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गुरुवार, 23 अगस्त 2018

अकथ कहानी प्रेम की-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(साईं मेरे चंगा कीता)

सूत्र:

किझु न बूझै किझु न सूझै, दुनिया गुझी भाहि।
साईं मेरै चंगा कीता, नाहीं त हंभी दझां आहि।।
फरीदा जे तू अकलि लतीफ, काले लिखु न लेख।
आपनड़े गिरीबान महि, सिरु नीवां करि देख।।
फरीदा जो तैं मारनि मुकीआं, तिन्हा न मारे घुंमि।
आपनड़े घर जाईए, पैर तिन्हादे चुंमि।।
फरीदा जा तउ खट्टण वेल तां तू रत्ता दुनि सिउ।

मरग सवाई नीहि, जां भरिआ तां लदिआ।।

देखु फरीदा जु थीआ, दाड़ी होई भूर।
अगहु नेड़ा आइआ पिछा रहिआ दूर।।
देखु फरीदा जु थीआ सकर होई विसु।
साईं बाझहु आपणे, वेदणु कहीऐ किसु।।
फरीदा कालीं जिन्हीं न राविआ धउली रावै कोइ।
करी साईं सिउ पिरहरी, रंगु नवेला होइ।।

एक तिब्बती कहावत हैः जो जानते हैं कि जानते हैं और जानते नहीं, वे म.ूढ हैं; उनकी छाया से भी दूर रहो। जो जानते हैं कि नहीं जानते और नहीं जानते हैं, वे शिक्षा के योग्य हैं; उन्हें सिखाओ। जो जानते हैं कि जानते हैं और जानते हैं, वे गुरुजन हैं; उनसे सीखो। और जो जानते हैं कि नहीं जानते, फिर भी जानते हैं, वे संतजन हैं; उनकी छाया का सत्संग भी अमृत है।
ज्ञान बड़ी पहेली है। सिर्फ जानने से जो जान लिया जाता है, वह बहुत गहरा नहीं है। जिसे जानने से ऐसा ख्याल पैदा हो जाता है कि जान लिया, वह अज्ञात है, यह अज्ञेय नहीं है। जिसे जानने से ऐसी मन की धारणा बन जाती है कि पहचान लिया, जान लिया वह सीमित है, असीम नहीं है। जिसे तुमने जान लिया वह असीम कैसे होगा? वह तुम्हारी मुट्ठी में आ गया। वह विराट आकाश न रहा; वह तुम्हारे हाथ में बंद आकाश है, घटाकाश है। घड़े में बंद आकाश है। घड़े में बंद भी जो है वह आकाश है; लेकिन उसमें पक्षी उड़ न सकेंगे, उससे मुक्ति न मिलेगी। घड़े में बंद जो है वह भी आकाश है; लेकिन उस घड़े में सूर्य का उदय न होगा। वह आकाश से टूट गया आकाश है; एक पतली मिट्टी की दीवाल दोनों के बीच आ गई है। कोई बहुत बड़ी दीवाल नहीं है, टूट सकती है; लेकिन दीवाल है।
घड़े का आकाश भी आकाश है; लेकिन उसमें अषाढ़ के बादल न उठ सकेंगे, बिजलियां न कड़केंगी, वर्षा न होगी, उत्तप्त भूमि की प्यास न बुझेगी, मोर न नाचेंगे, पक्षी गीत न गाएंगे, वृक्ष हरे न होंगे। घड़े का आकाश रूखा-सूखा आकाश है। उसमें जीवन नाममात्र को है। नाममात्र को ही वह आकाश है।
जिसने जान लिया कि मैंने जान लिया, उसका ज्ञान घड़े में बंद ज्ञान हो गया। लेकिन जिसने जाना और जाना कि नहीं जाना, उसका ज्ञान मुक्त आकाश की तरह है; कोई सीमा नहीं है उसके ज्ञान की। इसलिए जिन्होंने जाना है, जो परम ज्ञानी हैं, उन्होंने जानने का दावा नहीं किया। जिन्होंने दावा किए वे ज्ञानी होंगे, लेकिन परम ज्ञानी नहीं हैं। उनसे तुम कुछ थोड़ा-बहुत सीख सकते हो। उनके साथ थोड़ी दूर तक यात्रा हो सकती है; लेकिन उनके साथ तुम परमात्मा के मंदिर तक न पहुंच पाओगे। परमात्मा के मंदिर तक तुम उनके साथ पहुंचोगे, जिन्होंने जाना भी है और यह भी जाना है कि क्या खाक जाना! सब जानना दो कौड़ी का है। जिन्होंने जानने की सीमा जान ली, उन्होंने ही असीम को जाना है। जिन्होंने जानने की परिधि पहचान ली, उन्होंने जो परिधि के पार है उससे सत्संग किया है।
जिनके भीतर जानने का अहंकार नहीं उनका ज्ञान ही मुक्तिदायी होगा।
फरीद कहता हैः मैं कुछ जानता नहीं!
किझु न बुझै किझु न सुझै, ...
न कुछ जानता हूं, न कुछ दिखाई पड़ता है। अंधा हूं बिल्कुल। समझ नाममात्र को नहीं है।
यह परम ज्ञानी का लक्षण है। इससे छोटे पर राजी मत होना। इससे छोटे पर राजी हुए तो खेल-खिलौने में भटक जाओगे। बहुत ढंग के खेल-खिलौने हैं। जिन्हें तुम शास्त्र कहते हो, वे भी खेल-खिलौने हैं। उनमें भी तुम डूब सकते हो। उनसे भी तुम्हारी परिधि बन जाएगी। उनसे भी तुम क्षुद्र हो जाओगे, विराट न हो सकोगे।
शास्त्र के पार जाना, क्योंकि ज्ञान शास्त्र के पार है। शब्द के पार जाना, क्योंकि बोध शब्द के पार है। जो कहा जा सके उस पर मत रुकना; जो कहा ही न जा सके उसी को खोजना। क्योंकि, शून्य में ही पूर्ण विराजमान है।
किझु न बुझै किझु न सूझै, ...
न मुझे कुछ सूझता, न मुझे कुछ दिखाई पड़ता।
ऐसे ही व्यक्ति को सूझता है और ऐसे ही व्यक्ति को दिखाई पड़ता है।
फरीद परम ज्ञानी की भाषा बोल रहा है।
बड़ी मीठी कथा है! फरीद यात्रा पर थे। शिष्यों के साथ तीर्थयात्रा को निकले थे। रास्ते में काशी के करीब से गुजरते थे तो किसी शिष्य ने कहाः कबीर का आश्रम करीब है। हम वहां दो दिन रुकें। तुम दो ज्ञानियों की बातें होंगी, हम पर तो अमृत की वर्षा हो जाएगी। तुम्हारे दो शब्द हम सुन लेंगे आपस में बोलते हुए, हमें तो हीरे मिल जाएंगे, और विश्राम भी हो जाएगा।
फरीद हंसे। फरीद ने कहाः बात तो ठीक ही है, रुकें। ऐसी ही खबर कबीर आश्रम के वासियों को भी लग गई थी कि फरीद आता है; उन्होंने भी कबीर को कहा कि फरीद को रोक ही लें। दो दिन साथ आपका हो जाए...। तुम्हारे सत्संग में हमें परमात्मा का दर्शन होगा। तुम दोनों मिलोगे, उस मिलन में द्वार खुल जाएंगे। हम कुछ सुन लेंगे। रूखा-सूखा भी अगर हमारे हाथ लग गया तो हमारे लिए जीवनदायी हो जाएगा। दो ज्ञानियों की वार्ता अनूठी घटना होगी।
कबीर हंसे। उन्होंने कहाः बात तो ठीक ही है। रोको।
कबीर लेने आए फरीद को गांव के बाहर। दोनों गले मिले। एक-दूसरे की आंखों में झांका, मुस्कुराए, लेकिन बोले कुछ भी नहीं। दोनों के शिष्य थोड़े बेचैन होने लगे। आश्रम भी आ गया। सोचा था कि चलो, रास्ते पर न बोलते होंगे। आश्रम में दोनों आकर बैठ भी गए, विश्राम भी हो गया; पर वे दोनों हैं कि बैठे ही हैं, न बोले सो न बोले। दो दिन बीत गए। दोनों के शिष्य घबड़ा गए और ऊब गए। क्योंकि शब्द को ही पहचानते हैं, शून्य को तो पहचानते नहीं है। बोलने में जो आ जाए..वही हमें ज्ञान है। बोलने में जो न आए वह तो हमारे लिए है ही नहीं; उसका तो होना न होने के बराबर है।
कबीर और फरीद के बीच बहुत कुछ बहा, बड़ा लेन-देन हुआ..होगा ही..लेकिन दिखाई न पड़ा, पकड़ में न आया; क्योंकि वह निःशब्द का लेन-देन था। वह शास्त्र का लेन-देन नहीं था। दो पंडित होते तो खूब चर्चा होती, बड़ी गंभीर चर्चा होती, बड़े सिद्धांतों की बाल की खाल निकाली जाती। लेकिन यह दो शून्यों का मिलन था। जब दो शून्य मिलते हैं तो एक ही शून्य हो जाता है..वार्तालाप कैसे होगा? दो शून्य दो तो हो ही नहीं सकते; मिलते ही, पास आते ही एक हो जाते हैं..जैसे दो पानी की बूंद सरकते-सरकते पास आती हैं, फिर एक ही बूंद हो जाती है। नदी सागर में गिरती है। एक नदी दूसरी नदी में गिरती है, एक ही नदी हो जाती है।
पर मैं समझ सकता हूं, तुम भी समझ सकते हो कि अगर दो दिन तुम्हें यहां मेरे पास चुपचाप बैठे रहना पड़े और उस चुप्पी में बड़ी अपेक्षा होगी कि अब, अब..अब कुछ होता है, और कुछ न हो, सारी अपेक्षा खाली चली जाए, तो तुम ऊब ही जाओगे, घबड़ा ही जाओगे।
वे दो दिन बड़े लंबे मालूम हुए। वे कटते ही न थे। सोचा था बड़ा आनंद होगा, लेकिन बड़ी पीड़ा हुई।
ऐसी अंधों की कथा है। अंधे आदमी की यह मुसीबत है। उसे दिखाई नहीं पड़ता, जो दिखाई पड़ना चाहिए। उसे सुनाई नहीं पड़ता, जो सुनाई पड़ना चाहिए। उसे वही दिखाई पड़ता है जो देखने योग्य ही न था। उसे वही सुनाई पड़ता है जो न भी सुनते तो चल जाता।
पर दोनों गुरुओं के सामने कुछ कहना भी मुश्किल था। दो दिन बाद फिर गले मिले, आंखों से आंसुओं की धाराएं बहीं। बड़े प्रेम, गदगद भाव से विदा दी। जैसे ही दोनों अलग हुए, अब शिष्टाचार की कोई जरूरत भी न थी, जैसे अपना ही गुरु बचा..फरीद के शिष्यों ने कहाः यह क्या पागलपन है? दो दिन खराब हुए। ऐसा ही था तो पहले कह देते तो दो दिन यात्रा और हो जाती। कहीं आगे पहुंच गए होते। दो दिन ऐसे ही गए, नाहक खराब हुए। आप कुछ बोले क्यों नहीं?
फरीद ने कहाः जो सामने था वह बिना बोले समझ सकता था। तुमसे मैं बोलता हूं, क्योंकि तुम बिना बोले न समझोगे। कबीर से बोलता तो मैं नासमझ सिद्ध होता। इसलिए चुप रहा। और बड़ा लेन-देन हुआ, नासमझो, तुम्हें दिखाई न पड़ा? कितनी किरणें यहां से वहां गईं, वहां से यहां आईं! कितना हम एक दूसरे में डूबे!
उन्होंने कहाः हमें कुछ दिखाई न पड़ा, कुछ सुनाई न पड़ा। हम तो थे गए। दो दिन काटे न कटे।
कबीर के शिष्यों ने भी पूछा कि यह क्या हुआ? ऐसा तो कभी नहीं होता। और भी पंडितों को हमने आते देखा है, बड़ी बात होती है।
तो कबीर ने कहाः दो अज्ञानी मिलें तो खूब बात हो सकती है; हालांकि उस बात में कुछ अर्थ नहीं होता। दो ज्ञानी मिलें, बात बिल्कुल नहीं हो सकती; लेकिन उस बेबात में बड़ा अर्थ होता है। एक ज्ञानी और अज्ञानी मिलें तो बात थोड़ी होती है, उसमें थोड़ा अर्थ भी होता है। दो अज्ञानी मिलें, खूब चर्चा होती है; चर्चा ही चर्चा होती है; चुप रह ही नहीं सकते दो अज्ञानी, बोले ही चले जाते हैं; हालांकि बोलने को कुछ नहीं होताः बिना बात के बात चलती है, बात में से बात चलती है। न बोलते तो कुछ हर्ज न था, बोले तो कुछ लाभ नहीं है। दो ज्ञानी मिलें चुप रह जाते हैं। शून्य में ही संवाद होता है। हां, एक अज्ञानी मिले और एक ज्ञानी मिले तो थोड़ी बात चलती है। वह बात ज्ञानी इसलिए चलाता है ताकि तुम भी शून्य हो जाओ। वह तुम्हें शून्य की तरफ शब्दों से इशारा देता है। अज्ञानी इसलिए चलाता है ताकि उसे कुछ शब्द पकड़ में आ जाएं, ताकि वह और थोड़ा ज्ञानी हो जाए।
जब एक अज्ञानी और ज्ञानी मिलता है तो दोनों के मतलब अलग-अलग होते हैं। जब गुरु और शिष्य का मिलन होता है तो तुम यह मत सोचना कि शिष्य उसी लिए मिलता है गुरु से, जिस लिए गुरु शिष्य से मिलता है। दोनों के मिलन का अलग अर्थ होता है। शिष्य चाहता है कुछ सीख ले; गुरु चाहता है कुछ सीखा है इसने, वह भी इसका छिना लिया जाए, छुड़ा दिया जाए। शिष्य आया है कुछ ज्ञान बटोरने; गुरु कोशिश करता है इसका ज्ञान बिखर जाए तो इसका खुला आकाश इसे उपलब्ध हो जाए। शिष्य कुछ कूड़ा-करकट बीनने आया है; गुरु इससे छीन लेगा।
गुरु वही है जो तुम्हारे ज्ञान को मिटा दे, क्योंकि तभी परम ज्ञान का जन्म होता है। गुरु वही है जो तुम्हारी दिये की टिमटिमाती पीली सी ज्योति को फूंक दे, बूझा दे; क्योंकि उसके बुझते ही तुम्हारा आंखें महासूर्य की तरफ उठती हैं। उस टिमटिमाती ज्योति में अटके रहे, छोटे से क्षुद्र ज्ञान में उलझे रहे तो विराट तुम्हारे द्वार पर नहीं आ पाता।
और ध्यान रखना, एक छोटी सी किरकिरी, एक छोटा सा रेत का टुकड़ा आंख में चला जाए तो विराट आकाश दिखाई पड़ना बंद हो जाता है, क्योंकि आंख बंद हो जाती है। उतनी सी किरकिरी हटाते ही आंख खुल जाती है, विराट आकाश फिर से उपलब्ध हो जाता है। तुम्हारा ज्ञान आंख की किरकिरी है। इसलिए तुम सोचते हो कि किरकिरी तुम्हारा ज्ञान हैः उसके कारण तुम अंधे हो। जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा हैः हमने कुछ जाना नहीं है।
किझु न बूझै किझु न सूझै, ...
न मैं कुछ जानता, न मैं कुछ देखता।
दुनिया यह गोया धधकती हुई आग है..दुनिया गुझी भाहि।
मेरे साईं ने अच्छा किया कि मुझे चेता दिया, नहीं तो मैं भी इसमें जल-बल गया होता।
साईं मेरै चंगा कीता, नाहीं त हंभी दझां आहि।
न मुझे कुई दिखता, न मुझे कुछ सूझता; न मैं कुछ जानता हूं, और यह दुनिया धधकती हुई आग है। अंधे की तरह चलूंगा-जलूंगा; बिना जाने जलूंगा, बिना सूझे-बूझे चलूंगा-गिरूंगा। अगर नहीं गिर पाया हूं तो इसमें मेरी कोई कृतार्थता नहीं है। अगर नहीं गिर पाया हूं तो यह कोई मेरा कोई कृत्य नहीं है।
यह भक्त की भाव-दशा है। इससे समझने की कोशिश करें। यह बहुत नाजुक, कोमल, फूल की तरह कोमल है। इसे तर्क से नहीं समझा जा सकता; इसे बहुत हार्दिकता में ही भीतर उतारेंगे, बड़ी गहन सहानुभूति में, तो ही समझ में आएगा।
मेरे साईं ने अच्छा किया कि मुझे चेता दिया।
अज्ञानी को जब कुछ लग जाता है हाथ तो वह कहता हैः मैंने पाया। ज्ञानी को जब कुछ हाथ लगता है तो वह कहता हैः साईं ने अच्छा किया। अज्ञानी को कुछ भी मिल जाए, उससे उसका अहंकार ही बढ़ता है। ज्ञानी को परम भी मिल जाए, परम धन मिल जाए, परम पद मिल जाए, वह परमात्मा हो जाए, तो भी उसे ऐसा भाव नहीं उठता कि मैंने कुछ किया, मैंने कुछ पाया। वह तो जानता है कि मेरे रहते तो न कुछ पा सकता था, न कुछ कर सकता था।
किझु न बूझै किझु न सूझै, ...
न तो मुझे कुछ सूझता है, न मुझे कुछ दिखाई पड़ता है। कर्ता मैं हो ही कैसे सकता हूं? हां जितनी बार गिरा, मैं गिरा; और जितनी बार उठाया, तूने उठाया।
इसे थोड़ा समझ लेना।
जितनी बार भूला, मैं भूला। जितनी बार चेताया, तूने चेताया। जितने कांटे गड़े मेरे कारण; जितने फूल मिले, तेरी कृपा से! सब पाप मेेरे, सब पुण्य तेरा।
यह भक्त की भाव-दशा है। और अगर तुम्हारा पुण्य भी तुम्हारा ही हो तो जानना कि अभी भक्ति कि द्वार पर तुम नहीं आए। अगर तुम कहते हो कि मैंने इतनी पूजा की है, इतने त्याग, इतनी तपश्चर्या, इतने मंदिर बनाए, तो तुम समझना कि तुमने पुण्य के नाम पर भी पाप ही किए। क्योंकि एक ही पाप है, सब पापों का मूल एक ही पाप है, वह है..मेरेपन का भाव, मैंने किया!
एक बुद्ध का बड़ा अनुयायी बोधिधर्म चीन गया। चीन का सम्राट उसका स्वागत करने आया। चीन के सम्राट ने स्वभावतः सम्राट की भाषा में बात की। उसने आकर बोधिधर्म को कहा कि आप आए, स्वागत! मैंने हजारों बुद्ध-विहार बनवाए; लाखों छायादार वृक्ष रास्तों पर खड़े किए ताकि राहगीरों को विश्राम मिले, छाया मिले; अनेक भोजनालय खोल दिए हैं, हजारों लोग मुफ्त भोजन लेते हैं; हजारों भिक्षु राज्य से पोषण पाते हैं; स्कूल खोले; आश्रम बनवाए; हजारों शास्त्रों को छपवाया, बंटवाया। इस सब पुण्य का अंतिम क्या फल होगा?
बोधिधर्म ने नीचे से ऊपर देखा और कहाः क्षमा करें। सीधे नरक जाएंगे आप। सम्राट तो चैंक गयाः ऐसी बात तो कभी किसी ने कहा न थी। शिष्टाचार भी ध्यान में रखता है कोई। सीधे नरक!
उसने कहाः तुम पागल तो नहीं हो? मैंने इतने पुण्य किया और मैं नरक जाऊंगा!
बोधिधर्म ने कहाः क्या तुमने किया, इससे कोई नरक नहीं जाता; क्या तुमने किया, इससे कोई स्वर्ग नहीं जाता; जब तक कर्ता मौजूद है तब तक तुम नरक जाते हो। तुमने क्या किया, यह बात असंगत है। उसकी तो चर्चा ही मत छेड़ो। तुमने किया, बस इतना काफी है। इतना मैंने जान लिया कि तुमने बनवाए! परमात्मा ने तुम्हारे भीतर से कुछ नहीं किया; तुमने किया! तुम उपकरण न बने, तुम उसके हाथ न बने। तुम अपनी अहमता में घिर गए। तुम नरक जाओगे।
सम्राट वू ने..चीनी सम्राट ने..फिर कोशिश की, क्योंकि उसका मन मानने को तैयार नहीं होता था। क्योंकि अब तक तो जो भिक्षु आए थे, उन सबने यही समझाया था कि पुण्य करो, पुण्य करो, दान करोः करोड़ गुना पाओगे। उसने कहाः छोड़ो, स्वर्ग-नरक की बात छोड़ो, क्योंकि कौन देख आया है, न तुम गए न मैं गया। इतना कहो कि मुझे कि मैंने जो किया वह पवित्र कार्य है या नहीं?
बोधिधर्म ने कहाः पवित्र? इससे ज्यादा अपवित्र और क्या होगा? क्योंकि क्या तुमने किया, इससे कोई संबंध नहीं है। तुमने कियाः पवित्र नहीं रहा..उसने कियाः पवित्र हो गया!
इसलिए तो बहुत अनूठी बात गीता में कृष्ण अर्जुन से कह सके हैं कि अगर तू निमित्त हो जा, इन सारे लोगों को काट भी डाल तो भी कोई पाप न लगेगा, क्योंकि करने वाला तू नहीं है। और तू भाग खड़ा हो, संन्यास ले ले, जंगल में चला जा, जटा-जूट बढ़ा ले, बैठ जा वहां, पक्षी तेरे जटा-जूट में घोसले बना लें; ऐसा तू अपरिग्रही हो जा, और ऐसा विरागी हो जा; लेकिन अगर तुझे ख्याल है कि तूने छोड़ दिया संसार, तूने युद्ध न किया, तो सारे कर्मों का फल तेरे ऊपर है।
कर्म किसी को नहीं दबाता, कर्ता का भाव दबाता है। कर्म नहीं छोड़ने हैं। और जिन्होंने भी तुम्हें सिखाया हो कि कर्म छोड़ने हैं, उन्होंने नासमझी की बात सिखाई है, उन्हें कुछ पता न होगा। जानने वालों ने कहा हैः कर्ता का भाव छोड़ना है। फिर करने दो उसे कर्म। इतना विराट कर्म परमात्मा कर रहा है। तुमने कितनी बड़ी दुकान चलाई है? तुम्हारी दुकान का क्या मूल्य है? परमात्मा की दुकान बड़ी विराट है, चल रही है। अगर तुम छोटी सी दुकान के कर्म में उलझ के नरक भोगते हो तो परमात्मा तो महानरकों में पड़ेगा।
तुमने किया ही क्या है? एक छोटा-मोटा मकान बना लिया होगा। अगर मकान बनाने से पाप हुआ है तो इस पूरी सृष्टि को बनाने से तो महापाप हुआ है। तुम्हारे मकान की सीमा क्या है, सामथ्र्य क्या है? एक तरफ तुम कहते होः परमात्मा ने सृजन किया सारे जगत का; कभी तुमने सोचा कि इतना सृजन करने के बाद परमात्मा होगा कहां? नरक में ही होगा। इतना उपद्रव, इतना कृत्य!
नहीं, लेकिन इस तरफ तुमने कभी सोचा नहीं है कि इतने बड़े कृत्य के बाद भी परमात्मा परमात्मा है; क्योंकि वहां कर्ता नहीं है। वहां कोई करने वाला नहीं है।
इसलिए मैं कभी नहीं कहता कि परमात्मा स्रष्टा है। मैं कहता हूंः परमात्मा सृजन की ऊर्जा है; एक क्रिएटिव फोर्स है, क्रिएटर नहीं। बनाया है उसने, ऐसा कुछ बनाने वाला वहां नहीं बैठा है..बन रहा है उससे! जैसे पक्षी गीत गा रहे हैं, वृक्षों में फूल खिल रहे हैंः कोई वृक्ष यह थोड़े ही दावा करता है कि मैंने फूल लगाए; कोई पक्षी जाकर राष्ट्रपति से प्रार्थना थोड़े करता है कि पद्मभूषण कब दोगे? इतने दिन से गीत गा रहा हूं...! टुटपंुजिए गायक पद्मभूषण हुए जा रहे हैं। फिल्म अभिनेता पद्मभूषण हुए जा रहे हैं और मैं गा रहा हूं...। कोई कोयल नहीं कहती; कोई मोर नाचता हुआ नहीं जाता कि यह क्या अन्याय हो रहा है? हम कब से नाच रहे हैं! टुटपुंजिए नाचने वाले पद पा रहे हैं, हमारी कोई फिकर नहीं!
मोर को मतलब नहीं है। राष्ट्रपति पद्मभूषण लेकर भी जाएं तो वह चैंकेगा, वह हंसेगा। वह कहेगाः इस कागज का हम क्या करेंगे? तुम्हीं सम्हालो। इसका बोझ और लेकर कहां जाएंगे? नाचने में अड़चन आएगी।
कृत्य का भाव नहीं है। आदमी को हटा दो, फिर तुम खोजने जाओ, तुम्हें कर्ता न मिलेगा कहीं भी, कर्म तो विराट मिलेगा। चांद-तारे चल रहे हैं, सूरज घूम रहा है। मौसम आते हैं जाते हैं। सृष्टि होती है, प्रलय होती है। बनता है, मिटता है। अनंतकाल तक सब चलता रहता है! उसका कोई अंत ही नहीं आता। लेकिन कर्ता को तुम कहीं न पाओगे।
और तुम्हारी एक बुनियादी भूल भी तुम्हें ख्याल में दिला दूं कि चूंकि तुम परमात्मा को भी कर्ता की तरह देखते हो, इसलिए तुम्हें परमात्मा कहीं नहीं मिलता और कहीं मिलेगा भी नहीं। और परमात्मा को तुम कर्ता की तरह क्यों देखते हो, क्योंकि तुम अपने को कर्ता की तरह मानते हो। तो तुम परमात्मा को भी अपनी ही एक विराट प्रतिमा समझते हो; जैसे तुम छोटे करने वाले हो, वह बड़ा करने वाला होगा। मात्रा का भेद है, गुण का कोई भेद नहीं है। तुम छोटे करने वाले, तो वह होगा बड़ा करने वाला। हमारी दुकान जरा छोटी है, तुम बड़े पंसारी हो। तुम्हारी दुकान बीच बाजार में है, हमारी बाजार के कोने पर है। हम छोटी पान-सिगरेट चाय की दुकान लगाए हुए हैं; तुमने सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात बेचे। बाकी हैं हम भी दुकानदार!
ऐसा हुआ, अमरीका का एक बहुत बड़ा अरबपति एण्ड्रू कारनेगी एक दिन घूमने निकला। एक छोटी सी दुकान लोहे-लंगड़ की..उस पर तख्ती लगी हैः कारनेगी ब्रदर्स! कारनेगी बंधु। और नीचे कोष्ठक में लिखा हैः एण्ड्रू कारनेगी के रिश्तेदार। एण्ड्रू कारनेगी बहुत बड़ा अरबपति..अमरीका का सबसे बड़ा धनपति! उसको बड़ी नाराजगी आई कि यह क्या मामला है! उसने फौरन जाकर अपने वकील से कहा कि नोटिस दो, मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है। और यह तो मेरा अपमान है। यह कबाड़ी की दुकान और उस पर तख्ती लगा दी है! कारनेगी होगा उसका सरनेम; लेकिन मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है।
वकील ने नोटिस दिया। आठ-पंद्रह दिन बाद कारनेगी फिर वहां से निकलता था। उसने गौर से देखा कि तख्ती बदल दी गई है। वहींः कारनेगी ब्रदर्स! कारनेगी बंधु। और नीचे कोष्ठक में लिखा हैः एण्ड्रू कारनेगी के कोई रिश्तेदार नहीं। मगर क्या फर्क पड़ता है? वे एण्ड्रू कारनेगी को घुसाए ही हुए हैं। पहले रिश्तेदार थे, अब नीचे लिख दिया कि कोई रिश्तेदार नहीं हैं..बात खत्म; बाकी एण्ड्रू कारनेगी की याद वे दिला ही रहे हैं। उसको बड़ा गुस्सा आया। वह अंदर गया और उसने दुकानदार को कहा कि तुम्हें समझ नहीं आती? वकील ने नोटिस दिया है।
उसने कहाः सब समझ में आती है। तुम होओगे बड़े दुकानदार, हम छोटे दुकानदार! हम लोहा-लंगड़, कबाड़ बेचते हैं; लेकिन तुम जो चीजें बनाते हो उनसे ही यह कबाड़ बनता है। तुम बड़े-बड़े कारखाने चलाते हो, हम छोटा चलाते हैं; बाकी रिश्तेदार तो हम हैं ही। दुकानदार हम भी, तुम भी दुकानदार। वह तो झंझट है कि अदालत में हम जाना नहीं चाहते, इसलिए लिख दिया कि कोई रिश्तेदार नहीं।
तुम्हारे मन में भी जो परमात्मा की जो धारणा है वह अपने ही को कई गुणित बड़ा करके बना दी गई है। तुम ही हो बहुत बड़े होकर। अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम अपने को ही अपनी परमात्मा की प्रतिमा में पाओगे। मात्रा का भेद होगा, गुण का भेद न होगा। इसलिए तुम कर्ता हो, तुम अहंकारी हो तो तुम्हारा परमात्मा भी अहंकारी और कर्ता है। तुम सीमित हो, तुम्हारा परमात्मा भी सीमित है। तुम्हारी देह है, तुम्हारे परमात्मा की भी देह है। तुम जैसे अपने को देखते हो ऐसे ही तुम परमात्मा को खोजने चले जाते हो।
मेरे पास भी लोग आते हैं। वे कहते हैंः परमात्मा को पाना है; कहां खोजें? मैं उसने पूछता हूं कि तुमने कोई ऐसी जगह देखी है जहां वह न हो? बजाय परमात्मा को खोजने के तुम यह खोजो कि वह कहां नहीं है, ज्यादा ठीक होगा।
नानक मक्का गए, मदीना गए। वे मक्का में सो गए काबा के पत्थर की तरफ पैर करके। पुजारी नाराज हुए। क्रोध में आकर उन्होंने नानक को कहा कि हमने तो सुना है तुम एक ज्ञानीपुरुष हो; और तुम परमात्मा के मंदिर की तरफ पैर करके सो रहे हो? नानक ने कहा कि मैं भी बड़ी चिंता में पड़ा था, जब सोने को गया। मैंने सब तरफ पैर करके देखे, पाया, सभी जगह वही है। तो तुम ऐसा करो कि तुम वहां मेरे पैर कर दो जहां वह न हो। ये पैर रहे, मैं कोई बाधा न डालूंगा; तुम पैर उठाओ और कर दो।
मैं मानता हूं कि कहानी इतनी ही है, लेकिन और थोड़ी आगे बढ़ गई है; वह कविता मालूम होती है, लेकिन अर्थपूर्ण है। कहते हैं पुजारियों ने उनके पैर जहां-जहां किए, वहीं काबा का पत्थर घूम गया। यह बात थोड़ी अतिशय हो गई है। कविता तक ठीक है। लेकिन मतलब तो सही है। मतलब इतना ही है कि कहीं भी पैर करो वहीं काबा का पत्थर है। सभी पत्थर काबा के हैं, क्योंकि सभी पत्थरों में परमात्मा है। वह जिन मूर्तियों को तुमने खोद लिया है, उनमें ही नहीं है; अनगढ़ पत्थरों में भी वही है। अभी खुदा न होगा, कभी कोई कारीगर मिल जाएगा, खोद देगा; लेकिन है तो मौजूद।
एक बहुत बड़े चित्रकार और मूर्तिकार माइकल एंजिलो से किसी ने पूछा कि तुम इतने अदभुत हो कि अनगढ़ पत्थरों में से चीजें निकाल देते हो! उसने कहाः मैं निकालता नहीं; वे तो वहां मौजूद हैं। मैं तो सिर्फ जो बेकार पत्थर है उसको झाड़ देता हूं; छैनी उठा कर, जो-जो नहीं चाहिए उस पत्थर को अलग कर देता हूं। मूर्ति तो वहां मौजूद थी ही सदा से, सिर्फ चाहती थी कि कोई आकर कचरे को अलग कर दे, सार्थक प्रकट हो जाएगा।
परमात्मा सब जगह है। परमात्मा ही है। परमात्मा सब में है, ऐसा नहीं है; सब ही परमात्मा है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
ज्ञानी को जिस दिन समझ में आता है कि न मेरा कोई ज्ञान, न मेरा कोई कर्तृत्व, उस दिन परम घटना घटती है।
न मैं कुछ जानता, न देखता। दुनिया धधकती हुई आग है। अपने से चलता तो जरूर गिरता। और जब जब अपने से चला तो बराबर गिरा। अपने से चलना ही गिरना है।
मेरे साईं ने अच्छा किया कि मुझे चेता दिया।
चेतावनी उसकी है, अज्ञान मेरा है, रात मेरी है, दिन उसका है। अंधकार मेरा है, सूरज उसका है।
यह भाव की दशा है! और यह भाव की दशा बड़ी महत्वपूर्ण है, बड़ी गहरी है। जिसने इस दशा को ठीक से पकड़ लिया, उसे कहीं जाने की जरूरत नहीं है; परमात्मा स्वयं उसके पास चला आएगा। जैसे-जैसे यह भाव-दशा गहरी होगी, वैसे-वैसे परमात्मा तुम पाओगे कि पास ही था, उघाड़ना था। और परदा भी उसने नहीं डाला था; तुम्हारी ही नासमझी का परदा था उसके ऊपर। अच्छा हो कहना कि उसके ऊपर परदा था ही नहीं; तुम्हारी नासमझी का परदा तुम्हारे ही ऊपर था।
मेरे साईं ने अच्छा किया, मुझे चेता दिया; नहीं तो मैं इसमें कभी का जल-बल गया होता।
साईं मेरै चंगा कीता, ...
यहां एक बात और समझ लेनी चाहिए कि भक्ति परमात्मा से बड़े निजी संबंध जोड़ता है। मेरे साईं! वे सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि फरीद, साईं ने अच्छा किया कि मुझे चेता दिया; लेकिन वे कहते हैंः मेरे साईं!
इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए। क्योंकि परमात्मा से दो तरह के संबंध हो सकते हैं जैसा मैंने बार-बार कहा। एक ध्यान का संबंध है और एक प्रेम का संबंध है। प्रेम में परमात्मा मेरा है। ध्यान में परमात्मा परमात्मा नहीं, सिर्फ सत्य मात्र है। ध्यानी का जो शब्द है परमात्मा के लिए, वह सत्य है। सत्य रूखा-सूखा शब्द है, गणित और तर्क का है; उसमें कहीं कोई रसधार नहीं है। सत्य शब्द को तुम कहीं से भी खोजो, उसमें तुम कहीं फूल खिलते न पाओगे; क्योंकि उससे कोई मेरे हृदय का नाता ही नहीं जुड़ता। सत्य शब्द को ही सोचने बैठो तो तुम कोई कविता पैदा होती सत्य में से न देखोगे, कोई नाच पैदा न होगा, कोई धुन न बजेगी, कोई बांसुरी न बजेगी। सत्य कोरा-कोरा है। उससे कोई संबंध जोड़ने असंभव हैं। तुम कितने ही पास आ जाओ, तुम सत्य में डूब न पाओगे; उसमें डुबाने की सामथ्र्य नहीं है। सत्य सिद्धांत बन जाएगा, लेकिन सत्य कभी तुम्हारी आंतरिक सिद्धि न बनेगा। जैसे ही मेरे का संबंध जुड़ता है, सत्य का नहीं रह जाता, परमात्मा प्रकट होता है। परमात्मा यानी प्रीतम, साईं।
भक्त अपने को तोड़ देता है और परमात्मा से जोड़ लेता है। वह कहता हैः मैं तो नहीं हूं, तुम्हीं हो। तुम्हीं मेरे मैं हो। तुम्हारे अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं है। सब गंवा देता है, परमात्मा को पकड़ लेता है।
मेरे साईं ने अच्छा किया कि मुझे चेता दिया।
‘फरीदा, अगर तू तेज अकल रखता है, तब दूसरे के खिलाफ काले अंक मत लिख। अपना सिर झुका और अपने ही गरेबां की तरफ देख।’
फरीदा जे तू अकलि लतीफ, काले लिखु न लेख।
आपनड़े गिरीबान महि, सिरु नीवां करि देख।।
फरीदा, अगर तू तेज अकल रखता है...।
अब यह जरा सोचने जैसा है। कृष्णमूर्ति निरंतर लोगों से कहते हैंः माइंड इ.ज मीडियाकर। जिसको तुम बुद्धिमानी कहते हो, वह बड़ी साधारण है, मध्यमवर्गीय है, करीब-करीब मूढ़ता जैसी है। तुम्हारे बुद्धिमानों को भी तुम वहीं पाओगे जहां तुम अपने मूढ़ों को पाते हो। हो सकता है, मूढ़ पहली सीढ़ी पर बैठा हो, बुद्धिमान आखिरी सीढ़ी पर बैठा हो; लेकिन तुम उनकी मंजिल में फर्क न पाओगे। तुम्हारे मूढ़ और तुम्हारे बुद्धिमान एक ही सीढ़ी के पायदान हैं; अलग-अलग नहीं हैं। तुम्हारा मूढ़ थोड़ा कम बुद्धिमान है, तुम्हारा बुद्धिमान थोड़ा कम मूढ़ है; पर इतना ही फर्क है..डिग्री का। उन दोनों के बीच एक तारतम्य है,शृंखला कहीं टूटती नहीं, सिलसिला एक ही है। तुम्हारा मूढ़ और तुम्हारा पंडित एक ही लकीर के दो छोर हैं। इसलिए जिसको तुम पांडित्य कहते हो, बुद्धिमत्ता कहते हो, वह कोई बहुत बुद्धिमत्ता नहीं है, वह केवल मूढ़ता को छिपा लेने की कुशलता है।
मूढ़ता को छिपा लेना बहुत आसान है, मिटाना बहुत कठिन है। छिपा लेने का मतलब ऐसा ही है जैसे एक घाव है, उस पर मलहम-पट्टी कर ली, ऊपर से सुंदर कपड़े पहन लिए, छिप गया। दूसरों को दिखाई न पड़ेगा, लेकिन तुम्हारे भीतर तो सड़ांध बढ़ती ही रहेगी। दूसरों को पता भी न चलेगा, लेकिन तुम्हें कैसे पता होना बंद हो जाएगा? और छिपाया हुआ घाव सूखता भी नहीं है, क्योंकि सूखने के लिए भी खुली सूरज की रोशनी चाहिए, हवा का प्रवाह चाहिए; और भी सड़ता है, नासूर हो जाएगा, कैंसर बनेगा, तुम्हारे तन-प्राण में सब तरफ फैल जाएगा, मवाद ही मवाद हो जाएगी। देर लगेगी, आज कुछ आज नहीं हो जाएगी, वर्षों लगेंगे, शायद तुम इतना छिपाओ कि किसी को कभी भी पता न चले लेकिन तुम एक घाव की तरह ही जीवित रहोगे, घाव की तरह ही मरोगे। तुम्हें तो पता ही होगा। अपने को तुम कैसे धोखा दोगे?
कहावत है कि अगर कोई व्यक्ति दूसरों को धोखा देना चाहे, थोड़े दिन तक दे सकता है; सदा के लिए नहीं। मैं मानता हूं कि कोई अगर दूसरों को धोखा देना चाहे, सदा के लिए भी दे सकता है; क्योंकि जो थोड़े दिन संभव है, वह सदा संभव क्यों नहीं है? थोड़ी और कुशलता चाहिए तो मैं कहावत को बदल दिया हूं। मैं कहता हूंः दूसरों को धोखा देना हो, तुम सदा के लिए दे सकते हो; लेकिन अपने को धोखा तुम एक क्षण के लिए भी नहीं दे सकते हो। कैसे दोगे अपने को धोखा? कौन देगा धोखा और किसको देगा? वहां भीतर तुम एक हो।
मूढ़ता छिपाई जा सकती है। शास्त्रों को लपेट लो अपने चारों तरफ, मूढ़ता छिप जाएगी। वेद को कंठस्थ कर लो, मूढ़ता छिप जाएगी। गीता दोहराने लगो, रोज पाठ करने लगो, मूढ़ता छिप जाएगी। लंबे शब्द सीख लो तर्क की थोड़ी व्यवस्था सीख लो, विश्लेषण की कला सीख लो..मूढ़ता छिप जाएगी।
तुर्गनेव की एक छोटी सी कहानी है। एक गांव में एक महामूर्ख था। गांव भर उस पर हंसता था। वह जो भी कुछ कहता, लोग फौरन हंस देते..बिना ही सुने कि वह क्या कह रहा है, क्योंकि लोगों को पक्का ही था कि वह महामूर्ख है, वह कहेगा ही मूर्खता की बात। वह खड़ा ही होता कि लोग हंसने लगते, अभी उसने कुछ कहा ही नहीं था। वह बड़ा परेशान था। एक फकीर गांव में आया था, उससे उसने जाकर कहा कि आप एक अकेले आदमी मैंने जीवन में पाए जो मेरी बात सुन कर हंसते नहीं, बल्कि गंभीर हो जाते हैं, सोचने लगते हैं। पूरा गांव हंसता है। मैं घबड़ा गया हूं। मेरा बड़ा अपमान होता रहता है। आप कोई तरकीब बताएं।
उस फकीर ने कहाः तरकीब आसान है। अब तू एक काम कर..कोई भी कुछ बोल रहा हो, तू खिलखिला कर हंसना, और वह पूछे कि क्यों, क्या बात है, तो वह कुछ भी कह रहा हो...वह कह रहा हो कि बाइबिल बड़ी अदभुत किताब है, तो कहनाः क्या! क्या रखा है बाइबिल में? कौन सी अदभुत बात लिखी है? हजारों शास्त्र हैं जिनमें वही बात लिखी है। कौन सी नई बात कही है, बोलो? कोई कहे, सूरज बहुत सुंदर है, तो कहना, बताओ, क्या सुंदर है? आग का गोला है। सौंदर्य कहां है? कोई कहे, चांद देखो, कैसा सुंदरी के मुख जैसा! तो फौरन खड़े हो जाना, कहना, यह जरा जरूरत से ज्यादा बात हो रही है। कहां सुंदरी का मुख और कहां चांद! इनमें कोई संबंध है? चांद कितना बड़ा, सुंदरी का मुख कितना छोटा! बस तू खंडन कर सात दिन तक, फिर मेरे पास आना। तू किसी चीज में हां तो भरना ही मत; ना करना।
उसने सात दिन तक यही किया। गांव में खबर फैल गई कि यह महामूर्ख तो महाज्ञानी हो गया! इसके सामने कुछ भी कहो, फौरन खंडित कर देता है! तुम कहो यह कविता सुंदर है, वह कहता हैः इसमें क्या रखा है? यह सब शब्दों की बकवास है। शब्द जोड़ कर रख दिए, इसमें रखा क्या है?
ध्यान रखना जीवन में अगर कोई खंडन करने लग जाए तो तुम कुछ भी सिद्ध न कर सकोगे। खंडन करना बहुत आसान है। सिद्ध करना करीब-करीब असंभव है। इसलिए तो नास्तिक को कोई भी आस्तिक कभी भी राजी नहीं कर पाता; क्योंकि नास्तिक को कुल खंडित करना है, आस्तिक को कुछ सिद्ध करना है। सिद्ध करना बहुत कठिन है, ऐसे ही जैसे बनाना बहुत कठिन है; मिटाने में कितनी देर लगती है? ताजमहल बनाने में कितनी देर लगी? मिटाने में कितनी देर लगेगी? एक बम पटक दो और मिट जाएगा एक आदमी मिटा देगा, एक क्षण भर में मिटा देगा। बनाने में कहते हैं चालीस वर्ष लगे। हजारों मजदूर काम करते रहे। लाखों लोग संयुक्त रहे। हजारों कारीगर रहे। वर्षों लगे। कहते हैं तीन पीढ़ीयां लग गई लोगों की। पहली पीढ़ी काम करने आई थी, वह खत्म हो गई। दूसरी पीढ़ी काम में लग गई, वह बूढ़ी हो गई। तीसरी पीढ़ी काम में संलग्न हो गई, तब कहीं बन कर तैयार हो पाया। मगर मिटाने में कितनी देर लगेगी?
खंडन मिटाना है। इसलिए तुम पंडितों को हमेशा खंडन करते हुए पाओगे। संतों को सदा सिद्ध करते पाओगे पंडितों को सदा खंडन करते पाओगे। संतों को सदा कुछ बनाते पाओगे पंडितों को सदा मिटाते पाओगे। वह सरल काम है। उससे मूढ़ता बड़ी आसानी से छिप जाती है, और कोई भी तुम्हें सिद्ध नहीं करके बता सकता। अगर तुम कह दो कि कमल के फूल में कौन सा सौंदर्य है, सिद्ध करो, तो कौन सिद्ध करेगा? या तो सौंदर्य दिखाई पड़ता या नहीं दिखाई पड़ता; सिद्ध करने का क्या उपाय है? क्या रास्ता है, कैसे सिद्ध करोगे?
सौंदर्य तो एक अनुभूति है। कोई हाथ में निकाल कर बताया नहीं जा सकता कि यह रहा सौंदर्य। सौंदर्य है; लेकिन तुम अगर देखने को राजी हो तो ही है। अगर तुम देखने को राजी नहीं तो दुनिया भर की आंखें भी इकट्ठी हो जाएं, तो भी तुम्हें दिखाया नहीं जा सकता।
परमात्मा है, अगर तुम उसको देखने को राजी हो। इसलिए तो संत कहते हैं, श्रद्धा के बिना उससे कोई संबंध नहीं जुड़ता। लेकिन नास्तिक कहता है, पहले दिखा दो तो श्रद्धा करने को हम तैयार हैं। और बिना श्रद्धा के वह दिखाई नहीं पड़ता। सौंदर्य का बोध हो तो सौंदर्य दिखाई पड़ता है चांद में, फूल में; सौंदर्य का बोध ही न हो तो नहीं दिखाई पड़ता।
तो, एक तो मूढ़ता को छिपा लेना। शास्त्र बड़े सुगमता से उपलब्ध हैं। उनको पढ़ डालो, उनके शब्द सीख लो, सिद्धांत सीख लो..तुम्हारा अज्ञान दब जाएगा, मिटेगा नहीं। हां, दूसरे के सामने तुम अपने को ज्ञानी सिद्ध कर सकते हो।
मैंने सुना है कि रामतीर्थ अमरीका से लौटे। अमरीका में उनका बड़ा स्वागत हुआ था। लोग पागल हो गए थे। रामतीर्थ की वाणी में कुछ खूबी थी। हृदय के स्वर थे। ऐसे बुद्धि से न आए थे, प्राणों से जन्मे थे। रामतीर्थ की मस्ती एक ताजगी लिए हुई थी। बोलते थे तो फूल झरते थे, चलते थे तो फूल झरते थे। और जीवन तर्क का नहीं था, बड़े गहन काव्य का था।
एक बगीचे में बैठे थे, किसी ने पूछ लिया आकर कि हमने सुना है, कृष्ण ने जब बांसुरी बजाई तो दूर-दूर से गोपियां और गोप भागे चले आते थेः एकाध दफा हो सकता है, लेकिन हमें इसमें कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता कि कोई बांसुरी इतनी सुंदर बज सकती है।
वे बैठे थे। एक चादर ओढ़ रखी थी, वह फेंक दी, नग्न हो गए और भागे। वे जितने लोग थे बगीचे में, इधर-उधर खड़े थे, वे सब उनके पीछे भागे। वे जाकर एक टीले पर खड़े हो गए। भीड़ वहां लग गई। उन्होंने कहाः समझ में आया? एक नंगे आदमी को देख कर लोग भागे चले आते हैं। मेरी नग्नता में क्या रखा है, कृष्ण की बांसुरी की बात ही क्या कहनी! जब वह बजेगी तब तुम जानोगे। जब तक नहीं बजी, तब तक तुम न जानोगे।
लोग पागल थे।
अमरीका का प्रेसिडेंट रामतीर्थ को मिलने आया था और बड़ा आनंदित हुआ था, क्योंकि रामतीर्थ अपने को कहते ही बादशाह थे। वे कहते थेः बादशाह राम! उन्होंने एक किताब लिखी थी, उसका नाम हैः बादशाह राम के छह हुक्मनामे। वे अपने को बोलते ही नहीं थे, मैं तो कहते ही नहीं थे। वे यह कहते थे कि राम बादशाह! सम्राट अपने को कहते थे। था कुछ भी नहीं पास में..एक लंगोटी, एक भिक्षापात्र! अमरीका के प्रेसिडेंट ने कहाः और सब तो मेरी समझ में आता है, लेकिन अपने को बादशाह क्यों कहते हैं? आपके पास तो कुछ भी नहीं।
रामतीर्थ ने कहाः इसलिए! जिसके पास कुछ है, अभी उसकी बादशाहत में कमी है। जो कुछ पकड़े हुए है वह गरीब है। पकड़ता गरीब है। सारी दुनिया मेरी है। चांद-तारे मैंने बनाए; इनको मैं ही चलाता हूं। पकड़ना क्या है? मेरी कोई चाह नहीं है, इसलिए बादशाह हूं।
वे लौटे अमरीका से। बड़े गहरे आनंद में थे। स्वभावतः उनको लगा काशी जाऊं; जो अमरीका में घटना घटी है, काशी के समझदार उसे समझ पाएंगे। और तो कौन समझेगा भारत में? जो घटा है, जो अपूर्व घटा है, लाखों लोगों के हृदय में जो एक धुन बज गई है, काशी में लोग समझ पाएंगे। काशी के पंडित...। उनसे भूल हो गई। वे जब काशी गए और उन्होंने अपना पहला प्रवचन दिया, कोई परिणाम न हुआ, बल्कि लोग बेचैन मालूम पड़े। और जब वे बोल चुके तो एक पंडित ने खड़े होकर कहा..जो काशी का उस समय का सबसे बड़ा पंडित था..उसने कहा कि संस्कृत आती है? रामतीर्थ ने कहा कि नहीं, संस्कृत तो नहीं आती। वह हंसने लगा। उसने कहाः क्या खाक ब्रह्मज्ञान आएगा जब संस्कृत ही नहीं आती? पहले संस्कृत की व्याकरण सीखो।
इतना कुल परिणाम काशी में हुआ! जहां कोई कुछ न जानता था, वहां लोगों ने इतना प्रेम और इतना अहोभाव दिया! काशी में जहां उनको ख्याल था, जानने वाले हैं, वहां उन्होंने मूढ़ पाए, जो भाषा और व्याकरण से उलझे हैं। उन्होंने काशी छोड़ दी।
पांडित्य मूढ़ता को छिपाने का ढंग है। व्याकरण, भाषा, शास्त्र बड़ा आसान है। ज्ञान बड़ा कठिन है। ज्ञान बाहर से भीतर नहीं आता, पांडित्य बाहर से भीतर आता है। ज्ञान भीतर से बाहर जाता है। उनकी यात्राएं अलग हैं।
फरीद कहते हैंः फरीदा जे तू अकलि लतीफ..अगर सच में ही तेरे पास बुद्धि है, सच में ही अगर तू अक्ल-लतीफ है..क्योंकि झूठी बुद्धियां तो चारों तरफ दिखाई पड़ रही हैं, उनकी बात ही मत करो; झूठी बुद्धियों ने तो इतनी ही बुद्धिमत्ता जुड़ाई है कि अज्ञान को छिपा लिया है..लेकिन अगर तू सच में ही बुद्धिमान है तो फिर पहला काम बुद्धिमानी का यह है कि तू दूसरे के खिलाफ काले अंक मत लिख, तू दूसरे की बुराई मत देख।
यह बुद्धिमान का पहला लक्षण है; क्योंकि दूसरे की बुराई देखने से क्या होगा? और थोड़ा सोचना कि हम दूसरे की बुराई देखने में इतनी आतुरता, इतनी उत्सुकता क्यों लेते हैं? दूसरे की बुराई देखना स्वयं की बुराई को छिपाने का ढंग है। उसके पीछे बड़ा आयोजन है। दूसरे की बुराई देख कर तुम्हें राहत मिलती है।
रोज सुबह तुम अखबार पढ़ लेते होः देख लेते हो, इतने डाके पड़े, इतनी हत्याएं की गईं, तुम्हारे मन में बड़ा भाव पैदा होता है कि हम ही भले, न डाका डालते हैं, न हत्या करते हैं। कभी किसी की थोड़ी जेब काट ली, इतना छोटा-मोटा तो करना ही पड़ेगा, जब दुनिया में इतना सब हो रहा है! जब दुनिया में इतना सब हो रहा है...! बुराई देख कर तुम्हें राहत मिलती है कि मेरी बुराई क्या है, कुछ भी नहीं हैः चलने दो, कोई हर्जा नहीं है। इस दुनिया में जीना है तो इतना तो चलाना ही पड़ेगा, नहीं तो मारे जाओगे। यह तो व्यावहारिक है। हम कोई बहुत बड़े काम नहीं कर रहे हैं..न तो मुजीबुर्रहमान की हत्या कर रहे हैं, न फोर्ड को मारने की कोशिश कर रहे हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं। अब छोटा-मोटा तो चलेगा कि ग्राहक से पांच रुपये की जगह साढ़े पांच रुपये ले लिए, आठ आने के पीछे क्या हमको नरक भेजोगे! और अगर यह सब दुनिया में चल रहा है तो नरक में हमको जगह न मिलेगी? सब लोग नरक में होंगे। हमारा क्यू में नंबर आनेवाला भी नहीं है।
दूसरे की बुराई को देख कर खुद की बुराई छोटी हो जाती है। इसलिए तुम दूसरे की बुराई भी देखते हो और दूसरे की बुराई को बड़ा करके भी देखते हो। वह तरकीब है सांत्वना की। फिर क्रांति की कोई जरूरत नहीं, तुम्हें बदलने की कोई जरूरत नहीं; जब दुनिया बदलेगी तब...! इस बुरी दुनिया में तो थोड़ा बुरा होना ही पड़ेगा। यहां शुद्ध होने का उपाय नहीं है। यहां संत हो गए तो मूढ़ सिद्ध होओगे, लोग लूट लेंगे। इतनी व्यवहार-कुशलता तो चाहिए ही!
तो अपनी बुराई व्यवहार-कुशलता मालूम होने लगती है, जब सबकी बुराई दिखाई पड़ती है।
संत अगस्तीन एक ईसाई फकीर हुआ। उसने कहा हैः हे परमात्मा, जब मैं दूसरों की बुराई देखता हूं तो मुझसे पुण्यात्मा, कोई जगत में नहीं दिखाई पड़ता। और जब मैं अपनी बुराई देखता हूं तो मुझसे बड़ा पापी कोई दिखाई नहीं पड़ता। अब मैं क्या करूं? मैं किस तरफ देखूं?
मूढ़ दूसरे की तरफ देखेगा; क्योंकि वह मुफ्त में पुण्यात्मा हो जाने का मजा है; बिना पुण्यात्मा हुए पुण्यात्मा हो जाने की सुविधा है उसमें..दूसरे का पाप देखो...!
तुमने कहानी सुनी है, अकबर ने एक लकीर खींच दी अपने दरबार में और कहा अपने दरबारियों को, इस लकीर को बिना छुए छोटी कर दो। अब लकीर बिना छुए छोटी कैसे हो? दरबारियों ने बहुत सिर पचाया, वह न हो सके। बीरबल उठा और उसने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। उस लकीर को छुआ भी नहीं, बड़ी लकीर नीचे खिंचते ही वह छोटी हो गई।
जो बीरबल ने किया, वही तुम कर रहे हो, वही पूरा संसार कर रहा है। अपनी लकीर को छोटा दिखाने के लिए दूसरे की लकीर को बड़ा खींच दो..इतना बड़ा खींच दोः सारे दुनिया के पापों का पता लगा लो, फिर तुम्हें अपने पाप दिखाई ही न पड़ेंगे; तुम तो करीब-करीब शुद्ध-बुद्ध मालूम होने लगोगे, क्योंकि पाप या पुण्य तुलनात्मक हैंः अगर सारा जगत अंधकार में डूबा है तो तुम्हारा टिमटिमाता मिट्टी का दीया भी काफी प्रकाश है। अगर सारा जगत सूर्य के प्रकाश में है, तुम्हारा मिट्टी का दीया प्रकाश नहीं है, अंधकार है। तुलना की बात है।
फरीद कहता है..उसने ठीक सूत्र दे दिया है..वह बुद्धिमान आदमी के लिए असली सूत्र है। जो यह न कर रहे हों, वे बुद्धू हैं।
फरीदा जे तू अकलि लतीफ, ...
अगर तू सच में ही बुद्धिमान है, अगर तू तेज अक्ल रखता है, तो दूसरे के खिलाफ काले अंक मत लिख; क्योंकि वह अपने को धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और फिर जितना ही हम दूसरे के खिलाफ काले अंक लिखते हैं, उतना ही धीरे-धीरे ऐसा अहसास होता है कि मेरी कमियों के लिए भी दूसरे जिम्मेवार हैं; मेरी भूलों के लिए भी सारा संसार जिम्मेवार है; मैं अकेला बदलना भी चाहूं तो कैसे बदलूंगा?
पश्चिम में इन सौ वर्षों में एक बहुत महत्वपूर्ण घटना घटी है। वह घटना यह है कि माक्र्स ने एक यात्रा शुरू की, विचार का एक नया दर्शन शुरू किया। वह बहुत नया नहीं है, नया दिखाई पड़ता है। ऐसे तो प्रत्येक मनुष्य के भीतर मूढ़ता का वही दर्शन है। माक्र्स ने यह कहा कि अगर तुम दुखी हो, परेशान हो, चिंतित हो, तो समाज की आर्थिक स्थिति और व्यवस्था जिम्मेवार है, तुम जिम्मेवार नहीं हो। अगर तुम चोर हो, बेईमान हो, भ्रष्टाचारी हो तो समाज की आर्थिक व्यवस्था जिम्मेवार है, तुम जिम्मेवार नहीं हो। क्या करोगे तुम? जहां शोषण चल रहा है, वहां तुम्हें चोर होना ही पड़ेगा। माक्र्स ने चोरों के मन को बड़ी राहत दे दी। ईष्र्या तो स्वाभाविक है। जहां कुछ लोगों के पास ज्यादा है और कुछ लोगों के पास कम है वहां ईष्र्या तो होगी ही। इसलिए ईष्र्या से छुटकारे का कोई उपाय नहीं है, जब तक कि संपत्ति का समान वितरण न हो जाए।
माक्र्स ने मनुष्य के मन की बहुत सी बीमारियों को सुरक्षा दे दी, सहारा दे दिया।
बुद्ध कहते हैंः महत्वाकांक्षा छोड़ो। माक्र्स कहता हैः महत्वाकांक्षा छूट कैसे सकती है जहां और शेष सारा जगत महत्वाकांक्षी है; तुम ही पिट जाओगे। बुद्ध कहते हैंः ईष्र्या न करो। माक्र्स कहता हैः ईष्र्या तो होगी ही, जब तक कि संपत्ति का समान विभाजन नहीं हो जाता। जब तक किसी के पास ज्यादा है तब तक कैसे मैं शांत हो सकता हूं? अशांति तो रहेगी।
फिर माक्र्स ने जो किया उससे भी बड़ा काम फ्रायड ने किया। फ्रायड लोगों को बताया कि तुम क्या कर सकते हो; तुम्हारे मां-बाप ने जन्म के साथ ही तुम्हारे मन को संस्कारित कर दिया है, जिम्मेवारी उनकी है। अगर तुम हत्यारे बन गए तो इसका कारण, इसका कारण जरूर तुम्हारे मां और पिता के संस्कारों में है। हो सकता है, मां ने तुम्हें भरपूर दूध नहीं दिया, तुम्हें क्रोध पैदा करवा दिया। हो सकता है, मां-बाप ने तुम्हें बचपन में प्रेम नहीं दिया; और जिस बच्चे को प्रेम नहीं मिलता उसकी विध्वंस की आकांक्षा पैदा हो जाती है। तो कसूर तो तुम्हारे मां-बाप का है। और मां-बाप से भी पूछो तो उनका भी क्या कसूर है, वह उनके मां-बाप का है, और उनके मां-बाप का उनके मां-बाप का। कसूर किसी का भी नहीं है। अगर इसको ठीक से समझो तो अगर परमात्मा ने संसार बनाया है तो उसी का कसूर है, क्योंकि वही पहला बाप है।
माक्र्स ने कहा कि अगर किसी बच्चे को बदलना हो तो उसके परदादाओं को बदलना जरूरी है। अब यह तो हो ही नहीं सकता। तो किसी बच्चे को बदलना हो तो तुम्हारे बाप के बाप और उनकी मां और मां के बाप और मां की मां..उनको बदलना पड़ेगा। वे तो कब्र में होंगे। अगर उनको कब्र से भी निकाल लो तो बदलने को राजी न हों। अगर जिंदा भी हों तो वे आखिरी घड़ी में होंगे, जहां कि बदलाहट नहीं होती। और माक्र्स ने कहा कि सात साल की उम्र तक तो सब संस्कार तय हो जाते हैं, फिर कुछ किया नहीं जा सकता। इसलिए फ्रायड ने और सहारा दे दिया। उन्होंने कहाः तुम चोर हो तो तुम चोर ही हो सकते थे। तुम बेईमान हो, बेईमान ही हो सकते थे। हत्यारे हो, हत्यारे ही हो सकते थे।
इन दो व्यक्तियों ने पिछले सौ साल में पश्चिम का मनोविज्ञान निर्मित किया और वही मनोविज्ञान अब सारी दुनिया पर फैल गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि कोई आदमी अपनी बुराई के लिए स्वयं को जिम्मेवार नहीं समझता है।
और जिस व्यक्ति के जीवन में यह ख्याल न हो कि मैं जिम्मेवार हूं, उसके जीवन में रूपांतरण नहीं हो सकता। रूपांतरण होगा ही कैसे? तब तो सारी दुनिया बदलेगी तब मैं बदलूंगा। यह कभी होने वाला नहीं है; और अगर कभी होगा भी तो मैं न रहूंगा।
फरीदा जे तू अकलि लतीफ, ...
अगर तू सच में ही बुद्धिमान है फरीद तो एक काम कर। यह बुद्धिमान का पहला लक्षण हैः तू दूसरे के खिलाफ काले अंक मत लिख; क्योंकि तूने वे अंक लिखे कि तेरे जीवन में परमात्मा से मिलने का उपाय बंद हो जाएगा। तू दायित्व अपना समझ। तू अपने को ही उत्तरदायी समझ। क्योंकि जिसने अपने को उत्तरदायी समझा, उसके पास अपने को बदलने की कुंजी हाथ में आ गई।
अगर मेरे दुख के लिए मैं ही जिम्मेवार हूं तो मेरे सुख के लिए भी मैं रास्ता बना सकता हूं। अगर मैं आज दुखी हूं, मैंने ही अपने दुख के बीज बोए हैं तो कल मैं सुखी हो सकता हूंः मैं सुख के बीज बो सकता हूं। लेकिन अगर तुमने बीज बोए हैं और फसल मुझे काटनी पड़ती है तो फिर मेरे हाथ के बाहर बात है। फिर तुम ही जब सुख की फसल बोओगे तभी मैं काट सकूंगा। तब तो यह बात अंधकार में पड़ गई, मेरे हाथ में न रही।
धर्म और अधर्म के चिंतन में यही फर्क है। धर्म कहता हैः व्यक्ति जिम्मेवार है। अधर्म कहता हैः कोई और जिम्मेवार हो..अर्थशास्त्र जिम्मेवार हो, राजनीति जिम्मेवार हो, मनोविज्ञान जिम्मेवार हो, लोग समाज, संस्कृति, भूगोल, इतिहास, जिम्मेवार हो..व्यक्ति भर जिम्मेवार नहीं है। और जैसे ही व्यक्ति जिम्मेवार नहीं, वैसे ही व्यक्ति की आत्मा खो जाती है।
तुम्हारा उत्तरदायित्व तुम्हारी आत्मा है। तुम्हारा उत्तरदायित्व तुम्हारी स्वतंत्रता है। तुम्हारा उत्तरदायित्व तुम्हारा मोक्ष है, मुक्ति है। यद्यपि यह मैं जानता हूं कि जब कोई अपना उत्तरदायित्व समझता है तो पहले बड़ी पीड़ा होती है, इसलिए तो हम दूसरे पर टालते हैं हम दूसरे पर इसीलिए टालते हैं कि अपना उत्तरदायित्व मानने से बड़ी पीड़ा होती है, कि मैंने ही अपना दुख बनाया, यह कैसे हो सकता है।
छोटा बच्चा टकरा जाता है फर्नीचर से घर में आकर, वह कुर्सी को मारता है, टेबल पर गुस्सा निकालता है कि यह टेबल मुझसे टकरा गई। क्योंकि छोटे बच्चे के अहंकार को भी यह ठीक नहीं लगता कि मैं इससे टकरायाः तब तो फिर जिम्मेवारी मेरी है, तब तो चांटा मुझ ही पर पड़ना चाहिए। टेबल ने मारा, वह तो ठीक ही है; मां भी मारे, लेकिन बच्चा टेबल को मारता है। और बच्चे को राजी करने के लिए मां को भी टेबल को अभिशाप देना पड़ता है। लेकिन यह बचपन जिंदगी भर जारी रहता है। जब भी तुम्हें कोई गाली देता है, तुम निश्चित मानते हो, उसकी जिम्मेवारी है। तुमने कुछ भी नहीं किया था, तुम तो बिल्कुल भोले-भाले हो।
एक घर में मैं मेहमान था। एक छोटा बच्चा रोता हुआ आया, पड़ोस में किसी से लड़ कर आया है। उसकी मां ने कहा कि फिर झंझट हुई? किसने शुरू की? झगड़ा किसने शुरू किया? उस लड़के ने कहाः मैंने शुरू नहीं किया। जब उस लड़के ने मेरे चांटे का उत्तर दिया, तभी शुरू हुआ।
कोई शुरू नहीं करता। जब कोई तुम्हारे चांटे का उत्तर देता है तब झंझट शुरू होती है। सदा ही ऐसा होता है। ऐसा ही दूसरा भी मानता है। इसलिए दो लड़ने वालों में कभी भी तय करना असंभव है, किसने शुरू किया। और यह कोई छोटे-मोटे लोगों की बात नहीं है; बड़े-बड़े राष्ट्र भी यही करते हैं। कभी तय नहीं हो पाता कि किसने झगड़ा शुरू किया..चीन ने, कि हिंदुस्तान ने, हिंदुस्तान ने कि पाकिस्तान ने..कभी तय नहीं हो पाता। तुम्हारे छोटे बच्चे और तुम्हारे बड़े राजनीतिज्ञ एक से मूढ़ हैं, कोई फर्क नहीं है।
मूढ़ता का लक्षण है कि वह कहती है दूसरा जिम्मेवार है..वह कोई भी हो, मैं जिम्मेवार नहीं हूं। और इसलिए मूढ़ आदमी सदा के लिए मूढ़ रह जाता है। जब अपनी जिम्मेवारी ही नहीं, तो अपने हाथ में कुछ न रहा; तुमने अपने हाथ से अपनी स्वतंत्रता खो दी।
धार्मिक व्यक्ति कहता हैः अगर किसी ने गाली दी हो, तुम उसकी फिकर छोड़ो; तुमने किस तरह चांटा शुरू किया था, तुम अपनी फिकर कर लो। तुम इतना ही देख लो कि तुमने कौन सी भूल की थी, उसे तुम हटा लो। अगर नहीं हटाना है, गाली स्वीकार करा लो..कि स्वाभाविक है। लेकिन इस बात केस्मरण में आते ही कि मैं जिम्मेवार जरूर होना चाहिए, हर हालत में कुछ न कुछ मेरी जिम्मेवारी होगी तुम्हारे जीवन में एक मुक्ति की संभावना शुरू हो जाएगी, तुम हलके हो जाओगे। पहले पीड़ा होगी, अहंकार को चोट लगेगी; लेकिन उसी पीड़ा से आनंद का जन्म होता है। वह प्रसव-पीड़ा है।
फरीद ने ठीक सूत्र दे दिया है।
फरीदा जे तू अकलि लतीफ, काले लिखु न लेख।
किसी के संबंध में काले लेख मत लिख। अपना सिर झुका कर तू अपनी ही गरेबां की तरफ देख। आपनड़े गिरीबान महि..झुक कर अपने ही भीतर झांक। जब भी जीवन में दुख हो, अपने भीतर कारण को खोज। जब भी जीवन में अशांति हो, अपने भीतर कारण को देख।
एक सज्जन मेरे पास आए। कहने लगेः बड़ा अशांत हूं, कोई शांति का उपाय बताएं। मैं अरविंद-आश्रम गया, रमण-आश्रम गया, ऋषिकेश गया, यहां गया वहां गया..सब बेकार है। सब ढोंग है, कहीं कोई शांति नहीं है।
मैंने उनसे पूछाः अशांति सीखने कहां गए थे?
वे थोड़े चैंके। शांति सीखने अरविंद-आश्रम गए, रमण आश्रम गए, वह सब ढोंग साबित हुआ; क्योंकि वे कोई भी शांति न दे पाए। अशांति सीखने कहा गए थे?
उसने कहाः मैं अशांति सीखने कहीं भी नहीं गया था।
तो मैंने कहाः तुम खुद ही अशांति सीख लिए। जब तुमने खुद अशांति सीखी, तुम्हें शांति कौन सिखाएगा? अब इसमें तुम आश्रमों को जिम्मेवार मत समझो कि सब धोखाधड़ी है, सब फिजूल है, बकवास है, सब पाखंड है, कोई शांत नहीं कर पाया। तुम अपने अशांत होने के कारणों को समझो। शांत तुम्हें कौन कर पाएगा, अगर तुम्हारे कारण जारी रहे? तुम अगर ईंधन डालते गए चूल्हे में और आग की लपटें उठ रही हैं और तुम दूसरे से कह रहे हो कि बुझाओ और तुम ईंधन लगाए जा रहे हो, तुम घी डाले जा रहे हो आग में और किसी दूसरे से कह रहे हो, पढ़ो, मंत्र, बुझाओ आग; अगर न बुझा पाए तो तुम्हारा मंत्र ढोंग-धूतरा है, सब पाखंड है।
मैंने कहा कि अगर तुम यही धारणा लेकर यहां भी आए तो अभी नमस्कार कर लेता हूं, नहीं तो मैं भी पाखंड हो जाऊंगा; क्योंकि मैं देख रहा हूं तुम आग में तो घी डाले जा रहे हो। तुमने मूल बात तो समझी ही नहीं। कोई दुनिया में शांत होने का थोड़े ही उपाय है; सिर्फ अशांति को समझने का उपाय है। और जो अशांति को समझ लेता है, वह अपने हाथ खींच लेता है; वह अशांति को पैदा नहीं करता, बात खत्म हो गई। शांति को पाने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है; सिर्फ अशांति पैदा मत करो।
शांति तो अभाव है। सिर्फ संसार में मत उलझो। परमात्मा को पकड़ने का कोई उपाय नहीं है; सिर्फ संसार में मत उलझो, परमात्मा तो मिला ही हुआ है।
जिसे तुमने कभी नहीं खोया, वही परमात्मा है। जो तुम्हारा आंतरिक स्वभाव है, वही शांति है। उसे पाने की कोई भी जरूरत नहीं है। मगर हम अजीब पागल हैंः अशांति को पैदा करते हैं, फिर हम सोचते हैं, अब शांति पैदा करनी है!
शांति लेकर ही तुम आए थे। तुमने कभी खोई नहीं है। वह तुम्हारे भीतर अभी भी बज रही है। लेकिन तुमने चारों तरफ अशांति इकट्ठी कर रखी है।
मैंने पूछाः तुम मुझे अशांति का कारण कहो। उसने कहा कि वह लंबी कथा है। उसमें क्या सार है? आप शांति का उपाय बता दें। मैं कोई शांति का उपाय जानता नहीं; एक ही उपाय जानता हूं, और वह यह कि तुमने अशांति पैदा की है, उसे ठीक से समझना होगा। और अब आगे पैदा मत करो।
अशांति ऐसे ही है जैसे आदमी साइकिल चलाता है, पैडल मारता हैः पैडल मारो तो साइकिल चलती है, मत मारो तो रुक जाती है, अपने आप गिर जाएगी। अशांति को भी पैडल मारने पड़ते हैं।
एक बात ठीक से ख्याल में आ जाए कि मैं ही मेरे होने का जिम्मेवार हूं, तुम्हारे जीवन में क्रांति का पहला कदम उठ गया। फिर तुम्हें कोई बदलने से रोक नहीं सकता।
अपनी तरफ देखना जरूरी है। आंखों को खर्च मत कर डालो दूसरों को देखने में। आंखों को अपने गरेबां की तरफ लगाओ। अपने को पहचानो। आंख का पहला उपयोग अपने को पहचानना है। अपने को जिसने पहचान लिया वह सभी को पहचान लेगी; और जो अपने को पहचान न पाया वह किसी को भी न पहचान पाएगा।
अभी, हमारी सारी चेष्टा क्या है? सारी चेष्टा यह है कि दूसरे की बुराई को देखें और अपनी भलाई को दिखाएं। जो भलाई नहीं है वह दिखाएं, और जो बुराई नहीं है उसको भी देखें..अब हमारी चेष्टा यह है। यह बड़ी मूढ़तापूर्ण स्थिति है।
फरीदा जे तू अकलि लतीफ, काले लिखु न लेख।
आपनड़े गिरीबान महि, सिर नीवां करि देख।।
फरीदा जो तैं मारनि मुकीआं, तिन्हा न मारे घुंमि।
फरीद, लोग अगर तुझे मुक्कों से मारें तो बदले में तू उन्हें मत मार। तू तो उनके कदमों को चूम कर अपने घर चला जा।
आपनड़े घरि जाईए, पैर तिन्हादे चुंमि।
जीसस हों कि बुद्ध कि फरीद, सभी सयानों का एक मत है। सबै सयाने एक मत! और वह है कि अगर दूसरा तुम्हें मारे तो पहले तो तुम यह समझ लेना कि जाने-अनजाने तुमने उसे मार दिया होगा। तुम्हें शायद पता भी न हो कि किस ढंग से तुमने उसे मारा, लेकिन मार दिया होगा; अन्यथा किसको फुर्सत है तुम्हें मारने की, किसको जरूरत है? कई बार तो ऐसा होता है कि तुम किसी की भलाई भी करते हो और उसमें भी तुम मार देते हो।
एक मित्र मेरे पास आते हैं। मैं मध्यप्रदेश में वर्षों तक था। वे वहां के सबसे बड़े करोड़पति हैं..उस प्रदेश के। उन्होंने मुझसे कहा कि मेरी समझ में नहीं आता, मैं सबके साथ भलाई करता हूं...और वे आदमी भले हैं..मेरे जितने रिश्तेदार हैं, सबको मैंने धनपति बना दिया। रिश्तेदारों के रिश्तेदारों को भी मैंने कभी रुकावट नहीं डाली; जो भी सहायता मैं कर सकता हूं, मैंने की है। लेकिन मुझे कोई धन्यवाद देता नहीं मालूम पड़ता। उलटे, पता नहीं लोग क्यों मेरे विरोध में हैं? मेरे अपने लोग जिनको मैंने सब सहारा दिया है, जिनको मैंने खड़ा किया है, जिनके लिए मैंने अपनी तिजोड़ी कभी बंद नहीं की है, वे भी मुझसे नाराज हैं!
मैंने उनसे कहाः एक बात मैं आपसे पूछता हूं, कभी आपने किसी दूसरे को भी मौका दिया है कि आपकी सहायता कर सके?
उन्होंने कहाः इसकी जरूरत ही नहीं है। मौके का क्या सवाल है? इसकी जरूरत ही नहीं है। मेरे पास सब है। मैंने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाए।
तो मैंने कहाः मैं समझ गया, अड़चन कहां है। जब भी तुमने किसी को दिया होगा, तब तुम्हारी यह अकड़ कि मैंने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाए; मैं सदा देने वाला हूं, लेने वाला नहीं..यह अकड़ मार गई। उस आदमी के मन में इतनी पीड़ा तुम छोड़ दिए हो। दिया तुमने बहुत है, इसमें कोई शक नहीं है। मुझे भी पता है। तुम्हारे रिश्तेदारों को भी मैंने कहा मैं जानता हूं। उनको तुमने दिया है, यह वे भी स्वीकार करते हैं; लेकिन तुम्हारे देने में इतनी अकड़ थी और इतना अहंकार था; तुम्हारे देने में तुम इतने ऊंचे थे और तुमने उनको कीड़े-मकोड़े कर दिया! तुमने कभी उन्हें अवसर न दिया कि वे भी कभी ऊपर हाथ उठा कर तुम्हें कुछ दे पाते। कोई छोटी चीज, कि तुम बीमार पड़े होते और तुमने उन्हें कहा होता कि आओ, दो घड़ी मेरे पास बैठ जाओ, तुम्हारे बैठने से मुझे राहत मिलती है; कि तुम्हें कोई काम होता, छोटा-मोटा काम कि तुम मेरे लिए कर देना, कोई दूसरा न कर सकेगा, मुझसे नहीं होता। तुमने कभी छोटे-छोटे मौके उन्हें दिए होते कि वे भी सहायता कर सकते। तुमने उन्हें भिखारी बना दिया है। दिया तुमने बहुत है; लेकिन देने के माध्यम से तुमने उन्हें भिखारी बना दिया है। वे उसका बदला लेते हैं तुमसे। वे बदला लेकर रहेंगे। तुम उनके दुश्मन हो।
कहावत हैः नेकी कर और कुएं में डाल। उसका मतलब इतना ही है कि भलाई करना, लेकिन याद मत रखना कि भलाई की। भलाई करना, करते वक्त ख्याल भी मत लाना कि भलाई कर रहे हो। वस्तुतः भलाई करना, लेकिन यह भी अपेक्षा मत करना कि दूसरा धन्यवाद दे। और भी अगर तुम ठीक से समझो तो भलाई करना और उसको धन्यवाद देना कि तेरी बड़ी कृपा है कि तूने सेवा का एक मौका दिया। और यह बातचीत की बातचीत न हो, यह हार्दिक हो। नहीं तो भलाई भी चांटा मार जाती है। उसका भी बदला मिलेगा।
जिंदगी बड़ी उलझी है और आदमी बड़ा अंधा है। सभी बुद्धपुरुषों ने यह कहा है।
फरीदा जो तैं मारनि मुकीआं, तिन्हा न मारे घुंमि।
जो तुम्हें मारें, उन्हें घूम कर जवाब मत देना, उन्हें मारना मत। क्यों? क्योंकि वे तुझे मार ही रहे हैं इसलिए कि तूने किसी जाने-अनजाने क्षण में उन्हें कभी मारा होगा..इस जन्म में, किसी और जन्म में। कथा लंबी है। हम यहां नये नहीं है। हम पहली दफा यहां नहीं है, बहुत बार यहां रहे हैं। जिनसे हम संबंधित हैं उनसे हमने बहुत तरह के संबंध बनाए और मिटाए। उनको कभी तूने मारा होगा।
बुद्ध बैठे हैं एक शिलाखंड के पास और देवदत्त ने..उनके चचेरे भाई ने..उन्हें मारने की व्यवस्था की है। उसको बड़ी पीड़ा थी। वह सोचता था, मैं खुद बुद्धपुरुष हूं। और उसे बड़ी अड़चन थी क्योंकि वह बड़ा चचेरा भाई था, बुद्ध से उम्र ज्यादा थी। और यह बुद्ध अचानक गुरु हो गया, हमारे देखते-देखते गुरु हो गया! और इसको क्या पता है जो हमको पता नहीं है?
और वह पंडित था। और अगर दोनों परीक्षा देते तो शायद बुद्ध हारते और वह जीतता। शास्त्र का उसे ज्ञान था। बुद्ध का शास्त्र का ज्ञान न के बराबर है; अपना ज्ञान परम है, शास्त्र का ज्ञान कुछ खास नहीं है। उसकी जरूरत नहीं है। जिसके पास हीरे हैं वे कंकड़-पत्थर क्यों इकट्ठे करे? लेकिन देवदत्त को बड़ा शास्त्रीय ज्ञान था। वह चाहता था, बुद्ध को मिटा दे, तो वह एकछत्र गुरु हो जाए। उसके भी कुछ शिष्य मिल गए थे उसको। दुनिया में इतने मूढ़ हैं कि मूढ़ से मूढ़ आदमी को भी शिष्य मिल जाते हैं। इसलिए उसमें कुछ परेशान होने की बात नहीं है। कुछ बड़ा ज्ञानी होने की जरूरत नहीं है शिष्य पाने को, सच तो यह है कि अगर तुम ज्ञानी हो तो शिष्य मिलना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा; क्योंकि शिष्य को भी तुम्हारी तरफ यात्रा करनी पड़ेगी। अगर तुम मूढ़ हो, तुम उनके साथ ही खड़े हो; कहीं यात्रा नहीं करनी है। अगर तुम मूढ़ हो, तो मूढ़ शिष्यों से तुम्हारा ठीक संबंध बैठ जाएगा; क्योंकि तुम्हारे कृत्यों में और उनकी समझ में तालमेल होगा।
देवदत्त को भी शिष्य मिल गए थे। उसने आकर एक पत्थर ऊपर से सरका दिया पहाड़ से। बड़ी चट्टान थी। करीब-करीब बुद्ध के करीब से पत्थर गुजर गया; दो इंच और इस तरफ कि बुद्ध समाप्त हो जाते। शिष्यों ने बुद्ध से कहाः अब यह जरा अति हो गई! अब कुछ करना पड़ेगा।
बुद्ध ने कहाः चुप! करने की बात ही मत सोचना, पहले मैंने किया था, उसका फल भोग रहा हूं। अब और आगे करने का हिसाब मत रखो, नहीं जो फिर आना पड़ेगा। यह निपटारा हुआ। मेरा मन हलका हुआ। कभी मैंने इस देवदत्त को बहुत दुख दिया था। यह तो सिर्फ हिसाब-किताब पूरा हो रहा है।
बुद्ध न मरे तो उसने एक पागल हाथी बुद्ध के खिलाफ छोड़ दिया। वह पागल हाथी बिल्कुल पागल था। उसको बस में करना मुश्किल था। वृक्षों को उखाड़ कर फेंक देता लोगों को कुचल डालता। उसको छोड़ दिया। लेकिन वह पागल हाथी बुद्ध के सामने आकर झुक कर खड़ा हो गया। बुद्ध के शिष्यों ने कहाः यह तो बड़ा चमत्कार है!
बुद्ध ने कहा कुछ चमत्कार नहीं है। इस हाथी के साथ कभी मैंने भला किया था। किन्हीं अतीत जन्मों की बात है। यह भी चुकतारा हो गया; क्योंकि बुरा भी बांधता है, भला भी बांधता है। जब तक इस हाथी से लेन-देन पूरा न हो जाता तब तक फिर मुझे रहना पड़ता। इस जिंदगी में सबसेे निपटारा कर लेना है ताकि फिर आने की कोई जरूरत न रह जाए।
फरीदा जो मैं मारनि मुकीआं, तिन्हा न मारे घुंमि।
लौट कर मत मारना; क्योंकि पहले ही तूने मारा है, उसका ही तो यह बदला है।
लोग तुझे मारें तो बदले में मत मार। तू अनेक कदमों को चूम कर अपने घर चला जा।
तू उन्हें धन्यवाद दे। हिसाब-किताब पूरा हो गया। अब तुम भी मुक्त, मैं भी मुक्त। तू चूम कर उनके पैरों को अपने घर चला जा। हिसाब-किताब को समाप्त करते वक्त बड़े प्रेमपूर्ण ढंग से समाप्त कर दे। क्योंकि जरा भी तूने प्रतिक्रिया की तो फिर सिलसिला शुरू हो जाता है।
यह बड़ा बहरा गणित है, जीवन के शास्त्र का गणित है। अगर कोई तुम्हें दुख दे रहा है, तुमने दिया होगा। अब चुपचाप निपटारा कर लो। अब नईशृंखला मत बनाओ। उसे धन्यवाद दो कि निपटारा हो गया। हमने तेरे साथ किया, तूने हमारे साथ किया, बात पूरी हो गई! अब हम विदा हो सकते हैं! अब हमारे बीच कोई धागा नहीं बंधा हुआ है।
फरीद, जब तेरे कमाने के दिन थे तब तो तो तू दुनिया के रंग में रंगा हुआ था। मौत की नींव लेकिन मजबूत है। खेप के भरते ही वह लादनहार लेकर चल देगा।
फरीदा जा तउ खट्टण वेल...
जब तू जवान था, युवा था, शक्ति से भरा था! जब तेरे कमाने के दिन थे..कौन सी कमाई? परमात्मा को कमाने की कमाई..परमात्मा को कमाने के जब तेरे दिन थे, वे तो दुनिया के रंग में गंवा दिए। अब बहुत थोड़े पल बचे हैं, अब इनको लड़ने-झगड़ने में मत उलझा। अब कोई गाली देता है, इसके कारण तू अपनी प्रार्थना में बाधा मत डाल! इसके कारण तू प्रार्थना को व्यथित मत होने दे। अब कोई पत्थर मारता है, इस कारण तू अपनी आत्मा को डुबाने में मत लग जा। अब इन छोटी बातों में उलझने का समय न रहा। जब दिन थे, समय था, शक्ति थी, तब तो तू दुनिया के रंग में रंगा रहा! अब तो विदाई का वक्त आ गया। मौत मजबूत है। वह करीब आ रही है।
खेप के भरते ही वह लादनहार लेकर चल देगा।
खेप भरने के करीब है, किसी भी क्षण यात्रा शुरू हो जाएगी। अब वक्त नहीं है कि गालियों के जवाब गालियों से दिए जाएं, कांटों के जवाब कांटों से दिए जाएं, ईंटों के जवाब पत्थरों से दिए जाएं। अब वक्त नहीं है। अब मौत करीब आ गई है। ऐसे तो जिंदगी राग-रंग में बिता दी है, परमात्मा को न कमा पाया; अब इन आखिरी क्षणों को व्यर्थ के लेन-देन के उलझाव में मत लगा। कोई गाली दे, कोई मारे, तू पैर चूम कर अपने घर आ जा।
फरीदा जा तउ खट्टण वेल तां तू रत्ता दुनि सिउ।
तब तू सारी दुनिया में रत रहा, उलझा रहा।
मरग सवाई नीहि, ...
अब मौत करीब आती है। और मौत बड़ी मजबूत है! उससे बचने का उपाय नहीं है।
...जां भरिआ तां लदिआ।
और जब लदना पूरा हो जाएगा, मौत की नाव भर जाएगी..यात्रा शुरू हो जाएगी।
देखु फरीदा जु थीआ, दाड़ी होई भूर।
फरीद देख तो जरा, यह क्या हुआ? तेरी दाढ़ी सफेद हो गई है।
अगहु नेड़ा आइआ, पिछा रहिआ दूर।।
आगा नजदीक आ गया, पीछा बहुत पीछे छूट गया। जन्म तो बहुत पीछे छूट गया, मौत करीब आ गई।
देख फरीदा, क्या हुआ? तेरी दाढ़ी सफेद हो गई। फल पक गए। जीवन पूरा होने के करीब आया। अब समय नहीं है छोटी-छोटी बातों में उलझाव करने कर। अब गालियों के उत्तर देने का मौका नहीं है, न घूम कर मारने की सुविधा है। वह सब हो गया। अब तू जाग!
देखु फरीदा जु थीआ, दाढ़ी होई भूर।
अगहु नेड़ा आइआ, पिछा रहिआ दूर।।
फरीदा, देख तो जरा यह क्या हुआ? शक्कर भी विष हो गई! अपने स्वामी को छोड़ कर अब मैं और किसे अपना दुखड़ा सुनाऊं?
देखु फरीदा जु थीआ सकर होई विसु।
साईं बाझहु आपणे, वेदणु कहीऐ किसु।।
जिस-जिस को भी अमृत समझा जीवन में वह सब विष हो गया। जहां-जहां मिठास पाई, वहां-वहां जहर हो गया। जिन-जिन को सुख जाना, वहां-वहां दुख के सिवाय कुछ भी न मिला। जहां स्वर्ग समझ कर दरवाजे खटखटाए, वहां नरक पाया।
देख फरीदा, यह क्या हुआ? शक्कर भी विष हो गई। अब अपने स्वामी को छोड़ कर और किसे अपना दुखड़ा सुनाऊं!
यहां तो कोई दुखड़े को समझेगा भी नहीं। यहां तो किससे कहना? यहां तो अंधों से प्रकाश की चर्चा हो जाएगी। यहां तो मैं दुखड़ा रोऊंगा तो लोग हंसेंगे कि पागल हुआ है। यहां तो लोग कहेंगेः खाओ-पीओ, मौज करो..यही तो जीवन है। और परमात्मा कहां है? किस दुख के लिए रो रहे हो? किस सुख की बात कर रहे हो? किस शांति की यात्रा पर चले हो? यहां कोई तीर्थ नहीं है। चार दिन की जिंदगी है, जितनी जल्दी भोग लो, जितना ज्यादा भोग लो, उतना उचित है। ये सपनों की बातें मत करो।
फरीद जैसे लोग सदा ही सांसारिकों को पागल मालूम पड़े हैं। स्वाभाविक भी है! क्योंकि वे जिस सुख की बात करते हैं, उसका हमें कोई स्वाद नहीं है। वे जिसको दुख कहते हैं उसको ही हम सुख मान कर अभी जी रहे हैं। जब हमें होश आएगा, तब शायद हमको भी समझ में आए..लेकिन तब तुम भी पागल की हालत में हो जाओगे। अपनों को भी समझाओगे, वे भी सुनेंगे।
बाप-बेटे को समझाता है, कुछ सार नहीं है इन बातों में! लेकिन बेटा समझ नहीं पाता। क्योंकि बेटे को भी जब अनुभव होगा तभी समझ आएगी। बल्कि बेटा मन में यह सोचता है, खुद तो खूब भोग कर बैठ गए, अब दूसरों को समझा रहे हो कि सार नहीं है! बाप को भी इसके बाप ने समझाया था कि कुछ सार नहीं है! यह भी ऐसे ही बेरुखे मन से सुना था।
जवानों को बूढ़ों की शिक्षा ठीक नहीं मालूम पड़ती। ठीक तो दूर, अरुचिकर मालूम पड़ती है! अरुचिकर भी दूर, बड़ी अपमानजनक मालूम पड़ती है। जवान बूढ़ों से बात नहीं करना चाहते! क्योंकि जवानी की भाषा औरः आंखों में इंद्रधनुष समाए हैं! मन में बड़े सपने हैं..रोआं-रोआं पागल है वासना से! और तुम परमात्मा की बात करो, प्रार्थना की बात करो, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे की बात करो, जंचती नहीं है। अभी दुनिया से मन भरा कहां है!
तो फरीद कहता हैः जो हालत हमारी हो गई है, वह यह है कि जीवन तो ऐसे ही गंवा दिया, यह दाढ़ी सफेद हो गई, मरने का वक्त करीब आ गया। कब लदाई पूरी हो जाएगी, लादनहार चल पड़ेगा..कुछ कहा नहीं जा सकता; किसी भी क्षण यह घटना घट सकती है। एक बात निश्चित है..वह मौत है। जीवन में सब अनिश्चित है मृत्यु के अतिरिक्त। और सब हो भी, न हो भी; मगर मौत तो होगी ही।
अब ऐसी घड़ी में..
देखु फरीदा जु थीआ, सकर होई विसु।
साईं बाझहु आपणे, वेदणु कहीऐ किसु।।
यह वेदना किससे कहें, सिवाय अपने स्वामी के? वही समझ सकेगा।
जब तुम्हारे जीवन में समझ आती है तो सिवाय परमात्मा को छोड़ कर और किसी से बात करने में अर्थ नहीं रह जाता।
प्रार्थना का यही अर्थ हैः तुम अपने परमात्मा से बात करते हो वह समझेगा। अगर वह न समझेगा, तो फिर तो कोई भी न समझेगा।
भक्त जब भगवान के सामने बैठता है तब वह अपनी सब बातें हृदय खोल कर कहता है; तब वह दुख रोता है उसका जो बीत गया; पछताता है उस सबके लिए जो जा चुका; उस सबकी बात करता है जो आ रहा है। वह अपने जीवन के सपनों की बात कहता है जो झूठे सिद्ध हुए; और उन सत्यों की बात कहता है जिनकी झलक अब मिलनी शुरू हुई है। परमात्मा के अतिरिक्त ये बातें किसी से कही नहीं जा सकतीं।
धन्यभागी हैं वे लोग जिन्हें कोई गुरु मिल जाए। गुरु का अर्थ हैः मनुष्य के रूप में परमात्मा। वह मनुष्य भी है..वह तुम्हारी भूलों और तुम्हारे दुख को भी समझ पाएगा; और वह परमात्मा भी हैः वह तुम्हारे दुख और भूलों को केवल समझ ही न पाएगा, केवल तुमसे सहानुभूति ही न कर पाएगा, बल्कि तुम्हें मार्गदर्शन भी दे सकेगा। लेकिन अगर गुरु न मिले, जो कि आसान नहीं है; क्योंकि सौ गुरुओं के द्वार खटखटाओगे, निन्यानबे गलत सिद्ध होंगे। बिल्कुल स्वाभाविक है। संसार में जहां असली सिक्के होते हैं, खोटे सिक्के भी चलते हैं, और खोटा ज्यादा चलता है। तुम्हारे खीसे में भी अगर एक असली सिक्का हो और एक खोटा, तो तुम पहले खोटे को चलाने की कोशिश करते हो। असली तो कभी चल जाएगा। इसलिए अर्थशास्त्री कहते हैं, खोटे सिक्कों को चलने की बड़ी धुन होती है, वे पहले चलते हैं। असली तो तिजोड़ी में छिप जाते हैं, नकली बाजार में चले जाते हैं। वही हालत सभी असली चीजों की है। असली गुरु की भी वही हालत है। तुम उसे बाजार में न पा सकोगे; वह तो हट जाता है। बाजार में तुम्हें वह मिल जाएगा जो तुम्हारी राह देख रहा था। वह तुम्हारे दरवाजे के सामने ही बैठा मिल जाएगा। उसे पाने के लिए तुम्हें कोई भी चेष्टा न करनी होगी, कुछ भी खर्च न करना पड़ेगा; उलटे, वह तुम्हें प्रसाद भी देगा, ताकि प्रसाद के लोभ से ही आ जाओ। वह सब तरह से तुम्हें उलझाएगा।
गुरु खोजना बड़ी कठिन बात है। मिल जाए, सौभाग्य। तब उस के सामने रोया जा सकता है। वह तुम्हारे आंसुओं को समझेगा। तुम्हारे आंसुओं को बहते देख कर वह यह न समझेगा कि तुम दीन-हीन हो; तुम्हारी आंसू की गरिमा उसे समझ में आएगी। तुम्हारे आंसू उसके लिए बड़े पवित्र होंगे। तुम रो कर उसके सामने छोटे न होओगे; तुम रो कर उसके सामने बड़े हो जाओगे। तुम्हारे आंसू तुम्हारी महिमा की खबर देंगे। तुम्हारे पछतावे तुम्हें दीन न करेंगे। तुम अपने पछतावों की बात करके पछतावों से मुक्त हो जाओगे। उससे तुम अपने दुख कह कर हलके हो जाओगे।
लेकिन अगर यह न हो सके, जो कठिन है कि गुरु मिल जाए, तो परमात्मा तो सब तरफ उपलब्ध है; उसे तो खोजने कहीं नहीं जाना है। तुम एक वृक्ष के पास बैठ कर वृक्ष को ही उसका संदेशवाहक बना सकते हो। आकाश में चलते बादल को देख कर तुम मेघदूत बना सकते हो उसी बादल को। तुम उससे ही कह दे सकते हो अपना रोना कि जा रहे हो परमात्मा की तरफ, कह देना मेरा खबर।
गुरु न मिले तो परमात्मा तो सब तरफ उपलब्ध है लेकिन यह भी कठिन बात है कि गुरु न मिले तो कौन तुम्हें जगाए, कौन तुम्हें कहे कि परमात्मा चारों तरफ है? गुरु मिल जाए तो सुगम हो जाती है बात। क्योंकि गुरु तुम्हारे जैसा ही होता है..एक अर्थ में; और एक अर्थ में तुमसे बिल्कुल भिन्न होता है। गुरु तुम्हारे और परमात्मा के बीच में लगे द्वार की भांति होता है।
मगर जीवन बहुत जटिल है..जटिल ऐसा है जैसे कोई अगर पूछे कि मुर्गी पहले या अंडा पहले, ऐसा जटिल है। अगर तुम कहो, मुर्गी पहले तो मुसीबत है, क्योंकि तत्क्षण मन कहता हैः मुर्गी आएगी कहां से? अंडा चाहिए।
तुम कहो, अंडा पहले, तो मुसीबत; मन तत्क्षण कहेगाः अंडा आएगा कहां से? मुर्गी रखेगी तभी न?
परमात्मा और गुरु का मामला भी मुर्गी-अंडे जैसा है। अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा मिल जाए। अगर परमात्मा मिल जाए तो गुरु मिल जाए। कौन पहले है? बहुत मुश्किल है। जो पहले मिल जाए, तुम उसी को पहले मान कर चल पड़ना। वस्तुतः दोनों करीब-करीब, साथ-साथ मिलते हैं, युगपत मिलते हैं। क्योंकि मुर्गी है क्या, सिर्फ अंडे के लिए एक मार्ग है। अंडा क्या है, मुर्गी के लिए एक मार्ग है। अंडा मुर्गी होने के रास्ते पर है। मुर्गी अंडा होने के रास्ते पर है। वे दोनों संयुक्त हैं।
गुरु परमात्मा के लिए एक मार्ग है; परमात्मा गुरु के लिए एक मार्ग है। जो मिल जाए, जो पहले मिल जाए, जिसकी समझ तुम्हें पहले आ जाए, वहीं से चल पड़ना। वहीं तुम अपने को हलका कर पाओगे। इस संसार में तो तुम लोगों के सामने दुखड़ा मत रोना..जो तुम रोज करते हो।
तुम कभी सोचते भी नहीं। तुम अकल के दुश्मन हो। तुम उन लोगों से दुख रो रहे हो, जो खुद ही तुमसे ज्यादा दुखी हैं। और वे अगर तुम्हारी बात भी सुनते हैं तो सिर्फ इसीलिए कि तुम्हारे दुख सुन कर उनको अपने दुख छोटे मालूम पड़ते हैं। और वे अगर तुम्हारी बात सुनते हैं तो भी इसीलिए कि तुम चुप हो जाओ तो वे अपना दुखड़ा तुम पर रो दें। लेन-देन है।
लेकिन दुख एक-दूसरे को सुना कर क्या होगा? इससे भी थोड़ा सा हलकापन तो मिलता है कि किसी ने भी सहानुभूति से सुन लिया। पश्चिम में तो किसी के भी पास इतना समय नहीं कि दुख सुने, तो एक नया व्यवसाय पैदा हो रहा है..मनोचिकित्सक का, साइकोएनालिस्ट का। उसका कुल धंधा इतना है कि वह तुम्हारा दुख सुनता है, उसके पैसे लेता है। क्योंकि किसी के पास फुरसत नहीं है..न पति के पास फुर्सत है कि पत्नी को रोना सुने, क्योंकि दिन भर का थका-मांदा, भागा-दौड़ा किसी तरह घर आता है, और यह दिन भर का राग लिए बैठी है। न पत्नी को फुर्सत है कि पति की सुने...तो एक पेशेवर सुनने वाला है।
मनोवैज्ञानिक जो है वह कुछ नहीं करता; वह तुम्हें लिटा देता है एक कोच पर, पीछे बैठ जाता है, तुमसे कहता हैः जो दिल में आए, कहो। लोग सालों तक मनोचिकित्सा करवाते हैं और उससे उन्हें हलकापन लगता हैः कम से कम कोई इतनी गंभीरता से तो सुन रहा है; कोई इतने ध्यान से सुन रहा है। हालांकि सुन नहीं रहा मनोवैज्ञानिक; उसको क्या लेना-देना है?
मैंने फ्रायड के संबंध में सुना है कि वह सुबह नौ बजे से लेकर रात नौ बजे तक पच्चीसों मरीजों को मिलता था, सुनता था; बूढ़ा हो गया, तब भी। एक जवान मनोवैज्ञानिक जो उसके पास शिक्षण ले रहा था, उसने एक दिन कहा कि हम तो दो मरीजों के बाद थक मरते हैं, क्योंकि वही रोना, वही राग..कहां का गंदा कचरा सब निकालते हैं! आप नौ बजे रात भी ताजे रहते हैं!
फ्रायड ने कहाः सुन। सुनता कौन है? वह अपनी सुना रहा है, हम अपनी भीतर सुनते हैं। उसको सुनाने से सुख मिलता है, सुना ले। सुना-सुना कर लोग हलके हो जाते हैं।
बड़ा मंहगा धंधा है। मनोवैज्ञानिक इस समय सबसे ज्यादा तनख्वाह और रुपये कमाता है पश्चिम में, क्योंकि लोगों के मन में इतनी तकलीफ हो गई है, कोई सुनने वाला नहीं है। कोई आत्मीयता से सुनने वाला नहीं है। रास्ते पर लोग नमस्कार करने में डरते हैं कि कोई कुछ सुनाने न लगे। किसी के घर जाना हो तो ऐसा नहीं कि जैसा हिंदुस्तान में पहुंच गए बोरिया-बिस्तर लेकर, मेहमान बन गए, महीनों टिके रहे। कहीं जाना हो तो खबर देकर जाना पड़ता है, पूछ कर जाना पड़ता है; फिर भी जहां तक संभावना है, वह होटल में ठहरवाएगा। घर नहीं ठहरवाएगा। क्योंकि कौन तुमसे खोपड़ी पचाएगा? होटल में ठहरो, कभी खाने पर बुला लेगा, ठीक है।
रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि एक मित्र ने..वे इंग्लैंड में थे..अपनी शादी के लिए उन्हें बुलाया, खुद की शादी के लिए बुलाया। वे बड़े प्रसन्न हुए। उनको पता नहीं था, पहली-पहली दफा इंगलैंड गए थे। तो वे निकले उसकी शादी के लिए जाने को। लंदन से कोई घंटे भर का फासला था। नये-नये थे, ठीक जगह न खोज पाए। तो पहुंचना था दस बजे रात, पहुंचे बारह बजे। वहां तो सब काम समाप्त हो चुका था, शादी-वादी हो चुकी थी, पार्टी-वार्टी हो चुकी थी। जब दरवाजा खटखटाया, मित्र बाहर आया। उसने कहाः आप तो बहुत देर से आए।
तो उन्होंने कहाः तो अब क्या करूं? मैं तो परिचित नहीं हूं। मुझे तो खोजने में देर लग गई है।
तो उस मित्र ने कहाः यह होटल का नाम है, आप वहां जाकर खोज लें। अगर कोई जगह हो तो रुक जाएं।
उसने यह भी नहीं कहा कि यहां रुक जाएं रात भर। आए उसकी शादी के लिए थे। उसने कहाः आप रुक जाए होटल में और सुबह आप, वहीं से स्टेशन करीब है, गाड़ी पकड़ लेना।
उन्होंने लिखा है कि मेरा पहला अनुभव पश्चिम का हुआ यह कि पश्चिम में किसी को फुरसत नहीं है, न सुविधा है, न इतना बोझ किसी के लिए लेता है। अपना ही बोझ काफी है। अपना ही रोना काफी है।
दूसरे के सामने रोना रोना भी मत; उसका रोना बहुत है, उसको बढ़ाओ मत। और उसको समझ भी नहीं है तुम्हारे रोने की; वह भी तुम जैसा ही है। वह ऐसे ही है जैसे एक बीमार दूसरे बीमार की चिकित्सा कर रहा हो।
मैंने सुना है कि एक आदमी को दमे की तकलीफ थी। कई इलाज करवाए, ठीक न हुआ। फिर किसी ने कहा कि एक हकीम है यूनानी, वह ठीक कर देगा। बड़ा गहरा खोजी है और जीवन भर बड़े अध्ययन किए हैं उसने। तो यह आदमी गया। उसने कहा कि मैं थक मरा हूं दमा से। हजारों चिकित्सक देख लिए, इलाज करवा लिए, सब तरह की दवा-दारू कर ली, कुछ फायदा नहीं होता, हालत बिगड़ती जी रही है। क्या मैं पूछ सकता हूं, आपको कोई अनुभव है इस बीमारी का?
उसने कहाः अनुभव? चालीस साल से हम खुद ही मरीज हैं दमा के। तुम बिल्कुल बेफिकर रहो। चालीस साल से हम खुद ही मरीज है दमा के। अनुभव की क्या बात कर रहे हो?
अब दमा का मरीज दमे के मरीज को ठीक कर रहा है! और यह अनुभव है उसके चालीस साल का। वह कह रहा है, इसलिए बिल्कुल बेफिकर रहो; तुम किसी गैर-अनुभवी के हाथ नहीं पड़ गए हो।
दुखी के सामने दुख रोना व्यर्थ है। अगर रोना हो तो परमात्मा के सामने रोना। और अगर तुम परमात्मा के सामने रोना सीख जाओ तो तुम्हें प्रार्थना आ जाएगी। सच तो यह है कि परमात्मा से धीरे-धीरे कहने को कुछ भी नहीं रह जाता, सिर्फ आंसू रह जाते हैं।
प्रार्थना की तीन सीढ़ीयां हैं। पहली सीढ़ीः जब तुम अपने परमात्मा से अपना दुख रोते हो। फिर दुख हलका हो जाता है, बह जाता है, निकल जाता है, निकास हो जाता है। फिर दूसरी सीढ़ीः जब तुम परमात्मा के सामने सिर्फ रोते हो, लेकिन आंसुओं में अब दुख नहीं होता, एक हलकापन होता है। आंसू अब पीड़ा के प्रतीक नहीं होते, एक शांति की खबर लाते हैं। फिर एक तीसरी दशा हैः जब आंसू भी विदा हो जाते हैं। अब तुम सिर्फ परमात्मा के सामने होते हो, न तो कुछ कहते हो, न कुछ करते हो। आंसू तक भी नहीं बहते, अब तुम सिर्फ होते हो। इस तीसरी दशा में प्रार्थना पूरी हो जाती है। इस दशा में वहां परमात्मा यहां तुमः दोनों के बीच कोई शब्द, कोई कृत्य नहीं रह जाता। न तो तुम घंटी बजाते हो, न पूजा के फूल चढ़ाते हो..ये सब बच्चों की बातें हो गई हैं। अब परमात्मा के समक्ष तुम नग्न खड़े होते हो; बस तुम्हारा होना होता है। इस होने में ही अवतरण होता है। इतनी शून्यता में ही उस पूर्ण का आगमन होता है।
फरीद, देख तो जरा, यह क्या हुआ? शक्कर भी विष हो गई। अपने स्वामी को छोड़ कर अब मैं और किसे अपना दुखड़ा सुनाऊं?
देखु फरीदा जु थीआ सकर होई विसु।
साईं बाझहु आपणे, वेदणु कहीऐ किसु।।
फरीदा कालीं जिन्हीं न राविआ धउली रावै कोइ।
करी साईं सिउ पिरहरी, रंगु नवेला होइ।।
फरीद, क्या किसी स्त्री ने, जब उसके केश काले थे, स्वामी के साथ रमण न कर तब रमण किया जब उसके केश पक कर श्वेत हो गए?
फरीद कहता हैः चूक तो गए हैं, इसलिए बहुत हिम्मत से तेरे द्वार पर दस्तक भी नहीं दे सकते; क्योंकि वह वक्त गया जब बाल काले थे, शरीर सुंदर था। तब प्रीतम के द्वार जाते तो चलने में एक मस्ती होती, चलने में एक नृत्य होता, चलने में एक शान होतीः कुछ लेकर आ रहे थे; अब तो हाथ खाली हैं; अब तो सूखी हड्डियां रह गई हैं; अब तो बाल सफेद हो गए हैं; अब तो सौंदर्य झुर्रियों में दब गया; अब तो एक भिक्षा पात्र की तरह तेरे द्वार पा आते हैं। किस शान से आएं? द्वार खटखटाने में भी डर लगता हैः यह भी कोई वक्त है मिलने का? लेकिन मजबूरी है, अब कोई उपाय भी नहीं है।
फरीदा कालीं जिन्हीं न राविआ...
जब बाल काले थे, तब प्यारे को न खोजा।
...धवली रावै कोइ।
और कभी इतने कुरूप होकर, एक खंडहर की भांति, किसी प्रेयसी ने अपने प्रेमी को खोजा है? लेकिन तू जानने वाला है, तू क्षमा कर सकेगा। नासमझी में हमने जो गंवाया है, उसे तू हमारी परीक्षा मत बनाना। हम समय पर नहीं आए, देर हो गई है..यह हमारी भूल है। लेकिन तुझ पर हमें भरोसा है, तेरी करुणा का भरोसा है।
खैर, साईं से तू अब भी प्रीति कर जिससे कि तेरे केशों का रंग फिर नया हो जाए।
हम जानते हैं कि तेरी कृपा की दृष्टि हुई तो केश क्या, आत्मा का रंग फिर नया हो जाएगा!
करी साई सिउ पिरहरी, रंगु नवेला होइ।
तू हमें पुनर्जन्म दे देगा। हम तेरे भीतर से फिर पैदा हो जाएंगे। एक नये रूप में अविर्भाव होगा। तुझ पर भरोसा है। अपने तो पैर डगमगाते हैं। कुछ संपदा लेकर नहीं आ रहे हैं, कुछ दान करने को नहीं है, कुछ भेंट करने को नहीं है। मन कंपता है, पैर डगमगाते हैं, योग्यता कोई नहीं है, पात्रता कोई नहीं।
यही भक्त की भाव-दशा है। कुछ लेकर नहीं आ रहे हैं; सिर्फ रोते हुए आ रहे हैं। आंसुओं की भेंट हैं।
मैं एक यहूदी फकीर मजीद के वचन पढ़ रहा था। उसके हर वचन में वह परमात्मा से कहता है कि आज मेरे सिर में दर्द है, यही तुझे भेंट करता हूं, और तो मेरे पास कुछ नहीं है; आज मेरे पैर में तकलीफ है, यही तुझे भेंट करता हूं, और तो मेरे पास कुछ नहीं है; आज बूढ़ा हो गया हूं, देह जर्जर है, आज यह जर्जर देह तुझे भेंट करता हूं, और तो मेरे पास कुछ नहीं है।
जिस दिन तुम समझोगे कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, उसी दिन तुम्हारे पास जो भी है, वह भेंट स्वीकार हो जाएगी। जब तक तुमने समझा है कि तुम्हारे पास कुछ है, अकड़ बाकी रही; रस्सी जल गई, अकड़ बाकी रही..तब तक तुम चाहे दुनिया का साम्राज्य लेकर भी जाओ, वह भेंट स्वीकार न हो सकेगी। अहंकार जिस भेंट के साथ जुड़ा है, वह अपवित्र हो गई। निरहंकार-भाव से तुम खाली हाथ लेकर जाना, वह स्वीकार हो जाएगी।
बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है। एक सम्राट आया बुद्ध को मिलने। स्वभावतः सम्राट था तो उसने एक बहुमूल्य कोहिनूर जैसा हीरा अपने हाथ में ले लिया। चलते वक्त उसकी पत्नी ने कहा कि पत्थर ले जा रहे हो। पत्नी ज्यादा समझदार होगी। स्त्रियां अक्सर पुरुषों से ज्यादा भावपूर्ण होती हैं। भाव की एक समझ होती है। पत्नी ने कहाः पत्थर ले जा रहे हो। माना कि कितना ही मूल्यवान है; लेकिन बुद्ध के लिए इसका क्या मूल्य? जिसने सब साम्राज्य छोड़ दिया, उसके लिए पत्थर ले जा रहे हो। यह भेंट कुछ जंचती नहीं। अच्छा तो हो कि अपने महल के सरोवर में पहला कमल खिला है मौसम का, तुम वही ले जाओ। वह कम से कम जीवित तो है। और बुद्ध कमलवत हैं। उनके जीवन का फूल खिला है। उसमें कुछ प्रतीक भी है। इस पत्थर में क्या है? यह तो बिल्कुल बंद है, जड़ है।
बात तो उसे जंची, तो उसने सोचा कि एक हाथ खाली भी है; पत्थर तो ले ही जाऊंगा, क्योंकि मुझे तो इसी में मूल्य है। तो, मैं तो वही चढ़ाऊंगा जिसमें मुझे मूल्य है। लेकिन तू कहती है, तेरी बात भी हो सकती है कि ठीक हो। और बुद्ध को मैं जानता भी नहीं कि किस तरह के आदमी हैं।
तो फूल भी ले लिया। एक हाथ में कमल है, एक हाथ में हीरा, लेकर वह सम्राट बुद्ध के चरणों में गया। जैसे ही बुद्ध के पास पहुंचा और हीरे का हाथ उसने आगे बढ़ाया, बुद्ध ने कहाः गिरा दो।
मन में तो बड़ी उसे चोट लगी। चढ़ा दो नहीं, बुद्ध ने कहा, गिरा दो। अभी हाथ जरा सा बढ़ाया ही था, मगर जब बुद्ध ने कहा, गिरा दो, चोट तो लगी अहंकार को कि बहुमूल्य हीरा है, गिराने की चीज नहीं है। ऐसा हीरा दूसरा पृथ्वी पर खोजना मुश्किल है। यह मेरे खजाने का सिरमौर है।
मगर अब बुद्ध के सामने न गिराए तो भी फजीहत होगी, और हजारों भिक्षु बैठे हैं, और सब की आंखें टंगी हैं। उसने बड़े बेमन से, गिराना तो नहीं चाहता था, लेकिन गिरा दिया। सोचा, शायद पत्नी ने ही ठीक कहा हो। दूसरा हाथ आगे बढ़ाया, और जरा ही आगे गया था कि बुद्ध ने फिर कहाः गिरा दो।
 अब तो उसे जरा समझ के बाहर हो गई बात कि यह आदमी कुछ भी नहीं समझता। न बुद्धि की बात समझता है, न हृदय की बात समझता है। बुद्धि के लिए हीरा था; गणित था उसमें, हिसाब था, धन था। प्रेम कमल, भाव हृदय..और इसको भी कहता है, गिरा दो! और मेरी पत्नी तो इसके चरणों में बहुत आती है। वह इसे पहचानती है। और यह उसको भी नहीं समझ पाया। मगर अब जब कहता है...। और जब हीरा गिरा दिया तो अब इस कमल में क्या रखा है, दो कौड़ी का है।
उसने गिरा दिया। तब वह खाली हाथ बुद्ध की तरफ झुकने लगा, बुद्ध ने कहाः गिरा दो। तब तो उसने समझा कि यह आदमी पागल है। अब कुछ है ही नहीं गिराने को। दोनों हाथ खाली हैं।
उसने कहाः अब क्या गिरा दूं?
बुद्ध तो चुप रहे; बुद्ध के एक भिक्षु ने, सारिपुत्र ने कहाः अपने को गिरा दो! हीरे और कमलों को गिराने से क्या होगा? अपने को गिरा दो! शून्यवत हो जाओ तो ही उन चरणों का स्पर्श हो पाएगा। तुम बचे, चरण दूर; तुम मिटे, चरण पास।
तब कहते हैं, उस सम्राट को उसी क्षण बोध हुआ। वह गिर गया। वह सच ही गिर गया। जब वह उठा तो दूसरा आदमी था। वह महल की तरफ वापस न गया। वह भिक्षु हो गया! यह संन्यस्त हो गया! उसने कहाः जब गिरा ही दिया तो अब वापस जाने वाला न बचा। बहुत दूसरों ने समझाया कि इतनी कोई जल्दी नहीं। उसने कहाः अब बात ही नहीं, जब मैं ही न रहा तो कौन वापस जाए? जो आया था वह अब नहीं है। अब बुद्ध मुझ में समा गए। उनकी बांसुरी मुझे सुनाई पड़ी! जरा सा सुर इतना मधुर है, तो पूरे संगीत का कैसा आनंद होगा!
फरीद कहते हैंः खैर, साईं से तू अब भी प्रीति कर ले।
उसके दरबार में देर कभी भी नहीं है। जब भी तू आया, आया..यही काफी है। खाली होकर आया..खाली होकर आना ही उपाय है! यह साईं चमड़ी पर पड़ी हुई झुर्रियों को नहीं देखता; न बूढ़े की झुक गई कमर को देखता है; न युवा, जवानी की तरंगों को देखता है। यह साईं तो उस शून्य मन को देखता है जो सब गंवा कर आया है। जो यह जान कर आया है कि सब व्यर्थ है..वही झुकने में समर्थ होकर आया है।
फरीदा कालीं जिन्हीं न राविआ धउली रावै कोइ।
करी साईं सिउ पिरहरी, रंगु नवेला होइ।।
और झुक जा और चढ़ा दे अपने को। यह तेरा डर ठीक है कि तेरे पास कुछ नहीं है। यह डर स्वाभाविक है। यह डर शुभ है कि तेरे पास चढ़ाने को कुछ नहीं है। लेकिन यही तो भक्त की भाव-दशा है, यही तो चढ़ाने की कला है कि कुछ चढ़ाने को नहीं है और चढ़ाता हूंः खाली हाथ हूं! परमात्मा तुझे भर देगा और नया कर देगा।
एक जन्म है जो मां-बाप से मिलता है, वह शरीर का जन्म है। एक जन्म है जो चैतन्य से मिलता है; वह आत्मा का जन्म है।
जो परमात्मा के सामने झुका वही आत्मवान हुआ। जब तक तुम उसके सामने नहीं झुके हो तब तक आत्मा सिर्फ एक सिद्धांत है। तुम्हें उसका कोई पता नहीं। तुम्हारे भीतर अभी उसका अविर्भाव नहीं हुआ। अभी तुम आत्महीन हो। अभी तुम शरीर हो, मन हो, पर आत्मा नहीं। अभी वह बीज टूटा ही नहीं। अभी बीज अंकुर नहीं बना। अभी बीज पर वृक्ष नहीं आया। अभी वृक्ष पर फूल-फल नहीं लगे। अभी आत्मा संभावना है तुम्हारी, वास्तविकता नहीं।
जो शून्य होकर परमात्मा के सामने झुका, वह पूर्ण हो जाता है। उस शून्य में ही पूर्ण का प्रवेश है। जगह खाली है, सिंहासन राजी है..परमात्मा प्रविष्ट हो जाता है। जहां तुमने अहंकार को बिठा रखा था, उसी जगह उसका सिंहासन बन जाता है। ऐसी क्रांति का नाम ही धार्मिक क्रांति है। और धार्मिक क्रांति एकमात्र क्रांति है, बाकी सब क्रांतियां क्रांति के धोखे हैं।

आज इतना ही।

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