बचपन से उपद्रव—(अध्याय—दो)
पीछे जो कुछ
होना था उसे
देखते हुए, किसी को
यह जानकर
आश्वर्य न
होगा कि भगवान
'श्री
रजनीश बचपन से
ही उपद्रवी
कहलाए जाते थे।
हम अतीत के
सिंहावलोकन
में न जाएं तो
भी इतना तो
कहा ही जा
सकता है कि ये
बड़े नटखट बालक
थे, और
इनके मशहूर
विनोदप्रिय
स्वभाव के
साथ-साथ इनमें
बड़ों के प्रति
अनावश्यक व
अकारण आदर- भावना
की महती कमी
तथा सही-गलत, उचित-अनुइचत
का दूसरों से
निदेंश लेने
के बजाय हर चीज
का अन्वेषण
स्वयं करने की
उत्कट
कटिबद्धता ने
इन्हें एक
डरावनी
निष्पत्ति
बना दिया था, खासकर उन
लोगों के लिए
जौ इन्हें
सामान्य करना
अथवा
नियंत्रित
करना चाहते थे।
1931 के
बीतते-बीतते,
मध्य भारत
के एक छोटे से
गांव में, एक
जैन व्यापारी
परिवार में
इनका जन्म हुआ।
ये तेरह
भाई-बहनों में
सबसे बड़े थे।
इनका जन्म
ननिहाल में
हुआ-और लगता
है यही पहली
और अंतिम घटना
थी जो
इन्होंने ‘‘सामान्य’‘ रूप से घटने
दी। इनके नाना
और नानी, जो
एक बड़े मकान
में रहते थे, पहली ही नजर
में इन पर
न्यौछावर हो
गये। अगले सात
वर्षो तक ये
उनके साथ ही
रहते रहे।
भगवान
श्री इस बात
को स्वीकार
करते है कि
विकास-काल के
दौरान
नाना-नानी के
लाड़-प्यार ने
इन्हें
बिगाड़ा-स्वेच्छा
से कुछ भी
करने की इतनी
स्वतंत्रता
मिली कि इनका
स्वभाव
अनिर्बंध, अनियंत्रित
और
अनुशासनहीन
हुआ, जो
पीछे गांव के
बड़े-बूढ़ों और
पड़ोसियों की तमाम
शिकायतों का
कारण बना।
लेकिन इनकी इस
तरह की परवरिश
के (या कहें, उसके अभाव
के) साथ ही साथ,
ये अपने
भीतर एक
जन्मजात
विद्रोही की
चिनगारी लेकर
आए थे-यह
सिर्फ एक
दृढ़-निश्रयी
किशोर नहीं था,
जो कि सभी
आदेशों को ताक
पर रख देता था,
इस किशोर ने
तो मानों समाज
के सभी
स्थापित
नियमों और
स्वीकृत आचरण
के ढांचों को
चुनौती देने
का बीड़ा उठा
लिया था। और
यह हर स्वीकृत
विश्वास तथा
धारणा पर
संदेह किये
चला जाता था।
इनके ये
प्रारंभिक
प्रयोग
तुलनात्मक
रूप से निरीह
थे, लेकिन
उनमें भावी
घटनाओं की
पगध्वनि थी।
उदाहरण
के लिए, इनका एक पड़ोसी
अपनी रोज
सुबह-शाम की
तीन-तीन घंटे
लंबी जोर-शोर
से चलने वाली
पूजा व
भजन-कीर्तन से
सबको अशुविधा
पहुंचाता था।
उसका नाम
बालाजी था।
इन्होंने
बालाजी से
पूछा, 'तुम
भगवान से क्या
मांगते हो? मेरे दादा
तो कहते हैं
कि तुम डरपोक हो
इसलिए प्रार्थना
करते रहते हो।
' स्वभावत:
बालाजी ने जोर
दार इन्कार किया
और इस किशोर ने
उनकी परीक्षा
लेने का तय किया।
अगले दिन इन्होंने
किसी तरह अपने
चार पहलवान
मित्रों को
राजी कर लिया
कि बालाजी को मज़ा
चखाया जाए।
(अखाड़े में
जब-तब जाकर
कसरत करने का
शौक खुद भी रखते
थे)। बालाजी
अपनी बगिया में
एक खाट बिछा कर
सोते थे। पास ही
एक कुआं था।
आधी रात को उन चार
पहलवानो ने, इस लड़के के इशारे
पर, सोते
बालाजी की खाट
उठा कर कुए पर रख
दी। फिर सब लोग
झाडियो के पीछे
छिप गए और उनको
जगाने के लिए कुछ
पत्थर फेके।
जब बालाजी की नींद
खुली और उन्होने
देखा कि वे कहा
है तो उनके
मुंह से ऐसी
सर्वशक्तिमान
चीख निकली कि
सारा
अड़ोस-पड़ोस जग
गया। चारों
तरफ इकट्ठी
भीड़ के बीच से किशोर
रजनीश ने पूछा-'मामला क्या है?
तुमने अपने
भगवान को क्यों
नहीं पुकारा?
तुम हर रोज
छ: घंटे
अभ्यास करते हो,
लेकिन
भगवान को तो
भूल गए, चीख
ही याद आई। '
इनके
नाना, जो
उस गांव के एक
प्रभावशाली
एवं सम्मानित
व्यक्ति थे, खुद भी कुछ शरारती
ही थे और लगता है
कि उन्हें भी लड़के
की इस आदत में मजा
आता था जब वह सीधे-सादे
किंतु
अनुत्तरणीय
प्रश्र पूछकर
गांव की धार्मिक
सभाओं को भंग
कर देता, अथवा
आगंतुक
साधु-महात्माओं
को उनके
आध्यात्मिक
दावे सिद्ध
करने के लिए ललकार
देता। एक जैन साधु
से, जो स्वानुभव
के बिना कुछ
भी न मानने की शिक्षा
दे रहे थे, उसने
पूछा कि उन्हें
शाश्वत नर्क का
कैसे पता है? क्योंकि यदि
वह शाश्वत है तो
ऐसा संभव ही नहीं
कि वे वहां गये
हों और फिर बताने
के लिए लौट सकें।
एक
अन्य अवसर पर उसने
पूछा, 'इस
सुंदर विश्व को
किसने बनाया?'
जैन गण ईश्वर
में विश्वास
नहीं करते, सो जैन मुनि
ने कहा, 'किसी
ने नहीं बनाया।
'रजनीश ने
कहा, 'यदि
किसी ने नहीं
बनाया तो यह
अस्तित्व में कैसे
आया?.'
इस तरह
के सवाल आम
तौर पर उस सभा
को समाप्त कर
देते, और
उसके साथ उस
साधु की प्रतिष्ठा
को भी। उनमें से
शायद ही कोई दुबारा
लौटा। इनके नाना-नानी
को इन पर नाज़
था, और गांव
के लोग इन से
सावधान रहने
लगे थे। रजनीश
ने स्वयं कहां
है, ''जहां तक
मेरी स्मृति
जाती है, मै
सिर्फ एक ही
खेल पसंद करता
था-तर्क करना।
इसलिए बहुत कम
बुजुर्ग मुझे
बरदाश्त कर पाते
थे। मुझे समझने
का तो प्रश्र ही
नहीं उठता।’’
सात साल
तक ये ऐसे ही ''अनिर्बंध''
और
अशिक्षित बने रहे।
उसी वर्ष इनके
नाना का देहान्त
हुआ। इन प्रारभिक
वर्षो की चर्चा
इन्होंने
अनेक बार और बडे
प्यार से की है।
वे कहते हैं ''शुरू से ही मेरे
साथ कुछ गडबड हो
गई, और उसका
कारण था कि प्रथम
सात साल मै
अपने नाना-नानी
के पास रहा।
उन दो बूढ़े
व्यक्तियों
का मुझमें कोई
निहितस्वार्थ
नहीं था-वे सिर्फ
मुझे प्रेम करते
थे। मै केवल
एक मेहमान था...
उनका मेरे
प्रति
व्यवहार एक ऐसी
मनोभूमि से
आता था, जो माता-पिता
में संभव
नहीं..
.उन्होंने
मुझे मुझ-सा
होने की
संपूर्ण
स्वतंत्रता
दी. .किसी
प्रकार मैं
सभ्यता की
पकड़ के बाहर
ही रह गया. .मैं
सचमुच एक पका
व्यक्तिवादी
बन गया, बहुत
सख्त.. .एक
अनोखे संयोग
से मै अपने
माता-पिता से
बच गया। और जब तक
मै उनके पास
पहुंचा तब तक
करीब-करीब एक
स्वतंत्र
व्यक्ति बन
चुका था। मेरे
पंख निकल आए
थे। मुझे पता
था कि मुझे
निर्मित करने
के लिए किसी
की सहायता की
जरूरत नहीं है।’’
लेकिन
इनको झेलने के
लिए बाकी
लोगों को
निश्रित ही
सहायता की
जरूरत पड़ती थी।
नाना
के देहान्त के
बाद वे और
उनकी नानी
पिता के गांव
गाडरवारा
रहने आ गए।
वहां पहली बार
इन्हें
पाठशाला भेजा
गया-जैसा कि
वे कहते हैं, ''कैदखाने
में घसीटा गया।’’
इनके
नाना-नानी
द्वारा दी गई
स्वतंत्रता
के कारण इनके
भीतर जो
आत्मविश्वास
तथा प्रभुत्व की
मशाल जल उठी
थी, उसके
फलस्वरूप
पाठशाला में
इन्हें एक
स्पष्टवादी
विद्रोही
कहलाते देर न
लगी।
इन्होंने
शिक्षा-संहिता
की एक प्रति
कहीं से प्राप्त
कर ली, और
कोई शिक्षक यदि
इन्हें किसी
ऐसे अपराध के लिए
दण्डित करता
जो कि साफ-साफ
उस किताब में
निर्दिष्ट न
हो तो ये बिना
किसी झिझक के
उस शिक्षक को
प्रधानाध्यापक
के पास ले
जाते। ये
पूछते, 'इसमें
ऐसा कहां लिखा
है कि इस उदास,
मुर्दा
ब्रैकबोर्ड
की तरफ देखने
के बजाय मैं खिड़की
के बाहर बिखरे
हुए
प्राकृतिक
सौंदर्य को
नहीं निहार
सकता?' शिक्षक
पर प्रश्र खड़े
करने, उल्टे
जवाब देने, या और किसी
तरह की गड़बड़ी
पैदा करने के
सिलसिले में दण्डस्वरूप
इनके अधिक समय
का कक्षा के
बाहर बीतना, भीतर कम, इस
बात की गवाही
है कि ये हर वह
बात करने के
लिए कृतसंकल्प
थे जिसकी
आज्ञा न थी।
जो भी
मान्यताएं
थीं, उन
पर ये संदेह
करते।
इन्होंने
अपने शिक्षक
से कहा, 'एक
छोटा बच्चा भी
यह देख सकता
है कि सीधी
रेखा की यूक्लिड
की परिभाषा कि
उसकी लंबाई तो
होती है, चौड़ाई
नहीं, मिथ्या
है। आप ही ऐसी
रेखा खींचकर
दिखा दें
जिसकी लंबाई तो
हो लेकिन
चौड़ाई न हो; या ऐसा
बिंदु जिसकी न
लंबाई है, न
चौड़ाई है। ' जवाब में
इनके शिक्षक
ने इन्हें
कक्षा से बाहर
निकाल दिया और
कहा कि जाकर खुद
यूक्लिड से यह
मामला सुलझाओ।
कई
निरर्थक
नियमों के
खिलाफ विरोध
प्रगट करने के
लिए ये
विद्यार्थियों
का नेतृत्व
करते। जैसे, गांधी
टोपी पहनने की
अनिवार्यता
(यह नियम हटा लिया
गया), विद्यार्थियों
के साथ कठोर
अनुशासन (कूरता
बरतने के
खिलाफ
इन्होंने पुलिस
में शिकायतें
दर्ज करायीं)।
पाठशाला के
अपने पहले दिन
ही इन्होंने
एक शिक्षक को
बरखास्त करवा
दिया था जो
छोटे बच्चों की
गालियां के
बीच पेन्सिल
डालकर उन्हें
दबाता था
(स्कूल खत्म
होते ही सात
वर्षीय रजनीश
पहले
प्रधानाध्यापक,
बाद में पुलिस
कमिश्रर, और
अंततः नगर
निगम के
अध्यक्ष तथा
उपाध्यक्ष के
पास गये थे)।
यह
केवल इनके
कृत्यों का
नहीं, वरन
इनके
दृष्टिकोण का
कमाल था कि
जिसका भी इनसे
पाला पड़ता, वह असमंजस
में पड़ जाता।
उदाहरण के लिए,
ये किसी भी
सजा को सजा की
तरह नहीं
बल्कि पुरस्कार
की तरह लेते।
यदि इन्हें
दौड़कर स्कूल
के सात चक्कर
लगाने के लिए
कहा जाता तो
ये शिक्षक को
धन्यवाद देते और
सात की जगह दस
चक्कर लगा आते,
यह कहकर कि
आज सुबह
व्यायाम नहीं
कर पाया था, यह तो बड़ा
अच्छा अवसर
मिल गया। यदि
सजा के तौर पर
इन्हें कक्षा
के बाहर खड़े होने
को कहा जाता
तो ये जोर-जोर
से बाहर ताजी
और शुद्ध हवा
में प्रकृति
के साथ खड़े
होने के गुणों
का बखान करने
लगते, और
कि कक्षा
कितनी गंदी और
घुटनकारी है।
बौखलाहट में
जब शिक्षक
इन्हें
शारीरिक-दण्ड देने
की धमकी देते
तो ये तुरंत
पिता के एक
परिचित वकील
के साथ पुलिस
में जाने की
धमकी देते।
एक
शिक्षक ने
आर्थिक दण्ड
देने की कोशिश
की और अर्थ-दण्ड-रजिस्टर
में इनका नाम
लिखा। रजनीश
ने तुरंत जाकर
उस शिक्षक के
नाम दुगुना
दण्ड़ लिख
दिया। जब
प्रधानाध्यापक
ने इनसे कहा
कि क्या पागल
हो गए हो, तो इन्होंने
जवाब दिया कि
नियमों में
ऐसा तो कहीं
लिखा नहीं है
कि जब शिक्षक
गलत आचरण करे
तो
विद्यार्थी
उसे दण्डित
नहीं कर सकता।
शिक्षक ने गलत
आचरण किया है,
पिता को दण्ड
देकर, क्योंकि
पैसे तो
उन्हें ही
भरने पड़ेंगे,
पुत्र को
नहीं जिसने कि
गलती की है। 'मेरे पिता
को दण्ड
क्यों मिले? उनका इस
मामले से कोई
सरोकार ही
नहीं। जब तक
ये शिक्षक
अपना दण्ड
नहीं भरते तब
तक मैं भी
अपना दण्ड
नहीं भरने
वाला। ' दोनों
दण्ड आज तक
नहीं भरे गये।
ये
पाठशाला से
अक्सर
गैरहाजिर
रहते और इसके
लिए पिता के
नकली पत्र भी
बना लाते।
इनके
शिक्षकों को
इनकी
गैरहाजिरी से
इतनी राहत मिलती
कि वे मामले
की और खोजबीन
करने की झंझट
में न पड़ते।
जीवन की हर
बात का स्वयं
अन्वेषण करने
की प्यास में
इन्होंने शहर
और उसके आसपास
का सब कुछ छान
मारा।
फलस्वरूप
कुश्तीबाजो, सपेरों, सर्कस के
कलाकारों, जादूगरों,
पियक्क्कों,
संगीतज्ञों
और सभी किस्म
के बंजारों के
साथ इनके न
जाने कितने
घंटे बीतते।
इनके मन में
मृत्यु का
इतना आकर्षण
था कि एक समय
था जब ये गांव
में होनेवाली
हर मौत के पास
उपस्थित रहते,
भले ये उस
आदमी को जानते
हों, न
जानते हों
(इनके
परिवारवालों
के लिए यह आदत बड़ी
लज्जा का कारण
बनती क्योंकि
वे लोग मुख्यत:
जैन-समाज के
साथ ही
संबंधित होते
थे)। ये मेलों
में जाते और
जैन, हिंदू
मुसलमान, सभी
धर्मों के
उत्सवों में
शरीक होते।
ये
निरंतर खोज
करते रहते, प्रयोग
करते रहते-खास
कर स्वयं पर।
निडर बच्चों
का एक छोटा सा
दल, जो
इनका अनुसरण
करने की कोशिश
करता था, बहुधा
अपने को गहरे
पानी में पड़
गया पाता-
अक्षरश:।
बरसात
में बाढ़ के
पानी से
उफनती-फुंकारती
शकर नदी में
ये उसके ऊपर
बने बहुत ऊंचे
रेलवे।। पुल
से छलांग लगा
कर अपने
साथियों का
नेतृत्व करते
(एक साथी बहकर
डूब भी गया उस तैराकी
में)। भंवर के
ठीक मध्य में
कूद कर उसके
द्वारा निगल
लिए जाने के
प्रयोग भी
किये
इन्होंने और पाया
कि जब ये भंवर
से लड़ने के
बजाय उसमें
स्वयं को छोड़
देते तो नीचे
गहराई में
जाकर बड़ी सरलता
से उसके वेग
से बाहर आ
जाते थे। इनके
साथी इनके
पीछे-पीछे रात
को नदी के ठीक
ऊपर खड़ी
पर्वत-चट्टानों
की संकरी
कगारों को पार
करते- ‘‘रौंगटे
खड़े कर देने
वाला अनुभव’‘, पीछे उनमें
से एक मित्र
ने बताया।
उन
शिक्षकों तथा
नगर के अन्य
लोगों के
मानका के उपाय
किये जाते
जिन्हें ये
समझते कि वे
दिखावटी, पवित्र बन
रहे तथा
पाखण्डी है।
एक शिक्षक जो
अपने भाषण में
साहस और
निर्भयता के
गुणों पर बढ़-चढ़
कर बोले और उन
गुणों की बड़ी
सूक्ष्मताओं
में गये, शीघ्र
ही कसौटी पर
थे। रजनीश, जिन्होंने
अपनी बहुतेरी
गैरहाजिरियो
के दौरान एक
समय एक
मुसलमान
सपेरे को सांप
पक्कने की कला
सिखाने के लिए
राजी कर लिए
थे, एक बडा
सांप थैले में
बंद कर लाए।
जब रजनीश ने
सांप को कक्षा
में निकाला तो
उनकी खुशी का
ठिकाना न रहा
यह देखकर कि
वे शिक्षक
भागकर मेज पर
खड़े थे और मदद
के लिए
चीख-पुकार मचा
रहे थे। लड़के
ने फिकरा कसा- 'साहस का
महान
प्रदर्शन! '
एक और
अवसर पर रजनीश
एक बहुत घमंडी
तथा धार्मिक
किस्म के
शिक्षक को, जो कक्षा
में इनके किसी
प्रश्र का
उत्तर कभी
नहीं देते थे,
रास्ते पर
ले आए। वे
शिक्षक गंजे
थे और रजनीश
ने उनका
नामकरण ‘‘मुंडे’‘
कर दिया।
शिक्षक ने इस
नाम को जरा भी
तूल न देने का
दिखावा किया।
रजनीश ने बीस
रुपये इकट्ठे
किये (उन
दिनों के लिए
एक बड़ी रकम, खासकर
थोड़ी-सी
तनख्वाह के
शिक्षक के
लिए) और
छोटेलाल
मुंडे के नाम
एक मनीआर्डर भेज
दिया। पैसे
लेने से पहले
मनीआर्डर पर
हस्ताक्षर करने
जरूरी थे, और
मनीआर्डर
कक्षा में ले
आने के लिए
रजनीश ने
डाकिये को
पहले से ही
पटा रखा था।
जब उसने कक्षा
में आकर
मनीआर्डर पर
उनका नाम पढ़ा
तो कुछ क्षणों
के लिए शिक्षक
महोदय एक
पुण्यात्मा
के गुस्से में
थरथरा उठे।
फिर लोभ ने
क्रोध पर विजय
पा ली और ‘‘मुंडे’‘
ने पूरी
कक्षा के
सामने उस नाम
से हस्ताक्षर
किया। यह
असलियत की एक
और विजय थी, पाखष्ठ के
प्रति एक और
पाठ था।
एक और
संकीर्णकुइद्ध
तथा स्वयं को
बड़ा ऊंचा
मानने वाले ब्राह्मण
शिक्षक का नाम
रजनीश ने रखा : '' भोलेनाथ’‘। भोले यानी
बुद्ध! शीघ्र
ही यह नाम न
केवल विद्यार्थियों
बल्कि गांव के
सभी लोगों की
जबान पर चढ़
गया। उन सज्जन
की दुबली-पतली
व अविराम
डाट-डपट करती
रहने वाली पली
रजनीश को यह
नाम कभी न
लेने की कड़ी
चेतावनी देती
रहती। लेकिन
पति की
शवयात्रा के
समय जब वही
अपने हाथ पति
के गले में
डालकर चिल्ला
पड़ी - ‘‘हाय
मेरे भोले
नाथ! '' तो
परिस्थिति के
इस मजाक पर
भीड़ में खड़े
रजनीश ठहाका
मारकर हंस पड़े
और सारे लोगों
को चौका दिया।
इनके
पिता के पास
शिकायतों का
तांता लगा
रहता, जिन्हें
वे बड़े बेमन
से सुनते।
उन्हें बहुत पहले
ही यह पता चल
गया था कि
बेटे के जीवन
में दखल न
देना ही उनके
लिए बेहतर है।
नाना की
मृत्यु के बाद
जब रजनीश
नए-नए उनके पास
रहने आए, तब
उन्होंने दो
बार कोशिश की
थी। इस बच्चे
के बाल लंबे
और बेतरतीब
थे-इन्होंने
नाना-नानी को
कभी अपने बाल
काटने नहीं
दिये-और यह एक
अजीब ढंग की
पंजाबी पोशाक
पहनता था जो
भ्रमण पर आई
एक गायक मंडली
से इसने नकल
कर ली थी, क्योंकि
इसे बेहद पसंद
आ गयी थी।
अपने लंबे
बालों और
अजीब-सी पोशाक
के कारण, जो
इनके पिता के
इलाके में
औरतों द्वारा
पहनी जाने
वाली पोशाक के
समान थी, लोगों
को ये लड़की
लगते थे। इससे
इनको कोई फर्क
नहीं पड़ता था,
लेकिन इनके
पिता को बड़ा
संकोच होता, खासकर जब
दुकान से
गुजरकर रजनीश
घर में जा रहे
होते और
ग्राहक पूछ
बैठते. 'यह
किसकी लड़की है?
' लेकिन
बार-बार कहने
पर भी जब
रजनीश ने
बदलना न चाहा
तो अंततः परेशान
और नाराज पिता
ने खुद जाकर
इनके बाल कटवा
दिये। तत्क्षण
रजनीश एक
अफीमची नाई के
पास गए, जिससे
इन्होंने
दोस्ती बना
रखी थी (इनके
सभी मित्र
विचित्र थे)
और अपने सिर
का मुंडन करने
के लिए उसे
फुसला लिया।
नाई ने बड़े
बेमन से यह
काम किया, क्योंकि
किसी लड़के के सिर
के सारे बाल
पिता के
देहान्त पर ही
निकाले जाते
थे।
सात
साल का यह बालक
अपना मुंडा
हुआ सिर लेकर
पूरे गांव में
शान से घूमता
रहा और अपने
पिता की शर्मिंदगी
का मजा लेता
रहा, क्योंकि
दुकान में
पूछताछ करने
और सांत्वना देने
आने वालों की
बाढ़ सी आ गयी।
पीछे, जब परिवार
के कुछ अन्य
लोगों ने इनके
पंजाबी कपड़े
छिपा दिये
ताकि इन्हें
पारंपरिक ढंग
के कपड़े पहनने
को मजबूर किया
जा सके तो ये
सीधे घर से
बाहर और नगन
ही दुकान में
जाकर खड़े हो
गये। इनके
कपडे तुरंत
लौटा दिये गए।
अपने
पर्दाफाश
करने के
अभियान से इन्होंने
परिवार को भी
नहीं बख्शा।
एक बार इनके
घर एक आदमी
आया, जिससे
इनके पिता
मिलना नहीं
चाहते थे।
उन्होंने
रजनीश से कहा,
उसे कह दो
कि मैं घर में
नहीं हूं।
इन्होंने
दरवाजा खोलकर
उस व्यक्ति से
कहा, 'मेरे
पिताजी ने
आपसे यह कहने
के लिए कहा है
कि वे घर में
नहीं है। ' जब
इनके परिवार
ने इन्हें
जबरदस्ती जैन
मंदिर ले जाने
की कोशिश की, तो ये पहले
ही चुपके से
खिसक गए और
महावीर की प्रतिमा
पर कुछ मिठाई
रख आए। जब बाद
में अपने
माता-पिता के
साथ ये मंदिर
गए तो वहां एक
चूहा बैठा था,
जो मिठाई खा
रहा था और
महावीर के
चेहरे पर पेशाब
कर रहा था।
इन्होंने
पूछा, 'यह
कैसा भगवान है
जो कि चूहे से
भी अपनी रक्षा
नहीं कर सकता?'
जल्दी ही
परिवार के
लोगों ने आशा
छोड़ दी और इन्हें
अपने हाल पर
छोड़ दिया।
युवा
होते-होते
रजनीश ने कुछ
समय तक
राजनीति में
भी रस लिया और
घंटों
मित्रों के
साथ गहन चर्चा
व बहस करने
में बिताते।
विद्यालय में
तथा
विश्वविद्यालय
में ये अपनी
विवाद-पटुता
के लिए
विख्यात थे और
इन्होंने स्वर्ण-पदक
जीते तथा अखिल
भारतीय
वाद-विवाद प्रतियोगिता
का पुरस्कार
भी जीता। ये
हर बात पर
सवाल उठाते
रहते।
अधिकारी
व्यक्तियों
द्वारा दिये
गये
जीवन
की समस्याओं
के समाधानों
से ये कतई
संतुष्ट न थे
और निरंतर
सवाल उठाते
रहते। ये कहते
है कि इनकी
अभीप्सा तब, जैसी कि
अब, केवल
यह जानने में
थी कि ‘‘जीवन
में परम क्या
है।’’ गांव
के पुस्तकालय
की सारी
किताबें
इन्होंने पढ़
डालीं-उनमें
से कई किताबों
के कार्डों पर
अब भी इनके
नाम के सिवाय
अन्य कोई नाम
नहीं है। और
ये स्वयं की
खोज में और
ध्यान में प्रदीर्घ
काल बिताते।
उस
कालावधि के
युवा रजनीश का
वर्णन इतिहास
को लिपिबद्ध
करने वालों ने
बाद में
ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य
की सुरक्षित
दूरी से ''प्रतिभाशाली,
आत्मवान, स्वतंत्र
बुद्धि का व्यक्ति’‘
(प्रो. पाल
हीलास, 'द
वे ऑफ द हार्ट',
एकेरियन
प्रेस, 1986); और ''असाधारण
रूप से
बुद्धिमान तथा
करिश्मापूर्ण
लड़का’‘ (रोनाल्ड
कॉनवे, 'द
वीक एंड
ऑस्ट्रेलियन ',
1981) जैसे
शब्दों
द्वारा किया
है। लेकिन
जिन्हें इस
धधकते हुए
शोले को झेलना
पड़ा, उन
समकालीन
व्यक्तियों
की राय कुछ और
ही है। इनके
रिश्तेदारों
से जब बाद के
दिनों में पत्रकार
मिले है तो
उन्होंने
युवा रजनीश ' का वर्णन ‘‘मनमानी करने
वाला, जिद्दी
और नटखट’‘ कहकर
किया है। जो
लोग परिवार के
सदस्य नहीं
थे, उनके
शब्दों में तो
और भी
भर्त्सना थी।
उनकी दृष्टि
में ये '' अविनीत,
निर्लज्ज, अशिष्ट, किसी
का आदर न
करनेवाले और
यहां तक कि
राजद्रोही थे।’’
साल के अंत
में दी जाने वाली
टिप्पणी में
इनके शिक्षक
और खास कर
प्रधानाध्यापक
इनकी ‘‘इतनी
निंदा करते
जितनी कि किसी
प्रमाणपत्र
में की जा
सकती है।’’ इन्होंने
एक बार अपने
प्राचार्य से
कहा, ‘‘यह चरित्र-प्रमाणपत्र
नहीं है, यह
तो चरित्र-हनन
है।’’
जो भी
हो, अपनी
अनेक
गैरहाजिरियो
और उतने ही
विद्रोही कृत्यों
के बावजूद
रजनीश उच्च माध्यमिक
विद्यालय से
उत्तीर्ण
होकर बाहर निकले।
इन्हें सदा हर
विषय में
उत्तीर्ण कर
दिया जाता ताकि
जल्द से जल्द
इनसे छुटकारा
मिले और ये
किसी दूसरे
शिक्षक के
हवाले पड़े।
कोई शिक्षक यह
नहीं चाहता था
कि ये उसकी
कक्षा में एक
और साल बिताएं।
इसके
उपरान्त
रजनीश जबलपुर
के एक
महाविद्यालय
में गये।
वस्तुत: ये दो
महाविद्यालयों
में गये।
इन्हें पहला
महाविद्यालय
छोड़ने के लिए
कहा गया
क्योंकि वहां
के तर्कशास्त्र
के
प्राध्यापक
ने उपकुलपति
से शिकायत की
कि रजनीश इतने
सवाल पूछता है
कि उनके लिए
पढ़ाना मुश्किल
हो जाता है।
प्राध्यापक
ने कुछ भी कहा
नहीं कि इनके
सवाल शुरू, और हर
कक्षा में
लंबी, किंतु
तर्कपूर्ण, बहस का
सिलसिला। जब
प्राध्यापक
इन्हें डांटते
कि इस तरह बहस
मत किया करो, तो रजनीश
कहते कि इससे
तो दर्शन और
तर्कशास्र की
कक्षा में होने
का उद्देश्य
ही मारा जाता
है। तंग
प्राध्यापक
ने, जो
वृद्ध और
सम्मानित
व्यक्ति थे,, अल्टिमेटम
दे दिया कि ' या तो रजनीश
बाहर या मैं
बाहर।’’
उपकुलपति
ने रजनीश को
दूसरे महाविद्यालय
में जगह
दिलवायी, लेकिन इनकी
ख्याति इनसे
पहले वहां
पहुंच चुकी थी
जिससे यह शर्त
लगायी गयी कि
उस
महाविद्यालय
में ये
दर्शनशास्त्र
की कक्षा में नहीं
आया करेंगे।
रजनीश बड़ी
खुशी से राजी
हो गये।
पुस्तकालय
में बैठकर
अपने-आप पढ़ना
इन्हें पसंद
था और पुस्तकें
पढ़ने की इनकी
कभी तृप्त न
होने वाली भूख
वहां जारी रही।
इनका
प्राध्यापकों
को परेशान
करना भी जारी
रहा।
इन्होंने
देखा कि बहुत
कम ही
प्राध्यापक
पुस्तकालय
में कभी आते
है। बस फिर
क्या था, उनके
संबंधित विषय
के नवीनतम शान
पर पूछ-पूछकर
ये उनकी नाक
में दम करने
लगे। जब
इन्होने पाया
कि एक
प्राध्यापक
ऐसे भी थे कि
वे कभी यह
स्वीकार नहीं
कर सकते थे कि
वे कोई बात
नहीं जानते, तो रजनीश ने
उन्हें भरी
कक्षा में एक
काल्पनिक
पुस्तक का नाम
लेकर जाल में
फंसाया कि
क्या उन्होंने
‘‘प्रिन्सिपिया
लाजिका’‘ किताब
पढ़ी है? जब
उन्होंने कहा
कि हा, मैंने
पढ़ी है, तो
रजनीश ने उनकी
पोल उपकुलपति
के सामने खोली।
नई
दिल्ली से
निकलने वाली
पत्रिका 'पेट्रियट'
ने रजनीश के
जीवन का
पुनरावलोकन 1981
में प्रकाशित
करते हुए कहा : ‘‘महाविद्यालय
में इन्होंने
एक भी ऐसे
शिक्षक को
नहीं छोड़ा
जिसने एक भी
झूठ बोला। इन्होंने
पूरी परंपरा
के खिलाफ
विद्रोह किया और
अपनी
रूढि-विरोधी
विचार-प्रणाली
से लोगों को
निरंतर
चौंकाया।’’ अपने
प्राध्यापकों
को नाराज किये
रहने के बावजूद
इन्होंने 1957
में
दर्शनशास्त्र
में एमए की
उपाधि प्रथम
श्रेणी में
प्रथम रहकर
अर्जित की और
स्वर्ण-पदक
प्राप्त किया।
इसी
काल के दौरान
रजनीश 21 वर्ष
की आयु में
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हुए।
उस स्थिति को
समझाते हुए
इन्होंने कहा
है: '' भावनाओं
व मनोवेगों से
रहित चैतन्य
का अनुभव ही
आत्मज्ञान है।’’‘
'जब चैतन्य
बिलकुल शून्य
हो तो एक
विस्फोट-सा होता
है-जो ठीक
आण्विक विस्फोट
जैसा ही है।’’ यह विस्फोट 21
मार्च, 1953 को
घटा जब ये, पूर्व
में गौतम
बुद्ध की
भांति ही, एक
निसंग वृक्ष
के नीचे बैठे
थे। वह वृक्ष
अब भी जबलपुर
के सार्वजनिक
उद्यान में
खड़ा है। उस
अनुभव को
शब्दों में
डालते हुए
इन्होंने कहा
है: ‘‘तुम्हारा
पूरा अंतस एक ऐसे
प्रकाश से
आपूरित हो
जाता है, जिसका
न कोई स्रोत
है, न कोई
कारण है, न
अतीत है। और
एक बार यह घटा
तो वह
तुम्हारे साथ
ही रहता है।
वह क्षण भर को
भी कभी
तुम्हारा साथ
नहीं छोड़ता।
तुम्हारी
नींद में भी
वह प्रकाश
तुम्हारे भीतर
बना रहता है।
और उस क्षण के
बाद तुम्हारा
देखने का पूरा
परिप्रेक्ष्य
ही बदल जाता है।’’
1958 में, जब ये 26
वर्ष के थे, रायपुर के
संस्कृत
कॉलेज में
इन्हें
दर्शनशास्त्र
का शिक्षक
नियुक्त किया
गया, उसके
कुछ बाद ये
जबलपुर
विश्वविद्यालय
में दर्शनशास्त्र
के
प्राध्यापक
बने। रोनाल्ड
कॉनवे के
वर्णनानुसार
ये एक ‘‘प्रतिभाशाली
किंतु
अपरंपरागत
प्राध्यापक’‘
थे, और
ये सतत
विवादास्पद
बने रहे। जैसे,
अपने
विद्यार्थियों
को केवल एक सुनिश्रित
पाठ्यक्रम के
अनुसार पढ़ाने
के बजाय ये उनके
सामने उस विषय
का संपूर्ण
चित्र खड़ा करना
पसंद करते। इस
संबंध में
इन्होंने कहा
है: ‘‘मैं
विद्यार्थियों
को वह पढ़ा रहा
था जो विश्वविद्यालय
ने नियत किया
था, लेकिन
उन्हें यह भी
दिखा रहा था
कि उस नियत पाठ्यक्रम
में कितना
हिस्सा बकवास
था। मैं
उन्हें अरस्तु
पढ़ा रहा था, और साथ में
यह भी पढ़ा रहा
था कि अरस्तू
सही नहीं है।
मेरा घंटा दो
हिस्सों में बंटा
हुआ होता-पहले,
मैं उन्हें
पढ़ाता कि
अरस्तू का
मतलब क्या है
और दूसरे
हिस्से में
मैं उन्हें बताता
कि वह किस
प्रकार गलत है।
तो, मेरे
खिलाफ
शिकायतें
हुईं, क्योंकि
यह पढाने का
एक अजीब ढंग
था और
विद्यार्थी
उलझन में पड़
रहे थे।’’
लेकिन
ये अत्यंत
लोकप्रिय थे
और इनकी
कक्षाएं
ठसाठस भरी
होतीं-न केवल
अन्य विषयों
के
विद्यार्थियों
से ( आधिकारिक
रूप से दर्शनशास्त्र
के केवल पांच
विद्यार्थी
थे) वरन
बहुतेरे
प्राध्यापकों
से भी।
इसी
समय रजनीश
सारे भारत में
भ्रमण भी करने
लगे, जैसा
कि रोनाल्ड
कॉनवे ने लिखा,
‘‘उनके
सामने एक ही
लक्ष्य था:
नींद में चल
रहे
बुद्धिवादी
भौतिकवाद से
संवेदनशील
लोगों को जगा
लेना।’’ नई
दिल्ली के 'पेट्रियट' ने उसे इस
तरह कहना
चाहा- ‘‘ये
व्यापक भ्रमण
पर थे और जहां
भी जाते
विवादों का
अंबार लगा
लेते।’’
नौ साल
तक
अध्यापन-कार्य
करने के बाद, 1966 में
इन्होंने विश्वविद्यालय
से त्यागपत्र
दे दिया ताकि
अपना पूरा समय
यात्राओं और
प्रवचनों को
दे सकें।
इन्होंने कहा,
‘‘विश्वविद्यालय
में रहकर
सिर्फ 2०
विद्यार्थियों
को पढ़ाना मुझे
समय का
मूढ़तापूर्ण
अपव्यय लगा, जबकि मैं एक
ही सभा में एक
साथ 5०,०००
लोगों को पढ़ा
सकता था।
विश्वविद्यालय
से मैं विश्व
में चला गया।’’
ये देश भर
में
धर्म-सभाओं
में बोलने लगे
और ध्यान-शिविर
आयोजित करने
लगे। एक
उत्तेजक और
मनोरंजक
वक्ता होने के
कारण शुरू-शुरू
में इन्हें
बहुत-से
प्रतिष्ठित
सम्मेलनों
में आमंत्रित
किया गया।
लेकिन विवाद
खड़े करने में
इन्हें जो रस
आता था, और
प्रत्येक मूल
विश्वास या
मान्यता पर
इनकी अंतहीन,
गैर-समझौतावादी
चोटों ने-खास
कर ऐसे
विश्वास जिनके
पीछे इन्हें
लगता कि सत्य
या कोई तर्क नहीं
था-जल्दी ही
इन्हें
स्थापित
व्यवस्था का दुश्मन
बना दिया। जब
पटना में
द्वितीय
विश्व हिंदू
परिषद का सम्मेलन
हुआ तो पुरी
के
शंकराचार्य
की अत्यंत कटु
आलोचना करते
हुए इन्होंने
संगठित
धर्मों की धज्जियां
उड़ायी। गरीबी
के साथ भारत
की जो सनातन
और घिनौनी दोस्ती
चल रही है, उस
पर इन्होंने
निर्ममता से
चोट की, और
भारत के
श्रद्धास्पद
महात्मा
गांधी को उनके
प्रगतिविरोधी
तथा टेक्रॉलॉजी-विरोधी
विचारों से
भारत की आत्मा
को पंगु बनाने
के अपराध में
दोषी ठहराया।
इन्होंने कहा
कि गांधी जो
दरिद्रनारायण
का गुणगान
करते रहे, उसके
कारण गरीब कभी
गरीबी से
मुक्त न हो
सके।
इसी
लहजे में
इन्होंने एक
और राष्ट्रीय
नेता मदर
टेरेसा पर
चोटें कीं।
इनका कहना था
कि केथॅलिक
ईसाइयत को
ज्यादा लोग
मिलें इसलिए
वे अनाथ
बच्चों की
समस्या का चालाकी
से अपने हित
में उपयोग कर
रही है।
संतति-निरोध
के खिलाफ उनका
जो रवैया है
उससे यह साफ
जाहिर है कि
वे गरीबी
हटाने की
कोशिश नहीं कर
रही है, वरन ज्यादा
से ज्यादा
हिंदू बच्चे
पैदा करवाना
चाहती है ताकि
अधिक लोगों को
केथॅलिक बना
सकें और बदले
में
नोबल-पुरस्कार
पा सकें। इनका
कहना था कि
गरीबी का
उसूलन पूर्ण
संतति-निरोध
और शिक्षा
द्वारा ही
किया जा सकता
है।
आध्यात्मिक
खोज के लिए
समृद्धि का
होना अत्यंत
जरूरी है, गरीब
आदमी भोजन आदि
प्राथमिक
जरूरतों को
पूरा करने में
ही इतना उलझा
रहता है कि
उसे अपनी
आत्मिक
जरूरतों के
बारे में
सोचने की
सुविधा ही नहीं
होती। जिस देश
में गरीबी और
तथाकथित
त्याग का
संतत्व से
अव्यभिचारी
संबंध हो, वहां
इन विचारों से
लोगों को चोट
पहुंचे तो कोई
आश्रचर्य
नहीं। कुछ
वर्षों बाद, इन्होंने
धर्मगुरुओं
के क्रोध में
और भी ईंधन
डाल दिया जब
इन्होंने
संभोग को
समाधि का मार्ग
कहना शुरू
किया।
1969 में
रजनीश, जो
अब बम्बई में
रहने लगे थे, '' भगवान’‘ कहलाए,
जिसका अर्थ
होता है :
सौभाग्यवान।
इस बीच
इन्होंने
राजस्थान
स्थित माउंट
आबू में अपने
विवादास्पद
ध्यान-शिविर
लेना जारी रखा।
मध्य छठे दशक
में इन्होंने
परंपरागत
शांत ध्यान-प्रयोगों
से शुरुआत की
थी, लेकिन
शीघ्र ही इनके
ख्याल में आ
गया कि आधुनिक
मनुष्य, जिसके
भीतर
विक्षिप्त
मानसिक संवेग ‘‘उबल रहे है’‘ के लिए ये
कारगर न थे।
तब इन्होंने
तरह-तरह की
विचित्र
दिखायी पडने
वाली ध्यान-विधियों
के प्रयोग
शुरू करवाए, ताकि लोग
अपने भीतर के
तनावों को
अबाध बाढ़ के एक
अनिर्बंध
आवेग में बाहर
फेंक सकें, और अंततः जब
उनसे खाली हो
जाएं तो आंतरिक
शांति व मौन
में सरक जाएं।
ऐसे ही एक
शिविर में
इन्होंने
अपने विख्यात 'सक्रिय
ध्यान' की
शुरूआत
करवायी, जो
अब सारे विश्व
में हर जगह
किया जा रहा
है।
प्राय:
इसी दौरान
इन्होंने
सार्वजनिक
प्रवचन देने
बंद कर दिये
और इनके आसपास
जो खोजी शिष्य
इकट्ठे हो गये
थे उन पर अपना
कार्य
केंद्रित
किया। तब तक
ये बड़ी संख्या
में पाश्चात्य
अनुयायी
आकर्षित करने
लगे थे-और उसी
मात्रा में
भारतीयों
द्वारा
आक्रोशपूर्ण
प्रचार भी।
1974 में
ये पूना आ गये
जहां छ: एकड़
जमीन पर इनका
आश्रम बना।
लगता था कि
अपने
तौर-तरीके
बदलने का इनका
कोई इरादा न
था-तौर-तरीके
जो निशित ही
गैर-परंपरावादी
थे, शायद
प्रांत थे, किंतु...
.खतरनाक?
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