पहली
बात तो टंडन
जी पूछते हैं, उसे थोड़ा
समझ लेना
उपयोगी है।
सामायिक के
लिए मैंने जो
कहा और वीतरागता
के लिए जो कहा,
वह बिलकुल
समान प्रतीत
होगा।
क्योंकि
सामायिक
मार्ग है, वीतरागता मंजिल है।
सामायिक
द्वार है, वीतरागता उपलब्धि
है। और साधन
और साध्य
अंततः अलग-अलग
नहीं हैं, क्योंकि
साधन ही
विकसित
होते-होते
साध्य हो जाता
है।
तो वीतरागता
में परम
अभिव्यक्ति
होगी उसकी, जिसे
सामायिक में
धीरे-धीरे
उपलब्ध किया
जाता है।
सामायिक में
पूरी तरह थिर
हो जाना वीतरागता
में प्रवेश
है।
वे यह
भी पूछ रहे
हैं कि
स्थित-धी या
स्थित-प्रज्ञ
कृष्ण ने जिसे
कहा है, क्या
वह वही है, जो
वीतराग है?
निश्चित
ही, वह वही
है। दोनों
शब्द बड़े
बहुमूल्य
हैं। वीतराग
का मतलब है, सब
द्वंद्वों के
पार जो चला
गया, सब दो
के पार जो चला
गया, एक
में ही जो
पहुंच गया। अब
ध्यान रहे, स्थित-धी या
स्थित-प्रज्ञ
का अर्थ है, जिसकी
प्रज्ञा ठहर
गई, जिसकी
प्रज्ञा
कंपती नहीं।
प्रज्ञा उसकी कंपती है, जो द्वंद्व में जीता है। दो के बीच में जो जीता है, वह कंपता रहता है--कभी इधर, कभी उधर। जहां द्वंद्व है, वहां कंपन है। जैसे कि एक दीया जल रहा है, तो दीए की लौ कंपती है, क्योंकि हवा कभी पूरब झुका देती है, हवा कभी पश्चिम झुका देती है। तो दीया कंपता रहता है। दीए का कंपन तभी मिटेगा, जब हवा के झोंके न हों, यानी जब इस तरफ, उस तरफ जाने का उपाय न रह जाए, दीया वहीं रह जाए, जहां है।
प्रज्ञा उसकी कंपती है, जो द्वंद्व में जीता है। दो के बीच में जो जीता है, वह कंपता रहता है--कभी इधर, कभी उधर। जहां द्वंद्व है, वहां कंपन है। जैसे कि एक दीया जल रहा है, तो दीए की लौ कंपती है, क्योंकि हवा कभी पूरब झुका देती है, हवा कभी पश्चिम झुका देती है। तो दीया कंपता रहता है। दीए का कंपन तभी मिटेगा, जब हवा के झोंके न हों, यानी जब इस तरफ, उस तरफ जाने का उपाय न रह जाए, दीया वहीं रह जाए, जहां है।
तो
कृष्ण उदाहरण
ही लिए हैं कि
जैसे किसी बंद
भवन में, जहां
हवा का कोई
झोंका न जाता
हो और दीया
थिर हो जाता
है ऐसे ही जब
प्रज्ञा, विवेक,
बुद्धि थिर
हो जाती है और
कंपती नहीं, डोलती नहीं,
तब वैसा
व्यक्ति
स्थित-धी है, वैसा
व्यक्ति, जिसकी
बुद्धि थिर हो
गई, स्थित-प्रज्ञ
है।
वीतराग
का भी यही
मतलब है, क्योंकि
वीतराग का
मतलब है कि
राग और विराग
का द्वंद्व
जहां खो गया।
जहां द्वंद्व
खो गया, वहां
कंपने का उपाय
खो गया। और जब
कंपता नहीं है
चित्त तो
स्थिर हो जाता
है, ठहर
जाता है।
महावीर
ने द्वंद्व के
निषेध पर जोर
दिया है, इसलिए
वीतराग शब्द
का उपयोग किया
है। द्वंद्व
के निषेध पर
जोर है, द्वंद्व
न रह जाए।
कृष्ण ने
द्वंद्व की
बात नहीं की
है, स्थिरता
पर जोर दिया
है। इसलिए एक
ही चीज को दो
तरफ से पकड़ने
की कोशिश की
है। कृष्ण पकड़
रहे हैं दीए
की थिरता से, महावीर पकड़
रहे हैं
द्वंद्व के
निषेध से।
लेकिन
द्वंद्व का
निषेध हो तो
प्रज्ञा थिर
हो जाती है, प्रज्ञा थिर
हो जाए तो
द्वंद्व का
निषेध हो जाता
है। ये दोनों
एक ही अर्थ
रखते हैं, इनमें
जरा भी फर्क
नहीं है।
और
उन्होंने
पूछा कि एक
क्षण को, क्षण
के हजारवें
हिस्से
को--जिसे समय
कहें--उसमें
अगर ज्ञान उपलब्ध
हो गया है, दर्शन
हुआ है, तो
क्या
जीवन-व्यवहार
में वह थिर
रहेगा?
असल
में
जीवन-व्यवहार
आता कहां से
है? जीवन-व्यवहार
आता है हमसे।
तो जो हम हैं
गहरे में, जीवन-व्यवहार
वहीं से आता
है। अगर झरना पायज़न से
भरा है, मूल-स्रोत
अगर जहर से
भरा है, तो
जो लहरें छलकती
हैं और जो
बिंदु दिखते
हैं और बूंदें
उचटती हैं, उनमें जहर
होता है। और
मूल-स्रोत
अमृत से भर गया,
तो फिर
उन्हीं
बूंदों में, उन्हीं
लहरों में
अमृत हो जाता
है।
जीवन-व्यवहार
हमसे निकलता
है, हम जैसे
हैं, वैसा
ही हो जाता
है। हम मर्ूच्छित
हैं तो
जीवन-व्यवहार मर्ूच्छित
होता है। जो
हम करते हैं
उसमें मर्ूच्छा
होती है। हम
अज्ञान में
हैं तो
जीवन-व्यवहार अज्ञान
से भरा होता
है। और हम अगर
ज्ञान में पहुंच
गए तो
जीवन-व्यवहार
ज्ञान से भर
जाता है।
जैसे
यह कमरा
अंधेरे से भरा
हो तो फिर हम
उठते हैं और
निकलने की
कोशिश करते हैं
तो कभी द्वार
से टकरा जाते
हैं, कभी
दीवाल से टकरा
जाते हैं, कभी
फर्नीचर से
टकरा जाते
हैं। बिना टकराए
निकलना
मुश्किल होता
है। और कई बार
तो ऐसा होता
है कि टकराते
ही रहते हैं
और नहीं निकल
पाते हैं।
निकल भी जाते
हैं तो भी टकराए
बिना नहीं
निकल पाते
हैं। फिर कोई
व्यक्ति हमसे
कहे कि एक
दीया जला लो।
तो हम उससे
कहें, दीया
जला लेंगे, लेकिन क्या
दीए के जल
जाने पर फिर
हम बिना टकरा
कर निकल
सकेंगे? क्या
फिर हमें
टकराना नहीं
पड़ेगा? क्या
फिर सदा ही
हमारा टकराने
का जो व्यवहार
था, वह बंद
हो जाएगा?
तो वह
कहेगा कि तुम
दीया जलाओ और
देखो।
क्योंकि दीया
जलने पर तुम टकराओगे
कैसे? टकराते
थे अंधेरे के
कारण, दीया
जल गया तो टकराओगे
कैसे? टकराना
भी चाहोगे तो
न टकरा सकोगे,
क्योंकि
चाह कर कभी
कोई टकराया है?
और द्वार जब
दिखाई पड़ेगा
तो तुम दीवाल
से क्यों
निकलोगे? तुम
दीवाल से नहीं
निकलोगे, द्वार
से निकल
जाओगे। दीवाल
से भी निकलने
की कोशिश चलती
थी, क्योंकि
द्वार दिखाई
नहीं पड़ता था।
ज्योति
जल जाए भीतर, तो यह
ज्योति ऐसी भी
नहीं है कि
क्षण भर जले
और फिर बुझ
जाए। क्योंकि
ऐसी ज्योतियां
हैं--दीया हम
जलाएं, फिर
बुझ सकता है, फिर टकरा
सकते हैं। दीए
का तेल चुक
सकता है, दीए
की बाती बुझ
सकती है, हवा
का झोंका आ
सकता है। हजार
घटनाएं घट
सकती हैं। जले
और दीया जरूरी
नहीं है कि
जलता ही रहे, बुझ भी सकता
है। लेकिन जिस
अंतर-ज्योति
की हम बात कर
रहे हैं, वह
ऐसी ज्योति
नहीं है, जो
कभी बुझती है।
अभी भी, जब हमें
उसका पता नहीं
है, तब भी
वह जल रही है।
अभी भी, जब
हम उसके प्रति
जागे नहीं हैं,
तब भी वह जल
रही है, सिर्फ
हम पीठ किए
हैं। बुझी तो
वह कभी है ही
नहीं, क्योंकि
वह हमारी
चेतना का
आंतरिक
हिस्सा है, वह हमारा
स्वभाव है।
पीठ फेरेंगे,
लौट कर
देखेंगे तो वह
जली हुई
पाएंगे। जलेगी
नहीं वह, जली
हुई थी ही, सिर्फ
हमारी पीठ
बदलेगी। हम
पाएंगे वह जली
है।
और ऐसी
ज्योति जो कभी
बुझी नहीं, जो कभी
बुझती नहीं; न तेल है, न
बाती है जहां;
जो हमारी
अंतस-जीवन की
अनिवार्य
क्षमता है, उसको हमने
एक दफा देख
लिया तो बात
समाप्त हो गई।
एक बार हमें
पता चल गया
ज्योति पीछे
है, फिर अब
हम चाहें भी
कि हम पीठ
करके चलें
ज्योति की तरफ
तो हम न चल
पाएंगे, क्योंकि
ज्योति की तरफ
पीठ करके कौन
चल पाया है? कौन चलेगा? एक दफा जान
ले। न जाने तो
बात अलग है।
इसलिए
एक क्षण को भी
उसकी उपलब्धि
हो जाती है तो
वह उपलब्धि
सदा के लिए
चिरस्थायी हो
गई। और उसके
अनुपात में
हमारा
जीवन-व्यवहार
बदलना शुरू हो
जाएगा, एकदम
ही बदल जाएगा।
क्योंकि कल जो
हम करते थे, वह हम आज
कैसे कर
सकेंगे? वह
करते थे
अंधेरे के
कारण, अब
है प्रकाश, और इसलिए वह
करना असंभव
है।
प्रश्न:
(अस्पष्ट
रिकाघडग)
कर्म
के संबंध में
बहुत कुछ
समझना जरूरी
है, क्योंकि
जितनी इस बात
के संबंध में
नासमझी है, उतनी शायद
किसी बात के
संबंध में
नहीं है। इतनी
आमूल
भ्रांतियां
परंपराओं ने
पकड़ ली हैं कि देख
कर आश्चर्य
होता है कि
किसी सत्य
चिंतन के
आस-पास असत्य
की कितनी
दीवालें खड़ी
हो सकती हैं!
साधारणतः
कर्मवाद ऐसा
कहता हुआ
प्रतीत होता है
कि जो हमने
किया है, वह
हमें भोगना
पड़ेगा। हमारे
कर्म और हमारे
भोग में एक
अनिवार्य
कार्य-कारण का
संबंध है। यह
बिलकुल ही
सत्य है। जो
हम करेंगे, हम उससे
अन्यथा नहीं
भोगते हैं, भोग भी नहीं
सकते हैं।
कर्म भोग की
तैयारी है।
असल में कर्म
भोग का
प्रारंभिक बीज
है, फिर
वही बीज भोग
में वृक्ष बन
जाता है। जो
हम करते हैं, वही हम
भोगते हैं।
यह बात
तो ठीक है, लेकिन
कर्मवाद का जो
सिद्धांत
प्रचलित मालूम
पड़ता है, उसमें
इस ठीक बात को
भी इस ढंग से
रखा गया है कि बिलकुल
गैर-ठीक हो
गया। उस
सिद्धांत में
कुछ ऐसी बात न
मालूम किन्हीं
कारणों से
प्रविष्ट हो
गई है और वह यह
है कि कर्म तो
हम अभी करेंगे,
भोगेंगे
अगले जन्म
में।
अब
कार्य-कारण के
बीच कभी
अंतराल नहीं
होता। कॉज और
इफेक्ट के बीच
कभी अंतराल
नहीं होता, अंतराल हो
ही नहीं सकता।
अगर अंतराल
बीच में आ
जाएगा, गैप
आ जाएगा, तो
कार्य-कारण
विच्छिन्न हो
जाएंगे, उनका
संबंध ही टूट
जाएगा। मैं
अभी आग में
हाथ डालूंगा
तो अगले जन्म
में जलूंगा,
अगर कोई
मुझसे कहे, तो यह समझ के
बाहर बात हो
जाएगी।
क्योंकि हाथ मैंने
अभी डाला, जलूंगा
अगले जन्म में,
तो अगले
जन्म में और
इसके बीच का
जो फासला पार
हो रहा है तो
कारण तो अभी
है और कार्य
होगा अगले
जन्म में।
यह
अंतराल किसी
भी भांति
समझाया नहीं
जा सकता। और
कार्य-कारण
में अंतराल
होता ही नहीं, कॉज और
इफेक्ट एक ही
प्रक्रिया के
दो रूप हैं, एक ही
प्रोसेस के दो
हिस्से हैं--जुड़े
हुए, संयुक्त।
इस छोर पर जो
कारण है, उस
छोर पर वही
कार्य है। और
यह पूरी
शृंखला जुड़ी
हुई है, इसमें
कहीं क्षण भर
के लिए भी अगर
अंतराल हो गया
तो शृंखला टूट
जाएगी।
लेकिन
इस तरह के
सिद्धांत की, इस तरह की
भ्रांति की
कुछ वजह थी।
और वह वजह यह थी
कि जीवन में हम
देखते हैं, एक आदमी भला
है और दुख
उठाता हुआ
मालूम पड़ता है,
एक आदमी
बुरा है और
सुख उठाता हुआ
मालूम पड़ता है।
इस घटना ने
कर्मवाद के
पूरे
सिद्धांत की गलत
व्याख्या को
जन्म दे दिया।
इस घटना को
कैसे समझाया
जाए? अगर
प्रतिपल
हमारे कार्य
और हमारे कारण
जुड़े हुए हैं
तो फिर इसे
कैसे बताया
जाए? एक
आदमी भला है, सच्चरित्र
है, ईमानदार
है और दुख भोग
रहा है, कष्ट
पा रहा है। और
एक आदमी बुरा
है, बेईमान
है, बदमाश
है और सुख पा
रहा है, पद
पा रहा है, यश
पा रहा है, धन
पा रहा है। तो
इस घटना को
कैसे समझाया
जाए? अगर
अच्छे कार्य
तत्काल फल
लाते हैं तो
अच्छे आदमी को
सुख भोगना चाहिए।
और अगर बुरे
कार्य तत्काल
बुरा लाते हैं
तो बुरे आदमी
को दुख भोगना
चाहिए। लेकिन
यह तो दिखता
नहीं। भला
आदमी परेशान
दिखता है, बुरा
आदमी परेशान
नहीं भी दिखता
है। तो इसको कैसे
समझाएं?
इसको
समझाने के
पागलपन में सब
गड़बड़ हो गई।
तब रास्ता एक
ही मिला और वह
यह कि जो
अच्छा आदमी
दुख भोग रहा
है, वह अपने
पिछले बुरे
कर्मों के
कारण। और जो
बुरा आदमी सुख
भोग रहा है, वह अपने
पिछले अच्छे
कर्मों के
कारण। हमें
एक-एक जीवन का
अंतराल खड़ा
करना पड़ा इस
स्थिति को समझाने
के लिए।
लेकिन
इस स्थिति को
समझाने के
दूसरे उपाय हो
सकते थे। और
सच में दूसरे
उपाय ही सच
हैं। यह
स्थिति इस तरह
समझाई नहीं गई, बल्कि
कर्मवाद का
पूरा
सिद्धांत
विकृत हो गया।
और कर्मवाद की
जो उपादेयता
थी, वह भी
नष्ट हो गई।
कर्मवाद की
उपादेयता यह
थी कि हम
प्रत्येक
व्यक्ति को यह
कह सकें कि
तुम जो कर रहे
हो, वही
तुम भोग रहे
हो, इसलिए
तुम ऐसा करो
कि तुम सुख
भोग सको, आनंद
भोग सको।
उपादेयता यह
थी, उसका
जो गहरे से
गहरा परिणाम
होना चाहिए था
व्यक्ति-चित्त
पर, वह यह
था कि तुम जो
कर रहे हो, वही
तुम भोग रहे
हो। तो अगर
तुम क्रोध कर
रहे हो तो तुम
दुख
भोगोगे--भोग
ही रहे हो, इसके
पीछे ही वह आ
रहा है छाया
की तरह। अगर
तुम प्रेम कर
रहे हो, शांति
से जी रहे हो, दूसरों को
शांति दे रहे
हो, तो
तुम्हारी
शांति तुम
अर्जित कर रहे
हो, जो आ
रही है पीछे
उसके, जो
तुम्हें मिल
जाएगी--मिल ही
गई है।
यह तो
अर्थ था उसका।
लेकिन इस
सिद्धांत का
इस तरह का
उपयोग करना
जीवन की इस
घटना को
समझाने के
लिए--उस अर्थ
को नष्ट कर
दिया।
क्योंकि कोई
भी व्यक्ति
इतना दूरगामी
चित्त का नहीं
होता कि वह
अभी कर्म करे
और अगले जन्म
में मिलने
वाले फल से
चिंतित हो।
होता ही नहीं
इतना दूरगामी
चित्त। अगला
जन्म--अंधेरे
में खो जाना
है बातों का।
क्या पक्का
भरोसा है अगले
जन्म का? पहले
तो यही पक्का
नहीं कि अगला
जन्म होगा। दूसरा,
यह पक्का
नहीं कि जो
कर्म अभी फल
नहीं दे पा रहा,
वह अगले
जन्म में
देगा। और अगर
एक जन्म तक
रोका जा सकता
है फल को तो
अनेक जन्मों
तक क्यों नहीं
रोका जा सकता?
फिर
दूसरी बात यह
है कि मनुष्य
का जो चित्त
है, वह
तत्काल-जीवी
है। यानी
चित्त की यह
क्षमता ही
नहीं है कि वह
इतनी दूर तक
की व्यवस्था
को पकड़ सके, वह जीता है
तत्काल। तो वह
कहता है कि
ठीक है, अगले
जन्म में जो
होगा होगा; अभी जो हो
रहा है, वह
हो रहा है। और
अभी मैं सुख
से जी रहा हूं,
अभी मैं
क्यों चिंता
करूं अगले
जन्म की?
तो जो
उपादेयता थी, वह भी नष्ट
हो गई; और
जो सत्य था, वह भी नष्ट
हो गया। सत्य
यही था कि
कर्म का सिद्धांत,
जैसे
विज्ञान में
कॉज और इफेक्ट
का, कार्य-कारण
का सिद्धांत
है और सारा
विज्ञान उस पर
खड़ा हुआ है।
अगर
कार्य-कारण के
सिद्धांत को
हटा दो तो
सारा विज्ञान
का भवन गिर
जाएगा।
ह्यूम
ने इंग्लैंड
में इस बात की
कोशिश की कि
कार्य-कारण का
सिद्धांत गलत
सिद्ध हो जाए।
और वह बहुत
कुशल और अदभुत
विचारक था।
उसने कहा कि
तुमने
कार्य-कारण
देखा कब है? उसने कहा कि
तुमने यह देखा
कि एक आदमी ने
आग में हाथ
डाला और तुमने
यह देखा कि
आदमी का हाथ
जल गया, लेकिन
तुम यह कैसे
कहते हो कि आग
में डालने से जल
गया? दो
घटनाएं तुमने
देखीं। आग में
हाथ डाला, यह
देखा; हाथ
जला हुआ निकला,
यह देखा; लेकिन आग
में डालने से
जला, इस
बीच के सूत्र
को तुम कैसे
पहचान गए? तुम्हें
यह कहां से
पता चला? कुल
इतना भी हो
सकता है कि ये
दोनों घटनाएं
कार्य-कारण न
हों, सिर्फ
सहगामी
घटनाएं हों।
जैसे, ह्यूम ने कहा कि दो
घड़ियां हमने
बना लीं, दो
घड़ी लटका दीं
दीवाल पर, जिनमें
भीतर कोई
संबंध नहीं है,
लेकिन ऐसी
व्यवस्था की
कि एक घड़ी में
जब बारह बजेंगे,
तब दूसरी
घड़ी बारह के
घंटे बजाएगी।
तो यह
व्यवस्था हो
सकती है, इसमें
क्या तकलीफ है?
एक घड़ी में
जब बारह पर
कांटा जाएगा
तो दूसरी घड़ी
बाहर के घंटे
बजा देगी।
कार्य-कारण
सिद्धांत
मानने वाला
कहेगा कि जब
इसमें बारह
बजते हैं, तब
इसमें बारह के
घंटे बजते हैं,
इनके बीच
कार्य-कारण का
संबंध है, जब
कि वे सिर्फ
पैरेलल चल रही
हैं, कोई
संबंध वगैरह
है ही नहीं।
तो ह्यूम
ने कहा कि हो
सकता है, प्रकृति
में कुछ
घटनाएं
पैरेलल चल रही
हैं। यानी इधर
तुम आग में
हाथ डालते हो,
उधर हाथ जल
जाता है, और
दोनों के बीच
कोई संबंध
नहीं है।
क्योंकि संबंध
कभी देखा ही
नहीं गया, घटनाएं
देखी गईं। तुम
दोनों का
संबंध कैसे जोड़ते हो?
तो ह्यूम
ने बड़ी चेष्टा
की कार्य-कारण
के सिद्धांत
को गलत सिद्ध
करने की। अगर ह्यूम जीत
जाता तो
पश्चिम में
साइंस गिर
जाती, साइंस
खड़ी नहीं हो
सकती।
क्योंकि
साइंस खड़ी हो
रही है इस
आधार पर कि
चीजों के
संबंध जोड़े जा
सकते हैं। एक
आदमी को कैंसर
है, टी.बी. है, तो हम
कारण-कार्य के
हिसाब से तो
इलाज कर पाते हैं
कि उसको जो जर्म्स
हैं, यह
दवा देने से
मर जाएंगे। यह
दवा उनके लिए
कारण बनेगी और
मृत्यु का
कार्य हो
जाएगी, तो
हम इलाज कर
लेते हैं।
फलां बम पटकने
से इतनी आग
पैदा होगी, इतने लोग मर
जाएंगे, तो
बम बन जाता
है। सारा
विज्ञान ही
कार्य-कारण के
सिद्धांत पर
खड़ा है। अगर ह्यूम जीत
जाए तो सारा
विज्ञान गिर
जाए।
धर्म
भी विज्ञान है
और वह भी
कार्य-कारण के
सिद्धांत पर
खड़ा है। और
अगर चार्वाक
जीत जाए तो
धर्म गिर जाए
पूरा का पूरा।
जो ह्यूम
विज्ञान के
खिलाफ कह रहा
है, वही चार्वाकों
ने धर्म के
खिलाफ कहा।
उन्होंने कहा
कि खाओ-पीयो,
मौज करो, क्योंकि कोई
पक्का भरोसा
नहीं है कि जो
बुरा करता है,
उसको बुरा
ही मिलता है।
क्योंकि देखो
न! एक आदमी
बुरा कर रहा
है और भला भोग
रहा है--कहां
कार्य-कारण का
कोई संबंध है
इसमें? एक
आदमी भला कर
रहा है और
पीड़ा झेल रहा
है। कोई कार्य-कारण
का संबंध नहीं
है।
इसलिए चार्वाकों
ने कहा, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्!
अगर ऋण लेकर
भी घी पीने को
मिले तो पीयो,
क्योंकि ऋण
चुकाने की
जरूरत क्या है?
इसकी
अनिवार्यता
कहां है? सवाल
असली में घी
मिलने का है, वह कैसे
मिलता है, यह
सवाल ही नहीं
है। और तुमने
ऋण से लिया और
नहीं चुकाया,
इसका फल
मिलेगा; ये
सब पागलपन की
बातें हैं।
कहां फल मिल
रहे हैं! ऋण
लेने वाले मजा
कर रहे हैं, न लेने वाले
दुख भी उठा
रहे हैं। कोई
कार्य-कारण का
सिद्धांत
नहीं है।
ह्यूम
ने इंग्लैंड
में विज्ञान
के खिलाफ जो
बात कही, अगर
ह्यूम
जीत जाए तो
विज्ञान का
जन्म नहीं
होता, अगर
चार्वाक जीत
जाए तो धर्म
का जन्म नहीं
होता।
क्योंकि
चार्वाक ने भी
यही कहा कि
इसमें कोई
संबंध ही नहीं
है। असंबद्ध
क्रम है
घटनाओं का। तो
चोर मजा कर
सकता है, अचोर
दुख उठा सकता
है। क्रोधी
आनंद कर सकता
है, अक्रोधी
पीड़ा उठा सकता
है। इसमें कोई
संबंध ही नहीं
है। सब जीवन
के कर्म
असंबद्ध हैं,
इनमें कोई
संबंध ही नहीं
है। और अगर
कहीं संबंध भी
दिखाई पड़ता हो
तो वह सिर्फ पैरेललिज्म
की भूल है। वह
सिर्फ इसलिए
दिखाई पड़ जाता
है कि चीजें
समानांतर
कभी-कभी घट
जाती हैं, बस
और कोई मतलब
नहीं है।
लेकिन
बुद्धिमान
आदमी इस चक्कर
में नहीं पड़ता
है, चार्वाक
ने कहा, बुद्धिमान
आदमी तो जानता
है कि किसी
कर्म का किसी
फल से कोई
संबंध नहीं
है। इसलिए जो
सुखद है, वह
करता है, चाहे
लोग उसे बुरा
कहते हों, चाहे
भला कहते हों।
क्योंकि
दुबारा न
लौटना है, न
दुबारा कोई
जन्म है।
चार्वाक
के विरोध में
ही महावीर का
कर्म का सिद्धांत
है। इस विरोध
में ही कि न तो
वस्तु-जगत में
कार्य-कारण के
बिना कुछ हो
रहा है और न
चेतना-जगत में
कार्य-कारण के
बिना कुछ हो
रहा है। विज्ञान
में तो
स्थापित हो गई
बात। ह्यूम
हार गया और
विज्ञान का
भवन खड़ा हो
गया। लेकिन
धर्म के जगत
में अब भी ठीक
से स्थापित नहीं
हो सकी बात।
और न होने का
जो बड़े से बड़ा
कारण बना, वह यह कि
विज्ञान तो
कहता है अभी
कारण, अभी
कार्य; और
ये धार्मिक
तथाकथित
व्याख्याकार
कहने लगे, अभी
कारण, अगले
जन्म में
कार्य! बस
इससे सब गड़बड़
हो गया। यानी
धर्म का भवन
खड़ा नहीं हो
सका, इस
अंतराल में सब
बेईमानी हो
गई। क्योंकि
यह अंतराल
एकदम झूठ है।
कार्य और कारण
में अगर कोई
संबंध है तो
उनके बीच में
गैप नहीं हो
सकता, क्योंकि
गैप होगा तो
फिर संबंध
क्या रहा? डिस्कंटिन्यूटी हो गई, चीजें
असंबद्ध हो
गईं, अलग-अलग
हो गईं, फिर
कोई संबंध न
रहा। और यह
व्याख्या
नैतिक लोगों
ने खोज ली, क्योंकि
वे समझा नहीं
सके जीवन को।
तो
पहली तो बात
मैं आपको जीवन
को समझाऊं, जिसकी वजह
से यह अंतराल
टूटे। मेरी
अपनी समझ यह
है कि
प्रत्येक
कर्म तत्काल
फलदायी
है--तत्काल, इमीजिएट। जैसे
मैंने क्रोध
किया तो मैं
क्रोध करने के
क्षण से ही
क्रोध का भोगना
शुरू कर देता
हूं। ऐसा नहीं
कि अगले जन्म
में क्रोध का
फल भोगूंगा।
क्रोध करता
हूं और क्रोध
का दुख भोगता
हूं। यानी
क्रोध का करना
और दुख का
भोगना युगपत
चल रहा है, साथ
चल रहा है।
क्रोध तो विदा
हो जाता है, लेकिन दुख
का सिलसिला और
भी देर तक
चलता रहता है।
तो
पहला हिस्सा
कारण हो गया, दूसरा
हिस्सा कार्य
हो गया। ऐसा
असंभव है कि कोई
आदमी क्रोध
करे और दुख न
झेले। ऐसा भी
असंभव है कि
कोई आदमी
प्रेम करे और
आनंद अनुभव न
करे। क्योंकि
प्रेम करने की
क्रिया में ही,
प्रेम करने
के कृत्य में
ही प्रेम का
आनंद झरना
शुरू हो जाता
है। एक आदमी
रास्ते पर
गिरे हुए किसी
आदमी को उठाए--उठाए
अभी और अगले
जन्म तक
प्रतीक्षा
करे, ऐसा
नहीं--उठाने
के क्षण में
ही, वह जो
उठाने का आनंद
है, भरपूर,
उसके हृदय
को भर जाता
है। ऐसा नहीं
है कि उठाने
का कृत्य अलग
है और फिर
आनंद कहीं और
प्रतीक्षा कर
रहा है, जो
मिलेगा। तो
कहीं कोई
हिसाब-किताब
रखने की जरूरत
नहीं है।
इसीलिए
महावीर भगवान
को विदा कर
सके। अगर हिसाब-किताब
रखना है
जन्मों-जन्मों
तक तो फिर नियंता
की व्यवस्था
जरूरी हो
जाएगी। यह
ध्यान में रहे, महावीर
नियंता को
बिलकुल विदा
कर सके।
क्योंकि
उन्होंने कहा,
नियम काफी
है, नियंता
की कोई जरूरत
नहीं है।
नियंता की
जरूरत वहां
होती है, जहां
नियम का
लेखा-जोखा
रखना पड़ता हो।
क्रोध मैं अभी
करूं और किसी
जन्म में मुझे
फल मिलता हो
तो इसका हिसाब
कहां रहेगा? इसका हिसाब
किस व्यवस्था में
संरक्षित
रहेगा? यह
कहां लिखा
रहेगा कि
मैंने किया था
क्रोध और मुझे
यह-यह फल
मिलना चाहिए,
कितना
क्रोध किया था,
कितना फल
मिलना चाहिए।
अगर
सारे
व्यक्तियों
के कर्मों की
कोई इस तरह की
व्यवस्था हो
कि अभी हम
कर्म करेंगे
और फिर कभी
अनंतकाल में
भोगेंगे तो
बड़े हिसाब-किताब, एकाउंट्स की जरूरत
पड़ेगी, बड़ी
खाते-बहियां
होंगी। नहीं
तो कैसे होगा
यह? तो फिर
इस सबके
इंतजाम के लिए
एक एकाउंटेंट
जनरल की भी
जरूरत ही पड़
जाएगी, जो
सब
हिसाब-किताब
रखता हो। और
परमात्मा को
बहुत से लोगों
ने एकाउंटेंट
जनरल की तरह
ही सोचा हुआ
है। वह सब
नियंता है, सारे नियम
की देख-रेख
रखता है कि
नियम पूरे हो रहे
हैं या नहीं।
लेकिन
महावीर ने बड़ी
वैज्ञानिक
बात कही। उन्होंने
कहा, नियम
पर्याप्त है,
नियंता की
कोई जरूरत
नहीं।
क्योंकि नियम
स्वयंभू काम
करता है। जैसे
आग में हाथ
डालते हैं, हाथ जल जाता
है। यह आग का
स्वभाव है कि
वह जलाती है, यह हाथ का
स्वभाव है कि
वह जलता है।
अब डालने की
बात है, डालने
से संयोग हो
जाता है।
डालना कर्म बन
जाता है और
पीछे जो भोगना
है, वह फल
बन जाता है।
इसमें किसी को
भी व्यवस्थित
होकर खड़े होने
की, आग को
कहने की जरूरत
नहीं कि अब
जला--यह आदमी
हाथ डालता है।
हाथ डालना और
जलना यह बिलकुल
ही स्वयंभू
नियम के
अंतर्गत हो
जाते हैं।
नियम
है, नियंता
नहीं है, लॉ
है, लॉ गिवर
नहीं
है--महावीर के
हिसाब में।
क्योंकि
महावीर कहते
हैं कि अगर
नियंता हो तो नियम
में गड़बड़ होने
की सदा
संभावना है।
क्योंकि कोई
प्रार्थना
करे, हाथ जोड़े,
खुशामद करे
नियंता की, नियंता किसी
पर खुश हो जाए,
किसी पर
नाराज हो जाए,
तो कभी आग
में हाथ जले
और कभी न जले।
कभी भक्त, जैसे
प्रहलाद,
आग में न
जले, क्योंकि
भगवान उस पर
प्रसन्न हैं।
तो
महावीर कहते
हैं कि अगर
ऐसा कोई
नियंता है तो
नियम सदा गड़बड़
होगा।
क्योंकि वह जो
नियंता का एक
तत्व और एक
व्यर्थ की
परेशानी खड़ी
करता है। अब प्रहलाद
उसका भक्त है
तो वह उसको
नहीं जलाता आग
में, पहाड़ से गिराओ तो
उसके पैर नहीं
टूटते! और
दूसरे किसी को
गिराओ तो
उसके पैर टूट
जाते हैं। तो
फिर पारशियलिटी
और पक्षपात
शुरू होगा। प्रहलाद
की पूरी कथा
पक्षपात की
कथा है। उसमें
अपने आदमी की
फिक्र की जा
रही है, उसमें
अपने व्यक्ति
के लिए विशेष
सुविधाएं और
अपवाद दिए जा
रहे हैं।
महावीर
कहते हैं, अगर ऐसे
अपवाद हैं, तब फिर धर्म
नहीं हो सकता।
धर्म का बहुत
गहरे से गहरा
मतलब होता है,
दि लॉ। धर्म
का मतलब ही
होता है नियम,
और कोई मतलब
ही नहीं होता।
धर्म का मतलब
ही होता है
नियम। और नियम
पर अगर एक ऊपर
नियंता भी है
तो फिर सब
गड़बड़ हो
जाएगी। कभी
ऐसा हो सकता
है कि टी.बी.
के जर्म्स
किसी दवा से मरें, और
कभी ऐसा हो
सकता है कि टी.बी.
के जर्म्स
प्रहलाद
की तरह भगवान
के भक्त हों
और दवा कोई
काम न करे। इसमें
क्या कठिनाई
है! फिर नियम
नहीं हो सकता।
अगर नियंता है
तो नियम में
बाधा पड़ेगी।
इसलिए
महावीर नियम
के पक्ष में
नियंता को विदा
कर देते हैं।
यह बड़ी
महत्वपूर्ण
बात है, नियम
के पक्ष में
नियंता को
विदा कर देते
हैं। वे कहते
हैं, नियम
काफी है, और
नियम अखंड है।
नियम से
प्रार्थना, पूजा, पाठ
से बचने का
कोई उपाय नहीं
है। बस नियम
से बचने का एक
ही उपाय है कि
नियम को समझ
लो कि आग में
हाथ डालने से
हाथ जलता है
इसलिए हाथ मत डालो।
इसको समझ लेना
जरूरी है। अगर
नियंता है तो
फिर यह भी हो
सकता है कि
नियंता को
राजी कर लो और
हाथ डालो।
क्योंकि
नियंता उपाय
कर देगा कि
नहीं जलाते।
अच्छा, ठहरो,
आग को कह
देगा, रुको
अभी, इस
आदमी को जलाना
मत।
तो
महावीर कहते
हैं कि
चार्वाक को
अगर मान लिया
जाए तो भी
जीवन
अव्यवस्थित
हो जाता है, क्योंकि वह
कहता है कि दो
कर्मों के बीच
में कोई
अनिवार्य
संबंध नहीं
है। और महावीर
कहते हैं कि
अगर भगवान को
मानने वालों
को मान लिया
जाए तो वे भी
यह कहते हैं
कि अनिवार्य
संबंध के बीच
में एक
व्यक्ति है, जो अनिवार्य
संबंधों को भी
शिथिल कर सकता
है। इसलिए वे
कहते हैं, चार्वाक
भी अव्यवस्था
में ले जाता
है, भगवान
को मानने वाला
भी अव्यवस्था
में ले जाता
है। ये दोनों
एक ही तरह के
लोग हैं।
चार्वाक नियम
को ही तोड़ कर
अव्यवस्था
पैदा कर देता
है और भगवान
को मानने वाला
नियम के ऊपर
भी किसी को
स्थापित
करके।
तो
महावीर यह
पूछते हैं कि
वह भगवान नियम
के अंतर्गत
चलता है? अगर
नियम के
अंतर्गत चलता
है तो उसकी
जरूरत क्या है?
यानी अगर
भगवान आग में
हाथ डालेगा तो
उसका हाथ
जलेगा कि नहीं?
अगर जलता है
उसका हाथ भी, तो वह भी
वैसा ही है, जैसे हम
हैं। और अगर
ऐसा है कि
भगवान के लिए
अपवाद है कि
वह आग में हाथ
डाले तो नहीं
जलता है, बल्कि
शीतल मालूम
होती है आग, तो ऐसा
भगवान खतरनाक
है, क्योंकि
इस भगवान से
जो भी दोस्ती बनाएंगे, वे आग में
हाथ भी
डालेंगे और
शीतल होने का
उपाय भी कर
लेंगे।
इसलिए
महावीर कहते
हैं कि हम
नियम को तो
इनकार नहीं
करते क्योंकि
नियम का इनकार
करना अवैज्ञानिक
है, नियम तो
है। और हम
नियंता को
स्वीकार नहीं
करते, क्योंकि
नियंता की
स्वीकृति
नियम में फिर
बाधा डालती
है।
तो जो
विज्ञान ने
अभी पश्चिम
में इस तीन सौ
वर्षों में
उपलब्ध किया
है कि विज्ञान
सीधे नियम पर
निर्धारित है, सीधे नियम
की खोज, कॉज
एंड इफेक्ट के
कानून की खोज
है। और
विज्ञान कहता
है, किसी
भगवान से हमें
कुछ लेना-देना
नहीं, हम
तो प्रकृति का
नियम खोज लेते
हैं और नियम कारगर
है। ठीक यही
बात पच्चीस सौ
साल पहले महावीर
ने चेतना के
जगत में कही
कि नियंता को
हम विदा करते
हैं और
चार्वाक को हम
मान नहीं सकते,
क्योंकि वह
सिर्फ
अव्यवस्था है,
अराजकता
है। दोनों के
बीच में एक
उपाय है, वह
यह है कि नियम
शाश्वत है, अखंड है और
अपरिवर्तनीय
है। और उस
अपरिवर्तनीय
नियम पर ही
धर्म का
विज्ञान खड़ा
हो सकता है।
लेकिन
उस
अपरिवर्तनीय
नियम में पीछे
के व्याख्याकारों
ने जो जन्मों
का फासला किया, उसने फिर
गड़बड़ पैदा कर
दी। यह तीसरी
गड़बड़ थी। पहली
गड़बड़ थी
चार्वाक की, दूसरी गड़बड़
थी भगवान के
भक्त की, तीसरी
गड़बड़ थी दो
जन्मों के बीच
में अंतराल पैदा
करने वाले की।
और महावीर को
फिर झुठला
दिया गया।
यह
असंभव ही है
कि एक कर्म
अभी हो और फल
फिर कभी। फल
इसी कर्म की
शृंखला का
हिस्सा होगा, इसी कर्म के
साथ मिलना
शुरू हो
जाएगा। हम जो
भी करते हैं, हम उसे भोग
लेते हैं। और
अगर यह हमें
पूरी सघनता
में स्मरण हो
जाए तो हमारे
जीवन में और
हमारे कर्म
में अनिवार्य
अंतर पड़ने
वाला है। अगर यह
बोध बहुत
स्पष्ट हो जाए
कि मैं जो भी
कर रहा हूं, वही भोग रहा
हूं; या जो
मैं भोग रहा
हूं, वह
मैं जरूर कर
रहा हूं।
एक
आदमी दुखी है, एक आदमी
अशांत है, और
वह आपके पास
आता है और
पूछता है, शांति
का रास्ता
चाहिए। अशांत
है तो वह
सोचता है, किसी
पिछले जन्मों
का कर्मफल भोग
रहा हूं। बड़ी
गलत व्याख्या में
पड़ा हुआ है।
अशांत है तो
उसका मतलब है
कि वह जो अभी
कर रहा है...।
अच्छा, पिछले जन्म
में जो किया
है, आज उसे
अनकिया, अनडन
करने का कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन जो मैं
अभी कर रहा
हूं, उसे
अनकिया करने
की अभी मेरी
सामर्थ्य है।
अगर मैं आग
में हाथ डाल
रहा हूं, मेरा
हाथ जल रहा है,
और अगर मेरी
मान्यता यह है
कि पिछले जन्म
के किसी पाप
का फल भोग रहा
हूं तो मैं
हाथ डाले चला जाऊंगा, क्योंकि
पिछले जन्म के
कर्म को मैं
बदल कैसे सकता
हूं? यह तो
होगा ही। इधर
आग में हाथ
डालूंगा, जलूंगा
और गुरुओं से पूछूंगा
कि शांति का
उपाय बताइए, क्योंकि हाथ
बहुत जल रहा
है। और वे
गुरु भी यह मानते
हैं कि पिछले
जन्म के फल के
कारण जल रहा है।
तो वे भी नहीं
कहते कि हाथ
बाहर खींचो, क्योंकि हाथ
जल रहा है तो
उसका मतलब हाथ
अभी डाला जा
रहा है। और
अभी डाला गया
हाथ बाहर भी
खींचा जा सकता
है, लेकिन
एक जन्म पहले
डाला गया हाथ
आज कैसे बाहर
खींचा जा सकता
है?
तो इस
व्याख्या ने
कि दो जन्मों
के बीच और अनंत
जन्मों में फल
का भोग चलता
है, मनुष्य
को एकदम
परतंत्र कर
दिया।
परतंत्रता पूरी
हो गई, क्योंकि
पीछा तो बंधा
हुआ हो गया, अब उसमें
कुछ किया नहीं
जा सकता।
तो
मेरा मानना है
कि सब कुछ
किया जा सकता
है इसी वक्त, क्योंकि जो
हम कर रहे हैं,
वही हम भोग
रहे हैं।
एक
मित्र मेरे
पास आए, कोई
दो या तीन
वर्ष हुए।
उन्होंने कहा
कि बहुत अशांत
हूं। अरविंद
आश्रम गया, वहां भी
शांति नहीं
मिली; रमण
आश्रम गया, वहां भी
शांति नहीं
मिली; शिवानंद
के वहां गया, वहां भी
शांति नहीं
मिली। कहीं
शांति नहीं, सब धोखा-धड़ी
है, सब
बातचीत है।
कहीं कोई
शांति नहीं
मिलती। पांडिचेरी
में किसी ने
आपका नाम ले
दिया तो वहां
से सीधा यहां
चला आ रहा
हूं।
तो
मैंने कहा, अब तुम सीधे
एकदम मकान के
बाहर हो जाओ, क्योंकि
इसके पहले कि
तुम जाकर कहीं
कहो कि वहां
भी शांति नहीं
मिली...। मैंने
उनसे पूछा कि
तुम अशांति
खोजने किससे
पूछने गए
थे--अरविंद से,
रमण से, मुझसे?
अशांति
तुमने पैदा की,
तुमने
किस-किस से
सलाह ली थी? कौन है गुरु
तुम्हारा? उन्होंने
कहा, नहीं,
मेरा कोई
गुरु नहीं, अशांति के लिए
मैंने किसी से
नहीं पूछा।
मैंने
कहा, अशांति
के लिए तुम
खुद ही गुरु
हो, पर्याप्त
हो और शांति
हमने ठेका
लिया हुआ है तुम्हारे
लिए? शांति
तुम हमसे
पूछोगे, न
मिले तो हम
धोखा सिद्ध
होंगे! यानी
मजा यह है, न
मिले तो धोखा
मैं सिद्ध
होऊंगा।
अशांति तुम पैदा
करो, शांति
मैं तुम्हें
दूं, और न
दे पाऊं
तो धोखा मैं
हूं!
मैंने
उनसे कहा कि
कृपा करके
इतना ही खोजो
कि तुम्हें
अशांति कैसे
मिल रही है, बस। जिस ढंग
से तुम अशांति
पा रहे हो, उस
ढंग को बदलो।
वह ढंग अशांति
देने वाला है।
वह कारण है
तुम्हारी
अशांति का। तो
उसको तो तुम देखना
नहीं चाहते!
तो वह आदमी
कहता है कि वह
तो जन्मों-जन्मों
का है हिसाब
अशांति का। तो
मैंने कहा, जन्मों-जन्मों
कोशिश करनी
पड़ेगी फिर अब
शांति के लिए।
फिर इतनी
जल्दी होने
वाला भी नहीं।
पर मैं तुमसे
कहता हूं कि
हो सकता है, क्योंकि मैं
कहता हूं
जन्मों-जन्मों
की बात नहीं
है, तुम
अभी कर रहे हो
अशांति के लिए
सब उपाय।
मैंने
कहा, तुम दोत्तीन
दिन रुक जाओ
कृपा करके, तुम अपनी
अशांति की
चर्चा करो
मुझसे।
क्या-क्या
अशांति है, कैसे-कैसे
पैदा हो रही
है, क्या-क्या
हो रहा है।
तीन
दिन वह आदमी
रुका था। तो
चूंकि मैं तो
शांति की कोई
तरकीब बता ही
नहीं रहा था, उसको अपनी
अशांति की ही
बात करनी पड़ी।
धीरे-धीरे
उसकी बात
खुली। उसका एक
ही लड़का है, लखपति आदमी
है, बड़ा
ठेकेदार है, एक ही लड़का
है। जिस लड़की
से वह नहीं
चाहता था शादी
करे, उस
लड़की से उस
लड़के ने शादी
कर ली। तो
दरवाजे पर
बंदूक लेकर खड़ा
हो गया जब वे
दोनों आए और
कहा कि सिर्फ
लाश अंदर जा
सकती है घर के
तुम्हारे।
नहीं तो वापस
लौट जाओ! अब
मुझसे
तुम्हारा कोई
संबंध नहीं।
तो
मैंने उससे
पूछा, उस
लड़की में कोई
खराबी है? कहा,
नहीं, लड़की
में तो कोई
खराबी नहीं, लड़की तो
एकदम ठीक है।
तो मैंने कहा,
उस लड़के और
लड़की के संबंध
में कोई पाप
है? नहीं, वह भी पाप
नहीं है। तो
फिर मैंने कहा,
मामला क्या
है? आपकी
नाराजगी क्या
है? सिर्फ
इतना ही न कि
आपके अहंकार
को तृप्ति न मिली,
लड़के ने
आपकी आज्ञा न
मानी? और
अहंकार तो
अशांति लाता
है।
अब उस
लड़के को बाहर
निकाल दिया है।
बड़े आदमी का
लड़का है, पढ़ा-लिखा
भी नहीं था
ठीक से, वह
दिल्ली में
कोई
अस्सी-नब्बे
रुपए महीने की
नौकरी कर रहा
है। और लाखों
रुपए सब उसके
ही हैं। अब यह
बाप तड़प
रहा है। तो अब
यह अरविंद
आश्रम जा रहा
है, इधर जा
रहा है, उधर
जा रहा है।
मैंने कहा कि
तुम्हें कहीं
जाने की जरूरत
नहीं है, लड़के
से जाकर क्षमा
मांगो।
तुम्हारा
अहंकार तुम्हें
दुख दे रहा
है। और अहंकार
दुख देता है।
और तुम्हारा
अहंकार से
किया गया
कृत्य अशांति
ला रहा है।
मैंने कहा, तुम अपने
दिल की बात
कहो, तुम्हारे
मन में लड़के
को वापस लाने
का है?
हां, बिलकुल है।
वही मेरा लड़का
है, अब मैं
कितना पछता
रहा हूं। हम बुङ्ढे-बुङ्ढी
हैं दोनों, मरने के
करीब हैं, सब
उसका है। और
जब हमें पता
चलता है, वह
नब्बे रुपए
महीने की
नौकरी कर रहा
है दिल्ली में,
तो हमारी
बिलकुल नींद उचट गई है।
और अब यह भी
लगता है, उस
लड़की का भी
क्या कसूर है!
तो
मैंने कहा, इसमें तो
कोई बात नहीं,
जब तुम
बंदूक लेकर
खड़े हो सकते
थे तो जाकर
क्षमा मांग
सकते हो। तुम
प्रेम का
नियंत्रण
करोगे? तुम्हारा
लड़का है माना,
लेकिन
प्रेम करने का
हक तो उसका ही
है, तुम्हारा
तो नहीं है
इसमें बीच में
बाधा डालने का
कुछ। तुमने बाधा
डाली है, तुम
दुख भोग रहे
हो। मैंने कहा
कि तुम अब
पहला काम करो
कि तुम सीधे
चले जाओ
दिल्ली और उस
लड़के से क्षमा
मांग लो।
उसकी
बात समझ में आ
गई। वह आदमी
दिल्ली गया, उसने क्षमा
मांगी। एक
पंद्रह दिन
बाद उसका पत्र
आया कि मैं
हैरान हूं और
आपने ठीक कहा,
मुझे शांति
कहीं नहीं
मिलती। वह
लड़के और बहू
घर आ गए और मैं
इतना आनंदित
हूं, जितना
मैं कभी भी
नहीं था; इतना
शांत हूं, जितना
मैं कभी भी
नहीं था।
अब
हमारी कठिनाई
यह है कि हम जो
कर रहे हैं, वही अशांति
ला रहा है, तब
तो कुछ बदलाहट
अभी की जा
सकती है, इसी
वक्त। और अगर
कभी कुछ किया
था, वह
अशांति ला रहा
है, तब तो
बदलाहट का कोई
उपाय नहीं। और
यह जो पैदा करना
पड़ा हमें
सिद्धांत, वह
जिंदगी की इस
घटना को
समझाने के लिए
कि उलटी
स्थिति दिखाई
पड़ती है। उसका
कारण दूसरा
है।
जैसे, मेरी अपनी
समझ में अगर
एक बुरा आदमी
सफल होता है, सुखी होता
है। तो बुरा
आदमी एक बहुत
बड़ी कांप्लेक्स,
जटिल घटना
है। हो सकता
है वह झूठ
बोलता है, बेईमानी
करता है; लेकिन
उसमें कुछ और
भी गुण हैं, जो हमें
दिखाई नहीं
पड़ते। वह
साहसी हो सकता
है, हिम्मतवर
हो सकता है, पहल करने
वाला हो सकता
है, इनीशिएटिव लेने वाला
हो सकता है, बुद्धिमान
हो सकता है, एक-एक कदम को
जिंदगी में
समझ कर उठाने
वाला हो सकता
है--बेईमान हो
सकता है, चोर
हो सकता है।
ये सब बातें
हो सकती हैं।
बुरा आदमी
इतनी बड़ी घटना
है कि उसके एक
पहलू को कि वह
बेईमान है, देख कर अगर
आपने निर्णय
करना चाहा तो
आप गलती में
पड़ जाएंगे।
और एक
अच्छा आदमी भी
बड़ी घटना है।
अब हो सकता है
अच्छा आदमी
चोरी भी नहीं
करता, बेईमानी
भी नहीं करता,
लेकिन हो
सकता है बहुत
भयभीत आदमी हो,
शायद
इसीलिए चोरी
और बेईमानी न
करता हो, बिलकुल
साहस की कमी
हो, साहस
कर ही न पाता
हो, जोखिम
उठा न पाता हो,
बुद्धिमान
न हो, बुद्धिहीन
हो। क्योंकि
अच्छा होने के
लिए कोई
बुद्धिमान
होना बहुत
जरूरी नहीं
है। बल्कि अक्सर
ऐसा होता है
कि बुद्धिमान
आदमी का अच्छा
होना मुश्किल
हो जाता है, बुद्धिहीन
आदमी अच्छा
होने के लिए
मजबूर होता
है। कोई उपाय
नहीं, क्योंकि
बुद्धिहीनता
बुरे होने में
फौरन फंसा
देती है। तो
बुद्धिहीन
हो। लेकिन हम
इन सब बातों
को नहीं तौलेंगे।
हम तो कहेंगे,
आदमी अच्छा
है, झूठ
नहीं बोलता, मंदिर जाता
है, इसको
सफलता मिलनी
चाहिए, इसको
सुख मिलना
चाहिए।
मेरी
अपनी मान्यता
है, सफलता
मिलती है साहस
से। अगर बुरा
आदमी भी साहसी
है तो सफलता
ले आएगा। हां,
अगर अच्छा
आदमी साहसी है
तो बुरे आदमी
से हजार गुनी
सफलता लाएगा,
लेकिन
सफलता मिलती
है साहस से।
बुरे तक को
मिल जाती है
सफलता।
सफलता
मिलती है
बुद्धिमानी
से। अगर बुरा
आदमी
बुद्धिमान है
तो सफल हो
जाएगा। अगर
अच्छा आदमी
बुद्धिमान है
तो हजार गुना
सफल हो जाएगा।
लेकिन सफलता
अच्छे होने भर
से नहीं आती, सफलता आती
है
बुद्धिमानी
से, विचार
से, विवेक
से।
और तब
हम क्या करते
हैं कि हम ऐसा
पकड़ लेते हैं एक-एक
गुण कि यह
आदमी देखो
कितना अच्छा
है, मंदिर
जाता है, रोज
प्रार्थना
करता है, लेकिन
पैसा इसके पास
बिलकुल नहीं
है। अब मंदिर
और प्रार्थना
करने से पैसे
के होने का
क्या संबंध है?
कोई भी
संबंध नहीं
है। पैसा
कमाना पड़ेगा।
और अगर यह
नहीं कमा रहा
है तो भटक
जाएगा, नहीं
पैसा कमा
पाएगा। और अगर
यह सच में
अच्छा आदमी है
तो पैसा नहीं
कमा पाया, यह
पीड़ा भी इसके
मन में नहीं
होगी।
क्योंकि नहीं
कमा पाया तो
मैंने नहीं
कमाया, बात
खतम हो गई है।
और इसके मन
में यह द्वेष
भी नहीं होगा
कि फलां आदमी
बुरा है और वह
कमा रहा है।
अगर
कोई अच्छा
आदमी यह कहता
है कि मैं
सुखी नहीं हूं, क्योंकि मैं
अच्छा हूं, और वह आदमी
सुखी है, क्योंकि
वह बुरा है, तो यह आदमी
बुरे होने का
सबूत दे रहा
है। यहर्
ईष्या से भरा
हुआ आदमी है।
यह बुरे आदमी
को जो-जो मिला
है, सब
चाहता है और
अच्छा रह कर
पाना चाहता
है। यानी इसकी
आकांक्षा ही
बड़ी बेहूदी है,
इसकी
आकांक्षा हद
की बेहूदी है।
एक तो
यह बुरा भी
नहीं होना--वह
बेचारा बुरा
भी हो, बुरे
होकर उसने दस
लाख रुपए कमा
लिए हैं तो दस लाख
रुपए कमाने
में बुरे होने
का सौदा
चुकाया है, बुरे होने
की पीड़ा झेली
है, बुरे
होने का दंश
भी झेला है, कांटा भी
झेला है। यह
इन कामों को
भी नहीं करना
चाहता, न
बुरा होना
चाहता है, न
बुरे होने का
दंश झेलना
चाहता, न
स्वर्ग बिगाड़ना
चाहता, न
कर्मफल बिगाड़ना
चाहता, यह
कुछ नहीं बिगाड़ना
चाहता। यह
आदमी मंदिर
में पूजा करना
चाहता है, घर
बैठना चाहता
है, उसको
जो दस लाख
मिले वह भी
चाहता है!
और जब
इसको नहीं
मिलते तो यह
कहता है कि
फिर अब यही है
कि मेरे पिछले
जन्मों का कोई
बुरे कर्म का
फल भोग रहा
हूं और वह
आदमी किसी
पिछले जन्म के
अच्छे कर्म का
फल भोग रहा है।
अभी तो, अभी
तो जो कर रहा
है, वह तो
उसको फल देने
वाला नहीं था,
अगले जन्म
में लेकिन
पाएगा कष्ट, नर्क भोगेगा;
ऐसे वह
सांत्वना भी
दे रहा है
अपने को। वह जोर्
ईष्या है--तो
इस आदमी को वह
अगले जन्म में
नर्क भेज कर
सुख भी पा रहा
है कि चलो कोई
बात नहीं, आज
हम दुख भोग
रहे हैं, अगले
जन्म में हम
तो स्वर्ग में
होंगे, तुम
नर्क में
होओगे।
यह
सारी की सारी
बात ने कर्म
की पूरी
वैज्ञानिक
चिंतना को
एकदम ही मूढ़तापूर्ण
कर दिया। मेरा
मानना है कि
कर्म का फल
तत्काल है, लेकिन कर्म
बहुत जटिल बात
है। साहस भी
कर्म है, उसका
भी फल है; साहसहीनता
भी कर्म है, उसका भी फल
है।
बुद्धिमानी
भी कर्म है, उसका फल है; बुद्धिहीनता
भी कर्म है, उसका भी फल
है। इनीशिएटिव
लेना, पहल
करना, जोखिम
उठाना भी कर्म
है; उसका
भी फल है।
जोखिम न उठाना,
घर में बैठे
रहना, वह
भी एक कर्म है;
उसका भी फल
है। और इन
सारे कर्मों
का इकट्ठा फल
होता है। तो
इकट्ठे फल को
हम किसी एक
कारण से जोड़ेंगे
तो हम मुश्किल
में पड़ जाते
हैं। और एक
कारण से नहीं
जोड़ा जा सकता।
बुरे आदमी सफल
हो सकते हैं, क्योंकि सफलता
के कोई कारण
उनके भीतर
होंगे। अच्छे
आदमी असफल हो
सकते हैं, क्योंकि
असफलता के कोई
कारण उनके
भीतर होंगे।
बुरे आदमी
सुखी भी हो
सकते हैं, क्योंकि
सुख के भी कोई
कारण उनके
भीतर होंगे। और
अच्छे आदमी
दुखी भी हो
सकते हैं, क्योंकि
दुख के भी कोई
कारण उनके
भीतर होंगे।
अब जैसेर्
ईष्या दुख
देती है और
अच्छा आदमी अगरर् ईष्यालु
है तो दुख
पाएगा। और हो
सकता है बुरा आदमीर् ईष्यालु न
हो और सुख
पाए। अब इसमें
कैसे उससे सुख
छीना जा सकता
है? अच्छा
आदमी, हो
सकता है, स्वार्थी
हो और दुख पाए
और बुरा आदमी
स्वार्थी न हो
और सुख पाए।
मेरे
एक प्रोफेसर
थे, शराब
पीने की आदत
थी और
यूनिवर्सिटी
में उनसे ज्यादा
बुरे आदमी का
किसी को खयाल
ही नहीं था कि
एकदम बुरे
आदमी हैं।
कितनी
स्त्रियों से
उनका संबंध
रहा है, इसका
कुछ ठिकाना
नहीं था। शराब
पीते थे, जुआ
खेलते थे।
लेकिन मेरा
उनसे
दोस्ताना था और
मुझे कभी-कभी
अपने घर ले
जाते और मुझे
घर सुलाते।
मैंने
देखा, लेकिन
बड़े मजे की
बात, कभी
शराब वे अकेले
न पीते थे, कभी
नहीं। दस-पांच
मित्रों को
इकट्ठा न कर
लें तो शराब न पीएं।
दस-पांच
मित्रों को
बुला न लाएं
तो सांझ का खाना
न खाएं, उस दिन
उपवास ही हो
जाए। मैंने उनसे
कहा, यह
क्या? वे
कहते, अकेले
भी क्या खाना!
दस होते हैं
तभी खाने का सुख
आता है।
यह
आदमी शराब
पीता है माना, और शराब
पीने के जो
दुख हैं, वह
भोगेगा, भोगता है।
लेकिन यह आदमी
बड़े अदभुत
अर्थ में निःस्वार्थी
है। उन पर कभी
पैसा न बचता, दस-पंद्रह
तारीख तक उनका
पैसा खतम।
क्योंकि
अकेले खाना
नहीं खाना है,
अकेले शराब
नहीं पीनी है,
अकेले कुछ
करना ही नहीं
है। वे कहते
कि मैं सोच ही
नहीं सकता कि
कोई आदमी
अकेले बैठ कर
कैसे खाना
खाता है? यह
बात ही सोचने
की नहीं।
क्योंकि अगर
हम खाने में
भी साझीदार
नहीं बना सकते
तो जिंदगी बेकार
है।
मैं
उनके घर जितने
दिन रुकता, मैंने देखा,
उन्होंने
कभी शराब न
पी। तो मैंने
उनसे कहा कि
मैं आपके घर न रुकूंगा, क्योंकि
मेरे कारण आप
शराब पीने से
रुकते हैं।
उन्होंने
कहा कि
नहीं-नहीं, तुम्हारे
होने से इतना
मुझे आनंद
मिलता है कि शराब
पीने का खयाल
ही नहीं आता।
वह तो पीता ही
तब हूं, जब
कोई आनंद नहीं
जिंदगी में।
तुम जब मेरे
पास होते हो
तो इतना
आनंदित मैं
होता हूं कि
शराब पीने का
सवाल ही नहीं
है।
अब यह
जो आदमी है, यह आदमी कई
अर्थों में
सुखी था। यह
आदमी कई अर्थों
में सुखी था।
इसका सुख देख
कर कई कोर्
ईष्या हो
जाएगी। लेकिन
इसके सुख के
अपने कारण थे।
यह कई अर्थों
में दुखी था, लेकिन दुख
तो हम किसी का
देखने नहीं
जाते!
यह भी
ध्यान रखना, जरूरी बात
है। दुख तो
हमें किसी का
दिखता नहीं, सुख दिखता
है। क्योंकि
दुख तो आदमी
के भीतर होता
है, सुख
बाहर फैल जाता
है। असल में
सुख की किरणें
सदा बाहर बिखर
जाती हैं, सुख
फैलता है बाहर
और दुख आदमी
भीतर सिकोड़
लेता है।
तो दुख
तो हमें किसी
का दिखता नहीं, दुख सिर्फ
अपना दिखता है
और सुख सदा
दूसरे का दिखता
है। दुख सदा
अपना दिखता है
और सुख सदा दूसरे
का दिखता है।
ऐसे ही शुभ
कर्म तो हमें
अपना दिखता है
और अशुभ कर्म
दूसरे का
दिखता है।
क्योंकि
हमारा अहंकार
कभी मान नहीं
पाता कि हम भी
अशुभ कर्म कर
रहे हैं।
तो
हमारे अहंकार
को भी सुविधा
मिलती है कि
अशुभ कर्म अगर
किए भी होंगे
तो किसी और
जन्म में किए
होंगे। अभी तो
मैं कभी नहीं
कर रहा हूं, अभी तो मैं
एकदम शुभ कर्म
कर रहा हूं और
दुख भोग रहा
हूं।
अब यह
समझ लेने जैसी
है। साइकिक
मामला इतना है
सिर्फ, मनोवैज्ञानिक,
कि अपने
कर्म को
प्रत्येक
व्यक्ति शुभ
मानता है, क्योंकि
अहंकार को
इससे तृप्ति
मिलती है, और
अपने दुखों की
गिनती करता है,
सुखों की
कभी गिनती
नहीं करता।
क्योंकि जो
सुख हमें मिल
जाता है, उसकी
गिनती ही भूल
जाती है, जो
सुख नहीं मिल
पाता, वह
हमारी गिनती
में होता है।
जो मकान हमारे
पास है, हमें
कभी नहीं लगता
कि इससे हमें
कोई बड़ा सुख मिल
रहा है।
हां, सड़क पर एक
भिखमंगा
निकलता है, वह कहता है, देखो, कितना
आदमी सुखी है!
और उस मकान के
भीतर जो रह
रहा है, उसको
कभी पता ही
नहीं चलता कि
मैं भी सुखी
हूं। वह सड़क
का भिखमंगा
कहता है कि
कितना सुखी है
यह आदमी। और
यह आदमी इस
मकान वाला भी
बड़े महल के
बाहर से
निकलता है तो
कहता है, कितना
सुखी है यह
आदमी। कैसा
मकान, कैसा
महल! उस महल
में रहने वाले
को कोई पता
नहीं अपने सुख
का।
सुख के
हम आदी हो
जाते हैं और
दुख के हम कभी
आदी नहीं हो
पाते। तो दुख
दिखता ही रहता
है और सुख दिखना
बंद हो जाता
है। अपना दुख
दिखता है, अपने शुभ
कर्म दिखते
हैं कि मैंने
यह-यह किया, यह-यह अच्छा
किया।
क्योंकि अहंकार
अपने गलत कर्म
को छिपा देता
है, मिटा
देता है और
अपने अच्छे
कर्मों की
लंबी कतार बढ़ा
कर खड़ा कर
लेता है।
और तब
एक मुश्किल
खड़ी हो जाती
है, दूसरे के
अशुभ कर्म
दिखाई पड़ते
हैं, क्योंकि
दूसरे को शुभ
मानना भी
हमारे अहंकार को
दुख देता है
कि हमसे भी
कोई अच्छा हो
सकता है!
साधारण आदमी
को छोड़ दें, बड़े से बड़े
साधु से कहें
कि आपसे भी
बड़ा साधु एक
गांव में आ
गया, वह और
भी पवित्र
आदमी है। आग
लग जाएगी।
क्योंकि यह
कैसे हो सकता
है कि मुझसे
ज्यादा
पवित्र आदमी
कोई है!
तो
दूसरे की
अपवित्रता हम
खोजते रहते
हैं निरंतर, इसीलिए
निंदा में
इतना रस है।
निंदा में और
कोई कारण नहीं
है। निंदा का
इतना रस है।
शायद उससे
गहरा कोई रस
ही नहीं है। न
संगीत में
आदमी को इतना
आनंद आता है, न सौंदर्य
में, जितना
निंदा में आता
है। सौंदर्य
छोड़ सकता है, संगीत छोड़
सकता है, सब
छोड़ सकता है; अगर गहरी
निंदा का मौका
मिल जाए तो उस
रस को वह नहीं चूकेगा!
अगर हम लोगों
की बातचीत पता
लगाने जाएं तो
सौ में से
नब्बे
प्रतिशत
बातचीत किसी
की निंदा से
संबंधित होगी!
निंदा
में रस है, क्योंकि
दूसरे को छोटा
दिखाने में
अपना बड़ा होने
का खयाल है।
इसलिए हर आदमी
दूसरे को छोटा
दिखाने की
कोशिश में लगा
हुआ है।
इसीलिए अगर
कोई हमसे आकर
कहे कि फलां
आदमी बहुत
अच्छा है, तो
हम एकदम से
नहीं मान
लेते। हम
कहेंगे भई, आपकी बात
सुनी, जांच-पड़ताल
करेंगे, खोज-बीन
करेंगे।
क्योंकि ऐसा
हो नहीं सकता
कि आदमी इतना
अच्छा हो। अब
कहां इतने
अच्छे आदमी होते
हैं! ये सब
बातें हैं। सब
दिखते हैं ऊपर
से अच्छे, भीतर
से तो कोई
अच्छा होता
नहीं।
लेकिन
एक आदमी हमसे
आकर कहता है
कि फलां आदमी बिलकुल
चोर है, हम
कभी नहीं कहते
कि हम खोज-बीन
करेंगे। हम कहते
हैं, बिलकुल
होगा ही। यह
तो होता ही
है। सब चोर
हैं ही।
जब कोई
किसी की बुराई
करता है तो हम
बिना खोज-बीन
के मान लेते
हैं, तर्क भी
नहीं करते, विवाद भी
नहीं करते!
लेकिन जब कोई
किसी की अच्छाई
की बात कहता
है तो हम बड़े
सचेत हो जाते
हैं, हजार
तर्क करते हैं,
और फिर भी
भीतर संदेह को
रखते हैं। और
जांच रखते हैं
जारी कि कहीं
कोई मौका मिल
जाए और हम बता
दें कि देखो, वह तुम गलत
कहते थे कि यह
आदमी अच्छा
था। इस आदमी
में ये-ये
चीजें दिखाई
पड़ गईं।
हम
दूसरे को छोटा
दिखाना चाहते
हैं। दूसरे को
बड़ा मानना बड़ी
मजबूरी में
होता है।
अत्यंत कष्टपूर्ण
है यह, किसी
को बड़ा मानना।
इसलिए जिसको
हम बड़ा भी मान
लें अगर किसी
मजबूरी में, तो भी हमारे
मन में हम
जांच-पड़ताल
जारी रखते हैं
कि कोई मौका
मिल जाए तो
इसको छोटा
सिद्ध कर दें।
कोई तरकीब मिल
जाए, कोई
मौका मिल जाए
कि इसको छोटा
सिद्ध कर दें
तो हम
निश्चिंत हो
जाएं, वह
एक बोझ उतर
जाए सिर से।
तो
आदमी दूसरे का
देखता है अशुभ
और दूसरे का
देखता है सुख, अपना देखता
है शुभ और
देखता है दुख।
भारी उपद्रव
हो गया। तब वह
कर्मवाद के
सिद्धांत में
यह सब घुस
गया।
मेरी
मान्यता यह है
कि अगर कोई
सुख भोग रहा
है तो वह कुछ
ऐसा जरूर कर
रहा है जो सुख
का कारण है, क्योंकि
बिना कारण के
कुछ भी नहीं
हो सकता। अगर
एक डाकू भी
सुखी है तो
उसमें कुछ
कारण हैं उसके
सुखी होने के।
और अगर एक
साधु भी सुखी
नहीं है तो
उसके कारण
हैं।
अब अगर
दस डाकू साथ
होंगे तो
उनमें इतनी
ब्रदरहुड, इतना
भाईचारा होगा,
जितना दस
साधुओं में
कभी सुना ही नहीं
गया है। सुना
ही नहीं गया
है। कभी नहीं
सुना गया है
कि दस साधुओं
में कोई
भाईचारा, कोई
दोस्ताना, कोई
मित्रता।
लेकिन दस
डाकुओं में
ऐसा भाईचारा,
ऐसी
मित्रता। तो
मित्रता के
सुख हैं, वह
डाकू भोगेगा।
साधु कैसे भोगेगा
उस सुख को? डाकू
कभी एक-दूसरे
से झूठ नहीं बोलेंगे,
बोलेंगे ही
नहीं। लेकिन
साधु एक-दूसरे
से बिलकुल झूठ
बोलते
रहेंगे। तो सच
बोलने का एक
सुख है, जो
वे भोगेंगे, जो साधु
नहीं भोग
सकता।
प्रश्न:
अकस्मात
जो घटनाएं हो
जाती हैं, उसकी क्या
वजह है?
कोई
घटना अकस्मात
नहीं होती।
असल में उस
घटना को हम
अकस्मात कहते
हैं, जिसका
कारण नहीं खोज
पाते। ऐसी
घटनाएं होती हैं
जिनका कारण
हमारी समझ में
नहीं पड़ता, लेकिन कोई
घटना अकस्मात
नहीं होती।
प्रश्न:
जैसे
लाटरी निकलती
है जो...?
कोई
अकस्मात नहीं
है वह भी। वह
भी अकस्मात
नहीं है।
क्योंकि हमें
दिखता है कि
अकस्मात है।
मैं एक
घटना बताऊं।
पुंगलिया
यहां बैठे हुए
हैं, कोई
चार-पांच वर्ष
पहले
उन्होंने एक
नई गाड़ी ली और
मुझे लेने वे
नासिक आए। ऐसे
माणिक बाबू आते
हैं मुझे
हमेशा लेने
पूना से, पर
उन्होंने
माणिक बाबू को
रोक दिया कि
मेरी नई गाड़ी
है, मैं
लेकर आता हूं।
तो वे
नई गाड़ी लेकर
आए। लेकिन
उनकी लड़की ने
उनको कहा कि
मुझे ऐसा लगता
है कि आपकी
गाड़ी में वे
आते नहीं। पर यह
ऐसी बात थी कि
जिसका कोई
मतलब न था। जब
वे लेकर जा
रहे हैं गाड़ी
में तो आएंगे
क्यों नहीं? शायद
उन्होंने
सोचा कि शायद
मैं दूसरी
गाड़ी में आ
जाऊं या कुछ
हो जाए। बात
खतम हो गई।
मैं उस रात, मुझे भी ऐसा
खयाल हुआ कि
कुछ उपद्रव
रास्ते में हो
सकता है।
मैंने कहा कि
कोई बात नहीं
है।
सुबह
बारह बजे के
करीब हम निकले
वहां से। तो वह
जो ड्राइवर था, वह नया था पुंगलिया
का। वह इतनी
तेजी से भगा
रहा था कि
मुझे दोत्तीन
बार ऐसा मन
में लगा कि यह
कहीं भी गाड़ी
उतरेगी।
लेकिन ऐसी कोई
बात नहीं थी।
एक रास्ते में
एक गाड़ी को हम
लोग क्रास किए--कोई
एक डाक्टर की,
बंगाली
डाक्टर की
गाड़ी को--तो उस
गाड़ी में जो महिला
बैठी थी, उसको
भी लगा कि यह
गाड़ी कहीं
गिरेगी। और वह
एक दो मिनट
बाद ही जाकर
एक्सीडेंट हो
गया। वह गाड़ी
उतर गई नीचे
और रेत में
उलटी हो गई, चारों व्हील
ऊपर हो गए।
छोटी
स्टैंडर्ड हैराल्ड
गाड़ी थी। और
माणिक बाबू घर
सोए, तो
उन्होंने
सपना देखा कि
मेरे हाथ में
बहुत चोट आ गई
है। अब इससे
कोई संबंध
नहीं था इन
सारी बातों
का।
और
आखिर में यह
हुआ कि पूना
मैं माणिक बाबू
की ही गाड़ी
में पहुंचा, क्योंकि वे
फिर मुझे लेने
आए। तो पुंगलिया
की लड़की को जो
खयाल हुआ था
कि वह अपनी
गाड़ी में आते
नहीं, वह
भी सही हो
गया। हमारी
गाड़ी उलट गई।
पीछे से वह
डाक्टर की
गाड़ी आकर रुकी,
उसने कहा कि
मेरी पत्नी ने
अभी कहा था कि
यह गाड़ी गिर न
जाए। यह जिस
ढंग से जा रही
है, यह
कहीं गिर न
जाए। तो मैंने
कहा, ऐसी
बातें नहीं सोचनी
चाहिए। और वह
तो हम सोच ही
रहे थे, तभी
गिर गई है
आपकी गाड़ी।
दिखेगा
ऊपर से बिलकुल
अकस्मात--अकस्मात
ही है, लेकिन
एकदम अकस्मात
नहीं मालूम
होता। एकदम अकस्मात
नहीं मालूम
होता। इतना ही
मालूम होता है
कि शायद कारण
हमें पता नहीं
चलते हैं।
कारण हमें पता
नहीं चलते हैं,
कारण हमारे
खयाल में नहीं
हैं। और अगर
इस बात का
पूरा विज्ञान
थोड़ा विकसित,
समझ में आ
जाए, तो
कारण भी समझ
में आ सकेंगे।
अब
जैसे मैं कहूं, यहां सोवियत
रूस के कुछ
हिस्सों में,
बाकू के
इलाके में
हजारों साल से
सबसे बड़ा मेला
लगता था
दुनिया का, जहां एक
देवी का मंदिर
है, अग्नि
देवी का, और
वर्ष के खास
दिन में उसमें
अपने आप
ज्वाला प्रज्वलित
हो जाती है।
कोई आग लगानी
नहीं पड़ती, कोई ईंधन
डालना नहीं
पड़ता। और जब
ज्वाला प्रज्वलित
होती है तो वह
आठ-दस दिन तक
चलती है, तो
आठ-दस दिन
वहां मेला
लगता है और
करोड़ों लोग इकट्ठे
होते हैं। और
बड़ी
चमत्कारपूर्ण
घटना थी। और
कोई कारण समझ
में नहीं आता
था। क्योंकि न
कोई ईंधन है, न कोई वजह
है।
फिर
कम्युनिस्ट
वहां आए तो
उन्होंने तो
मंदिर-वंदिर
उखाड़
दिया, मेला-वेला
बंद करवा
दिया। और
खुदाई करवाई
तो वहां तेल
के गहरे झरने
निकले, मिट्टी
के तेल के।
लेकिन सवाल यह
उठा कि वह एक खास
पर्टिकुलर
दिन पर वर्ष
में आग लगती
थी। तेल के
झरने से गैस
बनती है, गैस
जल भी सकती है
घर्षण से, लेकिन
वह कभी भी जल
सकती है।
लेकिन
तब खोज-बीन से
पता चला कि
पृथ्वी जब एक
खास कोण पर
होती है, तभी
वह गैस घर्षण
कर पाती है, इसलिए खास
दिन आग जल
जाती है।
जब बात
साफ हो गई तो
मेला बंद हो
गया, अग्नि
देवता विदा हो
गए। अब वहां
कोई नहीं जाता,
क्योंकि
अब...अब भी वहां
जलती है आग, अब भी खास
दिन पर जब
पृथ्वी एक खास
कोण पर होती
है, तभी वह
गैस जो इकट्ठी
हो जाती है
वर्ष भर में, वह फूट पड़ती
है और आग लग
जाती है। तब
तक वह अकस्मात
था, अब वह
अकस्मात नहीं
है। अब हमें
कारण का पता चल
गया है।
प्रश्न:
इस
कहानी में जो
आपने आगे कहा, यह जो गाड़ी
उलट गई, उसके
बाद का मैं
कहता हूं।
गाड़ी उलट गई, आप सब बच गए
उसमें। तो
सबका कहना था
आप जैसी पुण्य
आत्मा उसमें
थी, इसलिए
सब बच गए। वह
बात सबने मान
ली, कि आप
उसमें थे, इसलिए
सब बच गए।
उसका
स्पष्टीकरण
क्या है?
नहीं, असल में
होता क्या है,
असल में
होता क्या है,
हम सब बचना
चाहते हैं। हम
सब बचना चाहते
हैं और बचने
के लिए, अगर
बच जाएं तो भी
कोई कारण हम
खोज लेंगे, न बच जाएं तो
भी कोई कारण
हम खोज लेंगे।
कारण हम
स्थापित कर
दें कोई, यह
एक बात है और
कारण की खोज
बिलकुल दूसरी
बात है।
मेरा
मतलब आप समझे
न? यानी एक
तो यह होता है
कि हम जो होना
चाहते हैं, उसके लिए भी
हम कोई कारण
खोज लेते हैं।
और इसके भी
पीछे एक
बुनियादी बात
है और वह यह है
कि बिना कारण
के कोई भी चीज
कैसे होगी, यह बुनियादी
सिद्धांत
हमारे भीतर
काम कर रहा है।
अगर चारों
आदमी बच गए और
जरा भी चोट
नहीं पहुंची
तो कोई न कोई
कारण इसका
होना ही
चाहिए।
अगर
ठीक से समझें
तो इतने दूर
तक तो साइंटिफिक
है मामला, क्योंकि
अकारण यह भी
नहीं हो सकता।
लेकिन कारण
क्या होगा, वह हमें पता
नहीं है, तो
हम कुछ भी
कल्पित कर
लेते हैं। हम
यह कह सकते
हैं कि एक
अच्छा आदमी था,
इसलिए बच
गए। और अगर
मान लो न बचते,
तो भी हम
कोई कारण खोज
लेते। तब भी
हम कारण खोज
लेते कि एक
बुरा आदमी था,
इसलिए मर
गए।
इसमें
एक ही बात पता
चलती है वह यह
कि आदमी अकारण
किसी बात को
मानने को राजी
नहीं है, और
यह बात ठीक
है। लेकिन
इससे वह जो
कारण बताता है,
वे कारण ठीक
हैं, यह
जरूरी नहीं
है। उन कारणों
की तो
वैज्ञानिक परीक्षा
होनी चाहिए।
जैसे कि मुझे बिठाल कर
दो-चार दफे
गाड़ी गिरानी
चाहिए।
आप
मेरा मतलब
समझे न? और
अगर मेरे साथ
दो-चार दफे
गिराने से जो
भी गिरें,
वे सब बच
जाएं, तो
फिर जरा पक्का
होगा। और अगर
न बचें तो पुंगलिया
जी गलत कहते
हैं। वैसा कुछ
मामला नहीं
है। मेरा मतलब
यह है कि
वैज्ञानिक
परीक्षण के
बिना कोई उपाय
नहीं है। कारण
तो हम मानते
हैं। और एक
बात ठीक है
उसमें, वह
यह कि अकारण
कोई आदमी किसी
बात को मानने
को राजी नहीं
है, होना
भी नहीं
चाहिए। लेकिन
दूसरी बात ठीक
नहीं है, तब
हमें कोई भी
कल्पित कारण
नहीं मान लेना
चाहिए। कोई भी
कल्पित कारण
नहीं मान लेना
चाहिए।
उतना
हमें ध्यान
रखना चाहिए कि
कारण को भी हम फिर
स्थापित करने
के लिए प्रयोग
करें। क्योंकि
अगर कारण सही
है तो निरपवाद
सही हो जाएगा।
दो-चार-दस दफे
मुझे गिरा कर
देखेंगे तो
उससे पता
चलेगा कि भई, सबको चोट
लगती है कि
नहीं लगती।
और मजे
की बात यह है
कि चोट अगर
लगी तो थोड़ी
सिर्फ मुझको
ही लगी थी
उसमें, बाकी
किसी को
बिलकुल नहीं
लगी थी। थोड़ा
सा जो भी लगा
था वह मेरे ही
पैर में लगा
था, बाकी
तो किसी को
नहीं लगा था।
तो अगर बुरा
आदमी कोई था
भी उसमें तो
मैं ही था।
क्योंकि किसी को
जरा, जरा
सी भी खरोंच
भी नहीं किसी
को आई थी।
तो वह
तो बाकी हम
कल्पित आरोपण
करते हैं, उनका कोई
मूल्य नहीं
है। लेकिन
अकस्मात कुछ भी
नहीं है।
अकस्मात कुछ
भी नहीं है, क्योंकि
अकस्मात अगर
हम मान लें तो
कार्य-कारण का
सिद्धांत गया,
एकदम गया।
एक बात भी अगर
इस जगत में अकस्मात
होती है तो
सारा
सिद्धांत गया,
फिर कोई
सवाल नहीं है
उसके बचने का।
अकस्मात कुछ
होता ही नहीं,
हो ही नहीं
सकता।
क्योंकि होने
के पीछे कारण
के बिना होने
का उपाय ही
नहीं है। कारण
होगा ही।
अब
जैसे एक आदमी
है और उसको
लाटरी मिल
जाती है, तो
बिलकुल ही
अकस्मात बात
है। क्योंकि
अब इसमें तो
कोई कारण हम
खोज नहीं सकते
कि इसमें क्या
कारण खोजें? इसमें क्या
कारण खोजें? एक आदमी को
लाटरी मिल
जाती है तो
हमें कोई कारण
नहीं दिखाई
पड़ता। लेकिन
एक लाख
आदमियों ने अगर
लाटरी के टिकट
भरे हैं और एक
आदमी को मिल
गई है, तो
किसी दिन अगर
वैज्ञानिक
क्षमता हमारी
बढ़े और एक लाख
लोगों के चित्तों
का विश्लेषण
हो सके तो मैं
आपको कहता हूं,
वह कारण मिल
जाएगा जो इस
आदमी को मिलने
का वजह है।
अब हो
सकता है इन एक
लाख लोगों में
सबसे ज्यादा
संकल्प का
आदमी यही है, यह हो सकता
है। और सबसे
ज्यादा
सुनिश्चित इसी
ने मान लिया
है कि लाटरी
मुझे मिलने
वाली है, यह
हो सकता है।
एक उदाहरण दे
रहा हूं। और
हजार कारण हो
सकते हैं। अगर
इन लाख लोगों
में सबसे संकल्पवान
आदमी जो है, विल पावर का
आदमी जो है, उसके मिलने
की संभावना
ज्यादा है, क्योंकि
उसके पास एक
कारण है, जो
दूसरों के पास
कारण नहीं है।
अभी इस पर
बहुत प्रयोग
चलते हैं।
अगर हम
एक मशीन से
ताश के पत्ते फेंकें, या मशीन से
हम पांसे फेंकें,
तो मशीन तो
कोई विल नहीं
होती मशीन में,
मशीन पांसे
फेंक देती है।
अगर सौ बार
पांसे फेंकते
हैं तो समझ
लीजिए, दो
बार बारह का
अंक आता है।
तो यह अनुपात
हुआ मशीन के
द्वारा
फेंकने का। तो
मशीन का तो
कोई विल नहीं
है, कोई
इच्छा नहीं
है। मशीन तो
सिर्फ फेंक
देती है पांसे,
हिला देती
है, फेंक
देती है। सौ
बार फेंकने
में दो दफे
बारह का अंक
आता है।
अब एक
दूसरा आदमी है
जो हाथ से
पांसे फेंकता
है, और हर बार
भावना करके
फेंकता है कि
बारह का अंक
आए। वह सौ में
बीस बार बारह
का अंक ले आता
है। आंख बंद
है उसकी, हाथ
देख नहीं सकता
कि पांसा कैसा
है, क्या
है, और वह
बीस बार ले
आता है। एक
तीसरा आदमी है,
जो कितने ही
उपाय करता है
कि बारह का आंकड़ा
आ जाए, लेकिन
सौ में दो बार
भी नहीं ला
पाता। यानी दो
बार जो कि
मशीन भी ले आती
है, जो कि
बिलकुल ही
कांबिनेशन का
सवाल है, वह
दो बार भी
नहीं ला पाता!
यह जो
बीस बार लाता
है, इस आदमी
से हम दुबारा
प्रयोग
करवाते हैं कि
तू इस बार
पक्का कर कि
बारह का आंकड़ा
नहीं आने देना
है। तो वह आंकड़ा
फेंकता है तो
बीस बार नहीं
आता, समझो
पांच बार आता
है, तीन
बार आता है, दो बार आता
है।
तो अब
सवाल होगा यह
कि भीतर की
विल काम करती
है! इस पर
हजारों
प्रयोग किए गए
हैं और यह
निर्णीत हो
गया है कि
भीतर का
संकल्प पांसे
तक को प्रभावित
करता है, भीतर
का संकल्प ताश
के पत्तों को
प्रभावित
करता है, भीतर
का संकल्प
घटनाओं को बांधता
है और
प्रभावित
करता है। और
भीतर का
संकल्प भी
हजारों उस
आदमी के
अनुभवों का और
कारणों का परिणाम
होता है। वह
भी आकस्मिक
नहीं है कि
किसी आदमी को
भीतरी संकल्प
मिल गया।
भीतरी संकल्प
भी उसके
हजारों उन
अनुभवों और
कारणों का फल
होता है, जिनसे
वह गुजरा।
समझ
लीजिए कि एक
आदमी है और
उसने तय किया
कि मैं बारह
घंटे तक आंख
नहीं खोलूंगा।
और वह आदमी
बैठ गया और
बारह घंटे में
उसने तीन ही
घंटे बाद आंख
खोल ली, तो
इस आदमी का
भावी संकल्प
क्षीण हो
जाएगा, इस
आदमी के
संकल्प की
शक्ति क्षीण
हो जाएगी। अगर
वह बारह घंटे
तक आंख बंद किए
बैठा ही रहा, कोई उपाय
नहीं किए जा
सके कि वह आंख
खोले बारह घंटे
में, तो यह
आदमी अब एक
कर्म कर रहा
है, जिसका
फल होगा कि
इसका भीतरी
संकल्प मजबूत
हो जाएगा।
जीवन
बहुत जटिल है
और उसमें कोई
बात कैसे घटित
हो रही है, यह कहना
एकदम ही
मुश्किल है।
आज मुश्किल है,
लेकिन इतना
कहना निश्चित
कहा जा सकता
है कि हो रही
है तो पीछे
कारण होगा, चाहे ज्ञात
हमें न हो, चाहे
अज्ञात हो। अब
जो भी हो रहा
है हमारे चारों
तरफ...।
दक्षिण
में एक बड़े
संगीतज्ञ का
जन्मदिन मनाया
जा रहा है पचहत्तरवां।
बूढ़ा हो गया
है, उसके
हजारों शिष्य
हैं और वे सब
भेंटें चढ़ाने
आए हैं, क्योंकि
हो सकता है
अगले वर्ष वह
जीए भी नहीं।
और उसके
हजारों भक्त
हैं, प्रेमी
हैं, वे सब
भेंट चढ़ाने
आए हैं। रात
दो बजे तक
भेंट चलती रही
है। लाखों
रुपयों की
भेंट चढ़ गई
है। राजा हैं,
रानियां
हैं, जिन्होंने
उससे सीखा है,
वे सब देने
आए हैं।
आखिर
में दो बजे एक
भिखारी जैसा
आदमी एक इकतारा
लिए हुए द्वार
पर आया है। तो
सिपाही ने
उससे कहा, तुम कहां
जाते हो? उसने
कहा कि मैं भी
कुछ भेंट कर
आऊं।
उन्होंने कहा,
तुम्हारे
पास कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। तो
उस भिखारी ने
कहा कि जरूरी
नहीं है कि जो
दिखाई पड़े, वही भेंट
किया जाए। जो
नहीं दिखाई
पड़ता, वह
भी भेंट किया
जा सकता है।
तंबूरा भी
उसने सिपाही
के पास रख
दिया और भीतर
गया। भीतर
जाकर उसने पैर
पर सिर रखा।
उस
भिखारी की
उम्र मुश्किल
से तीस-बत्तीस
वर्ष है। तो
बूढ़ा गुरु तो
उसे पहचान भी
नहीं सका।
उसने कहा कि
तुमने कब
मुझसे सीखा, मुझे याद
नहीं पड़ता।
उसने कहा, मैंने
कभी आपसे नहीं
सीखा, क्योंकि
मैं एक भिखारी
का लड़का हूं।
लेकिन महल के
भीतर आप बजाते
थे, मैं
बाहर बैठ कर
सुनता था और
वहीं मैं भी
कुछ सीखता
रहा। लेकिन अब
आज धन्यवाद तो
देने आना ही
चाहिए। सीखा
तो आप से ही
है। द्वार की
सीढ़ी के बाहर
बैठ कर ही
सीखा है, कभी
भीतर नहीं आ
सका, क्योंकि
भीतर आने का
कोई उपाय नहीं
था। आज भी आना
बड़ी मुश्किल
से हुआ। एक
छोटी सी भेंट
लाया हूं, अंगीकार
करेंगे? इनकार
तो न कर देंगे?
तो उस
गुरु ने सहज ही
कहा कि
नहीं-नहीं, इनकार कैसे
कर दूंगा? पर
देखा कि उसके
पास कुछ है तो
नहीं। हाथ
खाली हैं, कपड़े
फटे हैं। कहां
की भेंट है!
कैसी भेंट है!
कहा, नहीं-नहीं,
इनकार कैसे
कर दूंगा? तुम
जो दोगे, जरूर
ले लूंगा।
उसने
आंख बंद की और
ऊपर जोर से
कहा, हे भगवान!
मेरी बाकी
उम्र मेरे
गुरु को दे दे,
क्योंकि
मैं जीकर भी
क्या करूंगा!
और यह कहते ही
से वह आदमी मर
गया।
यह
ऐतिहासिक
घटना है।
संकल्प इतना
प्रबल अगर किसी
आदमी का है तो
यह हो सकता है, यह बहुत
कठिन नहीं है।
और वह गुरु
कोई पंद्रह वर्ष
और जीया जिसकी
एक ही साल में
मर जाने की
आशा थी। यह
ऐसा व्यक्ति
अगर लाटरी पर
नंबर लगा दे...।
प्रश्न:
कोइंसीडेंस
नहीं कहा जा
सकता इसको?
कोइंसीडेंस
हमें दिखेगा, क्योंकि
हमें कारण तो
दिखाई पड़ते
नहीं। वही तो,
वही तो ह्यूम
कहता है कि सब कोइंसीडेंस
है। वही ह्यूम
कहता है, क्योंकि
कारण कहां दिखाई
पड़ रहे हैं? जिनमें हमें
दिखाई पड़ जाते
हैं, उसमें
तो हम राजी हो
जाते हैं।
जिसमें नहीं
दिखाई पड़ते, कोइंसीडेंस,
संयोग
मालूम पड़ता
है।
लेकिन
संयोग भी बड़ा
अदभुत है कि
एक आदमी कहे कि
मेरी उम्र चली
जाए और उसी
वक्त उसकी
उम्र चली जाए।
इतना एकदम
आसान नहीं है
संयोग भी। हो
सकता है, लेकिन
यह होना भी
एकदम आसान
नहीं मालूम
पड़ता। और वह
वहीं गिर जाए
और ढेर हो
जाए।
इतने
संकल्प का
आदमी अगर
लाटरी का नंबर
लगा दे, तो
बहुत कठिन
नहीं है कि
निकल आए। यानी
मैं कह कुल
इतना रहा हूं
कि बहुत से
कारण हैं, जो
हमें दिखाई
नहीं पड़ते
हैं। नहीं
पड़ने की वजह
से अंधेरे में
हम टटोलते हुए
लगते हैं और
हमको लगता है
ऐसा हो रहा है,
वैसा हो रहा
है, आकस्मिक
दिखता है।
आकस्मिक कुछ
भी नहीं है।
प्रश्न:
किसी
एक को मिलनी
थी लाटरी, इसलिए उसको
मिली है, ऐसा
नहीं कहा जा
सकता? किसी
एक को तो
मिलनी ही थी
लाटरी, इसलिए
उसको मिल गई।
अब
यह है जो
मामला न, इसकी
भविष्यवाणी
भी की जा सकती
है कि किसको
मिलेगी। इसकी
भविष्यवाणी
भी की जा सकती
है। ऐसी भविष्यवाणी
करने वाले लोग
भी हैं, जो
एक लाख लोग
लाटरी लगाए
हुए हैं, उनमें
से बता सकें
कि किसको
मिलेगी। तब
क्या करोगे?
तब तो
बड़ा मुश्किल
हो जाएगा, तब तो बहुत
कठिन हो जाएगा
कि यह...हिटलर
की मृत्यु को
बताने वाले
लोग हैं कि
किस दिन हो
जाएगी। गांधी
की मृत्यु को
बताने वाले
लोग हैं कि किस
दिन हो जाएगी।
चीन किस दिन
हमला करेगा
भारत पर, इसको
बताने वाले
लोग हैं। हमला
होगा, इसको
बताने वाले
लोग हैं।
एक
अर्थ में हम
कह सकते हैं, सब संयोग
है।
प्रश्न:
लेकिन
हिरोशिमा में
दो लाख
व्यक्ति भी एक
साथ मर गए!
हां, हां, मरे।
दो लाख
व्यक्ति भी एक
साथ मर सकते
हैं। दो लाख
व्यक्ति भी एक
साथ मर सकते
हैं। क्योंकि
हमें ऐसा लगता
है न! किसी न
किसी दिन तो
ऐसा होगा कि
सारी पृथ्वी
एक साथ मरेगी।
यह हमें लगता है
कि यह कितना
आकस्मिक है कि
दो लाख आदमी
एक साथ मर गए!
क्योंकि इन दो
लाख व्यक्तियों
के भीतर भी
हमारा कोई
प्रवेश नहीं
है। इन दो लाख
व्यक्तियों
की संभावनाओं
के भीतर भी
हमारा कोई
प्रवेश नहीं
है। और ऊपर से
ऐसा ही दिखता
है कि बिलकुल
आकस्मिक है कि
एटम गिरा।
लेकिन
कोई पूछे कि
हिरोशिमा ही
पर क्यों गिरा? हिरोशिमा
कोई
महत्वपूर्ण
नगर न था, टोकियो
पर गिर सकता
था। हिरोशिमा
पर क्यों गिरा?
नागासाकी
पर क्यों गिरा?
यह जब
तक हमें पूरा
का पूरा भीतर
प्रवेश न हो जाए
कारणों के, जिनका कि
प्रवेश नहीं
है, जब तक
कि हम
हिरोशिमा के
लोगों के भीतर
न घुस सकें, कोई नहीं कह
सकता कि
हिरोशिमा में
जापान में सबसे
ज्यादा
सुसाइडल लोग
हों। यह मैं
कहता हूं। यह
कोई नहीं कह
सकता कि जापान
के सारे नगरों
में सबसे
ज्यादा
आत्मघाती लोग
हिरोशिमा में
हों, इसलिए
हिरोशिमा एटम
को आकर्षित
करता हो। मेरा
आप मतलब समझ
रहे हैं न? यानी
मेरा मतलब यह
है कि
हिरोशिमा
क्यों? हिरोशिमा
क्यों मरने के
लिए चुना गया
है?
प्रश्न:
वह
तो आर्डर्स
होंगे न?
यानी
ये आर्डर्स
भी, इतने बड़े
जापान में
हिरोशिमा को
ही चुना जाए! हिरोशिमा
का आपने नाम
भी नहीं सुना
होगा पहले कभी।
हिरोशिमा को
चुना जाए यह
आकस्मिक, यानी
मैं यह कह रहा
हूं, आकस्मिक
नहीं हो सकता।
यह भी भीतर
कार्य-कारण
लिए होगा।
हिरोशिमा हो
सकता है पृथ्वी
पर सबसे
ज्यादा
आत्मघाती
लोगों का नगर है,
और वह
आकर्षित करता
है कि उसे
मारा जाए और
उसका चित्त
आकर्षित करता
है।
अब यह
जान कर हैरानी
होगी आपको कि
अगर एक मोटर में
एक्सीडेंट हो
जाए, एक एयरोप्लेन
में
एक्सीडेंट हो
जाए, चूंकि
चित्त को तो
हम जानते नहीं,
कोई नहीं कह
सकता कि उस
हवाई जहाज पर
बैठे हुए लोगों
के चित्त में
क्या चल रहा
है और वह किस भांति
परिणाम ला
सकता है। यह
कोई नहीं कह
सकता।
मेहरबाबा
की जिंदगी में
कुछ दोत्तीन
घटनाएं हैं
बड़ी अदभुत। एक
मकान उनके लिए
बनाया गया।
उनके लिए ही
बनाया गया और
उस मकान में वे
प्रवेश करने
गए। दरवाजे पर
खड़े
होकर--यानी प्रवेश
का उत्सव
मनाया जा रहा
है, फूल-झाड़
लगाए गए हैं, दीए जलाए
गए
हैं--दरवाजे
पर खड़े होकर
वे दो मिनट
रुके और वापस
लौट आए। उन्होंने
कहा, इस
मकान में मैं
नहीं जाऊंगा।
तो लोगों ने
कहा, क्या
मतलब है आपका
इस मकान में न
जाने से? उन्होंने
कहा, बस।
और मुझे कुछ
नहीं लगता, लेकिन बस
दरवाजे पर मैं
एकदम
ठिठक...मैं
मकान में नहीं
जाता।
वह
मकान उसी रात
गिर गया। इस
आदमी को भी
साफ नहीं है
कि क्या हुआ, लेकिन सीढ़ी
पर उसको एकदम
झिझक मालूम
हुई है और
उसने इनकार कर
दिया।
मेहरबाबा
एक दफा
हिंदुस्तान
से यूरोप जाते
हैं हवाई जहाज
से और अदन में
वापस चढ़ने
से इनकार कर
देते हैं।
उनकी टिकट तो
है आगे तक की।
अदन पर जहाज
रुका है, वे
नीचे
एयरपोर्ट पर
उतरे हैं और
उसके बाद वे
एकदम इनकार कर
देते हैं कि
मैं जहाज पर
नहीं चढ़ सकता।
और वह जहाज
गिर जाता है।
जापान
में एक घटना
घटी, पिछले
महायुद्ध में
एक अमरीकी
जनरल जा रहा
है एक हवाई
जहाज से किसी
मिलिट्री के
काम से किसी
दूसरे
मिलिट्री के
कैंप में। वह
घर से निकल गया
है सुबह आठ बजे।
उसकी
टाइपिस्ट
भागी हुई उसके
घर पहुंची कोई
सवा आठ बजे और
उसकी पत्नी से
कहा कि जनरल
कहां हैं? उसने
कहा, क्यों?
कहा कि रात
मैंने एक सपना
देखा, मैं
उनको कह दूं।
मैं बहुत डर
गई हूं, मगर
पहले तो मैंने
सोचा कहना कि
नहीं, इसलिए
इतनी देर हो
गई। क्या सपना
देखा? उसकी
पत्नी ने
पूछा।
तो वह
अपना सपना
बताती है।
बताती है कि
मैंने देखा कि
जनरल जिस हवाई
जहाज से आज जा
रहे हैं, वह
टकरा जाता है
बीच में।
उसमें जनरल
हैं, पायलट
है और एक औरत
है, तीन
लोग हैं। वह
टकरा जाता है,
हालांकि
मरता कोई
नहीं। टकरा
जाता है, तीनों
बच जाते हैं।
लेकिन मुझे
ऐसा सपना आया
तो मैंने
कहा...।
तो
उसकी पत्नी ने
कहा कि
तुम्हारा
सपना यहीं से
गलत हो गया, क्योंकि
जनरल और पायलट
दो ही जा रहे
हैं, उसमें
कोई औरत नहीं
है। उसमें कोई
औरत है ही नहीं।
और वे तो निकल
चुके हैं। फिर
भी वह पत्नी और
वह दोनों कार
से एयरपोर्ट
पहुंचते हैं।
लेकिन जब वे
पहुंचे हैं, तब जनरल जा
चुका है।
लेकिन
एयरपोर्ट पर
पता चलता है
कि एक औरत भी
गई है। एक औरत
ने वहीं आकर
कहा कि मेरा
पति बीमार
है--वह किसी
मिलिट्री आदमी
की औरत
है--मेरा पति
बीमार है और
मुझे कोई इस वक्त
जाने का उपाय
नहीं, तो
मुझे आप ले
चलें तो बड़ी
कृपा होगी। तो
जनरल ने कहा, पूरा हवाई
जहाज खाली है,
कोई बात
नहीं, तुम
चलो। एक औरत
गई है।
तब
उसकी पत्नी भी
घबड़ा गई। और
वे एयरपोर्ट
पर ही हैं कि
उनको खबर
मिलती है कि
वह जहाज टकरा
गया है, लेकिन
मरा कोई नहीं।
और उस लड़की ने,
जिसको
टाइपिस्ट को यह
सपना आया है, उसने ठीक
कितनी बड़ी
चट्टान है, जिससे वे
टकराते हैं, कैसी जगह है,
वहां कैसे दरख्त हैं,
वह सब उसने
कहा हुआ है।
वह सब
शब्द-शब्द सही
निकल गया।
लेकिन अगर यह
सपना नहीं है
तो बात अकस्मात
है। लेकिन अगर
यह सपना है
पीछे तो बात
एकदम अकस्मात
नहीं है, कुछ
फोर्सेस
काम कर रही
हैं, कुछ
कारण काम कर
रहे हैं, जिनका
तालमेल आधा
घंटे, घंटे
भर बाद होकर, उस जहाज को
गिरा देने
वाला है।
जिंदगी
जैसी हम देखते
हैं, उतनी सरल
नहीं है, सब
चीजें समझ में
नहीं भी आती
हैं। लेकिन
इतनी बात तो
समझ में आती
ही है कि
अकारण कुछ भी
नहीं है। कर्म
के सिद्धांत
का बुनियादी
आधार यह है कि
अकारण कुछ भी
नहीं है।
दूसरा
बुनियादी आधार
यह है कि जो हम
कर रहे हैं, वही हम भोग
रहे हैं और
उसमें जन्मों
के फासले नहीं
हैं। और जो हम
भोग रहे हैं, हमें जानना
चाहिए कि हम
उस भोगने के
लिए जरूर कुछ
उपाय कर रहे हैं--चाहे
सुख हो, चाहे
दुख हो, चाहे
शांति हो, चाहे
अशांति हो।
प्रश्न:
जो
बच्चे अंगहीन
पैदा हो जाते
हैं, अंधे
हो जाते हैं
या और अस्वस्थ
पैदा हो जाते हैं,
उसमें
उन्होंने कौन
सा कर्म किया
है, जिसकी
वजह से वे हो
गए?
हां, बहुत कारण
हैं। अब यह
सारी बात
समझने जैसी है
असल में। और
महीपाल जी ने
एक सवाल पूछा
है, वह भी
उसमें आ जाए।
एक बच्चा अंधा
पैदा होता है
तो दो घटनाएं
घट रही हैं, अगर
वैज्ञानिक से
पूछेंगे तो वह
कहेगा, इसके
मां-बाप के जो
अणु मिले, उनमें
अंधेपन की
गुंजाइश थी।
वैज्ञानिक
यहां समझाएगा।
वह भी अकारण
नहीं मानता
इसको, वह
भी कारण मानता
है। लेकिन
कारण वह
विज्ञान के
खोजेगा। वह
कहेगा, जो
मां-बाप के
अणु मिले, उन
अणुओं से अंधा
बच्चा ही पैदा
हो सकता था। अंधा
बच्चा पैदा हो
गया है। उन
अणुओं में कुछ
कमी थी केमिकल,
रासायनिक, जिससे कि
आंख नहीं बन
पाई, आंख
नहीं बनी। वैज्ञानिक
यह कहेगा। वह
भी अकारण नहीं
मानता इसको।
लेकिन
धार्मिक
कहेगा कि बात
इतनी ही नहीं
है, और भी
पीछे कारण
हैं। जो आदमी
मरा--क्योंकि
विज्ञान के
लिए तो आदमी
सिर्फ जन्मता
है, जन्म
के पहले कुछ
भी नहीं है।
इसीलिए
विज्ञान पूरा
वैज्ञानिक
नहीं है।
क्योंकि जब
विज्ञान कहता
है कि अंधे
बच्चे के पैदा
होने के पीछे
कारण हैं, तो
वह अंत में इस
बात को इनकार
कैसे कर सकता
है कि पैदा
होने के पीछे
भी और कारण
हैं, सिर्फ
अंधे होने के
पीछे ही नहीं।
यानी वह इतना
तो मानता है
कि अंधा पैदा
होगा, क्योंकि
अणुओं में कुछ
ऐसा कारण है, जिससे अंधा
पैदा होना है।
लेकिन पैदा ही
क्यों होगा? यह पैदा ही
क्यों होगा यह
आदमी? वह
बस अणुओं के
मिलने पर
शुरुआत मानता
है। उसके पीछे?
धर्म
कहता है, उसके
पीछे भी
कार्य-कारण की
शृंखला है, उसको भी
तोड़ा नहीं जा
सकता। तो धर्म
यह कहता है कि
जो आदमी मरा, जो आदमी मरा,
मरते वक्त
तक ऐसी स्थितियां
हो सकती हैं
कि वह आदमी
खुद भी आंख न
चाहे। समझ लें
इसको। ऐसी स्थितियां
हो सकती हैं
कि वह आदमी
खुद भी आंख न
चाहे। या ऐसे
उसके कर्मों
का पूरा का
पूरा योग हो
सकता है उस
क्षण में कि
आंख संभव न
रहे। और ऐसा
आदमी अगर मरे
तो ऐसी आत्मा
उसी मां-बाप
के शरीर में
प्रवेश कर
सकेगी, जहां
अंधे होने का
संयोग जुड़ गया
है। यानी ये दोहरे
कारण हैं।
अब
जैसे मैं
उदाहरण के लिए
कहूं, एक
लड़की को मैं
जानता हूं, जिसकी आंख
चली गई। और
आंख सिर्फ
इसलिए चली गई कि
उसके प्रेमी
से उसे मिलने
को मना कर
दिया गया, देखने
को मना कर
दिया गया। और
उसके मन में
भाव इतना गहरा
हो गया इस बात
का कि जब
प्रेमी को ही
नहीं देखना है
तो फिर देखना
भी क्या है! यह
भाव इतना संकल्पपूर्ण
हो गया कि आंख
चली गई। और
किसी इलाज से
आंख नहीं
लौटाई जा सकी,
जब तक कि
उसको प्रेमी
से मिलने नहीं
दिया गया। मिलने
से आंख वापस
लौट आई। उसके
मन ने ही आंख
का साथ छोड़
दिया।
तो
मरते क्षण में, मरते वक्त
में आत्मा के
पूरे के पूरे
जीवन की व्यवस्था,
उसका चित्त,
उसके
संकल्प, उसकी
भावनाएं, सब
काम कर रही
हैं। इन सारी
संकल्पों, इन
सारी भावनाओं,
इस सारे
कर्म शरीर को,
इस सारे संकल्प
शरीर को लेकर
वह इस शरीर को
छोड़ती है। नया
शरीर हर कोई
ग्रहण नहीं कर
लिया जाएगा।
वह उसी शरीर
की तरफ सहज
नियम से
आकर्षित होगी,
जहां उसकी
इच्छाएं, जहां
उसके कर्म, जहां उसकी
भावनाएं
पूरी--पूरी की
पूरी उपलब्ध हो
सकती हैं।
तो दो
कारण यहां मिल
रहे हैं, यानी
दो कॉजल
सीरीज यहां
क्रास हो रही
हैं। एक शरीर
के अणुओं की
और एक आत्मा
की। शरीर के
अणुओं से
बनेगा शरीर, लेकिन उस
शरीर को चुनेगा
कौन?
यहां
हम पचास मकान बनाएं, पचास ढंग के
मकान बनाएं।
आप मकान
खरीदने आएं, आप पचास में
से हर कोई
मकान नहीं चुन
लेते। आप पचास
को खोजते हैं,
फिर आप एक
मकान चुन लेते
हैं। वह एक
मकान आप चुनते
हैं न! तो आपके
भीतर उसके
चुनाव के कारण
होते हैं। हो
सकता है एस्थेटिक
आपके खयाल हों,
तो बड़ा
सुंदर मकान
चाहिए। हो
सकता है
सुविधा के, कनवीनिएंस के खयाल हों,
तो
सुविधापूर्ण
मकान चाहिए।
बड़ा चाहिए कि
छोटा चाहिए कि
कैसा चाहिए, वह आपके
भीतर है।
तो
दोहरे कॉजल
हैं। एक तो
इंजीनियर
मकान बना रहा
है, उसके भी
मकान पचास
बनाए तो उसके
भी कारण हैं पचास
मकान बनाने के,
वह भी हर
कुछ नहीं बना
देगा। उसके
अपने भीतरी कारण
हैं, अपनी
दृष्टि है, अपने विचार
हैं, अपनी
धारणाएं हैं।
फिर आप चुनाव
करने आए, पचास
में से एक
आपने चुना। तो
यहां दोहरी
कारण शृंखलाओं
का मिलन हुआ।
एक इंजीनियर
की कारण
शृंखला, हो
सकता है आप
पचास में से
कोई भी न
चुनें; वापस
चले जाएं कि
यहां मुझे कुछ
पसंद नहीं पड़ता!
और आपकी अपनी
शृंखला, इन
दोनों ने
क्रास किया, और आपने एक
खास मकान
चुना।
जो
शरीर हमने
चुना है, वह
हमने चुना है,
वह हमारा
चुनाव
है--चाहे
अचेतन, चाहे
हमें ज्ञात न
हो, लेकिन
जो शरीर हमने
चुना है, वह
हमने चुना है।
प्रश्न:
इसमें
भी कर्म का
भाग है?
निश्चित
ही न!
कार्य-कारण से
अन्यथा कुछ हो
ही नहीं सकता।
वह
हमने--हमारा
चुनाव है, हमारी
च्वाइस है।
प्रश्न:
मैं
एक गांव गया, उसमें बच्चे
जो हैं, सौ
में से तीस दो
साल बाद मर
जाते हैं।
लेकिन ऐसी
व्यवस्था है
कि सौ के सौ ही
जिंदा रखे
जाएं और नस्ल सुधारी जा
सकती है!
हां, हां। बिलकुल
सुधारी
जा सकती है, बिलकुल सुधारी
जा सकती है।
तो फिर वे
बच्चे पैदा
नहीं होंगे उस
गांव में जो
दो साल में
मरने हैं।
मेरा
मतलब समझ लें
आप। एक गांव
है, उसमें
अभी हर दस में
से आठ बच्चे
मर जाते हैं। तो
इस गांव में
वे ही बच्चे
आकर्षित होते
हैं, जिनकी
दो साल से
ज्यादा जीने
की संभावना
नहीं है। अगर
इस गांव की
नस्ल सुधार दी
जाए, तो
इसका मतलब हुआ
कि इंजीनियर
ने दूसरे मकान
बनाए। अब
इसमें वे
यात्री
आकर्षित
होंगे जो कि कभी
आकर्षित नहीं
हुए थे। आप
मेरा मतलब समझ
रहे हैं न? इस
गांव में अब
वे बच्चे पैदा
होंगे, जो
बच्चे सौ साल
जिंदा रहने के
लिए आए हुए
हैं, वे
पहले भी पैदा
होते कहीं।
प्रश्न:
लेकिन
यह सब गांव
में ऐसा किया
जा सकता है!
सब
गांव में किया
जा सकता है, तो प्लैनेट्स
बदल जाएंगे, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। यानी एक
गांव बदलता है,
दूसरा गांव,
यह सवाल
नहीं है। अगर
पूरी पृथ्वी
पर हम सौ साल
की उम्र तय कर लें
तो इस पृथ्वी
पर सौ साल से
कम पैदा होने
वालों का उपाय
बंद हो जाएगा,
उनको दूसरे प्लैनेट्स
चुनने
पड़ेंगे।
प्रश्न:
तब
तो फिर दूसरे
जन्म तक कर्म
गया न!
मेरा
मतलब नहीं
समझे। दूसरे
जन्म तक तुम
जाओगे, और
तुमने जो किया
है, तुमने
जो भोगा है, उसी से तुम
निर्मित हुए
हो। इसको भी
समझ लेना ठीक
जरूरी है।
समझ
लें, मैंने
पानी बहाया इस
कमरे में--एक
गिलास पानी लुढ़का
दिया। पानी
बहा, उसने
एक रास्ता
बनाया, दरवाजे
से निकल गया।
फिर पानी
बिलकुल चला
गया। धूप आई, सब सूख गया, सिर्फ एक
सूखी रेखा रह
गई। पानी नहीं
है बिलकुल अब,
लेकिन पानी
जिस मार्ग से
गया था, वह
मार्ग रह गया
है।
आपने
दूसरा पानी
उलटाया, अब
इस दूसरे पानी
की हजार
संभावनाओं
में नौ सौ
निन्यानबे
संभावना यह है
कि वह उसी
मार्ग को पकड़
ले, क्योंकि
वह लीस्ट
रेजिस्टेंस
का है, उसमें
झगड़ा
ज्यादा नहीं
है। दूसरा
मार्ग बनाना
पड़ेगा फिर, फिर धूल
हटानी पड़ेगी,
कचरा हटाना
पड़ेगा, तब
पानी मार्ग
बना पाएगा।
बना हुआ मार्ग
है, यह
पानी उस मार्ग
को पकड़ लेगा
और उसी से फिर
बह जाएगा।
पुराना पानी
नहीं था, सिर्फ
सूखी रेखा रह
गई थी।
तो
मेरा कहना है
कि एक जन्म से
दूसरे जन्मों
में कर्म के
फल नहीं जाते, लेकिन कर्म
और फल जो हमने
किए और भोगे, उनकी एक
सूखी रेखा
हमारे साथ रह
जाती है। उसको
मैं संस्कार
कहता हूं।
कर्मफल नहीं
जाते, मैंने
पिछले जन्म
में गाली दी
थी तो फल वहीं
भोग लिया है, लेकिन गाली
मैंने दी थी
और तुमने नहीं
दी थी गाली, तो मैंने
गाली का फल भी
भोगा, तुमने
वह फल भी नहीं
भोगा। तो मैं
एक और तरह का व्यक्ति
हूं। मेरे पास
एक सूखी रेखा
है गाली देने
और गाली का फल
भोगने की। वह
सूखी रेखा मेरे
साथ है। इस
जन्म में मेरे
साथ संभावना
है कि कोई
गाली दे तो
मैं फिर गाली
दूं, क्योंकि
वह सूखी रेखा
जो है, लीस्ट रेजिस्टेंस
की वजह से
फौरन मैं पकड़
लूंगा। कल रात
हम दोनों सोएं,
हम सब लोग
सो जाएं। आप
अलग ढंग से
जीए दिन में, मैं अलग ढंग
से जीया। जो
मैंने जीया वह
गया, लेकिन
मैं जीया था न
उसे! तो सूखी
रेखाएं मेरे साथ
रह गईं।
प्रश्न:
मरने
के बाद तो कोई
श्रीमंत के
यहां जन्मता है, कोई गरीब के
यहां जन्मता
है!
हां
न! बिलकुल
जन्म सकता है।
बिलकुल जन्म
सकता है। वह
भी हमारी सूखी
रेखाएं ही काम
कर रही हैं। वह
भी हमारी सूखी
रेखाएं ही काम
कर रही हैं।
हमारा
जो चित्त है, हमारे चित्त
के जो आकर्षण
हैं, हमने
जो किया और
भोगा है, उसने
हमें एक खास
कंडीशनिंग दी
है, एक खास
संस्कारबद्धता
दी है। वह खास
संस्कारबद्धता
हमें खास
मार्गों पर
प्रवाहित
करती है।
वे खास
मार्ग सब
रूपों में
कारण से बंधे
होंगे, चाहे
वह समृद्ध के
घर पैदा हो, चाहे गरीब
के घर पैदा हो,
चाहे वह
हिंदुस्तान
में पैदा हो, चाहे अमरीका
में पैदा हो, चाहे सुंदर
हो चाहे कुरूप
हो, चाहे
जल्दी मरने
वाला कि देर
तक जीने वाला,
इन सारी
चीजों में उस
आदमी ने जो
किया है और भोगा
है, उसकी संस्कारशीलता
काम करेगी ही।
अकारण यह कुछ
भी नहीं है।
अकारण यह कुछ
भी नहीं है।
इसलिए
कोई मुझसे
कहता है कि
जैसे कल समाजवाद
आ जाएगा...।
प्रश्न:
कॉज
एंड इफेक्ट
दोनों खतम
नहीं हो गए उस
वक्त?
कॉज-इफेक्ट
तो खतम हो गए।
जैसे आपने आग
में हाथ डाला, आपका हाथ आग
से बाहर निकाल
लिया तो डालना
खतम हो गया, आपका हाथ
जला, वह भी
खतम हो गया, हाथ की जलन
भी खतम हो गई, लेकिन जला
हुआ हाथ पास रह
गया--जला हुआ
हाथ। आग नहीं,
डालना नहीं,
जला हुआ
हाथ। मेरा
मतलब आप समझे
न?
प्रश्न:
पिछले
कर्म का जो
अल्टीमेट फल
है, वही चला न
अगले जन्म में?
फल-वल नहीं
चलने वाला है, फल तो खतम हो
गया।
प्रश्न:
हाथ
जलने के कारण
उसके हाथ में
कुछ निशान रह
गए।
ये
जो निशान हैं
न, ये जो
निशान हैं, यह न तो जलन
है, न आग
है।
प्रश्न:
फल
तो उसी जलने
का है?
फल
तो जलन था, वह तुमने
भोग लिया, अब
हाथ तुम्हारा
जल नहीं रहा
है।
प्रश्न:
यह
भी तो एक
प्रकार का फल
ही है कि हाथ
आपका कुरूप हो
गया।
इसको
मैं कह रहा
हूं, यह सूखी रेखा
है। सिर्फ
चिह्न रह गया
कि तुम्हारा
हाथ जला था।
तुम आग में...।
प्रश्न:
फल
तो उसी का है?
नहीं, तुम फल का
मतलब ही नहीं
समझते न! फल का
मतलब ही यह
होता है--फल का
मतलब है जलन।
यह तो इसको हम,
इसको...कॉज
तो था आपका
हाथ डालना, इफेक्ट था
आपके हाथ का
जलना; लेकिन
यह घटना घटी
तो इस घटना के
सूखे संस्कार
पीछे रह
जाएंगे, क्योंकि
यह घटना आपको
घटी। और आपको
नहीं घटी तो
आपका हाथ जला
हुआ नहीं है।
यह सिर्फ खबर
है इस बात की
कि इस आदमी ने
हाथ डाला था, इस बात की भर
खबर है। इसको
मैं
कंडीशनिंग
कहता हूं, इसको
संस्कार कहता
हूं, फल
नहीं कहता। फल
तो जलन थी जो
भोग लिया
तुमने।
तो हम
प्रत्येक
व्यक्ति
अपने-अपने
फलों को भोगने
की खबरें भर
लिए हुए हैं
अपने साथ। और
वे खबरें भी
हमें
प्रभावित
करती हैं।
प्रभावित करती
हैं इस अर्थों
में कि वे
हमें लीस्ट
रेजिस्टेंस
के मार्ग
सुझाती हैं।
जिस आदमी ने
पिछले दस
जन्मों में
हत्या की है
बार-बार, उसकी
बहुत संभावना
इस जन्म में
भी हत्या करने
की है।
उसका
कारण यह है कि
दस जन्मों से
हत्या करने की
उसकी जो
वृत्ति है, जो भाव है, जो संस्कार
है, वह
निरंतर गहरा
होता चला गया
है। और उसको
सरल यही दिखाई
पड़ता है, अगर
किसी से झगड़ा
हो तो पहली
बात यही सूझती
है कि मार डालो।
पहली, दूसरी
बात नहीं
सूझती उसको।
यह निकटतम का
रास्ता है जिस
पर सूखी रेखा
बनी है, पानी
पकड़ कर बह
जाता है।
प्रश्न:
टेंडेंसी
हो गई है?
टेंडेंसी
है, उसकी
वृत्ति। और
इसमें फर्क
क्यों कर रहा
हूं मैं? फर्क
बहुत गहरा है।
क्योंकि
वृत्ति सिर्फ
सूखी है, उसमें
कोई प्राण
नहीं है। अगर
आप बदलना
चाहें तो इसी
वक्त बदल सकते
हैं। लेकिन
अगर आप कहते हैं
फल, तो फल
सूखा नहीं है,
फल हरा है, फल भोगना
पड़ेगा, उसको
आप बदल नहीं
सकते। जैसे आग
में हाथ डाला
है और अगर
अगले जन्म में
जलना है, तो
जलना पड़ेगा।
क्योंकि हाथ
डालना तो हो
चुका, आधा
काम पूरा हो
चुका, अब
आधा काम पूरा
करना पड़ेगा।
लेकिन
मेरा कहना यह
है कि आग में
हाथ डाला है तो
यह आदमी आग
में हाथ डालने
की वृत्ति
वाला है, इस
जन्म में भी
इससे डर है कि
यह आग में हाथ
डाल न दे।
क्योंकि इसकी आदत,
इसके
बार-बार आग
में हाथ डालने
की व्यवस्था
भय पैदा करती
है।
लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं है कि यह
आग में हाथ डालने
को बंधा है।
यह चाहे तो न
डाले। मेरा
फर्क समझ रहे
हैं न? इसका
मतलब यह होता
है अंततः कि
कर्मों की
निर्जरा नहीं
करनी है आपको।
कर्मों की
निर्जरा
प्रतिकर्म के
साथ होती ही
चली जाती है, सिर्फ सूखी
रेखा रह जाती
है। इस सूखी
रेखा से आपका
जाग जाना ही
काफी है।
इसलिए मोक्ष
या निर्वाण सडन, तत्काल
हो सकता है।
पुरानी
जो हमारी
धारणा है, उसमें सडन
नहीं हो सकता,
क्योंकि
आपने जितने
कर्म किए हैं,
उनके फल
आपको भोगने ही
पड़ेंगे अभी।
जब आप सारे फल
भोग लेंगे, तब आपकी
मुक्ति हो
सकती है--एक।
और इन फल
भोगने में अगर
आपने फिर कुछ
कर्म कर लिए
तो फिर बंध हो
जाएगा। और यह
अंतहीन
शृंखला होगी।
यानी
मैं यह कह रहा
हूं कि आप
प्रति बार कर्म
करके फल भोग
लेते हैं।
निर्जरा तो
वहीं हो जाती
है, रह जाती
है सिर्फ
वृत्ति कर्म
करने की। कर्म
नहीं, फल
नहीं, सिर्फ
टेंडेंसी।
और टेंडेंसी
अगर आप होश से
भर जाते हैं
तो अभी विदा
हो जाती है, इसी वक्त
विदा हो जाती
है। उसको विदा
करने में कोई
उसका विरोध
नहीं है।
प्रश्न:
इस
थ्योरी की
जरूरत क्या है
फिर? सूखी
रेखा की
थ्योरी की
जरूरत क्या है
फिर?
उसकी
जरूरत है।
उसकी जरूरत...।
प्रश्न:
आपने
कहा, नियंता
की जरूरत नहीं,
जैसे
महावीर के
बारे में कहा,
तो इस सूखी
रेखा की
थ्योरी की
जरूरत क्या है?
थ्योरी
की जरूरत नहीं
है, तथ्य है
यह। जैसे समझ
लें कि आज दिन
भर मैंने क्रोध
किया, तो
जब-जब मैंने
क्रोध किया, मैंने दुख
भोगा। गाली
खाई, झगड़ा हुआ, उपद्रव
हुआ, अशांत
हुआ। फिर मैं
सो गया आज
रात। आपने दिन
भर क्रोध नहीं
किया, आप
दिन भर प्रेम
से लोगों से
मिले-जुले,
आनंदित रहे,
आप भी सो
गए।
सुबह
हम दोनों एक
ही कमरे में सोकर उठे।
मेरी चप्पल
कमरे में मेरे
बिस्तर के पास
नहीं मिली
मुझे, आपकी
भी नहीं मिली।
आपकी संभावना
बहुत कम है कि
आप एकदम क्रोध
में आ जाएं, मेरी
संभावना बहुत
ज्यादा है कि
मैं एकदम क्रोध
में आ जाऊं।
वह जो कल का
दिन है उसकी सूखी
रेखा मेरे साथ
है। मेरा टाइप
बन गया न! दिन भर
जो आदमी क्रोध
किया है, वह
कहेगा, कहां
है मेरी चप्पल?
वह सुबह से
ही उपद्रव
शुरू हो गया
उसका फिर।
मेरा
आप मतलब समझ
रहे हैं न? वह
कर्म-वर्म तो
गए। कल जो
मैंने गाली दी
थी, वह भी
गई, जो
गाली का दुख
था, वह भी
गया, लेकिन
गाली देने
वाला आदमी मैं,
जिसने दिन
भर गाली दी, वह तो शेष
हूं। और
मुझमें और
आपमें कोई भेद
तो होना चाहिए
न! क्योंकि
आपने दिन भर
गाली नहीं दी
और मैंने दिन
भर गाली दी, और सुबह अगर
ऐसा हो जाए कि
कोई भेद न रहे,
तब तो फिर
व्यवस्था गई।
मेरा मतलब आप
समझ रहे हैं न?
भेद तो
रहेगा ही
मुझमें और
आपमें, क्योंकि
हम दोनों अलग
ढंग से जीए।
मैं क्रोध में
जीया, आप
प्रेम में जीए,
तो हममें
भेद तो रहेगा।
वह भेद टेंडेंसी
का होगा, वह
भेद वृत्ति का
होगा।
प्रश्न:
फल
का नहीं होगा?
फल
का नहीं होगा।
प्रश्न:
फल
तो खतम हो गया।
हां, फल तो गया।
फल तो गया!
प्रश्न:
संस्कार
या वृत्ति
हमारे साथ रह
जाएगी।
हां, टोटल
कंडीशनिंग
हमारे साथ रह
जाएगी। और यह
जो समग्र
संस्कार है
हमारा, इस
समग्र
संस्कार के
प्रति हमारी मर्ूच्छा
ही कारण होगी
इसको चलाने
का। जैसे समझ
लें कि कल
मैंने क्रोध किया
दिन भर और
सुबह मैं
सोचूं कि बहुत
क्रोध किया, बहुत दुख
पाया और जाग
जाऊं तो जरूरी
नहीं है कि
चप्पल पर मैं
क्रोध--यानी
मेरे भीतर
क्रोध करने की
अनिवार्यता
नहीं है, सिर्फ
मर्ूच्छा
ही
अनिवार्यता
होगी। अगर मैं
सोए-सोए फिर
कल जैसा ही
व्यवहार करूं
तो क्रोध चलेगा,
और अगर जाग
जाऊं तो क्रोध
टूट जाएगा।
इसलिए
अंततः मेरी
दृष्टि में
कर्म की
निर्जरा तो हो
गई है सदा, लेकिन कर्म
की सूखी रेखा
रह गई है। और
वह सूखी रेखा
हमारी मर्ूच्छा
है। अगर हम मर्ूच्छित
रहें तो हम
वैसा ही काम
करेंगे। अगर
हम जाग जाएं
तो काम इसी
वक्त बंद हो
जाए।
इसलिए
मैं कहता हूं, एक क्षण में
मुक्ति हो
सकती है। आप करोड़-करोड़
जन्मों में
क्या किए हैं,
इससे कुछ
लेना-देना
नहीं रह गया
है। सिर्फ आप जाग
जाएं, इससे
ज्यादा कोई
शर्त नहीं है।
यह मेरा फर्क
समझ रहे हैं? क्यों मैं
ऐसी व्याख्या
कर रहा हूं, उसका
बुनियादी अंतर
पड़ेगा।
वह जो
व्याख्या है
आपकी, उसका
तो मतलब यह है
कि अगर करोड़
जन्म में आपने
कर्म किए हैं
तो आपको फल
भोगने के लिए
शेष हैं अभी।
वे जब तक आप
नहीं भोग लेते,
तब तक कोई
उपाय नहीं है।
और उनको भोगने
में काल
व्यतीत होगा।
भोगने में काल
व्यतीत होगा,
भोगने में
भी नए कर्म
होंगे, क्योंकि
आप बचेंगे
कैसे?
अगर
पुरानी
व्याख्या सही
है तो मैं
मानता हूं, कोई कभी
मुक्त हो ही
नहीं सकता।
उसका कारण है।
उसका कारण है
कि कल मैंने
कितने पाप किए,
कितनी बुराइयां
कीं, वे सब
इकट्ठी हैं, उनका फल
भोगना है। और
फल मैं बिलकुल,
कैसे भोगूंगा?
जब मुझे कोई
गाली देने
आएगा--क्योंकि
मैंने पिछले
जन्म में उसे
गाली दी थी, तो कोई मुझे
गाली देने
आएगा तो फिर
कर्म शुरू होगा
न! वह फिर मुझे
गाली देगा। और
जब मैंने पिछले
जन्म में गाली
दी थी तो गाली
देने की मेरी टेंडेंसी
तो है ही। और
वह जब मुझे
फिर गाली देगा,
फिर गाली का
सिलसिला--मैं
कुछ तो
करूंगा। और सिलसिला
जारी रहेगा।
और सिलसिले का
अंत क्या है? क्योंकि अगर
एक कर्म भी
शेष रह गया है
तो उसको भोगने
में फिर नए
कर्म निर्मित
हो जाएंगे। और
नए कर्म
निर्मित होते
चले जाएंगे, होते चले
जाएंगे। और एक
भी अगर कभी शेष
है तो यह
निर्मिति बंद
कैसे होगी?
मेरा
मानना यह है
कि अगर वह बात
सही है तो
दुनिया में
कोई कभी मुक्त
हुआ ही नहीं।
लेकिन दुनिया
में मुक्त लोग
हुए हैं, और
वे इसीलिए
मुक्त हो सके
हैं कि कर्म
आगे के लिए
शेष नहीं रह
जाते, कर्म
तो पीछे ही चुकतारा
हो जाता है, सिर्फ रह
जाती है सोई
हुई वृत्ति।
और अगर आदमी
सोया ही रहे
तो
उन्हीं-उन्हीं
कर्मों को
दोहराता चला
जाता है, जाग
जाए तो
दोहराना बंद
कर देता है।
यानी मुझे कोई
मजबूर नहीं कर
रहा है कि मैं
क्रोध करूं सिवाय
मेरी मर्ूच्छा
के। और अगर
मैं जाग गया
हूं तो मैं
कहता हूं, ठीक
है, इस
रास्ते से
बहुत बार जा
चुके, बहुत
दुख उठा चुके।
इसलिए
महावीर ने बड़ी
कोशिश की
प्रत्येक
व्यक्ति को
पिछले जन्मों
के संबंध में
स्मरण दिलाने
की। उस स्मरण
दिलाने का
सिर्फ एक
प्रयोजन है कि
यह पता चल जाए
कि तुम
क्या-क्या कर
चुके हो, क्या-क्या
भोग चुके हो। इन
रास्तों से
तुम कितनी बार
गुजर चुके हो,
अब इन्हीं
पर गुजरते
रहोगे? इसका
सिर्फ एक
प्रयोजन है कि
अगर स्मरण आ
जाए किसी
व्यक्ति को
उसके दो-चार
जन्मों का कि
उसने बहुत बार
धन कमाया, धन
कमाने में
बहुत बार
बेईमानी की, बहुत बार
प्रेम किया, बहुत बार
क्रोध किया, बहुत बार यश
कमाया, बहुत
बार अपमान सहा,
मान सहा। सब
कर चुका है वह,
जो अब फिर
कर रहा है।
और अगर
उसको यह दिखाई
पड़ जाए कि यह
मैं बहुत बार
कर चुका तो यह
मीनिंगलेस हो
गया। अब इसको
फिर दुबारा किसलिए कर
रहा हूं? और
यह चोट अगर
उसको पड़ जाए
तो वह अभी जाग
जाए और कहे कि
अब बहुत कर
चुका यह, अब
इसके करने का
क्या मतलब? कितनी बार
धन कमाया, फिर
हुआ क्या?
तो यह
जागरण उसकी जो
सूखी रेखा
उसको पकड़े
हुए है, उसके
तोड़ने का कारण
बन जाए। इसलिए
सडन
एनलाइटेनमेंट
की संभावना
है। सच तो यह
है कि जब भी
कभी मुक्ति
होती है, वह
सडन है।
प्रश्न:
सम्यक
स्मृति इसी को
कही जा सकती
है?
हां, कह सकते
हैं।
प्रश्न:
एकाघडग
टु दैट विल
पावर आर
संकल्प, डिफरेंट टाइप इज़ डेवलप्ड डयू टु दैट
संस्कार?
हां-हां, बिलकुल ही।
प्रश्न:
नाट
दैट कॉज एंड
इफेक्ट!
न-न।
प्रश्न:
दैट
इज़ आल गॉन?
हां, बिलकुल ही
चला जाता है।
प्रश्न:
(अस्पष्ट
रिकाघडग)
अन्याय
कुछ भी नहीं
है। अन्याय
कुछ भी नहीं
है। तब अन्याय
इसलिए कुछ भी
नहीं है कि जो
हम कर रहे हैं, वह हम भोग
रहे हैं। वह
उससे अन्यथा
नहीं हो सकता।
इसमें
एक बात और समझ
लेनी जरूरी
है। पुराना खयाल
क्या था? पुराना
खयाल यह था कि
मैं अगर महीपालजी
को चांटा मारूं
तो किसी जन्म
में वह मुझे
चांटा मारें।
कर्मफल का ऐसा
खयाल है। इसका
तो मतलब यह
हुआ कि अगर
मैंने महावीर
को चांटा मार
दिया तो जब तक
वे मुझे चांटा
न मार लें, वे
भी मुक्त नहीं
हो सकते। यानी
मेरा कृत्य भी
उनकी अमुक्ति
बन जाएगा।
समझ
लीजिए, मैंने
महीपालजी
को चांटा मारा
और वह इसी
जन्म में
मुक्त हो सकते
हैं? नहीं
हो सकते--अगले
जन्म में जब
तक मुझे चांटा
न मार लें।
क्योंकि नहीं
तो मुझे चांटा
कौन मारेगा? वह हिसाब
कैसे पूरा
होगा?
प्रश्न:
तो
अगला जन्म
लेना पड़े!
वह
उनको मेरे
पीछे लेना
पड़े। जो कि
बिलकुल ही व्यर्थ
बात है। नहीं, मेरा कहना
यह है कि मैं
जब उनको चांटा
मारता हूं तो
मुझे वह चांटा
मारेंगे, ऐसा
फल नहीं होता,
मैं चांटा
मारता हूं, मेरे चांटा
मारने में जिस
वृत्ति से मैं
गुजरता हूं, वह मुझे दुख
दे जाती है।
उनसे कुछ
चांटा-वांटा
लौटने का सवाल
नहीं है। उनसे
कोई चांटा...।
हां, मैंने
उन्हें चांटा
मारा, अगर चांटे को
वे साक्षी-भाव
से देखते रहें
तो वे नया कर्म
नहीं बांधते
हैं, क्योंकि
वे सिर्फ
साक्षी रहते
हैं। मैंने चांटा
मारा और
उन्होंने
देखा, वे
कुछ भी नहीं
कर रहे हैं मतलब।
अगर वे मेरे
चांटा मारने
से मुझे चांटा
मारें तो
वह मेरे चांटे
का फल नहीं है,
वह उनका
कर्म है, जिसका
फल उनको भोगना
पड़ेगा। इस बात
को ठीक से समझ
लेना चाहिए।
मैंने
चांटा मारा है
उनको, और
अगर वे चुपचाप
देखते रहें और
समझें कि यह बेचारा
पागल है, चांटा
मारता है। और
कुछ न करें, समझें, अपने
रास्ते बढ़
जाएं। तो
उन्होंने कोई कर्मबंध
नहीं किया, मैंने कर्म
किया और उसका
फल भोगा। वह
मेरे इस कर्मबंध
की शृंखला से
उन्होंने कोई
संबंध नहीं
जोड़ा। लेकिन
अगर वे मुझे
चांटा मारें,
उत्तर दें,
तो वह मेरे चांटे का
उत्तर नहीं
है। मेरे चांटे
का उत्तर तो
मैं ही भोग
रहा हूं, इस
चांटे का
उत्तर वही
भोगने वाले
हैं। यह उनकी
अपनी कर्म-शृंखला
है, इससे
मुझे कुछ
लेना-देना
नहीं है।
और
अन्याय कुछ भी
नहीं है, अन्याय
कुछ भी नहीं
है। अन्याय
इसलिए कुछ भी
नहीं है कि
मैं चांटा
मारता हूं तो
मैं दुख भोग लेता
हूं। और जिसको
मैं चांटा
मारता हूं तो
सवाल उठता है
कि उसके साथ
तो अन्याय हो
गया।
प्रश्न:
आपने
कहा कि चांटा
मारने से दुख
होगा ही, लेकिन ऐसी
भी वृत्ति
होती है कि
मैं चांटा भी मारूं और
आनंद भी लूं?
समझें
इसे थोड़ा। हां, हां, इसकी
भी बात कर
लेंगे, इसकी
बात करेंगे।
मैंने
चांटा मारा
किसी को तो
मैंने कर्म
किया, उसका
मैंने समझ
लीजिए दुख
भोगा, फल
भोगा, लेकिन
जिसको मैंने
चांटा मारा
उसके साथ तो
अन्याय हो
गया--और मैं
कहता हूं
अन्याय कुछ भी
नहीं है। अब
मेरा कहना यह
है कि मेरा
चांटा मारना
आधा हिस्सा
है। और चांटा
भी मैं उसी को
मारता हूं जो चांटे को
आकर्षित करता
है। वह दूसरा
हिस्सा है जो
हमें दिखाई
नहीं पड़ता। वह
हमें दिखाई
नहीं पड़ता। यह
असंभव है, यह
असंभव है कि
मैं उसको
चांटा मार दूं
जो चांटे
को आकर्षित
नहीं करता है।
तो जो चांटे को
आकर्षित करता
है, उसी को
चांटा पड़ता
है। और
आकर्षित करने
की वजह से
जितना दुख
उसको उठाना है,
वह उठाता
है। वह आकर्षण
में उसका
हिस्सा है।
यानी कोई आदमी
इस दुनिया में
अकेला मालिक
नहीं होता, गुलाम भी
उसके साथ
गुलाम होना
चाहता है, नहीं
तो यह संबंध
बन ही नहीं
सकता है।
तो हम
तो मालिक को
थोप देते हैं
कि तुमने क्यों
गुलाम बनाया
इस आदमी को? लेकिन हम
कभी नहीं
पूछते कि यह
आदमी गुलाम
बनना चाहता था?
अगर यह नहीं
बनना चाहता था
तो असंभव था
इसे गुलाम
बनाना। इसे
गुलाम बनाना
ही असंभव था।
एक
फकीर हुआ है डायोजनीज, उसको कुछ
लोगों ने पकड़
लिया। रास्ते
से गुजरता था,
नंगा फकीर
था, उसे
कुछ लोगों ने
पकड़ लिया।
उसने पूछा, कहां ले
जाते हो पकड़
कर? तो उन
लोगों ने कहा,
हम गुलामों
को पकड़ कर और
बेचते हैं
बाजारों में। डायोजनीज
ने कहा, बहुत
बढ़िया! चलो
चलते हैं। पर
वे लोग बड़े
हैरान हुए, क्योंकि कोई
आदमी को पकड़ो
गुलामी के लिए
तो वह भागता
है, बचना
चाहता है। डायोजनीज
ने कहा, हाथ-वाथ छोड़ दो,
क्योंकि
मैं खुद ही
चलता हूं।
क्योंकि जो
तुम्हारे साथ
नहीं जाना
चाहता, उसे
तुम जंजीर
बांध कर भी
नहीं ले जा
सकते। मैं तो
चलता ही हूं।
जंजीरें-वंजीरें
अलग कर लो।
वे उसे
ले गए हैं। वह
उनके साथ ही
चला गया। क्योंकि
डायोजनीज
यह कहता था कि
जो हो जाए, मैं उसी के
साथ चला जाता
हूं, यानी
मैं इसमें कोई
बाधा डालता ही
नहीं। मैं
इसमें कोई
बाधा डालता ही
नहीं।
उसे
जाकर खड़ा कर
दिया। वह बहुत
तगड़ा फकीर था, बहुत स्वस्थ
आदमी था। वह
ठीक महावीर
जैसा आदमी था
और वैसा ही
नग्न रहता और
वैसा ही सुंदर
था। उसे चौखटे
पर खड़ा कर
दिया जहां
नीलाम, बिक्री
होती थी
गुलामों की।
और बेचने वाले
ने चिल्लाया
कि कौन इस
गुलाम को
खरीदता है? उसने कहा, चुप। यह मत
कहना। आवाज
मैं ही लगा
देता हूं। उसने
चौखटे पर खड़े
होकर कहा कि
कोई एक मालिक
को खरीदने को
हो, तो आ
जाए। उस आदमी
ने कहा उस
तख्ती पर खड़े
होकर कि अगर
किसी को किसी
मालिक को
खरीदना हो तो
आ जाए। तो लोग
बड़े चौंके,
भीड़ लग गई।
और लोगों ने
कहा, क्या
मजाक की बात
है!
तो डायोजनीज
ने कहा कि मैं
तो हर हालत
में मालिक ही
रहूंगा। ये
लोग मुझे पकड़
कर भी
लाए--मैंने
कहा, बंद करो,
हटाओ ये
जंजीरें। तो
इन्होंने
जल्दी से हटा
लीं। क्योंकि
मैंने कहा, मैं ऐसे ही
चलता हूं, क्या
ये जंजीरें
रखने की बात
है? मैं तो
मालिक हूं।
इनसे पूछो, इनको मैं
कितना डांटता-डपटता
ला रहा हूं, ये जो मुझे
पकड़ कर लाए
हैं। और इनका
कितना सुधार
किया। इनको
कितना ठीक
किया मैंने।
इनसे पूछो। और
हालत सच में
यही थी कि जो
उसे पकड़ कर
लाए थे, बड़े
डरे हुए थे और
वह आदमी बड़ी
अकड़ से खड़ा
हुआ था। उसने
कहा, इसलिए
मैंने कहा कि
कोई भूल में
गुलाम समझ कर मत
खरीद लेना।
क्योंकि जो
गुलाम होना
चाहे, वही
गुलाम हो सकता
है। हम तो
मालिक ही हैं।
तो किसी को
मालिक खरीदना
हो तो खरीद
ले।
तो एक
राजा को क्रोध
आ गया। उसने
कहा कि यह क्या
बात करता है!
तो उसने उसे
खरीद लिया।
खरीद लिया, उसे घर ले
जाकर कहा कि
इसकी टांग तोड़
डालो।
इसकी टांग तोड़
डालो। तो डायोजनीज
ने टांग आगे
कर दी। उसने
टांग आगे कर
दी। राजा ने
कहा, तुड़वा रहे हैं यह
टांग! उसने
कहा, तुम
क्या तुड़वा
रहे हो? हम
खुद ही आगे कर
रहे हैं। हम
मालिक हैं। तुड़वाओगे
तुम तब, जब
हम बचाएं।
तोड़ो! लेकिन
ध्यान रहे, नुकसान में
पड़ जाओगे, क्योंकि
जो खरीदा है
मुझको, फिर
मैं किसी काम
का न रह जाऊंगा।
टांग टूट गई, फिर मैं काम
का क्या
रहूंगा? तुम्हारी
मर्जी। यह
टांग रही।
राजा को भी
खयाल आया कि
बात तो सच है, इसकी टांग तुड़वा दी
तो यह एक और
बोझ! और उसने
कहा, मैं
तो मालिक हूं
और मालिक हो जाऊंगा।
क्योंकि टांग
टूटने से फिर
मैं बैठा ही
रहूंगा। उस
राजा ने कहा, रहने दो, इस
आदमी की टांग
मत तोड़ो। उसने
कहा, देखते
हो तुम।
मालकियत
किसकी चली? डायोजनीज ने कहा, मालकियत
किसकी चल रही
है?
यह मैं
कह रहा हूं कि
जब एक आदमी
गुलाम होता है, तब किसी न
किसी रूप में,
पैसिवली,
वह गुलामी
को आमंत्रित
करता है। जब
एक मालिक होने
की प्रवृत्ति
वाला आदमी और
गुलाम होने की
प्रवृत्ति
वाले आदमी मिल
जाते हैं तो
तालमेल बैठ
जाता है। एक
गुलाम बन जाता
है, एक
मालिक हो जाता
है। इसे ऐसा
समझना चाहिए
कि जैसे हम
प्लग लगाते
हैं न, तो
उसमें हम वह
जो पिन लगा
रहे हैं, वही
मतलब नहीं
रखतीं, वे
जो छेद हैं
भीतर, वे
भी मतलब रखते
हैं। वे प्लग
और छेद, जब
पिन और छेद
मेल खा जाते
हैं तो बैठ हो
जाती, नहीं
तो नहीं होती।
जब मैं
किसी को चांटा
मारता हूं तो
इतना ही काफी नहीं
है कि मैंने
चांटा मारा, वह आदमी
किसी न किसी पैसिव ढंग
से छेद का काम
कर रहा है, चांटे
को निमंत्रित
कर रहा है, नहीं
तो यह असंभव
है।
इसलिए
मैं कहता हूं, अन्याय
असंभव है।
लेकिन इसका यह
मतलब नहीं, जो तुम
दूसरी बात
कहती हो, तो
फिर हमें
अन्याय
मिटाने की
कोशिश नहीं
करनी चाहिए?
नहीं, वह कोशिश
हमें करनी
चाहिए। क्यों?
उसका कारण
है। हमें एक
ऐसी दुनिया
बनानी चाहिए,
जहां न कोई चांटे को
आकर्षित करता
हो, न कोई
चांटा मारने
को उत्सुक
होता हो।
अन्याय कभी भी
नहीं है।
अन्याय का कुल
मतलब इतना हो
सकता है कि
अभी ऐसे लोग
हैं दुनिया
में जो चांटा
मारने को भी
उत्सुक हैं और
ऐसे लोग भी
हैं दुनिया
में जो चांटा
खाने को उत्सुक
हैं। अन्याय
घटना में नहीं
है, अन्याय
इस स्थिति में
है--इसको समझ
लेना। यानी
कोई घटना
अन्यायपूर्ण
नहीं है, घटना
तो हमेशा जस्टीफाइड
है। जो हो रहा
है, वैसा
ही होता है, वैसा ही हो
सकता था।
जैसा
तुमने पूछा कि
सतियां होती
थीं, तो
सतियां होती
इसलिए थीं कि
कुछ
स्त्रियां मरने
को राजी थीं
आग में, कुछ
लोग आग में
जलाने को राजी
थे, तो
नियम चलता था।
अन्याय कुछ भी
न था। जो स्त्रियां
जलने को राजी
नहीं थीं, वे
उस दिन भी
नहीं जलाई
गईं। और जो
स्त्रियां जलने
को आज भी राजी
हैं--सती की
व्यवस्था
नहीं है, लेकिन
वे स्टोव से
आग लगा लेती
हैं, जहर
डाल लेती हैं,
कुछ भी करती
हैं। यानी
मेरा कहना यह
है कि जो स्त्रियां
नहीं--सारी
स्त्रियां तो
सती नहीं हो
जाती थीं, कुछ
स्त्रियां
सती होती थीं।
और अगर
तुम हिसाब
लगाने जाओ तो
जितनी औरतें
आज आग लगा कर
मरती हैं, वह अनुपात
ज्यादा नहीं
पाओगे, वह
उतना ही
पाओगे। इसको
बड़ा सोचने
जैसा मामला है।
सती की
व्यवस्था आग
में जलने वाली
औरतों के लिए
सुविधा थी।
कुछ लोग जलाने
वाले भी हैं, वे अब भी जलवाने
का इंतजाम
करते हैं।
इंतजाम बदल
जाते हैं।
प्रश्न:
किसी
को ढकेल कर भी
मारते थे, ढकेल कर भी
सती करते थे।
ढकेल
कर भी सती आप
कर सकते हैं।
प्रश्न:
सती?
हां, हां, ढकेल
कर ही किया
जाता था।
लेकिन वह
जिसको ढकेल कर
भी किया जाता
था, उसके
भी ढकेले
जाने की
आंतरिक पूरी
की पूरी
मनोवृत्ति
होती थी, नहीं
तो नहीं हो
सकता, यह
असंभव है।
यानी मैं यह
कह रहा हूं कि
घटना जब भी
घटती है तो
उसके दो पहलू
हैं और उसमें
हम एक ही पहलू
को जिम्मेवार
ठहराते हैं, वह हमारी
गलती है, दूसरा
पहलू उतना ही
जिम्मेवार होता
है।
जैसे
हम कहते हैं
अंग्रेजों ने
आकर हमको गुलाम
बना लिया, यह आधा
हिस्सा है। हम
गुलाम होने की
तैयारी में थे,
यह दूसरा
हिस्सा है, जो हमें
खयाल में नहीं
आता। और जब तक
हम गुलाम होने
की तैयारी में
थे, गुलाम
रहते। यह
दूसरी बात थी
कि अंग्रेज
बनाते, कि
हूण बनाते, कि फ्रेंच
बनाते, यह
गौण बात थी, लेकिन
गुलामी घटती,
क्योंकि
गुलामी की
हमारी तैयारी
थी।
लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं है कि
मैं कहता हूं
कि सती की
प्रथा जारी
रहना चाहिए।
मैं कहता यह हूं
कि यह प्रथा
तो गलत है।
प्रथा इसलिए
गलत है कि
जलाने वाला भी
गलत काम कर रहा
है, जलाया
जाने वाला भी
गलत कर रहा
है। ये दोनों
आदमी गलत हैं।
दुनिया ऐसी
होनी चाहिए, जहां न कोई
जलाने को
उत्सुक है, न कोई जलने
को उत्सुक है।
ऐसी अच्छी
दुनिया हमें
बनाए जाना
चाहिए। लेकिन
जो हो रहा है, वह तो
न्याययुक्त
है। इससे
ज्यादा
न्याययुक्त
हो सकता है, और ज्यादा न्यायमुक्त
हो सकता है।
लेकिन जो होता
है, वह
हमेशा जस्टीफाइड
है इस अर्थों
में कि वही हो
सकता था। आदमी
की क्वालिटी
और जीवन और
चेतना बदले तो
कुछ और होना
शुरू हो
जाएगा।
अन्याय
सिर्फ एक है
कि जैसी
जीवन-व्यवस्था
है, वह हमें
बहुत दुख में
डाल रही है। और
दुख हम ही बना
रहे हैं, कोई
और बना नहीं
रहा है। इससे
बेहतर
जीवन-व्यवस्था
हो सकती है, जो ज्यादा
हमें सुख में
ले जाए, ज्यादा
आनंद में ले
जाए। और वैसी
व्यवस्था के लिए
हमें चेष्टारत
होना
चाहिए--व्यक्तिगत
रूप से भी, सामूहिक
रूप से भी।
अब
जैसे कि
उदाहरण के लिए
मैं कहूं, जैसे रूस
में समाजवाद
है और सारे
लोगों की संपत्ति
बराबर हो गई
है। तो लोग
पूछते हैं कि
जहां संपत्ति
बराबर नहीं है,
वहां तो
अन्याय हो रहा
है। लेकिन
जहां संपत्ति
बराबर नहीं है,
वहां
संपत्ति
बराबर होने की
कोई कर्म-रेखा,
कोई
संस्कार उस
मुल्क की
चेतना में है?
आखिर
नहीं हैं तो
क्यों अन्याय
हो रहा है? जिस मुल्क
में समानता का
संस्कार
अर्जित नहीं
हुआ है चेतना
में, वहां
असमानता है, वह जस्टीफाइड
है। जस्टीफाइड
इस अर्थों में
कि जो हमारी
चेतना है, वह
हमारा फल है।
अगर
रूस की चेतना
उस जगह पहुंच
गई है सामूहिक
रूप से जहां
कि संपत्ति की
समानता
संस्कार का
हिस्सा हो गई
तो ठीक है, उन्होंने
समानता
स्थापित कर ली
है। और इसका परिणाम
यह होगा कि
रूस में वे
आत्माएं जन्म
लेने लगेंगी,
जिनमें
समानता के भाव
का उदय हुआ है
और जो असमानता
के भाव की
आत्माएं हैं,
वे रूस में
जन्म लेना बंद
कर देंगी।
हमें सिर्फ एक
तरफ से देखने
पर कठिनाई
मालूम पड़ती
है। अगर दोनों
तरफ से देखेंगे,
टोटल
देखेंगे, तो
रूस में वे
आत्माएं पैदा
होना बंद हो
जाएंगी जो
असमानता में
ही जी सकती
हैं।
प्रश्न:
जब
से दुनिया बनी
है, वे अभी
शुरू हुईं
पैदा होनी, जब से यह समाजवाद
आया रूस में?
चेतना
का जो विकास
है न! चेतना का
जो विकास है, समानता बहुत
विकसित चेतना
की स्थिति है।
असमानता
सामान्य
स्थिति है। आप,
दूसरे के
साथ अपने को
समान मानने के
लिए तैयार
होना भी बड़ी
उपलब्धि है, कि दूसरा
मेरे समान है!
चित्त तो यही
कहता है कि यह
हो कैसे सकता
कि दूसरा मेरे
समान है? असमानता
सहज वृत्ति
है। विषमता
पैदा करना इसीलिए
सामान्य रहा।
समानता
पैदा करने
वाली चेतनाएं
पैदा हुईं--महावीर
उन चेतनाओं
में से एक
हैं--लेकिन ये
व्यक्तिगत
थीं। अब
धीरे-धीरे
उसकी सघनता
बढ़ी है और
सघनता उस जगह
पहुंच गई है कि
अब समान करने
वाली चेतनाओं
का भी एक बड़ा
अंश पृथ्वी पर
है। जिस दिन
असमान वृत्ति
वाली चेतनाएं
क्षीण होती
चली जाएंगी, वृत्ति
क्षीण होती
चली जाएगी, उस दिन सारी
पृथ्वी पर
समानता हो
जाएगी। लंबा वक्त
लगता है।
लेकिन लंबा
वक्त भी हमको
दिखता है, क्योंकि
हमारा वक्त का
हिसाब ही बहुत
छोटा सा है।
अब
मनुष्य को हुए
मुश्किल से दस
लाख वर्ष हुए हैं।
और जिसको हम
मनुष्य कहते
हैं, उसको तो
मुश्किल से दस
हजार साल हुए।
पृथ्वी को बने
दो अरब वर्ष
हुए। और
पृथ्वी बड़ी नई
सी चीज है, कोई
बहुत पुरानी
चीज नहीं है।
तारे हैं, जिनका
कि कोई हिसाब
लगाना
मुश्किल है, कितने
पुराने हैं।
और जहां
अंतहीन समय की
धारा है, वहां
दस-पांच हजार
वर्ष का क्या
मतलब होता है?
कोई मतलब
नहीं होता है।
मनुष्य अभी भी
बिलकुल ही
बालपन में है।
इवोल्यूशन की
जो व्यवस्था है,
उसमें अभी
हम बिलकुल
बच्चों की तरह
हैं। अभी हम
जवान भी नहीं
हुए, बूढ़ा
होना तो बहुत
दूर की बात
है। तो अभी
थोड़ी सी बातें
प्रकट होनी
शुरू हुई हैं।
जैसे
कि एक बच्चा
है, वह चौदह
साल का हुआ और
उसमें सेक्स
का भाव उठा, और लोग कहें
कि चौदह साल
से यह क्या कर
रहा था? चौदह
साल इसमें
सेक्स का भाव
नहीं उठा? चौदह
साल गुजर गए, सेक्स का
भाव नहीं उठा?
जिंदगी आधी
गुजर गई और
सेक्स का भाव
नहीं उठा, अभी
उठा? लेकिन
एक स्टेज है
बच्चे की कि
वह चौदह साल, पंद्रह साल
का, सोलह
साल का हो जाए
तो प्रकृति
उसको मानती है
इस योग्य कि
अब वह सेक्स
की वृत्ति में
उतरे।
मनुष्य-जाति
की भी एक
स्टेज होगी, जहां आकर
प्रकृति
मानेगी कि अब
तुम समान हो
सकते हो, अब
तुम उस
योग्यता के हो
गए। वह दस
हजार वर्ष लग
जाएंगे, क्योंकि
वह पूरी
मनुष्य-जाति
का सवाल है, एक व्यक्ति
का सवाल नहीं
है। हां, एक
व्यक्ति तो
कभी भी समान
होने की
वृत्ति को उपलब्ध
हो सकता है।
उसी को हम सम्यकत्व
कहते हैं, समता
कहते हैं, जो
समान होने
की--जिसके मन
से यह भेद ही
मिट गया है कि
कौन नीचा है, कौन ऊंचा है,
यह सवाल ही
चला गया।
तो कोई
महावीर, कोई
बुद्ध इसको
उपलब्ध हो जाए,
इसमें अड़चन
नहीं है।
लेकिन
मनुष्य-जाति
इस तल पर आने
में तो हजारों
वर्ष ले लेती
है।
अन्याय
नहीं है इस
अर्थ में कि
प्रत्येक चीज
अपने कारणों
से
न्याययुक्त
है। अन्याय है
इस अर्थों में
कि जिंदगी
इससे भी
ज्यादा
आनंदपूर्ण, ज्यादा
शांति की, ज्यादा
सौरभ की हो
सकती है, उसकी
दिशा में हमें
कोशिश करनी
चाहिए। तुम यह
कहती हो कि
फिर हम कोशिश
भी क्यों करें?
लेकिन तुम
यह मान लेती
हो कि कोशिश
जैसे हम कर रहे
हैं, वह
कोशिश करना भी
हमारे कर्म के
संस्कार की पूरी
व्यवस्था का
हिस्सा होता
है, वह न
करने का
तुम्हारा
सवाल भी
व्यर्थ है।
प्रश्न:
कोशिश
करने का भी
कारण है?
हां, कारण है।
कारण यही है
कि तुम दुख को
नहीं झेल सकती
हो, नहीं
देख सकती हो, तो उसे
बदलने की
कोशिश करती
हो। तो हम जब
यह सोचने लगते
हैं कि न करें,
तब हम गलती
में पड़ जाते
हैं। न करने
के लिए कारण
जुटाना बहुत
मुश्किल है।
और वही तो न
करने का जिस
दिन कारण जुटा
लोगी, उस
दिन सामायिक
हो जाएगी और
मोक्ष हो
जाएगा। यानी
मेरा मतलब समझ
गईं न? करने
का कारण ही
हमने जुटाया
है सब। जिस
दिन हम उस
हालत में आ
जाएंगे कि हम
कह सकें कि न
करना भी काफी
है, अब कुछ
नहीं करते।
प्रश्न:
इस
नियम के बाहर
हो जाएंगे?
तो
नियम के हम
बाहर हो
जाएंगे। उस
स्थिति का ही
नाम मोक्ष है, जो करने के
बाहर हो गया।
लेकिन जो करने
के भीतर है, वह तो कुछ न
कुछ करता ही
रहेगा, करता
ही रहेगा।
प्रश्न:
(अस्पष्ट
रिकाघडग)
हां, हां, ठीक
है न! ठीक कहते
हैं। और वह जो पुंगलिया
जी कहते हैं, वह भी समझ
लेना चाहिए।
वह यह कहते
हैं कि एक आदमी
हो सकता है जो
चांटा मारने
में दुख न
उठाए, आनंदित
हो। बिलकुल हो
सकता है। एक
आदमी हो सकता
है, जो
किसी को चांटा
मारे और दुख
बिलकुल न उठाए
और आनंदित हो।
तो हमको लगेगा,
फिर इसके
साथ क्या होगा?
लेकिन
हमें खयाल
नहीं है कि जो
आदमी चांटा
मारने में
आनंदित हो, वह आदमी
नहीं रह गया, वह आदमी से
बहुत नीचे उतर
गया, बहुत
ही नीचे उतर
गया। और उसने
चांटा मारने
में इतना खोया,
जितना कि
चांटा मार कर
दुखी होने
वाला नहीं खोता
है।
इसको
जरा खयाल रख
लेना। चांटा
मार कर जो
दुखी होता है, वह तो बहुत
थोड़ा सा फल
भोगता है, लेकिन
जो चांटा मार
कर आनंदित होता
है, उसने
तो भारी फल
भोग लिया, उसका
तो विकास का
तल एकदम नीचे
चला गया। वह
तो एकदम जंगली
हो गया, उसने
दस हजार, बीस
हजार, पच्चीस
हजार साल में
जो आदमी ने
विकास किया, सब खो दिया।
वह वहां चला
गया। उसका
विकास तो इतना
पिछड़ गया
कि उसको तो
जन्मों-जन्मों
का चक्कर हो
जाएगा, जिसमें
कि वह वापस उस
जगह आए, जहां
चांटा मारने
से दुख होता
है। मेरा मतलब
समझ रहे हैं न
आप? यानी
फल वह भी भोग
रहा है, बहुत
भारी फल भोग
रहा है, साधारण
फल नहीं भोग
रहा है। और
उसका फल बहुत
गहरा है, बहुत
गहरा है।
हां, पूछो।
प्रश्न:
आपने
जो कहा कि आदमी
पर जन्मतः
कर्म की सूखी
रेखा अंकित
होती है तो
पुनर्जन्मों
का शरीर इसे
धारण कर लेता
है। आपने बोला
कि एक आदमी
हत्या करता है
दस-बारह जन्म
तक, उसको
हत्यारा होने
की संभावना
रहती है। पहले
आपने यह बोला
था कि जो
वेश्या होती
है, उसका
सप्रेशन जैसे
साध्वी होने
का होता है।
तो वेश्या की
सूखी रेखा, कर्मों से
तो उसको
वेश्या ही
होना चाहिए, वेश्या ही
होने की
शक्यता रहती
है!
ठीक
कहते हैं।
साधारणतः, साधारणतः...तुम
समझते हो दमन
कर्म नहीं है?
असल में
हमारी कठिनाई
क्या है, दमन
कर्म है। दमन
भी कर्म है, भोग भी कर्म
है, वेश्या
होना भी एक
कर्म है।
प्रश्न:
दमन
भी कर्म है?
दमन
भी उसका एक
कर्म है। समझे
न?
प्रश्न:
उसकी
भी सूखी रेखा
है?
हां, तो दमन की भी
सूखी रेखा रह
जाती है।
संन्यासी है
एक, साध्वी
है एक...।
प्रश्न:
तो
यह सूखी रेखा
से वह सूखी
रेखा ज्यादा
हो जाती है?
हजारों
सूखी रेखाएं
हैं। असल में
होता क्या है कि
हम कांप्लेक्सिटी
को नहीं समझ
पाते। हम
समझते हैं कि
कोई एकाध रेखा
है। हजारों
हमारे कर्म
हैं, हजारों
रेखाएं हैं, हजारों
रेखाओं का काट
है, जाल
है। उस सब जाल
की निष्पत्ति
हम हैं।
एक
वेश्या है और
प्रतिदिन जब
भी वह वेश्या
के काम से
गुजरती है, तभी दुखी
होती है।
सामने उसके एक
संन्यासिनी रहती
है और वह
दिन-रात सोचती
है कि कैसा
जीवन है अदभुत
उसका! कैसा
अच्छा होता कि
मैं संन्यासिनी
हो जाती! तो
दोहरी रेखाएं
पड़ रही हैं।
वेश्या होने
का कर्म कर
रही है, उसकी
एक रेखा पड़
रही है, लेकिन
उससे भी प्रबल
रेखा इसकी पड़
रही है कि वह
वेश्या होने
से पीड़ित है
और नहीं होना
चाहती और
संन्यासिनी
होना चाहती
है।
सामने
संन्यासिनी
रह रही है, वह सुबह से
सांझ तक साध
रही है अपने
को, ब्रह्मचर्य
साध रही है।
लेकिन जब भी
वेश्या के घर
में दीया जलता
है और सुगंध
निकलती है और
संगीत बजने
लगता है, तब
उसका मन
डांवाडोल हो
जाता है, और
वह सोचती है, पता नहीं
वेश्या कैसा
आनंद लूट रही
होगी! तो साध्वी
भी दो रेखाएं
बना रही है: एक
रेखा बना रही
है वह साध्वी
होने की और एक
रेखा बना रही
है वह वेश्या
होने के
आकर्षण की।
अब इन
सबके तालमेल
पर निर्भर
करेगा अंततः
कि साध्वी
वेश्या हो जाए
कि वेश्या
साध्वी हो
जाए। मेरा
मतलब समझे न
तुम? हां, जिंदगी
में हजार-हजार
रेखाएं काम कर
रही हैं। सीधी
रेखा नहीं है
कोई, सीधा
रास्ता नहीं
है। हजार
पगडंडियां कट
रही हैं। और...।
प्रश्न:
मल्टी
कॉजल है?
मल्टी
कॉजल है, मल्टी कॉजल
है। और तुम
खुद कभी थोड़ी
देर इधर जाते
हो, फिर
थोड़ी देर इधर
जाते हो। तुम
भी कोई सीधी
रेखा में ही
नहीं चले जा
रहे हो। कभी
तुम अच्छे आदमी
होने की रेखा
में दो कदम
चलते हो, दस
कदम बुरे आदमी
के होने में
हट आते हो।
तुम्हारी
जिंदगी भी कोई
ऐसी नहीं है
कि तुम एक
रास्ते पर
सीधे चले जा
रहे हो। तुम
बार-बार चौरस्ते
पर लौट आते हो,
पीछे चले
जाते हो, आगे
जाते हो, बाएं-दाएं
जाते हो, सब
तुम घूम रहे
हो। इस सब का
टोटल हिसाब
होगा। हिसाब
मतलब यह कि
तुम्हारे
चित्त पर इस
सबके संस्कार
होंगे। वे सब
संस्कार
एक-दूसरे को
काटेंगे।
आखिरी हिसाब
में जो कट कर
तुम्हारी
रेखा बन जाती
है, वह
तुम्हारा
व्यक्तित्व
निर्माण
करेगी।
और फिर
भी ऐसा नहीं
है कि तुम
इकहरा
व्यक्तित्व
लेकर पैदा
होते हो। तुम
अनंत
संभावनाएं
लेकर पैदा
होते हो। एक
बच्चा पैदा
हुआ, उस बच्चे
के संन्यासी होने
की संभावना है,
क्योंकि
उसने
संन्यासी
होने की भी एक
रेखा बांधी है;
उसके गुंडा
होने की भी
संभावना है, उसने वह भी
रेखा बांधी
है। वह अनंत
संभावनाएं लेकर
पैदा हुआ है।
अनंत सूखी
रेखाएं उसे
आमंत्रित
करेंगी। अब
कौन सी प्रबल
सिद्ध हो
जाएगी, वह
उस पर बह
जाएगा।
तो
हमारी सारी
कठिनाई जो
होती
है--क्योंकि
नियम जो होते
हैं, वे जब
समझाता है कोई,
तो वे सीधी
रेखा में होते
हैं, समझे
न? और
जिंदगी जो है,
वह बहुत सी
रेखाओं का
काट-पीट है।
जब समझाने मैं
बैठता हूं तो
तुम एक नियम
समझते हो तो
तुमको तत्काल
दूसरा खयाल
आता है कि उसका
क्या होगा। और
समझाने में
उपाय नहीं है
कोई सब इकट्ठा
समझाने का।
समझे न? सब इकट्ठा
समझाने का
उपाय नहीं है।
अगर मैं क्रोध
समझाऊंगा तो
क्रोध
समझाऊंगा, घृणा
समझाऊंगा तो
घृणा
समझाऊंगा, प्रेम
समझाऊंगा तो
प्रेम
समझाऊंगा, दया
समझाऊंगा तो
दया
समझाऊंगा। और
तुम एक साथ सब
हो--दया भी, प्रेम
भी, घृणा
भी, क्रोध
भी--सब एक साथ
हो तुम। वे
तुम्हारी सब
संभावनाएं
हैं। कोई
तुम्हें अभी
प्रेम से बात
करेगा तो तुम
एकदम
प्रेमपूर्ण
हो जाओगे और
कोई आदमी छुरी
दिखाएगा,
तुम
क्रोधपूर्ण
हो जाओगे। तुम
सब हो।
तो
व्यक्ति तो है
मल्टी कॉजल, अनंत कारण
से भरा हुआ।
और जब समझाने
हम बैठते हैं
तो एक ही कारण
को चुनना पड़ता
है। भाषा जो
है, वह
रेखाबद्ध है;
और जिंदगी
जो है, वह
अनंत रेखाओं
का जाल है।
इसलिए
भाषा में बहुत
भूल होती है।
क्योंकि भाषा
ऐसी सीधी जाती
है एक रेखा
में। मैं
करुणा समझाऊंगा
तो करुणा समझाता
चला जाऊंगा।
अब करुणा ही
के साथ ही साथ
एकदम से क्रोध
कैसे समझाऊं? घृणा कैसे
समझाऊं? वह
समझाना
मुश्किल है।
फिर उनको अलग
समझाऊंगा। ये
सब अलग-अलग
रेखाएं बन
जाएंगी। और
व्यक्ति में
ये सब रेखाएं
अलग-अलग नहीं
हैं, सब
इकट्ठी जुड़ी
खड़ी हैं, सब
इकट्ठी जुड़ी
खड़ी हैं।
प्रश्न:
तो
जो बलवान रेखा
है, उससे वह
शरीर धारण कर
लेगा! और जो
दूसरी कमजोर रेखाएं
हैं उसकी छाया
उसके साथ आएगी
ही?
बिलकुल
साथ होगी, बिलकुल साथ
होगी, बिलकुल
साथ होगी। सब
साथ होगा।
प्रश्न:
एक
कमरा है, उसमें मच्छर
हैं, चींटियां हैं, मक्खियां हैं, तो
एक मन होता है
कि यह फ्लिट
लगा दूं, एक
मन होता है उस
वक्त फ्लिट
नहीं लगाऊं।
उसमें मन की
स्थिति बड़ी
डांवाडोल हो
जाती है। तो
उसमें क्या
उचित है?
उचित
तो वही है, जो आप कर
सकोगे, करोगे।
समझे न आप? जो
आप कर सकोगे, वही करोगे।
और उचित मान
कर अगर चले तो
आप मुश्किल
में पड़ जाओगे।
अगर मैंने कह
दिया कि फ्लिट
लगाना उचित
नहीं, तो
रात भर मुझको
गाली दोगे, क्योंकि वह
मच्छर तो
काटेंगे ही।
या मैंने कह दिया
फ्लिट
लगाना उचित है,
तो आप
समझोगे कि
हिंसा आपने की,
फल मैं भोगूंगा।
इसलिए
उचित-अनुचित
का सवाल नहीं
है, आप सोचो
और जीओ।
जो ठीक लगे, करो।
आज
इतना ही।
Anand hi aa gya padh kar ....
जवाब देंहटाएंIski audio kaha milegi ??
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