प्रवचन-बाहरवां
समग्र बनो
(अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)पहला प्रश्नः
ओशो! आपने सदगुरु के प्रति पूर्ण समर्पण के बारे में हमें बताया, लेकिन निर्देशों का शब्दश : पालन न करने के लिए हमारा मन प्रायः कई कारण ढूंढ लेता है। हम लोग इस तरह की बातें कहने लगते हैं कि सदगुरु आज की व्यावहारिक परिस्थितियों को नहीं समझ सकते हैं, वे पश्चिमी देशों के हालात से परिचित नहीं हैं।क्या हमें सदगुरु की प्रत्येक बात का अक्षरश : अनुसरण करना चाहिए? अथवा कभी-कभी किसी विशेष समय में अपने विवेक का भी प्रयोग करना चाहिए?
तुम्हें या तो अक्षरश : पूर्ण अनुसरण करना चाहिए अथवा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। कोई भी समझौता नहीं होना चाहिए, क्योंकि आधे-अधूरे हृदय से की गई कोई भी चीज़ केवल व्यर्थ ही नहीं होती, बल्कि हानिकारक भी होती है। आधे-अधूरे हृदय से की गई कोई भी चीज़ तुम्हें विभाजित कर देती है। यह विभाजन सबसे बड़ी हानि है। तुम्हें अविभाजित इकाई बने रहना चाहिए।
इसलिए या तो पूर्ण रूप से समर्पण करो, तब तुम्हारी तरफ से कुछ भी सोचने की कोई आवश्यकता नहीं है, केवल अंधानुसरण करो। मैं ‘अंधानुसरण’ शब्द पर ज़ोर दे रहा हूं, जैसे मानो तुम्हारे पास अपनी आंखे ही नहीं हैं। कोई ऐसा व्यक्ति जिसके पास आंखें हैं, वह तुम्हारा नेतृत्व कर रहा है। तब तुम एक अविभाजित इकाई बन जाओगे। ऐसे में अविभाजित और पूर्ण होकर तुम विकसित होवोगे।
अथवा यदि तुम अनुभव करते हो कि यह असंभव है और नहीं किया जा सकता, तो बिल्कुल भी अनुसरण मत करो। तब तुम पूर्ण रूप से केवल स्वयं का अनुसरण करो। ऐसे में भी तुम अविभाजित बने रहोगे। अविभाजित बने रहना ही लक्ष्य है, यही उद्देश्य है। इसलिए दोनों ही विधियां कार्य करेंगी और अंतिम परिणाम समान होगा। यदि तुम बिना सदगुरु के अकेले चल सकते हो, यदि तुम अपनी चेतना का अनुसरण कर सकते हो, चेतना के अनुसार गमन कर सकते हो तो वह एक ही बात है और परिणाम समान होगा, इसलिए यह तुम पर निर्भर करता है।
लेकिन मन हमेशा कहता है : ‘दोनों ही करो।’ मन कहता है कि सदगुरु का अनुसरण करो, लेकिन सोच-विचार करो और केवल उन बातों का अनुसरण करो, जिन्हें तुम ठीक समझते हो। परंतु तब अनुसरण कहां है? तब कहां है समर्पण? यदि तुम न्यायाधीश हो और निर्णय भी तुम ही लोगे कि किस बात का अनुसरण करना है और किसका अनुसरण नहीं करना है, तब समर्पण कहां है, तब आस्था कहां है? इसलिए तब अच्छा यही है कि तुम अपनी चेतना का अनुसरण करो, लेकिन धोखा मत दो, कम-से-कम स्वयं के साथ कोई भी धोखा नहीं होना चाहिए। अन्यथा तुम स्वयं का ही अनुसरण किए चले जाते हो और सोचते हो कि तुम एक सदगुरु का अनुसरण कर रहे हो।
यदि तुम ही निर्णायक हो, यदि तुम ही चयनकर्ता हो, यदि तुम्हें ही तथ्यों को छांटना है और अपनी इच्छानुसार स्वीकार करना है, तब तुम स्वयं अपना ही अनुसरण कर रहे हो। लेकिन तुम अपने चारों ओर यह छवि निर्मित कर सकते हो और तुम स्वयं को यह धोखा दे सकते हो कि तुम सदगुरु का अनुसरण कर रहे हो। ऐसे में कुछ भी परिणाम नहीं आएगा। तुम विकसित नहीं हो पाओगे, क्योंकि स्वयं को धोखे में रखने के कारण तुम्हारा कोई भी विकास नहीं हो सकता और तुम अधिक से अधिक भ्रमित हो जाओगे।
यदि तुम्हें निर्णय लेना है कि क्या किया जाए और क्या न किया जाए, यदि तुम्हें अपने सदगुरु के निर्देशों में से भी चुनाव करना है तो तुम एक उपद्रव और अव्यवस्था उत्पन्न करोगे, क्योंकि जब कभी भी एक सदगुरु तुम्हें मार्गदर्शन देता है, तो उसके मार्ग-निर्देशन में एक मूलभूत एकता होती है। प्रत्येक निर्देश एक दूसरे निर्देश से संबंधित होता है। सदगुरु के निर्देश अपने आप में सघनता और समग्रता से पूर्ण होते हैं। तुम उनमें से आधा छोड़ नहीं सकते और आधे का अनुसरण नहीं कर सकते हो। यदि तुम ऐसा करते हो तो तुम नष्ट हो जाओगे, तूफान में फंसे किसी जलयान की भांति बर्बाद हो जाओगे। सदगुरु के निर्देशों में से यदि तुमने लेशमात्र भी छोड़ दिया तो सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। तुम नहीं जानते कि सब किस तरह से परस्पर संबंधित है।
इसलिए मेरा यह सुझाव है कि एक अविभाजित इकाई बनकर रहो, निर्णय लो। यदि तुम्हें निर्णय लेना है तो समग्रता से निर्णय लो कि मैं स्वयं का ही अनुसरण करूंगा। तब समर्पण मत करो, उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है।
यही बात कृष्णमूर्ति निरंतर चालीस पचास वर्षों से कहते आ रहे हैं : ‘अनुसरण मत करो।’ लोग किसी भी व्यक्ति का अनुसरण किए बिना भी पहुंच सकते हैं। लेकिन यह मार्ग बहुत श्रमपूर्ण और लंबा है, क्योंकि तुम कठिनाई से मुक्ति दिलाने वाली किसी भी संभव सहायता अथवा मार्गदर्शन हेतु तैयार नहीं हो। यही बात कृष्णमूर्ति कहते आ रहे हैं, पर किसी भी व्यक्ति ने इसका पालन नहीं किया है।
मन की यही समस्या है। मन अनुसरण न करने की बात को स्वीकार कर सकता है, इसलिए नहीं कि वह समझ गया है, बल्कि इसलिए कि अनुसरण न करना, तुम्हारे अहंकार को परिपूर्ण कर रहा है। कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का अनुसरण नहीं करना चाहता है। बहुत गहराई में अहंकार प्रतिरोध करता है।
इसलिए कृष्णमूर्ति के चारों ओर सभी अहंकारी लोग एकत्रित हो गए हैं, वे सब पुनः स्वयं को धोखा दे रहे हैं। वे सोचते हैं कि वे किसी भी व्यक्ति का अनुसरण नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे लोग अनुसरण द्वारा होने वाले अटकाव-भटकाव के तर्क को पूर्णतः समझ गए हैं, वे सोचते हैं कि वे समझ गए हैं कि इस मार्ग पर अकेले ही यात्रा करनी है, कोई भी सहायता संभव नहीं है और कोई भी व्यक्ति सहायता कर ही नहीं सकता है, कोई भी व्यक्ति तुम्हारा मार्गदर्शन नहीं कर सकता है और तुम्हें यात्रा अकेले ही करनी है। वे लोग ऐसा सोचते हैं कि वे समझ गए हैं और इसी कारण वे किसी भी व्यक्ति का अनुसरण नहीं कर रहे हैं। पर यह वास्तविकता नहीं है, वे स्वयं को धोखा दे रहे हैं, वे लोग अनुसरण नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उनका अहंकार उन्हें इसकी अनुमति नहीं देता परंतु अभी भी वे लोग कृष्णमूर्ति को सुने चले जा रहे हैं। वर्षों से वे बार बार उनके पास मिलने एक ही स्थान पर जाते हैं।
यदि कोई भी सहायता संभव नहीं है, तो तुम बार-बार कृष्णमूर्ति के पास क्यों जाते हो? यदि कोई भी व्यक्ति तुम्हें मार्गदर्शन नहीं दे सकता है, तो बार-बार कृश्णमूर्ति को सुनने का प्रयोजन क्या है? यह अर्थहीन है। यह दृष्टिकोण कि तुम्हें मार्ग पर अकेले ही यात्रा करनी है, यहां तक कि यह दृष्टिकोण भी तुम्हारे द्वारा नहीं खोजा गया है, यह भी कृष्णमूर्ति द्वारा ही अनावृत्त किया गया है। बहुत गहरे में वह तुम्हारे सदगुरु बन गए हैं। लेकिन तुम कहे चले जाते हो कि तुम किसी का अनुसरण नहीं करते, यह एक धोखा है।
यही धोखा विपरीत ओर से भी हो सकता है। तुम मेरे पास आते हो, तुम सोचते हो कि तुमने समर्पण कर दिया है परंतु अभी भी तुम अपना निर्णय और अपना चुनाव किए चले जाते हो। यदि मैं कोई बात कहता हूं जो तुम्हें संतुष्ट करती है, यानि तुम्हारे अहंकार को संतुष्ट करती है, तो तुम उसका अनुसरण करते हो। यदि मैं कुछ ऐसी बात कहता हूं जो तुम्हारे अहंकार को संतुष्ट नहीं करती है, तो तुम तर्क और प्रमाण की सहायता से उसे गलत सिद्ध करना शुरू कर देते हो और कहते हो- ‘शायद यह मेरे लिए नहीं है।’ इसलिए तुम अनुभव करते हो कि तुमने मुझे समर्पण कर दिया है परंतु तुमने समर्पण नहीं किया है।
कृष्णमूर्ति के पास जो लोग हैं, वे सोचते हैं कि वे किसी भी व्यक्ति का अनुसरण नहीं कर रहे हैं परंतु वे अनुसरण कर रहे हैं। मेरे समीप रहते हुए तुम सोचते हो कि तुम मेरा अनुसरण कर रहे हो परंतु तुम मेरा अनुसरण नहीं कर रहे हो। मन सदैव ही धोखेबाज है। तुम जहां कहीं भी जाओ, वह तुम्हें धोखा दे सकता है, वह तुम्हें धोखा देगा ही, इसलिए सजग बने रहो।
मैं तुमसे कहता हूं- ‘तुम बिना अनुसरण किए भी पहुंच सकते हो, लेकिन मार्ग बहुत सुनसान है, एकाकी है और बहुत लंबा है, उसका ऐसा होना सुनिश्चित है। कोई भी पहुंच सकता है, असंभव नहीं है और कुछ लोग पहुंचे भी हैं। मैं स्वयं ही बिना अनुसरण किए हुए पहुंचा हूं, तुम भी पहुंच सकते हो। लेकिन स्मरण रहे कि अनुसरण न करना अहंकार को संतुष्ट करने का साधन नहीं बनना चाहिए, अन्यथा तुम कभी नहीं पहुंचोगे।
सदगुरु है अथवा नहीं है, यह मूल बात नहीं है। आधारभूत बात है अहंकार, तुम्हारा अहंकार। अहंकार न हो, तब बिना एक सदगुरु के भी तुम पहुंच सकते हो। परंतु अहंकार के साथ बुद्ध भी तुम्हारा पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकते। अतः या तो पूर्ण रूप से अनुसरण करो अथवा पूर्ण रूप से अनुसरण न करो, लेकिन जो भी करो पूर्णता से करो। इसलिए निर्णय तुम्हें ही करना है। मन के धोखे से बचते हुए, स्वयं के भीतर गहराई में देखो। जो कुछ तुम कर रहे हो उसके प्रति सचेत बने रहो। यदि तुम समर्पण कर रहे हो तब समर्पण करो।
मुझे याद आता है कि एक बार गुरजिएफ के शिष्यों के साथ एक घटना घटित हुई। गुरजिएफ अपने कुछ शिष्यों के साथ था। गुरजिएफ ने कहा कि जो कुछ भी वह कहेगा उन सब शिष्यों को उसका अनुसरण करना होगा। वह एक विशिष्ट साधना का अभ्यास करने में उनकी सहायता कर रहा था, जिसे वह ‘स्टॅाप एक्सरसाइज़’ कहता था। अतः जब भी वह कहता था- स्टॅाप! तब शिष्यों को रुक जाना होता था, चाहे वे उस समय कुछ भी कार्य कर रहे हों। यदि तुम उस समय चल रहे हो और वह कहता था- ‘रुको’, तो तुम्हें वहीं रुक जाना होता था, भले ही तुम्हारा एक पैर भूमि से ऊपर उठा रहे। तुम बात कर रहे हो, तुम्हारा मुंह खुला है और यदि वह कहता था- ‘रुक जाओ’, तो तुम्हें खुले मुंह के साथ ही रुक जाना होता था। तुम्हें उस स्थिति को बदलना नहीं है, तुम्हें अपनी स्थिति को अपनी इच्छानुसार सुविधाजनक बनाने की आज्ञा नहीं थी, क्योंकि वह एक धोखा हो जाता और तुम किसी अन्य को नहीं बल्कि स्वयं को ही धोखा दे रहे हो।
एक दिन सुबह के समय जब कुछ शिष्य कैंप के बाहर अभ्यास कर रहे थे, कुछ शिष्य पास में बहती हुई एक नहर को पार कर रहे थे कि अचानक कैंप के अंदर से ही गुरजिएफ ने चिल्लाकर कहा : ‘स्टॅाप’! इसलिए सब लोग जहां थे, जैसे थे, वहीं रूक गए। जो चार लोग नहर को पार कर रहे थे, उस समय वह नहर सूखी थी और उसमें पानी नहीं था, इसलिए वे लोग भी वहीं रुक गए। लेकिन अचानक किसी व्यक्ति ने पास के बांध से नहर में पानी छोड़ दिया और नहर में पानी भरना शुरू हो गया। तब उन चारों ने सोचा कि अब क्या किया जाए? गुरजिएफ डेरे के अंदर था और वह नहीं जानता था कि वे लोग नहर के बीच में खड़े हैं और नहर में पानी तेज़ी से बढ़ रहा था। लेकिन उन्होंने प्रतीक्षा की, क्योंकि कुछ क्षणों के लिए मन प्रतीक्षा कर सकता है।
जब पानी उनकी गर्दन तक आ गया तो एक शिष्य बाहर कूद गया और उसने कहा : ‘यह तो हद हो गई है। ‘वह’ कुछ नहीं जानता है।’
तब नहर में पानी का तल और अधिक बढ़ा और जब पानी ठीक उनकी नाक के निकट आ गया तो दूसरे दो शिष्य भी कूदकर बाहर आ गए, क्योंकि अब वे डूब जाते, मर जाते, और तर्क बिल्कुल सीधा-साफ था। यदि तुम होते तो तुम भी यही करते। वे लोग मरने जा रहे थे और सदगुरु डेरे के अंदर था, वह इस बात से अनजान था।
अब केवल एक शिष्य बचा। पानी उसके सिर से ऊपर बहने लगा था और वह खड़ा ही रहा। तब गुरजिएफ तेज़ी से अपने तंबू से बाहर निकला और उस शिष्य को नहर से बाहर निकाला। वह लगभग बेहोश हो चुका था। वह ठीक मरने की स्थिति में था और उसके शरीर से पानी को बाहर निकाला गया। परंतु जब उसने अपनी आंखें खोलीं तो वह कोई दूसरा ही व्यक्ति था। पुराना व्यक्ति वास्तव में मर चुका था। यह एक रूपांतरण था। वह पूर्ण रूप से एक भिन्न व्यक्ति हो गया था।
मृत्यु के उस क्षण में क्या हुआ था? उसने सदगुरु को स्वीकार कर लिया था। उसने अपने मन को और उसके तर्क तथा प्रमाणों को अस्वीकार कर दिया था। उसने स्वयं अपने जीवन की लालसा को अस्वीकार कर दिया था। उसने अपनी आंतरिक जैविक प्रवृत्ति को अस्वीकार कर दिया था। उसने सबकुछ छोड़ दिया था। उसने कहा : ‘जब सदगुरु ने कहा है कि रुक जाओ, मैं रुक गया हूं। अब कोई भी चीज़ मुझे गतिशील नहीं कर सकती है।’
यह निश्चित ही बहुत कठिन रहा होगा, लगभग असंभव। लेकिन जब तुम कोई असंभव कार्य करते हो तो तुम रूपांतरित हो जाते हो। मरते हुए भी उसने मन को हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी। मृत्यु एकदम निकट थी, लेकिन अपने मन और उसके निर्णय की तुलना में उसने मृत्यु को स्वीकार कर लिया।
वह फिर वही पहले वाला व्यक्ति नहीं रह गया था, कोई भी उस पुराने व्यक्ति से फिर कभी नहीं मिला। तब दूसरे लोगों ने अनुभव किया कि वे लोग एक महान अवसर से चूक गए हैं। वे तीन लोग, जो कूदकर नहर से बाहर आ गए थे, वे लोग एक महान अवसर से चूक गए थे।
यह संपूर्ण समर्पण है। प्रश्न इस बात का नहीं है कि वह तुम्हारे मन को आकर्षित कर रहा है अथवा नहीं और तुम्हारा मन ‘हां’ कहता है अथवा ‘नहीं’। जब तुम समर्पण करते हो तो तुमने ‘नहीं’ कहने की सभी संभावनाओं को भी समर्पित कर दिया है। चाहे जैसी भी स्थिति हो, तुम ‘ना’ नहीं कहोगे। संपूर्ण ‘हां’ का अर्थ है पूर्ण समर्पण। कठिन है, इसी कारण रूपांतरण हो पाना कठिन है। आसान नहीं है, इसी कारण आध्यात्मिक जन्म लेना सरल नहीं है।
लेकिन मैं यह नहीं कहता कि तुम अकेले नहीं पहुंच सकते हो। तुम अकेले पहुंच सकते हो, तुम एक सदगुरु के साथ भी पहुंच सकते हो, तुम एक समूह में भी पहुंच सकते हो और तुम एक वैयक्तिक इकाई की भांति भी पहुंच सकते हो। सभी संभावनाएं खुली हुई हैं। निर्णय तुम्हें लेना है और स्वयं को कोई धोखा दिए बिना यह निर्णय लेना है।
स्मरण रहे, यह प्रश्न पूरब और पश्चिम का नहीं है। भीतर गहराई में मन एक समान है, सभी भेद उथले हैं। पूरब और पश्चिम, ये केवल सतह हैं, सांस्कृतिक और जातिगत विशिष्टताएं हैं, पर वे केवल बाह्य धरातल पर हैं। भीतर गहराई में मनुष्य का मन एक समान है। तुम कहां से हो, किस जगह से हो, यह बात असंगत है।
समर्पण करो या नितांत अकेले बने रहो, लेकिन दोनों पथों पर केवल उन्हीं व्यक्तियों द्वारा यात्रा की जा सकती है, जो संपूर्ण हैं, समग्र हैं। बुद्ध अकेले ही बुद्धत्व तक पहुंचे, और बुद्ध का अनुसरण करते हुए अनेक लोग भी उसी बुद्धत्व तक पहुंचे।
मैं पक्षपाती नहीं हूं। मैं यह नहीं कहता, जैसे कि कृष्णमूर्ति कहते हैं : ‘केवल यही एक मार्ग है’, मैं नहीं कहता, जैसा कि मेहर बाबा कहते हैं : ‘केवल यही एक मार्ग है।’ मैं भली-भांति जानता हूं कि वह तुम्हारी सहायता के लिए ऐसा कहते हैं, क्योंकि एक बार जब तुम जान जाते हो कि कोई दूसरा मार्ग भी हो सकता है, तो तुम्हारे भीतर भ्रम और उलझन पैदा हो जाती है। तब तुम झूले की तरह डोलना शुरू कर देते हो, कभी तुम यह सोचते हो और कभी तुम वह सोचते हो। इसी कारण सदगुरु कहते रहे हैं : ‘केवल यही एक मार्ग है’। केवल तुम्हारे मन को भ्रम से बचाने के लिए ही वे ऐसा कहते रहे हैं। अन्यथा विरोधी मार्ग तुम्हें आकर्षित करेगा और तुम निरंतर अपने दृष्टिकोण को बदलते चले जाओगे। तुम्हें संपूर्ण एवं समग्र बनाने के लिए ही सदगुरु इस बात पर बल देते आए हैं।
लेकिन मैं कहता हूं कि दोनों ही मार्ग हैं। क्यों? क्योंकि एक का आग्रह करना अब पुरानी बात हो गई है और तुमने बहुत सुन लिया कि यही एक मार्ग है। अब तो यह एक मृत तकिया कलाम बन गया है। अब यह सहायता नहीं करता है। अतीत में यह सहायक हुआ करता था, पर अब यह सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि अब समस्त संसार संबंधित है, पूरी पृथ्वी एक गांव की तरह बन गई है : वसुद्यैव कुटुम्बकम्... और प्रत्येक धर्म दूसरे धर्म को जानता है। आज सभी लोगों को लगभग सभी मार्गों का ज्ञान है। अब मनुष्यता सभी मार्गों, सभी संभावनाओं और सभी विकल्पों से परिचित हो गई है।
अतीत में लोग केवल एक मार्ग ही जानते थे, जिसमें उनका जन्म हुआ था। तब इस बात पर बल देना अच्छा था कि केवल एक ही मार्ग है, जिससे उनका मन आश्वस्त और आस्थापूर्ण बन सके। लेकिन अब यह स्थिति नहीं हैं। एक हिन्दू कुरान पढ़ता है, एक ईसाई मार्गदर्शन खोजने के लिए भारत आता है और एक मुसलमान गीता एवं वेदों के प्रति सचेत है। सभी मार्ग सभी को ज्ञात हैं। चारों तरफ एक भ्रम की स्थिति है और ऐसे में जो कोई भी यह कहता है कि केवल यही एक मार्ग है, वह आज के समय में सहायता नहीं कर सकेगा क्योंकि तुम भलिभांति जानते हो कि दूसरे मार्ग भी उपलब्ध हैं। तुम जानते हो कि लोग दूसरे मार्गों से भी पहुंचते हैं और पहुंच रहे हैं। इसलिए मैं किसी भी मार्ग पर बल नहीं देता हूं।
यदि तुम समर्पण करते हो तो तुम मेरी सहायता ले सकते हो, यदि तुम समर्पण नहीं करते हो तब भी तुम मेरी सहायता ले सकते हो, लेकिन तुम्हें इस बारे में स्पष्ट करना होगा। यदि तुम समर्पण का मार्ग चुनते हो, तब तुम्हें पूर्ण रूप से मेरा अनुसरण करना होगा। यदि तुम चुनाव करते हो कि तुम समर्पण नहीं कर रहे हो, तब उसका निर्णय कर लो। मैं उस मार्ग पर भी एक मित्र बन सकता हूं और मुझे वहां एक सदगुरु बने रहने की आवश्यकता नहीं है। मैं उस मार्ग पर केवल एक मित्र बना रहूंगा अथवा एक मित्र भी नहीं।
तुम खोज रहे हो और तुम एक अनजबी से पूछते हो- ‘नदी कहां है? नदी तक कौन सा मार्ग जाता है’ जब वह तुम्हें मार्ग बता देता है तो तुम उसे धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाते हो। मैं केवल एक अजनबी की तरह हो सकता हूं। एक मित्र बनाने की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि एक मित्र के साथ भी तुम संबंध बना लेते हो। तो तुम मेरी सहायता ले सकते हो और मेरी सहायता बेशर्त है।
मैं यह नहीं कहता कि ऐसा करो, तब मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। मैं नहीं कहता कि समर्पण करो, केवल तभी मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। लेकिन इतना मैं अनिवार्य रूप से कहता हूं कि जो कुछ तुम्हें पसंद है वही करो, लेकिन उसे समग्रता और पूर्णता से करो। यदि तुम पूर्ण हो तो रूपांतरण निकट हैं, यदि तुम विभाजित हो तो रूपांतरण लगभग असंभव है।
दूसरा प्रश्नः
झेन कथा है कि जब वाकूयां नामक शिष्य ने लंबी दाढ़ी वाले सदगुरु बोधिधर्म का चित्र देखा तो उसने शिकायत की- ‘इन महाशय के पास दाढ़ी क्यों नहीं है’
ओशो! आपके पास भी दाढ़ी क्यों नहीं है?
झेन की परंपरा वास्तव में बहुत सुंदर है। बोधिधर्म ने दाढ़ी बढ़ा रखी है और एक शिष्य पूछता है : ‘इन महाशय ने दाढ़ी क्यों नहीं रखी है’ यह प्रश्न सुंदर है, आकर्षक है, लेकिन केवल एक झेन शिष्य ही ऐसा प्रश्न उठा सकता है क्योंकि दाढ़ी का संबंध बोधिधर्म से नहीं बल्कि उसके शरीर से है। वह शिष्य दाढ़ी विहीन है, क्योंकि शरीर केवल एक घर है। यह प्रश्न व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण प्रतीत होता है, लेकिन यह अर्थपूर्ण है और ऐसे प्रश्न कई बार पूछे गए हैं।
बुद्ध सुबह से लेकर शाम तक, एक गांव से दूसरे गांव में, निरंतर बोलते ही रहते थे, निरंतर चालीस वर्षों तक वह घूम-घूम कर बोलते रहे। एक दिन सारिपुत्र ने उनसे पूछा : ‘आप मौन ही क्यों बने रहे? आप हम लोगों से बात क्यों नहीं करते’ प्रकट रूप से यह प्रश्न असंगत और मूर्खतापूर्ण है। बुद्ध हंसे और उन्होंने कहा : ‘तुम ठीक कहते हो।’ परंतु यह व्यक्ति बातचीत तो कर रहा था, कोई भी व्यक्ति इतना अधिक नहीं बोला है, जितना अधिक बुद्ध बोलते रहे हैं। लेकिन सारिपुत्र भी ठीक कह रहा था, क्योंकि यह बातचीत केवल बाहरी तल पर घटित हुई थी और अंदर से बुद्ध मौन बने रहे।
एक झेन सदगुरु रिंझाई कहा करता था- ‘यह बुद्ध नाम का व्यक्ति न कभी जन्मा, न कभी इस पृथ्वी पर उसने भ्रमण किया और न ही वह कभी मरा, वह केवल एक स्वप्न है।’ परंतु प्रतिदिन रिंझाई मठ में जाया करता और बुद्ध की मूर्ति के सामने झुक कर प्रणाम करता।
तब किसी व्यक्ति ने उससे कहा, ‘रिंझाई! तुम बिल्कुल पागल हो। प्रतिदिन तुम यह दोहराए चले जाते हो कि इस व्यक्ति का न कभी जन्म हुआ, न वह कभी मरा और न कभी पृथ्वी पर उसने भ्रमण किया और उसके बाद भी तुम मंदिर के भीतर जाकर उनकी मूर्ति के सामने झुकते हो, प्रणाम करते हो।’
रिंझाई ने कहा : ‘चूंकि इस व्यक्ति का न कभी जन्म हुआ, न कभी उसने पृथ्वी पर भ्रमण किया और न ही कभी वह मरा, इसी कारण मैं मंदिर जाकर उसकी मूर्ति के सामने झुकता हूं और प्रणाम करता हूं।’
प्रश्नकर्ता ने आग्रह करते हुए कहा : ‘हम आपकी बात नहीं समझ सकते हैं। या तो आप पागल हैं अथवा हम लोग पागल हैं, लेकिन हम लोग समझ नहीं सकते हैं कि आपके कहने का अर्थ क्या है’
रिंझाई ने कहा : ‘इस व्यक्ति का जन्म लेना, मेरे लिए केवल एक स्वप्न था। उसका पृथ्वी पर चलना भी मेरे लिए केवल एक स्वप्न था। उसकी मृत्यु भी सत्य नहीं थी, वह एक लंबे स्वप्न का केवल एक अंत था और यह व्यक्ति सदा ही अपने अस्तित्व के केंद्र पर, जन्म और मृत्यु के पार बना रहा।’
यह कहा जाता है कि बुद्ध हमेशा सातवें स्वर्ग में ही रहे। वह नीचे कभी नहीं आए, यहां केवल उनका प्रतिबिंब प्रकट हुआ था। और यह सत्य है। यह तुम्हारे लिए भी सत्य है। तुम कभी भी नीचे नहीं आए हो, केवल तुम्हारा प्रतिबिंब आया है। लेकिन तुमने प्रतिबिंब के साथ इतना अधिक तादात्म्य बना लिया है कि तुम स्वयं को भूल ही गए हो। तुम सोचते हो कि तुम नीचे आए हो। तुम नीचे आ ही नहीं सकते, अपने सारभूत तत्त्व से नीचे गिरने का कोई भी उपाय नहीं है।
तुम एक नदी में झांककर देख सकते हो, तुम उस नदी में अपने प्रतिबिंब को देख सकते हो और तुम उस प्रतिबिंब के साथ इतना अधिक तादात्म्य बना सकते हो कि तुम्हें लगेगा कि तुम पानी के नीचे ही हो। इस कारण तुम कष्ट भोग सकते हो, तुम घुटन अनुभव कर सकते हो और तुम यह भी अनुभव कर सकते हो कि तुम मरने जा रहे हो। परंतु तुम तो हमेशा नदी के किनारे पर ही खड़े हो, तुम कभी पानी के नीचे गए ही नहीं हो और तुम जा भी नहीं सकते।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि केवल बुद्ध ही नहीं, कोई भी व्यक्ति सातवें स्वर्ग से कभी भी नीचे नहीं आया है। लेकिन कुछ लोग अपने प्रतिबिंबों के साथ तादात्म्य जोड़कर उन्मादित हो जाते हैं। यह वही है, जिसे हिन्दू माया का संसार अर्थात प्रतिबिंबों का संसार कहते हैं। हम ब्रह्म में ही बने रहते हैं, हम शाश्वत रूप से जड़ें जमाए हुए अंतिम सत्य में ही बने रहते हैं। कोई भी कभी नीचे नहीं आता है, लेकिन हम स्वप्न के साथ, प्रतिबिंब के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं।
इसलिए तुम मुझसे ठीक ही पूछते हो कि यह व्यक्ति बिना दाढ़ी का है। यदि तुम मेरे शरीर की ओर देखते हो तो तुम मेरी ओर नहीं देख रहे हो। यदि तुम मेरी ओर देखोगे, तब तुम समझोगे। दाढ़ी स्वयं विकसित नहीं हो सकती। दाढ़ी केवल शरीर पर ही उग सकती है। यह दाढ़ी वास्तव में बहुत प्रतीकात्मक है कि आत्मा जीवित है। शरीर आधा मृत और आधा जीवित है, दाढ़ी तो लगभग मृत है।
तुम्हारे बाल तुम्हारे शरीर के मृत भाग हैं। इसी कारण तुम उन्हें काट सकते हो और काटने पर तुम्हें किसी दर्द का अनुभव नहीं होता है। अपनी उंगुली काटो, तुम दर्द का अनुभव करोगे। तुम्हारे बाल भी तुम्हारे शरीर का भाग हैं, लेकिन यदि तुम उन्हें काटते हो तब तुम किसी दर्द का अनुभव नहीं करते हो। वे शरीर की मृत कोशिकाएं हैं। इसलिए कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यदि तुम एक मुस्लिम कब्रिस्तान में जाओ और एक कब्र खोदकर मृत शरीर को बाहर निकालो, तो हो सकता है कि कब्र में पड़ा हुआ वह व्यक्ति बिना दाढ़ी के मरा हो परंतु अब उसके चेहरे पर दाढ़ी होगी। यहां तक कि मुर्दा शरीरों पर भी दाढ़ियां विकसित हो सकती हैं, क्योंकि दाढ़ियां मृत हैं, वे केवल मृत कोष हैं।
दाढ़ी का विकसित होना अच्छा है, क्योंकि तब दर्पण के सामने खड़े होकर तुम अपनी सभी परतों को देख सकते हो... पूर्ण रूप से मृत परतों को, आधी मृत और आधी जीवित परतों को तथा पूर्ण रूप से जीवंत परतों को देख सकते हो। दाढ़ी पदार्थगत है या पदार्थ है, शरीर में पदार्थ और आत्मा दोनों मिल रहे हैं, मिलन हमेशा कठिन होता है। तुम्हारा शरीर, पदार्थ और आत्मा की एक मिलन भूमि है। जब कभी भी यह मिलन टूटता है, संतुलन नष्ट हो जाता है और तुम मर जाते हो। पदार्थ पुनः पदार्थ में अवशोषित हो जाता है और आत्मा या चेतना पुनः आत्मा में लीन हो जाती है।
यह व्यक्ति भी दाढ़ी विहीन है।
पूरा प्रश्न यही है कि बोधिधर्म पदार्थ क्यों नहीं है? और उत्तर यह है कि आत्मा पदार्थ नहीं बन सकती।
झेन शिष्य एक विशिष्ट ढंग से पूछते हैं। कहीं किसी भी जगह ऐसे प्रश्न नहीं पूछे गए हैं। तुम एक ईसाई-पोप से यह नहीं पूछ सकते- ‘यह जीसस महाशय बिना दाढ़ी के क्यों हैं’ यह प्रश्न ही अधार्मिक समझा जाएगा। तुम जीसस के साथ अधिक अंतरंग नहीं हो सकते। तुम उन्हें एक व्यक्ति अथवा एक मित्र की भांति ‘महाशय’ कहकर संबोधित नहीं कर सकते। यह धार्मिक नहीं लगेगा, पवित्र नहीं लगेगा। तुम्हारा इस प्रकार का आचरण जीसस के प्रति अपमानजनक प्रतीत होगा। परंतु झेन परंपरा के साथ ऐसा नहीं है। झेन कहता है कि यदि तुम अपने सदगुरु से प्रेम करते हो तो तुम उनके संदर्भ में हंस भी सकते हो। यदि तुम उन्हें प्रेम करते हो तो वहां कोई भी भय नहीं होगा। यदि तुम उनसे प्रेम करते हो तो उनके धार्मिक व्यक्ति होने का भय भी मिट जाता है। यदि तुम सदगुरु से प्रेम करते हो तो भय समाप्त हो जाता है।
इसलिए ईसाई धर्मशास्त्रा जब पहली बार झेन परंपरा के प्रति सजग हुए तो वे विश्वास ही न कर सके कि कोई ऐसा धर्म भी मौजूद हो सकता है, क्योंकि झेन भिक्षु बुद्ध का ही हास-परिहास किए चले जाते हैं। कभी-कभी वे ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं कि तुम विश्वास ही नहीं कर सकते। वे बुद्ध के लिए इतना तक कह सकते हैं : ‘यह मूर्ख व्यक्ति’ और यदि तुम उनसे पूछो तो वे कहेंगे- ‘हां, वह मूर्ख था, क्योंकि वह ऐसी बात कहने का प्रयास कर रहा था, जिसको कहा नहीं जा सकता है और वह हमें रूपांतरित करने का प्रयास कर रहा था, जो असंभव है। वह एक मूर्ख व्यक्ति था, वह असंभव को संभव करने का प्रयास कर रहा था।’
झेन सदगुरुओं ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है, जो कोई भी धर्म नहीं कर सकता है। लेकिन इसी कारण मैं कहता हूं कि झेन जैसा धार्मिक कोई भी धर्म नहीं है, क्योंकि यदि तुम वास्तव में प्रेम करते हो, तो भय है कहां? तुम मजाक कर सकते हो, तुम हंस सकते हो और बुद्धत्व को उपलब्ध बुद्ध जैसा व्यक्ति भी तुम्हारे साथ हंसेगा। इस में कोई भी समस्या नहीं हैं। उसके हृदय को चोट का अनुभव नहीं होगा, यदि वह चोट अथवा आघात का अनुभव करता है तो वह किसी भी प्रकार से बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ ही नहीं है। वह यह नहीं कहेगा कि ऐसी तुच्छ और अधार्मिक भाषा का प्रयोग मत करो, क्योंकि बुद्ध के लिए तो समस्त भाषाएं ही तुच्छ और अधार्मिक हैं। बुद्ध के लिए केवल मौन ही धार्मिक है।
इसलिए तुम बुद्ध को चाहे मूर्ख कहो चाहे बुद्ध पुरूष कहो, उनके लिए दोनों ही समान है। भाषा स्वयं में ही अधार्मिक है। केवल मौन ही पवित्र है। इसलिए तुम जो कुछ भी कहते हो, वह सब एक समान है।
यह शिष्य वाकूयां पूछ रहा है : ‘इस बोधिधर्म नामक व्यक्ति के पास दाढ़ी क्यों नहीं है’ बोधिधर्म, झेन परंपरा के प्रथम सदगुरु हैं। बोधिधर्म ने ही इस सदा प्रवाहित होने वाली, नित नूतन झेन सरिता को उत्पन्न किया है।
बोधिधर्म चौदह सौ वर्षों पूर्व चीन गया। जब उसने चीन में प्रवेश किया तो वह अपने दोनों जूतों में से एक को अपने सिर पर रखे हुए चल रहा था। एक जूता उसके पैर में था और एक जूता उसके सिर पर रखा हुआ था। सम्राट स्वयं उसका स्वागत करने आया था। वह बहुत उलझन में पड़ गया कि इस व्यक्ति का यह कैसा शिष्टाचार है? वह इतनी लंबी अवधि से बोधिधर्म की प्रतीक्षा कर रहा था और वह सोच रहा था कि एक महान धार्मिक व्यक्ति, एक असाधारण संत और एक अद्भुत ऋषि आ रहा है, लेकिन यह व्यक्ति तो एक विदूषक के समान व्यवहार कर रहा है। सम्राट बहुत व्याकुल हो उठा और उसने बेचैनी का अनुभव किया। पहला अवसर मिलते ही उसने बोधिधर्म से पूछ लिया, ‘आप यह क्या कर रहे हैं? लोग हंस रहे हैं और वे मुझ पर भी हंस रहे हैं, क्योंकि मैं आपका स्वागत करने आया हूं। आप जिस ढंग से आचरण कर रहे हैं वह बिल्कुल भी उचित नहीं है। आपको एक संत के समान आचरण करना चाहिए।’
बोधिधर्म ने कहा : ‘केवल वे ही लोग, जो संत नहीं हैं... संतों के समान आचरण करते हैं। मैं एक संत हूं। केवल वे लोग जो संत नहीं हैं, संतों के समान व्यवहार करते हैं।’ और वह ठीक कह रहा है, क्योंकि तुम अपने आचरण की फिक्र करते हो, लेकिन यह फिक्र तब ही हो पाती है जब आचरण सहज एवं स्वाभाविक नहीं होता है।
सम्राट ने कहा : ‘मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि एक जूते को आप अपने सिर पर क्यों रखे हुए हैं? आप एक मसखरे की भांति प्रतीत होते हैं।’
बोधिधर्म ने कहा : ‘हां, क्योंकि वह सब कुछ जो देखा जा सकता है, एक मसखरी ही है। केवल जो दिखाई नहीं देता है... आपका यहां एक सम्राट के समान खड़ा होना, विशिष्ट अलंकृत वस्त्र पहनना, सिर पर मुकुट धारण करना, यह सब एक मसखरापन है। केवल आपको यह बताने के लिए ही मैं एक जूते को अपने सिर पर ढो रहा हूं। यह सब कुछ एक अभिनय और मसखरापन ही है। बाहर की इस परिधि पर वास्तविकता नहीं है। मेरी ओर देखिए, मेरे शरीर को मत देखिए। यह प्रतीकात्मक है कि मैं अपने एक जूते को सिर पर रखे हुए हूं। मैं कहता हूं कि जीवन में न तो कुछ धार्मिक है और न ही कुछ अधार्मिक है। यहां तक कि एक जूता भी आपके सिर की भांति धार्मिक और पवित्र है। मैं इस जूते को एक प्रतीक की भांति रखे हुए हूं।’
यह कहा जाता है कि यह सुनकर सम्राट बहुत अधिक प्रभावित हुआ। लेकिन उसने बोधिधर्म से कहा : ‘आप वाकई अनोखे हैं। मैं केवल एक बात आपसे पूछना चाहता हूं कि मैं अपने मन को कैसे शांत रख सकता हूं। मैं बहुत अधिक अधीर, क्षुब्ध, व्याकुल और बेचैन रहता हूं।’
बोधिधर्म ने कहा : ‘आप सुबह चार बजे आ जाइए और अपने मन को भी अपने साथ लेते आइए। मैं उसे शांत बना दूंगा।’
सम्राट भलीभांति समझ न सका। उसने सोचना शुरू कर दिया कि इस व्यक्ति के कहने का क्या अर्थ है : ‘अपने मन को भी अपने साथ ले आना।’ जब वह मंदिर की सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था, जहां कि बोधिधर्म ठहरा हुआ था, बोधिधर्म ने उसे पुनः कहा : ‘याद रहे, अकेले मत आइएगा, अन्यथा मैं किसे शांत करूंगा? मन को अपने साथ लेते आइएगा। ठीक चार बजे आ जाइए और बिना रक्षकों के अकेले ही आइएगा। अन्य कोई भी व्यक्ति साथ में न हो।’
सम्राट पूरी रात सो नहीं सका। वह सोच रहा था- ‘यह व्यक्ति थोड़ा-सा सनकी प्रतीत होता है। जब मैं वहां जाऊंगा तो स्पष्ट है कि मेरा मन भी मेरे साथ ही होगा। इतना आग्रह करने का क्या अर्थ है कि अपने मन को भी अपने साथ जरूर लाइएगा’ एक बार तो उस सम्राट ने सोचा कि बेहतर होगा कि मैं वहां न ही जाऊं, क्योंकि कौन जाने अकेले में वह मुझ पर हमला कर दे या कोई चोट कर दे... उसका विश्वास नहीं किया जा सकता है, उस व्यक्ति के बारे में कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है।
लेकिन अंत में सम्राट ने जाने का निर्णय ले लिया, क्योंकि वास्तव में बोधिधर्म के पास एक चुंबकीय आकर्षण था। उसकी आंखों में कुछ खिंचाव था, एक अग्नि थी जिसका संबंध इस पृथ्वी से नहीं था। उसकी श्वास में कुछ अद्भुत बात थी, एक शांति और ऐसा मौन था जो उस पार के जगत से आता हुआ मालूम होता था। इसलिए सम्राट आया, जैसे मानो वह सम्मोहित कर दिया गया था और जो पहली बात बोधिधर्म ने पूछी, वह थी- ‘ठीक है, आप आ गए हैं। आपका मन कहां है’ उस समय बोधिधर्म एक बड़े डंडे के साथ टिककर बैठा हुआ था।
सम्राट ने कहा : ‘लेकिन जब मैं आ गया हूं तो मेरा मन भी मेरे साथ ही आ गया है। वह मेरे अंदर है। वह किसी वस्तु की भांति नहीं है, जिसे मैं उठाकर साथ ला पाता।’
तब बोधिधर्म ने कहा : ‘ठीक है, तो आप सोचते हैं कि मन आपके अंदर ही है। तब बैठ जाइए और अपनी आंखें बंद कर लीजिए और उस मन को खोजने का प्रयास कीजिए कि वह कहां है? आप बस मुझे इशारा कर दीजिए और मैं उसे शांत बना दूंगा। यहां पर यह डंडा रखा हुआ है और मैं आपके एक इशारे पर आपके मन को शांत कर दूंगा, बिल्कुल भी फिक्र मत कीजिए।’
सम्राट ने अपनी आंखें बंद कीं और अंदर देखने का प्रयास किया और बोधिधर्म ठीक उसके सामने बैठा हुआ था। उसने प्रयास किया, निरंतर प्रयास किया, वह प्रयास करता ही गया। समय बीतता गया और जब सूर्योदय हुआ तो सम्राट का चेहरा पूर्ण रूप से शांत था, तब उसने अपनी आंखें खोलीं। सामने बैठे हुए बोधिधर्म ने पूछा : ‘क्या आप उसे खोज सके’
सम्राट ने हंसना शुरू कर दिया और कहा : ‘आपने उसे ठीक कर दिया है, क्योंकि जितना मैं उसे खोजने का प्रयास करता था, उतना ही मुझे यह अनुभव होता था कि वह मिल नहीं रहा है। वह केवल एक छाया थी और इस छाया के होने का कारण यही था कि मैं कभी भी अपने अंदर गहराई में प्रविष्ट नहीं हुआ था। वह केवल मेरी अनुपस्थिति थी। जब मैं अपने अंदर उपस्थित हो गया तब वह छाया विलुप्त हो गई।
यह बोधिधर्म वास्तव में एक बहुत दुर्लभ व्यक्ति था। उसके शिष्य उसके संदर्भ में हास-परिहास कर सकते थे, उस पर हंस सकते थे और वह उसका आनंद लेता था।
बुद्ध पुरूष एक प्रकार के निरंतर हास्य से आपूरित होता है। बुद्ध पुरूष कभी भी गंभीर व्यक्ति नहीं होता है, जैसी कि आम धारणा है। तुम जहां कहीं भी गंभीरता देखो, तो भलीभांति समझ जाना कि कहीं कुछ गड़बड़ है, क्योंकि गंभीरता रुग्ण चित्त का एक भाग है। कोई भी फूल गंभीर नहीं होता है, जब तक कि वह बीमार न हो। कोई भी पंछी गंभीर नहीं होता है, जब तक कि वह बीमार न हो। कोई भी वृक्ष गंभीर नहीं होता, यदि उसके साथ कुछ गलत न हुआ हो। जब कभी भी कुछ गलत होता है, तब ही गंभीरता घटित होती है। गंभीरता एक बीमारी है। जब प्रत्येक चीज़ ठीक है तो उन्मुक्त हास्य उत्पन्न होता है।
बोधिधर्म निरंतर हंस रहा है और उसका हास्य नाभि से उठने वाला एक अट्टहास है, वह एक गर्जना है। उसके शिष्य जब प्रश्न पूछा करते थे तो सिवाय बोधिधर्म के अन्य कोई भी व्यक्ति उत्तर नहीं दे सकता था।
और मैं तुमसे कहता हूं कि वह व्यक्ति बिना दाढ़ी का था, यहां बैठा यह व्यक्ति भी बिना दाढ़ी का है।
तीसरा प्रश्नः
झेन फकीर गोसो ने एक दिन पूछा : ‘जब तुम राह में एक सदगुरु से मिलते हो, तब तुम उससे बातचीत नहीं कर सकते और न ही तुम उसके साथ मौन रह पाते हो। ऐसे में तुम्हें क्या करना चाहिए’
ओशो! जब हम यहां इस स्थान में ‘गुरुओं के गुरु’ से मिलते हैं, तब हमें क्या करना चाहिए?
हां, यह सत्य है। जब तुम सड़क पर एक झेन सदगुरु से मिलते हो, तुम उसके साथ बातचीत नहीं कर सकते, क्योंकि तुम उसके साथ किस बारे में और क्या बात कर सकते हो? तुम्हारे संसार बहुत अधिक भिन्न हैं और तुम्हारी भाषाएं दो विभिन्न आयामों से संबंधित हैं। तुम उसके साथ किस बारे में बात कर सकते हो? तुम उससे क्या पूछ सकते हो? क्या कोई प्रश्न वास्तव में पूछने योग्य है? क्या कोई प्रश्न वास्तव में अर्थपूर्ण है? जब तुम एक झेन सदगुरु से मिलते हो तो तुम उससे किस बारे में बात करोगे? तुम जिस बारे में बात कर सकते हो, वह सब इस संसार से, इस तुच्छ बाजार से, घर और परिवार से संबंध रखता है। वह सभी कुछ, जिसके बारे में तुम बात कर सकते हो या वह सब जो तुम हो, वह बिल्कुल ही व्यर्थ है।
यह सत्य है। जब तुम मार्ग पर एक झेन सदगुरु से मिलते हो और तुम एक सदगुरु से हमेशा मार्ग पर ही मिलते हो, क्योंकि सदगुरु हमेशा गतिशील रहता है। तुम उससे अन्य किसी और जगह पर मिल ही नहीं सकते। स्मरण रहे, तुम एक सदगुरु से हमेशा मार्ग पर ही मिलते हो, क्योंकि वह हमेशा भ्रमण कर रहा है। वह एक नदी की भांति है, कभी भी स्थिर नहीं है और कभी भी अचल नहीं है। यदि तुम उसके साथ गति नहीं कर सकते हो तो तुम उससे चूक जाओगे। वह हमेशा ही गतिशील है। तुम हमेशा उससे मार्ग पर ही मिलते हो।
तुम किस बारे में उससे बात कर सकते हो? तुम मौन भी नहीं रह सकते हो, क्योंकि तुम्हारे लिए मौन बने रहना लगभग असंभव है। तुम उससे बातचीत भी नहीं कर सकते, क्योंकि सदगुरु का संबंध एक भिन्न संसार से है। तुम मौन भी नहीं रह सकते, क्योंकि तुम जिस संसार के हिस्से हो, वह कभी भी मौन नहीं रहता है। तुम्हारा मन बक-बक किए चले जाता है। तुम्हारा मन निरंतर बक-बक करने वाला एक स्वचालित यंत्र है। संगत और असंगत विचार उसमें चलते ही रहते हैं और इन अनर्गल विचारों का कहीं कोई अंत ही नहीं है, वे एक दुष्चक्र की भांति घूमते रहते हैं।
तुम मौन भी नहीं रह सकते और तुम बातचीत भी नहीं कर सकते, तब करना क्या है? यदि तुम बातचीत करना शुरू करते हो तो वह एक मूर्खता होगी। यदि तुम मौन बने रहना चाहो, तो वह संभव नहीं होगा। अच्छा यही है कि तुम स्वयं कोई भी निर्णय न लो। सदगुरु से ही पूछो कि क्या करना है? सदगुरु से कहो कि- ‘मैं बातचीत नहीं कर सकता क्योंकि हम लोग भिन्न-भिन्न संसारों के हिस्से हैं। मैं जो कुछ भी पूछूंगा, वह निरर्थक होगा और जो कुछ भी आप उत्तर देंगे, मैं उस पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता। मैं जो कुछ भी प्रश्न करूंगा वे निरर्थक हैं और वे उत्तर देने योग्य भी नहीं है। मैं मौन भी नहीं रह सकता, क्योंकि मैं नहीं जानता कि मौन क्या होता है? मैंने मौन को कभी जाना ही नहीं है, कभी भी मौन मुझे घटित नहीं हुआ है। मैं केवल एक तरह का ही मौन जानता हूं, वह मौन जो दो विचारों के मध्य एक अंतराल की भांति आता है और वह मौन जो दो शब्दों के मध्य एक अंतराल की भांति बना रहता है।’
हमारी शांति ठीक उस शांति की भांति है, जो दो युद्धों के बीच होती है। यह वास्तविक शांति नहीं है, यह तो केवल एक अन्य युद्ध की तैयारी है। वह शांति कैसे हो सकती है जो युद्धों के बीच सेतु का कार्य करती है। अंतर केवल इतना ही है कि इस सेतु के नीचे भी भूमिगत रूप से युद्ध चलता रहता है। यह एक तरह का शीत-युद्ध है, यह किसी भी कीमत पर शांति नहीं है। हमारी शांति और मौन ठीक ऐसा ही है।
इसलिए सदगुरु से कहो- ‘मैं मौन भी नहीं रह सकता और मैं बात भी नहीं कर सकता, इसलिए मुझे बताइये कि क्या करना चाहिए’ अपनी ओर से कुछ भी शुरू मत करो, क्योंकि तुम जो भी शुरूआत करोगे वह गलत ही होगी। बातचीत अथवा मौन- तुम जो भी शुरू करोगे, वह गलत ही होगा। बस, प्रत्येक चीज़ सदगुरु पर छोड़ दो और उनसे ही पूछो- ‘मुझे क्या करना है’ यदि वह कहते हैं कि बात करो तब बातचीत करना और यदि वह कहते हैं कि मौन बने रहो तब शांत और मौन होने का प्रयास करना। सदगुरु जानता है और वह केवल वही बात कहेगा, जो तुम्हारे लिए संभव होगी।
अंतिम रूप से वह असंभव के बारे में बताएगा, लेकिन प्रारंभ में कभी नहीं। अंत में वह असंभव के बारे में कहेगा, क्योंकि तब तक वह संभव हो गया होगा। लेकिन प्रारंभ में वह केवल संभव के बारे में कहेगा। धीमे-धीमे वह तुम्हें उस अंतिम गहन खाई की ओर धकेलेगा, जहां असंभव घटित होता है। यदि वह कहता है : बातचीत करो, तभी बात करना। तब तुम्हारा बात करना भी तुम्हारे लिए एक सहायता होगी। लेकिन तब तुम वास्तव में बात नहीं कर रहे हो, तुम केवल एक रेचन की क्रिया कर रहे हो। तुम अपने मन को बाहर ला रहे हो, तुम मन को बाहर लाने का कार्य कर रहे हो। तुम स्वयं को खोल रहे हो। तुम कुछ कह नहीं रहे हो, बल्कि तुम अपने को उघाड़ रहे हो। यह खुलना, यह उघाड़ना तुम्हारी सहायता करेगा। तुम भार से मुक्त हो जाओगे।
जब एक सदगुरु तुम्हारे निकट होता है, और तुम वास्तव में इतने सच्चे और निष्कपट हो सको कि जो भी तुम्हारे भीतर उठ रहा है, उसे कह सको... संगत-असंगत, सही-गलत, अपनी परवाह किए बिना, बिना किसी जोड़-तोड़ के, बिना किसी गणना के, बिना किसी नियंत्रण के, बिना किसी व्यवस्था के, वह सब कुछ जो तुम्हारे अंदर से बाहर आ रहा है, यदि सदगुरु के सामने तुम वह सब कह सको तो यह एक तरह की ‘जिबरिश’ होगी। यदि तुम नियंत्रित न करो तो वह सब एक पागल आदमी की बातों की तरह होगा।
लेकिन जब एक सदगुरु तुम्हारे निकट होता है और यदि तुम निष्कपट, ईमानदार और सच्चे हो तो अपने मन को बाहर लाओ और तब सदगुरु पिछले दरवाजे से तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होगा। सामने वाले मुख्य द्वार से तुम्हारा मन बाहर जा रहा है और पिछले द्वार से सदगुरु तुम्हारे अंदर प्रवेश कर रहा है।
इसलिए जब लॅान में मेरे निकट होते हो, तो ईमानदार और सच्चे बने रहो। ऐसे प्रश्न मत करो, जो बुद्धिगत हों, वे निरर्थक हैं। आध्यात्मिक तत्त्व-मीमांसा और सैद्धांतिक दर्शन संसार में सबसे अधिक निरर्थक बात है। कोई भी सैद्धांतिक दर्शन संबंधी प्रश्न मत करो, वे सत्य नहीं हैं और वे तुम्हारे हैं भी नहीं। हो सकता है उनके बारे में तुमने सुना अथवा पढ़ा हो, लेकिन वे तुम्हारे अपने नहीं हैं। अपनी व्यर्थ की बातों को, वे चाहे जो भी हों, बाहर लाओ और उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास मत करो। अपनी बातों को प्रमाण देकर सत्य सिद्ध करने की कोशिश न करो और उन पर रंग-रोगन लगाने का प्रयास मत करो। जितना अधिक संभव हो अपनी बातों को कच्चा, अधूरा और प्रामाणिक बना रहने दो क्योंकि एक सदगुरु के सामने तुम्हें नवजात शिशु की तरह नग्न हो जाना चाहिए। तुम्हें सिद्धांतों के वस्त्र पहनकर स्वयं को छिपाना नहीं चाहिए।
ऐसा करना अपने को उघाड़ना है और यदि तुम अपने हृदय को खोलते हुए बात कर सको, किसी भी चीज़ के लिए व्यर्थ पूछताछ या जांच पड़ताल न करते हुए, केवल अपने हृदय को पूर्णता से खोल सको, तब ही भीतर एक मौन उतरेगा, क्योंकि जब तुमने अपने मन को खुलकर प्रकट कर दिया है और इसके द्वारा तुम एक रेचन क्रिया से गुज़र चुके हो, तो निश्चित ही मौन और शांति उतर आती है। यह बलपूर्वक साधा हुआ, एक नियंत्रित मौन नहीं जो तुम्हारे किसी प्रयास के द्वारा साधा गया हो, यह एक बिल्कुल अलग तरह का मौन है।
जब तुमने अपने मन को पूरी तरह प्रकट कर दिया है, जो भी भीतर छुपा है, उसे उघाड़ दिया है तब तुम्हारे ऊपर एक मौन अवतरित होता है, एक ऐसा मौन आता है जो तुम्हें अभिभूत कर देता है, एक ऐसा मौन जो समझ के पार है, एक ऐसा मौन जो स्वयं तुमसे भी पार है। वह ऐसा मौन है जो किसी व्यक्ति विशेष का न होकर संपूर्ण अस्तित्व का है। तब तुम दोनों ही हो सकते हो। तब तुम एक झेन सदगुरु के साथ मार्ग पर चलते हुए बातचीत भी कर सकते हो और मौन भी रह सकते हो।
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