दिनांक 5 अक्टूबर,।970;
सांध्या,
मनाली (कुल्लू)
‘’भगवान
श्री कृष्ण के
संदर्भ में
जीसस पर चर्चा
करते समय एक
बार आपने कहा
कि जीसस के’क्रॉस'
से जिस
सभ्यता का शरम
हुआ उसका अत
आधुनिक स्थिति
में एटम बन पर
जाकर हुआ। और
आधुनिक
सभ्यता को अभी
वर्तमान
स्थिति में’क्रॉस
या वंशी के
बीच चुनाव
करना है।
कृपया इस बात
को फिर स्पष्ट
करें। तथा जिस
प्रकार’क्रॉस'
की
संस्कृति का
अंत एटम बन पर
हुआ है अभी
उसी प्रकार वंशी
से जो जीवनधारा
चली उसका भी
तो अंत
सुदर्शनचक्र
और महाभारत पर
हुआ था। मैं
यह पूछना
चाहूंगा कि आप’क्रॉस’ और
एटम बन का जोड़
बुनेगे कि
वंशी और
महाभारत का
जोड़ भारत के
लिये चुनेगे?’’
क्रॉस’ मृत्यु
का सूचक है।
कब्र पर लगता
है तो उसका अर्थ
है, और जब जीवन
पर लग जाता है
तो खतरनाक है।
लेकिन, बहुत
सारे तथाकथित
धार्मिक
लोगों ने
मनुष्य के
शरीर को कब्र
ही समझा है।
उनकी इस समझ
का परिणाम
खतरनाक होने
वाला है। और
अगर मनुष्य की
छाती पर’क्रॉस
लटका दिया
जाये, जैसे
कब पर’क्रॉस'
लगा होता है,
तो हम जीवन
को स्वीकार
नहीं करते, अस्वीकार की
घोषणा करते
हैं।
हम जीवन को वरदान नहीं मानते हैं, अभिशाप मानते हैं। ईसाइयत — जीसस का नाम नहीं कह रहा हूं — ईसाइयत रेखा समझती रही है कि जो मनुष्य का जीवन है पाप का फल है, ’ओरिजनल सिन' का फल है। जिसे हम जिंदगी समझ रहे हैं, वह जिंदगी परमात्मा के द्वारा दिया गया वरदान नहीं, परमात्मा के द्वारा दी गयी सजा है।
ऐसा चिंतन
गहरे में दुखवादी
और’ पैसिमिस्ट’
है। रेखा
चिंतन गुलाब
के फूल के पास
खड़े
होकर
कांटों की
गिनती करता है, फूल
को भूल जाता
है। ऐसा चिंतन
दो अंधेरी
रातों के बीच
में एक
छोटे—से दिन
को देखता है, दो प्रकाशित
दिनों के बीच
में एक अधेरी
रात को नहीं।
रेखा चिंतन
जीवन के दुखों
को बटोर कर
इकट्ठा कर
लेता है, जीवन
के सुखों को
विस्मृत कर
देता है। असल
में दुख को
बटोर कर
इकट्ठा करना
भी रुग्णचित्त
का लक्षण है।
अस्वाभाविक, भटका हुआ।
और फिर उस दुख
के आधार पर पूरे
जीवन के संबंध
में जो’ फिलॉसफी’,
जो दर्शन का
फैलाव होता है,
वह उदासी का,
अंधेरे का,
निषेध का, नकार का और’ क्रॉस’
का हो जाता
है।
जीसस का
प्रभाव, शायद वे
सूली पर न लटकाये
गये होते तो
दुनिया पर
इतना न पड़ता।
शायद दुनिया
उन्हें भूल ही
गयी होती।
लेकिन जीसस का
सूली पर
लटकाया जाना
ही’ क्रिश्चियनिटी’
का जन्म बन
गया। आज कोई
एक अरब आदमी
के करीब ईसाइयत
में सम्मिलित
हैं। यह मैं
जीसस की विजय
नहीं मानता हू
यह मैं’ क्रॉस’ की
विजय मानता
हूं। जीसस
सूली पर लटके
हुये हमारे
रुग्ण और उदास
चित्तों
को बड़े ही ठीक
मालूम पड़े, वे हमारे
जीवन के
प्रतीक ही
मालूम पड़े हम
सब सूली पर
लटके हुये लोग
हैं। हम सब
दुख में जी
रहे लोग हैं।
हम सब दुख को
ही चुनते हैं,
इकट्ठा
करते हैं। हम
दुख का ढेर
लगाये चले जाते
हैं। आखिर में
दुख ही हाथ
में रह जाता
है, सुख सब
खो जाते हैं।
कृष्ण
बिलकुल ही
विपरीत व्यक्तित्व
है। और कृष्ण
की बांसुरी का
प्रतीक’ क्रॉस’
से ठीक उलटा
है। जैसे
बांसुरी को
कब्र पर रखने
का कोई अर्थ
नहीं होता।
उसे जिंदा ओंठ
चाहिये। और
सिर्फ ओंठ ही
नहीं चाहिये, नाचते
हुये ओंठ भी
चाहिये। गाते
हुये ओंठ भी चाहिये।
और ओंठ ऐसे ही
नहीं नाचते और
गाते हैं जब
तक कि भीतर के
प्राण आनंद से
उल्लसित नहीं हों।
मेरे लिये
जीसस के’ क्रॉस’
और कृष्ण की
बांसुरी में
चुनाव दिखायी
पड़ता है। ऐसा
नहीं है कि
जिंदगी में
दुख नहीं हैं,
दुख जिंदगी
में हैं।
लेकिन जो आदमी
उन्हे इकट्ठा
कर लेता है, जो उन्हें
समूहगत रूप से
देखने लगता है,
उसे फिर सुख
दिखायी पड़ने
बद हो जाते
हैं। ऐसा भी
नहीं है कि
जिंदगी में
सुख नहीं हैं —
सुख हैं। और
जो आदमी सुखों
को इकट्ठा कर
लेता है, और
सुखों की उस
आनंद—राशि में
डूबता है, उसे
दुख दिखायी
पड़ने बद हो
जाते हैं।
जीवन में तो
सुख और दुख
दोनों हैं। सब
कुछ निर्भर
करता है
व्यक्ति पर कि
वह क्या देखता
है। मेरी
अपनी समझ ऐसी
है कि अगर कोई
आदमी गुलाब के
फूल को ठीक से
देख पाये और
प्रेम कर पाये, तो
उसे कांटे
दिखायी पड़ने
बंद हो जाते
हैं। क्योंकि
जो आंखें
गुलाब के फूल
से रस जाती
हैं, रम
जाती हैं, वे
आंखें कांटों
को देखना बद
कर देती हैं।
ऐसा नहीं है
कि कांटे मिट
जाते हैं, बल्कि
ऐसा कि कांटे
भी गुलाब के
साथी और मित्र
हो जाते हैं
और वे गुलाब
के फूल की
रक्षा की तरह
ही दिखायी
पड़ते हैं। वे
एक ही पौधे पर
फूल की रक्षा
के लिये निकले
हुये कांटे
होते हैं। लेकिन
जो आदमी
कांटों को चुन
लेता है, उसे
फूल दिखायी पड़ना बंद
हो जाता है।
जो आदमी
कांटों को
चुनता है, वह
यह कहेगा कि
जहां इतने
कांटे हैं
वहां एक फूल
खिल कैसे सकता
है? जहां
काटे—ही—काटे
हैं, वहां
फूल असंभावना
है। जरूर मैं
किसी भ्रम में
हू कि मुझे
फूल दिखायी पड़
रहा है। जहां कांटे—ही—काटे
हैं, वहा
फूल हो नहीं
सकता। काटा
सत्य हो जाता
है, फूल
स्वप्न हो
जाता है। और
जो आदमी फूल
को देख लेता
है, और देख
पाता है और
प्रेम कर पाता
है और जी पाता है,
उस आदमी को
एक दिन लगना
शुरू होता है
कि जिस पौधे
पर गुलाब जैसा
कोमल फूल
खिलता हो, उस
पर कांटे कैसे
हो सकते हैं।
उसके लिये
कांटे धीरे—धीरे
भ्रम और झूठ
हो जाते हैं।
मर्जी है
आदमी की कि वह
क्या चुने। स्वतत्रा
है आदमी को कि
वह क्या चुने।
सार्त्र का एक
वचन बहुत
अद्भुत है; उसमें
वह कहता है —’वी
आर कंडेम्ह
टु बी फ्री’।
हम मजबूर हैं
स्वतंत्र
होने को। जबर्दस्ती
है हमारे ऊपर
स्वतंत्रता।
हम सब चुन
सकते हैं, सिर्फ
एक
स्वतंत्रता
को नहीं चुन
सकते हैं, वह
हमें मिली ही
हुई है। कोई
आदमी यह नहीं
कह सकता कि
मैं
परतंत्रता
चुन सकता हू
क्योंकि वह चुनना
भी उसकी
स्वतंत्रता
ही है। इसलिये
सार्त्र कहता
है —’ कंडेम्ड
दु बी फ्री’।
कभी भी
स्वतंत्रता
के साथ किसीने’
कंडेम्ड’
शब्द का
प्रयोग नहीं
किया होगा।
मनुष्य
स्वतंत्र है।
और परमात्मा
के होने की यह
घोषणा है। और
मनुष्य जो
चुनना चाहे, चुन
सकता है। यदि
मनुष्य ने दुख
चुना, तो
चुन सकता है।
जिंदगी उसके
लिये दुख बन
जायेगी। हम जो
चुनते हैं, जिंदगी वही
हो जाती है।
हम जो देखने
जाते हैं, वह
दिखायी पड़
जाता है। हम
जो खोजने जाते
हैं, वह
मिल जाता है।
हम जो मांगने
जाते हैं, वह’
फुलफिल’ हो
जाता है, उसकी
पूर्ति हो
जाती है।
दुख चुनने
जायें, दुख मिल
जायेगा।
लेकिन, दुख
चुनने वाला
आदमी अपने
लिये ही दुख
नहीं चुनता।
वहीं से
अनैतिकता
शुरू होती है।
दुख चुनने
वाला आदमी
दूसरे के लिये
भी दुख चुनता
है! यह असंभव
है कि दुखी
आदमी और किसी के
लिये सुख देने
वाला बन जाये।
जो लेने तक में
दुख लेता है, वह देने में
सुख नहीं दे
सकता। जो लेने
तक में चुन—चुन
कर दुख को लाता
है, वह
देने में सुख
देने वाला
नहीं हो सकता।
यह भी ध्यान
रखना जरूरी है
कि जो हमारे
पास नहीं है, उसे हम कभी
दे नहीं सकते
हैं। हम वही
देते हैं जो
हमारे पास है।
यदि मैंने दुख
चुना है, तो
मैं दुख ही दे
सकता हू। दुख
मेरा प्राण हो
गया है। जिसने
दुख चुना है, वह दुख
देगा। इसलिये
दुखी आदमी
अकेला दुखी
नहीं होता, अपने चारो
तरफ दुख की
हजार तरह की
तरंगें फेंकता
रहता है। अपने
उठने— बैठने, अपने होने, अपनी चुप्पी,
अपने बोलने,
अपने कुछ
करने, न
करने, सबसे
चारों तरफ दुख
के वर्तुल
फैलाता रहता
है। उसके
चारों तरफ दुख
की उदास लहरें
घूमती रहती
हैं और
परिव्याप्त
होती रहती
हैं। तो जब आप
अपने लिये दुख
चुनते हैं तो
अपने ही लिये
नहीं चुनते, आप इस पूरे
संसार के लिये
भी दुख चुनते
हैं।
तो जब मैंने
कहा कि दुख के
चुनाव ने
मनुष्य को युद्ध
तक पहुंचा
दिया है। और
रेले युद्ध तक, जो
कि’ टोटल आइड’
बन सकता है, जो कि समग्र
आत्मघात बन
सकता है। यह
मनुष्य के दुख
का चुनाव है
जो हमें उस
जगह ले आया।
हमने सुना है
बहुत बार, जानते
हैं हम कि कभी
कोई आत्मघात
कर लेता है, लेकिन हमें
इस बात का
खयाल नहीं था
कि दूखी
आदमी आत्मघात
कर लेता है यह
तो ठीक ही है, एक रेला
वक्त भी आ
सकता है कि
पूरी
मनुष्यता
इतनी दुखी हो
जाये कि
आत्मघात कर
ले। हमारे
बढ़ते हुये
युद्ध
आत्मघात के
बढ़ते हुये चरण
हैं। यह दुख
के चुनाव से
संभव हुआ है।
और दुख को जब
हम धर्म की
तरह चुन लेते
हैं, तो
फिर अधर्म की
तरह चुनने को
कछ बचता भी
नहीं है। जब
दुख को हम
धर्म बना लेते
हैं, तो
फिर अधर्म
क्या होगा? जब दुख धर्म
बन जाता है, तो
गौरवान्वित
भी हो जाता
है।’ ग्लोरीफाइड’
भी हो जाता
है।
यह जो दुख की
धारा’ क्रॉस’ के
आसपास
निर्मित हुई, मैं
नहीं कहता
जीसस के आसपास,
क्योंकि
जीसस का’ क्रॉस’
से कोई
अनिवार्य
संबंध नहीं
है। जीसस
बिना’ क्रॉस’ के
भी हो सकते
थे। यह जिन
लोगों ने जीसस
को सूली दी, जिन्होंने’ क्रॉस’
दिया, ईसाइयत
उनने पैदा की
है। मैं
निरंतर ऐसा
कहता हूं कि
ईसाइयत को
पैदा
करनेवाले
जीसस नहीं हैं,
ईसाइयत को
पैदा
करनेवाले वे
पंडे और
पुरोहित हैं
यहूदी, जिन्होंने
जीसस को सूली
दी। ईसाइयत का
जन्म’ क्रॉस’ से
होता है, जीसस
से नहीं। जीसस
तो बेचारा’ क्रॉस’
पर लटकाया गया
है, यह
बिलकुल ही’ सेकेंड्री’
बात है, इससे
कोई लेना—देना
नहीं है। वह’ क्रॉस’
महत्वपूर्ण
होता चला गया
हमारे चित्त
में। और जो—जो
अपने को’ क्रॉस’
पर अनुभव करते
हैं लटका हुआ,
सूली पर, चाहे वह
सूली परिवार
की हो, चाहे
वह सूली प्रेम
की हो, चाहे
वह सूली
राष्ट्रों की
हो, चाहे
वह सूली
धर्मों की हो
चाहे वह सूली
दैनंदिन जीवन
की हो, जो
लोग भी अनुभव
करते हैं कि
सूली पर लटके
हैं, उन्हें
जीवन एक
महापाप हो
जाता है। वे
सारे महापाप
को अनुभव करने
वाले लोग’ क्रॉस’
से प्रभावित
होते चले गये
हैं और’ पैसिमिस्टों’
का एक बड़ा
गिरोह सारी
दुनिया में
इकट्ठा हो गया
है।
पिछले दो
महायुद्ध
ईसाई मुल्कों
ने लड़े और पैदा
किये।
गैर—ईसाई
मुल्क अगर उन
युद्धों में आये
भी, घसीटे गये। सिर्फ
एक जापान ऐसा
मुल्क था, जो
गैर—ईसाई था
जो युद्ध में
आक्रामक की
तरह आया था।
लेकिन, जापान
को अब पूर्वी
मुल्क कहना
मुश्किल है। जापान
बहुत गहरे
अर्थों में
भूगोल का खयाल
छोड़ दें तो अब
पश्चिम का
हिस्सा है। और
जापान के पास
भी ’सूसाइड’
की लंबी पंरपरा
है, जिसको
वे’ हाराकिरी’
कहते हैं।
जरा—सा आदमी
दुखी हो जाये
तो मर जाये, बस इसके
सिवा कोई उपाय
नहीं है। जैसे
कि कल फूल खिलने
की कोई
संभावना न
रही। साझ
फूल मुर्झा
गया तो मर जाओ,
कल सुबह फूल
खिलने का
कोई उपाय
नहीं। इतनी
प्रतीक्षा भी
नहीं, इतना
धैर्य भी
नहीं। तो’ हाराकिरी’
वाला एक मुल्क
और पश्चिम के’ क्रॉस’
वाले मुल्कों
ने इधर पिछले
दो बड़े युद्ध
लड़े हैं।
तीसरा युद्ध
पूरी
मनुष्यता का
अत हो सकता है,
जैसे जीसस
सूली पर लटके
हैं, ऐसी
पूरी
मनुष्यता
सूली पर लटक
सकती है। मैं
नहीं कहता हू
कि इसमें जीसस
का हाथ है, मैं
कहता हूं’ क्रॉस’
पर लटकाने वाले
लोगों का हाथ
है। और मैं यह
भी नहीं कहता
हू कि जीसस से
प्रभावित
होकर लोग’ क्रॉस’
के पास आये
हैं,’ क्रॉस’
से प्रभावित
होकर जीसस के
पास आये हैं।
दूसरी बात
पूछी है, तो
मैं मानता हूं
कि क्राँसवादी,
दुखवादी, ’सैडिस्ट’
सभ्यता
मनुष्य को
अंतत: आत्मघात
में ले जाने
वाली है। असल
में’ क्रॉस’ को
लेकर चलने का
कोई अर्थ नहीं
है और अगर
जिंदगी’ क्रॉस’
भी रख दे तो उस
पर फूल लटका
देना भी हमारा
चुनाव है।
कृष्ण तो
ठीक मुझे
विपरीत मालूम
पड़ते हैं, उनकी
बांसुरी मुझे
ठीक विपरीत
मालूम पड़ती है।
और यह भी मैं
आपको कह दू
कि जीसस को’ क्रॉस’
पर दूसरे
लटकाते हैं, कृष्ण के
ओंठों पर कोई
दूसरा
बांसुरी नहीं
रखता। इसलिये
यह खयाल में
रख लेना जरूरी
है कि कृष्ण
की बांसुरी
उनके
व्यक्तित्व
का प्रतीक है
और जीसस का’ क्रॉस’
उनके
व्यक्तित्व
का प्रतीक
नहीं है। उसे
दूसरों ने
दिया है, कृष्ण
की बांसुरी अपने
हाथों से
ओंठों पर रखी
गयी है। कृष्ण
की बांसुरी
में मुझे जीवन
के अहोभाव, जीवन के
अनुग्रह, जीवन
के प्रति’ ग्रेटीव्यूड’
का गीत, धन्यवाद,
आभार मालूम
होता है।
कृष्ण का
चुनाव जीवन
में सुख का
चुनाव है।
आनंद का चुनाव
है। और जैसा मैंने
कहा, जो
दुख को चुनता
है, वह दुख
देने वाला बन
जाता है, जो
आनंद को चुनता
है, वह
आनंद देने
वाला बन जाता
है।
तो कृष्ण
अगर बांसुरी बजायेंगे —
यह भी थोड़ा
समझ लेने वाली
बात है — कि अगर
कृष्ण बांसुरी
बजायेंगे
तो यह आनंद
कृष्ण तक ही
सीमित नहीं
रहेगा, यह उन
कानों तक भी
पहुंच जायेगा
जिन पर ये
बांसुरी के
स्वर पड़ते
हैं। अगर जीसस
को आप सूली पर
लटका हुआ
देखेंगे और
उनके पास से
गुजरेंगे तो
आप भी उदास हो
जायेंगे। और
कुछ को अगर नाचते
हुये देखेंगे
किसी वृक्ष की
छाया में और
पास से
गुजरेंगे, तो
आप भी
प्रफुल्लित
होंगे। सुख भी
संक्रामक है,
दुख भी
संक्रामक है।
वे सब फैलते
हैं, और
दूसरों तक हो
जाते हैं।
इसलिये जो
आदमी अपने
लिये दुख
चुनता है, वह
सारी दुनिया
के लिये’ कडेमनेशन’
चुनता है। वह
यह कह रहा है
कि मैं दुखी
होकर अब सारी
दुनिया को
दुखी होने का
निर्णय करता
हू। जो आदमी
जीवन में सुख
का चुनाव करता
है, वह सारी
दुनिया के
लिये गीत और
संगीत और
नृत्य चुनता
है। मैं
धार्मिक आदमी
उसी को कहता
हू जो दूसरे
के लिये भी
सुख चुनता है।
मेरे लिये
धार्मिक का
अर्थ आनंद के
अतिरिक्त कुछ
और हो ही नहीं सकता
है। कृष्ण इन
अर्थों में
मेरे लिये
धार्मिक हैं।
उनका सारा
होना आनंद के
एक स्फुरण के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है।
लेकिन पूछा
गया है कि
कृष्ण की
बांसुरी के
बाद भी तो
महाभारत का
युद्ध हुआ? यह
कृष्ण की
बांसुरी के
बावजूद हुआ।
यह कृष्ण की
बांसुरी के
कारण नहीं
हुआ। क्योंकि
बांसुरी से
युद्ध होने का
कोई आंतरिक
सबंध नहीं है।’
क्रॉस’ का और युद्ध
से तो आंतरिक
संबंध है एक’ लाजिकल
रिलेशनशिप’ है,
लेकिन
बांसुरी से
युद्ध का कोई
भी तार्किक सबंध
नहीं है।
कृष्ण की
बांसुरी के
बावजूद युद्ध
हुआ। इसका
मतलब यह है कि
हम इतने दुखवादी
हैं कि कृष्ण
की बांसुरी भी
हमें
प्रफुल्लित नहीं
कर पायी है।
बांसुरी बजती
रही है और हम
युद्ध में उतर
गये हैं।
बांसुरी बजती
रही, लेकिन
हम अहोभाव से
नहीं भर पाये
हैं। बांसुरी
हमारी
बांसुरी नहीं
हो पायी।
यह भी बहुत
मजे की बात है
कि दूसरे का
सुख अपना सुख
बनाना बहुत
मुश्किल है।
दूसरे का दुख
अपना दुख
बनाना बहुत
आसान है।
इसलिये आप
दूसरे के रोने
में रो सकते
हैं, लेकिन
दूसरे के
हंसने में
हंसना
मुश्किल हो जाता
है। अगर किसी
के मकान में
आग लग गयी है
तो आप
सहानुभूति
बता पाते हैं,
लेकिन किसी
का मकान बड़ा
हो गया है, तो
उसके आनंद में
भाग नहीं ले
पाते हैं।
इसमें
बुनियादी
कारण हैं।
जीसस के’ क्रॉस’
के साथ हम
निकट हो पाते
हैं; लेकिन
कृष्ण की
बांसुरी के
साथ हो सकता
है हम ईर्ष्या
से भर कर लौट
जायें। कृष्ण
की बांसुरी
हममें सिर्फ
ईर्ष्या ही जगाये, कोई
सहानुभूति
कोई’ एम्पैथी’
पैदा न करे।
लेकिन जीसस
का’ क्रॉस’ हममें’
एम्पैथी’ पैदा
करता है, ईर्ष्या
पैदा नहीं करता।
जीसस का’ क्रॉस’
इसरलिये
भी ईर्ष्या
पैदा नहीं कर
सकता है कि हम
कोई’ क्रॉस’ पर
लटकने के लिये
तैयार तो नहीं
हैं। कृष्ण बांसुरी
बजा रहे हैं
तो हमारा मन
ईर्ष्या से भर
सकता है, और
ईर्ष्या दुख
बन सकती है।
सुख में
सहभागी होना
बड़ी कठिन बात
है। दुख में
सहभागी होना
बड़ी सरल बात
है। अति
साधारण चित्त
का व्यक्ति भी
दुख में
सहभागी हो
जाता है। अति
असाधारण
चित्त का
व्यक्ति
चाहिये जो सुख
में सहभागी हो
सके। दूसरे के
सुख में’ पार्टीसिपेट’
करना, दूसरे
के सुख में
डूबना और
दूसरे के सुख
को अपने जैसा
अनुभव कर पाना
बड़ी ऊंचाई की
बात है। दूसरे
के दुख में
कठिनाई नहीं
है। इसके बहुत
कारण हैं।
पहला कारण तो
यह है कि हम दुखी
हैं ही,’ आलरेडी’। कोई भी
दुखी हो तो
हमें कोई
दिक्कत नहीं
आती, हम
उसमें डूब
पाते हैं।
सुखी हम नहीं
हैं। कोई सुखी
हो तो हमारा
कोई तालमेल
नहीं बन पाता।
कोई संबंध
नहीं बन पाता।
युद्ध हुआ
कृष्ण की
बांसुरी के
बाद भी। और भी मजे
की बात है कि
जीसस के’ क्रॉस’
के बाद
युद्धों की
गति बढ़ते—बढ़ते
अभी दो हजार साल
लगे तब हुआ।
कृष्ण तो
बांसुरी बजा
रहे थे तभी
युद्ध हो गया।
कृष्ण की
बांसुरी के
बावजूद यह
युद्ध हुआ है, कृष्ण
की बांसुरी न
तो समझी जा
सकी है, न पकड़ी जा
सकी है, न
पहचानी जा सकी
है। यह भी
सोचने जैसा है
कि कृष्ण तो
खुद युद्ध में
उतरे हैं, जीसस
को युद्ध नहीं
में उतारा जा
सकता। जीसस से
अगर कोई कहेगा
कि आप युद्ध
में उतरें तो
जीसस कहेंगे,
पागल हो गये
हैं; क्योंकि
मैं कहता हूं
जो एक चांटा
तुम्हारे गाल
पर मारे, दूसरा
उसके सामने कर
देना। और जीसस
कहते हैं कि
पुराने
पैगंबरों ने
कहा था कि जो
तुम्हारी तरफ
ईंट फेंके, तुम उसकी
तरफ पत्थर से
मारना, और
जो तुम्हारी
एक आख फोड़े, तुम उसकी
दोनों आंखें
छीन लेना, लेकिन
मैं तुमसे
कहता हू जो
तुम्हारे एक
गाल पर चांटा
मारे, तुम
दूसरा गाल
उसके सामने कर
देना। और मैं
तुमसे कहता हू
कि कोई
तुम्हारा कोट
छीने तो तुम अपनी
कमीज भी दे
देना। और मैं
तुमसे कहता हू
कि कोई अगर एक
मील तक तुमसे
बोझा ढोने को
कहे, तो
तुम दो मील तक
ढो देना। हो
सकता है संकोच
में वह बेचारा
ज्यादा न कह
पा रहा हो।
यह जो जीसस
है, इसको हम
युद्ध में
नहीं उतार
सकते। अब चीज
थोड़ी जटिल
मालूम पड़ेगी।
जीसस को युद्ध
में नहीं उतारा
जा सकता।
लेकिन कृष्ण
युद्ध में उतर
जाते हैं।
जीसस को
इसलिये युद्ध
में नहीं
उतारा जा सकता
है कि जीवन
इतना बदतर है
कि उसके लिये
लड़ने का कोई
अर्थ नहीं है।
कृष्ण को
युद्ध में
उतारा जा सकता
है। जीवन इतना
आनंदपूर्ण है
कि उसके लिये लड़ा जा
सकता है। इसे
थोड़ा समझ लें।
जीसस के
लिये जीवन
इतना व्यर्थ
है, जैसा जीवन
है वह इतना
दुखपूर्ण है
कि आपने एक चांटा
मार दिया तो
इससे दुख में
कोई बढ़ती नहीं
होती। कहना
चाहिये कि
जीसस पहले से
ही इतने पिटे
हुये हैं कि
आपके एक चांटे
से कोई फर्क
नहीं पड़ता। वह
दूसरा गाल भी
सामने कर देते
हैं कि आपको
उनका गाल
फेरने की तकलीफ
भी न हो। जीसस
इतने दुखी हैं
कि उन्हें और
दुखी नहीं
किया जा सकता।
इसलिये जीसस
को लड़ने के
लिये तैयार नहीं
किया जा सकता।
लड़ने के लिये
तो केवल वे ही तैयार
हो सकते हैं
जो जीवन के
आनंद के घोषक
हैं। अगर जीवन
के आनंद पर
हमला, हो
तो वे लड़ेंगे।
वे जीवन के
आनंद के लिये
अपने को दाव
पर लगा देंगे।
वे जीवन के
आनंद को बचाने
के लिये कुछ
करने को तैयार
हो सकते हैं।
जीसस को तैयार
नहीं किया जा
सकता युद्ध
को। महावीर
को भी तैयार
नहीं किया जा
सकता युद्ध के
लिये। बुद्ध
को भी तैयार
नहीं किया जा
सकता युद्ध के
लिये। सिर्फ
कृष्ण को
तैयार किया जा
सकता है। या
एक और आदमी है, मुहम्मद,
उसे तैयार
किया जा सकता
है युद्ध के
लिये। मुहम्मद
किसी बहुत
गहरे रास्ते
से कृष्ण के
थोड़े समीप आते
हैं। पूरा आना
तो मुश्किल है,
थोड़े समीप
आते हैं।
जिनको ऐसा
लगता है कि
जीवन में कुछ
बचाने योग्य
है, केवल
वे ही लड़ने के
लिये तैयार
किये जा सकते
हैं। जिनको
रेखा लगता है
कि जीवन में
कुछ बचाने
योग्य ही नहीं
है, उनके
लड़ने का क्या
सवाल है!
लेकिन
कृष्ण युद्धखोर
नहीं हैं। युद्धवादी
नहीं हैं। हैं
तो वे जीवनवादी, लेकिन
अगर जीवन पर
सकट हो, तो
वे लड़ने को
तैयार हैं।
इसलिये कृष्ण
ने पूरी कोशिश
की है कि
युद्ध न हो।
इसके सब उपाय
कर लिये गये
हैं कि युद्ध
न हो। इस
युद्ध को टाला
जा सके और
जीवन बचाया जा
सके, इसके
लिये कृष्ण ने
कुछ भी उठा
नहीं रखा है।
लेकिन जब ऐसा
लगता है कि
कोई उपाय नहीं
है, और
मृत्यु की
शक्तियां लड़ेंगी
ही, और
अधर्म की
शक्तियां
झुकने के लिये
तैयार नहीं
हैं, समझौते
के लिये भी
तैयार नहीं
हैं, तब
कृष्ण जीवन के
पक्ष में और
धर्म के पक्ष
में लड़ने को
खड़े हो जाते
हैं।
मेरे देखे
कृष्ण के लिये
जीवन और धर्म
दो चीजें नहीं
हैं। वे लड़ने
को तैयार हो
जाते हैं। स्वभावत:, कृष्ण
जैसा आदमी जब
लड़ता है, तभी
भी
प्रफुल्लित
और आनंदित
होता है; और
जीसस जैसा
आदमी अगर न
लड़े, तो भी
उदास मिलेगा।
कृष्ण जैसा
व्यक्ति जब लड़ता
है, तभी भी
आनंदित है, क्योंकि
लड़ना भी जीवन
के एक हिस्से
की तरह आया
है। इसे कोई
जीवन से अलग
बांटा नहीं जा
सकता। और जैसे
मैंने पीछे
आपको बार—बार
कहा, कृष्ण
का जिंदगी में
ऐसा चुनाव
नहीं है जैसा
कि आमतौर से साधुओं
और ’यूरिटन्स'
और नैतिकवादियो
का होता है।
कृष्ण ऐसा
नहीं कहते हैं
कि युद्ध जो
है, वह हर
हालत में बुरा
है। कृष्ण
कहते हैं, युद्ध
बुरा भी हो
सकता है, अच्छा
भी हो सकता
है। हर हालत
में कोई चीज न
बुरी होती है,
न कोई चीज
हर हालत में
अच्छी होती
है। ऐसे क्षण होते
हैं जब जहर
अमृत होता है
और अमृत जहर
हो जाता है।
और ऐसे क्षण
होते हैं, जब
अभिशाप वरदान
बन जाता है और
वरदान अभिशाप
हो जाता है।
कृष्ण कहते
हैं, हर हालत
में कुछ तय
नहीं है। यह
प्रतिपल और प्रति
परिस्थिति
में तय होता
है कि क्या
शुभ है। इसे
कोई पहले से
तय कर के नहीं
चल सकता है
किए यह शुभ
है।
परिस्थिति बदले
तो कठिनाई हो
सकती है।
इसलिये कृष्ण
तो प्रतिपल
निर्णय के
लिये राजी
हैं।
उन्होंने कोशिश
कर ली है कि
युद्ध न हो, लेकिन देखते
हैं कि युद्ध
होगा ही, तो
फिर बेमन से
लड़ना बेकार
है। कृष्ण
जैसा आदमी
बेमन से नहीं
लड़ेगा। लड़ने
भी जायेगा तो
फिर पूरे मन
से ही जायेगा।
पूरे मन से
कोशिश कर ली
है, युद्ध
न हो। अब
युद्ध होगा ही,
तो कृष्ण
पूरे मन से ही
लड़ने जाते
हैं। युद्ध करने
का उनका खयाल
न था कि वह
सीधे युद्ध
में भागीदार
बनेंगे। वह
सीधे सक्रिय
होंगे युद्ध में,
इसका खयाल न
था। लेकिन ऐसा
क्षण आ जाता
है, तो
उन्हें सीधे
भागीदार हो
जाना पड़ता है
और वे सुदर्शन
हाथ में ले
लेते हैं।
जैसा मैंने
पीछे कहा, कृष्ण
क्षणजीवी
हैं। सभी आनंदवादी
क्षणजीवी
होते हैं।
सिर्फ दुखवादी
क्षणजीवी
नहीं होते।
सिर्फ दुखवादी
लबा
हिसाब रखते
हैं। और लंबे
हिसाब की वजह
से दुखी रहते
हैं। वे
पृथ्वी जबसे
बनी है तबसे
सारा दुख
इकट्ठा कर
लेते हें।
और जब जगत का
अंत होगा तब
तक का सारा
दुख इकट्ठा
करके अपने ऊपर
रख लेते हैं।
दुख इतना
ज्यादा मालूम
पड़ता है कि वे
उसके नीचे
दबकर मर जाते हैं।
आनंदवदी क्षणवादी
है। वह कहता
है, क्षण
के अतिरिक्त
अस्तित्व
नहीं है। जब
भी अस्तित्व
है, तब
क्षण में है —’मीमेंट टू मॉमेंट', क्षण से
क्षण में उसकी
यात्रा है। न
वह कल का हिसाब
रखता है जो
बीत गया, न
वह आने वाले
कल का हिसाब
रखता है जो
आनेवाला है, क्योंकि वह
कहता है, जो
बीत गया वह
बीत गया और जो
अभी नहीं आया
वह अभी नहीं
आया है। जो है,
इस क्षण में
जो है इस क्षण
के प्रति पूरी
’रिस्पासिबिलिटी',
इस क्षण के
प्रति
पूरा—का—पूरा ’रिस्पांस',
इस क्षण के
प्रति पूरा
खुला होना
उसका आनंद है।
दुखवादी ’क्लोज्ड' है,
वह इस क्षण
की तरफ देखता
ही नहीं। अगर
आप उसको फूल
के पास ले
जायें और कहें
कि फूल खिले
हैं, वह
कहेगा कि सांझ
मुर्झा
जायेंगे। दुखवादी
से आप कहें कि
देखें यह
यौवन। वह
कहेगा, देख
लिया बहुत
यौवन; सब
यौवन बुढ़ापे
के अतिरिक्त
और कहीं नहीं
जाता है। आप
उससे कहेंगे,
यह सुख है।
वह कहेगा, हमने
बहुत सुख देखे,
जरा उलटा कर
देखो, सब
सुखों के पीछे
दुख छिपा है।
हमें धोखा
नहीं दिया जा
सकता।
दुखवादी
विस्तार में
देखता है, क्षण
में होता ही
नहीं।
सुखवादी कहता
है, सांझ
जब मुरझायेंगे
— लेकिन सांइा
तो आने दो, अभी
से दुखी होने
का क्या कारण
है? आनंदवादी कहता है, सांझ
आने दो, अभी
से दुखी होने
का क्या कारण
है? जब फूल
ही दुखी नहीं
हैं सांझ की
वजह से और आनंद
से नाच रहे
हैं, तो हम
क्यों दुखी हो
जायें? आने
दो सांझ। और
मजा यह है कि आनंदवादी
चित्त सांइा
को गिरते हुये
फूलों का भी
सुख ले पाता
है। क्योंकि
किसने कहा कि
सिर्फ खिलते
हुये फूलों में
सुख होता है
और गिरते हुये
फूलों में
नहीं होता? शायद नहीं
देखा हमने, वह हमारे
दुख के कारण।
किसने कहा कि
बच्चे ही
सुंदर होते
हैं और बूढ़े
नहीं होते? बुढ़ापे का
अपना सौंदर्य
है! और जब कोई
आदमी सच में
बूढ़ा होता है —
कोई
रवींद्रनाथ —
तो उसके सौंदर्य
का कोई हिसाब
नहीं है। कोई
वाल्ट व्हिटमन,
तौ
उसके सौंदर्य
का बुढ़ापे में
कोई हिसाब
नहीं है!
वाल्ट व्हिटमन
को बुढ़ापे में
देखकर रेखा
लगता है कि और
क्या सौंदर्य
होगा! असल में
बचपन का अपना
ठग है सौंदर्य
का, जवानी
का अपना ढंग
है, बुढ़ापे
का अपना ठग है,
लेकिन
ढंगों की
फुर्सत किसे है?
जब सारे बाल
शुभ्र हो जाते
हैं और जीवन
की जब सारी
यात्रा पूरी
होने के करीब
आती है, तो
वैसा ही
सौंदर्य होता
है जैसा
सूर्यास्त का
होता है।
किसने कहा कि
सूर्योदय में
ही सौंदर्य है?
सूर्यास्त
का अपना
सौंदर्य है।
लेकिन, दुखवादी सूर्योदय
के समय भी
सौंदर्य नहीं
देखता, वह
कहता है, क्या
पागलपन में
पड़े हो, अभी
घड़ी भी नहीं
बीत पायेगी और
यह सब
सूर्यास्त हो
जाने वाला है।
अंधकार छा
जायेगा।
कृष्ण क्षणवादी
हैं। समस्त
आनंद की
यात्रा क्षण
की यात्रा है।
कहना चाहिये
यात्रा ही
नहीं है, क्योंकि
क्षण में
यात्रा कैसे
हो सकती है; क्षण में
सिर्फ डूबना
होता है। समय
में यात्रा
होती है। क्षण
में आप लंबे
नहीं जा सकते;
गहरे जा
सकते हैं।
क्षण में आप
डुबकी ले सकते
हैं। क्षण में
कोई लंबाई
नहीं है, सिर्फ
गहराई है। समय
में लंबाई है,
गहराई कोई
भी नहीं है।
इसलिये जो
क्षण में डूबता
है, वह समय के
पार हो जाता
है। जो क्षण
में डूबता है
वह ’इटरनिटी'
को, शाश्वत
को उपलब्ध हो
जाता है।
कृष्ण क्षण
में हैं, और
साथ ही शाश्वत
में हैं। जो
क्षण में है
वह शाश्वत में
है। जो समय
में है,’टाइम
ऐज ए
सीरीज', वह
कभी शाश्वत से
संबध
नहीं जोड़
पाता। वह तो
समय के क्षणों
का हिसाब
लगाता रहता है,
कणों का
हिसाब लगाता
रहता है। जब
वह जीता है तब
मरने का हिसाब
लिखता रहता
है। जब सुबह
होती है तब वह
सांझ की सोचता
रहता है। जब
प्रेम आता है
तब वह बिछोह
की सोचता है।
जब मिलन होता
है तब वह विरह
के आंसुओ
से पीड़ित हो
जाता है।
इसलिये
कृष्ण को अगर
किसी क्षण में
ऐसी घड़ी आ गयी
कि सुदर्शन हाथ
में ले लेना
पड़ा, तो वह
पिछले कृष्ण
की’ प्रामिस’
के लिये रुके
नहीं, जिसने
कहा था कि
युद्ध में मैं
सक्रिय होने
को नहीं हू।
क्योंकि वह
कहेंगे, अब
वह कृष्ण ही
कहां, जिसने
वायदा किया
था! अब गंगा
वहां कहा है
जहां थी, अब
फूल वहां कहा
हैं जहां थे, अब बादल वहा
कहा हैं जहां
थे। अब सब बदल
गया है, तो
मैंने ही कोई
ठेका लिया है
वही होने का!
सब जा चुका
है। अब मैं
जहां हू वहा
हूं। और इस
क्षण से मेरा
जो’ रिस्पांस’
है, इस
क्षण में मेरी
जो
प्रतिध्वनि
है, मेरा
वही अस्तित्व
है। वे क्षमा
नहीं मांगते,
वे कोई
पश्चात्ताप
नहीं करते। वह
यह नहीं कहते
कि मैंने भूल
की थी कि वचन
दिया था। वे
यह नहीं कहते
कि बुरा हो
गया, गलत
हो गया, मैं
दुखी हू
पश्चात्ताप
कर का, पीछे
प्रायश्चित
कर दूध। वे यह
कुछ भी नहीं
कहते। वे क्षण
के प्रति बड़े
सच्चे हैं।
अब इसको
थोड़ा समझना
चाहिये।
'ट बी ट ट द मीमेंट’।
वे क्षण के
प्रति बहुत
सच्चे हैं। वे
इतने सच्चे
हैं कि क्षण
ऐसी घटना
ले आता है
जिसका
उन्होंने कभी
सोचा भी नही
था, तो भी वे डूब
जाते हैं, कूद
जाते हैं। हा,
हमें बहुत
बार लगेगा कि
हमारे प्रति
उतने सच्चे
नहीं मालूम
होते।
क्योंकि कहा
था कि युद्ध
में नहीं उतरेंगे
और अब युद्ध
में उतर गये।
जो क्षण के
प्रति सच्चा
है वह
अस्तित्व के
प्रति सच्चा
है, लेकिन
समाज के प्रति
बहुत सच्चा
नहीं हो सकता।
क्योंकि समाज
समय में जीता
है और वह’ इंटरनिटी’
में जीता है।
समाज समय में
जीता है, वह
पीछे का हिसाब
रखता है, आगे
का हिसाब रखता
है। ऐसा आदमी
क्षण में जीता
है, वह
हिसाब रखता ही
नहीं।
मैंने सुनी
है एक कहानी
कि एक बहुत
बड़े झेन फकीर
रिंझाई के पास
एक युवक मिलने
आया और उस युवक
नै कहा कि मैं
सत्य की खोज
में आपके पास
आया हू। तो
रिंझाई ने कहा, सत्य
की बात छोड़ो,
अभी मैं कुछ
और पूछना
चाहता हू। तुम
पेकिंग
से आते हो? उसने
कहा, हा।
तो रिंझाई ने
पूछा कि पेकिंग
में चावल के
क्या भाव हैं?
वह आदमी
इतनी लंबी
यात्रा करके
आया है इसके
पास। यह सोचकर
नहीं आया था
कि चावल के
दाम बताने पड़ेंगे।
तो उस आदमी ने
कहा कि माफ
करिये और पहले
यह आपको सूचना
कर दूं ताकि और
इस तरह के
सवाल आप न पूछ
सकें, मैं
जिन रास्तों
से गुजर जाता
हू उन्हें तोड़
देता हूं और
जिन’ ब्रिजेज’
को पार कर
लेता हूं
उन्हें गिरा
देता हू और जिन
सीढ़ियों से चढ़
जाता हूं
उन्हें मिटा
देता हू मेरा
कोई अतीत नहीं
है। रिंझाई ने
कहा, फिर
बैठो, फिर
सत्य की कोई
बात हो सकती
है। मैंने तो
जानने के लिये
यह पूछा कि
कहीं पेकिंग
में चावल के
जो दाम हैं वह
तुम्हें याद
तो नहीं है? अगर वह याद
हैं, तो
सत्य से
मिलाना बहुत
मुश्किल हो
जायेगा, क्योंकि
सत्य सदा क्षण
में है, वर्तमान
में है। उसका
अतीत से कोई
लेना—देना
नहीं। और जो
अतीत में जीता
है, वह
वर्तमान में
नहीं जी पाता।
जो अतीत में
जीता है, वह
भविष्य में हो
सकता है उसका
मन, वर्तमान
में नहीं हो
पाता।
कृष्ण के
बावजूद युद्ध
हुआ है। और
कृष्ण युद्ध
में भागीदार
हो सके हैं, क्योंकि
आनंद का पक्षपाती
लड़ भी सकता
है। फिर कृष्ण
का कहना यह है
कि लड़ना जीवन
के भीतर का
हिस्सा है।
जीवन जब तक है,
तब तक
किसी—न—किसी
भांति का
युद्ध जारी
रहेगा। युद्ध
के तल बदलेंगे,
युद्ध के
आधार बदलेंगे,
युद्ध के
मार्ग
बदलेंगे,’ प्लेन’
बदलेंगे
युद्ध के, गुण
बदलेगा, लेकिन
युद्ध जारी
रहेगा। ऐसा
नहीं हो सकता
है कि युद्ध
बंद हो जाये।
युद्ध उसी दिन
बंद हो सकता
है कि या तो
मनुष्यता न
रहे, समाप्त
हो जाये, या
मनुष्यता
पूर्ण हो
जाये। दो ही
अर्थों में युद्ध
बद हो सकता
है। मनुष्य
पूर्ण हो जाये
तो भी समाप्त
हो जाता है, समाप्त हो
जाये तो भी
समाप्त हो
जाता है।
मनुष्य जैसा
है, वैसे
मनुष्य के
जीवन में
युद्ध जारी
रहेगा। फिर
खयाल क्या
करना है? युद्ध
न हो, इसका?
नहीं, कृष्ण
इतना ही कहते
हैं, युद्ध
धर्मयुद्ध हो,
इतना।
शांति धर्मशांति
हो, इतना।
अब ध्यान
रहे, शांति भी
अधार्मिक हो
सकती है, और
युद्ध भी
धार्मिक हो
सकता है।
लेकिन
शांतिवादी सोचता
है कि शांति
सदा ही
धार्मिक है।
और युद्धवादी
सोचता है कि
युद्ध सदा ही
ठीक है। कृष्ण
कोई वादी नहीं
हैं, वे
बहुत’ लिक्विड’
हैं, बहुत
तरल हैं।
जिंदगी में
वहा पत्थर की
तरह कटी हुई
चीजें नहीं
हैं, उनकी
जिंदगी में। उनकी
जिंदगी में सब
हवा की तरह
है। वे कहते
हैं शांति भी —
मैं रास्ते से
गुजर रहा हूं
एक शीत आदमी
हू और कोई
किसी को लूट
रहा है, मैं
शांति से गुजर
जाऊंगा, क्योंकि मैं
कहता हू लड़ना
मेरे लिये
नहीं है। मैं
शांति से गुजर
रहा हू लेकिन मैरी
शांति
अधार्मिक हो
गयी; क्योंकि
मेरी शांति भी
सहयोगी हो रही
है किसी के लुटने
में और किसी
के लूटने में।
अनिवार्य
नहीं है कि
शांति सदा ही
धर्म हो। बर्टूंड
रसल जैसे लोग,’
पेसिफिस्ट’, शांति
को सदा ही ठीक
मान लेते हैं।
वे मान लेते
हैं कि सदा ही
ठीक है, शांत
होना ही ठीक
है। लेकिन ऐसी
शांति’ इम्पोटेंस’
भी बन सकती
है। ऐसी शांति
नपुंसकता हो
सकती है।
इसलिये
कृष्ण बार—बार
अर्जुन को
कहते हैं, दौर्बल्य
त्याग। मैंने
कभी सोचा न था
कि दृ, क्तीव हो सकता है, तू नपुंसक
हो सकता है।
तू कैसी
नपुंसकों
जैसी बातें कर
रहा है! जबकि
युद्ध सामने
खड़ा हो और जबकि
युद्ध कृष्ण
की दृष्टि में
अधर्म के लिये
हो, तब तू
कैसी कमजारी
की बातें कर
रहा है! तेरी
शक्ति कहा खो
गयी? तेरा
पौरुष कहा गया?
शांति
जरूरी नहीं है
कि धर्म हो।
युद्ध भी जरूरी
नहीं है कि
अधर्म हो। कहा
जा सकता है कि
तब युद्धखोर
कह सकते हैं
कि हमारा
युद्ध धर्म है।
कह सकते हैं।
जिंदगी जटिल
है। कोई
उन्हें रोक
नहीं सकता।
लेकिन, धर्म
क्या है, अगर
इसका विचार
स्पष्ट फैलता
चला जाये, तो
कठिन होता
जायेगा उनका
रेखा दावा
करना।
कृष्ण की
दृष्टि में
धर्म'' क्या है,
वह मैं
कहूं। कृष्ण
की दृष्टि में
जीवन को जो विकसित
करे, जीवन
को जो खिलाये,
जीवन को जो
नचाये, जीवन
को जो आनंदित
करे, वह
धर्म है। जीवन
के आनंद में
जो बाधा बने, जीवन की
प्रफुल्लता
में जो रुकावट
डाले, जीवन
को जो तोड़े, मरोड़े, जीवन को जो खिलने न दे,
फसलने न दे, फलने
न दे, वह
अधर्म है।
जीवन में जो बाधायें
बन जायें, वे
अधर्म हैं; और जीवन में
जो सीढ़ियां
बन जाये, वह
धर्म है।
भगवान
श्री कृष्ण को
सही ढंग से
कितने और कब आत्मसात
किया? हमें
उनको आत्मसात
करना हो तो
क्या करें?
कृष्ण को
आत्मसात कर
मनुष्य—सभ्यता
और संस्कृति
जिन आयामों
में प्रवेश कर
पायेगी उसकी
रूपरेखा
प्रस्तुत करने
की कृपा करें।
कोई किसी
दूसरे को
आत्मसात कैसे
कर सकता है? करे
भी क्यों!
दायित्व भी
वैसा नहीं है।
मैं अपने को
ही आत्मसात
करूंगा, कृष्ण
को कैसे
करूंगा? और
जब कृष्ण खुद
को आत्मसात
करते हैं, तो
कृष्ण को कोई
दूसरा
आत्मसात करने
क्यों जाये? नहीं, दूसरे
को आत्मासात
करना
व्यभिचार है।
दूसरे को
आत्मसात करना
अपने साथ
अन्याय है।
दूसरे को
आत्मसात करने
की बात ही गलत
है। मेरी अपनी
आत्मा है। वह खिलनी
चाहिये। अगर
मैं दूसरे को
आत्मसात करूं
तो मेरी आत्मा
का क्या होगा?
हां, दूसरा
मुझपर हावी हो
जायेगा, दूसरा
मुझपर उढ़ जायेगा,
दूसरे को
मैं ओढ़ लूंगा,
मेरा क्या
होगा? मेरा
दायित्व मेरे
होने के प्रति
है।
नहीं, कृष्ण को
समझना काफी है,
आत्मसात
करने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। समझना पर्याप्त
है। और समझना
इसलिये नहीं
कि पीछे जाना
है, आत्मसात
करना है, एक
हो जाना है
कृष्ण से।
समझना इसलिये
कि कृष्ण जैसा
व्यक्ति जब
खिलता है, तो
उसके खिलने
के नियम क्या
हैं? कृष्ण
जैसा व्यक्ति
जब अपनी सहजता
में प्रगट होता
है, तो
उसकी सहजता के
नियम क्या हैं?
मैं भी अपनी
सहजता में
प्रगट हो सकता
हू। कृष्ण को
समझने से एक
सूत्र तो यह
मिलेगा कि
.अगर कृष्ण
खिल सकते हैं,
तो मेरे रोये
चले जाने की
जरूरत क्या है?
जब कृष्ण
नाच सकते हैं,
तो मैं
क्यों न नाच
सकूंगा? ऐसा
नहीं है कि
कृष्ण का नाच
और आपका नाच
एक हो जायेगा।
आपका नाच आपका
होगा, कृष्ण
का नाच कृष्ण
का होगा।
लेकिन कृष्ण
को समझने से
आपके
आत्म—आविर्भाव
में सहायता मिल
सकती है।
आत्मसात करने
में नहीं, आपके
अपने
आविर्भाव में
सहायता मिल
सकती है।
इसलिये
पहली बात यह
कहता हू कि
किसी को
आत्मसात करने
की जरूरत नहीं
है, हालांकि कुछ
नासमझों
ने करने की
कोशिश की है।
पूरा तो कोई
भी नहीं कर
पायेगा, क्योंकि
वह असंभव है।
मैं दूसरे को ओढ़
ही सकता हूं
दूसरे को
आत्मा नहीं
बना सकता।
कितना ही गहरा
ओढ़ तो भी मैं
पीछे अलग रह
ही जाऊंगा।
अभिनय ही कर
सकता हू दूसरे
का, होना
तो सदा अपना
ही होता है।
वह दूसरे का
कभी नहीं
होता।’ बारोड
बीइंग’, उधार
आत्मा नहीं
होती। हो नहीं
सकती। रहूंगा तो
मैं मैं ही.। हां,
किसी को
इतना ओढ़ सकता
हूं कि मेरे
मैं को मैं भीतर
दबाये चला
जाऊं, दबाये
चला जांऊ,
वह मेरे अंतर्गर्भ
में छिप जाये
और मेरा सारा
व्यक्तित्व
दूसरे का हो
जाये लेकिन
मैं फिर भी
मैं ही
रहूंगा।
कृष्ण को
आत्मसात करने
की कोशिश बहुत
लोगों ने की
है, जैसे बुद्ध
को करने की
कोशिश की है, राम को करने
की कोशिश की
है, क्राइस्ट
को करने की
कोशिश की है, लेकिन कोई
कभी किसी को
आत्मसात नहीं
कर पाता है।
वह असफलता
सुनिश्चित
है। जो वैसा
करने चलता है,
उसने अपनी
असफलता को ही
नियति बना
लिया है। और
असफलता ही
नहीं होगी, आत्मघात भी
होगा। और जो
लोग आत्मघात
करते हैं
साधारणत:, उनको
हमें
आत्मघाती
नहीं कहना
चाहिये, क्योंकि
वे केवल
शरीर—आघाती
हैं, वे
केवल अपने
शरीर की हत्या
करते हैं।
लेकिन जो
दूसरे को
आत्मसात करते
हैं, वे
आत्मघाती
हैं। वे अपनी
आत्मा को ही
मार डालने की
कोशिश करते
हैं। सब
अनुयायी, सब
शिष्य, सब
अनुकरण करने
वाले, सब
पीछे चलने
वाले
आत्मघाती
होते हैं।
लेकिन कुछ
लोगों ने करने
की कोशिश की
है। उस कोशिश
में दोहरे
परिणाम
निकलते हैं।
एक तो वह आदमी
सिर्फ ओढ़ पाता
है, अभिनय कर
पाता है।
दूसरा, उसके
ओढ़ने में
ही कृष्ण का
पूरा रूप बदल
जाता है। उसके
ओढ़ने में
ही। क्योंकि
मैं ओढूंगा
कृष्ण को तो
मेरे ढंग से ओढूं उतना
तो कम—से—कम
मैं रहूंगा
ही। आप ओढ़ोगे
तो आपके ढंग
से ओढोगे,
उतने तो आप
कम—से—कम आप
रहेंगे ही।
इसलिये न केवल
अपने साथ
व्यभिचार
होता है, बल्कि
कृष्ण के साथ
भी व्यभिचार
हो जाता है। जितने
भी थियॉलाजियन
हैं, जितने
भी
धर्मशास्त्री
हैं, चाहे
क्राइस्ट, चाहे
कृष्ण, चाहे
बुद्ध, चाहे
महावीर, इनके
पीछे ओढ़ने
की चेष्टा में
चलते हैं, वे
सब रेखा ही
करते हैं। वे
मनुष्यता की
विफलता की
अद्भुत
कहानियां
हैं। और
मनुष्यता के
आत्मघाती
होने के
अद्भुत
प्रमाण हैं।
लेकिन, मीरा
या चैतन्य
जैसे लोग
कृष्ण को ओढ़ते
नहीं, जरा
नहीं ओढते।
मीरा कृष्ण को
ओढ़ती
नहीं। चैतन्य
कृष्ण को ओढ़ते
नहीं। वे
कृष्ण को
आत्मसात नहीं
करते हैं। वे
तो जो हैं, हैं,
उसको ही
पूरा प्रगट
करते हैं।
उनके प्रगट
होने में, मीरा
के प्रगट होने
में कृष्ण का
व्यक्तित्व ओढ़ा नहीं
जाता है। मीरा
के प्रगट होने
में, या
चैतन्य के
नृत्य में या
चैतन्य के नाच
में और चैतन्य
के गीतों में
कृष्ण ओढ़े
नहीं गये हैं,
न आत्मसात
किये गये हैं।
चैतन्य
चैतन्य हैं, अपने ढंग के,
हां, उनके
ढंग में कृष्ण
के प्रति जो
प्रेम की धारा
है, वह है।
और जैसे—जैसे
यह धारा बड़ी
होती है, जैसे—जैसे
धारा यह बड़ी
होती है, वैसे—वैसे
चैतन्य खोते
जाते हैं, वैसे—वैसे
कृष्ण भी खोते
जाते हैं। और
एक घड़ी आती है
कि सब खो जाता
है। उस सब खो
जाने में न कृष्ण
बचते हैं, न
चैतन्य बचते
हैं। उस क्षण
अगर हम पूछें
कि तुम कृष्ण
हो कि चैतन्य,
तो चैतन्य
कहेंगे, मुझे
कुछ पता नहीं
चलता कि मैं
कौन हूं। मैं
हूं। या शायद
मैं भी नहीं
बचता,’ हूं
ही। यह’ प्योर—एक्लिस्टेंस’
है। और यह जो
उपलब्धि है, यह चैतन्य
का अपने ही
आत्मा का फूल
है। इसमें कोई
ओढ़ना
नहीं है, इसमें
किसी को
आत्मसात करना
नहीं है। ऐसी
भूल कभी करनी
भी नहीं
चाहिये। रेक्षी
भूल करने का
हमारा मन होता
है। मन होता
है इसलिये कि’ रेडीमेड’ कपड़े
खरीद लेना सदा
आसान है।
तत्काल पहने
जा सकते हैं, बड़ी सुविधा
जो है। पहनने
के लिये रुकना
नहीं पड़ता।
अगर किसी को
खोजना है, तो
कब होगी यह
बात, नहीं
कहा जा सकता।
लेकिन अगर
कृष्ण को ओढ़ना
है, तो अभी
हो सकती है।
उधार तो कभी
भी हो सकता
है। कमाई वक्त
मारा सकती है,
इसलिये ओढ़ने
का मन होता
है। किसी को
भी ओढ़ लें और
झंझट के बाहर
हो जायें।
लेकिन कभी कोई
उस तरह झंझट
के बाहर नहीं
हुआ, और
गहरी झंझट के
भंवर में पड़
गया है।
इसलिये
धार्मिक आदमी
मैं उसे कहता
हूं जो अपना
आविष्कार कर
रहा है। हां, इस
आविष्कार
करने में
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण, क्राइस्ट
की समझ सहयोगी
हो सकती है।
क्योंकि जब हम
दूसरे को
समझते हैं, तब हम अपने
को समझने के
भी आधार रख
रहे होते हैं।
जब हम दूसरे
को समझते हैं,
तब समझना
आसान पड़ता है
बजाय अपने को
समझने के।
क्योंकि
दूसरे से एक
फासला है, एक
दूरी है और
समझ के लिये
उपाय है। अपने
को समझने के
लिये बड़ी
जटिलता है, क्योंकि
फासला नहीं
समझने वाले
में और जिसे समझना
है उसमें। समझ
के लिये दूसरा
उपयोगी होता
है। लेकिन उसे
समझ लेने के
बाद हमारी
अपनी ही समझ बढनी
चाहिये, हमारी
अपने प्रति ही
समझ बढ़नी
चाहिये।
कभी आपने कई
बार अनुभव
किया होगा, अगर
कोई आदमी आये
और अपनी कोई
मुसीबत आपके
पास लाये, तो
आप जितनी
योग्य सलाह दे
पाते हैं, वही
मुसीबत आप पर
पड़ जाये तो
उतनी योग्य
सलाह अपने को
नहीं दे पाते
हैं। यह बड़े
मजे की बात
है। क्या मामला
है? यह
आदमी बड़ा
बुद्धिमान
है। किसी की
भी दिक्कत हो
तो उसको सलाह
दे पाता है।
जब दिक्कत इसी
पर आती है, वही
दिक्कत, तो
अचानक यह खुद
सलाह मांगने
चला जाता है।
नहीं, इतनी
निकटता होती
है कि
समइाने के
लिये अवकाश
नहीं मिल
पाता। दूसरे
को समझना आसान
होता है और दूसरे
की समझ
धीरे—धीरे
हमारी अपनी
समझ बनती चली
जाये तो कृष्ण
बाद में भूल
जायेंगे, क्राइस्ट
भूल जायेंगे,
बुद्ध—महावीर
भूल जायेंगे,
अंततः हम ही
रह जायेंगे।
आखिर में मेरी
शुद्धता ही बचनी
चाहिये।
वैसी
शुद्धता की
उपलब्धि ही
मुक्ति है।
वैसे परम शूद्ध
हो जाने का
नाम ही
निर्वाण है।
वैसे परम—
शुद्ध हो जाने
का नाम ही
भागवत चैतन्य
की उपलब्धि है।
हां, लेकिन जो
कृष्ण को समझ
कर वहां तक
पहुंचेगा, वह
हो सकता है
कृष्ण नाम का
उपयोग करे,वह
कहे कि मैने
कृष्ण को पा
लिया। यह
सिर्फ पुराने
ऋण का चुकतारा
है, यह
सिर्फ पुराने
ऋण के प्रतिक
अनुग्रह है।
और कुछ भी
नहीं। वैसे
पहुंचने वाला
कह सकता है, मैं जीसस को
पा लिया हूं।
वह सिर्फ जीसस
के प्रति, जीसस
को समझने से
जो समझ उसे
मिली थी उसके
प्रति ऋण का चुकतारा
है। इससे
ज्यादा नहीं
है। पाते तो
सदा हम अतत:
अपने को ही
हैं। कोई
दूसरे को नहीं
पा सकता। लेकिन
जिस दिन हम
अपने को पाते
हैं उस दिन
कोई दूसरा रह
नहीं जाता है।
इसलिये हम
कोई—न—कोई शब्द
का उपयोग
करेंगे। जो
हमने यात्रा
पर उपयोगी
पाया होगा, वह हम उपयोग
करेंगे। एक
छोटी—सी बात, फिर हम
ध्यान के लिये
बैठें।
प्रश्न का
दूसरा हिस्सा
है कि कृष्ण
की जीवनधारा
से प्रभावित
होकर
मनुष्य—सभ्यता
औंर
संस्कृति किन
जीवन—आयामों
में प्रवेश कर
पायेगी? इसकी
संक्षिप्त
रूपरेखा
स्पष्ट करें।
उसपर तो
बहुत लंबी बात
करनी पड़े —
वैसे उसकी ही बात
कर: रहे हैं
इतने दिन से।
दो—तीन शब्द
कहे जा सकते
हैं। मनुष्य
की सभ्यता
कृष्ण की समझ
से सहज हो
सकेगी; क्षण—जीवी
हो सकेगी, आनंद—समर्पित
हो सकेगी; दुखवादी नहीं रहेगी,
समयवादी नहीं रहेगी,
निषेधवादी नहीं रहेगी,
त्यागवादी नहीं
रहेगी।
अनुग्रहपूर्वक
जीवन को वरदान
समझा जा सकेगा
और जीवन और
परमात्मा में
भेद नहीं
रहेगा। जीवन
ही परमात्मा
है, ऐसी
प्रतिष्ठा
धीरे—धीरे
बढ़ती जायेगी।
जीवन के विरोध
में कोई
परमात्मा
कहीं बैठा है,
ऐसा नहीं, जीवन ही
परमात्मा है। सुरष्टि
के अतिरिक्त
कोई स्रष्टा
कहीं बैठा है
ऐसा नहीं
सृष्टि की
प्रक्रिया, सृजन की
शक्ति,’ क्रिएटिविटी इटसेल्फ’
परमात्मा है।
ये पूरी
बातें जो
मैंने इस बीच
कही हैं, उनको
खयाल में
लेंगे तो जो
मैंने अंतिम
बात कही है वह
स्पष्ट हो
जायेगी। इन
दिनों बहुत—सी
बातें मैंने
आपसे कहीं, कुछ रुचिकर
लगी होंगी, कुछ अरुचिकर
लगी होंगी।
रुचिकर लगने
से भी समझने
में बाधा पड़ती
है, अरुचिकर
लगने से भी
समझने में
बाधा पड़ती
हैं। जो
रुचिकर लगती
है उसे हम
बिना समझे पी
जाते हैं, जो
अरुचिकर लगती
है उसे हम
बिना समझे
द्वार बंद
करके बाहर छोड़
देते हैं।
मैंने जो
बातें कहीं, वह इसलिये
नहीं कहीं कि
आप उनको पी
जायें या द्वार
से बाहर छोड़
दे, मैंने
सिर्फ इसलिये
कहीं कि आप
उनको सहजता और
सरलता से समइा
पायें।
मेरी बातों को
घर मत ले
जाइये। उन
बातों को समझने
में जो समझ
आपके पास आयी
हो: जो
प्रज्ञा, जो’
विज्डम’ आयी
हो उसको भर ले
जाइये। फूलों
को यहीं छोड़ जाइये,
इत्र कुछ
बचा हो आपके
हात में, उसे
ले जाइये।
मेरी बातों को
ले जाने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। मेरी
बातें वैसी ही
बेकार हैं
जैसी सब बातें
बेकार होती
हैं। लेकिन इन
बातों के संदर्भ
में, इन
बातों के
संघर्ष में, इन बातों के
आमने—सामने’ एनकाउंटर’ में
आपके भीतर कुछ
भी पैदा हुआ
हो — वह तभी
पैदा हो सकता
है जब आपने
पक्षपात न
लिये हों; वह
तभी पैदा हो
सकता है जब
आपने रेला न
कहा हो कि ठीक
कह रहे हैं, ऐसा ही मैं
मानता हू कि
गलत कह रहे
हैं, ऐसा
मैं मानता
नहीं ह्यू तभी
आपमें समझ,’ अंडरस्टैंडिंग’
पैदा हो सकती
है।
अगर आपने
समझा हो कि यह
तो कृष्ण के
पक्ष में बोल
रहे हैं, हमारे
महावीर के
पक्ष में नहीं
बोलते हैं, तो आप दुख ले
जायेंगे, समझ
नहीं ले
जायेंगे।
उसका जुम्मा
मेरा नहीं होगा।
जुम्मा
महावीर का भी
नहीं होगा।
आपका ही होगा।
आपने सोचा, यह तो हमारे
जीसस के पक्ष
में नहीं बोले,
तो आप समझ
नहीं ले
जायेंगे। या
आपने ऐसा समझा
कि यह तो
हमारे कृष्ण
के संबध
में बोल रहे
हैं, तो आप
नासमझ ही लौट
जायेंगे।
आपके कृष्ण से
मुझे क्या
लेना—देना? न रुचि, न
अरुचि; न
पक्ष, न
विपक्ष; मुझे
जो दिखायी
पड़ता है उसे
सीधा मैने
आपकी आंखों के
सामने फैला
दिया है। और
मैं खुद ही
क्षणजीवी
व्यक्ति हूं
इसलिये भरोसे
का नहीं हूं।
कल क्या
कहूंगा, इससे
आज कोई’ प्रामिस’
नहीं बनती है,
इससे आज कोई
आश्वासन नहीं
है। आज जैसा
मुझे दिखायी
पड़ता था, वैसा
मैंने कहा। आज
जो आपकी समझ
में आया हो — समझ
में आया हो, उसका मूल्य
नहीं है; जो
समझ में आने
में समइा
बढ़ी हो, उसका
मूल्य है।
मैं आशा
करता हू यह दस
दिन में सबके
पास थोड़ी—न बहुत
समझ का विकास
हुआ होगा, थोड़ी—न
बहुत दृष्टि
फैली होगी, द्वार
थोड़े—न बहुत
खुले होंगे, सूरज को आने
के लिये
थोड़ी—बहुत जगह
बनी होगी। मैं
नहीं कहता हू
कि आपके भीतर
जब सूरज आये
तो आप उसे
क्या नाम दें —
कृष्ण कहें, कि बुद्ध
कहें, कि
राम कहें, यह
आपकी मर्जी है,
नाम आपके
होंगे — मैं
इतना ही कहता
हू दरवाजा आपके
चित्त का खुला
हो। तो सूरज आ
जायेगा। नाम आप
पर निर्भर
होगा, क्योंकि
सूरज अपना कोई
नाम कहता नहीं
कि मेरा नाम
क्या है। वह
अनाम है। नाम
अपना आप दे
लेंगे। लेकिन दरवाजा
सिर्फ उनके ही
चित्त का
खुलता है, जो
समझपूर्वक,
समइा में, समझ
के साथ जीते
हैं, पक्षों
और धारणाओं और
सिद्धांतों
के साथ नहीं।
सिद्धांतों
और धारणाओं
.और पक्षों के
साथ वे ही लोग
जीते हैं
जिनको अपनी
समझ का भरोसा
नहीं है। तो
वे पक्के, बंधे—बंधाये, सिमेंट—कांक्रीट
के बाजार में
बिकते हुये
सिद्धांतों
को ले आते
हैं। समझ तो
पानी की तरह
तरल है। समइा
तो बहाव है, एक’ फ्लो’
है। सिद्धांत,
सिद्धांत
कोई बहाव नहीं
है।
तो अगर आपने
सिद्धांतों
की आड़ से
मुझे सुना हो —
चाहे मित्र
हों उन
सिद्धांतों
के, चाहे शत्रु —
तो फिर आप नहीं
समझ पायेंगे
कि मैंने क्या
कहा है।
आखिरी बात
आपसे कह दू
कृष्ण से मुझे
कुछ लेना—देना
नहीं है।
कृष्ण से कोई
संबंध ही नहीं
है। कोई कृष्ण
के पक्ष में
आप हो जायें, इसलिये
नहीं कहा है; कि कृष्ण के
विपक्ष में आप
हो जायें, इसलिये
नहीं कहा है।
कृष्ण को तो
मैंने एक’ कैनवस’
की तरह उपयोग
किया, जैसे
एक चित्रकार
एक’ कैनवस’ का
उपयोग करता
है।’ कैनवस’ से
उसका कोई मतलब
ही नहीं होता।
कुछ रंग उसे फैलाने
होते है’ कैनवस’
पर, वह उन
रंगों को फैला
देता है। कुछ
रंग मुझे फैलाने
थे आपके सामने,
वह कृष्ण
के’ कैनवस’ पर
मैंने फैला
दिये। मुझे
महावीर का’ कैनवस’
भी काम दे
जाता है, बुद्ध
का’ कैनवस’ भी
काम दे जाता
है, जीसस
का’ कैनवस’ भी
काम दे जाता
है। और एक’ कैनवस’
पर जिन रंगों
का मैं उपयोग
करता हू कोई
जरूरी नहीं कि
दूसरे’ कैनवस’ पर
उन्हीं रंगों
का उपयोग
करूं। और ऐसा
भी मुझसे कोई
कभी नहीं कह
सकता है कि कल
आपने जो चित्र
बनाया था आज
तो उसके
बिलकुल
विपरीत बना
दिया। अगर मैं
चित्रकार हूं
तो विपरीत
बनाऊंगा ही।
और अगर सिर्फ’ कापीइस्ट’ हूं
तो फिर कल उसी
की नकल फिर
करूंगा।
इसलिये
मेरे
वक्तव्यों को जड़ता से पकड़ने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। मेरे
वक्तव्यों को समझें
और छोड़ दें।
समझ पीछे बाकी
रह जायेगी, वक्तव्य
छूट जायेगा।
इससे एक और
फायदा होगा कि
किसी दिन मुझे
पकड़ने का
खतरा पैदा
नहीं होगा।
नहीं तो मेरे
वक्तव्यों को
पकड़ा — पक्ष से
या विपक्ष से —
तो मैं पकड़ा जाऊंगा।
नहीं, मुझे
कोई हर्जा
नहीं होगा।
हर्जा आपको हो
जायेगा। जब भी
हम किसी को
पकड़ लेते हैं,
तभी हम अपने
को खो देते
हैं। जब हमारे
हाथ सबसे खाली
हो जाते हैं
तब अचानक
हमारे हाथों
में हम ही भर
जाते हैं। इस
आशा में ये
सारी बातें कही
हैं।
मेरी बातों
को इतने प्रेम, इतनी
शांति, इतने
मौन, इतने
आनंद से सुना
है, उससे
बहुत
अनुगृहीत हूं
और अंत में
सबके भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं मेरे प्रणाम
स्वीकार
करें।
आज इतना ही।
thank you guruji
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