गहरे
पानी पैठ:
(अंतरंग
चर्चा
वुडलैण्ड)
बम्बई, 12
जून 1971
तिलक—टीके
के संबंध में
समझने के पहले
दो छोटी—सी
घटनाएं आपसे
कहूं फिर आसान
हो सकेगी बात।
दो ऐतिहासिक
तथ्य हैं।
अट्ठारह
सौ अट्ठासी
में दक्षिण के
एक छोटे—से परिवार
में एक
व्यक्ति पैदा
हुआ। पीछे तो
वह
विश्वविख्यात
हुआ। उसका नाम
था रामानुजम, जो
बहुत गरीब
ब्राह्मण घर
का था और बहुत
थोड़ी उसे
शिक्षा मिली
थी।
लेकिन
उस छोटे से
गांव में भी
बिना किसी
विशेष शिक्षा
के रामानुजम
की प्रतिभा
गणित के साथ अनूठी
थी। जो लोग
गणित जानते है, उनका
कहना है कि
मनुष्य जाति
के इतिहास में
रामानुजम से
बड़ा और
विशिष्ट
गणितज्ञ नहीं
हुआ। बहुत बड़े—बड़े
गणितज्ञ हुए
हैं, पर वे
सब सुशिक्षित
थे, उन्हें
गणित का
प्रशिक्षण
मिला था। बड़े
गणितज्ञो का
साथ—सत्संग
उन्हें मिला
था, वर्षों
की उनकी
तैयारी रही थी।
लेकिन
रामानुजम की न
कोई तैयारी थी,
न कोई साथ
मिला, न
कोई शिक्षा
मिली, मैट्रिक
भी रामानुजम
पास नहीं हुआ।
और एक छोटे से
दफ़र में
मुश्किल से
क्लर्की का काम
मिला।
लेकिन
अचानक लोगों
में खबर फैलने
लगी कि इसकी
गणित के संबंध
में कुशलता
अदभुत है।
किसी ने उसको
सुझाव दिया कि
कैम्ब्रिज
युनिवर्सिटी
के उस समय
विश्व के बड़े
से बड़े गणितज्ञों
में एक
प्रोफेसर
हार्डी थे, उनको लिखो।
उसने पत्र तो
नहीं लिखा, ज्यामिति की
डेढ़ सौ थ्योरम
बनाकर भेज दीं।
हार्डी तो
चकित रह गया।
इतनी कम उम्र
के व्यक्ति से,
इस तरह के
ज्यामिति के
सिद्धांतों
का कोई अनुमान
भी नहीं लगा
सकता था। उसने
तत्काल
रामानुजम को यूरोप
बुलाया। जब
रामानुजम
कैम्ब्रिज
पहुंचा तो
हार्डी जो कि
बड़े से बड़ा
गणितज्ञ था उस
समय के विश्व
का, अपने
को बिलकुल
बच्चा समझने
लगा रामानुजम
के सामने।
रामानुजम की
क्षमता ऐसी थी,
जिसका
मस्तिष्क से संबंध
नहीं मालूम
पड़ता। अगर
आपको कोई गणित
करने को कहा
जाए तो समय
लगेगा।
बुद्धि ऐसा
कोई भी काम
नहीं कर सकती
जिसमें समय न
लगे। बुद्धि
सोचेगी, हल
करेगी, समय
व्यतीत होगा,
लेकिन
रामानुजम को
समय ही नहीं
लगता था। यहां
आप तख्ते पर
सवाल लिखेंगे
वहां रामानुजम
उत्तर देना
शुरू कर देगा।
आप बोल भी न
पाएंगे पूरा,
और उत्तर आ
जाएगा। बीच
में समय का
कोई व्यवधान
नहीं होगा।
बड़ी
कठिनाई खड़ी हो
गयी,
क्योंकि
जिस सवाल को
हल करने में
बड़े से बड़े
गणितज्ञ को छह
घण्टे लगेगें
ही, फिर भी
जरूरी नहीं है
कि सही हो, उत्तर
सही है या
नहीं इसे जांचने
में फिर छह
घण्टे उसे
गुजारने
पड़ेंगे।
रामानुजम को
सवाल दिया गया
और वह उत्तर
दे देंगे, जैसे
सवाल में और
उत्तर में कोई
समय का क्षण भी
व्यतीत नहीं
होता।
इससे
एक बात तो
सिद्ध हो गयी
कि रामानुजम
बुद्धि के
माध्यम से
उत्तर नहीं दे
रहा है।
बुद्धि बहुत
बड़ी नहीं है
उसके पास, मैट्रिक
में वह फेल
हुआ था, कोई
बुद्धिमत्ता
का और लक्षण
भी न था।
सामान्य जीवन
में किसी चीज
में भी कोई
ऐसी बुद्धिमत्ता
नहीं मालूम
पड़ती थी।
लेकिन बस गणित
के संबंध में
वह एकदम
अतिमानवीय था,
मनुष्य से
बहुत पार की
घटना उसके
जीवन में होती
थी।
वैसे
जल्दी मर गया
रामानुजम।
उसे क्षय रोग
हो गया, वह
छत्तीस साल की
उम्र में मर
गया। जब वह
बीमार होकर
अस्पताल में
पड़ा था तो
हार्डी अपने
दो तीन
गणितज्ञ
मित्रों के
साथ उसे देखने
गया था। उसके
दरवाजे पर ही
हार्डी ने कार
रोकी और भीतर
गया। कार का
नम्बर
रामानुजम को
दिखायी पड़ा।
उसने हार्डी
से कहा, आश्रर्यजनक
है, आपकी
कार का जो
नम्बर है, ऐसा
कोई आंकड़ा ही
नहीं है, मनुष्य
की गणित की
व्यवस्था
में। यह आंकडा
बड़ा खूबी का
है। उसने चार
विशेषताएं उस
आंकड़े की
बतायीं।
रामानुजम तो
मर गया।
हार्डी को छह
महीने लगे वह
पूरी विशेषता
सिद्ध करने
में।
रामानुजम की
तो आकस्मिक
नजर पड़ गयी
हार्डी
को छह महीने
लगे,
तब भी वह
तीन ही सिद्ध
कर पाया, चौथी
विशेषता तो
असिद्ध ही रह
गयी।
हार्डी
वसीयत छोड्कर
मरा कि मेरे
मरने के बाद उस
चौथी की खोज
जारी रखी जाए, क्योकि
रामानुजम ने
कहा है तो वह
ठीक तो होगी ही।
हार्डी के मर
जाने के बाईस
साल बाद वह
चौथी घटना सही
सिद्ध हो पायी
कि उसने ठीक
कहा था। उस
आक्के में यह
खूबी है!
रामानुजम
को जब भी यह
गणित की
स्थिति घटती
थी,
तब उसकी
दोनों आंखों
के बीच में
कुछ होना शुरू
हो जाता था।
उसकी दोनों आंखों
की पुतलियां
ऊपर चढ़ जाती
थीं, योग
जिस जगह
रामानुजम की आंखें
चढ़ जाती थीं, उसको तृतीय
नेत्र कहता है।
उसको तीसरी आंख
कहता है। अगर
वह तीसरी आंख
आरम्भ हो जाए,
तीसरी आंख
सिर्फ उपमा की
दृष्टि से
कहता हूं
सिर्फ इस खयाल
से कि वहां से
भी कुछ दिखायी
पड़ना शुरू होता
है, कोई
दूसरा ही जगत
शुरू हो जाता
है।
जैसे
कि किसी आदमी
के मकान में
एक छोटा—सा
छेद हो, वह
खुल जाए, और
आकाश दिखायी
पड़ने लगे। जब
तक वह छेद न
खुला था तो
आकाश दिखायी न
पड़ रहा था।
करीब—करीब
हमारी दोनों आंखों
के बीच जो
भ्रू—मध्य जगह
है, वहा वह
छेद है जहां
से हम इस लोक
के बाहर देखना
शुरू कर देते
हैं। एक बात
तय थी कि जब भी
रामानुजम को
कुछ ऐसा होता
था, उसकी
दोनों
पुतलियां चढ़
जाती थीं।
हार्डी नहीं
समझ पाया, पश्चिम
के गणितज्ञ
नहीं समझ पाए,
और अभी
गणितज्ञ आगे
भी नहीं समझ
पाएंगे।
एक
दूसरी घटना, और
तब मैं आपको
तिलक—टीके के
संबंध में कुछ
कहूं तो आपकी
समझ में आना
आसान होगा; क्योंकि
तिलक का संबंध
उस तीसरी आंख
से है।
उन्नीस
सौ पैंतालिस
में एक आदमी
मरा अमरीका में—एडगर
कायसी। चालीस
साल पहले
उन्नीस सौ
पांच में वह
बीमार पड़ा और
बेहोश हो गया।
तीन दिन कोमा
में पड़ा रहा।
चिकित्सकों
ने आशा छोड़ दी, और
कहा कि हमें
इसे कोमा के
बाहर, बेहोशी
के बाहर लाने
का कोई उपाय
नहीं सूझता।
और बेहोशी
इतनी गहन है
कि अब यह शायद
ही वापस लौट
सके। तीसरे
दिन सारी आशा
छोड़ दी गयी; सब दवाइयां,
सब इलाज कर
लिए गए लेकिन
होश का कोई
लक्षण नहीं
उभरा। तीसरे
दिन शाम को
चिकित्सकों
ने कहा, अब
हम विदा होते हैं,
अब हमारे वश
के बाहर है।
चार—छह घण्टे
में युवक मर
जाएगा, और
अगर बच गया तो
सदा के लिए
पागल हो जाएगा,
जो कि मरने
से भी बुरा
सिद्ध होगा।
क्योंकि
जितनी देर हो
रही है उस बीच
इसके मस्तिष्क
के जो सूक्ष्म
तन्तु हैं, वह विसर्जित
हो रहे हैं, डिसइन्टीग्रेट
हो रहे हैं।
पर
अचानक
चिकित्सक
हैरान हुए।
कायसी जो
बेहोश पड़ा था
बोला, जैसे कि
कोई गहरी नींद
से अचानक बोले।
हैरानी और
ज्यादा हो गयी,
क्योंकि
उसका कोमा
जारी था। उसका
शरीर अभी भी
पूरी तरह कोमा
में था। उसके
हाथ में आप
छुरी भी भोंक
दो तो पता
नहीं चलती।
लेकिन वाणी आ
गयी, और
कायसी ने कहा
कि शीघ्रता
करो, मैं
एक वृक्ष से
गिर पड़ा था, मेरी रीढ़
में पीछे चोट
लग गयी है और
उसी चोट के कारण
मैं बेहोश हूं।
अगर छह घण्टे
में मुझे ठीक
नहीं किया गया
तो बीमारी का
जहर मेरे
मस्तिष्क तक
पहुंच जाएगा,
फिर मेरा
जिन्दा बचना
असम्भव हो
जाएगा। तुम इस
नाम की जड़ी—बूटियां
ले आओ और उनको
इस तरह से
तैयार करके
मुझे पिला दो,
मैं बारह
घण्टे के भीतर
ठीक हो जाऊंगा।
इतना कहकर
कायसी फिर
बेहोश हो गया।
जो
नाम उसने लिए
थे जड़ी—बूटियों
के,
आशा भी नहीं
हो सकती थी कि
कायसी को उनका
पता हो, क्योंकि
चिकित्सा से
कभी कोई उसका
संबंध नहीं था।
चिकित्सकों
ने कहा, और
तो करने का
कोई उपाय नहीं
है, यह
निपट पागलपन
मालूम पड़ता है,
क्योंकि ये
जड़ी—बूटियां
इस तरह का काम
करेंगी, यह
हमको भी पता
नहीं है।
लेकिन जब कोई
उपाय न था, तो
हर्ज भी कुछ
नहीं था। वे
जड़ी—बूटियां
खोजी गयीं।
जैसा बताया था
कायसी ने, वैसा
बनाकर उसे
दिया गया।
बारह घण्टे
में वह होश
में आ गया, और
बिलकुल ठीक हो
गया। होश में
आकर वह न बता
सका कि उसने
ऐसी कोई बात कही
थी। वह उन
दवाइयों के
नाम भी न
पहचान सका, वे जडुाई—बूइटयां,
जो उसने कही
थीं। उसने कहा,
यह हो ही
कैसे सकता है?
मुझे तो कुछ
पता नहीं है।
तब
एक बहुत अनूठी
घटना की
शुरुआत हुई।
फिर तो कायसी
उसमें कुशल हो
गया,
और उसने
अमरीका में
तीस हजार
लोगों को अपने
पूरे जीवन में
ठीक किया। जो
भी निदान उसने
किया वह सदा
ठीक निकला, और जिस मरीज
ने उससे निदान
लिया वह सदा
ठीक हुआ, निरपवाद
रूप से। लेकिन
कायसी खुद भी
नहीं समझा
सकता था कि
उसे होता क्या
है? इतना
ही कह सकता था
कि जब भी मैं आंख
बन्द करता हूं
कोई निदान
खोजने के लिए,
मेरी दोनों आंखें
ऊपर चढ़ जाती
हैं। मुझे ऐसा
लगता है कि
मेरी पुतलियों
को ऊपर खींचे
जा रहा है, फिर
मेरी दोनों आंखें
भ्रू—मध्य में
ठहर जाती हैं।
तब मैं इस लोक
को भूल जाता
हूं फिर मुझे
पता नहीं क्या
होता है। इसे
मैं भूलता हूं
यहां तक मुझे
पता है। फिर
क्या होता है,
इसका मुझे
कोई पता नहीं।
लेकिन जब तक
मैं इसको नहीं
भूल जाता, तब
तक वह निदान
जो मैं लेता
हूं वह नहीं
आता है। निदान
उसने ऐसे—ऐसे
दिए कि एक—दो
निदान सोच
लेने जैसे हैं।
रथचाइल्ड
अमरीका का एक
बहुत बड़ा
करोड़पति, अरबपति
परिवार है। उस
परिवार की एक
महिला बीमार
थी जिस पर
करने को कोई
इलाज नहीं बचा
था, सब
इलाज हो गए थे।
फिर कायसी के
पास उसको लाया
गया। कायसी ने
एक दवा का नाम
दिया अपनी
बेहोशी में।
हमारी तरफ से
हम उसे कहेंगे
बेहोशी ही, लेकिन जो
जानते हैं इस
रहस्य के बारे
में उनकी तरफ
से तो वह बड़े
होश में है, उनके लिहाज
से हम बेहोश
हैं। सच तो यह
है कि जब
तीसरी आंख तक ज्ञान
न पहुंचे, तब
तक बेहोशी
जारी रहती है।
रथचाइल्ड
तो अरबपति
परिवार था।
सारे अमरीका
में खोजबीन की
गयी उस दवा की, पर
वह दवा कहीं
मिली नहीं।
कोई यह भी
नहीं बता सका
कि इस तरह की
कोई दवा है भी।
सारी दुनिया
के अखबारों
में विज्ञापन
दिया गया कि
कहीं से भी
कोई इस नाम की
दवा की सूचना
भेजे। कोई बीस
दिन बाद
स्वीडन से एक
आदमी ने जवाब
दिया कि इस
नाम की दवा है
नहीं। बीस साल
पहले मेरे
पिता ने इस
नाम की दवा
पेटेंट करवाई
थी, लेकिन
फिर कभी बनायी
नहीं। वह
सिर्फ पेटेंट
है, कभी
बाजार में आयी
नहीं। दवा भी
हमारे पास
नहीं है, पिता
मर चुके हैं, और वह
प्रयोग कभी
सफल हुआ नहीं।
सिर्फ
फार्मूला
हमारे पास है,
वह हम
पहुंचा देते
हैं। वह
फार्मूला
पहुंचाया गया,
वह दवा बनी
और वह सी ठीक
हो गयी। लेकिन
वह दवा कहीं
थी नहीं
दुनिया के
बाजार में, जिसका कायसी
को पता हो सके।
दूसरी
एक घटना में
उसने एक दवा
का नाम लिया।
उसकी बहुत
खोजबीन की गयी, वह
दवा नहीं मिल
सकी। सालभर
बाद अखबारों
में उस दवा का
विज्ञापन निकला।
वह दवा उस
वक्त बन रही
थी किसी
प्रयोगशाला
में जब उसने
कहा, तब तक
उसका नाम भी
तय नहीं हुआ
था। जो नाम
उसने सालभर
पहले लिया था
उस नाम की दवा सालभर!
बाद बाहर आयी।
और उसी दवा से
वह मरीज ठीक
हुआ। कई बार
उसने दवाएं
बतायीं जो
खोजी न जा
सकीं और मरीज
मर गए। वह भी
कहता था, मैं
कुछ कर नहीं
सकता, मेरे
हाथ की बात
नहीं है।
मुझे
पता नहीं कि
जब मैं बेहोश
होता हूं तब
कौन बोलता है, कौन
देखता है, मुझे
कुछ पता नहीं।
मुझमें और उस
व्यक्तित्व
में कोई भी
संबंध नहीं है।
पर एक बात तय
थी कि कायसी
जब भी बोलता
तब उसकी दोनों
आंखें चढ़ गयी
होती थीं। आप
भी जब गहरी
नींद में सोते
हैं तो आपकी
भी दोनों आंखें
जितनी गहरी
नींद होती है,
उतनी ऊपर
चली जाती हैं।
अभी
तो मनोवैज्ञानिक
नींद पर बहुत
से प्रयोग कर
रहे हैं। आपकी
आंख की पुतली
कितनी ऊपर गयी
है उससे ही तय
किया जाता है
कि आप कितनी
गहरी नींद में
हैं। जितनी आंख
की पुतली नीचे
होती है उतनी
गतिमान होती
है,
ज्यादा।
उतना ज्यादा
मूवमेंट होता
है। और आंख की
पुतलियों में
जितनी गति होती
है, उतनी
तेजी से आप
सपना देख रहे
होते हैं। यह
सब सिद्ध हो
चुका है
वैज्ञानिक
परीक्षणों से।
उसको
वैज्ञानिक
कहते हैं—आर.ई.एम, रैम'
—रैपिड आई
मूवमेंट। रैम
की कितनी
मात्रा है
इससे तय होता
है कि आप कितनी
गति का सपना
देख रहे हैं।
और आंख की
पुतली जितनी
नीची होती है,
रैम की
मात्रा उतनी
ही ज्यादा
होती है; जितनी
ऊपर चढ़ने लगती
है, वह जो आंख
की तीव्र गति
है पुतलियों
की रैम कम
होने लगती है।
और जब बिलकुल
थिर हो जाती
है आंख वहां
जाकर, जहां
कि दोनों आंखें
मध्य में
देखती हैं, ऐसी प्रतीति
होती है, वहां
जाकर रैम
बिलकुल ही
बन्द हो जाता
है, बिलकुल
ही! पुतली में
कोई तरह की
गति नहीं रह जाती।
वह जो अगति है
पुतली की वही
गहन से गहन
निद्रा है।
योग कहता कि
गहरी
सुषुप्ति में
हम वहीं पहुंच
जाते हैं जहां
समाधि में
होते हैं फर्क
इतना ही होता
है, सुषुप्ति
में हमें पता
नहीं होता है,
समाधि में
हमें पता होता
है। गहरी
सुषुप्ति में आंख
जहां ठहरती है
वहीं गहरी
समाधि में भी
ठहरती है।
ये
दोनों घटनाएं
मैंने आपसे
कहीं हैं यह
इंगित करने को
कि आपकी दोनों
आंखों के बीच
में एक बिन्दु
है जहां से यह
संसार नीचे
छूट जाता है
और दूसरा
संसार शुरू
होता है—वह
बिन्दु द्वार
है। उसके इस
पार वह जगत है
जिस जगत से हम
परिचित हैं, उसके
उस पार एक
अपरिचित और
अलौकिक जगत है।
उस अलौकिक जगत
के प्रतीक की
तरह सबसे पहले
तिलक खोजा गया,
और तिलक हर
कहीं लगा देने
की बात नहीं
है। जो
व्यक्ति हाथ
रखकर आपका वह
बिन्दु खोज
सकता है वही
आपको बता सकता
है कि तिलक
कहां लगाना
हर
कहीं तिलक
लगाने से कोई
मतलब नहीं है, कोई
प्रयोजन नहीं
है। फिर
प्रत्येक
व्यक्ति का
बिन्दु भी एक
ही जगह नहीं
होता। यह जो
दोनों आंखों
के बीच तीसरी आंख
है, यह
प्रत्येक
व्यक्ति की
बिलकुल एक जगह
नहीं होती।
अन्दाजन
दोनों आंखों
के बीच में, ऊपर होती है,
पर फर्क
होते हैं। अगर
किसी व्यक्ति
ने पिछले
जन्मों में
बहुत साधना की
है और समाधि
के छोटे—मोटे
अनुभव पाए हैं
तो उसी हिसाब
से वह बिन्दु
नीचे आता जाता
है। अगर इस
तरह की कोई
साधना नहीं
होती है तो वह
बिन्दु काफी
ऊपर होता है।
उस बिन्दु की
अनुभूति से यह
भी जाना जाता
है कि आपके
पिछले जन्मों
की साधना क्या
कुछ है; समाधि
की दिशा में?
आपने
तीसरी आंख से
दुनिया को कभी
देखा है? क्या
कभी आपके किसी
जन्म में ऐसी
कोई घटना घटी
है? आपका
बिन्दु, वह
स्थान बताएगा
कि ऐसी घटना
घटी है या
नहीं घटी है।
अगर ऐसी घटना
बहुत घटी है
तो वह बिन्दु
बहुत नीचे आ
जाएगा। वह
करीब—करीब
दोनों आंखों
के समतल भी आ
जाता है, उससे
नीचे नहीं आ
सकता। अगर
बिलकुल समतल
बिन्दु हो, दोनों आंखों
के बिलकुल बीच
में आ गया हो, तो जरा से
इशारे से आप
समाधि में
प्रवेश कर
सकते हैं।
इतने छोटे
इशारे से कि
जिसको हम कह
सकते हैं, इशारा
बिलकुल असंगत
है। इसलिए
बहुत दफा जब
कुछ लोग
बिलकुल ही
अकारण समाधि
में प्रवेश कर
जाते हैं तो
हमें बड़ी अजीब
सी बात मालूम
पड़ती है।
जैसे
कि जैन साध्वी
के जीवन में
कथा है। वह
लौटती थी कुएं
से पानी भरकर, घड़ा
गिर गया। और
घड़े के गिरने
के साथ उसको
समाधि लग गयी,
और पूर्ण ज्ञान
उपलब्ध हुआ।
कैसी फिजूल की
बात लगती है, घड़े का फूट
जाना और समाधि
का लगना, कोई
संगति नहीं है।
लाओत्सु के
जीवन में
उल्लेख है कि
वृक्ष के नीचे
बैठा था, पतझड़
के दिन थे, वृक्ष
से पत्ते नीचे
गिरने लगे, और लाओत्सु
परम ज्ञान को
उपलब्ध हो गया।
अब वृक्ष से
गिरते हुए
पत्ते का कोई
संबंध नहीं है।
लेकिन यह घटना
तब घट सकती है
जब कि पिछले
जन्मों में
यात्रा इतनी
हो चुकी हो कि
वह तीसरा बिन्दु
दोनों आंखों
के बिलकुल बीच
में आ गया हो।
क्योंकि तब शायद
आखिरी तिनके
की जरूरत है
और तराजू बैठ
जाए। आखिरी
तिनका कोई भी
चीज बन सकती
है।
तो
पुराने दिनों
में जब भी
दीक्षा दी
जाती थी, और
दीक्षा वही दे
सकता है जो
आपकी समस्त
जन्मों की सार
संपदा क्या है,
उसे समझ
पाता हो, अन्यथा
नहीं दे सकता।
अन्यथा देने
का कोई मतलब नहीं
है। क्योंकि
जहां तक आप
पहुंच गए हैं
उसके आगे यात्रा
करनी है। तो
तिलक अगर ठीक—ठीक
लगाया जाए, तो वह कई
अर्थों का
सूचक था। वे
सारे अर्थ
समझने पड़ेंगे।
पहला
तो,
वह इस बात
का सूचक था कि
जब एक बार
गुरु ने बता दिया
कि तिलक यहां
लगाना है ठीक
जगह, तो
आपको भी उस ठीक
जगह का अनुभव
होने लगे, तिलक
लगाने का पहला
प्रयोजन यही
है। आपने कभी
खयाल नहीं
किया होगा कि
आप आंख बन्द
करके बैठ जाएं
और कोई
व्यक्ति आपकी
दोनों आंखों
के बीच में
सिर के पास
उंगली ले जाए
तो बन्द आंख
में भी आपके
भीतर एहसास
होना शुरू हो
जाएगा कि कोई आंख
की तरफ उंगली
किए हुए है—वह
तीसरी आंख की
प्रतीति है।
अगर
ठीक तीसरी आंख
पर तिलक लगा
दिया जाये, उसी
मात्रा, उतने
ही अनुपात का
तिलक लगा दिया
जाए, ठीक
जितनी बड़ी
तीसरी आंख की
स्थिति है, तो आपको
पूरा शरीर
छोड्कर उसी का
स्मरण चौबीस
घण्टे रहने
लगेगा। वह
स्मरण पहला तो
यह काम करेगा
कि आपका शरीर—बोध
कम होता जाएगा,
और तिलक—बोध
बढ़ता जाएगा।
एक क्षण ऐसा आ
जाता है जब कि
पूरे शरीर में
सिर्फ तिलक ही
स्मरण रह जाता
है, बाकी
सारा शरीर भूल
जाता है। और
जिस दिन ऐसा
हो जाए, उसी
दिन आप तीसरी आंख
को खोलने में
समर्थ हो सकते
है।
तिलक
के साथ जुड़ी
हुई साधनाएं
थीं कि पूरे
शरीर को भूल
जाओ,
सिर्फ तिलक
मात्र की जगह
याद रह जाए।
इसका अर्थ यह
हुआ कि सारी
चेतना
सिकुड़कर फोकस्ड
हो जाए तीसरी आंख
पर और तीसरी आंख
के खोलने की
जो कुंजी है
वह फोकस्ड
कांशसनेस है।
उस पर चेतना
पूरी की पूरी
इकट्ठी हो जाए
और सारे शरीर
से सिकुड़कर
उस छोटे से
स्थान पर लग
जाए। बस, उसकी
मौजूदगी से
काम हो जाएगा।
जैसे
हम सूरज की
किरणों को एक
छोटे से लेंस
के द्वारा एक
कागज पर गिरा
लें,
तो इकट्ठी हो
गयी किरणें आग
पैदा कर देंगी।
वे ही किरणें
सिर्फ धूप
पैदा कर रही
थीं उनसे आग
पैदा नहीं
होती थी। वे
ही किरणें आग
पैदा कर सकती
हैं, संग्रहीत
होने पर।
चेतना शरीर पर
जब बंटी रहती
है तो सिर्फ
जीवन का काम
चलाऊ उपयोग
उससे होता है।
चेतना अगर
तीसरे नेत्र
के पास पूरी
इकट्ठी हो जाए,
तो जो तीसरे
नेत्र की बाधा,
जो द्वार, जो बन्दपन
है वह टूट
जाता है, जल
जाता है, राख
हो जाता है, और हम उस
आकाश को देखने
में समर्थ हो
जाते हैं जो
हमारे ऊपर
फैला है।
तिलक
का पहला उपयोग
यह था कि आपको
ठीक—ठीक जगह
बता दी जाए
शरीर में कि
चौबीस घण्टे इस
जगह का स्मरण
रखना है। सब
तरफ से चेतना
को सिकोड़कर इस
जगह ले आना है।
दूसरा यह कि
गुरु को रोज—रोज
देखने की
जरूरत न पड़े, रोज
आपके माथे पर
हाथ रखने की
भी जरूरत न
पड़े; क्योंकि
जैसे—जैसे
बिन्दु नीचे
सरकेगा वैसे—वैसे
आपको एहसास
होगा, और
आपका तिलक भी
नीचा होता
जाएगा। आपको
रोज तिलक
लगाते वक्त
ठीक वहीं तिलक
लगाना है जहां
उस बिन्दु का
आपको एहसास
होता हो।
हजार
शिष्य हैं एक
गुरु के। एक
शिष्य आता है, झुकता
है, तभी
गुरु देख लेता
है कि तिलक
कहां है? इसकी
बात करने की
जरूरत नहीं रह
जाती। यह देख
लेता है कि
तिलक नीचे सरक
रहा है कि
नहीं सरक रहा
है! तिलक उसी
जगह है कि
तिलक में कोई
अन्तर पड रहा
है! वह कोड है।
दिन में दो—चार
दफा शिष्य
आएगा और गुरु
देख लेगा कि
तिलक गतिमान
है कि नहीं? वह आगे गति
कर रहा है, रुका
हुआ है या
ठहरा हुआ है? किसी दिन
स्वयं शिष्य
के माथे पर
रखकर पुन: देख
पाएगा। अगर
शिष्य को पता
नहीं चल रहा
है तिलक के
हटने का, तो
उसका मतलब है
कि चेतना पूरी
कि पूरी
इकट्ठी नहीं
की जा रही है।
अगर वह तिलक
गलत जगह लगाए
हुए है और
बिन्दु दूसरी
जगह है तो
इसका मतलब है
कि उसकी
कांशसनेस, उसकी
रिमेंबरिग, उसकी स्मृति
ठीक बिन्दु को
नहीं पकड़ पा
रही है, वह
भी गुरु को
पता चल जाएगा।
जैसे—जैसे
यह तिलक नीचे
आता जाएगा
वैसे—वैसे
प्रयोग बदलने
पड़ेंगे साधना
के। यह तिलक
करीब—करीब
वैसा ही काम
करेगा जैसे एक
अस्पताल में एक
मरीज के पास
लटका हुआ
चार्ट काम
करता है। नर्स
चार्ट पर लिख
जाती है, कितना
है ताप, कितना
है ब्लडप्रेशर,
क्या है, क्या नहीं? डाक्टर को
आकर देखने की
जरूरत नहीं
होती है, वह
चार्ट पर एक
क्षण नजर डाल
लेता है, बात
पूरी हो जाती
है। पर इससे
भी अदभुत था
यह प्रयोग कि
माथे पर पूरा
का पूरा इंगित
लगा था, जो
सब तरह की खबर
देता। अगर ठीक—ठीक
इसका प्रयोग
किया जाता तो
गुरु को पूछने
की कभी जरूरत
न पड़ती कि
क्या हो रहा
है, क्या
नहीं हो रहा
है। वह जानता
है, क्या
हो रहा है।
क्या सहायता
पहुंचानी है,
वह यह भी
जानता है।
क्या प्रयोग
बदलना है, कौन—सी
विधि
रूपांतरित
करनी है, वह
भी जानता है, तो साधना की
दृष्टि से
तिलक का ऐसा
मूल्य था।
दूसरा, जो
हमारी तीसरी आंख
का बिन्दु है,
वह हमारे
संकल्प का भी
बिन्दु है।
उसको योग में
आज्ञाचक्र
कहते हैं।
आज्ञाचक्र
इसीलिए कहते
हैं कि हमारे
जीवन में जो
कुछ भी
अनुशासन है वह
उसी चक्र से
पैदा होता है।
हमारे जीवन
में जो भी
व्यवस्था है,
जो भी आर्डर
है, जो भी
संगति है, वह
उसी बिन्दु से
पैदा होती है।
इसे ऐसा समझें।
हम सबके शरीर
में सेक्स का
सेंटर है।
सेक्स से
समझना आसान पड़
जाएगा, क्योंकि
वह हम सबका
परिचित है, यह आज्ञा का
चक्र हम सबका
परिचित नहीं
है।
हमारे
जीवन की सारी
वासना और
कामना सेक्स
के चक्र से
पैदा होती है।
जब तक यह चक्र
सक्रिय नहीं होता
तब तक काम—वासना
पैदा नहीं
होती। काम—वासना
लेकर बच्चा
पैदा होता है, काम—वासना
का पूरा यंत्र
लेकर पैदा
होता है, कोई
कमी नहीं होती।
कुछ
मामले में तो
बहुत हैरानी
की बात है।
स्त्रियां तो
अपने जीवन के
सारे रजकण भी
लेकर पैदा
होती हैं, फिर
कोई नया रजकण
पैदा नहीं
होता।
प्रत्येक सी
कितने बच्चों
को जन्म दे
सकती है वह सब
अण्ड़े लेकर
पैदा होती है—करोड़ों।
पहले दिन की
बच्ची भी, जब
मां के पेट से
पैदा होती है,
तो अपने
जीवन के समस्त
अच्छों की
संख्या अपने भीतर
लिए हुए पैदा
होती है। हर
महीने एक
अच्छा उसके
कोष से निकलकर
सक्रिय हो
जाएगा। अगर वह
अच्छा पुरुष
वीर्य से मिल
जाए, संयुक्त
हो जाए, तो
बच्चे का जन्म
होता है। एक
भी नया अच्छा
फिर सी में
पैदा नहीं
होता। लेकिन
काम—वासना
नहीं पैदा
होती है तब तक,
जब तक कि
काम वासना का
चक्र शुरू न
हो जाए। वह
चक्र जब तक
अगति में पडा
है, ठहरा
हुआ है, तब
तक काम का
पूरा यंत्र, काम की पूरी
आयोजना, शरीर
के पास काम की
पूरी शक्ति
होने के
बावजूद भी काम—वासना
पैदा नहीं
होगी। काम—वासना
पैदा होगी, जैसे ही काम
का सेन्टर
गतिमान होगा,
गत्यात्मक
होगा।
चौदह
वर्ष की उम्र
में या तेरह
वर्ष की उम्र
में वह गतिमान
हो जाएगा।
गतिमान होते
ही जो यंत्र
पड़ा था बन्द
बिलकुल, वह
पूरी
सक्रियता ले
लेगा। इस एक
ही चक्र से, आमतौर से हम
परिचित हैं।
वह भी इसलिए
परिचित हैं कि
उसे हम शुरू
नहीं करते, उसे प्रकृति
शुरू करती है।
अगर हमें ही
उसे शुरू करना
हो, तो इस
जगत में थोड़े
ही से लोग काम—वासना
से परिचित हो
पाएंगे। यह तो
प्रकृति शुरू
करती है, इसलिए
हमें पता चलता
है, कि वह
है।
कभी
आपने सोचा है
कि जरा सा
विचार वासना
का,
और
जननेंद्रिय
का पूरा यंत्र
सक्रिय हो
जाता है।
विचार चलता है
मस्तिष्क में,
यंत्र होता
है बहुत दूर, परन्तु
तत्काल चक्र
सक्रिय हो
जाता है। असल
में आपके
चित्त में काम—वासना
का कोई भी
विचार उठे, तत्काल
सेक्स का
सेन्टर उसे
अपनी ओर खींच
लेता है। उसे
उस ओर जाना ही
पड़ेगा, जाने
की और कोई जगह
नहीं है। जैसे
पानी गड्डे
में चला जाता
है, वैसा
प्रत्येक
सम्बन्धित
विचार अपने
चक्र पर चला
जाता है। तो
दोनों आंखों
के बीच में जो
तीसरे नेत्र
की मैं बात कर
रहा हूं वही
जगह
आज्ञाचक्र की
है। इस आज्ञा
के संबंध में
थोडी बात समझ
लेनी जरूरी है।
जिन
लोगों के भी
जीवन मे यह
चक्र
प्रारम्भ नहीं
होगा वह हजार
तरह की
गुलामियों
में बंधे
रहेंगे, वे
गुलाम ही नौ।
इस चक्र के
बिना कोई
स्वतंत्रता
नहीं है। यह
बहुत हैरानी
की बात मालूम
पड़ेगी। हमने
बहुत तरह की
स्वतत्रता
सुनी है—राजनीतिक
आर्थिक—ये
स्वतंत्रताएं
वास्तविक
नहीं हैं।
क्योंकि जिस
व्यक्ति का आज्ञाचक्र
मक्रिय नहीं
है, वह
किसी न किसी
तरह की गुलामी
में रहेगा। एक
गुलामी से
छूटेगा दूसरी
में पडेगा, दूसरी से
छूटेगा तीसरी
में पड़ेगा, वह गुलाम
रहेगा ही।
उसके
पास मालिक
होने का तो
अभी चक्र ही
नहीं है जहां
से मालकियत की
किरणें पैदा
होती हैं।
उसके पास
संकल्प जैसी, 'विल'
जैसी कोई
चीज ही नहीं
है। वह अपने
को आता दे सके
ऐसी उसकी
सामर्थ्य
नहीं है, बल्कि
उसके शरीर और
उसकी
इंद्रियां ही
उसको आज्ञा
दिए चली जाती
हैं। पेट कहता
है भूख लगी है,
तो उसको भूख
लगती है। काम—वासना
का बिन्दु
कहता है, वासना
गट्टे, तो
उसे वासना
जगती है। शरीर
कहता है बीमार
हूं तो वह
बीमार हो जाता
है। शरीर कहता
है, बूढ़ा
हो गया तो
बूढ़ा हो गया।
शरीर आज्ञा देता
है, आदमी
आज्ञा मानकर
चलता है।
लेकिन
यह जो आज्ञाचक्र
है,
इसके गाते
ही शरीर आशा
देना बन्द कर
देता है और
आज्ञा लेना
शुरू कर देता
है। पूरा का
पूरा आयोजन
बदल जाता है
और उल्टा हो
जाता है। वैसा
आदमी अगर बहते
हुए खून को कह
दे, रुक
जाओ, तो वह
बहता हुआ खून
रुक जाएगा।
वैसा आदमी अगर
कह दे हृदय की
धड़कन को कि
ठहर जा, तो
हृदय की धड़कन
ठहर जाएगी।
वैसा आदमी कहे
अपनी नब्ज से
कि मत चल, तो
नब्ज चल न
सकेगी। वैसा
आदमी अपने
शरीर, अपने
मन, अपनी
इन्द्रियों
का मालिक हो
जाता है। पर
इस चक्र के
बिना शुरू हुए
मालिक नहीं
होता। इस चक्र
का स्मरण
जितना ज्यादा
रहे, उतना
ही ज्यादा
आपके भीतर, स्वयं की
मालिकी पैदा
होनी शुरू
होती है। आप
गुलाम की जगह
मालिक बनना
शुरू होते हैं।
'योग ने उस
चक्र को जगाने
के बहुत—बहुत
प्रयोग किए
हैं। उसमें
तिलक भी एक
प्रयोग है।
स्मरणपूर्वक,
अगर कोई
चौबीस घण्टे
उस चक्र पर
बार—बार ध्यान
को ले जाता
रहे तो बड़े
परिणाम आते है।
अगर तिलक लगा
हुआ है तो बार—बार
ध्यान जाएगा।
तिलक के लगते
ही वह स्थान
पृथक हो जाता
है, वह
बहुत
सेंसिटिव
स्थान है। अगर
तिलक ठीक जगह
लगा है तो आप
हैरान होंगे,
आपको उसकी
याद करनी ही
पड़ेगी, बहुत
संवेदनशील
जगह है।
सम्भवतः शरीर
में वह सर्वाधिक
संवेदनशील
जगह है। उसकी
संवेदनशीलता
का स्पर्श
करना, और
वह भी खास
चीजों से
स्पर्श करने
की विधि है—जैसे
चंदन का तिलक
लगाना।
सैंकड़ों
और हजारों
प्रयोगों के
बाद तय किया
था कि चन्दन
का क्यों
प्रयोग करना
है?
एक तरह की
रैजोनेंस है
चन्दन में, और उस स्थान
की
संवेदनशीलता
में। चन्दन का
तिलक उस
बिन्दु की
संवेदनशीलता
को और गहन
करता है, और
घना कर जाता
है। हर कोई
तिलक नहीं
करेगा! कुछ
चीजों के तिलक
तो उसकी
संवेदनशीलता
को मार देंगे,
बुरी तरह
मार देंगे
जैसे आज
स्त्रियां
टीका लगा रही
है। बहुत से
बाजारू टीके
हैं वे उनकी
कोई वैज्ञानिकता
नहीं है, उनका
योग से कोई
लेना—देना
नहीं है। वे
बाजारू टीके
नुकसान कर रहे
हैं, वह
नुकसान
करेंगे।
सवाल
यह है कि संवेदनशीलता
को बढ़ाते हैं
या घटाते हैं? अगर
घटाते हैं
संवेदनशीलता
को तो नुकसान
करेंगे, अगर
बढ़ाते है तो
फायदा करेंगे।
और प्रत्येक
चीज के अलग—अलग
परिणाम हैं, इस जगत में
छोटे से फर्क
से सारा फर्क
पड़ता है। इसको
ध्यान में
रखते हुए कुछ
विशेष चीजें
खोजी गयी थीं,
जिनका ही
उपयोग किया
जाए। यदि आज्ञा
का चक्र
संवेदनशील हो
सके, सक्रिय
हो सके तो
आपके व्यक्तित्व
में एक गरिमा
और इन्टीग्रिटी
आनी शुरू होगा,
एक समग्रता
पैदा होगी। आप
एक जुट होने
लगते हैं, कोई
चीज आपके भीतर
इकट्ठी हो
जाती है, खण्ड—खण्ड
नहीं अखण्ड हो
जाती है।
इस
संबंध में टीके
के लिए भी
पूछा है तो वह
भी खयाल में
ले लेना चाहिए।
तिलक से थोड़ा
हटकर टीके का
प्रयोग शुरू
हुआ। विशेषकर
स्त्रियों के
लिए शुरू हुआ।
उसका कारण वही
था,
योग का
अनुभव काम कर
रहा था। असल
में
स्त्रियों का
आज्ञाचक्र
बहुत कमजोर चक्र
है—होगा ही।
क्योंकि सी का
सारा
व्यक्तित्व
निर्मित किया
गया समर्पण के
लिए, उसके
सारे
व्यक्तित्व
की खूबी
समर्पण की है।
आज्ञाचक्र
अगर उसका बहुत
मजबूत हो तो
समर्पण करना
मुश्किल हो
जाएगा। सी के
पास आशा का
चक्र बहुत
कमजोर है, असाधारण
रूप से कमजोर
है। इसलिए सी
सदा ही किसी न
किसी का सहारा
मांगती रहेगी,
चाहे वह
किसी रूप में
हो।
अपने
पर खड़े होने
का पूरा साहस
नहीं जुटा
पाएगी। कोई
सहारा, किसी
के कन्धे पर
हाथ, कोई
आगे हो जाए, कोई आज्ञा
दे और वह मान
ले, इसमें
उसे सुख मालूम
पडेगा।
स्त्री
के आज्ञाचक्र
को सक्रिय
बनाने के लिए
अकेली कोशिश
इस मुल्क में
हुई है, और
कहीं भी नहीं
हुई। और वह
कोशिश इसलिए
थी कि अगर सी
का आज्ञाचक्र
सक्रिय नहीं
होता तो परलोक
में उसकी कोई
गति नहीं होती।
साधना में
उसकी कोई गति
नहीं होती।
उसके
आज्ञाचक्र को
तो स्थिर रूप
से मजबूत करने
की जरूरत है।
लेकिन अगर यह
आज्ञाचक्र
साधारण रूप से
मजबूत किया
जाए तो उसके स्त्रैण
होने में कमी
पड़ेगी और
उसमें
पुरुषत्व के
गुण आने शुरू
हो जाएंगे।
इसलिए इस टीके
को अनिवार्य
रूप से उसके
पति से जोड्ने
की चेष्टा की
गयी। उसके
जोड्ने का
कारण है।
इस
टीके को सीधा
नहीं रख दिया
गया उसके माथे
पर,
नहीं तो
उसमें सील कम
होगा। वह
जितनी
स्वनिर्भर
होने लगेगी, उतनी ही
उसकी कमनीयता,
उसका
कौमार्य नष्ट
हो जाएगा। वह
दूसरे का
सहारा खोजती
है इसमें एक
तरह की कोमलता
है। पर जब वह
अपने सहारे
खड़ी होगी तो
एक तरह की कठोरता
अनिवार्य हो
जाएगी। तब बडी
बारीकी से
खयाल किया गया
कि उसको सीधा
टीका लगा दिया
जाए, नुकसान
पहुंचेगा
उसके
व्यक्तित्व
में, उसके
मां होने में
बाधा पड़ेगी, उसके समर्पण
में बाधा
पड़ेगी। इसलिए
उसकी आशा को
उसके पति ही
जोड्ने का समग्र
प्रयास किया
गया। इस तरह
दोहरे फायदे
होंगे। उसके स्त्रैण
होने में अन्तर
नहीं पड़ेगा
अपने
पति के प्रति
ज्यादा अनुगत
हो पाएगी, और
फिर भी उसकी
आशा का चक्र
सक्रिय हो
सकेगा।
इसे
ऐसा समझिए, आशा
का चक्र जिससे
भी संबंधित कर
दिया जाए, उसके
विपरीत कभी
नहीं जाता।
चाहे गुरु से
संबंधित कर
दिया जाए तो
गुरु के विपरीत
कभी नहीं जाता,
चाहे पति से
संबंधित कर
दिया जाए तो
पति से विपरीत
कभी नहीं जाता।
आशा चक्र
जिससे भी
संबंधित कर
दिया जाए उसके
विपरीत
व्यक्तित्व
नहीं जाता।
अगर उस सी के
माथे पर ठीक
जगह पर टीका
है तो वह सिर्फ
पति के प्रति
तो अनुगत हो
सकेगी, शेष
सारे जगत के
प्रति वह सबल
हो जाएगी। यह
करीब—करीब
स्थिति वैसी
है, अगर आप
सम्मोहन के
संबंध में कुछ
समझते हैं तो
इसे जल्दी समझ
जाएंगे।
अगर
आपने किसी
सम्मोहक को
लोगों को
सम्मोहित करते, हिप्रोटाइज
करते देखा तो
आप एक चीज
देखकर जरूर ही
चौंके होंगे।
वह चीज यह कि
अगर सम्मोहन
करनेवाला
व्यक्ति किसी
को सम्मोहित
कर दे, या
आप खुद किसी
को सम्मोहित
कर दें तो
आपके सम्मोहित
कर देने के
बाद वह
व्यक्ति किसी
दूसरे की आवाज
नहीं सुनेगा,
सिर्फ आपकी
सुन सकेगा।
बहुत मजे की
घटना घटती है।
सम्मोहित कर
देने के बाद
सारे हाल में
हजारों लोग
चिल्लाते
रहें, बात
करते रहें, बेहोश पड़ा
हुआ आदमी कुछ
सुनेगा नहीं।
लेकिन जिसने
सम्मोहित
किया है वह
धीमे से भी बोले,
तो भी
सुनेगा।
यह
करीब—करीब, जो
मैं आपको टीके
के बारे में
समझा रहा हूं
उससे जुड़ी हुई
घटना है।
व्यक्ति जैसे
ही सम्मोहित
किया गया वैसे
ही सम्मोहित
करनेवाले के
प्रति ही
सिर्फ उसकी ओपनिंग
और खुलापन रह
गया है, बाकी
सबके लिए
क्लोज हो गया।
आप उसको कुछ
नहीं कह सकते।
आप उसके कान
के पास कितना
ही चिल्लाएं
वह बिलकुल
नहीं सुनेगा,
नगाडे बजाए
तो भी नहीं
सुनेगा। और
जिसने
सम्मोहित
किया है वह
धीमे से भी
आवाज दे, कि
खड़े हो जाओ, वह तत्काल
खड़ा हो जाएगा।
उसकी चेतना
में सिर्फ एक
द्वार रह गया है,
बाकी सब तरफ
से बन्द हो
गयी है। जिसने
सम्मोहित
किया है, आज्ञाचक्र
उससे बंध गया
है। बाकी सब
तरफ से बंद हो
गया है।
ठीक
इसी
सजेस्टिबिलिटी
का,
इसी मंत्र
का उपयोग सी
के टीके में
किया गया है।
उसको उसके पति
के साथ जोड़
देना है, एक
ही तरफ उसका
अनुगत भाव रह
जाएगा, एक
ही तरफ वह
समर्पित हो
पाएगी। शेष
सारे जगत के
प्रति वह
मुक्त और
स्वतंत्र हो
जाएगी। अब
उसके सी तत्व
पर कोई बाधा
नहीं पड़ेगी।
इसीलिए जैसे
ही पति मर जाए
टीका हटा देना
है, वह
इसलिए हटा
देना है कि अब
उसका किसी के
प्रति भी
अनुगत होने का
कोई सवाल नहीं
रहा।
लोगों
को इस बात का
कतई खयाल नहीं
है,
उनको तो
खयाल है कि
टीका पोंछ
दिया, क्योंकि
विधवा हो गयी।
पोंछने का
प्रयोजन है।
अब उसके अनुगत
होने का कोई
सवाल नहीं रहा,
सच तो यह है
कि अब उसको
पुरुष की
भांति ही जीना
पड़ेगा। अब
उसमें जितनी
स्वतंत्रता आ
जाए, उतनी
उसके जीवन के
लिए हितकर
होगी। जरा—सा
भी छिद्र वल्नरेबिलिटी
का, जरा सा
भी छेद जहां
से वह अनुगत
हो सके, वह
हट जाए। टीके
का प्रयोग एक
बहुत ही गहरा
प्रयोग है।
लेकिन ठीक जगह
पर हो, ठीक
वस्तु का हो, ठीक नियोजित
ढंग से लगाया
गया हो तो ही
कारगर है
अन्यथा बेमानी
है। सजावट हो,
श्रृंगार
हो, उसका
कोई मूल्य
नहीं है, उसका
कोई अर्थ नहीं
है। तब वह
सिर्फ एक
औपचारिक घटना
है। इसलिए
पहली बार जब
टीका लगाया
जाए तो उसका
पूरा
अनुष्ठान है।
और पहली दफा
गुरु तिलक दे
तब उसका पूरा
अनुष्ठान से
ही लगाया जाए
तो ही
परिणामकारी
होगा, अन्यथा
परिणामकारी
नहीं होगा।
आज
सारी चीजें
हमें व्यर्थ
मालूम पड़ने
लगी है, उसका
कारण है। आज
तो व्यर्थ है।
क्योंकि उनके
पीछे का कोई
भी वैज्ञानिक
रूप नहीं है।
सिर्फ उसकी
खोल रह गयी है,
जिसको हम
घसीट रहे हैं।
जिसको हम खींच
रहे है बेमन, जिसके पीछे
मन का कोई
लगाव नहीं रह
गया है, आत्मा
का कोई भाव
नहीं रह गया
है, और
उसके पीछे की
पूरी
वैज्ञानिकता
का कोई सूत्र
भी मौजूद नहीं
है। यह
आज्ञाचक्र है,
इस संबंध
में दो—तीन
बातें और समझ
लेनी चाहिए, क्योंकि यह
काम आ सकती है,
इसका उपयोग
किया जा सकता
है।
आज्ञाचक्र
की जो रेखा है, उस
रेखा से ही
जुडा हुआ
हमारे
मस्तिष्क का
भाग है। इससे
ही हमारा
मस्तिष्क
शुरू होता है।
लेकिन अभी भी
हमारे
मस्तिष्क का
आधा हिस्सा बेकार
पड़ा हुआ है
साधारणत:।
हमारा जो
प्रतिभाशाली
से
प्रतिभाशाली
व्यक्ति होता
है, जिसको
हम जीनियस
कहें, उसका
भी केवल आधा
ही मस्तिष्क
काम करता है, आधा काम
नहीं करता। वैज्ञानिक
बहुत परेशान
हैं, फिजियोलोजिस्ट
बहुत परेशान
हैं कि यह आधी
खोपड़ी का जो
हिस्सा है, यह किसी भी
काम में नहीं
आता। अगर आपके
इस आधे हिस्से
को काटकर
निकाल दिया जाए
तो आपको पता
भी नहीं चलेगा।
आपको पता ही
नहीं चलेगा कि
कहीं कोई चीज
कम हो गइए है।
क्योंकि उसका
तो कभी उपयोग
ही नहीं हुआ
है, वह न
होने के बराबर
है।
लेकिन
वैज्ञानिक
जानते हैं कि
प्रकृति कोई भी
चीज व्यर्थ
निर्मित नहीं
करती। भूल
होती है, एकाध
आदमी के साथ
हो सकती है, यह तो हर
आदमी के साथ
आधा मस्तिष्क
खाली पड़ा हुआ
है। बिलकुल
निष्क्रिय
पड़ा हुआ है, उसमें कहीं
कोई चहल पहल
भी नहीं हुई
है। योग का
कहना है, कि
वह जो आधा
मस्तिष्क है
वह आज्ञाचक्र
के चलने के
बाद शुरू होता
है। आधा
मस्तिष्क
आज्ञाचक्र के
नीचे के
चक्रों से
जुडा है, और
आधा मस्तिष्क
आज्ञाचक्र के
ऊपर के चक्रों
से जुड़ा हुआ
है। नीचे के
चक्र शुरू
होते हैं तो
आधा मस्तिष्क काम
करता है, और
जब आज्ञा के
ऊपर काम शुरू
होता है तब
शेष आधा
मस्तिष्क काम
शुरू करता है।
इस
संबंध में, हमें
खयाल भी नहीं
होता, जब
तक कोई चीज
सक्रिय न हो
जाए हम सोच भी
नहीं सकते।
सोचने का भी
कोई उपाय नहीं
है। जब कोई
चीज सक्रिय
होती है तभी
हमें पता चलता
है।
स्वीडन
में एक आदमी
गिर पड़ा ट्रेन
से। गिरने के
बाद जब वह
अस्पताल में
भर्ती किया गया
तो उसे दस मील
के क्षेत्र की
रेडियो की
आवाजें पकड़ने
लगीं, उसके
कान में। पहले
तो वह समझा कि
उसका दिमाग
कुछ खराब हो
रहा है। पहले
तो साफ भी
नहीं था, उसे
गुनगुनाहट
मालूम होती थी।
लेकिन दो—तीन
दिन में ही
चीजें साफ
होने लगीं तब
उसने घबराकर
डाक्टर से कहा,
यह मामला
क्या है? मुझे
तो ऐसा सुनाई
पड़ता है जैसे
कोई रेडियो
मेरे कान के
पास लगाए हुए
है।
डाक्टर
ने पूछा, तुम्हें
क्या सुनाई पड़
रहा है? उसने
जो गीत की कड़ी
बताई वह
डाक्टर अभी
अपने रेडियो
से सुनकर आ रहा
है। उसने कहा,
यह मुझे अभी
थोड़ी देर पहले
सुनाई पड़ी। और
फिर तो स्टेशन
बन्द हो गया
टाइम बताकर, कि इतना
टाइम है। तब
रेडियो लाकर,
लगाकर, जांच—पड़ताल
की गई और पाया
गया है कि उस
आदमी का कान ठीक
रेडियो की तरह
रिसेटिव का कम
कर रहा है, उतना
ही ग्राहक हो
गया है।
अन्त
में उसका
आपरेशन करना
पड़ा। नहीं तो
यह आदमी पागल
हो जाए।
क्योंकि आन—आफ
का तो कोई
उपाय नहीं था।
वह चौबीस घंटे
चल रहा था, जब
तक वह स्टेशन
चलेगा तब तक
वह आदमी चल
रहा था। लेकिन
एक बात जाहिर
हो गई कि कान
की एक यह भी सम्भावना
हो सकती है।
और यह भी तय हो
गया उसी दिन
कि इस सदी के
पूरे होते—होते
हम कान का ही
उपयोग करेंगे रेडियो
के लिए।
इतने
बड़े यंत्रों
को बनाने की
और ढोने की
कोई जरूरत
नहीं रह जाएगी।
लेकिन तब एक
छोटी—सी
व्यवस्था, जो
कान पर लगाई
जा सके और
जिसे आन—आफ
किया जा सके
पर्याप्त
होगी। सिर्फ
आन आफ किया जा
सके, उतनी
व्यवस्था! उस
आदमी की
आकस्मिक घटना
से यह एक खयाल
जन्मा, बिलकुल
आकस्मिक इस
जगत में जो—जो नयी
घटनाएं घटती
है या नये
दृष्टिकोण
खुलते हैं, वह हमेशा
एक्सिडेंटल
और आकस्मिक
होते हे।
क्योंकि
हम अपने पिछले
ज्ञान से तो
उनका कोई अनुमान
नहीं लगा सकते।
हम कभी सोच
नहीं सकते कि
कान भी कभी
रेडियो का काम
कर सकता है।
लेकिन क्यों
नहीं कर सकता
है मे कान
सुनने का काम
करता है, रेडियो
सुनने का काम
करता है। कान
रिसेटिविटी
है पूरी, रेडियो
रिसेटिविटी
है पूरी। सच
तो यह है कि
रेडियो कान के
ही आधार पर
निर्मित है।
माडल का काम
तो कान ने ही
किया है। कान
की और क्या—क्या
सम्मावनाएं
हो सकती है, ये जब तक
अचानक
उदघाटित न हो
जाएं तब तक
पता भी नहीं
चल सकता।
ठीक
वैसी घटना
दूसरे
महायुद्ध में
घटी। एक आदमी
घायल हुआ, बेहोश
हो गया और जब
होश में आया
तो उसे दिन
में आकाश के
तारे दिखाई
पड़ने लगे।
तारे तो आकाश
में होते ही
हैं, सिर्फ
सूरज की रोशनी
की वजह से
दिखाई पड़ने
बन्द हो जाते
है। सूरज की रोशनी
बीच में आ
जाती है, तारे
पीछे पड़ जाते
है। सूरज की
रोशनी बहुत
तेज है, सूरज
से तारे बहुत
दूर है, उनकी
टिमटिमाती
रोशनी खो जाती
है। यद्यपि वे
सूरज से छोटे
नहीं है, उनमें
से कोई सूरज
से हजार गुना
बड़ा है, कोई
दस हजार गुना
बड़ा है, कोई
लाख गुना बड़ा
है, पर
फासला बहुत है।
सूरज
से किरण हम तक
आती है तो उसे
नौ मिनट लगते है।
और जो सबसे
करीब का तारा
है,
उससे जो
किरण आती हैं
उसे चालीस साल
लगते हैं।
फासला बहुत है।
नौ मिनट और
चालीस साल, और किरण
बहुत तेज चलती
है, एक लाख
छियासी हजार
मील चलती है
एक सेकेंड में।
सूरज से
पहुंचने में
नौ मिनट लगते
हैं, निकटतम
तारे से
पहुंचने में
चालीस साल
लगते हैं। और
ऐसे तारे हैं,
जिनसे चार
हजार साल भी
लगते हैं, चार
लाख साल भी
लगते हैं, चार
करोड़ साल भी
लगते हैं, चार
अरब साल भी
लगते हैं। चार
अरब साल के
ऊपर का हम
हिसाब नहीं रख
सकते हैं
क्योंकि
हमारी पृथ्वी
को बने चार
अरब साल हुए।
वैज्ञानिकों
का कहना है कि
जब हमारी
पृथ्वी नहीं
बनी थी, तब जो
किरणें चली
होंगी, एक
दिन जब हमारी
पृथ्वी
समाप्त हो
चुकी होगी तब
पार होंगी। उन
किरणों को कभी
पता नहीं
चलेगा कि बीच
में किसी
पृथ्वी के
होने की घटना
घट गई। जब
पृथ्वी नहीं
थी तब वे चलीं
और जब पृथ्वी
नहीं हो चुकी
होगी तब वे
पार हो गई
होंगी। उनको
कभी पता नहीं
चलेगा उन
किरणों पर कोई
यात्री सवार
होकर चले तो
पृथ्वी कभी थी,
इसका कोई भी
अन्दाजा नहीं
लगेगा।
दिन
में वे तारे
हैं अपनी जगह।
उस आदमी को
दिन में भी
दिखाई पड़ने
शुरू हो गए।
उसकी आंख को
क्या हो गया? उसकी
आंख ने एक नया
सिलसिला शुरू
किया। आपरेशन
करना पड़ा उसकी
आंख का, क्योंकि
वह आदमी
सामान्य नहीं
रह गया। वह
आदमी बेचैनी
में पड गया, वह आदमी
कठिनाई में पड़
गया। तब एक
बात हुई कि आंख
दिन में भी
तारों को देख
सकती है। अगर आंख
दिन में भी
तारों को देख
सकती है तो आंख
की बहुत—सी
सम्भावनाएं
हैं, जो
बडी सुप्त पडी
हैं। हमारी
प्रत्येक
इंद्रिय की
बहुत—सी
संभावनाएं है
जो सुप्त पड़ी
हैं। इस जगत
में जो हमें
चमत्कार
दिखाई पड़ते
हैं वह सुप्त
पड़ी
सम्भावनाओं
का कहीं से टूट
पड़ना है, बस!
कोई
सुप्त
सम्भावना
कहीं से प्रगट
हो जाती है, हम
चमत्कृत हो
जाते है—वह
मिरेकल नहीं
है। उतना ही
चमत्कार
हमारे भीतर भी
दबा पड़ा है, पर अप्रगट
है, वह
प्रगट नहीं
होता, वह
खुल नहीं पाता।
कहीं कोई
दरवाजे पर
ताला पड़ा है, वह नहीं टूट
पा रहा है।
अभी
मैंने आधे
मस्तिष्क के
सक्रिय होने
की बात की, वह
योग की दृष्टि
है। और योग की
दृष्टि कोई एक—दो
दिन, वर्ष
दो वर्ष की
धारणा की नहीं
है, कम से
कम बीस हजार
साल से योग की
यह परिपुष्ट दृष्टि
है। विज्ञान
की किसी
दृष्टि पर तो
भरोसा नहीं
किया जा सकता
बहुत, क्योंकि
जो विज्ञान छह
महीने पहले कह
रहा था, छह
महीने बाद
बदलेगा।
लेकिन योग की
एक परिपुष्ट
दृष्टि है, बीस हजार
साल की कम से
कम। क्योंकि
हम जिस सभ्यता
में रह रहे
हैं वह सभ्यता
किसी भी हालत
में बीस हजार
साल से पुरानी
नहीं है।
यद्यपि यह
हमारा भ्रम है
कि हमारी
सभ्यता पृथ्वी
पर पहली
सभ्यता है।
हमसे पहले
सभ्यताएं हो
चुकी है और
नष्ट हो चुकी
हैं और हमसे
पहले आदमी
करीब—करीब
हमारी
ऊंचाइयों पर
और कभी—कभी
हमसे भी
ज्यादा
ऊंचाईयों पर
पहुंच गया और खो
गया!
उन्नीस
सौ चौबीस में
एक घटना घटी।
उन्नीस सौ
चौबीस में जर्मनी
में अणुविज्ञान
के संबंध में
शोध का पहला
संस्थान
निर्मित हुआ।
अचानक एक दिन
सुबह एक आदमी, जिसने
अपना नाम
फल्कानेली
बताया, एक कागज
में लिखकर कुछ
दे गया। उस
कागज में एक
छोटी—सी सूचना
थी कि मुझे
कुछ बातें
ज्ञात हैं, कुछ और
लोगों को भी
ज्ञात है, जिनके
आधार पर मैं
यह खबर देता
हूं कि अणु के
साथ खोज में
मत पड़ना।
क्योंकि
हमारी सभ्यता
के पहले और भी
सभ्यताएं इस
खोज में पड़कर
नष्ट हो चुकी
हैं, इस
खोज को बन्द
ही कर दें।
बहुत खोज—बीन
की गई उस आदमी
की, कुछ
पता नहीं चला।
उन्नीस
सौ चालीस में
हैसिनबर्ग, एक
बहुत बड़ा
वैज्ञानिक था
जर्मनी का, जिसने बड़े
से बड़ा काम
अणु की खोज
में किया। उस
आदमी के घर
फिर एक आदमी
उपस्थित हुआ,
जिसने फिर
उसको एक
चिट्ठी दी, उसमें भी
फल्कानेली के
ही दस्तखत थे।
वह नौकर को
चिट्ठी देकर
बाहर ही चला
गया। उस
चिट्ठी में
उसने
हैसिनबर्ग को
सूचना दी कि
तुम पापी होने
का जिम्मा मत
लो, क्योंकि
यह सभ्यता
पहली नहीं है
जो अणु—उपद्रव
में पड़ी है।
इसके पहले
सभ्यताएं
बहुत बार अणु
के खेल में पड़ी
और नष्ट हो
गईं। मगर उस
आदमी का पता
नहीं चला।
उन्नीस
सौ पैंतालिस
में जब पहली
दफा हिरोशिमा
पर एटम गिरा
तो दुनिया के
बाहर बड़े
वैज्ञानिकों
को,
जिनका कि
हाथ था एटम के
बनाने में, फल्कानेली
के दस्तखत के
पत्र मिले
जिसमें उसने
कहा था कि
देखो अभी भी
रुक जाओ।
हालांकि
तुमने पहला
कदम उठा लिया
है, और
पहला कदम
उठाने के बाद
आखिरी कदम
बहुत दूर नहीं
रहता।
ओपिनहिमर जो
अमरीका का सबसे
बड़ा अणुशास्त्री
था, जिसने
कि अणु बनाने
में बड़े से
बड़ा भाग
बंटाया है, उसने तत्काल
उस पत्र के
मिलते ही अणु
आयोग से इस्तीफा
दिया और उसने
एक वक्तव्य
दिया कि 'वी
हैव सिक्त', हमने पाप
किया है। और
यह आदमी हर
वक्त खबर देता
रहा पर यह
आदमी कौन है, इसका कोई
पता नहीं है।
यह आदमी कौन
है? इस बात
की पूरी
सम्भावना है
कि वह जो कह
रहा है, ठीक
कह रहा है।
अणु के साथ
खिलवाड़
सभ्यताएं
पहले भी कर
चुकी हैं।
हमने
भी महाभारत
में अणु के
साथ खिलवाड़ कर
लिया। उसके
साथ हम बर्बाद
हुए। असल में
करीब—करीब ऐसा
है,
जैसे कि
व्यक्ति
बच्चा होता है,
जवान होता
है, और
जवानी में वही
भूलें करता है
जो उसके बाप ने
की थीं।
हालांकि बाप
का होकर उसको
समझाता है कि
इन भूलों में
मत पड़ना, ये
सब गड़बड़ हैं, लेकिन उसके
बाप ने भी इस
बूढ़े को
समझायी थी यही
बात। और ऐसा
नहीं है कि उस
बूढ़े के बूढ़े
बाप को समझानेवाला
बाप नहीं था, उसने भी
समझाया था। पर
जवानी में वही
भूलें होती
हैं, फिर
बुढ़ापे में
वही समझाहट
होती है।
बच्चा होता है,
जवान होता
है, बूढ़ा
होता है, मरता
है—जैसे
व्यक्ति एक
चक्र में
दौड़कर आदी हो
जाता है, ऐसे
ही हर सभ्यता
भी करीब—करीब
एक से स्टेप
उठाकर नष्ट
होती है। सभ्यताएं
भी बचपन में
होती हैं, जवान
होती हैं, बूढ़ी
होती हैं और
मरती हैं।
यह
जो योग की बीस
हजार साल की
दृष्टि की बात
की,
बीस हजार
साल की, मैं
इसलिए कहता
हूं कि बीस
हजार साल का
हिसाब थोड़ा
साफ है। वैसे
इसे और भी साफ
करना हो तो
बीस हजार साल
के पहले की जो
सभ्यताएं रही
हैं, उनको
बिना जाने साफ
नहीं किया जा
सकता। एक आदमी
की जवानी ठीक
से समझनी हो
तो दस आदमियों
की जवानी
समझनी जरूरी
है, अकेली
नहीं समझी जा
सकती।
क्योंकि
अकेले का कोई
रिफरेंस नहीं
होता, कोई
संदर्भ नहीं
होता है। कैसे
समझा जाए, वह
क्या कर रहा
है? ठीक कर
रहा है कि गलत
कर रहा है?
एक
आदमी का
बुढ़ापा समझना
हो तो पच्चीस
को पर नजर
डालनी जरूरी
है,
नहीं तो सब
अधूरा—अधूरा होगा।
एक—एक व्यक्ति
अपने आप में
कुछ भी नहीं
बता पाता है।
एक—एक घटना
अलग कुछ नहीं
कहती। इसलिए
मैंने कहा कि
बीस हजार साल
का इतिहास साफ
है।
'बीस हजार
साल में योग
निरंत्तर एक
बात कहता रहा
है कि
आज्ञाचक्र के
साथ जुड़ा हुआ
आधा मस्तिष्क
है जो बन्द
पड़ा है, अगर
तुम्हें
संसार के पार
कुछ जानना है
तो उस आधे
मस्तिष्क को
सक्रिय करना
जरूरी है। अगर
परमात्मा के
संबंध में कोई
यात्रा करनी है
तो वह आधा
मस्तिष्क
सक्रिय होना
जरूरी है। अगर
पदार्थ के पार
देखना है तो
वह आधा मस्तिष्क
सक्रिय होना
जरूरी है।
उसका द्वार है
आज्ञा, जहां
आप तिलक लगाते
हैं, वह तो
करस्पोंडिंग
हिस्सा है, आपकी चमड़ी
के ऊपर। बस
अन्दाजन डेढ़
इंच भीतर—
अन्दाजन कहता
हूं क्योंकि
किसी का थोड़ा
ज्यादा, किसी
का थोड़ा कम
होता है।
अन्दाजन डेढ़
इंच भीतर वह
बिन्दु है जो
द्वार का काम
करता है, पदार्थ
अतीत, या
भावातीत जगत
के लिए।
तिब्बत
ने तो, जैसा
हमने तिलक
आविष्कृत
किया, वैसे
ही ठीक
आपरेशन्स भी
आविष्कृत किए।
ऐसा तिब्बत ही
कर सकता था।
क्योंकि
तिब्बत ने
जितनी मेहनत
की है मनुष्य
के तीसरे
नेत्र पर, ' थर्ड
आई' पर, उतनी
किसी और
सभ्यता ने
नहीं की है।
सच तो यह है कि
तिब्बत का
पूरा का पूरा
विज्ञान और
पूरी समझ जीवन
के अनेक
आयामों की समझ
है जो उस
तीसरे नेत्र
की ही समझ पर
आधारित है।
जैसा
मैंने कायसी
का आपके लिए
उदाहरण दिया, कायसी
तो एक व्यक्ति
है। तिब्बत
में तो
सैक्कों साल
से व्यक्ति जब
तक समाधि में
न जाए तब तक
दवा का कोई
पता नहीं लगता
था। यह पूरी
सभ्यता ही वह
काम करती रही
है, वे
समाधिस्थ
व्यक्ति से ही
दवा पूछेंगे,
उसकी दवा का
ही उपयोग
करेंगे। बाकी
तो सब अंधेरे
में टटोलना है।
उन्होंने तो
आपरेशन्स भी
विकसित किए।
ठीक
इस डेढ़ इंच के
भीतर जो जगह
है,
उस पर
आपरेशन्स
करने के भी
प्रयोग किए।
उस जगह को
बाहर से भी
तोड्ने की
कोशिश की, वह
टूट जाती है, बाहर से भी
टूट जाती है।
लेकिन बाहर से
टूटने में और
भीतर से टूटने
में एक फर्क
है, इसलिए
भारत ने कभी
उसको बाहर से
तोड्ने की कोशिश
नहीं की। यह
मैं आपको खयाल
में दे दूं।
उसे
भीतर से
तोड्ने पर ही
आधा मस्तिष्क
सक्रिय हो जाता
है। बहुत
सम्भावना यह
है कि बाहर का
आपरेशन नये आधे
मस्तिष्क की
सक्रियता का
दुरुपयोग
करेगा।
क्योंकि आदमी
वही का वही है, उसकी
चेतना में कोई
साधनागत
अन्तर तो हुए
नहीं हैं, और
उसके
मस्तिष्क में
नये काम शुरू
हो गए। अगर वह
आदमी आज दीवार
के पार देख
सकता है, तो
इस बात की
बहुत कम
सम्भावना है
कि वह कुएं में
किसी गिरे
आदमी हो देखकर
निकालेगा। इस
बात की ज्यादा
सम्भावना है
कि किसी के
गड़े हुए खजाने
को खोदने
जाएगा। अगर वह
आदमी यह देख
सकता है कि
उसके भीतरी
इशारे से आपको
आता दी जा
सकती है, तो
इस बात की
बहुत कम
सम्भावना है
कि आपसे वह कोई
अच्छा काम
करवाएगा, इस
बात की ज्यादा
सम्भावना है
कि आपसे अवश्य
वह कोई बुरा
काम करवाएगा।
आपरेशन यहां
भी हो सकता था।
भारत
को भी उसके
सूत्र पता थे, पर
भारत ने उसका
कभी प्रयोग
नहीं किया।
नहीं प्रयोग
किया इसलिए कि
जब तक व्यक्ति
की चेतना भीतर
से भी इतनी
विकसित न हो
कि नयी शक्तियों
का उपयोग करने
में समर्थ हो
जाए, तब तक
उसे नयी
शक्तियां
देना खतरनाक
है। वह ऐसा है
जैसे बच्चे के
हाथ में हम
तलवार दे दें।
बहुत डर तो यह
है कि वह दो—चार
को काटेगा, लेकिन डर यह
भी है कि वह
अपने को भी
काटेगा। और
बच्चे के हाथ
में दी गई
तलवार से किसी
का भी मंगल हो
सकेगा, इसकी
आशा करना दुराशा
मात्र है।
चेतना के तल
पर, अगर
व्यक्ति के
भीतर की चेतना
विकसित न हो
तो उसके हाथ
में नयी
शक्तियां
देना खतरनाक
है।
तिब्बत
में,
जहां हम
तिलक लगाते
रहे हैं, वहां
ठीक भीतर तक
भी छेद करने
की कोशिश की
है, भौतिक
उपकरणों से।
इसलिए तिब्बत
बहुत—सी बातें
जान पाया, बहुत
से अनुभव कर
पाया, लेकिन
फिर भी तिब्बत
कोई नैतिक
अर्थों में महान
देश नहीं बन
पाया। यह बड़ी
आश्रर्यजनक
घटना है।
तिब्बत बहुत
काम कर पाया
है, लेकिन
फिर भी नैतिक
अर्थों में वह
एक बुद्ध भी
पैदा नहीं कर
पाया। उसकी
जानकारी बढ़ी,
उसकी शक्ति
बढ़ी, अनूठी
बातों का उसे
पता चला; लेकिन
उन सबका उपयोग
बहुत छोटी
बातों में हुआ।
उनका बहुत बड़ी
बातों में
उपयोग नहीं हो
सका।
भारत
ने कोई सीधा
भौतिक प्रयोग
करने की कभी
चेष्टा नहीं
की। चेष्टा यह
की कि भीतर की
चेतना को
इकट्ठा करके
इतना
कन्सट्रेट, इतना
एकाग्र किया
जाए कि चेतना
की शक्ति से
ही वह तीसरा
नेत्र खुल जाए,
उसके ही
प्रवाह में
खुल जाए।
क्योंकि
चेतना के
प्रवाह को
तीसरे नेत्र
तक लाना एक
बर्खेबू
नैतिक उपक्रम
है। उसे इतना
ऊपर चढ़ाना है!
क्योंकि
साधारणत: हमारा
मन नीचे की
तरफ बहता है।
सच
तो यह है कि
हमारा मन
सेक्स—सेन्टर
की तरफ ही बहता
रहता है। हम
कुछ भी करते
हों,
हम चाहे धन
कमाते हों, चाहे पद की
चेष्टा करते
हों, चाहे
कुछ भी करते
हों, यह सब
करने के पीछे
कहीं गहरे में
काम—वासना में
खींचती रहती
है। धन भी हम
कमाते हैं तो
इसी आशा में
कि उससे काम खरीदा
जा सके; और
पद की भी हम
इच्छा करते
हैं इसी आशा
में कि पद पर
बैठकर हम
ज्यादा
शक्तिशाली हो
जाएंगे, काम
को खरीद लेंगे।
इसलिए
पुराने दिनों
में राजा की
इज्जत का पता इससे
चलता था कि
कितनी
रानियां हैं
उसके पास? वह
ठीक मेजरमेंट
था, क्योंकि
पद का और कोई
मूल्य है क्या?
पद का करोगे
क्या? कितनी
स्रियां
तुम्हारे हरम
में है, उससे
पता चल जाएगा
कि तुम कितने
बड़े पद पर हो।
पद का भी
उपयोग, धन
का भी उपयोग
घूमकर तो काम—वासना
के लिए ही
होना है।
हम
जो भी करेंगे
हमारी सारी
शक्ति काम
केन्द्र की
तरफ दौड़ती
रहेगी। और जब
तक शक्ति काम
के केन्द्र की
तरफ दौड़ रही है
तभी तक, व्यक्ति
अनैतिक हो
सकता है। अगर
शक्ति को ऊपर
की तरफ दौड़ाना
है तो काम की यात्रा
रूपांतरित
करनी पड़ेगी।
अगर
आज्ञाचक्र की
तरफ शक्ति को
ले चलना है तो काम
की यात्रा को
बदलना पड़ेगा—उसका
पूरा रुख, पूरा
ध्यान बदला
पड़ेगा, पीठ
ही फेर लेनी
पड़ेगी नीचे की
तरफ से, और
मुंह करना
पड़ेगा ऊपर की
तरफ।
ऊर्ध्वमुखी
होना पड़ेगा:
इस ऊर्ध्वगमन
की यात्रा बड़ी
नैतिक होगी।
इसलिए इंच—इंच
संघर्ष होगा,
इसमें एक—एक
कदम कुर्बानी
होगी।
इसमें
जो क्षुद्र है
उसे खोने की
तैयारी दिखानी
पड़ेगी, ताकि
विराट मिल सके।
इसमें कीमत
चुकानी पड़ेगी।
और इतनी सारी
कीमत चुकाकर
जो व्यक्ति
आज्ञाचक्र तक
पहुंचता है उसे
जो विराट
शक्ति उपलब्ध
होती है, वह
उसका
दुरुपयोग
कैसे कर पाएगा?
दुरुपयोग
का कोई सवाल
नहीं उठता।
दुरुपयोग
करनेवाला तो
इस मंजिल तक
पहुंचने के
पहले समाप्त
हो गया होता
है। इसलिए तिब्बत
में ब्रैक
मैजिक पैदा
हुआ, इन
आपरेशन्स की
वजह से।
तिब्बत में
अध्यात्म कम
पैदा हुआ, और
जिसको हम कहें
कि शैतानी ढंग
का उपद्रव, वह ज्यादा
पैदा हुआ। इस
तरह की गलत
ताकत हाथ में
आनी शुरू हो
गयी।
सूफियों
में एक कहानी
है,
जीसस के
बाबत।
ईसाईयों में
उसका कोई
उल्लेख नहीं
है, इसलिए
मैं सूफियों
से कहता हूं।
जीसस की बहुत—सी
कहानियां
सूफियों के
पास हैं, ईसाइयों
के पास नहीं
हैं। कई बार
तो बहुत
महत्वपूर्ण
घटनाएं मुसलमानों
के पास हैं, ईसाईयों के
पास नहीं, जीसस
के जीवन की।
यह घटना भी उनमें
से एक है।
जीसस के तीन
शिष्य जीसस के
पीछे पड़े। वे
उनसे कहते हैं
कि हमने सुना
है और देखा भी,
कि आप
मुर्दे को
कहते हैं उठ
जाओ, और वह
उठ जाता है।
हमें
तुम्हारा
मोक्ष नहीं
चाहिए, हमें
तुम्हारा
स्वर्ग नहीं
चाहिए, हमें
तो सिर्फ यह
तरकीब सिखा दो।
यह मरा हुआ
आदमी कैसे
जिन्दा होता
है? जीसस
उनसे कहते हैं
कि इस मंत्र
का उपयोग तुम
स्वयं पर कभी
न कर पाओगे।
क्योंकि तुम
मर चुके होगे
तो मंत्र का
उपयोग कैसे
करोगे? और
दूसरे के
जिलाने से
तुम्हें क्या
फायदा होगा? मैं तुम्हें
वह तरकीब
बताता हूं
जिससे कि तुम मरो
हीन! वह कहते हैं,
हमे इससे कोई
मतलब नही। आप हमें
बहलाएं मत, हमे तो यह मुर्दे
की बात बताइए,
यह चीज
जानने जैसी है।
वे इतने पीछे
पड़े कि जीसस
ने कहा कि ठीक
है।
जीसस
ने उन्हें वह
सूत्र बता
दिया, जिस
सूत्र के
उपयोग से मरा
हुआ, जिन्दा
हो जाता है।
अब वे तीनों
भागे। वे उसी
दिन जीसस को
छोड्कर भाग गए,
मुर्दे की
तलाश में।
उन्होंने कहा
कि अब देर
करना उचित
नहीं, मंत्र
में कोई शब्द
भूल जाए, कोई
गड़बड़ हो जाए, इसका जल्दी
प्रयोग करके
देख लें।
दुर्भाग्य, गांव में गए
तो मुर्दा
नहीं! दूसरे
गांव की तरफ
निकले तो बीच
में कोई अस्थि—पंजर
पड़ा हुआ मिल
गया, मुर्दा
नहीं मिला, तो उन्होंने
कहा कि अब चलो
यही सही। मंत्र
पढ़ा, जल्दी
थी बहुत, वह
शेर के अस्थि—पंजर
थे। शेर उठकर
खड़ा हो गया, वह उन तीनों
को खा गया।
सूफी कहते हैं
कि यही होगा।
अनैतिक
चित्त का
कुतूहल खतरे
में ले जाता
है। बहुत बार
बहुत से सूत्र
जानकर भी छिपा
लिए गए बार—बार, कि
वह गलत आदमी
के हाथ में न
पड़ जाएं। सामान्य
आदमी को जब भी
कुछ दिया गया
तो उसे इस ढंग से
दिया गया कि
जब वह योग्य
हो जाए, तभी
उसे पता चलता
है।
सोचेंगे
आप,
तिलक के
संबंध में मैं
क्यों कह रहा
हूं। हर बच्चे
के माथे पर
तिलक लगा दिया,
जब कि उसे
कुछ पता नहीं
है। कभी उसे
पता होगा, कभी
उसे पता चलेगा
तब वह इस तिलक
के राज को समझ
पाएगा। इशारा
कर दिया गया
है, ठीक
जगह पर निशान
बना दिया गया
है। कभी जब
उसकी चेतना
इतनी समर्थ
होगी, तब
वह इस निशान
का उपयोग कर
पाएगा। कोई चिंता
नहीं कि सौ
आदमियों पर
लगाया गया
निशान, और
निन्यान्नबे
के काम नहीं
पड़ा। कोई
फिक्र नहीं, एक की भी काम
पड़ जाए तो कम
नहीं है। इस
आशा में सौ पर
लगा दिया गया
कि कभी किसी
क्षण में उसका
स्मरण आ जाएगा
तो पता चल
जाएगा।
तिलक
के लिए इतना
मूल्य, इतना
सम्मान, कि
जब भी कुछ
विशेष घटना हो,
शादी हो रही
हो तो तिलक हो,
कोई जीतकर
लौट आए तो
तिलक हो! कभी
आपने सोचा, कि हर
सम्मान की
घटना के साथ
तिलक, यह
सिर्फ 'लॉ
ऑफ एसोसिएशन'
का उपयोग है।
क्योंकि
हमारे चित्त
में एक बड़े
मजे का मामला
है।
हमारा
चित्त दुख को
भूलना चाहता
है और सुख को याद
रखना चाहता है।
हमारा चित्त लम्बे
अर्सें में दुःख
को भूल जाता
है और सुख को
याद रखता है।
इसीलिए तो
हमें पीछे के
दिन अच्छे
मालूम पड़ते
हैं। बूढ़ा
कहता है, बचपन
बहुत सुखद था।
कोई और बात
नहीं है, दुख
को ड्राप कर
देता है मन
हमारा और सुख
की शृंखला को
कायम रखता है।
जब लौटकर पीछे
देखता है तो
सुख ही सुख
दिखायी पड़ता,
बीच—बीच के
जो दुख थे, उनको
गिरा आए हम
रास्ते में।
कोई बच्चा
नहीं कहता, कि बचपन
सुखद है।
बच्चे जल्दी
से जल्दी बड़े
होना चाहते
हैं। और सब के
कहते हैं, बचपन
बहुत सुखद है।
जरूर
कहीं न कहीं
भूल हो गयी है।
ये जितने
बच्चे हैं, उनको
खड़े करके
पूछें, तुम
क्या होना
चाहते हो? वे
कहेंगे, हम
बच्चे होना
चाहते हैं। और
जितने बूढ़े
हैं, उनको
पूछें कि क्या
होना चाहते हो,
वे कहेंगे
हम बच्चे होना
चाहते हैं।
मगर एक बच्चा
गवाही नहीं
देता
तुम्हारे साथ।
बच्चा तो
चाहता है
कितना जल्दी
बड़ा हो जाए, इसलिए कई
दफा ऐसी कोशिश
करता है बड़े
होने की, कि
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
सिगरेट पीने
लगता है, इसलिए
कि वह देखता
है कि सिगरेट
सिम्बल है बड़े
आदमी का। कोई
और कारण से
नहीं, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
बच्चों में, सौ में से
सत्तर
प्रतिशत
बच्चे इसलिए
सिगरेट पीते
हैं कि सिगरेट
प्रेस्टीज का
प्रतीक है। सिगरेट
ताकतवर, बड़े
लोग, प्रतिष्ठावाले
लोग पीते हैं।
वह भी उसे
पीकर धुंआ जब
उड़ाता है, तो
भीतर उसकी रीढ़
सीधी हो जाती
है। 'सम—बडी',
उसको मालूम
पड़ता है कि
मैं भी कोई
ऐसा वैसा नहीं
हूं।
किसी
फिल्म पर लिख
दें,
इसको सिर्फ 'अडल्ट' देख
सकते हैं, तो
बच्चे सब नकली
मूंछ लगाकर
फिल्म में
प्रवेश
करेंगे।
क्यों? बड़ा
होने की बड़ी
तीव्र
आकांक्षा है,
जल्दी। मगर
सब के कहते
हैं कि बचपन
बड़ा सुखद था।
क्या बात है
ऐसी? बात
कुल इतनी ही
है कि मन दुख
को भुला देता
है, गिरा
देता है। दुख
याद रखने जैसी
चीज भी नहीं
है।
एक
बहुत हैरानी
का सूत्र पियॉगेट
नाम के
मनोवैज्ञानिक
ने बताया है, चालीस
साल तक बच्चों
पर मेहनत करके।
उसका कहना है
कि पांच साल
से पहले की
किसी .बच्चे
को स्मृति
नहीं रहती।
उसका कुल कारण
यह है कि पांच
साल की
जिन्दगी इतनी
दुखद है कि
उसे याद नहीं
रखा जा सकता।
यह हम सोच न
सकेंगे! और पियगिट
ठीक कहता है, अनुभव से
कहता है, भारी
अनुभव से कहता
है।
आपको
अगर कहा जाए
कि आपको कब तक
की याद है तो
आप ज्यादा से
ज्यादा पांच
साल,
चार साल लौट
पाते हैं। फिर
क्यों नहीं
लौटते पीछे की
ओर? क्या
उस वक्त
मेमोरी नहीं
बनती थी? बनती
थी। क्या उस
वक्त घटना
नहीं घटती थी?
घटती थी।
क्या उस वक्त
किसी ने गाली
नहीं दी, और
किसी ने प्रेम
नहीं किया? सब हुआ है।
पर मामला क्या
है? चार
साल पहले की
स्मृति का कोई
रिकार्ड, कोई
हिसाब क्यों
नहीं है आपके
पास?
पियॉगेट
कहता है कि वह
दिन इतने दुख
में बीतते हैं, क्योंकि
बच्चा अपने को
इतना दीन, इतना
कमजोर, इतना
हीन, सबसे
दबा हुआ, इतना
असहाय अनुभव
करता है कि
उसका कुछ भी
याद रखना उसको
पसन्द नहीं।
वह उसको ड्राप
कर देता है, भूल ही जाता
है। वह कहता
है, चार
साल से पहले
का मुझे कुछ
याद नहीं।
क्योंकि बाप
ने कहा बैठ, तो उसको
बैठना पड़ा।
मां ने कहा उठो,
तो उसको
उठना पड़ा। सब
बड़े से बड़े
शक्तिशाली थे,
उसकी अपनी
कोई सामर्थ्य
न थी, वह
बिलकुल हवा
में उड़ता हुआ
पता जैसा था, जो कोई कुछ
कह दे उसे
मानना पड़ता था,
सब पर
निर्भर था।
जरा—सी आंख का
इशारा और उसको
डर जाना पड़ेगा, उसके हाथ
में कुछ भी
सामर्थ्य न थी।
उसने इसको
बन्द कर दिया,
वह खयाल ही
छोड़ दिया कि
मैं कभी था, बात खत्म हो
गयी। वह चार
साल के पहले
की याद नहीं
करता।
मजे
की बात है—हिप्रोटाइज
करके आपको याद
करवायी जा
सकती है! चार
साल के पहले
की ही नहीं, मां
के पेट में भी
जब आप थे, तब
की भी स्मृति
बनती है। अगर
मां गिर पड़ी
हो आपकी, तो
बच्चे को उसके
पेट में
स्मृति बनती
है कि चोट
पहुंची, वह
भी याद करवायी
जा सकती है।
लेकिन
साधारणत: होश
में वह स्मृति
नहीं रहती।
तो
इस तिलक को
सुख के साथ
जोड्ने का
उपाय कारण पूर्वक
है। जब भी सुख
की कोई घटना
घटे,
तिलक कर दो।
सुख याद रहेगा,
साथ में
तिलक भी याद
रहेगा। और
धीरे— धीरे
सुख अगर तीसरी
आंख से
संयुक्त हो
जाए—यहां लॉ
ऑफ एसोसिएशन
को थोड़ा समझ
लें, पावलफ
ने बहुत से
प्रयोग किए।
इस
सदी में रूसी
वैज्ञानिक
पावलफ ने
एसोसिएशन के
उपर सर्वाधिक
काम किया है।
उसका कहना यह
है,
कोई भी चीज
जोड़ी जा सकती
है, सब जोड़
सहयोग के हैं।
जैसे कि एक
प्रयोग सबको
पता है, कि
पावलफ एक
कुत्ते को
खाना देगा, रोटी सामने
रखेगा तो लार
टपकेगी। तब वह
घण्टी बजाता
रहेगा, घण्टी
से लार टपकने
का कोई भी
संबंध नहीं है।
कितनी ही
घण्टी बजाइए,
लार कैसे टपकेगी?
लेकिन सटी
रखी, लार
टपकी, तब
घण्टी बजायी।
पन्द्रह
दिन वह रोटी
के साथ घण्टी
बजाएगा, सोलहवें
दिन रोटी हटा
ली, सिर्फ
घपटी बजायी—लार
टपकने लगी।
हुआ क्या
कुत्ते को? घण्टी से
लार का कोई भी
नैसर्गिक
संबंध नहीं है,
लेकिन अब
संबंध जुड़ गया।
रोटी के साथ
घण्टी एक हो
गयी, घण्टी
का बजना रोटी
की याद बन गयी।
रोटी की गाद, चक्र शुरू
हो गया उसके
मन में रोटी
का, लार
टपकनी शुरू हो
गयी। घण्टी
प्रतीक की तरह
आ गयी, वाह
रोटी का
सिम्बल हो गयी।
इसी कानून का
उपयोग इस तिलक
में किया गया
है।
आपके
सुख के साथ
तिलक को सदा
जोडा है। जब भी
सुख की कोई
घटना घटी .कि
तिलक और सुख
को एक किया।
धीरे— धीरे
तिलक और सुख
इतने एक हो
जाएं कि तिलक
को कभी भूला न
जा सके, वह
आपके स्मरण
में टिक जाए, बैठ जाए और
जब भी सुख की
याद आए, तब
आज्ञाचक्र की
याद अ। जब भी
सुख की याद आए,
वह
आज्ञाचक्र की
याद आए। और
सुख की हमें
बहुत याद आती
है। सुख. चाहे
हुआ हो या न
हुआ हो, उसकी
याद में तो हम
जीते हैं।
जितना होता है
उससे ज्यादा
बड़ा करके याद
करते रहते हैं
पीछे। धीरे—
धीरे उसको
इतना बड़ा कर
लेते हैं कि
जिसका कोई हिसाब
नहीं। सुख को
हम बड़ा करते रहते
हैं, मैग्रीफाई
करते रहते हैं।
दुख को छोटा
करते रहते है,
एक ही नियम
के अनुसार।
आपकी प्रेयसी
मिली थी, कितना
सुख आया था! आज
सोचेंगे तो
बहुत बड़ा मालूम
पड़ेगा। अभी
मिल जाए तो
पता चले! एकदम
छोटा हो जाए, सिकुड़ जाए।
और हो सकता है
फिर चौबीस
घण्टे बाद आप
मैग्रीफाई
करें, अहा
कितना आनन्द
है! वह पीछे
हमारा मन सुख
को बड़ा करता
जाता है।
असल
में इतना दुख
है जीवन में
कि अगर हम सुख
को बड़ा न कर
पाएं तो जीना
बहुत मुश्किल है।
इसको बड़ा करके, रस
ले—लेकर चलाते
हैं। इधर पीछे
बड़ा कर लेते
हैं, उधर
आगे आशा में
बड़ा कर लेते
हैं, और
चलते हैं।
तिलक के साथ
सुख को जोड्ने
का प्रयोजन है
कि जब सुख बड़ा
हो तो तिलक भी
बड़ा हो जाए।
इधर
सुख की याद आए
तो तिलक की भी
याद आए। याद
की इस चोट से
धीरे— धीरे
सुख
आज्ञाचक्र से
जुड़ जाए, जब भी
जीवन में सुख
आए तो
आज्ञाचक्र का
स्मरण आए। और
यह हो जाता है।
जब यह हो जाता
है तो समझिए
कि आपने सुख
का उपयोग किया,
तीसरी आंख
को जगाने के
लिए। सब सुख
की स्मृतियां
आशा के चक्र
से जुड़ गयीं।
हम सुख की
धारा का उपयोग
कर रहे हैं, उसको चोट
करने के लिए।
यह चोट जितने
मार्गों से पड़
सके, उतनी
उपयोगी है।
जिन
मुल्कों में तिलक
का उपयोग नहीं
हुआ वे ऐसे
मुल्क हैं
जिनको ' थर्ड
आई' का कोई
पता नहीं है, यह आपको
खयाल होना
चाहिए। जिन—जिन
मुल्कों को
तीसरी आंख का
थोड़ा भी
अनुमान हुआ
उन्होंने
तिलक का उपयोग
किया। जिन
मुल्कों को
कोई पता नहीं
है, वे
तिलक नहीं खोज
पाए। तिलक
खोजने का कोई
आधार नहीं था,
इसे समझ लें
थोड़ा। यह
आकस्मिक नहीं
है कि कोई
समाज उठे और
एकदम से टीका
लगाकर बैठ जाए,
वह पागल
नहीं है।
अकारण, माथे
के इस बीच के
बिन्दु पर ही
तिलक लगाने की
सूझ का कोई
कारण भी तो
नहीं है, यह
कहीं और भी तो
लगाया जा सकता
है। इसलिए
आकस्मिक नहीं
है, इसके
पीछे कारण हो
तो टिक सकता
है।
और
भी दो—तीन
बातें इस
संबंध में
कहूं। आपने
कभी खयाल न
किया होगा, जब
भी आप चिन्ता
में होते हैं
तब आपकी तीसरी
आंख पर जोर
पड़ता है, इसलिए
माथा पूरा का
पूरा सिकुड़ता
है। उसी जगह
जोर पड़ता है, जहां तिलक
है। बहुत
चिन्ता
करनेवाले, बहुत
विचार
करनेवाले लोग,
बहुत
मननशील लोग, अनिवार्य
रूप से माथे
पर बल डालकर
उस जगह की खबर
देते हैं।
और
जिन लोगों ने, जैसा
पीछे मैंने
कहा, पिछले
जन्मों में
कुछ भी तीसरी आंख
पर जोर किया
है, उनके
जन्म के साथ
ही उनके माथे
पर अगर आप हाथ
फेरे तो आपको
तिलक की
प्रतीति होगी।
उतना हिस्सा
थोड़ा—सा धंसा
हुआ होगा—थोड़ा
सा, किंचित,
ठीक तिलक
जैसा धंसा हुआ
होगा। दोनों
तरफ के हिस्से
थोड़े उभरे हुए
होंगे, ठीक
उस जगह पर
जहां पिछले
जन्मों में
मेहनत की गयी
है। और वह आप, अंगूठा
लगाकर, आंख
बन्द करके भी
पहचान सकते
हैं। वह जगह
आपको अलग
मालूम पड़
जाएगी। तिलक
हो या टीका—टीका
तिलक का ही
विशेष उपयोग
है। लेकिन
दोनों के पीछे
तीसरी आंख
छिपी हुई है।
हिप्रोटिस्ट
एक— छोटा—सा
प्रयोग करते
हैं। चारकाट
फ्रांस में एक
बहुत बड़ा
मनस्विद हुआ
है जिसने इस
बात पर बहुत
काम किए। आप
भी छोटा—सा
प्रयोग
करेंगे तो
आपको भी
चारकाट की बात
ठीक से समझ
में आ जाएगी।
अगर आप किसी
के सामने, उसके
माथे पर दोनों
आंखें गड़ाकर
देखें, तो
वह आदमी आपको
गड़ाने न देगा।
अगर आप किसी
के माथे पर
दोनों आंखें
गड़ाकर देखें
तो वह आदमी
जितना क्रुद्ध
होगा उतना और
किसी चीज से
नहीं होगा। पर
वह अशिष्ट
व्यवहार है, वह आप कर
नहीं पाएंगे।
सामने से तो
वह स्थान बहुत
निकट है, वह
सिर्फ डेढ़ इंच
के फासले पर
है।
अगर
आप किसी के
माथे पर, पीछे
से भी दृष्टि
रखें तो भी आप
हैरान हो जाएंगे।
रास्ते पर आप
चल रहे हैं, कोई आदमी
आपके आगे चल
रहा है, आप
ठीक जहां माथे
पर यह बिन्दु
है तिलक का, ठीक उसके आर—पार
अगर हम एक छेद
करें तो पीछे
जहां से छेद
निकलता हुआ
मालूम पड़े, अनुमान करके,
उस जगह
दोनों आंखें
गड़ा लें। और
आप कुछ ही सेकेंड
आंख गड़ा
पाएंगे कि वह
आदमी लौटकर
आपको देखेगा।
सिर्फ
होटल के बरे
भर नहीं
देखेंगे। उन
पर भर आप
प्रयोग मत
करना किसी
होटल में बैठकर।
उसका कारण है।
सिर्फ वे लोग
नहीं देखेंगे—जैसे
होटल के बेरे
का मैंने आपको
कहा,
वह जानकर
कहा ताकि आपको
खयाल में आ
जाए। होटल का
बेरा भर आपकी
तरफ नहीं
देखेगा, चाहे
आप उसके पीछे
माथे की तरफ आंखें
गड़ाए—नहीं देखेगा,
क्योंकि
पूरे वक्त वह
गाहकों से
बचने की कोशिश
में है। जैसे
ही उसे पता चल
जाए, कोई
उसमें उत्सुक
है, वह और
ज्यादा दूसरी
टेबलों के
आसपास चक्कर
लगाने लगेगा।
बस वह भर आपको
नहीं देखेगा
और कोई भी
देखेगा।
अगर
आप ठीक थोड़े
दिन अभ्यास
करें और उस
आदमी को सुझाव
दें तो सुझाव
भी वह आदमी
मानेगा। समझ
लें,
आप उस आदमी
के माथे पर आंख
गड़ाकर कुछ
सेकेंड बिना
पलक झंपे
देखें, वह
आदमी पीछे
लौटकर देखेगा।
अगर वह आदमी
लौटकर देखता
है तब आप उसको
आशा भी दे
सकते हैं। फिर
दोबारा उस
आदमी को आप
कहें कि बाएं
घूम जाओ और वह
आदमी बाएं
घूमेगा, और
बड़ी बेचैनी
अनुभव करेगा—हो
सकता है उसको
दाएं जाना हो।
यह
आप थोड़ा
प्रयोग कर के
देखेंगे तो
हैरान हो जाएंगे।
यह तो पीछे से
है जहां से कि
फासला बहुत
ज्यादा है, सामने
से तो बहुत
हैरानी के
परिणाम होते
हैं। जितने
लोग भी हल्के
किस्म का
शक्तिपात
करते रहते हैं
वह आपके इसी
चक्र के कारण
करते हैं और
कुछ कारण नहीं
है। कोई साधु
कोई संन्यासी
अगर शक्तिपात
के प्रयोग
करते रहते हैं
लोगों पर, तो
वह यही कि
आपको आंख बन्द
करके सामने
बिठा लिया है।
आप
समझ रहे हैं, वह
कुछ कर रहे
हैं। वह कुछ
नहीं कर रहे
हैं। वह सिर्फ
आपके ही माथे
के इस बिन्दु
पर दोनों आंखें
गड़ाकर बैठे
हैं, लेकिन
आप तो आंख
बन्द किए बैठे
हैं। और इस
बिन्दु पर जो
भी आपको सुझाव
दिया जाएगा, आपको फौरन
भ्रांति की
प्रतीति हो
जाएगी। अगर
कहा जाए, भीतर
प्रकाश ही
प्रकाश है तो
आपके भीतर
प्रकाश ही
प्रकाश हो
जाएगा। इधर से
आप गए कि वह
विदा हो जाएगा।
दो चार दिन
उसकी हल्की
झलक रह सकती
है, फिर
समाप्त हो
जाती है। वह
कोई शक्तिपात
वगैरह नहीं है,
वह सिर्फ
आपके
आज्ञाचक्र का
थोड़ा—सा उपयोग
है।
तृतीय
नेत्र की
अनूठी सम्पदा
है,
और इसके
अपरिसीम
उपयोग हैं।
उसका सिर्फ
सिम्बोलिक
रूप तिलक है। जब
यहां दक्षिण
में पहली दफा
ईसाई फकीर आए
तो कुछ ईसाई
फकीरों ने तो आकर
तिलक लगाना
शुरू कर दिया।
आज से एक हजार
साल पहले
वेटिकन की
अदालत में मुकदमे
की हालत आ गयी।
क्योंकि यहां
जिन ईसाई
फकीरों को
भेजा था उन्होंने
यहां आकर जनेऊ
पहन लिया, तिलक
भी लगाया और
खड़ाऊं भी डाल
ली, वह
हिन्दू
संन्यासी की
तरह रहने लगे।
वेटिकन की अदालत
तक मामला गया
कि यह तो बात
गलत है। जिन
फकीरों ने यह
किया था, उन्होंने
उत्तर दिए।
उन्होंने कहा,
यह गलत नहीं
है।
तिलक
लगाने से हम
हिन्दू नहीं
हो रहे हैं।
तिलक लगाने से
तो सिर्फ हमें
एक रहस्य का पता
चला है, जिसका
आपको पता नहीं
है। खड़ाऊं को
पहनकर हम
हिन्दू नहीं
हो गए। यह तो
हुये पहली दफा
हिन्दूओं की
समझ का पता चला
है कि ध्यान
करते वक्त अगर
लकड़ी पैर के
नीचे हो तो, बिना लकड़ी
के जो काम
महीनों में
होगा, वह
लकड़ी के साथ
दिनों में हो
सकता है। हम
हिन्दू नहीं
हो गए हैं, लेकिन
अगर हिन्दू
कुछ जानते हैं
तो हम नासमझ होगे
कि उसका उपयोग
न करें। और
निशित ही
हिन्दू कुछ
जानते हैं।
कोई
भी कौम जब बीस
हजार साल से
निरत्तर धर्म
के संबंध में
खोज कर रही हो
और कुछ भी न
जानती हो, तो
यह चमत्कार की
बात होगी! बीस
हजार साल
जिसके मनस्वी
पूरे जीवन को
लगाकर एक ही
दिशा में काम
करते रहे हैं,
जिसके सारे
बुद्धिमान
लोग हजार—हजार
साल तक एक ही
दिशा में लगे
रहे, एक ही
जिनकी
आकांक्षा रही
हो ' कि किस
भाँति संसार
में जो छिपा
हुआ सत्य है, उसका पता चल
जाए! वह जो
अदृश्य है, वह दिखायी
पड़ जाए, वह
जो अरूप है
उससे पहचान हो
जाए, वह जो
निराकार है
उसमें प्रवेश
हो जाए! बीस हजार
साल तक जिनकी
सारी मेधा ने,
सारी
प्रतिभा ने एक
ही चेष्टा की
हो, उनको
कुछ भी पता न
हो, यही
बात आश्रर्य
की है! कुछ पता
हो यह बात
बहुत आश्रर्य
की नहीं है।
क्योंकि यह
पता होना
बिलकुल
स्वाभाविक है।
लेकिन पिछले
दो सौ साल में
एक घटना घटी, जिससे हमको
परेशानी हुई।
पिछले
दो सौ साल में
एक घटना घटी।
वह घटना हमारे
खयाल में न आए
तो वह परेशानी
जारी रहेगी।
इस देश के ऊपर
सैकड़ों बार
हमले हुए हैं
लेकिन कोई हमलावर
ठीक जगह पर
हमला नहीं कर
पाया। किसी ने
धन लूट लिया, किसी
ने जमीन पर
कब्जा कर लिया,
किसी ने
मकान और महल
ले लिए। लेकिन
ठीक जो हमारा
अन्तःस्थल था,
उस पर कोई
हमला नहीं कर
पाया। उसकी
तरफ किसी का
ध्यान ही नहीं
गया।
पहली
बार पश्रिमी
सभ्यता ने इस
मुल्क के अन्तःस्थल
पर चोट करनी
शुरू की। और
वह चोट करने
का जो सुगमतम
उपाय था वह यह
था कि आपके
पूरे इतिहास
को आपसे
विच्छिन्न कर
दिया जाए।
आपके इतिहास
में और आपके
बीच में एक
खाई पैदा हो
जाए। बस फिर
आप बिना जड़ के
हो जाएंगे, अपरूटेड
हो जाएंगे।
फिर आपकी कोई
ताकत न .रह
जाएगी। अगर आज
पश्चिम की
सभ्यता को
नष्ट करना हो
तो सारे पश्चिम
के मकान गिराने
की जरूरत नहीं
है, और न
सिनेमाघर
गिराने की
जरूरत है, और
न पश्चिम की
होटलें
गिराने की
जरूरत है।
सिर्फ
पश्चिम की
पांच युनिवर्सिटीज
को नष्ट कर
दिया जाए, पश्चिम
का कल्चर नष्ट
हो जाएगा। पश्चिम
की जो
संस्कृति है,
वह सिनेमा 'बर में, होटल
में और कोई
नाइट क्लब में
नहीं है। वे
चलते रहें, इनसे कुछ
लेना—देना
नहीं है।
सिर्फ पश्विम
की पांच
केन्द्रीय
बड़ी यूनिवर्सिटियां
नष्ट कर दी
जाएं पश्चिम
एकदम खो जाएगा।
दुनिया में
असली जो आधार
होता है
संस्कृति का,
वह उसके
ज्ञान के
सूत्र होते
हैं। उसकी
जड़ें होती हैं
उन ज्ञान के
सूत्रों की शृंखला
में। ज्यादा
देर की जरूरत
नहीं है, सिर्फ
दो पीढ़ी को
इतिहास से
वंचित कर दिया
जाए तो आगे का
मामला टूट
जाएगा।
आदमी
और जानवर में
यही फर्क हैं।
जानवर कोई
विकास नहीं कर
पाते। क्या
बात है? कुल
इतनी सी बात
है कि जानवरों
के पास कोई
स्कूल नहीं है।
जानवर के पास
कोई उपाय नहीं
है कि अपनी
नयी पीढ़ी को
पुरानी पीढ़ी
का ज्ञान दे सके,
बस और कोई
बात नहीं है।
जानवर का
बच्चा जब पैदा
होता है तो उसको
वहीं से
जिन्दगी शुरू
करनी पड़ती है
जहां से उसके
बाप ने शुरू
की थी। जब
उसका बच्चा
पैदा होगा, वह भी वहीं
से शुरू करेगा
जहां से उसके
बाप ने शुरू
की थी। आदमी
शिक्षा के
माध्यम से
अपने बच्चे को
वहां से
जिन्दगी शुरू
करवा देता है
जहां, खुद
समाप्त करता
है। इसलिए
विकास होता है।
सारा
विकास पुरानी
पीढ़ी के
द्वारा नयी पीढ़ी
को अपना संचित
अनुभव देने
में निर्भर है।
सोचें, अगर
बीस साल के
लिए बूढ़े तय
कर लें कि हम
बच्चों को कुछ
न बताएंगे तो
वह, बीस
साल का नुकसान
नहीं होगा, बीस हजार
साल में जो
इकट्ठा हुआ है,
उसका
नुकसान हो
जाएगा। अगर
बीस साल के
लिए बूढे तय
कर लें, पिछली
पीढ़ी तय कर ले
कि नयी पीढ़ी
को कुछ भी नहीं
बताना है तो
आप यह मत
सोचना कि बीस
साल का ही नुकसान
होगा और उसको
बीस साल में
पूरा किया जा सकेगा।
नहीं, बीस
साल में जो
नुकसान होगा
उसको पूरा
करने में बीस
हजार साल
लगेंगे।
क्योंकि गैप
खड़ा हो गया है,
पुरानी
पीढ़ियों का
सबका सब डूब
जाएगा।
इन
दो सौ साल में
भारत के लिए
भारी गैप पैदा
हुआ। जिसमें
उसकी जो भी
जानकारी थी
उससे उसके
सारे संबंध
टूट गए। और
उसके सारे
संबंध एक नयी
जानकारी से
जोड़े गए जिसका
पुरानी
जानकारी से
कोई संबंध
नहीं था।
सिर्फ हम
सोचते ही हैं
आज,
कि हम बहुत
पुरानी कौम
हैं।
सच
बात यह है, हम
दो सौ साल से
ज्यादा
पुरानी कौम
नहीं हैं, अब
हमसे अंग्रेज
ज्यादा
पुराने हैं।
अब हमारे पास
जो जानकारी है
वह कचरा है, उच्छिष्ट है।
वह भी, जो पश्चिम
हमको दे दे वह
हमारी
जानकारी है।
दो सौ साल के
पहले हम जो भी
जानते थे वह
सब का सब
एकबारगी खो
गया। और जब
किसी चीज के
सूत्र खो जाएं
तो छूता मालूम
पड़ने लगती है।
अब अगर आप ऐसे
टीका लगाकर
निकल जाएं तो
शर्म लगती है।
कोई भी पूछ ले
कि क्या किया,
ये कैसे
टीका लगाए हो?
तो कहेंगे
ऐसे ही, कुछ
नहीं, पिताजी
नहीं माने, या क्या
किया जाए फिर?
किसी तरह
चलना पड़ता है!
आज आनन्द और
प्रफुल्लता
से टीका लगाना
बहुत मुश्किल
है। हां, बुद्धि
न हो तो लगा
सकते है, फिर
कोई डर ही
नहीं है। पर
उसका भी कारण
यह नहीं है कि
आपको पता है
इसलिए लगा रहे
हैं।
ज्ञान
के सूत्र जब
गिर जाते हैं
और उनका ऊपरी
ढांचा रह जाता
है तब ढोना
बडा कठिन हो
जाता है। और
तब एक
दुर्घटना
घटती है कि जो
सबसे कम बुद्धिमान
होते हैं वह
उसको ढोते हैं
और जो बुद्धिमान
होते हैं, वह
दूर खड़े रहते
हैं। यह
दुर्घटना
घटती है! जब कि बुद्धिमान
ही जब तक किसी
चीज को लेकर
चलता है, तभी
तक वह सार्थक
रहती है। और
यह बड़े मजे की
बात है कि जब
भी दुर्घटना
घटती है और
ज्ञान के
सूत्र खोते
हैं तो बुद्धिमान
सबसे पहले
छटकर अलग हो
जाते है, क्योंकि
वह बुद्ध बनने
को राजी नहीं
हैं। हां, जो
बुद्ध है वह
जारी रखता है,
मगर वह उस
ज्ञान को बचा
नहीं सकता।
उसका कोई उपाय
नहीं है। वह
कुछ दिन
खींचेगा और
समाप्त हो
जाएगा।
तो
कई बार ऐसी
घटना घटती है
कि बड़ी कीमत
की चीजें, जो
नासमझ हैं, वह बचाए
रखते हैं। और
जो समझदार हैं,
पहले
छोड्कर खड़े हो
जाते है।
जिंदगी में
बड़े दांव—पेंच
हैं। अगर ठीक
से हमें भारत
के यह दो सौ
साल का जो अंतराल
पड़ गया है वह
पूरा करना हो,
तो भारत में
आज जो—जो काम
बुद्धिहीन कर
रहे हैं उसको
वापस सोचने की
जरूरत है—एक—एक
बिंदु को।
क्योंकि वह
अकारण नहीं कर
रहे हैं। उनके
साथ बीस हजार
साल की लंबी
घटना है। वह
नहीं बता सकते
हैं कि क्यों
कर रहे हैं? इसलिए उन पर
नाराज होने की
कोई जरूरत नहीं
है। किसी दिन
हमको उन्हें
धन्यवाद भी
देना पड़ सकता
है कि कम से कम
तुमने प्रतीक
तो बचाया था, जिसकी पुन:
खोज की जा
सकती है।
तो
आज भारत में
जो बिलकुल
ग्रामीण और
नासमझ, जिसकी
कुछ समझ नहीं
है, कोई
ज्ञान नहीं है,
जिसको हम छू
कह सकते हैं, वह जो—जो कर
रहा हो उसको फिर
से उठाकर दो
सौ साल के
पहले के
सूत्रों से जोड्ने
की, और बीस
हजार साल की
समझ के साथ
पुनरुज्जीवित
करने की जरूरत
है। और तब आप
चकित हो जाएंगे।
तब आप बिलकुल
हैरान हो
जाएंगे कि हम
किस बड़े आत्मघात
में लगे हुए
हैं!
'गहरे
पानी पैठ'.
अंतरंग
चर्चा ,
बम्बई
दिनांक 12
जून 1971
तिलक और तृतीय नेत्र का संबंध,उसका रहस्य,उसकी विधि,उसका गुप्त सूत्र और .......अनेकानेक रहस्य का उद्गाटन हुआ जो आहलादकारी प्रतीत हुआ | 🌹❤️😂
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