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शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

तमसो मा ज्योतिर्गमय-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन--जीवन की भाषा

मेरे प्रिय आत्मन्!
बीती चर्चाओं के संबंध में और बहुत से नये भी प्रश्न मित्रों ने किए हैं। आज की सांझ मैं उन प्रश्नों पर बात करना चाहूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि पंद्रहवी अगस्त या इस तरह के और त्यौहार मनाना उचित है या नहीं, आप क्या कहते हैं?
सवाल पंद्रह अगस्त का ही नहीं है, सवाल जीवन के सब रिचुअल, सब क्रियाकांडों का है। चाहे क्रियाकांड धार्मिक हो, चाहे राजनैतिक, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मन के अंतरभाव से जो भी उठे, वह ठीक है। और जो भी मनाना पड़े, वह बिल्कुल ठीक नहीं है।
आजादी का एक आनंद अगर अनुभव हो, तो वह प्रकट होगा। स्वतंत्रता का एक बोध अगर अनुभव हो, तो वह प्रकट होगा। लेकिन वह बोध किसी को भी अनुभव नहीं होता। फिर एक मरा हुआ त्यौहार हाथ में रह जाता है। फिर हर वर्ष उसे हम दोहराए चले जाते हैं।

झंडे फहरा देते हैं, मन की कोई ऊंचाई उसके साथ नहीं फैलती। गीत गा लेते हैं, मन कोई गीत नहीं गाता। उत्सव, रंग-बिरंगे फूल लगा लेते हैं, लेकिन भीतर कोई फूल नहीं लगते। हमारा सारा जीवन ही जैसे झूठ पर खड़ा है। और हम सब कुछ झूठ कर लेते हैं।
हमारे त्यौहार झूठ हैं, हमारे सम्मान झूठ हैं, हमारी बातें झूठ हैं। हम जो भी करते हैं वह झूठ हो जाता है; क्योंकि बहुत गहरे में हम ही झूठ हैं। हमारा किया हुआ सब झूठ हो जाता है।
मैं नहीं कहता हूं, कोई त्यौहार मनाएं। होना तो ऐसा चाहिए कि पूरी जिंदगी एक त्यौहार हो। होना तो ऐसा चाहिए कि सुबह-सांझ एक-एक क्षण जीवन का एक आनंद का क्षण हो। चूंकि ऐसा नहीं है, इसलिए हमें खुशी के त्यौहार मनाने पड़ते हैं। चूंकि जिंदगी बिल्कुल दुख से भरी है। सुबह से सांझ वर्ष भर हम दुख से भरे हैं, तो अंधेरा ही अंधेरा है, तो फिर हमें दीवाली मनानी पड़ती है। दीये जला कर हम सोचते हैं कि रोशनी हो जाएगी।
जिंदगी गुलामी से भरी है, सुबह से सांझ तक गुलामी के हजार रूप हमारे ऊपर चढ़े हैं। अंग्रेजों के जाने से गुलामी नहीं जाती। चित्त गुलाम होने के हजार रास्ते जानता है। हजार तरह से हम गुलाम हैं, सुबह से सांझ तक। एक दिन स्वतंत्रता का दिन मना लेते हैं। जब तक दुनिया में गुलामी चलती है, हजार-हजार रूपों में तब तक स्वतंत्रता के त्यौहार मनाए जाते रहेंगे। क्योंकि आदमी की जिंदगी में स्वतंत्रता नहीं है, सिर्फ त्यौहार ही मनाए जा सकते हैं।
स्वतंत्रता होनी चाहिए, स्वतंत्रता के त्यौहार का कोई भी मूल्य नहीं है। और स्वतंत्रता होगी जीवन में, तो सारा जीवन एक खुशी का और एक आनंद का और एक नाचता हुआ जीवन हो जाएगा।
लेकिन पंद्रह अगस्त मना रहे हैं। वह तो प्रतीक की बात है। खुशी कहां है? आनंद कहां है? स्वतंत्रता का प्रेम कहां है? स्वतंत्रता का उल्लास कहां है? स्वतंत्र होने की वृत्ति कहां है? वृत्ति तो गुलाम होने की है, और गुलाम बनाने की है।
आप कहेंगे, हम तो किसी को गुलाम नहीं बनाए हुए हैं। तो अपनी जिंदगी खोजने से पता चलेगा कि बाप बेटे को गुलाम बनाए हुए हैं या नहीं। और पति पत्नी को गुलाम हुए बनाए हैं या नहीं? और मां अपने बच्चों को गुलाम बनाए हुए हैं या नहीं? गुरु अपने विद्यार्थियों को गुलाम बनाने की सब कोशिश कर रहा है या नहीं?
चैबीस घंटे हम दूसरे को गुलाम बनाने की कोशिश में लगे हैं, और कोई हमें भी गुलाम बनाने की कोशिश में लगा है। सारी जिंदगी गुलामी की कहानी है। और स्वतंत्रता के हम त्यौहार मनाते हैं। वे त्यौहार झूठे हो जाते हैं।
गुलाम आदमी स्वतंत्रता के त्यौहार कैसे मना सकते हैं? नहीं, दुनिया में स्वतंत्रता के त्यौहार नहीं चाहिए, स्वतंत्रता चाहिए। और स्वतंत्रता होगी तो सारी जिंदगी एक त्यौहार होगी; क्योंकि गुलामी से बड़ा बोझ और गुलामी से बड़ा दुख और क्या हो सकता है?
लेकिन समझें, हम एक ऐसी दुनिया हों जहां सारे लोग बीमार हों और वर्ष में एक दिन स्वास्थ्य का दिन, हेल्थ डे मनाया जाता हो। तीन सौ चैंसठ दिन लोग बीमार रहते हों और एक दिन स्वास्थ्य का दिन मनाते हों, झंडे फहराते हों, फूल लुटाते हों, नेताओं का स्वागत करते हों, उन्हीं नेताओं का जो बीमारी में उनसे आगे हैं, तभी तो नेता हो सकते हैं बीमारों के। और काफी शोरगुल मचाते हों, बहुत प्रसन्न होते हों, लेकिन वह प्रसन्नता झूठी होगी। क्योंकि तीन सौ चैंसठ दिन जो बीमार रहा है वह तीन सौ पैंसठवे दिन स्वस्थ कैसे हो जाएगा? ऊपर से चिपकाई हुई होगी, कागजी होगी। भीतर दिल रोता रहेगा, बीमारी सरकती रहेगी, ऊपर स्वास्थ्य का दिन मनाया जाता है। यह दुनिया पसंद करेंगे आप या एक ऐसी दुनिया जहां लोग स्वस्थ हों, जहां स्वास्थ्य का कोई दिवस न मनाया जाता हो, लेकिन लोग स्वस्थ हों? लोग स्वस्थ जीते हों, जहां स्वास्थ्य का आनंद और पुलक हो?
अभी ऐसी ही हालत है, सारी दुनिया में, हर देश स्वतंत्रता के दिन मनाता है और देश का मन पूरा का पूरा गुलाम बनता चला जाता है। एक-एक आदमी गुलाम है और गुलाम बनाने में लगा है। चैबीस घंटे हम हजार तरह की गुलामी थोप रहे हैं।
एक आदमी धन इकट्ठा कर रहा है। आप जानते हैं क्यों इकट्ठा कर रहा है? जितना ज्यादा धन उसके पास होगा उतने ज्यादा लोगों को गुलाम करने की पोंटेशियल फोर्स, उसके पास बुनियादी शक्ति होगी। वह उतने लोगों को गुलाम बना सकता है।
मेरे खीसे में एक रुपया पड़ा है, एक रुपया नहीं पड़ा है, अगर मैं चाहूं तो एक आदमी से रात भर पैर दबवा सकता हूं। एक आदमी मेरे खीसे में बंद है। मेरे खीसे में एक रुपया है, मैं चाहूं तो एक आदमी के कंधे पर बैठ कर मील भर जा सकता हूं। एक आदमी मेरे खीसे में बंद है। मैं चाहूं, तो एक रुपया है मेरे पास, एक आदमी को कहूं, नाचो, तो एक आदमी को मैं नचा सकता हूं। मेरे पास गुलाम बनाने की ताकत कैद है।
धन की दौड़ दूसरे को गुलाम बनाने की गहरी दौड़ है, चाहे पता हो, चाहे पता न हो। और धन की दौड़ दूसरा मुझे गुलाम न बना ले, इसकी भी दौड़ है कि अगर मैं निर्धन रहा, तो कोई मुझे गुलाम बनाएगा। पद की दौड़ भी दूसरों को गुलाम बनाने की दौड़ है। कितने लोग मेरे हाथ में हैं।
हिटलर को मजा क्या होगा? क्या आनंद होगा हिटलर को? उसकी जिंदगी में कोई आनंद नहीं दिखाई पड़ता। सिवाय एक और यह आनंद बड़ा रुग्ण और बीमार है..कि इतने लोग मेरी मुट्ठी में हैं, इनको मैं चाहूं तो अभी दबा दूं गर्दन, तो ये विलीन हो जाएं।
स्टैलिन को क्या सुख रहा होगा? या माओ को क्या सुख रहा होगा? कितने लोग मेरे हाथ में हैं; दुनिया के राजाओं-महाराजाओं को, सिकंदरों, नेपोलियनों को, चंगीजखानों को क्या सुख है? कितने बड़े घेरे पर कितने लोगों को मैं मुट्ठी में कर लेता हूं।
आप सोचते होंगे, हम तो चंगीज खान नहीं हैं, लेकिन एक पत्नी को आपने भी गर्दन बांध कर खड़ा कर रखा है। वह पत्नी भी आपको छोड़ती नहीं, उसने भी आपकी गर्दन बांध रखी है। एक बेटे ने अपने बाप को बांध रखा है, बाप ने बेटे को बांध रखा है।
जितनी जिसकी ताकत है उतना हम बंधन पैदा करते हैं, गुलामी पैदा करते हैं, और स्वतंत्रता के दिवस मनाए चले जाते हैं। इन स्वतंत्रता के दिवसों का अर्थ क्या हो सकता है?
नहीं ये डेड सिंबल्स रह जाते हैं। सिर्फ एक कहानी और इतिहास की घटना रह जाती है। लेकिन स्वतंत्रता का भाव इनसे कहीं हमारे भीतर पैदा नहीं होता है। मगर एक सुविधा होती है त्यौहार मना लेने से कि ऐसा लगता है कि हम भी स्वतंत्रता को प्रेम करने वाले लोग हैं, हम भी स्वतंत्रता को सम्मान देने वाले लोग हैं, हम भी स्वतंत्र हैं। ऐसा सुख एक दिन मिल जाता है। फिर गुलामी का ढांचा दूसरे दिन सुबह शुरू हो जाता है। उस दिन भी जारी रहता है, खत्म तो नहीं हो जाता, झंडे फहराने से क्या होने वाला है? मैं नहीं कहता हूं, स्वतंत्रता के त्यौहार मनाएं, मैं कहता हूं, स्वतंत्र होना सीखें, स्वतंत्र हों।
और ध्यान रहे, गुलामी सिर्फ राजनैतिक नहीं है। राजनैतिक गुलामी दुनिया में सबसे कमजोर गुलामी है, जो तोड़ी जा सकती है। सबसे आसान ढंग से तोड़ी जा सकती है। राजनैतिक गुलामी दुनिया की सबसे कमजोर गुलामी है, जो बहुत आसानी से तोड़ी जा सकती है। राजनैतिक रूप से भी वे ही लोग गुलाम हो सकते हैं जो आध्यात्मिक रूप से गुलाम रहे हों। नहीं तो वे गुलाम भी नहीं हो सकते।
जो आदमी मरने की हिम्मत रखता है उसे कोई दुनिया में कोई कभी उसे गुलाम नहीं बना सकता है राजनैतिक रूप से। लेकिन कुछ कौमें मरने की हिम्मत खो देती हैं। फिर वे गुलाम हो जाती हैं। फिर चाहे वे स्वतंत्र दिखाई पड़ें, बहुत गहरे में उनकी गुलामी जारी रहती है।
और भी गुलामियां हैं, जो राजनैतिक गुलामी से ज्यादा गहरी हैं और खतरनाक हैं। मुझे अगर एक कारागृह में डाल दिया जाए तो मेरे शरीर को ही गुलाम बनाया गया है, मुझे नहीं। चूंकि मेरी आत्मा जिन ऊंचाइयों पर उड़ती है, उड़ती रहेगी। और मेरे प्राण जिन गीतों को गाते हैं, गाते रहेंगे। सिर्फ मेरे हाथ-पैर बंधन में हो जाएंगे, एक दीवाल आ जाएगी जिसके बाहर मैं नहीं जा सकता। लेकिन मैं, मेरे भीतर दुनिया का कोई ऐसा आकाश नहीं है जिसे न छू सकूं और कोई तारा नहीं है जो मेरे सपनों में न उभर सके। मैं आजाद रहूंगा, सिर्फ शरीर पर एक सीमा बंध जाएगी।
लेकिन यह हो सकता है कि मैं कारागृह के बाहर हूं, दीवालें मुझे बांधे हुए नहीं हैं, हाथ में जंजीरें नहीं हैं। और मेरी आत्मा न किसी ऊंचाई पर कभी उड़ती है और न किसी तारे का सपना देखती है। और मुक्ति की कोई कल्पना भी नहीं है मेरे मन में, तो मैं ज्यादा गुलाम हूं। लेकिन आदमी गुलाम होना चाहता है और स्वतंत्रता की बातें करता है।
हर आदमी गुलाम होना चाहता है। क्यों? क्योंकि गुलामी बड़ी कनवीनियंट, बड़ी सुविधापूर्ण है। स्वतंत्रता बड़ी रिस्पांसिबिलिटी है। स्वतंत्रता बहुत बड़ा दायित्व है। गुलामी में जिम्मा दूसरा है, दूसरे का है। गुलामी में हम जिम्मेवार नहीं हैं।
गुलाम आदमी की अपनी कोई आत्मा नहीं है। इसलिए अपना कोई उत्तरदायित्व, कोई बोझ भी नहीं है। इसलिए हर आदमी गुलाम होना चाहता है। स्त्री गुलाम होना चाहती है, नहीं तो कोई पुरुष कैसे गुलाम बना ले? वह किसी पुरुष के कंधे पर हाथ रख कर कहती है, तुम्हारे सहारे के बिना नहीं जी सकती हूं। वह गुलामी खोज रही है, वह गुलामी खोजेगी। वह अपने प्रेमी के पास खड़े होकर रास्ता देखती है कि गड्ढा पार करना है, तो वह हाथ बढ़ाए। और जो प्रेमी हाथ बढ़ाएगा, उससे खुश होगी। लेकिन वह जानती नहीं है, जिसका हाथ पकड़ कर गड्ढा की छलांग लगाई है, उसकी गुलामी शुरू हो गई। अगर स्त्री को मुक्त होना है, तो उसे प्रेमी से कहना चाहिए, अपना हाथ दूर रखो, मैं खुद भी गड्ढे को पार कर सकती हूं। यह हाथ गुलामी का हाथ है। लेकिन बड़ा प्रीतिपूर्ण मालूम पड़ता है।
हम सब भीतर से गुलाम होना चाहते हैं और स्वतंत्रता के त्यौहार मनाते हैं। हम सब गुलाम हैं शास्त्रों के, सिद्धांतों के, गुरुओं के, धर्मों के। हमने कभी भीतर से स्वतंत्रता की कोई पुकार नहीं की है, हमने कभी स्वतंत्र नहीं होना चाहा। गुरुओं के पैर पकड़े हुए हैं लोग। ये पैरों की जंजीरें लोहे की जंजीरों से ज्यादा खतरनाक हैं। लोग मरे हुए गुरुओं की मजार पर सिर झुकाए घुटने टेके बैठे हुए हैं। लोग पत्थर की मूर्तियों के सामने पड़े हुए हैं और रो रहे हैं और चिल्ला रहे हैं। हमारी भीतरी गुलामी बहुत ज्यादा है। फिर ये ही लोग स्वतंत्रता के दिवस भी मनाए चले जाते हैं।
नहीं, इन स्वतंत्रता के दिवसों का कोई उपयोग बच्चों के खेल से ज्यादा नहीं है। प्राइमरी के स्कूल तक ठीक हैं, उसके आगे बहुत बेहूदे मालूम पड़ते हैं। और वैसे भी प्राइमरी स्कूल के सिवाय कौन मनाता है। और प्राइमरी स्कूल के बेचारे बच्चे और शिक्षक तो जो भी कहो वही मनाते हैं। अंग्रेजों की विक्ट्री होती तो विक्ट्री डे मनाते, वे ही बच्चे, वे ही शिक्षक। वे ही शिक्षक, वे ही बच्चे अब स्वतंत्रता दिवस भी मनाते हैं। कल मुल्क गुलाम हो जाए, वे ही बच्चे प्राइमरी स्कूल के गुलामी का भी गुणगान करने लगेंगे। प्राइमरी स्कूल के बच्चों के साथ तो जो भी अनाचार करना हो, किया जा सकता है।
लेकिन हम सब भी बच्चों जैसा ही व्यवहार करते हैं। हम भी बहुत गहरे में चाइल्डिश और बचकाने ही होते हैं। मुक्त नहीं हो पाते बचपन से। इसीलिए तो हमें अजीब चीजें प्रभावित करती हैं। अब एक झंडा है, उसको हम चढ़ा रहे हैं। दुनिया के किसी कोने में बच्चों को यह खेल अच्छा मालूम होना चाहिए कि उन्होंने एक डंडे पर कागज को या कपड़े के टुकड़े को लगा कर चढ़ा दिया है, नमस्कार कर रहे हैं!
अगर कहीं चांद-तारों पर, कहीं मंगल पर, शुक्र पर कहीं भी कोई चेतना होगी, कोई प्राणी होंगे और हमें नीचे देखते होंगे, तो बड़े हैरान होते होंगे कि मनुष्यता को क्या हो गया है? डंडों पर कपड़े बांध लेते हैं और नमस्कार करते हैं? सोचते होंगे न वह, कि क्या आदमी क्या करता है? आदमी पागल तो नहीं है? यह कर क्या रहा है?
अगर हमें भी समझ आएगी, तो बहुत पागलपन मालूम पड़ेगा। युनिवर्सिटी में जाकर देखें। युनिवर्सिटी का कनवोकेशन हो रहा हो तब देखें, डीन और वाइस चांसलर और चांसलर काले चोगे पहने हुए और सर्कस के .जोकरों को टोपी लगानी चाहिए वह टोपी लगाए हुए मंच पर चले आ रहे हैं। और बड़े गुरु गंभीर, बड़े सीरियस।
बच्चे यह खेल करें, शोभा देता है, वाइस चांसलर्स और चांसलर यह खेल करें, तो यह युनिवर्सिटीज की नाव डूबने ही वाली है। यह कहीं जाने वाली नहीं है। यह बच्चों जैसा खिलवाड़...लेकिन हम, हम भी बैठ कर गंभीरता से देख रहे हैं कि कोई बहुत बड़ा काम हो रहा है।
राम-लीला देख रहे हैं, नाटक देख रहे हैं, यह क्या देख रहे हैं? नेतागण बड़े सजे-वजे खड़े हैं, झंडे फहरा रहे हैं। नेतागण बड़े तैयार हैं। नाटक कर रहे हैं मंचों पर और हम सब देख रहे हैं। और सोचते हैं, स्वतंत्रता पूरी हो गई, स्वतंत्रता आ गई।
स्वतंत्रता इतनी सस्ती चीज नहीं है कि ऐसे आ जाए। स्वतंत्रता अंग्रेजों के छोड़ने से नहीं आती। अंग्रेजों के छोड़ने से सिर्फ एक तरह की गुलामी टूटती है। और गुलामी हजार तरह की हैं। अंग्रेजों के छोड़ने से सिर्फ एक तरह की गुलामी टूटती है। लेकिन वह जो आदमी गुलाम था, अगर उसका मन वही का वही है, तो उस आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ता, वह गुलाम ही बना रहता है। आदमी स्वतंत्र नहीं होता। हम अंग्रेजों से मुक्त होकर स्वतंत्र नहीं हो जाते हैं।
स्वतंत्र होने के लिए भीतर हमारे स्वतंत्रता के कोई नये आयाम खुलने चाहिए। अगर हम वही के वही लोग हैं जो आजादी के पहले थे, क्या फर्क पड़ गया है हिंदुस्तान के आदमी में? आदमी के मन में क्या फर्क पड़ गया?
हां, कुछ फर्क पड़ गए हैं। जहां अंग्रेज खड़ा हुआ था वहां काला आदमी खड़ा हो गया है। गोरे आदमी की जगह काला आदमी खड़ा है। और निश्चित ही काला आदमी ज्यादा अकड़ कर खड़ा हुआ है। क्योंकि उसको डर भी नहीं है कि हम तो तुम्हारे ही बीच से हैं, कोई डर नहीं है। अंग्रेज तो डरा भी हुआ था थोड़ा। आज नहीं कल उसे हट ही जाना पड़ेगा। काला आदमी ज्यादा अकड़ कर खड़ा हुआ है।
अंग्रेज जितनी गोली चलाता था इस मुल्क में, हमारे काले आदमी ने उससे बहुत ज्यादा गोली चलाई है। यह कैसी स्वतंत्रता है? अंग्रेजों ने इतनी गोलियां नहीं चलाईं। हमारा आदमी इतनी गोलियां चलाता है कि घबड़ाने वाला मामला है। निहत्थे बच्चों पर गोलियां चलाता है..स्कूल के, कालेज के लड़के और लड़कियों पर गोलियां चलाता है। स्वतंत्रता कैसी है यह?
और हमको भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम भी इसको झेल लेते हैं। समझते हैं कि यह ठीक ऐसा ही होता है जैसा हो रहा है। यह गुलामी में होता, तो ठीक मालूम पड़ता था। यह आजादी में होता है, तो यह आजादी बड़ी बेमानी मालूम पड़ती है। लेकिन हम भी देखते हैं और चुपचाप सह लेते हैं।
कितनी गोली चली है उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद आज तक! कितनी लाठी चली है! कितने गैस के गोले फोड़े गए हैं! वही का वही रवैया सब जारी है। सत्ता वही रुख रखती है। आदमी के साथ वही व्यवहार करती है।
जाएं पुलिसथाने में, गाली में कोई फर्क पड़ गया है? इतना ही फर्क पड़ा है..अंग्रेज अंग्रेजी में गाली देता था। अंग्रेजी में गालियां उतनी अभद्र नहीं हैं। वह आदमी हिंदी में गाली देता है, गुजराती में गाली देता है, वह बहुत भद्दी है। अंग्रेज की गाली ठीक से समझ में भी नहीं आती थी, इसकी गाली पूरी ठीक से समझ में आती है, और हम हाथ जोड़ कर उसको पी जाते हैं। कैसी आजादी? आजादी का मतलब क्या होता है? आजादी के भाव का क्या मतलब है?
व्यक्तित्व की गरिमा, आजादी का मतलब होता है: एक-एक व्यक्ति का मूल्य। लेकिन क्या मूल्य है इस देश में अभी व्यक्ति का? कोई मूल्य नहीं है किसी व्यक्ति का। व्यक्तित्व का मूल्य ही आजादी का अर्थ है। अपने से विरोधी व्यक्ति का भी उतना ही मूल्य है जितना अपना।
आजादी का अर्थ है: एक-एक आदमी को स्वयं होने की स्वतंत्रता, आजादी का अर्थ है। लेकिन वह सब बात कहीं भी नहीं है। बस आजादी का त्यौहार है। वह साल में आ जाता है। सरकारी आदमी उसको मना लेते हैं। गैर-सरकारी आदमियों को अगर बतासा वगैरह मिलता हो, तो वे भी पहुंच जाते हैं, और उसका कोई मतलब नहीं है।
मैं त्यौहार मनाने के पक्ष में नहीं, स्वतंत्रता की आत्मा पैदा होने के पक्ष में हूं। त्यौहार बच्चे मनाते रहेंगे। कुछ बच्चे हैं, जिनको गुड्डा-गुड्डी खेलने को चाहिए। वे खेलते रहेंगे। उनको खेलने दो। उनके खेल में भी बाधा डालने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन स्वतंत्रता का भाव पैदा होना चाहिए। मैं समझता हूं, अभी भी, इस देश के मन में स्वतंत्रता का कोई भाव नहीं है। अगर कल चीन इस मुल्क पर हावी हो जाए, तो हम उस गुलामी के सामने वैसे ही झुक जाएंगे, ईल्ड कर जाएंगे, जैसे हम पहले कभी किसी गुलामी के सामने कर गए थे। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आज भी मुल्क में हजारों लोग हैं जो यह कहते सुने जाते हैं कि इससे तो अंग्रेज ही, वही अच्छा था। वही अच्छा था। कोई फर्क नहीं मालूम पड़ता। तो ठीक भी लगता है उनका कहना, लेकिन कहना बहुत खतरनाक है।
स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं मालूम होता। स्वतंत्रता का कोई ऐसा भाव नहीं है कि उसके लिए हम सब कुछ खो सकें। हम कुछ न खो सकेंगे उसके लिए। कितना हजार वर्ष तक हम गुलाम थे। हमने गुलामी को भी स्वीकार कर लिया था, जैसे हम सब चीजों को स्वीकार करते हैं..गरीबी को, बीमारी को, वैसे ही गुलामी को भी स्वीकार कर लिया था। स्वीकार करने की हमारी प्रवृत्ति इतनी गहरी है कि हम किसी भी तरह के अपमान को स्वीकर कर सकते हैं।
कोई अगर हमारी छाती पर जूते रख कर खड़ा हो जाए, तो थोड़ी देर में हम समझेंगे यह अपना भाग्य है, यह उसका भाग्य है। भाग्य को मानने वाले लोग कभी स्वतंत्र नहीं हो सकते। भाग्य को मानने वाला आदमी, गुलामी की गहरी जंजीर में जकड़ा हुआ है। वह यह कह रहा है, जो हो रहा है वह होने को बदा है, इससे अन्यथा हो भी नहीं सकता। इसीलिए तो एक हजार साल हम गुलाम रहे।
दुनिया में कोई कौम एक-एक हजार साल तक गुलाम रहती हैं? इतनी-इतनी बड़ी कौमें? इतना विराट जिनका फैलाव है, जो एक दिन में तय करें, तो वे आदमी जो गुलाम किए थे, उनका कहीं पता नहीं चलेगा कि वे कहां चले गए, कहां खो गए। लेकिन हमारी बुनियादी कमजोरी हमारे ख्याल में नहीं है। हम सब चीजें स्वीकार कर लेते हैं।
सड़क पर लोग भीख मांग रहे हैं। एक आदमी उन्हीं के बीच से मंदिर चला जाता है भजन गाते हुए, राम-राम करता हुआ। उसे जरा भी तकलीफ नहीं मालूम होती है कि भीड़ और कतार खड़ी है, मंदिर के सामने ही भिखमंगे खड़े हुए हैं। उसे कुछ पता नहीं चलता..इनसेंसिटीविटी है, कोई संवेदन पैदा नहीं होता है।
एक आदमी भूखा मर रहा है, अपने भाग्य से मर रहा है। हमारा क्या लेना-देना? हम अपने रास्ते पर, वह अपने रास्ते पर। हिंदुस्तान में यही समझा जाता रहा है कि कोई नृप हो, कोई राजा हो, हमें क्या मतलब है? तो ऐसी कौम की आजादी बड़ी डांवाडोल है। ऐसी कौम की आजादी बड़ी डांवाडोल है। त्यौहार मनाने से वह मजबूत नहीं हो जाएगी। त्यौहार मनाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
इधर मैं हैरान हुआ हूं यह बात जान कर कि गुलामी तो हमने एक तरह की उठा दी, अंग्रेज हट गए, लेकिन गुलामी की जो बुनियादी वजह थीं, जो कारण थे, जिनकी वजह से हम गुलाम हुए थे, वे जारी हैं। वे बिल्कुल नहीं हटे, वे वहीं के वहीं हैं। आदमी हमारा वहीं का वहीं। उसके मस्तिष्क का ढांचा, उसकी स्टेट्स अॅाफ माइंड वही की वही है, उसमें कोई बदल नहीं हुई। तो फिर गुलामी किसी भी दिन खड़ी हो सकती है।
यह आकस्मिक मामला है कि गुलामी हट गई। गुलामी कल फिर हो सकती है; क्योंकि हमारी तैयारी गुलाम होने की भीतर से पूरी है। वह हमारी पूंछ हिलाने की आदत पूरी है। और इसीलिए तो हमें ख्याल में नहीं आता। हम राज्य को, सत्ता को कितनी पूंछ हिलाते हैं, इसका हमें ख्याल ही नहीं आता।
अखबार उठा कर देखें, तो दो कौड़ी का आदमी किसी पद पर हो जाए, तो अखबार के लिए भगवान हो जाता है। वही आदमी कल अखबार से, दुनिया..पद से नीचे उतर जाए, फिर उसका पता लगाना मुश्किल है कि वह कहां है। कोई पता नहीं चलेगा।
बस सत्ता का हमारे मन में इतना आदर है। यह स्वतंत्र आदमियों का लक्षण नहीं है। सारा अखबार सत्ताधिकारियों की आवाज से भरा है। उनकी ही खबरें..किसको छींक आ गई, किसको क्या तकलीफ हो गई, वे सारी खबरें हैं। किसके घर कौन आया, कौन गया, वे सब खबरें हैं। जैसे मुल्क में और कुछ भी नहीं होता। न मुल्क में संगीत है, न मुल्क में कला है, न मुल्क में धर्म है, न मुल्क में दर्शन है, न मुल्क में योग है, कुछ भी नहीं है, सिर्फ राजनीति है। यह गुलाम आदमियों का लक्षण है।
जो कौम जितनी चित्त से गुलाम होगी, उतनी ज्यादा राजनीति को सब कुछ मान लेगी। बस यही सब कुछ हो रहा है। क्योंकि सत्ता में जो खड़ा है वही बस सब कुछ है और दूसरा आदमी किसी मूल्य का नहीं है। राधाकृष्णन कहां हैं, कभी खोजते, पता लगाते हैं, कहां हैं? राधाकृष्णन का कभी पता चलता है कहां चले गए? गए, कोई पूछेगा नहीं।
स्वतंत्र आदमी हजार-हजार दिशाओं में यात्रा करता है, गुलाम आदमी सत्ता के आस-पास पूंछ हिलाता है, और कुछ भी नहीं करता। एक मिनिस्टर के आस-पास जाकर लोगों के चेहरे देखें और फिर सोचें कि यह मुल्क कितने दिन आजाद रह सकता है। एक मिनिस्टर के पास चले जाएं और आस-पास घूमते हुए लोगों के जरा चेहरे देखें..कैसी जीभ लटक रही है, लार टपक रही है, पूंछ हिल रही है, वह सब चारों तरफ कौन हैं, देखें।
यह मुल्क कैसा? इस मुल्क के मन में आजादी का कोई भाव है? कोई गरिमा है? कोई गौरव है? व्यक्तित्व का कोई अर्थ है? छोटे-मोटे आदमी नहीं, युनिवर्सिटी का वाइस चांसलर, तो वह भी एक मिनिस्टर के चपरासी के पास चक्कर लगा रहा है। सत्ता सब कुछ है। गुलाम आदमी के मन का यह भाव है।
स्वतंत्र आदमी कहता है, सत्ता कामचलाऊ बात है, फंक्शनल है। यह वैसा ही है जैसे कि घर में एक रसोइया रखा हुआ है, भोजन बनाता है। फूड मिनिस्टर पूरे प्रांत के रसोइए से ज्यादा कीमत का नहीं है। इससे ज्यादा कोई मतलब भी नहीं है उसका। फंक्शनल बात है। एक काम है।
रेलें चल रही हैं, तो रेल को चलाने के लिए, व्यवस्था करने के लिए कोई होगा। इंतजाम करना है, तो इंतजाम करने के लिए कोई होगा। ठीक है, लेकिन मुल्क की पूरी आत्मा इन्हीं के आस-पास घूमने लगे, तो यह मुल्क और यह कौम गुलाम चित्त की है।
तो हम आजादी के त्यौहार मना लेते हैं, लेकिन हम गुलाम हैं। हमारा मन गुलाम है। हमें मुक्त होना चाहिए, स्वतंत्र होना चाहिए। त्यौहार का कोई मतलब नहीं है। वह दिन सौभाग्य का होगा, त्यौहार चाहे हो चाहे न हो, लेकिन हमारा मन स्वतंत्र हो।
एक-एक आदमी को स्वतंत्रता का कोई भाव पैदा हो, स्वतंत्रता का बोध पैदा हो, व्यक्तित्व की गरिमा पैदा हो। और जिस व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व की गरिमा का थोड़ा बोध होता है, वह दूसरे के व्यक्तित्व की गरिमा के प्रति उतना ही संवेदनशील हो जाता है। जो व्यक्ति अपने को स्वतंत्र रखना चाहता है, वह दूसरे को कभी परतंत्र नहीं करता। जो व्यक्ति स्वतंत्रता को प्रेम करता है, वह सबको स्वतंत्र करेगा।
स्वतंत्र व्यक्ति अपने बच्चों से कहेगा, हम तुम्हें प्रेम देंगे, नियम नहीं। हम तुम्हें प्रेम करेंगे लेकिन बंधन नहीं देंगे। स्वतंत्र पति अपनी पत्नी से कहेगा कि तू मेरी दासी नहीं है, मित्र हैं हम, साथी हैं हम। प्रेम मैं दे सकता हूं, गुलाम तुझे नहीं बना सकता। प्रेम कैसे गुलाम बना सकता है? लेकिन जिसको हम प्रेम कह रहे हैं, वह पूरी तरह गुलाम बना रहा है। इसलिए प्रेम का नाम चलता है, गुलामी का जाल चलता है।
कलह है, कष्ट है, दुख है। सब भीतर, सब सड़ गया है। सब ऊपर-ऊपर हंसी है, भीतर सब सड़ा-गला है, सब दुर्गंध है। उसको किसी तरह लीप-पोत कर बाहर निकल आते हैं। बाहर सब ठीक लगता है..घर-घर भीतर गंदा और परेशानी में है, और सारी परेशानी की एक जड़ है कि गुलाम चित्त खुद भी गुलाम होता है, दूसरे पर भी गुलामी थोपता है।
स्वतंत्र चित्त स्वयं भी स्वतंत्र होता है, दूसरे को भी स्वतंत्र करता है। स्वतंत्र चित्त सब तरफ स्वतंत्रता के बीज बिखेरता है। क्या यह हो रहा है? अगर यह हो रहा हो, तो आपके आजादी के त्यौहार बड़े अच्छे हैं, और अगर यह न हो रहा हो, तो अपने को धोखा देने के उपाय से ज्यादा नहीं हैं।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि धर्म का अर्थ है: टू बी अलोन, अकेला होना। लेकिन संस्कृत में तो धर्म का अर्थ है: धारण करना?

संस्कृत में कोई भी अर्थ हो, भाषा जो कहती है वही सत्य नहीं हो जाता। भाषा बिल्कुल कामचलाऊ है। शब्दों का जन्म अलग-अलग प्रसंगों में होता है। धर्म से मैं कोई भाषाशास्त्री नहीं हूं, कोई लिंग्विस्ट नहीं हूं। धर्म से मेरा भाषाकोष में जो लिखा है वह अर्थ नहीं है। धर्म से मेरा अर्थ है: उसे जान लेना जो मैं हूं। धर्म से मेरा अर्थ है: स्वयं के सत्य को जान लेना।
धर्म शब्द का क्या अर्थ है, इससे मुझे प्रयोजन ही नहीं है। धर्म शब्द का क्या व्याकरण है, क्या भाषा है, मुझे मतलब नहीं है। व्याकरण और भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन इस देश में ऐसी बात रही है कि यहां हम सत्य की खोज कम करते हैं, शब्दों की व्याख्या और विश्लेषण ज्यादा करते हैं। किस शब्द का क्या अर्थ है, यह हम भाषा और व्याकरण की ज्यादा चिंता करते हैं। लेकिन किस शब्द का क्या इंगित है, इशारा क्या है, वह हम बहुत कम फिकर करते हैं। अब जैसे समझें, एक उदाहरण मुझे ख्याल में आता है।
एक, एक बाउल फकीर हुआ है, नाच रहा है एक गांव के पास। प्रेम का गीत गा रहा है। एक वैष्णव पंडित उसके पास गया और उसने कहा कि तुम्हें पता भी है कि प्रेम का मतलब क्या होता है?
समझ लेना, प्रेम के दो मतलब होते हैं। एक तो वह जो प्रेम करने से पता चलता है और एक वह जो डिक्शनरी में लिखा हुआ है। ये दोनों बिल्कुल अलग चीजें हैं।
उस पंडित ने पूछा: तुम्हें प्रेम का मतलब पता है कि प्रेम शब्द की व्युत्पत्ति कहां से हुई है?
वह फकीर रुक गया। उसने कहा: प्रेम का तो पता है, लेकिन जिस प्रेम को तुम कह रहे हो, कुछ भी पता नहीं। लेकिन उस प्रेम से मतलब भी क्या है?
उस वैष्णव पंडित ने कहा: तो फिर सुनो। अभी तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। जो प्रेम शब्द को ही नहीं जानता, वह प्रेम को कैसे जान सकेगा?
दलील तो बड़ी ठीक मालूम पड़ती है। लेकिन आपमें से बहुत लोगों ने प्रेम जाना होगा। प्रेम शब्द कहां से पैदा होता है, पता है?
वह फकीर भी हार गया। उसने कहा: यह तो मुझे पता नहीं है कि प्रेम शब्द कहां से आया, प्रेम शब्द की यात्रा कैसे हुई, प्रेम का मूल अर्थ क्या है, प्रेम शब्द का गणित और व्याकरण क्या है, मुझे कुछ पता नहीं, आप बता दें।
उसने अपनी किताब खोली, प्रेम का एक-एक शाब्दिक अर्थ समझाया और फिर कहा, यह मालूम है प्रेम कितने प्रकार का होता है?
उस फकीर ने कहा: प्रेम और प्रकार? प्रेम को जानता हूं, प्रकार का तो कभी कोई पता नहीं चला। प्रेम में प्रकार होते ही नहीं।
उसने कहा: फिर ठहरो, तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। हमारी किताब में लिखा है, प्रेम पांच प्रकार का होता है। मां का प्रेम बात अलग, पत्नी का प्रेम बात अलग, भक्त का भगवान के प्रति प्रेम बात अलग। ये सब कई तरह के प्रेम होते हैं। तुमको प्रेम के प्रकार ही पता नहीं, तुम क्या करते हो? प्रेम के गीत गाकर फिजूल समय खराब करते हो।
उसने पांच प्रकार समझाए, शब्द की व्याख्या समझाई। फिर उस फकीर से पूछा, कैसा लगा?
उस फकीर ने कहा कि कैसा लगा! एक गीत गाकर सुनाता हूं! और एक गीत गाया। और उस गीत का मतलब था: कि एक बार एक माली ने अपने एक सुनार मित्र को कहा कि मेरे बगीचे में बहुत अदभुत फूल आए हैं। कभी आओ। उस सुनार ने कहा: आऊंगा। लेकिन था तो सुनार। सोने के कसने के पत्थर को लेकर बगीचे में पहुंच गया और एक-एक फूल को पत्थर पर कस-कस कर देखने लगा कि है भी सही कि नकली है।
तो उस फकीर ने कहा कि मुझे ऐसा ही लगा जैसा उस दिन उस माली को लगा होगा कि किस पागल को निमंत्रण दे दिया! अब सोने के कसने के पत्थर फूलों को कसने के पत्थर नहीं हैं। सोने का निकष, सोने की कसौटी फूल की कसौटी नहीं है। फूल को जानने के लिए और ही तरह का हृदय चाहिए।
प्रेम को जानने के दो रास्ते हैं। एक तो प्रेम करो। जरा मुश्किल रास्ता है। और एक रास्ता यह है कि किसी पुस्तकालय में चले जाएं और प्रेम पर जितनी किताबें लिखी हों, वे पढ़ डालें। वह रास्ता बिल्कुल आसान है। उसमें जरा भी कठिनाई नहीं है। लेकिन ध्यान रहे, प्रेम के संबंध में कितना भी जान लेने पर प्रेम नहीं जाना जाता है।
धर्म को जानने के भी दो रास्ते हैं। एक तो यह कि धर्म का अर्थ क्या, धर्म शब्द का क्या अर्थ है, उपनिषद क्या कहते हैं, वेद क्या कहते हैं, गीता क्या कहती है, कुरान क्या कहता है, बाइबिल क्या कहती है, धर्म का क्या अर्थ है? इसे खोजने में लग जाएं। तो आप एक शोध, एक रिसर्च कर लेंगे। धर्म के संबंध में बहुत पता चल जाएगा, सिर्फ धर्म को छोड़ कर सब पता चल जाएगा। धर्म भर चूक जाएगा, एकदम चूक जाएगा।
धर्म जानना हो, तो मैंने कहा, अकेला होना पड़ेगा। वहां जाना पड़ेगा जहां अकेला मैं ही रह जाऊं और कुछ न रह जाए। तो उसका पता चलेगा जो धर्म है। धर्म मेरे लिए सत्य। धर्म मेरे लिए वह, जो है, दैट व्हीच इ.ज। धर्म से धारण करता कि नहीं, इससे मुझे कोई..न मुझे पता है, न हिसाब है, न हिसाब रखने की जरूरत समझता हूं। धर्म शब्द की व्याख्या भाषा-शास्त्री का काम है, और धर्म का अनुभव धार्मिक का काम है।
भाषा-शास्त्र अलग बात है। वहां चीजें और ही ढंग से चलती हैं। वहां सत्यों से कोई संबंध नहीं होता। सत्यों के जो प्रतीक हैं, उनसे संबंध होता है। वहां गाय से मतलब नहीं होता है, गाय शब्द से मतलब होता है। वहां धर्म से मतलब नहीं होता है, धर्म शब्द से मतलब होता है। और धर्म शब्द से मतलब बिल्कुल दूसरे तरह का मतलब है। चूक ही गए वहां हम, असली चीज से चूक गए और किसी और चीज पर चले गए।
जैसे मैं ये कपड़े पहने हुए हूं। ये कपड़े मैं नहीं हूं। और अगर मेरा कोई चादर छीन ले और समझे कि मुझे अपने घर ले आया, तो गलती में पड़ जाएगा। चादर मेरे ऊपर थी, मैं चादर नहीं हूं। वह धर्म शब्द सिर्फ उसके ऊपर है, जो धर्म है। अगर धर्म शब्द को छीन कर ले गए और सब व्याख्या करके समझ गए, तो सिर्फ चादर हाथ पड़ी। वह चूक गया जो था। आत्मा गई, शरीर हाथ पड़ गया। ऐसा रोज हो जाता है। ऐसा अक्सर हो जाता है।
एक फूल खिला है गुलाब का, आप उसके पास खड़े हैं और आप कहते हैं, बहुत सुंदर है। आपके पास एक मित्र खड़ा है, वह कहता है, सौंदर्य शब्द का क्या अर्थ है? फूल वहां पड़ा रह गया। सौंदर्य वहां पड़ा रह गया। वह पूछता है, सौंदर्य शब्द का अर्थ, पता है एस्थेटिक, जानते हो? सौंदर्य-शास्त्र जानते हो? सौंदर्य का मतलब क्या? सौंदर्य क्या है? वह आदमी कहता है, छोड़ो, सौंदर्य से कोई मतलब नहीं है, यह रहा। वह कहता है, इससे काम नहीं चलेगा। यह रहा से क्या मतलब? क्या रहा? सौंदर्य? सौंदर्य क्या है? सौंदर्य का क्या अर्थ है?
किताबें लिखी हैं लोगों ने हजार-हजार पृष्ठों की..वॅाट इ.ज ब्यूटी! पूरी किताब पढ़ जाएं और उतना भी सौंदर्य का पता नहीं चलेगा जितना घास के एक फूल से पता चल जाता है। पूरी किताब पढ़ जाएं। एक हजार पन्ना पढ़ जाएं, सिर भर जाएगा सौंदर्य की व्याख्याओं से, परिभाषाओं से और उतना भी पता नहीं चलेगा जो एक छोटे से फूल को देखने से पता चल जाता है।
रवींद्रनाथ एक किताब पढ़ रहे थे सौंदर्य-शास्त्र पर। पूर्णिमा की रात है। एक बजरे में जा रहे हैं, किताब पढ़ रहे हैं। बाहर चांद पुकार रहा है। लेकिन कौन सुने? किताब पढ़ने वाला कभी नहीं सुनता। रवींद्रनाथ अपनी किताब पढ़ रहे हैं कि सौंदर्य क्या है? बाहर चांद चिल्ला रहा है कि यह रहा! बाहर की झील कहती है कि यह रहा! बाहर की लहरें कहती हैं कि यह रहा! लेकिन किताब में डूबा आदमी कहीं सुनता है?
वे अपनी किताब पढ़े चले जा रहे हैं। रात दो बज गए, थक गए। किताब शुरू की थी, तब थोड़ा पता भी होगा कि सौंदर्य क्या है, किताब की उलझन में वह भी डांवाडोल हो गया। ऊब गए, समझ में नहीं आया कि सौंदर्य क्या है। किताब बंद कर दी थक कर। मोमबत्ती जलती थी, फूंक मार कर बुझा दी। मोमबत्ती के बुझते ही चांद की किरणें भीतर भर गईं। रंध्र-रंध्र से, द्वार-द्वार से, खिड़की-खिड़की से चांद बाहर खड़ा था। किरणें नाचने लगीं। बाहर की ठंडी हवा के झोंके आए। पहले भी आ रहे थे, लेकिन किताब में डूबे आदमी को कुछ भी पता नहीं चलता। किरणें आ गईं भीतर। मोमबत्ती का धीमा सा प्रकाश किरणों को बाहर रोके था। मोमबत्ती चली गई, किरणें भीतर आ गईं। रवींद्रनाथ उठ कर खड़े हो गए, कहा, यह रहा सौंदर्य!
बाहर आ गए। चांद है पूरा, पूरी चांद की रात है। चांदी बरस रही है, सारी झील चांदी हो गई है। यह रहा! लेकिन एक किताब थी, अभी पढ़ते थे इतनी देर। वहां सौंदर्य की व्याख्या थी।
अगर, अगर अनुभव की तरफ जाना हो, तो बहुत दूसरी यात्रा करनी पड़ती है। और अगर शब्दों की तरफ जाना हो, तो बिल्कुल दूसरी यात्रा करनी पड़ती है। मैं शब्दों की यात्रा का पक्षपाती नहीं हूं। धर्म का कुछ भी अर्थ हो, मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है। मुझे प्रयोजन यह है कि यह धर्म शब्द, जिसके लिए हमने उपयोग किया है जिस अनुभव के लिए, वह अनुभव क्या है?
मैं उस अनुभव की बात कर रहा हूं, वह अनुभव है मैं जो हूं उसकी पूरी प्रतीति, उसका पूरा साक्षात्कार, मैं क्या हूं इसका पूरा उदघाटन। जैसे रवींद्रनाथ ने कहा, यह रहा, ऐसा किसी दिन मैं अपने भीतर छाती पर हाथ रख कर कह सकूं कि यह रहा, और जान सकूं कि यह क्या है..यह धड़कन, यह श्वास, यह चेतना, यह सब खुल जाए, यह सब पर्दे गिर जाएं और मैं खड़ा हो जाऊं और जान लूं कि यह हूं।
जिस दिन मैं जान लूंगा कि यह रहा मैं, उसी दिन मैंने जान लिया कि वह रहे आप। जिस दिन मैंने जान लिया कि यह मैं हूं, वह आप, मैंने जान लिया कि सब क्या है; क्योंकि मैं भी एक छोटी ईंट हूं उसी सबकी। एक ईंट, एक बूंद जान ली गई, पूरे भवन का पता चल गया। उस दिन कोई कहेगा, धर्म की व्याख्या, तो वह आदमी कहेगा, जाओ कहीं और, पंडितों के पास जाओ, वे किताबें लिए बैठे हैं, वे सब बताएंगे कि धर्म यानी धारण करना या क्या। मैं नहीं कहता, मुझे कुछ मतलब नहीं है।
शब्द कामचलाऊ हैं। सवाल अनुभूति का है, एक्सपीरियंस का है। और शब्द इतना काम कर दे कि इशारा कर दे, काम खत्म हो गया है। इससे ज्यादा मूल्य नहीं है शब्द का। लेकिन हम इशारे को पकड़ लेते हैं। मैं आपको अंगुली बताऊं, वह रहा चांद, आप मेरी अंगुली पकड़ लें और कहें कि कहां है चांद? तो मैं कहूंगा, चूक गए आप। अंगुली नहीं थी चांद, इशारा था। वहां था चांद जहां अंगुली है ही नहीं। वहां दूर अंगुली को छोड़ दें, वहां देखें। आप कहेंगे, पहले मैं इसकी जांच-परख करूं इस अंगुली की, जिससे आप कहते हैं कि वह रहा चांद।
हम सब यही कर रहे हैं। शब्दों की व्याख्या में खो गए हैं। सारा विवाद दुनिया में शब्दों का है, सत्यों का कोई विवाद नहीं। बुद्ध और क्राइस्ट और कृष्ण के बीच कोई विवाद नहीं। लेकिन शब्द बड़े महंगे पड़ गए हैं। सबके शब्द अलग हैं।
बुद्ध कुछ और कह रहे हैं, कृष्ण कुछ और कह रहे हैं, क्राइस्ट कुछ और कह रहे हैं, और सबके पीछे पंडित इकट्ठे हैं, जिनका कोई अनुभव नहीं है। शब्द इकट्ठे कर रहे हैं। बुद्ध ने जो कहा उन्होंने पकड़ लिया। बुद्ध ने कहा, निर्वाण, उन्होंने फौरन पकड़ लिया। बुद्ध ने कहा था निर्वाण किसी अनुभव से। कोई अनुभूति हुई है। कोई अनुभूति हुई है, जिसके लिए निर्वाण शब्द उन्हें ठीक लगा कि शायद काम कर जाए। पंडित ने फौरन निर्वाण पकड़ लिया। वह गया उसने शब्दकोश खोजा कि निर्वाण का क्या अर्थ है?
शब्दकोश में लिखा है, निर्वाण का अर्थ है, दीये का बुझ जाना। तो उसने कहा कि बिल्कुल ठीक है। बुद्ध कहते हैं कि दीये का बुझ जाना ही पा लेना है।
अब वह बड़ी मुश्किल हो गई, एब्सर्ड हो गई बात। दीये का बुझ जाने से क्या मतलब होगा बुद्ध का? बुद्ध का कुछ मतलब ऐसा होगा, जो दीये के बुझ जाने से जैसा दीये को लगे, अगर दीया जान सके, तो ऐसा ही आदमी को भीतर जाकर लगे कि मैं तो मिट गया, मैं तो गया, मैं तो नहीं हूं अब, अब कुछ और हो गया। एक दीया बुझ जाए और जान ले कि मैं सूरज हो गया, अब दीया नहीं हूं, ऐसा कुछ लगा होगा भीतर। तो उन्होंने कहा, निर्वाण। अब पंडित बैठा है, उसने खोज लिया शब्द, निर्वाण का क्या अर्थ है?
निर्वाण का अर्थ है: दीये का बुझ जाना। तो उसने कहा, इसका मतलब साफ हो गया। इसका मतलब यह है कि दीये की तरह बुझ जाओ। दीये का बुझ जाना ही पा लेना सब कुछ है। अब वह इसी व्याख्या पर उलझा हुआ है। इसी पर उलझता रहेगा, खोजता रहेगा, पूछेगा, दीये का क्या अर्थ? बुझ जाने का क्या अर्थ? और डिब्बे के भीतर डिब्बे निकलते चले जाएंगे और उस यात्रा का कोई अंत नहीं।
शब्दों में जो खो जाता है वह खो ही जाता है। शब्दों से वापस लौटें और वहां आएं जहां जिंदगी खड़ी है, एक्झिस्टेंशियल जहां चीजें हैं, जहां अनुभव हैं। प्रेम पर हाथ रखें, प्रेम शब्द को छोड़ दें। धर्म पर हाथ रखें, धर्म शब्द हो छोड़ दें। परमात्मा पर हाथ रखें, परमात्मा शब्द को जाने दें कि क्या मतलब है इसका।
लेकिन आमतौर से हमारी पूरी शिक्षा-दीक्षा शब्दों की होने से बड़ी कठिनाई है। तो अस्तित्व, जहां चीजें हैं, अपनी पूर्णता में खड़ी हैं, वहां हम नहीं देख पाते। शब्द सदा बीच में खड़ा हो जाता है। सदा बीच में खड़ा है। सदा पर्दा बन जाता है। और जितने ज्यादा शब्द जिस आदमी के पास इकट्ठे हो जाते हैं, उसका देखना, दर्पण उतना ही फीका और कमजोर हो जाता है। उसे फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ता, शब्द ही सत्य।
एक आदमी आया पास में, उसको आप नहीं देखते कभी कि वह कौन है। बस एक शब्द बीच में आ जाएगा..भंगी है, चमार है, बस एक शब्द बीच में खड़ा हो गया। अब वह शब्द ही सब काम करेगा, अब उस आदमी से आपका कोई संबंध नहीं होगा, कभी भी संबंध नहीं होगा। वह आदमी दूर हो गया, वह असली आदमी जो था वह गया। अब बीच में एक शब्द खड़ा है, आप इसी से व्यवहार करोगे। इसी शब्द को बीच में लेकर सब काम चलेगा। एक आड़ खड़ी हो गई।
एक शब्द, हजार शब्द की आड़ खड़ी हुई है। सब चीजों के संबंध में। जहां भी खड़े हैं, सब दोहरा रहे हैं। आपने कभी फूल का सौंदर्य देखा है? डर है कि न देखा हो। बचपन से सुना है कि फूल सुंदर होते हैं। शब्द पकड़ गए हैं। जब भी फूल दिखाई पड़ते हैं, आप दोहरा देते हैं फूल बड़े सुंदर हैं। लेकिन आपने सौंदर्य को अनुभव किया है? वह आपके प्राणों में घुसा है? आप कभी फूल के पास खड़े होकर सब भूल गए हैं? कभी फूल के पास खड़े होकर आप नाचे हैं? कभी फूल के पास खड़े होकर आंसू बहे हैं? कभी फूल को छाती से लगा लिया है?
नहीं, फूल के पास से निकले हैं और कहा है, देखो कितना सुंदर फूल है और आगे बढ़ गए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि बचपन से सुने गए शब्द कि फूल सुंदर होते हैं, दोहरा दिए गए हों? अक्सर यही है। अक्सर यही है। सौ में निन्यानबे मौके पर यही हो रहा है। इसलिए जो सिखा दिया जाता है। ...
अगर एक अफ्रीकी आदिम औरत को सामने खड़ा कर दिया जाए, बाल घुटे हुए हैं, सिर घुट्टम-घुट्ट है संन्यासी की तरह। सब चेहरे पर गोदा गया है, बड़े-बड़े दाग बनाए गए हैं, ओंठ खींच-खींच कर लंबे किए गए हैं, और आपके सामने खड़ा कर दिया जाए, तो ऐसा लगेगा कि कोई..कहां भाग जाएं, सौंदर्य का ख्याल बिल्कुल नहीं आएगा कि यह स्त्री बड़ी सुंदर है। लेकिन यह स्त्री अपने कबीले में बड़ी सुंदर है। बच्चों ने बचपन से सुना है कि यह रहा सौंदर्य। इस स्त्री को बड़े दीवाने मिल जाएंगे वहां इसके कबीले में। और हो सकता है आपकी सुंदरतम स्त्री को प्रेम करने वाला खोजना मुश्किल हो जाए उस कबीले में।
हम शब्दों से जी रहे हैं, हम वह नहीं देखते जो सामने है। हमारी अपनी धारणा है, वही हम देखे चले जाते हैं। वही देखे चले जाते हैं। वही धारणा मजबूत हो जाती है।
हम सबको ख्याल है कि गोरा आदमी सुंदर होता है, इसलिए काले आदमी के सौंदर्य को देखना मुश्किल हो गया है। काले आदमी का अपना सौंदर्य है। लेकिन जब तक यह धारणा बनी है कि गोरा आदमी सुंदर होता है तब तक गोरी चमड़ी पर असुंदर से असुंदर चेहरा भी चल जाता है, बस गोरी चमड़ी चाहिए। और सुंदर से सुंदर काला आदमी तरसते दूर खड़ा रह जाता है, उसका पता भी नहीं चलता। सिर्फ हमारी धारणाएं काम करती चली जाती हैं।
हम शब्दों में जीते हैं या तथ्यों को देखते हैं कि क्या है सुंदर। आपको ख्याल है, आज से पचास साल पहले किसी आदमी ने नागफनी और कैक्टस को घर में नहीं लगाया था। पचास साल पहले अगर कोई आदमी नागफनी घर में ले आता, तो कहते, गंवार हो, दिमाग खराब हो गया है, यह नागफनी यहां किसलिए ले आए? घर में लगाने की चीज है यह? ये कांटे बेहूदे हैं, कुरूप हैं।
पचास साल पहले की धारणा यह थी कि कांटा सदा कुरूप होता है, कांटा कभी सुंदर नहीं होता। सिर्फ फूल ही सुंदर होते हैं। कांटे कैसे सुंदर हो सकते हैं? फिर धारणा बदल गई। अब जितना सुशिक्षित आदमी है, कल्चर्ड जिसको हम कहें, वह नागफनी को घर में अपने बैठकखाने में लगाए बैठा है, कैक्टस को। यह बुद्धू बन जाता पचास साल पहले। अभी यह बड़ा ज्ञानी बना है। पचास साल बाद फिर बुद्धू बन सकता है। धारणा बदलने का सवाल है।
सुना था कभी नागफनी सुंदर होती है? कभी नहीं सुना था। अगर किसी स्त्री से कह देते कि तुम नागफनी की तरह सुंदर हो, तो झगड़ा हो जाता। वह स्त्री कभी लौट कर न देखती। अब आप कह सकते हो। अब कह सकते हो। अभी हिंदुस्तान में कहना जरा मुश्किल है। फ्रांस में कह सकते हो। और स्त्री बड़ी खुश हो जाएगी, नागफनी की तरह सुंदर! नागफनी सुंदर हो गई है। लेकिन मुझे शक है कि नागफनी में हमें सौंदर्य दिखाई पड़ रहा है? सिर्फ शब्द हमने पकड़ लिए हैं, सिर्फ शब्द पकड़ लिए हैं। शब्दों से जी रहे हैं लोग। जहां उन्हें कुछ नहीं दिखाई पड़ता, शब्द भर बीच में आ जाते हैं।
नहीं, शब्दों से बचना है। अगर अस्तित्व को जानना हो और अनुभव में उतरना हो, तो शब्दों को जाने दें अपनी राह पर। वह पंडितों का रास्ता है, ज्ञानियों का नहीं। पंडितों को जाने दें अपनी यात्रा पर। शब्द से नहीं कुछ होगा। धर्म का क्या अर्थ है? दो अर्थ हैं, एक तो शब्द का अर्थ है, वह भाषा-शास्त्री से पूछना चाहिए। और एक धर्म की अनुभूति है। वह अनुभूति अकेले होने का अनुभव है। एकांत का अनुभव है। पूर्णरूप से सबसे मुक्त हो जाने का अनुभव है। सब बंधन का गिर जाना, सब अज्ञान का, सब अंधेरे का। पूर्ण प्रकाश में स्वयं के भीतर पूरी तरह जाग जाने के अनुभव का नाम धर्म है।

एक-दो छोटे प्रश्न और।
एक मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि भीतर एब्सल्यूट डार्कनेस, पूर्ण निरपेक्ष अंधकार का अनुभव करना पड़ेगा, तभी पूर्ण निरपेक्ष, एब्सल्यूट लाइट का अनुभव, प्रकाश का अनुभव हो सकेगा। उन्होंने पूछा है कि जीवन में तो सभी सापेक्ष है, रिलेटिव है, यहां तो कुछ भी पूर्ण नहीं है, तो यह पूर्ण अनुभव कैसे हो सकेगा?

उन्होंने ठीक ही पूछा है। जीवन में सभी सापेक्ष है। जिस जीवन को हम जानते हैं बाहर वहां सभी सापेक्ष है। वहां कोई चीज पूर्ण नहीं है। और वहां हर चीज में विरोधी मौजूद है। हम भीतर के लिए भी जो शब्द उपयोग करते हैं, वे भी चूंकि बाहर से ही लिए गए होते हैं। और कोई उपाय नहीं है। इसलिए उन शब्दों में भी रिलेटिविटी, सापेक्षता पहुंच जाती है। लेकिन जिस अनुभव की मैं बात कर रहा हूं, वह पूर्ण का ही अनुभव है, सापेक्ष अनुभव नहीं है।
सापेक्ष अनुभव इसलिए नहीं है कि वहां न कोई अनुभव करने वाला बचता है, और न अनुभूत होने वाली वस्तु बचती है। वहां सिर्फ अनुभव ही रह जाता है, जस्ट एक्सपीरियंस इ.ज। अगर प्रेम का कभी कोई गहरा क्षण जाना है, तो न वहां प्रेमिका रह जाती है, न प्रेमी रह जाता है, बस प्रेम ही रह जाता है। प्रेम का ही आंदोलन, मूवमेंट रह जाता है। प्रेम ही आता और जाता है, प्रेम ही होता है। प्रेम के अतिरिक्त न प्रेमी होता है, न प्रेमिका होती है। और जैसे ही प्रेमी और प्रेमिका हुए कि प्रेम गया, विदा हो गया। और जब तक प्रेमी और प्रेमिका मौजूद होते हैं, तब तक प्रेम का अनुभव हो भी नहीं पाता।
लेकिन जब प्रेमी और प्रेमिका मिट जाते हैं, तो जिस प्रेम का अनुभव होता है, वह सापेक्ष नहीं है। वह आइंस्टीन की दुनिया के बाहर है, वह रिलेटिविटी के बाहर है। वहां जो अनुभव होता है, वह पूर्ण है। वहां घृणा मौजूद भी नहीं है। वहां घृणा का कोई पता ही नहीं है, वहां पता करने वाले का ही कोई पता नहीं है।
वहां सिर्फ एक, और एक भी हम कह रहे हैं शब्द उपयोग करते हैं इसलिए, वहां न एक है, न दो है। वहां जो शेष रह गया, इसीलिए जो जानते हैं, वे कहेंगे, अद्वैत, नॅानडुअल, दो नहीं है। वे यह भी नहीं कहेंगे, एक है क्योंकि एक के होने से दो होने का ख्याल पैदा होता ही है कि एक अकेला कैसे होगा? एक के बोध में दूसरा मौजूद होना ही चाहिए। तो वे कहते हैं, अद्वैत। नहीं, दो नहीं हैं। बस इतना ही कह सकते हैं, वहां दो नहीं हैं। फिर जो वहां शेष रह गया है वह पूर्ण है।
प्रेम का अनुभव भी पूर्ण अनुभव है, अगर हो जाए। और जिसे पूर्ण प्रेम का अनुभव हो जाए, वह तत्क्षण परमात्मा में सरक जाता है। क्योंकि पूर्ण का कोई भी अनुभव परमात्मा में ले जाता है। कहीं से भी पूर्ण का अनुभव हो जाए, आदमी परमात्मा में प्रविष्ट हो जाएगा।
कोई चित्रकार चित्र बना रहा है। चित्र भी है, चित्रकार भी है, बनाना भी है। तब तक सापेक्ष दुनिया है। फिर चित्रकार भी मिट गया, चित्र भी नहीं रहा, बनाना भी मिट गया, अब कुछ हो रहा है। जस्ट हैपनिंग। कोई नहीं है वहां। बनाने वाला अलग नहीं है। बनने वाला अलग नहीं है, बनाए जाने की प्रक्रिया अलग नहीं है। तीनों एक हो गए। एक ही घटना रह गई वहां। बस वहीं पूर्ण का अनुभव शुरू हो जाएगा। सापेक्ष, रिलेटिव के बाहर उतर गए हम। वहीं से परमात्मा आ जाएगा।
एक वीणाकार वीणा बजा रहा है। वीणा मिट जाए, बजाने वाला मिट जाए, संगीत मिट जाए, एक हो जाएं तीनों। उसको हम कोई भी नाम दे दें, संगीत कहें, जो कहें, एक रह जाए, तीनों मिट जाएं। वीणा अलग न हो, वीणावादक अलग न हो। पता भी न हो कि वीणा है। वीणावादक को यह भी पता न हो कि मैं हूं, संगीत भर रह जाए, तीनों एक हो जाएं, रिलेटिविटी के बाहर हो गए, सापेक्ष के बाहर चले गए। वह जिस दुनिया को हम जानते हैं, उसके बाहर सरक गए, खिसक गए, अलग हो गए, कहीं और चले गए।
तो संगीत भी पहुंचा सकता है, प्रेम भी पहुंचा सकता है, चित्र भी पहुंचा सकता है। कुछ भी पहुंचा सकता है। जहां तीन मिट जाते हों और एक ही रह जाता हो, वहीं हम सापेक्ष जगत के बाहर हो जाते हैं।
लेकिन आमतौर से हम सापेक्ष में ही जीते हैं, कभी बाहर नहीं होते। यही तो हमारा दुख है। इसलिए प्रेम करते हैं, प्रेम का आनंद कभी उपलब्ध नहीं होता। वह अधूरा ही रह जाता है, अटका ही रह जाता है। चित्र बनाते हैं, लेकिन चित्रकार नहीं हो पाते। वीणा बजाते हैं, लेकिन कभी वीणा नहीं बजा पाते, क्योंकि वह मिट ही नहीं पाता, हम मिट ही नहीं पाते, अहंकार खड़ा ही रह जाता है।
ध्यान रहे, इसे एक सूत्र में ऐसा कहा जा सकता है, जहां तक अहंकार है वहां तक सापेक्ष जगत है। जहां अहंकार गया, वहां से पूर्ण की शुरूआत हो गई, वहां से पूर्ण की दुनिया आ गई।
लेकिन यह मेरे कहने से कुछ समझ में आने वाली बात नहीं है। उतरना ही पड़े। जिसे हम जानते हैं, वहां सब सापेक्ष है, उतरना ही पड़े। हम तो जो शब्दों का उपयोग कर रहे हैं..अंधेरा, प्रकाश यह शब्द भी सापेक्ष है। इसलिए ये शब्द भी पूरी खबर नहीं लाते। क्योंकि कोई अंधेरा, बिना प्रकाश के नहीं समझा जा सकता। और कोई प्रकाश बिना अंधेरे के नहीं समझा जा सकता। दोनों मौजूद रहेंगे ही। अगर हम कहेंगे, यह प्रकाश है, तो किसी न किसी तल पर अंधेरा खड़ा ही होगा, घेरा बांध कर। नहीं तो अंधेरे के बिना प्रकाश कैसे होगा?
हम जिस दुनिया को जानते हैं, वहां अंधेरे और प्रकाश दो की जरूरत है। वह दुनिया डुआलिटी की, द्वैत की दुनिया है। इसी शब्द, इसी दुनिया के शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। कोई और उपाय नहीं, कोई और शब्द नहीं है। इन्हीं का उपयोग करके भीतर का इशारा करना पड़ता है। इसीलिए सब इशारे, किसी न किसी तल पर गलत हो जाते हैं।
जिस दिन हम वहां पहुंचेंगे, जहां पूर्ण है, उसको न हम प्रकाश कह सकते हैं, न अंधेरा कह सकते हैं, या दोनों कह सकते हैं, या दोनों इनकार कर सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं, सब चलेगा। किसी ने कहा है कि वह महा अंधकार है, वह भी ठीक कहता है। किसी ने कहा है, वह परम प्रकाश है, वह भी ठीक कहता है। किसी ने कहा है, वह दोनों है..अंधेरा भी, प्रकाश भी एक ही साथ, वह भी ठीक कहता है। और किसी ने कहा है, वहां दोनों नहीं है..न अंधेरा, न प्रकाश, वह भी ठीक कहता है।
ठीक कहने का मतलब यह है कि यह सब कामचलाऊ बातें हैं। वहां जो है उसे कहने का कोई भी उपाय नहीं है। कोई इशारा वहां तक नहीं पहुंच पाता। सब इशारे, जस्ट एप्रॅाक्सिमेट, बस पास-पास तक खबर करते हैं। थोड़ी दूर जाकर सब इशारे खो जाते हैं, और वहां, वहां कोई शब्द साथ नहीं जाता।

एक अंतिम बात, एक मित्र ने पूछा है कि हमने सुना है कि जो सत्य को जान लेते हैं, वे चुप हो जाते हैं। फिर आपको सत्य मिला या नहीं, क्योंकि आप तो बहुत बोलते हैं?

उन मित्र से पूछना चाहूंगा, उन्होंने किससे सुना कि जो सत्य को बोलते हैं, वे चुप हो जाते हैं? अगर उस आदमी ने जान लिया होगा, तो वह चुप हो गया होता। और अगर उस आदमी ने नहीं जाना होगा, तो वह कहने का हकदार नहीं रह गया। किसने कहा है कि जो सत्य को बोल लेते हैं, वे चुप हो जाते हैं? इसे बोलने को भी तो बोलना ही पड़ता है। इसे बोलने को भी, इसे कहने को भी बोलना ही पड़ता है।
उपनिषद कहते हैं: नहीं कहा जा सकता उसे, फिर भी कहने की कोशिश करते हैं। लाओत्सु कहता है: कहना मुश्किल है, कहना असंभव है, फिर भी कहता है। बुद्ध कहते हैं: अनिवर्चनीय, नहीं वचन में आएगा, फिर जिंदगी भर बोलते रहते हैं। महावीर कहते हैं: कोई शब्द वहां नहीं ले जाता, फिर जीवन भर शब्द ही शब्द हैं। और जीसस कहते हैं: नहीं कह सकूंगा, शब्द नहीं कह सकते हैं, लेकिन फिर भी शब्द का ही उपयोग करते हैं। अगर यह बात सच हो कि जो सत्य को पा लेता है, वह नहीं बोलता, तो इस बात का भी पता चलना मुश्किल था कि कौन बोलता इसको।
निश्चित ही, जो सत्य को पा लेते हैं, वे और ढंग से बोलते हैं। बोलते जरूर हैं, लेकिन यह भी कहते चले जाते हैं साथ में कि बोलने को ही सत्य मत समझ लेना। बोलते भी हैं और कहते हैं साथ में कि बोलने को ही मत पकड़ लेना। इशारा भी करते हैं, वह चांद है और साथ कहते हैं, अंगुली को चांद मत समझ लेना। बोलते भी हैं और बोलने में विश्वास भी नहीं करते। शब्द का उपयोग भी करते हैं और शब्द के दुश्मन भी हैं। शब्द को इशारा भी मानते हैं, शब्द को सत्य भी नहीं मानते हैं। यह दोनों ही बातें एक साथ हैं।
सत्य जिसे मिल जाता है वह यह जान लेता है कि सत्य को बोला नहीं जा सकता। सत्य जिसे मिल जाता है वह जान लेता है कि बोलना असंभव है। लेकिन अपनी इस पीड़ा को कि बोला नहीं जा सकता है, ऐसा कुछ पा लिया है, कैसे कहें? इसे कैसे खबर पहुंचाएं? चुप हो जाएं?
चुप होकर भी लोगों ने देखा है। चुप होकर भी देखा है। चुप होकर भी कहने की कोशिश की है। लेकिन चुप होने की बात केवल वे ही समझ सकते हैं जो खुद भी चुप होने में समर्थ हों। अगर मेरे पास आ जाएं और बिल्कुल चुप होकर बैठ जाएं, तो मैं भी चुप होकर ही कहूंगा। लेकिन आप शब्द में पूछें और मैं चुप होकर कहूं, आप तक नहीं पहुंचेगा।
चुप में ही कहा जा सकता है। साइलेंस भी लैंग्वेज बनती है, मौन भी भाषा बन जाती है। लेकिन फिर समझने वाला रिसीवर भी तो चाहिए। अगर कोई मौन होने को तैयार हो, तो उससे मौन में भी बात हो सकती है, फिर शब्दों की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन दुनिया इतने शब्दों से भरी है कि मौन चिल्लाने से नहीं सुनाई पड़ता, मौन कैसे सुनाई पड़ेगा? डंका पीटो बाजार में तो सुनाई नहीं पड़ता, मौन कैसे सुनाई पड़ेगा? मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तब मौन में ही सुनने आना पड़े। मौन से ही कहा जा सकता है, लेकिन तब मौन में ही सुनना पड़े।
किसी फकीर के पास कोई गया और कहा कि बिना शब्दों में बताएं, बताइए? बिना शब्दों में बताएं, बताइए, क्योंकि मैंने सुना है कि सत्य शब्दों में नहीं बताया जा सकता।
वह फकीर खूब हंसने लगा। उसने कहा: बताएंगे। तुम बिना शब्दों में पूछो। क्योंकि जो सत्य शब्दों में नहीं कहा जा सकता वह सत्य शब्दों में पूछा भी नहीं जा सकता।
पूछने और कहने के तल पर शब्द होगा। लेकिन इतना ही फर्क पड़ेगा कि जो सत्य की जिसकी कोई झलक नहीं है, वह कहेगा, शब्द ही सब कुछ हैं, शास्त्र ही सब कुछ हैं। बस कह दिया, इसी को पकड़ लेना, यही सत्य है।
और जिसे सत्य की थोड़ी भी झलक मिल जाएगी, वह कहेगा, जो कह दिया है इसे छोड़ देना, पकड़ मत लेना। इससे कुछ भी नहीं होगा। सिर्फ इशारा किया है, इंगित किया है। इंगित सत्य नहीं है। इंगितों को छोड़ देना। उस तरफ बढ़ जाना जहां सत्य है।
इतना तो हम कह सकते हैं न कि मौन से सत्य मिलेगा। कहना पड़ रहा है यह, मौन से सत्य मिलेगा। लेकिन मौन का इशारा तो कर सकते हैं।
लेकिन कोई हो सकता है इस शब्द को पकड़ ले कि मौन से सत्य मिलेगा। बैठ जाए आंख बंद करके और कहने लगे, मौन से सत्य मिलेगा, मौन से सत्य मिलेगा, मौन से सत्य मिलेगा। इस बेचारे को कभी नहीं मिलेगा। क्योंकि यह शब्दों को दोहरा रहा है। कहा था, मौन से सत्य मिलेगा, तो ये शब्द भी छोड़ देने थे, सब शब्द छोड़ देने थे, हो जाना था मौन।
जैसे ही कोई मौन होता है वह सब प्रकट हो जाता है जो है। हम इतने भरे हैं शब्दों से कि सत्य हमारे भीतर आ नहीं सकता। स्पेस नहीं है, भीतर जगह नहीं है।
एक छोटी सी कहानी से अपनी बात पूरी करूंगा।
एक युनिवर्सिटी का प्रोफेसर एक फकीर के पास मिलने गया। जापान के एक छोटे से गांव में घटी घटना है। क्योटो में एक फकीर है, उसके पास एक युनिवर्सिटी का प्रोफेसर आया। युनिवर्सिटी का प्रोफेसर शब्द ही शब्द से भरा हुआ है। प्रोफेसर के पास और क्या हो सकता है? शब्द ही शब्द हैं। वह आया। उसने आते से ही पसीना भी नहीं पोंछा, आते से ही उसने कहा कि मैं जानने आया हूं सत्य क्या है? बताइएगा?
उस फकीर ने कहा: थोड़ा विश्राम तो कर लें। इतनी जल्दी में सत्य कभी जाने गए हैं ऐसे भागते हुए? पसीना तो पोंछ लें, दो क्षण श्वास तो ले लें। श्वास जोर से चलने लगी है पहाड़ चढ़ने में। बैठें, थोड़ा सुस्ता लें, थोड़े आराम में हो जाएं। इतने श्रम में, इतने भागते-भागते सत्य नहीं मिलता।
प्रोफेसर बैठ गया। बाहर तो भागना बंद हो गया, भीतर तो भागना जारी है। वह पूछ रहा है, कितना समय खराब हुआ जा रहा है। जल्दी से बता दे तो अच्छा है यह आदमी। मुझे दूसरी जगह जाना है। एक और फकीर से पूछना है, वह नीचे पहाड़ के उस तरफ रहता है। यह सब भीतर भागना चल रहा है।
वह फकीर कहता है: बाहर से तो रुक गए, थोड़ा भीतर भी शांत हो जाओ तो अच्छा हो। तो थोड़ी बात हो सके। फिर मैं थोड़ी चाय बना लाऊं, तुम थक गए हो, चाय पी लो। और यह भी हो सकता है, चाय पीने में ही उत्तर भी मिल जाए।
उस प्रोफेसर ने सोचा, किसी पागल के पास आ गए? मैं इतना कीमती प्रश्न पूछ रहा हूं, वह कह रहा है, चाय पीने में उत्तर मिल जाएगा। लेकिन अब आ ही गया हूं तो कम से कम चाय तो पी ही लूं। यह सोच कर वह रुक गया।
वह फकीर चाय बना लाया है, प्रोफेसर के हाथ में उसने एक प्याली पकड़ा दी है। केतली से चाय ढाल रहा है। प्रोफेसर को सिर्फ चाय ही दिखाई पड़ रही है। वह फकीर कुछ और भी ढालना चाहता है, वह प्रोफेसर को दिखाई नहीं पड़ रहा है। चाय की प्याली भर गई पूरी। फकीर चाय को ढाले ही चला गया है। नीचे की बसी भी भर गई। फकीर चाय को ढाले ही चला गया। फिर नीचे की बसी पूरी भर गई, फिर बूंद नीचे टपकने को हो गई। तब प्रोफेसर चिल्लाया कि रुकिए, यह आप क्या कर रहे हैं? अब जगह बिल्कुल भी नहीं है। फकीर ने कहा: समझे कुछ? प्रोफेसर ने कहा: क्या खाक समझा! इतना ही समझा है कि चाय भर गई है पूरी और प्याली में जगह नहीं है।
फकीर ने कहा: भीतर की प्याली में जगह है? वहां भी शब्द भर गए हैं पूरे। थोड़ा खाली करो, जगह बनाओ। भीतर आने की जगह तो चाहिए। भगवान भी आएगा, तो फर्नीचर थोड़ा तो हटाओ। फर्नीचर ही फर्नीचर घर में। तो भीतर जगह भी तो होनी चाहिए। आने दो भीतर, जगह तो बनाओ। प्याली भर गई, तुम्हें दिखाई पड़ गई, लेकिन खोपड़ी भर गई है, यह अब तक दिखाई नहीं पड़ा।
हम सबकी खोपड़ी भरी हुई है शब्दों से। जरा भी जगह नहीं है। है जगह भीतर इंच भर भी? अगर रही होती तो हमने पहले ही एक शब्द और भर लिया होता। हमारी हालत तो वैसे ही है कि एक ब्राह्मण को निमंत्रण किया था, वह खूब लड्डू खा गया है, फिर वह इतना बीमार पड़ गया कि घर ले जाना मुश्किल है।
वैद्य को बुलाया। उसने कहा: गोली खा लो।
उसने कहा: पागल, अगर गोली की जगह होती तो हम एक लड्डू और पहले ही नहीं खा लेते।
वह जगह तो बची कहां है, कुछ भी जगह नहीं है भीतर। पहले जगह बनानी है। जगह बनाने का मतलब ही मौन है। साइलेंस का मतलब ही है स्पेस, साइलेंस का मतलब ही है जगह, खाली जगह। उस खाली जगह में उतरेगा वह..उतरेगा कहना गलत है, है ही वही। खाली जगह में दिखाई पड़ जाता है।
और प्रश्न रह गए हैं, कल उनकी बात हो सकेगी।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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