कुल पेज दृश्य

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-11)

प्रवचन-ग्याहरवां 

जीवन का मृत्यु के संग मिलन

 (अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! जब आपके सामने बैठे हुए हम आपके वचनों को सुनते हैं और आपकी उपस्थिति का अनुभव कर रहते हैं तो आपके द्वारा कहा गया सबकुछ संभव जैसा प्रतीत होता है। परंतु जैसे ही हम अपने दैनिक जीवन की परिस्थितियों में वापस लौटते हैं तो स्पष्टता और पारदर्शिता खो जाती है और हम स्वयं को आपसे दूर महसूस करने लगते हैं।
आप कहते हैं कि हमें संसार का परित्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि इसी जगत में रहते हुए ध्यानपूर्ण होना चाहिए। आपने यह भी बताया है कि हमें हर पल मस्ती में जीना चाहिए। हम अपने परिवार, समाज और मित्रों के बीच रहते हुए, कैसे इन दोनों बातों के बीच सामंजस्य बिठा सकते हैं?


यदि तुम इन दोनों बातों को विरोधाभास की तरह की लोगे और सोचोगे कि इन्हें कैसे मिलाया जाए तो तुम हमेशा कठिनाई में पड़ोगे। तब प्रत्येक चीज़ एक समझौता बन जाएगी और समझौते के साथ कभी भी संतोष और पूर्णता का अनुभव नहीं किया जा सकता है। समझौते की हालत में हमेशा कुछ कमी खलती रहेगी। यदि तुम एक बात मानते हो तो दूसरी तरफ कुछ छूट जाता है और दूसरी बात मानते हो तो इस तरफ कुछ रह जाता है। इस छूटने वाली तरफ पर तुम्हारी नज़र हमेशा ही बनी रहेगी, मन उसी के इर्द-गिर्द मंडराता रहेगा। इसलिए यह समझौता कभी भी तुम्हें आनंदपूर्ण नहीं होने देगा।
इसलिए पहली बात तो यह है कि कभी भी समझौते की शर्त पर मत सोचो। यदि तुम विरोधाभास की सीमा में सोचते हो और कोशिश करते हो कि कैसे उन्हें मिलाया जाए? तब तुम समझौते के बंधन में बंध ही जाते हो। इसलिए मैं तुम्हें क्या सुझाव देने जा रहा हूं?
पहली बात तो यह कि हमेशा अपने भीतर समग्र और संयुक्त बने रहो, इसके अतिरिक्त किसी और संयुक्तता के बारे में मत सोचो, क्योंकि मिलन-बिंदु तुम ही हो। अकेले में, एकांत में तुम मौन होते हो पर जीवन में तुम्हें सक्रिय होना होता है। मौन और सक्रियता यह दोनों विरोधाभास हैं, लेकिन यह दोनों ही तुम्हारे भीतर आकर मिलते हैं। तुम मौन हो, तुम ही सक्रिय हो और जीवन से संयुक्त भी हो। यदि तुम भीतर से समग्र और संयुक्त हो तो तुम्हारा मौन और तुम्हारी सक्रियता दोनों ही समग्र और संयुक्त होंगी। तुम्हारा अकेले होना और तुम्हारा अपने पति अथवा पत्नी अथवा मित्रों के साथ होना दो विरोधाभासी बातें हैं, लेकिन तुम दोनों में ही मौजूद हो। यदि तुम समग्र और संयुक्त हो तो अकेले में भी तुम प्रसन्न रहोगे। यदि तुम समग्र और संयुक्त हो तो दूसरों के साथ भी तुम प्रसन्न रहोगे। प्रसन्नता तुम्हारा गुण होगा। प्रसन्नता अकेलेपन या दूसरों के साथ पर निर्भर नहीं करती है। यदि वह निर्भर करती है तो बहुत समस्याएं होंगी।
यदि तुम अनुभव करते हो कि जब तुम अकेले होते हो तो तुम प्रसन्न रहते हो तो तुम्हारी प्रसन्नता तुम्हारे एकांत पर निर्भर करती है, तब कठिनाई होगी। जब तुम दूसरों के साथ अप्रसन्नता का अनुभव करते हो और सोचना शुरू कर देते हो कि इन दो विरोधों को कैसे मिलाया जाए? तब समस्या उत्पन्न होती है, क्योंकि तुम अपनी प्रसन्नता के लिए अपने अकेलेपन पर निर्भर हो।
निर्भर मत बनो। जब अकेले हो तो प्रसन्न रहो। अपनी प्रसन्नता को अपना गुण बनने दो। जब तुम अकेलेपन से हटकर जीवन की सक्रियता में शामिल होते हो, लोगों के साथ संवाद करते हो, अपने संबंधों के जगत में आते हो, तब भी प्रसन्नता के उस गुण को, जो अकेलेपन में था, अपने साथ लेते हुए चलो, निश्चित ही उसे साथ लेकर चलो। प्रारंभ में यह कठिन लगेगा, क्योंकि हमेशा तुम ऐसा करना भूल जाओगे और भूल जाने के कारण ही, निरंतर सचेत न बने रहने के कारण ही वह कठिन लगेगा, लेकिन धीमे-धीमे तुम उस गुण को अपने साथ लेकर चलना सीख सकते हो।
जब तुम किसी व्यक्ति के साथ संबंधित हो, तब भी तुम अपने एकांत का आनंद ले सकते हो। तुम एक समग्र चेतना की तरह हो जाते हो। कुछ भी न करते हुए, तुम प्रसन्न हो, तुम सुखद अनुभव करते हो। यह प्रसन्नता और सहज-सुखद अनुभव तुम्हारा गुण बन जाना चाहिए। यह सहजता निष्क्रियता के रूप में नहीं होनी चाहिए। इस गुण को क्रियाशीलता में भी ले आओ और तब वहां कोई भी समस्या नहीं होगी। प्रारंभ में अवश्य ही कठिनाई होगी, लेकिन मुख्य बात यह है कि तुम्हें यह याद रखना होगा कि तुम्हारी प्रसन्नता, तुम्हारा आनंद, तुम्हारा उन्माद किसी भी बाहरी परिस्थिति पर निर्भर नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा है तब वहां विरोधाभास होगा, क्योंकि वहां निर्भरता होगी।
कुछ लोग अनुभव करते हैं कि जब वे अपने मित्रों के साथ होते हैं, तब वे प्रसन्न रहते हैं और जब वे अकेले होते हैं तब वे दुखी तथा ऊबाऊ महसूस करते हैं और उस समय उन्हें किसी मित्र की आवश्यकता होती है। ये लोग बहिर्मुखी हैं।
दूसरी तरह के लोग अंतर्मुखी होते हैं। जब कभी भी ऐसा व्यक्ति अकेला होता है, वह प्रसन्नता का अनुभव करता है। जब कभी भी वह किसी अन्य व्यक्ति के साथ संबंधित होगा, उसमें एक तरह की अप्रसन्नता प्रविष्ट हो जाती है। ये दोनों ही प्रकार के लोग अपने अपने बंधन में हैं। उनकी सीमा, उनकी विशेष रूचि ही एक बंधन है, तुम्हें किसी भी तरह के बंधन से स्वतंत्र होना चाहिए। तुम्हें न तो बहिर्मुखी होना चाहिए और न ही अंतर्मुखी, बल्कि तुम्हें दोनों ही होना चाहिए। तब तुम किसी भी बंधन से मुक्त हो।
इसलिए करना क्या है? किसी भी एक स्थिति के साथ स्थिर मत बने रहो, हमेशा विरोधी छोर पर भी गतिशील हो जाओ और प्रसन्नता का वह भीतरी गुण साथ में लिए चलो। जितना अधिक संभव हो सके एक छोर से दूसरे विरोधी छोर पर अपने गुण को साथ लिए हुए गतिशील होते रहो। शीघ्र ही तुम सजग हो जाओगे कि उस भीतरी गुणवत्ता को कहीं भी ले जाया जा सकता है। तब तुम नर्क नहीं भेजे जा सकते, क्योंकि यदि तुम्हें नर्क भेज भी दिया जाए तो तुम वहां भी अपनी प्रसन्नता साथ लिए जाओगे। तब तुम कभी भी भयभीत नहीं हो सकते।
धार्मिक लोग नर्क से भयभीत होते हैं और वे लोग स्वर्ग की ही लालसा करते हैं। ये लोग बिल्कुल भी धार्मिक नहीं हैं, क्योंकि स्वर्ग और नर्क दोनों बाहर की दशाएं हैं, वे तुम्हारा स्वभावगत गुण नहीं हैं। ये धार्मिक नहीं, सांसारिक लोग हैं। सांसारिक व्यक्ति भी तो यही कर रहे हैं। वे कहते हैं : ‘यदि मेरी यह शर्त पूरी होती है, मैं तभी प्रसन्न हो पाउंगा।’ इसलिए प्रसन्नता भी शर्त पर आश्रित है। ‘यदि मेरे पास एक महल है, मैं तभी प्रसन्न होऊंगा, यदि बैंक में इतना अधिक धन है, मैं तभी प्रसन्न होऊंगा, यदि सुंदर पत्नी हो मैं तभी प्रसन्न होऊंगा अथवा प्रेमपूर्ण पति हो तभी मैं प्रसन्न होऊंगी।’ तुम केवल तभी प्रसन्न हो रहे हो जब बाहर की कोई शर्त पूरी हो जाती है। तुम कहते हो कि यदि यह कार्य संपन्न नहीं हुआ अथवा यह कामना पूर्ण नहीं हुई तो मैं अप्रसन्न रहूंगा। यह एक अधार्मिक व्यक्ति के लक्षण हैं। और तथाकथित धार्मिक लोग भी नर्क से बचते हुए स्वर्ग की खोज किए चले जाते हैं। वे सांसारिक लोगों जैसा ही कार्य कर रहे हैं।
तुम्हारे लिए यह साधना बनने जा रहा है : एक अनुशासन की तरह। जितना अधिक संभव हो सके विरोधाभासों की ओर गतिशील हो जाओ और साथ ही अपनी आंतरिक सत्यनिष्ठा एवं समग्रता को भी साथ ले जाने का प्रयास करो। शांत बैठे हुए, अनुभव करो कि यह आंतरिक गुण है क्या? तब अंदर स्थिर बने हुए, सक्रियता में भी उस गुण के साथ जाओ। हो सकता है तुम कई बार चूक जाओ, लेकिन उसकी फिक्र मत करो। यदि एक बार भी तुम उसे विरोधी छोर पर ले जा सके, तो तुम उसके स्वामी हो गए। तब तुम उसकी युक्ति जान गए।
कभी-कभी पहाड़ों पर चले जाओ, वे बहुत सुंदर हैं। पुनः संसार में वापस लौट आओ, वह भी बहुत सुंदर है। यदि पहाड़ सुंदर हैं तो लोग सुंदर क्यों नहीं हैं? अपने आप में वे भी एक पहाड़ की ही तरह हैं। कभी बिल्कुल अकेले हो जाओ और कभी दूसरों के साथ जुड़ जाओ। यदि तुम सजग हो सके तो न केवल वहां कोई विरोध ही होगा, बल्कि विरोधी छोर से सहायता भी प्राप्त होगी।
यदि तुम प्रसन्नता का यह गुण एकांत से समाज के साथ ले जा सको तो अचानक तुम एक नए तथ्य के प्रति जागरूक हो जाओगे, ऐसा नया तथ्य जो तुम्हारे भीतर ही घटित हुआ है कि अकेले होने में समाज तुम्हारी सहायता करता है और समाज में लोगों के साथ गहन संबंध बनाने में एकांत तुम्हारी सहायता करता है। एक मनुष्य जो कभी भी अकेलेपन में नहीं रहा है, वह संबंधों के सौंदर्य को नहीं जान सकता है। मैं कहता हूं कि वह इसलिए नहीं जान सकता है, क्योंकि वह कभी भी अकेला रहा ही नहीं है। वह कभी भी एक मनुष्य की तरह नहीं रहा है, तब वह संबंध के सौंदर्य को कैसे जान सकता है?
एक व्यक्ति जो कभी भी समाज में नहीं रहा है, वह अकेलेपन के परमानंद को नहीं जान सकता है। एक व्यक्ति जिसका जन्म निर्जन स्थान में हुआ हो और उसका लालन-पालन एकांत स्थान में हुआ हो, तुम सोच सकते हो कि वह आनंदित हो सकेगा? क्या तुम सोचते हो कि वह अकेलेपन का आनंद उठा सकेगा? वह पूरी तरह से मंद, सुस्त और मूर्ख बन जाएगा।
पहाड़ों पर जाओ, हिमालय पर जाओ। लोग वहां रह रहे हैं, वे हजारों वर्षों से उसी स्थान पर रह रहे हैं, उनके जन्म भी वहीं हुए हैं, लेकिन फिर भी, हिमालय की सुंदरता का जितना अनुभव तुम कर सकते हो, उतना वे लोग नहीं कर सकते हैं। वहां के मौन का जितना अधिक आनंद तुम लेते हो, वे उतना अधिक आनंद नहीं ले सकते हैं। यहां तक कि वे लोग तो इसके प्रति सचेत तक नहीं हैं कि वहां मौन विद्यमान है। जब वे लोग शहरों में आते हैं, वे एक रोमांच का अनुभव करते हैं, ठीक वैसा ही रोमांच जो तुम शहर से पहाड़ों पर जाकर अनुभव करते हो।
मुंबई, लंदन और न्यूयॅार्क में रहने वाले लोग जब हिमालय पर जाते हैं, तो वे अद्भुत रोमांच का अनुभव करते हैं और जब पहाड़ों पर रहने वाले लोग मुंबई, न्यूयॅार्क अथवा लंदन जाते हैं, तो वे अनुभव करते हैं कि यह संसार कितना सुंदर है। इस रोमांच और इस सुंदरता को अनुभव करने के लिए विरोधी ध्रुव की आवश्यकता होती है। विरोधी ध्रुव एक पृष्ठभूमि बन जाता है। दिन इसलिए सुंदर है, क्योंकि उसके पीछे रात है। जीवन में इतना आनंद है, क्योंकि वहां मृत्यु है। प्रेम एक आंतरिक नृत्य बन जाता है, क्योंकि घृणा भी मौजूद है।
प्रेम तुम्हें चेतना के उच्चतम शिखर तक ले जाता है, क्योंकि प्रेम नष्ट भी हो सकता है। प्रेम पर विश्वास नहीं किया जा सकता। प्रेम इस क्षण में है और अगले ही क्षण वह नहीं भी हो सकता है। प्रेम की अनुपस्थिति की संभावना ही उसकी उपस्थिति को गहराई देती है। मौन और अधिक गहन हो जाता है, जब उसकी पृष्ठभूमि में कोलाहल होता है।
कुछ क्षण पूर्व ही यहां से एक वायुयान गुज़रा है। तुम इसे दो तरह से देख सकते हो, यदि तुम भीतर से अशांत और व्याकुल हो तो तुम अनुभव करोगे जैसे तुम्हारे मौन में यह एक अवरोध है। यदि तुम अपने भीतर समग्रता से संयुक्त हो तो हवाई जहाज की ध्वनि तुम्हारे मौन को और अधिक गहन बना देगी। वह शोर और वह तेज ध्वनि एक पृष्ठभूमि बन जाती है और मौन को एक रूप, एक आकृति प्रदान करती है। वह मौन को अधिक तीक्ष्णता देती है। जब हवाई जहाज गुज़र जाता है तो मौन पहले की तुलना में और अधिक गहन लगता है। यह तुम पर निर्भर करता है।
सदा स्मरण रहे, वस्तुओं, स्थितियों और दशाओं पर निर्भर मत बनो। तब ही तुम भीतर गतिशील हो सकते हो। गतिविधियों और सक्रियता का तिरस्कार मत करो, अन्यथा तुम जड़ हो जाओगे। प्रत्येक व्यक्ति गतिविधि करने से भयभीत है, क्योंकि तुम आश्रित हो। तुम अपने पहाड़ों से और अपने एकांतवास के बाहर, संसार के बाजार में नहीं आ सकते, क्योंकि तुम जानते हो कि तुम अव्यवस्थित हो जाओगे। यह किस तरह का मौन है, जो बाजार के द्वारा क्षतिग्रस्त हो सकता है? इस मौन का क्या मूल्य है? इस मौन का क्या महत्त्व है? यदि संसार का शोरगुल इस मौन को नष्ट कर सकता है, यदि यह नीरस और साधारण संसार उसे नष्ट कर सकता है, तब तुम्हारा मौन बहुत शक्तिहीन है, यह मौन नपुंसक है। यदि तुम्हारा मौन वास्तव में शक्तिशाली है और यदि तुमने उसे गहनता से प्राप्त किया है तो कुछ भी उसे नष्ट नहीं कर सकता है।
मौन के बारे में मैं जो कह रहा हूं, इसे समझना बहुत अधिक कठिन नहीं है, लेकिन मेरा यही दृष्टिकोण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है। यदि तुम एक वास्तविक ब्रह्मचारी हो और तुमने सच्चे ब्रह्मचर्य को जाना है तो सेक्स में गतिशील होते हुए भी तुम्हारा ब्रह्मचर्य नष्ट नहीं हो सकता। इसका अनुसरण करना बहुत कठिन होगा। यदि सेक्स तुम्हारे ब्रह्मचर्य को क्षतिग्रस्त और अशांत करता है तो उसका महत्त्व और योग्यता नगण्य थी। तुम ब्रह्मचर्य के गुण को अपने भीतर स्थिर रख कर चलो।
यदि तुम वास्तव में जीवंत हो और ऊर्जा से भरे हुए हो, तो तुम प्रसन्नता से मर सकते हो। केवल दुर्बल प्राणी ही दुखी होकर मरते हैं क्योंकि वे कभी पूर्णता से जिए ही नहीं। उन्होंने जीवन के प्याले से जीवन के रस का कभी स्वाद लिया ही नहीं। वे हमेशा दुष्पूर तृष्णा और आशाओं से ही घिरे रहे और उन्हें जीवन कभी घटित ही नहीं हो सका। इसी कारण वे मृत्यु से भयभीत हैं।
कोई भी व्यक्ति जिसने जीवन को पूर्णता से जिया है, वह हमेशा मरने के लिए तैयार है। जिसने वास्तव में जीवन को जिया है, वह प्रत्येक क्षण मृत्यु को स्वीकार करने के लिए तैयार रहता है। ‘स्वीकार’ शब्द भी उचित नहीं है, बहुत बेहतर होगा यदि हम कहें कि वह मृत्यु का स्वागत करता है, प्रसन्नता और आनंद से उसे ग्रहण करता है। तब मृत्यु एक साहसिक और अपूर्व अनुभव होता है... ऐसा होना ही चाहिए यदि तुमने वास्तव में जीवन को जिया है। तब मृत्यु एक शत्रु नहीं है, मृत्यु एक मित्र है। एक गहरा जीवन ही मृत्यु को स्वीकारता है और एक उथला जीवन उसे नकारता है। ऐसा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होता है।
यदि तुमने जाना है कि मित्रता क्या होती है, तो तुम शत्रुओं से डरोगे नहीं। तुम डर ही नहीं सकते। तब शत्रुओं के पास भी एक अलग सौंदर्य प्रतीत होगा। वह विपरीत छोर पर एक तरह की मित्रता ही होती है। वह विपरीत ध्रुव पर एक प्रेम प्रसंग होता है। यह भी एक तरह का संबंध और एक वचनबद्धता होती है। यदि तुमने मित्रता को जाना है तो तुम शत्रु से प्रेम करोगे।
जीसस के कहने का यही अर्थ है, जब वे कहते हैं : ‘अपने शत्रुओं से प्रेम करो’। लेकिन सदियों से ईसाई इस कथन की कुछ और ही व्याख्या करते रहे हैं। तुम अपने शत्रु से प्रेम नहीं कर सकते। तुम अपने शत्रु से कैसे प्रेम कर सकते हो? लेकिन मैं तुमसे कहता हूं यदि तुमने मित्रों से प्रेम किया है तो तुम अपने शत्रुओं से भी प्रेम करोगे, क्योंकि एक बार यदि तुमने मित्रता के सौंदर्य को जान लिया तो तुम शत्रुता के सौंदर्य को भी जान लोगे। यह विपरीत क्रम में एक मित्रता ही है। दोनों ही तुम्हें अनुभव प्रदान करती हैं। दोनों ही तुम्हारे जीवन को समृद्ध बनाती हैं।
विपरीत अथवा विरोधी वास्तव में विरोधी नहीं होते। बहुत गहराई में उनके मध्य एक असाधारण लयबद्धता होती है। वे एक अखंड के ही भाग हैं। इसीलिए चीनी लोग कहते हैं : यिन और यांग, वे एक ही गतिविधि के भाग हैं, एक चक्र के ही भाग हैं, वे दो नहीं हैं। वे दो दिखाई देते हैं, क्योंकि हमारी दृष्टि छिछली है और हम नीचे गहराई तक नहीं देख पाते हैं। हमारी चेतना मन की गहराई तक बेध नहीं पाती और इसलिए वे विरोधी की भांति दिखाई देते हैं अन्यथा वे विरोधी हैं नहीं।
जीवन और मृत्यु मित्र हैं। वे एक-दूसरे के द्वारा ही अस्तित्व में हैं, वे परस्पर योगदान देते हैं। एक दूसरे के बिना उनका अस्तित्व ही नहीं है। क्या बिना मृत्यु के जीवन अस्तित्व में बना रह सकता है? मनुष्य हमेशा से ही यह सपना देखता रहता है कि मृत्यु को कैसे नष्ट किया जाए? यह मन का दृष्टिकोण है। लकीर पर चलने वाले और तर्क-वितर्क करने वाले मन का यह रवैया है कि मृत्यु को कैसे नष्ट किया जाए? तर्कपूर्ण मन कहता है कि यदि मृत्यु नहीं होगी तो जीवन प्रचुरता में होगा, यह एक सामान्य-सा तर्क है। एक बच्चा भी इस गणित को समझ सकता है कि यदि मृत्यु नहीं होगी तो वहां और अधिक जीवन होगा, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं यदि मृत्यु नहीं है तो जीवन भी नहीं होगा।
इसी कारण सरल तर्क हमेशा मिथ्या होता है। बाहर से देखने पर तो यह ठीक प्रतीत होता है कि यदि कोई भी शत्रु न हो तो पूरा संसार तुम्हारा मित्र होगा, पर तुम गलत हो। यदि कोई भी शत्रु न हो तो वहां मित्रता की भी संभावना नहीं होगी। तर्क कहता है यदि घृणा न हो, तो केवल प्र्रेम और नितांत प्रेम ही होगा। इसलिए तर्कशास्त्री विरोधी ध्रुव को नष्ट करने का प्रयास करते रहे हैं। पर वे उसे नष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि किसी भी तर्क की तुलना में जीवन कहीं अधिक विराट है। यह सौभाग्य की बात है कि वे विरोध को नष्ट नहीं कर सकते क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं? यदि विरोधी ध्रुव मौजूद नहीं होगा, तो भरोसा मत करना कि जीवन प्रचुरता में होगा, प्रेम अधिक होगा, मित्रता अधिक होगी और प्रसन्नता कहीं अधिक होगी, नहीं। उसकी कोई संभावना ही न होगी, क्योंकि वास्तविक भूमि ही नष्ट कर दी गई है। अंतर्द्वंदात्मक तर्क पूरी तरह से विरोधी बात कहते हैं परंतु जीवन के प्रति यही अंतर्द्वंद्वात्मक तर्क कहीं अधिक सत्य सिद्ध होते है।
तुम शायद सचेत नहीं हो, लेकिन ऐसा होता है कि जब तुम कार चला रहे हो और गति को तेज कर रहे हो तो तुम इस तीव्र गति में उत्तेजित हो जाते हो, गति के साथ ही शामिल हो जाते हो। एक क्षण ऐसा आता है जब किसी भी क्षण मृत्यु घटित हो सकती है। तब तुम जीवित हो, तब जीवन की ज्योति बहुत तीव्रता से प्रज्ज्वलित होती है। इसी कारण तीव्र गति इतनी अधिक आकर्षक और चुंबकीय होती है, क्योंकि यह तीव्र गति तुम्हें मृत्यु के निकट ले जाती है। जब तुम मृत्यु के निकट होते हो तो जीवन अधिक होता है, वह एक अनुपात में विकसित हो जाता है। इसी कारण युद्ध के लिए इतना अधिक आकर्षण होता है, क्योंकि युद्ध में मृत्यु हमेशा तुम्हारे निकट ही होती है।
तुम शायद सोचोगे कि युद्ध क्षेत्र में युद्ध करते हुए सैनिक बहुत दुखी होते होंगे। पर तुम गलत हो अन्यथा कोई भी युद्ध ही न करता। वे दुखी नहीं होते। वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है, जब वे सामान्य संसार में वापस लौटते हैं, वे तब दुखी होते हैं। जब वे युद्ध क्षेत्र में मोर्चे पर लड़ रहे होते हैं, तब वे दुखी नहीं होते। सारी वेदना और दुख विलुप्त हो जाते हैं। वे मृत्यु के इतने अधिक निकट होते हैं कि पहली बार वे जीवंत होने का अनुभव करते हैं और जैसे-जैसे मृत्यु निकट आती है उनकी जीवंतता बढ़ती जाती है। जब वहां चारों ओर बमों का विस्फोट हो रहा होता है, इधर-से-उधर गोले बरस रहे होते हैं और किसी भी क्षण वह मृत्यु के आगोश में जा सकते हैं, तब उस क्षण वे लोग परमानंद का अनुभव करते हैं। उस समय वे जीवन के साथ एक गहनतम संसर्ग में होते हैं। जब मृत्यु तुम्हारा चुंबन लेती है, वह जीवन का ही चुंबन है। इसी वजह से मनुष्य में दुःसाहस करने और जोखिम उठाने के प्रति इतना अधिक आकर्षण है। यदि तुम भयभीत हो तो तुम जीवन में उन्नति न कर सकोगे।
मैं तुम्हें बताता हूं कि ध्यान करना सबसे बड़ा जोखिम उठाना है और उसमें असाधारण साहस थामना होता है क्योंकि युद्ध क्षेत्र में भी तुम मृत्यु के उतने निकट नहीं होते हो। यदि तुम मृत्यु के निकट होने का अनुभव भी करते हो तो वह केवल शारीरिक मृत्यु होगी। भौतिक शरीर की मृत्यु का अर्थ है : एक छिछली मृत्यु, शरीर के खोल की मृत्यु। तुम नहीं, बल्कि तुम्हारा घर मृत्यु के निकट है। तुम नहीं, तुम्हारा शरणस्थल नष्ट होने जा रहा है। लेकिन ध्यान में ‘तुम’ मिटने जा रहे हो, न केवल घर बल्कि मेजबान ही, न केवल शरणस्थल ही बल्कि शरणदाता ही मिटने जा रहा है। अहंकार को मिट जाना है। इसलिए महानतम योद्धाओं की ध्यान में हमेशा दिलचस्पी होती है।
मैं तुमसे एक घटना के बारे में कहना चाहूंगा, जो भारत में घटित हुई और वही जापान में भी घटी है तथा वह किसी भी ऐसे देश में घटित होगी, जो योद्धाओं को जन्म देता है। भारत के लगभग सभी महान ध्यानी पुरूष क्षत्रिय थे, योद्धा थे, वे ब्राह्मण नहीं थे। यह अजीब प्रतीत होता है। महान ध्यानी तो ब्राह्मणों को होना चाहिए था। वे वेदों, उपनिषदों और गीता पर टीकाएं और भाष्य लिखते रहे हैं। वे आत्मा-परमात्मा से संबंधित आध्यात्मिक रहस्यों का सृजन करते रहे, वे अब तक के विश्व के महानतम पंडित और तत्वज्ञानी हैं। जहां तक मौखिक अभिव्यक्ति एवं तर्कज्ञान का संबंध है, विश्व में कहीं भी कोई भी ब्राह्मणों की तुलना नहीं कर सकता। वे अभिव्यक्ति में बहुत सूक्ष्म हैं, लेकिन वे महान ध्यानी नहीं हैं।
बुद्ध एक महान ध्यानी हैं, वह एक क्षत्रिय हैं, योद्धा हैं। महावीर एक महानतम ध्यानी हैं और वह भी एक क्षत्रिय योद्धा हैं, वे भी ब्राह्मण नहीं हैं। जैनों के सभी चौबीस तीर्थंकर योद्धा थे। यह अद्भुत प्रतीत होता है, ऐसा क्यों? जापान में समुराई योद्धा होते हैं, जो विश्व के महान और असाधारण योद्धाओं में गिने जाते हैं। समुराई होना एक योद्धा बनने का सर्वोच्च शिखर और अंतिम संभावना है। प्रत्येक क्षण एक समुराई मरने के लिए तैयार है। वह किसी छोटी सी तुच्छ बात पर भी मरने को तैयार है, जिसकी तुम कल्पना ही नहीं कर सकते।
मैंने तीन सौ वर्ष पूर्व की एक सत्य ऐतिहासिक घटना के बारे में सुना है। एक महान समुराई योद्धा ने एक बार बहुत अधिक मदिरापान कर लिया। तभी अचानक किसी प्रयोजन से उसे सम्राट द्वारा बुलाया गया, इसलिए वह सम्राट के पास गया। उसने बहुत सजग रहने का प्रयास किया, लेकिन वह नशे में चूर था। नशे में वह मूलभूत शिष्टाचार और औपचारिकता को भूल गया, वह भूल गया कि उसे सम्राट के सामने जाकर कैसे और कितना झुकना चाहिए। निश्चित ही, वह झुका, पर वह ठीक वैसा ही नहीं था, जैसा कि होना चाहिए था।
अगली सुबह जब उसका नशा उतरा, वह शांत हुआ, तो उसने तुरंत ही स्वयं को ‘हाराकीरी’ द्वारा समाप्त कर दिया। ‘हाराकीरी’ शब्द का संबंध समुराई योद्धाओं से है। जिस क्षण वह यह अनुभव करते हैं कि कहीं कुछ छोटी सी भी भूल हो गई है... जैसे यह केवल एक सामान्य शिष्टाचार की छोटी-सी भूल थी और सम्राट ने उसे कुछ भी नहीं कहा था, वह एक ऐसा महान वीर योद्धा था कि सम्राट ने उस छोटी सी भूल का तनिक मात्र भी उल्लेख नहीं किया, लेकिन उसने स्वयं आत्मघात अथवा ‘हाराकीरी’ कर ली। अगले दिन जब सम्राट को पता चला कि उस योद्धा ने ‘हाराकीरी’ कर ली है, तो वह सम्राट बहुत रोया। इस योद्धा के तीन सौ शिष्य थे। जैसे ही उन शिष्यों ने यह समाचार सुना, उन सभी लोगों ने तुरंत ‘हाराकीरी’ कर अपने को मार डाला, क्योंकि यदि उनके गुरु से अपराध हो गया है, तो उसके द्वारा किए गए कृत्य का शिष्यों को भी अनुसरण करना चाहिए। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा और यह अविश्वसनीय प्रतीत होता है कि यह छोटी-सी चीज़ शिष्य परंपरा में सौ वर्ष तक निरंतर चलती रही क्योंकि उन शिष्यों के भी शिष्य और यदि गुरु ने... फिर यह कभी नहीं सुना गया कि कोई समुराई मदिरा पीकर सम्राट के सम्मुख गया हो और कुछ गलत कार्य किया हो। बहुत ही तुच्छ बातों के लिए भी मृत्यु इतनी अधिक सरल प्रतीत होती हो और वह भी अपने ही हाथों द्वारा। इन्हीं समुराई लोगों से झेन सृजित हुआ, जो संसार में ध्यान की सबसे समृद्ध परंपरा है। ये समुराई लोग बहुत गहन ध्यान करते थे।
यह मेरी अनुभूति है कि यदि तुम मरने के लिए तैयार नहीं हो तो तुम ध्यान करने के लिए भी तैयार नहीं हो सकते। एक गहरे अर्थ में युद्ध और ध्यान समानार्थक हैं। जहां किसी भी पल तुम्हारे अस्तित्व के मिटने की संभावना होती है। उस पल में तुम्हारे जीवन के दीये की ज्योति अपनी समग्रता में प्रज्ज्वलित हो उठती है। तुम्हारे अंदर पूर्ण त्वरा का ज्वार आ जाता है, एक प्रचंडता आ जाती है।
दो विरोध पहले ही से मिल रहे हैं। तुम्हें उन्हें मिलाने का प्रयास करने की और उनका कोई संश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है। वे पहले ही से मिल रहे हैं और वे एक गहन समस्वरता में हैं। समस्या यह है कि तुम ही उनके साथ लयबद्ध नहीं हो।
इसलिए जब तुम स्वस्थ होते हो और शारीरिक, भावनात्मक और आत्मिक रूप से प्रसन्नता का अनुभव करते हो, तो इस प्रसन्नता के अनुभव को अपनी रुग्णता और अस्वस्थता में भी साथ लेकर जाओ। मैं तुमसे कहता हूं कि प्रसन्नता की यह अनुभूति स्वास्थ्य पर निर्भर नहीं है, शरीर पर निर्भर नहीं है। भावनात्मक और आत्मिक प्रसन्नता का अनुभव एक आंतरिक अनुभूति है। तुम इसे रूग्णता में भी बनाए रख सकते हो। रमण महर्षि मर रहे थे। उनके गले में कैंसर था और उनके लिए बातचीत करना लगभग असंभव था, उनके लिए कोई भी चीज़ खाना असंभव था। लेकिन उनके अंतिम दिनों में जो लोग भी उनके चारों ओर मौजूद थे, वे आश्चर्य कर रहे थे कि महर्षि रमण बहुत अधिक प्रसन्न थे। उनके नेत्रों से एक सूक्ष्म भावात्मक और आत्मिक प्रसन्नता छलक रही थी। उनके शरीर की दशा बिल्कुल जर्जर थी और पूरा शरीर जीर्ण-शीर्ण हो चुका था, लेकिन रमण स्वयं, भीतर से उतने ही स्वस्थ और प्रसन्न थे जैसे वह हमेशा रहते थे।
एक बार किसी सदगुरु की मृत्यु हो रही थी। वे बहुत वृद्ध थे, शायद लगभग सौ वर्ष की आयु के थे। उनके शिष्य वहां मौजूद थे, लेकिन वे रो नहीं सकते थे, क्योंकि वह सदगुरु स्वयं हंस रहे थे। वे लोग रो नहीं सकते थे, क्योंकि वह बहुत मूर्खता प्रतीत होती। वह व्यक्ति बहुत प्रसन्न था और ठीक एक बच्चे की भांति चहक रहा था और अपनी अंतिम श्वास का आनंद ले रहा था। वे लोग केवल तभी रो सकते थे, जब वह मर जाता।
मृत्यु के पश्चात् किसी व्यक्ति ने पूछा : ‘जब वह जीवित थे, उनके अंतिम क्षणों में तुम क्यों नहीं रो रहे थे’
उन लोगों ने कहा : ‘वह बहुत मूर्खतापूर्ण दिखाई देता। उनके चेहरे की ओर देखते हुए, उनकी आंखों की ओर देखते हुए ऐसा प्रतीत होता था मानो वह अपनी आत्मा के उच्चतम शिखरों को छू रहे था, मृत्यु तो जैसे केवल दिव्यता में प्रवेश का एक द्वार थी, मानो वह मर नहीं रहे थे वस्तुतः वह पुनः जन्म ले रहे थे। वह एक वृद्ध व्यक्ति नहीं थे, यदि तुमने उनकी आंखों में झांककर देखा था तो वह एक बच्चे की भांति थे और केवल उनका शरीर ही वृद्ध था।’
आत्मिक प्रसन्नता को कहीं भी ले जाया जा सकता है। यदि तुम गंभीर रूप से रुग्ण भी हो, तब भी तुम अपनी आंतरिक और आत्मिक प्रसन्नता में बने रह सकते हो। तुम दूसरी चीज़ भी जानते हो कि जब तुम पूर्ण रूप से स्वस्थ हो, तब भी कई बार तुम हृदय और आत्मा के तल पर अप्रसन्न ही बने रहते हो। अतः तुम जानते हो कि यह दूसरी बात भी संभव है। तुम पूर्ण रूप से स्वस्थ हो और तुम दुखी हो। तुम पूर्ण रूप से युवा ओर जीवंत हो, फिर भी जैसे मानो तुम मृत्यु शैय्या पर पड़े हो और किसी तरह से अपने जीवन को एक बोझ की भांति ढो रहे हो। तुम्हारे हृदय पर जैसे एक मुर्दा भार रखा हुआ है। तुम जीवित हो, क्योंकि तुम्हारे पास अन्य कोई भी चुनाव नहीं है। तुम क्या कर सकते हो? तुम जीवित हो, तुम स्वयं को जिंदा पाते हो, इसलिए तुम जिंदगी को ढो रहे हो। लेकिन जीवन तुम्हारे लिए एक आनंदपूर्ण घटना नहीं है, तुम प्रसन्न नहीं हो और जीवन को उत्सव के रूप में नहीं जी रहे हो।
जीवित होना एक महान वरदान है। यहां तक कि एक क्षण के लिए भी जीवित और सचेत बने रहना पर्याप्त है। तुम्हें एक लंबा जीवन मिला है और ऐसे ही अनेक जन्म दिए गए हैं परंतु तुम उसके लिए कृतज्ञ नहीं हो, क्योंकि जब तक तुम जीवन को उत्सव और आनंद के साथ नहीं जीते, तब तक कैसे तुम उस के प्रति धन्यवाद एवं कृतज्ञता का भाव रख सकते हो? तुम पूर्ण रूप से युवा और जीवंत हो, लेकिन अपने भीतर अत्यंत दुख ढोते हुए चल रहे हो।
मरते समय भी जो व्यक्ति यह जानता है कि वह अपनी आंतरिक प्रसन्नता अपने साथ लिए चलेगा, केवल ऐसे व्यक्ति के अंतरतम से ही, उसके भीतरी केंद्र से ही उन्मुक्त हास्य आएगा।
जीवन के विपरीत धु्रवों को मिलाने का प्रयास मत करो। केवल तुम अखण्ड बने रहो। अखण्ड बने रहने से मेरा आशय यह है कि जो भी तुम एकांत में अनुभव करते हो उसे संसार या बाज़ार में भी साथ लेकर चलना सीखो। जो भी तुम ध्यान के क्षणों में अनुभव करते हो उस अनुभव को प्रेम के क्षणों में भी ले जाओ क्योंकि प्रेम में दूसरा मौजूद होगा और ध्यान में केवल तुम ही मौजूद थे।
देर से ही सही, पर कभी न कभी, सबकुछ स्वतः ही व्यवस्थित हो जाएगा। तुम्हें व्यवस्थित करने की आवश्यकता नहीं है, तुम केवल स्वयं को पूरी तरह से व्यवस्थित कर लो। तुम स्वयं अपने को व्यवस्थित करो और वस्तुएं स्वतः ही क्रमबद्ध हो जाएंगी। वे तुम्हारा अनुसरण करेंगी। एक बार तुम व्यवस्थित हो जाते हो तो पूरा संसार व्यवस्थित हो जाता है। एक बार तुम लयबद्ध हो जाते हो तो पूरा संसार लयबद्ध हो जाता है। एक बार भीतरी तारतम्यता स्थापित हो जाए तो फिर संसार में कोई भी अड़चन नहीं होती है।
मेरा ज़ोर, मेरा पूरा बल इस बात पर है कि तुम व्यवस्थित हो जाओ। विरोधी ध्रुवों में किसी लयबद्धता को खोजने का प्रयास मत करो। तुम उसे कभी खोज ही नहीं सकते और यदि तुम बहुत अधिक प्रयास करते हो, तो तुम अव्यवस्थित और परेशान हो जाओगे, क्योंकि वह असंभव है।
एक और बात जो तुमने पूछी है कि जब तक तुम मेरे साथ रहते हो तो तुम भावात्मक और आत्मिक रूप से प्रसन्नता का अनुभव करते हो, तुम मौन का अनुभव करते हो और तुम पाते हो कि सब कुछ संभव है। तुम्हारा यह विचार भी एक निर्भरता बन सकता है। जब तुम मेरे साथ नहीं होते हो, तब सभी चीज़ें असंभव प्रतीत होती हैं तथा उनमें कोई तादात्म्य नहीं बन पाता है। तुम भ्रमित हो जाते हो।
मेरे साथ होते हुए तुम मौन का अनुभव करते हो, क्योंकि मेरे पास तुम नगण्य हो जाते हो, शून्य हो जात हो। जब तुम मेरे साथ होते हो, मेरे साथ बैठते हो तो कुछ क्षणों के लिए तुम अहंकार शून्य हो जाते हो। उतने समय के लिए जैसे तुम वहां होते ही नहीं हो और तुम पूरी तरह से मेरे साथ हो जाते हो। अवरोध टूट जाता है, दीवार गिर जाती है। उस क्षण में मैं तुम्हारे अंदर प्रवाहित हो जाता हूं। तुम्हें प्रत्येक चीज़ संभव प्रतीत होती है। मुझसे दूर होने पर तुम फिर से दीवारें खड़ी कर लेते हो। तब चीज़े उतनी अधिक सुंदर नहीं होती हैं। इसलिए केवल यह समझने का प्रयास करो कि मेरे साथ रहते हुए तुम्हें क्या घटित हो रहा है? और जब तुम मेरे साथ नहीं हो, तब भी उस अनुभव को हर जगह साथ लेकर चलो। ऐसा क्या घटित होता है? जब सब संभव प्रतीत होता है, यहां तक कि बुद्धत्व की घटना भी संभव प्रतीत होती है तो आखिर ऐसा क्या घट रहा है? वास्तव में उस समय तुम वहां नहीं हो। तुम्हारे बिना... तुम्हारे अहंकार की अनुपस्थिति में सब कुछ संभव है। समस्या तुम ही हो।
मुझे सुनते हुए तुम बाकी सबकुछ भूल जाते हो। जब तुम भूल जाते हो तो तुम वहां नहीं हो क्योंकिं तुम्हारा अहंकार केवल एक मानसिक चीज़ है। तुम्हें प्रत्येक क्षण उसे सृजित करते रहना पड़ता है। यह लगातार किसी साइकिल के पैडल चलाने जैसा है। तुम्हें पैडल चलाते चले जाना है, यदि तुम एक क्षण के लिए भी रुकते हो तो साइकिल भी रूक जाती है। जब एक वेग होता है, थोड़ी गति होती है तो साइकिल कुछ दूर तक चलेगी पर बाद में वह रुक जाती है। इसलिए पैडल चलाना लगातार जारी रखना पड़ता है। यदि तुम चाहते हो कि साइकिल चलती रहे तो तुम्हें पैडल चलाए रखना पड़ता है। यह एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है, साइकिल का चलते रहना स्थाई नहीं है, उसकी गति प्रति क्षण सृजित करनी होती है। इसी तरह प्रत्येक क्षण अहंकार को भी पैडल मारकर गतिशील बनाए रखना पड़ता है और तुम पैडल चलाते रहते हो, अपने अहंकार को गतिशील करने के लिए।
जब तुम यहां मेरे पास होते हो तो यह पैडल चलना रुक जाता है। तुम पूरी तरह मेरे साथ हो जाते हो, मुझ में दिलचस्पी लेने लगते हो। तुम्हारा संपूर्ण ध्यान जो अहंकार के पैडल पर था, अब वह छिन्न-भिन्न होने लगता है। यह ठीक एक छोटे बच्चे के साइकिल चलाने जैसा है। वह प्रत्येक चीज़ के बाबत उत्सुक होता है। वह वृक्ष पर बैठे हुए अनेक तोतों को भी देखते हुए चलता है और साइकिल से गिर पड़ता है, क्योंकि उसका ध्यान कहीं और गतिशील हो गया। वह पैडल चलाना बंद कर देता है, वह भूल जाता है कि वह साइकिल पर है और उसे पैडल चलाना जारी रखना है।
केवल एक ही कारण से, प्रारंभ में छोटे बच्चे साइकिल चलाने में कठिनाई का अनुभव करते हैं, ंकि वे प्रत्येक चीज़ के बारे में बहुत उत्सुक होते हैं। कोई भी देश बच्चों को वाहन चलाने के लाइसेंस की अनुमति नहीं देता है और केवल इसलिए ही नहीं देता है क्योंकि वे हर दिशा में उत्सुक होते हैं। वे अचानक भूल जाएंगे, किसी भी क्षण उनका पूरा ध्यान कहीं और जा सकता है और वे भूल जाएंगे कि वे वाहन चला रहे हैं। वे भूल जाएंगे कि उनके उनके हाथों में एक खतरनाक उपकरण है और उनके तथा दूसरों के जीवन को खतरा हो सकता है। वे पूर्णतः केंद्रित नहीं होते हैं और उनकी चेतना प्रत्येक जगह प्रवाहित हो रही है।
जब तुम यहां होते हो, तुम्हारा मेरे साथ एक घनिष्ठ संबंध स्थापित हो जाता है। तुम मेरे साथ पूर्णता से संयुक्त हो जाते हो और तुम पैडल चलाना भूल जाते हो। कुछ विशिष्ट क्षणों के लिए जब तुम स्वयं को पूरी तरह भूल जाते हो तो तुम पर मौन उतरता है, एक परमानंद उतरता है और प्रत्येक चीज़ संभव प्रतीत होती है। तुम आलौकिक हो जाते हो, इसी कारण प्रत्येक चीज़ संभव प्रतीत होती है। केवल परमात्मा के लिए ही प्रत्येक चीज़ संभव है। परमात्मा के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। उस क्षण में तुम परमात्मा के समान ही हो जाते हो।
और पुनः मुझसे दूर जाकर, तुम वापिस वैसे ही हो जाते हो, तुम्हारा मन सोचना शुरू कर देता है, तुम पैडल चलाना प्रारंभ कर देते हो। तुम अधिक पैडल मारते हो, क्योंकि कुछ देर तक तुमने पैडल नहीं चलाया था। अब उस कमी को पूरा करने के लिए तुम पहले से कहीं अधिक पैडल चलाते हो। सघन अहंकार वापस लौट आता है। तुम अपनी आत्मा के साथ संपर्क खो देते हो।
मेरे साथ होते हुए वास्तव में जो हो रहा है, वह यह है कि तुम्हारा अपनी आत्मा के साथ संपर्क घटित हो रहा है। तब वहां अहंकार नहीं है। तुम गहनता से स्वयं के साथ ही हो और तुम्हारा अंतर्स्रोत तुम्हें उपलब्ध है, वहां से ऊर्जा प्रवाहित हो रही है और वहां कोई भी अवरोध नहीं है।
मुझसे दूर होते ही, सारे अवरोध वापस लौट आते हैं और पुरानी आदतें भी वापस लौट आती हैं। तब सब चीज़ें उतनी अच्छी प्रतीत नहीं होतीं। तब मेरे साथ होने की पूरी घटना एक सपने के समान प्रतीत होती है। तुम उसका विश्वास ही नहीं कर पाते हो। वह एक चमत्कार के समान प्रतीत होता है। तुम सोचते हो कि हो सकता है शायद मैंने कुछ किया होगा। मैं कुछ भी नहीं करता हूं। कोई भी व्यक्ति तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सकता है। ऐसा घटित होता है, क्योंकि तुम उसे घटित होने की अनुमति देते हो।
जब तुम मुझसे दूर जाओ तो भी उस अनुभूति को अपने साथ लिए हुए चलो। जो कुछ तुम यहां अनुभव कर रहे हो, उसे अपने साथ हमेशा लेकर चलो। तब मेरी कम से कम आवश्यकता पड़ेगी अन्यथा मैं एक नशीले पदार्थ की तरह बन सकता हूं, तब प्रत्येक सुबह जागते ही तुम मेरे लिए व्याकुल होना शुरू कर दोगे। तुम शीघ्र ही मेरे पास आने की तैयारी करोगे, भीतर एक गहन प्यास होगी... तब मैं एक नशे की दवा बन सकता हूं। तुम मुझ पर ही आश्रित होते जाओगे। यह सतोरी अथवा बुद्धत्व तक पहुंचने का सही मार्ग नहीं है। यह तरीका ठीक नहीं है। यदि तुम मुझ पर आश्रित हो जाते हो, जैसे कि मैं कोई नशीला पदार्थ हूं... तब मैं विध्वंसक हूं, विनाशकारी हूं। लेकिन यह तुम ही हो, जो मुझे एक नशीली दवा में बदल देते हो।
मेरे निकट, मेरे साथ और मेरी उपस्थिति में तुम जो कुछ भी अनुभव करते हो, उसे सदैव अपने साथ लिए हुए चलो। तुम्हें अनिवार्य रूप से एक ऐसी स्थिति में आना है, तुम्हें निश्चित ही उस बिंदु तक पंहुचना है, जहां मेरे साथ या मेरे बिना भी तुम एक जैसे ही बने रहो। तब मैं एक बंधन नहीं हूं और तब मैं एक सहायता बन सकता हूं। तब मैं तुम्हारे लिए एक स्वतंत्रता हूं और मुझे तुम्हारे लिए एक स्वतंत्रता ही बनना चाहिए। जब मैं कहता हूं कि मुझे तुम्हारे लिए एक स्वतंत्रता ही बनना चाहिए तो इसका अर्थ है कि तुम्हें अनिवार्य रूप से उस स्थिति तक आना है, जहां तुम मुझसे भी मुक्त हो जाओ। यदि मेरे प्रति निरंतर एक निर्भरता बनी रहती है तो तुम मुक्त नहीं हो, इससे कोई सहायता प्राप्त नहीं होगी तथा यह चीज़ों को स्थगित किए जाने जैसा होगा।
एक सच्चा सदगुरु हमेशा अपने शिष्यों को स्वयं से मुक्त करेगा। यही उसका लक्ष्य होता है। मेरे पास आओ और फिर मुझसे दूर भी जाओ लेकिन भीतर के उस अनुभव को साथ ले जाओ, तब तुम समान बने रहते हो। भीतर से समान बने रहकर ही विपरीत धु्रवों के मध्य गतिशील बनो। तब प्रत्येक चीज़ संभव है, क्योंकि तुम ही समस्त ऊर्जाओं के स्रोत हो।
तुम्हारे पास, तुम्हारे भीतर ही जीवन के सब स्रोत हैं। जीवन में जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह उसी समान स्रोत से घटित हो रहा है, जिससे तुम उत्पन्न हुए हो। तुम उससे संबंधित हो और तुम उसके साथ एक हो। यदि पक्षी गीत गाते हुए इतने अधिक प्रसन्न हो सकते हैं तो तुम भी हो सकते हो, क्योंकि वही समान स्रोत उनको गीत गाने की स्वतंत्रता और प्रसन्नता दे रहा है। वही समान स्रोत तुम्हें भी उपलब्ध है, लेकिन किन्हीं कारणों से तुमने अवरोध सृजित कर लिए हैं। यदि वृक्ष इतने अधिक हरे, ताजे, तनाव रहित और जीवंत है तो तुम भी वैसे ही हो सकते हो, क्योंकि वह जीवन रस जो वृक्षों को मिल रहा है, वही तो तुम्हारे पास भी आ रहा है। हो सकता है कि तुम उस रस को भूल गए हो, लेकिन वह सदा ही मौजूद है।
वह सभी कुछ जो जीवन में घटित हुआ है, वह सब कुछ जो तुम्हारे चारों ओर हो रहा है, यह संपूर्ण रहस्य ही तुम्हारी विरासत है। इस रहस्यमयी विरासत पर अपने अधिकार का दावा करो। तुम्हारे दावे के अभाव में वह विरासत तुम्हारे सामने ही व्यर्थ नष्ट हो रही है, और तुम भीख मांगते चले जा रहे हो। तुम्हारा साम्राज्य चारों तरफ फैला हुआ है और वह साम्राज्य तुम्हारी प्रतीक्षा करता हुआ व्यर्थ नष्ट हुआ जा रहा है और तुम भीख मांगे चले जाते हो। उसका दृढ़तापूर्वक दावा करो। यही एक उपाय है जिससे दावा किया जा सकता है : ‘विपरीत ध्रुवों के मध्य गतिशील होते हुए भी एक समान बने रहो। भगवान कृश्ण भी गीता में यही कहते हैं : ‘सुख में अथवा दुख में यथावत् समान बने रहो, सफलता में अथवा असफलता में भी एक समान बने रहो।’ जो कुछ भी होता है, उसे होने दो- ‘तुम यथावत बने रहना। तुम्हारा एक समान बने रहना ही तुम्हें एक स्थिरता और पूर्णता प्रदान करेगा।’
एक बात तुमने और पूछी है कि मैं तुमसे कहता हूं, इस संसार का परित्याग नहीं करना है और इसी में पूरी मस्ती तथा आनंद के साथ रहना है। यह कठिन प्रतीत होता है, क्योंकि संसार में रहते हुए, लोगों के साथ संबंधों में उलझे हुए, सामान्य रूप से कैसे रहा जा सकता है?
हां, मैं तुमसे यही कहता हूं।
पहली बात- संसार का परित्याग करना एक विकृति है, क्योंकि इसका अर्थ है कि उस उपहार का परित्याग करना, जो अस्तित्व ने तुम्हें प्रदान किया है। जीवन को तुमने निर्मित नहीं किया है, तुम्हारा यहां होना तुम्हारा चुनाव नहीं है। वह एक उपहार है। जीवन का त्याग, यानि तुम अखंड अस्तित्व के विरुद्ध जा रहे हो। किसी भी वस्तु का परित्याग यानि तुम परमात्मा के विरूद्ध हो। यह एक तरह से ‘नहीं’ कहने जैसा है। यही कारण है कि जो परित्याग करते हैं वे अधिक अहंकारी हो जाते हैं। जिस क्षण तुम परित्याग करते हो तो तुम घोषणा करते हो- ‘मैं जीवन की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान हूं। मैं इस दिव्य स्रोत की तुलना में, जहां से प्रत्येक वस्तु आती है, कहीं अधिक बुद्धिमान हूं।’ जब तुम परित्याग करते हो तो तुम कहते हो- ‘मैं चुनता हूं।’ जब तुम परित्याग करते हो तो तुम अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करते हो, इससे अहंकार सृजित होता है।
जब मैं कहता हूं कि परित्याग मत करो तो मैं कह रहा हूं कि इच्छा शक्ति के अधीन मत चलो, एक चुनावकर्ता मत बनो। जो कुछ भी हो रहा है वह तुम्हारे कारण नहीं हो रहा है, इसलिए कुछ भी चुनाव कर पाना तुम्हारे हाथ में नहीं है, तुम कौन होते हो चुनाव करने वाले? जो भी हो रहा है उसे होने दो। तुम क्या कर सकते हो? अधीर और व्याकुल मत बनो।
परित्याग करना ठीक एक पलायन की तरह है। चूंकि तुम्हें चोट लगती है, क्योंकि तुम व्याकुल हो जाते हो, तुम किसी भी चीज़ को छोड़ देते हो। तुम उस दृष्टिकोण का परित्याग नहीं करते जो तुम्हें चोट पहुंचाता है, तुम उस स्थिति को ही त्याग देते हो। तुम घावों से भरे उस हृदय का परित्याग नहीं करते, जिसे कोई भी व्यक्ति चोट पहुंचा सकता है। तुम उस मन का परित्याग नहीं करते जो रुग्ण है और जो हमेशा तुम्हें बाधा पहुंचाने को तैयार है। तुम संसार का परित्याग करते हो, यह अधिक आसान है। तुम पलायन कर हिमालय पर भाग जाते हो, लेकिन जो कुछ भी तुम्हारे अंदर था, वह तुम्हारे साथ ही बना रहेगा। उसमें कुछ भी अंतर नहीं पड़ेगा। यह एक धोखा है।
संपूर्ण, स्थिर, मौन और प्रसन्न बने रहो और संसार में जो भी घट रहा है, उसे स्वीकार करो। तुम परित्याग करने अथवा छोड़ने वाले कौन हो? तुम स्वयं को जहां कहीं भी, जिस भी स्थिति में पाते हो, बस वहां वैसे ही बने रहो। पूर्ण, स्थिर, मौन और प्रसन्न बने रहो। हिमालय पर मत जाओ, हिमालय को अपने अंदर ही सृजित करो। जब मैं कहता हूं कि संसार का परित्याग मत करो तब मेरे कहने का यही अर्थ है कि पहाड़ों पर मत जाओ, बल्कि वहां की शांति और मौन को अपने अंदर सृजित करो। तब तुम जहां भी जाते हो, पहाड़ तुम्हारे साथ ही गतिशील होते रहेंगे।
संबंध जोड़ना सुंदर है, क्योंकि वह एक दर्पण है, लेकिन कुछ मूर्ख लोग भी हैं, वे दर्पण में अपने चेहरे देखते हैं और उसे कुरूप पाते हैं तो दर्पण को नष्ट कर देते हैं। उनका तर्क एकदम स्पष्ट है कि दर्पण ही उन्हें कुरूप दिखा रहा है, इसलिए दर्पण को तोड़ दो और तब वे सुंदर ही हैं।
संबंध एक दर्पण की तरह होता है। जहां कहीं भी तुम किसी व्यक्ति से संबंधित हो, चाहे पति, पत्नी, मित्र, प्रेमी अथवा शत्रु, एक दर्पण सब जगह है। पत्नी, पति को प्रतिबिंबित करती है। तुम वहां स्वयं को देख सकते हो और यदि तुम्हें एक कुरूप पत्नी दिखाई देती है तो अपनी पत्नी को छोड़ने का प्रयास मत करो, क्योंकि वह कुरूपता तुम्हारे ही अंदर है। उस कुरूपता को छोड़ो। दर्पण सुंदर है, इस दर्पण के प्रति धन्यवादी बनो।
लेकिन मूर्ख और कायर लोग हमेशा पलायन और परित्याग करते हैं। साहसी और बुद्धिमान लोग हमेशा संबंधों में जीते हैं और उसका उपयोग एक दर्पण की भांति करते हैं। किसी व्यक्ति के साथ रहते हुए तुम निरंतर चारों ओर प्रतिबिंबित हो रहे हो। प्रत्येक क्षण दूसरा व्यक्ति तुम्हें उघाड़ता है, प्रकट करता है। संबंध जितना अधिक निकटतम होता है, दर्पण में उतना ही अधिक स्पष्ट दिखाई देता है और संबंध में जितनी अधिक दूरी होती है, दर्पण में उतनी ही कम स्पष्टता होती है। इसी कारण परित्याग करना वास्तव में प्रेम का, पत्नी अथवा पति का परित्याग करना बन जाता है। वह संबंध तोड़ने के लिए एक आधार बन जाता है, क्योंकि एक व्यक्ति के साथ एक ही घर में चौबीसों घंटे रहना, चौबीस घंटे का संबंध बने रहना...
जब एक पत्नी बात नहीं कर रही है, वह अपने पति से कुछ भी नहीं कह रही है, तो वह प्रतिबिंबित कर रही है। जब एक पति केवल अपना समाचार पत्र पढ़ रहा है, वह प्रतिबिंबित कर रहा है। जिस ढंग से वह समाचार पत्र पकड़े हुए है, पत्नी जानती है कि समाचार पत्र केवल एक दीवार सृजित कर रहा है। पति उस दीवार के पीछे स्वयं को छिपा रहा है। हो सकता है वह स्वयं को धोखा दे रहा है कि वह समाचार पत्र पढ़ रहा है लेकिन हो सकता है कि वह एक ही समाचार को दूसरी और तीसरी बार पढ़ रहा हो। संभव है कि वह बिल्कुल पढ़ ही न रहा हो, बल्कि केवल यांत्रिक रूप से शब्दों को देख रहा हो। लेकिन जिस ढंग से वह समाचार पत्र के पीछे स्वयं को छिपा रहा है, वह एक दर्पण बन जाता है। वह पत्नी से बच रहा है, वह पत्नी के साथ ऊब चुका है, वह अपनी पत्नी की और अधिक उपस्थिति नहीं चाहता है, वह उसकी ओर देखना नहीं चाहता है। उसे पत्नी की उपस्थिति मात्र ही बहुत अधिक बोझिल प्रतीत होती है। वह किसी तरह से उससे दूर बना रहना चाहता है।
जब तुम प्रेम में होते हो तो भाषा की आवश्यकता नहीं होती। मुद्राएं... और यहां तक कि मौन ही बातचीत बन जाता है, तब मौन ही सुवक्ता हो जाता है।
निरंतर प्रतिबिंबित होना जारी रहता है और प्रत्येक व्यक्ति कुरूप लगता है, क्योंकि सुंदरता कुछ ऐसी चीज़ है, जो केवल धीमे-धीमे तभी प्रकट होती है, जब तुम्हारा आंतरिक अस्तित्व प्रकट होता है। अहंकार सदा कुरूप होता है, इसलिए जब अहंकार नहीं होता है, केवल तब ही कोई व्यक्ति सुंदर लगता है। वह अहंकार ही है जो संबंधों में प्रतिबिंबित हो रहा है।
जो भी तुम्हें निरंतर यह स्मरण दिलाता है कि तुम कुरूप हो, वह शत्रु बन जाता है। तुम उसका परित्याग करना चाहते हो। लेकिन क्या दर्पण का परित्याग करना एक बुद्धिमानी है? यह मूर्खतापूर्ण है। यहां तक कि जब कोई भी व्यक्ति तुम्हें प्रतिबिंबित नहीं करता है, तो तुम वैसे ही बने रहोगे। जब कोई भी व्यक्ति तुम्हें स्मरण नहीं दिलाता है कि तुम गलत हो तो तुम एक ही दिशा में चलते रहोगे। दर्पण सुंदर है और अच्छा है। वह तुम्हारी सहायता करता है और यदि तुम सजग हो तो तुम धीमे-धीमे अहंकार को छोड़ सकते हो। तब दूसरे व्यक्ति के दर्पण में तुम्हारी सुंदर आत्मा प्रकट होगी।
एक बार तुम शून्य हो जाओ, एक श्वेत बादल हो जाओ, तो संसार की सभी झीलें तुम्हारी धवलता और शुभ्रता को प्रकाशित करेंगी। तब संसार की समस्त झीलें तुम्हारे तथाता स्वरूप को, तुम्हारे मस्तमौला स्वभाव को प्रदर्शित करेंगी। इसलिए मैं कहता हूं कि केवल एक ही चीज़ त्यागने योग्य है और वह है परित्याग, वह है अस्वीकार।
वहां रहो, जहां परमात्मा अथवा अखंड अस्तित्व है और यदि तुम परमात्मा शब्द को पसंद नहीं करते हो तो कोई भी समस्या नहीं है, वह केवल एक शब्द है। इसलिए परमात्मा अथवा अखंड अस्तित्व, जहां कहीं भी तुम पाते हो कि अखंड अस्तित्व में तुम थिर हो गए हो, वहीं बने रहो। अखंड अस्तित्व कभी भी किसी व्यक्ति को परित्याग करने हेतु नियुक्त नहीं करता है, कभी भी नहीं। वह सदा तुम्हें किसी न किसी संबंध में ले जाता है क्योंकि कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं जन्मा है और अकेले में जीवित भी नहीं रह सकता है, ऐसा हो ही नहीं सकता। कम से कम माता-पिता की आवश्यकता होगी, एक समाज और एक परिवार का होना आवश्यक है। अखंड अस्तित्व हमेशा तुम्हें किसी न किसी संबंध में ले जाता है। इसी वजह से मैं कहता हूं कि परित्याग करना अखंड अस्तित्व के विरुद्ध होने जैसा है।
गुरजिएफ अंतर्दृष्टि का धनी है। उसकी अंतर्दृष्टि कहती है कि सभी धार्मिक लोग परमात्मा के विरुद्ध हैं। यह बात अजीब लगती है, लेकिन सत्य है। मैं पूरी तरह से इसका समर्थन करता हूं, वह ठीक कहता है। सभी धार्मिक लोग परमात्मा के विरोध में हैं, क्योंकि वे स्वयं को न्यायाधीशों की भांति स्थापित कर निर्णय लेते हैं कि यह गलत है अथवा यह ठीक है, यह होना चाहिए अथवा यह नहीं होना चाहिए और किस व्यक्ति को संसार से दूर भाग जाना चाहिए। परमात्मा तुम्हें संसार में भेजता है और तथाकथित धार्मिक उपदेशक तुम्हें संसार का परित्याग करना सिखाते हैं।
मैं उस तरह का धार्मिक व्यक्ति नहीं हूं। मैं परमात्मा और अखंड अस्तित्व के साथ हूं। वह जहां कहीं भी तुम्हें ले जाता है, एक श्वेत बादल की तरह गतिशील होते हुए उसके साथ जाओ और स्वयं को पूर्ण रूप से अखंड अस्तित्व को सौंप दो। केवल एक बात का स्मरण बना रहे और वह हैं विरोधी ध्रुव- मौन, संतुलन, समता और पूर्णता इन सब के बीच विरोधों का भी स्वीकार बना रहे।
तुम कहते हो कि यह कठिन होगा। हां, यह कठिन होगा। यदि तुम बहुत परम आनंदित हो तो एक रूग्ण परिवार में रहना कठिन होगा और लगभग प्रत्येक परिवार रूग्ण है। वहां रहना ऐसा ही होगा जैसे तुम्हें एक पागलखाने में रहने के लिए बाध्य किया जा रहा हो, यह कठिन होगा, क्योंकि वहां प्रत्येक व्यक्ति ही पागल होगा।
इसलिए तुम क्या कर सकते हो? यदि तुम एक पागलखाने में फेंक दिए जाते हो और तुम स्वयं पागल नहीं हो तथा वहां प्रत्येक अन्य व्यक्ति पागल है, तो तुम क्या करोगे? यदि तुम वास्तव में पागल नहीं हो तो तुम पागल होने का अभिनय करोगे। वहां रहने का केवल यह ही बुद्धिमत्तापूर्ण उपाय है, इससे कोई भी व्यक्ति यह नहीं जान पाता है कि तुम समझदार हो, क्योंकि यदि वे यह जान लेते हैं, तो वे मुसीबत उत्पन्न करेंगे। एक पागलखाने में वास्तव में एक बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी अन्य पागल व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक पागल होने का अभिनय करेगा। वहां सुरक्षा से रहने का केवल यह एक ही ढंग है।
इसलिए इस जीवन में, जहां प्रत्येक व्यक्ति पागल है, तुम क्या कर सकते हो? यह पूरा ग्रह ही एक बहुत बड़ा पागलखाना है, प्रत्येक व्यक्ति असंवेदनशील, असंतुलित और रुग्ण है, आखिर तुम क्या कर सकते हो? अभिनय करो... जब भी तुम्हें जरूरत लगे, अभिनय करो। अनावश्यक रूप से अपने लिए कठिनाई उत्पन्न करने का प्रयास मत करो। जब भी जरूरत पड़े तो बस अभिनय करो और उस अभिनय का आनंद भी लो। पागल लोगों के साथ स्वयं भी पागल होने का अभिनय करते हुए आनंदपूर्ण बनकर रहो। मेरे कहने का क्या अर्थ है? मेरा अर्थ है कि यदि पास-पड़ोस में कोई व्यक्ति मर जाता है, तो तुम क्या करोगे? क्या वहां परम आनंद से भर जाओगे? तब तुम्हारी पिटाई हो जाएगी। वहां रोने, चीखने और चिल्लाने का सुंदर अभिनय करो, पूरी दक्षता से करो, क्योंकि जहां मृत्यु को स्वीकार नहीं किया जाता है, जहां मृत्यु एक बुराई है, उस रुग्ण स्थिति में, उस रूग्ण समाज में इस अभिनय के अलावा किया भी क्या जा सकता है? किसी भी अन्य व्यक्ति के लिए कोई कठिनाई सृजित मत करो।
यदि तुम बुद्धिमान हो तो अभिनय करो और इतनी सुंदरता से अभिनय करो कि कोई भी व्यक्ति तुम्हारी तुलना में रुदन न कर पाए, उसका आनंद लो। वह तुम्हारे भीतर की बात है उसे आनंदपूर्ण बनाओ। लेकिन बाहर के उन लोगों के लिए जो तुम्हारे चारों ओर एकत्रित हैं, अपने अभिनय को सुंदरता से करो।
संसार के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता बनो। जब तुम एक अभिनेता हो तो तुम अपने अंदर क्षुब्ध और व्याकुल नहीं हो, क्योंकि तब तुम जानते हो कि यह केवल एक अभिनय है। यह पूरा जीवन ही एक महान मनोविक्षिप्त नाटक की तरह है। यहां एक अभिनेता बनो और अपने भीतर अपनी निरहंकारपूर्ण परमानंद स्थिति में मग्न भी बने रहो।

आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें