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शनिवार, 1 दिसंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-13)

प्रवचन-तैहरवां

ईश्वर भी तुम्हें खोज रहा है!

 (अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! कल आपने हमें बहुत स्पष्ट रूप से यह बताया था कि हमें सदगुरु द्वारा कही गई बातों का शब्दश : पालन करना आवश्यक है, लेकिन हम आपसे बार-बार, प्रत्येक विवरण पर परामर्श नहीं कर सकते हैं। ऐसे में हमारा मन हमेशा सरल मार्ग चुनने के लिए उत्सुक होता है, तब उस परिस्थिति में हम ठीक मार्ग का चुनाव कैसे करें?

वास्तविक समस्या सदगुरु से परामर्श करना नहीं है, बल्कि अधिक ध्यानपूर्ण होने की कला सीखना है, क्योंकि सदगुरु का भौतिक पक्ष उतना महत्त्वपूर्ण और आवश्यक नहीं है। यदि तुम पूरी तरह से ध्यानपूर्ण हो, तो तुम प्रत्येक क्षण सदगुरु से परामर्श कर सकते हो। तब भौतिक उपस्थिति आवश्यक नहीं है और भौतिक उपस्थिति केवल तभी अति आवश्यक होती है, जब तुम ध्यानपूर्ण नहीं हो।
क्योंकि तुम अपने शरीर को ही स्वयं का होना मानते हो और शरीर से एक गहरा संबंध जोड़ लेते हो, इसलिए तुम्हारे मन में सदगुरु का परिचय भी उनके शरीर तक ही सीमित रह जाता है। तुम सोचते हो कि तुम एक शरीर हो और इसलिए सदगुरु भी एक शरीर ही हैं। सदगुरु मात्र एक शरीर नहीं हैं, और जब मैं यह कह रहा हूं कि सदगुरु मात्र शरीर नहीं हैं तो मेरे कहने का यही अर्थ है कि वह समय और स्थान की सीमा में सीमित नहीं हैं।
यह सदगुरु की उपस्थिति में वहां होने का प्रश्न नहीं है।
यदि तुम ध्यानपूर्ण हो तो तुम जहां कहीं भी हो, तुम उनकी उपस्थिति में हो। जब सदगुरु शरीर त्याग देते हैं, तब भी उनसे सूचनाएं प्राप्त की जा सकती हैं। बुद्ध से आज भी सलाह ली जा सकती है और उत्तर प्राप्त होते हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्ध कहीं बैठे हुए हैं और तुम्हें उत्तर दे रहे हैं, लेकिन जब तुम गहन ध्यान में होते हो तो तुम ही बुद्ध हो जाते हो। तुम्हारा बुद्ध स्वभाव उत्पन्न होता है, और तुम्हारा बुद्ध-स्वभाव ही तुम्हें उत्तर देता है, चैतन्य ही तुम्हें उत्तर देता है। बुद्ध या चेतनता कहीं भी और कभी भी सीमाबद्ध नहीं हैं। जो व्यक्ति मतांध है उसके लिए बुद्ध कहीं भी नहीं पाए जाते हैं, लेकिन जो भीतरी आंख से देख सकता है और समझ सकता है, उसके लिए वे सर्वत्र उपस्थित हैं।
तुम जहां कहीं भी रहो, तुम अपने सदगुरु के साथ संपर्क में बने रह सकते हो। सदगुरु के पास जाने का कोई बाहरी मार्ग नहीं है, मार्ग तो अंदर है, अपने ही अंदर जाकर सदगुरु से साक्षात्कार होता है। तुम स्वयं अपने ही अंदर जितनी अधिक गहराई में जाते हो, उतनी ही गहराई में तुम सदगुरु में प्रविष्ट हो जाते हो।
तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर तुम्हें मिल रहे होंगे और तुम अनुभव करोगे कि वे उत्तर तुम्हारे मन के द्वारा या तुम्हारी बुद्धि के द्वारा नहीं दिए गए हैं। उन उत्तरों के गुण और लक्षण पूर्ण रूप से भिन्न होंगे। वह गुण इतनी परिपूर्णता से बदल जाते हैं और उनके संदर्भ में कोई भी भ्रम नहीं हो सकता। जब तुम्हारा मन उत्तर देता है, तो तुम अनुभव करते हो कि तुम ही उत्तर दे रहे हो। परंतु जब मन वहां नहीं होता है, तुम पूर्ण रूप से ध्यानपूर्ण होते हो, तो उत्तर तुमसे नहीं आते जैसे मानो वे किसी अन्य व्यक्ति से आते हैं। तुम केवल उसे सुनते हो। यही कुरान का रहस्य है, मुहम्मद ने सोचा कि उन्होंने उसे सुना है और वह ठीक थे। पर मुसलमान गलत हैं जब वह सोचते हैं कि खुदा बोल रहा था। मुहम्मद बिल्कुल ठीक हैं कि उन्होंने कुरान सुना परंतु मुसलमान गलत हैं जब वे सोचते हैं कि खुदा ने कहा। नहीं, कोई भी नहीं बोल रहा था।
वास्तव में, जब तुम्हारा मन मौन होता है, तो उत्तर तुम्हारी आत्मा की वास्तविक गहराइयों से उत्पन्न होते हैं और वह गहराई इतनी अधिक है कि वह तुम्हारे तथाकथित मन के पार है और तुम अनुभव करते हो कि तुमने उसे सुना है, वह तुम तक आई है और वह तुम पर प्रकट हुई है।
तुम्हारा परिचय सदैव बाहर की परिधि के साथ है और उत्तर तो अंतरतम की गहराई से आते हैं। तुम स्वयं की अथाह गहराई को नहीं जानते हो, इसी कारण तुम अनुभव करते हो कि परमात्मा उत्तर दे रहा है अथवा सदगुरु उत्तर दे रहे हैं। एक तरह से तुम ठीक हो क्योंकि जब उत्तर तुम्हारी अनंत गहराई से आता है तो वह सदगुरु से ही आता है।
हिन्दु हमेशा से ही कहते रहे हैं कि तुम्हारा प्रामाणिक सदगुरु तुम्हारे ही भीतर है और बाहरी सदगुरु केवल तुम्हारे अंदर के इस सदगुरु को प्रकट करने का कार्य कर रहे हैं, बाहरी सदगुरु केवल भीतरी सदगुरु को कार्यशील बनाने हेतु प्रयास कर रहा है। जिस क्षण भी तुम्हारे अंदर के सदगुरु ने कार्य करना प्रारंभ कर दिया, तो बाहर के सदगुरु का कार्य पूर्ण हो जाता है। बाहर का सदगुरु तो केवल भीतरी सदगुरु का प्रतिनिधि है।
मैं तुम्हारी अनंत गहराई में बसा हुआ हूं। एक बार तुम्हारी वह गहराई क्रियाशील हो जाए तब मेरी शारीरिक उपस्थिति आवश्यक नहीं है। जब मैं अनुभव करता हूं कि तुम्हारी अनंत गहराई ने तुम्हें उत्तर देना प्रारंभ कर दिया है, तब मैं तुम्हें उत्तर देना बंद कर दूंगा। मेरे उत्तर वास्तव में तुम्हारे प्रश्नों से संबंधित नहीं हैं, मेरे सभी उत्तर तो एक प्रयास हैं कि कैसे भीतर से तुम्हें ग्रहणशील बनाया जाए ताकि तुम्हारी आंतरिक गहराई ही तुमसे वार्तालाप करना प्रारंभ कर दे? और इस तरह तुम्हारी चेतना ही तुम्हारी सदगुरु बन जाए।
अधिक ध्यानपूर्ण बनो, अधिक मौन बनो। अधिक से अधिक स्थिरता, गहन मौन और असीम शांति को अपने भीतर प्रवेश करने की अनुमति दो।
आखिर करना क्या है? कैसे अधिक ध्यानपूर्ण बना जाए? एक अर्थ में प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से तुम जो कुछ भी करोगे, मन बीच में आ जाता है। यदि तुम मौन होने का प्रयास करते हो तो तुम नहीं हो सकते, क्योंकि मन प्रयास कर रहा है। जहां भी मन का प्रयास होता है, वह एक उपद्रव होता है। जहां भी मन का हस्तक्षेप होता है वहां अशांति और कोलाहल है। मन ही सबसे बड़ा विघ्न है, मन ही उपद्रव है। इसलिए यदि तुम शांत और मौन होने का प्रयास करते हो, तो मन ही वह प्रयास कर रहा है। अब इस प्रयास के साथ तुम और अधिक कोलाहल उत्पन्न करोगे, और आश्चर्य की बात है कि इस कोलाहल के द्वारा तुम मौन के साथ संबंध बनाने का प्रयास कर रहे हो। अब तुम प्रयास करोगे, नई युक्तियां सोचोगे, भिन्न-भिन्न उपाय करोगे और ऐसा करने से तुम अत्यंत बेचैन हो जाओगे।
मौन के संबंध में कुछ भी नहीं किया जा सकता है। मौन पहले ही से वहां मौजूद है, तुम्हें केवल उसे स्वीकार करना है, उसमें प्रवेश करना है। मौन ठीक सूर्य के प्रकाश के समान है। तुम्हारी खिड़कियां बंद हैं इसलिए तुम धूप को बांधकर अथवा बर्तनों में भरकर घर के अंदर नहीं ला सकते। तुम कदापि ऐसा नहीं कर सकते। यदि तुम ऐसा करने का प्रयास करते हो तो तुम मूर्ख बनोगे और अनेक लोग ऐसे ही मूर्ख बन रहे हैं। तुम केवल सहजता से खिड़कियों और दरवाजों को खोल दो। हवा को भीतर की ओर बहने की अनुमति दो। सूर्य की किरणों को अंदर आने दो। उन्हें आमंत्रित करो और उनकी प्रतीक्षा करो। तुम सूर्य के प्रकाश को बाध्य नहीं कर सकते। जब भी तुम बाध्य करते हो, बल का प्रयोग करते हो तो चीज़ें कुरूप हो जाती हैं। यदि एक व्यक्ति मौन और शांत होने के लिए स्वयं को विवश करता है तो उसकी शांति कुरूप, उत्पीड़ित, थोपी हुई और नकली होगी। वह शांति केवल बाहरी परिधि पर ही होगी। भीतर गहराई में वहां कोलाहल होगा, हलचल होगी।
इसलिए करना क्या है? अपने मन को खुला रखो और प्रतीक्षा करो। वृक्षों की ओर देखो, चीत्कार करते हुए तोतों की ओर देखो। अपनी ओर से कोई प्रयास मत करो, बस उन्हें चुपचाप सुनो। जो कुछ भी तुम्हारे चारों ओर हो रहा है, उसके प्रति केवल एक निष्क्रिय जागरूकता रखो। झील पर चमकता प्रकाश, बहती हुई नदी, चारों ओर की ध्वनियां, बच्चों का खेलना, उनका ठहाके लगाकर हंसना, कानाफूसी और बातों के बीच उनकी दबी हुई हंसी... तुम कुछ मत करो, केवल वहां मौजूद रहो, एक निष्क्रिय उपस्थिति बनी रहे, केवल सुनो, देखो, ग्रहणशील बनो पर सोचो मत। वृक्षों पर बैठे हुए पक्षी गीत गा रहे हैं, वे एक शोर उत्पन्न कर रहे हैं, तुम बस उसे सुनो।
सोचो मत, क्या हो रहा है? अपने मन में विचारों का क्रम सृजित मत करो। जो भी हो रहा है केवल उसे होने दो और कभी न कभी तुम अनुभव करोगे कि मन मिट गया है और तुम पर एक गहन शांति और मौन उतर आया है। तुम वास्तव में इसे अनुभव करोगे कि वह शांति और मौन तुम पर उतर रहा है और शरीर के रोम-रोम में प्रविष्ट होता हुआ भीतर गहराई तक जा रहा है।
प्रारंभ में यह अनुभव केवल कुछ क्षणों के लिए होगा, क्योंकि तुम सोच-विचार में बहुत अभ्यस्त हो, किसी शराबी या नशेड़ी व्यक्ति की तरह तुम भी सोच-विचार रूपी नशे के इतने आदी हो गए हो कि केवल कुछ क्षणों के लिए ही एक अंतराल आता होगा और तुम पुनः सोचना शुरू कर देते हो। तुम इस मौन के बारे में भी सोचना शुरू कर सकते हो, जो तुम पर उतर रहा है। तुम सोच सकते हो कि वाह! यह वही मौन है, जिसके बारे में सदगुरु हमेशा बात करते रहे हैं और मैंने इस मौन को नष्ट कर दिया। तुम यह भी सोच सकते हो कि यह वही मौन है जिसे उपनिषदों ने मनुष्य का परम लक्ष्य कहा है, यह वही मौन है जिसके बारे में कवि बात करते रहे हैं और यह वही मौन है जो समझ के पार होता है, मैं इससे चूकता ही गया।
तुम्हारे सोच-विचार के साथ ही, तुम्हारे भीतर सदगुरु ने, कवियों ने और उपनिषदों आदि ने प्रवेश कर लिया, तुम उस मौन से पुनः चूक गए, तुम विफल हो गए और तुमने उसे खो दिया। अब तुम फिर से व्याकुल और क्षुब्ध हो, अब तुम निष्क्रिय नहीं हो, अब तुम सजग नहीं हो। अब वे गीत गाते पक्षी और खेलते हुए बच्चे जैसे तुम्हारे लिए उपरिस्थत ही नहीं हैं, क्योंकि तुम्हारा मन बीच में आ गया है। अब वे सुंदर वृक्ष विलुप्त हो गए हैं। अब सूर्य भी आकाश में नहीं रह गया तथा न ही अब बादल आकाश में तैर रहे हैं। अब तुम खुले हुए नहीं हो, ग्रहणशील नहीं हो, बंद हो गए हो, तुमने अपने भीतर की खिड़कियां और दरवाजे बंद कर लिए हैं।
सोच-विचार, मन को बंद करने का एक ढंग है और निर्विचार हो जाना ही उसे खोलने का ढंग है। जब भी तुम व्यर्थ की सोच में व्यस्त नहीं हो तो तुम खुले हो और जब भी तुम सोच-विचार में संलग्न हो, तो बीच में एक दीवार खड़ी हो गई है। प्रत्येक विचार एक ईंट बन जाता है और सोचने की पूरी प्रक्रिया ही एक दीवार बन जाती है। तब तुम दीवार के पीछे छिप जाते हो, तुम रोते और चीखते हो कि धूप तुम तक क्यों नहीं पहुंच रही है? इसमें धूप का कोई दोष नहीं है बल्कि यह तुम ही हो जिसने अपने चारों ओर दीवार खड़ी कर ली है।
अधिक ध्यानपूर्ण बनो। जब कभी भी तुम्हारे पास कोई अवसर हो, कोई खाली समय हो, तब केवल अपने चारों ओर चीज़ों को घटित होने की अनुमति दो। गहनता से ध्यानपूर्ण होकर देखो, लेकिन सक्रिय मत बनो क्योंकि सक्रिय होने का अर्थ है सोचना। शांत होकर मौन बैठे रहो और चीज़ों को अपने से होने दो। धीरे-धीरे तुम शांत और मौन होते जाओगे।
तब तुम जान पाओगे कि मौन और शांति मन का गुण नहीं है। मन को शांत नहीं किया जा सकता। मौन और शांति तुम्हारे भीतर स्थित आत्मा का गुण है, तुम्हारे अस्तित्व का गुण है। वह हमेशा वहां मौजूद है, लेकिन मन के शोरगुल और मन की निरंतर बक-बक के कारण तुम उसे सुन नहीं पाते हो। जब कभी भी तुम निष्क्रिय हो जाते हो, निर्विचार हो जाते हो, तुम उसके प्रति सचेत हो जाते हो। तब तुम व्यस्त नहीं हो। उस अव्यस्तता के क्षण में ही ध्यान घटित होता है।
इसलिए चाहे जो भी स्थिति हो, चहल पहल से भरे बाजार में बैठे हुए यह मत सोचना कि आसपास पक्षियों का गीत होना अनिवार्य है, नहीं, ऐसा नहीं है। व्यस्त बाजार का शोरगुल भी उतना ही आकर्षक और सुंदर है, जितना कि पक्षियों का चहचहाना। लोग अपना कार्य कर रहे हैं, बातें कर रहे हैं, चारों ओर शोर है, तुम केवल निष्क्रिय हो कर वहां बैठे जाओ।
दो शब्दों को याद रखो- एक ‘निष्क्रिय’ और दूसरा ‘सजगता’, इन दोनों को सदा याद रखो। निष्क्रिय सजगता ही कुंजी है। निष्क्रिय बने रहो, कोई भी कार्य मत करो, केवल सुनो। सुनना कोई क्रिया नहीं है। किसी भी ध्वनि को सुनना कोई कार्य नहीं है। तुम्हारे कान हमेशा खुले रहते हैं। देखने के लिए तुम्हें अपनी आंखें खोलनी पड़ती हैं, कम-से-कम आंखों को इतना तो करना ही होता है। पर सुनने के लिए इतना भी नहीं करना पड़ता। कान हमेशा ही खुले रहते हैं और तुम हमेशा ही सुन रहे हो। बस कोई भी कार्य मत करो और केवल सुनो।
टिप्पणी मत करो, व्याख्या मत करो, क्योंकि व्याख्या करने के साथ ही विचार शुरू हो जाते हैं। एक बच्चा रो रहा है, अपने भीतर व्याकुल मत हो जाओ कि वह क्यों रो रहा है? दो व्यक्ति आपस में झगड़ रहे हैं तो अपने भीतर यह मत कहो कि वे क्यों झगड़ रहे हैं? मत सोचो कि मुझे जाकर उनका झगड़ा बंद करवाना चाहिएं? नहीं, भीतर कुछ भी मत कहो। केवल सुनो कि क्या हो रहा है? जो भी हो रहा है, केवल उसके साथ बने रहो और अचानक वहां शांति और मौन प्रकट होता है।
यह मौन तुम्हारे द्वारा सृजित किए गए मौन से पूर्णतः भिन्न होता है। तुम भी मौन सृजित कर सकते हो, तुम अपने घर के दरवाजे बंद करके बैठ सकते हो, तुम एक माला ले सकते हो और तुम उसके मनकों का जाप कर सकते हो। निश्चित ही एक मौन वहां होगा, लेकिन वह सच्चा मौन नहीं होगा। यह ठीक वैसा ही होगा जैसे एक शरारती बच्चे को कोई नया खिलौना दे दिया गया है, इसलिए वह उससे खेलते हुए अपनी शरारतें भूल जाता है और अपने खेल में ही खो जाता है, तब वह उतना शरारती नहीं रह जाता।
माता-पिता बच्चे को शरारत से दूर करने के लिए, खिलौने का प्रयोग एक चालबाजी की भांति करते हैं। खिलौने के कारण बच्चा एक कोने में बैठे जाता है और खेल में मस्त हो जाता है और उतनी देर तक मां-बाप बिना किसी परेशानी के अपना कार्य पूरा कर पाते हैं, अब वह बच्चा उनके लिए एक निरंतर बाधा नहीं है। लेकिन वास्तव में, बच्चा शरारत के पार नहीं गया है, केवल उसकी शरारत खिलौने की ओर चली गई है। बस दिशा बदल गई है, शरारत भी वहां है और बच्चा भी वहां है। जल्दी ही जब वह खिलौने से थक जाएगा तो ऊबकर उसे फेंक देगा और शरारत वापस लौट आएगी।
जाप करने वाली मालाएं भी बूढ़ों के खिलौने हैं। ठीक जैसे तुम बच्चे को एक खिलौना देते हो, बड़े होकर बच्चे भी अपने बड़े-बूढ़ों को यह मालाएं दे देते हैं, जिससे वे अब उनकी ज़िंदगी में दखल न दें, बस एक कोने में बैठ जाएं और अपनी माला के मनके फेरते रहें। लेकिन बूढ़े भी इन मालाओं से थक जाते हैं, तब वे मालाएं बदलते रहते हैं। वे लोग कभी एक सदगुरु के पास जाते हैं तो कभी दूसरे के पास और नया मंत्र पूछते हैं, क्योंकि पुराना मंत्र अब कार्य नहीं कर रहा है। वे एक मंत्र से भी ऊब जाते हैं फिर नए मंत्र की तलाश करते हैं... हालांकि वे मानते हैं कि यही मंत्र जब नया था तो कुछ दिन तक प्रभावशाली था।
मेरे पास अनेक लोग आते हैं और कहते हैं कि हम एक मंत्र का जाप करते रहे हैं, प्रारंभ में तो वह सहायक था, बहुत सहयोगी था, लेकिन अब वह कोई परिणाम नहीं देता। अब उस मंत्र द्वारा कुछ भी अनुभव नहीं होता है और उसे जपते रहना ऊबाऊ सा हो गया है। हम उसे एक कर्तव्य की भांति करते हैं लेकिन उसके प्रति प्रेम विलुप्त हो गया है। यदि हम उसका जाप नहीं करते हैं तो हमें लगता है कि आज हमसे कुछ छूट गया है, चूक हो गई है और यदि हम उसका जाप करते हैं तो कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।
इसे ही आदी होना या अभ्यस्त होना कहा जाता है। यदि तुम उसे करते हो तो कुछ भी प्राप्त नहीं होता है और यदि तुम उसे नहीं करते हो तो लगता है कि कुछ छूट गया। ऐसा ही अनुभव एक धूम्रपान करने वाला व्यक्ति महसूस करता है। यदि वह धूम्रपान करता है तो वह जानता है कि कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। वह जानता है कि वह बुद्धिहीन कार्य कर रहा है, मूर्खतापूर्ण कार्य कर रहा है, वह जानता है कि वह केवल धुएं को अंदर-बाहर ले जा रहा है। लेकिन धुंए का यह अंदर और बाहर जाना भी तो माला और जाप की तरह ही है। तुम धुंआ अंदर लेते हो और बाहर निकालते हो... श्वास... प्रश्वास... श्वास... प्रश्वास... श्वासों का यह निरंतर क्रम माला के मनके बदलने जैसा ही है। तुम श्वास के रूप में मनके ही तो बदल रहे हो और इसे भी तुम एक मंत्र बना सकते हो। जब तुम धुएं को अंदर लेते हो तो ‘राम’ कहो और जब तुम धुआं बाहर फेंकते हो, तब भी ‘राम’ कहो, यह माला जपने जैसा बन जाता है।
कोई भी चीज़ जिसे तुम निरंतर दोहरा सकते हो, एक मंत्र बन जाती है। मंत्र का अर्थ है एक विशिष्ट शब्द अथवा किसी विशिष्ट ध्वनि का दोहराव। एक मंत्र मन को तल्लीन होने में सहायता प्रदान करता है, वह मंत्र एक खिलौना मात्र है। कुछ क्षणों के लिए तुम अच्छा महसूस करते हो, क्योंकि तुम्हारे मन का उपद्रव रूक जाता है और तुम इतने अधिक तल्लीन हो जाते हो कि मन बचता ही नहीं है। यह बलपूर्वक लाया गया मौन है। यह लौकिक और रुग्ण है, यह नकारात्मक है, यह विधायक नहीं है। यह मौन उस तरह का मौन है, जैसा एक कब्रिस्तान में होता है, यह मृत्यु की खामोशी है।
लेकिन मैं जिस मौन के बारे में बात कर रहा हूं, वह गुणात्मक रूप से पूर्णतः भिन्न है। वह मन के उपद्रव को चालाकी से रोकना नहीं है और वह बलपूर्वक थोपी गई व्यस्तता नहीं है, वह कोई मंत्र-सम्मोहन नहीं है। यह एक ऐसा मौन है, जो तुम्हारी निष्क्रिय सजगता में घटित होता है। तुम बिल्कुल निष्क्रिय हो, तुम कोई भी कार्य नहीं कर रहे हो, यहां तक कि अपनी माला भी नहीं जप रहे हो। तुम पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो परंतु सजग हो।
स्मरण रहे निष्क्रियता नींद भी बन सकती है। इसी कारण मैं सजगता शब्द पर बल दे रहा हूं क्योंकि तुम निष्क्रिय होकर नींद में भी जा सकते हो। निद्रा, ध्यान नहीं है। नींद का एक गुण निष्क्रियता है, और नींद का एक अन्य गुण जागरण भी है, यह सजगता का गुण है। ऐसे विश्रामपूर्ण रहना जैसे तुम नींद में होते हो और साथ ही इतना सजग रहना जैसे कि तुम पूर्णतः जागे हुए हो।
नींद का एक गुणधर्म ध्यान में नहीं है, वह है अचेतनता और उसे यहां होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि ध्यान अचेतन नहीं हो सकता। जागरण का भी एक गुणधर्म ध्यान में नहीं होता है, वह है व्यस्तता; क्योंकि यदि तुम व्यस्त हो तो मन कार्य कर रहा है और तुम विचारों से घिरे हुए हो।
जब तुम जाग्रत अवस्था में हो तो वहां दो चीज़ें होती हैं : सजगता और व्यस्तता। जब तुम नींद की अवस्था में हो तो वहां भी दो चीज़ें होती हैं : निष्क्रियता और अचेतना। इन दोनों चीज़ों में से एक-एक को चुन कर ध्यान निर्मित होता है : एक चीज़ जागरण से यानि ‘सजगता’ और एक चीज़ नींद से यानि ‘निष्क्रियता’। यदि तुम दूसरे दो अंश, व्यस्तता और अचेतनता चुन लेते हो तो तुम पागल हो जाते हो। वे दो तत्त्व व्यस्तता और अचेतनता पागलपन उत्पन्न करते हैं, तुम्हें पागल बनाते हैं। निष्क्रियता और सजगता तुम्हें ध्यानपूर्ण बनाती हैं, एक बुद्ध पुरूष बनाती हैं। तुम्हारे पास यह चारों तत्त्व हैं, इनमें से दो को मिलाओ तो तुम पागल बन जाओगे और अन्य दो को मिलाओ तो तुम ध्यानपूर्ण बन जाओगे।
इसे याद रखो- मैं बार-बार कहता हूं कि जब तुम्हारा हृदय खुला है, उस समय शांति, मौन और परमानंद तुम्हें और अधिक फैलाव देते हैं, लेकिन यह शांति और मौन तुम्हारे द्वारा लाया गया नहीं है। यह तो बेफिक्री की एक स्थिति में उतरता है। यह विश्रामपूर्ण अवस्था में तुम्हे घटित होता है। यह तुम तक आता है। लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि हम लोग परमात्मा की खोज कर रहे हैं, कैसे उस तक पहुंचा जाएं? और मैं उनसे कहता हूं कि तुम न उसकी खोज कर सकते हो और न ही तुम उस तक पहुंच सकते हो क्योंकि तुम उसे जानते नहीं हो। तुम कैसे पहचानोगे कि वह ही परमात्मा है? तुम उसे नहीं जानते हो। तुम कैसे आगे बढ़ोगे? तुम कैसे मार्ग का चुनाव करोगे? तुम उसे नहीं जानते हो। तुम कैसे निर्णय करोगे कि यही उसका घर है और यही उसका निवास स्थान है?
नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। तुम परमात्मा की खोज नहीं कर सकते। वस्तुतः इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि परमात्मा हमेशा ही तुम्हारे निकट है, वह तुम्हारे ही भीतर है। जब भी तुम उसे अनुमति दोगे वह तुम्हें खोज लेता है, वह तुम तक पहुंच जाता है। परमात्मा तुम्हारी तलाश में है। परमात्मा हमेशा ही तुम्हारी खोज में रहता है। तुम्हारे द्वारा उसे खोजे जाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
तुमने खोजा और तुम चूक जाओगे।
उसे खोजो मत। पूरी तरह से निष्क्रिय और सजग बने रहो, ताकि जब कभी भी वह आए तो तुम ग्रहणशील बने रहो। अनेक बार वह आता है और तुम्हारा द्वार खटखटाता है, लेकिन तुम गहरी नींद में सोये हुए होते हो अथवा यदि तुम खटखटाने की वह ध्वनि सुन भी लो तो तुम अपने ढंग से उसकी व्याख्या कर लेते हो। तुम सोचते हो कि तेज़ हवा चल रही है या किसी अनजबी ने दरवाजा खटखटाया है और वह स्वयं ही चला जाएगा, मुझे अपनी नींद खराब करने की क्या आवश्यकता है?
तुम्हारी अपनी व्याख्याएं ही तुम्हारी शत्रु हैं और तुम कुशल व्याख्याकार हो। जो कुछ भी होता है तुम तुरंत उसकी एक व्याख्या गढ़ लेते हो। तुम्हारा मन तुरंत कार्य करना शुरू कर देता है, वह मंथन करता है और तुम परिस्थिति को तुरंत ही बदल देते हो। तुम उसे अपने मनपसंद रंग से ढक देते हो और ऐसा भिन्न अर्थ दे देते हो जो कभी था ही नहीं। तुम अपनी छवि की छाप उस पर छोड़ देते हो, तुम उसे दूषित कर देते हो, तुम उसे नष्ट कर देते हो।
सत्य को किसी भी व्याख्या की आवश्यकता नहीं होती है। सत्य के बारे में सोचने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। सोच-विचार की प्रक्रिया के द्वारा कोई भी सत्य तक नहीं पहुंचा है। यही कारण है कि पूरी फिलॅासफी नकली है और उसका मिथ्या होना सुनिश्चित है। कोई भी तत्त्वज्ञान सत्य हो ही नहीं सकता। दार्शनिक झगड़ते रहते हैं और वे यह सिद्ध करने के संघर्ष में लगे रहते हैं कि उनका ही ज्ञान सत्य है। कोई भी तत्त्वज्ञान सत्य हो ही नहीं सकता। सत्य को किसी तत्त्वज्ञान की आवश्यकता नहीं है। फिलॅासफी का अर्थ है किसी संदर्भ में सोच-विचार करना, तर्क सहित प्रमाणों से सिद्ध करने का प्रयास करना और अपने ढंग से तथ्यों की व्याख्या करना।
धर्म कहता है, जो भी है, उसको घटित होने की अनुमति दो, उसे स्वीकार करो। सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य जो तुम कर सकते हो, वह यही है कि कृपया उसमें बाधा मत बनो, केवल उसे घटित होने दो। सजग और निष्क्रिय बने रहो और तब तुम्हें मेरे पास आने की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं ही तुम्हारे पास आऊंगा। कई बार पहले भी मैं तुम्हारे पास पहुंचा हूं... जब तुम मौन थे। इसलिए यह कोई सिद्धांत नहीं है। तुममें से अनेक लोग इसे अनुभवगत रूप से भी जानते हैं, लेकिन तुम इसकी भी व्याख्या करते हो।
लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं कि आज सुबह ध्यान करते हुए मैंने अचानक आपकी उपस्थिति को अनुभव किया, लेकिन मैंने सोचा कि यह मेरे मन की कल्पना हो सकती है। कुछ लोग कहते हैं कि पिछली रात अचानक मैंने एक उपस्थिति का अनुभव किया, मैं सजग हो गया और तब मैंने सोचा कि हो सकता है उधर से कोई गुज़रा हो अथवा कमरे में आने वाली तेज हवा ने कागजों को तितर-बितर कर दिया हो अथवा केवल कोई बिल्ली ही गुज़री हो। इसलिए जो मैं कह रहा हूं वह तुम में से अनेक लोगों ने पहले ही अनुभव किया है। इसी वजह से मैं यह कह रहा हूं अन्यथा मैं इसे नहीं कहता।
इसलिए जब तुम किसी दिव्य उपस्थिति का अनुभव करो तो बाधा मत बनो, व्याख्या मत करो और उसे घटित होने दो, उसको स्वीकार करो। यदि तुम उसे स्वीकार करते हो तो वह अनुभूति और अधिक सघन तथा घनीभूत होती जाएगी। यह संभव है कि जैसे मैं यहां बैठा हूं वैसे ही वास्तविकता में वहां भी उपस्थित होऊंगा बल्कि इससे भी कहीं अधिक क्योंकि यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम उस उपस्थिति को कितनी सत्यता से स्वीकार करते हो और उसे किस सीमा तक घटित होने की अनुमति देते हो। तब तुम्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे। अधिक ध्यानपूर्ण बनो और तब तुम मेरे करीब हो। जब तुम समग्र रूप से ध्यानपूर्ण होवोगे, तब तुम वही हो, जो मैं हूं। तब वहां कोई भी अंतर नहीं है।
एक बात और है कि जितना अधिक तुम ध्यान करते हो उतना ही प्रश्न पूछना कम हो जाएगा। प्रश्न स्वतः ही समाप्त हो जाएंगे। सभी प्रश्न एक गैर-ध्यानी चित्त की उपज हैं। ध्यान के अभाव में अधिक से अधिक प्रश्न उत्पन्न होते हैं। यदि एक प्रश्न का उत्तर मिल भी जाए तो उस उत्तर में से ही दस प्रश्न और उत्पन्न हो जाएंगे। मनुष्य का मन, प्रश्नों का सृजन करने वाली एक असाधारण शक्ति है जो प्रश्नों का निमार्ण करती रहती है। तुम एक उत्तर देते हो और मन उस पर हावी हो जाता है, वह उस उत्तर के कई टुकड़े करके अन्य दस प्रश्न सृजित कर लेता है। जब तुम ध्यानपूर्ण होते हो तो कम-से-कम प्रश्न पैदा होंगे।
यह तुम्हें विरोधाभासी प्रतीत होगा, लेकिन यह सत्य है और मुझे इसे कहना ही पड़ेगा कि जब प्रश्न होते हैं तो कोई भी उत्तर नहीं होंगे और जब कोई प्रश्न नहीं है केवल तब ही उत्तर प्राप्त होता है। उत्तर तभी प्राप्त होगा जब तुम प्रश्नों से रहित हो और ध्यान के द्वारा ही तुम्हारे भीतर यह प्रश्नहीनता घटित होगी।
यह मत सोचो कि बहुत अधिक प्रश्नों की भांति बहुत अधिक उत्तर भी हैं। नहीं, उत्तर केवल एक ही है। प्रश्न लाखों हैं परंतु उत्तर एक ही है। बीमारियां लाखों हैं, पर दवा एक ही है। केवल एक और सब कुछ हल हो जाता है। परंतु वह ‘एक’ तुम्हारे अनुभव में नहीं आता है क्योंकि तुम उस ‘एक’ को घटित होने की अनुमति नहीं देते हो। तुम भयभीत हो जाते हो।
इसी बात को सीखना है। केवल यही एक अनुशासन है, जो मैं तुमसे चाहता हूं कि तुम अपने भय को विसर्जित करो और उस ‘एक’ अनुभव को घटित होने की अनुमति दो। नदी प्रवाहित हो रही है, उसे धकेलने का असंभव कार्य मत करो। उसकी कोई आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं ही प्रवाहित हो रही है। तुम बस तट पर बैठकर प्रतीक्षा करो और उसे बहने दो। यदि तुम पर्याप्त साहसी हो तो स्वयं को नदी में गिरा दो और उसके साथ बहो। तैरो मत, क्योंकि तैरने का अर्थ है संघर्ष करना, केवल बहो।
वास्तव में, तब तुम किसी लक्ष्य का पीछा नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारा और नदी का लक्ष्य समान नहीं हो सकता। तब तुम्हें निराशा होगी। यदि तुम तैर रहे हो या संघर्ष कर रहे हो तो तुम एक लक्ष्य का पीछा कर सकते हो। तुम धारा के विरुद्ध ऊपर की ओर भी तैर सकते हो, तब वहां एक असाधारण संघर्ष होगा। जब तुम लड़ते हो अथवा संघर्ष करते हो तो तुम्हारा अहंकार मजबूत हो जाता है और तुम नदी के विरुद्ध जीवंत होने का अनुभव करते हो। लेकिन वह जीवंतता क्षणिक है। कभी न कभी तुम थक जाओगे। कभी न कभी तुम समाप्त हो जाओगे और नदी तुम्हें अपने में समेट लेगी।
गंगा नदी के तट पर ग्रामीण लोग मृत शरीरों को लाते हैं और उन्हें गंगा में बहा देते हैं। लेकिन जब तुम मृत हो तो तुम्हें नदी में बहा देना व्यर्थ है, जब तुम मुर्दा हो तो नदी के साथ ही बहोगे, लेकिन तब इस का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि तुम अब जीवित ही नहीं हो।
मैं यही कर रहा हूं कि मैं तुम्हें गंगा में जीवित छोड़ रहा हूं। यदि तुम जीवंत, सचेत और पूर्ण रूप से सजग रह कर बह सको तो तुम नदी ही बन जाओगे और नदी जहां कहीं भी पहुंचती है, वही तुम्हारी मंज़िल होगी, वही तुम्हारा लक्ष्य होगा। तब तुम्हारी रूचि, तुम्हारी उत्सुकता इस बात में नहीं होगी कि नदी कहां पहुंचाएगी? प्रत्येक क्षण प्रामाणिक रूप से बहना ही परमानंद बन जाता है। प्रत्येक क्षण सजगता से बहना और जीवंत बने रहना ही मुख्य लक्ष्य बन जाता है। तब प्रत्येक क्षण ही मंजिल होती है। साधन ही साध्य बन जाता है और प्रत्येक क्षण शाश्वत बन जाता है।
हां, तुम्हें सदगुरु का संपूर्ण रूप से अनुसरण करना है। कभी ऐसा भी हो सकता है, जब तुम भौतिक रूप से उनका परामर्श न ले सको और कभी न कभी तो सदगुरु शरीर से भी विदा हो जाएगा। तब भौतिक रूप से परामर्श लेने की कोई भी संभावना नहीं होगी। बेहतर यही है कि तुम सदगुरु के अशरीरी रूप के साथ लयबद्ध हो जाओ, अन्यथा तुम रोते और बिलखते ही रहोगे।
मेरा शरीर किसी भी क्षण मिट सकता है। वास्तव में अब इसे और अधिक ढोने की कोई आवश्यकता भी नहीं है, इसे केवल तुम्हारे लिए ही ढोया जा रहा है। यदि तुम मेरे अशरीरी अस्तित्व के साथ लयबद्ध नहीं होते हो तो कभी न कभी तुम उदासी और निराशा से भर जाओगे। तब उस समय मेरे अशरीरी रूप से संबंध स्थापित कर पाना बहुत कठिन होगा।
इसलिए तुम्हें सजग और सचेत करने हेतु मैं तुम्हारे साथ अपने भौतिक संपर्क को धीरे-धीरे तोड़ रहा हूं ताकि तुम मेरे अशरीरी रूप से लयबद्ध हो सको। तुम अरूप के साथ लयबद्ध हो सकते हो, यह कठिन नहीं है। अधिक ध्यानपूर्ण बनो और सबकुछ स्वतः ही घटित होना प्रारंभ हो जाएगा।

दूसरा प्रश्नः
ओशो! हमारे पास स्त्रैण ऊर्जा के संदर्भ में कुछ प्रश्न हैं। कुछ स्त्रियां कहती हैं कि आपसे मिलने के बाद अब कोई भी नश्वर व्यक्ति उन्हें पर्याप्त रूप से संतुष्ट कर पाने में सक्षम नहीं है। यद्यपि अभी भी उन स्त्रियों की शारीरिक इच्छाएं विद्यमान हैं। कुछ अन्य स्त्रियां यह भी कहती हैं कि जब से वे आपसे मिली हैं, उसके बाद से वे स्वयं को अधिक प्रेमपूर्ण अनुभव करने लगी हैं। गुरजिएफ ने कहा है कि पुरूष के बिना एक स्त्री बोध को उपलब्ध नहीं हो सकती है। अतः स्त्रैण ऊर्जा के बारे में कृपया हमें कुछ बताएं।

 हां, गुरजिएफ ने कहा है कि एक स्त्री केवल एक पुरुष के द्वारा ही बोध को उपलब्ध हो सकती है, और उसने ठीक कहा है। वह ठीक है, क्योंकि स्त्रैण ऊर्जा पुरुष ऊर्जा से भिन्न है। यह ठीक ऐसा है जैसे मानो कोई व्यक्ति यह कहे कि केवल एक स्त्री ही बच्चे को जन्म दे सकती है। एक पुरुष किसी बच्चे को जन्म नहीं दे सकता है, पुरूष केवल एक स्त्री के माध्यम से ही बच्चे को जन्म दे सकता है। स्त्री की शारीरिक बनावट में गर्भाशय मौजूद है परंतु पुरुष का शारीरिक ढांचा बिना गर्भाशय के होता है। पुरूष एक बच्चे को केवल स्त्री के माध्यम से ही प्राप्त कर सकता है। ठीक ऐसा ही, विपरीत क्रम में, आध्यात्मिक जन्म की प्रक्रिया में घटित होता है। एक स्त्री केवल एक पुरुष के द्वारा ही बुद्धत्व को प्राप्त कर सकती है। स्त्री और पुरूष की शारीरिक बनावट की भांति उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा में भी अंतर है।
क्यों? ऐसा क्यों होता है? स्मरण रहे, यह प्रश्न समानता अथवा असमानता का नहीं है। यह प्रश्न केवल भिन्नता का है। स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा निम्नतर नहीं हैं, क्योंकि वे सीधे ही ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकती हैं और पुरुष भी स्त्री की अपेक्षा निम्नतर नहीं है क्योंकि वह एक बच्चे को प्रत्यक्ष रूप से जन्म नहीं दे सकता है। स्त्री एवं पुरूष दोनों ही भिन्न हैं। वहां समानता अथवा असमानता का कोई प्रश्न नहीं है, वहां मूल्यांकन का भी कोई प्रश्न नहीं है। वे दोनों सामान्य रूप से भिन्न हैं और यह एक तथ्य है।
एक स्त्री के लिए प्रत्यक्ष रूप से बुद्धत्व को उपलब्ध होना कठिन क्यों है? और पुरुष के लिए प्रत्यक्ष रूप से बुद्धत्व को उपलब्ध होना क्यों संभव है? आधारभूत रूप से बुद्धत्व प्राप्त करने के दो ही मार्ग हैं, मूलभूत रूप से केवल दो ही उपाय हैं। एक है ध्यान और दूसरा है प्रेम। तुम इन्हें ‘ज्ञानयोग’ और ‘भक्तियोग’ भी कह सकते हो- प्रज्ञा का मार्ग और प्रेम का मार्ग। मौलिक रूप से केवल यही दो ही मार्ग हैं। प्रेम में किसी दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता होती है और ध्यान अकेले ही किया जा सकता है। पुरुष ध्यान के द्वारा उपलब्ध हो सकता है और इसी कारण वह प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध हो सकता है। वह अकेला रह सकता है। वह अकेला ही अपने भीतर की गहराई तक उतर सकता है। पुरुष में स्वाभाविक रूप से अकेलापन होता है। स्त्री के लिए अकेले रहना कठिन है, बहुत कठिन है और लगभग असंभव है। उसका पूरा अस्तित्व ही प्रेम की एक गहन प्यास है और प्रेम के लिए दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता होती है। यदि दूसरा वहां मौजूद न हो तो तुम कैसे प्रेम कर सकते हो? यदि दूसरा नहीं है तो तुम ध्यान अवश्य ही कर सकते हो क्योंकि इस में कोई भी समस्या नहीं है।
स्त्री या स्त्रैण ऊर्जा प्रेम के माध्यम से ही ध्यान तक पहुंचती है और पुरूष ऊर्जा ध्यान के माध्यम से प्रेम तक पंहुचती है। महात्मा बुद्ध ध्यान के द्वारा ही एक असाधारण प्रेमपूर्ण शक्ति बन गए। जब बुद्ध अपने महल में वापिस लौटे तो उनकी पत्नी बहुत नाराज़ थी, स्वभाविक भी है क्योंकि बारह वर्षों तक बुद्ध ने अपना चेहरा नहीं दिखलाया था। एक रात वह अचानक कुछ कहे बिना चले गए थे। जब उनकी पत्नी सो रही थी तब वह एक कायर के समान पलायन कर गए थे।
यह सत्य है कि बुद्ध की पत्नी यशोधरा ने शायद उन्हें जाने की अनुमति दे दी होती। वह एक साहसी स्त्री थी। यदि बुद्ध ने उससे पूछा होता तो वह जाने की अनुमति दे देती। कोई भी समस्या नहीं होती, लेकिन बुद्ध ने उससे नहीं पूछा। बुद्ध भयभीत थे कि कुछ समस्या हो सकती है, वह रोना या चीखना या चिल्लाना शुरू कर सकती है। वास्तव में, भय उसके कारण नहीं था, भय तो स्वयं बुद्ध के ही अंदर था। वह भयभीत थे कि रोती-चीखती हुई यशोधरा को छोड़ना उनके लिए कठिन होगा। भय हमेशा स्वयं से ही होता है। यह बहुत बड़ी निर्दयता होगी और वह इतने निर्दयी नहीं हो सकते थे, इसलिए अच्छा यही था कि यशोधरा को सोया हुआ छोड़कर वे पलायन कर जाएं। इसलिए वह महल छोड़कर चले गए और बारह वर्षों बाद वापिस लौटे।
यशोधरा ने उनसे कई बातें पूछीं। उनमें से एक यह थी- ‘मुझे बतलाइए, जो कुछ भी आपने वहां जंगल में उपलब्ध किया, क्या आप यहां मेरे साथ रहते हुए उसे प्राप्त नहीं कर सकते थे? अब आप उपलब्ध हो चुके हैं, इसलिए यह बात मुझे बता सकते हैं।’ कहा जाता है कि बुद्ध मौन रहे। लेकिन मैं उत्तर देता हूं कि बुद्ध उपलब्ध नहीं हो सकते थे, क्योंकि एक व्यक्ति जो गहन प्रेम में हो... वे यशोधरा के साथ गहराई तक प्रेम में डूबे थे और उनका संबंध बहुत घनिष्ठ था। यदि यशोधरा के साथ प्रेम का प्रगाढ़ संबंध न होता, यदि वह एक सामान्य हिन्दू पत्नी होती, जिसका पति से कोई भी प्रेम संबंध नहीं होता है, तब बुद्ध उसके साथ रहते हुए भी उपलब्ध हो सकते थे।
तब वास्तव में कोई समस्या न थी। दूसरा केवल परिधि पर है, तुम उससे संबंधित नहीं हो और यदि तुम संबंधित नहीं हो तो दूसरे का वजूद ही नहीं है। वह केवल एक भौतिक उपस्थिति के रूप में परिधि पर उपस्थित रहता है।
लेकिन बुद्ध गहन प्रेम में थे और एक पुरुष के लिए, जबकि वह प्रेम में है, ध्यान को उपलब्ध होना कठिन हो जाता है। यह समस्या बहुत कठिन है, क्योंकि जब कोई पुरूष गहन प्रेम में है और वह मौन में बैठता है, तो उसके मन में तुरंत उसका प्रेमपात्र आ जाता है और उसका पूरा अस्तित्व उस के चारों ओर घूमना शुरू हो जाता है। यही भय था और इसी कारण बुद्ध ने पलायन किया।
इससे पूर्व किसी ने भी इस बारे में बातचीत नहीं की है, लेकिन बुद्ध ने महल से, पत्नी से, बच्चे से इसलिए पलायन किया, क्योंकि वह वास्तव में उनसे प्रेम करते थे। यदि तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो तो कभी न कभी अपनी व्यस्तता में उसे भूल सकते हो, लेकिन जब तुम व्यस्त नहीं हो तो दूसरे की याद तुरंत आएगी और तब ऐसे में दिव्यता को प्रवेश करने का मार्ग नहीं मिल पाता है।
जब तुम व्यस्त होते हो, दुकान पर कार्य कर रहे हो या जब बुद्ध अपने सिंहासन पर बैठे हुए राज्य का काम-काज देख रहे होते, तब यह ठीक था, वह यशोधरा को भूल सकते थे, लेकिन जब वह व्यस्त नहीं थे तो वहां उनके भीतर यशोधरा मौजूद थी। भीतर के शून्य को, उस अंतराल को यशोधरा द्वारा भरा जा रहा था और दिव्यता के आने के लिए कोई भी रास्ता न बचा था।
पुरुष प्रेम के द्वारा उस दिव्यता को उपलब्ध नहीं हो सकता। उसकी पूरी ऊर्जा स्त्रैण ऊर्जा से भिन्न है। पुरूष को पहले ध्यान को उपलब्ध होना चाहिए, तब उसे प्रेम घटित होता है। तब कोई भी समस्या नहीं है। पहले उसे दिव्यता तक पहुंचना चाहिए, तब प्रेमिका भी दिव्य हो जाती है।
बुद्ध बारह वर्षों बाद वापस लौटे। अब वहां कोई समस्या नहीं है, अब यशोधरा में भी परमात्मा है। परंतु इसके पहले यशोधरा कुछ और ही थी और उसमें परमात्मा को खोजना कठिन था। अब समग्र रूप से सर्वत्र परमात्मा है, सर्वस्व परमात्मा है, अब उस पुरानी यशोधरा के लिए कोई स्थान ही नहीं बचा है।
स्त्रैण उर्जा इसकी ठीक विपरीत स्थिति में होती है। वह ध्यान नहीं कर सकती, क्योंकि उसका पूरा अस्तित्व दूसरे के प्रति एक गहन प्यास है। वह अकेली नहीं रह सकती। जब कभी भी वह अकेली होती है, वह दुखी होती है। इसलिए यदि तुम कहते हो कि अकेला होना एक आनंद है, अकेले होने में परमानंद है, तो स्त्री इसे नहीं समझ पाती है। पूरे संसार में एकांत साधना पर जो बल दिया गया है, वह केवल पुरूष प्रवृत्ति के कारण ही है क्योंकि ज्यादातर खोजी पुरुष ही हैं जैसे बुद्ध, महावीर, जीसस और मुहम्मद आदि। ये सभी एकांत में गए और केवल उस एकांत में ही बोध को उपलब्ध हुए। अतः इन सभी ने एक परिवेश निर्मित कर दिया।
एक स्त्री जब कभी भी अकेली होती है, वह भीषण वेदना का अनुभव करती है। यदि उसका प्रेमी है, चाहे वह मन में, उसकी यादों में ही क्यों न हो, वह प्रसन्न रहती है। यदि कोई व्यक्ति उसे प्रेम करता है या किसी के द्वारा उसे प्रेम किया जाता है, यदि एक स्त्री के चारों ओर प्रेम विद्यमान होता है तो वह प्रेम ही उसकी वृद्धि में सहायक होता है, वह प्रेम उसका सूक्ष्म भोजन है, वह प्रेम उसका पोषण करता है। जब कभी एक स्त्री यह अनुभव करती है कि उसके पास प्रेम नहीं है, तो वह प्रेम की भूख में आतुर हो जाती है, प्रेम के अभाव में वह घुटन महसूस करती है और उसका पूरा अस्तित्व सिकुड़ जाता है। इसलिए एक स्त्री कभी यह सोच भी नहीं सकती कि अकेलापन या एकांत या ध्यान भी आनंदपूर्ण हो सकता है।
स्त्रैण ऊर्जा ने प्रेम, भक्ति और समर्पण का मार्ग सृजित किया है। स्त्रैण ऊर्जा हेतु एक आलौकिक या एक दिव्य प्रेमी भी पूर्ण रूप से पर्याप्त है, उसे किसी भौतिक प्रेमी को खोजने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। जैसे मीरा के लिए कृष्ण एक दिव्य प्रेम-पात्र थे, वहां कोई भी समस्या नहीं है, क्योंकि मीरा के लिए उसका प्रेमी उसके मन में सदा ही मौजूद है। हो सकता है कि कृष्ण न रहे हों, कृश्ण केवल पौराणिक कथाओं के काल्पनिक पात्र हों, लेकिन मीरा के लिए वह हैं, वह विद्यमान हैं और मीरा प्रसन्न है, मीरा मस्त है, वह नाच सकती है, वह गीत गा सकती है और इसी प्रेम में वह विकसित हो रही है।
यही एक विचार, यही प्रामाणिक धारणा, यही वास्तविक अनुभव कि दूसरा मौजूद है और उसके आसपास प्रेम बह रहा है... एक स्त्री को संतुष्टि का और आंतरिक समृद्धि का अनुभव देता है। अपने चारों ओर के इस प्रेम के बहाव के कारण ही वह प्रसन्न है, वह जीवंत है। केवल इसी प्रेमी के द्वारा एक दिन वह ऐसी स्थिति में आ जाएगी जब प्रेमी और प्रेमिका एक हो जाते हैं, तब ध्यान घटित होगा।
स्त्रैण ऊर्जा के लिए ध्यान, केवल प्रेम के गहनतम मिलाप में ही संभव होता है। प्रेम के उस गहनतम क्षण में ही उसे ध्यान घटित होता है और तब वह अकेली रह सकती है, तब वहां कोई भी समस्या नहीं है, प्रेमी और प्रेमिका एकदूसरे में विलय हो गए, अब केवल प्रेम ही बचा, वह प्रेम भीतर आविष्ट हो गया है। मीरा, राधा अथवा थेरेसा... इन सभी स्त्रियों ने कृश्ण या जीसस के प्रेम के द्वारा ही उस शिखर को पाया।
यह मेरा स्वयं का अनुभव है कि जब भी कोई पुरुष खोजी मेरे पास आता है, तो उसकी दिलचस्पी ध्यान में होती है और जब कभी कोई स्त्री साधक मेरे पास आती है तो उसकी दिलचस्पी प्र्रेम में होती है। स्त्री की अभिरुचि ध्यान के प्रति केवल तभी उत्पन्न की जा सकती है जब मैं कहता हूं कि इस ध्यान के द्वारा ही प्रेम घटित होगा। लेकिन आधारभूत रूप से उसकी कामना प्रेम की ही होती है। एक स्त्री के लिए प्रेम ही परमात्मा है।
इस भेद को समझना होगा, बहुत गहराई से समझना होगा, क्योंकि प्रत्येक चीज़ इस पर ही निर्भर है। अतः गुरजिएफ ठीक कहता है। स्त्रैण ऊर्जा प्रेम करेगी और इस प्रेम के द्वारा ही ध्यान तथा समाधि की खिलावट होगी। सतोरी घटित होगी, लेकिन नीचे बहुत गहराई में... जड़ों में प्रेम ही होगा और सतोरी फूल के रूप में प्रकट होगी। पुरुष ऊर्जा के लिए ध्यान, समाधि तथा सतोरी जड़ों में होगी और फूल के रूप में प्रेम खिलेगा, यह प्रेम सही मायने में एक खिलावट होगा।
जब स्त्री साधिकाएं मेरे पास आती हैं तो ऐसा होना सुनिश्चित है कि वे अधिक प्रेम का अनुभव करेंगी, लेकिन तब भौतिक रूप से उनका सहचर उन्हें कम संतुष्ट कर पाएगा। जब भी गहन प्रेम होगा, भौतिक प्रेमालाप असंतोषजनक ही बना रहेगा, क्योंकि भौतिक प्रेमालाप तो केवल परिधि का या शरीर का कार्य पूरा कर सकता है, वह केंद्र को परिपूर्ण नहीं कर सकता। इसी कारण भारत जैसे प्राचीनतम देशों में हमने कभी भी प्रेम करने की अनुमति नहीं दी, हमने परिवार द्वारा आयोजित विवाह-व्यवस्था को ही स्वीकृती दी। यदि प्रेम की अनुमति दे दी जाए तो कभी न कभी जीवन साथी के प्रति विरक्ति पैदा हो जाएगी और तब अवसाद तथा निराशा होगी।
आज पश्चिमी देश व्याकुल और क्षुब्ध है। वहां कोई भी संतुष्टि हो ही नहीं सकती है। एक बार तुम गहन प्रेम की अनुमति दे देते हो, तब एक सामान्य व्यक्ति उस गहन कामना को परिपूर्ण नहीं कर सकता है। एक सामान्य व्यक्ति शारीरिक कामना की पूर्ति कर सकता है, वह उथली और बाहरी इच्छा को शांत कर सकता है लेकिन वह अंतरतम की गहराई को या आत्मिक गहराई को स्पर्श नहीं कर सकता है। यदि एक बार वह आत्मिक गहराई क्रियाशील हो जाए, यदि एक बार उस गहनतम तल में हलचल हो जाए, तो फिर परमात्मा ही उसे संतुष्ट कर सकता है, परमात्मा के सिवा अन्य कोई भी नहीं... ।
इसलिए जब स्त्री साधिकाएं मेरे पास आती हैं तो उनको गहराई तक धक्का लगता है। वे एक दिव्य प्रेरणा का अनुभव करती हैं और उनमें एक नूतन आलौकिक प्रेम उत्पन्न हो जाता है। अब उनके पति अथवा उनके प्रेमी अथवा उनके साथी उन्हें संतुष्ट करने में समर्थ न हो सकेंगे। अब कोई उच्चतम गुणात्मक सत्ता ही उन्हें संतुष्ट कर सकती है। हां, ऐसा ही होता है।
इसलिए तुम्हारे प्रेमी अथवा तुम्हारे पति को अधिक ध्यानपूर्ण बनना होगा जिससे उनके अस्तित्व में उच्चतम दिव्य गुण सृजित हो सकें, केवल तभी वह तुम्हारी इच्छा पूरी कर सकेगा अन्यथा रिश्ता टूट जाएगा। वह सेतु ज्यादा देर तक नहीं बना रहेगा और तुम एक नया मित्र खोजोगे। यदि किन्हीं कारणों से एक नया मित्र खोजना असंभव हो, तब तुम्हें परमात्मा से प्रेम करना होगा। जैसा मीरा ने किया। तब स्थूल प्रेम को भूल जाओ, अब प्रेम अभिव्यक्त रूप में तुम्हारे लिए नहीं है, अब सूक्ष्म से... अरूप से प्रेम करते हुए उसमें डूब जाओ।
एक अलग ढंग से, पुरुष खोजियों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है। जब वे मेरे पास आते हैं तो वे अधिक ध्यानपूर्ण बन जाते हैं। जब वे अधिक ध्यानपूर्ण हो जाते हैं, तो उनके साथी के साथ बना हुआ पुराना सेतु टूटने लगता है, वह डोलने लगता है। अब यहां उनकी प्रेमिका अथवा पत्नी को विकसित होना होगा अन्यथा उनका रिश्ता एक बड़े संकट में पड़ जाएगा।
यह स्मरण रहे कि हमारे सभी संबंध या तथाकथित संबंध केवल एक समायोजन हैं, एक तालमेल हैं। यदि संबंध में कोई एक बदलता है तो तालमेल टूट जाता है। प्रयोजन यह नहीं है कि ऐसा अच्छे के लिए होता है अथवा बुरे के लिए। लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं कि यदि ध्यान उच्चतम गुणों को विकसित करता है, तब रिश्ता क्यों टूट रहा है? प्रश्न यह नहीं है। वास्तव में, वह संबंध दो व्यक्तियों के मध्य, जैसे कि वह पहल थे, एक समझौता था, एक समायोजन था। अब एक बदल गया है तो दूसरे को उसके साथ विकसित होना होगा, अन्यथा कठिनाई होगी और सभी बातें झूठी लगेंगी।
जब पुरुष यहां होते हैं तो वह अधिक ध्यानपूर्ण बन जाते हैं। पुरूष जितना अधिक ध्यानपूर्ण होता है, उतना ही अधिक वह अकेले रहना चाहता है। इस बदलाव से उसकी पत्नी अथवा प्रेमिका व्याकुल और क्षुब्ध हो जाएगी। यदि वह स्थिति को नहीं समझ रही है, तब वह समस्या उत्पन्न करना प्रारंभ कर देगी, क्योंकि यह व्यक्ति अब उसके साथ समय न बिताकर, अकेले में रहना चाहता है। यदि स्त्री स्थिति को समझ पाएगी, तब कोई भी समस्या नहीं है, लेकिन वह समझ उसे केवल तब आ सकती है, जब उसका प्रेम भी विकसित हो। यदि वह अत्याधिक प्रेम का अनुभव करती है, तब ही वह इस मित्र को अकेला बने रहने की अनुमति दे सकती है और यहां तक कि वह उसके अकेलेपन की सुरक्षा भी करेगी। वह पूरा प्रयास करेगी कि उस पुरूष के अकेलेपन में बाधा न पड़े... और अब यही उसका प्रेम होगा।
यदि पुरुष भी यह अनुभव करता है... यदि बुद्ध अनुभव करते हैं कि यशोधरा उनकी सुरक्षा और देखभाल कर रही है तथा यशोधरा की उपस्थिति से उनके ध्यान में कोई बाधा नहीं पड़ रही है और उसका मौन उन्हें सहायता दे रहा है, तो यशोधरा से दूर जाने की, पलायन करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। लेकिन ऐसा तभी संभव होगा यदि बुद्ध के साथ साथ यशोधरा का प्रेम भी विकसित हो रहा हो।
जब एक पुरुष का ध्यान विकसित हो रहा है तब एक स्त्री का प्रेम भी विकसित होना चाहिए। केवल तभी वे दोनों कदम से कदम मिलाकर साथ चल सकते हैं और ऐसे में ही एक उच्चतम लयबद्धता उत्पन्न होगी जो निरंतर बढ़ती जाएगी। तब एक क्षण ऐसा भी आता है जब पुरुष पूर्ण रूप से ध्यान में होता है और स्त्री पूर्ण रूप से प्रेम में होती है, केवल तभी पूर्ण मिलन होता है, सच्चा मिलन होता है और तभी दो व्यक्तियों के मध्य एक दिव्य मिलन का सर्वोच्च शिखर या परमानंद उपलब्ध होता है। भौतिक नहीं, शारीरिक नहीं, बल्कि दो भिन्न भिन्न अस्तित्व एक दूसरे में संपूर्णता से विलय हो जाते हैं। तब प्रेमी द्वार बन जाता है और प्रेमिका भी द्वार बन जाती है और वे दोनों उस ‘एक’ तक पहुंच जाते हैं।
इसलिए जो भी मेरे पास आता है उसे पूर्ण रूप से सजग होना चाहिए, क्योंकि मेरे निकट आना खतरनाक है। तुम्हारी सभी पुरानी व्यवस्थाओं में बाधा पड़ेगी और मैं इसमें कोई सहायता भी नहीं कर सकता हूं। मैं यहां तुम्हारे आपसी तालमेल को ठीक करने के लिए नहीं हूं, यह निर्णय तुम्हें ही करना है। मैं तो तुम्हें विकसित होने में सहायता कर सकता हूं। ध्यान में विकसित होने में और प्रेम में विकसित होने में सहायता कर सकता हूं। मेरे लिए दोनों शब्दों का अर्थ समान है, क्योंकि वे समान बिंदु तक पहुंचते हैं।
आज इतना ही।

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