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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-25)

आत्म-पूज़ा उपनिषद-भाग-2

सातवाँ-प्रवचन

अन्तस्थ केन्द्र के मौन की ओर

तेरहवाँ सूत्र

निश्चलत्वं प्रदक्षिणम्।
निश्चलता ही प्रदक्षिणा है, अर्थात ‘उसकी’ पूजा के हेतु घूमने की प्रक्रिया है।
मौन ही ध्यान है। और मौन आधारभूत है किसी भी धार्मिक अनुभव के लिए। क्या है मौन? तुम उसे निर्मित कर सकते हो, तुम उसका अभ्यास भी कर सकते हो, तुम उसे आरोपित कर सकते हो। लेकिन तब वह केवल ऊपरी होगा, झुठा, कृत्रिम होगा। तुम उसका अभ्यास कर सकते हो, तुम उसका अभ्यास कर सकते हो और तुम उसे अनुभव करने लगोगे, तुम्हें उसकी प्रतीति होने लगेगी। परन्तु तुम्हारा अीयास उसे आत्म-सम्मोहन बना देता है। वह वास्तविक मौन नहीं होता। वास्तविक मौन तो तभी आता है जबकि तुम्हारा मन खो जाता है-किसी प्रयत्न के द्वारा नहीं, वरन समझ के द्वारा किसी अीयास के कारण नहीं, बल्कि एक आंतरिक सजगत के कारण।

हम शोर से भरे हैं, आवाजों से भरे हैं-बाहरी और भीतरी। बाह्य जगत में ऐसी कोई भी स्थिति उत्पन्न करना असंभव है जो कि मौन हो। यदि हम दूर गहन जंगल में भी चले जायें वहाँ भी कोई मौन नहीं है बल्कि नई ध्वनियाँ हैं-प्राकृतिक ध्वनियाँ है। अर्ध-रात्रि को सभी कुछ ठहर जाता है, लेकिन तब भी वह शान्ति नहीं है, केवल नई प्रकार की ध्वनियाँ है। तुम उनसे परिचित नहीं हो। वे अधिक लयबद्ध हैं : अधिक संगीतपूर्ण हैं, लेकिन फिर भी वे ध्वनियां ही हैं, मौन नहीं है।
एक आधुनिक संगीतज्ञ, जॉन केज़ ने कितनी ही बार कहा है कि मौन असंभव है। तुम संगीतपूर्ण ध्वनियाँ सुन सकते हो, जो तुम्हें पसन्द हैं और ऐसी ध्वनियाँ सुन सकते हो जो तुम्हें पसन्द नहीं हैं। जो ध्वनि तुम्हें पसन्द नहीं है, वह शोर हो जाती है। जोशोर तुम्हें पसन्द है, वह संगीत बन जाता है। लेकिन तुम शान्ति को नहीं पा सकते। केज़ ने कहा कि तुम उस ध्वनि-रहित शान्ति को नीं पा सकते।
उसने उस हॉल के इंजिनियर से कहा कि तुम कहते को कि यह हॉल पूर्णतया साउंडप्रूफ है, तुम कहते को यह इको प्रूफ है, लेकिन मुझे दो ध्वनियों सुनाई पड़ती हैं, एक ऊँची और एक नीची। इंजिनियर ने जवाब दिया कि जो ऊँची ध्वनि है वह तुम्हारे नर्व सिस्टम की है और नीची ध्वनि तुम्हारे रक्त के प्रवाह की है। केज कहता है कि उस दिन मेरे लिए यह निश्चित हो गया कि जब तक मैं मर ही न जाऊं, मौन असंभव है। और इको घूफ था, प्रतिध्वनि रहित भी था। उसने हाँल में प्रवेश किया। लेकिन उसके पास कान हैं और इसलिए उसने ध्वनि खोज ली। यह एके वहुत बड़ा संगीतज्ञ है-आज की सदी का एक महानतम संगीतज्ञा उस हॉल में उसने दो ध्वनियाँ सुनी-एक ऊँची ध्वनि, और दूसरी नीची ध्वनि।
बाहर के जगत में शान्ति असंभव है। और तुम्हारा नर्वस सिस्टम भी बाहर के जगत का हिसा है, न कि भीतर का। तुम्हारा रक्ताभिसरण भी बाहरी जगत का हिस्सा है, भीतरी नहीं। वास्तविक अन्तस तो पूर्ण नीरव है, मौन है। यदि मुझे इजाजत दे तो मैं कहूँगा कि पूर्ण मौन का बिन्दु हमारे भीतर है। ध्वनि बाहर की बात है, मौन ही भीतर को बात है। मौन और अन्तस दोनों पर्यायवाची है।
यदि तुम बाहर जाते हो तो हुम ध्वनि में प्रवेश करते हो। यदि तुम भीतर प्रवेश करते को तो तुम मौन में प्रवेश करते हो। तुम्हें उस जगह पहुँचना चाहिए जहाँ कि मौन है, अथवा जैसा कि झेंन मास्टर कहते हैं-दि साउन्डलेस साउंड-ध्वनिरहित ध्वनि। हिन्दू रोगियों ने उसे हमेशा से ‘अनहद-नाद’ कहा है : ध्वनि जो कि अनिर्मित है।
उदाहरण के लिए तुम किसी भी यंत्र का उपयोग कर सकते हो। लगातार उसे दोहराने से तुम्हें मौन का आभास होगा-एक झूठे मौन की प्रतीति होगी। मंत्र की सतत पुनरुक्ति तुम्हें अश्वात्म-सम्मीढित कर लेती है ख्तुम्हें एक शिथिलता का अनुभव होगा। तुम्हारी सजगता खो जायेगी। तुम्हें और अधिक नींद आएगी। और उस नींद की अवस्था में तुम्हें लगेगा कि तुम मौन को गये। लेकिन वह मौन नहीं है। मौन का अर्थ होता है कि मन मिट गया समझ के द्वारा। जितना तुम अपने मन को समझोगे, जितने तुम अधिक सजग होओगे, अपने मन की यांत्रिकता के प्रति उतने ही अधिक तुम उससे तादाद तोड़ सकोगे।
केवल हमारे तादात्स्य के कास्या ही इतना आंतरिक शोरगुल निर्मित होता है। भीतर मन में क्रोध है, तुम उससे तादात्म्य जोड़लेते की। तुम उसे एक वस्तु की जा नहीं देखते। क्रोध कहीं तुमसे बाहर है, लेकिन तुम क्रोधित होने लगते हो, तुम उसके साथ एक होने लगते हो। तब तुम अपने आंतरिक केन्द्र को चूक जाते हो। तुम बाहर चले गये। मन में सतत बहुत-से विचार चल रहे हैं। विचार की प्रक्रिया जारी है और तुम प्रत्येक विचार के साथ तादाद बना लेते हो। तब गुप्त चाहर चले गये।
विचार के साथ ही नहीं, तुम उन चीजों से भी एक हो जाते हो जो कि गुम्हारे केन्द्र से और भी अधिक दूर है। तुम्हारा घर केवल तुम्हारा घर नहीं है। गुप्त ही तुम्हारा घर को जाते को। तुम्हारी चीजें भी तुम्हारी चीजें नहीं है, तुम उनसे तादात्म्य जोडे हो। जब तुम्हारी कार में कुछ नुकसान हो जाता है तो अरी अतिरिकता भी चोट खा जाती है। जब यदि जै कुछ भी तुम्हारा है, वह सब तुमसे ले लिया जाये, तो हुम मर जाओगे।
हम अपनी वस्तुओं से भी तादात्म्य बनाये हुए हैं, हम अपने विचारों से एक हो बैठे हैं, हम अपने भावों से एक हो गये हैं। हम सिवाय अपने आप के हर चीज से तादात्म्य जोड़हैं। हम हर बात से सिवाय हमरि आंतरिक केन्द्र के तादात्म्य के निर्मित किये हुए हैं। इस तादात्म्य के कारण ही, शोर निर्मित होता है, एक सतत संताप, तनाव पैदा होता है।
वह होगा ही क्योंकि तुम अपना घर नहीं हो। तुममें और उसमें एक अन्तराल है, लेकिन तुम उस अन्तराल को भूले हुए हो। तुझ अपनी पत्नी नहीं हो, तुम अपने पति नहीं हो। एक अन्तराल है। तुम उस अन्तराल को भूल गये हो।- हुम अपने विचार भी नहीं हो, अपना अधि, अपना प्रेम, या अपनी घृणा भी नहीं हो। एक अन्तराल हैं। जब तुम इस गैप को, इस अंतराल को अनुभव करने लगोगे, तो तुम सदा उससे प्यार होओगे। एक साक्षी ढोओगे जो कि उसमें संलग्न नहीं है। जिस किसी चीज़में भी तुम सैलग्न नहीं होते, उसी के तुम सदा बाहर होते हो।
यदि जॉन केज ने जैसा कि उसने कहा कि अपनी ही आवाजें सुनों-नर्वस सिस्टम के काम करने की तथा रवत्त के प्रवाह को-ती यहाँ दो बातें हैं : एक है अवेयरनेस, सजगता, विवेक, जानना, चौतन्या एक बिन्दु भीतर है जो किया सजग होता है कि दो ध्वनियों हैं। लेकिन यह उन दो ध्वनियों के अति ही सजग होता है। वह उस केन्द्र के प्रति सजग नहीं होता जो कि जान रहा है कि दो ध्वनिमाँ हैं। यदि वह हस सजगता के केन्द्र के प्रति भी सजग हो जाये, तो फिर वे दोनों ध्वनियों वहुत दूर हैं। एक अन्तराल है। और जिस क्षण भी तुम्हारी चेतना का ध्यान वस्तु की ध्वनियों से ध्वनिरहित सजगत्ता के केन्द्र की और जाता है तुम मौन में प्रवेश करते हो। इसलिए मैं कहना चाहूँगा कि तुम मौन ही हो, और सिवाय तुम्हारे अभी कुछ ध्वनि है। यदि तुम किसी भी वस्तु से तादाद जोड़ते हो तो फिर तुम इस ध्वनिरहितता को कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकोगे।
यह सूत्र कहता है कि मौन, थिरता ही प्रदक्षिणा है-‘उसकी’ पूजा के लिए घूमना है। तुम मन्दिर जाते हो और फिर वहाँ वेदी के चारों तरफ सात चक्कर लगाते हो। यह पूजा की एक प्रक्रिया है, किन्तु प्रत्येक क्रिया एक प्रतीक है।
सात चक्कर ही क्यों? मनुष्य के पास सात शरीर हैं, और प्रत्येक शरीर के साथ उसका तादात्म्य है। इसलिए जब कोई भीतर जाता है तो उसे सात शरीरों को छोड़ना होता है और हर एक शरीर के साथ तादात्म्य तोड़ना होता है। ये चक्कर हैं। जब ये सात चक्कर पूरे हो जाते हैं, तो तुम केन्द्र में होते हो।
मन्दिर की जो वेदी है वह तुमसे कोई बाहर की बात नहीं है। तुम ही मन्दिर हो, और तुम्हारा आन्तरिक केन्द्र ही वेदी है। यदि मन उस वेदी के चारों ओर चक्कर लगाता है और धीरे-धीरे निकट, और निकट आता जाता है तो अन्त में उसी में स्थिर हो जाता है। यही प्रदक्षिणा है। और जब तुम अपने केन्द्र पर होते हो, तो सभी कुछ शान्त होता है। यह शान्ति समझ के द्वारा उपलब्ध की जाती है-तुम्हारे क्रोध की समझ से, तुम्हारी वासनाओं, तुम्हारे लोभ, तुम्हारे काम की समझ से, सभी कुछ की समझ से। यह तुम्हारे मन की समझ है। लेकिन हम तो अपने मन से तादात्म्य जोड़े हैं, हम सोचते हैं कि हम मन ही हैं। यही एक मात्र समस्या है कि कैसे हम अपने मन से पृथक हों।
मुझे याद आता है कि मुल्ला नसरुद्दीन ने तलाक के लिए प्रार्थना पत्र दिया। सारा गाँव कोर्ट में उपस्थित हो गया। हर एक आदमी हैरान था क्योंकि मुल्ला नसरुद्दीन की उम्र बस 87 वर्ष की थी और उसकी पत्नी 78 वर्ष की थी। न्यायाधीश भी आश्चर्य में था। उसने नसरुद्दीन से पूछा-‘‘तुम्हारी आयु कितनी है?’’ मुल्ला ने जवाब दिया-‘‘मेरी उम्र बस 87 वर्ष की है-केवल 87 वर्ष।’’ तब जज ने पूछा कि तुम्हारी पत्नी की आयु कितनी है? नसरुद्दीन ने कहा-‘‘केवल 78 वर्ष।’’ जज ने फिर पूछा-‘‘तुम कितने वर्ष से विवाहित हो, कितने वर्षों से साथ-साथ रह रहे हो?’’ नसरुद्दीन ने कहा-‘‘हुजूर, सिर्फ 65 वर्ष से केवल 65 वर्ष से हुजूर।’’ न्यायाधीश ने कहा-‘‘मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। जब तुम 65 वर्ष से साथ-साथ रह रहे हो, तो अब तलाक के लिए आवेदन पत्र की जरूरत क्या है?’’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा ‘‘माई लार्ड! बस, बहुत हो चुका।’’
हमारे मन के साथ भी एक ऐसा बिन्दु आ जाना चाहिए जहां कि हम कह सकें कि अब काफी है, बहुत हो गया। हम अपने मन के साथ जन्मों रह लिए लाखों वर्ष लेकिन अभी भी वह बिन्दु नहीं आया जहां कि हम कह सकें, बहुत हो चुका-एनफ इज़ एनफ। अभी तक भी हम सजग नहीं हो सके कि सारा दुःख ये सारा नर्क जिसे कि हम जीवन कहते हैं यह सब हमारे मन के ही कारण है और उसके साथ तादात्म्य के कारण है। इस संसार को छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं केवल एक ही धार्मिक आवश्यकता है कि हम अपने मन को छोड़ दें, क्योंकि मन ही संसार है। कभी-कभी हम निराशा से भर जाते हैं, ऊब जाते हैं-हमारे मन से नहीं किन्तु किसी खास मन से। तब हम उसे बदल देते हैं, लेकिन वह बदलाहट अ-मन के लिए नहीं होती। वह परिवर्तन भी दूसरे प्रकार के मन के लिए होती है।
और वही बात मुल्ला नसरुद्दीन के साथ हुई। उसका तलाक पत्र स्वीकृत हो गया। और जब वह स्वीकार कर लिया गया तो वह सोच रहा था कि जब मैं अपनी पत्नी से मुक्त हो जाऊँगा, तो फिर मैं स्वतन्त्र हो जाऊँगा और चैन की नींद सो सकूँगा। परन्तु वह उस रात बिल्कुल न सो सका। वह इतना उत्तेजना से भरा था। ऐसा नहीं कि तलाक उत्तेजना से भरपूर था बल्कि जिस क्षण तलाक मंजूर किया गया, उसी क्षण तलाक मंजूर किया गया, उसी क्षण उसने दूसरी शादी करने की बात सोचना प्रारंभ कर दिया।
इस तरह हम चलते जाते हैं। वह अपनी पत्नी से थक गया था, लेकिन पति होने से नहीं थका था, स्त्री से नहीं ऊब गया था। वह केवल इस स्त्री से ऊब गया था परनतु उस मन से नहीं ऊबा था जो कि ये सारे संबंध निर्मित करता है और फिर दुःख पाता है। और एक सप्ताह में ही सारे गाँव में खबर फैल गई कि वह एक सतरह साल की लड़की से विवाह करने वाला है। सब लोग परेशानी में पड़ गये-सारा गाँव। उसके लड़के थे 55 वर्ष की आयु के-पोते थे, और पोतों के भी लड़के थे।
उसका सबसे बड़ा लड़का जो कि 55 वर्ष का था वह उसके पास पहुँचा और बोला-‘‘अब्बा जान, यह अच्छा तो नहीं लगता कि आपको सलाह दूँ, परन्तु 87 वर्ष की आयु में 17 वर्ष की लड़की से शादी करना ठीक नहीं है और सारा गाँव इस बात के खिलाफ है, और फिर यह बात स्वास्थ्य के लिए भी ठीक नहीं है। इससे मृत्यु भी हो सकती है।’’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘‘इसकी चिन्ता मत करो। यदि यह लड़की मर जाएगी, तो मैं फिर दूसरी शादी कर लूँगा।’’
इस तरह हमारा मन काम करता चला जाता है। वह सदा बाहरी चीज़ों में परिवर्तन करता रहता है, जो कि कहीं और, परिधि पर हैं। वह अपने को नहीं बदलता। मन ही एक मात्र समस्या है, और मन सदैव बाहर ही देखता है, भीतर नहीं देखता। तलाक की आवश्यकता है किसी खास प्रकार के मन से नहीं, इस और उस मन से भी नहीं, परन्तु मन से ही। मन के स्वयं के होने से ही तलाक लेने की जरूरत है, और केवल तभी तुम मौन में प्रवेश कर सकते हो।
अतः फिर क्या करें? तुम दो बातें कर सकते हो। एक, कि मन को ही रूपान्तरित कर लो। दूसरा जो कि बहुत ही सामान्य है और जो सब जगह किया जाता है कि इस मन को बदलने का प्रयत्न न करो किन्तु कोई विधि इस मन को मूर्च्छित करने के लिए उपयोग करो। तब मन ज्यों-का-त्यों बना रहता है। किसी रूपान्तरण की आवश्यकता नहीं है। एक मन्त्र तुम्हें दे दिया जाता है, एक विधि। तुम इसी मन से उसे करते हो।
तुम उसे शिथिल तथा मूर्च्छित कर सकते हो। तब वह ऊपर से कम सक्रिय होगा, लेकिन वह भीतर गहरे में ज्यादा सक्रिय होगा। वह ऊपर परिधि पर निष्क्रिय प्रतीत होगा, और तुम उसके कारण मूर्ख बन जाओगे, लेकिन भीतर क्रिया चलती रहेगी। मन्त्र का उपयोग करो। राम-राम, या कृष्ण या कोई भी नाम जपते जाओ, सतह पर मन शान्त हो जाता है। परन्तु भीतर चलता रहता है। यह बहुत सरल है। इसीलिए मंत्र-योग बहुत अधिक प्रचलित है। वह आकर्षित करता है। महेश योगी का भावातीत ध्यान इसी प्रकार की आत्म-वंचना की विधि है। वह सिर्फ एक तरकीब है। तुम उसके साथ खेल सकते हो। वह प्रारीं में मदद करेगी और कुछ दिन तक तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुम कुछ हो गये, ऊपर उठ गये, और तब सब कुछ रुक जाता है। पठार आ गया। जब सतह-कुछ शान्त हो गई, तब तुम इस विधि से कुछ नहीं कर सकते। और फिर धीरे-धीरे वे दबे हुए स्वर पुनः स्पष्ट होने लगेंगे।
यह साधारण आत्म-सम्मोहन है। यदि तुम यह भी सोचो कि मैं शान्त हूँ, मैं शान्त हूँ, मैं रोज-रोज और अधिक शान्त हो रहा हूँ तब भी तुम्हें एक खास शान्ति की प्रतीति होगी। परन्तु वह प्रतीति सिर्फ विचार से निर्मित है। विचार करना छोड़ दें और वह फिर गायब हो जाएगी। यह कुए की विधि है, कि सतत दोहराते रहो कि तुम शान्त हो रहे हो, तुम रोज-रोज और अधिक शान्त हो रहे हो। दोहराते चले जाओ इसे सतत्। सतत दोहराने से तुम धोखे में आ जाओगे। तुम सोचने लगोगे, सचमुच, मैं शान्त हो गया हूँ। यह आत्म-प्रवंचना है, जो कि कहीं नहीं ले जाती। तुम वही के वही रहते हो, कोई रूपान्तरण घटित नहीं होता।
यह सूत्र ऐसी किसी भी स्थिरता से संबंधित नहीं है। यह सूत्र तो एक प्रामाणिक मौन से संबंधित है जो कि किसी विधि से उपलब्ध नहीं होता किन्तु समझ से उपलब्ध होता है। और मेरा समझ से क्या मतलब है? मन से मत लड़ो, उसे समझने का प्रयत्न करो। क्रोध के विरुद्ध क्रोध न करो, क्रोध से लड़ो मत, बल्कि समझो कि क्रोध क्या है। यह कौन-सी ऊर्जा है? यह क्यों होता है कहाँ से आता है, इसका स्रोत कहाँ है और इसका उद्गम कहाँ है। उस पर ध्यान करो, और जितने उसके प्रति जागरूक हुए, उतना ही कम तुम्हें क्रोध आएगा। और जब बिल्कुल क्रोध नहीं होगा, तो तुम आंतरिक मौन में फेंक दिये जाओगे।
काम है, उससे लड़ो मत, उसे समझने का प्रयत्न करो। लेकिन हम अपने से ही लड़ने में लगे हैं। या तो हम मन के साथ एक हो जाते हैं या फिर मन से लड़ने लगते हैं। दोनों ही तरह े हम नुकसान में रहते है। यदि तुम उसके साथ एक हो गये तो फिर तुम क्रोध में गिरोगे, काम में गिरोगे, लोभ में, ईर्ष्या में जलोगे। यदि तुम लड़े तो तुम एक विरोधी रुख बना लोगे। तब तुम भीतर बंट जाओगे। तब भीतर तुम विरोधी ध्रुवों को निर्मित कर लोगे।
और कोई दूसरा नहीं, तुम ही विभाजित हो क्योंकि यह क्रोध तुम्हारा ही क्रोध है। अब यदि तुम उससे लड़े, तो तुम्हारा क्रोध दुगुना हो जाएगा-एक तो क्रोध और दूसरा इस क्रोध के खिलाफ क्रोध का भाव। और तुम बँट गये। अब तुम लड़ते जाओ, परन्तु यह एक व्यर्थ लड़ाई होगी। यह ऐसा ही होगा जेसे मैं अपना दायां हाथ बायें हाथ से लड़ाऊँ मैं लड़ना चाह सकता हूँ। कभी मेरा दायां हाथ जीतेगा, कभी मेरा बायाँ हाथ जीतेगा। लेकिन कोई विजय हाथ न लगेगी। तुम एक खेल-खेल सकते हो, लेकिन उसमें कोई जीत या हार नहीं होगी।
मैंने डी.टी. सुजुकी के बारे में एक कहानी सुनी है। वह एक परिवार में मेहमान था। सुजुकी एक बहुत बड़ा विचारक था। उसने पश्चिम में झेन का प्रवेश कराया, और वह खुद भी गहरे ध्यान में गया था। वह किसी परिवार के पास ठहरा था, मेहमान था और उसके कारण परिवार ने बहुत से और लोगों को निमंत्रण दिया था ताकि वे उससे मिल सकें। उन्होंने बहुत-सी दार्शनिक समस्याओं पर बातचीत की। बातचीत भी आधी रात तक चलती रही। लम्बी चर्चा चली चार-पाँच घंटों तक। हर चीज पर चर्चा की गई बिना किसी भी परिणाम के, जैसा कि अकसर दार्शनिक चर्चाओं में होता है।
जब मेहमान चले गये, तब आतिथेय ने सुजुकी से कहा कि चर्चा बहुत लम्बी चली और हमें बड़ा आनन्द मिला। लेकिन कोई नतीजा तो निकला नहीं। यह तो बड़ी निराशाजनक बात है। सुजुकी हँसने लगा और बोला-‘‘मुझे दर्शनशास्त्र इसीलिए पसंद है क्योंकि तुम लड़ते जाओ और न कोई जीत होगी न हार होगी।’’
यह एक बहुत परिष्कृत खेल है जिसमें कोई भी नहीं हारता और न कहीं कोई जीतता ही है। यह कोई ऐसा बुरा खेल नहीं है कि जिसमें कोई जीते या हारे। यह खेल ऐसा है कि तुम इसे खेलते ही रह सकते हो। कोई कभी न तो जीतता है, और न ही कोई हारता है। और भी अधिक सुन्दरता इसकी इस बात में है कि प्रत्येक को लगता है कि वह जीत रहा है। यह इसकी सुन्दरता है। और ऐा है।
ऐसा ही भीतर भी होता है। तुम अपने से लड़ने में लग जाते हो, क्योंकि तुम दोनों ही तरफ से लड़नेवाले हो। कोई विजय संभव नहीं है क्योंकि वहाँ तुम्हारे सिवा कोई और नहीं है। तुम ही अपने साथ खेल रहे हो, अपने को बांटकर। यह द्वन्द्व, यह अन्तर्द्वन्द्व ही सारे धार्मिक लोगों का अभिशाप है, क्योंकि जिस क्षण भी उन्हें पता चलता है उस नर्क का जो कि उन्हीं के मन ने निर्मित किया है वे उससे लड़ने को उद्यत हो जाते हैं। लेकिन द्वन्द्व से तुम कहीं भी नहीं पहुँचोगे।
उसके बहुत से कारण हैं। जब तुम अपने ही मन से लड़ते हो तो तुम्हें उसके साथ रहना पड़ता है। और जब तुम अपने ही मन से लड़ते हो तो वह तुम्हारा अज्ञान, ज़ाहिर करता है। मन है ही इसलिए क्योंकि तुने उसको गहरा सहयोग दिया है। यदि यह सहयोग वापस ले लिया जाये, मन विलय हो जाता है। तब लड़ने की कोई जरूरत नहीं। मन तुम्हारा शत्रु नहीं है। वह सिर्फ तुम्हारे अनुभवों का संकलन है। यह तुम्हारा ही मन है, क्योंकि तुमने ही संगृहीत किया है। और तुम अपने अनुभवों से लड़ नहीं सकते, और यदि तुम लड़े तो ज्यादा संभावना तो यह है कि तुम्हारे अनुभव ही जीत जायेंगे। वे तुमसे ज्यादा वजनदार हैं।
रोज यही होता है। यदि तुम अपने मन से लड़ो तो अन्त में तुम्हारा मन ही जीत जाता है। अन्ततः नहीं, लेकिन फिर भी वह जीतता है। और तुम्हें झुकना पड़ता है। वास्तविक, प्रामाणिक स्थिरता द्वन्द्व से उपलब्ध नहीं की जा सकती। द्वन्द्व दमन करता है, दबा देता है। और जिसे भी दबा दिया गया है उसे बारबार दबाना पड़ेगा। और जिसे भी तुमने दबाया है वह तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह करेगा। तुम एक पागलखाना हो जाओगे। स्वयं से लड़-लड़कर अपने से बातचीत कर, अपने से बदला लेकर अपने ही सामने झुककर, अपने से ही हार जाने पर-तुम एक पागलखाना हो जाओगे।
अपने मन के खिलाफ लड़ो मत। यह इतना शोर पैदा करता है कि सामान्य लोग भी इतने आंतरिक शोर से भरे हुए नहीं होते जितने कि धार्मिक लोग। सामान्य लोग इन बातों की परवाह ही नहीं करते। वे इन सब बातों से सरलता को ले लेते हैं। वे जानते हैं कि यह तर्क है लेकिन वे उसे वैसा ही स्वीकार कर लेते हैं। एक धार्मिक आदमी जानता है कि मन नर्क है और इसलिए वह उसे मना कर देता है, उससे जूझता है, और तब एक दुगुना नर्क पैदा हो जाता है।
तुम नर्क से लड़कर स्वर्ग निर्मित नहीं कर सकते। यदि तुम अतिक्रमण करना चाहो तो उसके लिए द्वन्द्व मार्ग नहीं है। सजगता, होश, जानना कि यह मन क्या है, यही मार्ग है। अतः क्या किया जाए? दमन की विधियों के प्रति सजग रहो। केवल एक बात अनिवार्य है कि जो कुछ भी तुम कर रहे हो, उसे पूरी सजगता से करो। यदि तुम क्रोध में हो तो होशपूर्वक क्रोध करो।
गुरजिएफ अपने शिष्यों के लिए ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित किया करता था। वह सिर्फ स्थिति बनाता था। तुम कमरे में आये और गुरजिएफ ऐसी स्थिति निर्मित करेगा कि तुम्हारा अपमान हो। कोई तुम्हें गाली दे देगा, कोई तुम्हें कोई और अपमानजनक शब्द कहेगा कि तुम क्रोधित हो जाओ। सारा ग्रुप तुम्हें क्रोध करने के लिए मदद करेगा और जो भी हो रहा है उस सब के प्रति तुम सजग हो। और गुरजिएफ तुम्हें अधिकाधिक क्रोध में धक्का देगा और तब अचानक तुम फूट पड़ोगे, तुम पागल हो जाओगे।
और तब गुरजिएफ कहेगा कि अब पूरी सजगता से क्रोध करो। वापस न लौटो, क्रोध से पीछे मत जाओ। पूरी तरह क्रोध करो। और उससे वापस लौट जाना सरल है। तब वह कहता कि होश रखो और दख्ेो भीतर कि क्या हो रहा है। कहाँ से ये क्रोध के बादल उठ रहे हैं। उस आंतरिक अग्नि का पता लगाओ जहाँ से यह धुआँ उठ रहा है।
गुरजिएफ सदैव स्थितियाँ मौजूद करता रहता था। उसकी अपनी राय थी कि यदि हम चाहते हैं कि दुनिया ज्यादा शान्त हो, तो हमें अपने बच्चों को सिखाना पड़ेगा कि कैसे क्रोध करें, कैसे ईर्ष्या करें, कैसे घृणा से भरें, कैसे हिंसक हों। हमें उन्हें सिखाना चाहिए। हम बिल्कुल ही उलटी बात सिखा रहे हैं। हम कह रहे हैं कि क्रोध मत करो। कोई यह नहीं बताता कि क्रोध क्या है। कोई यह बात नहीं सिखाता कि यदि तुम क्रोध करो, तो समझपूर्वक करो। तब पूरी कुशलता से करो, तब क्रोध के खिलाफ हैं। और प्रत्येक यह कहता है कि क्रोध मत करो, वह मत करो।
एक बच्चे से पूछा गया कि उसका नाम क्या है तो उसने जवाब दिया कि ‘डोन्ट’। क्योंकि जब भी मैं कुछ करता हूँ तो मेरी माँ या मेरे पिता चिल्लाकर कहते हैं कि ‘डोन्ट’ मत करो। इसलिए मैं सोचता हूँ यही मेरा नाम है क्योंकि मुझे हमेशा ही डोन्ट कहा जाता है। इससे द्वन्द्व का रुख निर्मित होता है। बिना ज्ञान के तुम कुछ चीज़ों के विरुद्ध हो। और यदि तुम विरुद्ध हो तो तुम जीत नहीं सकते, क्योंकि ज्ञान ही शक्ति है। बाहर के जगत में वैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि भीतर भी ज्ञान ही शक्ति है।
बादलों में विद्युत है। वह सदा से वहाँ थी लेकिन हम अतीत में उसके प्रति अनभिज्ञ थे। बादलों की बिजली सिर्फ हमारे दिल में भय पैदा करती थी। अब हम उसके बारे में जानते हैं। अब बिजली हमारी गुलाम है, इसलिए कोई भय नहीं है। अन्यथा, वेदों में लिखा है कि जब देवता तुमसे नाराज होता है, तो वह बिजली गिरायेगा, आंधी उठायेगा, बादल गरजाएगा। जब ईश्वर नाराज होगा तो तुम्हारे साथ ऐसा होगा। उन्होंने कहा कि यह परमात्मा का क्रोध है। अब हमने उसे जान लिया है। अब वह परमात्मा का प्रकोप नहीं है, उसका परमात्मा से कोई भी संबंध नहीं है। इस तरह ज्ञान शक्ति बन जाता है।
भीतरी क्रोध भी बिजली की तरह से है, विद्युत की भाँति है। पहले बादलों की विद्युत सिर्फ परमात्मा का प्रकोप था। फिर हमने उसे जान लिया। यह जानना ही शक्ति बन गया, और अब ईश्वरीय प्रकोप नहीं रहा। तुम्हारा क्रोध नहीं रहेगा और तब तुम तुम्हारे क्रोध को मार्ग दे सकोगे, तब फिर वह तुम्हारा सेवक हो जाएगा।
एक आदमी जिसके भीतर कोई क्रोध नहीं है वह नपुंसक है। क्रोध ऊर्जा है यदि तुम उसे नहीं जानते, तो वह आत्मघाती हो जाता है। यदि तुम उसे जानते हो, तो तुम उस ऊर्जा को रूपान्तरित कर सकते हो, तुम उसका उपयोग कर सकते हो। तब वह तुम्हारी दास है। और यही बात हर एक चीज़ के बारे में है। तुम्हारे विचार-वे भी ऊर्जा हैं, उनका उपयोग किया जा सकता है। यदि तुम मौन हो जाओ, तो तुम तुम्हारे विचारों के मालिक हो जाओगे। अभी तुम्हारे पास विचार तो है लेकिन कोई विचारणा की शक्ति नहीं है। जब तुम्हारे पास विचार नहीं होंगे, तो तुम अपनी विचार की प्रक्रिया के मालिक होओगे, तब तुम पहली दफा विचार कर सकोगे। विचार करना ऊर्जा है, लेकिन तब तुम मालिक हो।
अन्तस के स्थिर बिन्दु की खोज के साथ ही तुम अपने मालिक हो जाते हो। बिना इसकी खोज के तुम अपनी वृत्तियों के दास बने रहोगे, किसी भी चीज़ के गुलाम हो जाओगे। ज्ञान तुम्हें भीतर ले जायेगा, अतः अपने को एक प्रयोगशाला बना लो। तुम एक संसार हो। पता लगाओ कि तुम्हारी ऊर्जा-शक्तियाँ कौन‘कौन-सी हैं, वे तुम्हारी शत्रु नहीं है। तुम्हारी ऊर्जा-शक्तियाँ क्या हैं।
अपनी मुख्य वृत्ति को, गुण को जानो। इसे याद रखो, तुम्हारे मुख्य गुण को पहचानो। पता लगाओ कि तुम्हारी मुख्य वृत्ति क्रोध है, या कि काम है, या कि लोभ है, या घृणा है या ईर्ष्या है। क्या है तुम्हारी मुख्य वृत्ति? पहले इसका पता लगाओ, क्योंकि यदि तुम इसे बिना जाने ही भीतर गये, तो भीतर जाना कठिन होगा, क्योंकि तुम्हारी मुख्य वृत्ति में ही तुम्हारी ऊर्जा है। वह केन्द्र है, शेष सब गौण है, उससे निम्न है।
यदि क्रोध तुम्हारा मुख्य गुण है तो बाकी सब उसके आधारभूत हैं। अपनी ऊर्जा का केन्द्र खोज लो और तब उसके प्रति सजग होने का प्रयत्न करो। तब शेष सब भूल जाओ। यदि लोभ तुम्हारा मुख्य गुण है, तो सिर्फ लोभ के प्रति सजग रहो बाकी सब भूल जाओ। जब लल्ली की समस्या सुलझ जाएगी, शेष सब अपने आप ठीक हो जाएगा। और यह बात स्मरण रखो कि किसी और की नकल में मत पड़ना क्योंकि किसी और की मुख्य वृत्ति एक अलग बात है।
इस नकल करने की प्रवृत्ति के कारण हम बहुत-सी व्यर्थ की समस्याएँ खड़ी कर देते हैं। उदाहरण के लिए, बुद्ध को एक चीज का रूपान्तरण करना था, महावीर को दूसरी चीज का और जीसस को किसी और ही चीज को रूपान्तरित करना था। यदि तुम जीसस का अन्धा अनुकरण करो, तब तुम जीसस की मुख्य वृत्ति से लड़ने लगोगे, बजाय अपनी वृत्ति के, और उससे तुम भटक जाओगे। बुद्ध को समझो; जीसस को समझो लेकिन अपनी बीमारी को खोजो, और अपनी सजगता को उस विशेष बीमारी पर केन्द्रित करो। यदि मुख्य रोग ठीक हो गया, तो छोटी-मोटी बीमारियाँ अपने आप ही भाग जाएंगी।
हम छोटी-मोटी बीमारियों से लड़ते रहते हैं। तब तुम कितने ही जीवन व्यर्थ करते रहते हो। तुम एक छोटी-सी बीमारी को बदलते हो और दूसरी छोटी बीमारी निर्मित हो जाएगी, क्योंकि ऊर्जा का स्रोत, बीमारी का केन्द्रित स्रोत ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिए तुम सिर्फ बीमारी बदल सकते हो यदि तुम छोटी-मोटी बीमारियों के साथ कुछ कर रहे हो। और हम डरे हुए हैं अपनी ही मुख्य बीमारी को जानने से भी।
बहुत से लोग मेरे पास आते हैं, और मुझे बड़ा आश्चर्य होता है, सदा आश्चर्य होता है क्योंकि जो कुछ भी वे अपनी बीमारी बतलाते हैं वह उनकी बीमारी कभी होती ही नहीं। अपनी समस्याओं के बारे में भी धोखा देते हैं। जब मैं उनके साथ काम करता हूँ, उनका निरीक्षण करता हूँ, और वे जब ज्यादा स्पष्ट हो जाते हैं, नग्न हो जाते है, तब नई समस्याएँ खड़ी हो जाती है। एक वृद्ध आदमी करीब अट्ठावन या उनसठ वर्ष का आया। वह व्यक्ति सदा आता और ध्यान की बात करता कि कैसे करें। और कहता-‘‘मैं पच्चीस वर्ष लगातार ध्यान करने में रस ले रहा हू।’’
लेकिन वह बात ही नहीं थी। ध्यान में उनका कोई रस नहीं था। धीरे-धीरे उन्हें भी पता चलने लगा कि ध्यान में उनका रस नहीं है। उसका रस इस कीर्ति में था कि वे कितने बड़े ध्यानी हैं। कीर्ति उनका रस था, अहं उनकी समस्या थी। और वे सदा कहते कि अहंकार मेरी समस्या नहीं है, मैं एक बहुत ही नम्र आदमी हूँ। परन्तु बहुत से विचार मेरी समस्या हैं, मैं एक बहुत ही नम्र आदमी हूँ। परन्तु बहुत से विचार मेरी समस्या हैं, अतः इन विचारों को कैसे विलय करूं? मुख्य गुण एक ही था-अहं का विचार ही समस्या थी। और वे सदा मुख्य बीमारी को छोड़ रहे थे।
अतः तुम वृक्ष से पत्तों को काटे जाओ, और वृक्ष नये पत्ते निकालता जाएगा। तुम एक पत्ता काटो और वृक्ष दो पत्ते पैदा कर देगा। और वृक्ष पहले से ज्यादा हरा हो जाएगा, तुम्हारे ही प्रयत्न के कारण ज्यादा हरा हो जायेगा। तुम पत्ते नहीं काट सकते, तुम केवल जड़े दो अलग चीज़ें हैं। ‘जब मैं कहता हूँ, ‘‘मुख्य गुण’’ तो मेरा मतलब है जड़। जब मैं कहता हूँ छोटी-छोटी बीमारियाँ तो मेरा मतलब है पत्ते। और समस्या ज्यादा कठिन हो जाती है क्योंकि पत्ते तो दिखलाई पड़ते है और जड़ें छिपी है पृथ्वी में। वे ही सारे ‘पत्तों का स्रोत हैं। तुम सारा वृक्ष काट डालो तो भी नया वृक्ष पैदा हो जाएगा क्योंकि जड़ें ज्यों-की-त्यों हैं। तुम जड़ों को काट दो और वृक्ष अपने आप विलीन हो जाएगा। वृक्ष की चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।
परन्तु इसकी जड़े भीतर जमीन में हैं। तुम्हारा मुख्य गुण भीतर गहरे में मिलेगा। इसलिए जो कुछ भी तुम कहोकि तुम्हारी समस्या है वह कभी भी तुम्हारी समस्या नहीं होती। इसे मान कर ही चलना चाहिए कि कम-से-कम वह तुम्हारी समस्या नहीं है। बल्कि उसके विपरीत मामला हो सकता है क्योंकि हम अपनी आंतरिक कमजोरियों को छिपाते हैं। और अपने मन का ध्यान अलग हटाने के लिए, केवल वास्तविक समस्या को भूल जाने के लिए, हम छोटी-छोटी समस्याएँ पैदा कर लेते हैं।
एक दिन एक आदमी मुल्ला नसरुद्दीन के पास आया। वह गाँव का एक बूढ़ा आदमी था-हर बात में बुद्धिमान था, सांसारिक बातों में होशियार था। वह आदमी सर्दी से बीमार था काफी समय से, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला था। उसने सब प्रकार की दवाइयाँ कर ली थीं, लेकिन उससे भी कुछ न हुआ था। इसलिए उसने मुल्ला से पूछा कि ‘‘क्या वह कुछ सलाह दे सकता है कि क्या करना चाहिए।’’ मुल्ला ने कहा कि, ‘‘तुम आधी रात कोझील पर चले जाओ। सर्द-रात्रि थी और झील ज़मी होगी। तुम उसमें स्नान करना और फिर नंगे होकर झील के चारों ओर दौड़ लगाना। ठंडी हवाएं भी चल रही होंगी।’’ उस आदमी ने कहा, ‘‘तुम क्या कह रहे हो? मैं पहले ही सर्दी से परेशान हूँ। मैं और भी ज्यादा बीमार हो जाऊँगा। मुझे निमोनिया हो जाएगा।’’ मुल्ला ने कहा कि, ‘‘यदि तुम्हें निमोनिया हो जाएगा तो मेरे पास उसकी दवा है। लेकिन सामान्य सर्दी के लिए कोई दवा नहीं ह। यदि तुम्हें निमोनिया हो जाए तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।’’
तुम्हारे आंतरिक जगत में भी तुम उन समस्याओं को छोड़ देते हो जो कि तुम सुलझा न सको। जिन समस्याओं का तुम समाधान नहीं खोज सकते तुम उन्हें भूल जाते हो। तुम उन समस्याओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हो जिन्हें तुम हल कर सकते हो। इस कारण ही तुम्हारी मुख्य बीमारी भीतर दब जाती है। आखिर में तुम्हें भी उनका पता ही नहीं होता और दूसरी कृत्रिम समस्याओं से उलझते रहते हो जो कि वास्तविक समस्याएं नहीं हैं। ये झूठी समस्याएँ काफी ऊर्जा पी जाती हैं और तुम्हारी ऊर्जा-शक्तियों को विनिष्ट कर देती हैं। और तुम वही के वही रहते हो क्योंकि तुम पत्तों से लड़ने में लगे रहते हो।
इसलिए पहली बात भीतरी स्थिरता के लिए यह जानना है कि तुम्हारी समस्याओं की जड़ क्या है। तुम्हारे द्वन्द्वों, तनावों की बुनियाद क्या है। क्या है जड़? इस पर सोचो ही मत कि उनका हल कैसे करें, क्योंकि यदि तुम वह सोचते गये तो तुम डर जाओगे। उनका हल करने की मत सोचो। प्रथम सामान्यतः यह जानना है कि मन की मुख्य वृत्ति को जान लो, तो बस उसके प्रति सजग रहो : कि वह कैसे काम करती है, कैसे भीतर जाल बुनती है, कि कैसे वह भीतर काम करती चली जाती है और तुम्हारे जीवन को प्रभावित करती है। केवल सजग रहो। कभी भी मत सोचो कि उसे कैसे बदलें, क्योंकि जैसे ही तुमने बदलने की सोची कि तुम उसके प्रति सजग होने का अवसर चूक जाओगे।
क्रोध है, लोभ है, काम है। उन्हें बदलने की मत सोचो, उनका अतिक्रमण करने की मत सोचो। वे वहाँ हैं-इनके प्रति सजग रहो। अतिक्रमण परिणाम नहीं है, बल्कि वह फल है। इस भेद को ख्याल में रखो। भेद बारीक है। अतिक्रमण परिणाम नहीं है, वह फल है। क्या मतलब है मेरा? तुम अतिक्रमण के बरे में सोच नहीं सकते, तुम विचार नहीं कर सकते कि मन से पार कैसे जाएँ। विचार करके तुम कभी भी न जा सकोगे। यदि मैं कहूँ कि जागे हुए रहो तो मेरा यह मतलब नहीं है कि जागे हुए रहने से तुम मन के पार चले जाओगे।
कल ही एक व्यक्ति यहाँ था। वह ध्यान में मौन होने के लिए संघर्ष कर रहा था। लेकिन वह इतना जल्दी में था कि जल्दी कि जल्दी ही बाधा बन गई। जब भी वह आता, यह पूछता-‘‘अभी कितने दिन और लगेंगे? मैं तीन महीने से ध्यान कर रहा हूँ, और अभी तक कुछ भी नहीं हुआ है?’’ इसलिए मैंने उससे कहा, ‘‘जब तक तुम यह सतत चाह नहीं तोड़ोगे कि कब होगा, तब तक यह बिल्कुल नहीं होगा।’’ उस आदमी ने मुझसे कहा-‘‘मैं इसे भी छोड़ सकता हूँ। तब फिर कब होगा? मैं इसे भी छोड़ सकता हूँ। मैं आपको भी कष्ट नहीं दूँगा। लेकिन बताओ कि यदि मैं इसे छोड़ दूँ, तब फिर कब होगा?’’
इसलिए यदि मैं तुम्हें कहूँ कि सजगता से तुम पार चले जाओगे, तो ऐसा न सोचना कि सजगता विधि है और चूँकि तुम पार जाना चाहते हो, इसलिए तुम पार चले जाओगे। ऐसा न सोचें कि यदि सचमुच सजगता ही विधि है तो मैं इसका अीयास करूँगा, इसके द्वार मैं पार चला जाऊँगा। तब तुम कभी भी पार न जा सकोगे। यदि सजगता उपलब्ध हो जाए, तो अतिक्रमण होता है। वह एक फल है, परिणाम है। वह आता है। यदि सजगता है तो अतिक्रमण आएगा, तब तुम अपने मन के पार चले ही जाओगे, तुम अपने भीतरी केन्द्र पर पहुँच जाओगे। लेकिन तुम उसकी कामना नहीं कर सकते।
अपने क्रोध को स्वीकार करो। वह है, उसे स्वीकार करो, और उसके प्रति सजग हो जाओ। ये दो चीज़ें है-स्वीकार और सजगता। और तुम सजग तभी हो सकते हो जबकि तुम समग्रता से स्वीकार कर लो। यदि तुम मुझे स्वीकार नहीं करते तो तुम मेरे चेहरे की तरफ नहीं देख सकते। यदि तुम मुझे स्वीकार नहीं करते तो तुम मुझसे सूक्ष्म ढंग से आँख बचाओगे। यदि मैं कमरे में उपस्थित भी होऊँ, तो भी तुम किसी दूसरी तरफ देखने लगोगे, तुम किसी और चीज के बारे में सोचोगे। यदि तुम मुझे स्वीकार नहीं करते, यदि तुम मुझे नकार करते हो, तो तुम्हारा सारा मन मुझसे दूर हटेगा। यदि तुम क्रोध को मना करते हो, तो तुम उसके प्रति सजग नहीं हो सकते, तुम उसके आमने-सामने खड़े नहीं हो सकते। और जब क्रोध को आमने-सामने देखा जाता है, तो वह विलीन हो जाता है। जब काम को देखा जाता है तो ऊर्जा मुक्त हो जाती है, किसी दूसरी दिशा में। अपने मन को प्रत्यक्ष देखो और उसे स्वीकार करो।
विषेधात्मक शिक्षा, निन्दा करने की शिक्षा, संघर्ष की शिक्षा, ने ही इसे निर्मित किया है, हमारे तथाकथित संसार को निर्मित किया है। सारा संसार एक पागलखाना हो गया है, और प्रत्येक व्यक्ति विक्षिप्तता के आखिरी किनारे पर खड़ा है।
अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि दो तरह की विक्षिप्तताएँ हैं-एकः नॉर्मल, सामान्य विक्षिप्तता, दूसरी : ऐबनॉर्मल, असामान्य विक्षिप्तता। नॉर्मल विक्षिप्तता का अर्थ है कि प्रत्येक वैसा है। ऐबनॉर्मल विक्षिप्तता का अर्थ है कि काई जरा उससे आगे चला गया है। गुण-धर्म में वस्तुतः कोई भेद नहीं है। ऐसा लगता है कि केवल मात्रा का ही भेद है, केवल डिग्री का। और जब तुम क्रोध में होते हो, वस्तुतः तुम अस्थायी रूप से पागल हो जाते हो। तुम सामान्य विक्षिप्तता से ऐबनॉर्मल विक्षिप्तता में चले गये। जब कोई वासना से भर जाता है, विक्षिप्त वासना से; तो वह सामान्य आदमी नहीं रहता, वह बिल्कुल दूसरा ही आदमी हो गया है। और चौबीस घन्टे में दिन में तुम कितनी ही बार ऐबनॉर्मल विक्षिप्तता को छूते हो।
इसीलिए जब कोई आदमी किसी की हत्या कर देता है तो हम कहते हैं कि वह ऐसा आदमी तो नहीं था कि ऐसा काम करे। हम उसे जानते हैं और हम उसे सामान्य विक्षिप्तता में जानते हैं। कोई व्यक्ति कोई अपराध करता है, और हम उस पर विश्वास नहीं कर पाते। हम सोचते हैं कि वह आदमी ऐसा तो कदापि नहीं था। लेकिन उसकी सामान्य विक्षिप्तता है वह सदैव वहाँ है। किसी भी समय ऐबनॉर्मल मन तुम पर हावी हो सकता है, किसी भी क्षण।
विलियम जेम्स एक पागलखाने को देखने गया, और उसके बाद सैंतीस साल तक वह ठीक से सो नहीं सका, क्योंकि पागलखाने में पहली बार उसे पता चला कि जो कुछ दूसरे लोगों को हुआ है वह किसी भी क्षण उसे भी हो सकता है। उसने एक आदमी को देखा जो कि अपना ही सिर दीवार से पीट रहा था।
वह लौट कर आया, वह उस दिन नहीं सो सका। उसकी पत्नी भी परेशान हो गई। उसने कहा, ‘‘मैं घबरा गया हूँ, बहुत ज्यादा चिन्तित हो गया हूँ। वह जो उस आदमी को हुआ है वह मुझे भी हो सकता है।’’ उसकी पत्नी हँसने लगी और बोली-‘‘क्यों तुम व्यर्थ में परेशान हो रहे हो? तुम विक्षिप्त होनेवाले नहीं हो।’’ विलियम जेम्स ने कहा, ‘‘केवल कुछ दिन पहले वह आदमी भी विक्षिप्त नहीं था, और अब वह पागल है। मैं अभी पागल नहीं हूँ, लेकिन कल मैं ही पागल हो सकता हूँ। गारंटी क्या है।’’
सचमुच कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि कुछ डिग्रीज का ही मामला है। कोई गारंटी नहीं है, पक्का नहीं है। तुम हो सकता है कि किनारे ही खड़े हो। और सब कुछ भी होता है और तुम धकेल दिये जाते हो। तुम्हारी पत्नी मर जाती है, तुम्हारा घर जल जाता है, और तुम एक डिग्री आगे धकेल दिये जाते हो।
यह स्थिति, यह मानवता की विक्षिप्त स्थिति मनुष्य के अपने ही मन के साथ लगातार संघर्ष के कारण उत्पन्न हुई है। यह उसकी बाई-प्रोडक्ट है। ज्ञान का जन्म सदा स्वीकार से होता है। यही रहस्य है। यदि पागल आदमी अपने पागलपन को समग्रता से स्वीकार कर लेते हो, भीतर एक नई घटना घटती है। स्वीकार से संघर्ष खो जाता है और संघर्ष में जोशक्ति खो रही थी वह नहीं खोती। तुम अधिक शक्तिशाली हो जाते हो। इस शक्ति और सजगता से, तुम अपने मन से ऊपर चले जाते हो। इसलिए तुम्हें अपने मन का स्वीकार होना चाहिए, और मन के प्रति सजगता हो। और तीसरी बात, तुम्हें इस संसार में परिधि से नहीं बल्कि केन्द्र से चलना चाहिए, जीना चाहिए।
कोई तुम्हें गाली देता है, वह तुम्हारे नाम के बारे में कुछ कह रहा है। जो आदमी परिधि पर जी रहा है, वह सोचेगा कि वह कुछ ‘मेरे’ बारे में कह रहा है। जो आदमी केन्द्र पर जी रहा है, वह सोचेगा कि वह नाम के विरुद्ध कह रहा है और मैं कोई नाम नहीं हूँ। मैं बिना नाम के पैदा हुआ था। नाम तो परिधि पर चिपकाया गया लेबल है, इसलिए परेशान क्यों होऊँ? वह आदमी मेरे बारे में तो कुछ कह नहीं रहा हैं, बल्कि नाम के बारे में कह रहा है। तुम नाम से तादात्म्य बनाये हुए हो, इसलिए तुम परेशान हो जाते हो। यदि तुम अपने और नाम के बीच गैप अनुभव कर सको, परिधि और तुम्हारे बीच अन्तराल देख सको, तो परिधि को ही नुकसान पहुँचा है, न कि केन्द्र को। वह तो अस्पर्शित है।
एक हिन्दू संन्यासी, स्वामी रामतीर्थ अमेरिका में थे। किसी ने उन्हें गाली दे दी, किन्तु वे हँसते हुए आ गये और अपने शिष्यों से बोले कि कोई ‘राम’ को गाली दे रहा था। ‘राम’ बड़ी मुश्किल में पड़ा। उसका अपमान हो रहा था और वह भारी संकट में था। शिष्यों ने पूछा-‘‘आप किसके बारे में बात कर रहे हैं? ‘राम’ तो आपका ही नाम है।’’ रामतीर्थ ने कहा- ‘‘सच ही यह मेरा नाम है लेकिन मैं नहीं। वे लोग मुझे तो जरा भी नहीं जानते। फिर वे मुझे गाली कैसे दे सकते है? वे सिर्फ मेरा नाम ही जानते हैं।’’
यदि कृत्य को भी गाली दी जाये, तो भी कृत्य को दी जाती है, तुम्हें नहीं। यदि तुम गैप बनाये रखो-और वह कठिन नहीं है यदि सजगता हो, वह सरलतम बात है- तब परिधि ही स्पर्षित होती है, लेकिन केन्द्र अस्पर्शित रहता है। यदि केन्द्र अस्पर्शित रहता है, तो आगे-पीछे तुम उस गहरे स्थिरता के बिन्दु को खोज लोगे, जो कि तुम्हारा ही केन्द्र-बिन्दु नहीं है बल्कि सारे अस्तित्व का केन्द्र-बिन्दु है।
मैं आज सवेरे ही एक कहानी पढ़ रहा था। बहुत सुन्दर कहानी है। एक युवा साधक, बड़ी कठिन और लम्बी यात्रा के बाद गुरु की झोपड़ी पर पहुँचा-अपने पसन्द के गुरु की। शाम का समय था और गुरु नीचे गिरे हुए पत्तों को बुहार रहा था। साधक ने गुरु को प्रणाम किया लेकिन गुरु मौन ही रहा। उसने बहुत-से प्रश्न पूछे लेकिन गुरु ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने पूरी कोशिश की कि किसी भाँति गुरु का ध्यान आकर्षित करे लेकिन गुरु इस भाँति हो रहा जैसे कि वह वहाँ अकेला था। वह गिरे हुए पत्तों को बुहारता रहा।
जब शिष्य ने देखा कि गुरु का ध्यान पाने की कोई संभावना नहीं है तो उसने उसी जंगल में एक झोपड़ी बनाने का निश्चय किया। वह उस जंगल में वर्षों रहा। कुछ समय बाद अतीत गिर गया क्योंकि उसे चलाये रखने के लिए भी उसे रोज-रोज निर्मित करना पड़ता है। परन्तु जंगल में तो सबकुछ मौन था। वहाँ कोई आदमी भी नहीं था। केवल वहाँ गुरु था जो कि नहीं होने के बराबर था। कोई संवाद भी नहीं था। वह उसके नमस्कार का भी जवाब नहीं देता था, वह शिष्य की ओर झांकता भी नहीं था। उसकी आँखें खाली, शून्य थीं।
इसलिए कुछ समय के बाद अतीत खो गया। शिष्य वहाँ बना ही रहा। विचार थे, धीरे-धीरे वे भी खोने लगे क्योंकि उन्हें चलाने के लिए भी तुम्हें उन्हें रोज-रोज भोजन देना पड़ता है। यदि तुम उन्हें भोजन नहीं दो, तो वे भी सदैव नहीं चल सकते। कुछ करने के लिए भी नहीं था, इसलिए वह विश्राम में पड़ा रहता, मौन बैठा रहता, और गिरे हुए पत्तों को बुहारता रहता। एक दिन बहुत वर्षों के बाद, जबकि वह गिरे हुए पत्तों को बुहार रहा था, उसे आत्म-ज्ञान हो गया। वह रुका और दौड़ता हुआ गुरु के पास झोपड़ी में गया। गुरु वही गिरे हुए पत्ते बुहार रहा था। शिष्य ने कहा, ‘‘बहुत धन्यवाद, श्रीमन्।’’
सचमुच गुरु ने कभी जवाब नहीं दिया। लेकिन यह धन्यवाद बहुत सुन्दर है। वह गुरु के पास गया और बोला, ‘‘धन्यवाद, श्रीमन्।’’ क्योंकि गुरु के उत्तर नहीं देने के कारण ही------उसने कोई बौद्धिक जवाब नहीं दिया, न ही उसकी तरफ देखा; बस मौन ही रहा इस सबके कारण ही वह अपने गुरु से कुछ सीख पाया। उसने यह मौन सीखा। उसने यह बिना परिधि की परवाह किये केन्द्र पर रहना सीखा।
कोई आदमी लोभी है, यह परिधि की बात है। रहने दो उसे लोभी। कोई आदमी कुछ मांग रहा है, यह परिधि की बात है; उसे मांगने दो। गुरु परेशान नहीं हुआ। वह तो मृत पत्तों को ही बुहारता रहा। उसने कुछ भी नहीं कहा लेकिन उसने एक मार्ग दिखला दिया। उसने कुछ भी नहीं बोला, लेकिन फिर भी उसने उत्तर दिया। वह स्वयं ही उत्तर था। ऐसा मौन शिष्य ने पहले कभी न जाना था। ऐसी अनुपस्थित उपस्थिति उसने पहले कभी न देखी थी। ऐसा था जैसे कि वह व्यक्ति वहाँ मौजूद ही नहीं था, जैसे कुछ भी न बचा था।
बिना कुछ कहे भी गुरु ने बहुत कुछ कह दिया था, बल्कि कहना चाहिए बहुत कुछ दिखला दिया था, और शिष्य उसका अनुसरण करता गया। केवल वही एक पाठ था, लेकिन बहुत गहरा और गुप्त : केन्द्र पर रहना और परिधि की चिन्ता नहीं करना, वर्षों तक शिष्य केन्द्र पर रहने का प्रयत्न् करता रहा, बिना परिधि की चिन्ता किए। एक दिन सूखे पत्तों को बुहाराते समय वह ज्ञान को उपलब्ध हो गया। सालों गुजर गये थे, और अब ऐसी कृतज्ञता का भाव था। उसने बन्द किया सब और दौड़ा गुरु के पास और बोला, ‘‘बहुत धन्यवाद, श्रीमन्।’’ केवल उस छिपे हुए उत्तर का अनुसरण करके ही ऐसा हुआ।
लेकिन यह सब तुम पर निर्भर करता है। उसकी जगह कोई और अपमानित निदित अनुभव कर सकता था, सोच सकता था कि वह आदमी पागल है और उस पर क्रोधित हो सकता था। तब वह एक बहुत बड़ा अवसर चूक जाता। लेकिन वह व्यक्ति निषेधात्मक नहीं था। उसने उस सारी बात को बड़े विधायक रूप से लिया। उसने उसका अर्थ समझा, उसने उसे जीने का प्रयत्न किया, और घटना घट गई। वह फल था, वह कोई परिणाम नहीं था। वह चाहता तो नकल कर सकता था, लेकिन उसने नकल नहीं की। वह लौटकर भी वापस नहीं आया। वह उसी जंगल में था, लेकिन वह तब तक लौटकर नहीं आया जब तक कि घटना ही नहीं घट गई। वह केवल दो बार गुरु के पास आयाः पहली बार वह गुरु का अभिवादन करने आया और दूसरी बार उसको धन्यवाद देने।
वह इतने वर्षों तक वहाँ क्या कर रहा था? यह एक साधारण-सा पाठ था। केवल एक ही रहस्य था, लेकिन वह आधारभूत था। उसने कोशिश की कि परिधि से विचलित नहीं हो। उसने स्वयं कोस्वीकार कर लिया। परिधि की चिन्ता न करते हुए, परिधि से चिन्तित न होते हुए, वह सजग बना रहा। वह इतना जागरूक था वस्तुतः कि जैसे वे बीस वर्ष जैसे थे ही नहीं। और जब वह बात हो गई, जब वह घटना घट गई, वह ऐसे ही दौड़ा जैसे कोई बात ही नहीं हुई। लेकिन यह बस ऐसे ही था जैसे वे बीस वर्ष हुए ही नहीं। वह गुरु के पास धन्यवाद देने गया जैसे उसने अभी अभी, थोड़ी देर पहले ही मार्ग बतलाया हो।
यदि मौन हो, तो समय खो जाता है। समय परिधि की बात है। यदि मौन हो तो सर्व के प्रति कृतज्ञ हो सकते हो-आकाश के प्रति, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, सबके प्रति। यदि मौन हो तो पुराना संसार किसी भी क्षण खो जाता है, पुराने जो भी तुम हो, नहीं बचते। पुराना आदमी मर जाता है, और एक नया जीवन, एक नई ऊर्जा का जन्म होता है।
यह सूत्र कहता है कि यही प्रदक्षिणा है। यदि तुम अपने बीइंग के, अपने अस्तित्व के केन्द्र में प्रवेश कर सको, तो वही स्थिरता है-जहाँ कि कोई भी आवाज़ नहीं है। तभी केवल तुम मंदिर में प्रवेश किये हो, परमात्मा की उपासना की है, प्रदक्षिणा की है, क्रिया पूरी की है।
हम मन्दिर में क्रियाकाण्ड करते रह सकते हैं, बिना यह जाने कि इस क्रियाकाण्ड का अर्थ क्या है। प्रत्येक क्रियाकाण्ड एक गुप्त कुंजी है। क्रियाकाण्ड तो बच्चों की बात है। यदि तुम्हें यह पता नहीं हो कि यह एक कुंजी है, तो तुम उससे खेल सकते हो। लेकिन तब तुम उसे फेंक भी सकते हो, क्योंकि तुम समझोगे कि वह व्यर्थ है-क्योंकि तुम्हें उस ताले का पता नहीं है और तुम्हें चाबी का भी पता नीं है कि इससे कुछ खोला जा सकता है। ये सब बड़ी गुप्त भाषाएँ हैं।
क्रिया-काण्ड गुप्त भाषा है। उसके द्वारा कुछ संप्रेषित किया गया है। किताबें नष्ट हो सकती हैं क्योंकि भाषाएँ मृत हो जाती हैं। शब्दों के अर्थ बदलते जाते हैं। इस सबके कारण, जब कभी कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो वह कुछ क्रिया-काण्ड निर्मित कर देता है। वे ज्यादा स्थायी भाषाएँ हैं। जबकि शास्त्र भी खो जायेंगे, जब धर्म भी मुर्दा हो जायेंगे, जब पुरानी भाषाएँ समझी न जा सकेंगी या गलत समझी जायेंगी, तब भी क्रिया काण्ड चलते रहेंगे।
कभी-कभी कोई धर्म बिल्कुल खो जाता है, लेकिन क्रियाकाण्ड चलते रहते हैं। वे नये धर्म में पुनर्निर्मित किए जाते हैं, वे नये धर्म में प्रवेश कर जाते हैं, बिना यह जाने कि क्या हो रहा है। क्रियाकाण्ड स्थायी भाषाएँ हैं, और जब कभी कोई उनमें गहरे जाता है तो उनके रहस्य का पता चलता है। यह उपनिषद मूलतः पूजा की क्रिया से संबंधित है और प्रत्येक कृत्य बड़ा अर्थपूर्ण है।
अपने आप में यह बच्चों की बात जैसा लगता है। वह मूढ़तापूर्ण प्रतीत होता है कि मन्दिर में जाओ और वेदी के चारों ओर परिक्रमा करो, या देवता की मूर्ति के चारों ओर चक्कर लगाओ। यह मूर्खतापूर्ण दिखलाई पड़ताहै। क्या कर रहे हो तुम? अपने आप में यह मूढ़तापूर्ण है, क्योंकि हम भूल ही गये कि यह एक गुप्त कुंजी है। इसका अर्थ ताले को जानने में छिपा है। इसका अर्थ ताले को खोलने में ढका है। यह सात चक्कर देवता की मूर्ति के चारों ओर शरीर के सात चक्रों से संबंधित है और वेदी का मतलब उस भीतरी आत्यंतिक केन्द्र से है।
अपने केन्द्र के चारों ओर घूमते रहो, भीतर जाते चले जाओ, और एक ऐसा क्षण आता है कि सब क्रिया रुक जाती है। तब कोई ध्वनि नहीं होती। तुम मौन में प्रवेश कर गये। यह मौन ही दिव्यता है, यह मौन ही आनन्द है, यह मौन ही सब धर्मों का लक्ष्य है, और यह मौन ही सारे जीवन का उद्देश्य है। और जब तक तुम इस मौन को उपलब्ध नहीं होते, तुम चाहे कुछ भी प्राप्त कर लो, सब व्यर्थ है अर्थहीन है। यदि तुम सारा संसार भी पा लो, तो भी वह किसी काम का नहीं।
लेकिन यदि तुम आंतरिक मौन को प्राप्त कर लो, इस केन्द्र को पा लो, और सारा संसार भी खो दो तो भी यह पाने जैसा है। कोई भी सौदा बुरा नहीं है, यदि कुछ भी देना पड़े, त्यागना पड़े। जब तुम इस आंतरिक मौन को उपलब्ध होओगे, तब तुम जानोगे कि जो कुछ भी तुमने इसके बदले में दिया वह कुछ भी नहीं था। जो भी तुम पाते हो वह अमूल्य है और जो तुमने खोया वह कचना है।
किन्तु कचरा ही हमारे लिए धनहै, कचरा ही हमारे लिए बहुत कीमती है। और मैं फिर दोहराता हूँ कि यदि तुम सोचते हो कि इस कचरे से तुम कुछ खरीद सकते हो, तो तुम कभी उस केन्द्र को नहीं पा सकोगे। केन्द्र परिणाम नहीं हो सकता। यदि तुम इस कचरे को फेंक दो तो, उसे पा सकोगे, वह फल है, कांसीक्वेन्स है।
‘‘स्थिरता ही प्रदक्षिणा है-उसके चारों ओर पूजा के लिए घूमना।’’ उसके चारों ओर, उस भीतरी केन्द्र के चारों ओर, वह जो आत्यंतिक केन्द्र है, उसके चारों ओर घूमना। ‘‘यह’’ परिधि है, ‘‘वह’’ केन्द्र है। इसलि ‘‘इसे’’ छोड़ते जाओ और ‘‘उसकी’’ ओर बढ़ते जाओ। साधना का मतलब यही होता है। यही मार्ग है।
आज इतना ही।  

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