सातवां-प्रवचन-(धर्म मोक्ष है)
सूत्र:
फरीदा जिन लोइण जगु मोहिआ, से लोइण मैं डिठु।काजल रेख न सहदिआ, से पंखी सुए बहिठु।।
फरीदा खाकु न निंदीए; खाकु जेडु न कोइ।
जीऊंदियां पैरा तलै, मुइआ उपरि होइ।।
फरीदा जा लबु ते नेहु किआ, लबु ते कूड़ा नेह।
किचरु झति लंघाईऐ, छपरि तुटै मेहु।।
फरीदा जंगलु जंगलु किआ; भवहि वणि कंडा मोड़ेहि।
वसी रबु हिआलिऐ, जंगलु किआ ढूंढेहि।।
फरीदा इनी निकी जंधीऐ, थल डूगर भवि ओम्हि।
अजु फरीदै कूजड़ा, सै कोहां थीओमि।।
फरीदा रातीं बाड़ीआं, धुखि-धुखि उठानि पास।
धिगु तिन्हांदा जीविया, जिन्हां विडाणी आस।।
जीवन तुम्हारा एक पुनरुक्ति है..एक अंधी पुनरुक्ति! उठते हो, चलते हो, काम-धाम करते हो; लेकिन कहां हो, क्या कर रहे हो..इसका कोई भी होश नहीं। कौन हो..इसका भी कोई पता नहीं। क्यों है तुम्हारा होना यहां..इसका कोई उत्तर नहीं। फिर दिन आते हैं, रातें आती हैं, समय बीतता चला जाता है..और जीवन ऐसे ही उजड़ जाता है, बिना किसी फूलों को उपलब्ध हुए। जीवन में हाथ कुछ भी नहीं लग पाता, जिसको तुम संपदा कह सको; जिसको तुम कह सको कि आना व्यर्थ न हुआ।
खाली हाथ आदमी पैदा होता है और खाली हाथ ही मर जाता है। लेकिन कुछ हैं जो खाली हाथ पैदा होते हैं और भरे हाथ मरतेे हैं। कबीर, नानक, फरीद ऐसे कुछ लोग हैं जो आए तो तुम्हारी ही तरह थे; आते समय कोई भेद न था; तुम्हारे हाथ जैसे खाली थे, उनके भी हाथ खाली थे..लेकिन जाते समय तुम भिखारी की तरह जाओगे; वे सम्राट की तरह गए। उन्होंने जीवन का कोई उपयोग कर लिया। जीवन बीत ही न गया; ऐसे ही न बीत गया; ऐसे ही न चला गया..उन्होंने जीवन की धारा का नियोजन कर लिया; जीवन की उर्जा का सृजनात्मक उपयोग कर लिया।
जीवन दो ढंग के हो सकते हैं। एक तो ऐसा ही बहता चला जाए, परिणाम कुछ भी न हो, निष्पत्ति कोई न मिले, पहुंचना कहीं न हो, कोई मंजिल पास न आए। और एक जीवन, कि प्रतिपल माला के बिखरे हुए फूलों की भांति न हो, बल्कि किसी लक्ष्य, किसी गहरे प्रयोजन, किसी गहरी प्रार्थना के धागे में पिरोया हुआ हो। ऐसे फूलों का ढेर भी लगता है; उन्हीं फूलों की माला भी बन जाती है।
अधिक लोगों का समय जीवन समय का एक ढेर है। उसमें कोई संगति नहीं है। उसमें कोई रेखाबद्ध विकास नहीं है। उसमें कोई सोपान नहीं है।
कुछ लोगों का जीवन धागे में पिरोए हुए फूलों की भांति है; प्रत्येक फूल एक सीढ़ी है, और हर फूल एक नया द्वार है, और जीवन एकशृंखला हैः कहीं पहंुचता हुआ मालूम होता है; कहीं पहुंच जाता है।
और समय रहते जाग जाओ तो ठीक। क्योंकि जो समय हाथ से चला गया उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता। जो क्षण बीत गए, वे बीत ही गए; उन्हें फिर से जीने की कोई सुविधा नहीं है। समय कोई ऐसी संपत्ति नहीं है जिसे तुम खोकर फिर पा सकोगे। इस संसार में सभी चीजें खो कर पाई जा सकती हैं, समय नहीं पाया जा सकता। इसलिए समय इस संसार में सबसे ज्यादा बहुमूल्य हैः गया, तो गया। और उसी के संबंध में हम सबसे ज्यादा लापरवाह हैं। लापरवाह ही नहीं हैं; लोग बैठ कर ताश खेल रहे हैं, शराब पी रहे हैं। पूछो, क्या कर रहे हो; वे कहते हैं, समय काट रहे हैं, समय काटे नहीं कटता।
समय तुम्हें काट रहा है, पागलो! तुम समय को न काट सकोगे। समय को तुम क्या काटोगे? तुम समय को कैसे काटोगे? समय पर तो तुम्हारी कोई पकड़ ही नहीं है। समय तुम्हें काट रहा है; तुम सोचते हो तुम समय को काट रहे हो। अखीर में पाओगे, समय तो नहीं कटा, तुम ही कट गए। अखीर में पाओगे, समय तो नहीं मरा, तुम्हीं मर गए।
ध्यान रखना, समय नहीं बीत रहा है, तुम ही बीत रहे हो। समय नहीं जा रहा है, तुम ही बहे जा रहे हो। समय तो एक अर्थ में वहीं का वहीं हैः लेकिन तुम आते हो, चले जाते हो; तुम्हारी सुबह होती है, तुम्हारी सांझ होती है; तुम्हारा जन्म होता है, तुम्हारी मृत्यु होती है।
इसे ठीक से समझ लेना। समय को काटना अपने को ही काटना है। और समय का सम्यक उपयोग कर लेना, अपने को जन्म देने का आयोजन कर लेना है। स्वयं को जन्माना होगा, तो ही तुम्हारा नया रूप, तुम्हारा परमात्म-रूप, तुम्हारा भगवत-रूप प्रकट होगा। वह समय के पार है। तुम्हारा वास्तविक स्वरूप समय के पार है। समय तो सिर्फ एक स्थिति है जिसमें समयातीत को जानना है। समय तो एक परिस्थिति है जिसमें अपने भीतर कालातीत को पहचानना है।
भारत में समय और मृत्यु के लिए हमने एक ही शब्द का प्रयोग किया है, वह हैः काल। अगर तुम ठीक से पहचानो तो समय तुम्हारी मौत है। अगर तुम ठीक से न पहचानो तो समय को तुम अपनी जिंदगी समझते हो। अगर तुम ठीक से पहचान लो तो समय मृत्यु हो जाती है, और तुम उस जीवन की खोज में लग जाते हो जो कालातीत है। क्योंकि उसे पाए बिना तो कुछ भी पाया, पाया सिद्ध न होगा।
लेकिन जैसी साधारण आदमी की कथा है..साधारण आदमी की कथा यानी तुम्हारी कथा, सोए हुऐ आदमी की कथा..वह वही किए चला जाता है जो उसने कल भी किया था, परसों भी किया था। परसों भी कुछ पाया न था, कल भी कुछ पाया न था। आज भी तुम वही कर रहे हो। परसों भी आशा बांधी थी, कुछ मिलेगा; कल भी आशा बांधी थी; आज भी आशा बांध रहे हो। आशा ही बांधे चले जाते हो। कभी सोचते भी नहीं कि आशा कितनी पुरानी है, हर बार असफल हुई है। फिर-फिर तुम बांधने लगते हो। उसी आशा के सहारे तुम गलत बने रहते हो। तुम कब निराश होओगे? कब तुम्हारे जीवन में हताशा आएगी कब तुम समझोगे कि यह दौड़ ही व्यर्थ है, किसी और आयाम को खोजना है। यह पूरा का पूरा सिलसिला ही गलत है। ऐसा नहीं है कि इस सिलसिले को थोड़ा ठीक-ठीक जमा लेना है। ऐसा नहीं है, इसको थोड़ा रंग-रोगन करके सुंदर बना लेना है, कुछ सजावट कर लेनी है। नहीं, यह पूरा सिलसिला ही गलत है।
एक और भी जीवन का ढंग है। वह समय के भीतर कालातीत को जीने का ढंग है; क्षणभंगुर के भीतर शाश्वत को जीने का ढंग। रहो क्षणभंगुर में, मगर तुम्हारे पैर शाश्वत में जम जाएं। रहो समय की धारा में, लेकिन तुम्हारे प्राणों की गहनता अनंत से जुड़ जाए। रहो बाजार में, लेकिन तुम्हारे गहन में बाजार न हो। क्षुद्र चारों तरफ घेरे रहे, कोई चिंता नहीं; तुम्हारे भीतर विराट का संबंध, विराट से संसर्ग हो जाए।
फरीद के ये वचन उसी तरफ इशारे हैं।
फरीदा जिन लाइण जगु मोहिआ, ...
फरीदा, मैंने उन नयनों को देखा है, जिन्होंने दुनिया को मोह लिया था, जो काजल की रेख भी सहन न कर पाते थे। इतने कोमल थे। अब चिड़ियां उनमें अपने अंडे रख रही हैं। मैंने उन आंखों को देखा है जो बड़ी कोमल थीं, जिनसे कमल शरमाते, काजल की रेख जिन्हें बरदाश्त न होती थी, काजल की रेख भी जिनके लिए बोझरूप थी, काजल की रेख भी जिन्हें कांटे जैसी गड़ती..मैंने उन आंखों को देखा है। और अब, अब उन्हीं आंखों में पक्षियों ने अपने घोसले बना लिए हैं।
च्वांगत्सु निकलता है एक मरघट से। एक खोपड़ी पड़ी है। पैर टकरा जाता है। सांझ हो गई है और अंधेरा घिर गया है। वह उस खोपड़ी को उठा कर ले आता है। उसके शिष्य कहते हैंः इस खोपड़ी का क्या करेंगे? इसे किसलिए ला रहे हैं?
च्वांगत्सु कहता है कि राह पर चलता था, अंधेरे में पैर लग गया इस सिर को। और ध्यान रखना, वह मरघट कुछ छोटे लोगों का मरघट न था, बड़े लोगों का मरघट था। सम्राट वहां दफनाए गए हैं। प्रधानमंत्री वहां दफनाए गए हैं। यह खोपड़ी कोई साधारण खोपड़ी नहीं है। और भूल से मेरा पैर लग गया है।
शिष्य हंसने लगे। उन्होंने कहाः तुम पागल तो नहीं हो गए हो? अब यह चाहे सम्राट की खोपड़ी हो कि प्रधानमंत्री की, इससे क्या फर्क पड़ता है? अब तो यह धूल में मिलेगी। अब तो यह भिखारियों के पैरों की ठोकर-टक्कर खाएगी। अब तो यह कुछ भी न कर सकेगी। फेंको इसे। इस कूड़े-करकट को मत लाओ।
च्वांगत्सु ने कहाः मैं सम्हाल कर रखूंगा। इसलिए सम्हाल कर रखूंगा ताकि मुझे याद बनी रहे कि आज नहीं कल च्वांगत्सु, तेरी खोपड़ी भी ऐसे ही कहीं पड़ी होगी। लोग पैरों की ठोकर मारेंगे। तू उनको कुछ भी कह भी न पाएगा। और जब यह होना ही है तो एक अर्थ में हो ही गया।
तो वह अपने पास ही खोपड़ी जीवन भर रखे रहा। अगर कोई उसे गाली दे जाता तो वह खोपड़ी की तरफ देख कर हंसने लगता। अगर कोई उसका अपमान करता और कोई उसके ऊपर पत्थर फेंक देता तो वह खोपड़ी की तरफ देखता, पत्थर फेंकने वाले की तरफ नहीं। एक बार तो एक आदमी ने पत्थर फेंका उसके ऊपर क्योंकि वह आदमी पुराने ढर्रे का धार्मिक आदमी था; वह समझता था, च्वांगत्सु धर्म का विरोध कर रहा है। वह समझता था, च्वांगत्सु जो बातें कर रहा है, ये तो लोगों के जीवन से धर्म को नष्ट कर देंगी। उसने बड़े क्रोध से पत्थर फेंका था। च्वांगत्सु ने उसकी तरफ देखा भी नहीं, खोपड़ी की तरफ देखा और कहाः धन्यवाद तेरा! तेरे रहते मुझे कोई विचलित नहीं कर सकता।
वह आदमी भी चैंका। उसने पूछाः क्या कहते हो? किससे बात करते हो? होश में हो?
च्वांगत्सु ने कहाः होश में हूं, इसलिए इस खोपड़ी से बात करता हूं। अगर बेहोश होता तो तुझे मजा चखा देता। अभी जिंदा हूं। अभी पत्थर का उत्तर बड़े पत्थर से दे सकता था। इस खोपड़ी की वजह से अब वैसी नासमझी नहीं होती। आज नहीं कल, यह मेरी खोपड़ी पड़ी ही रहेगी। भिखारी इस पर चलेंगे, ठोकर मारेंगे तब मैं कुछ भी न कर पाऊंगा। जब कल कुछ न कर पाऊंगा तो आज करने की झंझट कौन करे? बात समाप्त हो गई। मैं जीते जी मर गया हूं।
फरीदा जिन लोइण जगु मोहिआ, ...
फरीद, जिन आंखों ने जगत को मोह लिया था..से लोइण मैं डिठु..मैंने उन आंखों को देखा है। उन आंखों से मेरी पहचान रही है।
काजल रेख न सहदिआ, ...
काजल की पतली रेखा भी जिन आंखों के लिए बोझिल हो जाती थी..से पंखी सुए बहिठु..अब उन्हीं में पक्षी बैठे हैं, घोसले बना रहे हैं।
बड़ी प्राचीन बौद्ध कथा है। एक बौद्ध भिक्षु गांव से गुजरता है।
अक्सर ऐसा हो जाता हैै कि संन्यास एक तरह का सौंदर्य दे देता है जो इस जगत का नहीं है। संन्यास एक तरह की गरिमा दे देता है जो इस पृथ्वी पर अजनबी है। संन्यास पैरों को एक चाल दे देता है, एक मस्ती दे देता है, जो साधारण सांसारिक में दिखाई नहीं पड़ सकती। सांसारिक तो बंधा है जंजीरों से; संन्यासी के जीवन में एक मुक्ति की सुवास उठती है।
एक संन्यास गुजरता था राह से..अपनी मस्ती में मस्त, अपना गीत गुनगुनाता है। एक बौद्ध भिक्षु। एक वेश्या ने उसे देखा। उसने बहुत सुंदर लोग देखे थे। सम्राट उसके द्वार पर पंक्तिबद्ध खड़े रहते थे। बड़े-बड़े धनपतियों को मुश्किल से उसके द्वार पर प्रवेश मिलता था। वह उस जमाने की सबसे ज्यादा जानी-मानी वेश्या थी। उसकी ख्याती दूर-दूर तक थी। उसके सौंदर्य के लोग गीत गाते थे; उसके दर्शन को तरसते थे। लेकिन वह वेश्या इस संन्यासी पर मोहित हो गई। उसके मन को कभी किसी ने मोहा न था। संबंध थे, वे धन के थे। नाता था, वह आर्थिक था। पहली बार प्रेम उसके हृदय में उठा। वह भागी और उसने इस भिक्षु का हाथ पकड़ लिया और उसने कहा कि आओ मेरे घर। आज मेरे घर मेहमान हो जाओ।
भिक्षु ने कहाः आऊंगा जरूर; जब जरूरत होगी तब आऊंगा। अभी मेरी जरूरत भी क्या है? अभी तुम जवान हो। अभी बहुत तुम्हारे प्रेमी हैं। तुम्हारे कीर्तिगान मैंने भी सुने हैं। तुम्हारे सौंदर्य की प्रशंसा मुझ तक भी पहुंची है। धन्यवाद की तुमने आज मुझे राह पर रोका और घर आने का निमंत्रण दिया। अभी तो मैं किसी यात्रा पर हूं। अभी तो कहीं मुझे पहुंचना है। लेकिन जिस दिन भी जरूरत होगी, तुम भरोसा रखना, मैं आ जाऊंगा।
वेश्या को बहुत पीड़ा हुई। यह चोट गहरी थी, यह अपमानजनक थी। इसके पहले कभी किसी को उसने निमंत्रण न दिया था। पहला ही निमंत्रण असफल हुआ था। उसे पता था बहुत लोगों को द्वार से वापस लौटा देने का; उसे यह पता न था कि कोई उसे भी द्वार से वापस लौटा सकता है।
बात आई-गई हो गई। घाव की तरह उसके मनमें वह बात चुभती तो रही। सपनों में वह भिखारी आता रहा। जब कभी सुविधा मिलती, एक क्षण को उस भिक्षु की याद उसे पकड़ लेती। वह एक कांटे की तरह, एक मीठी चुभन की तरह भीतर चुभता रहा। ऐसे बहुत वर्ष बीत गए और जो घड़ी आनी थी, जो आती ही है सदा, वह आ गई। उसे कोढ़ हो गया। उसका शरीर गलने लगा। गांव के लोगों ने उसे बाहर निकाल दिया। वह अत्यंज हो गई। अब उसे गांव में रखा नहीं जा सकता।
अमावस की अंधेरी रात है। वह गांव के बाहर मर रही है प्यास से। तप्त गर्मी की रात है। चारों तरफ अंधेरा है। वह पानी के लिए पुकारती है, लेकिन कोई पानी देने वाला नहीं है। कौन उसे आज पानी देगा? जो सदा अमृत-पात्रों में पानी पीती रही थी, स्वर्ण-पात्रों से घिरी थीः आज कोई मिट्टी के सकोरे में भी पानी देने को नहीं है। आज उसके पास कोई आने को तैयार नहीं है। उसके शरीर से दुर्गंध आती है। तभी अचानक उसने देखा कि किसी का हाथ उसके माथे पर आया। कोई पानी का प्याला भर के ले आया है। उसने पानी पीआ। उसने पूछा अंधेरे मेंः तुम कौन हो? उस भिक्षु ने कहाः मैं आ गया हूं। तीस वर्ष पहले तुमने मुझे बुलाया था। लेकिन तब मेरी कोई जरूरत न थी; तब तुम्हारे चाहने वाले बहुत थे। तब मैं भी तुम्हारे हजार चाहने वालों में एक होता। मेरे बिना भी तुम्हारा काम चल रहा था। आज तुम्हारा चाहने वाला कोई भी नहीं है। आज केवल मैं ही तुम्हें पहचान सकता हूं। तुम्हारी चमड़ी की देह से मुझे लेना-देना नहीं है। तुम्हारी हड्डी-मांस-मज्जा से मेरा कोई नाता नहीं। मैं तुम्हें पहचानता हूं; मैं तुम्हारी आत्मा को पहचानता हूं। तुम्हारे प्रेम का निवेदन मेरे पास है।
कहते हैं, वह वेश्या उस रात जिस आनंद और शांति से मृत्यु को उपलब्ध हुई, वैसा कभी किसी को सौभाग्य मिलता है। कहते हैं, वह मुक्त हो गई। वह दुबारा संसार में शरीर लेकर नहीं आई। इस घटना ने उसके जीवन में एक क्रांति उपस्थित कर दी।
रवींद्रनाथ ने इस पर एक बहुत अदभुत कविता लिखी है। उनकी सभी कविताएं अदभुत हैं, लेकिन इस कविता जैसी कोई अदभुत नहीं है।
फरीदा जिन लोइण जगु मोहआ, से लोइण मैं डिठु।
मैं उन आंखों को भलीभांति जानता हूं, देखा है मैंने उन आखों को, जिन्होंने जगत को मोह लिया था। वे दिन मुझे भूले नहीं। वे सुखद स्मृतियां मुझे याद हैं। काजल की रेखा भी बोझिल थी, गड़ती थी। अब उनमें चिड़ियों ने अपने घोसले रख लिए हैं; चिड़ियां बैठी हैं, अपने अंडे रख रही है। अब वे आंखें केवल गड्ढे रह गई हैं हड्डियों के। सौंदर्य जा चुका, कोमलता जा चुकी।
सभी के जीवन में यह घड़ी आती है। सौभाग्यशाली हैं वे जो आने के पहले सजग हो जाते हैं और तैयारी कर लेते हैं। अभागे हैं वे, जो इस ख्याल में डूबे रहते हैं कि ऐसा घटता होगा दूसरों को, हमें थोड़े ही घटता है। दूसरों की कोमल आंखें नष्ट हो जाती होंगी, हड्डियों के गड्ढे रह जाते होेंगे; यह हमारी आंख के साथ थोड़े ही होने वाला है; हम अवपाद हैं।
जिसने इस जगत में अपने को अपवाद समझा वह अभागा है। जगत में कोई भी अपवाद नहीं है। और मनुष्य का अज्ञान अपने को अपवाद मान कर ही मूच्र्छित बने रहने में सफल हो जाता है।
तुम ध्यान रखना, कभी भूल कर अपने को अपवाद मत मानना। जब सड़क पर किसी को भीख मांगते देखो, तब इस बात की संभावना को इनकार मत करना कि कल तुम भी भीख मांग सकते हो। यह मत सोचना कि तुम अपवाद हो, यह अभागा है। और जब तुम अंधे को राह पर टकराते देखो तो यह मत सोचना कि तुम सौभाग्यशाली हो, यह अभागा है। कल तुम भी अंधे हो सकते हो। जहां आंख है, वहां अंधापन हो सकता है। जहां संपदा है वहां भिखमंगापन हो सकता है। जहां जीवन है, वहां-वहां मौत भी होगी। अभी दीया जलता है, इससे जरूरत से ज्यादा अहंकार से मत भर जाना; क्योंकि सभी दीये बुझते हैं। सभी तरह के तेल चुक जाते हैं। जीवन का तेल भी चुक जाता है।
जब राह से तुम एक मुर्दे को निकलते देखो तो गौर से देखना, यह अरथी तुम्हारी भी है। ठीक ऐसी ही अरथी में बंधे कल तुम भी निकलोगे। तब तुम देखने के लिए दूर खड़े न बचोगे। तब कुछ करने का उपाय न रहेगा। अभी अरथी किसी और की जाती है, तुम देख सकते हो, तुम द्रष्टा बन सकते हो। अभी समय है। अभी तुम जाग सकते हो।
लेकिन आदमी के जीवन की बड़ी से बड़ी अंधकार को सम्हालने वाली जो प्रक्रिया है, वह है स्वयं को अपवाद मानना। तुम कहते होः यह मेरे लिए थोड़े ही है। ऐसा दूसरों के साथ होता है। सदा कोई और मरता है। मैं तो सदा जिंदा हूं। मैंने सदा दूसरों को मरते देखा है; मुझे तो कभी मरते देखा नहीं। कोई दूसरा भीख मांगता है। कोई अंधा हो जाता है। कोई बूढ़ा हो जाता है। कोई जराजीर्ण है। मैं तो सदा ठीक हूं।
इसी अपवाद के भीतर छिपता है अज्ञान।
जगत में कोई भी अपवाद नहीं है। जिसने ऐसा जान लिया, उसके जीवन में मूच्र्छा टूट ही जाएगी। जो किसी को भी घटा है, वह तुम्हें भी घट सकता है। ठीक से समझो तो जो किसी को भी घट रहा है, वह तुम्हें ही घट रहा है..जरा दूर; थोड़े दिन में पास आ जाएगा। मनुष्य मात्र को जो घट सकता है, वह तुम्हारी भी संभावना है। तुम मनुष्य हो, तो जो-जो मनुष्य के जीवन में हो सकता है, वह सब तुम्हारे जीवन में हो सकता है। और सब बातों में थोड़े-बहुत हेर-फेर भी हो जाएं, लेकिन मृत्यु के संबंध में तो कोई हेर-फेर न होगा। मृत्यु तो एकमात्र सुनिश्चित घटना है। हो सकता है, तुम अंधे न होओ; हो सकता है, तुम बहरे न होओ; हो सकता है, तुम्हारा शरीर गले न..लेकिन मौत तो होगी। और शरीर अंधा हो कि न अंधा हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? अंत सुनिश्चित है। जो अंत को ध्यान में रख कर जीता है, जो मृत्यु की तरफ बोधपूर्वक जीता है, उसका जीवन रूपांतरित हो जाता है। जो मृत्यु को भूल कर जीता है, वह बेहोशी में जीता है।
मौत के प्रति जाग जाना जीवन को बदलने की कीमिया है।
फरीदा जिन लोइण जगु मोहिआ, ...
जिन आंखों ने सारे संसार को सम्मोहित कर लिया था..से लोइण मैं डिठु..देखी हैं मैंने वे आंखे। मैं अपरिचित नहीं हूं। संसार से भलीभांति परिचित हूं। सौंदर्य को परखा है, जाना है।
काजल रेख न सहदिआ, से पंखी सुए बहिठु।
और अब पक्षी उनमें घोसले बनाते हैं, अंडे रख रहे हैं।
फरीदा खाकु न निंदीए; खाकु जेडु न कोइ।
फरीदा, मत खाक की निंदा कर। धूल की भी निंदा मत कर। खाक के बराबर कोई चीज नहीं। ..खाकु जेडु न कोई।
जीते-जी हमारे पैरों के तले है वह, और मर जाने पर हमारे ऊपर।
फरीदा खाकु न निंदीए; खाकु जेडु न कोइ।
मत निंदा कर खाक की भी, राख की भी, धूल की भी।
धूल बड़ी अनूठी हैः जब तुम जिंदा हो, तब तुम्हारे पैरों के नीचे; जब तुम मर जाते हो, तब तुम्हारे ऊपर छा जाती है। जीवन भर तुम्हारी शय्या और जीवन के बाद तुम्हारी चादर।
जीऊंदियां पैरा तलै, मुइआ उपरि होइ।
और तुम भी खाक से ज्यादा नहीं हो। तुम भी खाक के ही खेल हो। मिट्टी ही है आदमी। मिट्टी का ही जोड़ है, कल मिट्टी में ही गिर जाएगा। मिट्टी से ही उठना है, मिट्टी में ही खो जाना है। बीच में थोड़ी सी घड़ी कर राग-रंग है। जैसे कोई पक्षी तुम्हारे कमरे में आ जाए, एक वातायन से फड़फड़ाए क्षण भर को और दूसरी खिड़की से बाहर हो जाए..ऐसे ही खाक में जीवन का आना है, क्षण भर को फड़फड़ाना हैै और दूसरी खिड़की से बाहर जाना है।
थोड़ी देर को तुम्हारी आत्मा के संपर्क में खाक भी जीवित हो उठती है। वह जीवन उधार है। इसे मैं फिर से दोहरा दूं, क्योंकि यह सत्य बहुत गहरे में सम्हाल कर रख लेना जरूरी है। शरीर तुम्हारा जीवन नहीं है; तुम्हारे कारण शरीर में जीवन है। वह झलक है तुम्हारी। जैसे कोई दीया जला है और पास में एक दर्पण रखा हो, तो दर्पण से भी दीये की ज्योति दिखाई पड़ने लगे, दर्पण में भी दीये की ज्योति झलके और दर्पण से भी प्रकाश का विकीर्णन हो ठीक ऐसे ही तुम्हारे भीतर जीवन का एक सूत्र उतरा है, एक पक्षी आत्मा का! उसके संपर्क में, उसके सान्निध्य में मिट्टी भी तुम्हारी देह की जीवित मालूम होती है। शरीर के दर्पण में उसकी ज्योति झलकती है। यह क्षण भर का खेल है। इसमें तुमने अगर शरीर को ही जीवन मान लिया तो तुम भटक जाओगे, और अगर तुमने पहचान लिया कि जीवन का मूल-स्रोत कहां है, तो तुम शरीर का उपयोग कर लोगे। शरीर के तुम मालिक रहोगे। शरीर तुम्हारा मालिक न हो पाएगा।
फरीदा खाकु न निंदीए; ...
फरीद कहता हैः निंदा मत करो शरीर की। सभी ज्ञानियों ने यह कहा है। और जिन्होंने इससे विपरीत कहा हो, वे ज्ञानी नहीं हैं। शरीर की निंदा करने वाले लोग ज्ञानी नहीं हैं। क्यों? क्योंकि शरीर की निंदा का मतलब ही यह है कि तुम शरीर से अभी मुक्त नहीं हो पाए। निंदा हम उसी की करते हैं जिससे हम भयभीत होते हैं। निंदा हम उसी की करते हैं जिसमें हम जकड़े होते हैं और छूट नहीं पाते। निंदा हम उसी की करते हैं, जो हमें बलवान मालूम पड़ता है, शक्तिशाली मालूम पड़ता है, और हम पर कब्जा किए होता है। निंदा हम उसी की करते हैं जिससे हम हार-हार जाते हैं। निंदा हम उसी की करते हैं जिसको हम समझ नहीं पाते, जो बेबूझ है, और जिसके साथ हमारी हजार पराजय की कथाएं लिखी हैं। निंदा हारे हुए आदमी का रोष है।
तो जिन्होंने शरीर की निंदा की है, समझ लेना कि वे शरीर से डरे हुए हैं, शरीर की वासना से भयभीत हैं, शरीर की कामना से शरीर की तृष्णा से, उनके हाथ-पैर कंप रहे हैं, उनका प्राण डांवाडोल है। वे जानते हैं कि शरीर ने अगर पुकार दी तो वे उसके पीछे चल कर रहेंगे। आत्मा की आवाज उन्हें सुनाई नहीं पड़ती। अगर किसी तरह उन्होंने अपने को शरीर से रोक भी रखा है तो वह रोकना जबरदस्ती का है, बोध का नहीं है। वह रोकना किसी समझ से पैदा नहीं हुआ है। वह रोकना किसी लोभ से पैदा हुआ है। वे निरंतर शरीर की निंदा करेंगे। वे शरीर को गाली देंगे। वे शरीर की दुश्मनी सिखाएंगे। वे तुमसे कहेंगेः लड़ो शरीर से, हार मत जाना।
शरीर से लड़ना पागलपन है। शरीर तो खाक है। यह तो ऐसे ही है जैसे दर्पण में झलकी हुई ज्योति से कोई लड़े। निपट पागलपन है। वहां कुछ है ही नहीं ल.ड़ने को। शरीर ने तुम्हें कभी भरामाया नहीं है, भटकाया नहीं है। अगर तुम भटके हो, भरमाए गए हो तो अपनी ही मूच्र्छा के कारण कि तुमने शरीर को सब कुछ समझ लिया। इसमें शरीर का कोई कसूर नहीं है; तुम्हारी ही भूल है।
ज्ञानियों ने, परम ज्ञानियों ने शरीर की निंदा नहीं की, बल्कि उन्होंने तो शरीर की प्रशंसा की है। उन्होंने तो शरीर को मंदिर कहा है। उन्होंने तो कहा है, शरीर अदभुत है, बड़ा रहस्य है। मिट्टी है, फिर भी सत्तर वर्ष तक जीवन की लीला का खेल चलता है। नाकुछ है, खाक है; फिर भी बड़े फूल खिलते हैं।
फरीदा खाकु न निंदीए; ...
मिट्टी की निंदा मत करो। मत करना। मिट्टी के बराबर और क्या है?
...खाकु जेडु न कोइ।
जीते जी हमारे पैरों के तले, मरने के बाद हमारी छाती के ऊपर। और दोनों के बीच-बीच तुम जो बचोगे, वह भी तो खाक है। नीचे भी खाक, ऊपर भी खाक, बीच में भी खाक। वह पक्षी जो आत्मा का है, वह तो उड़ चुका होगा।
शरीर घर है। थोड़ी देर का विश्राम है वहां। रात भर को रुक रहे हैं। सुबह मुर्गा बांग देगा और चल पड़ेंगे। जिसने शरीर को विश्राम से ज्यादा समझा, वह भूला। जिसने शरीर को रात का विश्राम समझा, एक सराय मानी, उसके जीवन से प्रकाश ज्यादा दूर नहीं है।
इब्राहीम की कथा है, मुझे बड़ी प्रीतिकर है। वह बैठा है अपने सिंहासन पर और एक आदमी आ कर द्वार पर झगड़ा करने लगा है। एक फकीर। उसे आवाज सुनाई भी पड़ने लगी। वह फकीर यह कह रहा हैः रास्ता दो मुझे। तुम रोकने वाले कौन होे?
वह पहरेदार से झंझट कर रहा है।
मैं रुक कर रहूंगा। इस सराय में मैं आज रात विश्राम करूंगा।
पहरेदार ने उसे कहा कि तुम पागल हो, नासमझ हो, अजनबी हो। यह महल है सम्राट का, निवास-गृह है, कोई सराय नहीं है। सराय भी है; तुम बस्ती में जाकर खोज लो।
पर वह जिद किए है। आखिर सम्राट को भी उत्सुकता हुई कि यह आदमी है कौन, जो सुनता ही नहीं है और कहे चला जाता है, और उसकी आवाज में भी बड़ी मिठास है, और उसकी आवाज में कोई एक गहरा आकर्षण है। सम्राट ने कहाः इस आदमी को भीतर आने दो।
वह आदमी भीतर आया। उसकी चाल में भी बड़ी खूबी है। उसकी शान और है! फकीर की शान! निर-अहंकारी की शान! विनम्र की शान! वह आ कर खड़ा हो गया। सम्राट भी फीका लगा उसके सामने, बैठा था सिंहासन पर। उसने कहाः तुम क्यों जिद कर रहे हो? क्या मामला है? यह महल है, मेरा निवास स्थान है। तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता है? पहरेदार कहे जा रहा है...!
उस फकीर ने सम्राट को गौर से देखा! उसकी आंखें सम्राट को आर-पार भेद गईं। उसने कहा कि इसके पहले भी मैं आया था, तब मैंने इसी सिंहासन पर किसी और को बैठ देखा था।
सम्राट ने कहाः तुम्हारा कहना ठीक है। वे मेरे पिता थे। उनका स्वर्गवास हो गया।
उस फकीर ने कहाः मैं उसके पहले भी आया था, तब मैंने किसी और को बैठे देखा था।
सम्राट ने कहाः वह भी ठीक है। तुम आदमी पागल नहीं हो। वे मेरे पिता के पिता थे। वे जा चुके।
वह फकीर हंसने लगा और उसने कहाः जब मैं दुबारा आऊंगा, तुम्हें पक्का है कि तुम मुझे यहां बैठे मिलोगे? तुम्हारा बेटा तो न मिलेगा, कि कहेगा कि वे मेरे पिता जी थे? इसलिए तो मैं इसको सराय कहता हूं। तीन बार आया, अलग-अलग लोगों को ठहरे पाया। इसको मैं निवास कैसे कहूं?
कहते हैं, इब्राहीम के जीवन में जैसे बिजली कौंध गई, किसी ने झकझोर कर जगा दिया। वह उठ कर खड़ा हो गया। उसने कहाः तुम्हारी बात ठीक है। तुम रुको, मैं जाता हूं। इब्राहीम ने घर छोड़ दिया। इब्राहीम फकीर हो गया। लोग उससे पूछते कि क्या हो गया है? उसने कहाः कुछ हुआ नहीं; समझ आ गई। बात तो ठीक ही है, जहां दो दिन रुकते हैं और हट जाना पड़ता है, उसको घर क्या मानना!
वह बस्ती उसने छोड़ दी, वह मरघट में रहने लगा। लोग पूछते कि मत रहो घर में, कम से कम बस्ती में रहो। वह कहताः बस्ती में ही रह रहे हैं, क्योंकि यहां जो बसा है, कभी नहीं उजाडता। और तुम जिसे बस्ती कहते हो, वह मरघट है, मरने वालें की भीड़ लगी है। वहां सबका मौका आने को है। सब अपनी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वह तो मरने वालों की कतार है, क्यू है। लोग मर रहे हैं। तुम जिसे बस्ती कहते हो, वह मरघट है, और यहां मैंने बस्ती पाई। अपनी अपनी कब्र में लोग सोए हैं, कभी कोई हटता नहीं। सब बसे हैं। अब इसको कोई उजाड़ न सकेगा। वहां तो प्रतिदिन उजाड़ना होता रहेगा। कोई मरेगा, कोई आएगा, कोई जाएगा..उसे तुम क्या बस्ती कहते हो?
फरीदा खाकु न निंदीए, खाकु जेडु न कोइ।
मिट्टी की निंदा मत कर फरीद, मिट्टी जैसा और कुछ भी नहीं है।
जीऊंदियां पैरा तलै, मुइआ उपरि होइ।
जिंदा-जिंदा पैरों के नीचे, मरने के बाद सिर के ऊपर। यही है बिछावन, यही है ओढ़नी। इसी से है उठना, इसी में है खो जाना।
इसकी निंदा मत कर। इसको पहचान।
और यह तुम समझ लो, जिसकी तुम निंदा करोगे, उसे तुम पहचान न पाओगे। निंदा का धुआं ही आंख को अंधा कर देता है। निंदा का भाव ही समझ को धुंधला जाता है।
तुमने कभी दुश्मन को गौर से देखा? दुश्मन को गौर से देखने का मन ही नहीं होता। तुमने कभी दुश्मन की आंख में आंख डाल कर देखा? नहीं, आंख में आंख तो लोग प्रेमियों की डालते हैं। दुश्मन से तो तुम बच कर गुजर जाना चाहते हो वह दिखाई ही न पड़े। तुम आंख बचा लेते हो। जिस राह से दुश्मन निकलता हो, तुम उस राह से लौट आते हो। तुम उसकी गंध भी नहीं पड़ने देना चाहते अपनी नाक में। तुम उसकी छाया भी नहीं छूना चाहते।
और यही भीतर की भी दशा हैः जिसकी भी तुमने निंदा की और जिसको तुमने शत्रु समझा, तुम्हारी पीठ हो जाएगी उसकी तरफ। और जब समझना हो तो सन्मुख होना जरूरी है। पीठ कर लोगे, विमुख हो जाओगे..समझोगे क्या खाक?
जिस चीज को भी समझना हो, निंदा मत करना। निंदा करने से नामसमझी घनीभूत होती है, टूटती नहीं।
मनुष्य-जाति ने कामवासना की निंदा की है और कामवासना ने मनुष्य जाति को पकड़ लिया गर्दन से। मनुष्य को कामवासना की कोई समझ नहीं है। निंदा है। निंदा के कारण ही समझ नहीं है। जब समझ नहीं है तो कामवासना और जोर से पकड़ती है, और जोर से पकड़ती है, तो मन में और निंदा का स्वर उठता है। निंदा का स्वर बढ़ता है, समझ कम होती चली जाती है।
और लोभ को आदमी ने पकड़ा है, निंदा के कारण। और निंदा के कारण लोभ ने आदमी को पकड़ा हुआ है। क्रोध ने आदमी को पकड़ा हुआ है, निंदा के कारण।
एक बात अत्यंत मूलभूत हैः जीवन में मुक्ति आती है समझ से। समझ आती है वस्तुओं के साक्षात्कार से। निंदा-भरी आंख नहीं चाहिए। बुरा-भला मत कहना। चीजों को देखना जैसा उनका स्वभाव है। उनके वस्तुरूप में उन्हें पहचानना। अगर तुमने उनको ठीक से पहचान लिया, उसी पहचान से तुम्हें पंख लग जाएंगे मुक्ति के।
महावीर का बड़ा प्रसिद्ध वचन है। किसी ने पूछा है कि हम क्या समझें, क्या है धर्म जिसकी तुम सदा चर्चा करते हो? तो महावीर ने कहाः बत्थु सहाओ धम्म। वस्तु का स्वभाव समझ लेना धर्म है। वह आदमी कुछ समझा नहीं कि वस्तु का स्वभाव समझ लेना धर्म है। तो महावीर ने कहा, जिसका तुम स्वभाव समझ लो, उसी से मुक्त हो जाते हो।
धर्म मोक्ष है। समझते जाओ। कामवासना समझ ली..गिर गई। क्रोध समझ लिया..गिर गया। शरीर को समझ लिया..शरीर के तुम भीतर रहते हुए बाहर हो गए, शरीर में होते हुए पार हो गए।
फरीदा खाकु न निंदीए; खाकु जेडु न कोइ।
जीऊंदियां पैरा तलै, मुइआ उपरि होइ। ।
मत निंदा कर शरीर की। मत निंदा कर मिट्टी की। मत निंदा कर राख की। उसके बराबर और कुछ भी नहीं है। वही तेरा चादर, वही तेरा बिछावन।
फरीदा जा लबु ते नेहु किआ, लबु ते कूड़ा नेह।
फरीदा कहते हैं जहां लोभ है, वहां प्रेम कहां से होगा? लोभ होगा तो प्रेम वहां झूठा होगा। टूटे छप्पर के नीचे वर्षा में तू आखिर कितने दिन गुजारेगा।?
किचरु झति लंघाईऐ, छपरि तुटै मेहु।
यह वचन बड़ा वैज्ञानिक है। इसका ठीक से विश्लेषण करें।
फरीद कहते हैंः जहां लोभ है, वहां प्रेम कहां से होगा? तुम अगर परमात्मा के द्वार पर भी गए हो तो लोभ के कारण गए हो; हालांकि तुम प्रेम के गीत गाते गए हो। तुम्हारे गीत झूठे हो गए; क्योंकि जहां लोभ है वहां प्रेम होता ही नहीं। तुमने अगर पत्नी को, पति को, बेटे को, भाई को प्रेम किया है तो लोभ के कारण किया है। कोई अपेक्षा है। कोई दूर की आशा है जो पूरी होने की संभावना है। कोई मांग है। तुम्हारी कोई वासना है। तुम कुछ पाना चाहते हो। बस लोभ आया, प्रेम असंभव हो गया। क्योंकि लोभ और प्रेम की यात्रा विपरीत है। लोभ मांगता है; प्रेम देता है; लोभ छीनता है; प्रेम बांटता है। लोभ कब्जा करता है; प्रेम समर्पण करता है। लोभ मालकियत चाहता है; प्रेम मालकियत देता है। लोभ झुकाता है; प्रेम झुकता है। लोभ दूसरे को तोड़ता है, मिटाता है; प्रेम दूसरे को बनाता है, संवारता है। लोभ अपने लिए दूसरे को मिटाने को तैयार होता है; प्रेम दूसरे के लिए अपने को मिटाने को तैयार होता है। उन दोनों की यात्राएं बड़ी भिन्न हैं। वे विपरीत स्वभावी हैं।
जब तक लोभ है, फरीद कहते हैं, वहां प्रेम न हो सकेगा। प्रेम की संभवाना ही तब है जब लोभ गिर जाए। जिसने लोभ को पहचान लिया और लोभ को गिरा दिया, उसके जीवन में प्रेम का आविर्भाव होता है। प्रेम लोभ का अभाव है। इसलिए तुम लोभी आदमी को कभी प्रेमपूर्ण न पाओगे, कृपण को कभी तुम प्रेमपूर्ण न पाओगे। जिसकी धन पर पकड़ है, उसको तुम प्रेमपूर्ण पाओगे? असंभव! जिसकी पद की आकांक्षा है, उसे तुम प्रेमपूर्ण पाओगे? कोई उपाय नहीं। महत्वाकांक्षी प्रेम कर ही नहीं सकता। वह कहता है, पहले महत्वाकांक्षा पूरी हो जाए, फिर देख लेंगे; यह प्रेम वगैरह अभी रुक सकते हैं, इतनीे कोई जल्दी नहीं है। दुनिया में और भी बहुत काम हैं। यह प्रेम तो ऐसा है, देख लेंगे, निपट लेंगे अखीर में। ज्यादा से ज्यादा एक मनोरंजन होगा। लेकिन बड़ी महत्वाकांक्षाएं हैं, वे पहले पूरी करनी हैं; वे पूरी हो जाएं फिर प्रेम कर लेंगे।
सिकंदर प्रेम नहीं कर सकता; पहले दुनिया जीतनी है; जीत लेगा, तब...। नेपोलियन प्रेम नहीं कर सकता; यद्यपि नेपोलियन बड़े प्रेम पत्र लिखता है। उसने बड़े सुंदर प्रेम-पत्र लिखे हैं। उसने अपनी पत्नी जोसेफाइन को जैसे प्रेम-पत्र लिखे हैं, शायद ही किसी पति ने कभी लिखे हों। लेकिन वे सब झूठे हैं। जोसेफाइन उनके धोखों में नहीं पड़ी। रोज युद्ध के मैदान से, चाहे आधी रात को उसे समय मिले, वह रोज पत्र लिखता है जोसेफाइन को। उसमें कभी भूल-चूक नहीं होती; वह नियम से लिखता है। रोज नगर जीतता है नये और जोसेफाइन के पैरों में चढ़ाता है। पत्रों में लिख देता है, आज यह नगर जीता, तेेरे पैरों में समर्पित। लेकिन जोसेफाइन को इससे धोखा न हुआ। वह किसी और के प्रेम में पड़ गई..एक साधारण सिपाही के प्रेम में पड़ गई। जब नेपोलियन वापस लौटा तो उसे भरोसा न आया कि जिस स्त्री के लिए मैंने सारी दुनिया को जीत कर चरणों में चढ़ाने की कोशिश की, वह किसी साधारण सिपाही को प्रेम कर सकती है! उसने जोसेफाइन को पूछा। जोसेफाइन ने कहा कि तुम्हारे प्रेम-पत्र तो सुंदर हैं; लेकिन लोभी, महत्वाकांक्षी प्रेम कर नहीं सकता। वह सब बातचीत है। मजा तो तुम्हें नगर जीतने का है, मैं तो बहाना हूं। मैं न भी होऊं तो भी तुम नगर जीतोगे। यह तो सिर्फ बातचीत है। यह तो कहने का ढंग है, एक शैली है..तेरे चरणों में! जीत तो तुम रहे हो। तुम संसार को जीतने के लिए मुझे छोड़ कर चले गए हो। तुम मुझे पाने के लिए संसार को छोड़ कर नहीं आ सकते हो। तुम कहते हो, आऊंगा, आऊंगा, अभी थोड़ी जीत और बाकी है। यह एक देश हड़प लूं तब आता हूं। लेकिन अगर तुमने मुझे प्रेम किया होता तो तुम कहते, सारी दुनिया व्यर्थ है; तुम मेरे पास हुए होते; तुमने मुझे प्रेम दिया होता।
लोभ प्रेम कर ही नहीं सकता। लोभ दिखावा बहुत करता है। पति हीरे-जवाहरात ले आता है पत्नी के लिए। वह कहता हैः देखो कितना प्रेम करता हूं! इतने हीरे-जवाहरात तुम्हारे लिए लाया हूं और प्रेम क्या है!
लेकिन हीरे-जवाहरात, पत्थर हैं। हृदय का एक कण भी सभी हीरे-जवाहरातों से ज्यादा मूल्यवान है। उसका तो पति को कहीं पता नहीं चलता। वह बड़े महल खड़े कर देता है; लेकिन उसे प्रेम का कोई पता नहीं चलता...।
ये महल, ये हीरे-जवाहरात, यह पत्नी..यह सब महत्वाकांक्षा की दौड़ है। पत्नी भी एक सजावट है महल में। पत्नी से कहता है, महल तेरे लिए बनाया है; अगर महल से बातचीत हो सकती हो तो वह कहता है कि पत्नी तेरे लिए लाए। और अगर उसके हृदय को समझा तो महल भी अपने अहंकार के बढ़ावे के लिए है, पत्नी भी अपने अहंकार के बढ़ावे के लिए है। वह सब खेल है।
महत्वाकांक्षी का अर्थ हैः अहंकारी, जो कहता है, मैं बहुत बड़ा हो जाऊं, तभी मुझे तृप्ति मिल सकती है। प्रेम का अर्थ हैः झुकने को राजी, मैं इतना छोटा हो जाऊं कि मेरा पता ही न चले। जब तुम ना-कुछ हो जाते हो तब प्रेम की तुम पर वर्षा होती है। जितने तुम ज्यादा होते जाते हो, घने होते जाते हो, जितना मजबूत पत्थर की तरह तुम्हारा अहंकार होता जाता है वर्षा तो तब भी होती रहती है, लेकिन बह जाती है, तुम सूखे के सूखे रह जाते हो।
फरीद कहते हैंः जहां लोभ है वहां प्रेम कहां से होगा? साधारण जीवन में भी यह सच है और धार्मिक जीवन में तो और भी गहराई से सच है। कभी मंदिर लोभ के कारण मत जाना। अगर लोभ के लिए ही जाना तो बाजार जाना, मंदिर जाने की क्या जरूरत है? लेकिन तुमने बाजार में ही मंदिर बना रखे हैं। तुम्हारे मंदिर तुम्हारे बाजार का ही विस्तार हैं। दुकान पर भी तुम लोभ के कारण ही जाते हो और मंदिर भी तुम लोभ के ही कारण जाते हो। तो मंदिर तुम्हारी दुकान का ही एक हिस्सा है। और अगर तुमसे कहा जाए, चुन लो, भूकंप आ रहा है, दुकान बचाओगे कि मंदिर तुम कहोगे कि दुकान बचाएंगे। तुमसे कहा जाए, चुन लो दो में से एक, तो तुम कहोगे, मंदिर तो हमारी दुकान का ही एक दफ्तर है, एक दुकान का ही विभाजन है। वह हमारे बैंक का ही एक कोना है; उसको क्या बचाने का सवाल है? बैंक को ही तुम बचाओगे।
तुम्हारे घर में आग लग जाए तो तुम शंकर जी की पिंडी को बचा कर बाहर भागोगे कि तिजोड़ी को बचा कर बाहर भागोगे? शंकर जी की कौन फिकर करेगा? दूसरा बाजार से खरीद लेंगे। और पिंडी ही है, उसका लेना-देना क्या है? तिजो.ड़ी तुम बचाओगे।
तुम थोड़ा सोचना अपने संबंध में। अगर तुम्हें लगे कि मंदिर तुम्हारे लोभ का ही विस्तार है तो मंदिर का तुमसे अब तक कोई संबंध ही नहीं हुआ, तुम्हारी मंदिर की तरफ आंख ही नहीं उठी।
लोभ का प्रेम से कोई संबंध नहीं है। जहां लोभ नहीं है, वहीं प्रेम का आविर्भाव है। प्रेम अलोभी चित्त-दशा है। कुछ पाने की आकांक्षा नहीं है। जो मिला है उसका अहोभाव है
यही काम और प्रेम का फर्क है। काम में लोभ है। काम चाहता है, कुछ मिल जाए। वासना है। काम कहता है, अभी जितना हूं वह काफी नहीं हूं, थोड़ा और मिलना चाहिए। प्रेम कहता है, जितना हूं जरूरत से ज्यादा हूं, थोड़ा बांटूं, थोड़ा हलका हो जाऊं। प्रेम तो ऐसा है जैसा खिला हुआ फूल है, सुगंध को बिखेर देता है; जला हुआ दीया है, रोशनी को बिखेर देता है; सुबह का गीत गाता पक्षी है, बांटता है, अकारण बांटता है। क्योंकि कारण आया कि लोभ आया।
तुम कभी मंदिर गए हो? ..अकारण, सहज आनंद-भाव से, कुछ मांगने नहीं, सिर्फ परमात्मा को धन्यवाद देने कि तूने बहुत, बहुत पात्रता से बहुत ज्यादा दिया है! कभी ऐसे ही गए हो मंदिर में चुपचाप बैठने को? ..न कुछ मांगने को था, न कुछ कहने को था, दो घड़ी बिताने उसके सान्निध्य में; कोई लेन-देन का संबंध नहीं। तब तुम्हें पहली दफा प्रार्थना का, प्रेम का थोड़ा सा स्वाद अनुभव आएगा। और तब तुम्हें कोई फर्क न पड़ेगा..मस्जिद में चले जाओगे तो भी, मंदिर गए तो भी, गुरुद्वारा गए तो भी..कोई फर्क न पड़ेगा।
तुम मंदिर ही जाते हो, मस्जिद नहीं जाते, क्योंकि वह भी लोभ का ही हिस्सा है। तुम सोचते हो, हिंदू हो, हिंदू भगवान से ही कुछ मिल सकता है; यह मुसलमानों का अल्लाह है, तुम्हारी क्या खाक फिकर करेगा! तुम्हारे लिए वह द्वार बंद है। तुम जैन हो तो तुम हिंदू के मंदिर न जाना चाहोगे। क्या फायदा है! अपने भगवान के पास जाओ। जिससे नाता रिश्ता है, उससे कुछ मिलने की संभावना है। लोभ के कारण ही तुम्हारे मंदिरों के विभाजन है। अपने के पास जाओ, पराए से क्या मिलेगा! वैसे ही जैसे बच्चा भूखा हो तो अपनी मां के पास भागेगा, हर किसी की मां के पास थोड़े ही भागा जाएगा; क्योंकि बच्चा जानता है, अपनी मां के पास जाएगा तो दूध मिलेगा; दूसरे की मां के पास जाएगा, दुत्कारा जाएगा। बच्चा भी लोभ के कारण मां के पास जा रहा है। तुम हिंदू हो तो मंदिर जाते हो, मुसलमान हो तो मस्जिद जाते हो..पर लोभ के कारण ये भेद हैं। अगर तुम सिर्फ परमात्मा के पास होने गए हो, कुछ मांगने नहीं, सिर्फ धन्यवाद देने गए हो..तो क्या फर्क पड़ता है, हिंदू का परमात्मा कि मुसलमान का परमात्मा? तब परमात्मा एक है।
प्रेम के लिए परमात्मा एक है, लोभ के लिए परमात्मा अनेक है। क्योंकि लोभ को तो हिसाब बिठाना है, किससे मिल सकेगा..तो नाते-रिश्तेदारी जोड़नी है। प्रेम को कुछ प्रयोजन नहीं है; धन्यवाद देना है..कहीं से भी दे देंगे!
बड़ी अजीब मनोदशाएं हैं, उनका हमें पता भी नहीं होता।
एक मुसलमान मित्र मुझे मिलने आते थे। दूसरों को नमस्कार करते देखते तो वे भी नमस्कार करते। लेकिन मैं थोड़ा हैरान हुआ कि मुझे सदा ऐसा लगता है कि वे नमस्कार मेरी तरफ नहीं कर रहे हैं। उनका रुख ठीक मेरी तरफ न होता। तो मैंने उनसे एक दिन पूछा कि आप झुकते तो जरूर हैं, सिर भी झुकाते हैं; लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि मेरी तरफ नहीं झुकता सिर, कुछ दिशा अलग ही होती है। उन्होंने कहाः मैं मुसलमान हूं, काबा की तरफ सिर झुकाता हूं।
वे मेरे पास भी आए हैं, पर मेरे पास नहीं आ सकते। अगर मैं भी काबा की दिशा में पड़ जाऊं तो मजबूरी, तो उनका सिर झुक जाता है। अगर मैं काबा की दिशा में नहीं पड़ रहा हूं तो कठिनाई है। वे तो सिर्फ काबा कि तरफ झुक सकते हैं।
लोभ के कारण परमात्मा की भी दिशा हो जाती है; सीमा हो जाती है; रंग, ढंग रूप आकार हो जाता है; नाम, विशेषण हो जाता है; पता ठिकाना हो जाता है।
प्रेम के लिए कोई सीमा नहीं है। प्रेम झुकना जानता है, दिशा नहीं जानता। प्रार्थना धन्यवाद जानती है; रूप आकार नहीं जानती, निराकार जानती है।
फरीद कहते हैंः जहां लोभ है वहां प्रेम कहां? लोभ होगा तो प्रेम वहां झूठा होगा। दो में से एक ही सच हो सकता है; दोनों साथ-साथ सच नहीं हो सकते।
टूटे छप्पर के नीचे वर्षा में तू आखिर कितने दिन गुजारेगा? और यह लोभ के छप्पर के नीचे बैठा है और रो रहा है और परेशान हो रहा है। टूटे छप्पर के नीचे वर्षा में आखिर तू कितने दिन गुजारेगा? अब जाग। अब छप्पर को ठीक ही कर ले। ये लोभ के छेद समाप्त कर। अब प्रेेम के छप्पर के नीचे हो जा। प्रेम का छप्पर ही छप्पर है; वही शरण हैः उसके नीचे ही साया है और सुरक्षा है।
इसे थोड़ा समझो। जब भी तुम्हारे जीवन में प्रेम होता है, एक सुरक्षा का भवा होता है। जब भी तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं होता, एक असुरक्षा की बेचैनी होती है। इनसिक्युरिटी, असुरक्षा का अनुभव ही तब होता है जब तुम प्रेम में नहीं होते। जब तुम प्रेम में होते हो, तब जैसे परमात्मा का वरदहस्त तुम्हारे उपर होता है। साधारण जीवन का प्रेम भी..एक स्त्री का प्रेम, एक पुरुष का प्रेम, एक मित्र का प्रेम..वे भी तुम्हें सुरक्षित कर देते हैं..प्रेम इतना बड़ा वरदान है कि उसके नीचे तुम पाते हो कि अब कोई मृत्यु नहीं है। तुम मरने को भी राजी हो सकते हो..जानते हुए कि अब कोई मृत्यु नहीं है। तुम खतरे में जा सकते हो, आग में उतर सकते हो..जानते हुए कि अब तुम्हें कोई जला नहीं सकता। प्रेम तुम्हें अमृत्व का बोध देता है। वह सुरक्षा है। और जिस आदमी के जीवन में प्रेम न होगा वह सदा असुरक्षित और घबड़ाया हुआ और डरा हुआ और बेचैन और सदा भयभीत! उसे सब तरफ खतरा है; क्योंकि उसे सिवाय मौत के और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता, अमृत की कहीं कोई किरण दिखाई नहीं पड़ती।
टूटे छप्पर के नीचे वर्षा में तू आखिर कितने दिन गुजारेगा?
फरीदा जंगलु जंगलु किआ; भवहि वणि कंडा मोड़ेहि।
फरीद कहते हैं, शाखों और कांटों को तोड़ता हुआ तू एक जंगल से दूसरे जंगल में भटकता फिरता है। रब तो तेरे हृदय में बस रहा है। परमात्मा तो तेरे भीतर है। फिर जंगल में उसे क्यों ढूंढ रहा है?
वसी रबु हिआलीऐ, जंगलु किआ ढूंढेहि।
जिसे तू खोज रहा है वह तेरे भीतर है। शाखाओं को काटता है, कांटों में भटकता है, खाई-खड्डों में भटकता है, दुख उठाता है..गलत जगह खोज रहा है।
लोभ भटकाता है; प्रेम पहुंचाता है। लोभ भटकाता है क्योंकि दूसरे पर नजर है। लोभ दूर का सपना है, मृग-मरीचिका है। दूर दिखाई पड़ती है मंजिल। और लोभ भटकाता है, प्रेम पहुंचाता है; क्योंकि प्रेम आंख बंद हो जाना है। प्रेम में आदमी अपने भीतर डूब जाता है। जब दो प्रेमी गहराई में मिलते हैं, तो एक दूसरे में थोड़े ही डूबते है। जब दो प्रेमी सच्ची गहराई में मिलते है तो अपने-अपने में डूब जाते हैं। इसी को वे एक-दूसरे में डूबना कहते हैं। दो प्रेमी जब पास होते हैं तो एक दूसरे के कारण इतने सुरक्षित हो जाते हैं; एक दूसरे पर साया बन जाते हैं; एक दूसरे को ढांक लेते हैं। अपने अहोभाव, आनंदभाव में, एक-दूसरे की मंगलकामना से भरे हुए, उनके लिए मृत्यु विसर्जित हो जाती है। उस शांत-मौन क्षण में अपने अपने में डूब जाते हैं।
प्रेम भीतर जो छिपा है उसका अनुभव देता है। लोभ बाहर दौड़ाता है। लोभ दौड़ है; प्रेम विश्राम है।
शाखों-कांटों को तोड़ता हुआ फरीद तू एक जंगल से दूसरे जंगल में क्यों भटकता फिरता है? रब तो तेरे हृदय में बस रहा है, फिर जंगल में उसे क्यों ढूंढ रहा है।
और कितने दिनों से ढूंढ रहे हो तुम! यह कोई कथा नई है? कितने जन्मों से तुम भटक रहे हो! कितने कांटे छिद गए हैं। घाव ही घाव हो गए हैं। तन प्राण सब चीथड़ों जैसे हो गए हैं। लेकिन तुम पागल की तरह भटकते हो। एक जंगल में नहीं पाते तो दूसरे जंगल में भटकते हो। दूसरे जंगल में नहीं पाते तोे तीसरे जंगल में भटकते हो। एक लोभ में नहीं मिलता तो दूसरा लोभ, एक पद पर नहीं मिलता तो दूसरे पद की आकांक्षा। यहां नहीं मिलता तो वहां। भाग रहे हो! और एक जगह भर तुमने कभी नहीं खोजा कि तुम बैठ गए होते; आंख बंद की होती; थिर हुए होते; जीवन की चेतना को शांत, विश्राम में उतारा होता और अपने भीतर झांका होता।
खोजने वाले में छिपा है वह जिसकी खोज चल रही है। इसलिए बाहर तुम उसे न पा सकोगे।
फरीद कहते हैं, इन पतली जांघों और पिंडलियों से मैंने कितने ही मैदानों और पहाड़ों को पार किया; परंतु आज फरीद के लिए अपना कूजा उठाना भी मानों सैकड़ों कोस की मंजिल तय करना हो गया है।
फरीद कहता है, इन पतली जांघों और पिंडलियों को देखता हूं तो भरोसा नहीं आता कि मैंने कितने जंगल, पहाड़ पार किए। अपनी तरफ देखता हूं तो भरोसा नहीं आता कि कितने जन्मों से यात्रा चल रही है। इतना कमजोर हूं, इतनी लंबी यात्रा चल रही है, फिर भी थका नहीं मालूम पड़ता! फिर भी जागा नहीं।
तुम अगर अपनी तरफ देखोगे तो तुम्हें हिंदुओं की इस धारणा पर विश्वास ही न आएगा कि अनंत जन्म हुए हैं। तुम कहोगे, कभी के थक गए होते; कभी के गिर गए होते; कभी का होश आ गया होता। नहीं आया है।
वासना दुष्पूर है। वासना की कला यही है, उसका जादू यही है कि एक वासना गिरती नहीं कि दूसरीशंृखला शुरू हो जाती है। एक वासना पूरी भी नहीं हो पाती कि दूसरी वासना के स्वप्न उठने शुरू हो जाते हैं। वह तुम्हें कभी मौका नहीं देती विश्राम का कि तुम सोच लो, देख लो रुक कर कि कुछ भी नहीं मिला, अब बंद कर दें यह यात्रा..इतना समय नहीं देती वासना। वासना दौड़ाए रखती है। एक जगह से दूसरी जगह आंखें भटकती रहती हैं। और आंखों के भीतर छिपा है वह जिसकी तलाश चल रही है। मंजिल तुम हो और तुम नासमझी से खोजी बन गए हो। भीतर जाने की बात ही भूल गई है; बाहर जाना ही याद रहा है।
इप पतली जांघों और पिंडलियों से मैंने कितने मैदानों और पहाड़ों को पार किया; परंतु आज फरीद के लिए अपना कूजा उठाना भी मानों सैकड़ों कोस की मंजिल तय करना हो गया है।
लेकिन अब हताशा आ गई है।
इस संसार में कुछ भी सार नहीं है। यह पूरी दौड़ व्यर्थ मालूम होती है। चित्त उदास है। इसी को वैराग्य कहा है।
संसार से हो वैराग्य तो ही परमात्मा से राग पैदा होता है। बाहर से हो वैराग्य तो भीतर की धुन सुनाई पड़ती है। बाजार से मन ऊबे तो घर आना होता है। दूसरे से वासना टूटे तो आत्मा से नाता जुड़ता है। आंखें बाहर के दृश्य देखने से थक जाएं तो बंद होती हैं और भीतर के दर्शन शुरू होते हैं।
आज अपना कूजा उठाना भी मुश्किल हो गया; सैकड़ों कोस की मंजिल तय करना मालूम होता है। अब चलने की कोई इच्छा न रही।
इसी अवस्था में बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठ गए हैं। चलने की कोई इच्छा न रही। चल-चल कर देख लिया, व्यर्थ पाया। सब दिशाएं खोज लीं, कहीं कोई, कहीं कोई सार न मिला।
दस दिशाएं हैं, सबमें दौड़ लिया, अब ग्यारहवीं दिशा शुरू होती है। आदमी आंख बंद कर लेता है। शरीर शून्य हो जाता है। अब भीतर उतरता है..अपने ही कुएं में; अपने ही चेतना की अतल गहराई में।
फरीद कहते हैंः रातें लंबी हो गई हैं। पसलियों में हूक उठ रही है। दर्द से करवटें बदलनी पड़ रही हैं। धिक्कार है उनके जीने का जो विरानी आस में जी रहे हैं।
फरीद कहते हैंः मैं थक गया, टूट गया। रातें लंबी हो गई हैं। अंधेरा अब काटे नहीं कटता मालूम पड़ता। एक-एक क्षण दूभर है।
कभी तुमने ख्याल किया..समय की सापेक्षता का, रिलेटिविटी का? अगर तुम प्रसन्न हो, समय जल्दी कट जाता है। अगर तुम उदास हो, समय लंबा हो जाता है। समय घड़ी में थोड़े ही चलता है; समय तुम्हारे मन में चलता है। आइंस्टीन ने जब पहली दफा सापेक्षता के सिद्धांत का विज्ञान के जगत में प्रवेश किया तो उसे जगह-जगह सवाल पूछे जाते थे, सापेक्षता, रिलेटिविटी क्या? अब वह इतना कठिन सिद्धांत है कि कहते हैं कि बारह आदमी ही पृथ्वी पर थे जो उसे ठीक से समझते थे। इसलिए आम आदमी को तो समझना असंभव। निश्चित ही जटिल है। और जटिल ही नहीं है, करीब-करीब असंभव है। क्योंकि उसके भीतर ऐसे विरोधाभास हैं कि उन विरोधाभासों को पकड़ने के लिए बड़ी धार्मिक रहस्यवादी बुद्धि चाहिए..बड़ी काव्य की ऊंची उड़ान चाहिए। अगर तुम्हारा तर्क मजबूत है तो तुम न समझ पाओगे।
जैसे उदाहरण के लिए, आइंस्टीन ने कहा कि समय कोई थिर वस्तु नहीं है और समय सभी के लिए समान नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति का समय अलग-अलग है। क्योंकि समय तुम्हारे मन की अवस्था पर निर्भर है। हम तो जानते हैं कि अभी साढ़े नौ बजे हैं, तो सबके लिए साढ़े नौ बज गए हैं। आइंस्टीन कहता है, नहीं।
यहां भी जो मेरी बात को समझ रहे हैं; जिनको मेरी बात से धुन बंध गई है; जिन्हें मेरा गीत पकड़ में आ रहा है; जो मेरे साथ बह रहे हैं..उनके लिए समय जल्दी बीत जाएगा। डेढ़ घंटा कहां चले गए, उन्हें पता न चलेगा। लेकिन कोई आ गया है, पुलिस का जासूस समझो, वह भी बैठा है, उसको भी मैं देख रहा हूं, वह बड़ा बेचैन है। उसकी कुछ पकड़ में नहीं आ रहा है। उसकी कुछ समझ में नहीं आता। उसकी घबड़ाहट है कि कब खत्म हो, कि वह भागे यहां से! यह उसकी बुद्धि के पार है। उसके लिए डेढ़ साल जैसा लगेगा। तुम्हें डेढ़ घंटा डेढ़ क्षण जैसा लगेगा, आया-गया हवा का झोंका! तुम मस्ती में नाच भी न पाए और झोंका जा चुका।
तो आइंस्टीन लोेंगों को समझाता कि ऐसा समझो, तुम अपनी प्रेयसी के पास बैठे हो तो घड़ी भर क्षण भर में बीत जाते है। और तुम्हें एक तपते हुए तवे पर बिठा दिया गया है, तो क्षण भर घंटों जैसा लंबा मालूम होता है। तुम्हारे भीतर समय सापेक्ष है, रिलेटिव है। तुम्हारी मनोदशा पर निर्भर है। घर में मेहमान आया है, बहुत दिन की प्रतिक्षा थी, रात जागते बातचीत करते बीत जाती है, पता नहीं चलता। फिर घर में कोई मर रहा है, कोई वृद्ध विदा हो रहा है। चिकित्सक कहते हैं, बचना नहीं है, सुबह होते-होते विदा हो जाएगा। रात भर तुम जागे बैठे रहे हो। रात बड़ी लंबी मालूम होती है, कटती ही नहीं। ऐसा लगता है कि कटेगी भी कि नहीं कटेगी अब! यह रात पूरी होगी! सुबह होगी या नहीं होगी!
जब तक जीवन में वासना होती है तब तक तो समय भागता मालूम होता है, समय कम मालूम पड़ता है। महत्वाकांक्षी के लिए समय सदा कम है। वह भाग रहा है। वह गति बढ़ाता जाता है अपनी। इसलिए दुनिया में जितनी महत्वाकांक्षा बढ़ती है उतनी स्पीड बढ़ती है; क्योंकि समय को बढ़ाने का और तो कोई उपाय नहीं है, स्पीड बढ़ा दो। तो अगर न्यूयार्क पहुंचने में बंबई से चार दिन लगते थे तो दो दिन लगें, एक दिन लगे, घंटा भर लगे, मिनट लगे, सेकेंड लगे, उतना समय बच जाए। धीरे-धीरे आदमी की चेष्टा यह है कि गति इतनी तीव्र हो जाए कि समय व्यतीत ही न हो। यह सारी कोशिश इस बात की है कि बड़ी महत्वाकांक्षाएं हैं, उनको पूरा करना है। समय तो सीमित है। वही सत्तर-अस्सी साल जीना है, उसी में सब कर लेना है। बड़ी महत्वाकांक्षाएं हैं, तो समय बड़ी जल्दी भागता मालूम पड़ता है।
लेकिन जिस व्यक्ति के जीवन की महत्वाकांक्षाएं उजड़ गईं; जिसे दिखाई पड़ गया कि दूर के ढोल सुहावने हैं, पास आने पर व्यर्थ हो जाते हैं; इंद्रधनुष हैं, दिखते हैं, पास जाओ कुछ मिलता नहीं; मुट्ठी बांधो, हाथ में कुछ आता नहीं; इनको घर बांध कर नहीं लाया जा सकता है; ये सिर्फ दिखाई पड़ते हैं; सपने हैं उसके लिए समय बहुत धीमी गति ले लेता है।
फरीद कहते हैं, रातें लंबी हो गई हैं। अब कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। कहीं जाने को, कहीं पहुंचने को नहीं है। कुछ पाने को नहीं है। अब रात बड़ी लंबी मालूम पड़ती है।
पसलियों में हूक उठ रही है और अब तक जो भागते रहे थे नशे में वासना के कि कभी ध्यान ही न दिया था कि शरीर कितना थक गया है, अब पता चल रहा हैः हड्डी-हड्डी रो रही है। रोआं-रोआं दर्द और पीड़ा से भरा है। पसलियों से हूक उठ रही है। दर्द से करवटें बदलनी पड़ रही हैं। एक करवट पड़े रहना मुश्किल हो गया है।
धिक्कार है उनको जीने का जो बिरानी आस में जी रहे हैं। और फरीद कहता है, हमारी यह जो दशा है, यह जो हताशा की, यह फिर भी तुमसे बेहतर है। क्योंकि तुम अभी भी उस आशा में जी रहे हो जो कभी पूरी न होगी। हमारी वह आशा टूट गई। क्योंकि हमने जान लिया, वह कभी पूरी हो नहीं सकती। माना कि रात अंधेरी लग रही है और हड्डियों में दर्द है और बड़ी गहरी व्यथा है, थकान है जन्मों-जन्मों की; लेकिन फिर भी हम सौभाग्यशाली हैं। अभागे हैं वे जो अभी भी उसी दौड़ में चल रहे हैं, सपनों के पीछे भागे जा रहे हैं। एक दिन वे भी गिरेंगे। रात तब उन्हें लंबी मालूम पड़ेगी। हड्डियां रोएंगी। रोआं-रोआं पीड़ित होगा। करवटें बदलेंगे और आशा जब टूटती है तो तुम ही टूट जाते हो; क्योंकि तुम ही अब तक आशा को ही सहारा-सहारा मान कर जीए थे। आशा की भूमि हट जाती है, पैर के नीचे कोई भूमि नहीं रह जाती। इसलिए तो तुम एक आशा मिटे, उसके पहले दूसरी आशा जगा लेते हो। कुछ सहारा चाहिए जीने को।
डूबता तिनके को भी पकड़ लेता है; नाव की कल्पना कर लेता है; सपने देखने लगता है कि नाव में बैठा है, बच जाएगा। सब नावें कागज की हैं। कामना की नाव ही कागज की नाव है।
फरीद कहता हैः अभागे हैं वे लोग जो अभी भी आशा में दौड़े चले जा रहे हैं। उनसे तो हमारी दशा बेहतर है। कम से कम एक बात तो घट गईः आशा टूट गई..बाहर की दौड़ बंद हो गई। दूसरी घटना के लिए हम तैयार हो गए। दूसरी घटना के द्वार पर हम खड़े हो गए।
पहले वैराग्य संसार से, व्यर्थ से, असार से। थोड़ी देर को जो संक्रमण का काल होता है उसकी बात कर रहे हैं फरीद। जब संसार से वैराग्य हो जाता है और परमात्मा से राग अभी जगा नहीं होता; रात तो चली गई, सूरज अभी उगा नहींः वह जो भोर का क्षण है, वह क्षण बड़ी मुश्किल का है। जो था वह खो गया और जो मिलना है वह अभी मिला नहींः वह बीच का क्षण है, संक्रमण की बेला है।
रातें लंबी हो गई हैं। पसलियों में हूक उठ रही है। दर्द से करवटें बदलनी पड़ रही हैं।
फरीदा रातीं बड़ीआं, धुखि-धुखि उठानि पास।
धिगु तिन्हांदा जीविआ, जिन्हां विडाणी आस।।
मगर एक बात साफ है कि गलत तो गलत दिखाई पड़ गया अब ज्यादा देर नहीं है कि ठीक ठीक की तरह दिखाई पड़ जाए। असत्य को जिसने असत्य की तरह जान लिया, उसके हाथ में तो कुछ नहीं आता। छूट ही जाता है कुछ, क्योंकि जो असत्य था, वह छूट गया। लेकिन उसके हाथ खाली हो गए..सत्य के उतरने के लिए जगह खाली हो गई।
असत्य को असत्य की तरह जान लेना सत्य को सत्य की तरह जान लेने का पहला कदम है, अनिवार्य कदम है। झूठ को झूठ की तरह पहचान लेना सच को सच की भांति पहचानने की तैयारी है। मगर एक संक्रमण का काल है और वही काल सर्वाधिक दुख का काल है। हीरे-जवाहरात नहीं थे, हाथ में कंकड़-पत्थर थे; लेकिन मान रखा था, हीरे-जवाहरात हैं। चित्त तो प्रसन्न था। खुश थे। झूठ थी खुशी। किसी न किसी दिन टूटती।
फरीद ठीक कहते हैंः अभागे हैं वे। हालांकि वे प्रसन्न हैं, खुश हैं उनके पास हीरे-जवाहरात हैं।
मैंने एक कहानी सुनी है। दो फकीर एक जंगल से गुजरते हैं। वह जो बूढ़ा है, जो गुरु है, वह एक झोली टांगे हुए है। वह बार-बार अपनी झोली में हाथ डाल कर कुछ देखता है। शिष्य थोड़ा हैरान है कि क्या मामला है। न केवल वह झोली में हाथ डाल-डाल कर देखता है, बल्कि बड़ी तेजी से चल रहा है। ऐसा उसने उसे कभी चलते देखा नहीं। बूढ़ा आदमी! वह कहता भी है कि इतनी जल्दी क्या है? वह कहता है, तुझे पता नहीं! फिर वह कई बार पूछता है कि हम रास्ता भटक तो नहीं गए? गांव दिखाई नहीं पड़ता, सांझ होने के करीब आ रही है। कोई खबर नहीं लगती गांव की। कहीं हम रास्ता जंगल में भटक तो नहीं गए?
वह युवक बड़ा परेशान है। वह कहता हैः आपको मैंने कभी चिंतित नहीं देखा, क्या जंगल और क्या गांव..फकीर के लिए क्या फर्क पड़ता है। लेकिन आज कुछ बात अलग है।
अंततः वे एक कुएं पर रुके..सूरज ढल गया है..पानी पीने के लिए। सदा बूढ़ा अपने झोले को उतार कर रख देता था, पानी पी लेता था, हाथ-मुंह धो लेता था; आज उसने झोला युवक को दिया और कहा सम्हाल कर रख।
युवक ने कहाः जरूर झोले में ही कोई उपद्रव है। उसने झोले के भीतर हाथ डाला, देखा कि एक सोने की ईंट है। तो वह समझ गया कि आज बूढ़े की परेशानी क्या है। उसने सोने की ईंट तो निकाल कर डाल दी कुएं में और एक पत्थर उसी वजन का उठा कर रख दिया अंदर। जब बूढ़ा हाथ-मुंह धोकर तैयार हो गया, उसने जल्दी से झोला लिया, टटोल कर झोले के ऊपर से देखा कि ईंट है या नहीं, है। कंधे पर टांग ली और दोनों चल पड़े। फिर वह पूछने लगा कि रात उतरती आ रही है, गांव का पता नहीं चलता, दिए तक दिखाई नहीं पड़ते, कहीं पास गांव है या नहीं है? दो-तीन मील चलने के बाद युवक हंसने लगा। उस बूढ़े ने कहाः तू हंस क्यों रहा है? मामला क्या है? उसने कहाः अब तुम बिल्कुल फिकर न करो। गांव पहुंचे कि न पहुंचे, कोई डर ही नहीं है।
उसने कहाः क्या मतलब तेरा?
उसने फिर ईंट टटोल कर देखी, ईंट थी। उसने कहाः क्या मतलब है तेरा? उसने कहाः अब जिसको टटोल रहे हो, उसमें कोई डर नहीं है।
तब उसने घबड़ा कर ईंट बाहर निकाल कर देखी, वह पत्थर है। लेकिन इस तीन-चार मील, वह इस पत्थर को ही सोने की ईंट समझा रहा और परेशान रहा। तब वह भी हंसने लगा। उसने वह ईंट किनारे फेंक दी। उसने कहाः अब फिकर छोड़ इसी वृक्ष के नीचे रात विश्राम करें। अब कोई झंझट ही न रही।
तुम जिस ईंट को लिए चल रहे हो झोले में, वह फरीद को दिखाई पड़ती है कि अभागे हो, पत्थर की ईंट ढो रहे हो। पर तुमने सोने की समझी है। तुम प्रसन्न हो। तुम बड़े संलग्न हो उसको बचाने में। फरीद पहचान गया कि ईंट पत्थर की है। उसने पत्थर की ईंट तो नीचे डाल दी है; सोने की ईंट अभी नहीं मिली। इसलिए वह कहता है, रातें बहुत लंबी हो गई हैं। हड्डी-हड्डी से दर्द उठ रहा है। जन्मों-जन्मों की पीड़ा है चलने की। झोले को टांगे-टांगे कंधा भी थक गया है। और आज सब व्यर्थ हो गया अचानक। एक संक्रमण की बेला आ गई है। एक जीवन समाप्त हुआ, दूसरा अभी शुरू नहीं हुआ; बीच की घड़ी है। यह बीच की घड़ी का नाम वैराग्य है। और जो वैराग्य के द्वार से गुजरा, वही परमात्मा के राग को उपलब्ध होता है। उस राग का नाम प्रेम है। वैराग्य से जो डर गया वह कभी परमात्मा के राग को उपलब्ध न हो सकेगा।
संसार से छुटकारा, उसकी तरफ आंखों का उठना है। यहां से हाथ खाली होते हैं, तो वहां हाथ भरने शुरू हो जाते हैं। जो इधर संसार की तरफ विमुख होता है, वह परमात्मा की तरफ सन्मुख हो जाता है।
परमात्मा का मंदिर बाजार में नहीं है। और परमात्मा के मंदिर को तुम भूल कर भी बाजार का हिस्सा मत बना लेना। यह तो हो सकता है कि परमात्मा के मंदिर में ही सब बाजार हो; लेकिन परमात्मा का मंदिर बाजार में नहीं हो सकता। यह तो हो सकता है कि तुम्हारी दुकान भी मंदिर का हिस्सा हो जाए; लेकिन यह कभी नहीं हो सकता कि उसका मंदिर तुम्हारी दुकान का हिस्सा हो जाए। इस पहेली को तुम ठीक से समझ लेना। यह तो हो सकता है कि दुकान पर बैठे-बैठे भी तुम्हारे लिए प्रार्थना और पूजा का आविर्भाव हो जाए। ग्राहक में ही तुम्हें राम दिखाई पड़ने लगे। दुकान ही तुम्हारी तपश्चर्या हो जाए। यह हो सकता। लेकिन मंदिर दुकान नहीं हो सकता।
लेकिन अब तुम्हारी चेष्टा यह रही है कि मंदिर दुकान हो जाए। तुमने परमात्मा को भी संसार का अंग बना लेना चाहा। इसलिए तुम वंचित हो। इससे जागो।
संसार को भर आंख देख लो। ठीक से देखते ही तुम पहचान जाओगे कि वहां कुछ भी नहीं है। और जिस दिन तुम्हें दिख जाए, संसार में कुछ नहीं है, उसी दिन तुम्हें पहली बार समझ आएगी कि परमात्मा में कुछ है।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, परमात्मा कहां है? मैं उनसे कहता हूं, जब तक संसार है तब तक परमात्मा कहीं भी नहीं है। तुम दोनों एक साथ न देख पाओगे। जब तक संसार दिखता है तुम्हारी आंखों में, तब तक परमात्मा न दिखेगा। जब संसार तुम्हारी आंखों से हट जाएगा, तब जो दिखाई पड़ता है, वही परमात्मा है।
आंख पर एक धुंध है..संसार के राग की, लोभ की। उस धुंध को काटना है। एक जाली है। उस जाली को काटना है। और उसके भीतर प्रेम का अविर्भाव संभावित है।
फरीद कहते हैंः अभागे हैं वे जो व्यर्थ की आशा में जी रहे हैं। मेरी आशा टूट गई। मैं निराश हूं। रात लंबी है, अंधेरी है; फिर भी डर नहीं है..क्योंकि अंधेरी रात के बाद सुबह का आगमन है।
आज इतना ही।
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