आठवां-प्रवचन-(प्रेम महामृत्यु है)
प्रश्न-सार:
01-प्रेम और मृत्यु का अंतर्संबंध क्या?02-प्रेम, काल और ध्यान हमारे लिए इतने बेबूझ क्यों?
03-अकथ कहानी प्रेम की..उसका अंत होता हुआ क्यों नहीं दिखता?
04-अकथ कहानी प्रेम की भांति अकथ कहानी ध्यान की क्यों नहीं कही जाती?
05-सब सयानों का प्रेम पर ही जोर क्यों?
06-नकली प्रेम का गोरखधंधा बंद क्यों नहीं होता?
07-दर्शन के समय कंपकंपी और भय की स्थिति का रहस्य?
08-जीवन प्रयोजन-रहित है तो खाली हाथ जाएं या भरे हाथ..क्या अंतर?
09-आप राजनीति के विपक्ष में क्यों हैं? क्या अराजकवादी हैं? क्रांति के अगुआ क्यों नहीं बनते?
पहला प्रश्नः आप जब भी प्रेम पर चर्चा करते हैं तब अनिवार्यतया, मृत्यु को क्यों जोड़ लेते हैं?
क्योंकि मृत्यु प्रेम का स्वरूप है; क्योंकि प्रेम महामृत्यु है। जिसने मृत्यु को न समझा, वह प्रेम को भी समझ न पाएगा। जिसने प्रेम को न समझा, वह मृत्यु से सदा के लिए अपरिचित रह जाएगा। मृत्यु है स्वेच्छा से मरने की बात, तो ही समझी जा सकती है।
स्वेच्छा से तो कोई प्रेम में ही मरता है। मृत्यु में स्वेच्छा से मरना तो बहुत कठिन होता। जिसने प्रेम में मरना सीखा, मिटना सीखा; जिसने मिटने का मजा ले लिया; जिसे मिटने का स्वाद आ गया..वह शायद मृत्यु में भी मिटने को स्वेच्छा से राजी हो जाए।
तो प्रेम पाठशाला है। उस पाठशाला में मिटना सीखना है। और मिटे बिना कोई प्रेम को उपलब्ध नहीं होता। तुम जब तक हो तब तक प्रेम न हो सकेगा। तुम्हारा सिंहासन जब खाली हो जाता है तभी प्रेम का सम्राट उतरता है। इसलिए मिटने की तैयारी हर हालत में जरूरी है। उससे ही तुम प्रेम को जानोगे। उससे ही तुम प्रार्थना को जानोगे। उससे ही तुम मृत्यु को जानोगे। उसी से तुम परमात्मा को जानोगे।
प्रेम कुंजी है। और उस एक कुंजी से सभी ताले खुल जाते हैं। इसलिए तो फरीद कहते हैंः अकथ कहानी प्रेम की। द्वार बहुत होंगे, ताले बहुत होंगे, लेकिन सब तालों के बीच एक कुंजी काम कर जाती है, वह प्रेम की है।
इसलिए अनिवार्यतया प्रेम के साथ मृत्यु की चर्चा करनी ही पड़ेगी। जिसने प्रेम की चर्चा की और मृत्यु को बाद दी, उसकी प्रेम की चर्चा व्यर्थ है, अधूरी है; उसमें कोई गहराई नहीं है। वह ज्यादा से ज्यादा आदमी की वासना की बात कर लेगा; कामना की बात कर लेगा; लेकिन प्रेम की गहराई छुई भी न जा सकेगी। तुम्हें विरोधाभास लगता है, क्योंकि तुम तो सोचते होः प्रेम यानी जीवन। और मैं तुमसे कहता हूंः प्रेम यानी मृत्यु..तुम्हें विरोधाभास लगता है, क्योंकि न तो तुम जीवन को जानते, न तुम मृत्यु को। जीवन की गहनतम गहराई मृत्यु में है। जीवन को भी जानना हो तो भी डूबना पड़ेगा। जैसे बूंद सागर में खो जाती है, ऐसे तुम्हें जीवन के महासागर में खो जाना पड़ेगा।
जीसस की जीवन की कथा का यही सार है। इधर सूली लगी, उधर पुनरुज्जीवित हुए। ईसाइयत भूल गई उस बात को, ठीक से समझ न पाई; क्योंकि प्रेम को और मृत्यु को जोड़ना ईसाइयत को भी मुश्किल पड़ा। जीसस को मानने वाले, जीसस के सूली चढ़ते वक्त सोचते थे, जीसस मरेंगे नहीं। कोई चमत्कार होगा। मृत्यु से बचा लिए जाएंगे। क्योंकि वे भी मृत्यु से डरे थे। उन्हें पता ही न था कि प्रेम की आखिरी गहराई तो मृत्यु है, क्रास है, सूली है। और जब जीसस मर गए सूली पर, तो मित्र और अनुयायी विदा हो गए..उदास, थके-हारे। कोई चमत्कार घटित न हुआ। और जब तीन दिन बाद, कथा कहती है, जीसस देखे गए जीवित, तो अनुयायी भरोसा न कर सके। क्योंकि यह हो ही कैसे सकता है? जो मर गया, जो मर गया सूली पर, वह पुनरुज्जीवित कैसे? असंभव! फिर चूक गए।
प्रेम की गहराई मृत्यु है और मृत्यु से पुनरुज्जीवन है, नया जीवन है।
यह जीसस की पूरी कथा इतनी ही है। ऐसा कभी हुआ या नहीं, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। कोई सूली पर लटका, फिर चला जमीन पर, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। यह तो एक बोध-कथा है। सूली के बाद महाजीवन है। और इस कथा में एक बात समझ लेने जैसी है। उनके जो खास-खास शिष्य थे..ल्यूक, मार्क, थामस..वे कोई पहचान न सके। उनको पहचाना उनकी एक प्रेम करने वाली शिष्या ने। वह शिष्या भी असाधारण थी। वह एक वेश्या थी..मेरी मेग्दलीन। ईसाइयत इसको झुठलाने की कोशिश करती रही है, इस बात को छिपाती है, क्योंकि यह बात जमती नहीं। बड़े-बड़े अनुयायी, संत जिन्हें ईसाइयत कहती है, वे न पहचान सके..और पहचाना एक वेश्या ने।
यह बात भी मैं मानता हूं कारगर है, अर्थपूर्ण है, प्रेम ही पहचानेगा। वेश्या का प्रेम भी पहचान लेता है। संत का पांडित्य भी नहीं पहचान पाता है। प्रेम की ऐसी महिमा है वेश्या का प्रेम भी पहचान लेगा। वेश्या के प्रेम में कितनी ही अपवित्रता हो तो भी प्रेम की एक पवित्र किरण तो मौजूद है। और संत के तथाकथित पांडित्य में कितनी ही पवित्रता की धारणाएं हों, पवित्रता की एक भी, जीवित किरण नहीं है।
मस्तिष्क न पहचान सका, हृदय ने पहचाना। पुरुष न पहचान सके, स्त्री ने पहचाना। यह बात सोच लेने जैसी है, सोच-विचार काम न आया। हृदय की अंधी आंखें काम आ गईं।
प्रेम की कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। पर मृत्यु को समझोगे तो ही समझ में आएगी। और जो प्रेम में मरने को राजी है, उसे परमात्मा हजार रूपों में जिला देता है।
दूसरा प्रश्नः जो भी अस्तित्वगत है..प्रेम, काल, ध्यान..वह सब बेबूझ क्यों है हमारे लिए?
अस्तित्व रहस्य है। बेबूझ होना उसका स्वभाव है। बेबूझ होना कोई घटना नहीं है, कोई उलझन नहीं है, जिसको तुम सुलझा सकोगे। बेबूझ होना अस्तित्व का स्वभाव है।
इस भेद को ठीक से समझ लो।
ये कपड़े मैंने पहन रखे हैं..यह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं दूसरे कपड़े पहन सकता हूं। मैं नग्न हो सकता हूं। मैं कपड़ों का त्याग कर दे सकता हूं। ऊपर की घटना है। संयोग है, स्वभाव नहीं है। पहना हूं तो ठीक; उतार दूं तो कोई कपड़े जबरदस्ती न कर सकेंगे कि हम उतरते नहीं।
लेकिन फिर मेरी चमड़ी है, चमड़ी को उतारना बड़ा कठिन पड़ेगा, यद्यपि उतारी जा सकती है। संयोग वह भी है; थोड़ा गहरा संयोग है। लेकिन फिर भी संयोग है। चमड़ी भी खींची जा सकती है, उतारी जा सकती है। फिर उसके भीतर मैं हूं। उस मैं को तो मुझसे अलग नहीं किया जा सकता। कोई उपाय नहीं है। कोई प्लास्टिक सर्जरी काम नहीं आएगी। वह मेरा स्वभाव है।
जो भी मुझसे अलग किया जा सके, वह मेरा स्वभाव नहीं है, संयोग है। कोई संयोग बहुत गहरा होगा, कोई बहुत गहरा नहीं होगा। लेकिन सब संयोग तोड़े जा सकते हैं। नदी-नाव संयोग हम कहते हैं। कोई अनिवार्य नहीं है कि नाव नदी में रहे। ऐसा भी अनिवार्य नहीं है कि नाव में नदी रहे ही या नाव नदी में रहे। कोई अनिवार्यता नहीं है। नाव को तुम नदी से उठा लो तो कोई अड़चन नहीं है। नदी बिना नाव के हो सकती है। नाव बिना नदी के हो सकती है। संयोग ऊपरी है। लेकिन कुछ नदी का स्वभाव है..जैसे बहाव। नदी में बहाव न हो तो तालाब हो जाएगी, नदी नहीं रहेगी, फिर सड़ेगी। जिस नदी में बहाव न रहा, वह सागर की तरफ जाना बंद हो गई। वह उसका स्वभाव था। उसके बिना वह नदी ही न रही। फिर तुम्हें उसे कुछ और नाम देना पड़ेगा..सरोवर कहो, कुछ और कहो; नदी न कह सकोगे। उसका बहाव ही खो गया।
फिर जल है नदी का..जल ही खो जाए तो भाषा में हमें इस तरह के प्रयोग करने पड़ते हैं..हम कहते हैं, सूखी नदी। यह बिल्कुल पागलपन की बात है। सूखी कहीं कोई नदी हो सकती है? सूखी नदी तो केवल नदी के न होने का नाम है। कभी यहां नदी बहती थी, अब सिर्फ सूखा पाट रह गया है। मत कहो कि यह नदी है। इतना ही कहो कि कभी यहां नदी बहती थी। अब तो नदी का बिल्कुल अभाव है, इसको तुम सूखी नदी कहते हो। यह भाषा का गलत उपयोग है। क्योंकि नदी और गीली न हो तो नदी कहां? नदी सूखी कैसे हो सकती है? उसका कोई उपाय नहीं है।
अस्तित्व का स्वभाव है बेबूझता, रहस्य। कोई भी उपाय नहीं है कि हम उसे उतार कर अलग कर दें। साइंस कितनी चेष्टा करती है..यही चेष्टा है कि किसी तरह बेबूझपन मिट जाए; किसी तरह बात समझ में आ जाए; व्याख्या हो जाए; कोई सिद्धांत बन जाए तो जीवन को सुलझा दे। लेकिन विज्ञान ने जितने उपाय किए हैं उतनी ही मुसीबत बढ़ी है। चीजें सुलझी नहीं हैं, और उलझ गईं। जितना विज्ञान गहरा गया है उतना ही उसने पाया कि और गहराइयां खुल गईं। एक रहस्य को लगता था सुलझा रहे हैं, दस नये रहस्य उलझ गए।
बहुत बड़े वैज्ञानिक एडिंग्टन ने लिखा है कि सौ वर्ष पहले वैज्ञानिक सोचते थे, हम बिल्कुल अब द्वार के करीब हैं, रहस्य का द्वार आया, आया, अब खुला अब खुला, जरा समय की देर है, थोड़े प्रयोग और, थोड़ी चेष्टा और। बड़े आश्वस्त थे। लेकिन इस सदी के प्रारंभ में आश्वासन डगमगा गया। द्वार पर आ गए, द्वार खुल भी गया; पता चला, और नये द्वार हैं। जैसे प्याज को छीलो, एक पर्त निकली और दूसरी पर्त आ गई। प्याज तो कभी छिल भी जाएगा पूरा और हाथ में कुछ भी न बचेगा। लेकिन जीवन का ढंग ऐसा है, अस्तित्व का ढंग ऐसा है..पर्त पर पर्त है। कभी छिल नहीं पाएगा। तुम उघाड़ते जाओगे, उघड़ने को शेष रहेगा।
तुमने महाभारत की कथा सुनी है; वह कथा महाभारत की नहीं है, विज्ञान और अस्तित्व की है। द्रौपदी का वस्त्र उघाड़ा जा रहा है, वह बढ़ता चला जता है। वे जो वस्त्र उघाड़ रहे थे, वे द्रौपदी को नग्न करने को उत्सुक हुए थे। विज्ञान प्रकृति को नग्न करने को उत्सुक हुआ हैः जान लेना है पूरा।
कथा है कि कृष्ण वस्त्र को बढ़ाते चले गए। यह तो कथा है। कोई ऐसा कृष्ण बैठे नहीं। द्रौपदियां निशिं्चत न रहें। वस्त्र छीना जाने लगे तो कुछ करें, कोई कृष्ण बैठे नहीं कहीं जो वस्त्र को बढ़ा देंगे।
नहीं, लेकिन कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। उसको यथार्थ मत समझना, उसको प्रतीक समझना। वह यह है कि परमात्मा का ढंग ऐसा है, उसका होना ऐसा है, स्वभाव ऐसा है कि तुम उघाड़ो, वह ढंकता ही चला जाता है। तुम जितना उघाड़ते हो उतना तुम ही थकते हो।
एडिंग्टन ने लिखा है कि हम सोचते थे पहले कि पदार्थ समझ लिया गया, पदार्थ का स्वरूप समझ लिया गया। हम सोचते थे, संसार यंत्रवत है; लेकिन अब, अब हालत उलटी हो गई है। पदार्थ तो बिल्कुल खो गया। वैज्ञानिक कहते हैं, पदार्थ जैसी तो कोई चीज ही नहीं है। और अस्तित्व का स्वभाव विचार जैसा मालूम होने लगा, वस्तु जैसा नहीं। और भी रहस्य बढ़ गया।
आइंस्टीन ने मरते वक्त कहा है कि जब मैंने शुरू की थी यात्रा खोज की, विज्ञान की, तो मैं सोचता था, कुछ न कुछ हाथ लग जाएगा। कुछ हाथ नहीं लगा। इतना ही जान पाया हूं कि जानना असंभव है। इतना ही जान पाया हूं कि जीवन के रहस्य को कभी पूरा खोला न जा सकेगा।
आइंस्टीन, एडिंग्टन, प्लांक, बड़े वैज्ञानिक अंतिम दिनों में कविता की भाषा बोलने लगे, धर्म की भाषा बोलने लगे। जो वैज्ञानिक धर्म की भाषा तक न पहुंच पाए, समझना कि मिडियाकर है, थोड़ा मध्यम बुद्धि का है, बहुत गहरे नहीं जा सका। जो भी गहरे गए हैं उन्हें तो थाह मिली ही नहीं। उन्होंने तो कहाः अथाह है। हां जो किनारे पर ही बैठे रहे, वे कहते हैं, थाह है। जो गए गहरे में उन्होंने थाह न पाई। जो जितना गहरा गया उतना अथाह पाया।
इसलिए तो फरीद कहते हैंः अकथ कहानी प्रेम की। कहता हूं, लेकिन कही न जा सकेगी। थाह लेता हूं, लेकिन अथाह है। चेष्टा करूंगा; जानता हूं, यह होगा नहीं।
अस्तित्व का स्वभाव है रहस्य।
अस्तित्व कोई समस्या नहीं है जिसको हल करना है, जिसे तुम हल कर सकते हो। अस्तित्व एक रहस्य हैः तुम जीओ तो जी सकते होः नाचना चाहो, नाच सकते हो अस्तित्व को; गाना चाहो, गा सकते हो; हल करने भर की कोशिश मत करना। यह भ्रांत चेष्टा है।
और होना भी यही चाहिए कि यह चेष्टा भ्रांत हो। क्योंकि तुम अस्तित्व के अंग हो; अंग पूर्ण को कैसे जान सकेगा? बूंद सागर को कैसे जान सकेगी? तुम अंशी हो; अंश अंशी को कैसे जान सकेगा? अस्तित्व तुमसे पहले है, तुमसे बाद भी रहेगा। तुम अस्तित्व की एक लहर हो! आए और गए। तुम नहीं थे तब भी अस्तित्व था। तुम नहीं होगे तब भी अस्तित्व रहेगा। तुम कैसे इस अनंत को जान सकोगे?
तुम तो जागरण की एक छोटी सी घटना हो। जरा सी चेतना उठी है। जरा सा होश आया है। एक किरण उतरी है। इस किरण के सहारे तुम इस विराट को कैसे जान सकोगे? असंभव है। और अगर यह अहंकार तुम्हारे मन में आ जाए कि इसे जान कर रहेंगे तो तुम्हें एक अवसर मिला था आनंद का, वह भी तुम खो दोगे।
ज्ञान मत खोजना, आनंद खोजना। यही फर्क धर्म और विज्ञान का है। विज्ञान कहता है, ज्ञान खोजेंगे; धर्म कहता है, आनंद खोजेंगे। विज्ञान कहता है, उस आनंद का अर्थ ही क्या, जिसका हमें ज्ञान न हो?
सुकरात ने सिलसिला शुरू किया पश्चिम में विज्ञान का। सुकरात ने कहा हैः अपरीक्षित जीवन जीने योग्य नहीं है..अनएग्जामिन्ड लाइफ इ.ज नॉट वर्थ लिविंग। इससे शुरुआत हुई विज्ञान की। यह बीज है। जीवन को जब तक ठीक से न समझ लिया जाए, व्याख्या न हो जाए, उसका परीक्षण न हो जाए..तब तक जीने में क्या सार है?
धर्म कहता है, ज्ञान का क्या करोगे अगर उससे आनंद उपलब्ध न हो? ज्ञान का ढेर लगा लोगे। ज्ञान के पहाड़ भी इकट्ठे हो जाएं तो भी आनंद की एक बूंद भी तो उससे नहीं निचुड़ सकती। ज्ञान का करोगे क्या? ज्ञान किसलिए? अगर तुम गौर करोगे तो ज्ञान का खोजी भी कहेगा कि ज्ञान पाकर मैं आनंदित होऊंगा। तो धर्म कहता है, जब आनंदित ही होना है तो इतने ऊहापोह की क्या जरूरत है? और ज्ञान कभी किसी को हुआ नहीं। हां, जो आनंद को उपलब्ध हो गए हैं, उनका अज्ञान मिट गया है। ज्ञान कभी किसी को हुआ नहीं। जो आनंद को उपलब्ध हो गए उनका अज्ञान मिट गया है। उनके भीतर से यह भाव ही गिर गया कि कुछ जानना है; सारे प्रश्न मिट गए। उत्तर मिल गए हैं, यह मैं नहीं कह रहा हूं। सारे प्रश्न गिर गए हैं। वे निष्प्रश्न हो गए हैं। और जहां प्रश्न गिर गए, जहां कोई खोजने की बात न रही..वहां जीवन की पुलक, जीवन का अहोभाव उठता है।
जब तक तुम दौड़ते हो, खोजते हो, तब तक नाचने की फुर्सत कहां? जब कोई दौड़ नहीं रह जाती, कोई खोज नहीं रह जाती, कहीं जाने का सवाल नहीं रह जाता, तुम जहां हो वहीं मंजिल होती है..तब तुम नाचते हो। नाचने वाला पैर, यात्रा पर जाने वाले पैर से बिल्कुल अलग है। नाचने वाला पैर कहीं भी नहीं जा रहा। उसकी गति तो हो रही है, लेकिन कोई गंतव्य नहीं है। तुम नाचने वाले पैर की अगर वैज्ञानिक परीक्षा करोगे तो उसमें और दुकान की तरफ जाने वाले पैर की परीक्षा में कोई फर्क न पाओगे। क्योंकि दोनों में मसल्स की गति होगी, खून बहेगा, ऊर्जा व्यय होगी, विद्युत प्रवाहित होगी, खर्च होगा। अगर तुमने भौतिकवादी की तरह दुकान की तरफ जाने वाले पैर की और मंदिर के द्वार पर नाचने वाले पैर की परीक्षा की, तो दोनों में तुम्हें कोई फर्क न मिलेगा। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं और तुम भी समझोगे कि फर्क है। मंदिर के द्वार पर नाचने वाला पैर कहीं भी नहीं जा रहा, सिर्फ अहोभाव प्रकट कर रहा है..कि मैं हूं धन्यभाग मेरे कि आज श्वास है और मैं गीत गा सकता हूं; कि आज पैर युवा हैं और मैं नाच सकता हूं।
कोई मंजिल नहीं है। धार्मिक व्यक्ति के लिए यात्रा ही मंजिल है। तीर्थयात्रा है। कहीं पहुंचना नहीं है। पहुंचे तो हुए ही हैं पहले से ही। उस परमात्मा में विराजमान ही हैं पहले से। उससे बाहर कभी जाना हुआ नहीं। घर लौट कर आना नहीं है। घर के बाहर कभी गए नहीं; क्योंकि घर के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।
ऐसे आनंद के अहोभाव में जो डूब जाता है। उसका अज्ञान गिर जाता है। अज्ञान के गिर जाने को हमने परम ज्ञान कहा है। और ज्ञान की खोज तो विराट अस्तित्व की टेबल पर जो भोजन चल रहा है, नृत्य अहोभाव चल रहा है, उसके टेबल से गिर गए रूखे-सूखे रोटी के टुकड़े हैं, उनको कोई जोड़ ले, इकट्ठा कर ले उसको तुम जीवन मत समझना।
ज्ञान कचरा है। उस ज्ञान को मैं कचरा कहता हूं जिससे अज्ञान मिट न जाता हो। और ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जिससे अज्ञान मिटता है। अज्ञान तो अपनी जगह बना रहता है; ज्ञान का कचरा इकट्ठा होता जाता है। तुम कितना ही जान लो, जब तक तुम्हारे जीवन में पुलक न आएगी आनंद की, तब तक तुम्हारे जानने का क्या सार है?
धर्म कहता है, नाचो। विज्ञान कहता है, ज्ञान मिलेगा तो हम आनंदित होंगे। धर्म कहता है, आनंदित होते ही ज्ञान मिल जाता है। इसलिए हमने परमात्मा की आखिरी व्याख्या में आनंद शब्द को रखा है..सच्चिदानंद। वह आखिरी है। आनंद के पार फिर कुछ भी नहीं है। वह आखिरी आकाश है; आखिरी गंतव्य है; आखिरी अर्थ और प्रयोजन और नियति है!
अस्तित्व का बेबूझ होना स्वाभाविक है।
इसलिए संतपुरुष बेबूझ मालूम पड़ते हैं, क्योंकि उनसे अस्तित्व बोलता है। उनकी वाणी अटपटी मालूम पड़ती है उनकी वाणी में अतक्र्य कुछ छिपा हुआ मालूम पड़ता है। भारत में तो साधुओं कि वाणी को हमने अलग ही नाम दे रखा हैः सधुक्कड़ी। वह कोई साधारण भाषा नहीं है; सधुक्कड़ी है। उसका कुछ पक्का नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं और क्या कहना चाह रहे हैं और क्या कह गए हैं।
कबीर के वचनों को हमने उलटबांसी कहा है। वे सीधे-सीधे वचन नहीं हैं उलटे मालूम पड़ते हैं।
कबीर कहते हैंः एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आग! मैंने एक अचंभा देखा है कि नदी में आग लगी है।
क्या मतलब होगा? यह बात तो बड़ी बेबूझ है। पर संतों से अस्तित्व बोलता है, बात बेबूझ हो जाती है।
कबीर ठीक कह रहे हैं, कबीर यह कह रहे हैं, जो कभी नहीं हो सकता, वह होते देख रहा हूं। तुम परमात्मा को पाए हुए हो और खोज रहे हो..नदिया लागी आग! तुम आनंद के घर में बैठे हो और रो रहे हो, .जार-.जार आंसू गिर रहे हैं..नदिया लागी आग! एक अचंभा मैंने देखा कि परमात्मा परमात्मा की खोज पर निकला है..नदिया लागी आग! एक अचंभा मैंने देखा, तुम कभी न मरोगे और मौत से कंप रहे हो..नदिया लागी आग!
पर संत की वाणी बेबूझ है। उसको ऊपर से देखो तो उलटबांसी है। अगर जीवन को समझो तो उसकी उलटबांसी तत्क्षण सीधी हो जाती है।
यही हुआ है। तुम हो अचंभे। मैं भी तुम्हें देखता हूं तो कबीर ठीक मालूम पड़ते हैं।
किसको खोज रहे हो? जिसको तुम खोजने निकले हो उसको कभी खोया था कि चल पड़े खोजने? किसकी तरफ हाथ जोड़ कर आकाश में तुम प्रार्थना करते हो? यह प्रार्थना करने वाले को तो जरा गौर से देख लो कहीं यह ही न हो जिसकी तुम प्रार्थना कर रहे हो। कहां जा रहे हो? किस दिशा में? किसलिए? कहीं ऐसा न हो कि जिसे तुम खोजते हो वह तुम्हारे भीतर बैठा हो।
फरीद ने कहा हैः वह रब, वह परमात्मा तेरे भीतर है। तू कहां जंगल-जंगल भटकता है? तू किसे खोजता है? खोज ही व्यर्थ है। खोज करने वाले में, जिसकी खोज चल रही है, वह छिपा बैठा है। जैसे बीज में वृक्ष है, ऐसे व्यक्ति में परमात्मा है। तब कबीर ठीक लगते हैं..नदिया लागी आग। और इसलिए तो तुम कितना ही खोजो, पा न सकोगे। पाने का संबंध तुम्हारी खोज से नहीं है। पाने का संबंध इस बात से है कि पहले तुम ठीक से पता लगा लो, कभी खोया था?
कई बार ऐसा हो जाता है, खासकर जो लोग चश्मा लगाते हैं उनको हो जाता है, चश्मा लगा है, और वे भूल जाते हैं और वे टेबल पर इधर-उधर चश्मा देखने लगते हैं। तब अचानक उनको ख्याल आता है, कि चश्मा नाक पर है। बस ऐसा ही कुछ हुआ है..नदिया लागी आग!
तुम्हें कई दफे ऐसा हुआ होगा। कलम कान में खोस ली है..और सब तरफ खोजते फिर रहे हो। कोई छोटा बच्चा हंसने लगता है। वह कहता है, कलम कान में लगी है, तब तुम्हें याद आता है।
परमात्मा खोया नहीं है, सिर्फ विस्मरण हुआ है, और विस्मरण हुआ है, ऐसा कहना भी शायद ठीक नहीं है; तुम किसी और गोरखधंधे में अति व्यस्त हो गए हो, इसलिए उसकी सूझ भूल गई है, बस। तुम्हारा मन इतना उलझ गया है किसी धंधे में कि तुम भूल ही गए कि चश्मा आंख पर रखा है। याद ही न रही।
बहुत बार ऐसा होता है। जब तुम बहुत जल्दी में होते हो, तब देर होने लगती है। ट्रेन पकड़नी है। चाबी नहीं जाती ताले में। रोज चली जाती थी, आज नहीं जाती है। आज तुम कंप रहे हो। आज तुम भागे हुए हो। असल में तुम यहां हो ही नहीं। तुम आधे स्टेशन की तरफ जा चुके हो। बटन लगाते हो, नीचे की बटन ऊपर लग जाती है। कभी ऐसा नहीं होता था। और आज देर में और देर हुई चली जाती है। तुम यहां हो नहीं। तुम्हारा मन कहीं और व्यस्त हो गया है।
परमात्मा को कोई कभी खोया नहीं है, किसी गोरखधंधे में व्यस्त हो गया है। धन है, पद है, प्रतिष्ठा है..इसकी दौड़ इतनी हो गई है कि तुम्हें चैन नहीं कि तुम थोड़ी देर बैठ कर देख पाओ कि तुम्हारी भीतरी संपदा क्या है।
अस्तित्व बेबूझ है। उसी के कारण संतों के वचन बेबूझ मालूम पड़ते हैं। और जहां तुम्हें बेबूझ वचन सुनाई पड़ जाएं, उस जगह को शरण मान लेना। वहां से भागना मत। तुम्हारा तर्क तो कहेगा कि यह बात तो कुछ समझ में आती नहीं। जो बात तुम्हारी समझ में आ जाती है, वह तुम्हें उठा न सकेगी। जो तुम्हारी समझ में आ गई, वह तुम्हारी समझ से नीची है। जो तुम्हारे सिर के ऊपर से निकल जाए, समझ में न आए..वही समझना कि सीढ़ी है, कुछ ऊपर उठने की संभावना है।
पंडितों की बातें बिल्कुल समझ में आ जाती हैं। संतों की बातें समझ में नहीं आतीं। पंडितों से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। उनसे तुम कुछ भी न पा सकोगे।
मैंने सुना है, इंग्लैंड की लार्ड्स..सभा का अध्यक्ष किसी गांव की यात्रा पर गया था, रास्ता भटक गया। कोई पास दिखाई नहीं पड़ता था तो उसने गाड़ी रोक दी। एक किसान चला आ रहा था जंगल से घास बांध कर। उसने उससे पूछा कि भाई, तुम मुझे बता सकते हो कि मैं कहां हूं? सीधा प्रश्न है। वह यह पूछ रहा है कि मैं किस जगह हूं, कौन सा गांव पास है? उसने पूछा, तुम मुझे बता सकते हो कि मैं कहा हूं? उस किसान ने नीचे से ऊपर तक देखा। उसने कहा; बिल्कुल, कार में बैठे हुए हो।
उस लार्ड्स..सभा के अध्यक्ष ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उसका उत्तर बिल्कुल पार्लियामेंटेरियन था। उसने उत्तर भी दिया और तुम जो जानते थे पहले उससे रत्ती भर जानने में बढ़ती न हुई। उत्तर तो बिल्कुल ठीक दिया। ऐसा ही तो मंत्रीगण उत्तर देते हैं राज्य सभाओं में, पार्लियामेंट्स में। उत्तर तो बिल्कुल ठीक देते मालूम पड़ते हैं, लेकिन उत्तर से कुछ मिलता नहीं। तुम जितना जानते हो, उसमें रत्ती भर जुड़ता नहीं है। तुम उतना पहले ही जानते थे कि तुम कार में बैठे हो। उस किसान ने उत्तर दिया, वह बिल्कुल धारा-सभा का उत्तर था।
पंडित तुम्हें जो उत्तर देते हैं, वे सब धारा-सभा के उत्तर हैं उनसे तुम्हें कुछ मिलता नहीं। तुम जानते ही थे वही तुमसे कह देते हैं, शायद थोड़े अच्छे ढंग से कह देते होंगे, लफ्फाजी में कुशल होंगे। जो तुम हिंदी में कहते, वे संस्कृत में कह देते होंगे। जो तुम हिंदी में समझते, वे फारसी में दोहरा देते होंगे। जो तुम अपनी सामान्य भाषा में कहते, वे उसे शास्त्र की भाषा में कह देते होंगे। मगर तुम्हारे जीवन में कुछ भी जुड़ता नहीं।
संत तुम्हारे जीवन को अस्तव्यस्त कर देता है। वह तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति की घड़ी ले आता है। अगर संत के वचन को समझने की तुमने चेष्टा की, उसी चेष्टा में तुम सीढ़ियां चढ़ने लगोगे। जहां तुम बेबूझ को पाओ वहां रुक जाना, जल्दी मत करना। शायद वहां से कोई रास्ता अस्तित्व के लिए खुलता हो।
तीसरा प्रश्नः अकथ कहानी प्रेम की..कबीर, नानक, दादू, फरीद, मीरा, चैतन्य..आप कहते हैं, कहते ही चले जाते हैं। कहानी आगे बढ़ती जाती है। उसका अंत आता हुआ नहीं मालूम होता। क्या कोई अंत है या नहीं?
प्रेम का प्रारंभ है, अंत नहीं।
इसे थोड़ा समझना पड़े।
प्रेम का प्रारंभ है, अंत नहीं; घृणा का अंत है, प्रारंभ नहीं। तुमने घृणा कब प्रारंभ की, तुम्हें कुछ पता है? तुम बता सकोगे, फलां दिन, फलां तारीख कैलेंडर में, उस दिन घृणा शुरू हुई? घृणा तुम लेकर ही आए हो जैसे। उसका कोई प्रारंभ नहीं है, अंत है। क्योंकि जिस दिन प्रेम का जन्म होगा, उसी दिन घृणा का अंत हो जाएगा। प्रेम का प्रारंभ होगा अंत नहीं होगा।
पुराने ज्ञानियों ने जो शब्द प्रयोग किए हैं, वे बड़े ठीक हैं। महावीर ने कहा हैः संसार का कोई प्रारंभ नहीं है, अंत है। मोक्ष का प्रारंभ है, अंत नहीं है। ठीक कही है बात। मोक्ष का भी अंत हो जाए तो वह क्या मोक्ष होगा? संसार का अंत है, लेकिन प्रारंभ नहीं है। कब हुआ संसार शुरू, बता सकोगे? पूछो महावीर से, बुद्ध से, कब संसार शुरू हुआ? वे कहेंगेः कभी शुरू नहीं हुआ, बस है। पर इतना वे कह सकते हैं कि एक घड़ी आई जब अंत हुआ। चालीस वर्ष के थे बुद्ध, तब एक रात अंत हो गया संसार का, मोक्ष शुरू हुआ। अब तुम पूछो कि मोक्ष का अंत होगा कभी? कभी नहीं होगा।
जीवन में जो पाप है, उसका प्रारंभ नहीं होता, अंत होता है। और जीवन में जो पुण्य है, उसका प्रारंभ होता है और अंत नहीं होता।
अकथ कहानी प्रेम की! वह शुरू तो होती है। एक दिन वीणा के तार बजने शुरू होते हैं, उसके पहले भनक भी नहीं थी। फिर वीणा बजती ही चली जाती है। सब समाप्त हो जाता है, पर वीणा के स्वर फिर गूंजते ही रहते हैं। वह गूंज अनंत की है, शाश्वत की है। वह गूंज समय का हिस्सा नहीं है, समय के पार है।
तो एक दिन तुम जागते जरूर हो, लेकिन फिर तुम कभी सोते नहीं। जो प्रेम में जाग गया, जाग गया। इसलिए तो हमने प्रेम को शाश्वत कहा है। और जब तक प्रेम शाश्वत न हो तब तक प्र्रेम का धोखा रहा होगा। जो प्रेम पैदा हो और समाप्त हो जाए, उसे तुम कुछ और कहना, कृपा करके प्रेम मत कहना। और नाम खोज लेना, लेकिन प्रेम मत कहना। क्योंकि प्रेम की तो परिभाषा यही है कि जो शुरू हो और समाप्त न हो। प्रेम इतना विराट है कि तुम ही उसमें समाप्त हो जाते हो; तुम उसे कैसे समाप्त कर पाओगे!
एक कहानी मुझे सदा प्रीतिकर रही है। रामकृष्ण कहते थे। मेला भरा था समुद्र के तट पर। बड़ा विवाद चल रहा था कि समुद्र अथाह है या नहीं। भीड़ इकट्ठी हो गई थी। बड़े पंडित शास्त्र खोल कर बैठे थे। बड़ी उत्तेजना फैल गई थी कि कौन जीतता, कौन हारता! बैठे सब किनारे पर थे। सागर में कोई उतर न रहा था। बैठ कर ही चर्चा हो रही थी। शब्दों की मार चल रही थी। बाल की खाल खींची जा रही थी। कोई कहता था, अथाह है, क्योंकि अब तक किसी ने भी नहीं कहा कितनी थाह है। अगर थाह होती तो कोई नाप लेता। दूसरे कह रहे थेः चूंकि अब तक नापा नहीं गया, तुम कैसे कह सकते हो कि अथाह है? नाप हो जाए, और पता चले कि नाप नहीं हो पाता, तो ही अथाह कहना।
अब इसमें बड़ी जटिलता थी। नाप अब तक हुआ नहीं है, तो थाह तो कह ही नहीं सकते अथाह भी नहीं कह सकते। पर किसी को यह ख्याल नहीं आ रहा था कि उतरें और कूद जाएं। कहते हैं, नमक के दो पुतले भी उस भीड़ में खड़े थे। उनको जोश आ गया। उन्होंने कहाः रुको जी। विवाद से क्या होगा? हम पता लगा कर आते हैं।
वे दोनों कूद गए। वे जैसे-जैसे नीचे जाने लगे, वैसे-वैसे बड़े हैरान हुए कि सागर की गहराई का तो अंत नहीं होता, खुद पिघलते जा रहे हैं! नमक के पुतले थे। कहते हैं, वे पहुंच भी गए बड़ी गहराई में; लेकिन जब लौटने का ख्याल आया तो वे थे ही नहीं; वे तो जा चुके थे। नमक पानी में घुल चुका था, सागर का हिस्सा हो चुका था।
ऐसा कई दिनों तक लोग घाट पर प्रतीक्षा करते रहे और उन्होंने कहा कि फिजूल है मेहनत अब और रुके रहना। शास्त्र का अर्थ फिर से शुरू किया जाए, यह बेकार मेहनत गई। यह समय ऐसे ही गया। इस बीच तो हम शास्त्र से ही निर्णय कर लेते।
फिर विवाद शुरू हो गया। और वे जो डूब गए गहराई में; वे कभी लौटे नहीं कहने, थाह है या नहीं।
कहानी अभी भी वहीं उलझी है..थाह है या नहीं है? विवाद घाट पर अब भी चल रहा है। पंडित अब भी अपनी-अपनी बातें कर रहे हैं। ये जो दो नमक के पुतले हैं, ये संतों के प्रतीक हैं, ये संतत्व के प्रतीक हैं। जैसे सागर में नमक का पुतला घुल जाता है, ऐसे ही हम परमात्मा में घुल जाते हैं, उसके प्रेम में घुल जाते हैं। दो क्यों चुने प्रतीक? क्योंकि जब तक हम घुले नहीं तब तक दो मालूम होते हैं। घुल गए तो दो भी नहीं रह जाते, एक भी नहीं रह जाता; अद्वैत हो जाता है। फिर लौट कर कहे कौन? बताए कौन? थोड़ी देर राह पर बैठे हुए, घाट पर बैठे हुए पंडित प्रतीक्षा करते हैं; फिर वे कहते हैं, ये भी गए, कोई लौट कर बताता नहीं; हम अपना शास्त्रार्थ फिर शुरू करें। वे फिर विचार में लीन हो जाते हैं।
निर्विचार में जाना जाता है। विचार में सिर्फ विवाद है। शून्य में पहचान है। शब्द में केवल सिर-फोड़ है। लेकिन जो शून्य में उतरता है, वह प्रेम को समाप्त नहीं कर पाता, स्वयं समाप्त हो जाता है। इसलिए..अकथ कहानी प्रेम की!
चौथा प्रश्नः इस प्रवचनमाला के प्रारंभ में आपने कहा, प्रेम और ध्यान दो मार्ग हैं। पर अकथ कहानी प्रेम की भांति अकथ कहानी ध्यान की क्यों नहीं कही जाती?
कहानी के लिए कम से कम दो की जरूरत है। तो प्रेम की तो कहानी हो सकती है, ध्यान की नहीं हो सकती। ध्यान तो एक का ही एक में प्रवेश है; कहानी के लायक जगह नहीं है। कम से कम कहानी के लिए दो तो चाहिए, तो कुछ कहानी बने। तीन हों तो और भी अच्छी बन जाती है, ट्राएंगल बन जाता है। और ज्यादा हों तो कहानी और बढ़ती चली जाती है।
ध्यान में तो अकेला एक ही व्यक्ति बचता है।
तुम थोड़ा ऐसा सोचो कि एक आदमी जन्मे और ध्यान में डूब जाए; सौ साल जीए और ध्यान में ही रहे..तुम उसकी कुछ कहानी कह सकोगे? उसके जीवन में कुछ घटा ही नहीं। न लड़ा, न झगड़ा, न अदालत गया, न प्रेम किया, न बच्चे पैदा किए, न इलेक्शन लड़ा, न नेता बना, न कुछ किया..कुछ भी नहीं किया। वस्तुतः तुम उस आदमी को पहचान ही न पाओगे कि वह कौन है, उसका नाम-धाम क्या है। क्योंकि ध्यानी का कोई नाम-धाम है, कोई पता-ठिकाना है? लोग उसे भूल ही जाएंगे कि वह है भी। किसी को उसका पता भी न रहेगा। वह कब आया और कब गया; लहर की तरह, हवा की लहर की तरह चला जाएगा। भीतर पीछे कोई रेखा भी न छूटेगी, कोई चरण-चिह्न भी न छूटेंगे..कहानी क्या होगी?
कहावत है फ्रांस में कि कहानी बुरे आदमी की होती है, अच्छे आदमी की नहीं। और यह बात सच है। अच्छे आदमी में कहानी ही क्या है न चोरी की, न जुआ खेले, न शराब पी, न हत्या की, न मारा, न मारे गए..अच्छे आदमी की कहानी क्या है? अच्छे आदमी की कहानी लिखने को कुछ नहीं, कागज कोरा है।
सूफियों की एक किताब है। उस किताब का नाम हैः दि बुक ऑफ दि बुक्स। उसमें कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। वह कोरी है। उस किताब की तो कहानी है, लेकिन किताब में कोई कहानी नहीं है। किताब किसने बनाई, किस सम्राट के महलों में रही, किन तिजोड़ियों में सम्हाली गई..इसकी तो कहानी है; लेकिन किताब के भीतर कोई कहानी नहीं है। किताब कोरी है, बिल्कुल खाली है।
वह अच्छे आदमी की, ध्यानस्थ आदमी की बात है।
प्रेम की कहानी हो सकती है। मीरा नाचेगी, रोएगी..विरह में, पीड़ा में, आनंद में; परमात्मा से निवेदन करेगी; कुछ कहेगी, कुछ सुनेगी; कुछ समझेगी, कुछ समझाएगी..खेल चलेगा, एक लीला होगी। बुद्ध के पास कोई भी खेल न होगा। किससे कहना है? न कोई परमात्मा है, न कोई भक्त है, न कोई भगवान है..एक ही बचा, मरुस्थल जैसा सन्नाटा है; कोई वृक्ष नहीं उगते; कोई फूल नहीं लगते; कोई पक्षी गीत नहीं गाते। मरुस्थल की क्या कहानी है? मरुस्थल कह दिया, कहानी पूरी हो गई।
ध्यानी की कोई कहानी नहीं है।
बहुत बड़ा झेन फकीर हुआ, रिंझाई। किसी ने पूछा कि मैं जरा जल्दी में हूं, एक शब्द में बता दो..क्या करने योग्य है? तो वह चुप बैठा रहा। उस आदमी ने कहाः जल्दी करो, चुप क्यों बैठे हो?
उसने कहाः कह दिया जो कहना था। क्योंकि जो कहना था, वह चुप्पी है। बोलने से खराब हो जाएगी। समझ गए तो समझ गए। नहीं समझे तो और कहीं समझ लेना।
उस आदमी ने कहा कि लुभाते हो तुम। तुम्हें देख कर रुकने का मन होता है, पर मैं जल्दी में हूं। और इतनी सी बात और अटकाएगी। मैं और चिंतित रहूंगा कि पता नहीं, क्या मतलब था! तुम संक्षिप्त में एक शब्द तो बोल दो।
तो रिंझाई ने कहाः ध्यान।
उस आदमी ने कहाः चलो कुछ तो तुम बोले; लेकिन इतने से कुछ बहुत साफ नहीं होता। ध्यान यानी क्या? रिंझाई ने कहाः ध्यान यानी ध्यान। उस आदमी ने कहाः अब और पहेलियां मत उलझाओ। पहेलियां मत बूझो। मुझे जाना है, जल्दी में हूं, और तुम उलझाए चले जा रहे हो? ध्यान यानी ध्यान..इसका क्या मतलब?
रिंझाई ने कहाः अब तुम इतना ही पूछो, ध्यान यानी ध्यान और ध्यान यानी ध्यान..ऐसे ही मैं दोहराता चला जाऊंगा; क्योंकि ध्यान यानी ध्यान, और कुछ है नहीं। अब करो और जानो।
अब अगर तुम रिंझाई के ऊपर कोई शास्त्र बनाना चाहो तो क्या बनाओगे? खाक? गीता लिखना चाहो रिंझाई के ऊपर, क्या लिखोगे? ध्यान यानी ध्यान गीता समाप्त। एक पोस्टकार्ड भी बहुत बड़ा हो जाएगा। और यह भी रिंझाई को पसंद न पड़ेगा इतना लिखना कि ध्यान यानी ध्यान; यह भी मजबूरी में, यह आदमी जिद्दी था इसलिए कहा। नहीं तो वे चुप ही थे। खाली पोस्टकार्ड भेज देते।
ध्यान की कोई कहानी नहीं है। प्रेम की कहानी है। और इसलिए तो मैं कहता हूं, प्रेम का एक रस है। ध्यान से तुम्हारा संबंध जरा मुश्किल है, क्योंकि कहानी में अभी तुम्हारा रस है। अभी तुम कहानी सुनना चाहोगेः न सही संसार की, परमात्मा की; न सही इस लोक की, उस लोक की। अभी तुम गीत गाना चाहोगेः न सही यहां के, वहां के। भगवद्गीता ही सही, पर गीत...। अभी तुम नृत्य देखना चाहोगेः न सही संसार का नृत्य, मीरा का।
तुम्हारे लिए प्रेम करीब होगा। उससे कुछ तुम्हारे तार जुड़ जाएंगे। प्रेम भी आखिर में ध्यान पर पहुंचा देता है, पर आखिर में। ध्यान तो सीधी छलांग है। प्रेम तो क्रमिक उपाय है। ध्यान छलांग है। ध्यान बड़ा दुस्साहस मांगता है..अंधेरे में कूद जाने का। प्रेम धीरे-धीरे फुसलाता है, आ जाओ। आश्वासन देता है, घबड़ाओ मत, साथ हूं मैं। प्रेम सुगम है। ध्यान दुर्गम है।
और ध्यान की कोई कहानी नहीं है..न अकथ और न कथ, कोई कहानी नहीं है।
पांचवां प्रश्नः आपने कहा, प्रेम पद-यात्रा है; और ध्यान, जैसे वायुयान की यात्रा। फिर सभी सयाने और आप भी प्रेम पर ही जोर देते हैं। क्या सभी सयाने लंबी यात्रा के पक्ष में थे?
न मेरा बस चले तो मैं तो यात्रा के बिल्कुल पक्ष में नहीं हूं। मैं तुमसे यही कहता हूं कि यात्रा करनी ही नहीं, तुम वहीं हो; पर तुम नहीं सुनते। तुम कहते हो कि ठीक है, पर थोड़ा कुछ तो बताएं..कैसे चलें? कुछ आलंबन चाहिए। कोई सहारा चाहिए। ऐसा एकदम से पहुंचा देने में तो जंचती नहीं बात।
तुम भरोसा ही नहीं करते कि तुम, और इसी वक्त परमात्मा हो सकते हो। तुमने अपनी इतनी निंदा की है इतने कालों तक; तुमने अपने आप का इतना अपमान किया है इतने अनंत जन्मों में! तुम महानिंदक हो अपने। तुमने कभी अपने को स्वीकार नहीं किया। तुम सदा अपने को अच्छा बनाने की चेष्टा में रहे हो, और जाना तुमने सदा है कि तुम बुरे हो। जाना तुमने कि तुम पापी हो, और पुण्यात्मा होने की तुमने कोशिश की है। मैं आज अचानक तुमसे कहता हूं कि तुम पापी नहीं हो। तुम चाहो तो भी पापी नहीं हो सकते हो। पाप तुम्हारा भ्रम है और पुण्य तुम्हारा स्वभाव है। तुम सुन लेते हो लेकिन बात जंचती नहीं। तुम्हारी आदत के विपरीत है। तुम सब सुन-सुना कर फिर कहते होः ठीक कहते हैं आप, कुछ आत्म-सुधार का मार्ग बताइए।
मेरे पास रोज लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं, कुछ करना नहीं है; तुम जैसे हो, परम सुंदर हो। वे इधर-उधर देखते हैं। वे कहते हैंः मान नहीं सकते। चाहे मेरी बात सुन कर चुप भला हो जाएं, लेकिन राजी थोड़े होते हैं। कैसे मान सकते हैं कि मैं जैसा हूं, परम सुंदर हूं? मैंने अपनी शक्ल देखी है आईने में। मैंने अपना व्यवहार देखा है।
और पंडितों ने तुम्हें इतना ज्यादा निंदित किया है कि उनके शब्द तुम्हारे भीतर गूंजते रहते हैं कि तुम पापी, महापापी। तुम और परमात्मा? परमात्मा बहुत दूर है। हजारों साल की यात्रा है, तब तुम पहुंच पाओगे। इंच-इंच बदलना है। तपश्चर्या करनी है।
मैं तुमसे कहता हूं कि तुम अभी वही हो, इसी क्षण। एक क्षण भी खोने की जरूरत नहीं है।
लेकिन उससे तुम राजी नहीं होते। वह ध्यान का मार्ग है। वह तत्क्षण जगा देता है। पर वह इतनी जल्दी होती है उसमें कि तुम भरोसा ही नहीं करते कि इतनी जल्दी हो सकती है। तुमने तो धीरे-धीरे करके भी नहीं पाया, इतनी जल्दी कैसे पाओगे? तुम तो जन्म-जन्म चल कर भी नहीं पहुंचे हो; और मैं कहता हूं, बिना चले पहुंच जाओगे..तुम्हारे तर्क को बात जमती नहीं, तुम्हारे गणित में बैठती नहीं। तुम कहते होः हो गया होगा तुम्हें, कोई प्रभु-कृपा से, किन्हीं पुण्य फलों से; या किसी पीछे की द्वार से तुम प्रविष्ट हो गए होओगे; यह अपने लिए नहीं है।
तुम बुद्ध को कहते होः तुम अवतार हो, तुम्हारी बात और; हम साधारण-जन हैं।
कृष्ण को तुम कहते होः तुम तो उसी के रूप हो; तुम्हें हो गया होगा। तुम परमात्मा से जरा करीब से नाते-रिश्ते में बंधे हो, सगे-संबंधी हो, भाई-भतीजा हो..तुम्हें हो गया होगा।
जीसस को तुम कहते होः तुम उसके इकलौते बेटे हो; लेकिन हम पापी हैं। हमें होना तो चाहिए नरक में; हम यहां पृथ्वी पर कैसे हैं, इस पर ही भरोसा नहीं आता। और तुम कहते हो कि तुम स्वर्ग में इसी क्षण प्रवेश के अधिकारी हो!
यह तुम्हारा मन हिम्मत नहीं कर पाता। तुम डरते हो। तुम भयभीत हो। इससे अड़चन है। मैं तो चाहूं कि तुम अभी बिना चले पहुंच जाओ। और मैं तुमसे कहता हूं, तुम पहुंचे ही हुए हो..इस बात का होश भर चाहिए। तुम वहीं सो रहे हो जहां परमात्मा है; सिर्फ आंख खोलनी है और उठ कर बैठ जाना है। जरा चाय पीओ और चारों तरफ देखो आंख खोल कर। थोड़ा मुंह धो डालो। एक क्षण को भी तुम और कहीं गए नहीं। वह जो तुमने पाप किए, पुण्य किए..सब सपना था। वह जो तुम बहुत बार जनमे और मरे..सब सपना था। तुम कहीं मर सकते हो? तुम कहीं जन्म सकते हो? तुम्हारा न कोई जन्म है, न मृत्यु है। तुम शाश्वत हो।
पर यह बात तो तुम्हें जमेगी नहीं। तुम कहोगे, होगी कभी जन्मों-जन्मों के बाद हमें भी होगी, तब शायद समझ में आएगी।
इसलिए सयानों की भी मजबूरी है। वे तुमसे कहते हैं ठीक है, तुम्हें लंबा रास्ता चाहिए, लंबा रास्ता बताते हैं। लंबे रास्ते पर तुम्हें आसानी मालूम पड़ती है। तुम कहते होः यह हम सम्हाल लेंगे। एक-एक सीढ़ी चलना है। इतनी ही हमारी पैर में सामथ्र्य है, हम धीरे-धीरे चल लेंगे।
ज्ञानी तो यही चाहेंगे कि तुम अभी हो जाओ वहीं। तुम राजी नहीं हो। तो फिर क्या किया जाए? तो थोड़ा चक्कर लगा कर आओ।
प्रेम थोड़ा लंबा मार्ग है; परमात्मा से होकर अपने पर ही लौटता है, जाता कहीं नहीं। अपना ही कान पकड़ना है; हाथ घुमा कर पकड़ना है; सिर के पीछे से पकड़ना है।
ध्यान सीधा है, एकदम सीधा है, इतना सीधा है कि क्षण भर की भी स्थगन की कोई जरूरत नहीं। इसलिए प्रेम...!
और प्रेम के और भी कारण हैं। तुम्हारी तैयारी उसके लिए आसानी से हो सकेगी।
अगर अपनी तरफ देखूं तो लगता है, क्यों व्यर्थ तुम्हारा समय खराब हो; ध्यान! तुम्हारी तरफ देखूं तो सोचता हूं, ध्यान को समझाऊंगा, तो मेरा समय व्यर्थ होगा। प्रेम..अब तुम समझ सकते हो। अगर मेरी सुनो तो ध्यान; अगर तुम्हारी तरफ देखता हूं तो मुझे भी लगता है..प्रेम। ध्यान तुम्हारी पकड़ में न आएगा। ध्यान आखिर में घटेगा तुम्हें। तब तुम भी हंसोगे कि अच्छा पागलपन हुआ; यह तो बिना चले भी पहुंच जाते। लेकिन बिना चले तुम्हें यह समझ नहीं आती। तुम्हें थोड़ा दौड़ना पड़ेगा। तुम्हें थोड़ा भटकना पड़ेगा। तुम्हें जरा दूसरे दरवाजों पर भी दस्तक देनी पड़ेगी, तभी तुम अपने घर पहुंचोगे। तुम्हें थोड़ा परदेश में घूमना पड़ेगा, तभी तुम अपने देश को पहचान पाओगे।
जो जगत के बड़े प्रसिद्ध यात्री हुए हैं, उन सबका यह कहना है कि जब तक कोई व्यक्ति दूसरे देशों में नहीं भटकता, तब तक अपने देश का सुख और शांति अनुभव नहीं होती। जब तुम दूसरे देशों में भटक लेते हो और लौट कर थके-मांदे घर आते हो, तब अपना झोपड़ा भी महल जैसा मालूम पड़ता है, रूखी-सूखी रोटी भी बड़ी सुखद मालूम पड़ती है।
वह जो लंबी यात्रा है वह तुम्हें इतना दिखा देती है कि अपने अपने घर से ज्यादा विश्राम कहीं भी नहीं है। पराए महल भी पराए महल हैं। बड़ी राजधानियां भी सिर्फ शोरगुल, उपद्रव हैं। शांति तो अपने घर में है। जहां अपनेपन का चारों तरफ फैलाव है वहीं विश्राम है।
लेकिन यह जानने के लिए भटकना जरूरी है। यह तुम अपने घर में बैठे-बैठे न जान सकोगे। घर में बैठे-बैठे तो बड़ी बेचैनी होती है कि जीवन व्यर्थ जा रहा है, यहीं बैठे हैं, ऊब रहे हैं, परेशान हो रहे हैं। सारी दुनिया मजे कर रही है, लोग जा रहे हैं..कोई कहीं, कोई कहीं; कोई हिमालय जा रहा है, कोई स्विटजरलैंड जा रहा है, कोई चीन जा रहा है। सारी दुनिया यात्रा कर रही है; हम ही यहां बैठे हैं..दीन-हीन, इसी घर से बंधे, यही खंभे में जिंदा रहे, इसी में मर जाएंगे!
तब तुम्हें बड़ी बेचैनी लगती है।
भटकना जरूरी है घर पहुंचने के लिए। प्रेम जरूरी है ध्यान तक आने के लिए। और प्रेम की भाषा तुम्हारी समझ में आ जाती है, क्योंकि तुम्हारे संसार की भाषा से थोड़ीशृंखला है।
तुमने पत्नी को प्रेम किया है। न किया होगा बहुत गहरा, फिर भी किया है। न पाई होगी पूरी-पूरी एकात्मता, फिर भी किन्हीं क्षणों में, कभी-कभी, क्षण भर को ही सही, दोनों हृदय एक साथ धड़के हैं, दोनों श्वास एक साथ चली हैं। क्षण भर को आभास ही सही, हुआ हो, एक होने का आभास हुआ है। उसकी भाषा तुम्हें समझ में आती है।
तुमने अपने बच्चे को प्रेम किया है। उसकी आंखों में झांका है। तुमने अपने मित्र को प्रेम किया। कभी किसी जोश के क्षण में तुम अपने मित्र के लिए मरने को भी राजी हो गए हो। मरे नहीं, समझ आ गई, सोच-विचार आ गया, हिसाब लगा लिया! बाकी कभी किसी क्षण में, जोश और उत्साह में, तुमने मरने की भी हिम्मत, कम से कम कल्पना तो की है। उससे तुम्हें थोड़ा प्रेम की भाषा समझ में आ जाती है।
कबीर, नानक, फरीद, मीरा, चैतन्य तुम्हारे पास खड़े मालूम पड़ते हैं। बुद्ध और तुम्हारे बीच अनंत आकाश का फासला लगता है। वे किसी और लोक की भाषा बोल रहे हैं, जिसका अनुवाद भी मुश्किल है, जो तुम तक आते-आते, आते-आते विकृत ही हो जाता है, तुम जब तक समझो, समझो तब तक बात ही बिगड़ जाती है। जो बुद्ध कहते हैं, वह सुनने में नहीं आता; जो तुम सुनते हो, वह बुद्ध ने कहा नहीं है।
प्रेम संसार को स्वीकार करके, संसार की भाषा को स्वीकार करके धीरे-धीरे परिशुद्धि की तरफ ले जाता है। सीढ़ी-सीढ़ी वह यात्रा है। ध्यान छलांग है..आकस्मिक; एक क्षण में क्षणातीत।
सयाने तुम्हारी तरफ देखते हैं तो कहते हैं..प्रेम; अपनी तरफ देखते है तो कहते हैं..ध्यान। अगर तुम सयानों की मानो तो ध्यान; अगर तुम न मान सको तो समझौता है..प्रेम। उससे चलो। तुम्हारे लिए सुलभ होगा प्रेम। और कुछ जल्दी भी ऐसी नहीं है कि अभी हो ही जाए; कल भी हुआ तो क्या हर्ज है! इस अनंतकाल में दिन दो दिन की देरी-अबेर का कोई अंतर नहीं है।
छठवां प्रश्नः आपको इतना सुनने के बावजूद नकली प्रेम का गोरखधंधा ठप्प क्यों नहीं होता है?
अभी सुना नहीं। अभी सुनने की सिर्फ शुरुआत है। कानों ने सुना होगा, तुमने नहीं सुना। कान के सुन लेने से क्या होगा? कान की कोई समस्या थोड़े है। कान की समस्या होती, हल हो जाती। समस्या हृदय की है; हृदय सुनेगा तभी हल होगी।
इतना सुनने का तो सवाल ही नहीं है। एक शब्द भी तुमने सुन लिया होता, एक इशारा भी सुन लिया होता, तो भी बात हो गई होती! क्योंकि मैं वही कह रहा हूं बहुत-बहुत रूपों में। मैं कोई वीणा नहीं बजा रहा हूं; एकतारा है; एक ही तार है, उसी को छेड़े चला जा रहा हूं। थोड़े ढंग बदलता हूं कि तुम ऊब न जाओ, कहीं तुम्हारा रस ही न खो जाए। अन्यथा मुझे जो बजाना है, जो गाना है, वह तो एक ही बात है। ध्यान यानी ध्यान। प्रेम यानी प्रेम। बहुत रूपों में उसकी प्रतिमा तुम्हारे लिए सजाता हूं कि किसी दिन शायद तुम सुन लोगे, किसी दिन जागोगे और देख लोगे; किसी सौभाग्य के क्षण में मेरा और तुम्हारा शायद मिलन हो जाए।
पर ऐसा मत सोचो कि आपको इतना सुनने के बावजूद...। अभी सुना ही नहीं है क्योंकि सुनते ही घटना हो जाएगी।
यह तो ऐसा ही हुआ कि तुम कहो, आग में इतना हाथ डालने के बावजूद मैं जलती क्यों नहीं, जलता क्यों नहीं। तो डाला ही न होगा हाथ। हाथ डाल दो तो फिर जलोगे नहीं? जलोगे ही। कोई उपाय नहीं है बचने का। हाथ न डाला होगा। दूर ही दूर हाथ को रखा होगा। या सपने में किसी आग में हाथ डाला होगा कि सुबह जाग कर पाया जाता है कि नहीं, हाथ जला नहीं। या तो आग झूठी रही होगी या हाथ डाला ही न होगा।
ये ही दो संभावनाएं हैं। या तो मैं जो कहता हूं, वह आग ही न होगी, तो तुम्हारा हाथ नहीं जलता। या फिर तुमने हाथ ही न डाला होगा। और मैं तुमसे कहता हूं, आग झूठी नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें मैं जल गया। कोई कारण नहीं है कि तुम क्यों न जल जाओ।
तुम दूर-दूर से, खेल में लगे हो। सुनते तुम हो; सुनते कहां हां? सुनते मालूम पड़ते हो; सुनते कहां हो? सुनते हो, ऐसा मान लेते हो; सुनते कहां हो?
सातवां प्रश्नः दर्शन के लिए जाते हुए तैंतीस नंबर के फाटक पर से ही मुझे कंपकंपी होने लगती है, जब कि कुछ और मित्र डट कर जाते हैं, और बातचीत करते हैं। सिर्फ मुझे ही ऐसा भय क्यों होता है?
वे जो डट कर बातचीत करते हैं, वे भी भयभीत हैं।
भय के दो रूप हैं। या तो कंपकंपी लगती है या आदमी डट कर खड़ा हो जाता है। वे दोनों ही भय के रूप हैं।
कायरता और बहादुरी भय के दो सिक्के हैं; उनमें कोई फर्क नहीं है बड़ा। बहादुर से बहादुर भी भीतर कायर होता है और कायर से कायर भी भीतर बहादुर होता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
सामान्य, स्वाभाविक जो बात है..वह न तो कंपकंपी लगती है और न डट कर तुम खड़े होते हो। डट कर किसके खिलाफ खड़े होना है? डट कर अपनी ही कंपकंपी के खिलाफ खड़े हो रहे हो। भय क्या है? डटना किसके खिलाफ है? भय यह है कि तुम मेरे सामने आओगे तो तुमने अपनी जो प्रतिमा बना रखी है, वह खंडित होगी। मेरा दर्पण तुम्हारी असलियत तुम्हें दिखाएगा। इससे तुम भयभीत हो।
यह एक ढंग है।
दूसरे हैं जो अकड़ कर आ जाते हैं दर्पण के सामने, खड़े हो जाते हैं कि अकड़े रहेंगे, जरा भी शिथिल न होंगे, दर्पण को मौका ही न देंगे कि वह असलियत बता दे। हमारा अकड़ापन ही दर्पण में झलकेगा; हमारी असलियत न दिखाई पड़ेगी।
दोनों तरह के लोगों को मैं जानता हूं। कुछ हैं जो आकर बहुत बातचीत करने लगते हैं, वे इतनी बातचीत करने लगते हैं कि मैं देखता हूं कि बातचीत कर-कर के वे मुझे टाल रहे हैं। वे मुझे सुनने को नहीं आए हैं। वे घबड़ाए हैं कि वे अगर चुप हुए और मैं कुछ बोला तो मुसीबत होगी। तो वे कहे ही चले जाते हैं। वे मेरी तरफ देखते तक नहीं। वे नीचे देखते हैं। वे कहे चले जाते हैं। न मालूम, जरूरी, गैर-जरूरी बातें बड़ी लंबी करके कहते हैं, जिनका कोई सार नहीं है, जिनको मेरे पास लाने का कोई प्रयोजन नहीं है। वे अपने चारों तरफ एक सुरक्षा का उपाय करते हैं शब्दों को खड़ा करके, कि मेरा कोई शब्द उनके भीतर प्रविष्ट न हो जाए। वे तुम्हें लगेंगे कि बिल्कुल डट कर बात कर रहे हैं।
दूसरे हैं तो कंपते हैं, डरते हैं। वे बोल ही नहीं पाते। उनसे मैं पूछता हूंः कैसे आए, क्या कहना है, क्या है मन की पीड़ा? वे कहते हैं, कुछ भी कहना नहीं है। वे भी कंप रहे हैं। दोनों ही डरे हुए हैं। एक तीसरा सामान्य, सरल, स्वाभाविक व्यक्तित्व है, संतुलित..तो कहना है कह देता है; जो सुनना है सुन लेता है; जो देखना है देख लेता है; जो सच्चाई है उसे पकड़ने की कोशिश करता है।
न, तुमसे मैं नहीं कहता कि तुम डट कर आने लगो। अगर कंपकंपी आती है, वह भी गलत है। डट कर आए वह भी गलत। डट कर आने का मतलब है कि कंपकंपी न आने देंगे, अकड़े रहेंगे। दोनों ही गलत हैं।
संतुलन चाहिए।
मुझसे भय क्या है? मैं तुमसे छीन क्या लूंगा? तुम्हारे पास है क्या जिसे मैं छीन लूंगा। तुम मेरे पास से कुछ लेकर ही जा सकते हो; देने को तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुमसे मैं छीनूंगा क्या? ज्यादा से ज्यादा तुम्हारा भिखमंगापन छीन सकता हूं। तुमसे मैं छुड़ा क्या लूंगा? तुम्हारे पास काश कुछ होता! कुछ भी नहीं है।
तुम्हारी दशा वैसी है जैसे भिखारी रात भर जाग कर बैठा रहता है कि कोई चोरी न कर ले। कुछ है ही नहीं; एक भिक्षापात्र है।
या मैंने सुना है..तुमने भी कहावत सुनी होगी..कि नंगा नहाता नहीं है, क्योंकि डरता है, फिर निचोड़ेगा कहां? कपड़े कहां सुखाएगा? कपड़े हैं ही नहीं। स्नान नहीं करता।
तुम्हारे पास है क्या? तुम भयभीत क्यों हो? तुम अगर गौर से देखो कि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, सारा भय चला गया। भय तो खोने का भय है। लेकिन तुमने कुछ मान रखा है कि तुम कुछ हो, इसलिए भय है। उस मान्यता को गौर से देखो। क्या हो तुम? तुम्हारे देखने में ही तुम्हारी मान्यता तिरोभूत हो जाएगी। तब तुम सहज भाव से मेरे पास आ सकोगे।
न तो डट कर आओ। क्योंकि डट कर तुम क्या करोगे? क्या फायदा है? अगर तुम मुझ से लड़ रहे हो, अपना समय खो रहे हो। उसी समय में तुम जाग सकते थे; वह तुमने लड़ने में गवांया। अगर तुम भयभीत हो रहे हो तो अपनी सुरक्षा में लगे हो, वह भी तुमने व्यर्थ गंवाया।
थोड़ी देर मैं तुम्हारे साथ हूं, उसका तुम उपयोग कर लो। पीछे पछतावा बहुत होगा। पर पीछे पछताने से कुछ भी नहीं होता। पाछे पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत!
मैं सदा तुम्हारे पास नहीं रहूंगा; तुम सदा तुम्हारे पास रहोगे। फिर पीछे घबड़ा लेना, डट लेना, अकड़ लेना, कंपकंपी कर लेना, जो करना हो, कर लेना। थोड़ी देर मैं तुम्हारे पास हूं, उसका उपयोग कर लो। यह दर्पण फूट जाएगा; फिर तुम अपना चेहरा इसमें न देख सकोगे। हालांकि मैं जानता हूं, फिर तुम फूटे दर्पण की चैखट को रखे पूजा करोगे। उसमें कुछ भी दिखाई न पड़ेगा। लेकिन तब तुम बिल्कुल निशिं्चत आओगे।
मैंने देखा है लोगों को मंदिर में जिस निशिं्चत भाव से जाते हैं, उस निशिं्चत भाव से उनको बुद्ध के पास जाते नहीं देखा है। मंदिर की प्रतिमा से डर क्या है? न कंपकंपी लगती, न डट कर जाते। मंदिर की प्रतिमा है ही नहीं; चैखट बची है, दर्पण तो कभी का जा चुका।
इसके पहले कि वैसी घड़ी आए, उपयोग कर लो। अपने को देखने का मौका मिला है, उसे खोओ मत..न घबड़ाने में, न अकड़ने में। सरल सामान्य बनो। सहज बनो।
आठवां प्रश्नः आपने पूर्व में कहा है, जीवन प्रयोजन-रहित है। फिर खाली हाथ जाएं या भरे हाथ, इससे क्या फर्क पड़ता है।
यही समझ में आ जाए तो हाथ भर गए। यही समझ में आ जाए कि खाली हाथ जाएं कि भरे हाथ, कोई फर्क नहीं पड़ता..हाथ भर गए। इसको ही मैं हाथ भरना कहता हूं। यही समझ में न आए और चेष्टा चलती रहे कि हाथ भरे जाऊंगाः तुम हाथ खाली जाओगे। सफलता और असफलता समान दिखाई पड़ने लगेः तुम सफल हो गए; सफल ही नहीं, सुफल भी हो गए। जीत और हार बराबर हो जाएः जीत गए तुम। अब तुम्हें कोई न हरा सकेगा। यही जीत है।
प्रयोजन, निष्प्रयोजन तराजू पर समान तुल जाएंः तुमने जीवन का अर्थ पा लिया, प्रयोजन पा लिया। कुछ और ज्यादा पाने को नहीं है। लेकिन इससे ज्यादा और पाने को हो भी क्या सकता है? इस घड़ी में ही तो तुम्हारे जीवन का कमल खिल जाता है..जब न कोई प्रयोजन है, न कोई प्रयोजन नहीं है, न कोई सार है, न कुछ असार है। जीवन को तुमने बिना द्वंद्व के स्वीकार कर लिया। हार न जीत, सफलता न असफलता, अंधेरा न प्रकाश, जीवन न मृत्यु..तुमने द्वंद्व छोड़ दिया; जीवन को तुमने जैसा है, स्वीकार कर लिया, अनन्य भाव से! वहीं तुम्हारे जीवन का कमल खिल जाता है। हाथ तुम्हारे भर गए। दुनिया तुम्हारे हाथ भला खाली देखे, दुनिया से क्या लेना-देना है? तुम जानोगे कि तुम्हारे हाथ भरे हैं। तुम नाचते जाओगे। तुम रोते न जाओगे। तुम्हारे आंसू भी गिरेंगे, तो उन आंसुओं में गीत होंगे। आनंद का अहोभाव होगा। तुम मरोगे भी, तो तुम एक सुगंध छोड़ जाओगे; जैसा फूल गिर जाता है भूमि में और सुगंध आकाश में उड़ जाती है। तुम्हारी मृत्यु भी एक परम उत्सव का क्षण होगी। हाथ भर गए!
यही मेरा अर्थ है।
आखिरी प्रश्नः क्या बताने की कृपा करेंगे किः
एकः ‘राजनीति के आप इतने विपक्ष में क्यों हैं? ’
जहर के मैं विपक्ष में क्यों हूं..ऐसा क्यों नहीं पूछते?
राजनीति जहर है। उससे जीवन का कोई लेना-देना नहीं। वह मरघट है। राजनीति का अर्थ क्या है?
राजनीति का अर्थ है दूसरे पर काबू पाने की चेष्टा। राजनीति का अर्थ है दूसरे के मालिक हो जाने का ख्वाब। और जब भी कोई व्यक्ति दूसरे का मालिक होना चाहता है, तभी वह परमात्मा-विरोधी है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर परमात्मा है। उतना ही परमात्मा है जितना तुम्हारे भीतर। तुम हो कौन किसी और के मालिक हो जाने वाले? तुम अपने मालिक हो जाओ..इतना काफी है।
राजनीति का अर्थ है दूसरे पर मालकियत। धर्म का अर्थ है अपने पर मालकियत। मैं राजनीति के विपक्ष में नहीं हूं; धर्म के पक्ष में हूं। धर्म के पक्ष में होने के कारण अनिवार्यतः राजनीति का विपक्ष पैदा हो जाता है। उससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। राजनीति इतनी व्यर्थ है कि विपक्ष में होने तक की मुझे सुविधा नहीं है। कंकड़-पत्थरों के खिलाफ क्या बोलना! हीरे जवाहरातों के पक्ष में बोलता हूं। और अगर कभी कंकड़-पत्थरों के खिलाफ बोलना पड़ता है तो इसलिए कि तुमने कंकड़-पत्थरों को हीरे समझ रखा है।
जब मैं राजनीति के विरोध में बोलता हूं, तो राजनीतिज्ञों के विरोध में नहीं बोल रहा हूं। वे दया के पात्र हैं। उनके विरोध में क्या बोलना? वे वैसे ही दुख के मारे हैं। उनके खिलाफ क्या बोलना है?
जब मैं राजनीतिज्ञों के खिलाफ बोलता हूं तो मैं तुम्हारे भीतर छिपे राजनीतिज्ञ के खिलाफ बोल रहा हूं। मुझे तुमसे प्रयोजन है।
हर व्यक्ति के भीतर राजनीतिज्ञ छिपा है..छोटा हो, बड़ा हो। सिकंदर छोटे हों, बड़े हों, इससे क्या फर्क पड़ता है। जहर तुम बालटी भर कर पी जाओ कि चुल्लू भर पीओ..इससे क्या फर्क पड़ता है? जहर मारेगा।
तुमने कभी ख्याल किया? तुम पति होः पत्नी से तुम्हारा संबंध धर्म का है या राजनीति का? तुम पाओगे कि सौ में निन्यानबे मौके पर संबंध राजनीति का है, धर्म का नहीं। तुम कहोगे के पति और पत्नी के बीच क्या राजनीति का सवाल? है। तुम्हारे बच्चे से तुम्हारा संबंध धर्म का है या राजनीति का? तुम बाप की अकड़ से बोलते हो या परमात्मा की सृजन की प्रक्रिया में एक विनम्र भागीदार हुए, इस तरह बोलते हो बेटे से? तुम बेटे की तरफ इस तरह देखते हो कि परमात्मा तुम्हारे माध्यम से संसार में आया, या तुम इस भांति देखते हो कि तुझे मैंने पैदा किया है..जो मैं कहूं वह कर; मैं जानता हूं तू अज्ञानी है! तुम बेटे को नियंत्रित करने की कोशिश करते हो या सहारा देते हो? तुम बेटे को सदा के लिए बांध लेना चाहते हो, पंगु बनाना चाहते हो, या चाहते हो, उसे मुक्त आकाश मिले? ..चाहे वह मुक्त आकाश कभी तुम्हारे विपरीत ही क्यों न पड़े।
तुम पत्नी को प्रेम किए हो या प्रेम केवल फांसी लगाने का उपाय है? या प्रेम केवल बहाना है, राजनीतिक चाल है?
जब मैं राजनीतिज्ञ के खिलाफ बोलता हूं तो दिल्ली में बैठे राजनीतिज्ञों से मुझे क्या लेना-देना है? मैं तुम्हारे भीतर बैठे राजनीतिज्ञ के खिलाफ बोल रहा हूं। उतना ही तुम ध्यान से समझना। और वह भी इसलिए बोल रहा हूं उसके खिलाफ कि अगर तुम उसमें उलझे रहे हो तो कभी धार्मिक न हो सकोगे।
धर्म का अर्थ है अपना मालिक होना। धर्म का अर्थ है न तो किसी को अपना मालिक होने देना और न किसी के मालिक होने की चेष्टा करना। धर्म परम स्वतंत्रता की चेष्टा है। और राजनीति? ..दूसरे को परतंत्र करने का उपाय है। जितने ज्यादा लोग तुम्हारे परतंत्र हो जाएं, राजनीतिक मन उतना ज्यादा प्रसन्न होता है। अगर तुम महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हो तो महाराष्ट्र के ऊपर तुम्हारा कब्जा है। अगर तुम भारत के प्रधानमंत्री हो जाओ तो कब्जा और बड़ा हो गया।
आदमी कब्जे की कोशिश में लगा हैः कब्जा बढ़ता जाए। करोड़ों-करोड़ों लोग मुट्ठी में हो जाएं! यह बहुत पीड़ित आदमी की मनोदशा है। यह विक्षिप्त चित्त की दशा है। इसको मैं पागलपन कहता हूं।
तुम अपनी ही मुट्ठी में नहीं हो, तुम किसको मुट्ठी में करने चले हो? सच तो यह है कि तुम जितना ही अपने को कम मुट्ठी में पाते हो उतनी ही कमी-पूर्ति करते हो दूसरे लोगों को मुट्ठी में करके। इससे एक वहम पैदा होता है कि हम शक्तिशाली हैं।
एक ही शक्ति है, और वह स्वयं के मालिक हो जाने की है; बाकी सब अशक्ति को छिपाने के उपाय हैं।
तुम पूछते हो, राजनीति के मैं इमना विपक्ष में क्यों हूं? विपक्ष में राजनीति के नहीं हूं; धर्म के पक्ष में हूं।
दूसराः ‘क्या आप अराजकवादी हैं, अनारकिस्ट हैं? ’
वादी मैं बिल्कुल नहीं हूं। किसी वाद में मेरी उत्सुकता नहीं है, अराजकवाद में भी नहीं।
लेकिन, इतना जरूर मैं जानता हूं कि दुनिया में राज्य जितना कम हो उतना अच्छा होगा। राज्य बिल्कुल मिट जाएगा..ऐसा मैं नहीं सोचता। बिल्कुल मिटना असंभव है। क्योंकि जहां एक से ज्यादा लोग हैं, वहां उनके संबंधों को तय करने के लिए कोई माध्यम चाहिए होगा, व्यवस्था चाहिए होगी।
तो मैं कोई क्रोपाटकिन जैसा अराजकवादी नहीं हूं। मेरी कोई मान्यता नहीं है कि राज्य मिट जाना चाहिए। मेरी इतनी ही दृष्टि है कि राज्य कम से कम होना चाहिए। राज्य ऐसे होने चाहिए जैसे पोस्ट आफिस है, रेलवे है। जरूरत है, रेलवे की व्यवस्था करनी पड़ेगी। अगर रेलवे की कोई व्यवस्था न हो तो असंभव है कि बंबई से पूना ट्रेन कैसे आएगी, कि चिट्ठी तुमने जो डाली पोस्ट आफिस में, वह पहुंचेगी कहीं कि नहीं पहुंचेगी। व्यवस्था करनी चाहिए।
राज्य व्यवस्थापक होना चाहिए, नियंत्रक नहीं। राज्य का उपाय..उपयोगिता व्यवस्था-आधारित होनी चाहिए। लोगों के जीवन में कितनी सुविधा आ सके, उसके लिए राज्य को फिकर करनी चाहिए। और राज्य को बाधा नहीं देनी चाहिए लोगों के जीवन में। बाधा तभी देनी चाहिए जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे के जीवन में बाधा दे रहा हो, अन्यथा नहीं।
मेरी राज्य की धारणा का अर्थ ही यह है कि राज्य बड़ा गौण होना चाहिए। जैसे कि तुम्हारे घर में रसोइया है, तो रसोइए की तुम पूजा करते हो कि फूलमाला पहनाते हो? अच्छा खाना बनाता है तो तुम उसकी प्रशंसा करते हो; बुरा खाना बनाता है तो तुम कहते हो यह गलत है तेरा काम, ठीक सुधार कर। तुम्हारे खाद्यमंत्री की हैसियत भी राष्ट्र के रसोइए से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। इससे ज्यादा क्या प्रयोजन है? बड़े रसोइया हो...।
तुमने घर पर एक पहरेदार लगा रखा है, तो उसका काम है, वह उतना काम करता है। राज्य की व्यवस्था पहरेदारी की होनी चाहिए। लेकिन राजनेताओं को सिर पर उठा कर चलने का कोई कारण नहीं है। पागलपन है।
राजनीति इतनी प्रमुख नहीं होनी चाहिए। जीवन में बड़ी बहुमूल्य चीजें हैं जो प्रमुख होनी चाहिए। राजनेता को सिर पर लेकर तुम चलोगे, उससे राजनेता तो ऊंचा नहीं होता, तुम नीचे होओगे। राजनेता के तो ऊंचे होने का कोई उपाय नहीं है। वह तो खुद पागल है। और जो उसकी अरथी को ढो रहे हैं, वे भी पागल हैं। लेकिन अगर तुम किसी फकीर को कंधे पर उठा कर चले तो तुम ऊंचे हो जाओगे। उससे फकीर ऊंचा नहीं होगा, वह ऊंचा है ही। लेकिन तुम ऊंचे हो जाओगे। वे चरण तुम्हारे लिए पारस सिद्ध होंगे; तुम लोहे से सोना हो जाओगे।
तुमने अगर संगीत को ऊपर उठाया तो तुम्हारे हृदय में ऊंचाइयों की लहरें उठेंगी। तुमने अगर राजनीति को ऊपर उठाया तो तुम गंदे हो जाओगे। तुमने अगर गीतकार को ऊपर उठाया, संगीतज्ञ को ऊपर उठाया, कवि को ऊपर उठाया, चित्रकार को पूजा..तो तुम्हारे जीवन में सुगंध के हजार-हजार रास्ते खुल जाएंगे; तुम्हारे जीवन में एक सजावट आ जाएगी। तुमने अगर राजनेता को ऊपर उठाया तो सिवाय युद्ध, हिंसा, इसके अतिरिक्त तुम कुछ भी न पाओगे।
पूरी मनुष्य-जाति का इतिहास हिंसा और युद्धों का इतिहास है। वह राजनेता को सिर पर लेकर चलने के कारण है। मैं अराजकवादी नहीं हूं। लेकिन राज्य जरूरत से ज्यादा अधिकारी हो गया है; उतने अधिकार की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति परम मूल्य है। राज्य व्यक्ति का सेवक है, मालिक नहीं। बस सेवक की हैसियत से काम करे, ठीक है। उससे ज्यादा उसका मूल्य नहीं होना चाहिए।
अखबार राजनीति से ही नहीं भरे होने चाहिए। आखिरी पन्ने पर उनकी जगह होनी चाहिए। मगर वे पहले पन्ने को घेरे हुए हैं। सारी सुर्खियां अखबार की राजनीतिज्ञों के नाम से घिरी हैं। इससे अगर जीवन विकृत हो, विध्वंस की तरफ उन्मुख हो, तो स्वाभाविक है।
अखबार की सुर्खियां तो किन्हीं और सुंदर चीजों से भरनी चाहिए। थोड़ा सौंदर्य का बोध होना चाहिए। राजनीतिक नेताओं के चित्रों की बजाय तो किसी के बगीचे में गुलाब के अच्छे फूल खिले हों, उनके चित्र भी ज्यादा उपयोगी होंगे। किसी के बगीचे में हरियाली हो, उसके चित्र ज्यादा उपयोगी होंगे। किसी ने मधुर गीत गाया हो, उसके मधुर गीत की मधुरिमा काम की होगी।
राजनीतिज्ञों की बकवास, एक-दूसरे के प्रति गाली-गलौज, छीछालेदर, कीचड़ का फेंकना..वही तुम्हारा भोजन हो गया है। सुबह उठ कर तुम गीता नहीं पढ़ते, कुरान नहीं पढ़ते; अखबार पढ़ते हो। अभागे दिन हैं। इससे तो अच्छा था, तुम कुरान ही पढ़ते, गीता ही पढ़ते। कम से कम कुरान की आयत की तरन्नुम तुम्हें घेर लेता। कम से कम गीता का शायद कोई दूर का भूला-भटका स्वर तुम्हारे हृदय में घोसला बना लेता।
तुम सुबह उठे नहीं कि तुम अखबार पढ़ते हो। आंख खोलते नहीं कि अखबार टटोलते हो। अखबार तुम्हारी गीता है। राजनैतिक विक्षिप्त व्यक्ति तुम्हारे प्रतिमान हैं, तुम्हारे आदर्श हैं।
मैं अराजकवादी नहीं हूं। लेकिन राज्य की शक्ति क्रमशः न्यून होती जाए...।
इसे तो एक स्वप्न ही मानना चाहिए कि कभी ऐसा होगा कि राज्य की बिल्कुल जरूरत न रह जाएगी। मुश्किल है। थोड़ी-बहुत जरूरत रहेगी। थोड़ी-बहुत तो जहर की भी जरूरत होती है, कभी-कभी औषधि के भी काम पड़ता है। थोड़ी-बहुत तो जहर की भी जरूरत होती है; कभी-कभी किसी को बेहोश भी करना पड़ता है..सर्जरी के लिए, आपरेशन के लिए। उतनी ही जरूरत राज्य की होनी चाहिए जितनी जहर की है। बस उससे ज्यादा जरूरत नहीं होनी चाहिए।
और राज्य का मुख्य काम इतना ही होना चाहिए कि वह एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के जीवन में दखल न देने दे। अभी हालत उलटी है। अभी एक व्यक्ति को तो रोकता ही नहीं दूसरे के जीवन में दखल देने से, खुद ही दोनों के जीवन में दखल देता है।
व्यक्ति की स्वतंत्रता चरम मूल्य है। राज्य, राजनीति, राजनेता सेवक से ज्यादा नहीं होने चाहिए। कहते तो वे भी यही हैं कि हम सेवक हैं मगर यह वे कहते हैं जब वे इलेक्शन में खड़े होते हैं। इलेक्शन के बाद फिर तुम्हें कहना पड़ता हैः हुजूर, हम आपके सेवक हैं। फिर वे दरबार में बैठते हैं दरबार लगा कर। फिर तुम्हें कहना पड़ता है कि हम आपके सेवक हैं, याद रखना, सेवक को भूल मत जाना। यही उन्होंने तुमसे कहा था, जब वे ताकत में न थे।
तो, सेवा जैसे माध्यम है सत्ता में पहुंचने का। जैसे कोई किसी के पैर दबाना शुरू करे और फिर धीरे-धीरे पहुंच कर गर्दन पकड़ ले; शुरू मालिश से की थी कि पैर दबा रहे हैं..फिर जब गर्दन पकड़ ली, तब तुम्हें होश आया कि यह तो बहुत मुश्किल हो गई है, छुड़ाना मुश्किल है। जब कोई पैर पकड़े तभी जरा गौर से देखना कि हाथ गर्दन की तरफ तो नहीं जा रहे हैं।
लेकिन सभी सत्ताधारी सेवा का बहाना करते हैं, सत्ता की आकांक्षा है।
सत्ता उनके हाथ में होनी चाहिए जिनको सत्ता की आकांक्षा न हो। पर यह तो असंभव है। इसलिए यही हो सकता है कि सत्ता न्यून से न्यून, हाथ में रह जाए; इतनी कम रह जाए कि कोई नुकसान न पहुंचा सके।
राज्य कम से कम हो..वही राज्य श्रेष्ठतम है।
तीसराः ‘समाज और राज्य से आपने स्वयं को इतना अलग-थलग क्यों कर लिया है? ’
कर लिया है..ऐसा नहीं है। तुम भी जागोगे तो ऐसे ही अलग-थलग हो जाओगे। कर लिया है..ऐसा नहीं है; ऐसा हो गया है।
ऐसा ही समझो कि तुम सोए हो और जाग जाओगे..तब क्या मैं तुमसे पूछूंगा कि तुमने अपने सपनों के राज्य से, सपनों की भीड़ से इतना अलग-थलग क्यों कर लिया? तुम कहोगे, अलग-थलग किया नहीं; नींद खुल गई, सपने खो गए!
जागते ही समाज और राज्य सपने हो जाते हैं; सत्य तो एक परमात्मा ही रह जाता है। बाकी सब खेल-खिलौने हो जाते हैं। कोई अलग नहीं करता, अपने को अलग पाता है।
चैथाः ‘संन्यास और राजनीति का क्या संबंध है? ’
संबंध हो ही नहीं सकता। जिसके भीतर से राजनीति मर गई, उसी के भीतर तो संन्यास फलता है। संबंध तो हो ही नहीं सकता। राजनीति की राख पर ही तो संन्यास का अंकुर उभरता है। तो संन्यास का तो अर्थ ही यही होता है कि तुम्हारे भीतर अब कोई राजनीति न रही।
‘आप अपने संन्यासियों से क्या अपेक्षा रखते हैं? ’
मैं कोई अपेक्षा किसी से नहीं रखता, और न चाहता हूं कि कोई मुझसे कोई अपेक्षा रखे; क्योंकि अपेक्षा एक-दूसरे को गुलाम करने की विधि है, ढंग है।
नहीं, मेरी तुमसे कोई अपेक्षा नहीं है। मैं नहीं चाहता कि तुम ऐसा करो, वैसा करो। मैं, तुम क्या करो, यह तो कह नहीं रहा हूं। मैं तो तुम्हें इतने ही इशारे दे रहा हूं कि अगर तुम सोए तो राजनीति में रहोगे, अगर जाग गए तो धर्म में आ जाओगे। अगर जाग गए तो तुम्हारे भीतर से दूसरे की मालकियत का जो पागलपन है, वह खो जाएगा, और अपनी ही मालकियत का आनंद उसकी जगह स्थापित हो जाएगा। तब तुम दूसरे कि सिर पर न बैठना चाहोगे; क्योंकि तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर का सिंहासन परम सिंहासन है, परम पद है..इसके ऊपर कोई पद नहीं, न कोई राष्ट्रपति, न कोई प्रधानमंत्री।
मेरी तुमसे कोई अपेक्षा नहीं है, सिर्फ निर्देश है कि अगर तुम्हारे मन में अभी भी राजनीति हो तो ध्यान रखना कि तुम संन्यासी नहीं हो। यह सीधी वैज्ञानिक परिभाषा कर रहा हूं। तुमसे कह नहीं रहा हूं कि राजनीति से संबंध मत रखो; इतना ही कह रहा हूं कि राजनीति जहर है..अगर मरना ही हो, आत्महत्या ही करनी हो, डट कर पी लो, भर पेट पी लो। इतना ही कह रहा हूं कि यह जहर है..मरना हो तो ही पीना; अगर न मरना हो तो इससे जरा सावधान रहना। हालांकि जहर के दुकानदारों ने जहर पर अमृत के लेबल लगा रखे हैं। लेबल पर मत जाना। डब्बे के ऊपर क्या लिखा है..इसकी बहुत फिकर मत करना; डब्बे के भीतर क्या है..इसका बहुत निरीक्षण कर लेना।
‘आपके संन्यासी राजनीतिक आंदोलनों में सम्मिलित हों या न हों? ’
अगर उनके भीतर अभी राजनीतिक आंदोलनों में सम्मिलित होने की आकांक्षा बची है, तो वे संन्यासी नहीं हैं; कम से कम मेरे संन्यासी तो नहीं हैं, किसी और के होंगे।
पांचवांः ‘क्या संन्यास एक प्रकार का पलायन नहीं है? ’
एक अर्थ में कह सकते हो, है। जैसे घर में आग लग जाए और तुम भाग कर बाहर आ जाओ..भीड़ कह सकती हैः तुम पलायनवादी हो, एस्केपिस्ट हो, घर से भाग कर बाहर निकले? जब घर में आग न लगी थी तब तो बड़े मजे से रहे; अब जब आग लगी, मुसीबत का क्षण आया घर को तो तुम बाहर निकल कर आ गए? जाओ अंदर! कायर हो!
तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगेः पागल नहीं हूं। जब घर में आग लगी हो तो भागना ही उपाय है।
कोई गड्ढे में गिर जाए और निकलने की कोशिश करे, क्या तुम उससे कहोगे, तुम पलायनवादी हो, गड्ढे से भागने की कोशिश कर रहे हो? कोई बीमार हो जाए और चिकित्सा की चेष्टा करे, तुम उससे कहोगेः कायर, अब बीमारी से निकलने की कोशिश कर रहे हो? रहो वहीं! हिम्मतवर हो, डटे रहो! कहां जीना है?
संसार गड्ढा है, बीमारी है। संसार आग-लगा घर है। जिनको थोड़ा बोध है वे बाहर निकलेंगे। वे असल में घर छोड़ कर नहीं भाग रहे हैं। घर रहने योग्य ही न था। अब तक कैसे रहे..यही सवाल है। अब तक क्यों न दिखाई पड़ीं ये लपटें? जब दिखाई पड़ गईं, तभी सवेरा है। इसलिए बाहर आ रहे हैं।
एक अर्थ में तुम कह सकते हो, संन्यास पलायन है। एक अर्थ में तुम कह सकते हो, संन्यास जागरण है। मैं तो उसे जागरण ही कहता हूं। घर में आग लगी हो तो वही आदमी घर के भीतर रह सकता है जो सोया हो या शराब पीकर खड़ा हो। जागा हुआ आदमी तो बाहर आ जाएगा। न केवल जागा हुआ आदमी खुद बाहर आएगा, सोए को जगाने की कोशिश करेगा कि भाई, जागो! शराबी के मुंह पे पानी छिड़केगा, घसीटेगा कि निकल आओ तुम भी। हालांकि शराबी कहेगाः क्या ऊधम मचा रखा है? शांति से सोने दो। क्या सुबह-सुबह जगा रहे हो? कहां आग लगी है? कहीं कोई आग नहीं लगी है। कोई सपना देखा होगा।
फिर भी जो जागा है उसके जागरण के कारण ही, उस पर एक उत्तरदायित्व आ गया..वह उत्तरदायित्व है कि जो सोए हैं आस-पास, उनको भी हिला के जगा दे। इसलिए बुद्धपुरुष इतनी चेष्टा करते हैं कि तुम जागो; क्योंकि तुम जहां हो वहां लपटें हैं, लेकिन तुम कहते हो, यह तो पलायन है। और तुम्हारी भीड़ ज्यादा है। जागता एक है; हजार सोए हैं घर में। वे हजार अपनी निंदा में ही बडबड़ाते हैं। वे कहते हैं कि हम ही ठीक हैं; हमारी भीड़ जो कह रही है वह ठीक है, कि एक आदमी जो कह रहा है वह ठीक है? यह तो डिक्टेटरशिप हो गई, तानाशाही हो गई। एक आदमी कह रहा है, घर में आग लगी है और हजार आदमी कह रहे हैं, मत दे रहे हैं कि नहीं लगी, हम सोए हैं मजे से, गड़बड़ मत करो; और वह गड़बड़ किए चला जा रहा है। लेकिन संत की अपनी मजबूरी है। तुम चाहे हजार हो, चाहे लाख हो..इससे सही नहीं होते। जाग कर देखा गया जो है वही सत्य है। यह कोई लोकतंत्र नहीं है सत्य का कि वहां वोट से तय होता है, कौन सत्य है। हाथ और सिर नहीं गिनने हैं; यहां आत्माएं गिनी जाती हैं; यहां भीतर का बोध गिना जाता है। एक भी सत्य हो सकता है; करोड़ गलत हो सकते हैं। सवाल करोड़ का और एक का नहीं है..सवाल जागे होने का है।
और छठवांः ‘आप क्रांति के अगुआ बनें, ऐसी हजारों ही आकांक्षा थी, लेकिन आपने क्यों उनकी आकांक्षाओं को ठुकरा दिया? ’
जैसे मैंने कहा, न तो यहां मैं किसी की आकांक्षाएं पूरा करने को हूं, न कोई और मेरी आकांक्षाएं पूरा करने को है। मैं स्वयं होने को हूं यहां; तुम स्वयं होने को हो यहां। दूसरे पर आकांक्षाएं थोपना उचित नहीं है।
अगर हजारों की आकांक्षाएं थीं कि मैं क्रांति का अगुआ बनूं, तो वे सोए हुए लोगों की आकांक्षाएं थीं। उनकी आकांक्षाओं का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि क्रांति यानि क्या?
घर में आग लगी है, तुम फर्नीचर बदल रहे हो, टेबल यहां से हटा कर कुर्सी लगा रहे हो, बिस्तर की जगह बदल रहे हो, रंग-रोगन पोत रहे हो, चित्र-फोटो लटका रहे हो! घर में आग लगी है, तुम क्रांति कर रहे हो!
सारी क्रांति फर्नीचर की बदलाहट है।
क्रांति मात्र, आज तक जिसको लोगों ने कहा है, वह कोई क्रांति नहीं है।
क्रांति तो सिर्फ एक है..वह है इस जीवन में लगी आग को देख लेना और किसी नये जीवन में उठ जाना; इस घर को छोड़ देना, और किसी नये घर को बना लेना। बाकी सब क्रांतियां तो इसी घर के भीतर बदलाहट हैं। इस दीवाल में थोड़ा सा लीपा-पोती करके रंग-रोगन कर दिया..इससे लपट थोड़े ही मिटेगी। इससे बाहर जो आग लगी है वह लगी ही रहेगी।
क्या हुआ?
रूस में क्रांति हुई उन्नीस सौ सत्रह में..क्या हुआ?
जो मालिक थे वे उतार दिए गए; जो उतरे थे वे मालिक हो गए; मालकियत जारी रही। फर्नीचर बदल गयाः कुर्सी नीचे थी वह ऊपर आ गई। जो ऊपर थी वह नीचे आ गई। वही उपद्रव जारी रहा, कोई फर्क न पड़ा। अमीर अमीर न रहा, गरीब गरीब न रहा; लेकिन अब एक नया वर्ग पैदा हो गया..सत्ताधिकारियों का और गैर-सत्ताधारियों का। साधारण जनता और कम्युनिस्ट पार्टी अब ये दो वर्ग पैदा हो गए।
वर्ग जारी रहा, नाम बदल गए। पहले कोई दूसरे लोग शोषण करते हैं, अब कोई दूसरे लोग शोषण करतक हैं..शोषण जारी है; सत्ता जारी है; परतंत्रता जारी है।
दुनिया की सारी क्रांतियां मिट्टी हो गई हैं।
नहीं, मैं तुम्हारी किसी मूढ़ता का अगुआ नहीं होना चाहता। मुझे कोई उत्सुकता नहीं है तुम्हारे फर्नीचर बदलने में।
और बड़ा मजा है! राजनीति एक बड़ा गहरा शडयंत्र है!
इंग्लैंड में दो पार्टियां हैं। इंग्लैंड बड़ा कुशल मुल्क हैः होना भी चाहिए; राजनीति का उसका अनुभव बड़ा पुराना है। बड़े होशियार लोग हैं! एक पार्टी सत्ता में होती है, दूसरी उसकी निंदा करती है। स्वभावतः किसी की भी सत्ता सुंदर नहीं है, लेकिन जनता को एक भ्रम बना रहता है। एक पार्टी सत्ता में है, दूसरी पार्टी निंदा करती है मुल्क में, भूल-चूक बतलाती है। दस साल एक पार्टी सत्ता में रहती है, तब तक उसकी प्रतिष्ठा गिरती जाती है, क्योंकि वह कुछ कर तो पाती नहीं। कोई कुछ नहीं कर पाता, मुल्क की मुसीबत बनी रहती है, बढ़ती जाती है। मुल्क क्रोध में भरता जाता है। जो सत्ता में नहीं हैं, लोग उनके प्रेम में पड़ने लगते हैं कि ये लोग ठीक मालूम पड़ते हैं।
और जनता की स्मृति बड़ी कमजोर है। दस साल बाद वे पहली पार्टी को नीचे उतार देते हैं, उस पार्टी को ऊपर बिठाल देते हैं। दूसरी पार्टी पहले काम में लग जाती है..इनकी निंदा में।
इनसे भी कुछ होता नहीं। लेकिन दस साल में जनता फिर भूल जाती है। वे जो सत्ता में होते हैं, उनकी भूल दिखाई पड़ती है। जो सत्ता में नहीं होते, उनकी तो भूल दिखाई कैसे पड़ेगी? ..क्योंकि भूल तो वे कोई करते नहीं। वे कुछ करते ही नहीं, वे सिर्फ निंदा करते हैं। दस साल में फिर जनता उनके प्रेम में पड़ जाती है; उनको सत्ता में बिठा देती है, सत्तावालों को नीचे बुला लेती है।
जिनको तुम विरोधी पार्टियां कहते हो, वे सब आपसी शडयंत्र में हैं। वे एक-दूसरे के सहारे हैं। वे विरोधी वगैरह नहीं हैं। भला एक-दूसरे को जेल में डालें, भला उनको भी पता न हो..मगर वे विरोधी वगैरह नहीं हैं। वह सब एक-दूसरे की साजिश है, वह पूरा खेल है।
जब एक सत्ता में होता है तब जनता को यह पता नहीं चलता कि भूल वस्तुतः सत्ता में एक पार्टी की हो रही है या भूल ऐसी है जो हमारी जीवन-चेतना की है। दुख इसलिए है कि हमारी जीवन-चेतना सोई है। जीवन में इतनी पीड़ा इसलिए है कि हम बेहोश हैं। यह नहीं दिखाई पड़ पाता। यह दिखाई पड़ता है कि ये लोग हट जाएं। दूसरी पार्टी सपने बता रही है, झंडे उठा रही है। वह कहती है, हम सब ठीक कर देंगे। वह आश्वासन दे रही है। उस पर भरोसा आ जाता है।
अ का भरोसा ब पर चला जाता है। फिर ब से भरोसा अ पर चला जाता है। कभी अपनी याद नहीं आ पाती कि यह भूल कहीं हमारी है। ऐसे जीवन सदियों तक चलता रहा है। विरोधी आपस में ऐसा लड़ते हैं कि तुम्हें ऐसा लगता है कि यह तो बिल्कुल एक-दूसरे के विपरीत हैं। और अगर इनको हम ताकत में पहुंचा देंगे तो सब ठीक हो जाएगा।
कभी ठीक कुछ नहीं होता।
क्रांतियां सब असफल हो गई हैं। एक ही क्रांति कभी असफल नहीं हुई, वह व्यक्ति की क्रांति है। कोई नींद से जागता हैः बुद्ध हो जाता है, कृष्ण हो जाता है, फरीद हो जाता है, मोहम्मद, नानक...बस वही एकमात्र क्रांति है।
तो, तुम्हारी अपेक्षाओं से मैं तुम्हारा अगुआ नहीं हो सकता। मेरी दृष्टि से ही मैं कुछ कर सकता हूं। मेरी दृष्टि यही है कि तुम जागो..यही एकमात्र क्रांति है। तुम्हारे घर के फर्नीचर को यहां से वहां हटाने की मेरी उत्सुकता नहीं है। धूल-धवांस झाड़ने का मेरा मन नहीं है। तुम्हारी भूल, तुम्हारी बेहोशी है..वही टूट जानी चाहिए। तब तुम अगर अमीर भी न हुए, गरीब भी रहे, तो भी आनंद की वर्षा तुम्हारे घर पर होगी। तब तुम्हारे पास दो जोड़ी वस्त्र भी रहे, तो भी तुम नाच सकोगे। तुम्हें रूखा-सूखा भी खाने को मिला तो भी तुम्हारे कंठ से गीत का जन्म हो सकेगा।
और मनुष्य-जाति उसी दिन सुखी होगी, जिस दिन व्यक्ति, व्यक्ति सुखी होता है, और समाज की भ्रांति छूट जाती है कि हम समाज को सुखी कर सकते हैं। समाज कभी सुखी नहीं हो सकता। समाज है ही नहीं। समाज तो एक संज्ञामात्र है, एक नाममात्र है। जहां भी तुम पाओगे, व्यक्ति को पाओगे धड़कते हुए व्यक्ति के हृदय को पाओगे। व्यक्ति की आत्मा की क्रांति एकमात्र क्रांति है।
मेरा राजनीति में कोई रस नहीं है। ऐसे प्रश्न तुम न पूछो तो अच्छा। तुम अपनी बदलाहट की कुछ बात पूछो।
आज इतना ही।
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