प्रवचन-चौहदवां
पितृत्व अर्थात बच्चे को संपूर्णता देना
(अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)पहला प्रश्नः
ओशो! आपने कहा है कि प्रत्येक बच्चा जन्म से ही परमात्मा होता है। मेरे दोनों बच्चे ठीक जन्म के समय से ही बहुत भिन्न थे। एक बहुत शांत, निर्मल स्वभाव का ईश्वर-तुल्य है, लेकिन दूसरी बच्ची किसी पूर्व परिस्थितियों से प्रभावित प्रतीत होती है, वह शुरू से ही अशांत और क्षुब्ध है। इस समस्या-ग्रस्त बच्ची से हमें कैसा व्यवहार करना चाहिए?इससे एक बहुत मौलिक प्रश्न उठ खड़ा होता है। अस्तित्व स्वयं ही दिव्य है, इसलिए अनिष्ट अथवा बुराई कहां से आती है? अशांति, अनैतिकता और अस्वीकृती कहां से आती है? जो शुभ है, जो अच्छा है, वह तो ठीक है, क्योंकि हमने उसे परमात्मा का समानार्थक बनाया है, शुभ यानि परमात्मा। लेकिन अशुभ कहां से आता है? इस प्रश्न ने मनुष्यता को सदियों से उलझन में डाल रखा है। इतिहास में हम जितनी दूर तक पीछे जा सकते हैं, वहां तक यह समस्या मनुष्य के मन में हमेशा से ही बनी रही है।
इसका तर्कपूर्ण समाधान, जो मन खोज सकता है, वह है अस्तित्व को विभाजित करना या द्वैत निर्मित करना, जिससे कहा जा सके कि एक परमात्मा है जो अच्छा और भला है तथा दूसरा शैतान है जो बुरा और दुष्ट है :
‘बील्जबुल’ और ‘शैतान’ जो अशुभ हैं। मन सोचता है कि समस्या का समाधान हो गया, इसलिए जो कुछ भी बुरा है, वह शैतान से आता है और जो कुछ भी अच्छा है, वह परमात्मा से आता है। लेकिन समस्या हल नहीं हुई है, समस्या को केवल थोड़ा सा पीछे धकेल दिया गया है। समस्या ज्यों की त्यों ही बनी हुई है। तुमने उसे थोड़ा स्थगित कर दिया है, लेकिन कुछ भी हल नहीं हुआ है, क्योंकि फिर शैतान कहां से आता है?
यदि परमात्मा सृष्टा है, तो निश्चित ही वह शुरूआत में सारी सृष्टि के साथ ही शैतान का भी सृजन करता अथवा परमात्मा सृष्टा नहीं है। शैतान हमेशा से ही एक शत्रु की भांति अथवा एक विरोधी शक्ति की भांति मौजूद रहा है और दोनों ही शाश्वत हैं। यदि शैतान का सृजन नहीं किया गया है, तब शैतान को नष्ट भी नहीं किया जा सकता है, इसलिए यह संघर्ष निरंतर बना ही रहेगा। परमात्मा कभी भी जीत नहीं सकता क्योंकि उपद्रव करने के लिए सदैव ही शैतान उपस्थित है।
ईसाई धर्मशास्त्र, मुस्लिम धर्मशास्त्र और यहूदी धर्मशास्त्र के लिए यही एक समस्या है, क्योंकि इन्होंने मन द्वारा दिए गए उसी सामान्य समाधान का अनुसरण किया है, लेकिन मन इसे हल नहीं कर सकता। एक दूसरी संभावना भी है जो मन से नहीं आती है और मन के लिए उसे समझना भी कठिन होगा। वह संभावना पूरब में उत्पन्न हुई, विशेष रूप से भारत में उत्पन्न हुई और वह संभावना है कि वहां कोई भी शैतान नहीं है और कोई भी मौलिक द्वैतता नहीं है, केवल अस्तित्व में परमात्मा ही है और कोई दूसरी विरोधी शक्ति नहीं है। इसे ही भारत ने कहा : अद्वैत दर्शन, जिसका अर्थ है केवल परमात्मा है... लेकिन तब भी अशुभ, शैतान और बुराई का वजूद तो है।
हिन्दू कहते हैं कि बुराई का अस्तित्व स्वयं में नहीं है, उसका अस्तित्व केवल तुम्हारी व्याख्याओं में है। तुम उसे बुरा कहते हो, क्योंकि तुम उसे समझ नहीं पाते, क्योंकि तुम इस बुराई के कारण परेशान हो जाते हो। तुम्हारा दृष्टिकोण ही है जो उसे बुरा बनाता है। नहीं, कोई भी बुराई नहीं है। बुराई अस्त्वि में कदापि नहीं हो सकती। केवल परमात्मा ही अस्तित्व में है, केवल दिव्यता ही अस्तित्व में है।
अब इस पृष्ठभूमि के आधार पर मैं तुम्हारे प्रश्न को लेता हूं। दो बच्चों का जन्म हुआ, एक अच्छा है और एक बुरा है। तुम एक को अच्छा और दूसरे को बुरा कहकर क्यों पुकारते हो? यह अच्छा या बुरा वास्तव में है क्या? यह एक वास्तविकता है अथवा केवल तुम्हारी व्याख्या है? यदि बच्चा आज्ञाकारी है तो अच्छा है और यदि बच्चा आज्ञा का उल्लंघन करने वाला है तो बुरा है। एक वह जो आज्ञा का अनुसरण करता है, अच्छा है। एक वह जो प्रतिरोध करता है, वह बुरा है। तुम जो कुछ भी कहते हो तो एक बच्चा उसे स्वीकार करता है। यदि तुम कहते हो कि शांत और चुप बैठे रहो तो वह बैठ जाता है। यह तुम्हारी अपनी व्याख्या है। तुम जो भी बता रहे हो, वह बच्चे के बारे में नहीं कह रहे हो, वास्तव में तुम अपने मन के बारे में बता रहे हो।
जो आज्ञाकारी है, वह अच्छा क्यों है? वास्तव में जो आज्ञाकारी होते हैं वे कभी भी प्रतिभाशाली नहीं होते, वे कभी भी बहुत दीप्तिवान नहीं होते और वे हमेशा सामान्य बुद्धि के रह जाते हैं। कोई भी आज्ञाकारी बच्चा एक महान वैज्ञानिक अथवा एक महान धार्मिक व्यक्ति अथवा एक महान कवि नहीं बन पाया है। केवल आज्ञा का अनुसरण न करने वाले बच्चे ही महान आविष्कारक और रचनाकार बने। केवल विद्रोही ही पुरातन के पार जाकर अज्ञात और नूतन तक पहुंचते हैं।
लेकिन माता-पिता के अहंकार को आज्ञाकारी बच्चा अच्छा लगता है, क्योंकि वह तुम्हारे अहंकार की पुष्टि करता है। माता-पिता जो कुछ भी कहते हैं और बच्चा उनकी आज्ञा मानता है, उन्हें अच्छा लगता है और जब बच्चा प्रतिरोध करता है, इंकार करता है तो उन्हें बुरा लगता है।
लेकिन वास्तव में, एक जीवंत बच्चा विद्रोही ही होगा।
उसे तुम्हारा अनुसरण क्यों करना चाहिए? तुम हो कौन? उसे क्या केवल इसलिए तुम्हारा अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि तुम उसके पिता हो? एक पिता बनने के लिए तुमने किया क्या है? तुम केवल एक द्वार बने हो, एक माध्यम बने हो और वह भी बहुत अचेतन रूप से। यहां तक कि तुम्हारा सेक्स कृत्य भी सचेतन नहीं था और तुम अचेतन शक्तियों द्वारा उस क्रिया में गतिशील होने के लिए धकेल दिए गए थे। बच्चे का होना तो केवल एक संयोग है। तुम कभी आशा भी नहीं कर रहे थे, तुम चेतन रूप से सजग नहीं थे कि तुम किसी को आने का निमंत्रण दे रहे थे। बच्चा अचानक एक अजनबी की भांति आ गया। तुम उसके जन्म के माध्यम मात्र हो, तुम उसके पिता हो, लेकिन फिर भी तुम एक पिता नहीं हो।
जब मैं कहता हूं कि तुम माध्यम हो, पिता हो, तो यह एक जैविक तथ्य है। तुम आवश्यक नहीं थे, एक सिरिन्ज भी इस कार्य को कर सकती थी। लेकिन तुम एक पिता नहीं हो, क्योंकि तुम सचेत नहीं हो। तुमने उस बच्चे को निमंत्रण नहीं दिया था और न ही तुमने किसी विशिष्ट आत्मा से अपनी पत्नी अथवा प्रेमिका के गर्भ में प्रवेश करने के लिए आग्रह किया था। तुमने उसके लिए कुछ नहीं किया है।
जब बच्चे का जन्म होता है, तब तुम क्या करते रहे? तुम कहते हो कि बच्चे को तुम्हारा कहना मानना चाहिए। क्या तुम पर्याप्त रूप से विश्वस्त हो कि तुम यह सच जानते हो कि उसे तुम्हारा कहना मानना ही चाहिए? क्या तुम पूरी तरह से आश्वस्त और सुनिश्चित हो और तुमने किसी ऐसी चीज़ का अनुभव किया है, जिसके आधार पर तुम कह सको कि बच्चे को तुम्हारा अनुसरण करना चाहिए?
तुम स्वयं को बच्चे पर बलपूर्वक थोप सकते हो, क्योंकि बच्चा निर्बल है और तुम शक्तिशाली हो। तुममें और तुम्हारे बच्चे में केवल यही एक अंतर है। अन्यथा तुम भी एक बच्चे की भांति ही हो, तुम भी अज्ञानी हो, तुम भी विकसित नहीं हुए हो और तुम भी अभी परिपक्व नहीं हो। ठीक बच्चे के समान ही तुम भी क्रोधित हो जाओगे, ठीक बच्चे के समान ही तुम ईर्ष्या भी करोगे और ठीक बच्चे के समान ही तुम भी खिलौनों से खेलोगे। तुम्हारे खिलौने बच्चों की अपेक्षा थोड़े बड़े और भिन्न हो सकते हैं।
तुम्हारा जीवन क्या है? तुम कहां तक पहुंचे हो? तुमने कौन सी बुद्धिमत्ता प्राप्त कर ली है, जिससे बच्चे को तुम्हारा अनुसरण करना चाहिए और जब कभी भी तुम अधिकारपूर्वक कुछ कहो तो उसे ‘हां’ ही कहनी चाहिए?
यदि एक पिता सचेत होगा तो वह बच्चे को किसी कार्य के लिए बाध्य या विवश नहीं करेगा। वस्तुतः वह बच्चे को स्वयं विकसित होने की अनुमति देगा, वह बच्चे के विकास में सहायता करेगा। वह बच्चे को स्वतंत्रता देगा, क्योंकि यदि पिता ने जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण बात जानी है, तो उसे यह पता होना चाहिए कि केवल स्वतंत्रता के द्वारा ही अंतरस्थ विकसित होता है। यदि पिता ने अपने जीवन में कोई बहुमूल्य अनुभव किया है, तो वह भली-भांति जानता है कि अनुभव को स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है जितनी अधिक स्वतंत्रता मिलती है, उतना ही अनुभव समृद्ध होता है और जितनी कम स्वतंत्रता होती है उतना ही अनुभव क्षीण होता है। यदि बिल्कुल भी स्वतंत्रता नहीं होती है तब तुम्हारे पास उधार के अनुभव, अनुकरण और छायाएं होती हैं, लेकिन कभी भी असली और प्रामाणिक चीज़ नहीं होगी।
एक बच्चे का पिता बनने का अर्थ होगा उसे अधिक से अधिक स्वतंत्रता देना, उसे अधिक से अधिक मुक्त बनाना और उसे उस अज्ञात में जाने की स्वीकृति देना, जहां कभी तुम भी नहीं जा पाए। बच्चे को पिता से भी आगे जाना चाहिए, उसे तुम्हारे पार जाना चाहिए, जितना तुमने जाना है उसे उन सभी सीमाओं का अतिक्रमण करना चाहिए। बच्चे की सहायता करनी चाहिए, लेकिन उसे बाध्य नहीं करना चाहिए क्योंकि यदि तुम उसे बाध्य करते हो तो तुम उसे नष्ट कर रहे हो और तुम उस बच्चे की हत्या कर रहे हो।
आत्मा को स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है और वह केवल स्वतंत्रता में ही विकसित होती है। यदि तुम वास्तव में एक पिता हो तो बच्चे के विद्रोही होने पर तुम प्रसन्न होवोगे, क्योंकि कोई भी सही पिता अपनी बच्चे की आत्मा को मारना पसंद नहीं करता है।
लेकिन तुम पिता नहीं हो। तुम रूग्ण हो, तुम अस्वस्थ हो। जब तुम एक बच्चे को अपना अनुसरण करने के लिए बाध्य करते हो तो तुम यही कह रहे हो कि तुम किसी पर प्रभुत्व जमाना चाहते हो। इस प्रभुत्व को तुम संसार में तो लागू नहीं कर सकते, लेकिन कम से कम इस छोटे से बच्चे पर वह प्रभुत्व जमा सकते हो और उसे अपने अधिकार में ले सकते हो। तुम बच्चे के लिए एक राजनीतिज्ञ बन रहे हो। तुम बच्चे के द्वारा अपनी अपूर्ण इच्छाओं को पूरा कर लेना चाहते हो, जैसे प्रभुत्व और तानाशाही। कम से कम एक बच्चे के लिए तो तुम तानाशाह बन सकते हो क्योंकि वह अत्याधिक कमजोर है, वह छोटा और असहाय है और वह तुम पर इतना अधिक आश्रित है कि तुम उसे किसी भी चीज़ के लिए बाध्य कर सकते हो। लेकिन इस बाध्यता के द्वारा तुम उसे मार रहे हो। तुम उसका पालन-पोषण करने की बजाय उसे नष्ट कर रहे हो, बर्बाद कर रहे हो।
वह बच्चा जो अनुसरण करता है, अच्छा प्रतीत होता है क्योंकि वह मृत है। वह बच्चा जो विद्रोही है, वह बुरा प्रतीत होता है क्योंकि वह जीवंत है।
चूंकि हम स्वयं अपने ही जीवन से चूक गए हैं, इसलिए हम जीवन के विरुद्ध हैं। क्योंकि हम पहले से ही मृत हैं, हम मृत्यु से पूर्व ही मर चुके हैं, इसलिए हम हमेशा दूसरों को भी मारना चाहते हैं। कई प्रकार के सूक्ष्म हथियारों से हम दूसरों को मारना चाहते हैं। तुम प्रेम के नाम पर किसी को मार सकते हो, तुम सेवा के नाम पर किसी को मार सकते हो, तुम करूणा के नाम पर किसी को मार सकते हो। प्रेम, करूणा और सेवा जैसे सुंदर शब्द हमने खोज लिए हैं परंतु इन सब की गहराई में एक हत्यारा छिपा बैठा है।
इसे अनुभव करो, तब तुम इस तरह से नहीं सोचोगे कि यह बच्चा अच्छा है और वह बच्चा बुरा है। अपनी व्याख्या मत करो। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है और प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है। दिव्य सृजनात्मक शक्ति ऐसी है कि वह कभी स्वयं को दोहराती नहीं है।
इसलिए केवल इतना ही कहो कि यह बच्चा उस बच्चे से भिन्न है। यह मत कहो कि यह अच्छा है और वह बुरा है। तुम स्वयं ही नहीं जानते कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है। यह बच्चा आज्ञकारी है और वह बच्चा आज्ञाकारी नहीं है, लेकिन यह कोई नहीं जानता है कि अच्छा क्या है?
विवश मत करो। यदि यह बच्चा सहज और स्वाभाविक रूप से आज्ञाकारी है, तब यह अच्छा है। यह उसका स्वभाव है, उसे विकसित होने में सहायता करो। यदि एक बच्चा विद्रोही है, आज्ञा का पालन नहीं करता है, तो यह उसका स्वभाव है, उसकी भी विकसित होने में सहायता करो। पहले बच्चे को इस तरह विकसित करो कि वह बिना किसी बाध्यता के, अपने अंतरतम की गहराई से ‘हां’ कह सके और दूसरे बच्चे को इस तरह विकसित करो कि वह बिना किसी बाध्यता के, गहनता से ‘न’ कह सके। लेकिन अपनी व्याख्या मत करो, क्योंकि जिस क्षण तुम व्याख्या करने लगते हो, तुम बच्चे को नष्ट करना करना प्रारंभ कर देते हो। एक बच्चे का स्वभाव है : ‘हां’ कहना और दूसरे बच्चे का स्वभाव है : ‘न’ कहना, दोनों ही आवश्यक हैं।
जीवन बहुत सपाट और धीमा हो जाएगा, यदि कोई भी व्यक्ति ‘न’ कहने वाला न हो। यदि प्रत्येक व्यक्ति ‘हां’ कहेगा तो जीवन निश्चित ही मंद, उदास और मूर्खतापूर्ण होगा। ‘न’ कहना भी आवश्यक है, वह विपरीत ध्रुव है। आज्ञाकारिता बिल्कुल अर्थहीन हो जाएगी यदि विद्रोही व्यक्ति मौजूद नहीं होगा। इसलिए चुनाव मत करो, बस सहजता से दोनों के अंतर को महसूस करो और उनकी सहायता करो। स्वयं को उन पर थोपना नहीं है, हिंसक मत बनो।
प्रत्येक पिता हिंसक होता है और प्रत्येक मां हिंसक होती है। तुम हिंसक हो सकते हो क्योंकि तुम प्रेम के नाम पर यह हिंसा कर रहे हो। कोई भी व्यक्ति तुम्हारी आलोचना नहीं करेगा, क्योंकि तुम कहते हो कि तुम अपने बच्चे अत्याधिक प्रेम करते हो... इतना प्रेम कि तुम्हें उसे पीटना भी होगा। तुम उससे इतना अधिक प्रेम करते हो कि तुम्हें उसे ठीक करना ही होगा। तुम कहते हो कि तुम उससे प्रेम करते हो, इसी कारण तुम उसे ठीक करने का प्रयास कर रहे हो, क्योंकि वह गलत रास्ते पर जा रहा है।
क्या तुम सुनिश्चित हो कि क्या गलत है और क्या ठीक है? कोई भी व्यक्ति सुनिश्चित नहीं है, कोई भी व्यक्ति सुनिश्चित हो ही नहीं सकता, क्योंकि जीवन का घटनाक्रम ही कुछ ऐसा है कि जो इस क्षण अच्छा है, वह अगले ही क्षण बुरा हो जाता है, जो दिशा प्रारंभ में बुरी प्रतीत होती है, वही अंत में जाकर अच्छाई की ओर मुड़ जाती है। जीवन एक प्रवाह है, वह प्रत्येक क्षण बदल रहा है।
इसलिए एक प्रामाणिक और सच्चे माता-पिता अपने बच्चों को नैतिक आदर्श न देकर केवल सचेतनता और सजगता देंगे, क्योंकि नैतिक आदर्श खोखले और मृत होते हैं। तुम कहते हो कि यह अच्छा है, इसका अनुसरण करो लेकिन अगले ही क्षण वह चीज़ बुरी बन जाती है, तो बच्चा उस स्थिति में क्या करे? अगले ही क्षण जीवन बदल जाता है, वह बदल ही रहा है, जीवन निरंतरता से होने वाला एक परिवर्तन है और तुम्हारे नैतिक आदर्श स्थिर हैं : तुम कहते हो यह अच्छा है और इसका अनुसरण करना ही है। तब तुम मृत बन जाते हो। जीवन बदलता चला जा रहा है और तुम अपने स्थिर एवं मृत आदर्शों को लेकर चलते हो। इसी कारण तथाकथित धार्मिक लोग इतने अधिक मंद, सुस्त और उदास दिखाई देते हैं : उनकी आंखों में खालीपन है, नकलीपन है, उथलापन है, गहराई नहीं है, क्योंकि गहराई केवल तभी संभव है, यदि तुम जीवन सरिता के साथ-साथ प्रवाहित होते हुए चलो।
इसलिए एक माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को उपहार रूप में क्या दिया जाना चाहिए? केवल सजग बने रहने की कला देनी चाहिए। अपने बच्चों को अधिक सजग बनाओ। उन्हें स्वतंत्र होने की अनुमति दो और उन्हें यह भी सिखाओ कि वे सजग होकर स्वतंत्रता के साथ आगे बढ़ें। उन्हें कहो कि यदि तुमसे कुछ गलती हो जाए तो डरो मत, क्योंकि जीवन में गलतियों के द्वारा ही सीखा जाता है और गलतियों के द्वारा ही मनुष्य अधिक सजग बनता है, इसलिए डरो मत। गलतियां मनुष्य से ही होती हैं। यदि तुम सजगता के साथ गलती भी करते हो तो एक बात अवश्य होगी कि तुम वैसी ही गलती दोबारा नहीं करोगे। एक बार तुम गलती करते हो, उसका अनुभव करते हो, अब तुम उसके बारे में सजग हो जाओगे और अंततः वह विलुप्त हो जाएगी। वह गलती तुम्हें समृद्ध बनाएगी और तुम निर्भय होकर आगे बढ़ोगे। केवल एक बात का स्मरण रखो- तुम जैसी भी परिस्थितियों से गुजरो, बस केवल जागरूक बने रहो। यदि तुम ‘हां’ कहते हो तो होशपूर्वक कहो। यदि तुम ‘नहीं’ कहते हो तो भी उसे होशपूर्वक कहो।
जब एक बच्चा ‘नहीं’ कहता है तो माता-पिता को चोट नहीं पंहुचनी चाहिए, क्योंकि एक बच्चे के बारे में कुछ तय करने वाले तुम कौन होते हो? वह तुम्हारे द्वारा आता है, तुम केवल एक मार्ग हो। एक तानाशाह मत बनो, प्रेम कभी भी आदेश नहीं देता है और यदि तुम कभी आदेश नहीं देते हो तो यह अच्छाई और बुराई विलुप्त हो जाएगी। तब तुम दोनों से प्रेम करोगे। तुम्हारा प्रेम बेशर्त रूप से प्रवाहित होगा। ऐसा ही बेशर्त प्रेम परमात्मा की ओर से पूरे संसार में प्रवाहित हो रहा है।
मैने सुना है कि एक सूफी रहस्यदर्शी जुन्नैद से किसी व्यक्ति ने कहा : ‘एक बहुत दुष्ट और बुरा व्यक्ति आपको सुनने के लिए आया है और आपने उसे इतनी निकटता तथा अंतरंगता की स्वीकृति दी है। कृपया उसे बाहर निकाल दीजिए, वह एक अच्छा व्यक्ति नहीं है।’
जुन्नैद ने कहा : ‘यदि परमात्मा उसे अपनी कुदरत से बाहर नहीं फेंकता है तो मैं उसे बाहर फेंकने वाला कौन होता हूं? यदि परमात्मा उसे स्वीकार करता है... तो मैं परमात्मा से ऊंचा नहीं हूं। परमात्मा उसे जीवन देता है, परमात्मा जीवित बने रहने में उसकी सहायता करता है और वह व्यक्ति अभी युवा और जीवंत है और शायद वह तुमसे भी अधिक आयु तक जीवित रहेगा। इसलिए निर्णय लेने वाला मैं कौन होता हूं? परमात्मा अच्छे और बुरे दोनों पर ही अपनी रहमतें बरसाता है।’
स्थिति बिल्कुल साफ है, पूर्णतः सुस्पष्ट है कि परमात्मा के लिए न कोई अच्छा है और न कोई बुरा है। जब मैं कहता हूं कि ‘परमात्मा’ तो मेरा अर्थ ऊपर आसमान में बैठे हुए किसी व्यक्ति से नहीं है। यह तो मनुष्य निर्मित दृष्टिकोण है, हम अपनी धारणाओं के अनुसार परमात्मा का रूप गढ़ लेते हैं। वास्तव में वहां कोई नहीं बैठा है। परमात्मा का अर्थ है : संपूर्ण, यह संपूर्ण अस्तित्व। एक बुरा व्यक्ति भी इस धरती पर उतनी ही सुंदरता से श्वास लेता है, जितना कि एक अच्छा व्यक्ति ले रहा है। अस्तित्व के द्वारा एक पापी भी उसी भांति स्वीकार किया जाता है जैसे कि एक संत को स्वीकार किया जाता है। अस्तित्व कोई भी भेदभाव नहीं करता है। लेकिन द्वैतवादी विचारधारा के कारण, ईसाइयों, मुसलमानों और यहूदियों की सोच द्वंद्वात्मक है। हम लोग द्वन्द और संघर्ष की सीमा के भीतर ही सोचते हैं।
इस बारे में एक कहानी है : प्राचीन इज़राइल में सोडोम नामक एक शहर था। उस नगर के लोग बहुत अधिक विकृत, कुमार्गी और पथभ्रष्ट थे, वे लोग काम-विकृति से पीड़ित थे, समलैंगिक थे। इसलिए यह कहा जाता है कि परमात्मा ने उस शहर को नष्ट कर दिया। पूरा शहर नष्ट हो गया। एक विशाल अग्नि की ज्वाला आसमान से गिरी और प्रत्येक व्यक्ति मर गया।
अनेक सदियां बीत जाने के बाद एक हसीद संत एवं रहस्यदर्शी से किसी ने पूछा : ‘जब परमात्मा ने सोडोम नगर को नष्ट किया था तो उस शहर में कम से कम थोड़े से अच्छे व्यक्ति भी तो रहे होंगे और वे भी नष्ट हो गए होंगे।’ प्रश्नकर्ता का आशय वास्तव में यह था कि बुरे लोग तो नष्ट हो गए, क्योंकि वे कुमार्गी थे, यह समझ में आता है, लेकिन अच्छे लोग नष्ट क्यों हुए’
अब मन की चालबाज़ी को देखो। उस हसीद संत ने कुछ विचार किया और कहा : ‘परमात्मा ने अच्छे लोगों को इसलिए नष्ट कर दिया, जिससे वे अच्छे लोग खुदा के सामने उन बुरे लोगों की बुराई के साक्षी बन सकें।’ यह एक चालाकी से भरी गणना और जोड़-तोड़ है। यह केवल अपने को बचा लेने का एक तरीका है। वास्तविक बात तो यह है कि परमात्मा के लिए न कुछ अच्छा है और न कुछ बुरा है। जब वह सृजन करता है तो वह दोनों का ही सृजन करता है और जब वह विनाश करता है तो वह दोनों को ही नष्ट कर देता है और वह भी बेशर्त।
अच्छे और बुरे का यह दृष्टिकोण वास्तव में मूर्खतापूर्ण है। एक व्यक्ति जो धूम्रपान कर रहा है वह बुरा बन जाता है। एक व्यक्ति जो शराब पी रहा है वह बुरा बन जाता है। एक व्यक्ति जो किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी के प्रेम में पड़ जाता है वह बुरा हो जाता है। हम सोचते हैं कि परमात्मा ऊपर बैठा हुआ यह हिसाब-किताब लगा रहा है कि यह व्यक्ति धूम्रपान करता है, वह व्यक्ति शराबी है और यह व्यक्ति किसी अन्य स्त्री के प्रेम में पड़ गया है... इन सब को आने दो, मैं इन्हें देख लूंगा। यह मूर्खतापूर्ण है यदि परमात्मा ऐसी तुच्छ चीज़ों के बारे में गणना कर रहा है। इस प्रकार की गणना तो हमारी अपनी सोच का बौनापन है।
अस्तित्व के लिए, कोई व्याख्या नहीं है और न ही कोई विभाजन है। अच्छे और बुरे की धारणाएं उस परमात्मा की नहीं है बल्कि मनुष्य की हैं। अच्छे और बुरे के प्रति प्रत्येक समाज की अपनी धारणाएं होती हैं। प्रत्येक युग बदलता है और नई पीढ़ी के लिए अच्छे और बुरे की अपनी नई धारणाएं होती हैं। इसलिए अच्छे और बुरे के संदर्भ में सुनिश्चितता नहीं है। अच्छा और बुरा एक दूसरे से संबंधित हैं, सापेक्षिक है : वह समाज, संस्कृति और हम सब से संबंधित है।
परमात्मा सुनिश्चित है, वह है ही, उसके संदर्भ में कोई भी भेद नहीं है।
जब तुम ध्यान में गहरे उतरते हो जहां सब विचार मिट जाते हैं, तब वहां कोई भेद नहीं होता क्योंकि अच्छे और बुरे तो विचार होते हैं। जब तुम मौन हो, निर्विचार हो तो क्या अच्छा और क्या बुरा? जिस क्षण कोई विचार उत्पन्न होता है कि यह अच्छा है और वह बुरा है, तो मौन टूट जाता है। गहन ध्यान की अवस्था में कुछ भी नहीं है : न अच्छा और न बुरा।
संत लाओत्सु ने कहा है कि स्वर्ग और नर्क में एक बाल के बराबर भेद है। एक ध्यानी व्यक्ति के मन में यदि सूक्ष्म सा अंतर भी उत्पन्न हो जाए तो पूरा संसार विभाजित हो जाता है। ध्यान अभेद है, उसमें कोई अलगाव नहीं है। तुम सामान्य रूप से देखते हो तो तुम संपूर्ण को देखते हो तथा उसे विभाजित नहीं करते हो। तुम यह नहीं कहते कि यह कुरूप है, वह सुंदर है, यह अच्छा है और वह बुरा है। तुम कोई भी विभाजन नहीं करते हो। वहां अद्वैत होता है।
ध्यान में तुम परमात्मा ही बन जाते हो। लोग सोचते हैं कि वे ध्यान में परमात्मा का दर्शन करेंगे। यह गलत है वहां दर्शन करने के लिए कुछ भी नहीं है। परमात्मा एक वस्तु नहीं है। वस्तुतः ध्यान में तुम परमात्मा ही बन जाते हो, क्योंकि सभी भेद मिट जाते हैं। ध्यान में तुम संपूर्ण अस्तित्व के साथ एक हो जाते हो, क्योंकि ध्यान में तुम स्वयं को इस संपूर्ण अस्तित्व से अलग कर ही नहीं सकते हो, समस्त भेद गिर जाते हैं।
तुम इतने अधिक शांत और मौन हो जाते हो कि कोई सीमा ही नहीं बचती है। प्रत्येक सीमा एक विघ्न है, एक उपद्रव है। ध्यान में तुम इतने अधिक मौन और शांत होते हो कि वहां ‘मैं’ और ‘तू’ जैसा कुछ भी नहीं होता है। तुम इतने शांत व मौन होते हो कि सारी सीमाएं धुंधली और अस्पष्ट होकर, अंततः मिट जाती हैं। तब एक ही विद्यमान होता है, समग्र एकता से केवल वही ‘एक’ मौजूद रहता है। इसी समग्र एकता को हिन्दू ‘ब्रह्म’ कहते हैं : एक योग, एक एकता, अस्तित्व का परम-एक्य।
यह मन है, जो विभाजित करता है, भेद उत्पन्न करता है और कहता है कि ‘यह ऐसा है’ और ‘वह वैसा है’। ध्यान में कोई विभाजन नहीं है, वहां ऐसा या वैसा नहीं रहता... वहां केवल ‘है’ होता है। जब तुम ध्यान में होते हो, तुम परमात्मा ही होते हो और केवल ध्यान के उन क्षणों में ही तुम बेशर्त प्रेम को जान पाओगे।
यदि तुम एक पिता हो तो तुम्हारे दोनों बच्चे केवल बच्चे ही होंगे, वे अज्ञात संसार से आने वाले अजनबी होंगे, जो यहां एक अज्ञात अस्तित्व में गतिशील हो रहे हैं, वे यहां विकसित और परिपक्व हो रहे हैं। तुम उन्हें प्रेम करते हो इसलिए अपना प्रेम उन्हें बांट रहे हो, तुम अपने जीवन में उन्हें भागीदार बना रहे हो, तुम अपने अनुभव उन से बांट रहे हो, लेकिन तुम कभी भी किसी चीज़ के लिए उन्हें बाध्य मत करो। जब तुम उन्हें बाध्य नहीं करते हो तब कौन आज्ञाकारी और कौन अवज्ञाकारी है? जब तुम उन्हें बाध्य नहीं करते हो तब तुम कैसे यह निर्णय कर सकते हो कि कौन अच्छा है और कौन बुरा है?
अब मैं आखिरी बात पर आता हूं। जब तुम उन्हें विवश नहीं करते हो तो एक कैसे आज्ञाकारी हो सकता है और दूसरा कैसे अवज्ञाकारी हो सकता है? विवश न करने पर यह पूरा दुष्चक्र ही विलुप्त हो जाता है। तब तुम दूसरे व्यक्ति को स्वीकार कर लेते हो- बच्चे को, पत्नी को, पति को और मित्र को वैसा ही स्वीकार करते हो जैसा कि वह है, तब तुम उन्हें एक यथार्थ सत्य के रूप में स्वीकार करते हो। यदि हम एक दूसरे को यथार्थ रूप में बिना किसी योग्यता अथवा अयोग्यता के, बिना किसी शर्त के, बिना किसी अच्छे-बुरे भेद के स्वीकार करते हैं, तो यह जीवन इसी क्षण एक स्वर्ग बन जाएगा। परंतु हम अस्वीकार कर देते हैं। यदि हम किसी व्यक्ति को स्वीकार भी करते हैं, तो उसके आधे भाग को ही स्वीकार करते हैं। हम कहते हैं कि तुम्हारी आंखें तो सुंदर हैं, लेकिन बाकी सब कुरूप है। क्या यह स्वीकृति है? हम कहते हैं कि तुम्हारा यह काम तो अच्छा है, लेकिन अन्य सभी कार्य बुरे हैं और उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता तथा मैं केवल तुम्हारे उस अच्छे कार्य को ही स्वीकार करता हूं। इसका अर्थ है कि मैं केवल उसे स्वीकार करता हूं जो मेरे अनुसार ठीक है।
तुम्हें शायद अनुमान भी नहीं है कि तुम कैसे एक दूसरे को नष्ट कर रहे हो, क्योंकि जब कभी माता-पिता बच्चे से कहते हैं कि हम केवल तुम्हारे इस काम को स्वीकार करते हैं और शेष को नहीं, जब एक पत्नी पति से कहती है कि मैं तुम्हारी इस बात को स्वीकार करती हूं पर शेष को नहीं, तब तुम क्या कर रहे हो? तुम दूसरे के मन में भी एक विभाजन उत्पन्न कर रहे हो।
जब पिता कहता है : ‘इस कार्य को मत करो। मुझे यह पसंद नहीं है।’ जब पिता अपने बच्चे को इसलिए दंड देता है, क्योंकि उसके अनुसार उसका बच्चा गलत काम कर रहा है, तो यह पिता क्या कर रहा है? जब वही पिता बच्चे की प्रशंसा करता है, उसे खिलौना देता है, उसके लिए फूल लाता है, मिठाई लाता है और उससे कहता है कि तुमने बहुत बढ़िया काम किया, मैं इससे खुश हूं, तो यह पिता क्या कर रहा है? वह बच्चे में एक विभाजन उत्पन्न कर रहा है। धीरे-धीरे यह बच्चा भी स्वयं के उस भाग को अस्वीकृत कर देगा, जिसे माता-पिता ने अस्वीकृत किया था और वह विभाजित हो जाएगा- वह दो तरह के व्यक्तित्व में बंट जाएगा।
तुमने जरूर कभी छोटे बच्चों का निरीक्षण किया होगा- वे स्वयं को ही दंडित कर लेते हैं। वे स्वयं को ही निर्देश देने लगते हैं कि बॅाबी! यह ठीक नहीं है। तुमने एक बुरा कार्य किया है। वे स्वयं के उस भाग को अस्वीकार करना शुरू कर देते हैं, जिसे उनके माता-पिता द्वारा अस्वीकार किया गया था। तब एक विभाजन निर्मित हो जाता है। तुम्हारा अस्वीकृत भाग अचेतन बन जाता है, वह दमित किया हुआ भाग है और स्वीकृत भाग चेतन रहता है, वह अंतःकरण या विवेक बन जाएगा। तब बच्चे का पूरा जीवन एक नर्क बन जाएगा क्योंकि स्वीकृत और अस्वीकृत भाग में संघर्ष चलता रहेगा। निरंतर एक उपद्रव बना रहेगा।
अस्वीकृत भाग नष्ट नहीं हो सकता है। वह तुम हो जो कि वहीं मौजूद है। यह हमेशा तुम्हारे अंदर कार्य करता रहेगा। हो सकता है कि तुमने उसे अंधकार में डाल दिया हो लेकिन वह शक्तिशाली बन जाता है, क्योंकि तुम उसे देख नहीं पाते हो और वह अंधकार के द्वारा ही कार्य करता रहता है। तुम उस के प्रति सचेत नहीं हो सकते हो, वह अपना प्रतिशोध लेता रहता है। जब कभी भी जीवन में कोई कमजोर क्षण आता है और तुम्हारा चेतन भाग शक्तिहीन है तो यह दमित भाग बाहर आ जाता है। तुम तेईस घंटों तक अच्छे और भले बने रह सकते हो, लेकिन शायद एक घंटे में... जब तुम्हारा चेतन मन थक जाता है तब यह अचेतन दृढ़ता से आग्रह करता है।
इसलिए संतों के पास भी कुछ क्षण दोष भरे होते हैं, संत भी अपने संतत्व को अवकाश देते हैं और उन्हें ऐसा करना पड़ता है। इसलिए यदि तुम किसी संत को उसके अवकाश के क्षणों में देखोगे तो बहुत अधिक क्षुब्ध मत होना, प्रत्येक व्यक्ति को अवकाश लेने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति थक जाता है जब तक कि वह अस्तित्वगत रूप से संपूर्ण न हो जाए। संपूर्ण होने पर थकावट नहीं होती, क्योंकि वहां कोई दूसरा भाग नहीं है, जो निरंतर संघर्ष कर रहा हो, कठिनाई उत्पन्न कर रहा हो, स्वयं अपने में आग्रह कर रहा हो या प्रतिशोध ले रहा हो।
इसलिए हमारे पास दो शब्द हैं : एक है संत और दूसरा है ऋषि। संत के भीतर सदैव एक पापी छुपा हुआ है, परंतु ऋषि संपूर्ण होता है। ऋषि अवकाश पर नहीं हो सकता, क्योंकि वह सदा अवकाश पर ही होता है, उसके अंदर कोई अस्वीकृत भाग नहीं होता है, वह संपूर्ण रूप से समग्रता में जीता है। वह क्षण प्रति क्षण एक अखंड की भांति गतिशील होता है और वह कभी किसी चीज़ को अस्वीकार नहीं करता है। उसने स्वयं को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है।
अस्वीकृति, माता-पिता और समाज के द्वारा उत्पन्न की जाती है। एक छोटा बच्चा हमेशा एक महान अन्वेषक होता है और वास्तव में वह अपनी खोज की शुरूआत अपने ही शरीर से करता है, जो उसके सबसे अधिक निकट है। वह चंद्रमा पर नहीं जा सकता, वह गौरीशंकर शिखर पर नहीं जा सकता, क्योंकि वे उससे बहुत अधिक दूर हैं। किसी दिन वह जा सकता है, लेकिन ठीक अभी तो सबसे अधिक निकट उसका अपना ही शरीर है। वह उसकी खोज करना शुरू करता है। वह अपने शरीर का स्पर्श करता है और उसका आनंद लेता है।
एक छोटे बच्चे को देखो, वह अपने पैर के अंगूठे का स्पर्श करता है, वह इतना अधिक प्रसन्न है जितना तुम चांद पर पंहुच कर भी नहीं हो सकते हो। उसने अपने शरीर की खोजबीन की है, वह अपने पैर के अंगूठे को छूता है, उसका आनंद लेता है और उसे अपने मुंह तक लाता है, क्योंकि यही वह ढंग या उपाय हैं, जिनसे वह खोज करता है। वह उसका स्पर्श करेगा, उसे सूंघेगा और उसका स्वाद लेगा। लेकिन जब वह अपनी जननेंद्रिय को छूता है तो माता-पिता व्याकुल हो जाते हैं। वह व्याकुलता बच्चे में नहीं, माता-पिता में होती है। बच्चा पैर के अंगूठे अथवा अपनी जननेंद्रिय में कोई भेद नहीं करता है, वे दोनों ही उसके लिए समान हैं। अभी तक उसने अपने शरीर में ऐसा कोई विभाजन नहीं पाया है। उसके लिए पूरा शरीर-अंगुलियां, आंखें, नाक, कान, मुंह, जननेंद्रियां और अंगूठे आदि एक हैं, वे सभी एक प्रवाह में हैं। कोई उच्चतम या निम्नतम का विभाजन नहीं है।
हिंदुओं के पास विभाजन है और पूरे विश्व-भर में सभी संस्कृतियों के पास विभाजन है। हिंदू कहते हैं कि अपने दाहिने हाथ से नाभि से नीचे के भाग का स्पर्श मत करो, क्योंकि नाभि से नीचे का भाग दूषित होता है। नाभि के नीचे के भाग को अपने बाएं हाथ से स्पर्श करो और नाभि के ऊपर के भाग को अपने दाहिने हाथ से स्पर्श करो। शरीर विभाजित है और यह विभाजन मन में इतनी गहराई तक चला गया है कि दाहिने को ही हम ठीक मानते हैं। दाहिने का अंग्रेजी अनुवाद ‘राईट’ है और ‘राईट’ का मतलब है जो सही है, जो ठीक है। बाएं से हमारा आशय है : बुरा। इसलिए यदि तुम किसी का तिरस्कार करना चाहते हो तो बस कह दो कि वह वामपंथी है, साम्यवादी है अर्थात बायां बुरा है।
एक बच्चा नहीं जानता है कि बायां या दायां कौन सा है? बच्चा तो संपूर्ण शरीर के साथ एकता में है, वह नहीं जानता कि कौन सा भाग श्रेष्ठ है और कौन सा निम्न है, उसका शरीर एक अविभाजित प्रवाह है। जब बच्चा अपनी जननेंद्रियों को खोजकर उनके प्रति आकर्षित होता है तो माता-पिता अव्यवस्थित और व्याकुल हो जाते हैं। जब कभी एक छोटा बच्चा या बच्ची अपनी जननेंद्रि को स्पर्श करता है, तो हम तुरंत उससे कहते हैं कि अपना हाथ हटाओ, इसे मत छुओ। बच्चे को आघात लगता है, तुमने जैसे बिजली का एक झटका दे दिया है। वह समझ नहीं पाता है कि तुम क्या कह रहे हो, तुम क्या कर रहे हो?
ऐसा कई बार होगा। तुम बच्चे के मन में लगातार चोट कर रहे हो कि उसके शरीर का कुछ भाग अस्पृश्य है, अस्वीकृत है। शरीर का यह जननांग वाला भाग बुरा है। मनोवैज्ञानिक रूप से तुम बच्चे के अंदर एक ग्रंथि निर्मित कर रहे हो। बच्चा विकसित होगा लेकिन वह अपने जननांगों को स्वीकार करने में कभी भी समर्थ नहीं हो पाएगा। यदि तुम अपने शरीर को समग्रता में स्वीकार नहीं कर सकते तो वहां समस्याएं और कठिनाइयां होंगी।
क्योंकि बड़ा होकर जब भी यह बच्चा प्रेम करेगा और काम-कृत्य में संलग्न होगा तब उसके भीतर एक अपराध बोध बना रहेगा कि कुछ गलत हो रहा है और आधारभूत रूप से कुछ गलत घटित हो रहा है। वह स्वयं के प्रति निंदा से भर जाएगा, वह स्वयं को दोषी ठहराएगा। प्रेम इस संसार का सुंदरतम अनुभव है और प्रेम करते हुए यह बच्चा स्वयं को अपराधी महसूस करेगा। वह कभी भी समग्रता से प्रेम नहीं कर सकता है और वह कभी भी दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पित नहीं हो पाएगा क्योंकि भीतर ही भीतर वह स्वयं को रोक कर रखेगा। उसका आधा भाग प्रेम कर रहा है और आधा भाग उसे नियंत्रित भी कर रहा है। इसी कारण द्वन्द उत्पन्न होता है और प्र्रेम एक वेदना बन जाता है।
ऐसा जीवन के प्रत्येक आयाम में होता है। प्रत्येक चीज़ दुखदायी बन जाती है, क्योंकि माता-पिता ने प्रत्येक चीज़ में अच्छे और बुरे का एक विभाजन निर्मित कर दिया है। अपने माता-पिता और इस समाज के कारण ही तुम दुखी हो। इसलिए ऐसा ही व्यवहार तुम अपने बच्चों के साथ मत करना। हालांकि यह बहुत कठिन होगा, क्योंकि तुम विभाजित हो और तुम अपने बच्चे को भी विभाजित करना चाहोगे और यह अचेतन रूप से हो ही रहा है।
लेकिन यदि यदि तुम सजग हो जाते हो... यदि तुम वास्तव में ध्यान कर रहे हो तो तुम सजग हो ही जाओगे। अपने बच्चे के भीतर ऐसी खण्डित मानसिकता को पैदा मत करना, उसे विभाजित मत करना, उसे पृथक मत करना। तुमने बहुत सहन किया है, पर अपने बच्चे के लिए भी वैसे ही दुख और कष्ट निर्मित मत करना। यदि तुम वास्तव में उससे प्रेम करते हो, तो तुम उसे विभाजित नहीं करोगे, क्योंकि यह विभाजन ही दुख का निर्माता है। तुम संपूर्ण और समग्र बनने में उसकी सहायता करोगे, क्योंकि संपूर्णता ही धार्मिकता है और यह संपूर्णता ही परम आनंद की संभावना को उत्पन्न करती है, यह संपूर्णता ही शिखर अनुभवों के लिए द्वार खोल देती है।
तुम एक बच्चे की संपूर्ण बनने में कैसे सहायता कर सकते हो? पहली बात- सजग बने रहना, जिससे अचेतन रूप से तुम उसे विभाजित न कर दो। किसी बात की निंदा न करना। यदि तुम अनुभव करते हो कि कोई चीज़ हानिकारक है, तो बच्चे को बता देना कि यह हानिकारक है, लेकिन यह मत कहना कि वह बुरी है, क्योंकि जब तुम किसी चीज़ को हानिकारक कहते हो तो तुम एक तथ्य बतला रहे हो और जब तुम उसी चीज़ को बुरी कहते हो तो तुम अपना मूल्यांकन कर रहे हो।
माता-पिता का यह कर्त्तव्य है कि उन्हें बच्चे को जीवन की बहुत सी चीज़ों के बारे में बताना है क्योंकि बच्चे बहुत कुछ नहीं जानते हैं। तुम्हें बच्चे को बताना होगा कि आग के निकट मत जाओ क्योंकि यह हानिकारक है। यदि तुम जल गए तो तुम्हें पीड़ा होगी, तुम्हें कष्ट होगा, परंतु फिर भी यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम क्या निर्णय लेते हो? मेरा यह अनुभव रहा है कि जब कभी मैं आग से जला हूं तो मैंने बहुत कष्ट पाया है। मैं तुम्हें अपना अनुभव बता रहा हूं, लेकिन फिर भी यदि तुम आग के निकट जाना चाहते हो, तुम ऐसा कर सकते हो, पर यह हानिप्रद है।
जो हानिकारक है, उसके बारे में कहो... जो लाभदायक है, उसके बारे में कहो, लेकिन किसी चीज़ को अच्छा या बुरा मत कहो। यदि तुम सजग हो तो तुम अपने शब्दकोश में से ‘अच्छा’ और ‘बुरा’, इन दो शब्दों को निकाल दो क्योंकि अच्छे और बुरे के साथ तुम अपना मूल्यांकन बीच में ला रहे हो। तुम कह सकते हो कि यह हानिप्रद है परंतु फिर भी स्वतंत्रता की अनुमति दो, क्योंकि तुम्हारा अनुभव बच्चों का अनुभव नहीं बन सकता। बच्चों को स्वयं अनुभव करना होगा। यहां तक कि हानिकारक अनुभवों से भी गुजरना होगा, केवल तभी वे विकसित हो सकते हैं। कभी कभी उन्हें गिरना भी होगा, ज़ख्मी भी होना होगा, केवल तभी वे उस अनुभव को ले पायेंगे। उन्हें प्रत्येक कृत्य से होकर गुज़रना होगा- गिरना, चोट, भय... परंतु विकसित होने का केवल यही एक मार्ग है।
यदि तुम बच्चे को बहुत अधिक सुरक्षा देते हो तो वह विकसित नहीं होगा। बहुत से लोग बच्चे ही बने रह जाते हैं और उनकी मानसिक आयु कभी भी बचपन से पार विकसित नहीं हो पाती है। वे बूढ़े हो जाते हैं, हो सकता है कि कोई सत्तर वर्ष का हो लेकिन उसकी मानसिक आयु लगभग सात वर्ष की ही बनी रहती है, क्योंकि वे अत्याधिक सुरक्षा में रहे हैं।
बहुत समृद्ध परिवारों को देखो। उनके बच्चे बहुत अधिक सुरक्षा में रखे जाते हैं, उन्हें गलती करने की, कुछ नया अनुभव करने की, गुमराह होने की या भटकने की स्वतंत्रता नहीं दी जाती है। लगभग हर क्षण उनके सेवक, शिक्षक, गवर्नेस आदि उन के साथ रहते हैं, उन्हें कभी भी अकेले नहीं रहने दिया जाता है। तब देखो कि उनके साथ होता क्या है? अधिकांशतः सदैव ही, धनी परिवार में लगभग औसत अथवा सामान्य बुद्धि के बच्चों का जन्म होता है। प्रतिभावान या कुशाग्र बुद्धि वाले लोग धनी परिवारों से नहीं होते हैं। ऐसा होना कठिन है। युग प्रवर्त्तक या नवीन प्रतिभाएं इन परिवारों से नहीं होते, साहसी लोग इन परिवारों से नहीं होते, वे हो भी नहीं सकते। वे इतने अधिक संरक्षित हैं कि वे कभी विकसित नहीं हो सकते हैं।
विकास के लिए असुरक्षा आवश्यक है, पर सुरक्षा की भी आवश्यकता होती है, दोनों ही चाहिए। एक माली पौधों और वृक्षों की सुरक्षा करता है, उनकी सहायता करता है, उनकी देखभाल करता है, लेकिन फिर भी उन्हें धूप, वर्षा और तूफानों में लहराने की स्वतंत्रता देता है। तूफान, धूप और अन्य खतरों से सुरक्षित रखने के लिए माली अपने पौधों को घर के अंदर नहीं ले जाएगा। यदि तुम वृक्ष को घर के अंदर ले जाओगे तो वह मर जाएगा। शीशे की कृत्रिम पौधशाला में रखे हुए समस्त पौधे अप्राकृतिक होते हैं और हम सब अपने माता-पिता के द्वारा मिले इस आवश्यकता से अधिक संरक्षण के कारण ही शीशे की पौधशाला के अप्राकृतिक पौधों के समान हो गए हैं।
बच्चों की सुरक्षा मत करो परंतु उन्हें असुरक्षित भी मत छोड़ो। एक छाया की भांति उनका अनुसरण करो। उनकी देखभाल करो, सावधानी बरतो और एक संतुलन बनाओ। जब कभी भी कोई जानलेवा खतरा हो तो उनकी सुरक्षा करो, लेकिन जब कभी तुम अनुभव करो कि स्थिति बिल्कुल भी खतरनाक नहीं है तो उन्हें स्वतंत्रता दो। इस स्वतंत्रता से वे विकसित होंगे। वे जितना अधिक विकसित होंगे, तुम उतनी ही स्वतंत्रता की अनुमति दो। समय के साथ, जब बच्चा आयु के अनुसार परिपक्व बनता है, तब उसे पूरी स्वतंत्रता देनी चाहिए, क्योंकि प्रकृति ने अब उसे एक युवा मनुष्य बना दिया है। अब अत्याधिक चिंता करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। कभी-कभी दुर्घटनाएं होंगी, लेकिन उनका भी अपना एक मूल्य है।
बच्चे को संपूर्णता दो। अपनी सचेतनता और सजगता का संक्रमण उसके भीतर भी होने दो। उसे प्रेम करो, उसे बताओ कि तुम्हारा अनुभव क्या था, लेकिन तुम्हारे अनुभव का अनुसरण करने के लिए उसे बाध्य मत करो। उस पर कुछ थोपने का प्रयास मत करो। यदि वह स्वयं, अपनी इच्छा से तुम्हारा अनुसरण करे तो ठीक है, परंतु यदि वह अनुसरण नहीं करता है तो प्रतीक्षा करो, कोई जल्दबाजी नहीं है।
सही अर्थों में एक पिता अथवा एक मां बन पाना संसार का सबसे कठिन कार्य है और लोग सोचते हैं कि मां-बाप बनना सबसे अधिक सरल है।
मैंने सुना है... एक स्त्री टैक्सी में बाजार से घर लौट रही थी और वह टैक्सी ड्राइवर थोड़ा सनकी था। वह बड़ी तेज गति से टेढ़ी-मेढ़ी गाड़ी चला रहा था, किसी भी क्षण दुर्घटना हो सकती थी। वह बहुत तेज़ी से टैक्सी चला रहा था। वह स्त्री बहुत घबराई हुई थी। सीट के एक कोने में सिमटी हुई, वह कई बार उससे कह चुकी थी कि इतनी तेज़ गाड़ी मत चलाओ, मुझे भय लग रहा है। परंतु वह सुन ही नहीं रहा था। तब उस स्त्री ने कहा : ‘सुनो! मेरे घर पर बारह बच्चे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। यदि मुझे कुछ हो गया तो उन बारह बच्चों का क्या होगा’
यह सुनते ही ड्राइवर बोला : ‘और आप मुझे सजग होने के लिए कह रही हैं। यह करना कठिन है।’
वह इशारा कर रहा है कि आपने बारह बच्चों को जन्म दे दिया और आप सजग नहीं थीं और आप मुझसे ड्राइविंग करने में सजग होने के लिए कह रही हैं।
शारीरिक रूप से अनेक बच्चों को जन्म देना सरल है और इस में कोई भी समस्या नहीं है, जानवर भी सरलता से ऐसा कर लेते हैं। परंतु एक मां बनना बहुत कठिन है और यह संसार में सबसे अधिक कठिन कार्य है। एक पिता बनना और भी अधिक कठिन है, क्योंकि एक मां बनना तो स्वाभाविक और प्राकृतिक है, पर एक पिता होना स्वाभाविक नहीं है। पिता बनना एक सामाजिक घटना है। हमने पिता का सृजन किया है, पर वह प्रकृति में मौजूद नहीं है। प्रकृति में माता का अस्तित्व है। इसलिए एक पिता बनना और भी अधिक कठिन है, क्योंकि इसके लिए कोई स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है। पिता होना कठिन है, क्योंकि किसी मनुष्य का निर्माण करना एक सर्वाधिक उत्तम सृजनात्मक कृत्य है। सजग बनो। अधिक स्वतंत्रता दो। अच्छे और बुरे का भेद मत करो, दोनों को स्वीकार करो और दोनों तरह के बच्चों को विकसित होने में उनकी सहायता करो। बच्चों के विकास में उनकी सहायता करना ही तुम्हारे लिए एक गहन ध्यान बन जाएगा और तुम भी उनके साथ विकसित होते रहोगे। जब तुम्हारे बच्चे की ‘प्रामाणिक-हां’ अथवा ‘प्रामाणिक-न’ की पूर्ण खिलावट होगी... क्योंकि इस संसार में कुछ सुंदर और परिपक्व लोग हैं जो ‘प्रामाणिक-न’ की दावेदारी करते हैं, जैसे नीत्शे, परंतु उसकी ‘न’ अत्यंत सुंदर है, उसकी ‘न’ आकर्षक है। ‘नहीं’ कहने की उसकी प्रज्ञा इतनी विलक्षण और अद्भुत है कि यदि नीत्शे जैसे लोग न होते तो संसार इतना समृद्ध न होता। वह ‘हां’ नहीं कह सकता है। यह उसके लिए कठिन है। ‘नहीं’ में ही उसका पूरा अस्तित्व है।
बुद्ध भी एक ‘प्रामाणिक-न’ कहने वाले हैं। उन्होंने कहा कि कोई ब्रह्म अथवा परमात्मा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है और कोई संसार नहीं है। उनसे अधिक ‘न’ कहने वाला कोई नहीं है। वह कहते हैं कुछ भी नहीं है। वह ‘नहीं’ कहे चले जाते हैं, वह विलोपन किए चले जाते हैं। उनसे एक ‘हां’ का मिल पाना बहुत कठिन है, लगभग असंभव है। परंतु उस ‘नहीं’ से एक कितना सुंदर सारभूत व्यक्तित्व विकसित हुआ। वह ‘नहीं’ अनिवार्य रूप से संपूर्ण और समग्र होनी चाहिए।
‘प्रामाणिक-हां’ कहने वाले भी बहुत लोग हुए, सभी भक्त और सभी श्रद्धावान लोग जैसे मीरा, चैतन्य, जीसस अथवा मुहम्मद आदि, ये सब ‘हां’ कहने वाले लोग हैं। इस तरह दो प्रकार के धर्म हुए हैं। निश्चित रूप से एक धर्म जो ‘नहीं’ कहने वालों के द्वारा निर्मित हुआ और दूसरा धर्म जो ‘हां’ कहने वालों के चारों ओर निर्मित हुआ। तुम्हारा भी इन्हीं दोनों में से किसी एक धर्म से संबंध होगा। यदि तुम ‘नहीं’ कहने वाले हो तो बौद्ध धर्म तुम्हारी सहायता करेगा और यदि तुम ‘हां’ कहने वाले हो तो बौद्ध धर्म तुम्हारी किसी भी प्रकार की सहायता नहीं करेगा, तब वह विनाश करेगा। तब ईसाई धर्म सहायता करेगा, हिन्दु धर्म सहायता करेगा।
दोनों ही आवश्यक हैं। जब मैं ऐसा कहता हूं तो मेरा अर्थ है कि यह दोनों ही प्रकार के धर्म सदैव एक अनुपात में बने रहे हैं, जैसे विश्व में पुरुष और स्त्रियां लगभग एक अनुपात में ही रहे हैं। पूरी दुनिया एक सही अनुपात में विभाजित है : आधे पुरूष और आधी स्त्रियां। यह एक चमत्कार है कि कैसे प्रकृति इस अनुपात को बनाए रखती है? लगभग दूसरे सभी आयामों में भी यह समान अनुपात बना रहता है। आधे लोग ‘नहीं’ कहने वाले और आधे लोग ‘हां’ कहने वाले होते हैं। आधे लोग ज्ञान-मार्ग का अनुसरण कर सकते हैं और आधे लोग प्रेम-मार्ग का अनुसरण कर सकते हैं। प्रेम ‘हां’ कह रहा है और ज्ञान हमेशा ‘नहीं’ कह रहा है। प्रकृति के द्वारा यह अनुपात सदैव ही एक संतुलन में स्थापित रहता है।
यदि तुम्हारे दो बच्चे हैं और उनमें से एक ‘हां’ कहने वाला तथा दूसरा ‘नहीं’ कहने वाला है, तो यह ठीक अनुपात है। यह अच्छा है कि तुम्हारे अपने घर में तुम्हारे पास दोनों हैं। तुम उनमें एक लयबद्धता सृजित कर सकते हो। ‘नहीं’ कहने वाले को नष्ट करने का प्रयास मत करो, उसे पीछे धकेलकर केवल ‘हां’ कहने वाले की सहायता मत करो। उन दोनों के मध्य में एक समस्वरता निर्मित करो। ये दो बच्चे, ‘यिन’ और ‘यांग’ ऊर्जा के रूप में दो विरोधी धु्रव हैं और दोनों पूरे संसार के प्रतिनिधि हैं, उनके मध्य एक लयबद्धता सृजित करो और तब तुम्हारा परिवार वास्तव में एक सच्चा परिवार होगा... एक अद्भुत संगठित इकाई... एक सुव्यवस्थित, एक मैत्रीपूर्ण और एक सुसंगत पारिवारिक इकाई होगा।
लेकिन किसी भी प्रकार की व्याख्या मत करो, तिरस्कार मत करो, निंदा मत करो और नैतिकतावादी मत बनो। केवल एक पिता और एक मां बनो। उनसे प्रेम करो, उन्हें स्वीकार करो और एक समृद्ध व्यक्तित्व बनने में उनकी सहायता करो। समस्त प्रेम का यही आधार है कि दूसरे को उसके मूलभूत स्वरूप से परिचित कराने में उसकी सहायता करो। यदि तुम उसे अपनी ओर खींचकर रखना चाहते हो, उसे नियंत्रित करना चाहते हो तो तुम प्रेम में नहीं हो, तब तुम विध्वंसक हो।
दूसरा प्रश्नः
ओशो! पश्चिम में हमारे विकास की अधिकतम विधियों की प्रवृत्ति समूह उन्मुखी है, जैसे एनकाउंटर गु्रप्स और साइकोड्रामा आदि। यद्यपि यहां पूरब में अनेक आश्रम हैं जहां बहुतेरे साधक साथ रहते हैं, परंतु फिर भी व्यक्तिगत विकास पर बल दिया जाता है।
क्या आप इन दोनों मार्गों के बारे में हमें बताने का कष्ट करेंगे?
विकास की दो विधियां हैं। तुम अपने आत्मिक विकास पर अकेले ही कार्य कर सकते हो अथवा तुम एक समूह या संगठन में रहकर भी कार्य कर सकते हो। हालांकि पूरब में दोनों तरह की विधियां हमेशा से ही मौजूद रही हैं। सूफी विधियां, समूह विधियां हैं। भारत में भी समूह विधियां अस्तित्व में रही हैं, लेकिन वे कभी भी इतनी अधिक प्रचलित और व्यापक नहीं हुईं जितनी कि इस्लाम अथवा सूफी धर्म में रहीं। जहां तक मात्रा अथवा परिमाण का संबंध है, यह एक नई घटना है कि पश्चिम पूर्ण रूप से समूह की ओर उन्मुख है। इससे पूर्व ऐसी समूह विधियां कभी भी नहीं रहीं, जैसी कि अब पश्चिम में मौजूद हैं और उनके द्वारा बहुत अधिक लोग कार्य कर पा रहे हैं।
इसलिए एक ढंग से हम यह कह सकते हैं कि पूरब ‘व्यक्तिगत प्रयासों’ की ओर उन्मुख रहा और अब पश्चिम ‘समूह-विधियों’ की दिशा में विकसित हो रहा है। ऐसा क्यों है और इसमें क्या अंतर है? यह अंतर क्यों है?
समूह-विधियां केवल तभी कारगर हो सकती हैं, जब तुम्हारा अहंकार एक ऐसी स्थिति में आ गया हो कि उसे सहन करना एक बोझ बन जाए। जब अहंकार इतना बोझिल हो जाता है कि अकेले रहना दुखदायी हो जाता है तब समूह-विधियां अर्थपूर्ण होती हैं, क्योंकि समूह में तुम अपने अहंकार को विलय कर सकते हो।
यदि अहंकार बहुत अधिक विकसित नहीं हुआ है, तब वैयक्तिक विधियां तुम्हारी सहायता कर सकती हैं। तुम किसी पहाड़ पर जा सकते हो, तुम अकेले रह सकते हो अथवा तुम एक आश्रम में सदगुरु के साथ रहते हुए भी अकेले कार्य कर सकते हो। तुम अपना ध्यान करते हो, दूसरे अपना ध्यान करते हैं और तुम कभी एक साथ कार्य नहीं करते हो।
भारत में हिंदुओं ने कभी भी समूहों में प्रार्थना नहीं की। मुसलमानों के आगमन के साथ ही भारत में समूह-प्रार्थना ने प्रवेश किया। मुसलमान समूह में प्रार्थना करते हैं, हिंदु सदैव एकांत में प्रार्थना करते थे, यहां तक कि जब वे मंदिर भी जाते हैं, तो अकेले ही जाते हैं। यह एक प्रकार का एकल संबंध है, केवल तुम और तुम्हारा परमात्मा। यह तभी संभव है जब अहंकार उतना विकसित न हुआ हो कि वह बोझ लगने लगे। भारत में अहंकार को विकसित होने में कभी सहायता नहीं मिली, क्योंकि प्रारंभ से ही हम लोग अहंकार के विरुद्ध रहे हैं। परंतु तुम अहंकार में विकसित होते हो, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर यदि तुम्हारे अहंकार का तल धुंधला है, तुम विनम्र हो, क्योंकि वास्तव में तुम एक अहंकारी व्यक्ति नहीं हो। तुम्हारे भीतर अहंकार का शिखर नहीं है, वहां विनम्रता की समतल सपाट भूमि है। फिर भी तुम अहंकारी की तरह व्यवहार करते हो क्योंकि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को वैसा होना अनिवार्य है, लेकिन तुम वास्तव में अहंकारी नहीं हो। तुम हमेशा सोचते हो कि यह अहंकार गलत है और तुम स्वयं को उससे दूर खींचने का प्रयास करते हो। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में तुम्हें उत्तेजित किया जा सकता है और तुम्हारा अहंकार एक शिखर बन सकता है, लेकिन सामान्य रूप से वह एक शिखर नहीं है और केवल एक समतल भूमि है।
भारत में अहंकार ठीक क्रोध के समान होता है, यदि कोई व्यक्ति तुम्हें उत्तेजित करता है तो तुम क्रोधित हो जाते हो और यदि कोई तुम्हें उत्तेजित नहीं करता है, तो तुम क्रोधित नहीं होते हो। पश्चिम में अहंकार एक स्थाई चीज़ बन गया है। वह क्रोध के समान नहीं है, वह अब श्वास-प्रश्वास के समान है। अब उसे उत्तेजित करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है, वह वहां है ही, वह वहां निरंतर बना रहता है।
इस अहंकार के कारण ही, समूह बहुत सहायक है। समूह में, समूह के लोगों के साथ कार्य करते हुए और स्वयं को समूह में विलीन करते हुए तुम अपने अहंकार को सरलता से पृथक कर सकते हो। इसी वजह से न केवल धर्म में बल्कि राजनीति में भी कुछ तथ्य ऐसे हैं जो केवल पश्चिम में ही मौजूद हो सकते हैं। उदाहरण के लिए एकाधिकार अथवा तानाशाही अस्तित्व में आ सकी और वह पहले जर्मनी में ही संभव हो सकी, जो पश्चिम का सबसे अधिक अहंकारी देश है। पूरे विश्व में जर्मनी के अहंकार जैसा कुछ भी नहीं है।
इसी कारण हिटलर का उदय संभव हो सका, क्योंकि वहां प्रत्येक व्यक्ति अहंकारी है और प्रत्येक व्यक्ति को विलय होने की आवश्यकता है।
नाज़ी की रैलियों में लाखों लोग चल रहे हैं, तुम उस भीड़ में स्वयं को भूल सकते हो, तुम्हारे व्यक्तित्व को वहां मौजूद रहने की आवश्यकता नहीं है। तुम केवल एक भीड़ बन जाते हो, बैंड द्वारा संगीत बज रहा है, सुरों की ध्वनि है, एक उत्तेजना भरा शोर है और हिटलर का सम्मोहित कर देने वाला करिश्माई व्यक्तित्व है। इन सब के बीच तुम्हारे मौजूद होने की आवश्यकता ही नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति हिटलर की ओर देख रहा है, तुम्हारे चारों ओर का पूरा जनसमूह एक सागर के समान है और तुम बस उसकी एक लहर बन जाते हो। तुम्हें अच्छा महसूस होता है, तुम ताजगी और नवीनता का अनुभव करते हो। तुम युवा तथा प्रसन्न होने का अनुभव करते हो। तुम अपने दुख, अपनी वेदना और अपने अकेलेपन को भूल जाते हो। यहां तुम अकेले नहीं हो। एक विशालकाय जनसमूह तुम्हारे साथ है और तुम उसके साथ हो। तुम्हारी व्यक्तिगत या निजी परेशानियां दूर हो जाती हैं। अचानक एक द्वार खुलता है, तुम हल्के हो जाते हो, जैसे मानो तुम आकाश में उड़े जा रहे हो।
हिटलर इस कारण सफल नहीं हुआ कि उसके पास एक अर्थपूर्ण और विशेष विचारधारा थी। बल्कि उसके वैचारिक तथ्य मूर्खतापूर्ण थे, बचकाना और अपरिपक्व थे। वह इसलिए सफल नहीं हुआ कि उसने जर्मनी के लोगों को प्रभावित कर दिया था और विश्वास दिला दिया था कि वह ठीक है। जर्मन के लोगों को प्रभावित करना बहुत अधिक कठिन कार्य है और वह सबसे दूभर कार्यों में से एक है, क्योंकि वे लोग तार्किक हैं, उनके मस्तिष्क में तर्क-वितर्क भरा है और प्रत्येक ढंग से उनकी समझ एक परिष्कृत समझ है। इसलिए उनको प्रभावित करना बहुत कठिन है और वह भी हिटलर द्वारा प्रभावित किया जाना तो लगभग असंभव था। नहीं, हिटलर ने उन लोगों को प्रभावित करने का प्रयास कभी नहीं किया। उसने केवल सामूहिक सम्मोहन जैसे तथ्य को निर्मित किया और इसी बात से जर्मन उसका कायल बन गया।
प्रश्न यह नहीं था कि हिटलर क्या कह रहा था? प्रश्न यह था कि जब वे सब भीड़ में थे, समूह में थे तो वह सब क्या अनुभव कर रहे थे? समूह में होना उन सब के लिए भारमुक्त करने वाला अनुभव था, वह भारमुक्त होना इतना सुखदायी था कि उनके लिए इस व्यक्ति का अनुसरण करना महत्त्वपूर्ण बात बन गई। था। वह जो कुछ भी कह रहा था, चाहे ठीक या गलत, तर्कपूर्ण या अतर्कपूर्ण या मूर्खतापूर्ण, इससे कोई औचित्य न था, बस उसका अनुसरण करना मुख्य बात थी। वे जर्मन लोग स्वयं से इतने अधिक ऊब चुके थे कि वह जनसमूह में तल्लीन हो जाना चाहते थे। इसी कारण तानाशाही, एकतंत्रवाद, नाज़ीवाद और इस तरह के सभी सामूहिक पागलपन पश्चिम में संभवतः स्थापित हो सके।
पूरब में केवल जापान ही इसका अनुसरण कर सका, क्योंकि पूरब में जापान ही जर्मनी के प्रतिरूप है। पूरब में जापान ही सबसे अधिक पश्चिमी देश है। जापान में भी वैसा ही माहौल था इसलिए वह बड़ी आसानी से हिटलरी पागलपन के साथ संबंध जोड़ सका।
ऐसी ही सामूहिक गतिविधियां अन्य क्षेत्रों में भी हैं, जैसे धर्म और मनोविज्ञान में भी यह हो रहा है। वहां सामूहिक ध्यान हो रहे हैं और समूह-ध्यान ही आने वाले समय में ज्यादा देर तक टिक सकेगा। जब सौ लोग एक साथ होते हैं तो तुम आश्चर्य में पड़ जाओगे, विशेष रूप से वे लोग आश्चर्यचकित होंगे, जो पश्चिमी मन से अनभिज्ञ हैं। सौ लोग एक दूसरे का हाथ पकड़कर चुपचाप बैठे हुए हैं और एक दूसरे की उपस्थिति को अनुभव कर रहे हैं और इस में वे लोग बहुत प्रफुल्लता का अनुभव कर रहे हैं।
कोई भी भारतीय शायद इतनी प्रफुल्लता का अनुभव नहीं करेगा। वह कहेगा कि यह कैसी मूर्खता है? सौ लोग एक दूसरे का हाथ थामे हुए गोल घेरे में बैठे हैं, वे कैसे प्रफुल्लित हो सकते हैं? ऐसे में वे कैसे परम आनंदित हो सकते हैं? ज्यादा से ज्यादा तुम दूसरे के हाथों के पसीने का ही अनुभव कर सकते हो। लेकिन पश्चिम में सौ लोग एक दूसरे के हाथों को पकड़े हुए प्रफुल्लित और आनंदित होते हैं। क्यों? क्योंकि अति अहंकार के कारण वहां किसी दूसरे के हाथों को पकड़ना ही लगभग असंभव है। यहां तक कि पति और पत्नी भी एक दूसरे के साथ संयुक्त नहीं हैं। संयुक्त परिवार जो सामूहिक आधार थे, वह विलुप्त हो गए हैं। समाज विलुप्त हो गया है। अब पश्चिम में, वास्तव में समाज का अस्तित्व ही नहीं है, तुम अकेले ही चल रहे हो। अमेरिका में, मैं उनकी सांख्यिकी गणना के बारे में पढ़ रहा था, वहां प्रत्येक व्यक्ति तीन वर्षों के भीतर ही किसी दूसरे नगर में चला जाता है। अब, भारत के ग्रामीण लोग ही वहां स्थाई रूप से रह पाते हैं बल्कि उनका पूरा परिवार वहां हजारों वर्षों से रह रहा है। यह भारतीय लोग उस भूमि की जड़ों में जम गए हैं। वे वहां के लोगों से प्रसन्नतापूर्वक संबंधित है और अमेरिका वासी भी इनसे संबंधित हैं। यह लोग अमेरिका में अजनबी नहीं है, वह एक खुशहाल गांव की तरह वहां बसे हुए हैं। वह वहीं पैदा हुए हैं और शायद वहीं मर भी जाएं।
अमेरिका में, औसत रूप से प्रत्येक तीन वर्षों बाद लोग स्थान बदल लेते हैं, नगर बदल लेते हैं। यह अब तक की सर्वाधिक खानाबदोश संस्कृति है, घुमक्कड़ जाति है, न कोई मकान, न परिवार, न गांव, न शहर और वास्तव में कोई भी घर नहीं। तीन वर्षों में तुम कैसे जड़ें जमा सकते हो? तुम जहां कहीं भी जाते हो, तुम एक अजनबी ही होते हो। पूरा जनसमूह तुम्हारे चारों ओर है, लेकिन तुम उससे संबंधित नहीं हो। इसी कारण वैयक्तिकता का जन्म होता है।
एक सामूहिक विधि में, जिसमें तुम विकसित होने के लिए गए हो, उसमें एक दूसरे के शरीरों को स्पर्श करते हुए बैठने से तुम उस समुदाय के हिस्से बन जाते हो। एक दूसरे के हाथों का स्पर्श करते हुए, एक दूसरे के हाथों को थामकर, केवल परस्पर निकटता से साथ लेटे हुए, तुम ‘एक होने’ का अनुभव करते हो। ऐसे में एक धार्मिक परमानंद का अनुभव होता है। सौ लोग शालीनता से एक दूसरे का स्पर्श करते हुए नाच रहे हैं, वे एक-दूसरे के चारों ओर घूम रहे हैं और कुछ ही क्षणों में उनका अहंकार विलुप्त हो जाता है और उनका परस्पर विलय हो जाता है, वे सब एक हो जाते हैं। यह विलीनता एक प्रार्थनापूर्ण कृत्य बन जाती है। परंतु राजनीतिज्ञ इसका उपयोग विध्वंसक लक्ष्यों के लिए कर सकते हैं। लेकिन धर्म इसका उपयोग बहुत सृजनात्मक ढंग से कर सकता है, यह एक ध्यान भी बन सकता है।
पूरब में लोग अधिकांशतः समुदायों में रहते हैं, इसलिए वे जब भी धार्मिक होना चाहते हैं, तब वे हिमालय जाना चाहते हैं क्योंकि उनके चारों ओर बहुतायत में समाज है। वे लोग स्वयं से थके हुए नहीं हैं, बल्कि वे समाज से थक चुके हैं। यही अंतर है। पश्चिम में तुम स्वयं से ऊब चुके हो और अब तुम कोई सेतु बनाना चाहते हो कि कैसे दूसरों के साथ और समाज के साथ संपर्क स्थापित किया जाए और कैसे दूसरों से संबंधित हुआ जाए? जिससे तुम स्वयं को भूल सको। पूरब में लोग समाज से थक चुके हैं। वे समाज की भीड़ में बहुत लंबी अवधि से रहते आए हैं और उनके चारों ओर के समाज ने उन्हें इतना अधिक घेर रखा है कि वे स्वतंत्रता का अनुभव नहीं कर पाते हैं। इसलिए पूरब में, जब कभी भी कोई व्यक्ति स्वतंत्रता और मिक्त की चाह रखता है या वह शांत और मौन होना चाहता है तो वह हिमालय की ओर प्रस्थान कर जाता है।
पश्चिम में तुम समाज की ओर दौड़ते हो और पूरब में लोग समाज से दूर भागते हैं। इसी कारण पूरब में अकेलेपन की विधियां तथा वैयक्तिक विधियां अस्तित्व में रही हैं और पश्चिम में सामूहिक विधियां अस्तित्व में हैं।
मैं यहां क्या कर रहा हूं? मेरी विधि एक संश्लेषण है, एक जोड़ है। सक्रिय ध्यान के प्रारंभिक चरणों में तुम समूह के भाग होते हो और ध्यान के अंतिम चरण में वह समूह विलुप्त हो जाता है और तुम अकेले बचते हो। मैं एक विशेष कारण से ऐसा कर रहा हूं क्योंकि अब पूरब और पश्चिम असंगत हो गए हैं। पूरब अब पश्चिम की ओर मुड़ रहा है और पश्चिम पूरब की ओर मुड़ रहा है। इस सदी के अंत तक न कोई पूरब होगा और न कोई पश्चिम होगा, केवल एक विश्व होगा। प्राचीन समय से यह भौगौलिक विभाजन चलते आए हैं, परंतु अब यह विभाजन ज्यादा देर नहीं रह पाएगा।
तकनीकी ज्ञान ने इसे पहले से ही विलुप्त करना शुरू कर दिया है, लेकिन मन के अभ्यस्त व्यवहार के कारण यह विभाजन बना हुआ है। अब यह केवल एक मानसिक धारणा की भांति है, पर यथार्थ में वह विभाजन धीरे-धीरे विलुप्त हो रहा है। इस सदी के अंत तक न पूरब होगा, न पश्चिम होगा, केवल एक विश्व होगा। लगभग ऐसा हो ही चुका है। जो लोग देख सकते हैं, जिनके पास पैनी और निष्पक्ष दृष्टि है वह देख सकते हैं कि ऐसा हो ही चुका है। अब एक संश्लेषण की आवश्यकता होगी, समूह और एकल, दोनों तरह की विधियों की आवश्यकता होगी। प्रारंभ में तुम एक समूह में कार्य करते हो और अंत में तुम पूर्ण रूप से स्वयं के साथ हो जाते हो।
समाज से प्रारंभ करो और स्वयं तक पहुंचो। समुदाय से पलायन मत करो, भागो मत, संसार में रहो, लेकिन उसमें फंसो मत। संबंध बनाओ, लेकिन तब भी अकेले बने रहो। प्रेम करो और ध्यान करो। ध्यान करो और प्रेम करो।
प्रश्न यह नहीं है कि प्राथमिक रूप में और गौण रूप में क्या घटित होता है? समस्या यह नहीं है कि पहले और बाद में क्या घटित होता है? यदि तुम एक पुरुष हो तो ध्यान और प्रेम करो और यदि तुम एक स्त्री हो तो प्रेम और ध्यान करो, लेकिन चुनाव मत करो। ‘प्रेम एवं ध्यान’ यही मेरा नारा है।
‘प्रेम एवं ध्यान’- यह मेरा संदेश है-- और यही आशीष भी है।
आज इतना ही।
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