बाहर और भीतर की सीमाएं विलीन होकर, एक हो जाती हैं।
यदि तुम एक वृक्ष को निर्दोष भाव से, मन की नाप-तौल के बिना देखते हो तो क्या होता है? वृक्ष और तुम- वहां दो मौजूद नहीं हो, रहस्यमयी ढंग से वृक्ष तुम्हारे अंदर प्रविष्ट हो गया है और तुम वृक्ष में प्रवेश कर गए हो। केवल तभी तुम जान पाते हो कि एक वृक्ष क्या होता है? तुम सितारों की ओर देखते हो, तुम एक नदी की ओर देखते हो, तुम नीले आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की एक पंक्ति को देखते हो... तब सीमाओं का विलय होता जा रहा है। सभी भिन्नताएं और भेद मिट जाते हैं। तब एकता उत्पन्न होती है। यह एकता विचारों द्वारा निर्मित नहीं है। यह एकता दार्शनिक सिद्धांतों द्वारा निर्मित नहीं है, यह एकता पूर्ण रूप से भिन्न है। तुम सोच-विचार नहीं कर पाते कि वहां कोई एकता है और अचानक वह घटित हो जाती है, तुम बस जान जाते हो कि सब एक हो रहा है। तुम्हारा मन भीतर यह नहीं कहता है कि यह एकता वेदों और उपनिषदों की शिक्षाओं के कारण है।
यदि तुम्हारे मन में वेद और उपनिषद हैं, तो तुम निर्दोष नहीं हो। तुम चतुर हो। हिसाब-किताब लगातार चल रहा है। तुम नाप-तौल कर रहे हो, अपना दिमाग लगा रहे हो और तुलना कर रहे हो। तब तुम चालाक और चतुर हो, परंतु प्रज्ञावान नहीं हो। तुम चाहे जितने भी ज्यादा चालाक हो जाओ, परंतु एक चालाक मन सदैव ही मध्यम श्रेणी का होता है, वह औसत मन होता है। विवेक और प्रज्ञा की आवश्यकता होती है।
एक शिशु जन्म से ही प्रज्ञावान होता है, वह कभी चालाक नहीं होता। एक शिशु संसार को अपनी निर्मल आंखों से देखता है। उसकी अवधारणा, उसकी अंतरदृष्टि बिल्कुल साफ होती है, उसमें कोई भी धुंधलापन नहीं होता है।
जब मैं कहता हूं कि निर्दोषता ही संन्यास है, तो मेरे कहने का अर्थ है कि तुम्हारे भीतर विचारों का अवरोध न बने और तुम्हारी अंतरदृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए। तुम्हें स्पष्ट रूप से अवलोकन करना चाहिए। तुम्हें निरीक्षण करना चाहिए, पर उस निरीक्षण के पीछे नियंत्रण करने वाला चालाक मन नहीं होना चाहिए। यह निर्दोषता संभव है और केवल यही निर्दोषता समय और स्थान के पार ले जाती है। केवल यही निर्दोषता संन्यासी को मोक्ष, परम स्वतंत्रता और परम लक्ष्य तक पहुंचा देती है। एक संन्यासी बनो- निर्दोष, नवजात, स्वच्छ और स्पष्ट। ऐसा संन्यासी जो हर क्षण वर्तमान में जीता है, जो हर क्षण अज्ञात में जाने को तैयार है। तभी तुम इस अनुभव को बांटने में समर्थ हो सकोगे।
मनुष्य की पूरी शिक्षा प्रणाली, संस्कृति और सामाजिक ढांचा ठीक विपरीत है, वह निर्दोषता न सिखाकर तुम्हें चालाकी और बेईमानी करना सिखाता है। वह तुम्हें तर्क-वितर्क सिखाता है। वह तुम्हें स्वचालित और यांत्रिक बनाता है। इस शब्द को याद रखना, वह तुम्हें स्वचालित यंत्र बनाता है, क्योंकि तुम जितना अधिक स्वचालित यंत्र जैसे बन जाते हो, तुम उतना ही अधिक कुशल हो जाते हो।
तुम कार चलाना सीखते हो, शुरू में यह कठिन होता है। कठिनाई चलाने में नहीं है, कठिनाई तुम में है क्योंकि शुरूआत में तुम्हें खतरे के प्रति बहुत सचेत और सजग रहना पड़ता है। तुम जो कुछ भी कर रहे हो, तुम्हें निरंतर उसके प्रति सचेत रहना होता है : ट्रैफिक के प्रति, गुज़रते हुए लोगों के प्रति, कार की यंत्रप्रणाली के प्रति, क्लच, गिअर और प्रत्येक चीज़ के प्रति निरंतर सजग और सचेत रहना होता है। तुम्हें अनेक चीज़ों के प्रति सचेत बनना पड़ता है। इस सजगता के कारण तुम्हारा मन अपनी नियमित बक-बक को जारी नहीं रख पाता है। उसे सचेत होना पड़ता है और इसी से कठिनाई उत्पन्न होती है।
लेकिन बाद में, कुछ दिनों बाद तुम यंत्रवत हो जाते हो, स्वचालित हो जाते हो। अब हाथ पैर स्वयंमेव कार्य करने लगते हैं। कार और तुम एक यांत्रिक इकाई बन जाते हो। अब तुम्हारा मन कार चलाते हुए भी भीतर ही भीतर अपनी बक-बक जारी रख सकता है। अब कोई समस्या नहीं होती है क्योंकि अब सीखने के बाद, मन की कोई आवश्यकता नहीं है। स्वचालित होने से मेरा यही अर्थ है कि अब तुम्हारा शरीर यंत्रवत स्वयंमेव कार्य करता है। केवल कुछ विशिष्ट और दुर्लभ मामलों में ही तुम्हारी आवश्यकता होगी। यदि कोई दुर्घटना घटने लगी है, तब अचानक तुम्हारी आवश्यकता पड़ती है। तब तुम्हारी विचार प्रक्रिया को रुकना होगा। उस समय तुम्हारे पूरे शरीर को झटका लगेगा, तुम्हारा पूरा शरीर तंत्र कांप जाएगा, तुम्हें वहां उपस्थित होना पड़ेगा और सजग होना पड़ेगा। परंतु ऐसा कभी-कभी ही होगा। साधारण तौर पर तुम कार चलाते हुए सिगरेट पी सकते हो, गाना गा सकते हो, किसी से बात कर सकते हो, रेडियो सुन सकते हो अथवा मन ही मन में स्वयं से बात करना जारी रख सकते हो। फिर वहां तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। तुम स्वचालित यंत्र बन गए हो, इस यांत्रिकता से कार्यकुशलता और कार्यक्षमता अवश्य बढ़ जाती है। परंतु यदि तुम्हें निरंतर सजग बने रहने की आवश्यकता हो तो तुम बहुत अधिक कार्यकुशल नहीं हो सकते। तुम बहुत तेज़ी से कार नहीं चलाते हो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि सजगता कैसे लानी है? इसी कारण... क्योंकि लोग सजग और सचेत नहीं हैं, वे अचेतन में जीते हैं। समाज ने एक चाल सीख ली है कि प्रत्येक व्यक्ति को अधिक से अधिक स्वचालित बना दिया जाए। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की पूरी शिक्षा तुम्हें स्वचालित बनाने की ही एक कोशिश है। भाषा, गणित आदि... प्रत्येक चीज़ स्वचालित बन गई है। तुम बिना सजग हुए, बिना किसी चिंता के सबकुछ कर सकते हो। सब कुछ यंत्रवत बन गया है।
मैं जब कहता हूं निर्दोष बनो तो उसका अर्थ है : स्वचालित मत बनो और जो कुछ भी करो उसे पूरी सचेतनता से करो। यदि तुम कार चला रहे हो तो केवल कार ही चलाओ, कोई अन्य कार्य मत करो, भीतर मन की बातचीत को बंद कर दो। सजग बने रहकर इतनी गहराई से कार चलाने में डूब जाओ कि चालक न बचे केवल वहां कार का चलना ही बाकी रह जाए। यह कठिन होगा। इसी वजह से समाज इस बारे में फिक्र नहीं करता है। केवल व्यक्तिगत रूप से कुछ साहसी लोग ही इस कठिन मार्ग से गुज़र सकते हैं। प्रत्येक कार्य सचेत रहकर करो और धीमे-धीमे तुम्हारे शरीर का स्वचालित और अचेतन रूप से यंत्रवत होना मिट जाएगा। तुम स्वचालित और यंत्रवत नहीं रहोगे और तब निर्दोषता की खिलावट होगी।
एक बच्चा निर्दोष होता है, क्योंकि अभी वह स्वचालित और यंत्रवत नहीं है। अभी उसने कुछ भी नहीं सीखा है। उस पर समाज की पूर्वधारणाओं की परत नहीं चढ़ी है। लेकिन कभी न कभी हम उसे यह सब सिखा देंगे। जैसे ही वह यांत्रिकीकरण सीखेगा तो मन ज्यादा से ज्यादा विकसित होगा और उसका मूलभूत स्वरूप क्षीण हो जाएगा। तब वह स्वचलित यंत्र बन जाएगा- कार्यकुशल, कर्मठ, समाजसेवी परंतु वह मृतवत हो जाएगा।
समाज की सहायता करो, समाज की सेवा करो, लेकिन स्वचालित यंत्र मत बनो। तुम पहले से ही एक यंत्र हो, अब स्वयं को बदलो। धीरे-धीरे अपने भीतर ज्यादा से ज्यादा सजगता और सचेतनता लाओ, तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसमें सजगता लाओ, क्योंकि यदि सजगता नहीं होगी तो तुम स्वचालित यंत्र बन जाओगे।
जितना अधिक सजगता होगी, जितना कम यांत्रिकीकरण होगा, उतनी ही चेतनता की उपस्थिति होगी, तब निर्दोषता की खिलावट होगी और वह निर्दोषता ही सबसे महत्त्वपूर्ण उपहार है, जो एक मनुष्य को प्राप्त हो सकता है।

तुम निर्दोष हो, तभी तुम दिव्य हो।

तुम निर्दोष हो, तो तुम परमात्मा हो।

आज इतना ही।

समाप्त 

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