चौथा-प्रवचन-(धर्म समर्पण है)
प्रश्न-सार:
01-पश्चिम का मृत्यु पर बहुत अन्वेषण क्या धर्म की खोज है?02-धर्मगं्थों में प्रार्थनाएं मांग जैसी क्यों हैं? क्या प्रकाश और प्रज्ञा की प्रार्थना भी मांग है?
03-परमात्मा के प्रति प्रेमानुभूति से भरना क्या उन्नत और श्रेष्ठ आत्मा की संभावना है?
04-अंधविश्वास और शोषण पर खड़े मंदिरों और धर्माचार्यों के चरणों में झुकना क्या उचित है?
पहला प्रश्नः कल के प्रवचन में आपने मृत्यु की विशद चर्चा की। पश्चिम में अभी मृत्यु पर बहुत अन्वेषण होता है और चर्चा भी। क्या यह अनजाने ही धर्म की खोज है?
धर्म की खोज नहीं, धर्म से बचने की खोज है। मृत्यु के संबंध में आदमी के दो उपाय रहे हैं। एक उपाय हैः मृत्यु को स्वीकार कर लेना, मृत्यु के तथ्य को परिपूर्ण भाव से अंगीकार कर लेना। उस भांति धर्म की क्रांति घटित होती है। क्योंकि जो मरने को राजी है, मृत्यु उसके सामने असफल हो जाती है। जो मरने को सहज तत्पर है, उसके लिए मृत्यु ही अमृत हो जाती है।
एक दूसरी राह रही है..मृत्यु को पराजित करने कीः कुछ उपाय खोजना है कि आदमी न मरे; कुछ ऐसा करना है कि आदमी सदा-सदा के लिए बच जाए; देह नष्ट न हो, अंत न आए।
पश्चिम में जो मृत्यु की चर्चा चलती है, वह इसलिए चलती है कि कैसे मृत्यु को पीछे हटाया जाए; कैसे मृत्यु से बचा जाए; हम कैसे वैज्ञानिक उपाय खोज लें कि आदमी मरे न। यदि किसी दिन ऐसा हो जाए कि आदमी न मरे तो अधर्म जीत जाएगा, धर्म हार जाएगा। क्योंकि जैसे ही मृत्यु की बात समाप्त हो गई, मोक्ष की बात भी समाप्त हो गई। जैसे ही मृत्यु को जीत लिया गया, वैसे ही परमात्मा शेष ही न रहा।
मनुष्य के जीवन में मुक्ति की धारणा पैदा होती है मृत्यु के कारण; जीवन को बदलने की आकांक्षा जगती है मृत्यु के कारण। यह जीवन तो चला जाएगा। इसलिए जो समझदार हैं वे इसी जीवन को जीवन मानने को राजी नहीं हो पाते। जो चला ही जाएगा वह जीवन नहीं है। इसलिए शाश्वत की खोज होती है। मृत्यु के कारण ही शाश्वत की खोज होती है। थोड़ी देर को तुम सोचो, कि मृत्यु न हो तो तुम शाश्वत की खोज किसलिए करोगे? तुम स्वयं ही शाश्वत हो। मृत्यु न हो तो मोक्ष का प्रश्न कहां है? मुक्त होने की बात ही व्यर्थ है। और मृत्यु न हो तो धर्म तत्क्षण विदा हो जा जाएगा। पशुओं-पक्षियों में धर्म नहीं है, क्योंकि उन्हें अपनी मृत्यु का पता नहीं है। मनुष्य में भी धर्म शून्य हो जाएगा अगर यह पक्का हो जाए कि मृत्यु नहीं होने वाली है।
इसे ठीक से समझना। तुम्हारे जीवन में मृत्यु का बोध जितना प्रगाढ़ और स्पष्ट हो जाएगा उतने ही तुम्हारे पैर परमात्मा की तरफ बढ़ने शुरू हो जाएंगे। अगर तुम्हें ऐसा लगने लगे की मृत्यु किसी भी क्षण घटित हो सकती है, जो कि सच है, आने वाला क्षण हो सकता है मृत्यु का क्षण हो; हो सकता है जो श्वास बाहर जाती है फिर भीतर न आए..तो इसी क्षण तुम्हारा जीवन दूसरा हो जाएगा; तुम्हारे जीवन का अर्थ, आयाम, सब बदल जाएगा; तुम वही न कर सकोगे जो एक क्षण पहले तक कर रहे थे। मृत्यु की घटना सब बदल देगी।
मैंने सुना है, एक युवक एक संत के पास आता था। एक ही प्रश्न बार-बार पूछता था। प्रश्न यह था कि मैंने तुम्हें सब तरफ से देखा और परखा, वर्षों से तुम्हारी पहचान की; कहीं कोई भूल नहीं दिखाई पड़ती। तुम्हारा जीवन ऐसा निर्मल है, तुम्हारे जीवन की धारा ऐसी निर्दोष है कि कहीं कोई मलिनता नहीं दिखाई पड़ती। इस पर मुझे भरोसा नहीं आता कि आदमी इतना शुद्ध कैसे हो सकता है! मैं भी आदमी हूं, और भी आदमी हैं; तुम विश्वास योग्य नहीं मालूम पड़ते। लगता है, एक सपना हो। हो नहीं सकते। और अगर हो तो मेरी खोज में कहीं कमी रह गई है; भूल-चूक कहीं छिपी होगी। आदमी मात्र में भूल-चूक है। मैं खोज न पाया होऊंगा। तुमने इस भांति ढांका होगा पर्त दर पर्त कि मैं उघाड़ न पाता होऊंगा। मेरी खोजने की सामथ्र्य तुम्हारी छिपाने की सामथ्र्य से कम होगी ऐसा संदेह मन में होता है।
संत सुनता रहा। लेकिन यह बार-बार उठाया गया था सवाल तो एक दिन संत ने कहाः अब जवाब दे देना जरूरी है। तेरा हाथ देखना चाहता हूं।
युवक कुछ समझा नहीं कि हाथ देखने से मेरे प्रश्न का क्या संबंध होगा? हाथ संत ने देखा और कहा कि कहना तो नहीं चाहिए, लेकिन सत्य को छिपाना उचित नहीं है। कल सुबह सूरज उगने के साथ ही तेरा अंत हो जाएगा। इधर सूरज उगेगा, उधर तेरा सूरज डूब जाएगा। तेरी मौत की घड़ी करीब आ गई है। तेरी उम्र की रेखा कट गई है। कई दफे तेरे हाथ पर नजर गई, लेकिन मैं सोचता था, अभी तो देर है, अभी तो देर है; अभी क्यों मारने के पहले मार देना! लेकिन अब देर नहीं है। यह आखिरी मिलन है। कल सुबह के बाद तो फिर तू मिल न पाएगा मुझे। अब मैं निशिं्चत हुआ। यह तुझसे कह दिया, मेरा बोझ हलका हो गया। अब तू पूछ, क्या पूछना है।
वह जो प्रश्न सदा से युवक ने पूछा था, भूल गया। जब अपनी मौत आ गई हो तो किस में दोष हैं, किस में दोष नहीं हैं..किसको प्रयोजन है? यह तो सुविधा के समय की बातचीत है। वह उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहा कि अभी मुझे कोई प्रश्न नहीं सूझता। मुझे अब घर जाने दें।
संत ने कहाः रुको भी। इतनी जल्दी क्या है? कल सुबह को अभी काफी देर है। अभी तो दिन पड़ा है, रात पड़ी है..चैबीस घंटे लगेंगे। इतनी घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है।
उस युवक ने कहाः बातचीत बंद करो। मेरी मौत आ गई है, तुम्हें यहां बैठ कर बकवास करने की पड़ी है।
संत ने कहाः लेकिन, भई तुम सदा एक प्रश्न पूछते थे; फिर कभी न पूछ पाओगे, क्योंकि कल सुबह तुम विदा हो जाओगे। आज मैं उसका उत्तर देने को तैयार हूं।
उस युवक ने कहाः रखो अपना उत्तर अपने पास। मुझे घर जाने दो, मुझे पकड़ो मत।
उसके हाथ-पैर कंप रहे हैं। अभी आया था बल से भरा। अभी पैर रखता था तो ताकत थी। सब शक्ति खो गई। कहीं कुछ बदलाहट नहीं हुई है, सब वैसा का वैसा है। कोई बीमार नहीं हो गया है अचानक; लेकिन स्वास्थ्य खो गया। बीमारी जो नहीं आई, स्वास्थ्य जा चुका। उतरा। आया था, तब सीढ़ियों पर चलने में एक नृत्य था, जवानी थी। लौटता था तो सीढ़ीयों के पास की दीवाल का सहारा लेकर उतरने लगा। आंख पर धुंध छा गई। पैर कंपने लगे।
फकीर ने कहाः भई ऐसी क्या बात है? अभी आए थे तब भले-चंगे थे, अब इतने क्या परेशान हो रहे हो? ऐसा क्या दीवाल पकड़ रहे हो? जवान आदमी हो! लेकिन अब उसे कुछ सुनाई न पड़ाः कान जैसे बहरे हो गए; आंखें जैसे अंधी हो गईं।
सारी इंद्रियों का खेल है जब तक जीवन है। जब जीवन ही जाता हो तो सब इंद्रियां उदास हो गईं। वह घर जाकर बिस्तर से लग गया। घर के लोगों ने कहाः क्या हुआ है? कोई बीमारी हो गई है, कोई दुख, कोई पीड़ा, कोई चिंता?
उस युवक ने कहा कि न कोई चिंता है, न कोई बीमारी है, न कोई दुख है; लेकिन सब गया। चिंता भी नहीं है। चिंता भी क्या करनी है? एकदम शून्य हो गया हूं। सब डगमगा गया है। भीतर एक कंपकंपी है। मरना है कल सुबह। फकीर ने कहा हैः उम्र की रेखा कट गई है।
बार-बार अपना हाथ देखता है, रेखा देखता है। घर के लोग रोने-पीटने लगे। मोहल्ले-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए। दूसरे दिन सुबह सूरज उगने के पहले वह युवक बुझी-बुझी हालत में था..अब गया; तब गया; जैसे दीया आखिरी टिमटिमाहट लेता है। तभी फकीर ने द्वार पर दस्तक दिया। पत्नी रो रही थी, बाप रो रहा था, मां रो रही थी, बच्चे रो रहे थे, मोहल्ला इकट्ठा था। फकीर ने कहाः रोओ मत। मुझे भीतर आने दो। चुप हो जाओ।
उस युवक को हिलायाः आंख खोल। उसने आंख खोली, लेकिन पहचान न सका कि कौन खड़ा है। प्रत्यभिज्ञा नष्ट हो गई। फकीर ने कहाः तेरे सवाल का जवाब देने आया हूं।
उस युवक ने कहाः बंद भी करो। सवाल का जवाब मांगता कौन है?
उस फकीर ने कहाः लेकिन जो मैंने यह तेरे हाथ के रेखा की बात कही है, यह तेरे सवाल का जवाब है। अभी तेरी मौत आई नहीं है। मैं तुझसे यह पूछता हूं कि इन चैबीस घंटों में तूने कोई पाप किया?
‘सवाल का उत्तर है? ’ युवक उठ कर बैठ गया..‘तो मौत नहीं आ रही है? ’
फकीर ने कहाः यह सिर्फ मजाक था; सिर्फ यह बताने को कि अगर मौत आती हो तो आदमी के जीवन से पाप खो जाता है। चैबीस घंटे में कोई पाप किया? किसी को दुख पहुंचाया?
उस युवक ने कहाः दुख की बात करते हैं; दुश्मनों से क्षमा मांग ली। सिवाय प्रार्थना के इन चैबीस घंटों में कुछ भी नहीं किया है।
फकीर ने कहा कि मेरे जीवन में भी जो तुझे पवित्रता दिखाई पड़ती है, वह मौत के बोध के कारण है। तुझे चैबीस घंटे बाद मौत दिखाई पड़ती है, मुझे चैबीस साल बाद दिखाई पड़ती है..इससे क्या फर्क पड़ता है? मौत है! मौत का होना काफी है। वह सत्तर दिन बाद आएगी कि सत्तर साल बाद आएगी..इससे क्या...? यह तो ब्योरे की बात है। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता; आ रही है! जो आ रही है वह आ ही गई है। उसने मेरे जीवन को बदल दिया है। मृत्यु का बोध जीवन को रूपांतरित करता है; जीवन को पुण्य की गरिमा से भरता है; जीवन को पवित्रता की सुवास से भरता है; जीवन को पंख देता है परलोक जाने के; परलोक की अभीप्सा देता है; परमात्मा की खोज की आकांक्षा जगाता है।
लेकिन पश्चिम में जो खोज चलती है मृत्यु की, वह धर्म की खोज नहीं है; वह धर्म से बचने की खोज हैः कैसे हम मृत्यु को जीत लें; कैसे आदमी को लंबाया जा सके? अगर हृदय टूट जाता है तो प्लास्टिक का हृदय कैसे लगाया जा सके जो कभी न टूटे, या कभी बिगड़ भी जाए तो दूसरा प्लास्टिक का हृदय पेट्रोल पंप से लिया जा सके। कभी कुछ गड़बड़ हो जाए तो शरीर को गैरेज में जाकर खड़ा कर दिया..नट-बोल्ट की बात रह जाए, तकनीकी हो जाए जीवन। हड्डी टूट जाती है; वह स्टील की हो सकती है कल। खून खराब हो जाता है; वह पूरा का पूरा बदला जा सकता है। खून की जरूरत क्या है? रसायनिक द्रव्य उसकी जगह बह सकते हैं जो ज्यादा शुद्ध होंगे। शरीर को इस भांति कर लेना है कि वह यंत्रमात्र हो जाए, तो फिर उसमें पुर्जे बिगड़ते जाएं, बदलते जाओ, और अंतकाल तक शरीर को चलाते रहोः वह कभी बूढ़ा न हो, वह कभी जराजीर्ण न हो।
तुम थोड़ी देर सोचो; यह जो आकांक्षा है मृत्यु को जीत लेने की, यह जीवन के सामने सबसे बड़ा जो संघर्ष है यह युद्ध वाले मन की आकांक्षा है। पहले विज्ञान ने प्रकृति को जीतना चाहा, अब प्रकृति पर जीत काफी दूर तक हो गई है; अब वह परमात्मा को भी जीत लेना चाहता है। फिर कोई मंदिर न होगा, न कोई प्रार्थना होगी, न ध्यान का कोई सवाल होगा। तुम जीते रहोगे; यद्यपि जीवन जैसा सब कुछ विदा हो जाएगा, क्योंकि यंत्र का क्या जीवन?
तुम थोड़ी देर को सोचो; तुम्हारे भीतर सब कल-पुर्जे चल रहे हैं..क्या जीवन होगा तुम्हारा? तुम्हारी क्या आत्मा होगी? आत्मा तुम्हारी निजता में है, तुम्हारी व्यक्तित्व में है, तुम्हारे अनूठेपन में है, तुम्हारी अद्वितीयता में है। यंत्र तो यंत्र ही होंगे; उनमें तुम्हारी कोई अद्वितीयता न रह जाएगी।
विज्ञान मृत्यु के संबंध में सोचता है..मृत्यु को जीतने को। धर्म मृत्यु के संबंध में सोचता है..मृत्यु को स्वीकार करने को। इनमें क्रांतिकारी फर्क है। धर्म कहता हैः जो है उसे स्वीकार कर लो। उससे लड़ना व्यर्थ है। अंश अंशी से लड़ेगा जो कैसे जीतेगा? खंड अखंड से लड़ेगा तो हार निश्चित है। और लड़ने में जो समय गया, शक्ति गई, वही समय और शक्ति तो जीवन के आनंद को भोगने में व्यतीत हो सकता था। तुम लड़ो ही मत, बहो।
धर्म कहता हैः समर्पण। विज्ञान कहता हैः संघर्ष! मृत्यु के संबंध में भी दो ही दृष्टिकोण हैं..या तो संघर्ष या समर्पण।
समर्पण ही द्वार है। अगर तुमने समर्पण किया तो मृत्यु जीत ली जाती है..बड़े गहरे अर्थों में। शरीर की मृत्यु नहीं जीती जाती, लेकिन आत्मा की मृत्यु जीत ली जाती है। शरीर तो मरेगा, मरना ही चाहिए; क्योंकि जीवन नित-नूतन होता है। पुराने ही वृक्ष खड़े रहें तो नये वृक्षों के जन्म का उपाय न रह जाएगा। पुराने ही फूल पौधों पर लगे रहे तो नये फूल कहां अंकुरित होंगे, कैसे अंकुरित होंगे? पुराना ही बना रहे तो नये का आना बंद हो जाएगा। बूढ़े ही बचे रहे तो बच्चों का प्रवाह, बच्चों की धारा अवरुद्ध हो जाएगी। जीवन तो नित नया होता है। तुम जीवन के प्रति मोहग्रस्त मत बनो। यह आग्रह मत करो कि मैं इसी ढंग से बना रहूं जैसा हूं। तुम परमात्मा को मौका दो कि वह तुम्हें नित-नया करता जाए।
मृत्यु तुम्हें नये करने की कोशिश है। मृत्यु दुश्मन नहीं है; मृत्यु मित्र है। मृत्यु तो तुम्हें बदलने का उपाय है। मृत्यु तुम्हें सतत प्रवाह में रखने का माध्यम है। तुम तो चाहोगे कि जड़ हो जाओ, बर्फ की तरह जम जाओ; मृत्यु तुम्हें पिघलाए जाती है, जलधारा की तरह बहाए जाती है। मृत्यु साथी है। वह जीवन का दूसरा पैर है। जैसे पक्षी के दो पंख हैं, ऐसा जन्म और मृत्यु तुम्हारे दो पंख हैं। उन दोनों से ही तुम जीवन के आकाश में उड़ते हो। उनमें से एक पंख तुमने काट दिया तो ध्यान रखना, दूसरा पंख काम न आएगा।
जिस दिन मनुष्य मृत्यु को जीत लेगा..जीत नहीं सकता, यह मैं जानता हूं; यह सिर्फ मैं परिकल्पना की बात कह रहा हूं विज्ञान की..यदि मनुष्य मृत्यु को जीत लेगा, उसी दिन जीवन व्यर्थ हो जाएगा; उसी दिन जीवन में कोई सार न रह जाएगा। जिस दिन मनुष्य मृत्यु को जीत लेगा, उसी दिन तुम प्रार्थना करने लग पड़ोगे कि हम कैसे मरें; परमात्मा मृत्यु दे! क्योंकि तुम अटके रह जाओगे। तुम लंबे जीओगे लेकिन तुम प्लास्टिक के हो जाओगे। तुम लंबे जीओगे, तुम्हारा हृदय धड़कता ही रहेगा, लेकिन वह लोहे का हृदय होगा, आदमी का नहीं। उसमें से परमात्मा का हाथ अलग हो जाएगा; उसमें आदमी का हाथ समाविष्ट हो जाएगा। तब तुम एक यंत्रवत हो रहोगे।
लेकिन, अगर तुम जीवन को ठीक से समझो तो तुम समझोगे कि मृत्यु अनिवार्य है। वह कोई दुर्घटना नहीं है। मृत्यु कोई दुर्घटना नहीं है, मृत्यु जीवन का अनिवार्य अंग है; अत्यंत अपरिहार्य है; होनी ही चाहिए। आवश्यक है ताकि तुम्हारी देह बदल सके, तुम्हारे जराजीर्ण वस्त्रों को तुम छोड़ दो, नये वस्त्र पहन लो।
विज्ञान की चेष्टा ऐसी है जैसे भिखमंगे की चेष्टा है; उसके पास फटे-पुराने कपड़े हैं, चीथड़े है, वह उन्हीं में थेगड़े लगाए जाता है, मगर छोड़ता नहीं हैः भिखमंगा है, उसे भरोसा भी नहीं है कि दूसरे वस्त्र मिल सकते हैं। सम्राट अपने वस्त्रों पर थेगड़े नहीं लगाता; वस्त्र इसके पहले कि पुराने हों छोड़ देता है, नये वस्त्र उपलब्ध हो जाते हैं।
धर्म का ढंग सम्राट का ढंग है। क्या थेगड़े लगाना है उसी शरीर पर? दूसरा मिलेगा। जहां से पहला आया है वहां से दूसरे के आने में क्या अड़चन है? जिसने तुम्हें इस बार जीवन दिया है वह तुम्हें दुबारा न देगा..ऐसा संदेह तुम्हें कैसे होता है, क्यों होता है? अगर एक बार जीवन का चमत्कार घट सकता है तो हजार बार क्यों नहीं घट सकता? जो बात एक बार हो सकती है वह करोड़ बार हो सकती है। जो बात हो ही नहीं सकती, वह एक बार भी नहीं हो सकती। तुमने एक बार जीवन को जाना, वसंत को जाना..पतझड़ को भी जानो! हर पतझड़ के बाद फिर वसंत आ जाएगा। तुमने जीवन की मुस्कुराहट जानी, जीवन का रुदन भी जानो। हर आंसुओं के बाद आंखें फिर ताजी और स्वच्छ हो जाएंगी। जो वृक्ष के फूल आज गिर रहे हैं पतझड़ में वृक्ष के पत्ते, चुपचाप दबते जाते हैं मिट्टी मेंः वे फिर उगेंगे। वस्तुतः जमीन में वे जा कहां रहे हैं? जड़ों के पास पहुंच रहे हैंः जमीन में घुलेंगे-मिलेंगे, फिर नई जड़ों से प्रवाहित होंगे, फिर उठेंगे आकाश में, फिर खिलेंगे।
डरो मत! सूखे पत्ते की तरह कंपो मत। घबड़ाओ मत। चुपचाप सो जाओ गहन निद्रा में। उतर जाओ जड़ों के पास। जिसने तुम्हें एक बार उठाया था आकाश में, वह तुम्हें अनंत बार उठा सकेगा।
कमजोर आदमी, भिखमंगा आदमी, भयग्रस्त है। उसकी आस्था नहीं है। वह कहता हैः इस बार तो किसी तरह हो गए..हालांकि उसे पता नहीं कि कैसे हो गए..इस बार तो किसी तरह हो गए; अब आगे कैसे होंगे, इसलिए पकड़े रहो! सूखा पत्ता वृक्ष को पकड़ने की कोशिश कर रहा है। वह कहता हैः मैं लगा ही रहूं, चाहे धागे से सी दिया जाऊं, चाहे सूख जाऊं, सड़ जाऊं मगर अटका रहूं वृक्ष से।
तुम सोचोः अगर सूखे पत्ते को वैज्ञानिक किसी तरह अटका दे तो सूखे पत्ते के हित में हुआ या अहित में हुआ? उसके नये होने का उपाय नहीं रहेगा। अब वह जमीन में वापस न सो सकेगा। और इतने दिन तक आकाश में खड़े रहने के बाद, हवाओं से जूझने के बाद विश्राम भी चाहिए। वह भूमि में खो जाए, कुछ देर गहरी नींद ले ले, फिर से ताजा और नया हो जाए..फिर सुबह होगी!
तुम उस भिखमंगे की तरह मत बनो जो सोचता है, अगर ये वस्त्र खो गए तो फिर कोई वस्त्र मिल नहीं सकते; ये वस्त्र आखिरी नियति मालूम होते हैं, इन्हीं पर थेगड़े लगाए जाओ; थेगड़े भी फटने लगें तो थेगड़ों पर थेगड़े लगाए जाओ; गंदे और जरा-जीर्ण होते चले जाओ..लेकिन पकड़े रहो!
सम्राट उतार देता है वस्त्रों को, दूसरे पहन लेता है।
धर्म का ढंग सम्राट का ढंग है धर्म इतना ही सिखाता है कि तुम्हारा शरीर ज्यादा से ज्यादा वस्त्रों की भांति है; उसे छोड़ने में घबड़ाना मत। तुम तुम्हारा शरीर नहीं हो। तुम तो वही शाश्वत स्वर हो जो अनंत शरीरों में आया और गया, जिसने बहुत पतझड़ देखे और बहुत बसंत। तुम न तो पतझड़ हो, न बसंत हो। तुम न तो सूखा पत्ता हो, न हरे पत्ते हो। तुम तो वह जीवन हो जो हरे पत्ते को हरा करता है। तुम तो वह जीवन हो जो विदा हो जाने पर सूखे पत्ते को सूखा करता है। तुम जीवन की रसधार हो।
इस रसधारा को ही हमने ब्रह्म कहा, आत्मा कहा। इस रसधारा का न कोई नाम है, न रूप है। यह रसधारा बहुत ढंगों से प्रकट होती है। तुम इसके अनंत खेल में भागीदार बनो। तुम डरो मत। तुम भय से कंपो मत। वही फरीद कह रहे हैं कि जब मौत आए फरीद, तू उठ कर खड़े हो जाना; तू स्वागत के लिए हाथ फैला देना। मौत तुझे, ऐसा न हो, गैर-तैयारी में पाए। कहीं ऐसा न हो कि कहीं तू अपने को धोखा दे दे आखिरी क्षण में और डरने लगे और कंपने लगे और पकड़ ले जोर से जीवन को! उठ कर खड़े हो जाना। स्वागत से द्वार खोल देना। फूलमाला सजा लेना। कहनाः मैं तैयार हूं, कब से प्रतीक्षा करता था!
तत्क्षण वह जो मौत की तरह दिखाई पड़ा था, वह मौत की तरह दिखाई नहीं पड़ेगा।
इसे थोड़ा समझो, क्योंकि मौत तुम जिसे कहते हो, वह भी तुम्हारी व्याख्या है। मौत शब्द में ही तुम्हारी व्याख्या छिपी है। द्वार पर कोई आता है जरूर; वह कौन है, यह तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर होगा। अगर तुम भयभीत हो तो मौत; अगर तुम निर्भय हो तो परमात्मा। यह तुम्हारी व्याख्या है। जो आता है, तुम उसे थोड़े ही देखते हो; तुम्हारा मन तुम्हें जो दिखाता है, तुम उसी को देखते हो। अगर तुम डर गए तो द्वार पर खड़ा हुआ दूल्हा मौत का है; अगर तुम न डरे, उठ कर घोड़े पर सवार हो गए कि चलने को तैयार हूं..अचानक दूल्हे का रूप खुल जाता है, रहस्य खुल जाता है। वह तुम्हारा प्रीतम है जिसकी प्रतीक्षा की थी। कभी वह जन्म की तरह आया था, तब भी तुम चुक गए, न देख पाए; अब मौत की तरह आया है, अब भी चूक जाओगे?
फरीद कहता हैः फरीदा, अपने को धोखा मत दे देना। अब यह अवसर चूक न जाए। अब तो तू पहचान ही लेना कि कौन द्वार पर दस्तक दिया है।
पश्चिम में भी मृत्यु का विचार चलता है, लेकिन वह विचार धर्म के लिए नहीं है; वह विचार इसलिए चलता है कि हम कैसे मनुष्य को अमर बना दें। और अमर होने की आकांक्षा किसलिए है? ..ताकि वासनाओं को हम अनंत तक भोग सकें। आखिर अमर होने की क्या आकांक्षा हो सकती है? क्या करोगे? सत्तर साल जीते हो; सात सौ साल जीओगे..क्या करोगे? सात हजार साल जीओगे..क्या करोगे? वही करोगे न जो सत्तर साल जी कर किया था? उसी को बार-बार करोगे। उसको ही दोहराते जाओगे। गाड़ी के चाक की तरह घूमते रहोगे। करोगे क्या? वही पद, वही धन, वही वासना..उसी को दोहराओगे।
आदमी अमर क्यों होना चाहता है? क्योंकि जीवन छोटा मालूम पड़ता है और वासनाएं इतनी बड़ी मालूम पड़ती हैं कि पूरी नहीं होतीं। जीवन छोटा पड़ता है, वासनाएं बहुत हैं। अरबों-खरबों रुपये जमा करने हैं। बड़े पदों पर पहुंचना है। सारे साम्राज्य को निर्मित करना है। अनंत आकांक्षाएं हैं और जीवन थोड़ा है..यह अड़चन है। इसलिए आदमी अमरता चाहता है। कहीं कोई मिल जाए अमृत, कहीं कोई मिल जाए पारस पत्थर कि छूते ही आदमी अमर हो जाए..बस फिर कोई दिक्कत नहीं है। फिर कितनी ही हों वासनाएं, सभी को पूरा करके रहेंगे।
लेकिन वासनाओं का स्वभाव दुष्पूर है। वासनाएं इसलिए पूरी नहीं होती कि तुम्हारा जीवन छोटा है, यह मत समझना; वासनाएं इसलिए पूरी नहीं होतीं कि पूरा होना उनका स्वभाव नहीं है।
यही धार्मिक और अधार्मिक व्यक्ति की दृष्टि का भेद है। अधार्मिक आदमी कहता है, जीवन छोटा है..आया, गया, सत्तर साल में चुक जाता है। बीस-पच्चीस साल तक तो होश ही नहीं रहता..बचपन में गुजर गए, लड़कपन में गुजर गए। बीस साल आदमी सोता है साठ साल में, वे ऐसे ही गुजर जाते हैं। फिर खाना है, पीना है, काम करना है, नौकरी-चाकरी..इस सब में वक्त व्यतीत हो जाता है। बचता क्या है? अगर सत्तर साल में बहुत खोज-बीन करो तो भोगने लायक समय क्या बचता हैः साल दो साल, बहुत? साल दो साल में इतनी वासनाएं पूरी कैसे होंगी? नहीं, जीवन छोटा है, वासनाएं ज्यादा हैं। लेकिन धार्मिक व्यक्ति कहता है, यह नहीं है बात; वासनाओं का स्वभाव दुष्पूर है।
ययाति की बड़ी प्रसिद्ध कथा है। वह मरने के करीब हुआ। वह सौ साल का हो गया था। मृत्यु लेने आई, ययाति गिड़गिड़ाने लगा। वह बड़ा सम्राट था। मृत्यु को भी दया आ गई। वह आदमी बड़ा बलशाली था, और आज ऐसे दुर्दिन में रोने लगा, छोटे बच्चों की तरह चीखने-चिल्लाने लगा और मृत्यु के पैर पकड़ने लगा। वही उसने भूल की जो फरीद बताना चाहता है कि..फरीद अपने को धोखा मत देना। ययाति ने फिर धोखा दे दिया। ययाति उठ कर खड़ा न हो सका; गिड़गिड़ाने लगा। वह कहने लगाः मुझे छोड़ दो। अभी तो कुछ भी पूरा नहीं हुआ। अभी तो एक भी वासना पूरी नहीं हुई और तुम लेने आ गए? अन्याय मत करो। ये दिन तो ऐसे ही बीत गए बेहोशी में। सौ साल मुझे और मिल जाएं बस, तो अब मैं चूकूंगा नहीं, भोग ही लूंगा। सौ साल बाद तुम आ जाना, तुम मुझे तैयार पाओगी।
पर मौत ने कहाः किसी को ले जाना पड़ेगा। खाली हाथ जाने का कोई उपाय ही नहीं है। तू अपने बेटों में से किसी को राजी कर ले।
सौ बेटे थे ययाति के। सौ साल जी चुका था। सैकड़ों रानियां थीं। मौत ने तो इसलिए कहा, कि यह तो तरकीब थी मौत की कि कोई बेटा कहीं जाने को राजी हुआ है! जब बाप तक मरने को राजी नहीं तो बेटा कैसे राजी होगा? सौ साल का बूढ़ा मरने को राजी नहीं तो तीस-पच्चीस-चालीस साल का जवान कैसे मरने को राजी होगा? जब इसकी वासनाएं पूरी नहीं हुईं तो चालीस-पचास साल के आदमी की वासनाएं अभी कहां पूरी हुई होंगी? यह तो तरकीब थी। यह तो होशियारी थी मौत की। यह तो सिर्फ न कहने का एक कुशल ढंग था। यह तो राजनीति थी।
ययाति ने अपने लड़कों को बुला लिया। बड़े लड़कों ने तो ध्यान ही नहीं दिया। वे तो चुपचाप बैठे रहे। उन्होंने तो सिर भी न हिलाया; क्योंकि वे भी जीवन के अनुभव से अनुभवी हो गए थे। उन्होंने भी कहाः यह भी बूढ़ा क्या बातें कर रहा है! तुम मरना नहीं चाहते, हमें मारना चाहते हो! जब तुम्हारी इच्छाएं पूरी नहीं हुईं हो तो हमारी कहां से पूरी हो जाएगी? हम तो तुमसे कम ही जीए हैं। तुमने तो सब भोग लिया। तुम हटो तो सिंहासन खाली हो, तो हम भी थोड़ा भोग सकें। तुम हमें हटाने की कोशिश कर रहे हो! यह तो जरूरत से ज्यादा बात हो गई। बाप मरे, यह तो नैसर्गिक नियम है; बाप के पहले बेटा मरे, और वह भी बाप मांगे, यह भी कोई बाप हुआ! और बाप कहे कि तू मर जा! ऐसे बाप के लिए कौन मरने को राजी होगा?
बड़े लड़के तो चुप रहे, लेकिन एक छोटा लड़का जिसकी उम्र कुल अट्ठारह-उन्नीस साल थी..अभी कली खिली भी न थी, अभी जवान हो ही रहा था, अभी मूंछ की रेखाएं आनी शुरू हुई थीं..वह उठ कर पास आ गया और उसने कहा कि मैं तैयार हूं। ययाति भी चैंका। वह बेटा उसे बहुत प्यारा था। लेकिन अपने से ज्यादा प्यारा तो बेटा भी नहीं होता। अपने जान जाती हो तो पति भी प्यारा नहीं, पत्नी भी प्यारी नहीं, बेटा भी प्यारा नहीं। उपनिषद कहते हैं, आदमी दूसरों को भी अपने लिए प्रेम करता है। यह तो सुविधा होती है, तब की बातें हैं प्रेम। अब यहां जहां मौत का सवाल हो तो तुम अपने को बचाओगे कि बेटे को बचाओगे?
ययाति को दुख तो हुआ, लेकिन मजबूरी थी। उसने कहाः क्षमा कर। लेकिन मेरा रहना जरूरी है।
मौत हैरान हुई। मौत ने उस बेटे के कान में कहाः नासमझ! तेरा बाप मरने को तैयार नहीं, तू मरने को तैयार है?
उस बेटे ने कहाः बाप को न मरते देख कर ही मैं तैयार हो गया..कि जब सौ साल में भी इच्छाएं पूरी नहीं होती तो मैं भी क्या कर लूंगा! अस्सी साल और गंवाने से क्या फायदा है? अस्सी साल बाद तुम आओगे, मृत्यु के देवता! आओगे जरूर, तब अस्सी साल और यहां तुम्हारी राह देखने की क्या जरूरत है? निपटारा ही करो। बात खत्म ही करो। और बाप की भी इच्छाएं अभी पूरी नहीं हुईं..इससे साफ है कि इच्छाएं पूरी नहीं होती। नहीं तो मेरे पिता को क्या कमी थी? हजारों रानियां हैं, धन-संपत्ति है, बड़ा साम्राज्य है, जगत में कीर्ति है। क्या था उसे जो उपलब्ध नहीं था! जो भोगने को शेष रह गया हो! सब उसने भोग लिया है, लेकिन लगता है भोग का कभी अंत नहीं होता। तुम मुझे ले चलो। मैं तो पिता को तैयार न देख कर ही तैयार हो गया हूं। बात ही खत्म हो गई। अब इसी मूढ़ता में मैं क्यों पडूं?
मौत ने मजबूरी में वचन दे दिया, ययाति के बेटे को ले जाना पड़ा। सौ साल ययाति जिंदा रहा। फिर मौत आई। लेकिन सौ साल भूल ही गया, बात ही भूल गया था। सौ साल इतना लंबा वक्त है, कौन याद रखता है। सौ साल बाद मौत आई, फिर गिड़गिड़ाने लगा। कथा बड़ी अदभुत है! फिर रोने लगा और कहने लगाः मैं तो भूल ही गया। भोग नहीं पाया। सब अधूरा रह गया।
ऐसे मौत दस बार आई। हर बात ययाति के बेटे को ले गई। ग्यारहवीं बार आई तब भी ययाति गिड़गिड़ा रहा था। मौत ने कहाः कुछ तो सोचो! तुम्हारी वासनाएं कभी पूरी होंगी?
तब उसे होश आया। यह भी जल्दी आ गया। हजार ही साल में आ गया; तुम तो न मालूम कितने हजार साल से जी रहे हो। पर हर बार मौत आती है और तुम फिर भूल जाते हो। एक शरीर ले जाती है, तुम्हें दूसरा शरीर मिल जाता है, .तुम उस शरीर में फिर बेहोश हो जाते हो।
ययाति ने एक वचन लिखा जाते वक्त, आने वाली संतति के लिए, कि कितना ही भोगो, भोग भोगने से नहीं भोगे जाते। कितना ही भोगो, भोगों का कोई अंत नहीं है। तृष्णा दुष्पूर है। वासना पूरी नहीं होती। समय का सवाल नहीं है। वासना का स्वभाव पूरा होना नहीं है।
यह ययाति की कथा तो काल्पनिक है, लेकिन इससे ज्यादा सत्य कथा तुम कहां पाओगे? यही तो सबकी कथा है।
तो, एक तो रास्ता है जो विज्ञान को, साधारण बुद्धि को समझ में आता है कि जीवन को बढ़ा लो तो वासनाओं को पूरा करने का काफी समय मिल जाएगा। लेकिन धर्म कहता है, कितना ही समय हो, वासना पूरी नहीं होती; क्योंकि वासना का स्वभाव पूरा होना नहीं है।
तुमने कभी वासना पर विचार किया? तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं, दस लाख की वासना है। दस लाख हो जाएंगे, तुम सोचते हो तृप्त हो जाएगी वासना? वासना दस करोड़ की हो जाएगी। दस करोड़ हो जाएंगे, तुम सोचते हो तृप्त हो जाएगी? ..वासना दस अरब की हो जाएगी। संख्या तो सदा आगे शेष रहेगी। दस का अनुपात कायम रहेगा। दस रुपये थे तो सौ रुपये की आकांक्षा थी; दस हजार थे, तो लाख की थी, लाख थे तो दस लाख की थी..लेकिन दस का अनुपात कायम रहेगा।
तुम जितना आगे बढ़ते हो, वासना क्षितिज की भांति उतनी ही आगे बढ़ जाती है! जैसे आकाश छूता हुआ दिखाई पड़ता है पृथ्वी को, कहीं छूता नहीं..बढ़ते जाओ, दिखता है यह रहा, दो-चार-दस मील चलने की बात हैः पहुंच जाएंगे उस जगह जहां आकाश पृथ्वी को छूता है। तुम कभी न पहुंचोगे, तुम पूरी पृथ्वी के हजारों चक्कर लगा लो। आकाश कहीं छूता नहीं, सिर्फ छूता मालूम होता है। वासना कभी तृप्त नहीं होती, सिर्फ दूर तृप्त होती मालूम होती है। वह मृग-मरीचिका है।
विज्ञान कहता हैः समय को बढ़ा लो। धर्म कहता हैः समझ को जगा लो। विज्ञान कहता हैः उम्र लंबी हो, सब ठीक हो जाएगा। धर्म कहता हैः बोध गहरा हो, सब ठीक हो जाएगा। वासना समय की लंबाई से न कटेगी, बोध की गहराई से कटेगी।
पूरब भी मृत्यु पर विचार करता है..कारण बड़े अलग हैं, तुम्हें जगाने को, चैंकाने को, मृत्यु की बात करता है कि तुम होश में आ जाओ। शायद मृत्यु का ख्याल तुम्हें जगा दे, तिलमिला दे। पश्चिम मृत्यु का विचार करता है, ताकि तुम्हें और गहरी नींद में सुला दे, ताकि तुम फिकर ही छोड़ दो, ताकि ये बुद्ध, महावीर, फरीदों की बात सुनने की जरूरत ही न रह जाए, ये सब पागल सिद्ध हो जाएं! ये चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैंः जीवन क्षणभंगुर है। विज्ञान चेष्टा कर रहा है कि सिद्ध कर दे कि जीवन क्षणभंगुर नहीं है। ये चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि इस जीवन में वासना तृप्त न होगी। विज्ञान चाहता है सिद्ध कर दे कि हम तुम्हें इतना अनंत जीवन देते हैं कि कैसी भी वासना तृप्त करनी हो कर लो।
विज्ञान की लड़ाई बहुत गहरे में धर्म से है। विज्ञान कभी ऐसा कर न पाएगा। हो सकता है, जीवन लंबा जाए..सत्तर साल की जगह आदमी सात सौ साल जीने लगे। मेरे हिसाब में तो ये सात सौ साल जीने से आदमी की वासना पूरी तो होगी नहीं; बुद्ध और फरीद के वचन ज्यादा सही मालूम होने लगेंगे।
इसलिए मैं भयभीत नहीं हूं इससे कि विज्ञान जो कर रहा है वह नहीं करना चाहिए। करो, क्योंकि हम मानते हैं, हम जानते हैं कि जितना लंबा समय होगा उतना ही तुम्हें समझ में आएगा कि समय की लंबाई से कुछ भी नहीं होता। ययाति को दस हजार साल में पता चल गया। हजार साल में पता चल गया। जो बात सौ साल में पता न चली वह हजार साल में धीरे-धीरे उसको भी समझ में आ गई कि यह तो मैं बार-बार मांगता हूं, बात तो वहीं की वहीं खड़ी है; मेरी वासना इंच भर भी समाप्त नहीं होती।
विज्ञान अगर किसी दिन तैयार हो गया, समर्थ, सफल हो गया और आदमी के जीवन को लंबा कर लिया तो मैं नहीं मानता कि इससे धर्म को कोई खतरा है। विज्ञान सोचता होगा; वह गलती में है। इससे तो बुद्ध और फरीद के वचन और भी सही हो जाएंगे। तब उनको तर्क भी देने की जरूरत न रह जाएगी। तुम्हारी जीवन की व्यवस्था ही तुम्हें बता देगी कि कुछ हल नहीं होता। जीवन सात सौ साल को हो तो भी क्षणभंगुर है। सात हजार साल का हो तो भी क्षणभंगुर है। समय ही क्षणभंगुर है। समय के बाहर जाना है शाश्वत को पाने के लिए। समय की लंबाई का नाम शाश्वतता नहीं है। समय के बाहर, अतिक्रमण का नाम शाश्वतता है। समय तो कितना ही लंबा हो तो भी क्षणभंगुर है। उम्र तो कितनी लंबी हो, समाप्त होगी; मौत पर ही समाप्त होगी। बीच का फासला कितना ही कर लो बड़ा..सात साल हो, सत्तर साल हो, सात हजार साल हो, सात लाख साल हो; मगर जीवन अंत होगा मौत पर ही। और जितना लंबा होगा, उतना ही बोध स्पष्ट होगा कि यह तो कुछ हल नहीं होता, लंबाई से कुछ हल नहीं होता।
तो, मैं तो मानता हूं विज्ञान सफल हो जाए तो अच्छा, लंबा करने में। उस दिन हमें चीजें और भी साफ दिखाई पड़ने लगेंगी, जैसे किसी ने दूरबीन हाथ में दे दी और दूर के दृश्य दिखाई पड़ने लगें; या जैसे किसी ने खुर्दबीन हाथ में दे दी और जो नंगी आंख से नहीं दिखाई पड़ता था, वह खुर्दबीन से दिखाई पड़ने लगा। सत्तर साल में चीजें छोटी हैं, सात हजार साल में पूरे फैल कर बड़ी हो जाएंगी, साफ-साफ दिखाई पड़ने लगेंगी।
विज्ञान सोचता हो कि धर्म से मुक्ति हो जाएगी, लेकिन धर्म से मुक्ति असंभव है। धर्म से छुटकारा असंभव है। धर्म का अंत नहीं हो सकता है। क्योंकि धर्म मनुष्य की आत्यंतिक नियति है। वह तुम्हारे भीतर छिपा है। मोक्ष तुम्हारा खोजना ही होगा। जीवन और मृत्यु के पार का दर्शन करना ही होगा। इसलिए धर्म से कोई बचने का उपाय नहीं है। धर्म से तुम अपने को बचाने की चेष्टा कर सकते हो। सभी चेष्टाएं असफल होती हैं..होंगी।
इसलिए पूरब और पश्चिम की मृत्यु की विचारणा में बड़ा भेद है।
दूसरा प्रश्नः आप कहते हैं, प्रार्थना मांग नहीं है, मात्र धन्यवाद देना है, अहोभाव प्रकट करना है, लेकिन वेद, उपनिषद, बाइबिल, कुरान आदि मात्र अन्य धर्मग्रंथों में सैकड़ों प्रार्थनाएं मांग जैसी मिलती हैं। क्या प्रभु से प्रकाश और प्रज्ञा मांगना भी अनुचित है?
धर्मग्रथों में सभी कुछ धर्म नहीं है, क्योंकि धर्मग्रंथ प्रज्ञावान पुरुषों का बोध और अप्रज्ञावान संग्राहकों की अबुद्धि, दोनों का जोड़ है।
कृष्ण ने गीता कही। एक तो कहने में ही, जो भीतर जाना है वह पूरा प्रकट नहीं होता, वह बहुत बड़ा है शब्दों से। उपनिषद कहते हैं, वहां से शब्द भी वापस लौट आते हैं, गिर-गिर पड़ते हैं वापस, उतनी उड़ान नहीं भर पाते शब्द। शब्द ऐसे हैं जैसे मुर्गी की उड़ान; वह कोई दूर सूरज तक नहीं पहुंच पाती; ऐसा एकाध दीवाल छलांग लगानी हो, थोड़ा-बहुत उछलना-कूदना हो..ठीक है। पंख होने से यह मत सोचना कि मुर्गी उड़ सकती है। छलांग लगा लेती है। शब्दों के पंख भी इतने ही समर्थ हैं कि थोड़ी सी छलांग लगा लेते हैं। उनकी कोई ज्यादा सामथ्र्य नहीं है।
तो, पहले तो कृष्ण जब कहते हैं तभी उतना नहीं रह जाता जितना वे जानते हैं। जो कृष्ण जानते हैं वह कहने में हजार सीढ़ियां नीचे गिर जाता है। फिर अर्जुन सुनता है। जो अर्जुन सुनता है वह उतना ही समझ नहीं पाता। कान तो सुन लेते हैं जो कहा गया, लेकिन कान में थोड़े ही समझ है, समझ तो मस्तिष्क में है। फिर अर्जुन उसकी व्याख्या करता है। तो जो अर्जुन समझता है वह उतना नहीं है जितना सुना, वह सुनने से बहुत कम है। फिर अर्जुन भी लिखता नहीं। संजय, तीसरा ही व्यक्ति, वह अंधे धृतराष्ट्र को सुनाता है।
यह जरा कहानी बहुत अर्थपूर्ण है। सभी धर्मग्रथों का जन्म इसमें छिपा है। जानने वाले ने कहा, कहने में जानना बहुत छोटा हो गया; न जानने वाले ने सुना, जितना सुना था, समझना उससे बहुत छोटा हो गया। फिर किसी तीसरे ने, जो न कहने वाला था न सुनने वाला था, सिर्फ गवाह था, उसने इकट्ठा किया। उसने जो इकट्ठा किया वह और भी नीचे गिर गया। और फिर उसने अंधे धृतराष्ट्रों को कहा..अंधों को, जो न जानने वाले थे न सुनने वाले थे, न देख सकते थे। ऐसा धर्मग्रंथ नीचे उतरता जाता है। फिर धृतराष्ट्र ने जो समझा वही तुम्हारी समझ है। फिर हजारों साल बीतते हैं और धृतराष्ट्र धृतराष्ट्रों को सुनाते चले जाते हैं। अंधे अंधा ठेलिया! फिर अंधे अंधों को मार्गदर्शन देते रहते हैं, व्याख्याएं-टीकाएं होती रहती हैं। अगर कृष्ण लौट आएं तो पहचान भी न सकेंगे कि ये बातें मैंने ही कही थीं। असंभव है।
तो, पहली बात, धर्मग्रथों में सभी कुछ धर्म नहीं है। यह अड़चन होती है हमें मानने में, लेकिन सचाई ऐसी है। अड़चन हो न हो, कुछ किया नहीं जा सकता। अगर वेदों में धर्म खोजना हो तो एक प्रतिशत भी मिल जाए तो बहुत, निन्यानबे प्रतिशत कचरा है। होना ही चाहिए, क्योंकि वेद सबसे पुरानी किताब है। जितनी पुरानी उतनी ही धूल इकट्ठी हो गई। जितनी पुरानी उतने हाथों में सरक गई। जितनी पुरानी उतनी गंदी हो गई। उतना जुड़ता चला गया, जुड़ता चला गया। कौन रोकेगा, किसको रोकेगा? हजारों साल तक वेद तो सिर्फ कंठस्थ थे, लिखे नहीं गए थे। जब कंठस्थ थे तो बड़ा मजा था। कंठ-कंठ की बात थी, अपना-अपना जोड़ था। इसलिए वेदों की कई प्रतियां हैं, कई ढंग हैं। कुछ सूत्र एक में मिलते हैं, कुछ सूत्र दूसरे में मिलते हैं, कुछ सूत्र कहीं नहीं मिलते। वेद के कई पाठ हैं। हर घराने का अपना वेद था। उसी तरह तो चतुर्वेदी, त्रिवेदी, द्विवेदी पैदा हुए। जिनको चारों वेद कंठस्थ थे जिनके परिवार में, वे चतुर्वेदी! जिनके घर में तीन वेद कंठस्थ थे वे त्रिवेदी। जिनके घर में दो वेद कंठस्थ थे वे द्विवेदी।
फिर वेद लिखे गए।
जो चीज कही जाती है, उसमें और लिखने में बड़ा फर्क पड़ जाता है।
मैं तुमसे यहां बोल रहा हूंः जब मैं बोल रहा हूं तो मैं शब्द का भी उपयोग कर रहा हूं, मेरे हाथ भी इशारा दे रहे हैं, मेरे कंठ की लय में फर्क पड़ता है। अगर किसी शब्द पर मुझे जोर देना है तो मैं और ढंग से कहता हूं। कभी मैं थोड़ा चुप रह जाता हूं ताकि शून्य भी शब्द के साथ जुड़ जाए; सीधा-साधा न हो तो भी कम से कम शब्द के आस-पास हो। कभी तुम्हारी तरफ सिर्फ देखता हूं ताकि जो शब्द से नहीं कहा जा सकता, हाथ से इशारा नहीं किया जा सकता, उसे आंख से आंख में उंड़ेल दिया जाए। मेरी पूरी भावभंगिमा, मेरा होना, सब उसमें समाहित है। जब तुम इसे लिखोगे तब कोरे शब्द रह जाएंगे। उन शब्दों में कोई हाथ हिल कर तुम्हें इशारा न करेंगे, कोई आंखें उन शब्दों से तुम्हें झांकेंगी नहीं। उन शब्दों में कोई लयबद्धता न होगी। वे एक से सपाट होंगे। कभी स्वर ऊंचा, कभी नीचा न होगा। उन शब्दों के बीच शून्य न होगा। वे शब्द बहुत कुछ खो देंगे, मुर्दा हो जाएंगे। अभी जीवित हैं। यही होंगे शब्द, लेकिन मुर्दा हो जाएंगे।
यहां जब तुम मुझे सुनते हो, जब यहां तुम मेरे निकट हो तो सुनते वक्त तुम चुप हो गए होते हो। जब तुम पढ़ोगे इन्हीं शब्दों को, चुप होने की जरूरत न होगी। कारण? जब तुम मुझे सुन रहे हो, अगर तुम चुप न हुए, एक शब्द भी चुक गया तो दुबारा सुनने का कोई उपाय नहीं है..गया, गया! तुम्हें तत्पर होना होगा। तुम ध्यानस्थ हो जाओगे। तुम एक-एक शब्द को पकड़ोगे कि कहीं कोई चूक न जाए, क्योंकि एक शब्द चूका तोशृंखला बिगड़ जाएगी, फिर आगे का तुम न समझ पाओगे। लेकिन किताब पढ़ने में क्या ध्यान देने की जरूरत है? अगर चुक गया पूरा पन्ना, फिर से पढ़ लेंगे, पूरी किताब फिर से पढ़ लेंगे। इसलिए किताब पढ़ते वक्त कोई ध्यानस्थ नहीं हो पाता। होने की जरूरत नहीं है। जब जरूरत ही नहीं है तो कौन परेशान होता है? सुनते वक्त ध्यान की एक गरिमा उपलब्ध होती, ध्यान का भाव उपलब्ध होता है।
तो जब सुने गए, कहे गए शब्द लिखे जाते हैं, तब और खो जाता है। फिर जो लिखते हैं वे अपना जोड़ जाते हैं। शायद हित के लिए ही जोड़ते हों। उनको लगता है, इससे लाभ होगा। कुछ छोड़ देते हैं, उनको लगता है, इससे हानि होगी। शुभेच्छा से ही करते हैं।
जब भारत आजाद होने के करीब हुआ तो गांधी ने एक लेख लिखा कि खजुराहो, कोणार्क और पुरी के मंदिरों को मिट्टी से ढांक कर दबा देना चाहिए, क्योंकि इनमें अश्लील प्रतिमाएं हैं। यह गांधी के मन में विचार तो बहुत पुराना था। उन्नीस सौ बीस से उनके मन में यह ख्याल था कि जब शक्ति हाथ में आए तो यह होना चाहिए। शुभेच्छा से; यद्यपि वह अज्ञानपूर्ण है। क्योंकि जिन्होंने खजुराहो के मंदिर बनाए थे, उन्होंने किसी विज्ञान को मंदिर के पत्थरों में खोदा है, पूरा तंत्र खोदा है। अश्लील नहीं हैं वे मंदिर, अश्लील तुम्हें दिखते होंगे, क्योंकि तुम्हारी धारणाएं बहुत कुंठित और गंदी हैं। मंदिरों का अश्लील होने से कोई लेना-देना नहीं है। अगर गांधी को भी अश्लील दिखाई पड़ते हैं तो सिर्फ गांधी के मन की खबर देते हैं, मंदिरों का कुछ लेना-देना नहीं है।
जिन्होंने मंदिर बनाए थे, बड़े पूजा के भाव से बनाए थे और उनके पीछे बड़ा राज था। खजुराहो की एक-एक मूर्ति पर ध्यान करने से तुम्हारे मन की कामवासना क्षीण हो जाती है। हां, ऐसे ही तुम देखने वाले की तरह पहुंच गए; देखने वालों के लिए वे मंदिर बनाए न गए थे कि दिन भर के लिए गए, पूरे खजुराहो के तीस-बत्तीस मंदिर देख डाले, बैठे अपनी बस में और लौट आए, तो तुम्हें तो वे और ज्यादा परेशान कर जाएंगे; तुम्हारे भीतर वासना को जगा देंगे। वे मंदिर थे ध्यानियों के लिए..वे सभी के लिए उपलब्ध न थे। वे उनके लिए थे जिनको गुरु कहता कि जाओ और मंदिर की इन-इन प्रतिमाओं पर, इन-इन मुद्राओं पर बैठ कर चित्त को एकाग्र करो। जिस व्यक्ति के मन में कामवासना की जो वृत्ति बहुत प्रबल होती, उसी तरह की प्रतिमा पर उसे ध्यान करने भेजा जाता। उस प्रतिमा पर ध्यान करते-करते, करते-करते जो उसके भीतर अचेतन में दबा है वह उभर कर चेतन में आ जाता। सारा मनोविश्लेषण इतना ही है कि जो तुम्हारे भीतर दबा है वह उभर कर बाहर आ जाए। उसी का प्रतिबिंब सामने बनाया गया था।
इसलिए खजुराहो में ऐसी प्रतिमाएं भी हैं कि जो भरोसे के योग्य नहीं हैं। विचारक, जिनको कुछ पता नहीं है तंत्र का, वे कहते हैं कि ये तो बिल्कुल ही अनर्गल है, ऐसा तो होता ही नहीं है..जैसे शीर्षासन करते हुए दो स्त्री-पुरुष संभोग कर रहे हैं..ऐसा कहीं होता है? यह कोई आसान है। यह कोई ढंग है? किसके लिए यह बनाया गया होगा? ऐसा होता नहीं है? लेकिन इस तरह के स्वप्न होते हैं। ऐसा वस्तुतः नहीं होता, लेकिन इस तरह के विकार मन में होते है। तुमने स्वप्न में तो इस तरह की मुद्राएं ली हैं कामवासना की, जो कि तुम यथार्थ में पूरा न कर सकोगे। खजुराहो के मंदिर पर तुम्हारा एक-एक स्वप्न खुदा है। मैंने एक-एक मूर्ति बहुत गौर से देखी है और मैंने पाया कि खजुराहो में जो है उससे ज्यादा मनुष्य के स्वप्न में कभी भी नहीं हुआ। मनुष्यों के सपनों में जो भी हुआ है उस सबके प्रतीक खजुराहो की मूर्तियों में खुदे हैं। तो वे प्रत्येक व्यक्ति के भीतर छिपी हुई वासनाओं को, विकृतियों को बाहर लाने के उपाय हैं।
गांधी ने कहाः इनको दबा दो। इनको मिट्टी में ढांक दो। कभी किसी विशेष व्यक्ति को दिखाना हो, कोई सम्राट आए, कोई राष्ट्रपति आए, तो मिट्टी हटवा दी, साफ करवा दिया..अन्यथा आम जनता को देखने की बात नहीं है। जैसे कि राष्ट्रपति आम जनता नहीं है! आम जनता से भी आम! गए-बीतों से भी गए-बीते! क्योंकि नेता होने के लिए अनुयायियों से भी बदतर होना जरूरी है; नहीं तो तुमको नेता कौन बनाएगा?
रवींद्रनाथ ने विरोध किया कि इस तरह की कल्पना मत बांधी जाए; ये मंदिर ढांके न जाएं। हालांकि उनके बचाव का कारण भी दूसरा था; वह भी ज्ञानपूर्ण नहीं था बहुत। उनका कारण यह था कि प्रतिमाएं बहुत सुंदर हैं, अनूठी हैं, सौंदर्य के प्रतीक हैंः इनको मिट्टी में न दबाया जाए। दबाने वाला भी गलत था, बचाने वाला भी गलत था; क्योंकि न तो इन प्रतिमाओं का सौंदर्य से कुछ लेना-देना है, न इन प्रतिमाओं का अश्लीलता से कुछ लेना-देना है, न तो ये लोगों के लिए सौंदर्य-भाव जन्मे..इसलिए बनाई गई थीं और न इसलिए बनाई गई थीं कि लोगों में अश्लीलता जन्मे; ये तो बनाई गई थीं तंत्र की विधियों की तरह ताकि लोग कामवासना से मुक्त हो जाएं।
लेकिन दोनों की शुभेच्छा है।
फिर शास्त्र में जुड़ना शुरू होता है। शुभेच्छु लोग हेर-फेर करते हैं, बदलाहट करते हैं, कुछ जोड़ते हैं, कुछ घटाते हैंः विकृति इकट्ठी होती चली जाती है।
तो, धर्मशास्त्र में सभी कुछ धर्म नहीं है। अगर धर्मशास्त्रों में एक प्रतिशत धर्म भी मिल जाए तो बड़ी असंभव घटना है; क्योंकि कितने हजारों साल से कितने हजारों लोगों ने जोड़ा है! उसका आज हिसाब लगाना मुश्किल है।
ऐसा ही समझो कि जैसे गंगा निकलती है गंगोत्री में तो जरा सा झरना निकलता है; फिर तुम उसी गंगा को देखो, सागर में गिरते वक्त कैसी विराट हो जाती है। यह इतनी विराट गंगा नहीं हो गई है; इसमें जो करोड़ों-करोड़ों झरने आ कर मिल गए हैं, दूसरी दुनिया मिल गई हैं, नाले मिल गए हैं, नालियां मिल गई हैं..उन सबका परिणाम है।
अगर वेद का मूल खोजा जाए तो गंगोत्री में मिलेगाः जरा सा झरना होगा; लेकिन शुद्ध स्फटिक होगा। इसलिए तो गंगोत्री की यात्रा का मूल्य है। वह प्रतीक यात्रा है। कोई गंगोत्री जाने की जरूरत नहीं है, लेकिन जब भी किसी शास्त्र में उतरना हो तो गंगोत्री की यात्रा करना। खोजना मूल को। लेकिन उस मूल को तुम खोजोगे कैसे, पहचानोगे कैसे? अगर तुम्हें अपना मूल मिल जाए तो पहचान लोगे, नहीं तो न पहचान सकोगे।
जिसने स्वयं के शास्त्र को पढ़ लिया उसके लिए ही शास्त्र सुगम होता है। वहीं शास्त्र में देख पाता हैः कितना शास्त्र है, कितना अशास्त्र है; कितना धर्म है, कितना अधर्म है। और कोई उपाय भी नहीं है, और कोई कसौटी भी नहीं है।
इसलिए निश्चित, प्रश्न ठीक है।
धर्मग्रंथों में भी ऐसी प्रार्थनाएं हैं जिनमें मांग है। और मांग का तो प्रार्थना से कोई भी संबंध नहीं हो सकता। इसलिए जहां-जहां मांग हो, समझना कि मांगने वालों ने जोड़ दिया है।
ज्ञानी मांगता नहीं; ज्ञानी धन्यवाद देता है। इतना मिला ही हुआ है पहले से ही कि अब और क्या मांगना? मांगने को कुछ बचा ही नहीं है। जो दिया है वह इतना अनंत है कि उसमें मांग कर और जोड़ने का सवाल नहीं है। बिन मांगे इतना मिला है कि अब मांग कर और अपनी दीनता प्रकट करनी है, अपनी म.ूढता प्रकट करनी है?
कबीर ने कहा हैः बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न चून। मांग-मांग कर तो रोटी भी नहीं मिलती, आटा भी नहीं मिलता; और बिना मांगे मोतियों कि वर्षा होती है, यह प्रार्थना के लिए कहा है।
मांगोगे, कुछ न पाओगे, क्योंकि तुम मांगोगे भी कचरा ही। मांगोगे क्या..कि दो साल और जिंदा रह जाएं..कि जरा लड़की का विवाह हो जाए? मांगोगे क्या कि तीन लड़कियां हैं, एक लड़का और हो जाए! मांगोगे क्या..कि इंस्पेक्टर हैं, जरा और ऊपर चले जाएं..स्कूल में मास्टर हैं, हेड मास्टर हो जाएं? मांगोगे क्या..एक रुपये के दो रुपये हो जाएं?
तुम्हारी मांग भी तो तुम्हारी ही मांग होगी। तुम मांगोगे भी तो क्षुद्र।
नहीं प्रार्थना मांग नहीं है। प्रार्थना चुप हो जाना है। प्रार्थना उसके द्वार पर अहोभाव से सिर को झुका देना है; उसे धन्यवाद देना है कि तूने बिना मांगे इतना दिया, और हम धन्यवाद देने के योग्य भी नहीं। हम किस मुंह से तुझे धन्यवाद दें, हमारी उतनी भी तो कोई अर्जित संपदा नहीं है। हम बस आनंद से नाच सकें, यह तेरी प्रार्थना हो सकती है।
और बिन मांगे मोती मिले..और तब तुम्हारे चारों तरफ और भी मोतियों की वर्षा होने लगेगी। तुम्हारा धन्यभाव, तुम्हारा अहोभाव और बढ़ता जाएगा।
निश्चित ही मांगना बुरा है।
तब सवाल उठ सकता है कि क्या प्रभु से प्रकाश और प्रज्ञा मांगना भी अनुचित है?
मांगना ही अनुचित है। क्या तुम मांगते हो..यह बड़ा सवाल नहीं है। अगर तुम जागोगे तो पाओगे, प्रज्ञा तो दी हुई है, प्रकाश तो उपलब्ध है; तुम आंख बंद किए बैठे होः आंख भी है, प्रकाश भी है। तुम आंख बंद किए बैठे हो, प्रार्थना कर रहे हो कि हे प्रभु, प्रकाश दो! अगर प्रभु तुम्हारी प्रार्थना सुनता होगा तो उसका सिर अभी तक खराब हो गया होगा कि अब तुम और चाहते क्या हो? प्रकाश है, आंख है; आंख खोलते ही नहीं, हाथ जोड़े बैठे हैं कि प्रभु प्रकाश दो! और क्या चाहिए? और अगर आंख ऐसी दे दी जाए कि बंद न हो सके तो भी कष्ट पाओगे; क्योंकि तब प्रकाश अतिशय हो जाएगा, विश्राम भी चाहिए। इसलिए पलक है आंख पर कि जब चाहो बंद करो और अंधेरे का आनंद लो; जब चाहो खोलो और प्रकाश का आनंद लो। क्योंकि अगर प्रकाश ही प्रकाश हो जाए तो तुम प्रार्थना करने लगोगे कि है परमात्मा, अंधेरा दो, क्योंकि यह प्रकाश जरा ज्यादा हुआ जा रहा है, अब यह सहा नहीं जाता। इसलिए ऐसी आंख दी है, तुम्हें स्वतंत्रता दी है कि चाहो तो खोलो, चाहो तो बंद करो! आंख का मतलब ही इतना है कि वह तुम्हारी स्वतंत्रता है।
जो तुम मांगते हो वह सब मौजूद है। वह तुम्हारे मांगने के पहले तुम्हारे भीतर छिपा दिया गया है। अब तुम व्यर्थ शोरगुल मत मचाओ। तुम जरा शांत हो कर बैठो और अनुभव करो, क्या तुम्हें मिला है।
इसलिए मैं कहता हूं, तुम जरा पहले यह खोज लो कि क्या-क्या तुम्हें मिला ही हुआ है। छोड़ो परमात्मा की भी फिकर थोड़ी देर को; अपने भीतर ही जरा देखो कि क्या-क्या मुझे मिला है? तुम धीरे-धीरे पाओगे कि यहां तो कुछ भी कमी नहीं है; सभी पाया हुआ है। उस दिन तुम्हारे मन से एक अहोभाव उठेगा; तुम झुकोगे प्रार्थना में। तुम कहोगेः धन्यवाद तेरा! मांगा नहीं और तूने दिया। बिन मांगे दिया।
और जो मांग कर मिले, उसमें मिलने का मजा भी चला जाता है। उसमें देने वाले का भी गौरव नहीं है, लेने वाले का भी गौरव है। जो बिन मांगे मिल जाए, मांगने वाले को पता भी न चले कि कब मैंने मांगा था और मिल जाए, वही गरिमापूर्ण है।
इसलिए परमात्मा ने तुम्हें बिना खबर दिए दिया है। अब तुम्हारा काम कुल इतना है कि जरा खोज लो। वीणा तुम्हारे सामने रखी है, अंगुलियां तुम्हारी तैयार हैंः जरा तारों को छेड़ो। अब तुम कहते होः हे परमात्मा संगीत दे। वीणा रखी है, हाथ रखे बैठे वीणा पर, हो सकता है तकिया लगाए हों वीणा पर ही, सिर टेके बैठे हैंः हे परमात्मा संगीत दे!
थोड़ा छेड़ो। थोड़ा खोजो। जिसने तुम्हें संगीत की आकांक्षा दी है उसने संगीत का उपाय भी दे ही दिया होगा।
इसे मैं एक बुनियादी बात कहता हूंः जिसने तुम्हें प्यास दी है उसने पानी पहले दे दिया होगा, अन्यथा प्यास का क्या मतलब था? तुम्हें तड़फाना है? वह कोई दुष्ट प्रकृति का, कोई दुखवादी है? अस्तित्व कोई सैडिस्ट है कि तुम्हें सताना है, कि प्यास दे दी और पानी नहीं दिया? भूख दी है तो भोजन है।
अगर यह ख्याल दिया है कि प्रज्ञा मिलनी चाहिए तो प्रज्ञा दी ही होगी। अगर आनंद पाने की आकांक्षा दी है तो आनंद दिया ही होगा। इसके पहले कि आकांक्षा है, उसके पहले, उससे भी पहले तुम्हें संपदा दे दी गई है।
मैं तुमसे मांगने को नहीं कहता; मैं तुमसे जागने को कहता हूं, ताकि तुम्हारे जीवन में प्रार्थना का जन्म हो सके। कुछ भी मत मांगना। सब मांग भूल होगी। मांगोगे पछताओगे। क्योंकि मांगने में गलती हो गई शुरू में ही। दिया ही हुआ था, उसी को मांगने बैठ गए। इस व्यर्थ की यात्रा से बचो।
तीसरा प्रश्नः परमात्मा के प्रति प्रेमानुभूति से भरना, उसका वियोग अनुभव करना और अंततः उससे मिलने के लिए बावला हो जाना..ये सब शायद उन्नत, श्रेष्ठ आत्माओं की संभावनाएं हैं! कृपया बताएं कि पिछड़ी आत्माएं भक्ति की यात्रा आरंभ कैसे करें?
श्रेष्ठ और पिछड़ी आत्माएं, ऐसा कोई विभाजन है नहीं। एक विभाजन जरूर हैः जागी और सोई। श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ, ऐसा कोई विभाजन नहीं है। वे गलत, वे कोटियां ही गलत हैं। वे अहंकारियों ने बनाई है कोटियां। श्रेष्ठ आत्माएं..श्रेष्ठ आत्माएं यानी उसकी आत्माएं! और अश्रेष्ठ आत्माएं, पिछड़ी..यानी दूसरों की आत्माएं! पुण्यात्माओं की आत्माएं श्रेष्ठ, क्योंकि उन्होंने धर्मशाला बनाई, मंदिर को दान दिया, अस्पताल खोला! और उनकी आत्माएं अश्रेष्ठ, जो अस्पतालों में भरती हैं, बीमारों की तरह पड़े हैं; स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जिनको उन्होंने दान दिया; मंदिरों में पूजा कर रहे हैं, जिनको उन्होंने बनाया!
अहंकारी का विभाजन हैः श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ। आत्माएं तो सभी श्रेष्ठ हैं। आत्मा का स्वभाव श्रेष्ठता है। कोई आत्मा निकृष्ट तो होती नहीं। कृत्य भला निकृष्ट हो तो भी आत्मा निकृष्ट नहीं होती। किसी आदमी ने चोरी की तो एक कृत्य निकृष्ट होता है, उसकी आत्मा निकृष्ट नहीं होती। किसी आदमी ने बेईमानी की तो उसका वह कृत्य निकृष्ट हुआ, उसकी आत्मा निकृष्ट नहीं होती। इसलिए तो हम कहते हैंः कर्म से मुक्त हो गए कि तुम श्रेष्ठ हो; क्योंकि कर्म ही निकृष्ट होते हैं, तुम निकृष्ट नहीं होते, तुम्हारा होना तो सदा परिशुद्ध है। जैसे दर्पण पर धूल जम जाए, तो धूल जम गई तो दर्पण में प्रतिबिंब नहीं बनता; लेकिन दर्पण निकृष्ट नहीं हो गया। जरा हवा का झोंका, जरा पोंछ दो, पानी की बुहार..और दर्पण ताजा है।
तुम्हारे ऊपर कृत्यों की धूल भला जम जाए, लेकिन तुम दर्पण ही हो। धूल में भी दबे तुम बिल्कुल शुद्ध हो। जैसे हीरा गिर जाए कीचड़ में, कीचड़ में दब जाए चारों तरफ कीचड़ लिपट जाए तो भी क्या फर्क पड़ता है? हीरा निकृष्ट नहीं होता। हीरा फिर भी हीरा है।
कबीर ने कहा हैः हीरा हेराइल कीचड़ में। तो भी हीरा तो हीरा ही है, कीचड़ नहीं हो सकता। कीचड़ कीचड़ है, हीरा हीरा है। दोनों कितने ही निकट हो जाएं तो भी हीरा हीरा है, कीचड़ कीचड़ है; कीचड़ हीरे पर जम जाए, पर्त-पर्त बैठ जाए, हीरा हजार मील नीचे जमीन में खो जाए, तो भी हीरा हीरा है; हीरे में कण भर भी कीचड़ नहीं प्रविष्ट हो जाएगी। किसी भी दिन तुम खोज लोगे, धो लोगे नदी मेंः हीरा मुक्त है!
श्रेष्ठता आत्मा का स्वभाव है। इसलिए मैं श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ, इस तरह की आत्माएं नहीं बांटता। पापी और पुण्यात्मा..अहंकारियों का विभाजन है। नरक और स्वर्ग..शरारतियों का विभाजन है। पर एक विभाजन जो कि स्वभावगत है, अहंकारगत नहीं, वह हैः सोया और जागा। सोए में भी आत्मा श्रेष्ठ है; जागे में भी उतनी ही श्रेष्ठ है। जागे वाले आदमी की आत्मा सोए वाले आदमी से ज्यादा श्रेष्ठ नहीं है, उतनी ही श्रेष्ठ है। फर्क क्या है फिर? फर्क इतना है कि जागा हुआ जानता है कि मैं कौन हूं; सोया हुआ सोया है और नहीं जानता कि मैं कौन हूं। खजाना दोनों के पास बराबर हैः एक को पता चल गया, एक को अभी पता नहीं है; खजाने में जरा भी फर्क नहीं है, बुद्ध के पास जितना बड़ा खजाना है, उतना ही बया खजाना तुम्हारे पास है। फर्क क्या है? खजाने में कोई भी फर्क नहीं है, कौड़ी का भी फर्क नहीं है..फर्क इतना है कि बुद्ध को अपना खजाना दिखाई पड़ गया, तुम आंखें बंद किए खड़े हो। तुम भिखमंगे बने हो; खजाना भीतर लिए हो; हाथ बाहर फैलाए खोज रहे हो। श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ नहीं। श्रेष्ठता सभी का स्वभाव है। लेकिन तुम सोए हो सकते हो। जागना है! और जो जाग गया वह वही पा लेता है जो सोये में भी मिला था; लेकिन अब होश से पा लेता है। बस इतना ही फर्क है। बड़ा छोटा फर्क है..बड़ा भारी फर्क भी है
तो, यह तो पूछो ही मत कि कौन श्रेष्ठ, कौन अश्रेष्ठ, और पिछड़ी आत्माएं क्या करें। कोई पिछड़ी आत्मा नहीं है बस दो तरह की आत्मा हैः बुद्ध और अबुद्ध; सोई हुई जागी हुई। सोई हुई आत्माएं जागें, और तो कुछ करने को नहीं है। जागने के मैंने तुमसे दो उपाय कहे। एक तो है ध्यान जो जागने की सीधी प्रक्रिया है। और एक है प्रेम, जो जागने की परोक्ष प्रक्रिया है। ध्यान प्रत्यक्ष उपाय है, प्रेम परोक्ष उपाय है। अगर सीधे जाग सको, सीधे जाग जाओ। कान को सीधा पकड़ना हो..ध्यान। कान को हाथ से घुमा कर सिर के पीछे से लाकर पकड़ना हो..प्रेम, प्रेम जरा लंबी यात्रा है; ध्यान सीधी चोट है। अगर जल्दी हो तो ध्यान; अगर जल्दी न हो तो प्रेम; अगर यात्रा का भी मजा लेना हो तो प्रेम; अगर सिर्फ पहुंचना ही हो तो ध्यान।
ऐसा ही समझो कि एक आदमी हवाई जहाज में बैठता है। यात्रा का कोई मजा नहीं आता। बंबई से बैठा और लंदन उतर जाता है। यात्रा का क्या मजा है? न पहाड़, न हरियाली, न झरने, न पक्षी..न, यात्रा का कोई मजा नहीं है। यात्रा हो जाती हैः एक बिंदु से छलांग लगा ली, दूसरे बिंदु पर पहुंच जाता है..सीधी! कभी वायुयान और भी तीव्रगति के हो जाएंगे, तो तुम बैठ भी न पाओगे कि उतरने का वक्त आ जाएगा। तुम सम्हल कर बेल्ट-पट्टी बांधोगे और परिचारिकाएं घोषणाएं करेंगी कि अब बस बेल्ट-पट्टी खोलिए, उतरने का वक्त आ गया। यह तो समय जल्दी कम हो जाएगा।
लेकिन फिर एक ट्रेन से सफर हैः दोनों तरफ के पहाड़ हैं, झरने हैं, नदियां हैं; ट्रेन भी बड़ी गति से जा रही है। फिर एक बैलगाड़ी का सफर है, पर बैलगाड़ी थोड़ी तो जल्दी जाएगी। फिर एक पैदल आदमी की यात्रा है। इसलिए तो तीर्थयात्रा को हम पैदल करते थे कि वह मंजिल का थोड़े ही मजा है, मार्ग का भी मजा है। जल्दी पहुंच जाने की क्या है? देखते हुए पहुंचना है; आंख को खूब हरियाली से भर लेना है; हृदय को खूब पक्षियों के गीत से भर लेना है; पहुंचते-पहुंचते खुद भी तीर्थ बन जाना है..तब पहुंचना है। ध्यान तो सीधी त्वरित प्रक्रिया है। प्रेम जरा लंबी यात्रा है। इसलिए मैंने कहा कि ध्यान प्रत्यक्ष; प्रेम परोक्ष। मगर प्रेम जल्दी में भी नहीं है; क्योंकि प्रेम कहता है, जो मजा इंतजारी में है, जो मजा प्रतीक्षा में है..वह मिलन में भी कहां! जो मजा विरह में है..वह मिलन में भी कहां!
प्रेम की कीमिया अलग है, वह कहती है, चलेंगे, नाचते हुए चलेंगे, थोड़ी देर से पहुंचेंगे माना, लेकिन जो मजा नाचते हुए चलने में है..वह पहुंच जाने में कहां! और एकदम से पहुंच भी गए, उसका भी क्या अर्थ है? नाचते हुए पहुंचेंगे! प्रेम मार्ग को भी मूल्य देता है। ध्यान सिर्फ सिद्धि है। वह मार्ग की बिल्कुल फिकर नहीं है। वह एक छलांग है। प्रेम बड़ा क्रमिक है। ध्यान बड़ा त्वरित है।
जागने के दो उपाय हैं, जो जिसको रुचे, जिसको जैसा रुचे। वह रुचि की बात है। उसमें भी ध्यान रखना कि कोई श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ नहीं है; रुचि की बात है। किसी को गुलाब का फूल रुचता है, तो इसमें कोई अश्रेष्ठ नहीं हो गया है, श्रेष्ठ भी नहीं हो गया है। किसी को चमेली में ही मजा आता है, तो इसमें कोई अश्रेष्ठ-श्रेष्ठ नहीं है। कोई कमल का दीवाना है। यह रुझान है। ये रुचियां हैं। इसमें कोई नीचा-ऊंचा नहीं होता। तुम यह नहीं कह सकते कि अरे, तुम गुलाब के, मैं कमल का भक्त हूं..कमल कितना बड़ा, गुलाब इतना सा! तुम अभी गुलाब में ही अटके हो?
गुलाब और कमल से लेना-देना नहीं है। वह गुलाब वाला कहेगा कि तुमने क्या बकवास लगा रखी है? कहां गुलाब की कोमलता, कहां गुलाब की गंध! होगा कमल बड़ा लेकिन विस्तार से क्या लेना-देना है! कहां गुलाब की गहराई! राजा तो गुलाब है।
मगर इसमें कोई झगड़ा नहीं है। जब भी हम कहते हैं रुझान, उसका मतलब यह है कि व्यक्तिगत रुचि की बात है। तो दो रुचियां हो सकती हैं। ध्यान..किसी को जल्दी पहुंचना है; यात्रा का कोई प्रयोजन नहीं है, मंजिल। ठीक! किसी को धीरे-धीरे जाना है, पदयात्रा करनी है..बिल्कुल ठीक! नदी-नालों में स्नान करने हैं, झरनों से मुलाकात करनी है, पर्वतों से मिलना है..पहुंचेंगे! उसके लिए प्रेम।
जागने के ये दो उपाय हैं। और आत्माएं दो तरह की हैं, जागी हुई, गैर-जागी हुई। न तो गैर-जागी हुई आत्मा जागी हुई आत्मा से निकृष्ट है न श्रेष्ठ है; दोनों बिल्कुल समान हैं। एक को पता है, एक को पता नहीं है। लेकिन यह भी तुम्हारी मौज है। अगर तुमको अपना खजाना खोए रखना है, विस्मरण रखना है, अगर यही तुमने तय किया है तो कुछ हर्जा नहीं है। कौन ऊपर तुम्हें थोपने को है कि तुम जागो ही? पर इतना ही मेरा कहना है कि अगर सोते भी हो तो मर्जी से सोओ। फिर सोने की पीड़ा मत लो। फिर चिल्लाओ मत, दुखी मत होओ कि मैं सो क्यों रहा हूं, फिर सोने का ही आनंद लो। विस्मरण का भी सुख हो सकता है। लेकिन वह भी होशपूर्वक हो। अगर खजाने को नहीं देखना है तो वह भी होशपूर्वक हो कि अभी जल्दी नहीं है, अभी नहीं देखना है; पता तो है कि यह रहा खजाना पीछे पर अभी थोड़े दिन भीख मांगने का मजा लेना है। कोई हर्जा नहीं है।
मैं किसी की निंदा नहीं करता हूं। मेरे लिए सभी स्वीकार है। बस जो भी वे कर रहे हैं, उससे उन्हें आनंद मिले, इतना पर्याप्त है। आनंद पुण्य है और दुख पाप है। तुम दुखी हो तो तुम पापी हो। तुमसे पुराने धर्मगुरुओं ने कहा है कि तुम दुखी इसलिए हो कि तुम पापी हो। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम पापी इसलिए हो कि तुम दुखी हो। बड़ा क्रांतिकारी फर्क है। मैं तुम्हारे पाप के विरोध में नहीं हूं, तुम्हारे दुख के विरोध में हूं। मैं तुम्हें पुण्यात्मा नहीं बनाना चाहता हूं; मैं तुम्हें आनंदित, अहोभाव से भरा हुआ बनाना चाहता हूं।
चैथा प्रश्नः आपने कहा कि झुकने भाव ही परमात्मा तक पहुंचा देता है, लेकिन अंधविश्वास और शोषण पर खड़े मंदिरों और धर्माचार्यों के चरणों में कैसे झुका जाए? स्वामी नारायण, श्री नाथ जी, राधास्वामी, जलाराम, सत्य साईं बाबा आदि के प्रति झुकने का क्या प्रयोजन होगा? मैं एक ऐसे वैष्णव आचार्य के कुटुंब से परिचित हूं जो सभी तरह के व्यसन और अतिचारों में गर्त है, फिर भी हजारों लोग रोज उनके चरणों में गिरते हैं और लाखों का धन चढ़ाते हैं। क्या ऐसे स्थानों पर भी झुकना शुभ हो सकता है?
यह प्रश्न है चंद्रकांत का। चंद्रकांत भाव से तो समाजवादी हैं, प्रेम से मेरे साथ जुड़ गए हैं। इसलिए उनकी अड़चन साफ है।
जब मैं कहता हूं, झुकने में आनंद है तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या ऐसे लोगों के चरणों में भी झुका जाए जो गलत हैं; या उन चरणों में झुका जाए जो सही हैं? जटिल सवाल है; क्योंकि तुम कैसे तय करोगे कि कौन से चरण सही हैं और कौन से गलत हैं? जो हजारों लोग कहीं झुक रहे हैं वे सही मान कर ही झुक रहे हैं, नहीं तो वे भी न झुकते। तुम्हें गलत दिख रहा है, इसलिए झुकने में अड़चन मालूम हो रही है। तुम मेरे पास झुक गए हो; लेकिन हजारों लोग तुम्हें मिल जाएंगे जो कि मुझे गलत मानते हैं और मेरे चरणों में नहीं झुक सकते हैं।
तो, क्या ऐसा कोई मापदंड है जिस पर तराजू हो, तुल जाए और तय हो जाए कि कौन सही है; एक दफे तय हो जाए, सब वहीं झुक जाएं; या तय हो जाए कि कौन गलत है? यह तो असंभव है। यह तय हो नहीं सकता। इसके तय होने का कोई उपाय नहीं है। मनुष्य इतना रहस्यपूर्ण है कि कोई कसौटी उसे कस नहीं पाती; वह सोने की तरह उथला नहीं है कि कस लिया और पता चल गया।
फिर एक को जो व्यसन मालूम पड़ता है, दूसरे को व्यसन न मालूम पड़े।
मैं एक अघोरपंथी संन्यासी को जानता हूं जो शराब पीने में अति कुशल हैं और जिनकी जिंदगी करीब-करीब प्रार्थना में नहीं, वेश्याओं का नृत्य देखने में गुजरी। लेकिन वह ब्रह्मचारी हैं, यह भी मैं जानता हूं और उन जैसा ब्रह्मचारी मैंने देखा नहीं। और वेश्याओं का नृत्य वह इसलिए देखते रहे हैं..वह उनकी साधना का हिस्सा है। शराब वे पीते हैं और डट कर पीते हैं; लेकिन उनको कभी किसी ने बेहोश नहीं देखा। वह उनका साधना का अंग है कि शराब प्रभावित न करे; ध्यान इतना गहन हो जाए कि शराब शरीर को भला डुबा दे, ध्यान को न डुबा पाए, ध्यान शराब के सागर के ऊपर भी पृथक खड़ा रहे, अतिक्रमण करता रहे। ये पुराने तंत्र के प्रयोग हैं। साधारणतः ऊपर से देखने में बड़ी कठिनाई होगी।
बनारस में वे रहते हैं। मैं एक मित्र के घर मेहमान था। मैंने उनसे कहा कि उनके पास मुझे ले चलो, या उन्हें खबर कर दो तो वे चले आएंगे। उन्होंने कहाः यह तो आप कृपा करें। उनको यहां तो हम बुला न सकेंगे। मोहल्ले-पड़ोस में...। हम गृहस्थ आदमी हैं..और उनका नाम आप जानते हैं, किस तरह बदनाम हैं! और इधर हमारे घर में आएंगे तो आपकी भी बदनामी होगी, हमारी भी बदनामी होगी। और हम तो सलाह देते हैं कि आप भी वहां न जाएं। फिर भी आपको जाना हो तो ड्राइवर आपको ले जाएगा, मैं साथ नहीं आ सकता।
मुझे तो जाना था, उनसे मिलना था, बहुत वर्ष हुए मिला नहीं था..तो गया। मगर उस दिन से जिनके घर मैं रुका था, उनसे मेरा संबंध टूट गया, क्योंकि मैं गलत हो गया! जब गलत आदमी के पास मैं गया और उनके चेताने पर गया तो सारा फर्क हो गया। लौट कर घर आया, उस घर में मेरा कोई सम्मान न रहा।
कैसे तय करोगे? तय करने का क्या उपाय है? किसी को एक बात ठीक लगती है, किसी को ठीक नहीं लगती।
जैन मुनि हैं! दिगंबर जैन मुनि के पास तुम बैठ न सकोगेः शरीर से बदबू आती है, क्योंकि वह स्नान नहीं करता; मुंह से बास आती है, क्योंकि दतौन नहीं करता। दिगंबर जैन इसको बड़े अहोभाव से स्वीकार करते हैं। अगर उनको अपने मुनि के मुंह से बास न आए तो उनकी श्रद्धा टूट जाएगी कि इसने दिखता है दतौन कर ली है। दतौन करने का तो मतलब है कि यह अपने मुंह को सुंदर बनाना चाहता है; लोगों के लिए रुचिकर, प्रीतिकर बनाना चाहता है; यह शरीरवादी है! अगर मुनि के शरीर से बास न आती हो, दुर्गंध न आती हो तो उसका मतलब है कि इसने या तो स्नान कर लिया, या कम से कम गीले कपड़े से शरीर पर स्पंज कर लिया होगा। यह तो बात गलत है। यह तो शरीर का सजाना हो गया। तो दिगंबर को तो यह परीक्षा है कि उसमें जितनी बदबू आए उतना ही वह महात्यागी है। अब दूसरा अगर जाएगा तो उसको घबड़ाहट होगी; उसे लगेगा कि इस गंदगी के पास कहा जाना है! यह गंदगी भी कोई त्याग है? इस गंदगी को तुम संन्यास कहते हो? संन्यास तो स्वच्छता है। और साधु तो स्वच्छ होना चाहिए। यह कोई स्वच्छता है? यह तो हद हो गई! यह तो असाधुओं से गई-बीती बात हो गई।
कैसे तय करोगे?
महावीर नग्न खड़े हो गए। निश्चित ही अशोभन रहा होगा। गांव-गांव से भगाए गए; क्योंकि लोगों ने कहाः यह क्या पागलपन है? घर में स्त्रियां हैं बच्चे हैं, लड़कियां हैं। यह तो सब अनाचार फैल जाएगा। आदमी नग्न खड़ा है! लेकिन बहुतों ने उनकी पूजा की, क्योंकि उनकी नग्नता में बच्चों का निर्दोष भाव पाया।
करोगे क्या? कौन निर्णायक है कि बच्चों का निर्दोष भाव था, कि एक नग्न उन्मत्त आदमी की दशा थी? कौन तय करेगा?
महावीर अपने बाल उखाड़ लेते थे हर वर्ष, ताकि कोई जूं पड़ गए हों तो छुरा या उस्तरा चलाने से तो वे मर जाएंगे, वे न मर जाएं, तो अपने बाल नोच लेते थे। अनेकों ने उनकी पूजा की कि ऐसा तपस्वी...! लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बाल उखाड़ने की वृत्ति एक खास तरह के पागलपन में पैदा होती है। जब आदमी में खास तरह का पागलपन होता है तो वह बाल उखाड़ता है। पागलखानों में तुम जाकर देखो। तुम्हें भी कभी-कभी सनक आई होगी बड़े क्रोध में कि उखाड़ लो बाल। कम से कम स्त्रियों को तो आती है। और अपने उखाड़ने की न आई हो होगी तो कम से कम पत्नी के उखाड़ लो, इसकी तो आई ही होगी। पर बाल उखाड़ने की सनक आती है पागलपन में; एक मौका आता है क्रोध का जब नोच डालो बाल!
महावीर केश लुंच करते थे। यह उनके पागलपन का हिस्सा था या उनकी अहिंसा का..कौन निर्णय करेगा? कैसे होगा निर्णय?
बुद्ध ने छह वर्ष तक तपश्चर्या की, फिर भोजन स्वीकार कर लिया। जो भक्त थे उनके, वे इस बीच छोड़ कर चले गए तत्क्षण कि यह आदमी भ्रष्ट हो गयाः इतने दिन तक उपवास किया और अब भोजन कर लिया! और भोजन भी साधारण न था, खीर थी! यह तपस्वी को शोभा नहीं देता। और खीर भी एक शूद्र की बनाई हुई थी। यह ज्ञानी को कहीं शोभा देता है कि शूद्र, शूद्र स्त्री के हाथ से बनाई गई खीर और बुद्ध ने स्वीकार कर ली! और खीर भी दिन में नहीं ली गई थी, रात में खाई गई, जो कि बिल्कुल बात गलत है। रात्रि-भोजन! जो पांच उनके अनन्य भक्त थे उन्होंने उसी रात त्याग कर दिया कि यह आदमी भ्रष्ट हो गया! यह गौतम भ्रष्ट हो गया! वे भाग गए।
और उसी रात बुद्ध को ज्ञान हुआ!
अब बड़ा मुश्किल है ये जो पांच छोड़ कर चले गए, इनका भाव ठीक था? बुद्ध को उसी रात ज्ञान हुआ तो बुद्ध इतने निर्मल और सरल हो गए कि न रात का फर्क रहा न दिन का फर्क रहा; न खीर का पता रहा न रूखी-सूखी रोटी का पता रहा; न ब्राह्मण का बोध न रहा न शूद्र का बोध रहा। उसी रात ज्ञान उत्पन्न हुआ, और उसी रात शिष्य छोड़ कर चले गए जो सालों से पीछा कर रहे थे! बहुत मुश्किल है। कौन निर्णय करेगा?
तो, मैं तुमसे न कहूंगा कि तुम निर्णय करो। अगर तुम निर्णय करने में लगे कि जहां हमें ठीक लगेगा वहीं झुकेंगे तो एक बात समझ लेना कि तुम अपने ही सामने झुक रहे हो; क्योंकि तुम्हें ठीक लगा, इसलिए झुक रहे हो। ठीक किसको लगा? ठीक तुम्हें लगा, तुम्हारी धारणा को जमा। तुम अपनी ही धारणा के सामने झुक रहे हो। अगर मैं तुम्हें ठीक लगता हूं, इसलिए तुम झुकते हो तो तुम झुके ही नहीं हो। ठीक के सामने कोई भी झुकता है। तुम अपने ही अहंकार की पूजा कर रहे हो मेरे माध्यम से।
नहीं। तो क्या मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि जहां-जहां तुम्हें गलत लगे वहां झुक जाना? यह भी नहीं कह रहा हूं। क्योंकि गलत लगेगा तो तुम झुकोगे कैसे? और अगर जबरदस्ती झुक भी गए तो खोपड़ी झुक जाएगी, अहंकार तो नहीं झुकेगा। तुम्हारे भीतर तो कोई कहता रहेगाः कहां झुक रहे हो? बिल्कुल गलत है। लेकिन चूंकि मैंने कहा कि झुको, इसलिए झुक रहे हैं। मगर वह भी कोई झुकना न होगा; क्योंकि जो झुकना सरल न हो, सहज न हो, वह कोई झुकना है? तो फिर मैं क्या कह रहा हूं? मैं यह कह रहा हूं कि तुम इसकी फिकर छोड़ दो कि तुम किसके सामने झुक रहे हो; मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम झुकने की कला सीखो।
वृक्ष के सामने झुक जाओ अगर आदमियों के सामने झुकने में तुम्हें अड़चन आती हो। पत्थरों के सामने झुक जाओ, पहाड़ों के सामने झुक जाओ। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम झुकने की कला सीखो। और अगर तुमने झुकने की कला सीख ली तो तुम हैरान होओगेः सत्य साईंबाबा में भी तुम्हें थोड़ा परमात्मा तो मिल ही जाएगा। झुकने के लिए काफी सहारा होगा मदारी भी है वहां, उसके सामने मत झुकना, मगर मदारी के भीतर भी परमात्मा तो है ही, तुम परमात्मा के सामने ही झुकना। असल में अगर तुम मेरी बात ठीक से समझो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम परमात्मा के सामने झुको; मैं यह कह रहा हूं कि अगर तुमने झुकने की कला सीख ली, तो तुम्हें हर जगह परमात्मा दिख जाएगा।
झुकने की कला आंख है। तुम सत्य साईंबाबा में भी परमात्मा देख लोगे। तुम यह भी देख लोगे कि परमात्मा जरा भटका हुआ हैः राख वगैरह निकालता है हाथ से, निकालने दो इससे अपना क्या लेना-देना है! राख ही निकाल रहा है, किसी का कोई नुकसान भी नहीं है इसमें। तुम राख निकलने के सामने न झुकोगे। उससे कोई लेना-देना नहीं है। परमात्मा थोड़ा मदारी का व्यवहार कर रहा हैः लीला बहुत ढंग की है, यह भी एक हिस्सा है, करने दो।
तुम झुकोगे, झुकने के रस के लिए। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि झुकने में सार है। किसके सामने झुके, इसका सवाल ही नहीं है; झुकना असली गणित है। और अगर तुम झुक गए तो तुम बुरे से बुरे में शुभ को देख लोगे; तुम अंधेरे से अंधेरे में प्रकाश की किरण देख लोगे; तुम व्यसन से व्यसन में डूबे हुए में भी परमात्मा की छवि देख लोगे। वह असंभव है फिर। वह तुम्हें दिखाई पड़ेगी ही। वह तुम झुके, उसमें ही दिखाई पड़ जाती है। और शेष सबसे तुम्हें क्या लेना है? प्रयोजन नहीं है
तो मेरा जोर तुम्हारे झुकने पर है; किसके सामने झुकना, इस पर नहीं है। वह तुम विचार ही मत करो। अगर वह तुमने विचार किया तो तुम कभी न झुक पाओगे। क्योंकि तुम शुभ से शुभ के भीतर भी खोज ही लोगे कुछ न कुछ गलत; अगर खोज जारी ही रखी तो मिल ही जाएगा कुछ न कुछ गलत। क्यों? क्योंकि अहंकार झुकना नहीं चाहता है और न झुकने के लिए वह बहाने खोज लेता है निर-अहंकार झुकना चाहता है। वह बहानों के लिए फिकर ही नहीं करता। वह कहता है, इतना ही काफी है कि तुम हो, हम झुकते हैं।
और फिर मजा यह है कि तुम किसके सामने झुके, इससे तुम्हें उपलब्धि नहीं होती; तुम झुके, इससे उपलब्धि होती है। इसलिए तो पत्थरों के सामने झुकने वालों ने भी पा लिया; वृक्षों के सामने झुकने वालों ने भी पा लिया; नदियों के सामने झुकने वालों ने भी पा लिया। नदियां क्या देंगी..खाक? गंगा क्या दे सकती है? पहाड़-पत्थर क्या देंगे? काशी-काबा क्या देंगे? लेकिन मिला है बहुत लोगों को इसमें कोई शक नहीं है। वह जो मिला है, वह उनको झुकने से मिला है।
ये तो बहाने हैं, खूंटियां हैं। कोई भी खूंटी काम दे जाती है। तुम्हें कोट टांगना हो तो तुम इसकी बहुत फिकर नहीं करते कि खूंटी सोने की है कि लकड़ी की है; खूंटी नहीं भी मिली तो खीली पर टांग देते हो; खीली नहीं मिलती तो दरवाजे पर ही टांग देते हो। कोट टांगना है तो सोने की और लोहे की कौन फिकर करता है!
तुम झुकना सीखो। मैं तुमसे यह थोड़ा ही कह रहा हूं कि तुम खोज-खोज कर सत्य साईंबाबा, जलाराम इत्यादि को जाकर झुको; मैं तुमसे कह रहा हूं, तुम झुकने की कला सीखो। इतने सत्य साईंबाबा घूम रहे हैं, इन्हीं के सामने झुकने लगो।
राह पर चलते अजनबी के सामने झुको। घर आए मेहमान के सामने झुको, अपने बच्चे के सामने झुको, अपनी पत्नी के सामने झुको। झुकना सीखो। तुम झुकने में पारंगत हो जाओ और तुम पाओगे कि तुम्हें सब तरफ से परमात्मा की झलक आने लगी। तब सत्य साईंबाबा भी ज्यादा अड़चन न दे सकेंगे। उनमें भी तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। परमात्मा तो है ही; थोड़े उलटे-सीधे खेल में लगा होगा। यह परमात्मा जाने, तुम्हें क्या लेना-देना है? तुम तो धन्यवाद दोगे कि तुमने हमें एक मौका दिया झुकने का..धन्यवाद! हम अपनी राह चले। अब तुमने विचार करना छोड़ दिया कि कौन ठीक है, कौन गलत है; अब तो तुमने यही सोचा कि जहां-जहां अहंकार को उतार कर रखने में सहारा मिल जाता है, उन-उन सभी को धन्यवाद!
ऐसी दशा है भक्त के भाव की। भक्त भगवान के सामने नहीं झुकता; झुकना सीख जाता है, सब जगह भगवान को पा लेता है।
आज इतना ही।
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