आत्म-पूजा उपनिषद्-भाग-2
छठवाँ प्रवचन
बुद्धत्व मानव की परम स्वतंत्रता
प्रश्न
- ऐसा क्यों है कि कुछ ही लोग आंतरिक रूपान्तरण के लिए उत्सुक होते हैं?
- क्या आज का युग बुद्ध-पुरुषों को जन्म देने में सक्षम हैं?
मनुष्य एक स्वतंत्रता है-पूर्ण स्वतन्त्रता है। अतः अध्यात्म एक चुनाव है। कोई दबाव नहीं है तुम पर, जो कि तुम्हें अध्यात्म को चुनने के लिए बाध्य कर रहा है। कोई कारण भी नहीं है जो कि रूपान्तरण करने को मजबूर कर रहा है। यदि कोई भी कारण होते, जो कि तुम्हें रूपान्तरण करने को बाध्य कर रहे होते, तो फिर किसी अध्यात्म की संभावना नहीं है।
कार्य-कारण नियम ही भौतिकता है। तुम भोजन करते हो क्योंकि भूख है। वह तुम्हें बाध्य करती है, वहाँ कोई चुनाव नहीं है। तुम चुन नहं सकते कि भोजन लेना अथवा न लेना। तुम्हें लेना ही होगा। अध्यात्म उस तरह की खोज नहीं है। तुम्हें कोई भी मजबूर नहीं कर रहा है। तुम्हें स्वयं अकेले ही चुनना है।
अध्यात्म एक चुनाव है। वह कारणगत नहीं है। बाकी सब चीज़ें कारणवश हैं। कोई भी कारण है और उसका परिणाम होता है। और परिणाम स्वतन्त्र नहीं है। उसका कारण है। अध्यात्म सब कारण के पार है। वह किसी भी चीज से बाध्य नहीं, वह तुम्हारा आंतरिक चुनाव है। तुम चाहो तो चुनो, और तुम चाहो तो न चुनो। कितने भी जन्म तुम चाहो तो उसे न चुनो लेकिन कोई तुम्हें उसके लिए बाध्य नहीं कर सकता। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए और यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण चीज है। क्योंकि यदि हर चीज का कारण है, तो फिर मैं कहूँगा कि कोई अध्यात्म नहीं है। तब कोई तुम्हारे आध्यात्मिक होने के लिए कारण बन सकता है। यदि कारण मौजूद है तो उसका परिणाम भी होगा। तब एक बुद्ध को कारण से बनाया जा सकता है। तब फिर हम कारण पैदा कर सकते हैं और तब उससे बुद्ध निर्मित हो जायेंगे।
लेकिन हम ऐसी कोई स्थिति उत्पन्न नहीं कर सकते जिसमें कि तुम बुद्ध हो जाओ। और हम ऐसी भी कोई स्थिति पैदा नहीं कर सकते कि जिसमें तुम्हें बुद्ध होने से बनाया जा सकता है। तब फिर हम कारण पैदा कर सकते हैं और तब उससे बुद्ध निर्मित हो जायेंगे।
लेकिन हम ऐसी कोई स्थिति उत्पन्न नहीं कर सकते जिसमें कि तुम बुद्ध हो जाओ। और हम ऐसी भी कोई स्थिति पैदा नहीं कर सकते कि जिसमें तुम्हें बुद्ध होने से रोका जा सके। तुम मुक्त हो। जिस क्षण भी तुम बुद्ध होना चाहो, हो सकते हो। और तुम चाहो तो कितने ही जन्म उसका चुनाव नहीं भी कर सकते हो।
भौतिकवाद तथा अध्यात्म में निरंतर विवाद चलता है। यही आधारभूत विवाद है- न कि यह कि परमात्मा है या नहीं। यह बुनियादी विवाद नहीं है क्योंकि कोई भी परमात्मा के बिना भी आध्यात्मिक हो सकता है। बुद्ध किसी परमात्मा में विश्वास नहीं करते थे, महावीर ने तो परमात्मा के अस्तित्व के लिए मना ही कर दिया। लेकिन फिर भी कोई महावीर और बुद्ध के जितना आध्यात्मिक नहीं है। इसलिए ईश्वर कोई ऐसी महत्वपूर्ण बात नहीं है। यहां तक कि आत्मा भी कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं है। बुद्ध कहते हैं कि कोई आत्मा भी नहीं है और फिर भी वे प्रथम श्रेणी के आध्यात्मिक हैं। तब फिर अध्यात्म में बुनियादी चीज क्या है? यह जो स्वतन्त्रता की धारणा है- कि क्या मानव मानवता के पार जाने के लिए स्वतन्त्र है?
यदि हर चीज का कारण है तो फिर तुम्हारे लिए कोई स्वतन्त्रता नहीं है। तुम्हारे पास एक विशेष शरीर है क्योंकि उसके विशिष्ट कारण हैं- किसी खास पिता के कारण, किसी खास मां के कारण, किसी खास देश जलवायु, किसी खास वंश के कारण। तुम्हारे पास विशिष्ट शरीर है, उसके खास कारण है। तुम्हारे पास एक मन है किसी खास देश, खास संस्कृति खास शिक्षा के कारण। तुम्हारे पास जो मन है, उसके भी खास कारण हैं। तुम एक विशेष भाषा बोलते हो क्योंकि उसके भी कारण हैं। यदि तुम चीन में पैदा होते और तुम्हें दूसरी कोई भाषा नहीं बोल सकते थे। भाषा के भी कारण हैं। कुछ चीजों की आवश्यकता है, तब तुम कोई विशेष भाषा बोल सकते हो।
अतः इन चीज़ों में कोई स्वतन्त्रता नहीं है। केवल अध्यात्म ही अकारण है। और यही धर्म और विज्ञान के बीच बड़े से बड़ा विवाद है। क्योंकि विज्ञान का कहना है कि कुछ भी बिना कारण के संभव नहीं है, प्रत्येक बात कारण से है। तुम्हें पता हो, चाहे तुम्हें इसका पता न हो, वह दूसरी बात है। यह बात भले ही अज्ञात हो लेकिन हर चीज़ का कारण है।
विज्ञान का जीवन के प्रति ऐसा ही दृष्टिकाण है : कि हर चीज़ का कारण है। कारण ज्ञात है अथवा अज्ञात, किन्तु हर चीज़ कारणवश है। यदि हर एक चीज़ कारणवश है तो फिर कोई स्वतंत्रता नहीं है। तब यदि एक बुद्ध बुद्ध हैं तो यह उनकी कोई उपलब्धि नहीं है। वे भी कारण से हैं। तब उनकी स्थिति में कोई भी अ, ब, स बुद्ध हो जायेगा। केवल एक विशेष परिस्थिति की जरूरत है।
तब बुद्ध के स्थान पर किसी को भी रखा जा सकता है। तब यदि तुम्हें भी उन्हीं परिस्थितियों में रखा जाये तो तुम भी बुद्ध हो जाओगे, जैसे कि पानी सौ डिग्री पर उबलता है- कोई भी पानी हो। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन-सा पानी गंगा का पानी है अथवा गोदावरी का पानी है, अथवा कहीं का भी पानी। कोई भी पानी एक खास तापक्रम पर उबलेगा और एक खास तापक्रम पर पर उबलेगा और एक खास तापक्रम पर उबलेगा और एक खास तापक्रम पर भाप बन जाएगा। सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाएगा-किसी भी देश में, कोई भी जलवायु हो, कोई भी युग हो। इसलिए कौन-सा पानी-यह बात ही असंगत है। सौ डिग्री पर वाष्पीकरण होता है अतः कोई भी पानी रखो-अ, ब, स, इसमें काई फर्क नहीं पड़ता।
विज्ञान कहता है कि वही बात बुद्ध के साथ भी है। उसका कहना है कि किसी भी व्यक्ति को-अ, ब, स को बुद्ध की परिस्थिति में रख दो और परिस्थिति ठीक, हो तो बुद्ध हो जायेंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि अभी भी हमें कार्य-कारण के सारे सूत्र पता लगा लेंगे।
यह बात बिल्कुल व्यर्थ है। कोई भी ऐसी परिस्थिति पैदा नहीं कर सकती जिसमें कोई दूसरा बुद्ध हो सके। कोई उसे सिखा भी नहीं सकता। यदि मैं पानी से कहूँ-भाप बन जाओ तो वह भाप नहीं बनेगा। लेकिन स्थिति पैदा करें तो पानी भाप बन जायेगा। पानी की अपनी कोई स्वतन्त्रता नहीं है कि चुनाव कर सके। स्थिति महत्त्वपूर्ण बात है। यदि स्थिति मौजूद है तो पानी स्वतः भाप बन जायेगा। विज्ञान कहता है कि आदमी की स्थिति बड़ी जटिल है। वह इतनी साधारण नहीं है कि गर्मी पैदा करो, पानी को भाप बनाने के के लिए। वह जटिल है, लेकिन फिर भी हर चीज़ का कारण है, और हर व्यक्ति कारण से है।
यदि यह बात सच हो तो फिर कोई स्वतन्त्रता नहीं है। वास्तव में, इस देश में यह विचार मनुष्य के मन में बहुत गहरे जड़ जमाये हुए है। इसी कारण अब मनोशास्त्री कहते हैं कि कोई भी अपराधी अपराधी नहीं है : वह कारण से है। और कोई बुद्ध बुद्ध नहीं है, क्योंकि वह भी कारण से है। प्रत्येक सिर्फ दास है, कोई जिम्मेवारी नहीं है। स्वतन्त्रता की धारणा जाने के साथ ही फिर कोई दायित्व नहीं है।
अतः जब तुम मुझसे पूछते हो कि लोग क्यों अपने को रूपान्तरित करने के लिए, अपनी आंतरिक ऊर्जा को आध्यात्मिक प्रकाश में बदलने के लिए उत्सुक नहीं हैं तो उसमें ‘क्यों’ असंगत है। यह पूछा ही नहीं जा सकता। स्वतन्त्रता के साथ ही ‘क्यों’ खो जाना है। तुम पूछ सकते हो कि यह पानी क्यों नहीं उबल रहा है? तब तुम्हें उस स्थिति में ‘क्यों’ पूछना पड़ेगा।
अतः स्थिति में गहरे उतर जाये ंतो तुम्हें उत्तर मिल जाएगा कि क्यों यह पानी नहीं उबल रहा। कोई-न-कोई बात चूक रही है। उस बात को पूरी कर दो और पानी उबल जाएगा। क्यों, कोई आदमी बीमार है? उसकी जाँच करो और कुछ-न-कुछ मिल जायेगा और उत्तर प्राप्त हो जायेगा। क्यों कोई आदमी आध्यात्मिक नहीं है? इसका उत्तर यह है कि यह प्रश्न ही असंगत है क्योंकि ‘क्यों’ के साथ तुम यह सोचते हो कि कहीं-न-कहीं प्रक्रिया में कोई चीज़ बाधा बन रही है। वास्तव में कोई ऐसी बात नहीं है। यदि तुम आध्यात्मिक होना चाहो तो तुम हो सकते हो। यदि तुम नहीं चाहते, तो यह तुम्हारे ऊपर है, यह तुम पर निर्भर करता है।
यदि सारी वही की वही परिस्थितियाँ भी मौजूद कर दी जायें, तो भी एक बुद्ध को पैदा नहीं किया जा सकता, उन्हें नहीं बनाया जा सकता। सचमुच, बुद्ध के जीवन में बहुत-सी ऐसी बाते हैं जो कि हमें मदद कर सकती हैं। वे पैदा हुए तो वे अपने पिता के अकेले पुत्र थे, और वह भी उसकी बुद्धावस्था में पैदा हुए थे। पिता ने ज्योतिषियों से पूछा कि, ‘‘या तो यह एक चक्रवर्ती सम्राट बनेगा अथवा यह संन्यासी हो जायेगा।’’
पिता ने कहा, ‘‘यह कैसा ज्योतिष है। तुम मुझे वह बताओ जो कि होनेवाला है; कि वस्तुतः यह क्या बननेवाला है।’’ उन्होने कहा, ‘‘यही एक मात्र संभावना है जो कि हम कह सकते हैं। या तो यह संन्यासी हो जाएगा, या फिर यह चक्रवर्ती सम्राट बनेगा।’’
ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं। सारी दुनिया का सम्राट और एक संन्यासी-सड़कों पर भीख मांगनेवाला। इन दोनों के मध्य सभी कुछ आ जाता है। ये दोनों बातें बिल्कुल विपरीत हैं।
इसलिए पिता बहुत चिन्तित हो गये और उन्होंने अपने दरबार के विद्वानों से पूछा। उन्होंने अपने राज्य के सारे बड़े-बड़े विद्वानों की एक बड़ी सभा बुलाई और पूछा कि क्या उपाय किया जाये कि उनका लड़का संन्यासी न बने, वह इस संसार में रहे और इसे छोड़कर न चला जाये। उन्होंने पूछा कि किस प्रकार का वातावरण दिया जाये और कैसी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये ताकि अध्यात्म की तरफ उसकी कोई उत्सुकता न हो।
यह एक बड़ा प्रयोग था-एक प्रयोग जिससे कि एक व्यक्ति को कुछ विशेष बनाने का ही प्रबन्ध था। उसे एक महान सम्राट होना ही चाहिए और दोनों संभावनाएँ खुली थीं। अतः कैसे एक संभावना को रोका जाये और दूसरी संभावना को बढ़ावा दिया जाये। उन्होंने एक निर्णय लिया वे बड़ी वैज्ञानिक समझ के लोग थे। ऐसा प्रयोग उसके पहले भी कभी नहीं हुआ और न उसके बाद में कभी हुआ। वह मानवती के इतिहास में एक बड़े-से-बड़ा प्रयोग था।
अतः उन्होंने सारी योजना तैयार कर ली। बुद्ध का बचपन एक योजनाबद्ध बचपन था-समग्ररूपेण सुनियोजित। वो क्या भोजन करें, वो क्या करें, किससे बात करें, कौन शिक्षा दे, वो कब चलें-हर चीज़ सुनियोजित थी। वे बड़े विद्वान लोग थे। उन्होंने कहा कि यह दुःख कभी देखे ही नहीं। यह कभी किसी वृद्ध आदमी को न देखे, यह कभी किसी रोगी को न देखे, यह कभी कोई बीमारी, या गरीबी न देखे। यह सदा सपनों के जगत में ही जिये-युरोपिया में। ये सदा भ्रमों में ही जिये जो कि इतने वास्तविक हों कि उसे यह संसार छोड़ने का ख्याल ही पैदा न हो।
इसलिए उनके लिए तीन महल बनवाये गये तीन अलग-अलग मौसम के लिए। उनके बाग में एक भी सूखा पत्ता नहीं छोड़ा जाता था। रात्रि में जो भी मुर्झा गया हो, उसे हटा दिया जाता। उन्होंने कभी मुर्झाता हुआ फूल भी नहीं देखा। वे केवल खिलते हुए ताज़ा फूल ही देखते। किसी भी वृद्ध आदमी को, जहाँ भी बुद्ध होते वहाँ नहीं जाने दिया जाता। जहाँ कहीं भी गौतम होते किसी बूढ़े आदमी को नहीं जाने दिया जाता-केवल युवा, स्वस्थ, सुन्दर स्त्री और पुरुष ही जा सकते थे।
राज्य की सारी सुन्दर स्त्रियाँ उनकी सेवा में उपस्थित की गई। वे उनकी सेवा करती, और सारे समय संगीत और मधुर गान चलता रहता और उनकी जिन्दगी एक गीत बन गई, एक स्वप्न जैसी हो गई। संपूर्ण योजना संभव हो सकी क्योंकि वे राजा के लड़के थे। जब वे युवा हुए तो उन्होंने कभी भी किसी वृद्ध, बीमार अथवा मरे हुए आदमी को नहीं देखा। उन्हें इतना भी पता न चला कि मृत्यु भी होती है। सचमुच जब कोई मृत्यु न हो, वृद्धावस्था न हो, दुख न हो तो फिर सवाल ही कहाँ खड़ा होता है संन्यास का? फिर संसार को क्यों छोड़ें? फिर तुम जैसा चाहो वैसा जगत है ही- सुन्दर सुखद।
वे इस सपने के संसार में जीते थे कि अचानक एक दिन सब कुछ बिखर गया। कोई उसमें कब तक रह सकता है? वह इतनी झूठी बात है कि कोई उसमें कब तक जिये। किसी दिन तो कुछ होगा ही और सब कुछ टूट कर बिखर जायेगा। और ऐसा हुआ उस सुनियोजना के कारण ही। मैं कहता हूँ उस योजना के कारण ही, क्योंकि जब उन्हें जीवन के सत्यों का पता चला तो उन्हें भारी धक्का लगा। वे ही बातें हमारे लिए आघात नहीं हैं क्योंकि हम उनसे परिचित हैं। लेकिन जब बुद्ध ने पहली बार एक बृद्ध पुरुष को देखा तो उन्हें उसका कोई पता नहीं था, अतः उन्होंने पूछा कि इस आदमी को क्या हो गया है? जब उन्होंने पहली बार एक मृत शरीर को देखा तो सारा सपनों का संसार विलीन हो गया।
हम इन चीजों को रोज देखते हैं, इसलिए हम इनके आदी हो जाते हैं। लेकिन उन्हें उसका कोई पता नहीं था, इसलिए उन्होंने पूछा, ‘‘इस आदमी को क्या हो गया है?’’ उनको उत्तर मिलना चाहिए और वही आघात पहुँचाने वाला होगा- भयानक आघात। उनके जीवन में और मृत्यु के यथार्थ में इतना अन्तराल हो गया था कि कहते हैं वे बोले, ‘‘यदि यह आदमी मर गया है तो फिर सारा जीवन ही व्यर्थ है। तब मैं भी मर ही जाऊँगा। तब सब कुछ बेकार है। यदि मृत्यु अन्त है, तो फिर जीवन अर्थहीन है। अतः मुझे उसे जानना पड़ेगा यदि ऐसा कुछ है जो कि कभी मरता नहीं। यदि ऐसा कुछ भी नहीं है, तब हम सपनों में जी रहे हैं, समय गंवा रहे हैं, शक्ति खो रहे हैं, अपने को नष्ट कर रहे हैं।’’
पिता के मन में पूरी योजना थी। वे कारण बनाने की कोशिश कर रहे ि, किसी विशेष विकल्प को थोपने का प्रयत्न कर रहे थे। लेकिन परिणाम बिल्कुल उलटा आ गया, क्योंकि जब तुम कोई चीज़ जबरदस्ती थोपते हो तो आंतरिक स्वतन्त्रता विद्रोह करने लगती है। बुद्ध का जीवन एक बनाया हुआ था-कृत्रिम, झूठा, अवास्तविक। और चूँकि हर चीज़ थोपी गई थी, तो उनकी भीतरी स्वतन्त्रता विद्रोह कर उठी। उसी आंतरिक स्वतन्त्रता के कारण वे बिल्कुल विरोधी ध्रुव की ओर घूम गये। बुद्ध के पिता के यह बात बिल्कुल समझ के बाहर थी कि आखिर हुआ क्या? जो कुछ भी उनका सामर्थ्य थी, वह सब उन्होंने किया, लेकिन सारी योजना असफल हो गई।
तुम किसी आदमी को कारण से कुछ नहीं बना सकते। और यदि तुम आदमी को सकारण कुछ बना सकते हो, तो फिर मनुष्यता का कोई मतलब नहीं होगा। आदमी अकेला संसार में एक अकारण घटना है। इसलिए मैं नहीं कह सकता कि ‘क्यों’। क्योंकि यदि मैं कहूँ ‘इसलिए’ और ‘इस कारण से’ तो फिर आदमी आध्यात्मिक नहीं हो सकता। तब तुम उन तथ्यों को उपस्थि कर दो, और आदमी आध्यात्मिक हो जायेगा। तब अध्यात्म भी एक बड़े अर्थशास्त्र का भाग हो जायेगा। यह पूर्ति करो और मांग पूरी हो जाएगी। मैं मांग निर्मित करता हूँ और उसकी पूर्ति हो जाएगी।
नहीं, मनुष्य के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। अध्यात्म कोई वस्तु नहीं है। और इसके कारण ही, चूँकि अध्यात्म का मतलब ही स्वतन्त्रता होता है, इसलिए बहुत कम आध्यात्मिक हो पाते हैं। क्योंकि तुम अपनी स्वतन्त्रता का कभी उपयोग नहीं करते। बल्कि इसके विपरीत तुम अपने को दासता में डालते जाते हो क्योंकि दासता सुविधापूर्ण है, बहुत सुविधापूर्ण है, और स्वतन्त्रता असुविधापूर्ण है, कष्टपूर्ण है।
यदि हर एक गुलाम है और तुम भी गुलाम हो तो तुम प्रत्येक के साथ तालमेल बिछा सकते हो। यदि तुम एक मुक्त व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हो तो तुम्हारा तालमेल गलत हो जायेगा। इन्हीं गलीत तालमेल वाले व्यक्तियों से सारे संसार की प्रगति हुई। जिनका समाज से तालमेल बैठ जाता है वे लोग ही रूढ़ीवादी लोग हैं, परम्परावादी लोग हैं। ये लोग वही करते हैं जो कि सारे लोग करते हैं, इन्होंने अपना तालमेल बिठा लिया है। स्वतन्त्रता का अर्थ होता है कि तुम उस दिशा में जा रहे हो जिस तरफ कोई भी नहीं जा रहा है। तुम्हें भय पकड़ता है। तुम बेचैनी का अनुभव करते हो। तुम निश्चित नहीं हो सकते क्योंकि कोई भी तो उस तरफ नहीं जा रहा है। क्योंकि स्वतन्त्रता एक बड़ी जिम्मेदारी है। और इतनी खतरनाक जिम्मेवारी है कि तुम अपने को धोखा देते चले जाते हो।
ज्यादा से ज्यादा हम एक गुलामी की जगह दूसरी गुलामी को चुन लेते हैं। तुम गुलामियों को बदलते रहते हो। एक हिन्दू ईसाई हो जाता है, एक ईसाई हिन्दू हो जाता है। उन्होंने दासताएँ बदल लीं। एक आदमी पार्टी का है और फिर वह उसे छोड़ देता है, तब वह सोचता है कि मैं स्वतन्त्र हूँ और फिर वह दूसरी पार्टी बन्धन स्वतन्त्रता नहीं है। स्वतन्त्रता का अर्थ होता है कि बिना किसी बन्धन चलना। उसका अर्थ होता है कि क्षण-क्षण चलना, बिना किसी आयोजना अथवा बिना कुछ भी तय किये-असुरक्षा में प्रवेश कर जाना। हम सदा ही सुरक्षा को दिलचस्पी रखते हैं।
दो तीन दिन ही हुए एक बुद्ध महिला मेरे पास आई। उसका पति गहरे ध्यान में लगा है। अब उस स्त्री को चिंता होने लगी है क्योंकि वह अब अधिक शान्त हो गया है। वह मुझे कहने आई थी कि मेरा पति ज्यादा शान्त हो गया है, और मुझे डर है कि यदि ऐसे ही चलता रहा तो वह संन्यासी हो जाएगा। वह हमें छोड़ देगा, वह हमें त्याग कर जा सकता है। अतः कृपाकर मेरे पति को ध्यान करने से मना करें। मैंने उससे पूछा कि क्या तुम्हारे पति पहले की अपेक्षा ज्यादा खराब हो गये हैं? तो उस महिला ने मुझे कहा कि नहीं, वे पहले कि बजाय ज्यादा अच्छे हो गये हैं। अब वो पहले की तरह क्रोधित नहीं होते। वो ज्यादा प्रेमपूर्ण हो गये हैं, ज्यादा करुणापूर्ण हो गये हैं। लेकिन सारा घर चिंतित हो गया है। डर है कि वो कहीं हमें छोड़ न दें।
यह डर उस पत्नी का ही नहीं था। मैंने उसके पति से भी पूछा। उसने कहा कि मैं भी कुछ परेशान-सा हो गया हूँ क्योंकि शान्ति भीतर उतर रही है और जैसे-जैसे शान्ति भीतर उतरती चली जाती है वैसे-वैसे हर चीज़ भिन्न नज़र आती-जाती है। मेरी परिवार मुझे मेरा नज़र नहीं आता। ऐसा लगता है कि यह किसी और का परिवार है। मैं बच्चों के प्रति ज्यादा करुणापूर्ण हूँ, लेकिन अब वो मेरे नहीं हैं। मैं उनके लिए सबकुछ कर रहा हूँ और करता रहूँगा परन्तु यह ऐसा ही है जैसे मैं यह सब खेल में कर रहा हूँ-नाटक में कर रहा हूँ। मैं इसमें संलग्न नहीं हूँ, इसलिए मुझे भी भय लगता है। यदि यह ऐसे ही चलता रहा, तो कुछ भी हो सकता है। किसी दिन भी मैं इन्हें छोड़ सकता हूँ।
यह जो डर है, यह अज्ञात का डर है। एक निश्चित ढाँचा पहले था, अब एक नया घटक प्रवेश कर रहा है। और यह बात इतनी जीवन्त है कि हर चीज बदलेगी। इसलिए उसने मुझसे कहा कि यदि आप कहें तो मैं ध्यान करना बन्द कर दूँ। और तब मेरे परिवार में सब बड़े प्रसन्न होंगे।
तुम भी अपनी स्वतन्त्रता से डरे हुए हो और दूसरे भी तुम्हारी स्वतन्त्रता से डरे हुए हैं, इसलिए हमारे पास एक गुलामों का समाज है। और हमारा अपने परिवार में इतना गहरा निहित स्वार्थ है, इतना कुछ लगा रखा है कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। इसीलिए तो हम स्वतन्त्रता की ओर नहीं मुड़ते।
प्रत्येक क्षण तुम चुनने को स्वतन्त्र हो। तुम अध्यात्म को हर क्षण चुन सकते हो। अथवा, तुम पुरानी आदतों को भी चुन सकते हो। पुरानी आदतों के साथ बात आसान है। तुम उन्हें जानते हो, तुम उन्हें जिये हो। कुछ भी नया नहीं है। नये के साथ ही तुम अज्ञात में अन्धेरे में प्रवेश करते हो। तुम्हें फिर से सीखना पड़ता है। अतः एक व्यक्ति जो कि स्वतन्त्रता की तरफ बढ़ रहा है उसे हर क्षण ही सीखना पड़ेगा। और वह अतीत पर निर्भर नहीं हो सकता। अतीत मदद नहीं करेगा।
लेकिन हम सब अतीत से केन्द्रित हैं। चूँकि अतीत ने हमारी एक बार मदद की थी, हम आदतों से बंध गये हैं। यह आंतरिक मन की यांत्रिकता है। जब भी तुम कुछ जानो तो फिर तुम्हें उसके लिए चिन्ता करने की जरूरत नहीं। जब भी तुम किसी बात को आदत की तरह जान लेते हो, तो वह तुम्हारी चेतना से भीतरी रोबोट की यांत्रिकता को मिल जाती है। वह तुम्हारी यांत्रिक प्रक्रिया को हस्तांतरित हो जाती है। तब फिर तुम्हें उसकी परवाह करने की जरूरत नहीं। यांत्रिक हिस्सा अपने आप उसे करता रहेगा।
यदि तुम एक ड्राइवर हो तो, तुम बात करते रहते हो, तुम सोचते चले जाते हो, तुम गीत गाते रहते हो, अथवा तुम अपना रेडियो चालू कर सकते हो और गाड़ी चला सकते हो। तुम गाड़ी नहीं चला रहे हो। तुम्हारा रोबोट, यांत्रिक हिस्सा ही चला रहा है। तुम्हारी तो जरूरत तब होगी जब कुछ नया होगा। कोई अचानक दुर्घटना होगी। तब तुम्हारी जरूरत पड़ेगी। वरना तुम्हारी कोई भी जरूरत नहीं है। तुम आराम से कहीं भी हो सकते हो। तुम्हें अपनी कार में होने की जरा भी जरूरत नहीं है।
तब तुम यंत्रवत गाड़ी चला रहे हो, तब तुम वहाँ नहीं हो। तुम पहले ही मंजिल पर पहुँच गये और खाली तुम्हारा रोबोट पार्ट ही, यांत्रिक हिस्सा ही गाड़ी चला रहा है। तुम्हारी आत्मा उड़ कर सितारों पर अथवा बादलों पर पहुँच सकती है-कहीं भी, किन्तु रोबोट पार्ट ही सब कुछ कर रहा है। यह तुम्हें सुविधाजनक प्रतीत होता है। अतः जब हर चीज़ एक रूटीन में आ जाती है तो वह तुम्हें सुविधापूर्ण लगता है। कुछ भी ज्यादा हो जाये तो तुम्हें जागरूक होना पड़े, सजग रहना पड़े। जब तुम ड्राइविंग सीखते हो तब बड़ी समस्या होती है। तुम्हें सीखने में बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है क्योंकि तब तुम्हें होश रखना पड़ता है।
बेहोशी, अचेतना एक ऐसा नशा है, चेतना, जागरूकता एक ऐसा श्रम है। जब भी तुम कुछ नया सीख रहे होते हो, तो तुम्हें प्रतिपल होश रखना पड़ता है। वह होश रखना ही एक बड़ा श्रम है, एक तनाव है। ऐसा है नहीं, लेकिन चूँकि हम हमेशा ही यांत्रिकता में चलते हैं, इसलिए ऐसा होता है। एक आदमी जो कि अध्यात्म की भाषा में सोच रहा हो, जागरूकता की भाषा में सोचना चाहिए। बढ़ती हुई जागरूकता से। और सजगता तभी आती है जबकि तुम नये-नये प्रयत्नों का सामना करो।
जैविक शास्त्री कहते हैं कि पशु एक ऐसे जगत में रहते हैं जहाँ कि सजगता की जरूरत नहीं होती-एक नियमबद्ध चक्र में। वे ऐसे कृत्य करते हैं जो कि एक से होते हैं। एक पशु का जन्म दूसरे पशु के जन्म से भिन्न नहीं हो सकता। मृत्यु भी भिन्न नहीं होती, यौन भी अलग नहीं होता। प्रत्येक बात वैसी ही होती है क्योंकि हर बात वृत्ति के द्वारा की जाती है। एक चिड़िया घोंसला बनाती है, एक पशु गुफा बनाता है, एक दूसरा पशु कुछ और बनाता है। वे अपनी वृत्ति से उसे बनाते हैं। उन्हें उसे सीखना नहीं पड़ता। उन्हें कभी सिखाया भी नहीं जाता। यह उनका यांत्रिक अंश है, यह उनके कोषों में अंतर्निहित है। उन्हें वह करते रहना ही पड़ेगा।
यहाँ तक कि यदि एक चिड़िया को बिना उसके माता-पिता के भी पाला जाये, और दूसरी चिड़ियों को भी उससे न मिलने दिया जाये, तब भी जब उसका समय पक जायेगा, वह घोसला बनाना शुरू कर देगी। औ घोसला ठीक वैसा ही होगा जैसा कि उसके पूर्वज शताब्दियों से बनाते आ रहे हैं। उन्हें किसी ने भी नहीं सिखाया, किसी सजगता की भी जरूरत नहीं है। यह उनके कोषों में मौजूद है। यह वृत्ति के अनुसार हो रहा है-एक यांत्रिक चीज़-इसलिए वे उसे करते हैं।
मनुष्य के साथ कठिनाई है। मनुष्य को सब कुछ सिखाना पड़ता है-हर चीज़। अब जैविक-शास्त्री कहते हैं कि शीघ्र ही, इस शताब्दि के बाद आदमी को यौन की भी शिक्षा देनी पड़ेगी, तुम्हें उसमें प्रशिक्षण देना पड़ेगा क्योंकि अब सेक्स भी वृत्ति पर निर्भर नहीं है जैसे कि पहले था। इसलिए तुम्हें लगेगा कि आज सारी दुनिया में यौन की पुस्तकों का विस्फोट हुआ है जैसे कि ड्राइविंग सीखने की किताबें हैं। अब उनके पास किताबे हैं कि प्रेम भी कैसे करें-कैसे कुशल यौन को उपलब्ध हों।
किसी भी पशु को सेक्स के बारे में जानने की जरूरत नहीं है, फिर आदमी को ही क्यों? आदमी होने के साथ ही से सब कुछ सीखना पड़ता है। क्यों? क्योंकि मनुष्य में जो उसका रोबोट अंश है वह द्वितीय है और चेतना आ गई है, जो कि प्राथमिक है। यह केन्द्रीय शक्ति है। तुम्हें सभी कुछ सीखना पड़ेगा। और तब चुनाव आता है। तुम्हें चुनाव करना पड़ेगा कि क्या सीखना और क्या नहीं सीखना।
अध्यात्म तुम्हारा महानतम चुनाव है। यह तुम पर निर्भर है। तुम चाहो तो संसार को आध्यात्मिक दृष्टि से देख सकते हो, और तुम चाहो तो संसार की तरफ भौतिक दृष्टि से देख सकते हो। कोई तुम्हें नहीं कहेगा कि यह मत चुनो और कोई तुम्हें बाध्य नहीं कर सकता। यदि तुम भौतिक दृष्टिकोण अपनाओ तो तुम्हारा जीवन एक प्रकार का होगा और यदि तुम्हारा आध्यात्मिक दृष्टिकोण हो, तो तुम्हारा जीवन बिल्कुल ही भिन्न होगा। यही स्वतन्त्रता है।
जैविकशास्त्री कहते हैं कि यह चेतना मनुष्य के जीवन में आई क्योंकि बहुत पहले, कम-से-कम बीस लाख वर्ष पहले, कुछ वनमानुषों ने-यानी मानव के पूर्वजों ने पेड़ से नीचे उतरकर चार के बजाय दो पैरों पर चलना शुरू कर दिया। बजाय चार पैरों के उन्होंने दो पैर से चलना प्रारंभ कर दिया। दो हाथ उसके खाली हो गये। इन दो हाथों के मुक्त होने से बहुत-सी बातें हो गईं और उनमें सबसे बड़ी बात यह हुई कि यह चेतना का हिस्सा भीतर आ गया। जब वन मानव वृक्षों पर थे, तब उन्हें कोई खतरा नहीं था। वे सुरक्षित थे, अपने पेड़ों पर। कोईशेर उन्हें नहीं मार सकता था। कोई चीता उन पर हमला नहीं कर सकता था। वे अपने वृक्षों पर बैठे सुरक्षित थे। वे एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर चले जाते थे। और वह एक यांत्रिक बात थी-अन्तर्निहित वंश परम्परागत।
और यह अभी तक अज्ञात है कि आखिर क्यों थोड़े से वन मानुष ही जमीन पर उतर आये। ऐसा लगता है कि इसके बहुत से कारण हैं। लगता है कि या तो अचानक आबादी का भयानक विस्फोट हो गया। वे संख्या में इतने हो गये कि उन्हें रहने के लिए नये स्थान की खोज करनी पड़ी। वृक्ष कम थे और वे ज्यादा हो गये। अथवा कई वर्षों तक वर्षा न हुई और वृक्ष सूख गये और मर गये, उनको नीचे उतरना पड़ा। लेकिन कोई भी कारण क्यों न हो, ये सब अनुमान की बातें हैं।
अभी-अभी एक बहुत बड़े वैज्ञानिक ने अपना मत दिया है कि मानवता एक रुग्णता से उत्पन्न हुई। कुछ वनमानुष, चिपांजी बहुत ही रुग्ण हो गये किसी विशेष वाइरस से-एक विशेष रोग हो गया। चिपांजी इतने रुग्ण हो गये कि वे पेड़ों पर लटके हुए नहीं रह सकते थे। वे इतने कमजोर हो गये कि उन्हें पृथ्वी पर उतर आना पड़ा। यह संभव है। जो भी कारण हो, परनतु इतना पक्का है कि जब वे जमीन पर उतर कर आ गये तो उन्हें अधिक सचेत रहना पड़ा। तब उनकी यांत्रिक आदतों से काम नहीं चलेगा। उनकी अन्तर्निहित वृत्तियाँ पर्याप्त नहीं थीं। उन्हें अनजान जगह पर चलना था। चलना ही नहीं, चलने की भंगिमा, उसकी प्रक्रिया ही नई थी। उनके शरीर उससे परिचित नहीं थे। दो पाँवों से चलने के साथ ही वे दो पैरों वाले जानवर हो गये, चार पैरों वाले जानवरों के बजाय। उनके कोषों में इस बात का पहले से कोई ज्ञान नहीं था। इसीलिए, जब आदमी पैदा होता है, तब एक बच्चा उत्पन्न होता है तो उसे चलना सीखना पड़ता है। यह, अभी तक भी स्वाभाविक वृत्तियों के अनुसार नहीं है।
एक घोड़ा पैदा होता है, वह दौड़ सकता है। एक बछड़ा पैदा होता है, वह दौड़ सकता है। यदि तुम एक छोटे बच्चे को ऐसी जगह रख दो, जहाँ कि कोई भी नहीं चलता हो, और वह नकल नहीं कर सके तो वह अपने सारे जीवन नहीं चलेगा।
कुछ सियारों की गुफाओं में कुछ बच्चे पाये गये जो कि उन सियारों के साथ ही बड़े हुए। वे चल नहीं सकते थे। अभी कोई चार-पाँच वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के जंगलों में एक चौदह वर्ष का लड़का सियारों की एक गुफा में पाया गया। वे उसे किसी गाँव से उठा ले गये होंगे और फिर उन्होंने उसे पाल लिया। चौदह साल का बच्चा था लेकिन वह चल नहीं सकता था। वह दो पैरों वाला नहीं था, वह अभी भी चार पैरों वाला था। वह चार पैरों पर ही चलता था और वह सियारों की तरह ही चलता था, न कि आदमी की तरह।
अभी भी चलना एक प्रयास है। इसलिए जब बच्चा चलने लबगता है तो उसके माँ-बाप प्रसन्न होते हैं क्योंकि यह बात कीमती है-एक उपलब्धि है। हमारी भाषा में भी कुछ ऐसी चीजें़ हैं, जो कि इस रुख को बतलाती हैं। हम कहते हैं कि कोई आदमी अपने पाँव पर खड़ा हो गया है, वह अपने पाँव पर ही खड़ा है। यह बात कीमती है, बहुमूल्य है, प्रशंसनीय है। हम किसी को निंदित करते हैं जब कि हम कहते हैं कि तुम अभी भी अपने पाँव पर खड़े नहीं हुए।
चूँकि आदमी एक नई स्थिति में आ गया वृक्षों से जमीन पर उतर कर-जिसमें कि सभी कुछ नया था, जिसमें कि यांत्रिक हिस्सा सहायक नहीं होगा, जिसमें कि खाली वृत्तियाँ काम न देंगी-इसीलिए बुद्धि का विकास हुआ। उसे सजग होना पड़ा, और उसे हर क्षण सतर्क होना पड़ा क्योंकि चारों तरफ इतने खतरे थे। वह दुश्मनों से घिरा हुआ था। और वह कमजोर था क्योंकि अब वृत्तियाँ मदद नहीं करेंगी। यह खतरनाक स्थिति उसकी सतर्कता के लिए पहला विद्यालय थी। उसे सचेत रहना था।
अब उसने बहुत ही सुरक्षित स्थिति प्राप्त कर ली है, इसलिए वह रोबोट की तरह हो सकता है। सचेत रहने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। इसीलिए पैनापन, सजगता, सतर्कता को फिर से चुनना पड़ेगा। यदि तुम जंगल में चले जाओ और जंगली जानवरों के साथ रहना शुरू कर दो, तो वह कोई वास्तविक खतरा नहीं है। तुम अपने को उससे भी अभ्यस्त कर सकते हो। वह भी तुम्हारे आंतरिक रोबोट का हिस्सा हो जाएगा। मनुष्य के लिए क्षण-क्षण जीना, वर्तमान में, सजग, सचेत, जागरूक। और वह तुम्हारा अकारण चुनाव होगा।
इसे इस भाँति देखें। विज्ञान कारणगत है। उसका अर्थ होता है कि वह अतीत-केन्द्रित है। यदि कुछ भी खोजना हो, तो विज्ञान अतीत में जायेगा। यदि तुम बीमार हो, तो विज्ञान तुम्हारे पिछले इतिहास में जाएगा, तुम्हारे केस हिस्ट्री में जाएगा कि आखिर यह रोग क्यों हुआ। विज्ञान भविष्य में नहीं जा सकता। सह सदैव भूत में ही जाता है। यदि तुम अन्धे हो, तो विज्ञान तुम्हारे अतीत की खोज करेगा, तुम्हारे माता-पिता के अतीत में उतरेगा। वह अतीत में जाता है, वह कारण जानने के लिए कोशिश करता है। तब परिणामों का पता चल सकता है।
धर्म भविष्योन्मुख है, अतीतोन्मुख नहीं। इसलिए ‘क्यों’ का उत्तर नहीं दिया जा सकता-वैज्ञानिक भाषा में। वह भविष्य-केन्द्रित है। तुम उसे समझ सकते हो, ऐसा नहीं है कि कुछ है जो तुम्हें अध्यात्म की तरफ ले जाने के लिए कारण है। बल्कि कुछ तुम्हें पुकार रहा है आध्यात्मिक होने के लिए। कारण नहीं है, बल्कि पुकार है-तुम्हारे लिए।
सदा-सदा आध्यात्मिक आदमियों ने कहा है कि एक पुकार मैंने सुनी। वह पुकार भविष्य से आती है, न कि अतीत से। यह अन्त से संबंधित है-न कि स्रोत से। वहाँ चुनाव की स्वतन्त्रता है। जो भी तुम्हारी नियति है, उसे तुम चुन सकते हो। तुम चुनाव कर सकते हो जो भी उपलब्ध करना चाहो और होना चाहो। यदि तुम भूखे हो, तो तुम भोजन ढूंढ़ते हो, यह कारणगत है। यदि तुम भीतर तनाव महसूस करते हो और तब ध्यान का चुनाव करते हो तो यह भी कारणगत है। तब तुम्हारा ध्यान भी एक वैज्ञानिक प्रयास ही है।
परन्तु यह बिना कारण के है यदि तुम कहो कि मुझे कुछ भी पता नहीं कि क्यों, लेकिन कोई पुकार आती है। तुम्हारी ओर से पुकार आती है। और मुझे इसे दिशा में जाना ही पड़ता है। मुझे किसी अज्ञात की सुगन्ध आती है। और मुझे इस दिशा में जाना ही पड़ता है। मुझे किसी अज्ञात की सुगन्ध आती है। वह मेरे अतीत से नहीं आती, वरन मेरे भविष्य से आती है, मुझे निमंत्रित करती हुई। मैं जाऊगा। यह खतरनाक है क्योंकि मुझे भी पता नहीं कि क्या होने जा रहा है। मुझे कुछ भी पक्का पता नहीं है कि उसका क्या परिणाम होगा, लेकिन मैं जाऊँगा। तब यह एक छलांग है। और स्मरण रहे कि ऐसा इसी युग में नहीं है। ऐसा सदैव से ही है और ऐसा हमेशा ही होता रहेगा।
मुझसे यह भी पूछा गया है कि क्या मुझे लगता है कि वर्तमान पीढ़ी कृष्ण, लाओत्से, क्राइस्ट जैसे बुद्धजनों को पैदा करने के लिए सक्षम है? अध्यात्म समय से कोई मतलब नहीं रखता-समय-अपना युग। एक लाओत्से किसी खास समय के कारण पैदा नहीं होता। एक बुद्ध किसी खास युग के कारण नहीं जन्मते। बुद्ध के समय में कितने ही लोग थे, लेकिन एक ही बुद्ध हुए। युग तो सबके लिए एक-सा ही था, समय तो सब के लिए एक जैसा ही था।
समय बिल्कुल असंगत है अध्यात्म का फूल खिलना कोई समय पर निर्भर नहीं होता।
हाँ, दूसरी चीज़ें समय पर निर्भरहैं। उदाहण के लिए, तुम बुद्ध के जमाने में हवाई जहाज में नहीं उड़ सकते थे। तुम्हें बैलगाड़ी में ही यात्रा करनी पड़थी थी क्योंकि विकास के कुछ खास समय के बाद ही हवाई-जहाज संभव है। अब तुम हवाई-जहाज में उड़ सकते हो, लेकिन अभी भी तुम दूसरे सौर ग्रहों को नहीं जा सकते। तुम कुछ भी करो परन्तु तुम वहाँ नहीं जा सकते। करीब बीस सदियां और अभी लगेगी जबकि हम दूसरे सौर मण्डल पर जा सकेंगे। सौर मण्डल के पार जाने में कम-से-कम अभी बीस शताब्दियाँ और लगेंगी। यह धीमा विकास है।
बहुत-सी चीज़ें भी विकसित करनी पड़ेंगी। एक बैलगाड़ी को हवाई-जहाज होना पड़ेगा, इसके अलावा भी बहुत-से कदम उठाने पड़ेंगे। अतः बुद्ध के जमाने में भी तुम बहुत-सी बातें नहीं कर सकते थे, जहाँ तक बाहरी दुनिया का संबंध है। परन्तु जहाँ तक भीतरी जगत का संबंध है, कोई भी क्षण, कोई भी समय उतना ही ठीक है जितना कि अन्य कोई। क्योंकि जैसे ही तुम भीतर जाते हो, समय खो जाता है।
इसे समझना पड़ेगा। एक बुद्ध ध्यान कर रहे हैं, वे भीतर गहे चले गये हैं। कोई समय नहीं है वहाँ समय समाप्त हो जाता है। उन्हें समय का पता भी नहीं है। समय रुक जाता है। यदि तुम भीतर जाओ तो समय रुक जाता है। बुद्ध जो कि पच्च्ीस सौ वर्ष पूर्व ध्यान कर रहे थे समय से बाहर हो गये थे, तुम आज ध्यान करते हुए भी समय से बाहर चले जाते हो। और तुममें और बुद्ध में कोई अन्तर नहीं होगा क्योंकि सारे भेद समय के भेद है।
तुम कुछ खास कपड़े पहनते हो जो कि बुद्ध नहीं पहन सकते, तुम बहुत-सी बातें जानते हो, जो कि बुद्ध नहीं जानते। तुम एक अलग जगत के आदमी हो-एक भिन्न शिक्षा, एक भिन्न ही संस्कृति और बुद्ध एक दूसरे ही जगत के आदमी थे। लेकिन जब तुम भीतर जाते हो, तो तुम संस्कृति, समाज, शिक्षा, इन सब के पार निकल जाते हो। जब तुम भीतर जाते हो तो तुम एक दूसरे ही जगत में प्रवेश कर जाते हो जो कि इस समाज के द्वारा बनाया हुआ नहीं है। और तब तुम जा सकते हो। लेकिन मनुष्य की आदत है यह सोचता है कि हमारा युग बुरा है कि हमारा समय खराब है। यह मनुष्य की आदत है।
और ऐसा आज ही नहीं है। ऐसा सदा ही था। बेबीलोन में एक बहुत पुराना रेकार्ड मिला है। वह कम-से-कम सात हजार वर्ष पुराना है। लेकिन यदि तुम उसे कल सुबह के अखबार में छाप दो-संपादकीय की भाँति तो उससे काम चलेगा। तुम्हें उसमें कुछ भी बदलने की जरूरत नहीं है। वह कहता है, यह अंधकार का युग है, यह घूसखोरी का जमाना है, यह अनैतिकता और पाप का समय है। सब कुछ जोशुभ था, खो गया, सब जो विद्वतापूर्ण था विलीन हो गया। युवा विद्रोही हो गये हैं। पत्नी पति की नहीं सुनती, बेटा पिता की नहीं सुनता। शिक्षकों का शिष्य आदर नहीं करते। यह सात हजार वर्ष पुराना लेख है। यह युग के बारे में जानते हैं और जो भी हमारे चारों ओर है, उससे परिचित हैं। और हम अपने पड़ोसी की बुद्ध से तुलना करने लग जाते हैं। हमें मालूम नहीं है कि उस समय कैसे पड़ोसी थे। बुद्ध आपके पड़ोसी नहीं थे। बुद्ध तो केवल एक ही हैं। अतः हम अतीत के सबसे श्रेष्ठ आदमी के साथ आज के सबसे बुरे आदमी को तौलते हैं, इसीलिए हर काल हमें पाप का काल प्रतीत होता है।
हम जीसस के बारे में सोचते हैं, हम जुदास के बारे में नहीं सोचते हैं। हम राम के बारे में ख्याल करते हैं, हम रावण के बारे में नहीं सोचते हैं। हम बुद्ध के बारे में सोचते हैं, हम देवदत्त के बारे में नहीं सोचते। वह बुद्ध से ईर्ष्या करता था, केवल इसीलिए कि लोग बुद्ध का इतना मान क्यों करते हैं। वह बुद्ध का सिर्फ चचेरा भाई था। जब उसने देखा कि इससे काम नहीं चलेगा तो उसने संसार त्याग दिया। उसने केवल इसीलिए संसार त्याग दिया क्योंकि उसने देखा कि लोग उसी का आदर करते हैं जो कि संसार का त्याग कर देता है। अतः उसने इसीलिए संसार छोड़दिया और गहरी तपश्चर्या में चला गया। उसने ध्यान का अभ्यास किया, योग राधा, सबकुछ किया-केवल गौतम से उपर उठने के लिए।
उससे भी कुछ नहीं हुआ, क्योंकि तुम अपने को जबरदस्ती बुद्ध नहीं बना सकते, तुम नकल नहीं कर सकते। परन्तु देवदत्त को तो लोग भूत गो, लेकिन बुद्ध अभी भी हैं। सारा युग विस्मृत को गया, केवल बुद्ध बच रहे। सब कुछ विलीन को गया, लेकिन बुद्ध शेष रह गये। और त्तब हम अपने काल को युद्ध से तौलते हैं। और उसी से यह समस्या उठ खडी होती है कि वया आज भी बुद्ध या जीसस पैदा हो सकते है 7 यह असंभव प्रतीत होता है। केसे आज के इस अन्धकार के, घूसखोरी के, अनैतिकता के युग में यह हो सकता है? यह केसे संभव है?
एक दूसरी बात भी यहाँ प्रवेश करती है : जब कोई मनुष्य बीस शताब्दियों पहले मर चुका होता है तो यह हम भूल ही जाते हैं कि हमने उसके साथ कैसा बर्ताव किया था, जबकि वह जिन्दा था। जीसस को क्रॉस पर लटका दिया गया, इसलिए नहीं कि वे बहुत बड़ेमसीहा थे अथवा महान बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति थे, बल्कि सिर्फ इसलिए कि वे अनैतिक, अनुशासनहीन तथा परम्परा के विरुद्ध व्यक्ति थे। उनका आचरण किमी सम्मानीय व्यक्ति जैसा नहीं था। और जब उन्हें मारने के लिए कहा गया तो यह निर्णय सर्वसंमति से लिया गया था।
कम, बहुत कम लोग उनके साथ थे, और सारा देश उनके खिलाफ था। उनके सिर्फ बारह शिष्य थे और वे भी उनको छोड़कर भाग गये जबकि उन्हेंक्रास पर लटकाने का समय आया। वे भाग गये। वे भी भीतर तो संदिग्ध थे। जब सब लोग उनके खिलाफ थे, तोजरूर कुछ गलत बात होगी। जीसस को ‘‘एक हिप्पी’’ की तरह क्रॉस पर लटका दिया गया-एक आवारा आदमी की तरह।
तुम्हें आश्चर्य होगा यह जाकर कि जीसस की हत्या का कोई रिकॉर्ड नहीं है। यहूदियों ने इस घटना का कहाँ पर भी उल्लेख नहीं किया। वह एक इतनीछोटी धटना थी कि किसी भी यहूदी ने अपने इतिहास में उसका उल्लेख नहीं किया है। रोम के लोगों ने इसको रिकॉर्ड नहीं किया हैंयदि तुम जीसस हुएकि नहीं यह देखने के लिए यदि तुम कोई भी ऐतिहासिक रिकॉर्ड ढूंढ़ने जाओ, तो तुम्हें एक भी ऐसा रिकर्डिं नहीं मिलेगा। कुछ भी नहीं है। शिष्यों के द्वारालिखा गया बाइबिल का रिकॉर्ड ही एकमात्र रिकॉर्ड है।
इसलिए कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें कि जीसस के होने पर भी शंका है। वे कहते हैं कि यह आदमी कभी हुआ ही नहीं। वे कहते हैं कि यह जीसस क्राइस्ट एक नाटक था जो कि हर गाँव में खेला जाता था-कि यह सिर्फ एक नाटक था, न कि ऐतिहासिक तथ्या और बाद में धीरे-धीरे लोग भूल ही गये कि यह एक ड्रामा था और यह इतिहास बन गया। यदि बाइबिल खो जाये तो कोई रिकॉर्ड नही है कि जीसस कभी हुए भी थे। यदि वे एक बहुत महत्वपूर्ण, प्रतिभाशाली व्यक्ति थे, यदि उनसे वह युग प्रभावित हुआ था, तो यह असंभव है समझना कि क्यों उनका कोई रिकॉर्ड नहीँ है।
यह ऐसा ही है जैसे कि वे हुए ही नहीं। वे अज्ञात थे, कोई उनके बारे में कुछ नहीं जानता था। बाद में, जबकि शिष्य इक्ट्ठे हुए और उन्होंने एक संगठन निर्मित किया, तो धीरे-धीरे वे जाने गये। अन्यथा वे एक अनजान यहाँ के लड़के थे। यदि जीसस तुम्हें मिल जायें तो तुम उनको नहीं पहचान सकोगे। यदि अचानक तुम्हें चुद्ध मिल जायें और कोई तुम्हारा परिचय नहीं कराये, तो तुम उन्हें भी नहीं पहचानोगे-क्योंकि यह आन्तरिक आलोक इतनी सूक्ष्म व गुप्त शक्ति है कि जब तक तुम भी सहयात्री नहीं हो, और जब्र तक तुम भी उसी आयाम में यात्रा नहीं कर रहे हो, तुम उन्हें नहीं पहचान सकते।
अतः जब तुम पूछते को कि क्या आज भी बुद्ध या जीसस का पैदा होनासंभव है तो तुम फिर एक अर्थहीन प्रश्च पूछ रहे हो। कहीं भी, किसी भी समयजीसस संभव है, बुद्ध का होना संभव है, क्योंकि यह संभावना तुम्हारे आन्तरिकस्वरूप का छोर है न कि धटनाओं के क्रम का जिसे कि हम इतिहास कहते हैं। वह इतिहास कीबात नहीं, यह समय से संबंधित नहीं। वह हमांरे स्वरूप काअंतरतम लोक है जो कि शाश्वत में जीता है, समय में नहीं। तुम बुद्ध को सकते हो। एक छलांग लो और तुम बुद्ध हो जाओगे। और तुम छलांग न- लो इससेसमय बाधा नहीं देगा।
यह समय की बात ही असंगत है। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए औरइस पर गहराई से सोच लेना चाहिए क्योंकि हम यड़े चालाक लोग हैं और स्वयंको धोखा देने में यड़े चतुर हैं। यदि कोई कहता है कि आज के चुग में बुद्धका होना संभव नहीं है तो फिर तुम सोचने लगते हो कि यह मेरा दायित्व नहीं है कि रूपान्तरित होऊँ। और ऐसे धर्म हैं जो कि कहते हैं कि आज के चुग मेंबुद्ध होना संभव नहीं है। और एक तरह से सभी धर्म यह कहते हैँ। कोई भीसंगठित धर्म यहाँ कहेगा कि जीसस तो ष् सिर्फ एक बार ही पैदा को सकते हैं। वे श् ही केवल एकमात्र परमात्मा के बेटे हैं, और कोई भी पुनः जीसस नहीं हीसकता। तुम केवल क्रिश्चयन हो सकते हो, श्न कि क्राइस्ट।
जैन कहते हैं कि तुम तीर्थकर नहीं हो सकते, तुम एक महावीर नहीं होसकते। कोटा पूरा को गया। केवल चौबीस ही तीर्थकर को सकते हैं। पच्चीसबाँनहीं ही सकता। मुसलमान तुम्हें पैगम्बर नहीं होने देने, क्योंकि मुहम्मद आखिरीपैगम्बर थे और वे खुदा से पूरा आखिरी सन्देश लेकर आये हैं। अब उसमें कोई सुधार संभव नहीं है, और उसकी कोई जरूरत भी नहीं है, वे कहते हैं। हर एक संगठित धर्म यही कहेगा कि मुहम्मद या महावीर होने की कोई भी जरूरत नहीं है, इसलिए केवल अनुकरण करो। तुम केवल अनुकरण करने वाले हो सकते हो।
क्यों? क्यों, वे ऐसा कहते हैं? उसके दो कारण हैं-बहुत गहरे में तुम भी यह बात पसन्द करते हो और फिर तुम्हारे ऊपर जिम्मेवारी भी नहीं रहती तुम अपने को बदलो। समय खराब है, अतः तुम जीसस नहीं हो सकते। यह तुम्हारा दायित्व नहीं है। धर्म कहेगा कि इस कलियुग में, इस पाप से भरे युग में कोई भी जीसस नहीं हो सकता। इसलिए तुम्हें नहीं होना। तब तुम्हारी कोई जिम्मेवारी नहीं हो, तो समय ही ऐसा है जो कि बाधा देता है, अन्यथा तुम कभी के ही जीसस की भाँति खिल गये होते। तुम तो तैयार हो ही लेकिन समय ठीक नहीं है।
प्रत्येक अपने गहरे में इसे पसन्द करता है-इस बात की प्रशंसा भी करता है। तब तुम जो भी चाहो, हो सकते हो। तब तुम पर कोई बोझ नहीं है कि तुम भी बुद्ध की तरह न खिलो। इस गहरे सन्तोष और इस चालाक प्रवंचना के कारण, हम प्रसन्न हैं। हम सोचते हैं कि हम केवल अपराधी हो सकते हैं, हम केवल कमजोर प्राणी हो सकते हैं। बस इतना हो सकता है जो कि इस युग में संभव है।
और दूसरी बात, हर एक धर्म सोचता है कि यदि बुद्ध फिर से पैदा हो तो फिर बुद्ध की कोई संगठित संस्था नहीं हो सकती क्योंकि दूसरा आनेवाला बुद्ध उसको बिखेर देगा। ईसाई किसी और को फिर से क्राइस्ट नहीं होना देना चाहते। दूसरा क्राइस्ट सारे ईसाई साम्राज्य को तितर-बितर कर देगा। क्योंकि ऐसे लोग अपरम्परावादी होते हैं, ऐसे लोग किसी संप्रदाय के नहीं होते, ऐसे लाग सदैव ही स्वतन्त्र होते हैं, पूर्णरूप से स्वतन्त्र। वे किसी भी संस्था को नष्ट कर देंगे, यदि वे पुनः जन्म लें।
इसलिए कोई भी धर्म यह पसन्द नहीं करेगा कि जीसस किसी भी रूप से प्रकट हों। पोप उनका प्रतिनिधि है और वह काफी है, जीसस की कोई भी आवश्यकता नहीं है। इसलिए हर एक धर्म इस बात पर जोर देता है कि अभी, इस क्षण कुछ भी नहीं हो सकता। सिर्फ तुम ज्यादा से ज्यादा अनुसरण कर सकते हो। पूजा करो और अनुसरण करो। केवल भीड़ में अनुयायी हो जाओ, अकेले व्यक्ति होने की कोशिश ही मत करो।
बुद्ध एक अकेले व्यक्ति थे, और वे बौद्ध नहीं थे। वे हिन्दू घर में पैदा हुए थे, और तब वह संस्था उन्हें बर्दाश्त न कर सकी। कोई भी संस्था नहीं कर सकती। जीसस यहूदी की तरह जन्म, वे यहूदी ही मरे। वे ईसाई नहीं थे। परन्तु चूँकि यहूदी लोग उस चीज को नहीं संभाल सके, चूँकि वे समाहित नहीं किये जा सके, उन्हें निकाल बाहर कर दिया गया। और चूँकि उन्हें बाहर फेंक दिया गया, वह बीज ईसाईयत के रूप में फूटा।
बुद्ध हिन्दू थे। वे हिन्दू की तरह ही जिये और हिन्दू की तरह ही मरे। वे बौद्ध नहीं थे। लेकिन हिन्दु लोग उन्हें अपने में समाहित नहीं कर सके क्योंकि यदि वे बुद्ध को समाहित करते हैं तो पूरे समाज को बदलना पड़ता है। वे समाहित नहीं किये जा सके, इसलिए उन्हें निकालकर फेंक दिया गया।
यदि आज बुद्ध बौद्ध समाज में पैदा हों, तो उन्हें वहाँ से भी निकाल दिया जायेगा। यदि आज ईसाई समाज में जीसस का जन्म हो, तो वे निष्कासित कर दिये जायेंगे। ऐसा नहीं है कि बौद्ध अथवा हिन्दू बुद्ध अथवा जीसस के विरुद्ध हैं, कोई भी संस्था उनके खिलाफ हो ही जायेगी-उनकी अपनी संस्था भी, क्योंकि संस्थाएँ परम्परारहित कि वे कब क्या करेंगे।
इसीलिए एक जीवित बुद्ध पुरुष के आसपास कोई संस्था निर्मित नहीं कर सकते। यह बहुत ही कठिन है। तुम उनके साथ कभी आराम से नहीं हो सकते कि वह कब क्या कहेगा, कि कब वह क्या करेगा। जब एक गुरु मर जाए, तो संस्था निर्मित हो सकती है। अब तुम जानते हो कि गुरु क्या चाहता है, वह कैसे व्यवहार करता है। अब तुम हर एक चीज़ को केटेगरीज़ में बांट सकते हो। अब तुम चीजों को अलग-अलग कर सकते हो, बांट सकते हो, विश्लेषण कर सकते हो। अब एक संस्था सींव है।
केवल एक मृत गुरु ही एक संस्था को बनने देगा। एक जीवित गुरु के साथ, बीज, प्रतिदिन बढ़ रहा है, बदल रहा है, रूपान्तरित हो रहा है, अज्ञात में प्रवेश कर रहा है। तुम उसके साथ निश्चित नहीं हो सकते। इसलिए केवल मृत गुरु के साथ ही संस्थायें पैदा होती हैं। और जब संस्थाएँ पैदा हो जाती हैं, तो तुम जीसस और बुद्ध के बारे में इतना ऊँचा कभी भी नहीं सोच सकते।
इसलिए ये दो बातें याद रखो : एक, धर्म एक सतत प्रक्रिया है। वह किसी भी काल में ठहरती नहीं। और दूसरी, अध्यात्म एक व्यक्तिगत घटना है। यदि तुम उसे चुनते हो, तो वह तुम्हारे साथ घटित होगी। लेकिन कोई उसे खरीद नहीं सकता। उसके लिए ‘सम्पूर्ण संकल्प’ चाहिए।
बुद्ध और जीसस जैसे लोग किसी भी युग में बंधे हुए नहीं हैं। अभी इस क्षण भी लोग है जो कि बुद्धत्व को उपलब्ध हैं, लेकिन तुम उन्हें पहचान नहीं सकते। समाज को उन्हें पहचानने के लिए सदियाँ लग जायेंगी। जब उन्हें मरे हुए वर्षों बीत जायेंगे, तब कहीं जाकर समाज पहचान पाएगा कि वे कोई विरले लोग थे- कि कुछ अपूर्व अतीत में घटित हुआ था।
मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। नीत्शे ने दुनिया में एक बहुत ही आश्चर्यजनक पुस्तक लिखी है- ‘दस स्पेक जरथुस्त्र’। इस किताब में उसने एक कहानी कही है। एक पागल आदमी बाज़ार में जाता है और हर एक आदमी से पूछता है, उनकी आँखों में झांकता है और पूछता है-‘‘क्या तुमने परमात्मा को देखा है? कहाँ है परमात्मा? मैं उसे ही खोज रहा हूँ। मैं परमात्मा कोढूंढ़ रहा हूँ। कहाँ है परमात्मा?’’ हर एक हँस देता है। सचमुच ये सब आस्तिक हैं, लेकिन वैसे ही आस्तिक हैं जैसे कि होते हैं। यह उनके लिए एक औपचारिकता की बात है। वे सोचते हैं कि इस आदमी का दिमाग खराब हो गया है। कोई कहता है, सचमुच परमात्मा है और उसने इस जगत को बनाया है। लेकिन अब बात खत्म हो गई। न हमें उससे कोई मतलब है, और न उसे हमसे। तुम क्यों खोज रहे हो उसे? क्या है काम? क्या पागल हो गये हो? ये बातें बातचीत करने अथवा लिखने-लिखाने के लिए ठीक हैं-कि परमात्मा है, अतः उसे खोजो लेकिन क्या तुम सच में ही उसे खोज रहे हो?
और वह आदमी हर एक की आँखों में झांकता है और कहता है, क्या तुमने परमात्मा के बारे में कुछ सुना है? कहाँ है वह? तब सारी भीड़ इकट्ठी हो जाती है उसके चारों तरफ और लोग कहते हैं, ‘‘हमने लम्बे अर्से से उसके बारे में कुछ नहीं सुना। तुम कहीं और जाओ। बाजार को गड़बड़ न करो।’’ वह आदमी कहता है, ‘‘मैं तुम्हें एक समाचार देने आया हूँ। मैं उसे नहींढूंढ़ रहा हूँ मैं तो सिर्फ इतना ही जानने आया हूँ कि क्या तुमने उसके बारे में अभी अभी कुछ सुना है? क्या तुम्हें पता है कि वह मर गया है?’’ अब लोग सचमुच सोचते है कि यह आदमी पागल हो गया है। जब वह खोज रहा था, तब भी वह पागल था, और जब वह कह रहा है कि परमात्मा मर गया है तब वह और भी ज्यादा पागल है। कह रहा है कि परमात्मा मर गया है तब वह और भी ज्यादा पागल है।
हम मृत और फिर भी जवित परमात्मा में विश्वास करते हैं-मृत ताकि वह हमें स्पर्श नहीं कर सके, और जीवित ताकि हम रविवार को उसकी पूजा कर सकें। लेकिन यह आदमी पागल है। या तो यह सोचता है कि वह अभी भी जिन्दा है और उसे खोजा जा सकता है, अथवा यह सोचता है कि ईश्वर मर गया है। अतः वे उससे पूछते हैं कि तुम्हें यह किसने कहा? वह कहता है कि मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है। और इससे भी ज्यादा पागल है। कह रहा है कि परमात्मा मर गया है तब वह और भी ज्यादा पागल है।
हम मृत और फिर भी जीवित परमात्मा में विश्वास करते हैं-मृत ताकि वह हमें स्पर्श नहीं कर सके, और जीवित परमात्मा में विश्वास करते हैं-मृत ताकि वह हमें स्पर्श नहीं कर सके, और जीवित ताकि हम रविवार को उसकी पूजा कर सकें। लेकिन यह आदमी पागल है। या तो यह सोचता है कि वह अभी भी जिन्दा है और उसे खोजा जा सकता है, अथवा यह सोचता है कि ईश्वर मर गया है। अतः वे उससे पूछते हैं कि तुम्हें यह किसने कहा? वह कहता है कि मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है। और इससे भी ज्यादा रहस्यात्मक बात तो यह है कि तुमने ही उसे मार डाला है। लेकिन ऐसा लगता है कि यह खबर तुम तक नहीं पहुँची। उसमें थोड़ा समय लगेगा। तुमने स्वयं ही उसे मार डाला है। मैं इस खबर को वापस ले जाता हूं। अभी समय पका नहीं है, और मैं जरा जल्दी ही आ गया हूं। खबर को तुम तक पहुँचने में समय लगेगा।
सूरज की किरणों को भी तुम तक पहुँचने में समय लगता है, तारों की किरणों को भी तुम्हारे तक आने में समय लगता है। बादल गरजते हैं, और बिजली चमकती है लेकिन उन्हें भी तुम्हारे पास तक आने में समय लगता है-जबकि तुमने उसे देख भी लिया हो तब भी, क्योंकि एक अन्तराल है। प्रकाश ध्वनि से तेज़ गति से चलता है। और बादलों में गर्जना होती है और बिजली चमकती है, तो तुमने पहले बिजली देख ली होती है, लेकिन तुम्हें बादलों का गर्जन बाद में सुनाई पड़ता है। लेकिन ऐसा लगता है कि तुम तक उसकी खबर नहीं पहुँची। उसमें समय लगेगा।
इसमें समय लगता है कि पहचान पाओ कि बुद्ध बुद्ध हैं। और उसमें इतना समय लगता है कि जब बुद्ध नहीं होते, तब तुम उन्हें पहचान पाते हो, जब जीसस नहीं होते, तब तुम उन्हें पहचान पाते हो। और जब वे होते है, तुम उन्हें केवल पहचान ही नहीं पाते बल्कि तुम उन्हें इनकार ही कर दे हो। इस सब में समय लगता है। यह एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है मनुष्य के मन की। इसके कारण ही हम बहुत कुछ चूक जाते हैं।
बहुत सी कहानियाँ हैं। लोग बुद्ध के पास आते हैं और पूछते हैं-कि कोई कहता है कि क्या आप बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति हैं, क्या सचमुच आप हैं? क्या आप ने उसे पा लिया है जो कि अप्राप्य है? यदि बुद्ध कहते है कि हाँ मैंने पा लिया है तो वे लोग जायेंगे और लौटकर कहेंगे कि बड़े अहंकारी व्यक्ति हैं। यदि वे कहते है कि ‘‘नहीं, मैंने नहीं पाया है,’’ तो वे कहेंगे, हमें पहले ही पता था। यदि वे मौन रह जाते हैं, तो वे कहते हैं कि यह आदमी कुछ नहीं जानता।
ऐसे सहस्त्रों कहानियाँ हैं। पाइलेट ने जीसस से पूछा था-‘‘क्या तुम सच ही यह सोचते हो कि तुम परमात्मा के बेटे हो? क्या सच तुम भी ऐसा सोचते हो?’’ यदि जीसस कहते है कि, ‘‘हाँ, मैं परमात्मा का बेटा हूँ’’ तो वे एक पागल व्यक्ति हैं। यदि वे चुप रह जाते हैं, तो वे डर गये। यदि वे मना कर देते हैं तो वे सोचते हैं कि हमें पहले ही पता था कि तुम नहीं हो। अतः बुद्ध क्या कहें? जीसस क्या कह सकते हैं। लेकिन यदि वे बीस या पच्चीसों वर्षों पूर्व मर गये हैं, तो तुम उनके पास नहीं जा सकते और पूछ सकते कि, ‘‘क्या तुम एक समाधिस्थ व्यक्ति हो? क्या तुम सचमुच ऐसा नहीं सोचते कि तुम आत्म-प्रवंचना में पड़े हो? क्या तम स्वयं को धोखा नहीं दे रहे?’’
तुम नहीं पूछ सकते। इस लम्बी मृत्यु की दूरी में तुम नहीं पहुँच सकते। तुम पहचानने लगते हो लेकिन तब यह सब बेकार है। वह प्रत्यभिज्ञा किसी काम की नहीं। यदि बुद्ध लौअ कर आ जायें तो तुम फिर वही बात पूछोगे।
ऐसा क्यों है। जब एक बुद्ध तुम्हारे मध्य उपस्थित होता है, वह तुम्हारे ही जैसा प्रतीत होता है। वह तुम्हारी ही तरह जीता है, वह तुम्हारी ही तरह खाता है, वह तुम्हारी ही तरह बीमार भी होता है, वह तुम्हारी ही तरह मर भी जाता है, तब तुम ऐसा कैसे सोच सकते हो कि एक आदमी जो कि तुम्हारी ही तरह हो, ज्ञानी हो गया और तुम नहीं होओ? यह बड़ा घृणास्पद है। यह भीतर गहरे में तुम्हारे अहंकार को चोट पहुँचाने वाला है। चूँकि यह तुम्हारे अहंकार को चोट पहुँचाता है, चूँकि तुम्हें यह हीनभाव से भर देता है, तुम मना कर देते हो। जब तुम इनकार कर देते हो, तो तुम्हें अच्छा लगता है।
इसलिए मैं तुमसे कहूँगा कि जब कभी तुम किसी बुद्ध पुरुष के सम्पर्क में हो, जबकि तुम्हें तुम्हारा मन इनकार करने के लिए कहे, तो इसे स्मरण रखें-इस मन की इस आदत के कारण ही तुम बहुत से बुद्धों को चूक गये, और इस आदत के कारण ही तुम कभी भी किसी बुद्ध को नहीं पहचान पाओगे। और जब तक तुम यह किसी व्यक्ति में नहीं पहचान पाओ जो कि उसमें घट गया है वह तुम्हारे भीतर घटित नहीं हो सकता। जब तुम मना ही करते जाओ और ऐसा सोचो कि कोई बुद्ध नहीं है, तो अन्ततः तुम भी कभी बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो सकोगे। जब कोई नहीं हो सकता तो तुम भी कैसे हो सकते हो?
जब तुम किसी में बुद्धत्व को भी पहचान लिया जो कि भविष्य में होगा। एक बुद्ध की प्रत्यभिज्ञा वर्तमान में तुम्हारे अपने ही भविष्य के बुद्धत्व की प्रत्यभिज्ञा है, तुम्हारी अपनी भविष्य की संभावना, तुम्हारी स्वयं की निर्यात।
आज इतना ही।
thank you guruji
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