कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

अकथ कहानी प्रेम की-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(धर्मः एकमात्र क्रांति)

प्रश्न-सार:

01-फरीद जैसे संत हर पद में अपना नाम क्यों जा.ेडते हैं?
02-ओशो जैसी श्रेष्ठ मनीषा राजनीति और सत्ता की ओर ध्यान क्यों नहीं देती?
03-देश जब आपात और संकट की स्थिति में हैं, तब भी क्या ओशो का भगवत-भजन का एकतारा बजाए जाना उचित है?
04-माता, पिता, गुरु और भगवान से मांगने में क्या संकोच करना चाहिए?
05-धार्मिक क्रांति की शुरुआत..व्यक्तिगत जिम्मेवारी अथवा परस्पर-तंत्रता का बोध?
06-प्रेम की पीड़ा और प्रेम के आनंद का रहस्य?
07-शासन और आश्रम के बीच किसी सहयोग का सुझाव?


पहला प्रश्नः फरीद जैसे संत अपना नाम हर पद में समेट कर क्यों चलते हैं? इसका क्या राज है?

फरीद जैसे व्यक्तियों का कोई नाम नहीं, इसलिए अपना नाम लेने में उन्हें कोई संकोच नहीं। तुम्हें संकोच है, क्योंकि नाम के पीछे तुम्हारा अहंकार है। जिसका अहंकार बिखर गया, उसे अपना नाम और पराया नाम समान है। वह अपने नाम से उतने ही दूर हो गया है जितने किसी और के नाम से।
इसलिए तो कृष्ण कह सके गीता मेंः सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज। तू सब धर्मों को छोड़ अर्जुन, मेरी शरण आ!
यह कोई अहंकारी न कह सकता था। अहंकारी चाहता यही कि लोग, सभी लोग उसकी शरण आ जाएं। लेकिन अहंकारी यह कह नहीं सकता; क्योंकि अहंकारी भलीभांति जानता है कि यह तो अहंकार की घोषणा होगी। यह वक्तव्य तो परम निर-अहंकारिता से ही आ सकता है; जिसका कोई मैं-भाव नहीं, वही कह सकता है।
फरीद बार-बार अपना नाम लेता है..फरीदा जे तू अकलि लतीफ; फरीदा जा तउ खट्टण वेल; फरीदा, फरीदा, फरीदा...! फरीद दोहराए चला जाता है। तो एक तो कारण यह है कि फरीद मिट गया है।
दूसरा कारणः फरीद किससे कहे, किसका नाम लेकर कहे? फरीद तो मिट गए हैं, तुम नहीं मिट गए हो। अगर तुम्हारा नाम लेकर कहे तो तुम्हें चोट लगेगी।
फरीदा जे तू अकली लतीफ..फरीद अगर तू बड़ा अकलमंद है; अगर तुम्हारा नाम लेकर कहे कि तुम अगर बड़े अकलमंद हो, तो तुम्हें चोट लगेगी। फरीद तुमसे कहता है, नाम अपना लेता है।
देखु फरीदा जु थीआ, सकर हो गई विसु..जरा होश से देख फरीद, शक्कर विष हो गई। जिसे सुख जाना था वह दुख हो गया।
अगर वह तुमसे सीधा-सीधा कहे तो शायद तुम अपनी आत्म-रक्षा में लग जाओ; तुम शायद तर्क दो कि नहीं, ऐसा नहीं है; तुम शायद अपने प्रमाण इकट्ठा करो कि नहीं, शक्कर शक्कर है, कौन कहता है, जहर हो गई है? तुम अपनी नींद में अपने सपनों की रक्षा करोगे। फरीद तुम्हें बीच में नहीं लेता। कहता तुमसे है, नाम अपना लेता है।
जब फरीद अपने से ही कहता है कि फरीद, अगर तू बड़ा अकलवान है, तुम्हें कोई अड़चन नहीं होती, तुम शांति से सुन लेते हो कि यह अपना ही नाम ले रहा है, अपने से ही कह रहा है। कहता तुमसे है।
तीसरा कारणः फरीद जैसे व्यक्तियों के भीतर साक्षी का जन्म हो गया है। वे अपने को, अपने अतीत होने को, अपने से दूर देखने लगे हैं। जब फरीद कहता हैः देखु फरीदा जु थीआ, सकर हो गई विसु..तो वह कह रहा है, यह साक्षी कह रहा है; यह जो जाग गया है भीतर, वह कह रहा है अपने सोए हुए रूप से; यह वर्तमान कह रहा है अपने अतीत से; रोशनी कह रही है अंधकार से; ज्ञान कह रहा है अंधेरे रास्तों से, भटके हुए जीवन से कि देख फरीदा, जिसको तूने अमृत समझा था वह विष हो गया! तुम्हारे भीतर भी कभी ऐसी घटना घटेगी तब समझ पाओगे, जब तुम तुमसे ही अलग हो जाओगे।
स्वामी राम अपना नाम उपयोग करते थे। अगर कोई गाली देता तो वे हंसते; अपने पास के मित्रों से कहतेः आज राम को खूब गाली पड़ी। नये-नये अमरीका गए, तो उनका ढंग तो वही रहा। किसी ने कहीं अपमान किया, क्रोध किया, लौट कर घर आए, जिसके घर में ठहरे थे, खूब हंसने लगे और कहाः आज राम की बड़ी फजीहत हुई! लोग बड़ा मजाक करने लगे।
गेरुआ वस्त्र फकीर का अमरीका में नया-नया थाः लोग कंकड़-पत्थर फेंकने लगे।
..राम बड़ी मुश्किल में पड़े। मैंने भी कहाः भोगो अब।
तो वे जिसके घर ठहरे थे, उन्होंने कहाः आप कह क्या रहे हैं? होश में हैं? किसकी बाबत कर रहे हैं बात? राम यानी कौन?
तो उन्होंने कहाः यह राम जो सामने खड़ा है, दिखाई नहीं पड़ता? जैसे तुम्हें दिखाई पड़ता है ऐसे मुझे भी दिखाई पड़ता है। यह तुम्हारे ही सामने नहीं खड़ा है, मेरे सामने भी खड़ा है। हम खड़े देखते रहे। हमने कहा अब हुई फजीहत!
जिस दिन तुम्हारे भीतर साक्षी जगेगा, तुम भी कह सकोगेः फरीदा जे तू अकलि लतीफ..अगर तू बड़ा अकलमंद है फरीद, तो लक्षण दिखा। लक्षण यह है कि दूसरे में बुराई मत देख। अपने ही गरेबां में झांक। यह अकलमंद का लक्षण है। अगर दूसरे की बुराई देखता है, यह तो बुद्धू का लक्षण है।
फरीदा जा तउ खट्टण वेल..फरीद, जब तक जवानी थी, ताकत थी, समय था, उसे तो तूने व्यर्थ चीजों के कमाने में गंवाया। अब जब सब चुक गया, रिक्त हो गया, तब तू परमात्मा की बात करने चला है। जब देने को कुछ था, तब तो तूने संसार के दरवाजे खटखटाए। अब जब देने को कुछ भी नहीं बचा, खाली हाथ है, भिखारी है, अब तू परमात्मा के द्वार खटखटाने चला है!
यह साक्षी है, अपने अतीत से कह रहा है।
ये तीन कारण हैं।
जो कारण तुम सोचते हो वह बिल्कुल नहीं हैं। तुम सोचते हो, अपना नाम हर पंक्ति में दोहराना, अपने हस्ताक्षर हर जगह किए जाना..यह तो बड़ा अहंकार है।
तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। तुमने अगर अपना नाम लिया होता हर लकीर में तो उसका कारण अहंकार होता। तुम संकोच भी करते; हर लकीर में न लेते, तुम जरा ढंग से लेते, छिपा कर लेते ऐसी हर लकीर देख फरीदा, ऐसी शुरू न होती। तुम तरकीब से लेते। तुम छिपा कर लेते। तुम कहतेः मैं तो चरणों की धूल हूं। और देखते दूसरे की तरफ कि वह कहे, नहीं-नहीं, आप, आप तो सम्राट हैं, सिंहासन पर विराजमान हैं, आपसे श्रेष्ठ कौन? और तुम भीतर प्रसन्न होते कि तरकीब काम कर गई। यही तो तुम सुनना चाहते थे। इसलिए तुमने कहा था, मैं तुम्हारे चरणों की धूल हूं, ताकि कोई तुम्हें सिर पर रख ले क्योंकि तुम भलीभांति समझ गए हो अहंकार की राजनीति।
अहंकार की राजनीति यह है कि अगर तुम अपने अहंकार की घोषणा करो तो दूसरे उसका खंडन करेंगे। अगर तुम्हें चाहिए कि दूसरे तुम्हारा समर्थन करें, तुम उसका खंडन करो। इसलिए जिनको तुम विनम्र पाते हो वे विनम्र होंगे, ऐसा जरूरी नहीं है। अक्सर तो तुम्हारे विनम्र पुरुषों में सौ में निन्यानबे परम अहंकारी होते हैं। वे कहते हैं, मैं तो कुछ भी नहीं हूं; लेकिन उनकी आंखों में देखो! वे कहते हैं, मैं तो ना-कुछ हूं; लेकिन जरा उनके सिर की अकड़ में देखो! वे कहते हैं, मैं तो तुम्हारे चरणों में पड़ा हूं; लेकिन तुम गौर से देखोः कह वे कुछ रहे हैं, कर वे कुछ रहे हैं और कर रहे हैं कोशिश कि तुम उनके चरणों में गिर जाओ।
जब कोई आदमी तुमसे कहे कि मैं तो तुम्हारे चरणों की धूल हूं तो तुम उससे राजी हो जाना, फिर देखना। तुम कहना कि बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप, यह तो मुझे पहले से ही पता थाः आप हैं ही चरणों की धूल। तब उसके चेहरे पर देखना। तत्क्षण तुम पहचान लोगे कि यह विनम्रता से कही गई बात थी या अहंकार से। वह आदमी नाराज हो जाएगा। वह कहेगाः समझा क्या है तुमने अपने आप को? शिष्टाचार की भाषा भी नहीं समझते? यह हमारा मतलब नहीं है। कौन कहता है कि हम चरणों की धूल हैं? यह तो संस्कारवश, कुलीन घर में हम पैदा हुए हैं, इसलिए ऐसा कहते हैं।
तुम्हें झुकना सिखाया गया है ताकि तुम दूसरों को झुका सको। यह कूटनीति है।
फरीद जैसे व्यक्तियों के जीवन में कोई कूटनीति राजनीति नहीं है। वह सीधे-साफ हैं। उन्हें जो ठीक लगता है, वह कह रहे हैं; और इतनी सरलता से कह रहे हैं, वह सबूत है कि पीछे अहंकार नहीं हो सकता। अन्यथा अहंकार तो हमेशा सजावट करता है, छिपाता है। क्योंकि अहंकार भलीभांति जानता है कि तुम्हारा ही थोड़े अहंकार है, सबका अहंकार है। तुमने अगर ज्यादा घोषणा की तो दूसरे के अहंकार को चोट लगने लगती है। और दूसरे को चोट पहुंचाई तो वह तुम्हें चोट दुगुनी चोट से लौटाएगा। इसलिए अहंकार कहता हैः दूसरे को फुसलाना, चोट मत करना, मक्खन लगाना, प्रसन्न करना दूसरे को। जब तुम दूसरे को प्रसन्न करोगे, दूसरा तुम्हें प्रसन्न करेगा। यह सीधी सी बात है। यह सीधा सा गणित है।
फरीद जैसे लोग इन बातों कि फिकर नहीं करते। उनके भीतर जो जाग गया है वहां अब कोई अंधकार नहीं है। उन्होंने अपने को जाना है, अब कोई अत्ता, कोई अहंकार नहीं है। और फिर तुमसे क्या कहें? तुमसे बात करनी ही मुश्किल है। तुमसे कहो कुछ, तुम समझते कुछ हो। इसलिए फरीद जैसे लोग अपने से कहते हैं।
यह पुराने संतों का एक ढंग था और बड़ा बहुमूल्य ढंग था। कबीर भी यही करते हैं, दादू भी यही करते हैं, मीरा भी यही करती हैं। बड़ा कारगर ढंग था। अपने से कहते हैं; तुम बहाने से सुन लेते हो। तुम इतने जटिल हो, इतने पागल हो कि तुमसे सीधा कहने में भी मुश्किल है। तुमको अगर अंधा भी कहना हो..अंधे तुम हो..तो फरीद को अपने को ही अंधा कहना पड़ता है; शायद उससे तुम्हें थोड़ी सी समझ आ जाए; शायद इतने परोक्ष कही गई बात से तुम उद्विग्न न होओ, लड़ने-झगड़ने को खड़े न हो जाओ। क्योंकि तुम कहोगे, फरीद अपने से ही कह रहा है। लेकिन फरीद के नाम के बहाने उसने सारे संसार से कह दिया, उन सब फरीदों से जो अभी भी सोए हैं।

दूसरा प्रश्नः कल आपने कहा कि धार्मिक क्रांति ही एकमात्र क्रांति है। क्या देश और समाज के प्रति हमारा कोई दायित्व नहीं है? इस संबंध में कुछ मित्रों का कहना है कि आप जैसी श्रेष्ठ मनीषा को समाज, राजनीति और सत्ता पर भी ध्यान देना चाहिए, ताकि एक बेहतर मनुष्यता का उदय हो सके।

 देश एक झूठी इकाई है। समाज केवल संज्ञा है। समाज का कोई अस्तित्व नहीं है। तुम कहीं समाज को पा न सकोगे। खोजने जाओगे, व्यक्ति मिलेंगे, समाज नहीं। टकराओगे व्यक्तियों से, समाज से नहीं। लेकिन शब्द बड़े घातक हो सकते हैं। और शब्दों की आड़ में बड़े असत्य छिपाए जा सकते हैं। और अगर शब्दों को तुमने ठीक से न समझा तो बड़ी ही उलझनें हो सकती हैं।
मैं कल ही देख रहा था। जापान में दूसरे महायुद्ध के दिनों में, हिरोशिमा और नागासाकी बच सकते थे, एटम बम न गिरा होता। एक छोटे से शब्द ने दिक्कत दे दी। अमरीकन जनरल ने जापान की सरकार को पत्र भेजा, लेकिन पत्र का अनुवाद जापानी में किया गया। एक ऐसा शब्द था उसमें कि जापानी शब्द अनुवाद हो जाने से उसके दो अर्थ हो गए। जापानी में दो अर्थ हैं उस शब्द के। उसमें एक अर्थ जो दुर्भाग्यवश सरकार ने स्वीकार किया कि यह अर्थ होना चाहिए, उसी अर्थ के कारण हिरोशिमा, नागासाकी पर एटम बम गिरा। अगर उसका दूसरा अर्थ लिया गया होता तो वे दो लाख मरने से बच गए होते, वह दुर्घटना बच गई होती।
शब्द कभी-कभी बड़े भयानक और खतरनाक सिद्ध होते हैं।
समाज, धर्म, राष्ट्र, मनुष्यता..ये शब्द इतनी बार तुमने सुने हैं कि तुम भूल ही गए कि ये कोरे शब्द हैं, इनके पीछे कोई भी नहीं है। कहां है मनुष्यता? मनुष्य हैं, मनुष्यता कहीं भी नहीं। कहां है राष्ट्र? झूठी आदमी की खींच गई सीमाएं हैं जिनको न तो पृथ्वी स्वीकार करती है, न आकाश स्वीकार करता है। कहां आकाश समाप्त होता है भारत का, और कहां शुरू होता है चीन का आकाश?
लेकिन राजनीतिज्ञ बिना सीमाएं निर्धारित किए नहीं जी सकता। राजनीति का सारा खेल सीमा का है, झगड़ा सारा सीमा का है। इसलिए राजनीतिज्ञ सीमा पर बड़ा जोर देता है कि सीमा होनी चाहिए, सुनिश्चित होनी चाहिए। सारे झगड़े दुनिया में चलते हैं, वे सीमा के हैं, कि दो इंच इस तरफ सीमा कि दो इंच उस तरफ सीमा!
धर्म है असीम। राजनीति है सीमा का झगड़ा। दोनों का कोई तालमेल नहीं है। राजनीति है माया का हिस्सा; धर्म है जागरण का, होश का। दोनों का कोई तालमेल नहीं है। सोकर तुम जो सपने देखते हो, जाग कर तुम पाओगे, वे थे ही नहीं। तुम्हें राष्ट्र दिखाई पड़ता है, मुझे नहीं दिखाई पड़ता। जाग कर मैंने पाया, न कोई राष्ट्र है, न कोई समाज है, न कोई मनुष्यता है; व्यक्ति हैं। और व्यक्ति की निजता परिपूर्णता है। उसे समूहों में बांधने की कोई जरूरत नहीं। जैसे ही हम समूहों में बांधते हैं, वैसे ही हम व्यक्ति की हत्या कर देते हैं। समूह व्यक्ति की आत्महत्या पर खड़ा होता है।
मैं तो चाहूंगा एक ऐसा संसार, जहां व्यक्ति तो हों, परिपूर्ण सौंदर्य में हों, पूरे खिले हों; लेकिन कोई समाज न हो, कोई संप्रदाय न हो, कोई राष्ट्र न हो। इसलिए मैं राजनीति का मूलतः विरोधी हूं। इस राजनीति का विरोधी हूं, उसका विरोधी नहीं हूं..ऐसा नहीं है; राजनीति मात्र का विरोधी हूं। क्योंकि राजनीति इस जगत का सबसे भ्रांत गोरखधंधा है। और मनुष्य बिना राजनीति के बड़े मजे से रह सकता है। सच तो यह है कि राजनीति के कारण ठीक से रह नहीं पाता। झगड़े राजनीति खड़े करती रहती है।
राजनीतिज्ञ बिना झगड़े के नहीं जी सकता। बिना युद्ध के राजनीतिज्ञ का क्या मूल्य है? अगर कहीं कोई उपद्रव न होता हो तो राजनीतिज्ञ का क्या मूल्य है, क्या उपयोग है? अगर लोग शांत हों, आनंद से जीते हों, तो राजनीतिज्ञ गिर जाएगा अपनी प्रतिष्ठा से। अगर लोग परम आनंदित हों तो राजनीति को लोग भूल ही जाएंगे, राजनीतिज्ञ को भूल जाएंगे। तो राजनीतिज्ञ कोशिश करता है, सीमाओं के झगड़े बने रहें; सदा संकट की दशा बनी रहे; सदा लोग डरे रहें, घबड़ाए रहें। जब लोग डरे होते हैं तभी वे नेता के पीछे चलते हैं। जब लोग अभय होते हैं, कौन किस नेता की फिकर करता है? इसलिए हर नेता हर राष्ट्र को डरवाए रखता हैः खतरा है! पाकिस्तान कहता है, हिंदुस्तान से खतरा है; हिंदुस्तान कहता है, पाकिस्तान से खतरा है। ये सब मौसेरे-चचेरे भाई-बहन हैं। ये दोनों एक-दूसरे के सहारे जीते हैं। पाकिस्तान में वे चिल्ला देते हैं, भेड़िया आया! नेता के पीछे लोग लाइन लगा कर खड़े हो जाते हैं, क्योंकि खतरा है। यहां चिल्ला दो कि भेड़िया आया, लोग लाइन लगा कर खड़े हो जाते हैं। और जब भी देखता है नेता कि अब लोग निशिं्चत हुए जा रहे हैं, अब मेरी फिकर नहीं करते, अब लोग अपने काम में लग गए हैं, अब मेरी तरफ उनका ध्यान नहीं..तभी वह चिल्ला देता है, भेड़िया आया!
और कितनी बार राजनीतिज्ञ चिल्लाते रहे पूरे इतिहास में। हमारी नींद अदभुत है। साधारण नींद न होगी; मूच्र्छा है, टूटती ही नहीं। मनुष्य-जाति के तीन हजार सालों के इतिहास में निरंतर युद्ध होता रहा है। कहीं न कहीं पृथ्वी के किसी न किसी कोने पर युद्ध जारी है। आदमी काटा जा रहा है। राजनीति का देवता बड़ा बलिदान मांगता है। वह नरमेध-यज्ञ है। राजधानियां खूनों पर बनी हैं, रक्त की धारों पर बनी हैं। राजधानियां के पत्थर-पत्थर में न मालूम कितने लोगों के खून के दाग हैं।
लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ता। और दिखाई हमें नहीं पड़ता क्योंकि बचपन से हमें संस्कारित किया जाता है कि तुम किसी समाज के हिस्से हो। तुम्हें यह कभी नहीं कहा गया कि तुम्हारी अपनी कोई निज-गरिमा है। तुम्हें यही कहा गया है, तुम समाज के हिस्से हो; जब समाज को जरूरत हो, तुम बलि के बकरे बन जाना। तुम्हारा उपयोग यही है।
मैं हिटलर का जीवन पढ़ता था कुछ दिन पहले। जब जर्मन सेनाएं काटी जाने लगीं और युद्ध हारने की तरफ मुड़ने लगा, जर्मनी मौत और हार की तरफ बढ़ने लगा, और खबरें पहुंचीं कि जर्मन युवक बुरी तरह काटे जा रहे हैं..तो हिटलर को जाकर, हिटलर के प्रमुख जनरल ने खबर दी कि कुछ करना होगा, युवक बुरी तरह काटे जा रहे हैं। जर्मन युवक, हत्या की जा रही है उनकी, जैसे घास-पात काटा जा रहा हो। हिटलर ने सिर ऊपर उठाया और कहाः युवक और किसलिए हैं? युवकों का और उपयोग क्या है?
हिटलर ईमानदार राजनीतिज्ञ है, दूसरा राजनीतिज्ञ इतना ईमानदार नहीं होगा; क्योंकि हिटलर बिल्कुल पागल है। पर सभी राजनीतिज्ञ यही जानते हैं कि युवक का और उपयोग क्या है; उसका उपयोग है कि मरे देश के लिए, राष्ट्र के लिए।
जीने के लिए तुम पैदा नहीं हुए हो; किन्हीं क्षुद्र बातों के लिए लड़ने के लिए तुम पैदा हुए हो! और छोटी-छोटी बातें हैं कि तुम चकित होओगे, जिनके लिए आदमी लड़ाया जा सकता है। और आदमी को होश नहीं आता। नाम, कोरे नाम...भारत-भूमि संकट में है! उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले अगर कराची संकट में होता तो तुम मरते; लेकिन अब अगर कराची संकट में होगा, तुम न मरोगे..अब वह भारत-भूमि नहीं है। भूमि वही कि वही है; लेकिन अब अगर कराची संकट में होगा तो तुम प्रसन्न होओगे, तुम उत्सव मनाओगे। उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले अगर पूना नष्ट होता तो कराची के लोग दुखी होते; अब अगर पूना नष्ट होगा, कराची के लोग मिठाई बांटेंगे, बताशे बांटेंगे कि अच्छा हुआ।
उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले तुम एक थे, सैंतालीस ने एक लकीर खींच दी। और ये लकीरें छोटी होती चली जाती हैं। ऐसा नहीं है कि हिंदू और मुसलमान ही लड़ते हैं, गुजराती-मराठी लड़ते हैं, हिंदी-गैर-हिंदी लड़ते हैं। लड़ने का मामला ऐसा है कि छोटी से छोटी सीमाएं बनानी पड़ती हैं; क्योंकि छोटे-छोटे राजनीतिज्ञ हैं, उनको भी तो लड़ाई के लिए कोई उपाय चाहिए। नर्मदा के जल पर लड़ते हैं कि वह गुजरात का है कि मध्यप्रदेश का। तुम्हें हंसी आएगी कि यह क्या पागलपन है! कोई एक छोटा जिला महाराष्ट्र में रहे कि मैसूर में जाए, उसके लिए लड़ते हैं। छुरेबाजी हो जाती है। तुम्हें थोड़ा चकित होना पड़ेगा कि यह तो कम से कम एक ही मुल्क है, इसके भीतर क्यों झगड़ा है।
राजनीतिज्ञ जी ही नहीं सकता बिना झगड़े के। बड़े राजनीतिज्ञ बड़े झगड़े पर जीते हैं; वे कहते हैं, हिंदुस्तान-पाकिस्तान का झगड़ा है। फिर छोटा राजनीतिज्ञ हैः वह कहता है, मैसूर और महाराष्ट्र का झगड़ा है। फिर मैसूर में भी छोटे राजनीतिज्ञ हैं। एक जिले के दूसरे जिले से झगड़े हैं कि युनिवर्सिटी इस जिले में बने के दूसरे जिले में बने, कारखाना यहां खुले कि दूसरे गांव में खुले! फिर गांव-गांव के राजनीतिज्ञ हैं। छोटे राजनीतिज्ञ चाहते हैं, छोटे-छोटे प्रांत हो जाए, उतने ज्यादा चीफ मिनिस्टर होंगे, उतने मिनिस्टर होंगे। बड़ा राजनीतिज्ञ चाहता है प्रांत न बंटे, क्योंकि जितना बंट जाता है उतनी उसकी सत्ता बंट जाती है। छोटा राजनीतिज्ञ चाहता है बंटाव हो जाए, ताकि मेरे हाथ में भी कुछ पड़ जाए। अगर हिंदुस्तान छोटे-छोटे टुकड़ों में हो तो सैकड़ों चीफ मिनिस्टर हैं, गवर्नर हैं..छोटे-छोटे लोगों को मजा आ जाए। लेकिन ऊपर के राजनीतिज्ञ की सत्ता कटती है; वह चाहता है मुल्क इकट्ठा हो। लेकिन सारा खेल इस बात का है कि मेरी सत्ता कायम हो। फिर वे अच्छे-अच्छे शब्दों का उपयोग करते हैंः देश-प्रेम, राष्ट्र, समाज, धर्म, इतिहास, अतीत, परंपरा..बड़े अच्छे शब्द हैं, और सब थोथे हैं जिनके भीतर तुम जरा भी कुछ न पाओगे; निचोड़ोगे, कुछ भी हाथ न लगेगा। घास-पात! और इनके नाम पर जीवित आदमी बलिदान किया जाता है।
नहीं, मेरी कोई चेष्टा, कोई रत्ती भर भी उत्सुकता राजनीति में नहीं है। अगर मैं कभी कुछ बोलता हूं तो वह केवल व्यंग्य है, वह केवल मजाक है। उसमें भी राजनीतिज्ञ को नीचा दिखाने की कोई चेष्टा नहीं, क्योंकि मेरी उतनी भी उत्सुकता नहीं है। अगर मैं कभी राजनीतिज्ञ का व्यंग्य भी करता हूं और राजधानियों का मजाक भी करता हूं, तो सिर्फ तुम्हें समझाने को कि तुम इस पागलपन में मत पड़ जाना। राजनीतिज्ञ को नीचा दिखाने का मेरा कोई मन नहीं, क्योंकि इससे नीचे अब वह और हो भी नहीं सकता। उसको नीचे दिखाने का कोई सार भी नहीं है। वह आखिरी गर्त में पड़ा है; उससे और नीचा कोई गड्डा होता नहीं जिसमें उसको धकाया जा सके। उस पर दया आती है। उसको और धकाने का क्या उपाय है? उसकी मैं बात भी नहीं कर रहा हूं।
मैं तुमसे बात कर रहा हूं कि तुम्हारे भीतर भी राजनीति का स्वर बज सकता है; क्योंकि वह सभी अहंकार के भीतर छिपा है।। जब तक अहंकार है तब तक तुम किसी न किसी तरह राजनीति के खेल में जारी लगे रहोगे। अहंकार ही गिर जाए तभी राजनीति गिरती है।
तो, मेरा तो सारा उपाय इतना है कि तुम्हारे भीतर भी राजनीति न रहे, तभी तुम्हारे भीतर धर्म का जन्म होगा। धर्म और राजनीति का कहीं मिलना नहीं होता। और अगर कहीं तुम उन्हें मिलता देखो तो तुम पाओगे कि राजनीति जीत जाएगी, धर्म हार जाएगा।
इसे तुम थोड़ा समझ लो। जब भी एक श्रेष्ठ चीज और निकृष्ट चीज में समझौता होता है तो निकृष्ट जीत जाता है, श्रेष्ठ हार जाता है। सब समझौते में निकृष्ट जीतता है। इसके कारण हैं।
समझो कि तुम्हारे पास दूध रखा है, मटकी भर दूध है। इसमें क्या मटकी भर गोबर डालोगे तब यह खराब होगा? इसमें एक बूंद गोबर डालने से खराब हो जाएगा। मटकी भर गोबर रखा है, इसमें क्या तुम एक बूंद दूध डाल दोगे तो यह शुद्ध हो जाएगा? इसमें तुम सागर भी ले आओ दूध का डालने, तो भी शुद्ध न कर पाओगे। एक बूंद जहर की सब नष्ट कर देती है।
तो जब भी तुम राजनीति और धर्म में समझौता होते देखो, तुम पाओगे धर्म हार गया। फिर वहां धर्म धोखा होगा। फिर वह नाममात्र को रह जाएगा। फिर राजनीति धर्म का भी शोषण करेगी। इसी तरह हुआ है। जिसको तुम धर्म कहते हो..हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख..सब राजनीति के शिकार हो गए, सब राजनीति के पीछे चलने लगे। क्योंकि राजनीति ने कहा कि हम तुम्हें ताकत देंगेः तुम्हारे मंदिर बड़े हो जाएंगे; तुम्हारी मस्जिदों में सोना चढ़वा देंगे; धर्म-गुरु का सिंहासन बड़ा ऊंचा होगा।
राजनीति धर्म के कंधे पर सवार होना चाहती थी, तो राजनीति ने कहा कि तुम महान हो। बड़े से बड़ा राजनीतिज्ञ भी जाता है और संतों के चरण छू आता है। तुम यह मत सोचना कि वह संतों के चरण छूता है। संतों से उसे क्या लेना-देना? क्योंकि जिसको संतों के चरण छूना होता, वह खुद ही संत हो सकता था। संतों के चरण छूने जाता है..कई कारणों से। एक कि आशीर्वाद मिल जाए उसके पागलपन के लिए कि वह जो कर रहा है, जो दीवानगी है उसके मन में महत्वाकांक्षा की, वह पूरी हो जाए। शायद संतों के आशीर्वाद से सहारा मिले। दूसरा वह जाता है पैर छूने कि संतों के आस-पास जो भीड़ है लोगों की, वह देख ले कि यह राजनीतिज्ञ कितना धार्मिक है; क्योंकि इस भीड़ के ही वोट उसे राजनीति में चाहिए।
तो, राजनीतिज्ञ मंदिरों में भी जाता है, मस्जिदों में भी जाता है, गुरुओं के पास भी जाता है, पैर छू कर झुकता है ताकि लोग देख लें, तस्वीरें खींच लें कि यह आदमी विनम्र है। क्योंकि विनम्रता की सीढ़ियों से ही चढ़ कर अहंकार के शिखर पर पहुंचा पाएगा, और कोई उपाय नहीं है। राजनीतिज्ञ को न मंदिर से मतलब है, न मस्जिद से; तुम जहां बुलाओ वह वहां हाजिर है। वह देखता है अपनी राजनीति को कि कहां से मेरी सीढ़ियां ठीक बनेंगी।
मेरी कोई उत्सुकता राजनीति में नहीं है; क्योंकि मैं मानता हूं कि राजनीति एक मानसिक विकार है। स्वस्थ आदमी उसमें उत्सुक होता ही नहीं। हो ही नहीं सकता। स्वस्थ आदमी अपने आनंद में, अपनी शांति में उत्सुक होता है। स्वस्थ आदमी जमीन पर रेखाएं खींचने में, बल और प्रतिष्ठा की घोषणा करने में, महत्वकांक्षा में उत्सुक नहीं होता। महत्वाकांक्षा पैदा ही होती है हीनता की ग्रंथि से। वह इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स का परिणाम है। तुम्हारे भीतर जितना हीनता का भाव होता है उतनी ही तुम्हारे भीतर महत्वाकांक्षा होती है। तुम जब राष्ट्रपति न हो जाओ, प्रधानमंत्री न हो जाओ, तब तक तुम्हें लगता ही नहीं कि तुम आदमी हो। तब तक तुम्हें लगता है, सिद्ध न कर पाए कि मैं भी कुछ हूं। सिद्ध करना है कि मैं कुछ हूं! यह सिद्ध करने की आकांक्षा ही इसलिए पैदा होती है कि तुम्हें भीतर लगता है, तुम ना-कुछ हो। लेकिन जिसको भीतर लगता हो, मैं सब कुछ हूं, अब उसको सिद्ध करने को कुछ भी न बचा।
जिसके भीतर से हीनता चली गई, उसके बाहर से राजनीति चली गई। जिसके भीतर सब उपलब्ध हो गया, उसे बाहर पाने को कुछ भी न रहा।
इसलिए मैं कहता हूं, धार्मिक क्रांति ही एकमात्र क्रांति है। क्योंकि उसी से तुम परम संपदा को उपलब्ध होओगे, परम रूपांतरण को, तुम्हारा नव-जन्म होगा, तुम द्विज बनोगे।
देश और समाज के प्रति तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है। अगर दायित्व है तो मनुष्य के प्रति, मनुष्यता के प्रति नहीं। अगर दायित्व है तो व्यक्ति के प्रति, समाज के प्रति नहीं। क्योंकि समाज शब्द धोखे का है। और समाज के नाम पर तुमसे वह करवाया जाता है जो तुमने कभी भी न किया होता अगर तुम्हें इस बात का बोध होता। व्यक्ति के प्रति तुम्हारा दायित्व है।
समझो, तुम्हारी पत्नी है, तुम्हारा छोटा बच्चा है। तुम जानते हो कि तुम छोड़ कर इन्हें चले गए तो ये भूखों मरेंगे; लेकिन राजनीतिज्ञ कहता है, देश खतरे में है। देश है क्या? इसी तरह के छोटे-छोटे बच्चों के समूह का नाम देश है। इसी तरह की घर में बैठी पत्नियों के जोड़ का नाम देश है। इसी तरह के छोटे-छोटे घरों के इकट्ठे समूह का नाम देश है। राजनीतिज्ञ कहता है, देश खतरे में है। तुम कहते होः लेकिन मेरी पत्नी है, छोटा बच्चा है। वह कहता हैः क्या कायरता की बातें कर रहे हो? बलिदान कर दो। जब देश खतरे में है तो न कोई पत्नी है, न कोई बच्चा है! युद्ध पर जाओ।
ऐसे न मालूम कितने घरों से न मालूम कितने व्यक्तियों की हत्या के ऊपर देश पर कुर्बानी होगी।
और यह दूसरे देश का राजनीतिज्ञ अपने देश में समझा रहे है। जो वहां युद्ध के मैदान पर लड़ने को खड़े हो जाते हैं, वे एक जैसे लोग हैं, उनकी एक दूसरे से कोई दुश्मनी नहीं है। किसी ने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है। किसी ने किसी को देखा तक नहीं था पहले। और जब एक देश के लोग दूसरे देश के सैनिकों की छाती में छुरा भोंकते हैं या बम फेंकते हैं, या गोली दागते हैं तो उन्हें पता नहींः हिंदू थोड़े ही मरता है, मुसलमान थोड़े ही मरता है..व्यक्ति मरते हैं। हिंदुस्तानी थोड़े ही मरता है, पाकिस्तानी थोड़े ही मरता है..मनुष्य मरते हैं। और जब तुम एक पाकिस्तानी की छाती में छुरा भोंकते हो, जब तुमने एक नन्हें बच्चे के, जो घर में भूखा रहेगा, जिसकी पत्नी को अब रोटी नहीं मिलेगी, या हो सकता है कि पत्नी की बेइज्जती होगी, कोई बलात्कार करेगा, कोई बचाने वाला न होगा..तुमने उस पत्नी और बच्चे की छाती में छुरा भोंक दिया। और वह भी तुम्हारी छाती में छुरा भोंक रहा था। उसे भी पता नहीं है कि तुम घर में एक रोती हुई मां को छोड़ आए हो।
व्यक्तियों की हत्या की जाती है, जो कि वास्तविक हैं। समाजों और राष्ट्रों को बचाया जाता है, जो कि झूठ हैं।
मैं तुमसे कहता हूं, मनुष्यता को भूल कर प्रेम मत करना, मनुष्य को प्रेम करना। क्योंकि मेरे अनुभव में यह आया है कि जो-जो लोग मनुष्यता की बात करते हैं, वे लोग असमर्थ हैं मनुष्य को प्रेम करने में। जब तुमसे मनुष्य से प्रेम करने में कठिनाई पड़ती है, ...मनुष्य को प्रेम करना बड़ा कठिन है। कठिन है, क्योंकि अहंकार को गिराना पड़ेगा। कठिन है, क्योंकि मनुष्य एक यथार्थ है। यथार्थ के साथ जीने में संघर्ष है। तुम कहते होः नहीं, मनुष्यों से मुझे कोई मतलब नहीं है; मैं मनुष्यता को प्रेम करता हूं।
अब मनुष्यता तुम्हें कहीं न मिलेगी। न कोई झगड़ा-झंझट होगा। यह मनुष्यता तुम्हारा ख्याल है। मनुष्यता कहीं भी नहीं है, तुम्हारे विचार के अतिरिक्त। राष्ट्र कहां है, तुम्हारे विचार के अतिरिक्त? और इन राष्ट्रों, देशों के नाम पर आदमी को अब तक जलाया-भुनाया गया है।
कब जागेगा आदमी? कब उसे होश आएगा कि सारे मनुष्य एक जैसे हैं; सारे मनुष्यों की तकलीफें एक जैसी है; सारे मनुष्यों को भूख लगती है, सिर में दर्द होता है, दवा की जरूरत होती है; सब बच्चे-बच्चे हैं; सब स्त्रियां स्त्रियां हैं, पुरुष पुरुष हैं, न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान है, न कोई ईसाई, न कोई हिंदुस्तानी है, न कोई पाकिस्तानी है।
जिस दिन ऐसे विचार का जन्म होगा, और तुम मनुष्य को प्रेम करोगे, और मनुष्य को किसी भी दूसरी चीज के लिए कुर्बान न करोगे, उसी दिन दुनिया में शांति होगी, उसके पहले नहीं।
लेकिन राजनीतिज्ञ कहता हैः अगर तुमने हमारी न सुनी, तो दुनिया में बड़ी अशांति हो जाएगी। हम शांति के रक्षक हैं। हम युद्ध भी करते हैं तो शांति के लिए करते हैं। हम मारते भी हैं तो बचाने के लिए। हमारी हिंसा भी अहिंसा की सुरक्षा का उपाय है।
वह तुम्हें धोखे दे रहा है। युद्ध की तैयारी करता है, शांति की बात करता है। तो, हिटलर भी वही कहता है, मुसोलिनी भी वही कहता है। सारे युद्धखोर यही कहते हैं कि हम शांति के लिए लड़ रहे हैं। इनके विरोधाभास को ठीक से समझ लेना।
शांति के लिए लड़ने की जरूरत कहां है? शांति के लिए शांत होने की जरूरत है। शांति के लिए तो युद्ध छोड़ देने की जरूरत है।
मेरी चेष्टा है कि तुम जागो। तुम जागोगे तो तुम्हें चीजें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी कि यह क्या पागलपन हो रहा है! तुम किस गहरी नींद में खोए थे?
और राजनीतिज्ञ तुम्हारी नींद कर शोषण करता है। वह नहीं चाहता कि तुम जागो। वह चाहता है कि तुम गहरी नींद में रहो, क्योंकि तुम्हारी नींद में ही वह तुम्हारी छाती पर बैठ सकता है। तुम्हारी नींद में ही वह अपने पद, प्रतिष्ठाएं, अपनी शक्ति का संग्रह कर सकता है। तुम जाग जाओ तो उसे छाती से उतार दोगे।
इसलिए कोई राजनीतिज्ञ नहीं चाहता कि दुनिया में आदमी का बोध गहरा हो। इसलिए राजनीतिज्ञ हमेशा संत के विपरीत हैं। अगर कोई संत हो तो राजनीतिज्ञ सदा विरोधी हैं उसके। हां अगर कोई संत न हो तो राजनीतिज्ञ उसके चरण छूता है। वह कहता हैः आप राष्ट्र-संत हैं! वह कहता हैः आपके आशीष चाहिए! क्योंकि वह देखता है कि इस आदमी के माध्यम से जो धर्म के नाम पर लोग इकट्ठे हो गए हैं, उनको भी राजनीति की मूढ़ता में संलग्न किया जा सकता है।
नहीं, मैं तुमसे कहता हूं, समाज के प्रति तुम्हारा कोई भी दायित्व नहीं है। इसका तुम यह मतलब मत समझना कि मैं समाज का दुश्मन बनता हूं। जब मैं कहता हूं, समाज के प्रति तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है, मनुष्य के प्रति दायित्व है, तब मैं तुमसे कह रहा हूं कि मनुष्य के प्रति अगर तुमने अपना दायित्व पूरा किया तो समाज के प्रति अपने से पूरा हो जाएगा, तुम्हें उसका विचार भी करना जरूरी नहीं है। क्योंकि समाज व्यक्तियों का जोड़ है।
यहां तुम आए हो अगर मैं तुमको एक-एक को बिठा कर भोजन करा दूं, तुम्हारी सबकी भूख मिट जाए, तो इस समूह की भूख मिट जाएगी या नहीं? लेकिन मैं कहूंः नहीं, तुम्हारी भूख से मुझे कोई मतलब नहीं, मुझे तो इस समूह की भूख को मिटाना है। अगर तुम तो भूखे भी रहो इस समूह की भूख को मिटाने को तो कोई हर्जा नहीं, कुर्बान करो अपने को, शहीद हो जाओ..लेकिन समूह की भूख मिटानी है।
समूह का कोई पेट है, कि समूह की कोई भूख है? व्यक्ति का पेट है, व्यक्ति की भूख है। समाज की कोई आत्मा है। व्यक्ति की आत्मा है। लेकिन व्यक्ति से राजनीति का कोई संबंध नहीं है।
धर्म का संबंध व्यक्ति से है। राजनीति समाज की क्रांति है, धर्म व्यक्ति की क्रांति है। और मैं तुमसे कहता हूं, धर्म ही एकमात्र क्रांति है, क्योंकि क्रांति वहीं हो सकती है जहां आत्मा जीवंत हो। जहां आत्मा ही न हो वहां क्रांति कैसे होगी? जहां चेतना ही न हो वहां रूपांतरण कैसे होगा? जहां भूख ही न हो, वहां भूख के बाद, भोजन के बाद, जो तृप्ति मिलती है, वह तृप्ति कैसे होगी?
झूठे शब्दों से सावधान! शब्दों ने आदमी को बहुत भरमाया है।
और स्वभावतः मित्रों को ऐसा लग सकता है कि मैं अपनी बुद्धि को समाज, राजनीति और सत्ता पर क्यों नहीं लगाता? तो मैं तुमसे यही कहूंगा जो फरीद कह रहा हैः फरीदा जे तू अकलि लतीफ..अगर फरीद, तुझमें थोड़ी भी बुद्धि हो तो समाज, राजनीति, सत्ता, उनसे दूर रहना। वह तो बुद्धिहीनों का धंधा है। नहीं तो बुद्ध पागल थे? महावीर पागल थे? मुझे तो अगर लगाना हो राजनीति पर बुद्धि को तो दिल्ली की यात्रा करनी पड़े। वे तो दिल्ली में थे ही। वे तो दोनों ही राजाओं के बेटे थे, सिंहासन पर बैठे ही थे। अपनी प्रतिभा का उपयोग कर सकते थे, भलीभांति; लेकिन दोनों ने छोड़ दिया सिंहासन, हट गए। क्योंकि प्रतिभा की पहली लक्षणा यह है कि पद की उसे आकांक्षा नहीं होती। वह तो प्रतिभा नहीं होती, तब पद की आकांक्षा होती है। पद सब्स्टीट्यूट है प्रतिभा का। प्रतिभा जब नहीं होती तब तुम दिखाना चाहते हो किसी भांति अपनी श्रेष्ठता..वह पदसे मिल सकती है। जब तुममें प्रतिभा नहीं होती तब तुम अपनी जेब बड़ी करके दिखाना चाहते हो, तिजोड़ी बड़ी करके दिखाना चाहते हो, तुम अपना सिंहासन ऊंचा करके दिखाना चाहते हो। लेकिन प्रतिभा अगर हो तो तुम राह पर भी खड़े रहो तो भी प्रतिभा का सूर्य चमकता रहता है, उसके लिए दिल्ली जाने की कोई जरूरत नहीं है।
नहीं मैं तो कहता हूं कि अगर तुममें प्रतिभा हो तो वही गारंटी है कि राजनीति में तुम्हारी उत्सुकता न होगी। मैंने राजनीति में सिर्फ थर्ड क्लास, बिल्कुल तृतीय श्रेणी की बुद्धि के लोगों को देखा है। प्रथम कोटि के लोग उस तरफ उत्सुक नहीं होते। प्रथम कोटि का आदमी चुपचाप वहां से हट जाता है। क्योंकि वहां वह अनुभव करता है कि यह तो हीन लोगों की प्रतिस्पर्धा है। जो कुछ भी नहीं हैं, वे कुछ होने के दिखावे में लगे हैं। आत्मवंचना है!
लेकिन इसका मतलब नहीं है कि मनुष्य से मेरा कोई प्रेम नहीं है। मनुष्य से मेरा प्रेम है, इसलिए मेरी उत्सुकता राजनीति में नहीं है; क्योंकि राजनीति सबसे बड़ा जहर है और मनुष्य अगर राजनीति से मुक्त हो जाए तो यह संसार स्वर्ग बन सकता है। इस संसार में सब कुछ है, लेकिन राजनीति के कारण कठिनाई है। इस जमीन पर इतना भोजन है, सभी को मिल सकता है। लेकिन राजनीति दिक्कत देती है।
पिछले अनेक वर्षों में अमरीका को बहुत बार अपने गेहूं को समुद्रों में डुबाना पड़ा है। रूस को कुछ वर्ष अपना गेहूं रेल के इंजनों में कोयले की जगह जलाना पड़ा है। राजनीति! क्योंकि अगर अमरीका अपने उस गेहूं को मुफ्त बांट दे जो फेंकने योग्य है और उसकी कोई जरूरत नहीं है, जरूरत से ज्यादा है..अगर वह उसे मुफ्त बांट दे तो उसकी ताकत कमजोर होती है। उसे अगर बाजार में बेचा न जाए तो गेहूं का दाम नीचे गिरता है, दाम नीचे गिरता है तो अमरीका की आमदनी नीचे गिरती है। तो बेहतर है नष्ट कर देना, लेकिन देना बेहतर नहीं है!
दुनिया में सब कुछ है; अगर राजनीति के घेरे न हों तो सभी को सभी कुछ उपलब्ध हो सकता है। विज्ञान ने इतनी खोज कर ली है कि किसी को भूखे मरने की कोई जरूरत नहीं है; लेकिन राजनीति के कारण बड़े अड़ंगे हैं। आधी दुनिया भूखी मरती है। वह तब तक मरेगी जब तक राजनीति की सीमाएं नहीं टूट जातीं। हजारों, लाखों, करोड़ों लोग बीमार हैं, स्वस्थ नहीं हो पाते, दवाइयां बंद पड़ी हैं मुल्कों के पासः लेकिन उनको जरूरत नहीं है दवाओं की, जिनको जरूरत है उन तक राजनीति के कारागृह हैं, वहां तक पहुंचाई नहीं जा सकतीं।
मनुष्य अगर राजनीति से मुक्त हो जाए..और जो कठिन बात है, क्योंकि उसका अर्थ यह है कि मनुष्य तभी राजनीति से मुक्त हो सकता है जब वह अपने में तृप्त हो जाए।
तो, मेरी सारी चेष्टा राजनीति से मुक्त करने की भी नहीं है, सारी चेष्टा तुम्हें तृप्त करने की है। मेरे उपाय विधायक हैं। तुम शांत हो जाओ, तुम प्रफुल्लित हो जाओ तो तुम्हारी आंख में वह गुण आ जाएगा जो चीजों को आरपार देखने लगे; तुम्हें चीजें साफ दिखाई पड़ने लगेंगी।
और पूछा है कि आपको इन चीजों पर ध्यान देना चाहिए ताकि एक बेहतर मनुष्यता का उदय हो सके!
इन्हीं के कारण तो बेहतर मनुष्यता का उदय नहीं हो पा रहा है। अगर लोग राजनीति से ध्यान हटा लें तब बेहतर मनुष्यता का जन्म बहुत दूर नहीं है। अब यह बहुत जटिल है बात, क्योंकि राजनीति का संस्कार बड़ा गहरा है। सारे अखबार उसी की बातें करते हैं। रेडियो उसकी बात करता है। टेलीविजन उसी की बात करता है। लोग उसी की चर्चा करते हैं। लोग एक दूसरे को दोहराते जाते हैं। उसकी पुनरुक्ति इतने जोर से होती रहती है कि मन में वह बैठता चला जाता है, बैठता चला जाता है। तुम्हारे भीतर की लकीरें तय हो जाती हैं; तुम मुक्त नहीं रह जाते सोचने को।
अगर कभी कोई मंगलग्रह से कोई यात्री आए और तुम्हारे ढंग देखे तो बड़ा हैरान होगा कि आदमी कैसा पागल है! किसी ने किसी का झंडा नीचा कर दिया..उसको तो झंडा नहीं दिखाई पड़ेगा; वह तो देखेगा कि डंडे पर कपड़ा लटकाया हुआ है, रंगीन है, कई तरह के रंग लगाए हैं..किसी ने किसी का झंडा नीचा कर दिया, बस छुरे-तलवार निकल आए, झंडा नीचा हो गया! झंडा ऊंचा रहे हमारा! अब झगड़ा, युद्ध; मार डालेंगे लाखों लोगों को, क्योंकि झंडा नीचा हो गया! उसकी समझ में ही नहीं आएगा कि ये आदमी क्या पागल हैं यहां! इसमें मामला क्या हो गया, किसी ने किसी का कपड़ा नीचा कर दिया?
लेकिन राजनीतिज्ञ कहते हैंः यह कोई चीथड़ा नहीं है! प्राण चले जाएंगे! यह झंडा है!
तुम थोड़ा सोचो कि तुम्हारे मन को किस भांति से सम्मोहित किया गया है। झंडा नीचा हो गया! झंडे में है क्या? और झंडा नीचा हो गया, इसमें क्या अड़चन है? फिर से ऊंचा कर लो। इसमें मरने-मारने का कहां सवाल है?
नहीं, लेकिन तुम बिल्कुल मूच्र्छित हो। झंडा तुम्हारा अहंकार है। वह कपड़ा नहीं है, उसमें तुमने बड़े भारी अपने अहंकार को नियोजित किया हुआ है। झंडा नीचा हो गया, मुल्क खतरे में है। अब झगड़ा होगा, लाखों लोग कटेंगे!
फिर यह चल रहा है पूरे इतिहास से। किसी ने किसी की मंदिर की मूर्ति तोड़ दी; किसी ने किसी मस्जिद के सामने बाजा बजा दिया झगड़ा हो गया!
अगर मंगल ग्रह का कोई यात्री ऊपर से देखे तो वह देखेगा के यह पूरी पृथ्वी पागल है, विक्षिप्त है। क्योंकि तुम्हारा कोई ढंग उसकी समझ में न आएगा। तुम्हारा ढंग समझने योग्य नहीं है। तुमको समझ में आता है, क्योंकि तुम्हें उसी तरह की शिक्षा दी गई है तो तुम्हें समझ में आता है। अगर तुम थोड़े भी जाग जाओ तो तुम्हें भी दिखाई पड़ेगाः यह हो क्या रहा है? इसकी जरूरत क्या है? इसमें कहीं बुद्धिमानी नहीं दिखाई पड़ती। इससे ज्यादा और बुद्धिहीनता क्या होगी?
लोग नेताओं के पीछे चले जा रहे हैं। एक नेता दूसरे नेता को नीचे उतारने की कोशिश करता है। किसी को जीवन की असली समस्याओं से कोई प्रयोजन नहीं है। समस्या एक ही है कि मेरे हाथ में सारी ताकत होनी चाहिए। ताकत का तुम क्या करोगे? ताकत को पा भी लोगे तो होगा क्या? कितने सिकंदर, कितने नेपोलियन, कितने हिटलर, कितनी बड़ी ताकत के लोग थे! क्या हुआ? ताकत से सिर्फ विध्वंस हुआ है। क्योंकि ताकत चाहने वाला जो आदमी है वह आदमी गलत है। ताकत उसके हाथ में हो जो ताकत नहीं चाहता, तो शायद कुछ लाभ भी हो। लेकिन जो ताकत चाहता है उससे लाभ नहीं हो सकता। क्योंकि उसकी महत्वाकांक्षा का कोई अंत न होगा; उसे और ताकत चाहिए, और ताकत चाहिए। वह पूरे मुल्क को, मुल्कों को जब तक अग्नि में न झोंक देगा युद्ध की, तब तक उसे ताकत का पूरा मजा नहीं आ सकता।
तुम अपने राजनीतिज्ञों के चित्रों को गौर से देखो। तुम चकित होओगे। तुम उनकी कार्यवाहियों को गौर से देखो। तुम जरा अपने को दूर करो उस सारी कंडीशनिंग से, संस्कारों से, जो तुम पर पड़े हैं, और फिर तुम गौर से देखोः तुम हंसोगे कि यह क्या हो रहा है! पृथ्वी पूरी एक बड़ा पागलखाना है।
नहीं, मनुष्यता का उदय राजनीति से अगर होता तो कभी का हो गया होता। राजनीति तो बड़ी पुरानी है। मनुष्यता का उदय..मनुष्यता के उदय से मेरा मतलब मनुष्यों का उदय..सिर्फ एक ढंग से हो सकता हैः वह सत्ता नहीं है, वह शून्यता है; शक्ति नहीं है, शांति है; दूसरे पर कब्जा नहीं है, अपनी मालकियत, अपना स्वामी हो जाना पर्याप्त है। और प्रत्येक व्यक्ति अगर अपना स्वामी हो तो इस संसार में एक स्वामित्व की सुगंध होगी; हरेक अपना मालिक होगा।
राजनीति है दूसरे को गुलाम बनाने की चेष्टा, दूसरे के मालिक होने की चेष्टा; धर्म है अपना मालिक होने की चेष्टा।
मालिक तो मैं भी तुम्हें बनाना चाहता हूं, लेकिन अपना ही। तुम्हीं तुम्हारे गुलाम, तुम्हीं तुम्हारे मालिक! तुम्हीं तुम्हारी प्रजा, तुम्हीं तुम्हारे राजा! तुम्हीं तुम्हारा देश, तुम्हीं तुम्हारे सत्ताधिकारी। अगर तुम अपने इस छोटे से भीतर के विश्व को सम्हाल लो तो तुमने सारे विश्व को सम्हालने का सूत्रपात कर दिया। एक आदमी संगीत से भर जाए, तो वह अपने पड़ोस में संगीत की लहरें पहुंचाने लगता है।
निश्चित ही, मनुष्यता कैसे बेहतर हो, इसकी चेष्टा मैं भी कर रहा हूं; लेकिन वह चेष्टा राजनीति की चेष्टा नहीं है। मैं तुम्हें समस्त राजनीतियों से मुक्त करना चाहता हूं। मेरा कोई चुनाव नहीं है। मेरा यह चुनाव नहीं है कि तुम इंदिरा की राजनीति के पक्ष में रहो कि जयप्रकाश की राजनीति के पक्ष में रहो; मेरे लिए दोनों समान हैं। राजनीति गलत है। वह किसकी है, इसका कोई मूल्य नहीं है। तुम राजनीति से मुक्त हो जाओ। और लोग अगर मुक्त होते चले जाएं तो राजनीतिज्ञ अलग खड़े रह जाएंगे। उन्हें, उन्हें खुद भी अपने संघर्ष की नासमझी दिखाई पड़ने लगेगी। लेकिन तुम्हारी भीड़ उनके साथ होती है, तो उनका भी नशा नहीं उतरता। उनको भी समझ में नहीं आता कि हम गलत हो सकते हैं, क्योंकि इतने करोड़ों लोग साथ हैं।
और तुम्हारे साथ का कोई भरोसा नहीं है, तुम किसी के भी जुलूस में साथ हो जाते हो। तुम्हें जुलूस का मजा आ रहा है; लेकिन तुम्हें पता नहीं कि वह जो जुलूस के आगे झंडा लेकर चल रहा है, वह पागल हुआ जा रहा है..वह देख कर कि लाखों लोग मेरे साथ हैं। तुम यूं ही हो लिए थे; तुम मजा देखने के लिए जा रहे थे कि पता नहीं, क्या होने वाला है। तुम कल उसके विरोधी के जुलूस में भी तुम्हीं सम्मिलित हो जाओगे। लेकिन तुमने दोनों को नशा दे दिया।
भीड़ शराब है। जब कोई अपने पीछे बड़ी भीड़ देखता है, होश खो देता है। उसको लगता है, अब मेरे हाथ में सब है; अब मैं जो चाहूं, वह करके दिखा दूंगा।
तुम राजनीतिज्ञों के मस्तिष्क को खराब करते हो। तुम उनकी छोटी-छोटी बुद्धियों के गुब्बारे को खूब हवा भर देते हो। तुम उनको वहां तक ले जाते हो जहां वे फूट जाते हैं। तुम्हारे सभी राजनीतिज्ञ उस दशा में पहुंच जाते हैं। उनसे तुम अपना हाथ हटा लो।
मैं तुमसे कहता हूं कि तुम इतना ही कर लो कि तुम अपने को जमा लो, सारी दुनिया अपने आप जमने लगेगी।
एक छोटे स्कूल में ऐसा हुआ कि एक शिक्षक बच्चों को समझा रहा था। दुनिया का नक्शा उसने कई टुकड़ों में काट दिया और बच्चों से कहा कि अब तुम इसे जमा कर बताओ। बच्चे बड़ी मुश्किल में पड़ गए। कोई सौ टुकड़े कर दिए उसने दुनिया के नक्शे के मुश्किल था..टिम्बकटू की जगह मैडगास्कर चला गया, मैडगास्कर की जगह टिम्बकटू आ गया। कठिनाई मालूम होने लगी कि कहां स्पेन को रखें, कहां तिब्बत को; क्योंकि टुकड़े-टुकड़े कर दिए। लेकिन एक युवक ने, एक छोटे बच्चे ने, उस नक्शे के गत्तों को उलटा कर देखा। उसे तरकीब मिल गई। दूसरी तरफ कुंजी थी। दूसरी तरफ एक आदमी की तसवीर बनी थी, उसने सब टुकड़े उलटा दिए और आदमी की तसवीर जमा दी। इस तरफ आदमी जमता गया उस तरफ दुनिया जम गई।
वहीं मैं तुमसे कहता हूं। आदमी जम जाए, सारी दुनिया जम जाएगी। तुम दुनिया को जमाते रहो..आदमी भी न जमेगा। दुनिया भी न जमेगी। दुनिया को जमाने की कुंजी आदमी की तस्वीर है। उस तस्वीर को जमाने कहें भी नहीं जाना है, क्योंकि तुम भी वही कुंजी हो। तुम अपने से शुरू कर दो।
राजनीति सदा दूसरे से शुरू होती है, धर्म सदा अपने से।
तो न तो मैं किसी की राजनीति के पक्ष में हूं, न किसी की राजनीति के विरोध में हूं। मैं राजनीति मात्र के विरोध में हूं।

तीसरा प्रश्नः फरीद और आप दोनों कहते हैं कि जीवन की जो श्रेष्ठतम अवस्था है, उसे ही प्रभु के प्रेम में लगा दो; क्योंकि धर्म ही सार है, शेष सब कुछ असार है। इस संदर्भ में कुछ मित्र देश-प्रेम की बात करते हैं। पूछते हैं कि जब देश आपात और संकट की स्थिति से गुजर रहा है, तब भी क्या ओशो के लिए भगवत-भजन का एकतारा बजाए जाना उचित है।

और कोई संगीत ही नहीं है; बस एकतारा है भगवत-भजन का।
और आपात की स्थिति आज नहीं है, सदा से है। ऐसा कोई क्षण ही नहीं रहा मनुष्य के इतिहास में जब संकट न हो। अगर तुम संकटों को ही देखते रहो तो बुद्धों का पैदा होना बंद हो जाएगा।
बुद्ध के समय में संकट नहीं था? बहुत संकट था। राजनीतिज्ञ तो ऐसी व्याख्या करते हैं कि बुद्ध घर छोड़ कर गए ही इसलिए कि बुद्ध के राज्य में और पड़ोसी राज्य में संघर्ष था। कहीं झंझट में न उतरना पड़े, इसलिए वे चुपचाप घर से निकल गए। राजनीतिज्ञों की व्याख्या बुद्ध की यही है।
राजनीतिज्ञ महावीर के संबंध में भी यही कहते हैं कि घर छोड़ा उन्होंने, धर्म के लिए नहीं; राज्य मिल गया उनके बड़े भाई को..वे छोटे भाई थे, राज्य मिल नहीं सकता था..यही दंश...उन्होंने घर छोड़ दिया।
राजनीतिज्ञ की अपनी व्याख्याएं हैं। वह हर चीज में राजनीति खोजता है। यह छोटे भाई कीदुखी अवस्था कि मुझे तो मिलना नहीं है राज्य, क्या सार है राज्य में! मिलता तो सार होता; जब मिला ही नहीं तो सार नहीं था। अंगूर खट्टे समझ कर महावीर घर छोड़ कर चले गए।
बुद्ध को लगा कि यह तो बड़ा उपद्रव होने का है, झंझट होगा, झगड़ा होगा, युद्ध होगा। कायर रहे होंगे। घबड़ा गए होंगे। छोड़ कर भाग गए।
संकट कब नहीं था?
जीसस के समय में संकट न था? यहूदी गुलाम थे। रोमन राज्य था। उचित तो यह हुआ होता कि जीसस भी देश-प्रेमियों में सम्मिलित हो गए होते। भजन का एकतारा फेंक दिया होता, और राजनीति की बंदूक उठा ली होती। छाती छेदने लगते। हृदय के गीत गाने बंद कर दिए होते। तो तुम्हें एक सैनिक और मिल जाता, एक पागल और मिल जाता। लेकिन पागलों कि तुम्हें वैसे ही क्या कमी है? इस एक पागल से और कुछ तुम्हारी संख्या न बढ़ जाती। लेकिन जीसस अपना एकतारा बजाते रहे। बुद्ध अपना एकतारा बजाते रहे।
मीरा के समय में संकट न था? मुसलमान मुल्क पर छाए थे, कब्जा उन्होंने कर लिया था। हिंदू धर्म संकट में था और मीरा भगवत-भजन के गीत गाती, नाचती रही।
देशद्रोही मालूम पड़ते हैं ये सब लोग। जब भी, जब भी संकट है तभी अपना भजन गाते हैं।
तुलसीदास भी क्या बैठे खाक रामायण लिखते रहे! यह कोई वक्त रामायण लिखने का था? उठा लेते छुरा और कूद पड़ते देश प्रेम में मर जाते।
तुम थोड़ा सोचो, संकट कब नहीं था। आदमी जैसा है, संकट सदा रहेगा ही। ऐसे आदमी का संकट ही बना रहेगा। ऐसा आदमी संकट के बाहर हो नहीं सकता। अगर इस संकट को देख कर ही कोई चलता रहे तो फिर इस संकट के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं। इस संकट के बाहर जाने का उपाय उस एकतारे की धुन को सुन लेना है। तुम्हारी भीड़, तुम्हारे बाजार के पास ही कोई एकतारा बजाए चला जाता है, वह संकट के बाहर है।
मैं तुमसे कहता हूं, मैं संकट के बाहर हूं, आपात स्थिति के बाहर हूं। तुम मुझे हथकड़ियों में बांध कर काल कोठरी में डाल दो, तो भी मैं तुम्हारी हथकड़ियों के बाहर हूं। तुम मेरी गर्दन को काट दो तो भी मैं तुम्हारी हत्या के बाहर हूं। तुमने अगर मेरे एकतारे को सुना, तुम भी बाहर हो जाओगे। उस एकतारे की धुन को सुन कर चल पड़ना ही बाहर हो जाने का उपाय है। अगर तुमने कहा कि पहले संकट को निपटा लेने दो; पहले आपात स्थिति को टल जाने दो; पहले सारी दुनिया ठीक हो जाए, फिर हम भी, हम भी चाहते हैं बजाए यह गीत और नाचें और मीरा की तरह और चैतन्य की तरह प्रसन्न हो; पर ठहरा, अभी बहुत सी चीजें उलझी हैं, ठहरो, इनको सुलझा लेने दो। क्या तुम सोचते हो, ऐसी कोई घड़ी आएगी जिस दिन तुम सुलझा पाओगे? क्या सुलझाना तुम्हारे हाथ के भीतर है? तुम उलझे ही उलझे मर जाओगे। तुम सोच लो। उलझे ही उलझे मर जाना हो, उलझे ही उलझे मर जाओ। लेकिन इस भ्रांति में मत रहो कि तुम सुलझा कर किसी दिन, फिर उस एकतारे को सुनोगे जो परमात्मा का है तो तुम गलती में हो। तो यह कभी भी न होगा।
जिसे जाना है बाहर, उसे आज जाना होगा। आज के अतिरिक्त और कहीं मार्ग नहीं है। इस क्षण उसे जागना होगा। क्योंकि क्षण-क्षण हाथ से बीते चले जाते हैं।
फरीद कह रहा हैः फरीदा जा तउ खट्टण वेल..जब युवा था, शक्ति भरी थी, तब तूने मिट्टी में गंवा दी।
देख फरीदा जु थीआ सकर होई विसु..और जिस-जिस को तूने सुख समझा था, वह देख फरीदा, सब दुख हो गया।
इसके पहले कि ऐसा रुदन का क्षण आए, जाग जाओ।
निश्चित ही मैं एकतारा बजा रहा हूं। एकतारा है वह क्योंकि उसमें एक ही स्वर है। उसमें सिर्फ परमात्मा का स्वर है। इतनी बातें सब कहता हूं, इतना बातें थोड़े कहता हूं; एक ही बात कहता हूं। इतनी बातों में एक ही बात कही जा रही है। एकतारा है। उसमें सात स्वर भी नहीं है। वह इंद्रधनुष की तरह सात रंगों वाला नहीं है; बल्कि वह जहां इंद्रधनुष के सातों रंग मिल कर एक ही प्रकाश बन जाता है। इंद्रधनुष के सात रंगों में खंडित हो गई है एक ही प्रकाश की धारा।
भौतिकी से पूछो तो भौतिक शास्त्र कहता है, प्रकाश का रंग तो श्वेत है, शुद्धतम श्वेत है; फिर जब प्रकाश पानी की बूंद से गुजरता है तो सात हिस्सों में टूट जाता है, इसलिए इंद्रधनुष बन जाता है। हवा में लटके हुए पानी के कणों से सूरज की गुजरती किरण सात रंगों में टूट जाती है। छोटे-छोटे बच्चों के लिए, स्कूल में समझाने के लिए एक गोल वर्तुलाकार, जैसे कि एक चरखे का चाक होता है, ऐसा चाक होता है, उसमें सात रंग बने होते हैं। उस चाक को जोर से घुमाओ, घुमाते जाओ, धीरे धीरे सात रंग खो जाते हैं, और शुभ्र रंग प्रकट हो जाता है, एक प्रकट हो जाता है।
सात स्वर हैं। वे उस परमात्मा के एक ओंकार नाद के ही सात खंड हैं। सात दिन हैं। वे उस परमात्मा की अखंड अनंतता के ही सात रूप हैं।
एकतारा ही है। मैं एक ही आवाज, एक ही ओंकार की आवाज को कहे चले जाता हूं। बहुत रूप देता हूं उसे, बहुत रंग देता हूं, बहुत वस्त्र पहनाता हूं; लेकिन जब भी तुम भीतर झांकोगे, तुम एक ही आवाज पाओगे। और मैं मानता हूं कि वही एकमात्र उपाय है जिससे तुम आपात की स्थिति के बाहर जाओगे। अन्यथा मनुष्य के जगत का कारोबार तो सदा ही संकट में है। कभी एक उपद्रव है, कभी दूसरा उपद्रव है, कभी तीसरा उपद्रव है। इतने उपद्रव हैं, तुम सोच भी नहीं सकते कि कभी ऐसा हो सकता है कि उपद्रव न होगा। तुम्हें इस अवस्था की चिंता न करके स्वयं को बाहर कर लेना होगा।
और मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम बाहर हो गए तो जगत का एक बहुत बड़ा बहुमूल्य हिस्सा बाहर हुआ। तुम भीतर थे तब तुम ना-कुछ थे, भीड़ के हिस्से थे, सोए हुए लोगों का एक अंग थे। जब तुम बाहर हुए तो तुम जागरण का हिस्सा हुए; तुम एक बहुत महत्वपूर्ण घटना घट गए। और तुम्हारे जागरण की छाया दूसरों पर पड़ेगी।
एक जागा हुआ आदमी हजारों को जगा सकता है, लाखों को जगा सकता है। तुमने भी अगर एकतारा उठा लिया और लोगों को जगाने लगे तो शायद कुछ और लोग आपात की स्थिति के बाहर आ जाएं।
तो दो उपाय हैं। एक तो यह है कि पहले सारा संकट मिट जाए, दुनिया में समाजवाद आ जाए, समता हो जाए, सारे लोग सुखी हो जाएं, कोई बीमारी न रहे, कोई भूखा न रहे, कोई युद्ध न रहे, सारा रामराज्य हो जाए, तब तुम परमात्मा का एकतारा उठाओगे। तब मैं सोचता हूं, तुम्हें अनंत काल तक प्रतीक्षा करनी होगी। फिर भी आश्वासन नहीं दे सकता कि तब भी तुम उठा पाओगे।
दूसरा रास्ता है कि तुम अभी बाहर हो जाओ। तुम गीत गाना शुरू का दो। शायद तुम्हारे गीत को सुन कर और सोए हुए लोग भी कुछ जाग जाएं, बाहर आ जाए।
नहीं, मेरी कोई उत्सुकता देश प्रेम, आपात स्थिति और इस तरह की बातों में नहीं है। मेरी उत्सुकता तुममें है। मेरी उत्सुकता व्यक्ति में है। और मैं जानता हूं कि सिर्फ व्यक्ति बदला जा सकता है और काई बदला नहीं जा सकता।
कितनी क्रांतियां हो गईं और सब व्यर्थ गईं, फिर भी तुम होश में नहीं आते। हर क्रांति ने लोगों को यही कहा कि बस इस क्रांति के बाद स्वर्ग आ जाएगा। क्रांति आ गई, स्वर्ग तो बिल्कुल न आया, और बड़ा नरक आ गया।
कितनी स्वतंत्रताएं मिल गई लोगों को! और हर बार यही कहा कि स्वतंत्रता के बाद सब ठीक हो जाएगा। स्वतंत्रता के बाद लोगों ने पाया, यह तो हम और बड़े गड्ढे में गिर गए।
कितने सुधार हो गए! सब सुधारवादी मानते थे कि बस इसके बाद स्वर्ग है, इसके बाद और कुछ बचता ही नहीं है बात सुलझाने को। लेकिन चीजें उलझती ही चली गईं। इतिहास सुलझ नहीं रहा है, उलझ रहा है, भीड़ सुलझने की तरफ नहीं है, उलझने की तरफ है। हर उलझाव नये उलझाव पैदा कर देता है। और जिसको तुम सुलझाव कहते हो, वह भी सुलझाव सिद्ध नहीं होता, वह भी उलझाव सिद्ध होता है।
जागने की जरूरत है। जागना एकमात्र सुलझाव है। तुम्हारा सुलझाव एकमात्र सुलझाव है। तुम सुलझ जाओ तो शायद तुम संक्रामक हो जाओ। जैसे बीमारी लगती है वैसे स्वास्थ्य भी लगता है। जैसे मूच्र्छा लगती है वैसे होश भी लगता है।
तुमने कभी ख्याल किया? ..एक आदमी जम्हाई लेने लगे, दूसरे लोग जम्हाई लेने लगते हैं, नींद पकड़ती है। एक आदमी खांस दे, दूसरे आदमी के गले में खुजलाहट शुरू हो जाती है। एक आदमी लघुशंका को चला जाए, बाकी भी चले!
आदमी में संक्रामक घटनाएं घटती हैं। तुममें से एक एकतारे को सुन ले और बाहर जाए, दूसरे भी सुनने लगेंगे। तुम्हें बाहर आता देख कर उनके लिए भी एक द्वार खुलता है, कौन जाने! और अगर तुम्हारे जीवन में आनंद की घटना घटी हो और वर्षा हुई हो अमृत की, तो लोग कितने ही सोए हों, इतने नहीं सोए हैं कि जब किसी को आनंद घटे तो उन्हें दिखाई न पड़े; जब कोई नाचने लगे तो उन्हें उसके घूंघर सुनाई न पड़ें। जब किसी के कंठ से गीत उठे तो उनकी नींद में भी कुछ स्वरलहरियां पहुंच जाती हैं।
न, मैं तो अपना एकतारा बजाए जाऊंगा। और उन थोड़े से लोगों के लिए ही मेरी चेष्टा है जो जागने को उत्सुक हैं। भीड़ के लिए मेरी कोई उत्सुकता नहीं है।

चौथा प्रश्नः कहावत है कि माता-पिता गुरु और भगवान से मांगने में संकोच नहीं करना चाहिए, और न ही इसमें कोई दोष है। क्या यह कहावत सही है?

इस कहावत में दो शब्द हैंः संकोच और मांग। अगर तुमने संकोच पर जोर दिया तो कहावत सही है; अगर मांग पर जोर दिया तो कहावत गलत है।
मैं फिर से पढ़ता हूं। कहावत है कि माता-पिता, गुरु और भगवान से मांगने में संकोच नहीं करना चाहिए। जोर संकोच पर है कहावत का; क्योंकि संकोच अहंकार का हिस्सा है। तुम संकोच ही तब करते हो जब तुम्हें लगता है कि यह तो मांगने में अपने अहंकार को चोट लगेगी। कोई क्या कहेगा? मांगना उचित नहीं है। मांगना तो चाहते हो; लेकिन मांगने वाले नहीं बनना चाहते हो; मिल जाए, यह तो चाहते हो; लेकिन किसी को कानोंकान खबर न हो कि मैंने मांगा। क्योंकि मांगने में तो भिखारी हो जाता है आदमी, और भिखारी के अहंकार को चोट लगती है। इस चोट को जगाने के लिए ही तो बुद्ध ने अपने संन्यासियों को भिखारी बना दिया; कहा..भिक्षु! तुम भिक्षु हुए, मांगो। जो दे उसे आशीर्वाद देना; जो न दे उसे भी आशीर्वाद देना। क्योंकि जो दे अगर उसी को तुम आशीर्वाद दे सको, और जो न दे उसको अभिशाप दो, तो यह भिखारी के पीछे अहंकार खड़ा है।
संकोच मत करना मांगने में, यह जोर है कहावत का। माता-पिता, गुरु और भगवान के सामने क्या संकोच, क्या अहंकार? अगर तुम्हारा माता-पिता, गुरु और भगवान के सामने भी अहंकार है तो फिर तुम कहां अहंकार छोड़ोगे? फिर तो संसार में कोई शरण न रही। वहां तुम संकोच मत करना, यह जोर है कहावत का। बिना संकोच किए खड़े हो जाना।
और बड़े मजे की तो बात यह है कि अगर तुम बिना संकोच खड़े हो जाओ तो मांगने की जरूरत ही नहीं रह जाती; बिना मांगे मिल जाता है। क्योंकि जिसके मन में संकोच न रहा, अहंकार न रहा, वह मिलने के योग्य हो गया, वह पात्र हो गया। उसका हृदय ही कह देता है। प्राण से प्राण कह देते हैं। कुछ शब्दों की जरूरत नहीं रही जाती। मांगना इसीलिए पड़ता है कि भीतर संकोच है। मांगो नहीं तो भी तुम्हारी मांग दिखाई पड़ती रहती है तुम चाहते हो, कोई दे दे और मांगने का कष्ट भी उठाना न पड़े।
कहावत यह कह रही है, कम से कम मां, पिता, गुरु, भगवान..माता-पिता जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया; गुरु जिससे तुम्हारा दूसरा जन्म होगा; परमात्मा जो कि तुम्हारा ही आत्यंतिक स्वरूप है..अगर इनसे भी तुम संकोच करते हो, फासला रखते हो, तो फिर तुम कहां शरण पाओगे? इनके सामने तो सब संकोच छोड़ देना। इनके सामने नग्न हो जाना..यह अर्थ है कहावत का। इनके सामने क्या छिपाना है? माता-पिता के सामने क्या छिपाना है? नग्न तुम पैदा हुए थे। वे भलीभांति तुम्हें जानते हैं।
गुरु से क्या छिपाना है? अगर गुरु से छिपाया तो रूपांतरण किसके द्वारा होगा फिर? जो तुम छिपाओगे, वह बच जाएगा, रूपांतरित न होगा। गुरु के सामने तो पूरा खुल जाना है। सब वस्त्र उघाड़ देने हैं। कुछ भी बचाना नहीं है भीतर। कुछ भी छिपाना नहीं है भीतर। चेतन-अचेतन सब परतें सामने कर देनी हैं कि अब जो तेरी मर्जी। अब जो तू चाहे, कर।
और परमात्मा से क्या छिपाना? और छिपाने से भी क्या परमात्मा से छिपेगा?
संकोच मत करना। इसका यह अर्थ नहीं है कि निस्संकोच मांगना। अगर इसे तुम समझो तो इसका अर्थ है कि जिसने संकोच छोड़ दिया, उसे तो बिन मांगे मिल जाता है, मांगने की जरूरत नहीं होती। जिसका अहंकार चला गया, उसे क्या कमी रह जाएगी?
अहंकार ही कमी है। अहंकार के कारण ही तुम छोटे हो, सीमित हो। अहंकार गया कि तुम असीम हुए। घड़ा टूट गया, तो घड़े के भीतर का आकाश बाहर के आकाश के साथ एक हो गया। अहंकार की मिट्टी गिर गई। तो तुम असीम के साथ एक हो गए। मांगने को कुछ बचता नहीं। निःसंकोच मन को मिल जाता है, मांगना नहीं पड़ता। संकोची मन मांगता भी है, मांगना नहीं भी चाहता, और कभी पाता भी नहीं।

पांचवां प्रश्नः कल आपने कहा कि धार्मिक क्रांति की शुरुआत इस बोध से होती है कि जो कुछ भी मैं हूं, उसके लिए मैं ही पूर्णतः जिम्मेवार हूं। फिर अन्यत्र आप कहते हैं कि जीवन सत्य है परस्पर-तंत्रता।
कृपया बताएं कि उपरोक्त दो विपरीत दिखाई पड़ने वाले बोध-वचनों में क्या अंतर्संबंध है?

वे विपरीत नहीं हैं।
जो भी है, उसके लिए मैं ही पूर्णतः जिम्मेवार हूं..यह धार्मिक क्रांति की शुरुआत है, प्रथम चरण है।
साधारणतः अधार्मिक आदमी की यह धारणा होती है कि जो भी मैं हूं, उसके लिए सारी दुनिया जिम्मेवार है, मुझे छोड़ कर। समाज, व्यवस्था, राज्य, माता-पिता, परिवार, परंपरा, धर्म, भूगोल, इतिहास सब जिम्मेवार हैं, सिर्फ मुझे छोड़ कर..मैं एक शोषित, संस्कारित, परतंत्र व्यक्ति हूं। सभी लोगों ने मेरी ऐसी हालत बना दी है। अगर गरीब हूं तो लोगों ने मुझे चूस लिया है। अगर पढ़ा-लिखा नहीं हूं, बुद्धिमान नहीं हूं, तो मुझे बुद्धि के अवसर नहीं दिए गए। अगर सुंदर नहीं हूं तो मां-बाप सुंदर नहीं थे इसलिए सुंदर नहीं हूं। अगर अस्वस्थ हूं तो समाज दरिद्र है, दीन है, इसलिए अस्वस्थ हूं।
दूसरे लोग जिम्मेवार हैं, मुझे छोड़ कर..यह अधार्मिक व्यक्ति की भाव-दशा है। इसलिए अधार्मिक व्यक्ति कहता है, पहले सबको बदलेंगे तभी मेरी बदलाहट हो सकती है। इतिहास, भूगोल, समाज, अर्थतंत्र, सब बदल जाए, तभी मैं बदलूंगा, क्योंकि मैं इन पर निर्भर हूं।
धार्मिक व्यक्ति की शुरुआत है कि जो भी मैं हूं, उसके लिए मैं पूर्णतः जिम्मेवार हूं। यह शुरुआत है, ध्यान रखना। इसके बिना धार्मिक व्यक्ति की यात्रा शुरू नहीं होती। क्योंकि मैं अगर जिम्मेवार ही नहीं हूं तो बदलना कैसे है, बदलना किसको? अगर मैं ही जिम्मेवार हूं मेरे दुखों के लिए; अगर मैंने ही ये बीज बोए हैं, मैं ही फसल काटता हूं, तो अब मैं आगे बीज बोने में बदलाहट कर सकता हूं। चाहूं तो न बोऊं बीज। और अब तक अगर जहर के बीज बोए थे तो अब अमृत के बो सकता हूं। फसल मुझे काटनी पड़ती है, बीज भी मैं बोता हूं। तो अब मेरे हाथ में है। जो मुझे होना है मैं हो सकता हूं। मेरा भाग्य मैं हूं।
यह धार्मिक व्यक्ति की शुरुआत है। लेकिन मैं कहता हूं, शुरुआत है, यह अंत नहीं है।
और फिर मैंने बहुत बार कहा है कि जीवन का परम सत्य है परस्पर-तंत्रता, इंटरडिपेंडेंस। यह धार्मिक व्यक्ति की पूर्ण अनुभूति है। अधार्मिक व्यक्ति मानता है, सब जिम्मेवार हैं, मैं जिम्मेवार नहीं। धार्मिक व्यक्ति शुरू में मानता है कि मैं जिम्मेवार हूं, कोई जिम्मेवार नहीं; अंत में पाता है कि न मैं हूं, न दूसरे हैं। जीवन परस्पर-तंत्रता हैः यह तो अहंकार के मिटने पर पाता है।
अहंकार की दो दृष्टियां हो सकती हैं। दूसरे जिम्मेवार हैं..अहंकार को बचा लिया। मैं जिम्मेवार हूं..अहंकार पर पूरा दोष थोपा। पहला व्यक्ति अधार्मिक रहेगा, दूसरा व्यक्ति धार्मिक हो जाएगा। और एक तीसरी घड़ी हैः अहंकार के पार, जहां मैं बिल्कुल मिट जाता है, सिर्फ चैतन्य बचता हैः वहां दिखाई पड़ता हैः यह परस्पर-तंत्रता है। यहां दो हैं ही नहीं, यहां एक ही तंत्र है। उसी को तो हमने परमात्मा कहा, ब्रह्म कहा, अद्वैत कहा। दो नहीं हैं, एक ही अस्तित्व है। और यहां वृक्ष को हिलाओ..आकाश के तारे हिलते हैं। सब जुड़ा है। पत्थर फेंको झील में, जरा सी जगह में गिरता है, पर लहर उठती है और अनंत तक चली जाती है। दूर-दूर के किनारे भी उस लहर से अपरिचित न रहेंगे। वह लहर जा कर अनंत काल में अनंत दूरीयों के किनारों को छुएगी।
जो मैं तुमसे बोल रहा हूं, वह तुमसे ही बोला गया, ऐसा नहीं। जो शब्द आज पैदा हुआ, वह अब कभी मिटेगा नहीं; अब वह चलता रहेगा; उसकी तरंग चलती रहेगी; दूर के तारों से अनंत काल में टकराती रहेगी। कुछ भी मिटता नहीं है। सब शाश्वत है और सब एक है।
यह अंतिम अनुभूति है। यह अनुभूति उसी को होगी जो यह मान कर चला कि मैं जिम्मेवार हूं। मैं जिम्मेवार हूं यह प्राथमिक धारणा है। यह बुनियादी धारणा है। यह सिद्ध की अवस्था नहीं है; यह साधक की, शुरुआत है। सिद्ध तो कहता है, एक ही है; कौन जिम्मेवार; कौन गैर-जिम्मेवार; दो नहीं हैं, अद्वैत है।

छठवां प्रश्नः जीसस कहते हैंः प्रेम परमात्मा है। फरीद गाते हैंः अकथ कहानी प्रेम की। और आप भी कहते हैंः प्रेम है आनंद, प्रेम है मुक्ति, प्रेम है समाधि की सुवास। फिर क्या कारण है कि मीरा गाती हैः
जो मैं ऐसा जानती, प्रेम किए दुख होय।
जगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न कीजै कोय।।

एक पहलू फरीद कह रहे हैं, दूसरा पहलू मीरा कह रही है। और दोनों ही प्रेम की प्रशंसा के गीत गा रहे हैं।
मीरा कहती हैः जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय। यह विरह की अवस्था है। प्रेम जब होता है तो पहली अवस्था तो विरह है। जिसको प्रेम होता है, उसी को विरह होता है। जिसको प्रेम ही न हो उसको तो विरह नहीं होगा।
तुमने भी अगर कभी प्रेम नहीं किया तो विरह की पीड़ा तुम न जानोगे। विरह की पीड़ा का सौभाग्य तो उसी को मिलता है जिसने प्रेम किया। मैं कहता हूंः सौभाग्य; क्योंकि उसी पीड़ा के पीछे फिर मिलन का आनंद छिपा है। मीरा विरह के क्षण में कह रही हैः जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय। जगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न कीजै कोय।। मगर यह तो पहले पता न था, तो प्रेम कर बैठे। अब लौटने का तो कोई उपाय नहीं।
प्रेम से कोई लौट नहीं सकता। उससे पीछे जाने का उपाय ही नहीं है। अगर बचना हो तो पहले ही बचना। उतरना ही मत उस नदी में, अन्यथा वह बहा ले जाएगी। और बड़ी पीड़ा है; क्योंकि जितना प्रेम बढ़ता है उतना प्यारा दूर मालूम पड़ता है। जितना प्रेम बढ़ता है उतना एक-एक क्षण प्रतीक्षा करना कठिन होता जाता है। जितना प्रेम बढ़ता है उतनी ही अभीप्सा की आग जलती है; उतना ही परमात्मा अब मिले, अब मिले, अब मिले, चैन खो जाता है।
जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय।
जगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न कीजै कोय।।
यह पहली दशा है विरह की, यात्रा का प्रारंभ। फिर फरीद कहते हैंः अकथ कहानी प्रेम की। फिर नानक, कबीर, दादू, जिन्होंने भी प्रेम जाना है वे सभी यही कहते हैंः ढाई आखर प्रेम के, पढ़ै सो पंडित होय। जिसने पढ़ लिए ढाई अक्षर प्रेम के, वह ज्ञान को उपलब्ध हो गया। पर यह मिलन की बात है। विरह की रात जा चुकी, मिलन की सुबह हो गई।
और मीरा जो कह रही है, ध्यान रखना यह कोई शिकायत नहीं है। यह कोई प्रेम के विरोध में कही गई बात नहीं है। यह तो अत्यंत प्रेम में ही कही गई बात है। यह तो प्रेमी परमात्मा से लड़ रहा है। वह तुमसे नहीं कह रही है यह बात; वह अपने प्रभु से कह रही है कि जो मैं ऐसा जानती कि तुम ऐसे दगेबाज, कि तुम ऐसे धोखेबाज कि इतनी देर लगा दोगे, कि ऐसा तड़पाओगे कि जैसे मछली तड़पती हो पानी के बाहर, और तुम दूर हटते चले जाओगे। और जितना मैं आती हूं पास, उतना ही पाती हूं, तुम दूर!
जो मैं ऐसा जानती..यह एक प्रेमिका की शिकायत है प्रेमी से। यह संसार से नहीं कर रही है वह।
जो मैं ऐसा जानती, प्रेम किए दुख होय।
जगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न कीजै कोय।।
तो मैं सबको समझा आती। मैं सबको कह देती कि बचो, सावधान रहो इस छलिया से। इससे दूर रहना। यह धोखेबाज है। यह बुलाता है पास और दूर हटता चला जाता है। यह तड़पाता है, जैसे कि तड़फाने में इस तरह में इसे कोई सुख आता हो।
यह शिकायत है परमात्मा से प्रेमी की, पर बड़ी प्रेम पूर्ण है। यह झगड़ा है प्रेमी का प्रेमी से। यह कोई खंडन नहीं है प्रेम का, वह प्रेम के ही गीत गा रही है। लेकिन विरह के क्षण हैं। विरह के क्षण में प्रेमी सदा ऐसा पाता है, इससे तो अच्छा होता, प्रेम ही न करते। इससे तो अच्छा होता कि प्रेम का हमें पता ही न होता। इससे तो अच्छा होता कि ये प्रेमी की अंगुलियां कभी हमारे हृदय की वीणा को न छेड़तीं। हम ऐसे ही रेगिस्तान की तरह मर जाते, वह अच्छा था। यह प्रेम का बीज अंकुरित ही न होता तो अच्छा था। यह तो बड़ी पीड़ा हो गई।
लेकिन जितनी बड़ी पीड़ा है उतना ही बड़ा आनंद है पीछे। यह विरह की पीड़ा प्रसव की पीड़ा है। वह तो जब एक बच्चा पैदा होता किसी स्त्री को और कोई स्त्री मां बनती है, तब बहुत बार उसके मन में भी आता है, जब बच्चा पैदा होता है कि यह तो अच्छा हुआ होता अगर मुझे पहले ही पता होता कि इतनी पीड़ा होनी थी, तो यह जन्म देने का उपद्रव हाथ में ही न लेते। नौ महीने तक बच्चे को गर्भ में ढोना, फिर पीड़ा उसके जन्म की..जैसे मौत आती हो, जैसे मरने-मरने को हो जाती हो।
कभी प्रसव-पीड़ा में किसी स्त्री को देखा? जैसे प्राणों की गहराई से रुदन उठता है! पूरा तन-प्राण कंप जाता है! उस वक्त उसके मन में न होता होगा कि अच्छा हुआ होता कि इस उपद्रव में ही न पड़े होते लेकिन फिर बच्चे का जन्म हो गया। फिर स्त्री के चेहरे पर आई हुई आनंद की आभा देखी है! फिर वह जिस शांति और प्रेम और लगन से बच्चे की तरफ देखती है! बच्चे का ही थोड़े जन्म होता है, उसी दिन मां का भी जन्म होता है उसके पहले वह मां न थी; उसके पहले एक साधारण स्त्री थी, अब मां है। मां की बात ही और है। मां का अर्थ है, अब वह सृजनदात्री है; अब उसने जन्म दिया जीवन को। अब वह ऐसी सीप है जिस में मोती पला। अब वह साधारण देह नहीं है; वह परमात्मा का धर बनी है; वह परमात्मा का माध्यम बनी।
स्त्री अपने परम सौंदर्य को उपलब्ध होती है मां बन कर। लेकिन प्रसव की बड़ी पीड़ा है। विरह की भी बड़ी पीड़ा है। उसी विरह की पीड़ा से गुजर कर, निखर कर, आग से छन कर व्यक्ति कुंदन बनता है, स्वर्ण बनता है। फिर मिलन का महासुख है।
मीरा कह रही है प्रारंभ की बात। फरीद कह रहे हैं अंत की बात। उन दोनों में कोई विरोध नहीं है। वे दोनों एक ही मंजिल के दो छोर हैं।

आखिरी प्रश्नः पश्चिम में अभी धर्म के लिए अभूतपूर्व प्यास पैदा हो रही है। उसके चलते देश-देश से हजारों की संख्या में धर्म-पिपासु भारत आ रहे हैं, विशेषकर आपके पास पहुंच रहे हैं। पर शासकीय नियम-निषेध के कारण इन पाश्चात्य साधकों को अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। यद्यपि आर्थिक दृष्टि से भारत के पर्यटन-व्यवसाय को उनसे लाभ ही लाभ है। इस दिशा में क्या आप शासन और आश्रम के बीच किसी सहयोग का सुझाव देने की कृपा करेंगे?

 मेरे और शासन के बीच तो कोई समझौता बन नहीं सकता; आश्रम और शासन के बीच शायद कभी बन जाए। आश्रम एक संस्था है। शासन भी एक संस्था है। कोई समझौता बन सकता है। मेरे और शासन के बीच कोई समझौता नहीं बन सकता। मेरे और मेरे आश्रम के बीच ही समझौता बड़ा मुश्किल है।
मेरा ढंग मूलतः संस्था-विरोधी है। अगर आश्रम भी चलता है तो मजबूरी है। वह छोटी से छोटी बुराई है, और है तो बुराई ही। है तो संस्था ही। व्यवस्था! व्यवस्था में मेरी रुचि नहीं है। लेकिन अव्यवस्था के लायक तुम्हारी योग्यता नहीं है। इसलिए मजबूरी है। बीच का रास्ता खोजना पड़ता है।
रही पश्चिम से आने वाले साधकों की असुविधाएं और उनकी बात, उसे वे प्रसव की पीड़ा समझें। समझौता मैं राज्य से कोई बनाऊंगा नहीं। बन सकता है बड़ी आसानी से। अड़चन कुछ भी नहीं है। लेकिन मुझमें अड़चन है, मेरे होने में अड़चन है। सत्य साईं बाबा का बन सकता है, मुक्तानंद का बन सकता है, तो मेरा क्यों नहीं बन सकता? न बनने की अड़चन है। न तो मैं किसी चीफ मिनिस्टर को बुलाता, न किसी प्रधानमंत्री को, न राष्ट्रपति को..शिलान्यास करो आश्रम का, उदघाटन करो। इस आश्रम में उनका आना-जाना नहीं है और उनके आने-जाने का एक उपाय हैः शिलान्यास करवाओ, पत्थर रखवाओ, पत्थर उखड़वाओ, कुछ करवाओ, उनको सम्मान दो। और जो मैं कहता हूं, उस हिसाब से वे सब पागल हैं, विक्षिप्त हैं, उनसे पत्थर मैं रखवा नहीं सकता। तुमसे रखवा लूंगा; उनसे नहीं रखवा सकता। मेरे मन में उनका कोई सम्मान नहीं है। स्वभावतः उनसे मेरा कोई तालमेल नहीं बैठ सकता। निरंतर मैं उनकी विक्षिप्तता की घोषणा करता हूं, वे सब खबरें उन तक पहुंचती हैं। वे सब हिसाब रखते हैं। उनकी नाराजगी भी स्वाभाविक है। अगर वे नहीं निकाल पाते, यह भी उनकी सज्जनता हैं; अन्यथा वे अपनी नाराजगी खूब निकाल सकते हैं। मुझ पर नहीं निकाल पाते तो संन्यासियों पर निकाल देते हैं; उनको आसानी से फंसा लेते हैं।
लेकिन संन्यासियों को अपनी असुविधा को अपनी साधना का हिस्सा मानना चाहिए, बजाय इसके कि हम राज्य से कोई समझौता करें। क्योंकि उस समझौते में तो बात ही मर जोगी। उस समझौते में तो फिर तुम्हें यहां आने का कोई कारण ही न रह जाएगा। उस समझौते में तो ेमैं ही नहीं बचूंगा। मेरे होने की जो विशेषता है, वही समाप्त हो जाएगी। फिर तुम मुक्तानंद के पास गए कि मेरे पास गए, बराबर होगा। फिर कोई भेद न रहा। फिर जैसे और आश्रम हैं, वैसा ही यह भी एक आश्रम होगा।
यह आश्रम विशिष्ट है। यह राजनीति के धुएं से बिल्कुल पार है। इसलिए अड़चन तो झेलनी पड़ेगी। क्योंकि राज्य सुविधा नहीं देगा; राज्य असुविधा देगा। मेरे पास जो आएंगे उन पर सब तरह की रुकावटें डाली जाएंगी। उनको न आने दिया जाए, इसकी चेष्टा की जाएगी। मेरी बात उन तक न पहुंचे, इसकी चेष्टा की जाएगी। लेकिन यह स्वाभाविक है। इसमें कुछ आश्चर्य करने की बात नहीं है।
मुझसे पूछते हो तो मैं यही कहूंगा कि जो भी असुविधा हो, उसे सह लेना। समझौते की बात मत उठाना। उसे सह लेने से तुम्हें लाभ होगा। सुविधा से कहीं कोई ऊपर उठा है? पीड़ा को स्वीकार कर लेना। मान लेना कि वह मेरे पास आने का सौदा है। उतना चुकाना पड़ेगा, तो मेरे पास आ सकते हो।
रोज-रोज कठिनाई बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे मेरी खबर पहुंचेगी लोगों तक, वैसे-वैसे कठिनाई बढ़ती जाएगी। क्योंकि संतों में, तथाकथित संतों में और राजनीतिज्ञों में एक तरह की साझेदारी है। संत उनकी प्रशंसा करते हैं कि आप महान नेता हैं; महान नेता उनकी प्रशंसा करते हैं कि आप महान संत हैं। ऐसा लेन-देन है। मैं उनकी प्रशंसा नहीं कर सकता, क्योंकि वह झूठ होगी। और अगर झूठ मैंने कहा, और तुम्हारे लिए सुविधा बना दी, तो तुम मेरे पास आकर भी क्या करोगे? एक झूठे आदमी के पास आने का कोई अर्थ न रह जाएगा। मुझे तुम सच्चा रहने दो। चाहे उसके कारण तुम्हें असुविधा हो, उसे झेल लेना। तुम्हारी असुविधा और मेरी सच्चाई का ही तालमेल रहे। तुम्हारी सुविधा के लिए तुम मुझसे कभी भूल कर मत कहना कि मैं कुछ व्यवस्था करूं..तो ही तुम्हारे लिए मैं तुम्हारे विकास में सहयोगी हो सकता हूं। इससे अन्यथा कोई उपाय नहीं है।

आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें