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सोमवार, 20 अगस्त 2018

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां-परमात्मा को क्या अर्पित करें

 बंबईरात्रि, दिनांक 23 फरवरी, 1972
सदॉमनस्कं अर्ध्यम्।
मन के तीर का निरंतर उसी की तरफ लक्ष्य होना ही अर्ध्य है, अर्पण है।
मनुष्य क्या अर्पण कर सकता है? क्या दे सकता है वह? क्या हो सकती है उसकी ऑफरिंग, उसकी भेंट? हम वही तो भेंट दे सकते हैं, जो कि हमारा है। जो हमारा है ही नहीं, उसे अर्पित भी नहीं किया जा सकता। और आदमी ने सदैव भेंट में वही चड़ाया है, तो जरा भी उसका नहीं है। आदमी ने उसी का बलिदान किया है, जो कि बिल्कुल भी उसका अपना नहीं है।
धर्म एक क्रिया-कांड होकर रह जाता है यदि आप वह अर्पित करें जो कि आपका नहीं है। किंतु धर्म एक प्रामाणिक अनुभूति बन जाता है, जब आप वह चड़ाते हैं जो कि आप ही है। रिचुअल्स, क्रिया-कांड वस्तुतः प्रामाणिक धर्म से बचने की विधियां हैं। आप इस प्रामाणिक धर्म के बदले किसी परिपूरक का पता तो लगा सकते हैं, किंतु आप तब किसी और को नहीं वरन स्वयं को ही धोखा दे रहे होते हैं, क्योंकि कैसे आप उसका बलिदान कर सकते हैं जो कि आपका है ही नहीं? आप एक गाय की बलि दे सकते हैं; आप एक घोड़े की बलि दे सकते हैं। आप जमीन या अन्य संपत्ति दे सकते हैं, किंतु इनमें कुछ भी तो आपका नहीं है। अतएव धर्म के नाम पर ये सब देना चोरी है। जो आपका है ही नहीं, उसे कैसे आप परमात्मा को अर्पण कर सकते हैं?

इसलिए पहली बात तो यही पता लगाता है कि आपका अपना क्या है? किसे कहें आप अपना? क्या कोई भी चीज ऐसी है जो कि आपकी अपनी हो? क्या आप किसी भी चीज के मालिक हैं? क्या आप कह सकते हैं कि यह आपकी अपनी वस्तु है और आप इसे परमात्मा को भेंट करते हैं? यह एक सर्वाधिक कठिन प्रश्न है-‘क्या है आपका अपना?’ कुछ भी तो ऐसा नहीं लगता, जो कि आपका अपना हो। और जब कुछ भी आपका अपना नहीं लगता, तो आप कह सकते हैं कि जब मेरा कुछ भी नहीं है, तो मैं स्वयं अपने को ही उसकी भेंट चड़ाता हूं।किंतु यह भी सच नहीं है, क्योंकि क्या आप अपने स्वयं के स्वामी हैं? क्या आपका स्वरूप आपका है? क्या आप अपने स्वरूप के लिए, अपने होने के लिए जिम्मेवार हैं? क्या आप अपने अस्तित्व के लिए जिम्मेदार हैं?
मनुष्य कहीं से आता है-कहीं किसी अज्ञात स्रोत से। वह अपने यहां होने के लिए स्वयं जिम्मेवार नहीं है। सारेन कीकेंगार्ड ने कहा है कि जब मैं आदमी की तरफ देखता हूं, तो मुझे लगता है जैसे कि उसे यहां उठा कर फेंक दिया गया है।वह तो स्वयं अपने होने के लिए, अपने अस्तित्व के लिए भी जिम्मेवार नहीं है। उसका अस्तित्व परमात्मा में गड़ा है। इसे इस भांति देखेंः क्या एक पेड़ कह सकता है कि मैं अपने को पृथ्वी को अर्पित करता हूं? इसका क्या कोई मतलब होता हैं? यह बिल्कुल अर्थहीन है, क्योंकि पेड़ पृथ्वी में ही गड़ा खड़ा है। वृक्ष पृथ्वी का ही अंग है। वृक्ष कुछ और नहीं है सिवाय पृथ्वी के; फिर कैसे एक वृक्ष कह सकता है कि मैं अपने को पृथ्वी को समर्पित करता हूं! यह अर्थहीन है। वृक्ष पहले से ही उसका एक हिस्सा है। वह उससे भिन्न है, इसलिए अर्ध्य, अर्पण नहीं हो सकता है। अतएव, पहली बात, आप वही भेंट कर सकते हैं, जो कि आपका अपना है। दूसरी बात, आप अर्पित कर सकते हैं यदि कोई दूरी हो, अंतर हो।
वृक्ष अपने को समर्पित नहीं कर सकता, क्योंकि वह पृथ्वी से भिन्न नहीं है। या इस तरह से सोचें, एक सरिता नहीं कह सकती कि मैं स्वयं को सागर को समर्पित करती हूं।सरिता की तो जड़ भी सागर में नहींहोती। वह अलग है। परंतु फिर भी एक सरिता यह नहीं कह सकती कि मैं स्वयं को सागर की भेंट चड़ाती हूं।क्यों? वह ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि वह सरिता की अपनी मर्जी नहीं है। सरिता को सागर में गिरना ही पड़ता है। कोई चुनाव बाकी नहीं बचता। सरिता तोबिल्कुल निःसहाय है। यदि सरिता चाहे भी कि अर्पण नहीं करना है, तो भी वह ऐसा नहीं कर सकती। अतः उसका अर्पण रोका नहीं जा सकता, वह तो होगा ही। जब अर्पण में कोई चुनाव ही न हो, तो वह बेमानी है, अर्थहीन है।
सरिता नहीं कह सकती कि मैं स्वयं को सागर की भेंट चड़ाती हूं,’ क्योंकि उसे आना ही पड़ता है। और यह आना भी प्रकृति का एक हिस्सा है। नदी कोई अपनी मर्जी से नहीं आ रही है। नदी तो लाचार है। वह कुछ और कर ही नहीं सकती। अतएव एक तीसरी बातः आप कुछ अर्पण तभी कर सकते हैं, जब आप उसके अलावा भी कुछ कर सकते हों। यदि आप अर्पण न करने में भी समर्थ हों, तो ही आप कुछ अर्पण करने के योग्य हैं। क्योंकि तब यह आपका चुनाव है।
मनुष्य एक वृक्ष की तरह गड़ा हुआ है। मनुष्य एक वृक्ष ही है-केवल उसकी जड़ें घूमती हुई हैं-स्वरूप में जड़ जमाए, अस्तित्व में जमे। और मनुष्य अलग भी नहीं है। नीचे गहरे में कोई भिन्नता, या दूरी नहीं है। और आदमी अपने बीइंग के लिए, अपने होने के लिए जिम्मेवार नहीं है। उसे तो मजबूरी में लौटना पड़ता है, जैसे कि सरिता सागर में गिरती है। अतः चुनाव कहां है? कैसे आप भेंट कर सकते हैं? आपकी सत्ता तो उससे मिल ही जाएगी, चाहे आप चुनाव करें अथवा नहीं। आप कौन हैं? आप कहां खड़े हैं? और कहां आपका अर्पण संभव हो सकता है?
यह सूत्र बहुत गहरा है। यह सूत्र कहता है-‘मन का लगातार उसकी ओर मुड़ा होना ही अर्पण है।आप अपने को अर्पित नहीं कर सकते, किंतु आप अपने मन को अर्पित कर सकते हैं। क्योंकि वही आपका अपना है और उसमें आपका चुनाव भी है। यदि आप उसे भेंट नहीं करते, तो परमात्मा कोई जोर नहीं दे सकता कि उसे अर्पित करो। आप लाचार भी नहीं है। वह कोई नदी की तरह भी नहीं है, जिसे कि सागर में गिरना ही है। मन का अपना चुनाव है। आप चाहें तोईश्वर को मना करते चले जा सकते हैं, और ईश्वर आपके साथ कोई जबरदस्ती नहीं कर सकता। आपका होना, बीइंग परमात्मा में जड़ जमाए है, किंतु आपका मन ऐसा नहीं है। जहां तक अस्तित्व का प्रश्न है, आप परमात्मा को मना नहीं कर सकते, क्योंकि आप उसी के हिस्से हैं।
जहां तक चेतना का प्रश्न है, आप ईश्वर को मना कर सकते हैं। आप इतनी दूर तक भी मना कर सकते हैं कि आप ऐसी चेतना में रह सकते हैं, जिसमें कि परमात्मा का नाम भी न हो। परमात्मा हैअथवा परमात्मा नहीं है’, यह कहना आपका चुनाव है। यहां तक कि यदि कोई परमात्मा नहीं भी हो, तो आप स्वयं उसे निर्मित कर सकते हैं, आप विश्वास कर सकते हैं कि वह है। और यदि परमात्मा है, तो भी आप उसके अस्तित्व से इंकार कर सकते हैं और आप पर कुछ भी थोपा नहीं जा सकता। अतएव चुनाव केवल मन के साथ ही है, मन की ही एक मात्र स्वतंत्र सत्ता है। आपका होना तोईश्वर में जड़ जमाए हैं, किंतु आपका मन स्वतंत्र है।
वास्तव में, आपका मन आपके अस्तित्व में आता है, किंतु फिर भी वह स्वतंत्र है-स्वतंत्र इस अर्थ में, जैसे कि एक वृक्ष जमीन में गड़ा है। वृक्ष भी पृथ्वी में जड़ जमाए है, शाखा, और जड़ और प्रत्येक फूल भी पृथ्वी में ही जड़ जमो हैं, किंतु फूल की सुगंध स्वतंत्र है और ऊपर कहीं भी घूम सकती है। अतएव आप एक वृक्ष की तरह से हैं, किंतु आपका मन उसकी सुगंध की भांति है। वह अर्पित की जा सकती है, और अर्पित नहीं भी की जा सकती। यह आप पर निर्भर करता है।
मनुष्य की स्वतंत्रता मनुष्य का मन है। पशु स्वतंत्र नहीं हैं, क्योंकि उनके पास चुनाव नहीं है। वे वही हैं, जो होने के लिए वे हैं। उनके पास अपना कोई चुनाव नहीं है। वे स्वभाव के, प्रकृति के विरुद्ध नहीं जा सकते। मनुष्य का मन ही मनुष्य की स्वतंत्रता है। अतः एक बार, जो कि आधारभूत है, उसे समझ लेना चाहिए। वह यह है कि चूंकि मन की स्वतंत्र सत्ता है, अतः वह भेंट हो सकता है। आप अपने मन को अर्पित कर सकते हैं; आप मना भी कर सकते हैं, आप विरोध में भी जा सकते हैं, और परमात्मा भी आपको बाध्य नहीं कर सकता। वही गौरव की बात है, वही मनुष्य के अस्तित्व का सौंदर्य है। इसलिए मनुष्य ही ऐसा पशु है जो कि किसी अर्थ में स्वतंत्र है।
यह स्वतंत्र आप उपयोग में भी ला सकते हैं या उसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं। मन के तीर का सतत उसकी ओर सधा होना ही अर्पण है।यदि आपका मन निरंतर उसकी ओर ही सधा है, लगातार उसकी की ओर, तो आपने अपने को उसे अर्पित कर दिया। परंतु चूंकि मन स्वतंत्र है, इसलिए यह बहुत ही कठिन है कि उसको कहीं भी लगाया जा सके। उसकी खास प्रकृति ही स्वतंत्रता है, इसलिए जैसे ही आप उसे कहीं भी लगाते हैं, वह विद्रोह करता है, वह विद्रोही हो जाता है।
वह आपका अनुकरण कर सकता है यदि आप प्रयत्न नहीं कर रहे हैं, किंतु अगर आप प्रयास कर रहे हैं तो वह विद्रोह करेगा, क्योंकि मन की खास प्रकृति ही स्वतंत्रता है। और जिस क्षण भी आप उसे कहीं भी ठहराते हैं, वह विद्रोह करता है। यह स्वाभाविक है। आप मन को अर्पित कर सकते हैं, किंतु यह आसान नहीं है। मन को अर्पण करना सर्वाधिक कठिन बात है। और जब मैं कहता हूं कि मन का अर्थ होता है स्वतंत्रता’, तो यह और भी कठिन हो जाता है। आप मन को उसकी प्रकृति के विरुद्ध लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
एकाग्रता मन के खिलाफ है, क्योंकि आप उसे कहीं एक बिंदु पर केंद्रित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, कहीं एक जगह पर। परंतु मन तो स्वतंत्र है, गतिमान है, सतत गतिमान। वह जीता ही तभी है, जब वह गति करता हो। वह तभी तक है, जबकि वह गति में हो। वह गत्यात्मक शक्ति है, इसलिए जिस क्षण भी आप उसे स्थिर करते हैं, आप कुछ संभव करने की कोशिश कर रहे होते हैं। अतः क्या करें? धार्मिक आदमी ने सदैव मन कोप्रभु में स्थिर करने का प्रयत्न किया है। और जितना अधिक वह प्रयत्न करता है उसे प्रभु में स्थिर करने का, उतना ही वह शैतान की ओर जाता है।
जीसस की मुलाकात शैतान से होती है। शैतान कहीं भी नहीं है सिवाय जीसस के प्रभु की ओर निरंतर प्रयत्न करने के मार्ग के। शैतान का कोई अस्तित्व नहीं है। वह तो इतना ही है कि जितना आप अपने मन को जबरदस्ती एक जगह स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं, वह उससे उलटे को पैदा करता है गति करने के लिए। अतः आपको विपरीत प्रभाव के नियम को, ‘लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्टको समझ लेना चाहिए। मन के साथ यह नियम आधारभूत है। जो कुछ आप करने का प्रयत्न करते हैं, उसका प्रभाव उससे विपरीत होगा। उसका उल्टा, उसका ठीक विपरीत नतीजा होगा। अतः परमात्मा पर ध्यान लगाना शुरू करें, और आप शैतान को सामने पाएंगे। फल उलटा निकलेगा। अपने मन को मोड़ने का प्रयत्न करें, और आपका मन अराजक हो जाएगा। आप बड़ी परेशानी का सामना करेंगे।
जितना ही आप स्थिरता पाने का प्रयास करेंगे, उतना ही मन अस्थिर होता जाएगा। जितना ही आप उसे चुप करने का प्रयत्न करेंगे, उतना ही वह शोर मचाएगा। जितना आप उसे शुभ की ओर ले जाने का यत्न करेंगे, उतना अशुभ उसे लुभाने लगेगा। यह मन के साथ आधारभूत नियम है। यह उतना ही आधारभूत है जितना कि न्यूटन का भौतिकशास्त्र का विपरीत प्रभाव का नियम’-‘द लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट।
अतः जो कुछ भी आप प्रयत्न करना चाहते हैं, आप कभी भी उपलब्ध न कर सकेंगे। आप उसके विपरीत को ही उपलब्ध करेंगे। और तब एक दुष्टचक्र निर्मित हाता है। जब आप विपरीत को उपलब्ध करते हैं, तो आप यह सोचने लगते हैं कि विपरीत इतना शक्तिशाली है कि मुझे और जोर से लड़ना चाहिए। जितना अधिक आप लड़ते हैं, विपरीत उतना ही अधिक शक्तिशाली होता जाता है, विरोधी उतना ही मजबूत होता जाता है।
विरोधी है ही नहीं; आप ही उसे निर्मित करते हैं, क्योंकि आप अपने मन को बांधना चाहते हैं। वह तो उसका सहउत्पादन है-एक बाई-प्रॉडक्ट जो कि इसलिए आता है, क्योंकि आप नियम को नहीं जानते। अतएव फिर क्या आप जाए मन को परमात्मा को अर्पण करने के लिए? यदि आप परमात्मा को किसी के विरुद्ध चुनते हैं, तोफर कभी भी आप मन का अर्पण न कर सकेंगे।
केवल एक ही रास्ता हैः परमात्मा को सर्व की तरह चुनो; परमात्मा को समग्र की भांति चुनो; परमात्मा को सब कहीं सब कुछ में देखो। यदि शैतान भी तुम्हारे समक्ष आए, तो उसमें भी परमात्मा को ही महसूस करो। तब तुमने अर्पित किया है, और तभी अर्पण सतत हो सकेगा, बिना किसी तोड़ के, बिना किसी अंतराल के, क्योंकि अब कोई अंतराल संभव नहीं है। इसीलिए उपनिषद परमात्मा’, गॉड, शब्द का उपयोग नहीं करते। वे दैटका-उसकाका उपयोग करते हैं, क्योंकि जैसे ही आप परमात्माकहते हैं, ‘शैतानका निर्माण हो जाता है। वे किसी भी संज्ञा का उपयोग नहीं करते, वे केवल सर्वनाम का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं-वह-दैट। और यह वहअपने में सब कुछ समाए हुए है-सब कुछ, सब कहीं। इसलिए यदि सर्वकी तरह आप परमात्मा का ख्याल कर सकते हैं, तो आप अर्पण कर सकते हैं। अन्यथा, विपरीत निर्मित हो जाएगा; अर्पण आप परमात्मा को करेंगे और हो जाएगा शैतान को।
सारे धर्मों ने, ईसाई, यहूदी अथवा इस्लाम, सभी धर्मों ने एक समस्या-द्वैत (डिकॉटॉमी) का सामना किया है। सारे धर्म जो भारत के बाहर पैदा हुए, उन्होंने द्वैत को स्वीकार किया। उन्होंने परमात्मा व शैतान के द्वैत को मान लिया। अतएव यदि आप इन धर्मों का इतिहास देखें, तो आप एक बड़ी ही विचित्र घटना से परिचित होंगे। जीसस परमात्मा के लिए खड़े हैं, किंतु शैतान उन्हें भी आकर्षित करता जाता है। और जिसके लिए स्वयं जीसस खड़े हैं, उनका चर्च (गिरजाघर) उसके बिल्कुल विपरीत के लिए खड़ा है-समग्ररूपेण उलटा!
अतः, ईसाइयत क्राइस्ट से न्यूनतम मतलब रखती है। बल्कि ईसाइयत तो उनकी दुश्मन है, क्योंकि जो कुछ भी चर्च ने किया है, वह परमात्मा का काम नहीं कहा जा सकता। उसे तो शैतान का ही काम कहा जा सकता है। परंतु विपरीतता के नियम के अनुसार तो ऐसा होना ही था।
आप एक बार द्वैत को स्वीकार कर भर लें, फिर तो उसका उलटा परिणाम होगा ही। जीसस प्रेम सिखाते हैं, और गिरजा घृणा के लिए खड़ा है। जीसस कहते हैं, ‘बुराई को भी मत रोको’, परंतु चर्च का पूरा इतिहास तथाकथित बुराई के विरुद्ध एक लंबे युद्ध का ही इतिहास है। अतएव नीत्शे सही कहता है कि पहला व अंतिम ईसाई(क्रिश्चियन) क्रॉस पर ही मर गया’-अंतिम भी! जीसस के बाद दूसरा ईसाई कोई नहीं हुआ। और वास्तव में, संत पॉल व अन्य इसके लिए उतने जिम्मेदार नहीं हैं, जितने कि वे दिखलाई पड़ते हैं। असली जिम्मेवारी तो उनके अज्ञान की है जो कि लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट-विपरीत परिणाम के नियम को न जानने का परिणाम है।
यदि तुम एक हिस्से को दिव्य और एक हिस्से को अ-दिव्य यानी दिव्य का विरोधी मानते हो, तो मन फिर गति करेगा। और मन की अपनी तरकीबें हैं चलने की। वह बुराई को, अशुभ को ठीक सिद्ध कर सकता है शुभ के लिए; वह युद्ध को शांति के लिए तर्कसंगत सिद्ध कर सकता है; वह किसी को जान से मार सकता है प्रेम के लिए! अतः मन बहुत ही चालाक है; विरोधी की ओर गति करने में चतुर है। और जब वह चलता है, तो वह आपको संगत तर्क दे देता है यह विश्वास करने के लिए कि मैं नहीं चल रहा हूं। इसलिए यदि आप परमात्मा को संसार के विरुद्ध चुन लें, तो फिर आप अपने मन को कभी अर्पण नहीं कर सकेंगे। और इसे भी स्मरण रखना चाहिए कि एक आंशिक अर्पण, अर्पण नहीं होता।
आंशिक अर्पण गणित के हिसाब से गलत है। वह एक आंशिक वृत्तकी तरह से है, जो कि वृत्त नहीं है। एक वृत्त तभी वृत्त है, जबकि वह पूरा हो। आप एक आंशिक वृत्त को वृत्त नहीं कह सकते। वह वृत्त नहीं है। अर्पण या तो समग्र है अथवा बिल्कुल ही नहीं है। आंशिक रूप से अर्पण आप करेंगे भी कैसे? वह आंतरिक रूप से असंभव है। आप आंशिक प्रेम कैसे कर सकते हैं? या तो आप प्रेम करते हैं या बिल्कुल नहीं करते हैं। कोई समझौता संभव नहीं है। प्रेम की कोई मात्राएं संभव नहीं है। या तो वह है, या फिर नहीं है। बाकी सब प्रवंचना है, धोखा है।
अर्पण भी एक समग्र घटना है। आप छोड़ देते हैं, आप समर्पण कर देते हैं, किंतु आप यह नहीं कह सकते कि मैं आंशिक रूप से समर्पण करता हूं। क्या मतलब है आपका? एक आंशिक समर्पण का अर्थ होता है कि आप अभी भी मालिक हैं और उसे वापस भी ले सकते हैं। एक हिस्सा जो पीछे छूट गया है, वह वापस भी ले सकता है, वह कल नाभी कह सकता है।
अतः एक समग्र समर्पण का अर्थ होता है कि जिसमें पीछे कुछ भी शेष नहीं बचे-कुछ भी नहीं बचाया गया हो-ताकि तुम वापस न लौट सको। कोई लौटना संभव नहीं, क्योंकि तब पीछे लौटने के लिए कोई बचा ही नहीं। अतएव, अर्पण समग्र है, पूरा है।
किंतु यदि आप जगत को बांट लेते हैं, और यदि आप अस्तित्व को विरोधी ध्रुवों में तोड़ लेते हैं, तो फिर आप एक गहरी डिकोटॉमी में; द्वैत में पड़ेंगे, और आपका मन विरोध में चलेगा। और जितना आप उसे रोकेंगे, उतना ही अधिक आकर्षित करने वाला वह लगेगा। निषेध बड़े आकर्षण प्रतीत होते हैं। जब आप डोंटसपर-निषेधों पर इतना जोर देते हैं, तो आकर्षण बहुत दुर्विचार हो जाता है। नहींएक बड़ा मोहित करने वाला नियंत्रण है। इसलिए जब कभी आप अपने मन को किसी ओर ले जाने की चेष्टा करते हैं-वह निमंत्रित करने लगता है। और देर-अबेर आप उस हिस्से से ऊब जाएंगे जो कि आपने चुना है, और मन यात्रा पर चल देगा। इस प्रकार वह सदैव चलता ही जाता है।
चीन का दर्शन कहता है कि यिन’‘यांगमें गति करता चला जाता है और यांग’‘यिनमें गति करता चला जाता है, और वे एक वृत्त बनाते हैं। वे लगातार एक से दूसरे में गति करते चले जाते हैं। पुरुष स्त्री की ओर चलता चला जाता है, और स्त्री पुरुष की ओर चलती चली जाती है और वे एक वर्तुल बनाते हैं। प्रकाश अंधकार की ओर चलता चला जाता है, और अंधकार प्रकाश की ओर गतिमान होता चला जाता है। वे भी एक वर्तुल बनाते हैं। और जब आप प्रकाश से थक जाते हैं, तो आप अंधकार से आकर्षित होते हैं, और जब आप अंधकार से ऊब जाते हैं तो आप प्रकाश की ओर खिंचते हैं।
आप विपरीत में गति करते चले जाते हैं। अतः यदि आपका परमात्मा भी विरोधी संसार का ही हिस्सा है, विरोधी तर्क का ही हिस्सा है, तो आप अवश्य दूसरे छोर को पहुंच जाएंगे। इसीलिए उपनिषद कहते हैं-‘वहइस दैटमें, ‘वहमें सब कुछ समाहित है; कुछ भी मना नहीं किया गया है।
उपनिषदों की एक बहुत बड़ी धारणा जीवन की स्वीकृति की धारणा है, एक बड़ा दर्शन जीवन के स्वीकार का है। सचमुच यह बड़ा विचित्र है। एल्बर्ट स्वेटजर ने कहा है कि भारतीय-दर्शन जीवन का निषेध करने वाला है, किंतु उसने वास्तव में सारी बात को गलत समझा। अपने दिमाग में जब वह कहता है, ‘हिंदू फिलासफीतो उसके संकेत अवश्य महावीर व बुद्ध की तरफ होगा। परंतु वे वस्तुतः मुखय धारा नहीं हैं। वे तो मात्र विद्रोही बच्चे हैं। हिंदू-दर्शन जीवन के निषेध का दर्शन नहीं है। बल्कि, एल्बर्ट स्वेटजर एक ईसाई है, गहरा ईसाई, और ईसाई फिलासफी जीवन के निषेध की है। हिंदू-दर्शन तो जीवन की एक सर्वाधिक स्वीकृति का दर्शन है।
इसलिए अच्छा है इस जीवन के स्वीकार में गहरा उतरा जाए तभी; केवल तभी आप दैटका, ‘उसका मतलब समझ पाएंगे, क्योंकि यह एक बड़ा विधायक, स्वीकार करने वाला शब्द है-कुछ भी निषेध करने योग्य नहीं। जीवन-निषेधका अर्थ होता है कि आपका परमात्मा कुछ ऐसा है, जो जीवन के खिलाफ है। जैन जीवन का निषेध करने वाले हैं। वे कहते हैं कि यह संसार पाप है। आपका इसे छोड़ देना चाहिए, परित्याग कर देना चाहिए, नकार देना चाहिए। जब तक कि आप पूर्ण रूप से त्याग नहीं देते, आप परमात्मा को नहीं पा सकते। अतएव परमात्मा भी कुछ ऐसा हो गया जिसे कि आप सशर्त उपलब्ध कर सकते हैं, यानी यदि आप संसार को त्याग दें, तो वह मिल जाएगा।
यह बुनियादी शर्त है। बौद्धों के लिए यह बुनियादी शर्त है, तुम्हें सब कुछ त्याग देना चाहिए। तुम्हें मृत्यु को चुन लेना चाहिए। मृत्यु ही लक्ष्य होना चाहिए, न कि जीवन! तुम्हें संघर्ष करना चाहिए फिर से जन्म न लेने के लिए। जीवन किसी काम का नहीं है; वह किसी मूल्य का नहीं है। वह तो केवल तुम्हारे पाप के कारण से है। यह तो सजा है, और तुम्हें किसी तरह उसके बाहर निकल जाना चाहिए, जीवन के बाहर।किंतु यह हिंदू-धारणा नहीं है। उपनिषदों का इससे जरा भी संबंध नहीं।
ठीक ऐसा ही ईसाइयत का भी रुख हैः जीवन पाप है, और आदमी पाप में पैदा हुआ है।इतिहास पाप में ही शुरू होता है। आदम को स्वर्ग से निकाल दिया गया क्योंकि उसने पाप किया, उसने अवज्ञा की है, और अब हम पाप में से जन्मे हैं! इसीलिए ईसाइयों ने इस बात पर जोर दिया है कि जीसस का जन्म सेक्स से, यौन से नहीं हुआ, उनका जन्म एक कुंआरी लड़की से हुआ, क्योंकि यदि तुम्हारा जन्म सेक्स से हुआ, तो तुम पाप में पैदा हुए, और कम से कम जीसस को तो पाप में पैदा नहीं ही होना चाहिए! इसलिए प्रत्येक पाप में पैदा होता है; मनुष्यता ही पाप में रहती है। अतः एक गहरे त्याग की आवश्यकता है परमात्मा तक पहुंचने के लिए। ईसाइयत भी मृत्यु-केंद्रिक है। इसीलिए क्रॉस इतना अर्थपूर्ण हो गया, अन्यथा क्रॉस इतना अर्थपूर्ण नहीं होता। यह मृत्यु का प्रतीक है। हिंदुओं की समझ में नहीं आ सकता कि क्रॉस कैसे एक प्रतीक हो सकता है। और जीसस भी इसीलिए इतने महत्वपूर्ण व इतने अर्थ के हो गए, क्योंकि इन्हें क्रॉस पर लटका दिया गया। यदि तुम जीसस को नहीं लटकाते हो, तो जीसस एक बड़े सामान्य व्यक्ति हो जाते हैं। ईसाइयत का तो फिर जन्म नहीं होता।
वस्तुतः जो लोग मृत्यु-केंद्रिक थे, वे जीसस की ओर आकर्षित हो गए, क्योंकि उन्हें क्रॉस पर लटका दिया गया था। जीसस की मृत्यु एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना हो गई। अतः, वस्तुतः ईसाइयत का जन्म इसलिए हुआ, क्योंकि यहूदियों ने मूर्खता से जीसस को क्रॉस पर लटका दिया। यदि वे नहीं लटकाए जाते, तो कोईईसाइयत नहीं होती। अतएव नीत्शे फिर से सही है। वह कहता है कि क्रिश्चयनिटी वास्तव में, क्रिश्चयनिटी नहीं है, बल्कि क्रॉसियनिटी’-क्रॉस-केंद्रिक है।
स्वेटजर कहता है कि हिंदू लोग जीवन का निषेध करने वाले हैं। वह गलत है, क्योंकि वह बुद्ध के बारे में सोच रहा है। वे इतने ही हिंदू थे, जितने कि जीसस क्राइस्ट यहूदी, बस इतने ही। वे जन्म से हिंदू थे जैसे कि जीसस क्राइस्ट यहूदी पैदा हुए। परंतु हिंदुओं का अपना सारा तत्व उपनिषदों में है, जो कि बुद्ध के भी पहले हैं, और बुद्ध ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा, जो कि उपनिषदों में नहीं है। वे जीवन को स्वीकार करने वाले हैं, पूर्ण जीवन को स्वीकार करने वाले। और मेरा क्या मतलब है, जब मैं कहता हूं-‘टटोल लाइफ अफरमेशन-संपूर्ण जीवन को स्वीकार करने वाले? आप जीसस को नाचते हुए सोच भी नहीं सकते। आप जीसस को गीत गाते हुए विचार भी नहीं करते। आप बुद्ध को नाचते हुए, गाते हुए, प्रेम करते हुए सोच भी नहीं सकते। आप महावीर को लड़ते हुए नहीं सोच सकते। आप ऐसा नहीं कर सकते! केवल एक कृष्ण को ही हंसते हुए, नृत्य करते हुए, प्रेम करते हुए, यहां तक कि युद्ध में खड़े हुए भी, बिना किसी निषेध के, बिना किसी मनाही के सोच सकते हैं।
सारा जीवन ही दिव्य है। अतः परमात्मा को चुनन का अर्थ यह नहीं होता कि संसार को त्याग दिया जाए। परमात्मा का चुनने का अर्थ होता है कि परमात्मा को संसार के द्वारा चुनना। यही मतलब है दैटका-‘उसका। और जब आप परमात्मा को संसार के मार्फत ही चुनते हैं, न कि संसार के विरुद्ध, तो फिर कोई विरोधी तत्व नहीं है। बल्कि तभी आप विपरीत परिणाम के नियमसे बचते हैं। जब आप उसेइसके द्वारा चुनते हैं, तो फिर कोई विरोध नहीं है, तब कोईध्रुव-विरोध नहीं है। और जब कोईध्रुव-विरोध ही नहीं है, तो मन के पास फिर कोई पर्त भी नहीं है गति करने के लिए। ऐसा नहीं है कि वह बंधा है, ऐसा नहीं है कि वह दासता में है, ऐसा भी नहीं है कि आपने यहीं जबरदस्ती रोक दिया है। अब कोई संभावना नहीं है उसके गति करने के लिए, क्योंकि उसका कोई विरोधी नहीं है।
इसे अच्छी तरह से समझ लेंः जब विपरीत नहीं है तो मन स्वतंत्र है कहीं भी गति करने के लिए; फिर भी वह नहीं चलता, क्योंकि वह जाए तो कहां जाए? वह गति करता है, क्योंकि गति ही उसकी प्रकृति है। और यदि आप द्वैत निर्मित कर देते हैं, तो वह विपरीत की तरफ गति का जाता है; वह आपके विरुद्ध विद्रोह कर देता है। यदि दो की कोई बात ही नहीं है, यदि कोई विपरीत है ही नहीं, और यदि आपने विपरीत को भी परमात्मा में ही समझ लिया है, तोफर मन कहां जाएगा? तब जहां कहीं भी वह जाता है, वह केवल उसीके पास जाता है। अतः यदि कृष्ण एक स्त्री के साथ नाच रहे हैं, तो वे परमात्मा के साथ नाच रहे हैं क्योंकि स्त्री परमात्मा के बाहर नहीं है। परमात्मा किसी स्त्री के विरुद्ध नहीं है। यदि परमात्मा स्त्री के खिलाफ है, तो फिर स्त्री शैतान हो गई। तब फिर स्त्री अपनी तरफ खींचेगी, और तब कठिनाई होना अनिवार्य हो जाएगा।
जीसस क्राइस्ट हंस नहीं सकते, वे सतत तनाव में रहते हैं। कृष्ण हंस सकते हैं, क्योंकि कहीं भी कोई तनाव नहीं है। जब सभी कुछ परमात्मा है, और जब प्रत्येक चीज के द्वार वे अर्पण ही कर रहे हैं, तो फिर तनाव कहां है? अब उसकी कोई जरूरत भी नहीं है। तब कृष्ण हर जगह आनंद में हो सकते हैं। नरक में भी वे आराम से हो सकते हैं, क्योंकि नरक भी वहीहै।
मैं आपसे कह रहा था कि जैनों ने कृष्ण को नरक में डाला हुआ है, क्योंकि यह व्यक्ति ही महाभारत के महायुद्ध के लिए जिम्मेदार था। उन्होंने उसे सातवें नरक में डाला हुआ है-जो कि सब से गहन है और महापापियों के लिए है। किंतु जब मैं आंख बंद करता हूं और कृष्ण को नरक में पड़े हुए सोचता हूं, तो सिवा इसके कि वहां भी कृष्ण को नृत्य करते हुए देखूं, मैं कुछ भी नहीं सोच पाता। वे वहां भी अवश्य ही नृत्य कर रहे होंगे। यदि वे वहां हैं तो भी वे नृत्य ही कर रहे होंगे, क्योंकि नरक भी वहीहै। और वे किसी कष्ट में न होंगे और वे वहां से बाहर निकलने के लिए कोईप्रार्थना भी नहीं कर रहे होंगे। वे कोईप्रयत्न नहीं करेंगे, क्योंकि वहतो सभी जगह उपस्थित है। आपको कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है और आपको किन्हीं भी शर्तों को पूरा करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इन-इन स्थितियों में ही वहसंभव होता है।
वहतोप्रत्येक स्थिति में संभव है। बशर्ते वहउपस्थित है। जब आप दिव्य की उपस्थिति बिना किसी शर्त के सोच पाते हैं, तभी वह उपनिषदों का वहहोता है। तब जहर में भी वहहै, तब मृत्यु में भी वहहै; तब दुःख में भी वहहै। और आप उससे बाहर कहीं नहीं जा सकते। अथवा जहां कहीं भी आप जाते हैं, आप उसी में गति करते हैं। अतएव उसका चिंतन इसके (संसार के) द्वारा किया जाना चाहिए, अन्यथा विपरीत परिणाम का नियमकाम करने लगेगा। और प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति इस विपरीत परिणाम के नियमका शिकार होता है।
जब तक आप समग्रता से इस बात को नहीं समझ लेते, जब तक आपको यह महसूस नहीं होता कि यह नियम हर जगह काम कर रहा है, तब तक कभी भी अपने मन में विपरीत ध्रुवों को निर्मित न करें, वरना आप अपनी ही बेवकूफी का शिकार बनेंगे। जिस क्षण भी आप किसी चीज को किसी चीज के विरुद्ध चुनते हैं, उसी क्षण अपने आप ही एक ऐसी खाई निर्मित हो जाती है जिसमें कि आप अवश्य गिरेंगे। आप विरोधी से अवश्यमेव सम्मोहित होंगे।
हम सभी विरोधों के द्वारा सम्मोहित होते हैं। एक समाज कामुक हो जाता है यदि आप कहें कि यौन पाप है। तब यौन (सेक्स) आकर्षक हो जाता है, उसके चारों तरफ एक तरह का रहस्यात्मक प्रभामंडल बनने लगता है। जीवन का एक साधारण-सा तथ्य, चूंकि आप उसे पाप करार दे देते हैं, खाई बन जाता है-केवल इसीलिए कि उसे पाप के नाम से पुकारा जाता है। किसी भी चीज को पाप का नाम दे दीजिए और आपने वह बिंदु निर्मित कर दिया जिससे कि आपको सम्मोहित किया जाएगा। आत्म-सम्मोहन अब संभव हो जाएगा। किसी भी वस्तु को मना न करें और आप उसके जाल में नहीं गिरेंगे। लाओत्सु कहता है, ‘स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में एक इंच का भी अंतर पड़ा और सब कुछ अलग-अलग हो गया। शुभ और अशुभ के बीच में एक इंच का भी भेद हुआ और सब कुछ दूर-दूर हो गया।
कोई भेद निर्मित नहीं किया जाना चाहिए। इसीलिए धर्म नैतिकता नहीं है। धर्म उसके पार है, क्योंकि नैतिकता बिना भेद के नहीं हो सकती, और धर्म भेद के रहते नहीं हो सकता। नैतिकता बिना दूसरे के नहीं हो सकती। वह शुभ और अशुभ आदि ध्रुव-विभाजनों पर निर्भर है। अतएव परमात्मा और शैतान धर्म के नहीं, बल्कि नैतिकता के हिस्से हैं। परमात्मा की धारणा अशुभ के, शैतान के विरोध में है और यह वास्तव में धार्मिक धारणा नहीं है। यह नैतिकवादी दृष्टिकोण है।
जब पहली बार उपनिषदों का अनुवाद पश्चिमी भाषाओं में हुआ, तो विद्वानों को कुछ समझ में न आया, क्योंकि वे टेन कमांडमेंटस की तरह से नहीं थे, जिसमें कहा गया था कि यह करो और यह मत करो।इस आज्ञाओं की तरह वहां कुछ भी नहीं था और बिना दस आज्ञाओं के धर्म कैसे हो सकता है? कैसे? पश्चिम इस बात का नहीं सोच सका। अतः ये पुस्तकें धार्मिक पुस्तकें न हो सकीं, क्योंकि उनमें क्या शुभ है और क्या अशुभ है और क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए-ऐसी कोई चर्चा नहीं थी।
और वे एक तरह से सही थे। यदि हम धर्म को नैतिकता मात्र समझें, तो फिर उपनिषद धार्मिक नहीं है। क्योंकि नैतिकता सिर्फ एक सुविधा है और एक देश की नैतिकता दूसरे देश से भिन्न है; जाति-जाति में भिन्न है; एक भौगोलिक स्थिति से दूसरी भौगोलिक स्थिति में भिन्न है; एक इतिहास से दूसरे इतिहास से भिन्न है। तो वह भिन्न होगी ही, क्योंकि प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति, अपनी खुद की सुविधा देखती है।
धर्म कोई सुविधा की बात नहीं है और वह एक जाति और दूसरी जाति में भिन्न नहीं हो सकता। वह भूगोल अथवा इतिहास पर भी निर्भर नहीं है। वस्तुतः वह किसी मानवीय विचारणा पर आधारित नहीं है। वह तो वास्तविकता के परम स्वभाव पर निर्भर है। इसलिए धर्म एक प्रकार से शाश्वत है।
नैतिकताएं सदैव अस्थाई हैं, क्योंकि वे किसी काल की हैं, किसी समय और किसी क्षेत्र की हैं और काल-परिवर्तन के साथ ही वे बदल जाती हैं। जब समय बदल जाता है, तो वे भी बदल जाती हैं। किंतु धर्म तो शाश्वत है, क्योंकि वह सत्य का निजी स्वभाव है। वह आपकी विचारणा पर निर्भर नहीं है। यह धर्म ध्रुव-विरोधी वास्तविकता नहीं है। किंतु वास्तविकता कोध्रुव-विरोधों में बांट दिया जाता है। जैसा कि हम देखते हैं, इसे भी बांट दिया जाता है, क्योंकि हमारा देखना भी बांट देना ही है जैसे कि प्रकाश की एक किरण, सूर्य की एक किरण प्रि म द्वारा बांट दी जाती है।
जब मन चीजों की ओर देखता है, तो वे विपरीत ध्रुवों में बंट जाती है। जैसे ही हम देखते हैं, हम बांट देते हैं। हम अविभाजित वास्तविकता में एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकते। मैंने आपको देखा, और मैंने विभाजन कर दिया-सुंदर-कुरूप, शुभ-अशुभ; गोरा-काला, मेरा-तेरा नहीं। जिस क्षण मैं आपको देखता हूं, विभाजन आ जाता है। मन प्रि म की भांति काम करता है और प्रि म वास्तविकता को बांट देता है। यदि आप चुनाव करने ले जाएं, तो आप अपने मन के शिकार हो जाएंगे। अच्छे और बुरे का विभाजन मन का ही किया हुआ है।
शुभ को अशुभ के विरोध में न चुनें अन्यथा आप शुभ के विरुद्ध गिरेंगे। शुभ को अशुभ के द्वारा चुनें; अशुभ को शुभ के द्वारा जानें। वे एक ही हैं; इस अविभाजित एकता को जानें। जीवन को मृत्यु के द्वार देखें; मृत्यु को जीवन के मार्फत देखें-न कि विरोधों की तरह से वरन एक ही चीज के दो सिरों की भांति। यही अर्थ है उसका, ‘दैटका। और सूत्र कहता है, ‘मन का तीर सदैव उसकी तरफ सधा हो, यही अर्पण है, ऑफरिंग है।
मन सतत उसकी ओर बहता रहे, बिना किसी अंतराल के, निरंतर। कैसे आपका मन सतत बह सकता है, यदि संसार से आप आपने परमात्मा को अलग कर लेते हैं? आपको भोजन करना पड़ेगा, और तब आप भूल जाएंगे, आप अपने परमात्मा को भूल जाएंगे। आपको सोना पड़ेगा, और आप फिर भूल जाएंगे; आप अपने परमात्मा को फिर भूल जाएंगे। आपको बहुत से काम करने पड़ेंगे, और परमात्मा सतत एक द्वंद्व की तरह से बीच में आएगा। इसलिए ऐसा धर्म जो कि परमात्मा को संसार के विरुद्ध लेकर जीता है, बहुत संताप निर्मित करता है। और तथाकथित धार्मिक लोग निरंतर परमात्मा की तरफ मुड़े हुए नहीं होते, किंतु वे सतत पीड़ा व तनाव की तरफ मुंह किए होते हैं। वे भारी संताप में जीते हैं। प्रत्येक चीज परमात्मा के विरुद्ध हो जाती है, अतएव पीड़ा अनिवार्य हो जाती है। वे लोग कैसे हंस सकते हैं? वे लोग कैसे गा सकते हैं? हर बात बीच में आ जाती है। जहां कहीं भी वे परमात्मा की खोज में जाते हैं, कुछ न कुछ अवरोध की तरह आ ही जाता है।
सारा संसार दुश्मन हो जाता है। मित्र तब मित्र नहीं रह जाते। वे भी बीच में आने लगते हैं, वे भी दुश्मन हो जाते हैं। प्रेम जहर हो जाता है, क्योंकि वह बीच में आता है। हर वस्तु बीच में आने लगती है। आप सब कहीं से अवरोध ही पाते हैं। फिर आप शांति से कैसे रह सकते हैं? बिल्कुल नहीं रह सकते। एक साधारण-सा सांसारिक व्यक्ति भी आपसे अधिक शांति से रह सकता है। यदि आपका परमात्मा कुछ ऐसा है जो कि संसार के खिलाफ है, तो आप शांति से नहीं रह सकते। आप एक निरंतर संताप व पीड़ा में रहेंगे। हां, यदि पीड़ा स्व-आरोपित हो, तो हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है और वह मजबूत होता है। आप उसका आनंद ले सकते हैं। और जब कोई अपने ही द्वारा आरोपित कष्टों में रस लेता है, तो वह पागल है, विक्षिषत है। तब वह अपने होश में नहीं है। अतः आप अपनी ही मूर्खता के लिए शहीद हो सकते हैं। और यह भी हो सकता है कि लोग अपनी पूजा करें, क्योंकि ऐसे लोग भी हैं जो कि बड़े आनंद का अनुभव करते हैं, जब कि कोई अपने को सताता है। वे लोग सैडिस्टहोते हैं-स्वयं को सताने वाले; और आप मैसोकिस्टहोने लगते हैं-दूसरों को सताने में आनंद लेने वाले। आप अपने को सता रहे हैं, और आप अपने को सताते जा सकते हैं लगातार और जब कि सारा संसार परमात्मा के खिलाफ होगा, आप अपने को सताएंगे। तब यह जीवन एक निरंतर संताप ही बनने वाला है। प्रत्येक चीज पाप है, और प्रत्येक चीज दोष का भाव, भय व चिंता पैदा करेगी। और आप लगातार एक अराजकता में जीएंगे।
आप स्वयं को सताएंगे और मैसोकिस्ट स्व-पीड़क हो जाएंगे। और जब कभी भी कोई स्व-पीड़क होता है, तो सैडिस्ट्स (दूसरों को सताने वाले) उसके चारों ओर इकट्ठे हो जाएंगे और उसकी पूजा करेंगे। ऐसे लोग वे हैं, जिन्हें बड़ा मजा आता है जब कोई अपने को सता रहा हो। वे आपको सताना चाहते हैं, किंतु आपने उन्हें उस कष्ट से भी मुक्त कर दिया! क्योंकि आप स्वयं ही अपने को सता रहे हैं। उन्हें बड़ा मजा आता है। अतएव सौ में निन्यानबे साधु रुग्ण होते हैं-यह सब अस्तित्वगत रुग्णता है। वे सब मैसोकिस्ट हैं, स्वयं को सताने वाले। आप उनकी पूजा कर सकते हैं, किंतु वे आपको नरक में ढकेल देंगे। और यह धर्म बिल्कुल नहीं है। धर्म तो बुनियादी रूप से आनंदपूर्ण जीवन निर्मित करता है-एक ऐसा जीवन जो कि प्रभु की अनुकंपा है, जो कि संपूर्ण रूप से आनंद है। तो फिर कैसे यह चिंता और आनंद से संबंधित हैं? वे तोध्रुवों की तरह एक दूसरे के विपरीत और दूर हैं।
उपनिषद कहते हैं, ह्यअपने मन कोउसेअर्पण करोइसकेद्वारा, सर्व के द्वारा। कोई बाधा निर्मित न करो, कोई विरोधी उत्पन्न न करो। जो कुछ भी है, वह वहीहै। और वस्तुतः एक चमत्कार घटित होता है जब वे कहते हैं कि शुभ को अशुभ के द्वारा देखो, और अशुभ गायब हो जाता है। जब मैं कहता हूं कि इसके द्वारा उसेदेखो, तो यह गायब हो जाता है। यहपारदर्शी हो जाता है और केवल वहीशेष रहता है। संसार नहीं है, सिवा इसके कि अभी भी हम इस योग्य नहीं हुए कि उसेजान सकें जो कि है
जगत विलीन हो जाता है। इसीलिए शंकर कह सके कि वह माया है। माया का या भ्रम का यह मतलब नहीं है कि जगत है ही नहीं। केवल उसका इतना ही मतलब है-यह जगत वास्तविकता नहीं है, किंतु केवल एक पारदर्शिता है। यदि आप इसमें गहरे देख सकें, तो ब्रह्म के दर्शन हो जाते हैं और जगत खो जाता है।
यदि आप उसेनहीं देख सकते हैं, जो यह जगत बिल्कुल वास्तविक हो जाता है। वास्तविक जगत होता है, क्योंकि आप सत्य को नहीं जानते। जिस क्षण भी आप सत्य को पा लोगे, यह जगत विलीन हो जाएगा। इसका यह मतलब नहीं होता कि मकान नहीं होंगे, देश नहीं होंगे, सड़कें नहीं होंगी। ऐसा इसका अर्थ नहीं है। जब शंकर कहते हैं कि जगत माया है, और यह विलीन हो जाता है जब वहप्रकट होता है, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि यह स्वप्न की तरह खो जाता है। नहीं, यह एक दूसरे ही अर्थ में विलीन हो जाता है, ब्रह्म की सत्ता में।
यहविलीन हो जाता है, जब वह जो छिपा हुआ है प्रकट हो जाता है, जब समग्र प्रकट होता है। गेस्टाल्ट बदल जाता है, सारा देखने का ढंग ही बदल जाता है। नए ढांचे में आप दूसरी ही तरह से देखने लगते हैं। वही वृक्ष एक लकड़ी काटने वाले के लिए एक उपयोगी वस्तु है, और एक चित्रकार के लिए गेस्टाल्ट बिल्कुल दूसरा ही है। एक लकड़ी काटने वाले के लिए वह हरा नहीं हो तो ठीक है, क्योंकि उसे लकड़ी से मतलब है, उसकी किस्म से मतलब है, क्योंकि लकड़ी फर्नीचर बनाने के काम आ सकती है। इस मन का देखने का एक ढंग है। उस ढंग में, उस ढांचे में, वृक्ष हरा बिल्कुल भी नहीं हो सकता। उसने उसके हरेपन को हो सकता है बिल्कुल भी न देखा हो।
एक चित्रकार पास ही खड़ा है। उसके लिए वृक्ष हरा है। और मुझे आश्चर्य है कि यह आप जानते हैं या कि नहीं जानते हैं, लेकिन जब कोई चित्रकार एक वृक्ष की ओर देखता है तो वह मात्र हरा ही नहीं रह जाता-क्योंकि हरेपन के भी हजारों प्रकार है। जब आप साधारणतया देखते हैं, तोप्रत्येक वृक्ष हरा दिखलाई पडता है। किंतु कोई भी दो हरे एक से नहीं है। दो हरे दो अलग-अलग रंग हैं। हर एक हरे रंग का अपना हरापन है। अतः एक चित्रकार के लिए, यह कोई साधारण हरा नहीं है। यह हरा है, हरा है, हरा है-कितने ही शेड हैं, कितनी ही विविधतायें हैं।
एक प्रेमी, जिसकी प्रेमिका खो गई है, हो सकता है कि वह वृक्ष की ओर बिल्कुल भी न देखे, क्योंकि हरा बहुत उदासीन दिखलाई पड़ेगा और उसका रंग व शेड भिन्न ही होगा। वह पेड़ का टेक्सचर महसूस नहीं कर पाएगा अथवा हो सकता है कि वह प्रेमिका के शरीर को याद कर रहा हो, न कि वृक्ष की किस्म। एक बच्चा भी वहां खेल रहा है, और एक वृद्ध पुरुष भी वहां मर रहा है। क्या वे एक ही वास्तविकता को देखेंगे? उनके देखने के ढंग भिन्न होंगे। एक भिन्न ही वृक्ष उत्पन्न होगा और एक दूसरा ही वृक्ष वहां होगा प्रत्येक के लिए।
शंकर के लिए यह संभव नहीं है कि वृक्ष को देखें, किंतु केवल उसकोही देखना संभव है। वृक्ष की किस्म भी नहीं, वृक्ष का हरापन भी नहीं, प्रेमी की उदासीनता भी नहीं, बच्चे का खेलना भी नहीं, मरते हुए आदमी का दुख भी नहीं-कुछ भी नहीं। शंकर के लिए वृक्ष को देखना कतई संभव नहीं है, संभव है तो केवल वही’, तब वृक्ष पारदर्शक हो जाता है। उस नए दर्शन के आयाम में, गेस्टाल्ट में वृक्ष विलीन हो जाता है और ब्रह्म प्रकट हो जाता है। यही मतलब है जब मैं यह कहता हूं-देखो, खोजो, प्रत्येक जगह, भीतर प्रवेश कर जाओउसकेलिए, और जब आप उसेअनुभव करने लगते हैं हर जगह, आपका मन गति नहीं कर सकता, क्योंकि कोई विरोधी नहीं है।
तभी अर्पण है-केवल तभी। तभी केवल अर्पण किया है, तभी तुमने दिया है। तुम अपने को नहीं दे सकते, केवल अपना मन दे सकते हो, क्योंकि तुम अपना मन वहां से हटा सकते हो। तुम उसमेंही हो, किंतु तुम्हारा मन नहीं है। वह हो सकता है। और तुम मुक्त हो सकते हो। चुनाव तुम्हारा है, इसलिए तुम्हीं जिम्मेवार हो-कोई दूसरा नहीं। जिम्मेवारी तुम्हारी है, इसलिए धार्मिक होना या नहीं होना, यह तुम्हारा ही निश्चय है।
व्यर्थ की बातों में न पड़ो कि परमात्मा है या नहीं, वह तुम्हारा निश्चय है। यह विवाद अर्थहीन है कि परमात्मा है या नहीं, यह तुम्हारा चुनाव है। अतएव तुम कह सकते हो, वह नहीं है, किंतु यह कह कर तुम एक बड़ी वास्तविकता से इंकार कर देते हो और उसके प्रति खुले होने को भी। तुम कह सकते हो कि वह हैऔर ऐसा कह कर तुम एक महान वास्तविकता के प्रति खुलते हो।
यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि वह है या नहीं। यह वैज्ञानिक तथ्य की तरह से सिद्ध नहीं किया जा सकता। क्योंकि यदि यह सिद्ध कर दिया जाए, तो फिर कोई स्वतंत्रता नहीं रहती; तब अर्पण करना असंभव है। यदि यह एक तथ्य हो जाए, किसी भी तथ्य की तरह से निरपेक्ष, यदि यह एक तथ्य हो जाएगा चंद्रमा, अथवा सूर्य अथवा पृथ्वी की तरह से, यदि यह सामान्य वस्तुगत तथ्य हो जाए, तो फिर आपके पास चुनाव करने की स्वतंत्रता नहीं होगी। इसलिए परमात्मा एक वैज्ञानिक तथ्य कभी नहीं बन सकता और यह कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता कि वह हैया नहीं है।केवल इतना ही कहा जा सकता हैः यदि तुम उसे चुनते हो, तो तुम भिन्न ही हो जाते हो; यदि तुम उसे नहीं चुनते हो, तो तुम फिर दूसरे ही आदमी हो जाते हो। यदि तुम उसे नहीं चुनते हो, तो तुम अपने लिए नरक निर्मित कर लोगे। यदि तुम उसे चुनते हो, तो तुम अपे लिए नरक निर्मित कर लोगे। यदि तुम उसे चुनते हो, तो तुम एक आनंदपूर्ण अस्तित्व निर्मित कर सकते हो।
यह बिल्कुल असंगत है। यह तो आपका चुनाव है जो कि मतलब रखता है। परमात्मा है या नहीं, इससे कोई मतलब नहीं निकलता। यह तो विवाद करने के भी योग्य बात नहीं है। आधारभूत, संगतिपूर्ण बात तो यह है कि यदि तुम चुनते हो, तो तुम भिन्न ही आदमी होते हो। यदि तुम नहीं चुनते हो, तो फिर तुम दूसरे ही होते हो। और यह तुम पर निर्भर करता है! यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम कैसा अस्तित्व पसंद करते हो-एक कंपता हुआ, भयपूर्ण, एक संताप व मृत्यु से भरा, एक लंबी यातना से भरा या आनंदपूर्ण-एक क्षण-क्षण खुलना महान में और अधिक महान में खुलते जाना। इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि परमात्मा है या नहीं। प्रश्न यह है कि क्या तुम रूपांतरित होना वह एक दूसरे ही अस्तित्व में ले जाए जाना चाहते हो या नहीं? और यह सदैव तुम्हारा चुनाव होगा।
यदि यह संसार भी कहे कि परमात्मा है और मैं इंकार करूं, तो मैं ऐसा कर सकता हूं और यह मुझ पर जबरदस्ती थोपा नहीं जा सकता। इसीलिए यह अर्पण है। यह एक अर्पण है। तुम अर्पित कर सकते हो, तुम रोक भी सकते हो। तुम स्वयं तो पहले से ही अर्पित हो, इसलिए वह तोप्रश्न ही नहीं है। किंतु तुम्हारा मन अर्पण नहीं किया गया है, और यही एक जटिलता है, जिसमें कि तुम रहते हो, और दुःख पाते हो। तुम उसीमें हो, परंतु तुम दुःख पाते हो। क्यों? क्योंकि तुम्हारा मन उसमेंनहीं है। और वस्तुतः तुम्हारा मन ही दुःख पाता है-न कि तुम। तुमने तो कभी दुःख नहीं पाया; तुम दुःख पा भी नहीं सकते। तुम कभी मरे भी नहीं, तुम मर भी नहीं सकते। किंतु तुम्हारा मन दुःख पाता है, तुम्हारा मन ही मरता और पैदा होता है, और मरता है और दुःख भोगता है, और लगातार दुःख भोगता चला जाता है। यह मन ही जरूरत से यादा बड़ गया है। इसे उसेअर्पित करो और तुम उस बिंदु पर आ जाओगे जहां कि तुम सदैव से ही हो। तुम उसे जान लोगे, जो कि तुम्हारा स्वभाव है।
बुद्ध से पूछा गया-‘क्या मिला तुम्हें?’ जब उन्होंने निर्वाण को उपलब्ध किया, बुद्धत्व को पा लिया, तब उनसे पूछा गया-‘क्या पाया तुमने?’ बुद्ध ने कहा, ‘मैंने कुछ भी नहीं पाया सिवा उसके जो कि मेरे पास सदा से ही था, मिला हुआ ही था। बल्कि, इसके विपरीत मैंने कुछ खो दिया है। मैंने कुछ भी नहीं पाया है, मैंने मन को खो दिया है जो कि मेरे पास था और मैंने वह पा लिया है जो कि सदा से मुझे मिला हुआ था, किंतु मन के कारण मैं वहां तक पहुंच नहीं पाता था, उसे देख नहीं पाता था।
यह हमारा ही चुनाव है। सत्य पर परदा हमारे चुनाव के कारण से ही है। सत्य पर हमारे मन का ही आवरण है। यह दुखी जीवन हमारा ही निश्चय है और इसके लिए कोई जिम्मेवार नहीं है। और तुम कितने ही जीवन इस तरह चल सकते हो। तुम चले हो और अभी भी तुम चल सकते हो कितने ही जीवन। और कोई इस चक्र को तोड़ नहीं सकता और कोई तुम्हें बाहर नहीं खींच सकता, क्योंकि वह तुम्हारा ही चुनाव है। केवल तुम्हीं उसमें से बाहर छलांग लगा सकते हो। और जिस क्षण भी तुम निश्चय करो, तुम छलांग लगा सकते हो। इसलिए इस भाषा में न सोचो कि चूंकि मैं इतने जीवन अज्ञान में रहा, तो एक क्षण में छलांग कैसे लगा सकता हूं? तुम एक क्षण में ही छलांग लगा सकते हो, क्योंकि ये सारे जीवन तुम्हारे ही निश्चय के कारण से थे। इस निश्चय को बदलो, और सारी की सारी बात ही बदल जाती है।
यह ऐसा ही है जैसे कि इस कमरे में कई वर्षों से अंधेरा हो, तो क्या तुम कहोगे कि मैं इसमें एक क्षण में दीया कैसे जलाऊं? अंधेरा इतने लंबे समय से था, वर्षों से वह यहां घिरा था, कैसे एक दीया जो इस क्षण जलाया जाए, उसे मिटा देगा? हमें वर्षों-वर्षों संघर्ष करना पड़ेगा और दीये को भी कई वर्षों लड़ना पड़ेगा तब जाकर कहीं अंधकार मिटाया जा सकेगा, क्योंकि अंधेरे का अपना अतीत है, इतिहास है। यह बहुत गहरे जड़ जमाए है।
किंतु जलाओ तो दीया, फिर यह अंधेरा नहीं होगा। अंधेरे का कोई इतिहास नहीं हो सकता। उसका सिर्फ अर्सा होता है। वस्तुतः अंधेरे का कोई समय नहीं होता, उसकी केवल एक अवधि होती है। किंतु इस अवधि से मेरा मतलब यह है कि यह एक के ऊपर एक इकट्ठा नहीं होता, इसलिए यह मोटा नहीं होता। इसलिए एक क्षण का अंधकार उतना ही मोटा होता है, जितना कि एक वर्ष का, अथवा एक सदी का। वह उससे अधिक मोटा नहीं हो सकता। वह एक के ऊपर एक इकट्ठा नहीं होता। हर क्षण उसका ढेर नहीं लग रहा, इसलिए यह कभी इतना मोटा व घना नहीं हो सकता कि दीये की रोशनी उसमें प्रवेश ही न कर सके। वह वही होता है, उसकी केवल अवधि होती है, डयूरेशन-एक सामान्य अवधि, बिना किसी मोटाई के।
अज्ञान भी अंधकार की तरह से ही है-एक डयूरेशन, अवधि। तुम उसमें सदियों से हो सकते हो, लाखों-लाखों वर्षों से, और एक क्षण के ही निश्चय में, वह वहां नहीं भी हो सकता है। यह बिल्कुलप्रकाश की तरह से है। जैसे ही प्रकाश उपस्थित होता है, अंधेरा वहां नहीं होता। और अंधकार यह नहीं कह सकता कि यह वैसा नहीं हो रहा है जैसा कि होना ही चाहिए था, कि यह ठीक नहीं है, कि मैं यहां वर्षों-वर्षों से रह रहा हूं, सदियों से रह रहा हूं और यह ठीक नहीं है। मेरा इस जगह पर अधिकार है, और मैं यहां का मालिक हूं, मैं यहां का स्वामी हूं।
किंतु कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। जब प्रकाश होता है, तो अंधेरा गिर जाता है। बिल्कुल इसी तरह ज्ञान आता है, अर्पण आता है। तुम किसी क्षण भी अर्पण कर सकते हो, जब भी तुम निश्चय करो। परंतु अर्पण समग्र होना चाहिए और वह समग्र तभी हो सकता है, जब तुम रियलिटी को, सत्य को बांटो नहीं। जीवन को एक दिव्यता की तरह स्वीकार करो। दोनों ही विपरीत ध्रुवों कोवहीमानो। तब तुम चलते हो या नहीं चलते हो, तुम कहीं भी नहीं जा सकोगे, अथवा जहां भी तुम जाओगे तुम उसीके सामने पाओगे। यही लगातार उसकी ओर सधा हुआ मन है और उपनिषद कहते हैं कि यही ऑफरिंग है, अर्पण है। शेष सब तो मिथ्या परिपूरक हैं।
अतः यदि तुम अग्नि में कुछ चड़ा रहे हो, तो क्या तुम अपने को वंचना में नहीं रख रहे? यदि तुम मंदिर में या गिरजे में कुछ भेंट कर रहे हो, तो क्या तुम अपने कोधोखा नहीं दे रहे? तुम उसकोधोखा नहीं दे सकते; तुम केवल स्वयं कोधोखा दे सकते हो। यदि तुम लगातार यह कहते चले जाओ कि मैं अपने को अर्पित करता हूं’, तो तुम अपने कोधोखा दे रहे होगे। तुम अपने को नहीं दे सकते। तुम तो पहले से ही अर्पित हो; तुम तो सदा से अर्पित हो; तुम तो उसी में जड़ जमाए हो। तुम्हारी एकमात्र स्वतंत्रता तुम्हारा मन है। उसी का अर्पण सच्चा अर्पण है।
आज के लिए इतना ही।

बंबई, रात्रि, दिनांक 23 फरवरी, 1972

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