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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-23)

आत्म-पूजा उपनिषद-भाग-2

पांचवा-प्रवचन-- पूर्ण चन्द्रमा का नैवेद्य

सूत्र- भीतर के पूर्ण चन्द्र के अमृत को इकट्ठा करना ही नैवेद्य है।

तुमने ताओ की धारणा यिन तथा यांग के बारे में सुना होगा-जो कि एकही सत्य में दोध्रुवीय विरोधों की धारणा है। अस्तित्व ध्रुवीय विरोधों में जीता है-विधायक व निषेधात्मक विरोधों में, पुरुष वस्त्री में, यिन व यांग में।
सत्य अस्तित्व की एक द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है। और जब मैं कहता हूँ द्वन्द्वात्मकप्रक्रिया तो मेरा मतलब है कि यह कोईसाधारण प्रक्रिया नहीं है। यह बडी जटिलप्रक्रिया है। एक सामान्य प्रक्रिया का मतलब होता है कि एक ही तत्त्व काम कररहा हैं, एक द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया का अर्थ है कि दोहैविपरीत ध्रुवों की शक्तियाँ एकही दिशा में कामकर रही हैं। और यद्यपि वे विरोधी दिखलाई पंड़ती है फिरभी वे एक सामंजस्य, एक संगीतपूर्ण लयबद्धता पैदा करती हैं। और वह लयबद्धताही अस्तित्व है।

पुरुष वस्त्रीसे मिलकर मानवता बनती है। पुरुष अकेला मानवता नहीं है, और१ हींस्त्रीअकेली मानवता है। हम जिस संगीत, जिस समन्वय को मानवता कहतेहैं, वह मानवता एक द्वन्द्वात्मक घटना है। पुरुष औरस्त्रीदोनों मिलकर मानवता को जन्म देते हैं। वे दोनों मानवता के निर्माण में सहायता-देते है। और उनका जोउसे निर्मित करने का ढंग है, वह द्वन्द्वात्मक है। वे दो विपरीत ध्रुवों की तरहहोते हैं। और उन दोनों के आंतरिक तनाव के कारण ही ऊर्जा पैदा होती है जोकि गति करती है और आगे विकास के लिए प्रक्रिया बनती है।
ऐसा ही सब तलों पर होता है। यदि हम भौतिक शास्त्री के साथ अणु केभीतर गहरे उसके आतरिक ढाँचे में उतरें, तो हम उन्हीं दो विपरीत ध्रुवों कीशक्तियों को काम करते पायेंगे : धन व ऋण विद्युत। इन दो विपरीत ध्रुवों केकारण ही पदार्थ निर्मित होता है। यदि केवल विधायक विद्युत ही हो, तो संसारइसी क्षण विलीन हो जायेगा। यदि खाली निषेधात्मक विद्युत ही हो, तो भी कुछक्यों होगा। परन्तु धन व ऋण विद्युत मिलकर एक आंतरिक तनाव पैदा करतीहैं और उस आंतरिक तनाव के कारण ही पदार्थ अस्तित्व में आता है।
यही बात आदमी के भीतरी स्वरूप के बारे में भी है। यह सूत्र उसी सेसंबंधित है। हमने पहले बात की कि किस भांति जागरूकता आंतरिक सूर्य कोनिर्मित करती है। लेकिन यह सूत्र आंतरिक चन्द्र को किस भांति निर्मित कियाजाये, इस पर बात करता है। सूर्य भीतरी विधायकता के लिए प्रतीक है, औरचन्द्र भीतरी नकारात्मकता के लिए प्रतीक है। सूर्य भीतर का पुरुष है, और चन्द्रभीतरीस्त्रीहै। ये शब्द प्रतीकात्मक है और भारतीय योग के लिए विशेषतः येबड़े अर्थपूर्ण है। सूर्य से अर्थ बाहरी सूर्य से नहीं है और चन्द्र से अर्थ भी बाहरीचन्द्रमा से नहीं है। ये दो शब्द ‘सूर्यं’ व ‘चन्द्र’ भीतर के जगत के लिए उपयोगकिये गये हैं।
भारतीय योग आदमी को दो हिस्सों में बाँटता है : सूर्य-भाग व चन्द्र-भाग। यहाँ तक कि एक श्वास सूर्य की श्वास कहलाती है और दूसरी श्वास चन्द्र कौश्वास। और सचमुच, यह एक बडी गहरी बात है जो कि खोजी गई है। यदितुम चन्द्र-श्वास को रोक लो और केवल सूर्य-श्वास जाही लो, तो तुम्हारा शरीरगर्म हो जाएगा। और इतनी तेज गर्मी सिर्फ एक ही श्वासके लेने से पैदा कीजा सकती है कि इसे शरीर की भाषा में समझना कठिन हो जाता है। तिब्बतीलोगों मेँ उष्ण-योग भी होता है जिसमें कि श्वास को केवल सूर्य कोश्वास सेही लेना है और चन्द्र श्वास की काम में ही नहीं लेना।
साधारणतः श्वास लगातार बदलती रहती है, किन्तु इस बात की और पश्चिमीचिकित्सा-शास्त्र का कोई ध्यान नहीं गया है। श्वास की प्रक्रिया कोई सामान्यप्रक्रिया नहीं है। यह भी द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है। तुम अपने नाक के नथुनों कोहरघंटे बदल रहे हो। करीब-करीब चालीस से साठ मिनट में तुम दूसरे ही नथुनेसें श्वास लेना शुरू कर देते हो और फिर यह बदल जाता है। जब तुम्हें शरीरमें अधिक गर्मी की जरूरत होती है, उदाहराणार्थ-यदि अचानक तुम क्रोध में आजाओ तो तुम्हारी सूर्य की श्वास चलने लगती है।
योग कहता है कि जब चुप क्रोधित होते हो, यदि तुम अपनी चन्द्र-श्यासका उपयोग करो, तो तुम क्रोधित कदापि नहीं हो सकते, क्योंकि चन्द्र-श्वास भीतरगहरी ठंडक उत्पन्न करती है। सारा रारीर ही सूर्य और चन्द्र में बँटा हुआ है, और हमारा मन भी सूर्य और चन्द्र में विभाजित है।
इसलिए मनुष्य की ओर एक की भाँति-मत देखो, क्योंकि कोई भी चीज़एककी तरह की नहीं हो सकती। हर चीज द्वैत की तरह होती है। तुम भी दोमें विभाजित हो। तुम्हारा भी विधायक हिस्सा है और निषेधात्मक हिस्सा है। विधायकहिस्से को भारतीय प्रतीक में सूर्य कहते हैं और निषेधात्मक हिस्से कोचन्द्रनिषेधात्मक हिस्सा ठंडा, शांत, व स्थिर है। विधायक गर्म, ऊर्जा से भरा हुआव सक्रिय है। तुम्हारे भीतर सूर्य सक्रिय हिस्सा है और चन्द्र निष्किय। और यदिये सक्रिय व निष्क्रिय-इन दोनों में गहन संतुलन हो जायें, तो तुम अचानक बुद्धत्वको उपलब्ध हो जाते हो। यदि एक अधिक प्रभावशाली है, तो असन्तुलन होजाताहै। और जिस क्षण भी वे दोनों समान शक्ति के हो जाते हैं तो तुम्हारा अंतरिकसन्तुलन पुनः प्राप्त होजाता है और तुम एक दूसरे ही जगत में प्रवेश कर जातेहो, वह है-अद्वैत का जगत्। इस अद्वैत के जगत का अनुभव तभी हो सकताहै जबकि ये द्वैत तुम्हारे भीतर सन्तुलित हो जाते हैं। तब तुम दोनों का अतिक्रमणकर जाते हो
इस जगत में हम द्वैत की तरह जीते हैं। इस जगत के पार हम अद्वैत कीतरह जीते हैं-एक की भाँति। अपने को एक त्रिभुज की भाँति सोचोः दो कोणसंसार में होते हैं और तीसरा कोण संसार के पार होता है। दो कोण इस संसाररो संबंधित है और एक कोण उस जगत से संबंधित है-ब्रह्म का जगत्। किन्तुयदि ये दोनों असन्तुलन में हैं, तो तुम इन दोनों के पार नहीं जा सकते। तुम इनदोनों के पार तभी जा सकते हो जबकि इन दोनों में सन्तुलन सध जाये। यह सन्तुलनही निर्वाण है, यह सन्तुलन ही मोक्ष है। यह सन्तुलन ही सेन्टरिंग है, केन्द्रीकरणहै। सजगता इस द्वैत को सन्तुलित करने का काम करती है। और जिस क्षण भीयह द्वैत सन्तुलित होजाता है, तुम्हारा दोबारा फिर जन्म नहीं होसकता। तुमइस संसार से विलीन हो जाते हो।
तुम पुनः पुनः पैदा होते हो यदि असन्तुलन मौजूद है। यदि सन्तुलन समग्रनो जाये, यदि यह पूरा हो जाए तो फिर जन्म नहीं हो सकता। तुम इस संसारसे खो जाते हो। फिर शरीर जीवित नहीं रह सकता। तब तुम पुनः शरीर में प्रवेशनहीं कर सकते। अतः सर्वप्रथम हम यह समझने की कोशिश करें कि ये आंतरिकसूर्य और चन्द्र क्या हैं और कैसे इन्हें सन्तुलित किया जाता हैं।
यह सूत्र कहता है- ‘भीतर के पूर्ण चन्द्र का अमृत-रस एकत्रित करनानी नैवेद्य है।’
तुम्हें तुम्हारे भीतर पूर्ण चन्द्र की आवश्यकता हैं ताकि पत्मात्मा को भोगचढा सको। वही केवल परमात्मा के लिए भोजन हो सकता है-भीतर का पूर्ण चन्द्र।
जागरूकता दो तरह से काम करती है। वह सूर्य भी निर्मित करती है औरचन्द्र भी। हमने बात की है कि किस भाँति वह भीतर सूर्य निर्मित करती हैतब तुम भीतर जो भी चल रहा है उसके प्रति सजग ही जाते हो, गहरी-से-गहरी अचेतन क्रिया के प्रति भी जब तुम सजग हो जाते हो, तो तुम बुद्धत्व कोउपलब्ध हो जाते हो। तुम्हारे शरीर के सारे कोष जाग जाते हैं, तुम प्रकाश हीहो जाते हो। तुम्हारी चेतना तुम्हारे शरीर के प्रत्येक छिद्र तक पहुँच जाती है। जिसतरह सूर्य की किरणे पृथ्वी पर पहुँचती हैं, तुम्हारी आंतरिक सजगता, यदि एकबार जाग जाये, तो वह भी शरीर के रोयें-रोयें में, हर एक रेशे-रेशे में काम करनेलगती है। तुम्हारा सारा शरीर ही आलोक से भर जाता हें। परन्तु यह सजगताका एक हिस्सा है, लेकिन यह जागरूकता की केवल एक ही प्रक्रिया है। तुम्हारेकेन्द्र की किरणेंतुम्हारी परिधि पर भी जाती हैं-घेरे पर। जितनी अधिक किरणेंतुम्हारी परिधि पर जाती हैं, उतना ही तुम्हारा केन्द्र शीतल हो जाता है।
मुझे पता नहीं है कि तुमने सूर्य के एक विशेष सिद्धान्त के बारे में सुनाहै या नहीं-बाह्य सूर्य के। मैं नहीं जानता कि वह सही है या गलत, परन्तु वहआंतरिक सत्य को जानने में सहयोगी है। कहते हैं कि सूर्य अपने गहरे-से-गहरेकेन्द्र पर सारे सौर मण्डल में सर्वाधिक ठंडा है। वह जरा भी गर्म नहीं है। गर्मीकेवल परिधि पर है, घेरे पर है, न कि सूर्य के आंतरिक केन्द्र पर। सूर्य के चारोंओर हीलियम गैस होने के कारण, उष्णता पैदा होती है। हीलियम के कारण वअणुओं के श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों के कारण गर्मी पैदा होती है। और तब वह ताप सौर मण्डल को पहुँचता है।
सूर्य का अपना शरीर है और वह उसका केन्द्र है। सौर-परिवार उसका शरीरहै और यह पृथ्वी उस शरीर का हिस्सा है एक कोष की भाँति। ताप सौर-परिवारको जाता है, वह फैलता है। परन्तु सूर्य अपने-आपमें एक ठंडी वस्तु है-मूरीतरह ठंडी। और उसका गहरे-से-गहरा हिस्सा अस्तित्व में सर्वाधिक ठंडा स्थानहै। ऐसा होना ही चाहिए क्योंकि अस्तित्व विपरीत ध्रुवों में हो जी सकता हैयदि सूर्य सर्वाधिक गर्म है, तो उसके भीतर कुछ-न-कुछ ऐसा होना चाहिए जोकि उस ताप कोसन्तुलित करता हो। एक पहिये कोलें जो कि सड़क पर चलरहा है, किन्तु मध्य में वह कील, जिस पर वह घूम रहा है, ठहरी हुई है। गतिके केन्द्र में कहीं भीतर जरूर अगति छिपी होनी चाहिए अन्यथा गति संभव नहीं है।
इस अभिव्यक्त जगत में प्रत्येक चीज विपरीत ध्रुवों में जीती है। तुम जीवितहो क्योंकि तुम्हारे भीतर मृत्यु मौजूद है। यदि तुम्हारे भीतर मृत्यु न हो, तो तुमजीवित भी नहीं रह सकते। इसलिए इस भरोसे मत रहना कि मृत्यु एकदम अचानकआ जाती है। वह एक आंतरिक विकास है। वह कोई बाहर से आने वाली चीजनहीं है। वह तुम्हारे ही भीतर घटती है। वह कोई ऐसी नहीं है जो कि तुम्हेंमिलती है, जिसका कि तुम साक्षात्कार करते हो-नहीं। वह कुछ ऐसी है जिसकीतरफ तुम रोज-रोज बढ़ते जा रहे हो। एक दिन यह विकास हो जाता हैऔर तुम मर जाते हो। यहएक आंतरिक घटना है। तुम भीतर मृत्यु-केन्द्र केसहित जीवित हो। तुम मृत्यु-केन्द्र के बिना जीवित भी नहीं रह सकते।
अपने विपरीत ध्रुव के बिना कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। जीवन और मृत्यु-विधायक व निषेधात्मक सत्य है। तर्कपूर्ण भी लगता है, द्वन्द्वात्मक भी प्रतीत होताहै, लेकिन अभी तक यह सिद्ध नहीं हुआ कि सूर्य अपने केन्द्र बिन्दु पर बिल्कुलठंडा है, जो कि अपनी परिधि के ताप से बिल्कुल विपरीत ध्रुव है। यह सचभी हो सकता है, और नहीं भी हो सकता है। परन्तु हमारे भीतर के जगत मेंपूरी तरह सत्य है। जब तुम सजग होते हो, तो गर्मी तुम्हारी परिधि की और यात्राकरने लगती है। तुम्हारे शरीर का प्रत्येक कोष गर्म हो जायेगा, सजगता के प्रवेशकरने के कारण। दूसरा विपरीत हिस्सा तुम्हारे अस्तित्व का केन्द्र ठंडा, और ठंडा, ओर अधिक ठंडा होता जायेगा। वहीं चन्द्र का कार्य करता है। सूर्य है गर्मी काफैलना, प्रकाश का फैलना।
और तुम्हें यह भी पता होना चाहिए कि आलोक के दो गुण हैं-प्रकाशव ताप। ताप केवल सघन हो गया-प्रकाश है, प्रकाश कुछ और नहीं, केवलविघटित उष्णता है। इसलिए जब प्रकाश तुम्हारे शरीर पर फैलता है, तोशरीरका प्रत्येक कोष गर्म हो जाता है, प्रकाशित व सजग हो जाता है। नींद एक ठंडी चीज है, रात्रि एक ठंडी चीज है। इसलिए रात्रि में हम सो जाते हैं, वह ठंडासमय है। और सुबह, सूर्य के निकलने के साथ, हर चीज गर्म और जिन्दा होजाती है। तब सोना कठिन होता है और जागना सरल होता है।
जब तुम्हारी परिधि ठंडी होती है. जब शरीर का प्रत्येक कोष ठंडा होताहै, निद्रा में होता है तो तुम्हारा केन्द्र-बिन्दु गर्म होता है। केन्द्र पर उस गर्मबिन्दु के कारण ही तुम कामुकता अनुभव करते हो, तुम क्रोधित होते हों, लोभमें पड़ते हो, और सब कुछ करते हो। तुम्हारा केन्द्र एक बुखार हो जाता है औरयह गर्मी ही यात्रा करने लगती है। वस्तुतः जब गर्मी तुम्हारे केन्द्र से छूटती हैतो वह फैलती है। और वह जितनी अधिक फैलती है उतनी ही कम उतप्त औरअधिक प्रकाशमय होती है।
पृथ्वी पर सूर्यकी किरणें जीवन देनेवाली हैं। उन्होंने बडी यात्रा की हैयदि तुम उनके निकट, और निकट जाओ, तो वे तुम्हारी मृत्यु बन जायेंगी क्योंकितब वे खाली गर्म नहींहोंगी, बल्कि वे शुद्ध आग होंगी।
शरीर का ढाँचा जिस तरह का है, वह पूरा ठंडा है। तुम्हें गर्मी का अनुभवसिर्फ क्रोध में, काम में, वासना में, इच्छा में होता है। वह प्रकाश नहीं-है, बल्किमात्र एक बुखार कौ घटना है। इसी कारण यौन की अनुभूति-एक रिलीज, एकमुक्त होने जैसो होती है, क्योंकि उसमें तुम गर्मी की एक खास मात्रा खोते हो और तुम भार-हीन हो जाते हो। तुम ज्वर की एक विशेष मात्रा छोड़ते हो औरतुम हलके हो जाते हो।
इसी कारण, सेना में सिपाहियों को यौन की स्वतन्त्रता नहीं दी जाती। क्योंकियदि तुमने सिपाहियों को यौन की स्वतन्त्रता दी तो वे लड़ नहीं सकते। तब भीतरी ज्वर निकल जाता है। यदि तुमने उन्हें काम की स्वतन्त्रता नहीं दो, तो उनकाभीतरी ज्वर इकट्ठा होता रहता है। और इस प्रकार इकट्ठा होगया ज्वर अपनेआप हिंसात्मक होने लगता है।
अतः एक बहुत गहरी घटना, इतिहास की एक बहुत बडी पहेली इससे सुलझसकती है। जब कभी कोई-समाज संपन्न हो जाता है, जब उसके खाने-पीने कोसमस्या हल हो जाती है तो वह काम कोदृष्टि से मुक्त होने लगताहै। केवलदरिद्र समाज ही यौन की दृष्टि से दमित हो सकते हैं। जब भी कोई समाज समृद्धव सम्पन्न हो जाता है, तो तुम यौन का दमन नहीं कर सकते, क्योंकि भोजनकी समस्या दूर हो गई। भोजन जुटाने में जोऊर्जा खर्च होनी थी अब उसकावया करें? इसलिए एक सम्पन्न समाज यौन-मुक्त हो जाता है।
एक सम्पन्न समाज का अर्थ है जो टैक्नोलॉजी में बहुत आगे बढ़ गया होऔर जब भी कोई सभ्यता सम्पन्नता के बिन्दु पर आ जाती है, तो काम-स्वंतन्त्रताहो ही जायेगी। और तब जो समाज कम उन्नत है, वे उस उच्चतर सभ्य समाजपर विजय पा सकते हैं। इसीलिए इतिहास में ऐसा हमेशा होता रहा हैः एक बडीसभ्यता सदैव जंगली, बर्बर, असभ्य सभ्यताओं से पराजित हुई है।
भारत सदैव अपनी सम्पन्नता के कारण हारता रहा। टारटर, बर्बर, हूण, मुगल, तुर्क-वे सब असभ्य समाज थे-गरीब, दरिद्रता से पीडित, यौन-दमित। उनमें बहुतहिंसा भरी थी। तुम इसे आज के प्रसंग में भी देख सकते हो। वियतनाम में, अमेरिकाकभी नहीं जीत सकता। उनके युवक यौन मुक्त हो गये हैं, वे अब कम हिंसकहैं। इसलिए वे वियतनाम में नहीं जीत सकते। किसी भी दरिद्र समाज को कोईसम्पन्न समाज नहीं जीत सकता। वे लम्बे समय तक लड़ सकते हैं, परन्तु जीतनहीं सकते। वे सारे देश को भी चाहे तो मौत के घाट उतार दें, लेकिन वे जीतनहीं सकते, क्योंकि वह लड़ने का जोश ही उनमें नहीं है।
अमेरिका आज सारे इतिहास में सर्वाधिक यौन सम्बन्धों में मुक्त देश हैअमेरिका लड़ नहीं सकता, लड़ना दमित यौन का हिस्सा है। भीतर का बुखारइतनी बड़ी मात्रा मेंइकट्ठा हो जाना चाहिए कितुम हिंसक होने लगो। सेक्सकोदबाओ और तुम हिंसक हो जाओगे। इसीलिए तथाकथित साधु-संन्यासी अपनेव्यवहार में बहुत हिंसक हो जाते हैं। वे क्रोधी हैं, हिंसक हैं क्योंकि उन्होंने अपनेयौन को दबाया है। उस बुखार को किसी-न-किसी भाँति बाहर फेंकनाहै।
यौन में तुम ऊर्जा की एक विशेष मात्रा फेंक रहे हो। वे कहते हैं कि एकबार के यौन-संबंध में तुम एक सो बीस कैलोरीज ताप छोड़ते हो-एक सौ बीसकैलोरीज। यह उतना ही है जितना कि तुम एक मील की दौड़ लगाने पर छोड़ो। तब भी तुम इतनी ही ताप की कैलोरीज छोड़ोगे-एक सौ बीस। इसीलिए इसपर काफी बात चलती है कि क्या यौन हदय-रोग में सहायक हो सकता है? वह सहायक हो सकता है? उसमें ऊर्जा रिलीज होती है। जो लोग खूब खाते-पीते हैं, उनके लिए यह हदय रोग को होने से रोक सकती है। यह ऊर्जा को-स्खलित करती है, किन्तु यह कोई समाधान नहीं है। यह सिर्फ एक अस्थायी प्रबन्धहै। यह सिर्फ तुम्हारी संरचना में एक छिद्र करना है जिससे कि ऊर्जा बाहरनिकल जाये।
जब भी तुम क्रोधित होते हो, तो तुम्हारा सारा शरीर गर्म हो जाता है। वहबुखार से पीडित हो जाता है। तुम्हारा केन्द्र क्रोध छोड़ता है, वह परिधि पर पहुंचजाता हैं। सामान्यतया वह ठंडा होती है। परिधि साधारणतः ठंडी होती है, औरकेन्द्र गर्म होजाता है। इसका ठीक उलटा हो जायेगा, जब तुम्हारे भीतर जागरूकताघटित होगी। जब तुम ध्यान करते हो और भीतर गहरे डूब जातेहो, जब तुमप्रत्येक क्रिया के प्रति सजग हो जाते हो, तो हर चीज उलटी हो जाती है, बिल्कुलविपरीत। तुम्हारी परिधि-क्रोध में नहीं जाएगी, यौन में नहीं जायेगी, उसकी तन्द्रापूर्णठंडक। वह उष्णा हो जायेगी-जीवन्त तथा सजग। और चूँकि यह ऊर्जा परिधिपर लगातार, चौबीस घंटे पहुँचती रहेगी, तुम्हें किसी क्रोध अथवा यौन कीआवश्यकता नहीं रहेगी।
एक बुद्ध कोक्रोध करने की आवश्यकता नहीं है। यह उनके लिए बिल्कुलव्यर्थ है, क्योंकि सारी व्यवस्था ही बदल गई है। अब वे अपने ताप का प्रकाशको तरह उपयोग कर रहे हैं, और तुम अपने प्रकाश को ताप को तरह उपयोगकर रहे हो। वही ईंधन तुम्हारा घर जलाने के काम आ सकता है और वही ईंधनउसे प्रकाशित करने के ईंधन एक ही है, किन्तु दिशा बदल जाती है। भीतर काईंधन, अन्तर की ऊर्जाही आग हो जाती है, आत्मघाती बन जाती है। यह तुम्हेंजला कर खाक कर देती है और तुम सिर्फ राख रह जाते हो। अन्त में जब मृत्युतुम्हारे पास आती है तो तुम सिर्फ राख होते हो। सब कुछ जलकर राख होगया, क्योंकिं तुमने अपनी ऊर्जा कोप्रकाश के लिए काम में नहीं लिया, बल्कि उसकाउपयोग एक आग की तरह किया।
वह भस्म करने वाली आग हो जाती है यदि उसे केन्द्र में एकत्रित कर लियाजाये और जब कभी वह अतिरेक से बहने लगे, तो उसे अस्थायी रूप से छोड़दिया जाये। किसी भी अचानक धक्के से वह परिधि पर आ जाती है, बाहर छोड़दी जाती है। यह एक बड़ी अराजक स्थिति है। तुम उसे भीतर इकट्ठी करते चलेजाते हो। फिर एक दिन यह बहने लगती है और तुम्हें उसे बाहर फेंकना पड़ता है।
हम अपने कृत्यों को रेशनलाइज करते रहते हैं। जब तुम क्रोध में होते हो, तो तुम कहते हो कि किसी और ने तुम्हें क्रोधित कर दिया। नहीं, ऐसी बात नहींहै, तुम तैयार ही थे, तुम भीतर अतिरेक में थे। तुम यह नहीं जानते क्योंकि तुमभीतर के प्रति सजग नहीं थे। तुम एक विशिष्ट मात्रा में ऊर्जा लिए भीतर वहरहे थे, जो कि बाहर छोड़ी जाने की प्रतीक्षा कर रहीथी, जब कोई आदमी तुम्हेंगाली देता है, अथवा अपमान करता है और तुम क्रोधित हो जाते हो, तो तुमसोचते हो कि उस आदमी ने तुम्हें क्रोधित कर दिया। नहीं, इस आदमी ने तोसिर्फ स्थिति पैदा की है, अवसर दिया है ताकि अतिरेक से बहती ऊर्जा बाहरनिकाली जा सके। एक तरह से वह तुम्हारा दोस्त है, सहायक है। यदि वहहो, तो तुम बहुत बुरी स्थिति में फंस जाओगे। यदि कोई भी तुम्हें तुम्हारी ऊर्जाको बाहर फेंकने के लिए अवसर नहीं दे, तो तुम उसे प्रक्षेपित करोगे, तुम कुछभी कल्पना करोगे और तुम किसी भी चीज पर उसे निकालोगे।
लोग अपने जूतों पर क्रोधितहो जाते हैं, वे उन्हें उठाकर फेंक देते हैं। वेदरवाजे पर क्रोध करते हैं, वे उसके प्रति हिंसक हो जाते हैं। वे किसी भी चीजसे क्रोधित हो सकते-हैं। यदि कुछ भी अवसर नहीं मिले, तो वे अपने आप परक्रोध करते हैं। वे अपनेको ही नुकसान पहुँचाने लगते हैं, अथवा वे कोई-न-कोई उसके पूरक खोज निकालते हैं।
हमने बहुत-सी चीजें खोज ली हैं। कोई आदमी सिगरेट पी रहा है। हमसोचते हैं कि यह साधारण बात है। नहीं, ऐसा नहीं है। अबमनोवैज्ञानिककहतेहैं कि यह एक गहरी हिंसा है। तुम धुआँ भीतर-बाहर करते हो, इससे भूख, हिंसाव यौन को रिलीज़ करने में आसानी होती है। जो भी लोग हिंसक होते, हैं, ज्यादा खाते हैं। ज्यादा भोजन को चबाकर वे अपनी हिंसा निकाल लेते हैं।
तुमने कभी ध्यान नहीं दिया होगा, परन्तु जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तोतुम अधिक नहीं खा सकते, जब तुम प्रसन्न हो तो तुम ज्यादा नहीं खा सकते, जब तुम आनन्दपूर्ण हो, तो भी तुम बहुत अधिक नहीं खा सकते। यह बिल्कुलउलटी बात लगती है हमारे सोचने के हिसाब से। हम सोचते हैं कि जब आदमीप्रसन्न होता है तो उसे ज्यादा खाना चाहिए। नहीं, एक प्रसन्न आदमी अधिकनहीं खाएगा। वह ज्यादा नहीं खा सकता, क्योंकि खाना हिंसा का ही हिस्सा हैएक प्रसन्नआदमी हिंसक नहीं होता। इसलिए जब तुम-प्रेम से भरे हो, तो तुमबहुत अधिक नहीं खा सकते।
दो व्यक्ति जब प्रेम में हों, अविवाहित हो, वे अधिक भोजन नहीं करेंगेपरन्तु जब वे विवाहित हो जायेंगे तो अधिक खाने लगेंगे क्योंकि प्रेम विलीन होगया। अब यह हिंसा है। और यह बहुत-सी गहरी चीजों से संबंधित है। पशुओंमें हिंसा दाँतों के द्वारा प्रकट होती है, और हम पशुओं से संबंधित हैं। और जबएक पशु हिंसक होता है तो उसकी ऊर्जा दाँतों में, नाखूनों में आ जाती है। एकपशुकेलिएयेहिंसकहोनेकेसाधनहैं।
लेकिन यही हमारे साथ भी होता है। जब तुम हिंसक होते हो, तो तुम्हारेदाँत, तुम्हारी उँगलियाँ, तुम्हारे नाखून गर्मी से भर जाते हैं, ऊर्जा से भर जाते हैं। अब तुम्हें उसे छोड़ना है। तुम खा सकते हो, तुम मसूडों का उपयोग कर सकतेहो, तुम धूम्रपान कर सकते हो, तुम पान चबा सकते हो, क्योंकि तुम्हें किसी चीजकी जरूरत है जिसे कि तुम चबा सको। इसलिए ऐसे लोग हैं जो कि दिन भरपान चबाते रहते हैं। इस तरह उनकी हिंसा मुक्त होती रहतीं है।
यहाँ तक कि लगातार बोलते रहने से भी हिंसा निकलती रहती है। स्त्रियोंपुरुषों से ज्यादा बात करतींहैं क्योंकि पुरुष दूसरे तरीकों से भी हिंसा निकालसकते हैं और स्त्रियाँ नहीं निकाल सकतीं। यही एकमात्र कारण है, वे अधिकबोलती हैं, वे लगातार बातें करती रहती हैं, वे पागल की तरह बातें करती हीचली जाती हैं, क्योंकि आदमी के पास दूसरी भी संभावनाएँ है जहाँ कि वह अपनीहिंसा निकाल सकता है-दफ्तर में, कार के ऊपर आदि। क्या तुमने कभी गुस्सेमें किसी आदमी कोकार चलाते हुए देखा हैं? वह एक्सीलेटर के द्वारा अपनाक्रोध विसर्जित कर रहा है। कार की गति बढ़ जाएगी। वह अपना क्रोध निकालरहा है, कार तो सिर्फ साधन है। पचास प्रतिशत दुर्घटनाएँ कार के कारण नहींहोतीं, बल्कि ड्राइवर की वजह से होती हैं-न कि ट्रैफिक की वजह से बल्किमानसिक तनाव के कारण।
परन्तु स्त्रियाँ अपने तनाव को इतनी तरह से विसर्जित नहीं कर सकतीं। उनकेपास एक ही रास्ता है-बातचीत करते जाना। दाँतों व होंठों से कुछ करतेचले जाने से बहुत कुछविसर्जित होता रहता है। एकस्त्रीजो कि क्रोध में हैवह ज्यादा प्लेटें तोड़ेगी-अनजाने ही। उसे भी ताजुब होगा कि आज उसके हाथसे चीजें ज्यादा क्यों टूट रही हैं। यह अचतेन मन है। ऊर्जा हाथों में आ गई है। ऊर्जा अब कुछ तोड़ना चाहती, है।
इसलिए अच्छा है कि घर में कुछ चीजें टूटने वाली हों, उससे मदद मिलतीहैं। तब इसके पहले कि पति घर आये, पत्नी खाली हो चुकती है। यदि तुम सभीकुछ न टूटने वाला बना दो तो फिर परिवार, टूटते हैं। टूटने वाली चीजें परिवारोंको चलते रहने में मदद करती हैं। अब यह तथ्य की तरह साबित हो चुका है।
यदि तुम्हारे केन्द्र पर ऊर्जा इकट्ठी हो गई हैं जो कि ज्वर पीड़ित है, औरपरिधि पर नहीं फेंकी गई है और जिसका कि उपयोग प्रकाश की भाँति नहीं कियागया है, तो ऐसा होना अनिवार्य है। हर रोज ऊर्जा इकट्टी करोगे और फिर तुम्हेंउसे फेंकना होगा। और यह मूढ़तापूर्ण है। सारी जिन्दगी हम यही कर रहे हैं-ऊर्जाइकट्ठी कर रहे हैं-और फेंक रहे हैं-फिर इकट्ठी कर रहे हैं-और फिर फेंकरहे हैं। चौबीस घंटे आप कर क्या रहे हैं? सिर्फ ऊर्जा इकट्ठी कर रहे हैं ताकिउसे फेंक सकें। अब ऊर्जा होती है तो यह समस्या होती है कि अब उसे कैसेफेंके? इसलिए हम उसे काम में, क्रोध में, लोभ में, निकालते रहते हैं। और जबऊर्जा बाहर फेंक दी जाती है, तो यही समस्या होती-हैं कि उसे इकट्ठी कैसे करें।
यह कैसी जिन्दगी है। एक दुष्ट-चक्र सजगता के साथ सारा मेकेनिज्म, सारी यांत्रिकता ही बदल जाती है। जागरूकता के साथ ही प्रतिक्षण तुम्हारा भीतरीकेन्द्र ऊर्जा को शरीर के हर कोष को भेज रहा है। और तुम्हारा शरीर कोई छोटीचीज नहीं है, वह एक छोटा-सा जगत है-जैसा ऊपर, वैसा नीचे। प्रत्येक शरीरएक छोटा-सा जगत है। ओर जब मैं कहता हूँ छोटा तो मुझे अपराध का भावमहसूस होता है क्योंकि वस्तुतः वह छोटा नहीं है। वहउतना ही बड़ाहै जितनाकि यह जगत। लेकिन हमारी भाषा के कारण सारी दिक्कत है। जगत बहुत बड़ालगता है, और तुम्हाराशरीर छोटा मालूम होता है।
दोनों में भेद वया है? कहते हैं कियदि पृथ्वी से सारी खाली जगह हटाईजा सके, यदि हम उसे सिकोड़ सकें और रिक्त स्थान को फेंक सकें तो हमारीपृथ्वी एक छोटी-सी गेंद की भाँति होगी। यदि हम हिमालय में से सारी खालीजगह को निकाल दें, तो उसे एक माचिस की पेटी में बन्द किया जा सकताहै। पदार्थ ज्यादा नहीं है, अधिक सामान नहीं है, पदार्थबहुत ही कम है, केवलउसमें रिक्तता ही बहुत अधिक है।
अतः कैसे जाना जाये कि एक वस्तु बड़ी है अथवा छोटी? एक बहुत छोटी-सी चीज को बहुत बड़ी करके फुलाया जा सकता है, यदि तुम उसमें रिक्तताभर दो। यदि तुम्हारे शरीर में उतना रिक्त स्थान भर दिया जाये जितना कि इसजगत में है तो तुम भी पृथ्वी के समान हो जाओगे। इसलिए सारेभेद केवल स्पेसके हैंरिक्त स्थान के। वस्तुतः उनमें ओर कोई अन्तर नहीं है।
लेकिन जब मैं कहता हूँ एक छोटा-सा जग तो मेरा केवल इतना ही मतलबहै कि जो कुछ भी जगत में मौजूद है वह सब-का-सब तुम्हारे भीतर भी मौजूदहै। चाहे कुछ भी मात्रा हो, बिल्कुल उसी तरह वह तुम्हारे भीतर भी है। इसलिए जब तुम्हारा सौरमण्डल, तुम्हारा सूर्य, ऊर्जा को छोड़ता है, तो वह उसे दो तरह से छोड़ता है। या तो तुम मूर्च्छित हो, तब वह उसे यौन में, क्रोध में, लोभ आदिदूसरी बीमारियों मेँ छोड़ता है। यदि तुम जागरूक हो, तो फिर इस जागरूकताके द्वारा वह ताप प्रकाश में रूपान्तरित हो जाता है। तब वह प्रकाश कीभाँतिनिष्कासित होता है। तब तुम सतत प्रकाश की वर्षा के नीचे बैठे हुए हो। तुम्हाराप्रत्येक रेशा, प्रत्येक कोष उसमें नहा गया है। लगातार आलोक की वर्षा हो रहीहै। जब यह ही जाता है, तो तुम्हारा भीतरी केन्द्र ठंडा और ठंडा होने लगताहै और अन्ततः वह सर्वाधिक ठंडा स्थान हो जाता है।
हिन्दुओं में प्रचलित कथा हैं कि शंकर (शिव) कैलाश पर्वत पर रहते हैंकैलाश तुम्हारे भीतर सर्वाधिक शीतल धार्मिक स्थान है-सबसे अधिक शीतल शिखर सर्वाधिकऊँची चोटी-और वह सदैव बर्फ से ढकी रहती है। यह कहने का एक प्रतीकात्मकढंग है कि तुम्हारे भीतर भी वह सर्वाधिक शीतल स्थान मौजूद है-एककैलाश-तुम्हारे भीतर भी। किन्तु तुम उसे तभी जान सकते हो जबकि ताप प्रकाशमें रूपान्तरित हो जाये उसके पहले कभी नहीं। और जितने अधिक तुम जागरूकहो जाते हो, उतना ही अधिक ताप प्रकाश में बदल जाता है और तुम भीतर एकचन्द्रमा कोमहसूस करने लगते हो। तुम्हें एक शीतल शान्त सरोवर की प्रतीतिहोती है।
यह सूत्र कहता है-‘‘भीतर के पूर्ण चन्द्र के अमृत-रस को इकट्ठाकरना------।’’प्रारंभ में सचमुच तुम उसे अनुभव करोगे, लेकिन खो भी दोगेयह ऐसा ही है जैसे कि पहले दिन का चन्द्रमा होता है। तब दूसरे दिन का चन्द्रमाहोता है और तीसरे दिन का चन्द्रमा होता है। तुम उसे अनुभव करते हो औरवह फिर चला जाता है, तब फिर वह उगता है, और तब पूर्ण चन्द्रमा की रात्रिआती है। इसी भाँति भीतर का शीतल स्थान भी बढ़ता है। जैसे-जैसे तुम्हारी सजगताबढ़ती है, तुम्हारा ताप प्रकाश में रूपान्तरित हो जाता है। जैसे-जैसे तुम्हारी परिधिआलोकित हो जाती है, जैसे-जैसे तुम्हारा प्रत्येक कोष प्रकाश से भर जाता हैऔर सजग व जागरूक हो जाता है, यह भीतर का चन्द्रमा बढ़ता है। कभी-कमीतुम्हें अनुभव में आता है और कभी यह फिर खोजाता है। कभी-कभी भीतरठंडी हवा के झोंके आने लगते हैं और तुम जानते ही कि भीतर कुछ हो गयाहै। तुम्हें अनुभव भी होता है, किन्तु तुम उसे फिर खो देते हो। फिर यह बढ़ताही चला जाता है।
अन्ततः जब कोई मूर्च्छा नहीं बचती और तुम्हारी समग्र ऊर्जा प्रकाश में बदलगई होती है, तो तुम उस पूर्ण चन्द्र को जान पाते हो।
बुद्ध ने नकारात्मक ढंग से उस पूर्ण चन्द्र की बात की है क्योंकि वह नकारात्मकध्रुव है। इसलिए बुद्ध कहते हैं कि जब यह भीतरी मौन उपलब्ध होता तोयही निर्वाण है। वह शब्द इस सूत्र के प्रसंग में बहुत अर्थपूर्ण है। निर्वाण काअर्थ होता है-‘‘लौ का बुझ जाना’’-एक दीया जल रहा हैं और फिर उराकौलौ बुझ जाती है।
जब तुम्हारा ताप समग्ररूपेन। प्रकाश में पस्णित हो जाता है, तो फिर कोईलौ नहीं होती। इसीलिए चन्द्रमा को प्रतीक को तरह चुना गया है। चन्द्रमा मेंप्रकाश तो है किन्तु कोई लौ नहीं है। इसीलिए उसका प्रकाश ठंडा है। वह बिनाकिसी लौ के है, बिना किसी आग के है। बिना किसी लौ के प्रकाश है। लौविलीन हो गई है।
जब कोई पहली जार सूरज से परिचित होता है, तोप्र्रकाश लौ की भाँतिहोता है-जलती हुई आग की तरह। अतः यदि तुम जीवन का, भीतर जीवन काअ्रन्वेषण करो, बुद्ध का अथवा महावीर का, अथवा जीसस का, तो बहुत-सी बातेंसामने आयेंगी जो कि साधास्यातः छिपी रहती हैं। उदाहरण के लिए, जब कभीवृद्ध जैसा आदमी पैदा होता है तो उसका प्रारम्भिक जीवन क्रान्तिकारी होगा-क्योंकिजैसे ही कोई आदमी भीतर प्रवेश करता है, तो पहला अनुभव आग को लपट की तरह होता है। जितना बुद्ध बडे़ होते जाते हैं, उतनी भीतर की ठंडक कौप्रतीति होती जाती है, उतना ही भीतरी चन्द्रमा पूर्ण होता जाता है। क्रान्ति खोगाती है। तब बुद्ध के शब्द क्रान्तिकारी नहीं होते।
जीसस को यह अवसर नहीं मिल सका। उन्हें मार दिया गया जबकि जेक्रान्तिकारी ही थे। इसीलिए यदि तुम बुद्ध के वचनों को जीसस के वचनों सेतुलना करो, तो उनमें सीधा और स्पष्ट भेद दृष्टिगोचर होता है। जीसस के वचनएक युवा मनुष्य के वचन हैं-गर्म। बुद्ध के भी शुरू के वचन ऐसे ही है लेकिनवेअस्सी वर्ष तक जिये। वे मारे नहीं गये।
उसके भी कारण है। और एक कारण यह है कि भारत सदा से यह जानताथा है कि ऐसा होता है। जब कभी कोई व्यक्ति भीतर जाता है तो प्रथम अनुभवआग को तरह होता है-क्रान्तिकारी, विद्रोही। इसीलिए भारत में कभी किसी कोमारा नहीं गया। इसीलिए भारत ने ऐसा व्यवहार कभी नहीं किया, जैसा कि यूनानने सुकरात के साथ किया तथा यहूदियों ने जीसस के साथ किया। भारत बहुतकुछ जानता रहा, उसने ऐसे बहुत से लोगों कोजाना है। भारत भली-भाँति जानता है कि यह प्राकृतिक है-जब कभी कोई बुद्ध अपने भीतर प्रवेश करेंगे तो पहला अनुभव क्रान्तिकारी होगा। वे एक दम से फट पड़ेगे और एक लपट का विस्फोट होगा। परन्तु फिर धीरे घीरे लपट विलीन हो जायेगी और अन्ततः खाली चन्द्रमा ही बचेगा-मौन, शीतल, बिना किसी आग के बल्कि सिर्फ प्रकाश लिए।
जीसस की हत्या कर दी गई। इसीलिए ईसाईयत अधूरी रह गई। ईसाईयत की बुनियाद प्रारम्भिक जीसस के आधार पर पड़ी उस जीसस पर जो कि अभीलपट ही थे। इसीलिए ईसाईयत अधूरी रहे गई। बौद्ध घर्म फूड हो गया। उसनेबुद्ध को सब तलों पर जान लिया। उसने बुद्ध के चन्द्रमा को सब सारे तलों पर जान लिया-पहले दिन के चाँदसे लेकर पूर्ण चन्द्र रात्रि तक। यह सूली पर चढानापश्चिम के लिए बड़। दुर्भाग्यपूर्ण सुआ। यह इतिहास में एक सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्णघटनाओँ मेंशैसे एक थी कि जीसस की हत्या कर दी गई जबकि वे अभी केवलतेंतीस वर्ष के ही थे-एक लपट ही थे। वह लपट चन्द्रमा के प्रकाशा में बदल दृजाती परन्तु अवसर ही नहीं दिया गया। और उसका कुल कारण इतना ही था कि यहूदियों को इस भीतरी घटना का कोई पता नहीं था।
भारत ने बहुत से बुद्धों को जाना है और सदैव ऐसा हुआ है कि जब कभीकिसी ने भीतर प्रवेशा किया है तो सबसे पहले वह आग देखता है-लपट, औरतब उसकी क्रान्तिकारी आत्मा ही चाहर प्रकट होती है। परन्तु जब कोई भीतरऔर भीतर प्रवेश करता है तो वह विलीन हो जाती है और तब केवल मौन रहजाता है-एक चन्द्रमा के आलोक का मौन।
यह सूत्र कहता है-अन्तत के पूर्ण चन्द्र के अमृत-रस को इकट्ठाकरना--... ।
यह मौन, यह ठंडी शान्ति चंद्र की-हिन्दुओंने इसे ही अमृत कहा है। इसे कहीं और नहीं खोजना पड़ता है। यह तुम्हारे ही भीतर मौजूद है। यह अमृततुम्हारे भीतर है। एक बार तुम इस अमृत में स्थापित हो जाओ, एक बार तुमइस चन्द्रमा के सरोवर में स्थिर हो जाओ, तो तुम्हारे भीतर ही पूर्ण चन्द्र का उदयहोजाता है। अब तुमने दोनों ध्रुवों को जान लिया। तुमने जीवन को भी जानलिया, और तुमने मृत्यु को भी पहचान लिया। तुमने सुरज को जान लिया औरचन्द्रमा को भी। तुमने दोनों ही ध्रुवों को जान लिया-जीवन और मृत्यु। और एकबार तुमने दोनों को जान लिया कि तुम दोनों के पार हुए। इसलिए इसे अमृतकहते हैं।
अब तुम नहीं मरोगे! अब तुमने अमृत पी लिया। अब तुम नहीं पर सकतेपरन्तु तुम पुरानी समझ के हिसाब से अब जीवित नहीं हो। तुम पुराने अर्थों में। मर चुके हो। तुम नये चन्द्रमा में पैदा हो गये हो। अब मृत्यु तुम्हारे लिए मृत्युनहीं होगी, और जीवन थी जीवन नहीं होगा। अब तुम दोनों के पार हो गये।
मैंने एक जे़न मास्टर, टंका के बारे में सुना है, जिसने कि अपने शिष्योंसे एक दिन कहा कि बुद्ध कभी पैदा ही नहीं हुए। उसने कहा कि यह सारीकहानी ही झूठी है, यह बुद्ध की सारी कथा ही झूठी है। वे कभी पैदा ही नहींहुए। उसके शिष्य तो घबड़ा गये। इसका क्या अर्थ होता है। ऐसा लगता था किवह पागल हो गया है। हर रोज वह स्वयं ही बुद्ध की जीवन गाथा सुनाया करताथा-उनका जन्म और सब कुछ। और अचानक वह कहता है, यह सब बात बेकारहै। वे कभी पैदा ही नहीं हुए। और इतना कहकर वह अपनी जगह से उठा औरअपनी झोपडी के भीतर चला गया।
सारे शिष्य उसकी झोपडी के चारों ओर इकटूठे हो गये और पूछने लगे, आप क्या कह रहे हैं? उसका क्या होगा कि आप सारे जीवन हमें सिखातेरहे हैं? ‘‘टंका ने जवाब दिया-टंका अब न रहा। वह कभी पैदा ही नहीं हुआ, इसलिए सारी कथा ही मिथ्या है। टंका का शिक्षा देना और तुम्हारा उसे सुनना-येदोनों ही मिथ्या है। किसी ने ऐसे ही काल्पनिक कहानी खड़ी कर दी है। तुम्हेंउससे धोखे में आने की जरूरत नहीं।’’ तब तो वे और भी परेशानी में पड़ गयेयह तो ही भी सकता था कि बुद्ध न हुए हो, लेकिन टंका तो उनके सामने हीखड़ा था। टंका हँसा और बीला... ष्श्जो भी पैदा हुआ, जिसका भी जन्म हुआ, वह बुद्ध नहीं थे।
भारत में दो नाम प्रचलित हैं। गौतम सिद्धार्थ, माता-पिता के द्वारा दिया गयानाम था। तब एक दिन वे बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये। उनकी चेतना खिल गई, पूर्ण विकसित हो गई। तब उन्होंने दूसरे ही नाम का उपयोग किया- ‘गौतम बुद्ध’बुद्ध का अर्थ होता है वह जो कि जाग गया। यह दूसरा नाम गौतम का बिल्कुलनहीं है। गौतम तो मात्र एक स्थिति था। उसकी उस स्थिति में वुद्धत्व कोई उनकेबोधि-दिवस के दिन ही घटित नहीं हुआ। वह तो वहाँ पहले से ही मौजूद था, केवल उस दिन तो उसकी प्रत्यभिज्ञा हुईं। गौतम नै उस दिन केवल पहचाना उसे, जो कि सदा से ही उपस्थित था-उस बुद्धत्व को।
यह अन्तर की घटना जन्म और मृत्यु के पार है। यह कभी जन्मती भी नहींऔर मरती भी नहीं क्योंकि जो भी जन्मता है, वह मरता भी है और जो कभीजन्मता ही नहीं वह मरता भी नहीं। मृत्यु को जन्म की जरूरत होती है-एकदुर्गा-आवश्यकता की भाँति-एक अनिवार्य पूर्व-आवश्यकता। यदि तुम कभी पैदानहींहोते तो तुम मर ही नहीं सकते। इस अन्तर की घटना के साथ-जबकि सूर्यओर चन्द्र सन्तुलित हो गये हों, जबकि सारी द्वन्द्वात्मकता समाप्त हो गई हो, जबकिसमन्वय पूरा हो गया हो-तब तुम्हें तुम्हारे भीतर उसकी प्रतीति होती हैं जो किशाश्वत है।
इसलिए यह सूत्र कहता है-भीतर के पूर्णचन्द्र के अमृत-रस को इकट्ठाकरना ही नैवेद्य है। अब तुम ही भोजन हो गये हो। अब तुम स्वयं का परमात्पाको भोग चढा सकते हो। अब तुम ही भोजन हो। अब तुम शाश्वत हो। औरइसे भोजन-नैवेद्य क्यों कंहते हैं? क्योंकि जब तुम शाश्वत होते हो, तमी तुम शाश्वतके लिए भोग बन सकते हो? और भोजन से सामान्य अर्थ भी लगाया गया हैजब तुम भोजन करते हो तो वह तुम्हारे साथ एक हो जाता है, वह तुम्हारा रक्त, मांस, हइडी बन जाता है, वही तुम होजाता है। तुम तुम्हारा भोजन ही हो। अतःजब तुम अपनी इस आंतरिक वास्तविकता कोजानने लगते हो, शाश्वत यथार्थको, तोतुम उसे जगत को, अस्तित्व कोभोग चढ़ा सकते हो।
इसका यह अर्थ है कि अब तुम जगत की हड्डियाँ हो सकते हो, तुम इसजगत का रक्त हो सकते हो। अब तुम उसके साथ एक हो सकते हो, जैसे किभोजन तुम्हारे साथ एक होजाता है। मिलन पूरा हुआ क्योंकि तुम पत्मात्मा केलिए भोजन हो गये। तब तुम नैवेद्य हो। तब ही भोग स्वीकार किया जा सकता है।
लेकिन तुम अपने शरीर कोभोग नहीं दे सकते। वह भोजन तो होगा लेकिनगिद्धों के लिए न कि ईश्वर के लिए। इसका परमात्मा को भोग नहीं दिया जासकता। तुम्हारा शरीर पृथ्वी से आता है और वापस पृथ्वी कोलौट जाता है। वहकेवल पृथ्वी के द्वारा ही पुनः खाया जाता है। ‘डस्ट अन्टु डस्ट’ मिट्टी-मिट्टीमें मिल जाती है। वह केवल पुनः मिट्टी हो सकता है। अतः इस शरीर का पत्मात्माको भोग नहीं दिया जा सकता।
एक युवा साधक बुद्ध के पास आया और बोला, ‘‘मैं आपके पास स्वयंको भेंट देने आया हूँ-मुझे स्वीकार करें।’’ बुद्ध ने उससे पूछा. ‘‘तुम क्या भेंटकर रहे हो-अपना शरीर? लेकिन उसे तो पहले ही से भेंट किया जा चुका है, और पृथ्वी उस पर अपना दावा कोमी, इसलिए तुम उसे केसे भेंट कर सकते हो? तुम क्या चीज भेंट कर रहे हो, मुझे ठीक-ठीक बताओ।’’ वह आदमी तोउलझन में पड़ गया। उसने कहा, ‘‘मेरे पास जो भी है वह मैं तुम्हें भेंट करता.हूँ’’ बुद्ध ने कहा, तुम्हारे पास क्या है? क्या है जो कि तुम्हारा है? क्या तुम्हारेविचार तुम्हारे हैं? वे समाज के हैं, तुम्हारा मन समाज का मन है। तुम्हारा शरीरतुम्हारे माता-पिताका है, इस पृथ्वी का है, आकाश का है, पानी का है, अग्निका है, हवा का है-पाँच तत्वों का है। तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो कि तुममुझे भेंट दे सकते हो?’’
वह आदमी कुछ भी जवाब न दे सका, क्योंकि उसके पासऔर तो कुछभी न था। वह इनके अलावा कुछ भी न सोच सका, अतः बुद्ध ने कहा, ‘‘अभीभेंट न करो। पहले खोज कर लो कि तुम क्या हो? और जिस क्षणा भी तुम उसकापता चला लोगे, वह पहले से ही भेंट किया जा चुका होगा। तब उडी भेंट करनेकी भी आवश्यकता न रहेगी।’’
अब तुम इस आंतरिक सन्तुलन को खोज लेते हो, जो कि सूर्य की खोजऔर चन्द्र की खोज से जाना जाता है जब तुम दोनों को जानते हो, तो वे दोनों को जानते हो, तो वे दोनों एक दूसरे को सन्तुलित कर देते हैं, और उसी संतुलन में तुम द्वैत से पार निकल जाते हो। और तब त्रिभुज का तीसरा कोण छूने को मिलता है। पहली बार तुम अपने ऊपर उठे, अब तुम अपने अंतरतम स्व हो। अब तुम नीचे अपने आपको देख सकते हो- अपने सूरज को, अपने चन्द्रमा को, अपने शरीर को, अपनी आत्मा को, अपनी विधायकता, अपनी नकारात्मकता को अपने पुरुष, अपनी स्त्री, को देख सकते हो। अब तुम अपने को नीचे मुड़कर देख सकते हो, द्वैत के सारे संसार को-बहु-आयामी द्वन्द्वात्मकता को। और अब तुम नैवेद्य हो सकते हो-परमात्मा के लिए भोजन।
लेकिन अब कोई आवश्यकता भेंट चढ़ाने की भी नहीं है, क्योंकि तुम पहले ही भेंट चढ़ चुके हो। अब कोई आवश्यकता ही नहीं है कि कहो कि स्वीकार करे, तुम पहले से ही स्वीकृत हो चुके। तुम एक हो गये। जैसे कि भोजन एक हो जाता है, तुम भी परमात्मा से एक हो गये। और परमात्मा से मेरा मतलब है-सर्व, समग्रता, यह सारा अस्तित्व।
अतः क्या-करें? ताप को प्रकाश में रूपान्तरित करो। यही मन्त्र है : तापको प्रकाश में रूपान्तरित करो। ताप का ताप की तरह उपयोग मत करो, उसकाप्रकाश की भाँति उपयोग करो। जब तुम देखो कि तुम्हें क्रोध आ रहा है, तोअपनी आँखें बन्द का लो और उस पर ध्यान करो कि क्रोध क्या है। भीतर गहरेखोजो और उस स्रोत को खोज निकालो जहाँ से कि वह आ रहा है। हम साधारणतःइसके बिल्कुल विपरीत कर रहे हैं। जब हमें क्रोध आता है तो हम क्रोध केविषय पर सोचने लग जाते हैं। उसके बारे में सोचते हैं जिसने कि क्रोध पैदाकरवा दिया और क्रोध के स्रोत को नहीं देखते, वह कहाँ से आ रहा है। जबभी तुम्हें क्रोध आये, अपनी आँखें बन्द करलो। यही ठीक क्षण है-ध्यान केलिए। अपनी आँखें बन्द कर लो भीतर जाओ और पता लगाओ कि यह क्रोधकहाँ से आ रहा है। मूल स्रोत तक उसका पीछा करो। गहरे भीतर चले जाओ, और तुम ताप के उस स्रोत तक पहुँच जाओगे जहाँ कि एकत्रित ऊर्जा बाहर निकलनेके लिए धक्के दे रही है।
इसका निरीक्षण करो, उसमें संलग्न मत होओ, क्योंकि यदि तुम उसमें संलग्नहुए, तो वह बिना रूपान्तरण के बाहर फेके दी जाएगी। और उसे दबाओ भी मत, क्योंकि यदि तुम उसे दबाओगे तो वह वापस अपने मूल उद्गम पर फेंक दी जायेगीजो कि अतिरेक से बह रहा है। वह उसे वापस सोख नहीं सकता, वह पुनः पहले से ज्यादा शक्तिसे वापस फेंक दी जाएगी। इसलिए उसका दमन मत करो, और नही उसके साथ संलग्न होओ। केवल उसके प्रति सजग हो जाओ, भीतर उद्गमपर पहुँच जाओ। यह भीतर गति ही प्रक्रिया को शिथिल कर देगी। यह निरीक्षणही क्रोध की गुणवता को बदल देगा। क्योंकि यह शान्त निरीक्षण ही उसका एंटीडोट है, विपरीत उपचार है।
क्रोध और शान्त निरीक्षण दो विपरीत घटनाएँ हैं। जब यह शान्त निरीक्षणक्रोघके भीतर प्रवेश करता है, तो वह क्यों को बदल देता है, उसके रसायनिकसंयोजन को ही बदल देता है और ताप प्रकाश में परिणत हो जाता है। यही परिवर्तनहै। ताप प्रकाश हो जाता है। तब क्रोध न तो अपने मूल स्रोत वापस फेंकदिया जाता है, जो कि उसे वापस नहीं ले सकता, क्योंकि वह पहले ही अतिरेकसे बह रहा है, और न ही वह विषय की ओर जाता है, जो कि-व्यर्थ है-एकमूर्खतापूर्ण व्यर्थता है। तब यह ऊर्जा न तो क्रोध के बिषय की ओर जाती है औरन ही यह मूल स्रोत पर दबाई जाती है। निरीक्षण से यह ऊर्जा टूट कर फैल जातीहै। यह तुम्हारे शरीर की परिधि पर प्रकाश की तरह पहुँच जाती है। तब यहटूट कर फैल जाती हैं तो यह प्रकाश की भाँति गति करती है, और वही क्रोध‘ओजस्’ हो जाता है, प्रकाश हो जाता है-एक आंतरिक प्रकाश।
इसलिए यदि तुममें बहुत क्रोध है तो चिन्ता करने अथवा निराश होने कीबात नहीं है। वह इतना ही बतलाता है कि तुममें बहुत ऊर्जा है। एक आदमीजिसमें जरा भी क्रोध न हो जन्म से उसे रूपान्तरित नहीं किया जा सकता। उसकेपास ऊर्जाही नहीं है। अतः प्रसन्न होओ कि तुम्हारे पास ऊर्जा है, लेकिन उसकादुरूपयोग न करें। ऊर्जा का गलत उपयोग किया जा सकता है, उसका रूपान्तरणभी किया जा सकता है। ऊर्जा अपने आप में है, तटस्थ है। वह तुम्हें नहीं कहेगीकि उसका क्या करो। तुम्हें ही तय करना पडे़गा। यही भीतरी रसायन प्रक्रियाका गुप्त विज्ञान है-गर्मीकोप्रकाश में बदलना, कोयले कोहीरे मेंरूपान्तरित करना, निम्न धातुओं में बदल देना।
यह तो सिर्फ प्रतीक है। रसायनविद इस बात से मतलब नहीं रखते थेनिम्न धातुओं को उच्च धातुओं में बदल दो। बल्कि उन्हें तो छिपाना पड़ताऔर एक गुप्त गुहा प्रतीक खोजने पड़ते थे क्योंकि पुराने समय में यह बड़ाकठिन था कि भीतरी विज्ञान की बात और हत्या न करदी जाये। जीसस कीहत्या कर दी गई, वे एक रसायनविद (एलकेमिस्ट) थे। और जोईसाइयत उनकेपीछे फैली जिसने कि जीसस का अनुसरण किया, वह उनके बिल्कुल ही विपरीतचली गई। ईसाई चर्च ने उन सबको मारना और करुलकरना शुरू कर दियाभी एलकेमी की कोशिशा कौ, भीतर रूपान्तस्या का प्रान किया। यह षाब्द ष्एलकेमीष् बड़ा सुन्दर है। हमारी फैपेस्ती इसी शब्द सेहै। केपेरट्रोशब्द एलकेमी से उत्पन्न है, लेकिन एलकेमी ब्रहुत ही गहरामहत्वपूर्ण शब्द है। यह ‘एलकेमी’ राब्द इजिप्ट से आया। इजिप्ट का पुरानाखेम’ है और श्एल खेम’ का अर्थ होता है-चंइजिप्ट का गुप्त विज्ञान। इजिप्टलोग भीतरी रूपान्तस्या की एलकेमी में बहुत गहरे गये थे, कि भीतर कीको केसे बदलें।
इजिप्ट में वहुत-सी की ममीज सुरक्षितरखी राई हैं। वे सर्वाधिक पुरानी ममीजहै लेकिन अभी भी वैज्ञानिकचह जॉच नहीं कर मृपाये क्रि उनको किस माँति सुरक्षितरखा षायाथा। क्यों और केसे उन्हें संभाल का रखा राया था। लेकिन उस श्क्योंश्का हम अनुमान लगा सकते हैं। और हमारा तथाकथित इतिहास कुछ और नहीं, बस सिर्फ अनुमान है। लेकिन गुह्य-विषवों के लिए वह सदैव ही एक आंतअनुमान हैउन्हें क्यों संभाल कर रखा गया, यह तो समझना मुश्किल है। लेकिन उससेभी ज्यादा समस्यापूर्ण है कि कैसे रखा गया-किस रासायनिक प्रक्रिया से उन्हेंरखा गया। वे आज भी इतने ही ताजे हैं, जैसे अभी ही मरे हों। यदि कोई भीबाहरी रासायनिक प्रक्रिया होती तो हमारी केर्मस्ट्रपै उसे जान लेती। आज हम पुरानेइजिप्ट के बजाय स्सायन शास्त्र में ज्यादा विकसित हैं। वस्तुतरू बात यह है किये षारीर बाहरी रासायनिक प्रक्रिया से नहीं संभठल कर ररग्रे गये, बल्कि भीतरी
एलकेमी से।
तुम्हारी काम-ऊर्जा जो कि जीवन का मूल स्रोत है, यदि उसे भीतर से रूपान्तरितकिया जा सके, तो तुम्हारे शरीर को कितने भी समय तक सुरक्षित रखा जा सकताहै। यदि तुम्हारी र्काभ-ऊर्जा को रूपान्तरित कर दिया जाये, तो तुम्हारे शरीर कोलाखों वर्षों तक रखा जा सकताहै। यदि तुम्हरि षारीर के कोषों मेँ से यौन खोजाये, तो शरीर को संभालकर रखा जा सकता है, क्योंकि जन्म भी यौन से होताहै और मृत्यु भी यौन से ही। तुम्हारे शरीर की ताजगी, तुम्हारे रारीर का युवापन, यौन से ही अस्ता है और तब विकृति भी यौन से होती है। हन ममियों कोइसलिएसंभग्रल कर नहीं रखा गया था जैसा कि इतिहासबिदृ कहते हैं या इजिप्ट के दूसरेशास्त्री कहते हैं कि आदमी सदैव अहंकार की भाषा में सोचता रहा है और इसलिएराजाओं ने, सग्राटों ने अपने को बचाया है। यह बात नहीं है। इसका रहस्य बिल्कुलभिन्न ही है। उन्हें इसलिए संभाल कर रखा गया ताकि वे अपने को पहचान सकेंजबकि आत्मा पुनः जन्म लै। जब एक आदमी दूसो रारीर में पैदा हो ओर यदिउसका पुराना रारीर बचा लिया जाये, तो वह उसकी श्भीतरी प्रराति में सहायकढोता हैपरन्तु पुराना शरीर तभी उपयोगी हो सकता है यदि उसे एलकेमी से रूपान्तरितकिया गया हो, अन्यथा वह किसी काम का नहीं। यदि तुम अपना रारीर भीतरसे बदलो, तो तुम्हारा शरीर एक प्रयोगशाला हो जाता है। वह ग्रयोराशाला है, वहकेवल शरीर नहीं है। यदि तुम भीतर काम करते रहते ही, प्रयोरा कंरते रहते हो, तो फिर तुम इस शरीर को केवल बाहर से ही नहीं, भीतर से भी जानते होहम अपने शरीर कोबाहर से ही जानते हैं। जो कुछ भी दर्पपा हमें बंतलाताहैं वही हमारा ज्ञान है। यह भीतर से नहीं है। हमारा ज्ञान ऐसा ही है जेसे किफोईंमकानष् के चारों ओर चवकर लगाये और कहै कि मैं इस घर को जानताहूँ। वह कभी अर के भीतर नहीं आया, उसने कथी इसे भीतर से नहीं देखाहम अपने शरीर कोबाहर से ही देखते हैं, भीतर से कभी भी नहीं। यदि तुमं अपने क्रोध को, अपने सेक्स को रूपान्तरित करना प्रारंभ करो, तो तुम इसे भीतर से देखने लगोगे। तब तुम्हारा शरीर एक बडा प्रयोग है, एकबडी प्रयोगशाला है-बही जटिल। और तब तुम उसे संभालकर रखना चाहोगे, ताकि आगे बिकास हो सके। जब कोई दूसरे शरीर में प्रवेशा करता है, तो वहपुराने ज्ञारीर से बहुत कुछ सीख सकता है। यह पुराने इजिप्ट में एक बहुत बड़ाप्रयोन्ना था और शरीर के साथ बहुत-सी बातें की जाती थीं। वे लोग कुछ बातोंमें सफल भी होते थे, और कुछ में असफलायदि तुम्हारे षास पुनः नया ज्ञारीर हो, नई प्रयोगशाला ही और पुराना संभालकर रखा गया शरीर हो, तो तुम्हें दोबारा अ-ब-स से प्रारंभ नहीं कस्ना पड़ेगायदि पुराना संभालकर रखा है तो यह रिकार्ड है। मृत्यु ने बीच में बाधा डालीथी लेकिन अब तुम पुनः प्रारंभ का सकते हो। तुम्हें शुरू से प्रारंभ करने कोजरूरत नहीं है। तुम वही से प्रारंभ कर सकते हो, जहॉ पिछले जीवन में मृत्यु... ने बाधा उपस्थित की थी।
इसलिए केवल इजिप्ट के रहने चालों ने व तिब्बत के लोगों ने शरीरों कीसुरक्षित रखा, लेकिन उन्हीं शरीरों को सुरक्षित रखा, जो कि आंतरिक गहरे प्रयोगोंमें लगे थे। अन्यथा, यह बिल्कुल बेकार है कि तुम्हारे षारीर को सुरक्षित रखाजाये। तुम अपने पुराने रारीर को पहचान भी न सकोगे
लेकिन का शरीर मास्को में सुरक्षित रखा गग्रा है, लेकिन वह उसको पहचानभी नभाएगा। यदि फिर से जन्म ले, तो वह उसे नहीं पहचानेगा। उसके रारीरकोएक प्रयोगागला की तरह कभी काम में नहीं लिया गयाय उसने उसे कभीनहीं जाना। वह सिर्फ दर्पणा में ही उसे देखता था न कि सीधे ज्ञारीर मेंयह प्रक्रिया एलकेमीकल है रू क्रोध का अवलोकन करो और क्रोध प्रकाशमें रूपान्तरित होजाता है। यौन का अवलोकन करो और यौन प्रकाश मेँ रूपान्तरितहो जाता है। किसी भी आंतरिक घटना का निरीक्षण करो जो कि ताप उत्पन्नकरती हो, उसका अवलोकन करो और केवल अवलोकन सेवह प्रकत्मा में बदलजाती है। और यदि तुम्हारी सारी ताप पैदा करने वाली अंतर्घटनाएँ प्रकाश में रूपान्तरितहो जाती हैं, तो तुम उस आंतरिक चन्द्रमा, को अनुभव करोगे। और जब भीतरकोई अग्नि नहीं बचेगी, तब तुममें पूर्ण चन्द्र का अमृत-रस एकत्रित होगाऔर इस अमृत से ही तुम अमर हो जाते हो। न कि इस शरीर में, न किइस शरीर के द्वारा। तुम अमस्ता को उपलब्ध हो जाते हो क्योंकि तुम जीवन औरमृत्यु दोनों का अतिक्रमणा कर गयेतब ही तुम नैवेद्य हो। तब तुम परमात्मा के लिए, समग्र के लिए भोग हो
आज इतना ही

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