महावीर
के जन्म से
लेकर, उनकी
साधना के काल
के शुरू होने
तक, कोई
स्पष्ट
घटनाओं का
उल्लेख
उपलब्ध नहीं
है। यह बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है। जीसस
के जीवन में
भी पहले तीस
वर्षों के
जीवन का कोई
उल्लेख नहीं
है। इसके पीछे
बड़ा महत्वपूर्ण
कारण है।
महावीर
जैसी आत्माएं
अपनी यात्रा
पूरी कर चुकी
होती हैं
पिछले जन्म
में ही। बिकमिंग
का, घटनाओं
का जो जगत है, वह समाप्त
हो चुका होता
है पिछले जन्म
में ही। इस
जन्म में जो
उनकी आने की
प्रेरणा है, वह उनकी
स्वयं की कोई
वासना उसमें
कारण नहीं है अब,
सिर्फ
करुणा कारण
है। जो
उन्होंने
जाना है, जो
उन्होंने
पाया है, उसे
बांटने के
अतिरिक्त इस
जन्म में उनका
अब कोई काम
नहीं है।
ठीक से
समझो तो यही
तीर्थंकर
होने का अर्थ
है।
तीर्थंकर
का अर्थ यह है:
ऐसी आत्मा, जो अब सिर्फ
मार्ग दिखाने
को पैदा हुई
है। और जो अभी
स्वयं ही
मार्ग खोज रहा
हो, वह
मार्ग नहीं
दिखा सकता है।
जो खुद ही अभी
मार्ग खोज रहा
है, उसके
मार्ग बताने
का कोई अर्थ
भी नहीं।
क्योंकि
मार्ग क्या है
पूरा, यह
मार्ग पर चलने
से नहीं, मंजिल
पर पहुंच जाने
से पता चलता
है। चलते समय
तो सभी मार्ग
ठीक मालूम
होते हैं। जिन
पर हम चलते
हैं, वही
मार्ग ठीक
मालूम होता
है।
और
चलते समय
कसौटी भी कहां
है कि जिस
मार्ग पर हम
चल रहे हैं, वह ठीक होगा;
क्योंकि
मार्ग का ठीक
होना निर्भर
करेगा मंजिल
के मिल जाने
पर। मार्ग के
ठीक होने का
एक ही अर्थ है
कि जो मंजिल
मिला दे।
लेकिन यह पता
कैसे चलेगा
मंजिल मिलने
के पहले कि इस
मार्ग से
मंजिल मिलेगी?
यह तो उसे
ही पता चल
सकता है जो
मंजिल पर
पहुंच गया।
लेकिन जो
मंजिल पर
पहुंच गया, उसका मार्ग
समाप्त हो
गया।
और
मंजिल पर
पहुंच जाना
इतना कठिन
नहीं है, जितना
मंजिल पर
पहुंच कर और
मार्ग पर
लौटना। क्योंकि
साधारणतः कोई
कारण नहीं
मालूम होता कि
जो मंजिल पर
पहुंच गया हो,
वह अब मंजिल
पर विश्राम
करे।
तो
दुनिया में
मुक्त
आत्माएं तो
बहुत होती हैं, क्योंकि
मुक्ति की
मंजिल पर
पहुंचते ही वे
खो जाती हैं
निराकार में।
लेकिन थोड़ी सी
आत्माएं फिर
अंधेरे पथों
पर वापस लौट
आती हैं। ऐसी
आत्माएं जो
मंजिल पर
पहुंच कर वापस
जगत में लौटती
हैं, तीर्थंकर
कहलाती हैं।
कोई परंपरा
उन्हें तीर्थंकर
कहती होगी, कोई परंपरा
उन्हें अवतार
कहती है, कोई
परंपरा
उन्हें
ईश्वर-पुत्र
कहती है, कोई
परंपरा
पैगंबर कहती
है। लेकिन
पैगंबर, तीर्थंकर,
अवतार का जो
अर्थ है, वह
इतना है
सिर्फ--ऐसी
चेतना, जिसका
अपना काम पूरा
हो चुका, और
अब लौटने का
कोई कारण नहीं
रह गया। बहुत
कठिन है, यह
मैंने कहा।
मंजिल
खोजना कठिन है, मंजिल पर
पहुंच कर, जब
कि परम
विश्राम का
क्षण आ गया, तब लौटना उन
रास्तों पर, जिन रास्तों
को बहुत
मुश्किल से
छोड़ा जा सका
और मुक्त हुआ
जा सका, अत्यधिक
कठिन है।
इसलिए उन थोड़ी
सी आत्माओं को
परम सम्मान
उपलब्ध हुआ है,
जो मंजिल
पाकर रास्ते
पर वापस लौट
आती हैं। और
ये ही आत्माएं
मार्गदर्शक
हो सकती हैं।
तीर्थंकर
का मतलब है, जिस घाट से
पार हुआ जा
सके। तीर्थ कहते
ही उस घाट को
हैं, जहां
से पार हुआ जा
सके। और
तीर्थंकर
कहते हैं उस
घाट को, उस
घाट पर उस
मल्लाह को, जो पार करने
का रास्ता बता
दे।
तो
महावीर का इस
जन्म में और
कोई प्रयोजन
नहीं है अब।
इसलिए पहले
बचपन का सारा
जीवन घटनाओं से
शून्य है।
घटनाएं घटने
का अब कोई अर्थ
नहीं है, वह
बिलकुल शून्य
है घटनाओं से।
इसलिए कोई घटना
उल्लिखित
नहीं है, उल्लिखित
होने का कोई
कारण नहीं है।
जीसस
का प्रारंभिक
जीवन बिलकुल
शून्य है घटनाओं
से। कोई घटना
ही नहीं है।
अब यह
बड़ी हैरानी की
बात है, आमतौर
से जिन्हें हम
विशिष्ट
पुरुष कहते
हैं, उनके
बचपन में
विशिष्ट
घटनाएं घटती
हैं--जिन्हें
हम विशिष्ट
पुरुष कहते
हैं। लेकिन वे
भी साधारण ही
पुरुष होते
हैं। सच में
जो विशिष्ट है,
उसका
प्राथमिक
जीवन बिलकुल
घटना-शून्य
होता है।
इस
अर्थ में
घटना-शून्य
होता है कि वह
लौटा है किसी
और काम से, अपना अब कोई
काम नहीं रहा।
अपना कोई काम
नहीं है, इसलिए
उसकी बिकमिंग
की, उसके
होने की, बढ़ने
की कोई घटनाएं
नहीं हैं। बस
वह चुपचाप बढ़ता
चला जाता है।
चारों तरफ
चुप्पी होती
है, वह
चुपचाप बड़ा हो
जाता है--उस
क्षण की
प्रतीक्षा
में, जब वह
जो देने आया
है, वह
देना शुरू कर
दे।
मेरी दृष्टि
में तो महावीर
को वर्धमान का
नाम ही इसलिए
मिला। इसलिए
नहीं, जैसा
कि कहानियों
और किताबों
में लिखा हुआ
है कि उनके घर
में पैदा होने
से घर में सब
चीजों की बढ़ती
होने लगी--धन
बढ़ने लगा, यश
बढ़ने लगा।
मेरी दृष्टि
में तो नाम ही
अर्थ यह रखता
है कि जो
चुपचाप बढ़ने
लगा, जिसके
आस-पास कोई
घटना न घटी।
यानी जिसका
बढ़ना इतना
चुपचाप था, जैसे पौधे
चुपचाप बड़े
होते हैं, कलियां
फूल बनती
हैं--और कभी
पता नहीं चलता,
कहीं कोई
शोरगुल नहीं
होता, कहीं
कोई आवाज नहीं
होती। ऐसा
चुपचाप बड़ा
होने लगा जो।
मैं तो उस नाम
में यही अर्थ
देखता हूं, जो चुपचाप
बढ़ने लगा।
और यह
चुपचाप बढ़ना
दिखाई पड़ने
लगा होगा, क्योंकि
घटनाएं न घटना
बहुत बड़ी घटना
है--बिलकुल
घटना न घटना!
छोटे से छोटे
आदमी के जीवन
में घटनाएं
घटती हैं, चाहे
छोटी। बड़े
आदमी के जीवन
में बड़ी
घटनाएं घटती
हैं, चाहे
कैसी भी।
लेकिन ऐसा
व्यक्ति जिसके
जीवन में कोई
घटना न घट रही
हो, जो
इतना चुपचाप
बढ़ने लगा हो
कि चारों तरफ
कोई वर्तुल
पैदा न होता
हो--समय में, काल में, क्षेत्र
में--तो वह
अनूठा दिखाई
पड़ गया होगा, कि कुछ
विशिष्ट ही
है।
इसलिए
शिक्षक उसे पढ़ाने आए
हैं तो उसने
इनकार कर दिया, क्योंकि वह पढ़ेगा
क्या? वह
पढ़ा हुआ ही
है। शिक्षक पढ़ाने आए
हैं तो
वर्धमान ने
मना कर दिया
है, क्योंकि
शिक्षकों ने
पाया जो वे
उसे पढ़ा सकते हैं,
वह पहले से
ही जानता है।
इसलिए कोई
शिक्षा नहीं
हुई। शिक्षा
का कोई कारण न
था, कोई
अर्थ भी न था।
कोई घटना न
घटी। वे
चुपचाप बड़े हो
गए हैं।
और हो
सकता है, यह
बात भी अनुभव
में आई होगी
लोगों को।
इतने चुपचाप
कोई भी बड़ा
नहीं होता।
ऐसा ही जीसस
का जीवन है:
बड़े चुपचाप
बड़े हो गए
हैं।
दूसरी
बात ध्यान में
रख लेने जैसी
है, महावीर
के जन्म के
संबंध में, अर्थपूर्ण
है। जो मिथ, जो कहानी है,
वह तो यह है
कि वे
ब्राह्मण
स्त्री के
गर्भ में आए, और देवताओं
ने गर्भ बदल
दिया और
क्षत्रिय गर्भ
में पहुंचा
दिया।
यह बात
तथ्य नहीं है, यह कोई तथ्य
नहीं है कि
किसी एक
स्त्री से गर्भ
निकाला और
दूसरी स्त्री
में रख दिया।
लेकिन यह बड़ी,
बड़ी गहरी
बात है। और
गहरी बात, कई
चीजों की
सूचनाएं हैं,
वे हमें समझ
लेनी चाहिए।
पहली
सूचना तो यह
है कि महावीर
का, जो मैंने
सुबह कहा, जो
पथ है, वह
पुरुष का, आक्रमण
का, क्षत्रिय
का; वह जो
पथ है। महावीर
का जो
व्यक्तित्व
है, और
उनकी जो खोज
का पथ है, वह
क्षत्रिय का
है। क्षत्रिय
का इस अर्थों
में कि वह
जीतने वाले का
है।
और
इसीलिए
महावीर जिन
कहलाए। जिन का
मतलब है, जीतने
वाला। जिसका
और कोई पथ
नहीं है सिवाय
जीतने के।
जीतेगा तो ही
उसका मार्ग
है। और इसलिए
पूरी परंपरा
जैन हो गई। वह
जो जिन है...तो
यह बड़ी मीठी कहानी
चुनी है कि था
ब्राह्मणी के
गर्भ में, लेकिन
देवताओं को
उठा कर
क्षत्रिय के
गर्भ में कर
देना पड़ा।
क्योंकि वह
बच्चा
ब्राह्मण होने
को न था।
अब
ब्राह्मण भी
समझने जैसी
बात है।
ब्राह्मण का
अपना मार्ग
है। जैसे
मैंने कहा कि
पुरुष का एक
मार्ग है, आक्रमण का; स्त्री का
एक मार्ग है, समर्पण का।
ब्राह्मण का
एक मार्ग है, भिक्षा में
मांग लेने का।
यानी
ब्राह्मण कह यह
रहा है कि
परमात्मा से लड़ोगे? अशोभन
है। समर्पण
करोगे? किसके
प्रति? उसका
अभी कोई पता
नहीं है।
लेकिन अज्ञात
घेरे हुए है
चारों तरफ और
हम अत्यंत
क्षुद्र और दीनऱ्हीन।
न हम जीत सकते
हैं। और हम
समर्पण भी
क्या करेंगे?
हमारे पास
समर्पण करने
को भी क्या है?
दीनताऱ्हीनता इतनी है।
टोटल हेल्पलेसनेस।
असहाय हम इतने
हैं कि देंगे
क्या? देने
को क्या है? और छीनेंगे
कैसे? तो
एक ही मार्ग
है कि हाथ
फैला दें
विनम्रता से
और भिक्षा में
ले लें।
तो
ब्राह्मण का
जो मार्ग है, ब्राह्मण की
जो वृत्ति है,
वह भिक्षुक
की है।
तो
कहानी यह कहती
है कि महावीर
जैसा व्यक्ति
अगर
ब्राह्मणी के
गर्भ में भी आ
जाए, तो भी
देवताओं को
हटा कर उसे
क्षत्रिय के
गर्भ में रख
देना पड़ेगा।
वह
व्यक्तित्व
ब्राह्मण का
नहीं है। और
व्यक्तित्व
गर्भ से आते
हैं। वह व्यक्तित्व
ही जन्मना
क्षत्रिय का
है--जो जीतेगा;
मांग नहीं
सकता है।
महावीर ऐसा
हाथ नहीं फैला
सकते।
परमात्मा के
सामने भी
नहीं। किसी के
भी सामने
नहीं। वे
जीतेंगे। जीत
कर ही अर्थ है
उनकी जिंदगी
का।
और इस
देश में जो
परंपरा थी, उस क्षणों
में जो परंपरा
थी--सर्वाधिक
प्रभावी, वह
ब्राह्मण की
थी। सर्वाधिक
प्रभावी जो
परंपरा थी उस
दिन, वह
ब्राह्मण की
थी। वह असहाय,
मांग लेने
वाले की थी।
अदभुत
है वह बात भी।
इतनी आसान
नहीं, जितना
कोई सोचता हो।
क्योंकि
असहाय होना
बड़ी अदभुत
क्रांति है। बिलकुल
असहाय हो जाना,
वह भी एक
मार्ग है।
लेकिन वह
मार्ग बुरी
तरह पिट
गया था। और इस
बुरी तरह पिट
गया था कि
असहाय
ब्राह्मण बड़ा
दंभी हो गया
था। जो अदभुत
घटना घट गई थी
वह यह थी, क्योंकि
मार्ग तो था
असहाय होने का,
लेकिन
परंपरा इतनी गाढ़ी हो गई
थी और मजबूत
हो गई थी कि
असहाय
ब्राह्मण
सबसे ज्यादा
अकड़ कर सड?कों पर खड़ा
था। तो वह
ब्राह्मण की
जो मौलिक धारणा
थी, वह
खंडित हो चुकी
थी। ब्राह्मण
गुरु हो गया
था। ब्राह्मण
ज्ञानी हो गया
था। ब्राह्मण
सब के ऊपर बैठ
गया था। वह जो
असहाय होने की
जो धारणा थी, वह खो गई थी।
उस बात को तोड़
देना जरूरी
था।
इसको
बड़े प्रतीक
रूप में कथा
कहती है कि
ब्राह्मणी के
गर्भ में आकर
भी देवताओं को
हटा देना पड़ा।
यानी
ब्राह्मणी का
गर्भ अब
महावीर जैसे व्यक्ति
को पैदा करने
में असमर्थ हो
गया था। उसका
जो मतलब है, उसका मतलब
यह है कि
ब्राह्मण की
दिशा से अब महावीर
जैसे व्यक्ति
के पैदा होने
की कोई संभावना
न थी। सूख गई
थी धारा, अकड़
गई थी, एंठ गई थी, गलत
हो गई थी। अब
क्षत्रिय की
धारा से...।
इसलिए
जो संघर्ष था
उस दिन, वह
बहुत गहरे में
ब्राह्मण और
क्षत्रिय के
मार्ग का
संघर्ष था। और
यह थोड़ी सोचने
की बात है।
कोई
पूछता है कभी
कि क्या
क्षत्रिय के
अलावा और कोई
तीर्थंकर
नहीं हो सकता?
नहीं
हो सकता। चाहे
वह बेटा
ब्राह्मण के
गर्भ से ही
क्यों पैदा न
हो, वह होगा
क्षत्रिय ही।
तो ही, तो
ही उस मार्ग
पर जा सकता
है। वह मार्ग
आक्रमण का है।
वह मार्ग विजय
का है। वहां
भाषा विषय की
और जीत की है।
दूसरी
बात लोग
निरंतर पूछते
हैं कि क्या
गरीब का बेटा
तीर्थंकर
नहीं हो सकता? वे सब
राजपुत्र थे।
क्षत्रिय और
राजपुत्र!
वह भी
बहुत
अर्थपूर्ण है, कि जो अभी इस
संसार को ही
नहीं जीत पाया,
वह उस संसार
को कैसे
जीतेगा!
आक्रमण का
मार्ग है न! तो
अभी जब इस संसार
में ही नहीं
जीत पाए तो
वहां कैसे जीत
लोगे? अभी
इतनी छोटी सी
जीत नहीं तय
कर पाए, उस
बड़ी जीत पर
कैसे जाओगे?
इसलिए
वे चौबीसों
बेटे
राजपुत्र भी
हैं। राजपुत्र
इस अर्थ में
सूचक है कि
जीतने वाला जो
है, वह कुछ भी
जीतेगा। और जब
वह इसको जीत
लेगा, तब
उसकी तरफ उसकी
नजर उठेगी। वह
इस लोक को जीत
लेगा, तब
उस लोक को
जीतेगा। जीत
के मार्ग पर
पहले यही लोक
पड़ने वाला है।
ब्राह्मण
इस लोक में भी
शिक्षा मांगेगा, उस लोक में
भी। वह मानता
ही यह है कि
प्रसाद से ही
मिलेगा, जो
मिलना है।
आक्रमण की बात
ही नहीं है
कोई। ग्रेस
से मिलेगा, प्रभु-कृपा
से।
वह जो
संघर्ष था, वह ब्राह्मण
और क्षत्रिय
ऐसी दो
जातियों का नहीं,
ऐसी दो
परंपराओं का!
ऐसी दो
जातियों का
कोई संघर्ष
नहीं है, ऐसी
दो परंपराओं
का, ऐसे दो
मार्गों का जो
सत्य की खोज
पर निकले हैं।
और जब एक
मार्ग कुंठित
हो जाता है--और
सब मार्ग कुंठित
हो जाते हैं
एक सीमा पर
जाकर, क्योंकि
सब मार्ग
अहंमन्य हो
जाते हैं, ईगोइस्ट हो जाते हैं
एक सीमा पर
जाकर।
ब्राह्मण
का मार्ग
प्राचीनतम
मार्ग है। वह
कुंठित हो गया
था। उसके
विरोध में
बगावत जरूरी थी।
वह बगावत
क्षत्रिय से
आनी
स्वाभाविक
थी। और आनी
इसलिए स्वाभाविक
थी कि हमेशा
बगावत ठीक
विपरीत से आती
है। विद्रोह
जो है वह ठीक
विपरीत से आता
है।
ब्राह्मण
है मांगने
वाला, क्षत्रिय
है जीतने
वाला। एक दान
और दया में ले
लेगा, दूसरा
दुश्मन को
समाप्त करके
लेगा। लेने का
उसके लिए और
दूसरा अर्थ ही
नहीं होता।
तो ठीक
बगावत विपरीत
वर्ग से आने
वाली थी, इसलिए
वे क्षत्रिय
हैं। इसलिए वह
जन्म की कथा बड़ी
मीठी है। यानी
वह यह बताती
है कि अब
ब्राह्मण की
जो कोख थी, वह
बांझ हो गई
थी। अब उसमें
महावीर जैसा
व्यक्ति पैदा
नहीं हो सकता।
वह परंपरा
क्षीण हो गई थी,
सूख गई
थी--कि
ब्राह्मण उस
युग में महावीर
या बुद्ध की
हैसियत का एक
भी आदमी पैदा नहीं
कर पाया। वह
मार्ग सूख गया
था। उसने पैदा
किए आदमी, लेकिन
वक्त लग गया
कोई डेढ़
हजार वर्ष का।
फिर आया
संघर्ष। डेढ़
हजार वर्ष में
महावीर और
बुद्ध ने जो
परंपरा छोड़ी
थी, वह सूख
गई और जड़ हो
गई। तब ठीक
विपरीत
विद्रोह फिर
काम कर गया।
ये जो
प्रतीक इस तरह
चुने हैं, बड़े
अर्थपूर्ण
हैं। और इन
प्रतीकों को
जो जड़ता
से तथ्यों की
भांति पकड़
लेता है, वह
बिलकुल भटक ही
जाता है, उसे
पता ही नहीं
चलता कि क्या
अर्थ हो सकता
है!
महावीर
के जीवन में, जब मैं कहता
हूं कोई घटना
नहीं घटी, तो
कुछ बातें
लेकिन सोचने
जैसी हैं।
जैसे, दिगंबर
कहते हैं कि
महावीर
अविवाहित
रहे। मजेदार
घटना है! और
श्वेतांबर
कहते हैं, न
केवल विवाहित,
बल्कि एक
बेटी भी हुई!
कितनी
ही चीजें
विकृत हो जाएं, लेकिन यह
असंभव है कि
एक अविवाहित
व्यक्ति के साथ
पत्नी और लड़की
भी जुड़ जाए। यह
करीब-करीब
असंभव है।
लेकिन यह भी
असंभव है कि
एक विवाहित
व्यक्ति और
उसकी एक लड़की
और दामाद के
होते हुए एक
परंपरा उसे
अविवाहित
घोषित करे। ये
दोनों बातें
असंभव हैं। ये
दोनों बातें
कैसे संभव हो
सकती हैं? अगर
विवाह हुआ हो,
लड़की हुई हो,
दामाद हो, और ये सब
बातें तथ्य
हों, तो
कोई कैसे
इनकार कर देगा
इस बात को कि
यह हुआ नहीं?
यहां
फिर समझ लेने
जैसा है कि
तथ्य जरूरी
नहीं कि सदा
सत्य हों। यह
एक बात समझ
लेनी जरूरी है।
तथ्य जरूरी
नहीं कि सदा
सत्य हों। और
जिनकी पकड़
सत्य पर है, बहुत बार
तथ्यों में
बुनियादी
हेर-फेर हो
जाते हैं। और
जो सत्यों को
नहीं देख पाते,
वे सिर्फ
मृत तथ्यों को
संगृहीत कर
लेते हैं।
इसलिए
मेरा मानना है
कि महावीर का
विवाह जरूर हुआ
होगा, लेकिन
वे बिलकुल
अविवाहित की
भांति रहे
होंगे। और
इसलिए यह संभव
हो सकी है
बात। उनका
विवाह हुआ ही,
लेकिन वे
अविवाहित की
भांति रहे।
जिन्होंने
तथ्य देखा, उन्होंने
कहा, विवाह
जरूर हुआ; और
जिन्होंने
सत्य देखा, उन्होंने
कहा, वह
आदमी
अविवाहित था,
अनमैरिड था।
अविवाहित
होना एक सत्य
है और विवाहित
होना सिर्फ एक
तथ्य है। कोई
व्यक्ति बिना
विवाहित हुए
विवाहित हो
सकता है--मन से,
चित्त से, वासना से।
और
विवाहित होने
की वासना क्या
है, उसे हम
समझ लें।
विवाहित होने
की वासना है
कि मैं अकेला
काफी नहीं हूं,
पर्याप्त
नहीं हूं, दूसरा
भी चाहिए जो
आए और मुझे
पूरा करे। मैरिड
होने का मतलब
क्या है? विवाहित
होने का मतलब
क्या है? विवाहित
होने का गहरा
मतलब यह है कि
मैं अपने में
पर्याप्त
नहीं हूं, जब
तक कि कोई
मुझे मिले और
जोड़े और पूरा
न करे।
पुरुष
अपर्याप्त है
अपने में, आधा है, स्त्री
जुड़े--यह
विवाहित होने
की कामना है, यह विवाहित
होने का चित्त
है। स्त्री
अधूरी है अपने
में, पुरुष
के बिना
खाली-खाली है,
पुरुष आए और
उसे भरे और
पूरा करे--यह
विवाहित होने
की कामना है।
तो दिगंबरों
को मैं कहता
हूं, उन्होंने
ठीक ही कहा कि
महावीर
अविवाहित थे। क्योंकि
उस व्यक्ति
में किसी से
पूरे होने की कोई
कामना न बची
थी, वह
पूरा था। कहीं
कोई अधूरापन न
था, जो
किसी और से
उसे पूरा करना
है।
इसलिए
मैं मानता हूं
कि
श्वेतांबरों
से दिगंबरों
की आंख गहरी
पड़ी, बहुत
गहरी पड़ी।
बहुत गहरा
देखा
उन्होंने, कि
यह आदमी
अविवाहित है।
इस साधारण से
तथ्य के लिए
कि एक स्त्री
से इसका विवाह
हुआ, इसको
विवाहित कहना
एकदम अन्याय
हो जाएगा।
आप
मेरा मतलब समझ
रहे हैं न? एकदम अन्याय
हो जाएगा इस
आदमी को
विवाहित कहना,
क्योंकि यह
आदमी बिलकुल
अविवाहित है।
और इसलिए यह
संभव हो सका
कि जिन्होंने
गहरे देखा, उन्हें वह
अविवाहित
दिखाई पड़ा, और
जिन्होंने
तथ्य देखा, वह विवाह का
तथ्य तो ठीक
था। विवाह तो
हुआ था।
और यह
आदमी अपने में
इतना पूरा था
कि दूसरा इसके
पास हो सकता
है, दूसरा
इसके निकट हो
सकता है, दूसरा
चाहे तो इससे
अपने को भर भी
सकता है, लेकिन
इस आदमी को
दूसरे की
अपेक्षा नहीं
है। इस आदमी
को अपेक्षा
नहीं है।
इसलिए यह भी
हो सकता है कि
पत्नी ने पति
पाया हो, लेकिन
महावीर ने
पत्नी नहीं
पाई।
इसलिए
वह दिगंबरों
की आंख गहरी
है। वे कहते
हैं, पत्नी
नहीं थी इस
आदमी के पास।
यह हो सकता है
पत्नी ने पति
पाया हो। यह
भी हो सकता है
कि पत्नी ने
इससे पुत्र
पाया हो।
लेकिन महावीर
पिता नहीं थे
और न पति थे।
यह घटना घटी
भी हो, तो
अत्यंत बाह्य
तल पर घटी है।
लेकिन भीतर यह
आदमी पूरा था।
यह जो होलनेस है
इस आदमी की, इस पर जोर
देने के लिए दिगंबरों
ने कहा कि
नहीं, इस
आदमी ने कभी
शादी की ही
नहीं। मगर
उनसे भी, जैसे-जैसे
बात आगे बढ़ी, भूल होती
चली गई। वे भी
तथ्य को इनकार
करने लगे।
उनको भी खयाल
न रहा इस बात
का कि तथ्य तो
था कि शादी की
थी।
और मैं
मानता हूं कि
यह भी बात
अर्थपूर्ण है
कि महावीर ने
इनकार नहीं
किया शादी के
लिए। असल में
जो शादी के
लिए आतुर है
वह, और जो
शादी का इनकार
करता है वह, वे दोनों
स्त्रियों को
अर्थ देते
हैं। इनकार करने
वाला भी
स्त्री को
अर्थ देता है।
इनकार करने
वाला भी भय
जाहिर करता
है। इनकार
करने वाला भी
पलायन करता
है। इनकार
करने वाला भी
मानता है कि
स्त्री कुछ है,
जो पास होगी
तो मैं कुछ और
हो जाऊंगा।
महावीर
ने न भी न की
होगी, इसलिए
शादी हो गई
होगी। न कर
देते तो शादी
रुक सकती थी।
लेकिन न तक न
की होगी। आदमी
इतना पूरा था
कि न करने तक
का उपाय न था।
ठीक है, स्त्री
आती थी तो आए, न आए तो न आए।
ये दोनों
बातें
अर्थहीन थीं।
और यह और
घटनाओं से भी
लगता है कि यह
बात सच रही होगी।
महावीर
ने आज्ञा चाही
है पिता से कि
मैं संन्यासी
हो जाऊं? पिता
ने कहा, मेरे
रहते नहीं।
मैं जब तक
जीवित हूं, तब तक तुम
बात ही मत
करना दुबारा।
तो अब महावीर
चुप हो गए।
अदभुत
आदमी रहा
होगा। जिसको
संन्यास लेना
हो, वह ऐसा
काम करे कि
आज्ञा मांगे,
पहली तो
बात। जिसको
संन्यास लेना
है, वह
आज्ञा क्यों
मांगे? संन्यास
का मतलब ही है,
जो मोह-बंधन
तोड़ रहा है। संन्यास
लेना--संन्यास
की भी आज्ञा
मांगनी पड़ती
है?
जैसे
कोई
आत्महत्या
करने की आज्ञा
मांगे कि मैं
आत्महत्या
करना चाहता
हूं, आप आज्ञा
देते हैं? तो
कौन आज्ञा
देगा? संन्यास
की कभी आज्ञाएं
दी गई हैं? संन्यास
लिया जाता है।
और महावीर ने
आज्ञा मांगी
संन्यास की कि
मैं संन्यास
ले लूं? कौन
पिता राजी
होगा?
और
महावीर जैसे
बेटे का! ऐसे
बेटे हैं, जिनका पिता
संन्यास के
लिए राजी हो
जाए। लेकिन
महावीर जैसे
बेटे का कोई
पिता राजी
होगा संन्यास
के लिए?
इनकार
किया, कहा
कि मैं मर
जाऊं, तब
यह बात करना, यह बात ही मत
करना मुझसे।
और मजा यह है, घटना यह है, पिता तो
बिलकुल
स्वाभाविक है,
लेकिन यह
लड़का बहुत
अदभुत है, यह
चुप हो गया और
फिर इसने बात
ही न की।
निश्चित ही
संन्यास लेने,
न लेने से
कोई बुनियादी
फर्क न पड़ता
होगा इसको।
इसलिए जोर भी
नहीं है कोई, कि ठीक है, नहीं भी हुआ
तो भी चलेगा।
पिता
मर गए, तो
मरघट से लौटते
वक्त अपने बड़े
भाई से कहा कि मुझे
आज्ञा दे
दें--अब तो
पिता चल
बसे--कि अब मैं संन्यासी
हो जाऊं। तो
बड़े भाई ने
कहा, तुम
पागल हो गए हो!
एक तो पिता के
मरने का दुख, और तुम अभी
मुझे छोड़ कर
चले जाओगे! और
घर भी नहीं
पहुंचे हो अभी,
रास्ते पर
हो। मुझसे यह
बात कभी मत
करना।
तो बड़ी
मजेदार घटना
है कि महावीर
ने फिर बात ही
नहीं की, फिर
वे घर में ही
रहने लगे।
लेकिन थोड़े
दिन में ही घर
के लोगों को
पता चला कि
महावीर जैसे
नहीं हैं--हैं
घर में, और
नहीं हैं!
उनका होना न
होने के बराबर
है। न वे किसी
के मार्ग पर आड़े आते
हैं, न वे
किसी की तरफ
देखते हैं, न कोई
उन्हें देखे
इसकी आतुरता
रह गई है। वे ऐसे
हैं जैसे उस
बड़े भवन में
अकेले हैं, जैसे कोई है
ही नहीं। कोई
उनसे पूछे, हां और न में
जवाब मांगे, तो भी नहीं
देते हैं, किसी
पक्ष और
विपक्ष में
नहीं पड़ते हैं,
किसी वाद-विवाद
में रस नहीं
लेते। घर में
क्या हो रहा
है, नहीं
हो रहा है, उन्हें
कुछ प्रयोजन
नहीं है।
अतिथि हो गए
हैं।
तो घर
के लोगों को
लगने लगा कि
वे तो गए ही, सिर्फ शरीर
रह गया है। तो
घर के लोगों
ने कहा, शरीर
को रोकना भी
उचित नहीं। जो
जा ही चुका है,
हम इतने भी
रोकने के
भागीदार
क्यों बनें!
तो घर के
लोगों ने
प्रार्थना की
कि अब आपकी
मर्जी, तो
आप संन्यास ले
लें, क्योंकि
हमारी तरफ से
तो संन्यास
लगता है, पूरा
हो ही गया। आप
घर में हैं या
नहीं, बराबर
हो गया। हम
क्यों इस पाप
के भागीदार
हों कि आपको
रोकते हैं? और महावीर चल
पड़े!
ऐसा जो
व्यक्ति
है--इसकी शादी
के वक्त इसने
यह भी नहीं
कहा होगा कि
नहीं करनी है।
क्योंकि नहीं
करने में भी
तो हम स्त्री
को मूल्य देते
हैं, दूसरे को
मूल्य देते
हैं, डरते
हैं कि नहीं
करनी है। पर
शादी के बाद
यह ऐसे रहा
होगा जैसे कि
शादी के पहले
रहता था। कुछ
फर्क ही न पड़ा
होगा। इसलिए
जिन्होंने
गहरे देखा, उन्होंने
माना कि
अविवाहित
हैं।
जैसा
मैंने कल कहा
कि जीसस की
मां कुंआरी है, और बेटे को
जन्म दिया।
क्योंकि उतने कुंआरेपन
में ही पैदा
हो सकता है
जीसस जैसा
बेटा।
महावीर
जैसा व्यक्ति
पति हो कैसे
सकता है? यानी
पति होने की
जो धारणा है, वह हम थोड़े
सोचें कि
महावीर जैसा
व्यक्ति पति कैसे
हो सकता है?
पति
में पहली तो
मालकियत है।
और जो व्यक्ति
जड़ वस्तु पर
भी मालकियत
नहीं रखना
चाहता, वह
किसी जीवित
व्यक्ति पर
मालकियत
रखेगा, यह
असंभव है। यह
कल्पना ही
असंभव है।
यानी जो धन को
भी नहीं कह
सकता कि इसका
मैं मालिक हूं,
वस्तु के
साथ भी ऐसा दर्ुव्यवहार
नहीं कर
सकता--मालिक
होने का, वह
किसी जीवित
स्त्री के साथ
मालिक होने का
दर्ुव्यवहार
असंभव है। पति
होना एक तरह
का दर्ुव्यवहार
है, एक
मालकियत है, ओनरशिप है, पजेशन है। महावीर
पति नहीं हो
सकता।
और
महावीर पिता
भी कैसे हो
सकता है? हां,
लड़की जन्मी
हो, यह हो
सकता है।
महावीर पिता
कैसे हो सकता
है? अब
पिता की कामना
क्या है, वह
भी हम ठीक से
समझ लें। पिता
की कामना क्या
है?
पिता
की कामना है
स्वयं को, स्वयं की
देह को, स्वयं
के अस्तित्व
को दूसरों के माध्यम
से आगे जारी
रखना। पिता की
कामना का अर्थ
क्या है? आखिर
कोई पिता होना
क्यों चाहता
है? कामना
यह है कि मैं
तो नहीं
रहूंगा, कोई
फिकर नहीं, लेकिन मेरा
अंश रहेगा, रहेगा, और
रहेगा। इसलिए
बांझ पिता
दुखी है, बांझ
मां दुखी है।
दुख क्या है? दुख एक है, खतम हो गई
रेखा जहां हम
समाप्त हो रहे
हैं, जहां
से हममें से
कुछ भी नहीं
बचेगा जीवित।
जैसे एक शाखा,
जिसके आगे
अब पत्ते आने
बंद हो गए। सब
सूख गया।
पिता
की आकांक्षा
क्या है? पिता
की आकांक्षा
है कि चाहे यह
शरीर मर जाए, लेकिन इस
शरीर का एक
अंश फिर शरीर
निर्मित कर लेगा
और रहेगा। मैं
जीऊंगा
दूसरों में।
इसलिए तो बाप
बेटे को बनाने
के लिए इतना
आतुर है। बेटे
में बाप की
महत्वाकांक्षा
और अहंकार
जीना चाहते
हैं, बेटे
के रूप में वे
बने रहना
चाहते हैं।
महावीर
जैसे व्यक्ति
को बने रहने
की आकांक्षा
का सवाल ही
नहीं। न
अहंकार है, न होने की
तृष्णा है। न
होने का अनुभव
करके लौटा हुआ
आदमी है यह।
जहां सब खो
जाता है, वहां
से लौटा हुआ
आदमी है यह।
तो इसको खयाल
हो सकता है कि
पिता बनूं? हां, यह
हो सकता है
लड़की पैदा हुई
हो।
इस बात
को ठीक से
समझना। अब यही
गड़बड़ हो जाती
है, कठिनाई
यही हो जाती
है। जब लड़की
पैदा हुई तो
महावीर पिता
हैं--ऐसा तथ्य
को पकड़ने
वाले को
दिखेगा। जो
सत्य को पकड़ने
जाता है, उसके
लिए लड़की का
होना न होना अप्रासांगिक
है। हो सकता
है महावीर की
पत्नी, जो
अपने को पत्नी
मानती रही हो,
मां भी बनना
चाही हो और
मां बन गई हो।
लेकिन महावीर
पिता नहीं बन
पाए।
और
इसलिए एक धारा
में
जिन्होंने
देखा, उन्होंने
बिलकुल इनकार
कर दिया कि यह
आदमी ऐसा था
ही नहीं, यह
बात ही झूठ
है। लेकिन
उन्होंने भी
तथ्य को इनकार
किया और
दूसरों ने
तथ्य को पकड़
लिया। और सत्य
को देखना बहुत
मुश्किल होता
है, तथ्य
आवरण बन जाता
है।
एक
छोटी कहानी
मुझे याद पड़ती
है।
एक
गांव के बाहर
एक नग्न मुनि
ठहरा हुआ है।
सम्राट की पत्नियां
उसे भोजन
कराने गांव के
बाहर जा रही
हैं। नदी पूर
पर है। कोई
पुल नहीं, कोई नाव
नहीं। तो वे
अपने पति से, सम्राट से
पूछती हैं, हम क्या
करें? कैसे
पार जाएं?
तो वे
कहते हैं, तुम जाकर
नदी से कहना
कि मुनि अगर
जीवन भर के
उपासे हों, तो मार्ग
मिल जाए। नदी
मार्ग दे दे, अगर उस पार
ठहरा हुआ मुनि
जीवन भर का
उपवास किया
हुआ है। तो
उन्होंने
जाकर कहा है।
और कहानी है
कि नदी ने
मार्ग दे
दिया!
वे
बहुत
बहुमूल्य
भोजन बना कर, बहुत
स्वादिष्ट
मिष्ठान बना
कर ले गई हैं।
मुनि के सामने
रख दिए हैं। मुनि
उनकी सारी थालियां
साफ कर गए हैं,
कुछ भी नहीं
बचा है। जब वे
लौटने को हुईं,
तब वे बड़ी
चिंतित हुई
हैं कि अभी तो
नदी को कह कर
हम लौट आए थे
कि मुनि अगर
जीवन भर के
उपासे हों...अब
क्या करेंगे?
तो वे मुनि
से पूछती हैं
कि अब हम क्या
करें? अभी
तो हम कह कर आ
गए थे कि आप
जीवन भर के
उपासे हों, लेकिन अब तो
यह नहीं कह
सकते। सामने
ही भोजन कर
लिया है।
तो
मुनि ने कहा, इससे क्या
फर्क पड़ता है?
तुम जाओ, नदी से वही
कहो कि अगर
मुनि जीवन भर
के उपासे हैं
तो नदी राह दे
दे!
उन
स्त्रियों को
बड़ी मुश्किल
हो गई।
क्योंकि भोजन
थोड़ा भी नहीं, बहुत
ज्यादा--पूरा
ही मुनि कर गए
हैं। कुछ छोड़ा
भी नहीं है
पीछे। और फिर
भी सहज कहते
हैं कि जाओ
नदी से कह दो!
बड़ी शंका में,
बड़े संदेह
में, नदी
से जाकर कहा
है। खुद पर
हंसी आती है
कि यह कैसे
संभव है अब।
लेकिन नदी ने
फिर मार्ग दे
दिया है!
तो वे
लौट कर अपने
पति से पूछती
हैं कि जाते
वक्त जो घटा, वह बहुत
छोटा चमत्कार
था; लौटते
वक्त जो घटा
है उस चमत्कार
का मुकाबला ही
नहीं। जाते
वक्त भी
चमत्कार हुआ
था कि नदी ने
मार्ग दिया, लेकिन वह
बहुत छोटा हो
गया अब। लौटते
में भी मिला!
और वे मुनि जो
कि सब खा गए
हैं और फिर भी
उपवासे हैं!
उनके
पति ने कहा, जो उपवासा
ही है, उसी
को हम मुनि
कहते हैं।
भोजन से उपवास
का कोई संबंध
ही नहीं।
असल
में भोजन करने
की तृष्णा एक
बात है, और
भोजन करने की
जरूरत बिलकुल
दूसरी बात है।
भोजन की
तृष्णा एक बात
है। वह न भोजन
करो तो भी हो
सकती है। और
भोजन करना और
उसकी जरूरत
बिलकुल दूसरी
बात है। वह करो,
तो भी हो
सकता है
तृष्णा न हो।
और जब तृष्णा
टूट जाती है, और सिर्फ
जरूरत रह जाती
है शरीर की, तो आदमी उपवासा
है। जैसा
मैंने सुबह
कहा, वह
भीतर वास किए
चला जाता है। शरीर
की जरूरत है, सुन लेता है,
कर देता है,
इससे
ज्यादा कोई
प्रयोजन नहीं
है। खुद कभी
भी उसने भोजन
नहीं किया है।
तो अगर
यह हो सकता है, तो फिर
महावीर पिता
हो सकते हैं।
पिता नहीं होंगे,
लड़की हो तो
भी। और पति
नहीं होंगे, पत्नी हो तो
भी।
तथ्य
अक्सर सत्य को
ढांक लेते
हैं। और हम सब
तथ्यों को ही
देख पाते हैं, फैक्ट्स को। और
हमारा खयाल
होता है कि
तथ्य बड़े
कीमती हैं। और
तथ्य के बहुत
पहलू हो सकते
हैं।
मैंने
सुना है, एक
अदालत में एक
मुकदमा चला।
एक आदमी ने एक
हत्या कर दी
है। और आंखों
देखे एक गवाह
ने कहा है कि
खुले आकाश के
नीचे यह हत्या
की गई है। जब
हत्या की गई, मैं मौजूद
था, और
आकाश में तारे
थे।
और
दूसरे आदमी ने
कहा है कि यह
हत्या मकान के
भीतर की गई
है। मैं मौजूद
था, चारों
तरफ दीवाल से
बंद परकोटा
था। द्वार पर
मैं खड़ा था, चारों तरफ
दीवाल थी, मकान
था, जिसके
भीतर हत्या की
गई है।
उस
न्यायाधीश ने
कहा, मुझे
बहुत मुश्किल
में डाल दिया
है तुमने। क्योंकि
एक कहता है, खुले आकाश
के नीचे! और
दूसरा कहता है,
मकान के
भीतर!
और एक
तीसरे, आंख
वाले गवाह ने
जिसने खुद ने
देखा था, उसने
भी कहा कि
दोनों ही ठीक
कहते
हैं--मकान अधूरा
बना था, अभी
सिर्फ
दीवालें उठी
थीं। ऊपर आकाश
में तारे थे।
छप्पर नहीं था
मकान पर। और
ये दोनों ही
ठीक कहते हैं।
आकाश में तारे
थे और खुले
आकाश के नीचे
ही हत्या हुई
है। और चारों
तरफ दीवाल थी
और मकान था, यह भी सच है।
जीवन
बहुत जटिल है।
और एक तो तथ्य
ही, एक तो
तथ्य ही हम
बहुत तरह से
देख सकते हैं,
और फिर
दूसरी गहराई
यह कि तथ्य
जरूरी नहीं कि
सत्य हो। सत्य
कुछ और भी हो
सकता है, जो
तथ्य से
विपरीत भी हो
सकता है।
लेकिन हम चूंकि
तथ्यों को ही
जानते हैं और
सत्यों से
हमारा कोई
संबंध नहीं, इसलिए अक्सर
तथ्यों को पकड़
लेते हैं और
तब मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
बड़ी कठिनाई
पैदा हो जाती
है। बहुत
कठिनाई पैदा
हो जाती है।
जैसे
कि एक उल्लेख
है, जैनों के
एक तीर्थंकर
हैं, श्वेतांबर
मानते हैं कि
वह स्त्री है
और दिगंबर
मानते हैं कि
वह पुरुष है।
ऐसा झगड़ा
कैसे हो सकता
है? ऐसा झगड़ा
भी हो सकता है
कि एक व्यक्ति
के संबंध में
यह झगड़ा
भी हो जाए दो
परंपराओं में
कि वह स्त्री
है या पुरुष? अब ये तो बड़ी
सीधी तथ्य की
बातें हैं।
इनमें भी झगड़े
हो सकते हैं
लेकिन, क्योंकि
तथ्य बड़ा झूठ
बोल सकते हैं
और जब कभी सत्य
विपरीत होता
है तो और
मुश्किल हो
जाती है।
यह हो
सकता है कि
जिस तीर्थंकर
के बाबत यह
खयाल है, वह
स्त्री
हो--शरीर से।
लेकिन
तीर्थंकर हो
ही नहीं सकता
कोई व्यक्ति,
जब तक कि
आक्रामक न हो,
जब तक कि
पुरुष-वृत्ति
न हो, जब तक
कि संघर्ष और
संकल्प न हो।
और यह भी हो सकता
है कि संघर्ष,
संकल्प और
आक्रमण ने
पूरे
व्यक्तित्व
को बदल दिया हो।
और यह भी हो
सकता है कि जब
वह संन्यास
लिया हो तो
स्त्री रहे
हों, और जब
मुक्त हुए हों
तब पुरुष हो
गए हों। इसलिए
मेरा मतलब समझ
लेना। यानी यह
पूरा का पूरा
फिजिकल ट्रांसफार्मेशन
भी संभव है।
ऐसा
अभी रामकृष्ण
के वक्त में
हुआ कि
रामकृष्ण ने
सारी साधनाएं
कीं, जितनी
साधनाएं थीं।
और सब मार्गों
से जाना चाहा,
और देखना
चाहा कि यह
मार्ग ले जा
सकता है कि नहीं!
तो उन्होंने
ईसाइयों की, सूफियों की,
वैष्णवों
की, भक्तिमार्गियों की, योगियों
की, हठयोगियों की, सब
तरह की
साधनाएं कीं।
उसमें
उन्होंने एक
सखी-संप्रदाय
की भी साधना की,
जिसमें
व्यक्ति अपने
को कृष्ण की
स्त्री मान लेता
है, परिपूर्ण
भाव से, सखी
हो जाता है, गोपी बन
जाता
है--पुरुष भी
हो, तो भी।
वह रात कृष्ण
की मूर्ति
लेकर साथ सोता
है--पति की तरह,
पत्नी
होकर।
तो
रामकृष्ण तो समग्रभाव
से स्वीकार कर
लिए, और कुछ
महीनों तक वे
स्त्री का भाव
और कामना किए।
बड़ी अदभुत
घटना घटी।
घटना यह घटी
कि रामकृष्ण
के उस साधना
के काल में
आवाज बदल गई, और स्त्री
की आवाज हो गई!
चाल बदल गई! वे
फिर पुरुष
जैसे न चल
सकते थे, वे
स्त्रियों
जैसे चलने
लगे! उनके
स्तन उभर आए।
और तब घबड़ाहट
हुई कि कहीं
उनका पूरा शरीर
तो रूपांतरित
नहीं हो जाएगा,
कहीं उनका
पूरा का पूरा
लैंगिक
रूपांतरण न हो
जाए! और
उन्हें रोका
उनके मित्रों
ने, भक्तों
ने। लेकिन वे
तो जा चुके थे,
वे कहते थे,
कैसा पुरुष?
कौन पुरुष?
कौन
रामकृष्ण? वह
तो अब नहीं
रहा।
साधना
पूरी हो जाने
पर भी छह
महीने तक उन पर
स्त्री के
चिह्न रहे। छह
महीने तक उनको
देख कर लोग
बड़े हैरान हो
जाते थे कि
इनको क्या हो
गया, यह क्या
हो गया? अगर
यह संभव है, तो फिर कोई
अगर उन दिनों
में उनको देखा
हो तो लिख
सकता है, वे
स्त्री थे।
अब
मेरा अपना
जानना ऐसा है
कि वह व्यक्ति
स्त्री ही रही
होगी, जब वह
साधना के जगत
में प्रविष्ट
हुई। लेकिन जो
साधना चुनी, वह पुरुष की
साधना है। और
उस साधना ने
पूरा का पूरा
रूपांतरण
किया होगा। न
केवल
व्यक्तित्व, बल्कि देह
भी। और अब तो
हम जानते हैं
वैज्ञानिक
ढंग से भी कि
देह बदल सकती
है, तीव्र
मनोभावों से
देह बदल सकती
है। और पूर्ण
मनोभाव से तो
पूरी देह बदल
सकती है। तो
जिन्होंने
तथ्य पकड़ा
होगा, उन्होंने
देखा होगा कि
स्त्री थी। तो
स्त्री रही
उनकी किताब
में। और
जिन्होंने
रूपांतरण देखा
होगा, उनके
लिए पुरुष हो
गई।
तथ्य
को एकदम से
अंधे की तरह
पकड़ लेना
खतरनाक है।
सत्य पर नजर
होनी चाहिए, तथ्य रोज
बदल जाते हैं।
यह तथ्य है कि
आप पुरुष हैं
या स्त्री हैं,
यह सत्य
नहीं है। सत्य
वह है, जो
नहीं बदलता।
पुरुष स्त्री
हो सकते हैं, स्त्रियां
पुरुष हो सकती
हैं। और बहुत
गहरे में कोई
आदमी अलग-अलग
नहीं होता, स्त्री भी
होती है भीतर,
पुरुष भी
होता है भीतर,
मात्रा में
फर्क होता है।
जिसको हम
पुरुष कहते
हैं, वह
साठ प्रतिशत
पुरुष, तो
चालीस
प्रतिशत
स्त्री होता
है। जिसको हम
स्त्री कहते
हैं, तो वह
साठ प्रतिशत
स्त्री और
चालीस
प्रतिशत पुरुष
होती है।
यह
मात्रा बहुत
कम भी हो सकती
है। यह बहुत
सीमांत पर भी
हो सकती है।
यह इक्यावन
प्रतिशत जैसी
स्थिति में भी
हो सकती है।
और तब जरा सा
फर्क चित्त का, और रूपांतरण
हो जाएगा। दो
प्रतिशत की
बदलाहट और
पूरा
व्यक्तित्व
बदल जाएगा।
लेकिन
मनुष्य-जाति
को हमेशा बाधा
पड़ी है इस बात
से कि वह
तथ्यों को
बिलकुल अंधे
की तरह जकड़ कर
पकड़ लेता है।
और तथ्य बड़ा
झूठ बोल सकते
हैं।
महावीर
के संबंध में
भी जो बातें
कही जाती हैं...अब
जैसे एक वर्ग
मानता है कि
वे वस्त्र
पहने हुए
हैं--चाहे वह
देवताओं का
दिया हुआ
वस्त्र हो, चाहे वह
आंखों से न
दिखाई पड़ने
वाला वस्त्र
हो--लेकिन वे
वस्त्र पहने
हुए हैं, नग्न
नहीं हैं। और
एक वर्ग मानता
है कि वे
बिलकुल नग्न
हैं। वस्त्र
उन्होंने छोड़
दिए हैं। किसी
तरह का वस्त्र
उनकी देह पर
नहीं है। और
ये दोनों
बातें एक साथ
सच हैं।
यह
बिलकुल सच है
कि महावीर ने
वस्त्र छोड़
दिए हैं, वे
बिलकुल नग्न
हो गए हैं।
लेकिन उनकी
नग्नता भी ऐसी
है कि उसे
ढांकने के लिए
और वस्त्रों
की जरूरत नहीं
है, वह खुद
ही वस्त्र है।
अब इसे
थोड़ा समझना
जरूरी होगा।
एक आदमी इस
भांति वस्त्र
पहन सकता है
कि नंगा हो।
एक आदमी इस भांति
के वस्त्र पहन
सकता है कि
नग्नता को प्रकट
करे। यानी
वस्त्र ढांकें
न, उघाड़ें। सच तो यह है
कि नंगा शरीर
इतना नंगा
नहीं होता, जितना
वस्त्र उसे
नंगा कर सकते
हैं।
जानवरों
को देख कर
हमें शायद ही
खयाल आता हो कि
वे नंगे हैं।
लेकिन आदमी और
स्त्रियां इस
तरह के वस्त्र
पहन सकते हैं
कि उनके
वस्त्र पहनने
से तत्काल
खयाल आए उनके नंगेपन
का। और आदमी
ने ऐसे वस्त्र
विकसित कर लिए
हैं कि वे
उसके शरीर को उघाड़ते
हैं, ढांकते नहीं। जो
वस्त्र ढांकता
है, उसे
कौन पसंद करता
है? जो
वस्त्र उघाड़ता
है! हां, इतना
उघाड़ता
है कि और उघाड़ने
की इच्छा जगे।
इतना नहीं
उघाड़ देता कि उघाड़ने की
इच्छा मिट
जाए। उघाड़ता
है और उघाड़ने
की इच्छा जगाता
है। तो ऐसा
व्यक्ति
वस्त्र पहने
हुए भी नंगा
है।
ठीक
इससे उलटा भी
हो सकता है, कि एक
व्यक्ति नंगा
खड़ा हो गया है
और इतना उघाड़ा
हो गया है कि उघाड़ने को
भी कुछ नहीं
बचा। उघाड़ने
की कोई इच्छा
भी नहीं है
उसको। उघड़े
हुए होने की
कोई कामना भी
नहीं है। कोई
उघाड़ कर देखे,
यह आमंत्रण
भी नहीं है।
तो उसकी
नग्नता भी वस्त्र
बन जाए। जब
कोई वस्त्रों
में नंगा हो
सकता है, तो
कोई नग्नता
में वस्त्रों
में क्यों
नहीं हो सकता
है?
महावीर
बिलकुल नग्न
थे, लेकिन
उनकी नग्नता
किसी को भी
नग्नता जैसी
नहीं लगी है।
इसलिए यह
स्वाभाविक था
यह कहानी का
बन जाना कि
जरूर वे कोई
ऐसे वस्त्र पहने
हुए हैं जो
दिखाई नहीं
पड़ते, जो
देवताओं के
दिए हैं, देवदूत
से हैं।
देवताओं ने
ऐसे वस्त्र दे
दिए हैं उनको,
जो दिखाई भी
नहीं पड़ते और
फिर भी उनकी
नग्नता नहीं
मालूम पड़ती।
तो कहीं कुछ
अदृश्य
वस्त्र उनको
छिपाए हुए हैं।
यह धारणा पैदा
हो जानी
बिलकुल
स्वाभाविक थी।
पर
महावीर निपट
नग्न हैं। असल
में निपट नग्न
आदमी ही
नग्नता से
मुक्त हो सकता
है। वस्त्रों में
ढंके हुए
आदमी का
नग्नता से
मुक्त होना
बड़ा मुश्किल
है, बड़ा कठिन
है। क्योंकि
वस्त्रों में
जिसे वह ढांकता
है, वह
उसकी ढांकने
की चेतना
स्पष्ट है। और
जिसे हम ढांकते
हैं सचेतन, वह उघड़
जाता है। जिसे
हम चेतन रूप
से ढांकते
हैं, हमारी
चेतना, हमारी
कांशसनेस उस
अंग को उघड़ा
हुआ अंग बना
देती है।
क्योंकि जब हम
चेतन होकर उसे
ढांकते
हैं, तो
चेतन होकर
दूसरा उसे उघड़ा
हुआ देखना
चाहता है।
सिर्फ
नग्न आदमी ही नंगेपन से
मुक्त हो सकता
है। अब यह बड़ी
उलटी बात मालूम
पड़ेगी।
वस्त्र से
ढंका हुआ आदमी
कैसे नंगेपन
से मुक्त होगा? कहीं न कहीं,
कहीं न कहीं,
कहीं न
कहीं--कठिन है
वह। संभव है, क्योंकि
बुद्ध या
क्राइस्ट
कपड़े पहने हुए
हैं। संभव तो
है, लेकिन
बहुत कठिन है,
एकदम कठिन
है।
संभव
इसलिए है कि
जब मैं वस्त्र
पहनता हूं तो मैं
दो कारणों से
पहन सकता हूं।
कारण मेरे आंतरिक
हो सकते हैं, कि कुछ है, जो मैं
छिपाना चाहता
हूं; कुछ
है, जो मैं
नहीं दिखाना
चाहता; या
कुछ है, जो
मैं भयभीत हूं
कि दिख न जाए।
कारण मेरे आंतरिक
हो सकते हैं
वस्त्र पहनने
में। कारण
मेरे एकदम
बाह्य भी हो
सकते हैं कि
अकारण
तुम्हें वह क्यों
देखना पड़े, जो तुम नहीं
देखना चाहते
हो। तब मुझसे
कोई प्रयोजन
नहीं रह गया
वस्त्रों का।
तब एक अर्थ
में मैं
वस्त्र नहीं
पहने हुए हूं,
तुम्हें
मैंने वस्त्र
पहना दिए।
ये
बुद्ध या
क्राइस्ट
जैसे लोग, जो वस्त्र
पहने हुए हैं,
ये भी नग्न
होने की उतनी
ही हैसियत
रखते हैं, जितनी
महावीर। इनके
भीतर कुछ
छिपाने को
नहीं है।
लेकिन हो सकता
है दूसरा
नग्नता न
देखना चाहे, तो दूसरे पर
आक्रमण भी
क्यों करना!
तो दूसरे की
आंख पर
उन्होंने
वस्त्र डाला
हुआ है, अपने
शरीर पर नहीं।
और दूसरे की
आंख पर भी वस्त्र
डालने का सबसे
सरल उपाय यही
है कि अपने शरीर
पर डाल दो।
क्योंकि
मैंने सुना है
कि जब सबसे
पहले जमीन पर
कांटों ने
तकलीफ दी, तो एक
सम्राट ने
बुद्धिमान
लोगों को बुला
कर पूछा कि
क्या करें? कैसे बचें?
तो बुद्धिमानों
ने कहा कि एक
काम करें, सारी पृथ्वी
को चमड़े से
ढंक दें।
इसलिए कि हम चमड़े
पर चलें और
कांटे न गड़ें।
सम्राट ने कहा,
इतना चमड़ा
कहां से लाओगे?
पृथ्वी
बहुत बड़ी है।
बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए
बुद्धिमान
लोग। बहुत सोचा।
बुद्धिमानों
को बड़ी चीजें
जल्दी सूझ जाती
हैं, छोटी
चीजों से चूक
जाते हैं। तब
राजा के एक नौकर
ने कहा कि आप
भी कैसी
पागलपन की
बातों में पड़े
हैं! और ये
इतने-इतने बड़े
बुद्धिमान
होकर बैठ कर
सोच रहे हैं।
मैं तो बोलता
नहीं इस डर से कि
मैं गंवार और
कैसे बोलूं!
लेकिन यह
पागलपन की बात
है, अपने
पैर को क्यों
नहीं चमड़े से
ढंका जा सकता!
अपने पैर को चमड़े
से ढंक लें, सारी पृथ्वी
पर चमड़ा है।
आप जहां जाओगे
वहां चमड़ा
होगा। इस
पंचायत में
क्यों पड़ते
हैं आप कि
सारी पृथ्वी
को ढंकें!
तो
आपकी आंख पर
वस्त्र डालने
की सबसे तरकीब
अच्छी, बेहतर
यही है कि
अपने शरीर पर
वस्त्र डाल
लो। और क्या
उपाय सरल हो
सकता है! सबकी
आंख पर डालने
जाओ तो बहुत
बड़ी पृथ्वी है
और बड़ी मुश्किल
पड़ जाए। तो
कुछ लोग इसलिए
वस्त्र पहन सकते
हैं कि वे
आपकी आंख पर
वस्त्र डाल
देना चाहते
हैं, क्योंकि
अभी आपकी आंख
नग्न को देखने
की हिम्मत
नहीं जुटा
सकती।
लेकिन यह
कठिन है।
महावीर की
नग्नता पर
इसीलिए दो मत
खड़े हो गए।
महावीर
निश्चित ही
नग्न हैं।
इसमें कोई
दूसरा विकल्प
नहीं है।
लेकिन बहुत
लोगों को
महावीर
अत्यंत
वस्त्र वाले
मालूम पड़े होंगे।
मेरे
एक मित्र हैं, वे विंध्य
प्रदेश के
शिक्षा
मंत्री थे। एक
अमरीकन
मूर्तिकार खजुराहो
देखने आया। तो
भारतीय सरकार
ने उन मेरे
मित्र को लिखा
कि आप विशेष
रूप से ले
जाएं मूर्तिकार
को--वे विंध्य
प्रदेश के
मंत्री थे--तो
उन्हें ठीक से
खजुराहो
दिखाएं। वे
मेरे मित्र
बड़े परेशान
हुए। वे
खजुराहो के
पास के ही रहने
वाले हैं, निकट
दस-बीस मील
दूर रहते हैं।
खजुराहो को
बचपन से जानते
हैं। वे बहुत
भयभीत हुए कि
वह अमरीकन
मूर्तिकार
क्या विचार
लेकर जाएगा!
और वह सिर्फ
खजुराहो देख
कर सीधा वापस
लौट जाने को
है। सीधा
दिल्ली से
खजुराहो, और
वापस। तो वह
भारतीय
संस्कृति के
संबंध में क्या
सोचेगा कि ऐसे
मंदिर! और ऐसी नग्न
मूर्तियां!
ऐसे अश्लील
दृश्य!
तो वे
बहुत डरे हुए
हैं, बड़े
भयभीत हैं और
बड़ी तैयारी
करके गए हैं
कि यह जवाब
दूंगा, यह
जवाब दूंगा, यह जवाब
दूंगा, वह
पूछेगा तो इस
तरह समझाएंगे।
बता देंगे कि
यह कोई
भारतीय-धारा
की मूल शाखा
नहीं है, यह
किनारे से कुछ
विक्षिप्त लोगों
की, कुछ
पागलों की, कुछ नासमझों
की, कुछ
भोगियों की, कुछ
तांत्रिकों
की, वाममार्गियों की--ये मंदिर
हैं। यह मंदिर
कोई ऐसा मंदिर
नहीं है कि
भारत का मंदिर
है। भारत का
मंदिर ही नहीं
है एक अर्थों
में यह।
और
भारत के जो, भारत के मन
की जो मूल
धारा है, वह
तो यही कहती
है--टंडन कहते
थे, पुरुषोत्तमदास टंडन, कि
उसको मिट्टी
से ढांक
दो खजुराहो को,
उसको उघाड़ो
ही मत! गांधीजी
तक राजी थे कि
उसको ढंकवा
दो! वह तो अगर
रवींद्रनाथ
बीच में न कूद
पड़ते तो वह तो
ढंक ही जाता
मंदिर। तो मूल
धारा तो गांधी
और पुरुषोत्तमदास
टंडन की ही है।
वे ही ठीक कह
रहे हैं।
तो वे
सब समझ-बूझ कर
गए हैं, बड़ी
तैयारी करके
गए हैं। लेकिन
वह आदमी कुछ
पूछता ही
नहीं। एक-एक
मूर्ति
गुजरती जाती
है, एकदम
नग्न
मूर्तियां, एकदम मैथुन
चित्र। और वे
तैयारी में
जुटे हैं कि
वह पूछे, लेकिन
वह कुछ पूछता
ही नहीं। वह
मंत्रमुग्ध
देखता है, आगे
बढ़ जाता है।
वह पूरे मंदिर
में घूम कर
निकल आया। वह सीढ़ियां
उतर आया, वह
गाड़ी में चढ़ने
लगा। उसने कुछ
कहा ही नहीं
कि अश्लील हैं,
कि भद्दी
हैं, वह तो
ऐसा भावविभोर
है कि कहीं और
खो गया है।
लेकिन
मित्र ने कहा
कि फिर भी वह
खयाल तो ले ही जाएगा--न
कहे, शायद
शिष्टता, शिष्टाचार
के कारण न
कहता होगा। तो
उन्होंने कहा,
सुनिए, आप
यह मत सोचिए
कि ये अश्लील
मूर्तियां
कोई भारत की
प्रतीक हैं।
उसने
कहा, अश्लील!
तो मुझे फिर
से देखना
पड़ेगा।
क्योंकि इतनी
सुंदर
मूर्तियां
मैंने कभी
देखी नहीं। तो
उनके सौंदर्य
से मैं ऐसा
अभिभूत हो गया
कि मैं नहीं
देख पाया कि
वे अश्लील भी
थीं। फिर मुझे
वापस ले चलो, अब मैं गौर
से देखूंगा कि
अश्लील वे
कहां हैं? क्योंकि
मैं तो अभिभूत
था। इतना
अभिभूत था उनके
सौंदर्य से, उनकी
लयबद्धता से,
और उनके
चेहरों पर
प्रकट ज्योति
से कि मैं नहीं
देख पाया कि
वे नंगी हैं।
मित्र तो बहुत
घबड़ाए कि
मूर्तियां
नंगी हैं, आप
नहीं देख पाए!
हो
सकता है, महावीर
के पास बहुत
लोग आए होंगे,
और महावीर
के चेहरे में
ऐसे डूब गए
होंगे, और
महावीर की
आंखों में, कि हो सकता
है लौट गए हों
और पता न चला
हो कि महावीर
नंगे थे।
क्योंकि मनुष्य
में हमें वही
दिखाई पड़ता है,
जो उसमें
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है। अगर किसी व्यक्ति
में तुम्हें
उसका सेक्स
दिखाई पड़ता है,
तो वह उसमें
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है, तो
दिखाई पड़ता
है। अगर उससे
बड़ी घटनाएं
उसके जीवन में
घट गई हों, और
उससे बड़ी
रोशनी उसमें
निकलने लगी हो...।
तो हो
सकता है, सैकड़ों लोग महावीर
को देख कर गए
हों, और
उन्होंने
गांव में खबर
जाकर की हो कि
कौन कहता कि
महावीर नंगे
हैं? फिर
से देखना
पड़ेगा। जरूर
कोई अदृश्य
वस्त्र उन्हें
घेरे हैं।
खयाल तो आता
है कि कुछ
नंगे थे, देह
पर कुछ था
नहीं, लेकिन
फिर भी नंगे
थे, ऐसा
दिखाई नहीं
पड़ा। ऐसी चोट
नहीं हुई कि
नंगे हैं। कोई
अदृश्य
वस्त्र
उन्हें घेरे
होंगे। कोई
देवताओं के
वस्त्र
उन्हें घेरे
हैं, कि वे
नग्न हैं और
फिर भी नग्न
नहीं मालूम
पड़ते, नग्नता
छिपी है। और
तब कहानियां
बनती हैं। और तब
तथ्य टूटते
चले जाते हैं
और सत्य देखना
मुश्किल हो
जाता है।
ये सब
बातें इसलिए
कह रहा हूं कि
हमारे मस्तिष्क
में एक बात
बहुत साफ हो
जाए कि तथ्यों
पर जोर सिर्फ
नासमझ देते
हैं, समझदार
का जोर सदा
सत्य पर है।
और सत्य कुछ
ऐसी चीज है कि
तथ्य के भीतर
से आप देख
सकते हैं, लेकिन
तथ्य को पकड़
लें तो कभी नहीं
देख सकते। फिर
आप वहीं रुक
जाते हैं।
दरवाजा इस
कमरे के भीतर
लाता है, लेकिन
छोड़ दें तो! और
दरवाजे को पकड़
लें तो? तो
आप द्वार पर
रह जाते हैं, आप कमरे के
भीतर नहीं
आते।
तथ्य
के सब द्वार
सत्य में जाते
हैं, लेकिन जो
तथ्य को पकड़
लेता है, वह
वहीं अटक कर
रह जाता है।
और द्वार मकान
नहीं है, सिर्फ
मकान में आने
की खाली जगह
है। तथ्य सत्य
नहीं है, सिर्फ
ओपनिंग है, जहां से आप
जा सकते हैं।
लेकिन अगर
वहीं रुक गए, तो सदा के
लिए अटक सकते
हैं। और हमारी
आंखें तथ्यों
को ही देखती
हैं।
असल
में मैं
पदार्थवादी
उसको कहता हूं, जो तथ्यों
को ही देखता
है। मेरी
दृष्टि में मैटीरियलिज्म
का और कोई
मतलब नहीं
है--जो तथ्यों
को ही देखता है।
जो कहता है, इतना रहा
तथ्य, बाकी
सब फिक्शन है,
यह फैक्ट
है। तथ्य को
गिन लेता है
और जोड़ बना लेता
है और कहता है,
इसके आगे
कुछ भी नहीं।
लेकिन
मजे की बात यह
है कि तथ्य
सत्य की सबसे
बाहरी परिधि
है, सबसे
बाहरी परकोटा
है। जो भी है, उसके भीतर
है। और जितने
हम भीतर
जाएंगे, उतना
तथ्य छूटता
चला जाएगा, और सत्य
निकट आता
जाएगा।
और
इसीलिए सत्य
को कहने की
भाषा तथ्य की
नहीं हो पाती।
इसलिए सत्य को
कहने के लिए
नई भाषा खोजनी
पड़ती है, जो
मिथ की है।
सत्य को तथ्य
की भाषा में
नहीं कहा जा
सकता। कहें तो
इतिहास बन
जाता है।
अब
जैसे कि बड़े
मजे की बात है, महावीर कभी
बूढ़े नहीं
हुए! न कोई और
दूसरा तीर्थंकर
कभी बूढ़ा हुआ!
न बुद्ध कभी
बूढ़े हुए, न
राम, न
कृष्ण! इनकी
कोई बुढ़ापे की
मूर्ति आपने
देखी कि ये
बूढ़े हो गए
हों? यह
क्या मामला है?
क्या ये लोग
जवान ही रह गए?
जवानी के
आगे नहीं गए? गए तो जरूर
होंगे। यह तो
असंभव है कि न
गए हों। तथ्य
तो यही होगा
कि महावीर को
बूढ़ा होना
पड़ेगा। बूढ़े
हुए ही होंगे।
जब मरना पड़ता
है तो बूढ़ा
होना पड़ेगा।
लेकिन
सत्य यह कहता
है कि वह आदमी
कभी बूढ़ा नहीं
हुआ होगा। जो
उसने पा लिया
है, वह इतना
युवा है, वह
इतना सदा जीवन
है कि वहां
कैसा बुढ़ापा!
तो जिन लोगों
ने तथ्य पर
जोर दिया होता,
वे महावीर
को बूढ़ा अंकन
भी करते।
लेकिन सत्य पर
जिन्होंने
आंख रखी है, तो फिर मिथ
बनानी पड़ी कि
महावीर कभी
बूढ़े नहीं
होते। वे कभी
बूढ़े ही नहीं
होते।
अब कभी
आपने खयाल
किया कि ये
कोई भी कभी
बूढ़े नहीं हुए? यह युवा
होने की, यह
संभावना कहां
है? तथ्य
में तो नहीं
है, इतिहास
में तो नहीं
है, लेकिन
मिथ में है।
और
इसलिए मैं
कहता हूं, इतिहास से
ज्यादा गहरा
घुस जाती है माइथॉलाजी।
उसकी पकड़
ज्यादा गहरी
है। क्योंकि
वह उन सत्यों
को--लेकिन
उनको कहने के
लिए उसे फैक्ट
छोड़ देने पड़ते
हैं, और
फिक्शन और
कहानी गढ़नी
पड़ती है। तो
वह कहेगी कि
नहीं-नहीं, कृष्ण कभी
बूढ़े नहीं
होते। बच्चे
होते हैं, जवान
होते हैं, बस
फिर ठहर जाते
हैं। फिर बूढ़े
नहीं होते।
असल
में जो चित्त
सदा नया है, और जो चित्त
सत्य को जान
गया है, वह
कैसे वृद्ध
होगा? वह
कैसे क्षीण
होगा? वह
क्षीण होता ही
नहीं। वह सदा
के लिए उस
हरियाली को पा
गया, जो अब
कभी नहीं
मिटती। इसलिए
युवा होने तक
तो यात्रा है
उसकी। यानी जब
तक कि वह सत्य
पाकर युवा
नहीं हो गया, तब तक तो वह
होता है।
बच्चा होता है,
पैदा होता
है, बड़ा
होता है।
लेकिन युवा
जैसे हो जाता
है, जैसे
वह पहुंच गया
उस बिंदु पर
जहां सत्य पा
लिया जाता
है--जो सदा
जवान है, जो
कभी बूढ़ा नहीं
होता--वैसे ही
फिर उसकी यात्रा
शरीर की रुक
जाती है।
शरीर
की तो नहीं
रुकती, शरीर
तो बूढ़ा होगा
और मरेगा, लेकिन
हम उस तथ्य को
इनकार कर देते
हैं। हम कहते
हैं, वह
तथ्य गौण है, उसका कोई
मतलब नहीं है।
वह आदमी भीतर
जवान है, वह
जवान ही रह
गया, वह अब
कभी बूढ़ा नहीं
होता।
इसीलिए
बहुत से इन
अदभुत लोगों
की मृत्यु का
कोई उल्लेख
नहीं है।
मृत्यु का ही
उल्लेख नहीं
है कि वे मरे
कब। और वह
उल्लेख
इसीलिए नहीं
है कि जन्म तक
तो बात ठीक है, मरना उनका
होता नहीं।
तथ्य में तो
वे मरे हैं।
इसलिए
जैसे-जैसे
दुनिया
ज्यादा
तथ्यगत होती गई, वैसे-वैसे
हमारे पास
रिकार्ड
उपलब्ध होने
लगा। जैसे महावीर
का रिकार्ड है
हमारे पास कि
वे कब मरे, लेकिन
ऋषभ का नहीं
है रिकार्ड
उपलब्ध।
दुनिया और भी
मिथ के ज्यादा
करीब थी। अभी
लोग तथ्य पर
जोर ही नहीं
दे रहे थे।
राम का
कोई रिकार्ड
नहीं है वे कब
मरे। इसका कारण
यह नहीं है कि
वे न मरे
होंगे।
जिन्होंने सारी
जिंदगी की
कहानी लिख दी, वे इस एक बात
को भर चूक गए!
जो कि बड़ी
भारी घटना रही
होगी मरने की!
यानी जन्म का
सब ब्यौरा
लिखते हैं, बचपन का
ब्यौरा लिखते
हैं--शादी है, विवाह है, लड़ाई है, झगड़ा
है--सब है। सब
आता है, सब
जाता है, सिर्फ
एक बात चूक
जाते हैं कि
यह आदमी मरा
कब!
नहीं, मिथ उसको
इनकार कर देती
है। वह कहती
है, ऐसा
आदमी मरता
नहीं, ऐसा
आदमी परम जीवन
को उपलब्ध हो
जाता है, इसलिए
मृत्यु की बात
ही मत लिखो।
इसलिए
इस मुल्क में
हम जन्म-दिन
मनाते हैं, पश्चिम में
मृत्यु-दिन।
पश्चिम में जो
मरने का दिन
है, वह बड़ी
कीमत रखता है।
पूरब में जो
जन्म का दिन
है, वह बड़ी
कीमत रखता है।
और उसका कारण
है।
उसका
कारण है कि हम
जन्म को
स्वीकार करते
हैं, हम
मृत्यु को
इनकार ही कर
देते हैं।
पश्चिम में
जन्म जितना
स्वीकृत है, मृत्यु उससे
ज्यादा
स्वीकृत है।
क्योंकि जन्म
तो पहले हो
चुका, मृत्यु
तो बाद में
हुई है। जो
बाद में हुआ
है, ज्यादा
ताजा है, ज्यादा
कीमती है।
हम
जन्म-दिन की
ही बात किए
चले जाते हैं।
और उसका कारण
है कि हम जन्म
को तो मानते
हैं--बर्थ है, मृत्यु नहीं
है। जीवन है, मृत्यु नहीं
है।
ये
सारे तथ्य अगर
तथ्य की तरह पकड़े जाएं, तो मुश्किल
हो जाती है।
लेकिन अगर हम
इनकी गहराई
में उतर जाएं
और इनके मिथ
की जो कोड लैंग्वेज
है, जो
गुप्त भाषा है
उसे खोल दें, तो बड़े
रहस्य के
पर्दे उठने
लगते हैं।
जैसे
अब गांधी की
हमने मरण-तिथि
मनानी शुरू की
है, वह
पश्चिम की नकल
है। अगर
महावीर जैसे
व्यक्ति का हम
मृत्यु-दिन मनाते
भी हैं, तो
भी उसे
मृत्यु-दिवस
नहीं कहते, उसे
निर्वाण-दिवस
कहते हैं।
मरता नहीं है
वह, सिर्फ
निर्वाण को
उपलब्ध हो
जाता है। उसको
भी मृत्यु-दिवस
नहीं कहते
हैं। उसको भी
कहेंगे निर्वाण-दिवस।
मरता नहीं है,
और परम जीवन
में चला जाता
है।
निर्वाण-दिवस
का मतलब हुआ
कि छोटे जीवन
से और बड़े
जीवन में चला
जाता है।
लेकिन
इधर जिन लोगों
ने तथ्यों पर
बहुत सी व्यर्थ
की बातों में
उलझा दिया है
कि जिसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
और उनके समक्ष
वे लोग जो निरंतर
सत्य पर जोर
देते हैं, आज इस तरह
हारे हुए खड़े
हैं कि उसे भी
समझना बड़ा बेबूझ
है। और वे
हारे इसलिए
खड़े हुए हैं
कि वे खुद ही
तथ्य से अनुगत
हो गए हैं, वे
खुद ही तथ्य
से हार गए हैं,
और उनको भी
लग रहा है कि
कोई बड़ी
भूल-चूक हो गई
है, कि
तथ्य का हिसाब
नहीं रहा, यह
बड़ी भूल-चूक
हो गई।
मेरी
दृष्टि में, तथ्यों का
क्या मूल्य है?
अगर वे सत्यों
को बता पाएं
तो ठीक, अन्यथा
कोई भी मूल्य
नहीं है।
शाश्वत की तरफ
उनसे इशारा हो
जाए तो ठीक, अन्यथा कोई
भी मूल्य नहीं
है। मील के
पत्थर हैं, जो हमें
कहते हैं और
आगे चले जाओ।
लेकिन कुछ नासमझ
मील के
पत्थरों को
पकड़ कर रुक
जाते हैं। मील
के पत्थरों का
क्या मूल्य है,
सिवाय इसके
कि वे कहें और
आगे, और
आगे, और
आगे!
तथ्य
भी मील के
पत्थर
हैं--सत्य की
यात्रा में।
और
इसलिए, अगर
महावीर के
जीवन की
प्रारंभिक
सारी घटनाओं
को उनकी गहराई
में, उनकी
खोल को छोड़ कर,
उनके इसेंस
में और सार
में पकड़ लिया
जाए, तो ही
महावीर का
उदघाटन होगा।
और तो ही हम
बाद में, महावीर
क्या हो पाते
हैं, कैसे
हो पाते हैं, उसको हम समझ
पाएंगे। उसको
समझने की
दृष्टि मिल
सकती है।
आज
इतना ही।
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