प्रश्न—सार:
1— ओशो,
मैंने उन्हें
देखा था खिले
फूल की तरह
अस्तित्व
की हवा के संग
डोलत हुए
आनंद की
सुगंध लुटाते
हुए सदा
सब के
दिलों में
प्रेम का रस
घोलत हुए
लवलीन हो
गए थे वे
परमात्मा—भाव
में
था उनमें
वही ज्योति—रूप
व्यक्त हो
उठा
सारल्य
में समा गया
बुद्धत्व दौड़
कर
ऐसा लगा
भगवान स्वयं
भक्त हो उठा
लेकिन वे
भक्ति में
निमग्न एक
नृत्य–गीत थे
यो मोद भरे
छलकते हुए
हसीन मौन थे
वे जोड़ ही
गए है महोत्सव
में बहुत कुछ
मैं कैसे
कहूं स्वामी
देवतीर्थ
भारती कौन थे।
2—ओशो,
दशहरे
के दिन मेरी
बेटी की शादी
तय हुई थी। सब
तैयारियां हो
चुकी थी।
कार्ड बांट
दिए गए थे और
लड़के ने तीन
दिन पहले
दूसरी लड़की
से शादी कर
ली। मैंने तो
इस दुर्भाग्य
के पीछे
सौभाग्य ही
देखा। मगर
मेरी बेटी के
लिए इसमें कौन
सा रहस्य
छिपा है?
3—ओशो,
आप जो कहते
है वह न मो मैं
समझता ही हूं
और न सुनता ही
हूं। मैं क्या
करू?
पहला
प्रश्न:
ओशो,
मैंने उन्हें
देखा था खिले
फूल की तरह
अस्तित्व
की हवा के संग
डोलत हुए
आनंद की
सुगंध लुटाते
हुए सदा
सब के
दिलों में
प्रेम का रस
घोलत हुए
लवलीन हो
गए थे वे
परमात्मा—भाव
में
था उनमें
वही ज्योति—रूप
व्यक्त हो उठा
सारल्य
में समा गया
बुद्धत्व
दौड़ कर
ऐसा लगा
भगवान स्वयं
भक्त हो उठा
लेकिन वे
भक्ति में
निमग्न एक
नृत्य–गीत थे
यो मोद भरे
छलकते हुए
हसीन मौन थे
वे जोड़ ही
गए है महोत्सव
में बहुत कुछ
मैं कैसे
कहूं स्वामी
देवतीर्थ
भारती कौन थे।
योग
प्रीतम, जीवन
एक रहस्य है
जिसका कोई
उत्तर नहीं है।
जीवन प्रश्न
नहीं है कि
उसका उत्तर हो
सके। प्रश्न
तो सब बचकाने
हैं— और उत्तर
भी। प्रश्न और
उत्तर तो
बच्चों के खेल
हैं। जीवन न
तो प्रश्न है
न उत्तर है, दोनों के
पार, दोनों
के अतीत— बस है।
दर्शन
और धर्म का
यही भेद है। दर्शनशास्त्र
इस भांति में
जीता है कि
जीवन एक प्रश्न
है जिसका
उत्तर खोजा जा
सकता है; और
धर्म इस अनुभव
में कि जीवन
एक रहस्य है, उसे जीया तो
जा सकता है
लेकिन उसका
उत्तर नहीं
खोजा जा सकता।
मैं
कौन हूं इसका
कोई भी उत्तर
नहीं है।
यद्यपि मैं
कौन हूं एक
अत्यंत प्राचीन
ध्यान की विधि
है।
महर्षि
रमण ने उसे
पुनरुज्जीवित
किया था। और
महत्वपूर्ण
विधि है।
लेकिन इस
भ्रांति में
मत रहना कि
मैं कौन हूं मैं
कौन हूं मैं
कौन हूं— ऐसा
पूछते—पूछते
एक दिन उत्तर
उपलब्ध हो
जाएगा। नहीं, ऐसा
पूछते— पूछते
एक दिन प्रश्न
खो जाएगा। ऐसा
पूछते—पूछते
एक दिन पूछना
बंद हो जाएगा।
एक सन्नाटा
उतर आएगा। एक
शून्य घेर
लेगा बाहर और
भीतर, न
पूछना बचेगा न
पूछने वाला
बचेगा, तब
जो है— वही है।
तत्वमसि! वही
तू है! वही मैं
हूं! वही सब
हैं! उस वही को
ही परमात्मा
कहा है।
परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है।
परमात्मा इस अस्तित्व
के रहस्य का
नाम है।
परमात्मा इस
बात को ही
कहने का एक
ढंग है कि जीवन
एक
अनिर्वचनीय
रहस्य है। एक
फूल है जिसका
सौंदर्य तो जी
सकते हो, एक
गीत है जिसे
गुनगुना तो
सकते हो— मगर
जिसका अर्थ
कभी न जान
पाओगे। फूल का
सौंदर्य तो
अनुभव कर सकते
हो, लेकिन
अगर कोई पूछे
कि सौंदर्य
क्या है तो
निरुत्तर हो
जाओगे। जितना
ही पूछेगा कोई
जोर से उतनी
ही मुश्किल में
पड़ जाओगे।
धीरे— धीरे शक
ही होने लगेगा
कि सौंदर्य है
भी या नहीं!
क्योंकि जब
उत्तर नहीं
मिलता तो
संदेह पैदा
होता है। अगर
उत्तर मिल जाए
तो संदेह शांत
हो जाए। जितना
ही उत्तर नहीं
मिलता उतना ही
संदेह सघन
होता है, उतनी
ही बेचैनी
बढ़ती है। एक
प्रश्न हजार
प्रश्नों में
टूट जाता है; जैसे दर्पण
कोई गिरा दे
पत्थर पर और
चटक जाए हजार
टुकड़ों में।
प्रश्न में से
प्रश्न
निकलते आते
हैं। इसलिए
दर्शनशास्त्र
फैलता जाता है,
फैलता जाता
है; उसका
कोई अंत नहीं,
कोई ओर—छोर
नहीं। और
समाधान मिलता
नहीं।
समाधान
तो उन्हें
मिलता है जो
इस सत्य को
पहचान लेते
हैं कि हम
जीवन को जान
कैसे सकेंगे—
हम स्वयं जीवन
हैं! जानने
वाले में और
जो जाना जाता
है उसमें कुछ
फासला तो
चाहिए। फासला
हो तो शान घट
सकता है। ज्ञाता
और ज्ञेय में
फासला हो तो
ज्ञान घट सकता
है। नहीं तो
शान घटेगा कहा? अंतराल
ही नहीं है।
ज्ञाता ही
ज्ञेय है। हम
ही हैं जानने
वाले और हम ही
हैं जिनको
जाना जाना है,
इंच भर का
अंतर नहीं है।
अंतर ही नहीं
है तो ज्ञान
कहां घटेगा?
इसलिए
परम ज्ञान की
पहली सीढ़ी है
इस बात को
जानना कि मैं
नहीं जानता
हूं। और ज्ञान
की अंतिम सीढ़ी
है इस बात को
जानना कि जाना
ही नहीं जा
सकता है—जीया
जा सकता है, हुआ
जा सकता है।
इसलिए तो
निरंतर तुमसे
कहता हूं :
मस्तिष्क से
नहीं, हृदय
से संबंध जोड़ो
अस्तित्व का।
मस्तिष्क सदा
प्रश्न पूछता
है; हृदय
प्रश्न नहीं
पूछता, हृदय
छलांग लगा
लेता है।
मस्तिष्क
पूछता है, प्रेम
क्या है? मस्तिष्क
पूछता ही रहता
है, प्रेम
क्या है? और
हृदय तो प्रेम
की पगडंडी पर
गीत गाता हुआ
चल पड़ता है।
मस्तिष्क
बैठा ही रहेगा,
सोचता ही
रहेगा। और
हृदय ने तो
यात्रा भी
शुरू कर दी और
यात्रा पूरी
भी कर लेगा।
जो
लोग मस्तिष्क
के ही साथ
बैठे रहेंगे, उनके
जीवन में
यात्रा नहीं
होती, गति
नहीं होती, प्रवाह नहीं
होता, उनके
प्राण
गत्यात्मक
नहीं होते। वे
मुर्दा हैं।
योग
प्रीतम, तुम्हारा
प्रश्न
महत्वपूर्ण
है। तुम पूछते
हो. ' मैं
कैसे कहूं
स्वामी देवतीर्थ
भारती कौन थे!'
कोई
नहीं कह सकता।
देवतीर्थ
भारती कौन थे, यह
तो बात और हुई;
योग प्रीतम
कौन है, यह
भी तुम नहीं
कह सकते।
स्वयं के
संबंध में भी
कुछ नहीं कहा
जा सकता तो
अन्य के संबंध
में क्या कहा
जा सकेगा।
ऐसा
भी कुछ है जो
कहने के पार
है। और उसी
में जीवन की
गरिमा है, गौरव
है। ऐसा भी
कुछ है जो
शब्दातीत है।
ऐसा भी कुछ है
जिसका अनुवाद
नहीं हो सकता—
भाषा में। वह
भाव ही है और
भाव ही रहता
है। सुगंध ही
है, उस पर
मुट्ठी
बाधोगे, चूक
जाओगे। भरने
दो नासापुटों
को। डोलो उसके
साथ, मदमस्त
होकर डोलो।
बुद्धत्व
ऐसी ही घटना है।
इस जगत में
सबसे बड़ा फूल
है वह— चैतन्य
का फूल है; सहस्रदल
कमल है। उससे
जो सुगंध उठती
है उसे कोई
अपनी
मुट्ठियों
में नहीं भर
सकता, न
तिजोडियो में
बंद कर सकता
है। ये खजाने
ऐसे नहीं जो
तिजोडियों
में बंद किए जाते
हैं।
तिजोडियों
में जो बंद
किए जाते हैं,
खजाने ही
नहीं हैं—
ठीकरे हैं।
तिजोडियों
में जो बंद
नहीं किए जा
सकते वे ही खजाने
हैं।
सुबह
की ताजी हवा
को तिजोड़ी में
बंद कर सकोगे? सुबह
की नई—नई
उतरती हुई
सूरज की
किरणों को
तिजोड़ी में बंद
कर सकोगे? पक्षियों
के गीतों को
तिजोड़ी में
बंद कर सकोगे?
कि फूलों की
गंध को? कि
तारों की
रोशनी को? यह
अस्तित्व का
जो महोत्सव चल
रहा है, इसमें
से क्या बंद
कर सकोगे
तिजोड़ी में? कुछ भी बंद न
कर सकोगे।
ठीकरे!
शब्द
तो तिजोडियों
की तरह हैं, उनमें
जो व्यर्थ है
वही समा सकता
है। जो
अर्थहीन है
वही शब्दों
में
अर्थवत्ता का
नाटक करने
लगता है। जो
सार्थक है, शब्द उससे
हजारों—हजारों
मील दूर हैं।
न शब्द सार्थक
तक कभी पहुंचे
हैं, न
सार्थक कभी
शब्द तक आया
है। न यह हुआ
है पहले, न
यह आज हो सकता
है, न यह
कभी आगे होगा।
कारण साफ है
अनुभव घटता है
हृदय में और
शब्द हैं
संपदा
मस्तिष्क की।
जो भी उस
अनुभव को शब्दों
में लाने की
कोशिश करता है,
हार जाता है,
असफल हो
जाता है।
एक
भाषा से दूसरी
भाषा में
शब्दों को ले
जाना मुश्किल
हो जाता है।
जितने
भावपूर्ण, जितने
संवेदनशील, जितने
काव्यपूर्ण, सौंदर्यपूर्ण
शब्द हों, उतने
ही एक भाषा से
दूसरी भाषा
में ले जाना
मुश्किल हो
जाता है। गद्य
का तो अनुवाद
हो भी जाए, पद्य
का अनुवाद
नहीं हो पाता।
रुबाइयात उमर
खय्याम के लाख
अनुवाद किए गए
हैं, मगर
कुछ बात चूक
ही जाती है।
अनुवाद हो
जाता है, हाथ
में पिंजड़ा रह
जाता है, पक्षी
उड़ जाता है।
पक्षी पकड़ में
आता नहीं।
रवींद्रनाथ
की गीतांजलि
के अनुवाद हुए
हैं,
मगर मूल खो
जाता है। और
ऐसा ही नहीं
है कि विदेशी
भाषाओं में
मूल खो जाता
हो, भारतीय
भाषाओं में भी
मूल खो जाता
है। बंगाली से
हिंदी में भी
लाना मुश्किल
है, जो कि
बहनें हैं, एक ही भाषा—स्रोत
से निकली हैं—संस्कृत
से। इतने करीब
हैं। लेकिन
फिर भी जैसे ही
अनुवाद करो, कुछ मर जाता
है।
भाषा
भाषा में भी
अनुवाद नहीं
हो पाता, तो यह
अनुवाद तो
असंभव है। यह
तो भाव से
भाषा में
अनुवाद है। यह
तो शून्य को
शब्द में लाना
है। सिर्फ मूढ़
ही सोचते हैं
कि सफल हुए।
सिर्फ मूढ़!
ज्ञानी तो सभी
जानते हैं कि
जो कहना था, नहीं कहा जा
सका, अनकहा
रह गया। मूढ़
जरूर सोचते
हैं कि हमने
कह दिया जो
कहना था। उनके
पास वस्तुत:
कहने को ही
कुछ नहीं।
एक
कवि के प्रेम
में एक स्त्री
थी—बहुत सुंदर
स्त्री, बहुत
सुशिक्षित, सुसंस्कृत।
आखिर कवि ने
विवाह का
निवेदन किया।
उस स्त्री ने
निवेदन तो
स्वीकार किया,
लेकिन कहा
कि एक
प्रार्थना
पहले ही कर
लूं; फिर
पीछे कहीं इस
कारण तुम्हें
पछतावा या दुख
या पीड़ा न हो।
भोजन बनाना
मुझे नहीं आता।
कवि ने कहा.
तुम फिकर छोड़ो।
भोजन बनाने को
अपने पास है
ही क्या! मैं
नहीं पछताऊंगा
पछताओगी तो
तुम पछताओगी।
भोजन
इत्यादि...
अपने पास कुछ
है ही नहीं।
क्या डर?
जिनके
पास कुछ नहीं
है वे कहने
में समर्थ हो
जाते हैं। है
ही नहीं कुछ
तो कहने में
अड़चन क्या है!
हां,
कुछ हो तो
मुसीबत होती
है। मूढ़ इस
जगत में बहुत
कुछ कह पाते
हैं, समझदार
चूक जाते हैं
समझदार नहीं
कह पाते।
मैंने
सुना है, सरदार
हजारा सिंह
पहली दफा लंदन
गए। अंग्रेजी
उन्होंने
मैट्रिक तक ही
पढ़ी थी मगर बोलते
वे धड़ल्ले से
थे। जितना कम
पढ़े होओ उतना
धड़ल्ले से बोल
सकते हो; डर
ही क्या, भय
ही क्या! एक
शाम वे एक
होटल में
पहुंचे। उस
होटल की
खासियत यह थी
कि वहां हर
देश के फल उपलब्ध
रहते थे।
हजारा सिंह को
जब पता चला तो
उन्हें
आलूबुखारा
खाने का मन
हुआ। वेटर को
बुला कर
उन्होंने कहा
आई वांट
पोटैटो—फीवरा।
आलूबुखारा का
अनुवाद कर
दिया!
आलूबुखारे
का ऐसा सुंदर
अनुवाद करके
इधर वे प्रसन्न
हो रहे थे, उधर
बेचारा वेटर
भारत के फलों
की सूचियां
देखते—देखते
पसीना—पसीना
हुआ जा रहा था।
आखिर वह
मैनेजर के पास
गया। मैनेजर
भी जब नाम
ढूंढने में
असफल रहा तो
उसने भारतीय
दूतावास का
नंबर घुमाया।
उधर सरदार
विचित्तर
सिंह ने फोन
उठाया।
मैनेजर ने
उन्हें सारा
हाल सुनाया।
विचित्तर
सिंह जी ने
हजारा सिंह को
फोन पर बुला
कर पूछा तुआडा
नाम?
थाउजेंडा
सिंह, उत्तर
दिया हजार? सिंह ने।
किथों
आए हो? विचित्तर
सिंह ने पूछा।
क्लेवरपुर
यानी
होशियारपुर
तो,
हजारा सिंह
ने स्पष्ट
किया।
अब
विचित्तर
सिंह को सारा
मामला समझ में
आ गया। और
उन्हें समझ आ
गया कि यह
पोटैटो—फीवरा
क्या बला है।
उन्होंने
मैनेजर को कहा
कि सरदारजी को
आलूबुखारा
चाहिए!
मूढ़ता
सफल हो जाती
है,
ज्ञानी सदा
असफल रहे हैं
कहने में।
कहना बड़ा कठिन
काम है। कहने
योग्य को कहना
कठिन काम है।
वह कुछ बात
इतने भीतर की
है कि बाहर
लाए—लाए छूट
जाती है हाथ
से। बाहर लाओ,
कुछ का कुछ
हो जाती है।
वह संपदा भीतर
की है और सदा
भीतर उपलब्ध
है। डुबकी
मारो।
योग
प्रीतम, इस
चिंता में पड़ो
मत कि स्वामी
देवतीर्थ कौन
थे। इस चिंता
में पड़ो कि
मैं कौन हूं।
जिस दिन तुम
अपने को जान
लोगे, समस्त
बुद्धों को
जान लोगे। जिस
दिन अपने को
जान लोगे, उस
दिन सब जानने
योग्य जान
लोगे। यद्यपि
मैं तुम्हें
पुन: कह दूं कि
यह जानना और
जानने जैसा नहीं
है। यह जानना
बड़ा अनूठा है,
क्योंकि
इसमें जानने
वाला और जाना
जाने वाला एक
ही होते हैं; इसे दो में
नहीं तोड़ा जा
सकता, इसे
दो में तोड़ना
असंभव है।
योग
प्रीतम कवि
हैं,
इसलिए उनको
बात समझ में आ
सकेगी। ठीक
कहते हो तुम ' मैंने
उन्हें देखा
था खिले फूल
की तरह।’
साधारणत:
सभी लोग खिलने
को आए हैं, लेकिन
कलियां ही रह
जाते हैं। और
जिम्मेवार
कोई
और
नहीं है सिवाय
तुम्हारे। और
दुर्भाग्य है
कि फूल, फूल न
बन पाए, कली
रह जाए।
दुर्भाग्य है
कि कली खुले न
और अपनी सुगंध
को न लुटा पाए।
हरेक व्यक्ति
एक गीत लेकर
जन्मता है। और
जब तक उसे गा न
ले तब तक
तृप्ति नहीं
मिलती। हरेक
व्यक्ति एक
नृत्य लेकर
आता है। और जब
तक वह नृत्य
घुंघरुओं में
प्रकट न हो जाए
तब तक कुछ कमी
मालूम होती
रहती है।
तुम
सभी को कमी
मालूम होती है।
सब हो
तुम्हारे पास
तो भी कमी
मालूम होती है।
धन है, पद है, प्रतिष्ठा
है, फिर भी
लगता है कुछ—कुछ
अज्ञात—नाम, कुछ जो समझ
में भी नहीं
आता कि क्या
है— लेकिन कोई
कोना भीतर
खाली है जो
भरता नहीं और वह
खाली कोना
काटता है।
मूढ़ों को वह
नहीं दिखाई
पड़ता। उसे
देखने के लिए
भी थोड़ी समझ
चाहिए, थोड़ी
संवेदनशीलता
चाहिए। मूढ़ तो
भीतर देखते
नहीं, बाहर
ही भागे चले
जाते हैं। वे
तो जमीन पर
देखते ही नहीं।
उनकी आंखें तो
दूर—दूर
इच्छाओं में,
वासनाओं
में, आकाश
के तारों में
अटकी होती हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
रास्ते से जा
रहा था। तारों
भरी रात। एक
फिल्मी धुन
गुनगुनाता हुआ, तारे
देखता हुआ चला
जा रहा था। और
पीछे ही उसके
कोई कार वाला
हॉर्न बजा रहा
है, बजाए
जा रहा है, लेकिन
न उसे हार्न
सुनाई पड़ रहा
है, न वह हट
रहा है। वहां
सुनने को है
ही नहीं, वह
तो बहुत दूर
निकल गया है, तारों में
भटक रहा है।
आखिर कार वाले
ने कार रोकी, उतर कर नीचे
आया और कहा
बड़े मियां!
अगर जहां चल
रहे हो वहां
नहीं देखा तो
जहां देख रहे
हो वहीं चले
जाओगे। आखिर
हार्न भी कोई
कब तक बजाएगा!
लोग
अटके हैं दूर; उनको
नहीं दिखाई
पड़ता, कुछ
भीतर खालीपन
है। भीतर
देखते ही कहां,
फुर्सत ही
कहां, समय
कहां! धन गिन
रहे हैं, सीढ़ियां
चढ़ रहे हैं।
चुनाव पर
चुनाव चले आते
हैं। गणित
बिठालने हैं
हजार तरह के।
शतरंजें
बिठाई हैं
जीवन में, लकड़ी
के हाथी—घोड़े
चला रहे हैं।
लकड़ी के हाथी—घोड़ों
के लिए
तलवारें खिंच
जाती हैं।
इस
तरह के मूढ़ों
को तुम छोड़ दो, तो
जिनके पास
थोड़ा भी बोध
है, थोड़ा
सा भी होश है—
एक किरण भी
सही— उन्हें
यह बात चुभती
है, यह बात
रह—रह कर
चुभती है, रह—रह
कर याद आती है।
जब तक उलझे
रहते हैं काम
में, ठीक, लेकिन जैसे
ही काम से
छूटते हैं, खयाल आता है
कि जीवन में
कुछ अधूरापन
है। कुछ होना
था, जो मैं
नहीं हो पाया।
कुछ होने की
क्षमता लेकर
आया था, जो
अधूरी पड़ी है।
मैं कब कली से
फूल बन सकूंगा?
यह खजाना
मेरे भीतर ही
न पड़ा रह जाए।
इस खजाने को
कब लुटा
सकूंगा? क्योंकि
लुटाओ, तभी
तुम जान पाओगे।
मगर लुटाए तो
वह जो खोदे
भीतर।
लोगों
को तो खयाल है
उनके पास कुछ
है ही नहीं।
इसलिए दूसरों
से मांग रहे
हैं,
भीख मांग
रहे हैं। सभी
यहां भिखारी
हैं। यहां
गरीब भिखारी
हैं, अमीर
भिखारी हैं।
भिखारी
भिखारी हैं और
बादशाह
भिखारी हैं।
यहां
भिखारियों की
जमात है। और
कुछ भी इकट्ठा
कर लेते हैं
कूड़ा—करकट, जो सब यहीं
पड़ा रह जाएगा।
जो यहां पड़ा
रह जाता है
उसी को कूड़ा—करकट
कहते हैं।
जिसे तुम अपने
साथ न ले जा
सकोगे उसी का
नाम कूड़ा—करकट
है।
जीसस
का बहुत
प्रसिद्ध वचन
है जो तुम
बांट दोगे वह
बच गया और जो
तुमने नहीं
बांटा वह खो
जाएगा।
लोग
यहां इकट्ठा
करते हैं, बांटते
कहां! बांटे
तो वह जो
मालिक हो, सम्राट
हो। इकट्ठा तो
वह करता है जो
भिखारी है। वह
सब कुछ इकट्ठा
करता रहता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कुछ पेंटिंग
तैयार की।
मुझे दिखाने
ले गया। सब
ऊलजलूल, न कोई
तुक न कोई
अर्थ; बस
किसी तरह उठा
कर बुश कोई भी
रंग पोत दिया!
मैंने पूछा कि
नसरुद्दीन, यह तुमने
क्या किया? उसने कहा : आप
समझे नहीं, यह मॉडर्न
आर्ट है, यह
आधुनिक कला है।
यह इसी तरह की
होती है।
मैंने पिकासो
की भी पेंटिंग
देखी हैं और
डाली की भी।
उन्हीं को देख
कर तो मुझे
प्रेरणा उठी।
पिकासो और
डाली को भी
मात कर दिया
है।
कभी
बापदादे भी...
सीधी रेखा
खींचना आया
नहीं और
आधुनिक कला की
कृतियां बना
दीं! मैंने
यूं ही मजाक
में पूछा कि
अब क्या करोगे?
कहा
कि चाहूं तो
लाख—लाख, दो—दो
लाख में
बिकेंगी।
मैंने
कहा : मुझे
दिखता नहीं कि
इतना कोई समझदार
आधुनिक कला का
तुम्हें भारत
में मिल जाए—
यूं ही मजाक
कर रहा था—जो
इन पर लाख—लाख, दो—दो
लाख दे दे।
मुल्ला
ने कहा : फिकर
क्या, अरे तो
घर की संपत्ति
घर में रहेगी!
संपत्ति
है ही नहीं और
घर की संपत्ति
घर में रहेगी!
तुम
कहते हो ' मैंने
उन्हें देखा
था खिले फूल
की तरह।’
ऐसे
ही तुम भी हो
जाओ! खिले फूल
को देखो तो और
करने को बचता
क्या है? खिले
फूल की
प्रशंसा में
इतना ही किया
जा सकता है कि
तुम भी खिल
जाओ। इससे बड़ी
और कोई
प्रशस्ति
नहीं।
तुम
कहते हो. 'अस्तित्व
की हवा के संग
डोलते हुए।’
तो
डोलो तुम भी, खिलो
तुम भी।
तुम
कहते हो ' आनंद
की सुगंध
लुटाते हुए
सदा
सबके
दिलों में
प्रेम का रस
घोलते हुए।’
वही
तुम भी करो।
यही संन्यासी
का ढंग होना
चाहिए। घोलो
प्रेम जितना
घोल सको जीवन
में। दिन तो
चार दिन मिले
हैं,
आज हो कल
नहीं हो जाओगे।
जितना मीठा कर
सको अस्तित्व
को, कर जाओ।
जितना
माधुर्य भर
सको, भर
जाओ। यहां से
कुछ ले जा तो
नहीं सकते, इसलिए ले
जाने की, इकट्ठा
करने की फिकर
मत करो। हां, कुछ दे जा सकते
हो! और दे जाओ
तो एक
विरोधाभास
अगर दे जाओ तो कुछ
ले जाने में
समर्थ हो गए।
तुम जो दे
जाओगे, वही
ले जा सकोगे।
यह
उनका सदा का
रूप था। अभी—
अभी तो खूब
खिल गया था, निखार
आ गया था।
लेकिन मुझे
बचपन से याद
है। जब उनके
पास बहुत
सुविधा भी
नहीं थी तब भी
लुटाने में उन्हें
रस था। उनकी
जो मेरे मन
में यादें हैं
पुरानी—पुरानी
से पुरानी
यादें— लुटाने
की हैं। वे
कोई बहुत धनी
व्यक्ति नहीं
थे। अति गरीबी
से उठे थे।
लेकिन लुटाने
में उनका कोई
मुकाबला न था।
ऐसा कोई दिन न
जाता जिस दिन
मेहमानों को
वे इकट्ठे न
करते रहते हों।
गांव भर उनकी
प्रतीक्षा
करता था। जो
वहां से
निकलता, वह
जानता था कि
वे बुलाएंगे
भोजन के लिए।
महीने, पंद्रह
दिन में एकाध
भोज—कि जिसमें
सारे मित्रों
को इकट्ठा कर
लेना है। नहीं
थी सुविधा।
चाहे उधार भी
लेना पड़े तो
भी बांटना तो
था। बांटने
में उन्हें रस
था।
एक
बार उन्हें
बहुत नुकसान
लग गया। मैंने
उनसे पूछा कि
इतना नुकसान
झेल पाएंगे? उन्होंने
कहा कि नुकसान
मुझे लग ही
नहीं सकता, क्योंकि
मेरे पिताजी
मुझे केवल सात
सौ रुपया दे
गए। जब तक सात
सौ मेरे पास
हैं तब तक तो
मुझे डर ही नहीं।
तब तक बाकी
लेने—देने में
मुझे कुछ हर्ज
नहीं, क्योंकि
अगर कहीं
पिताजी से
मिलना हो गया—
पिताजी तो जा
चुके थे—तो
सात सौ रुपये,
कह दूंगा कि
तुमने जितने
दिए थे उतने
मैंने बचाए
हैं, उससे
ज्यादा का
सवाल भी नहीं
है। इसलिए जब
तक सात सौ हैं
तब तक मुझे
चिंता नहीं है।
बाकी सब खो
जाएं तो कोई
फिकर नहीं— आए
और गए! न अपने
थे, न रोक
रखने का कोई
सवाल था।
और
वे कहने लगे
इतना पक्का है
कि सात सौ
नहीं जाएंगे।
इतने तो बच ही
जाएंगे। उस
हालत में भी
जब बहुत
नुकसान था, मैं
सोचता था कि
शायद अब यह
भोज और लोगों
को बुलाना और
लोगों को खीर
खिलाना और
मिठाइयां बुलवाना,
यह बंद हो
जाएगा। मगर वह
बंद नहीं हुआ।
मैंने उनसे
कहा कि अब
थोड़ा हाथ
सिकोड़े।
उन्होंने कहा
कि छोटे—मोटे
नुकसान के लिए
कोई बड़ा
नुकसान उठाऊं?
ये छोटे—मोटे
नुकसान हैं, लगते रहते
हैं। लेकिन
बांटने की जो
प्रक्रिया है
वह चलती रहे।
जो है वह हम
बांटते रहें।
फिर
इधर तो निखार
बहुत आया था, क्योंकि
इधर दस वर्षों
से निरंतर वे
ध्यान में
गहरे से गहरे
उतर रहे थे।
कुछ
बातों में
उनका रस प्रथम
से था। मुझे
जो उनकी पहली
याद आती है, वह
यही कि वे
मुझे सुबह तीन
बजे उठा लेते
थे। जब मैं
बहुत छोटा था,
जब तीन बजे
सोने का वक्त,
जब आंखें
बिलकुल नींद
से भरी होतीं,
उठने का
बिलकुल सवाल न
उठता, जो
उठाता वह
दुश्मन मालूम
पड़ता, वे
मुझे तीन बजे
उठा लेते और
ले चले मुझे
घुमाने। वह
उनकी मुझे
पहली भेंट थी—ब्रह्ममुहूर्त।
पहले—पहले तो
बहुत परेशानी
होती थी।
जबरदस्ती
घिसटता हुआ
मैं जाता था, क्योंकि आंखों
में नींद का
खुमार। मगर
धीरे— धीरे
सुबह के
सौंदर्य से
संबंध जुड़ा।
धीरे— धीरे
समझ में आया
कि वे सुबह की
घड़ियां खोने जैसी
नहीं हैं। उन
सुबह की
घड़ियों में
परमात्मा
जितना निकट होता
है पृथ्वी के,
शायद फिर
कभी और नहीं
होता। सुबह जब
सारी प्रकृति
जागती है, पौधे
जागते हैं, पक्षी जागते
हैं, पशु
जागते हैं, सूरज जागता
है— वह जागरण
की वेला है।
उस घड़ी को खो
देना ठीक नहीं।
उसी घड़ी तुम
भी जाग सकते
हो। जब सारा
अस्तित्व जाग
रहा है, तो
जागने की उस
बाढ़ में
तुम्हारे
भीतर का अंत: जागरण
हो सकता है।
उनकी
भेंट भूल नहीं
सकूंगा, यद्यपि
कठिन थी बहुत।
जो भी इस जीवन
में सुंदरतर
है, श्रेष्ठतर
है, शिवतर
है, सत्यतर
है, वह
पहले—पहले
कड़वा होता है,
पीछे—पीछे
मिठास होती है।
और जो भी
असत्य है, अशिव
है, असुंदर
है, ऊपर—ऊपर
मीठा होता है,
अंततः जहर।
इस सूत्र को
याद रखना।
नहीं तो पहली
मिठास में ही
लोग भटक जाते
हैं। और एक
बार उस मिठास
में तुम गटक
गए जहर को तो
फिर जहर धीरे—
धीरे
तुम्हारे
सारे शरीर को,
तुम्हारे
मन—प्राण को
विनष्ट करने
लगता है। सत्य
कडुवा भी हो
तो भी डरना मत,
जल्दी ही
मीठा हो जाएगा।
मैं
छोटा था तो
अपने ननिहाल
रहा बहुत
दिनों तक।
मेरे पिता और
ननिहाल के बीच
कोई बत्तीस
मील का फासला
था। न ट्रेन, न
बस, न
टैक्सी, उन
दिनों वहां
कुछ भी न था, रास्ता भी न
था। वे बत्तीस
मील साइकिल
चला कर मुझे
देखने आते थे,
मिलने आते
थे। वर्षा के
दिनों में तो
बड़ी मुश्किल
हो जाती, क्योंकि
आधी दूर
साइकिल को
उन्हें कंधे
पर खींचना
पड़ता। जहां—जहां
कीचड़ होती
वहां साइकिल
चलाना तो
असंभव है, जहां
कीचड़ न होती
वहां साइकिल
चला लेते, जहां
कीचड़ होती
वहां उलटे
साइकिल को खुद
पर ढोना पड़ता!
मगर मुझे
मिलने वे
बत्तीस मील
साइकिल से तय
करके आते।
मैंने
उनसे कहा भी
इतना कष्ट न
करें। मगर वह
उनकी
अंतर्भावना
थी। प्रेम
उनका स्वभाव
था;
उसके लिए
कुछ भी सहना
पड़े, कितना
भी कष्ट सहना
पड़े। उन्हें
प्रेम में रस
था। प्रेम के
लिए कोई भी
कीमत चुकाने
को वे राजी थे।
उसी प्रेम के
पकते—पकते ही
यह बुद्धत्व
बन सका। यह
कुछ एक दिन
में नहीं घट
जाता है। धीरे—
धीरे, शनै: —शनै:
तुम्हारे
भीतर तैयारी
होती है, बीज
टूटता है, अंकुर
निकलते हैं, पत्ते आते
हैं, फूल
लगते हैं, फिर
फल आते हैं।
बुद्धत्व तो
फल है।
तुमने
जैसा उन्हें
पाया उससे कुछ
सीखो।
'लवलीन हो गए
थे वे परमात्म—
भाव में
या
उनमें वही
ज्योति—रूप
व्यक्त हो उठा।’
एक
ही बात है, चाहे
कहो बूंद सागर
में गिर गई और
चाहे कहो सागर
बूंद में गिर
गया।
कबीर
कहते हैं
हेरत—हेरत
हे सखी, रह्या
कबीर हिराइ।
बुंद
समानी समुंद
में,
सो कत हेरी
जाइ।।
और
फिर कहते हैं
हेरत—हेरत
हे सखी, रह्या
कबीर हिराइ।
समुंद
समान! बुंद
में,
सो कत हेरी
जाइ।।
बूंद
समुद्र में
समाए कि
समुद्र बूंद
में समाए, एक
ही बात को
कहने के दो
ढंग हैं। तुम
परमात्मा में
लीन हो जाओ कि
परमात्मा को अपने
में लीन हो
जाने दो, एक
ही बात है।
लेकिन सोचते
ही मत रहो, विचारते
ही मत रहो।
कदम उठाओ।
'सारल्य में
समा गया
बुद्धत्व दौड़
कर
ऐसा
लगा भगवान
स्वयं भक्त हो
उठा।’
निश्चित
ही वे सरल
व्यक्ति थे।
लगभग आधी सदी
मैं उनके साथ
रहा। सिर्फ एक
बार मुझे
चांटा मारा
उन्होंने।
बहुत मुश्किल
है ऐसा पिता
खोजना।
उन्होंने
सिर्फ एक बार
मुझे चांटा
मारा; वह भी
कुछ खास चांटा
नहीं था, एक
चपत। फिर कभी
नहीं मुझे
मारा, क्योंकि
वे बात समझ गए।
और उन्हें बड़ा
पछतावा हुआ, मुझसे क्षमा
मांगी। कौन
पिता अपने
बच्चे से
क्षमा मांगता
है! वे समझ गए
कि मैं उन
घोड़ों में से
नहीं हूं
जिनको पीटना
पड़ता है, कोड़े
की छाया काफी
है।
मैं
छोटा था तो
मुझे बाल बड़े
रखने का शौक
था—इतने बड़े
बाल कि मेरे
पिता को अक्सर
झंझट होती थी, क्योंकि
उनके ग्राहक
उनसे पूछते कि
लड़का है कि
लड़की? और
उन्हें बड़ी
झंझट होती बार—बार
यह बताने में
कि भई लड़का है।
मुझे तो कोई
चिंता नहीं
होती थी। लड़की
होने में क्या
बुराई थी!
मुझसे तो कभी
उनका ग्राहक
कह देता कि
बाई जरा पानी
ले आ, तो
मैं ले आता।
मगर उनको बहुत
कष्ट होता,
वे कहते कि
बाई नहीं है।
मेरे लड़के को
तुम लड़की समझ
रहे हो। तो
लोग कहते, लेकिन
इतने बड़े—बड़े
बाल! तो
उन्होंने
मुझसे एक दिन
कहा कि ये बाल
काटो, कि
दिन भर की
झंझट है, और
या फिर तुम
दुकान पर आया
मत करो।
घर—दुकान
एक थे, तो जाने
का कहीं कोई उपाय
भी न था। और
छुट्टी के दिन
तो उनको बहुत
मुश्किल हो जाती,
वे कहते कि
सुबह से सांझ
तक मैं यह
समझाऊं कि दूसरा
काम करूं? क्योंकि
लोग पूछते हैं
कि फिर इतने
बड़े बाल क्यों?
तो आप कटवा
क्यों नहीं
देते? तो
तुम बाल कटवा
डालो। मैंने
उनसे कहा बाल
तो नहीं
कटेंगे। तो
उन्होंने
मुझे चपत मार
दी। बस उस दिन
मेरे उनके बीच
एक बात
निर्णीत हो गई,
फैसला हो
गया। मैं गया
और मैंने सिर
घुटवा डाला।
जब मैं लौट कर
आया, बिलकुल
घुटमुंडा, चोटी
भी नहीं।
उन्होंने कहा
यह तूने क्या
किया? मैंने
कहा. मैंने
बात जड़ से ही
मिटा दी, अब
दुबारा बाल नहीं
बढ़ाऊंगा।
उन्होंने कहा
लेकिन इस तरह
सिर घुटाया तब
जाता है जब
पिता मर जाते
हैं। मैंने
कहा जब आप
मरेंगे तो मैं
नहीं
घुटाऊंगा।
बात खत्म हो
गई।
सो
तुम देख रहे
हो,
वे मर गए, मैंने नहीं
घुटाया। एक
वायदा था वह
निभाना पड़ा।
वे भी समझ गए
कि मुझसे सोच—समझ
कर बात करनी
चाहिए। ऐसा
चांटा मारना
आसान नहीं है!
अब
लोग उनसे
पूछने लगे कि
यह क्या हुआ? क्योंकि
गांव, छोटा
गांव, वहां
सिर घुटाया ही
तब जाता है जब
पिता मर जाए।
लोग कहने लगे,
आप जिंदा
हैं और यह
आपके लड़के को
क्या हुआ? अब
मैं और वहीं
बैठने लगा
दुकान पर जाकर।
उन्होंने मुझसे
कहा कि मैं
हाथ जोड़ता हूं।
इससे तो बाल
ही बेहतर थे, कम से कम मैं
जिंदा तो था, अब ये मुझसे
पूछते हैं कि
आप क्या मर गए!
यह लड़के ने
बाल क्यों
घुटाए?
मगर
उस दिन बात
निर्णय हो गई, मेरे
और उनके बीच
हिसाब साफ हो
गया। एक बात
पक्की हो गई
कि मेरे साथ
और बच्चों जैसा
व्यवहार नहीं
किया जा सकता।
या तो इधर या
उधर, या तो
इस पार या उस
पार। मैंने
उनसे कहा, या
तो बाल बड़े
रहेंगे या
बिलकुल नहीं
रहेंगे। आप
चुन लो
उन्होंने कहा,
जो तेरी
मर्जी। अब यह
मैं बात ही
नहीं उठाऊंगा।
मैंने कहा यही
बात नहीं, आप
और बातों के
संबंध में भी साफ
कर लो।
जब
मैं
विश्वविद्यालय
से वापस लौटा
तो मित्र उनसे
पूछने लगे कि
बेटे का विवाह
कब करोगे? तो
उन्होंने कहा
मैं नहीं पूछ
सकता।
क्योंकि अगर
उसने एक दफे
नहीं कह दिया
तो बात खत्म
हो गई, फिर
हां का कोई
उपाय न रह
जाएगा। तो वे
अपने मित्रों
से पुछवाते थे।
अपने मित्रों
से कहते कि
तुम पूछो, वह
एक दफे हां
भरे, कुछ
हां की थोड़ी
झलक भी मिले
उसकी बात में,
तो फिर मैं
पूछूं।
क्योंकि मेरा
उससे निपटारा
एक दफे अगर हो
गया, नहीं
अगर हो गई तो
बात खत्म हो
गई।
सो
आप देखते हैं.
न उन्होंने
मुझसे पूछा, तो
परिणाम यह हुआ
कि अविवाहित
रहना पड़ा।
उन्होंने
पूछा ही नहीं।
मित्र उनके
पूछते थे, मैं
उनसे कहता कि
उनको खुद कहो
कि पूछें। यह
बात मेरे और
उनके बीच तय
होनी है, तुम्हारा
इसमें कुछ
लेना—देना
नहीं है, तुम
बीच में मत
पड़ो। सो न
उन्होंने कभी
पूछा, न
झंझट उठी।
सरल
थे,
बहुत सरल थे।
और सरलता चीजों
को समग्रता से
ले लेती है।
एक ही छोटी सी
घटना ने, वह
चांटा मारने
ने एक बात
उन्हें साफ कर
दी कि मेरे
साथ साधारण
बच्चों जैसा
व्यवहार नहीं
किया
जा सकता। मुझे
डांटना—डपटना
भी हो तो सोच
लेना पड़ेगा।
मुझसे यह नहीं
कहा जा सकता
कि ऐसा करो
वैसा करो। तो
फिर वे अगर
मुझसे कभी कुछ
कहते भी तो
कहते, ऐसा
मेरा सुझाव है,
कर सको तो
करना, नहीं
कर सको तो मत
करना। मैं कोई
आशा नहीं दे
रहा हूं। फिर
उन्होंने
मुझे कोई
आज्ञा नहीं दी।
मेरे
उनके बीच जो
संबंध बनता
चला गया, वह
साधारण पिता
और बेटे का
संबंध नहीं
रहा। वह बहुत
जल्दी खत्म हो
गया— साधारण
बेटे और पिता
का संबंध।
शरीर का संबंध
बहुत जल्दी
समाप्त हो गया,
आत्मा का
संबंध
निर्मित होता
चला गया।
सरल
थे बहुत। लोग
उनसे कहते थे
कि इतने लोग
संन्यास ले
लिए— मेरी मां
ने भी संन्यास
ले लिया— आप
क्यों
संन्यास नहीं
लेते? वे कहते,
मैं
प्रतीक्षा कर
रहा हूं। जिस
दिन यह सहज
भाव उठेगा उसी
क्षण ले लूंगा।
और सुबह छह
बजे एक दिन
लक्ष्मी भागी
हुई आई। वे
यहीं ठहरे थे,
लक्ष्मी के
कमरे में ही
रुके थे, पीछे
जो कमरा है
मुझसे उसमें
ही रुके हुए
थे। छह बजे
लक्ष्मी भागी
आई, उसने
कहा कि वे
कहते हैं—
संन्यास, इसी
क्षण, अभी!
क्योंकि वे
तीन बजे से
रोज ध्यान
करने बैठ जाते
थे। और उस दिन
अंतर्भाव उठा।
तो सुबह ठीक
छह बजे
संन्यास लिया।
बहुत मैंने
उन्हें रोका
कि मेरे पैर
मत छुए। कुछ
भी हो, मैं
आखिर बेटा हूं।
पर उन्होंने
कहा, वह
बात ही मत
उठाओ। जब मैं
संन्यस्त हो
गया तो मैं शिष्य
हो गया। अब
बेटे और बाप
की बात खत्म
हो गई।
फिर
उन्होंने
मुझे पैर नहीं
छूने दिए उस
दिन के बाद।
वे मेरे पैर
छूते थे। शायद
ही किसी पिता
ने इतनी
हिम्मत की हो—
इतनी सरलता, इतनी
सहजता! फिर वे
मुझसे पूछ कर
जीते थे छोटी—छोटी
बात में भी—
ऐसा करूं या न
करूं? और
जो मैंने उनसे
कह दिया वैसा
ही उन्होंने
किया, उससे
अन्यथा नहीं।
और इसीलिए यह
अपूर्व घटना
घट सकी, अन्यथा
जन्मों—जन्म
लग जाते हैं।
मैंने अगर
उनको कहा कि
ध्यान करना है,
ऐसा करना है,
तो बस फिर
उन्होंने
दुबारा नहीं
पूछा। फिर
वैसा ही करते
रहे। फिर यह
भी मुझसे नहीं
पूछा कि अभी
तक कुछ हुआ
नहीं, कब
होगा कब नहीं
होगा, ऐसा
ही करता रहूं
जिंदगी भर? दस साल तक
उन्होंने
ध्यान किया
लेकिन एक बार
मुझसे यह नहीं
कहा कि अभी तक
कुछ हुआ क्यों
नहीं! ऐसी
उनकी श्रद्धा
और आस्था थी।
एक बार मुझे
नहीं कहा कि
इसमें कुछ
अड़चन हो रही
है, कुछ और
विधि तो नहीं
है, इसमें
कुछ सुधार तो
नहीं करने हैं,
कुछ अन्यथा
प्रकार का
ध्यान तो नहीं
करना है! इसको
कहते हैं, छोड़
देना— समर्पण!
इसलिए एक महत
घटना घट सकी।
मैं
चिंतित था कि
कहीं वे बिना
बुद्धत्व को
प्राप्त हुए
विदा न हो
जाएं।
क्योंकि उन
जैसा व्यक्ति
अगर बिना
बुद्धत्व को
प्राप्त किए
विदा हो जाए
तो फिर
तुम्हारे
संबंध में
मुझे बहुत आशा
कम हो जाती।
लेकिन वे तुम
सबके लिए आशा
का दीप बन गए।
पूछा
तुमने योग
प्रीतम
'ऐसा लगा
भगवान स्वयं
भक्त हो उठा
वे
भक्ति में
निमग्न एक
नृत्य—गीत थे।’
और
भी मित्रों ने
पूछा है कि वे
किस मार्ग से
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए—
ध्यान से या
भक्ति से? क्योंकि
करते तो वे
ध्यान थे
लेकिन रस
उन्हें कीर्तन
में था। तो
ध्यान से या
कीर्तन से?
उनके
लिए कीर्तन
मार्ग नहीं था, सिर्फ
अभिव्यक्ति
थी। वह जो
उन्हें ध्यान
में मिलता था
उसे कीर्तन में
लुटाते थे। कीर्तन
से वे
बुद्धत्व को
उपलब्ध नहीं
हुए।
बुद्धत्व को
उपलब्ध तो वे
ध्यान से ही
हुए। लेकिन
ध्यान में जो
मिले, उसे
बाटो कैसे? ध्यान ग्तौ
है, बोल
नहीं सकता, भक्ति बोल
सकती है, डोल
सकती है।
इसलिए ज्ञानी
को भी, ध्यानी
को भी एक दिन
अगर प्रकट
करना हो तो
भक्ति के सिवाय
और कोई उपाय
नहीं रह जाता।
भक्ति की वह
गरिमा है।
ध्यान तो
रेगिस्तान
जैसा है।
भक्ति उपवन है।
उसमें खूब फूल
खिलते हैं और
कोयल कूक देती
है और पपीहा
पी—कहा, पी—कहा
पुकारता है।
मार्ग
तो उनका ध्यान
था,
उपलब्ध तो
वे ध्यान से
ही हुए। लेकिन
जैसे—जैसे
ध्यान की गहराई
बढ़ी, उनकी
अड़चन बढ़ी कि
वह जो भीतर
इकट्ठा होने
लगा, अब
उसे क्या करें
क्या न करें? मुझसे
उन्होंने
पूछा, क्या
करूं? अब
भीतर इतना
इकट्ठा होता
है, इसे
कैसे बांटू?
तो
मैंने उन्हें
कहा कि कीर्तन
करें।
उन्होंने यह
भी सवाल न
उठाया कि
कीर्तन और ध्यान
तो दो अलग मार्ग
हैं। श्रद्धा
सवाल उठाती ही
नहीं।
उन्होंने यह
भी नहीं पूछा
कि पहले ध्यान
कहा,
अब कीर्तन?
उन्होंने
कभी मुझसे
पूछा नहीं।
मैंने कहा कि
अब इसको
कीर्तन में
लुटाएं, तो
उन्होंने
कीर्तन शुरू
कर दिया।
कीर्तन उनकी
अभिव्यक्ति
थी। ध्यान से
जो पा रहे थे
वे, ध्यान
में जो फूल
खिल रहे थे, कीर्तन में
उनकी सुगंध उठ
रही थी।
तुम
ठीक कहते हो
'वे भक्ति
में निमग्न एक
नृत्य—गीत थे
या
मोद भरे छलकते
हसीन मौन थे।’
उनके
गीत उनके मौन
से जन्म रहे
थे। मौन भीतर
घना हो रहा था, गीत
बाहर प्रकट हो
रहे थे। जब
वृक्ष पर फूल
आते हैं तो
ऊपर फूल दिखाई
पड़ते हैं, जड़ें
नीचे जमीन में
गहरी गई होती
हैं। ऐसे ही
ध्यान में
गहरे जाओ तो
तुम्हारे
जीवन में भी
बहुत फूल
खिलेंगे— रंग—रंग
के, अलग—
अलग ढंग के, अलग—अलग गंध
के!
'वे जोड़ ही गए
हैं महोत्सव
में बहुत कुछ
मैं
कैसे कहूं
स्वामी
देवतीर्थ
भारती कौन थे!'
तुम
नहीं कह सकोगे, मैं
भी नहीं कह
सकता हूं,
कोई भी नहीं
कह सकता है।
कहने का कोई
उपाय नहीं है।
श्रद्धा थे!
आस्था थे!
ध्यान थे!
भक्ति थे! और
इन सबके जोड़
का नाम भगवान
है।
दूसरा
प्रश्न:
ओशो,
दशहरे
के दिन मेरी बेटी
की शादी तय हुई
थी। सब तैयारियां
हो चुकि थी, कॉर्ड
बांट दिए गए थे, और लड़के ने तीन
दिन पहले दूसरी
लड़की से शादी
कर ली। मैंने तो
इस दुर्भाग्य
करे ही देखा, मगर मेरी बेटी
के लिए इसमें कौन
सा रहस्य छिपा
है? संन्यास
लेने में उसको
अपने पिता का बहुत
सामना पड़ेगा।
हिना के लिए आपका
क्या संदेश है?
जया, अच्छा
ही हुआ।
दुर्भाग्य
में सौभाग्य
छिपा है, ऐसा
नहीं; दुर्भाग्य
कहीं है ही
नहीं, सौभाग्य
ही सौभाग्य है।
जो शादी के
पहले भाग गया,
वह शादी के
बाद भागता, वह भागता ही।
जो शादी के
पहले ही भाग
गया, वह
शादी के बाद
कितनी देर
टिकता? और
टिकता भी तो
उसके टिकने
में क्या अर्थ
होता?
अच्छा
हुआ,
एकदम अच्छा
हुआ। उत्सव
मनाओ। उसको भी
निमंत्रण कर
लेना उत्सव
में, क्योंकि
उसके बिना यह
सौभाग्य हिना
का नहीं हो
सकता था। जरा
भी दुख न लेना।
दुख की बात ही
नहीं है। दुख
की बातें होती
ही नहीं हैं
दुनिया में।
हम ले लेते
हैं दुख, यह
दूसरी बात है।
यहां जो भी
होता है, सब
सुख है। जरा
देखने की आख
चाहिए, जरा
पैनी आख चाहिए।
और
जया,
तेरे पास आख
है। और मैंने
हिना को भी
देखा, उसके
पास भी बड़ी
संभावना है।
शायद संन्यास
के बीच जो एक
बाधा बन सकती
थी वह हट गई।
शायद यह
संन्यास के
लिए अवसर बना।
अब हिना को
चिंता नहीं
करनी चाहिए कि
पिताजी को
क्या होगा। जब
पिताजी को, कॉर्ड बांट
दिए, विवाह
का इंतजाम कर
लिया, ताजमहल
होटल बुक कर
ली और लड़का
भाग गया और
कुछ न हुआ, तो
हिना के
संन्यास से
क्या हो जाएगा?
यहां कहीं
कुछ होता ही
नहीं, हम
नाहक ही
परेशान होते
हैं कि कहीं
पिता दुखी न
हों, कहीं
पिता चिंतित न
हों! यह तो
अच्छा अवसर है,
इस अवसर पर
पिता भी कुछ
कह न सकेंगे।
इससे सुंदर
अवसर और क्या
होगा? हिना
के संन्यास की
घड़ी आ गई। आती
है घड़ी कुछ
लोगों के लिए—विवाह
की लंबी
यातनाएं सहने
के बाद।
सौभाग्यशाली
है, इसको
बिना यातना
सहे आ गई। और
जो किसी दूसरी
लड़की के साथ
भाग गया, उसके
प्रेम का कोई
भरोसा था? कोई
अर्थ था?
चंदूलाल
का आखिरी समय
निकट था। उनके
मित्र श्री ढ़ब्बू
जी उन्हें
अंतिम विदा
देने आए हुए
थे। पता नहीं
कब उनका बचपन
का साथी सदा
के लिए छोड़ कर
चला जाए। ढ़ब्बू
जी को देख
चंदूलाल बोले, भाई
ढब्बू तुम
अच्छे वक्त पर
आए, जरा
मेरी पत्नी
गुलाबो के नाम
एक पत्र लिख
दो। लिखना कि
तुम्हारा
चंदूलाल
मृत्यु की इन
अंतिम घड़ियों
में भी
तुम्हारे दिए
गए प्रेम को
भूला नहीं है।
तुम्हारे साथ
बिताए वे सुहाने
दिन, वे
मधुर यादें
मैं कभी नहीं
भुला सकता।
हमारा प्यार
अमर है और अमर
रहेगा।
तुम्हारा
चंदूलाल! और
इसी पत्र की
एक—एक कॉपी
शीला, नीला,
कमला, विमला
और आशा को भी
भेज देना।
अच्छा
हुआ हिना, नहीं
तो न मालूम
कितनी शीलाए,
कमलाएं, विमलाए
और न मालूम
किस—किस झंझट
में तू पड़ती!
जो युवक तुझे
छोड़ कर भाग
गया है, बड़ा
दयालु था।
मिलता क्या है,
चारों तरफ
जरा गौर से तो
देखो! क्या
मिल गया है लोगों
को? हिना, जरा जया से
पूछ, उसे
क्या मिल गया
है विवाह से—
अपनी मां से
पूछ! सिवाय
उपद्रव के और
क्या मिला है!
जरा अपनी मां
की जिंदगी देख।
संन्यासिनी
है, इसलिए
मस्त है सारे
उपद्रवों के
बीच; नाचती
है, गाती
है; मगर
उपद्रव तो हैं
ही मौजूद।
तुझे क्या मिल
जाता? किसको
क्या मिला है?
विवाह
उनके लिए है
जिनके पास
बुद्धि की
प्रखरता नहीं
है। जैसे जिस
छुरी में धार
न हो,
उसको पत्थर
पर घिसना पड़ता
है धार देने
के लिए। जिस
बुद्धि में
धार नहीं होती
उसको विवाह के
पत्थर पर घिस
कर धार देना
पड़ता है। मगर
कई तो ऐसे
बुद्ध हैं कि
विवाहों में
घिस—घिस कर भी
उन पर धार
नहीं आती।
पत्थरों में
धार आ जाती है
घिसते—घिसते,
लेकिन
उनमें धार
नहीं आती!
ढ़ब्बू
जी एक बस में
यात्रा कर रहे
थे। बस में
बड़ी भीड़ थी, बहुत
भीड़ थी। अत:
उन्हें बैठने
के लिए जगह
नहीं मिली थी।
बस खड़े—खड़े ही
यात्रा कर रहे
थे। उनके आगे
ही एक सुंदर, आकर्षक और
कोमलागी
युवती खड़ी हुई
थी। अभी— अभी
घर से पत्नी
से पिट कर आए
थे। मगर लोग
सीखते कहां!
बस की भीड़ के
कारण ढ़ब्बू
बार—बार उस
नवयौवना से
टकरा रहे थे, जान—बूझ कर, और उन्हें
कुछ आनंद भी आ
रहा था उस
महिला के संस्पर्श
में।
अंत
में जब उस
युवती ने देखा
कि यह व्यक्ति
तो उसे जान—बूझ
कर धक्के मार
रहा है, तो
उसे बड़ा क्रोध
आया वह
क्रोधित होकर
बोली, इस
तरह महिलाओं
को धक्के
मारते हुए
शर्म नहीं आती?
तुम इनसान
हो या जानवर?
इस
पर ढ़ब्बू जी
बोले जी, मैं
इंसान और
जानवर दोनों
ही हूं। युवती
तो बड़ी चौंकी,
उसने
आश्चर्य भरे
स्वर में पूछा,
इनसान हो यह
तो समझ में
आता है, मगर
जानवर कैसे?
ढ़ब्बू
जी
मुस्कुराते
हुए बोले. तू
मेरी जान, मैं
तेरा वर!
अभी
घर से पिट कर आ
रहे हैं!
लेकिन कुछ
लोगों में
बुद्धि आती ही
नहीं। अच्छा
हुआ हिना, संन्यास
का मार्ग
प्रशस्त हुआ।
और ज्यादा देर
मत कर संन्यास
लेने में, अन्यथा
पिताजी तेरे
कोई दूसरा
जानवर खोजेंगे।
एक जानवर भाग
गया, पिताजी
इतने से तेरे
हताश नहीं हो
जाएंगे, वे
कोई दूसरा
खोजेंगे। तू
तो समझ कि
झंझट मिटी। हो
गया विवाह और
हो गई बात
खत्म।
विवाह
ही करना हो तो
परमात्मा से
करो। जुड़ना ही
है तो उससे
जुडो। फेरे ही
लेने हैं तो
उसके साथ, गांठ
ही बांधनी है
तो उससे! यहां
पागलों से गांठ
बांध कर भी
क्या होगा? इन पागलों
के साथ और
मुसीबत होगी।
खुश
हो! लेकिन
बहुत खुश भी न
हो जाना, क्योंकि
कभी—कभी खुशी
भी बरदाश्त
करना मुश्किल
हो जाता है।
नसरुद्दीन
ने तीसरी शादी
की। नई दुल्हन
के हाथ का बना
खाना जब पहले
दिन खाया तो
सारा मुंह, जीभ,
ओंठ, गाल—गला
और यहां तक कि
दांत भी कड़वे
हो उठे। किसी
तरह उस सब्जी
के कौर को वह
निगल गया, सोचा
कोई बात नहीं।
दूसरा कौर दाल
का लिया तो
मुंह भनभना
गया, मिर्च
ही मिर्च थी, दाल का तो
नामोनिशान
नहीं। पेट में
जलन होने लगी
और आंखो में आंसू
आने लगे। वह
अपनी इस नई
बीवी को नाराज
करना नहीं
चाहता था, इसलिए
बोला, खाना
तो बहुत अदभुत
बना है
डार्लिंग।
नई
दुल्हन ने
पूछा फिर आंखों
में ये आंसू
कैसे?
कुछ
न पूछो प्रिये—मुल्ला
ने बात सम्हाल
ली—ये तो खुशी
के आंसू हैं।
अच्छा
तो और सब्जी
दूं?
या थोड़ी दाल
और ले लो।
नहीं
डार्लिग—
नसरुद्दीन ने
रूमाल से आंखें
पोंछते हुए
कहा— मैं दिल
का मरीज हूं।
इतनी ज्यादा
खुशी एक साथ
बरदाश्त न कर
पाऊंगा!
अच्छा
हुआ हिना। लोग
आएंगे
संवेदना
प्रकट करने—
हंसना और तू
उनसे संवेदना
प्रकट करना कि
दुखी होओ तुम
कि तुम्हारा
जानवर न भागा।
मेरा भाग गया, इसमें
दुख का क्या
कारण है?
जरूर
लोग आ रहे
होंगे। लोग
बड़े अजीब हैं, ऐसे
मौके नहीं
छोड़ते। लोग
आएंगे, संवेदना
प्रकट
करेंगे
कि बेटी, घबड़ा
मत, दूसरा
वर खोजेंगे, इससे भी
अच्छा जानवर
खोजेंगे! यह
तो कुछ भी न था।
वे सोचेंगे कि
बहुत बड़ी
दुर्घटना घट
गई तेरे ऊपर।
तू हंसना और
उनसे कहना कि
कोई चिंता न
करें। मैं
नहीं छूट पाती
शायद...।
तेरे
थोड़े लगाव थे
उस युवक से, इसलिए
तू छूट नहीं
पाती उससे। वह
युवक खुद ही
भाग गया। उसका
धन्यवाद कर।
अपनी
झगड़ालू बीवी
से तंग आकर
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक दिन कहा
तुमसे विवाह
करके मुसलमान
होते हुए भी
मुझे हिंदुओं
के धर्मग्रंथों
में श्रद्धा
उत्पन्न होने
लगी है। श्री
रामचरितमानस
में बाबा
तुलसीदास ने
सच ही कहा है.
ढोल गंवार
शूद्र पशु
नारी, ये सब
ताड्न के
अधिकारी।
रामायण
की इस चौपाई
में मेरी भी
पूरी श्रद्धा है—
गुलजान बोली—
क्योंकि पांच
चीजों में से
मैं तो सिर्फ
नारी ही हूं
बाकी चार तो
आप हैं।
हिना, हंस
और आनंदित हो।
जान बची और
लाखों पाए, लौट के
बुद्ध घर को
आए! वह ताजमहल
और ताजमहल होटल
की रंगीनियां
और बाराती और
मेहमान और
फुलझड़ियां और
फटाके— उन सब
में तू भटक
जाती।
इतना
हमें विवाह के
लिए आयोजन
क्यों करना
पड़ता है? इतना
शोर—शराबा
क्यों मचाना
पड़ता है? वह
जो विवाह की
बेहूदगी है
उसको छिपाने
के लिए। वह जो
विवाह ला रहा
है कष्टों का
एक लंबा सिलसिला,
उसको
भुलाने के लिए।
दूल्हा को
बिठा देते हैं
घोड़े पर, जो
कभी घोड़े पर
नहीं बैठा।
उसको कहते हैं—
दूल्हा राजा!
पहना देते हैं
मोरमुकुट।
कपड़े पहना
देते है
सम्राटों
जैसे, फूलमालाओं
से लाद देते
हैं। घोड़े पर
बैठ कर अकड़ कर
वह सोचता है—
अहा, क्या
जिंदगी शुरू
हो रही है! अरे
घोड़े से पूछ कि
ऐसे कितने
बुद्धओं को
पहले भी पार
करा चुका है।
इसलिए
तुमने देखा कि
भारतीय
फिल्में, शहनाई
बजी, घोड़ा
चला, बारात
निकली, बैंड—बाजे
बजे, पंडित—पुरोहित
ने मालाएं
पहनाई, और
एकदम से दि
एण्ड हो जाता
है। क्यों
एकदम शहनाई
बजती है और
फिर दि एंड, अंत आ जाता
है? उसका
कारण है कि
उसके बाद की
कथा कहने
योग्य नहीं है।
उसके बाद जो
होता है उससे
भगवान ही बचाए।
जया, तू
तो चिंतित
नहीं है, यह
मुझे पता है; लेकिन तेरी
चिंता बेटी के
लिए
स्वाभाविक है।
तू तो जीवन के
अनुभव से सीखी
है, परिपक्व
हुई है। तुझे
तो एक प्रौढ़ता
मिली है। वही
प्रौढ़ता तो
तुझे मेरे पास
ले आई है। उसी
प्रौढ़ता ने
तुझे संन्यास
के जगत में
प्रवेश
दिलवाया।
और
दूसरों का
संन्यास इतना
कठिन नहीं है
जितना जया का
है,
क्योंकि
जया के पति
संन्यास के
दुश्मन हैं।
दुश्मन हैं, इसका मतलब
ही है कि कभी न
कभी संन्यासी
होंगे।
दुश्मन हैं, इसका मतलब
मुझसे नाता
जुड़ गया है।
सोचते हैं
मेरी, विचार
करते हैं मेरी।
गालियां देते
हैं मुझे। चलो
गाली के बहाने
ही, लेकिन
मेरा नाम तो
लेते हैं। उस
नाम में खतरा
है। ऐसे सोचते
रहे, सोचते
रहे, तो वह
नाम घर कर
जाएगा। होंगे
संन्यासी एक
दिन। मगर जया
को जितना कष्ट
दिया जा सकता
है... एक बार तो
घर से ही
निकाल दिया तो
कोई महीने, पंद्रह दिन
जया आश्रम में
रही। बिना कुछ
लिए—दिए घर से
बाहर फेंक
दिया, कि
अगर संन्यासी
रहना है तो इस
घर में नहीं
रह सकती।
तो
जया जानती है
कष्ट, लेकिन
जया उसके लिए
भी राजी थी।
तो तू सोच
सकती है हिना
कि पति को
छोड़ने को राजी
थी तेरी मां, बच्चों को
छोड़ने को राजी
थी तेरी मां, जिनसे उसका
बहुत प्रेम है—
तुझे छोड़ने को
राजी थी, और
तेरे लिए उसका
बहुत लगाव है—
लेकिन
संन्यास
छोड़ने को राजी
नहीं थी। तो
जो जिंदगी ने
नहीं दिया है
वह संन्यास ने
दिया होगा।
अच्छा
हुआ। तू
संन्यासी बन।
और जब जया को
तेरे पिता
नहीं हरा पाए
तो तुझे क्या
हराके! थोड़े
परेशान होंगे, शायद
न भी हों, शायद
तेरा संन्यास
उनके जीवन में
भी रूपांतरण
का कारण बन
जाए। निमित्त
क्या बन जाए, कुछ कहा
नहीं जा सकता।
कौन सी छोटी
सी बात
निमित्त बन
जाएगी! एक
तिनका, कहते
हैं, ऊंट
को बिठा देता
है। मनों बोझ
था और ऊंट
नहीं बैठा, और एक तिनका
और ऊंट बैठ
गया। बस उतने
ही तिनके की
कमी थी। हो
सकता है, तेरा
संन्यास उनके
जीवन में भी
एक नया द्वार
खोल दे। इसलिए
भयभीत न हो।
और
ध्यान रखना कि
मेरा संन्यास
प्रेम के विरोध
में नहीं हैं।
मेरा संन्यास
जीवन के विरोध
में नहीं हैं।
संन्यास के
बाद भी तेरे
जीवन में अभी
प्रेम उठे तो
प्रेम को जीना, कोई
मनाही नहीं है।
संन्यासी हो
गई तो कभी तू
प्रेम को न जी
सकेगी, ऐसा
नहीं; संन्यासी
होने का अर्थ
ही है कि अब हम
पूरे प्रेम को
जीएंगे, समग्रता
से जीएंगें।
लेकिन विवाह
की भाषा में
सोचो ही मत।
अगर प्रेम की
छाया की तरह
विवाह घट जाए
तो एक बात है, लेकिन यह
आशा छोड़ दो कि
विवाह के पीछे
प्रेम चलेगा।
विवाह के पीछे
प्रेम नहीं
चलता। विवाह
से प्रेम का
क्या संबंध है?
प्रेम के
पीछे विवाह चल
सकता है।
लेकिन इससे
उलटा नहीं
होता। और हम
इससे उलटा ही
करने में लगे
हैं। हम पहले
विवाह करते है,
हम सोचते
हैं कि विवाह
होगा, फिर
प्रेम होगा।
बस हमने गाड़ी
के पीछे बैल
जोत दिए! अब न
गाड़ी चलेगी, न बैल
चलेंगे। बैल
नहीं चल सकते
गाड़ी की वजह
से, क्योंकि
गाड़ी आगे जुती
है। और गाड़ी
कैसे चले, क्योंकि
उसके आगे बैल
नहीं है। अब
एक कलह शुरू
हुई। बैल गाड़ी
के आगे होने
चाहिए, तो
गाड़ी चल सकती है।
प्रेम
सूत्र है। अगर
उसके पीछे
विवाह आ जाए
तो ठीक, अनिवार्य
भी नहीं है।
प्रेम बिना
विवाह के भी
जीआ जा सकता
है। सच तो यह
है, विवाह
कुछ न कुछ
प्रेम में
अड़चनें डाल
देता है, क्योंकि
विवाह के साथ
आती हैं —
अपेक्षाएं।
विवाह के साथ
आता है— आग्रह।
विवाह के साथ आता
है— एक—दूसरे
पर दावेदारी
का रुख। विवाह
के साथ आती है—
राजनीति, कि
कौन मालिक, कौन प्रमुख?
पुरुष
समझता है कि
वह खास है, स्त्री
में क्या रखा
है! स्त्री तो
नरक का द्वार
है! और पुरुष
समझता है कि
वह बलशाली है,
इसलिए
स्त्री को
दबाने की हर
चेष्टा करता
है, मालकियत
जमाने की पूरी
कोशिश करता है।
उसी
मालकियत
जमाने में
प्रेम मर जाता
है। प्रेम तो
फूल जैसी
नाजुक चीज है, इस
पर जोर से
मुट्ठी
बाधोगे, मर
जाएगा।
और
स्त्री भी
पीछे नहीं है
कुछ पुरुष से।
वे उसकी अलग
तरकीबें हैं।
उसके अपने
सूक्ष्म
रास्ते हैं
पुरुष को झुकाने
के। पुरुष के
रास्ते थोड़े
फूहड़ हैं, थोड़े
स्थूल हैं, साफ दिखाई
पड़ते हैं।
स्त्री के
रास्ते
सूक्ष्म हैं,
स्थूल नहीं
हैं, दिखाई
भी नहीं पड़ते।
और इसीलिए
अंततः
स्त्रियां
जीत जाती हैं
और पुरुष हार
जाते हैं। देर
लगती है
स्त्री को
जीतने में, लेकिन वह
जीत जाती है।
जीत जाती है
इसलिए कि उसके
सूक्ष्म
रास्तों के सामने
पुरुष धीरे—
धीरे हारा हो
जाता है, उसकी
समझ में नहीं
आता कि मैं
क्या करूं, क्या न करूं!
पुरुष
को गुस्सा आए
तो स्त्री को
मारता है, स्त्री
को गुस्सा आए
तो वह खुद का
सिर दीवाल से
पीट लेती है।
अब जब स्त्री
दीवाल से सिर
पीट ले तो
पुरुष को पछतावा
होता है कि यह
मैंने झंझट
क्यों खड़ी की!
नाहक उसको
इतना कष्ट
दिया! पुरुष
को गुस्सा आए
तो स्त्री को
रोने को मजबूर
कर दे, स्त्री
को गुस्सा आए
तो खुद रो
लेती है। ये
सूक्ष्म
प्रकार हैं
कब्जा करने के।
धीरे— धीरे यह
संघर्ष दोनों
को नष्ट करता
है। दोनों
जिंदगी भर इसी
कोशिश में लगे
रहते हैं।
जिंदगी
और बड़े कामों
के लिए है।
कुछ और गीत
गाने हैं या
नहीं? कुछ और
संगीत छेड़ना
है या नहीं? कोई और
महोत्सव
खोजना है या
नहीं? या
बस इसी कलह
में गुजार
देना है? एक
स्त्री और एक
पुरुष लड़ते—लड़ते
जिंदगी गुजार
देते हैं।
नब्बे
प्रतिशत जीवन
उनका इसी कलह
में बीतता है।
और परिणाम
क्या है? हाथ
में क्या लगता
है? कभी
मुश्किल से ही
कोई जोड़ा
दिखाई पड़ता है
जो इस मूढ़ता
से बचता हो।
बहुत मुश्किल
से।
मैं
हजारों घरों
में ठहरा हूं
हजारों
परिवारों का
मुझे अनुभव है।
कभी हजार में
एक जोड़ा ऐसा
दिखाई पड़ता है, जिसमें
प्रेम है; नहीं
तो बस कलह है, संघर्ष है, उपद्रव है।
संन्यास
प्रेम—विरोधी
नहीं है।
इसलिए हिना, संन्यासी
बन। और फिर
तेरे जीवन में
प्रेम उठे... और
प्रेम उठ ही
तब सकता है जब
ध्यान गहरा हो।
नहीं तो जिसे
तुम प्रेम
कहते हो वह
सिवाय
कामवासना के और
कुछ भी नहीं।
वह तो सिर्फ
एक जैविक
जबरदस्ती है।
तुम्हारे
भीतर प्रकृति
का दबाव है, तुम्हारी
मालकियत नहीं
है। वह कोई
प्रेम है? सिर्फ
वासना की
पूर्ति है।
प्रेम कैसे हो
सकता है? और
जहां वासना की
पूर्ति है
वहां कलह होगी
ही, क्योंकि
जिससे हम
वासना की
पूर्ति करते
हैं उस पर हम
निर्भर हो
जाते हैं।
और
इस दुनिया में
कोई भी किसी
पर निर्भर
नहीं होना
चाहता। जिस पर
हम निर्भर
होते हैं, उसे
हम कभी क्षमा
नहीं कर पाते।
क्योंकि जिस
पर हम निर्भर
होते हैं उसके
हम गुलाम हो
गए। पति पत्नी
से बदला लेता
है इस गुलामी
का। पत्नी पति
से बदला लेती
है इस गुलामी
का। जहां
वासना है वहां
बदला होगा। और
जहां वासना है
वहां
पश्चात्ताप
भी होगा, क्योंकि
वासना हीन तल
की बात है।
जीवन का सबसे
निम्नतम जो तल
है वही वासना
का है।
तो
जब पुरुष किसी
स्त्री. की
वासना में
पड़ता है तो
उसे ऐसा लगता
है इसी दुष्ट
ने मुझे इस
हीन तल पर
उतार दिया! तो
जब उसे
पश्चाताप
होता है, उसकी
सारी
जिम्मेवारी
वह स्त्री पर
थोपता है।
इसीलिए तो
तुम्हारे ऋषि—मुनि
लिख गए कि
स्त्री नरक का
द्वार है।
स्त्री
नरक का द्वार
नहीं है, न
पुरुष नरक का
द्वार है। कोई
दूसरा
तुम्हारे लिए
नरक का द्वार
है ही नहीं; तुम ही अपने
लिए नरक का
द्वार बन सकते
हो या स्वर्ग
का द्वार बन
सकते हो।
और
जब स्त्री
देखती है कि
पति के कारण
उसे वासना में
उतरना पड़ता
है.. और
स्त्रियां
ज्यादा देखती
हैं,
क्योंकि
स्त्री की
वासना निष्क्रिय
वासना है, पुरुष
की वासना
सक्रिय वासना
है। इसलिए तो
पुरुष
बलात्कार कर
सकता है, स्त्री
बलात्कार
नहीं कर सकती।
उसकी वासना निष्क्रिय
वासना है।
चूंकि उसकी
वासना निष्क्रिय
है, इसलिए
पुरुष जब तक
उसको उकसाए न,
भड़काए न, तब तक उसकी
वासना
सोई रहती है।
तो स्वभावत:
स्त्री को
ज्यादा लगता
है कि इस पुरुष
के कारण ही
मुझे वासना
में उतरना
पड़ता है।
मुझे
कितनी
स्त्रियों ने
नहीं कहा है
कि हम कब
छूटेंगे इस
क्षुद्रता से!
इस देह की दौड़
कब बंद होगी, क्योंकि
पति को तो
तृप्ति ही
नहीं है! और
पति की मांग
मिटती ही नहीं
है! और पति के
कारण हमें बार—बार
इस गर्त में
उतरना पड़ता है।
कब छुटकारा
होगा?
स्त्री
को कठिनाई
ज्यादा होती
है और पश्चात्ताप
भी ज्यादा
होता है।
इसलिए कोई
स्त्री अपने
पति को आदर
नहीं कर सकती।
किसी ऐरे—गैरे—नत्थू—खैरे
को आदर कर
सकती है। आ
जाएं कोई मुनि
महाराज गांव
में,
उनको आदर कर
सकती है। कोई
महात्मा, कोई
बाबा, कोई
भी, किसी
को भी आदर कर
सकती है, मगर
अपने पति को
नहीं कर सकती।
हांलाकि कहती
है औपचारिक
रूप से कि पति
परमात्मा है,
मगर वे कहने
की बातें हैं।
जानती तो यह
है कि यह पति
के कारण ही
मैं बार—बार
नीचे उतारी जा
रही हूं। अगर
यह पति से
छुटकारा हो
जाता, अगर
यह पति की
वासना मिट
जाती, तो
मैं भी ऊपर उड़
सकती, मेरे
भी पंख लग
सकते!
स्त्री
बहुत पछताती
है। और पछताएगी
तो जिम्मेवार
पति को
ठहराएगी।
इसलिए फिर
अनजाना क्रोध
भड़केगा, चौबीस
घंटे परेशानी
रहेगी। और यह
सब अचेतन होगा।
यह चेतन में
हो तो तुम समझ
भी जाओ। यह
अचेतन तल पर
हो रहा है।
इसलिए इसकी
साफ—साफ
तुम्हें पकड़
भी नहीं आती; धुंधला—
धुंधला सा समझ
में आता है, स्पष्ट कभी
नहीं हो पाता
कि यह खेल
क्या है, यह
गणित क्या है!
और
जब स्त्री
बचना चाहती है
पति से, इसकी
वासना से, तो
स्वभावत: पति
की वासना
सक्रिय है, वह आस—पास की
स्त्रियों
में उत्सुक
होने लगता है।
फिर एक दूसरा
उपद्रव शुरू
होता है। फिर
ईर्ष्या का और
जलन का और
वैमनस्य का
उपद्रव शुरू
होता है। फिर
पत्नी अगर पति
की वासना में
सहयोगी भी होती
है तो सिर्फ
इसलिए कि कहीं
वह किसी और
स्त्री में
उत्सुक न हो
जाए।
मगर
यह कोई प्रेम
है?
यह तो
व्यवसाय हुआ,
वेश्यागिरी
हुई। यह तो यह
ग्राहक कहीं
किसी और दुकान
पर न चला जाए, इस ग्राहक
को बचाने का
उपाय हुआ। और
जहां प्रेम
नहीं है वहां
यह ग्राहक
कितने दिन
टिकेगा? यह
ग्राहक अगर
केवल शरीर के
कारण टिका है तो
शरीर से जल्दी
ऊब जाएगा, क्योंकि
एक ही शरीर
बार—बार, एक
ही ढंग, एक
ही रंग, एक
ही रूप— कौन
नहीं ऊब जाता!
तुम भी रोज एक
ही भोजन करोगे
तो ऊब जाओगे
और एक ही कपड़ा
पहनोगे तो
परेशान हो
जाओगे। थोड़ी
बदलाहट चाहिए।
एक ही फिल्म
को रोज—रोज
देखने जाओ तो
ऊब जाओगे।
चाहे मुफ्त ही
क्यों न दिखाई
जा रही हो तो
भी घबड़ा जाओगे।
वही फिल्म रोज—रोज
देखना, वही
स्त्री रोज—रोज!
पुरुष
की वासना
सक्रिय है, इसलिए
वह जल्दी ऊब
जाता है। वह
इधर—उधर तलाश
करने लगता है।
और जब वह तलाश
करता है तो
उसकी स्त्री
ईर्ष्या से
जलती है। और
वह ईर्ष्या का
बदला लेगी, वह हजार तरह
से पुरुष को
कष्ट देगी। और
जितना ही
ईर्ष्या से
जलेगी वह
स्त्री और पुरुष
को कष्ट देगी,
उतना ही
धक्का दे रही
है कि वह किसी
और दूसरी स्त्री
के चक्कर में
पड़ जाए। यह एक
बड़ा उपद्रव का
जाल है। और इस
सब जाल के
पीछे एक बात
है कि हमारा
प्रेम सच्चा
प्रेम नहीं है।
हमारा सच्चा
प्रेम तो तभी
हो सकता है जब
प्रेम ध्यान
से आविर्भूत
हो।
मैं
पहले ध्यान
सिखाना चाहता
हूं फिर ध्यान
के पीछे आना
चाहिए प्रेम।
आता है, निश्चित
आता है। और तब
एक और ही लोक
का प्रेम आता
है, एक और
ही जगत का प्रेम
आता है। एक
ऐसा प्रेम आता
है, जो
परमात्मा की
गंध जैसा है!
उस प्रेम में
न पीड़ा है, न
दंश है, न
कांटे हैं, न जहर है। उस
प्रेम में कोई
राजनीति नहीं
है, ईष्या
नहीं, जलन
नहीं। उस
प्रेम में कोई
पछतावा नहीं,
दूसरे पर
दावेदारी और
मालकियत नहीं
है।
हिना, बन
सन्यासिन! सीख
ध्यान और फिर
उठने दे प्रेम
को।
तीसरा
प्रश्न:
ओशो,
आप
जो कहते हैं
वह न तो मैं समझता
ही हूं, और ता
सुनता ही हूं।
मैं क्या करूं?
जयानंद, तुम
समझते भी हो, सुनते भी हो,
मगर करने से
बचना चाहते हो।
और करने से
बचने की सबसे
सुगम तरकीब यह
है कि समझ में
ही नहीं आता
तो करें कैसे?
अरे समझना
तो दूर, सुन
भी नहीं पाते,
तो करें
कैसे?
मेरी
बातें तो सीधी—साफ
हैं। मैं कोई
बहुत कठिन
शब्दों का
प्रयोग नहीं
कर रहा हूं
बोलचाल! यह
कोई प्रवचन
थोड़े ही है, बातचीत
है। जैसे दो
मित्र
गुफ्तगू करें,
गपशप करें।
मेरा बोलना कोई
शास्त्रीय तो
नहीं है। मेरा
बोलना तो
बिलकुल
लोकभाषा में
है। शास्त्र
का मुझे
ज्यादा शान भी
नहीं है।
तुम्हारी
भाषा बोल रहा
हूं; अगर
यह भी न समझ
सकोगे तो और
क्या समझोगे?
समझते
तो तुम हो, समझना
नहीं चाहते
हो! सुनते भी
तुम हो, लेकिन
सुनना नहीं
चाहते, क्योंकि
सुनने में
खतरा मालूम
पड़ता है। सुना
तो फिर बचना
मुश्किल हो
जाएगा। यह
सवाल
तुम्हारे कान
के बहरेपन का
नहीं है; यह
तुम्हारी
तरकीब है, यह
तुम्हारी
होशियारी है,
यह
तुम्हारा
बचाव है, सुरक्षा
है।
पूछो
कि मैं क्यों
आपकी बात नहीं
सुनना चाहता? तुम
पूछते हो, क्यों
नहीं सुनता? वह मैं राजी
नहीं होऊंगा।
बात तुम्हें
बिलकुल सुनाई
पड़ रही है।
बात तुम्हें
ठीक—ठीक सुनाई
पड़ रही है।
लेकिन मेरी
बात सुनने के
लिए हिम्मत
चाहिए, क्योंकि
सुनी अगर तो
समझ आएगी ही
आएगी। मेरी
बात सीधी और
सरल है कि सुन
लो तो समझ में
आएगी ही। और
समझ लो तो करनी
भी पड़ेगी।
मैं
कह रहा हूं यह
रहा दरवाजा और
तुम हमेशा दीवाल
में से निकलने
की कोशिश करते
रहे हो।
तुम्हें
सुनाई भी पड़ता
है कि मैं
चिल्ला रहा हूं
कि यह रहा
दरवाजा, मगर
दीवाल से
निकलने में
तुम्हें मजा
आने लगा है, रस आने लगा
है। दीवाल से
सिर टकराना
तुम्हारी जिंदगी
की शैली हो गई
है। तुम कैसे
सुनो कि यह
रहा दरवाजा!
तुम तो दीवाल से
ही निकलते
रहोगे। और फिर
तुमने दीवाल
पर खूब सोना
मढ़ लिया है—
दरवाजा समझ कर,
हीरे—जवाहरात
से सजा लिया
है, बंदनवार
बना लिया है, स्वागत लिख
दिया है। जीवन
भर मेहनत करते
रहे दीवाल पर,
अब अगर एकदम
से मेरी बात
सुनो कि वहां
दीवाल है, दरवाजा
यहां है, तो
तुम्हारी
जीवन भर की
मेहनत का क्या
होगा! वह सब
पानी में गई, अकारथ!
इतनी
तुम्हारी
हिम्मत नहीं
है जयानंद।
इसलिए सुनते
हो,
निश्चित
सुनते हो। मैं
राजी नहीं
होऊंगा कि तुम
सुनते नहीं।
ये बातें तो
ऐसी है कि
बहरे भी सुन
लें। ये बातें
तो ऐसी हैं कि
अंधे भी देख
लें। लेकिन
तुम्हारे
न्यस्त
स्वार्थ हैं,
वे अड़चन डाल
रहे हैं।
चंदूलाल
के पिता लाला
बसेसर नाथ
जसलोक हास्पिटल
में भर्ती थे।
उनकी किडनी का
ऑपरेशन होना
था। चंदूलाल
ने अपने
लंगोटिया यार ढ़ब्बू
को पूना फोन
किया। हाल—चाल
पूछने के बाद
चंदूलाल बोले, यार
ढस्कू पिताजी
के ऑपरेशन के
लिए एक हजार
रुपये की
जरूरत है।
अच्छा हो यदि
तुम भेज दो।
ढ़ब्बू
जी : क्या कह
रहे हो चंदू? जरा
जोर से बोलो, कुछ सुनाई
नहीं दे रहा
है।
चंदूलाल
पिताजी के
ऑपरेशन के लिए
एक हजार रुपये
की जरूरत है।
यदि हो सके तो
भेज दो। ढ़ब्बू
जी पता नहीं
यार,
तुम क्या कह
रहे हो! कुछ भी
समझ नहीं आ
रहा है। आखिर
तुम क्या कह
रहे हो?
टेलीफोन
ऑपरेटर जो कि
दोनों की
बातें सुन रहा
था,
ढ़ब्बू जी
से बोला आपको
क्या समझ में
नहीं आ रहा है?
आपके मित्र
चंदूलाल कह
रहे हैं कि
पिताजी के
ऑपरेशन के लिए
एक हजार रुपये
का इंतजाम कर
दो। क्या
सुनाई नहीं दे
रहा?
ढ़ब्बू
जी बोले : तुझे
अगर सुनाई दे
रहा है तो तू
ही क्यों नहीं
भेज देता!
सुनना
नहीं चाहते, क्योंकि
सुनो तो वे
हजार रुपये
भेजने पड़ेंगे!
अब अभी—अभी
मैंने हिना से
कहा, सब
सुन लिया होगा
उसने। अब अगर
संन्यास से
बचना हो तो
समझेगी सुना
ही नहीं। क्या
कह रहे हो, कुछ
समझ में नहीं
आ रहा!
सुन
भी लो तो फिर
कहते हो, समझ
में नहीं आ
रहा।
ये
कोई उलझी—उलझी
बातें नहीं
हैं,
सीधी सुलझी
बातें हैं।
तुम
कुछ और कारणों
से आते हो।
कोई आता है यहां, वह
कहता है बेटा
नहीं होता। अब
उसे मेरी
बातें क्या
खाक सुनाई
पड़ेगी! वह बैठा
है इस इशारे
में कि कब मैं
मौका दूं कि
वह अपनी असली
बात जाहिर कर
दे। लक्ष्मी
परेशान है, दफ्तर में
इतने लोगों को
लौटाना पड़ता
है रोज! क्योंकि
कोई आता है
बीमारी है; कोई कहता है
बेटा नहीं है,
कोई कहता है
नौकरी नहीं है।
लोग आकर पूछते
हैं कि क्या
संन्यास लेने
से बेटा हो
जाएगा?
यह
तो खूब रही!
बेटों के होने
के कारण लोग
संन्यास ले
लेते थे, मगर
संन्यास के
कारण बेटा! यह
तो तुम बिलकुल
ही उलटी नाव
चलाने की
कोशिश कर रहे
हो! नदी को नाव
में चलाने की
कोशिश कर रहे
हो!
कोई
कहता है, नौकरी
नहीं लगती, क्या
संन्यास लेने
से नौकरी लग
जाएगी?
अरे
नौकरी नहीं
लगने से
संन्यास लोग
लेते हैं।
दीवाला निकल
जाए,
नौकरी न लगे,
पत्नी मर
जाए, बेटा
न हो, तो
लोग कहते हैं
कि चलो
संन्यास ही ले
लें। इसी तरह
अब तक संन्यास
लेते रहे हैं।
उनको समझा—बुझा
कर भेजना पड़ता
है। अब वे
नाराज होते
हैं बहुत कि
हम संन्यास
लेने आए हैं, हमें
संन्यास
क्यों नहीं
दिया जा रहा
है? मगर
उनके कारण गलत
हैं।
तुम
कुछ और सुनने
आते हो, मैं
कुछ और कह रहा
हूं। तुम आते
हो कि मैं तुम्हारे
संसार को और
थोड़ा प्यारा
सपना दूं; तुम्हारी
जहर हो गई
जिंदगी पर
थोड़ी मिठास की
पर्त चढ़ा दूं।
और मैं सारी
पर्तें उतार
रहा हूं। मेरा
बस चले तो
तुम्हारी
चमड़ी उखाड़ कर
तुम्हें भीतर
के अस्थिपंजर
का दर्शन
कराऊं! तुम
आते हो कि
जिंदगी थोड़ी
और सफल हो जाए।
लोग
चुनाव में खड़े
होते हैं, वे
आ जाते हैं कि
आशीर्वाद
चाहिए।
अब
जो चुनाव के
लिए आशीर्वाद
लेने आ गया है, उसको
कैसे मेरी
बातें सुनाई
पड़ेगी? सुनाई
तो पड़ेगी, मगर
वह समझेगा
कैसे? और
समझ लेगा तो
फिर चुनाव
कैसे लड़ेगा? वह तो कान
में अंगुली
डाल कर बैठा
रहेगा, इधर—उधर
देखता रहेगा
कि मेरे मतलब
की कुछ बात हो।
या कुछ लोग यह
भी अफवाह उड़ा
देते हैं कि
वहां सिर्फ
बैठने से ही
लाभ हो जाएगा।
अभी
कई अखबारों
में एक सज्जन
ने पत्र लिखने
शुरू किए हैं।
पहले एक में
निकला तो
मैंने कहा चलो
ठीक,
अब दूसरे—तीसरे
में भी निकल
आया वही पत्र
कि वह बीमार
था, भर्ती
होने गया था
जहांगीर
नर्सिग होम
में। और मैं
वहां दद्दा जी
को देखने गया
था। बाहर
निकला तो उसने
नमस्कार किया।
मैंने उसे
आशीर्वाद
दिया। उसकी
बीमारी रफा—दफा
हो गई। फिर वह
भर्ती ही नहीं
हुआ जहांगीर
अस्पताल में।
जरूरत ही क्या
रही, बीमारी
खत्म हो गई!
वर्षों से जो
बीमारी पीछा
नहीं छोड़ रही
थी, वह
आशीर्वाद से
पीछा छोड़ दिया
उसने। उसने
अपना कमरा
क्काखल
करवाया और
वापस लौट आया
घर। अब वह ठीक
है बिलकुल। अब
वह अखबारों
में खबरें छाप
रहा है। अब
जरूर अनेक लोग
आना शुरू हो
जाएंगे। वे इस
नजर से आ रहे
हैं कि
जहांगीर
अस्पताल से
बचें। वे मेरी
बातें
सुनेंगे? वे
मेरी बातें
समझेंगे?
यह
हो सकता है
उसको हो गया
हो। उसको अगर
कुछ हो गया हो
ऐसा,
तो उससे
सिर्फ एक ही
बात सिद्ध
होती है कि
उसकी बीमारी
झूठी रही होगी।
उस पागल को यह
तो सोचना
चाहिए कि अगर
मेरे आशीर्वाद
से वह अच्छा
होता तो अपने
पिता को अच्छा
नहीं कर लेता!
इतना भी नहीं
देख रहा है कि
मेरे पिता
जहांगीर
अस्पताल में
बंद हैं, मैं
उनको देखने
आया हूं उनको
अच्छा नहीं कर
लेता! और यही
नहीं कि उनको
अच्छा नहीं कर
पाया, वे
चले भी गए, रोक
भी नहीं पाया—
यह भी नहीं
देख रहा है!
मगर उसकी बीमारी
ठीक हो गई।
बीमारी
झूठी रही होगी, काल्पनिक
रही होगी, मानसिक
रही होगी। सौ
में से सत्तर
बीमारियां
मानसिक हैं।
और मानसिक
बीमारियां
ठीक हो जाती
हैं, सिर्फ
भरोसा चाहिए—सिर्फ
भरोसा।
श्रद्धालु
किस्म का आदमी
रहा होगा। थक
चुका होगा
डॉक्टरों से।
पता नहीं
कितने साल से
बीमारी
परेशान कर रही
थी। बड़ी
श्रद्धा से
हाथ जोड़े
होंगे।
और
मुझे तो यह भी
शक है कि उसने
मुझे हाथ जोड़े, क्योंकि
जो समय उसने
दिया है उस
समय मैं गया ही
नहीं था
जहांगीर
अस्पताल।
उसने समय दिया
है रात साढ़े
आठ बजे। मैं
गया था दिन
साढ़े तीन बजे।
साढ़े आठ बजे तो
वहां स्वभाव
थे और बहुत
संभावना यह है
कि उसने
स्वभाव को ही
समझा कि मैं
हूं। अब
स्वभाव
स्वभाव, दे
दिया होगा
आशीर्वाद!
आशीर्वाद
देनें में क्या
लगता है! अब
कोई हाथ ही
जोड़ रहा है तो
दे ही देना
चाहिए, आशीर्वाद
देनें में
क्या हर्जा
है! और किसी का
लाभ हो जाए, अपना कुछ
जाए नहीं। और
स्वभाव का
क्या गया, उसका
लाभ हो गया!
मगर
अगर ये सज्जन
तुम्हें कहीं
मिल जाएं तो
बताना मत कि
मैंने क्या
कहा,
नहीं तो
बीमारी वापस
लौट सकती है।
अगर उनको
पक्का हो जाए
कि वे स्वभाव
थे, अरे यह
तो भूल हो गई!
कलण बीमारी वापस
आ जाएगी, क्योंकि
बीमारी मन की
है, खयाल
है। खयाल से
परेशान है।
ऐसा
हुआ,
एक युवक एक
रात— मैं
जबलपुर रहता
था— मेरे पास
आकर बैठ गया।
कोई दस बजे थे।
मैंने उससे
कहा कि भाई, तू ज्यादा
से ज्यादा
म्यारह बजे तक
बैठ सकता है, ग्यारह बजे
मैं सोने चला
जाता हूं।
उसने कहा. मैं
यहां से हटूगा
नहीं पूरी रात,
जब तक आप
मुझे अपने हाथ
से एक गिलास
पानी नहीं देंगे।
मैंने कहा, किसलिए
लेकिन? उसने
कहा कि मेरे
पेट में दर्द
रहता है और
मैं सब
डॉक्टरों से
हार चुका हूं।
बड़े—छोटे सब
डॉक्टर मुझसे
भी हार चुके
हैं! अब तो मैं
किसी डॉक्टर
के पास कहता
हूं तो वह
कहता है कि
भैया, तू
किसी और
डॉक्टर के पास
जा, क्योंकि
यह तेरी
बीमारी हमसे
ठीक होने वाली
नहीं। एक गांव
में नये
डॉक्टर आए हैं,
आज दो महीने
से उनका इलाज
कर रहा हूं अब
वे भी मुझसे
थक गए हैं।
उन्होंने
मुझे आपके पास
भेजा है कि
भैया, तेरी
बीमारी तो कोई
पहुंचा हुआ
फकीर ही ठीक
कर सकता है।
तो मैं तो
नहीं छोडूंगा।
आपको एक गिलास
पानी देना
पड़ेगा।
मैंने
कहा कि मैं यह
धंधा करता
नहीं, क्योंकि
यह धंधा
खतरनाक है।
खतरा यह नहीं
है.. .तेरी
बीमारी ठीक न
हो तो मुझे कोई
खतरा नहीं, मगर कहीं
ठीक हो जाए तो
फिर मेरी
मुसीबत। फिर
मेरी बीमारी
कौन ठीक करेगा?
तू ठेका
लेता है? फिर
और जितने
बीमार हैं
गांव में, वे
यहां आने लगें,
तो मैं एक
झंझट में
पडूगा। इसलिए
मैं पानी तुझे
देने वाला
नहीं।
स्यारह
बज गए, वह भी
अपनी जिद पर, मैं भी अपनी
जिद पर। बारह
बज गए। जिनके
घर मैं मेहमान
था, उन
गृहिणी ने आकर
कहा कि अब
इसको दो भी एक
गिलास पानी।
आखिर कब तक यह
चलेगा? क्या
रात भर जगना
है? और यह
भी हटने वाला
नहीं है।
और
जितना मैं मना
करूं उतनी
उसकी श्रद्धा
बलवती होती जा
रही है। वह
कहे कि आप
इतना मना
क्यों करते
हैं?
अरे आपकी
कोई फीस हो तो
मैं देने को
तैयार हूं।
मैंने
कहा मेरी कोई
फीस नहीं है।
तो
फिर एक गिलास
पानी देने में
आपका क्या
बिगड़ा जा रहा
है?
वह
गृहिणी तो एक
गिलास पानी ही
ले आई। नहीं
मानी, उसने
मेरे हाथ में
छुला कर गिलास
और उसको दे दिया।
वह गटागट पी
गया और एकदम
पीकर एकदम
आदमी दूसरा हो
गया। उसने कहा
अरे, मेरा
दर्द कहां!
उसके पेट में
दर्द रहता था
निरंतर। इधर
देखा उधर पेट
टटोला एकदम
मेरे पैरों पर
गिर पड़ा
साष्टांग।
अब
मैंने कहा.
खतरा शुरू हुआ।
अब खा कसम कि
किसी को नहीं
कहेगा।
उसने
कहा कि यह मैं
नहीं कसम खा
सकता। अरे आप
यहां मौजूद
हैं और हजारों
लोग तडूफ रहे
हैं! मेरी मां
को भी यह
तकलीफ है।
उसने जल्दी से
एक बोतल
निकाली अपने
झोले में से
कि इस बोतल
में पानी भर
दें। मैं आपको
नहीं सताऊंगा, मैं
ही बांट दूंगा।
मैंने
कहा यह बात
जंचती है, तू
ही बांट देना,
यहां किसी
को मत भेजना।
उसकी बोतल भर
दी मैंनें। वह
हर सातवें दिन
आकर बोतल
भरवाने लगा।
कई लोग उसकी
बोतल के पानी
से ठीक हुए!
लोग भी खूब है,
लोग भी गजब
के हैं! इसी
तरह के लोग तो
साधु—महात्माओं
के पास इकट्ठे
हो जाते हैं।
इनकी बीमारी
झूठी, इनके
लिए झूठे इलाज
चाहिए, झूठे
उपचार चाहिए।
अब
अगर तुम इसलिए
यहां आ गए हो
तो मेरी बातें
तुम्हें
लगेंगी, मैं
कहां की बातें
कर रहा हूं।
सुनोगे ही
नहीं। सुन भी
लोगे तो
समझोगे नहीं।
समझ भी लोगे
तो कभी करोगे
नहीं।
कंजूसी
में
मारवाड़ियों
को भी मात कर
देने वाले
चंदूलाल
परेशान सूरत
लिए एक दिन
मटकानाथ ब्रह्मचारी
के पास पहुंचे
और बोले, मेरी
मदद कीजिए।
पिछले दो
सप्ताहों से
लगातार मुझे
एक सपना आ रहा
है कि सौ—सौ
रुपये के नोट
आसमान से बरस
रहे हैं, साथ
में कुछ दस—दस
और पांच—पांच
के नोट भी हैं।
लेकिन हवा
इतनी जोर से
चलती है कि
सारे रुपये उड़
जाते हैं, जमीन
पर गिर ही
नहीं पाते।
मैं तो इस
सपने से बहुत
ही परेशान हो
गया हूं। रोज—रोज
वही का वही
बेहूदा सपना।
आखिर हर चीज
की एक सीमा
होती है। मैं
तंग आ गया हूं
कृपा कर मेरी
समस्या को सुलझाइए!
ब्रह्मचारी
मटकानाथ ने
अपने घड़े जैसी
तोंद पर हाथ
फेरते हुए कहा, धैर्य
रखो भाई
चंदूलाल। यह
कोई विकट
समस्या नहीं
है। मैंने कई
लोगों के एक
से एक बेहूदे
और भयानक दुख—स्वप्न
तक समाप्त कर
दिए हैं। इस
तरह के रोगों
की एक ही
रामबाण दवा है—
हनुमान—चालीसा।
जैसे ही
स्वप्न आए, बस हनुमान
जी की जय बोलो
और चालीसा पढ़ो।
और फिर देखना
चमत्कारिक
प्रभाव बजरंग
बली का! एक पल
में नोट बरसने
बंद हो जाएंगे।
क्या
कहा— चंदूलाल
ने गुस्से में
कहा— अबे, मेरे
तो प्राय ही
निकल जाएंगे।
अबे साले, नोटों
का बरसना बंद
नहीं करवाना,
तेज हवा का
चलना बंद
करवाना है।
लोगों
के प्रयोजन
अलग—अलग हैं।
तुम सच में
जीवन बदलना
चाहते हो? तुम
सच में अपने
को बदलना
चाहते हो न:
नहीं; लेकिन
लोग इसलिए आते
हैं कि और लोग
बदल जाएं, सारी
दुनिया बदल
जाए। मैं जैसा
हूं वैसा ही
रहूं; दुनिया
बदल जाए और
मेरे योग्य हो
जाए। मैं जैसा
हूं वैसा ही
रहूं; दुनिया
मुझसे
समायोजित हो
जाए, मेरे
अनुकूल हो जाए।
तो फिर मेरी
बात नहीं सुनाई
पड़ेगी।
दुनिया
तुम्हारे
अनुकूल नहीं
होगी, नहीं
हो सकती है।
तुम्हें ही
जागना होगा।
कुछ
चीजें हैं
जिनके अनुकूल
तुम्हें होना
पड़ेगा। कुछ
चीजें हैं जो
प्रतिकूल हैं
और प्रतिकूल ही
रहेंगी, उनकी
प्रतिकूलता
स्वीकार करनी
होगी। और
अनुकूलता और
प्रतिकूलता
दोनों छोटी
बातें हैं। इन
दोनों के पार
एक और जगत है, मैं उसी तरफ
इशारा कर रहा
हूं। तुम्हें
अनुकूलता और
प्रतिकूलता
दोनों के पार
उठना सीखना
होगा, दोनों
का अतिक्रमण
करना होगा।
वह
अतिक्रमण ही
ध्यान है। वह
द्वंद्वातीत
अवस्था— जहां
सुख और दुख के
आदमी ऊपर उठ
जाता है, बीमारी
और स्वास्थ्य
के ऊपर उठ
जाता है, शरीर
और मन के ऊपर
उठ जाता है—वह
द्वंद्वातीत
अवस्था ही
मेरा संदेश है।
उसे ध्यान कहो—
अंतरंग में
ध्यान है वह, बहिरंग में
वही संन्यास
है। ध्यान
आत्मा है उसकी
और संन्यास
उसकी देह है।
बातें
सीधी—साफ हैं
जयानंद, तुम्हारें
प्रयोजन कुछ
गड़बड़ होंगे, इसलिए अड़चन
आ रही है। तुम
मुझे अपने
प्रयोजन छोड़
कर सुनो। ऐसे
सुनो जैसे कोई
सुबह
पक्षियों के
गीत सुनता है।
ऐसे सुनो जैसे
कोई बांसुरी
की धुन सुनता
है—प्रयोजनरहित,
बेशर्त।
तुम अपनी
धारणाएं अलग
रखो, पक्षपात
अलग रखो। तुम
यहां कुछ
मांगने मत आओ।
मेरे पास देने
को सिर्फ
परमात्मा है,
और कुछ भी
नहीं। अगर तुम
परमात्मा ही
पाने को आए हो
तो मेरी बात
भी सुनाई
पड़ेगी, समझ
में भी आएगी
और तुम भूल कर
न पूछोगे कि
अब मैं क्या
करूं।
क्योंकि
जिसको समझ में
आ गया, दृष्टि
मिल गई, वही
दृष्टि उसे
बताएगी कि
क्या करना
उचित है।
आज इतना
ही।
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