अध्याय—13
सूत्र—
यथा
प्रकाशयत्येक:
कृत्स्नं
लोकमिमं रवि:।
क्षेत्रं
क्षेत्री तथा
कृत्स्नं प्रकाशयति
भारत।। 33।।
स्थ्यैज्ञयोरेवमन्तरं
ज्ञानचमुवा।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं
च ये विदुर्यान्ति
ते परम्।। 34।।
है अर्जुन,
जिस प्रकार एक
ही सूर्य इस
संपूर्ण लोक
को प्रकाशित
करता है,
उसी प्रकार एक
ही आत्मा संपूर्ण
क्षेत्र को
प्रकाशित
करता है।
इस प्रकाश
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
के भेद को तथा
विकारयुक्त
प्रकृति से
छूटने के उपाय
को जो पुरूष
ज्ञान—नेत्रों
के द्वारा तत्व
से जानते है,
वे महात्माजन
परम ब्रह्म
परमात्मा को
प्राप्त होते
हैं।
पहले
कुछ प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है,
गीता में
कहा है कि जो
मनुष्य मरते
समय जैसी ही
चाह करे, वैसा
ही वह दूसरा
जन्म पा सकता
है। तो यदि एक
मनुष्य उसका
सारा जीवन पाप
करने में ही
गंवा दिया हो
और मरते समय
दूसरे जन्म
में महावीर और
बुद्ध जैसा
बनने की चाह
करे, तो
क्या वह आदमी
दूसरे जन्म
में महावीर और
बुद्ध जैसा बन
सकता है?
निश्चित
ही,
मरते क्षण
की अंतिम चाह
दूसरे जीवन की
प्रथम घटना बन
जाती है। जो
इस जीवन में
अंतिम है, वह
दूसरे जीवन
में प्रथम बन
जाता है।
इसे
ऐसा समझें।
रात आप जब
सोते हैं, तो
जो रात सोते
समय आपका
आखिरी विचार
होता है, वह
सुबह जागते
समय आपका पहला
विचार बन जाता
है। इसे आप
प्रयोग करके
जान सकते हैं।
रात आखिरी
विचार, जब
आपकी नींद उतर
रही हो, जो
आपके चित्त पर
हो, उसे
खयाल कर लें।
तो सुबह आपको
जैसे ही पता
लगेगा कि मैं
जाग गया हूं
वही विचार
पहला विचार
होगा।
मृत्यु
महानिद्रा है, बड़ी
नींद है। इसी
शरीर में नहीं
जागते हैं, फिर दूसरे
शरीर में
जागते हैं।
लेकिन इस जीवन
का जो अंतिम
विचार, अंतिम
वासना है, वही
दूसरे जीवन का
प्रथम विचार
और प्रथम वासना
बन जाती है।
इसलिए
गीता ठीक कहती
है कि अंतिम
क्षण में जो विचार
होगा, जो
वासना होगी, वही दूसरे
जीवन का कारण
बन जाएगी।
लेकिन
अगर आपने जीवनभर
पाप किया है, तो
अंतिम क्षण
मेँ आप बुद्ध
होने का विचार
कर नहीं सकते।
वह असंभव है।
अंतिम विचार
तो आपके पूरे
जीवन का निचोड़
होगा। अंतिम
विचार में
सुविधा नहीं
है आपके हाथ
में कि आप कोई
भी विचार कर
लें। मरते
क्षण में आप
धोखा नहीं दे
सकते। समय भी
नहीं है धोखा
देने के लिए।
मरते क्षण में
तो आपका पूरा
जीवन निचुड़कर
आपकी वासना
बनता है। आप
वासना कर नहीं
सकते मरते
क्षण में।
तो
जिस आदमी ने
जीवनभर पाप
किया हो, मरते
क्षण में वह
महापापी बनने
की ही वासना
कर सकता है।
वह आपके हाथ
में उपाय नहीं
है कि आप मरते
वक्त बुद्ध
बनने का विचार
कर लें। बुद्ध
बनने का विचार
तो तभी आ सकता
है जब जीवनभर
बुद्ध बनने की
चेष्टा रही हो।
क्योंकि मरते
क्षण में आपका
जीवन पूरा का
पूरा निचुड़कर
आखिरी वासना
बन जाता है।
वह बीज है।
उसी बीज से
फिर नए जन्म
की शुरुआत
होगी।
इसे
ऐसा समझें। एक
बीज हम बोते
हैं;
वृक्ष बनता
है। फूल खिलते
हैं। फूल में
फिर बीज लगते
हैं। उस बीज
में उसी वृक्ष
का प्राण फिर
से समाविष्ट
हो जाता है।
वह बीज नए
वृक्ष का जन्म
बनेगा।
तो
आपने जीवनभर
जो किया है, जो
सोचा है, जिस
भांति आप रहे
हैं, वह सब
निचुड़कर आपकी
अंतिम वासना
का बीज बन जाता
है। वह आपके
हाथ में नहीं
है।
जिस
आदमी ने
जीवनभर धन की
चिंता की हो, मरते
वक्त वह धन की
ही चिंता
करेगा। थोड़ा
समझें, इससे
विपरीत असंभव
है। क्योंकि
जिसके मन पर
धन का विचार
ही प्रभावी रहा
हो, मरते
समय जीवनभर का
अनुभव, जीवनभर
की कल्पना, जीवनभर की
योजना, जीवनभर
के स्वप्न, वे सब धक्का
देंगे कि वह
धन के संबंध
में अंतिम
विचार कर ले।
इसलिए धन को
पकड़ने वाला
अंतिम समय में
धन को ही पकड़े
हुए मरेगा।
लोककथाएं
हैं कि अगर
कृपण मर जाता
है,
तो अपनी
तिजोड़ी पर
सांप बनकर बैठ
जाता है। या
अपने खजाने पर
सांप बनकर बैठ
जाता है। वे
कथाएं सार्थक
हैं। वे इस
बात की खबर
हैं कि अंतिम
क्षण में आप
अपने जीवन की
पूरी की पूरी
निचुड़ी हुई
अवस्था को बीज
बना लेंगें।
तो
गीता ठीक कहती
है कि जो
अंतिम क्षण
में विचार
होगा, वही
आपके नए जन्म
की शुरुआत
होगी। लेकिन
आप यह मत
सोचना ग्रंथियों
का उपयोग होता
है। जब आप
क्रोध से भर
जाते हैं, तो
आपने खयाल
किया, क्रोध
से भरा हुआ
आदमी अपने से
ताकतवर आदमी
को उठाकर फेंक
देता है। उसकी
ग्रंथियां
जहर छोड़ देती
हैं, जिनसे
वह पागल हो
जाता है। अगर
आप क्रोध में
हैं, तो आप
इतनी बड़ी
चट्टान को
सरका सकते हैं,
जो आप क्रोध
में न होते, तो कभी आपसे
सरकने वाली
नहीं थी। आपकी
ग्रंथियां
जहर छोड़ देती
हैं। उस जहर
के नशे में आप
कुछ भी कर
सकते हैं।
क्रोध
में,
अब तो
वैज्ञानिक भी
स्वीकार करते
हैं कि जहर छूटता
है। उस जहर के
प्रभाव में ही
कोई हत्या कर
सकता है। भीतर
ग्रंथियां
हैं, जो
आपको
मूर्च्छित
करती हैं। जब
आप कामवासना
से भरकर पागल
होते हैं, तब
भी आपकी
ग्रंथियां एक
विषाक्त
द्रव्य छोड़ देती
हैं। आप होश
में नहीं होते।
क्योंकि होश
में आकर तो आप
पछताते हैं।
बड़ा
पश्चात्ताप
करते हैं कि
फिर वही भूल
की। और आपने
ही की है। और
पहले भी बहुत
बार करके
पछताए हैं।
फिर कैसे हो
गई? जरूर
आप होश में
नहीं थे।
आदमी
जो भी भूलें
करता है, वह
बेहोशी में
करता है।
मौत
के क्षण में
आपके शरीर की
सारी विषाक्त
ग्रंथियां
पूरा विष छोड़
देती हैं।
आपकी पूरी
चेतना धुएं से
भर जाती है।
आपको कुछ होश
नहीं रहता। जब
आपका शरीर
आत्मा से अलग
होता है, तो आप
उतने ही बेहोश
होते हैं, जितना
सर्जरी में
कोई मरीज
बेहोश होता है।
उससे ज्यादा।
मृत्यु
के पास अपना
एनेस्थेसिया
है। इसलिए आप
होश में मर
नहीं सकते; आप
बेहोशी में
मरेंगे। इसी
कारण तो आपको
दूसरे जन्म
में याद नहीं
रह जाता पिछला
जन्म।
क्योंकि जो
बेहोशी में घटा
है, उसकी
याददाश्त
नहीं हो सकती।
हम
बहुत बार मर
चुके हैं।
हजार बार, लाख
बार मर चुके
हैं। और हमें
कुछ भी याद
नहीं कि हम
कभी भी मरे
हों। हमें कोई
याद नहीं है
मृत्यु की
पिछली। और
चूंकि मृत्यु
की याद नहीं
है, इसलिए
बीच में एक
गैप, एक
अंतराल हो गया
है। इसलिए पिछले
जन्म की कोई
भी याद नहीं
है।
जो
आदमी होश में
मरता है, उसे
दूसरे जन्म
में याद रहेगा
पिछला जन्म।
आपको किसी को
भी याद नहीं
है।
तो
जो होश में ही
नहीं मर सकते, तो
आप क्या
करिएगा, क्या
सोचिएगा मरते
वक्त? मौत
तो घटेगी
बेहोशी में, मरने के
पहले आप बेहोश
हो गए होंगे।
इसलिए आखिरी
विचार तो
बेहोश होगा, होश वाला
नहीं होगा।
तो
जिंदगीभर जो
आपने अपने
अचेतन मन में
बेहोश वासनाएं
पाली हैं, वे
ही आपका बीज
बनेंगी।
उन्हीं के
सहारे आप नई
यात्रा पर
निकल जाएंगे।
न तो आपको
मृत्यु की कोई
याद है, न
आपको जन्म की
कोई याद है।
आपको याद है
जब आपका जन्म
हुआ? कुछ
भी याद नहीं
है।
मां
के पेट में नौ
महीने आप
बेहोश थे। वह
भी बेहोशी
जरूरी है।
नहीं तो बच्चे
का जीना
मुश्किल हो
जाए। नौ महीने
कारागृह हो
जाए अगर होश
हो। अगर बच्चे
को होश हो, तो
मां के पेट
में बहुत कष्ट
हो जाए। वह
कष्ट झेलने
योग्य नहीं है,
इसलिए
बेहोश थे।
पैदा
होने के बाद
भी आपको कुछ
पता नहीं है, क्या
हुआ। जब आप
गर्भ से बाहर
आ रहे थे, आपको
कुछ भी पता है?
अगर आप बहुत
कोशिश करेंगे
पीछे लौटने की,
तो तीन साल
की उम्र, दो
साल की उम्र; बहुत जो जान
सकते हैं, स्मृति
कर सकते हैं, वे भी दो साल
से पीछे नहीं
हट सकते हैं।
दो साल तक आप
ठीक होश में
नहीं थे।
मरने
में बेहोशी, गर्भ
में बेहोशी, जन्म में
बेहोशी, जन्म
के बाद भी
बेहोशी। और
जिसको आप जीवन
कहते हैं, वह
भी करीब—करीब
बेहोश है।
उसमें भी कुछ
होश नहीं है।
मरते क्षण में
तो वही
व्यक्ति अपनी
वासना को होशपूर्वक
निर्धारित कर
सकता है, जिसने
जीवनभर ध्यान
साधा हो।
इसे
हम ऐसा समझें
कि छोटी—मोटी
बात में भी तो
आपका वश नहीं
है,
अपने जन्म
को आप
निर्धारित
करने में क्या
करेंगे! अगर
मैं आपसे कहूं
कि चौबीस घंटे
आप अशांत मत
होना; इस
पर भी तो आपकी
मालकियत नहीं
है। आप कहेंगे,
अशांति आ
जाएगी, तो
मैं क्या
करूंगा? कोई
गाली दे देगा,
तो मैं क्या
करूंगा?
चौबीस
घंटे आपसे कहा
जाए,
अशांत मत
होना, तो
इसकी भी आपकी
मालकियत नहीं
है। क्षुद्र—सी
बात है। अति
क्षुद्र बात
है। लेकिन आप
सोचते हैं कि
पूरे जीवन को,
नए जीवन को
मैं अपनी आकांक्षा
के अनुकूल ढाल
लूंगा।
एक
मन की छोटी—सी
तरंग भी आप
सम्हाल नहीं
सकते। अगर
आपसे कहा जाए
कि चौबीस घंटे
आपके मन में यह
विचार न आए, उस
विचार को भी
आने से आप रोक
नहीं सकते।
इतनी तो
गुलामी है। और
सोचते हैं, अंतिम क्षण
में इतनी
मालकियत दिखा
देंगे कि पूरे
जीवन की दिशा
निर्धारित
करना अपने हाथ
में होगा!
अपने हाथ से
जरा भी तो कुछ
निर्णय नहीं
हो पाता। जरा—सा
भी संकल्प
पूरा नहीं
होता। सब जगह
हारे हुए हैं।
लेकिन इस तरह
के विचार
सांत्वना
देते हैं।
उससे आदमी
सोचता है, किए
चले जाओ पाप, आखिरी क्षण
में सम्हाल
लेंगे।
अगर
सम्हालने की
ही ताकत है, तो
अभी सम्हालने
में क्या
तकलीफ है? अगर
बुद्ध जैसे
होने की ही
बात है, तो
अगले जन्म पर
टालना क्यों?
अभी हो जाने
में कौन बाधा
डाल रहा है? अगर
तुम्हारे ही
हाथ में है
बुद्ध होना, तो अभी हो
जाओ।
लेकिन
तुम भलीभांति
जानते हो कि
अपने हाथ में नहीं
दिखता, तो
टालते हैं।
इससे मन में
राहत बनी रहती
है कि कोई
फिक्र नहीं, आज नहीं तो
कल हो जाएंगे,
कल नहीं तो
परसों हो
जाएंगे। और हम
बहते चले जाते
हैं मूर्च्छा
में।
मरते
क्षण में आपको
कोई होश होने
वाला नहीं है।
जिस व्यक्ति
को मरते क्षण
में होश रखना
हो,
उसे जीवित
क्षण को होश
के लिए उपयोग
करना होगा। और
इसके पहले कि
असली मृत्यु
घटे आपको
ध्यान में
मरने की कला
सीखनी होगी।
ध्यान
मृत्यु की कला
है। वह मरने
की तरकीब है
अपने हाथ। जब
शरीर अपने आप
मरेगा, तब हो
सकता है, इतनी
सुविधा भी न
हो। वह घटना
इतनी नई होगी
कि आप मुश्किल
में पड़ जाएंगे।
उस वक्त होश
सम्हालना अति
अड़चन का होगा।
ध्यान में आप
मरकर पहले ही
देख सकते हैं।
ध्यान में आप
शरीर को छोड़
सकते हैं और
शरीर से अलग
हो सकते हैं।
जो
व्यक्ति
ध्यान में
मृत्यु को
साधने लगता है, वह
मृत्यु के आने
के बहुत पहले
मृत्यु से
भलीभांति
परिचित हो
जाता है। उसने
मरकर देख ही
लिया है। अब
मृत्यु के पास
नया कुछ भी
नहीं है। और
जो व्यक्ति
अपने को अपने
शरीर से अलग
करके देख लेता
है, मृत्यु
फिर उसे बेहोश
करने की
आवश्यकता
नहीं मानती।
फिर कोई जरूरत
नहीं है।
ऐसा
हुआ कि उन्नीस
सौ आठ में
काशी के नरेश
का एक आपरेशन
हुआ पेट का।
लेकिन काशी के
नरेश ने कहा
कि मैं कोई
बेहोशी की दवा
लेने को तैयार
नहीं हूं।
एपेंडिसाइटिस
का आपरेशन था, डाक्टरों
ने कहा कि
मुश्किल
मामला है।
बेहोश तो करना
ही पड़ेगा।
क्योंकि इतनी
असह्य पीड़ा
होगी कि अगर
आप हिल गए
चिल्लाने लगे,
रोने लगे, भागने लगे, तो हम क्या
करेंगे? सारा
खतरा हो जाएगा।
जीवन का खतरा
है।
लेकिन
नरेश ने कहा
कि बिलकुल
चिंता मत करें।
मुझे सिर्फ
मेरी गीता
पढ़ने दें। मैं
अपनी गीता
पढ़ता रहूंगा, आप
आपरेशन करते
रहना।
कोई
उपाय नहीं था।
नरेश लेने को
राजी नहीं था
बेहोशी की कोई
दवा और आपरेशन
एकदम जरूरी था।
अगर आपरेशन न
हो,
तो भी मौत
हो जाए। तो
फिर यह खतरा
लेना उचित
मालूम पड़ा। जब
बिना आपरेशन
के भी मौत हो
जाएगी, तो
एक खतरा लेना
उचित है।
आपरेशन करके
देख लिया जाए।
ज्यादा से
ज्यादा मौत ही
होगी जो कि
निश्चित है।
लेकिन
संभावना है कि
बच भी जाए।
यह
पहला मौका था
चिकित्सा के
इतिहास में कि
इतना बड़ा
आपरेशन बिना
किसी बेहोशी
की दवा के
किया गया।
काशी नरेश
अपनी गीता का
पाठ करते रहे, आपरेशन
हो गया।
आपरेशन
पूरा हो गया।
कोई कहीं अड़चन
न हुई।
चिकित्सक
बहुत हैरान
हुए। जो
अंग्रेज
डाक्टर, सर्जन
ने यह आपरेशन
किया था, वह
तो चमत्कृत हो
गया। उसने कहा
कि आप किए
क्या? क्योंकि
इतनी असह्य
पीड़ा!
तो
काशी नरेश ने
कहा कि मैं
ध्यान करता
रहा कृष्ण के
वचनों का—कि न
शरीर के काटे
जाने से आत्मा
कटती है, न
छेदे जाने से
छिदती है, न
जलाए जाने से
जलती है। बस
मैं एक ही भाव
में डूबा रहा
कि मैं अलग
हूं मैं कर्ता
नहीं हूं
भोक्ता नहीं
हूं मैं सिर्फ
साक्षी हूं। न
मुझे कोई जला
सकता है; न
मुझे कोई छेद
सकता है; न
मुझे कोई काट
सकता है। यह
भाव मेरा सघन
बना रहा।
तुम्हारे
औजारों की
खटपट मुझे
सुनाई पड़ती रही।
लेकिन ऐसे
जैसे कहीं दूर
फासले पर सब
हो रहा है। पीड़ा
भी थी, लेकिन
दूर, जैसे
मैं उससे अलग
खड़ा हूं। मैं
देख रहा हूं।
जैसे पीड़ा
किसी और को
घटित हो रही
है।
अब
यह जो सम्राट
है,
यह मृत्यु
में भी होश रख
सकता है। जीवन
में इसने होश
का गहरा
प्रयोग कर
लिया है।
मृत्यु
पर भरोसा न
करें, जीवन पर
भरोसा करें।
और जीवन में
साध लें, जो
भी होना चाहते
हों। मृत्यु
पर टालें मत।
वह धोखा सिद्ध
होगा। जो भी
क्षण हाथ में
हैं, उनका
उपयोग करें।
और
अगर बुद्धत्व
को पाना है, तो
इसी घड़ी उसके
श्रम में लग
जाएं, क्योंकि
बुद्धत्व कोई
ऐसी बच्चों
जैसी बात नहीं
है कि आप सोच
लेंगे और हो
जाएगी। बहुत
श्रम करना
होगा, बहुत
साधना करनी
होगी। और तभी
अंतिम क्षण
में वह बीज बन
जाएगा और नया जन्म
उस बीज के
मार्ग से
अंकुरित हो
सकता है।
एक
मित्र ने पूछा
है,
अगर सभी
मनुष्य
अकर्ता बन जाएं,
गीता की बात
को मान लें, तो जीवन में,
संसार में
क्या रस बाकी
रह जाएगा?
अभी
क्या रस है
जीवन में? अभी
कर्ता बने हुए
हैं गीता के
विपरीत, अभी
क्या रस है
जीवन में? और
अगर जीवन में
रस ही है, तो
गीता को पढ़ने
की जरूरत क्या
है? गीता
को सुनने की
क्या जरूरत है?
अगर जीवन
में रस ही है, तो धर्म की
बात ही क्यों
उठानी? परमात्मा
और मोक्ष और
ध्यान और
समाधि की
चर्चा ही
क्यों चलानी?
अगर
जीवन में रस
है,
तो बात खतम
हो गई। रस की
ही तो खोज है।
रस ही तो
परमात्मा है।
बात खतम हो गई।
फिर कुछ करना
नहीं है। फिर
और ज्यादा
कर्ता हो जाएं,
ताकि और
ज्यादा रस
मिले। और
संसार में उतर
जाएं, ताकि
रस के और गहरे
स्रोत मिल
जाएं।
अगर
जीवन में रस
मिल ही रहा है
कर्ता बनकर, तो
गीता वगैरह को,
सबको अग्नि
में आहुति कर
दें। कोई
आवश्यकता
नहीं है। और
कृष्ण वगैरह
की बात ही मत
सुनना। नहीं
तो वे आपका रस
नष्ट कर दें।
आप बड़े आनंद
में हैं, कहां
इनकी बातें
सुनते हैं!
लेकिन
आप अगर रस में ही
होते, तो यह
बात ठीक थी।
आपको रस
बिलकुल नहीं
है। दुख में
हैं, गहन
दुख में हैं।
हा, रस की
आशा बनाए हुए
हैं। जब भी
हैं, तब
दुख में हैं; और रस
भविष्य में है।
संसार
में जरा भी रस
नहीं है।
सिर्फ भविष्य
की आशा में रस
है। जहां हैं, वहां
तो दुखी हैं।
लेकिन सोचते
हैं कि कल एक
बड़ा मकान
बनेगा और वहां
आनंद होगा।
जितना है, उसमें
तो दुखी हैं।
लेकिन सोचते
हैं, कल
ज्यादा हो
जाएगा और बड़ा
रस आएगा। कल
कुछ होगा, जिससे
रस घटित होने
वाला है।
कल
की आशा में आज
के दुख को हम
बिताते हैं।
वह कल कभी
नहीं आता। कल
होता ही नहीं।
जो भी है, वह आज
है। संसार आशा
है। उस आशा
में रस है। डर
लगता होगा कि
अगर साक्षी हो
जाएंगे, तो
फिर रस खो
जाएगा।
क्योंकि
साक्षी होते
ही भविष्य खो
जाता है; वर्तमान
ही रह जाता है।
इसलिए सवाल तो
बिलकुल सही है।
संसार
में रस नहीं
है,
जो खो जाएगा।
क्योंकि
संसार में रस
होता, तब
तो धर्म की
कोई जरूरत ही
नहीं थी।
संसार में दुख
है, इसलिए
धर्म पैदा हो
सका है। संसार
में बीमारी है,
इसलिए धर्म
की
चिकित्सा
खोजी जा सकी
है। अगर संसार
स्वास्थ्य है, तो
धर्म तो
बिलकुल
निष्प्रयोजन
है।
बर्ट्रेंड
रसेल ने ठीक
कहा है। उसने
कहा है कि
दुनिया में
धर्म तब तक
रहेगा, जब तक
दुख है। इसलिए
अगर हमको धर्म
को मिटाना है,
तो दुख को
मिटा देना
चाहिए।
वह
ठीक कहता है।
लेकिन दुख मिट
नहीं सकता।
पांच हजार साल
का इतिहास तो
हमें ज्ञात है।
आदमी दुख को
मिटाने की
कोशिश कर रहा
है। और एक दुख
मिटा भी लेता
है,
तो दस दुख पैदा
हो जाते हैं।
पुराने दुख
मिट जाते हैं,
तो नए दुख आ
जाते हैं।
लेकिन दुख
नहीं मिटता।
निश्चित
ही,
हजार साल
पहले दूसरे
दुख थे, आज
दूसरे दुख हैं।
कल दूसरे दुख
होंगे।
हिंदुस्तान
में एक तरह का
दुख है, अमेरिका
में दूसरी तरह
का दुख है, रूस
में तीसरी तरह
का दुख है।
लेकिन दुख
नहीं मिटता।
जमीन
पर कोई भी
समाज आज तक यह
नहीं कह सका
कि हमारा दुख
मिट गया, अब हम
आनंद में हैं।
कुछ व्यक्ति
जरूर कह सके हैं
कि हमारा दुख
मिट गया और हम
आनंद में हैं।
लेकिन वे
व्यक्ति वही
हैं, जिन्होंने
धर्म का
प्रयोग किया
है। आज तक
धर्म से रहित
व्यक्ति यह
नहीं कह सका
कि मैं आनंद
में हूं। वह
दुख में ही है।
रसेल ठीक कहता
है, धर्म
को मिटाना हो
तो दुख को
मिटा देना
चाहिए। मैं भी
राजी हूं।
लेकिन दुख अगर
मिट सके, तब।
दो
संभावनाएं
हैं। दुख मिट
जाए,
तो धर्म मिट
जाए, एक
संभावना। एक
दूसरी
संभावना है कि
धर्म आ जाए, तो दुख मिट
जाए। रसेल
पहली बात से
राजी है। मैं
दूसरी बात से
राजी हूं। दुख
मिट नहीं सकता।
लेकिन धर्म आ
जाए तो दुख
मिट सकता है।
धर्म तो
चिकित्सा है।
वह तो जीवन से
दुख के जो—जो
कारण हैं, उनको
नष्ट करना है।
जिस कारण से
हम दुख पैदा
कर लेते हैं
जीवन में, उस
कारण को तोड़
देना है। वह
कारण है, कर्ता
का भाव। वह
कारण है कि
मैं कर रहा
हूं वही दुख
का मूल है।
अहंकार, मैं
हूं वही दुख
का मूल है।
उसे तोड़ते से
ही दुख विलीन
हो जाता है और
आनंद की वर्षा
शुरू हो जाती
है।
ये
मित्र कहते
हैं,
जीवन में रस
क्या रह जाएगा?
जीवन
में रस है ही
नहीं, पहली
बात। पर दूसरी
बात सोचने
जैसी है, भविष्य
का जो रस है, वह जरूर खो
जाएगा।
साक्षी के लिए
कोई भविष्य
नहीं है।
इसे
थोड़ा समझें।
समय के हम तीन
विभाजन करते
हैं,
अतीत,
वर्तमान, भविष्य।
वे समय के
विभाजन नहीं
हैं। समय तो
सदा
वर्तमान
है। समय का तो
एक ही टेंस है, प्रेजेंट।
अतीत तो सिर्फ
स्मृति
है मन की, वह
कहीं है नहीं।
और भविष्य
केवल कल्पना
है मन की, वह
भी कहीं है
नहीं। जो समय
है, वह तो
सदा वर्तमान
है। आपका कभी
अतीत से कोई
मिलना हुआ? कि भविष्य
से कोई मिलना
हुआ? जब भी
मिलना होता है,
तो वर्तमान से
होता है। आप
सदा अभी और
यहीं, हियर
एंड नाउ होते
हैं। न तो आप
पीछे होते हैं,
न आगे होते
हैं। ही, पीछे
का खयाल आप
में हो सकता
है। वह आपके
मन की बात है।
और आगे का
खयाल भी हो
सकता है, वह
भी मन की बात
है।
अस्तित्व
वर्तमान है; मन
अतीत और
भविष्य है। एक
और मजे की बात
है, अस्तित्व
वर्तमान है
सदा, और मन
कभी वर्तमान
नहीं है। मन
कभी अभी और
यहीं नहीं
होता। इसे
थोड़ा सोचें।
अगर
आप पूरी तरह
से यहीं होने
की कोशिश करें
इसी क्षण में, भूल
जाएं सारे
अतीत को, जो
हो चुका, वह
अब नहीं है; भूल जाएं
सारे भविष्य
को, जो अभी
हुआ नहीं है; सिर्फ यहीं
रह जाएं, वर्तमान
में, तो मन
समाप्त हो
जाएगा।
क्योंकि मन को
या तो अतीत
चाहिए दौड़ने
के लिए पीछे, स्मृति; या
भविष्य चाहिए,
स्पेस
चाहिए, जगह
चाहिए।
वर्तमान में
जगह ही नहीं
है। वर्तमान
का क्षण इतना
छोटा है कि मन
को फैलने की
जरा भी जगह
नहीं है। क्या
करिएगा? अगर
अतीत छीन लिया,
भविष्य छीन
लिया, तो
वर्तमान में
मन को करने को
कुछ भी नहीं
बचता। इसलिए
ध्यान की एक
गहनतम
प्रक्रिया है
और वह है, वर्तमान
में जीना। तो
ध्यान अपने आप
फलित होने
लगता है, क्योंकि
मन समाप्त
होने लगता है।
मन बच ही नहीं
सकता।
समय
सिर्फ
वर्तमान है।
मन है अतीत और
भविष्य। अगर
आप साक्षी
होंगे, तो
वर्तमान में
हो जाएंगे।
भविष्य और
अतीत दोनों खो
जाएंगे।
क्योंकि
साक्षी तो उसी
के हो सकते
हैं, जो है।
अतीत के क्या
साक्षी होंगे,
जो है ही
नहीं? भविष्य
के क्या
साक्षी होंगे,
जो अभी होने
को है? साक्षी
तो उसी का हुआ
जा सकता है, जो है।
साक्षी होते
ही मन समाप्त
हो जाता है।
इसलिए भविष्य
का जो रस है, वह जरूर
समाप्त हो
जाएगा। लेकिन
आपको पता ही
नहीं है कि
भविष्य का रस
तो समाप्त
होगा, वर्तमान
का आनंद आपके
ऊपर बरस पड़ेगा।
और भविष्य का
रस तो केवल
आश्वासन है
झूठा, वह
कभी पूरा नहीं
होता।
इसे
इस तरह सोचें।
अगर आप पचास
साल के हो गए
हैं,
तो यह पचास
साल की उम्र
आज से दस साल
पहले भविष्य थी।
और दस साल
पहले आपने
सोचा होगा, न मालूम
क्या—क्या
आनंद आने वाला
है! अब तो वह सब
आप देख चुके
हैं। वह अभी
तक आनंद आया
नहीं।
बचपन
से आदमी यह
सोचता है, कल,
कल, कल!
और एक दिन मौत
आ जाती है और
आनंद नहीं आता।
लौटकर देखें,
कोई एकाध
क्षण आपको ऐसा
खयाल आता है, जिसको आप कह
सकें वह आनंद
था! जिसको आप
कह सकें कि
उसके कारण
मेरा जीवन
सार्थक हो
गया! जिसके कारण
आप कह सकें कि
जीवन के सब
दुख झेलने
योग्य थे!
क्योंकि वह एक
आनंद का कण भी
मिल गया, तो
सब दुख चुक गए।
कोई नुकसान
नहीं हुआ।
क्या एकाध ऐसा
क्षण जीवन में
आपको खयाल है,
जिसके लिए
आप फिर से
जीने को राजी
हो जाएं! कि यह
सारी तकलीफ
झेलने को मैं
राजी हूं
क्योंकि वह
क्षण पाने
जैसा था।
कोई
क्षण याद नहीं
आएगा। सब बासा—बासा, सब
राख—राख, सब
बेस्वाद।
लेकिन आशा फिर
भी टंगी है
भविष्य में।
मरते दम तक
आशा टंगी है।
उस आशा में रस
मालूम पड़ता है।
वह रस धोखा है।
साक्षी, अकर्ता
के भाव में
धोखे का रस
उपलब्ध नहीं
होता, लेकिन
वास्तविक रस
की वर्षा हो
जाती है।
कृष्ण
का जो नृत्य
है,
बुद्ध का जो
मौन है, महावीर
का जो सौंदर्य
है, वह
भविष्य के रस
से पैदा हुई
बातें नहीं
हैं। वह
वर्तमान में,
अभी—यहीं
उनके ऊपर
घनघोर वर्षा
हो रही है।
कबीर
कहते हैं, अमृत
बरस रहा है और
मैं नाच रहा
हूं। वह अमृत
किसी भविष्य
की बात नहीं
है। वह अभी
बरस रहा है।
वह यहीं बरस
रहा है। कबीर
कहते हैं, देखो,
मेरे कपड़े
बिलकुल भीग गए
हैं! मैं अमृत
की वर्षा में
खड़ा हूं। बादल
गरज रहे हैं
और अमृत बरस
रहा है।
बरसेगा नहीं,
बरस रहा है!
देखो, मेरे
कपड़े भीग रहे
हैं!
धर्म
है वर्तमान की
घटना, वासना
है भविष्य की
दौड़। अगर
भविष्य में
बहुत रस मालूम
पड़ता हो, तो
अकर्ता बनने
की कोशिश मत
करना, क्योंकि
बनते ही
भविष्य गिर
जाता है। और
अगर दुख ही
दुख पाया हो—
भविष्य रोज तो
वर्तमान बन
जाता है और
दुख लाता है—तो
फिर एक दफे
हिम्मत करके
अकर्ता भी
बनने की कोशिश
करना।
अकर्ता
बनते ही वह
द्वार खुल
जाता है इटरनिटी
का,
शाश्वतता
का। वह
वर्तमान से ही
खुलता है।
वर्तमान है
अस्तित्व का
द्वार।
अगर
आप अभी और
यहीं एक क्षण
को भी ठहरने
को राजी हो
जाएं, तो आपका
परमात्मा से
मिलन हो सकता
है।
लेकिन
हमारा मन बहुत
होशियार है।
अभी मैं बात
कर रहा हूं मन
कहेगा कि ठीक
कह रहे हैं।
घर चलकर इसकी
कोशिश करेंगे।
घर चलकर? भविष्य!
जरा किसी दिन
फुर्सत
मिलेगी, तो
अकर्ता बनने
की भी चेष्टा
करेंगे।
भविष्य!
जो
अभी हो सकता
है,
उसको हम कल
पर टालकर
वंचित हो जाते
हैं। लेकिन रस
तो केवल
उन्हीं लोगों
ने जाना है, जो वर्तमान
में प्रविष्ट
हो गए हैं।
बाकी लोगों ने
सिवाय दुख के
और कुछ भी
नहीं जाना है।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है...।
बुद्ध को सभी
सुख उपलब्ध थे, जो
आप खोज सकते
हैं। लेकिन
सभी सुख
उपलब्ध होने
में एक बड़ा
खतरा हो जाता
है। और वह
खतरा यह हो
जाता है कि
भविष्य की आशा
नहीं रह जाती
है।
दुख
में एक सुविधा
है,
भविष्य में
आशा रहती है।
जो कार आप
चाहते हैं, वह कल मिल
सकती है, आज,
अभी नहीं
मिल सकती।
श्रम करेंगे,
पैसा
जुटाएंगे, चोरी
करेंगे, बेईमानी
करेंगे, कुछ
उपाय करेंगे।
कल, समय
चाहिए। जो
मकान आप बनाना
चाहते हैं, वक्त लेगा।
लेकिन
बुद्ध को एक
मुसीबत हो गई, एक
अभिशाप, जो
वरदान सिद्ध
हुआ। उनके पास
सब था, इसलिए
भविष्य का कोई
उपाय न रहा।
जो भी था, वह
था। महल बड़े
से बड़े उनके
पास थे।
स्त्रियां
सुंदर से
सुंदर उनके
पास थीं। धन
जितना हो सकता
था, उनके
पास था। जो भी
हो सकता था उस
जमाने में
श्रेष्ठतम, सुंदरतम, वह सब उनके पास
था।
बुद्ध
मुश्किल में
पड़ गए।
क्योंकि आशा
का कोई उपाय न
रहा। होप
समाप्त हो गई।
इससे बड़ा मकान
नहीं हो सकता; इससे
सुंदर स्त्री
नहीं हो सकती;
इससे
ज्यादा धन
नहीं हो सकता।
बुद्ध की
तकलीफ यह हो
गई कि उनके
पास सब था, इसलिए
भविष्य गिर
गया। और दुख
दिखाई पड़ गया कि
सब दुख है। वे
भाग खड़े हुए।
यह
बड़े मजे की
बात है, सुख
में से लोग
जाग गए हैं, भाग गए हैं, और दुख में
लोग चलते चले
जाते हैं! सुख
में लोग इसलिए
भाग खड़े होते
हैं कि दिखाई
पड जाता है कि
अब और तो कुछ
हो नहीं सकता।
जो हो सकता था,
वह हो गया, और कुछ हुआ
नहीं। और भीतर
दुख ही दुख है।
भविष्य कुछ है
नहीं। आशा
बंधती नहीं।
आशा टूट जाती
है। आशा के सब
सेतु गिर गए।
बुद्ध भाग गए।
जब
बुद्ध भाग रहे
हैं,
तो उनका
सारथी उनसे
कहता है कि आप
क्या पागलपन
कर रहे हैं!
सारथी गरीब
आदमी है। उसको
अभी आशाएं हैं।
वह प्रधान
सारथी भी हो
सकता है। वह
सम्राट का
सारथी हो सकता
है। अभी
राजकुमार का
सारथी है। अभी
बड़ी आशाएं हैं।
वह बुद्ध को
कहता है कि
मैं का आदमी
हूं; मैं
तुम्हें
समझाता हूं; तुम गलती कर
रहे हो। तुम
नासमझी कर रहे
हो। तुम अभी
यौवन की भूल
में हो। लौट
चलो। इतने
सुंदर महल कहा
मिलेंगे? इतनी
सुंदर
पत्नियां
कहां मिलेंगी?
इतना सुंदर
पुत्र कहा
पाओगे? तुम्हारे
पास सब कुछ है,
तुम कहा
भागे जा रहे
हो!
वह
सारथी और
बुद्ध के बीच
जो बातचीत है.......।
वह सारथी गलत
नहीं कहता। वह
अपने हिसाब से
कहता है। उसको
अभी आशाओं का
जाल आगे खड़ा
है। ये महल
उसे भी मिल सकते
हैं भविष्य
में। ये सुंदर
स्त्रियां वह
भी पा सकता है।
अभी दौड़ कायम
है। उसे बुद्ध
बिलकुल नासमझ
मालूम पड़ते
हैं कि यह
लड़का बिलकुल
नासमझ है। यह
बच्चों जैसी
बात कर रहा है।
जहां जाने के
लिए सारी
दुनिया कोशिश
कर रही है, वहां
से यह भाग रहा
है! आखिरी
क्षण में भी
वह कहता है कि
एक बार मैं
तुमसे फिर
कहता हूं लौट
चलो। महलों
में वापस लौट
चलो।
तो
बुद्ध कहते
हैं,
तुझे महल
दिखाई पड़ते
हैं, क्योंकि
तू उन महलों
में नहीं है।
मुझे वहा
सिर्फ आग की
लपटें और दुख
दिखाई पड़ता है।
क्योंकि मैं
वहां से आ रहा
हूं। मैं
उनमें रहकर आ
रहा हूं। तू
उनके बाहर है।
इसलिए तुझे
कुछ पता नहीं
है। तू मुझे
समझाने की
कोशिश मत कर।
बुद्ध
महल छोड़ देते
हैं। और छ:
वर्ष तक बड़ी
कठिन
तपश्चर्या
करते हैं परमात्मा
को,
सत्य को, मोक्ष को
पाने की।
लेकिन छ: वर्ष
की कठिन
तपश्चर्या
में भी न मोक्ष
मिलता, न
परमात्मा
मिलता, न
आत्मा मिलती।
बुद्ध
की कथा बड़ी
अनूठी है। छ:
वर्ष वे, जो भी
कहा जाता है, करते हैं।
जो भी साधना—पद्धति
बताई जाती है,
करते हैं।
उनसे गुरु
घबड़ाने लगते
हैं। अक्सर
शिष्य गुरु से
घबड़ाते हैं, क्योंकि
गुरु जो कहता
है, वे
नहीं कर पाते।
लेकिन बुद्ध
से गुरु
घबड़ाने लगते
हैं। गुरु
उनको कहते हैं
कि बस, जो
भी हम सिखा
सकते थे, सिखा
दिया; और
तुमने सब कर
लिया। और
बुद्ध कहते
हैं, आगे
बताओ, क्योंकि
अभी कुछ भी
नहीं हुआ। तो
वे कहते हैं, अब तुम कहीं
और जाओ।
जितने
गुरु उपलब्ध
थे,
बुद्ध सबके
पास घूमकर
सबको थका डालते
हैं। छ: वर्ष
बाद निरंजना
नदी के किनारे
वे वृक्ष के
नीचे थककर
बैठे हैं। यह
थकान बड़ी गहरी
है। एक थकान
तो महलों की
थी कि महल
व्यर्थ हो गए
थे। महल तो
व्यर्थ हो गए
थे, क्योंकि
महलों में कोई
भविष्य नहीं
था।
इसे
थोड़ा समझें, बारीक
है। महलों में
कोई भविष्य
नहीं था। सब
था पास में, आगे कोई आशा
नहीं थी। जब
उन्होंने महल
छोड़े, तो
आशा फिर बंध
गई; भविष्य
खुला हो गया।
अब मोक्ष, परमात्मा,
आत्मा, शांति,
आनंद, इनके
भविष्य की
मंजिलें बन
गईं। अब वे
फिर दौड़ने लगे।
वासना ने फिर
गति पकड़ ली।
अब वे साधना
कर रहे थे, लेकिन
वासना जग गई।
क्योंकि
वासना भविष्य
के कारण जगती
है। वासना है,
मेरे और
भविष्य के बीच
जोड़। अब वे
फिर दौड़ने लगे।
ये
छ: वर्ष, तपश्चर्या
के वर्ष, वासना
के वर्ष थे।
मोक्ष पाना था।
और आज मिल
नहीं सकता, भविष्य में
था। इसलिए सब
कठोर उपाय किए,
लेकिन
मोक्ष नहीं
मिला।
क्योंकि
मोक्ष तो तभी
मिलता है, जब
दौड़ सब समाप्त
हो जाती है।
वह भीतर का
शून्य तो तभी
उपलब्ध होता
है, या
पूर्ण तभी
उपलब्ध होता
है, जब सब
वासना गिर
जाती है।
यह
भी वासना थी
कि ईश्वर को
पा लूं सत्य
को पा लूं। जो
चीज भी भविष्य
की मांग करती
है,
वह वासना है।
ऐसा समझ लें
कि जिस विचार
के लिए भी
भविष्य की जरूरत
है, वह
वासना है। तो
बुद्ध उस दिन
थक गए। यह
थकान दोहरी थी।
महल बेकार हो
गए। अब साधना
भी बेकार हो
गई। अब वे
वृक्ष के नीचे
थककर बैठे थे।
उस रात उनको
लगा, अब
करने को कुछ
भी नहीं बचा।
महल जान लिए।
साधना की
पद्धतियां
जान लीं। कहीं
कुछ पाने को
नहीं है। यह
थका बड़ी गहरी
उतर गई, कहीं
कुछ पाने को
नहीं है। इस
विचार ने कि
कहीं कुछ पाने
को नहीं है, स्वभावत:
दूसरे विचार
को भी जन्म
दिया कि कुछ करने
को नहीं है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
जब कुछ पाने
को नहीं है, तो
करने को क्या
बचता है? जब
तक पाने को है,
तब तक करने
को बचता है।
बुद्ध को लगा
कि अब कुछ न
पाने को है, न कुछ करने
को है। वे उस
रात खाली बैठे
रह गए उस
वृक्ष के नीचे।
नींद कब आ गई, उन्हें पता
नहीं।
सुबह
जब रात का
आखिरी तारा
डूबता था, तब
उनकी आंखें
खुलीं। आज कुछ
भी करने को
नहीं था। न
महल, न
संसार, न
मोक्ष, न
आत्मा, कुछ
भी करने को
नहीं था। उनकी
आंखें खुलीं। भीतर
कोई वासना
नहीं थी। आज
उन्हें यह भी
खयाल नहीं था
कि उठकर कहां
जाऊं। उठकर
क्या करूं।
उठने का भी
क्या प्रयोजन
है। आज कोई
बात ही बाकी न
रही थी! वे थे; आखिरी डूबता
हुआ तारा था, सुबह का
सन्नाटा था; निरंजना नदी
का तट था। और
बुद्ध को
ज्ञान उपलब्ध
हो गया।
जो
साधना से न
मिला, दौड़कर न
मिला, वह
उस सुबह रुक
जाने से मिल
गया। कुछ किया
नहीं, और
मिल गया! कुछ
कर नहीं रहे
थे उस क्षण
में। क्या हुआ?
उस क्षण में
वे साक्षी हो
गए। जब कोई
कर्ता नहीं
होता, तो
साक्षी हो
जाता है। और
जब तक कोई
कर्ता होता है,
तब तक
साक्षी नहीं
हो पाता। उस
क्षण वे देखने
में समर्थ हो
गए। कुछ करने
को नहीं था, इसलिए करने
की कोई वासना
मन में नहीं
थी। कोई
द्वंद्व, कोई
तनाव, कोई
तरंग, कुछ
भी नहीं था।
मन बिलकुल शून्य
था, जैसे
नदी में कोई
लहर न हो। इस
लहरहीन
अवस्था में
परम आनंद उनके
ऊपर बरस गया।
शांत
होते ही आनंद
बरस जाता है।
मौन होते ही
आनंद बरस जाता
है। रुकते ही
मंजिल पास आ
जाती है।
दौड़ते हैं, मंजिल
दूर जाती है।
रुकते हैं, मंजिल पास आ
जाती है।
यह
कहना ठीक नहीं
है कि रुकते
हैं,
मंजिल पास आ
जाती है।
रुकते ही आप
पाते हैं कि
आप ही मंजिल
हैं। कहीं
जाने की कोई
जरूरत न थी।
जा रहे थे, इसलिए
चूक रहे थे।
खोज रहे थे, इसलिए खो
रहे थे। रुक
गए और पा लिया।
एक
आखिरी प्रश्न।
एक मित्र ने
पूछा है कि
क्या बिना
साधना किए, अकस्मात
आत्म—साक्षात्कार
नहीं हो सकता?
कठिन है
सवाल, लेकिन
जो मैं अभी कह
रहा था, उससे
जोड़कर
समझेंगे तो
आसान हो जाएगा।
क्या
अकस्मात आत्म—साक्षात्कार
नहीं हो सकता? पहली
तो बात, जब
भी आत्म—साक्षात्कार
होता है, तो
अकस्मात ही
होता है। जब
भी आत्मा का
अनुभव होता है,
तो अकस्मात
ही होता है।
लेकिन इसका
मतलब आप यह मत
समझना कि उसके
लिए कुछ भी
करना नहीं
पड़ता है। आपके
करने से नहीं
होता, लेकिन
आपका करना
जरूरी है।
इसे
ऐसा समझें कि
आपको किसी
मित्र का नाम
भूल गया है।
और आप बड़ी
चेष्टा करते
हैं याद करने
की। और जितनी
चेष्टा करते
हैं,
उतना ही कुछ
याद नहीं आता।
और ऐसा भी
लगता है कि
बिलकुल जबान
पर रखा है। आप
कहते भी हैं
कि बिलकुल
जबान पर रखा
है। अब जबान
पर ही रखा है, तो निकाल
क्यों नहीं
देते? लेकिन
पकड़ में नहीं
आता। और जितनी
कोशिश पकड़ने
की करते हैं, उतना ही
बचता है, भागता
है। और भीतर
कहीं एहसास भी
होता है कि
मालूम है। यह
भी एहसास होता
है कि अभी आ
जाएगा। और फिर
भी पकड़ में
नहीं आता।
फिर
आप थक जाते
हैं। फिर आप
थककर बगीचे
में जाकर
गड्डा खोदने
लगते हैं। या
उठाकर अखबार
पढ़ने लगते हैं।
या सिगरेट
पीने लगते हैं।
या रेडियो खोल
देते हैं। या
कुछ भी करने
लगते हैं। या
लेट जाते हैं।
और थोड़ी देर
में अचानक
जैसे कोई
बबूले की तरह वह
नाम उठकर आपके
ऊपर आ जाता है।
और आप कहते
हैं कि देखो, मैं
कहता था, जबान
पर रखा है। अब
आ गया।
लेकिन
इसमें दो
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं। आपने जो
कोशिश की, उसके
कारण आया नहीं
है। लेकिन अगर
आपने कोशिश न
की होती, तो
भी न आता। यह
जरा जटिल है।
आपने
कोशिश की उसके
कारण नहीं आया
है,
क्योंकि
कोशिश में
तनाव हो जाता
है। तनाव के
कारण मन
संकीर्ण हो
जाता है; दरवाजा
बंद हो जाता
है। आप इतने
उत्सुक हो
जाते हैं लाने
के लिए कि उस उत्सुकता
के कारण ही
उपद्रव पैदा
हो जाता है।
भीतर सब तन
जाता है। नाम
के आने के लिए
आपका शिथिल
होना जरूरी है,
ताकि नाम
ऊपर आ सके, उसका
बबूला आप तक आ
जाए। लेकिन
आपने जो
चेष्टा की है,
अगर वह आप
चेष्टा ही न
करें, तो
बबूले की आने
की कोई जरूरत
भी नहीं रह
जाती।
इसका
अर्थ यह हुआ
कि चेष्टा करना
जरूरी है और
फिर चेष्टा
छोड़ देना भी
जरूरी है। यही
आध्यात्मिक
साधना की सबसे
कठिन बात है।
यहां कोशिश भी
करनी पड़ेगी और
एक सीमा पर
कोशिश को छोड़
भी देना पड़ेगा।
कोशिश करना
जरूरी है और
छोड़ देना भी
जरूरी है।
इसे
हम ऐसा समझें
कि आप एक सीढ़ी
पर चढ़ते हैं।
अगर कोई मुझसे
पूछे कि क्या
सीढ़ियों पर
चढ़ने से मैं
मंजिल पर
पहुंच जाऊंगा, छत
पर पहुंचा
जाऊंगा? या
बिना सीढ़ी चढ़े
भी छत पर
पहुंचा जा
सकता है? तो
मेरी वही
दिक्कत होगी,
जो इस सवाल
में हो रही है।
मैं
आपसे कहूंगा
कि सीढ़ियों पर
चढ़ना जरूरी है
और फिर
सीढ़ियों को छोड़
देना भी जरूरी
है। सीढ़ी पर
बिना चढ़े कोई
भी छत पर नहीं
पहुंच सकता।
और कोई
सीढ़ियों पर ही
चढ़ता रहे, और
सीढ़ियों पर ही
रुका रहे, तो
भी छत पर नहीं
पहुंच सकता।
सीढ़ियों पर
चढ़ना होगा; और एक जगह
आएगी, जहां
सीढ़िया
छोड्कर छत पर
जाना होगा।
आप
कहें कि जिस
सीढ़ी पर हम चढ़
रहे थे, उसी
पर चढ़ते
रहेंगे, तो
फिर आप छत पर
कभी नहीं
पहुंच पाएंगे।
सीढ़ियों पर
चढ़ो भी और
सीढ़ियों को
छोड़ भी दो।
आध्यात्मिक
साधना
सीढ़ियों जैसी
है। उस पर
चढ़ना भी जरूरी
है,
उससे उतर
जाना भी जरूरी
है।
उदाहरण
के लिए अगर आप
कोई जप का
प्रयोग करते हैं, राम
का जप करते
हैं। तो ध्यान
रहे, जब तक
राम का जप न
छूट जाए तब तक
राम से मिलन न
होगा। लेकिन
छोड़ तो वही
सकता है, जिसने
किया हो।
कुछ
नासमझ कहते
हैं कि तब तो
बिलकुल ठीक ही
है;
हम अच्छी
हालत में ही
हैं। छोड़ने की
कोई जरूरत
नहीं, क्योंकि
हमने कभी किया
ही नहीं। वे
सीढ़ी के नीचे
खड़े हैं।
छोड़ने वाला
सीढ़ी के ऊपर
से छोड़ेगा। उन
दोनों के तलों
में फर्क है।
साधना
बुद्ध ने छ:
वर्ष की।
बौद्ध चिंतन, बौद्ध
धारा निरंतर
सवाल उठाती
रही है कि
बुद्ध ने छ:
वर्ष साधना की,
तप किया, उस तप से
सत्य मिला या
नहीं? एक
उत्तर है कि
उस तप से सत्य
नहीं मिला।
क्योंकि उस तप
से नहीं मिला,
छ: वर्ष की
मेहनत से कुछ
भी नहीं मिला।
मिला तो तब, जब तप छोड़
दिया। तो एक
वर्ग है
बौद्धों का, जो कहता है
कि बुद्ध को
तप से कुछ भी
नहीं मिला, इसलिए तप
व्यर्थ है।
लेकिन
जो ज्यादा
बुद्धिमान
वर्ग है, वह
कहता है, तप
से नहीं मिला,
लेकिन फिर
भी जो मिला, वह तप पर
आधारित है। वह
तप के बिना भी
नहीं मिलेगा।
आप
जाकर बैठ जाएं
निरंजना नदी
के किनारे। वह
झाडू अभी भी
लगा हुआ है।
आप वैसे ही
जाकर मजे से
उसके नीचे बैठ
जाएं। सुबह
आखिरी तारा अब
भी डूबता है।
सुबह आप आंख
खोल लेना।
अलार्म की एक
घड़ी लगा लेना।
ठीक वक्त पर आंख
खुल जाएगी। आप
तारे को देख
लेना और बुद्ध
हो जाना!
आप
बुद्ध नहीं हो
पाएंगे। वह छ:
वर्ष की दौड़
इस बैठने के
लिए जरूरी थी।
यह आदमी इतना
दौड़ा था, इसलिए
बैठ सका। आप दौड़े
ही नहीं हैं, तो बैठेंगे
कैसे?
इसे
हम ऐसा समझें
कि एक आदमी
दिनभर मेहनत
करता है, तो
रात गहरी नींद
में सो जाता
है। नींद उलटी
हैं। दिनभर
मेहनत करता है,
रात गहरी
नींद में सो
जाता है। आप
कहते हैं कि
मुझे नींद
क्यों नहीं
आती? आप
दिनभर आराम कर
रहे हैं। और
फिर रात नींद
नहीं आती, तो
आप सोचते हैं
कि मुझे तो और
ज्यादा नींद
आनी चाहिए।
मैं तो नींद
का दिनभर
अभ्यास करता
हूं! और यह आदमी
तो दिनभर
मेहनत करता है,
नींद के
अभ्यास का इसे
मौका ही नहीं
मिलता। और मैं
दिनभर नींद का
अभ्यास करता
हूं। आंख बंद
किए सोफे पर
पड़ा ही रहता
हूं करवट
बदलता रहता
हूं। और इसको
नींद आ जाती
है, जिसने
दिन में
बिलकुल अभ्यास
नहीं किया! और
मुझे नींद रात
बिलकुल नहीं
आती, जो कि
दिनभर का
अभ्यास किया
है! यह कैसा
अन्याय हो रहा
है जगत में?
आपको
खयाल नहीं है
कि जिसने
दिनभर मेहनत
की है, वही
विश्राम का
हकदार हो जाता
है। विश्राम
मेहनत का फल
है। इसका यह
मतलब नहीं है
कि आप रात भी
मेहनत करते
रहें।
विश्राम करना
जरूरी है।
लेकिन वह
जरूरी तभी है
और उपलब्ध भी
तभी होता है, जब उसके
पहले श्रम
गुजरा हो।
जो
आदमी बुद्ध की
तरह छ: साल
गहरी
तपश्चर्या में
दौड़ता है, वह
अगर किसी दिन
थककर बैठ
जाएगा, तो
उसके बैठने का
गुणधर्म अलग
है। वह आप
जैसा नहीं
बैठा है। आप
बैठे हुए भी
चल रहे हैं।
आप भी उसी
बोधिवृक्ष के
नीचे बैठ सकते
हैं, मगर
आपका मन चलता
ही रहेगा, आपका
मन योजनाएं
बनाता रहेगा।
सुबह का तारा
भी डूब रहा
होगा, तब
भी आपके भीतर
हजार चीजें
खड़ी होंगी।
वहां कोई मौन
नहीं हो सकता।
जब तक वासना
है, तब तक
मौन नहीं हो
सकता।
बुद्ध
की दौड़ से
सत्य नहीं
मिला, यह ठीक
है। लेकिन
बुद्ध की दौड़
से ही सत्य
मिला, यह
भी उतना ही
ठीक है। इस
द्वंद्व को
ठीक से आप समझ
लेंगे, तो
इस प्रश्न का
उत्तर मिल
जाएगा।
आत्म—साक्षात्कार
तो सदा
अकस्मात ही
होता है।
क्योंकि उसका
कोई प्रेडिक्शन
नहीं हो सकता, कोई
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती
कि कल सुबह
ग्यारह बजे
आपको आत्म—साक्षात्कार
हो जाएगा।
आपकी
मौत की
भविष्यवाणी
हो सकती है।
आपकी बीमारी
की
भविष्यवाणी
हो सकती है।
सफलता—असफलता
की
भविष्यवाणी
हो सकती है।
आत्म—साक्षात्कार
की कोई
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
क्योंकि आत्म—साक्षात्कार
इतनी अनूठी
घटना है और कार्य—कारण
से इतनी मुक्त
है कि उसके
लिए कोई गणित
नहीं बिठाया
जा सकता।
आत्म—साक्षात्कार
तो अकस्मात ही
होगा। और कभी—कभी
ऐसे क्षणों
में हो जाता
है,
जिनको आप
सोच भी नहीं
सकते थे कि इस
क्षण में और
आत्म—साक्षात्कार
होगा। लेकिन
अगर आप इसका
यह मतलब समझ
लें कि साधना
करनी जरूरी
नहीं है, अकस्मात
जब होना है, हो जाएगा।
तो कभी भी न
होगा। साधना
जरूरी है।
साधना जरूरी
है आपको तैयार
करने के लिए।
आत्म—साक्षात्कार
साधना से नहीं
आता, लेकिन
आप तैयार होते
हैं, आप
योग्य बनते
हैं, आप
पात्र बनते
हैं, आप
खुलते हैं। और
जब आप योग्य
और पात्र हो
जाते हैं, तो
आत्म—साक्षात्कार
की घटना घट
जाती है। इस
फर्क को ठीक
से खयाल में
ले लें।
आप
परमात्मा को
साधना से नहीं
ला सकते। वह
तो मौजूद है।
साधना से
सिर्फ आप अपनी
आंख खोलते हैं।
साधना से
सिर्फ आप अपने
को तैयार करते
हैं।
परमात्मा तो
मौजूद है, उसको
पाने का कोई
सवाल नहीं है।
ऐसा
समझें कि आप
अपने घर में
बैठे हैं।
सूरज निकल गया
है,
सुबह है। और
आप सब तरफ से
द्वार—दरवाजे
बंद किए अंदर
बैठे हैं।
सूरज आपके
दरवाजों को
तोड़कर भीतर
नहीं आएगा।
लेकिन दरवाजे
पर उसकी किरणें
रुकी रहेंगी।
आप चाहें कि
जाकर बाहर
सूरज की रोशनी
को गठरी में
बांधकर भीतर
ले आएं, तो
भी आप न ला
सकेंगे। गठरी
भीतर आ जाएगी,
रोशनी बाहर
की बाहर रह
जाएगी। लेकिन
आप एक काम कर
सकते हैं कि
दरवाजे खुले छोड़
दें, और
सूरज भीतर चला
आएगा।
न
तो सूरज को
जबरदस्ती
भीतर लाने का
कोई उपाय है।
और न सूरज
जबरदस्ती
अपनी तरफ से
भीतर आता है।
आप क्या कर
सकते हैं? एक
मजेदार बात है।
आप सूरज को
भीतर तो नहीं
ला सकते, लेकिन
बाहर रोक सकते
हैं। आप
दरवाजा बंद
रखें, तो
भीतर नहीं
आएगा। आप
दरवाजा खोल
दें, तो
भीतर आएगा।
ठीक
परमात्मा ऐसा
ही मौजूद है।
और जब तक आप
अपने विचारों
में बंद, अपने
मन से घिरे, मुर्दे की
तरह हैं, एक
कब में, चारों
तरफ दीवालों
से घिरे हुए
एक कारागृह में—वासनाओं
का, विचारों
का, स्मृतियों
का कारागृह; आशाओं का, अपेक्षाओं
का कारागृह—तब
तक परमात्मा
से आपका मिलन
नहीं हो पाता।
जिस क्षण यह
कारागृह आपसे
गिर जाता है, जिस क्षण, जैसे वस्त्र
गिर जाएं, और
आप नग्न हो गए,
ऐसे ये सारे
विचार—वासनाओं
के
वस्त्र गिर गए
और आप नग्न हो
गए अपनी शुद्धता
में,
उसी क्षण
आपका मिलना हो
जाता है।
साधना
आपको निखारती
है,
परमात्मा
को नहीं
मिलाती।
लेकिन जिस दिन
आप निखर जाते
हैं.,। और
कोई नहीं कह
सकता कि कब आप
निखर जाते हैं,
क्योंकि
इतनी अनहोनी
घटना है कि
कोई मापदंड नहीं
है। और जांचने
का कोई उपाय
नहीं है। कोई
दिशासूचक
यंत्र नहीं है।
कोई नक्शा
नहीं है, अनचार्टर्ड
है। यात्रा
बिलकुल ही नक्शे
रहित है।
आपके
पास कुछ भी
नहीं है कि आप
पता लगा लें
कि आप कहां
पहुंच गए।
निन्यानबे
डिग्री पर
पहुंच गए, कि
साढ़े
निन्यानबे
डिग्री पर
पहुंच गए कि
कब सौ डिग्री
हो जाएगी, कब
आप भाप बन
जाएंगे। यह तो
जब आप बन जाते
हैं, तभी
पता चलता है
कि बन गए। वह
आदमी पुराना
समाप्त हो गया
और एक नई
चेतना का जन्म
हो गया।
अकस्मात, अचानक
विस्फोट हो
जाता है।
लेकिन
उस अकस्मात
विस्फोट के
पहले लंबी
यात्रा है
साधना की। जब
पानी भाप बनता
है,
तो सौ
डिग्री पर
अकस्मात बन
जाता है।
लेकिन आप यह
मत समझना कि
निन्यानबे
डिग्री पर, अट्ठानबे
डिग्री पर भी
अकस्मात बन
जाएगा। सौ
डिग्री तक
पहुंचेगा, तो
एकदम से भाप
बन जाएगा।
लेकिन सौ
डिग्री तक
पहुंचने के
लिए जो गरमी की
जरूरत है, वह
साधना
जुटाएगी।
इसलिए
हमने साधना को
तप कहा है। तप
का अर्थ है, गरमी।
वह तपाना है
स्वयं को और
एक ऐसी स्थिति
में ले आना है,
जहां
परमात्मा से
मिलन हो सकता
है।
बुद्ध
उस रात उस जगह
आ गए जहां सौ
डिग्री पूरी हो
गई। फिर आग
देने की कोई
जरूरत भी न
रही। वे टिककर
उस वृक्ष से
बैठ गए।
उन्होंने तप
भी छोड़ दिया।
लेकिन घटना
सुबह घट गई।
जीवन
के परम रहस्य
अकस्मात घटित
होते हैं।
लेकिन उन
अकस्मात घटित
होने वाले
रहस्यों की भी
बड़ी पूर्व—
भूमिका है। अब
हम सूत्र को
लें।
हे
अर्जुन, जिस
प्रकार एक ही
सूर्य इस
संपूर्ण लोक
को प्रकाशित
करता है, उसी
प्रकार एक ही
आत्मा
संपूर्ण
क्षेत्र को प्रकाशित
करता है। इस
प्रकार
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
के भेद को तथा
विकारयुक्त
प्रकृति से
छूटने के उपाय
को जो पुरुष
ज्ञान—नेत्रों
द्वारा तत्व
से जानते हैं,
वे
महात्माजन
परम ब्रह्म
परमात्मा को
प्राप्त होते
हैं।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
एक सुबह
रास्ते से निकलते
वक्त, वर्षा
के दिन थे और
रास्ते के
किनारे जगह—जगह
डबरे हो गए थे और
पानी भर गया
था। कुछ डबरे
गंदे थे। कुछ
डबरों में
जानवर स्नान
कर रहे थे।
कुछ डबरे
शुद्ध थे। कुछ
बिलकुल
स्वच्छ थे।
किन्हीं के
पोखर का पानी
बड़ा स्वच्छ—साफ
था। किन्हीं
का बिलकुल
गंदा था। और
सुबह का सूरज
निकला।
रवींद्रनाथ
ने कहा कि मैं
घूमने निकला
था। मुझे एक
बात बड़ी हैरान
कर गई और
अकस्मात वह
बात मेरे हृदय
के गहरे से गहरे
अंतस्तल को
स्पर्श करने
लगी।
देखा
मैंने कि सूरज
एक है; गंदे
डबरे में भी
उसी का
प्रतिबिंब बन
रहा है, स्वच्छ
पानी में भी
उसी का
प्रतिबिंब बन
रहा है। और यह
भी खयाल में
आया कि गंदे
डबरे में जो
प्रतिबिंब बन
रहा है, वह
गंदे पानी की
वजह से
प्रतिबिंब
गंदा नहीं हो
रहा है।
प्रतिबिंब तो
वैसा का वैसा
निष्कलुष!
सूरज का जो
प्रतिबिंब बन
रहा है, वह
तो वैसा का
वैसा निर्दोष
और पवित्र! और
शुद्ध जल में
भी उसका
प्रतिबिंब बन
रहा है। वे
प्रतिबिंब
दोनों बिलकुल
एक जैसे हैं।
गंदगी जल में
हो सकती है, डबरे में हो
सकती है, लेकिन
प्रतिबिंब की
शुद्धि में
कोई अंतर नहीं
पड़ रहा है। और
फिर एक ही
सूर्य न मालूम
कितने डबरों
में, करोड़ों—करोड़ों
डबरों में
पृथ्वी पर
प्रतिबिंबित
हो रहा होगा।
कृष्ण
कहते हैं, जैसे
एक ही सूर्य
इस संपूर्ण
लोक को
प्रकाशित करता
है, उसी
प्रकार एक ही
आत्मा, एक
ही चैतन्य
समस्त जीवन को
आच्छादित किए
हुए है।
वह
जो आपके भीतर
चैतन्य की
ज्योति है, और
वह जो मेरे
भीतर चैतन्य
की ज्योति है,
और वह जो
वृक्ष के भीतर
चैतन्य की
ज्योति है, वह एक ही
प्रकाश के
टुकड़े हैं, एक ही
प्रकाश की
किरणें हैं।
प्रकाश
एक है, उसका
स्वाद एक है।
उसका स्वभाव
एक है। दीए
अलग— अलग हैं।
कोई मिट्टी का
दीया है, कोई
सोने का दीया
है। लेकिन
सोने के दीए
में जो प्रकाश
होता है, वह
कुछ कीमती
नहीं हो जाता।
और मिट्टी के
दीए में जो
प्रकाश होता
है, वह कोई
कम कीमती नहीं
हो जाता। और
मिट्टी के दीए
की ज्योति को
अगर आप जांचें
और सोने के
दीए की ज्योति
को जांचें, तो उन दोनों
का स्वभाव एक
है।
चैतन्य
एक है। उसका
स्वभाव एक है।
वह स्वभाव है, साक्षी
होना। वह
स्वभाव है, जानना। वह
स्वभाव है, दर्शन की
क्षमता।
प्रकाश का
क्या स्वभाव
है? अंधेरे
को तोड़ देना।
जहां कुछ न
दिखाई पड़ता हो,
वहां सब कुछ
दिखाई पड़ने
लगे। चैतन्य
का स्वभाव है,
देखने की, जागने की
क्षमता, दर्शन
की, ज्ञान
की क्षमता। वह
भी भीतरी
प्रकाश है। उस
प्रकाश में सब
कुछ दिखाई पड़ने
लगता है।
खतरा
एक ही है कि जब
भीतर का दीया
हमारा जलता है
और हमें चीजें
दिखाई पड़ने
लगती हैं, तो
हम चीजों को
स्मरण रख लेते
हैं और जिसमें
दिखाई पड़ती
हैं, उसे
भूल जाते हैं।
यही विस्मरण
संसार है। जो
दिखाई पड़ता है,
उसे पकड़ने
दौड़ पड़ते हैं।
और जिसमें
दिखाई पड़ता है,
उसका
विस्मरण हो
जाता है।
जिस
चैतन्य के
कारण हमें
सारा संसार
दिखाई पड़ रहा
है,
उस चैतन्य
को हम भूल
जाते हैं। और
वह जो दिखाई
पड़ता है, उसके
पीछे चल पड़ते
हैं। इसी
यात्रा में हम
जन्मों—जन्मों
भटके हैं।
कृष्ण
कहते हैं
सूत्र इससे
जागने का। वह
सूत्र है कि
हम उसका स्मरण
करें, जिसको
दिखाई पड़ता है।
जो दिखाई पड़ता
है, उसे भूलें।
जिसको दिखाई
पड़ता है, उसको
स्मरण करें।
विषय भूल जाए,
और वह जो
भीतर बैठा हुआ
द्रष्टा है, वह स्मरण
में आ जाए। यह
स्मृति ही
क्षेत्रज्ञ
में स्थापित
कर देती है।
यह स्मृति ही
क्षेत्र से
तोड़ देती है।
यह
सारा विचार
क्या का इन दो
शब्दों के बीच
चल रहा है, क्षेत्र
और
क्षेत्रज्ञ।
वह जो जानने
वाला है वह, और वह जो
जाना जाता है।
जाना जो जाता
है, वह
संसार है। और
जो जानता है, वह परमात्मा
है।
यह
परमात्मा अलग—अलग
नहीं है। यह
हम सबके भीतर
एक है। लेकिन
हमें अलग—अलग
दिखाई पड़ता है, क्योंकि
हम भीतर तो
कभी झांककर
देखे नहीं। हमने
तो केवल शरीर
की सीमा देखी
है।
मेरा
शरीर अलग है।
आपका शरीर अलग
है। स्वभावत:, वृक्ष
का शरीर अलग
है। तारों का
शरीर अलग है।
पत्थर का शरीर
अलग है। तो
शरीर हमें
दिखाई पड़ते
हैं, इसलिए
खयाल होता है
कि जो भीतर
छिपा है, वह
भी अलग है।
एक
बार हम अपने
भीतर देख लें और
हमें पता चल
जाए कि शरीर
में जो छिपा
है,
शरीर से जो
घिरा है, वह
अशरीरी है।
पदार्थ जिसकी
सीमा बनाता है,
वह पदार्थ
नहीं है। सब
सीमाएं टूट
गईं। फिर सब
शरीर खो गए।
फिर सब
आकृतियां
विलुप्त हो
गईं और
निराकार का
स्मरण होने
लगा। इस सूत्र
में उसी
निराकार का
स्मरण है।। हे
अर्जुन, जिस
प्रकार एक ही
सूर्य
संपूर्ण लोक
को प्रकाशित
करता है, उसी
प्रकार एक ही
आत्मा
संपूर्ण
क्षेत्र को प्रकाशित
करता है। इस
प्रकार
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
के भेद को तथा
विकारयुक्त
प्रकृति से
छूटने के उपाय
को जो पुरुष ज्ञान
—नेत्रों
द्वारा तत्व से
जानते है, वे
महात्माजन
परम ब्रह्म
परमात्मा को
प्राप्त होते
है।
क्षेत्र
और
क्षेत्रज्ञ
के भेद को......।
बहुत
बारीक भेद है
और जरा में
भूल जाता है। क्योंकि
जिसे हम देख
रहे हैं, उसे
देखना आसान है।
और जो देख रहा है,
उसे देखना मुश्किल
है। अपने को
ही देखना
मुश्किल है। इसलिए
बार — बार दृष्टि
पदार्थों पर
अटक जाती है।
बार—बार कोई विषय,
कोई वासना,
कुछ पाने की
आकांक्षा पकड़
लेती है।
चारों तरफ
बहुत। कुछ है।
गुरजिएफ
कहा करता था
कि जो व्यक्ति
सेल्फ रिमेंबरिग,।
स्व—स्मृति को
उपलब्ध हो
जाता है, उसे
फिर कुछ पाने
को नहीं रह
जाता।
साक्रेटीज ने
कहा है कि
स्वयं को जान
लेना सब कुछ
है, सब कुछ
जान लेना है।
मगर
यह स्वयं को
जानने की कला
है। और वह कला
है,
क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ
का भेद। वह
कला है, सदा
जो दिखाई पड़
रहा है, उससे
अपने को अलग
कर लेना। इसका
अर्थ गहरा है।
इसका
अर्थ यह है कि
आपको मकान
दिखाई पड़ता है, तो
अलग कर लेने
में कोई
कठिनाई नहीं
है। लेकिन
आपको अपना
शरीर भी दिखाई
पड़ता है। यह
हाथ मुझे
दिखाई पड़ता है।
तो जिस हाथ को
मैं देख रहा
हूं निश्चित
ही उस हाथ से
मैं अलग हो
गया। और तब आंख
बंद करके कोई
देखे, तो
अपने विचार भी
दिखाई पड़ते
हैं। अगर आंख
बंद करके शांत
होकर देखें, तो आपको
दिखाई पड़ेगी
विचारों की
कतार ट्रैफिक
की तरह चल रही
है। एक विचार
आया, दूसरा
विचार आया, तीसरा विचार
आया। भीड़ लगी
है विचारों की।
इनको भी अगर
आप देख लेते
हैं, तो
इसका मतलब हुआ
कि ये भी क्षेत्र
हो गए।
जो
भी देख लिया
गया,
वह मुझसे
अलग हो गया—यह
सूत्र है
साधना का। जो
भी मैं देख
लेता हूं वह
मैं नहीं हूं।
और मैं उसकी
तलाश करता
रहूंगा, जिसको
मैं देख नहीं
पाता और हूं।
उसका मुझे पता
उसी दिन चलेगा,
जिस दिन
देखने वाली
कोई भी चीज
मेरे सामने न
रह जाए।
संसार
से आंख बंद कर
लेनी बहुत
कठिन नहीं है।
आंख बंद हो
जाती है, संसार
बंद हो जाता
है। लेकिन
संसार के
प्रतिबिंब
भीतर छूट गए
हैं, वे
चलते रहते हैं।
फिर उनसे भी
अपने को तोड़
लेना है। और
तोड़ने. की कला
यही है कि मैं आंख
गड़ाकर देखता रहूं, सिर्फ देखता
रहूं, और इतना
ही स्मरण रखूं
कि जो भी मुझे दिखाई
पड़ जाए, वह
मैं नहीं हूं।
धीरे—
धीरे— धीरे
विचार भी खो
जाएंगे। जैसे—जैसे
यह धार तलवार
की गहरी होती
जाएगी, प्रखर
होती जाएगी, और मेरी
काटने की कला
साफ होती
जाएगी कि जो
भी मुझे दिखाई
पड़ जाए, वह
मैं नहीं हूं
एक घड़ी ऐसी
आती है, जब
कुछ भी दिखाई
पड़ने को शेष
नहीं रह जाता
है। वही ध्यान
की घड़ी है।
उसको शून्य
कहा जाता है, क्योंकि कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता।
लेकिन
अगर शून्य
दिखाई पड़ता है, तो
वह भी मैं
नहीं हूं यह
खयाल रखना
जरूरी है।
क्योंकि ऐसे
बहुत से
ध्यानी भूल
में पड़ गए हैं।
क्योंकि जब
कोई भी विषय नहीं
बचता, तो
वे कहते हैं, शून्य रह
गया।
बौद्धों
का एक
शून्यवाद है।
नागार्जुन ने
उसकी
प्रस्तावना
की है। और
नागार्जुन ने
कहा है कि सब
कुछ शून्य है।
यह
भी भूल है। यह
आखिरी भूल है, लेकिन
भूल है।
क्योंकि
शून्य बचा।
लेकिन तब
शून्य भी एक
आब्जेक्ट बन
गया। मैं शून्य
को देख रहा
हूं। निश्चित
ही, मैं
शून्य भी नहीं
हो सकता।
जो
भी मुझे दिखाई
पड़ जाता है, वह
मैं नहीं हूं।
मैं तो वह हूं
जिसको दिखाई
पड़ता है।
इसलिए पीछे —पीछे
सरकते जाना है।
एक घड़ी ऐसी
आती है, जब
शून्य से भी
मै अपने को
अलग कर लेता
हूं।
जब
शून्य दिखाई
पड़ता है, तब
ध्यान की
अवस्था है।
कुछ लोग ध्यान
में ही रुक
जाते हैं, तो
शून्य को पकड़
लेते हैं। जब
शून्य को भी
कोई छोड़ देता
है, शून्य
को छोड़ते ही
सारा आयाम बदल
जाता है। फिर
कुछ भी नहीं
बचता। संसार
तो खो गया, विचार
खो गए, शून्य
भी खो गया।
फिर कुछ भी
नहीं बचता।
फिर सिर्फ
जानने वाला ही
बच रहता है।
शून्य
तक ध्यान है।
और जब शून्य
भी खो जाता है, तो
समाधि है। जब
शून्य भी नहीं
बचता, सिर्फ
मैं ही बच
रहता हूं
सिर्फ जानने
वाला!
ऐसा
समझें कि दीया
जलता है।
सिर्फ प्रकाश
रह जाता है।
कोई प्रकाशित
चीज नहीं रह
जाती। किसी
चीज पर प्रकाश
नहीं पड़ता।
सिर्फ प्रकाश
रह जाता है।
सिर्फ जानना
रह जाता है और
जानने को कोई
भी चीज नहीं
बचती, ऐसी
अवस्था का नाम
समाधि है। यह
समाधि ही परम
ब्रह्म का
द्वार है।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
जो इस भेद
को तथा
विकारयुक्त
प्रकृति से
छूटने के उपाय
को—यही उपाय
है—ज्ञान—नेत्रों
द्वारा तत्व जानते
हैं.......।
लेकिन
शब्द से तो
जान सकते हैं
आप। मैंने कहा, आपने
सुना; और
एक अर्थ में
आपने जान भी
लिया। पर यह
जानना काम
नहीं आएगा। यह
तो केवल
व्याख्या हुई।
यह तो केवल
विश्लेषण हुआ।
यह तो केवल
शब्दों के
द्वारा
प्रत्यय की
पकड़ हुई।
लेकिन ज्ञान—नेत्रों
के द्वारा जो
तत्व से जान
लेता है, ऐसा
आपका अनुभव बन
जाए।
यह
तो आप प्रयोग
करेंगे, तो
अनुभव बनेगा।
यह तो आप अपने
भीतर उतरते
जाएंगे और
काटते चले
जाएंगे
क्षेत्र को, ताकि
क्षेत्रज्ञ
उसकी शुद्धतम
स्थिति में अनुभव
में आ जाए.।
क्षेत्र से
मिश्रित होने
के कारण वह
अनुभव में
नहीं आता।
तो
इलिमिनेट
करना है, काटना
है, क्षेत्र
को छोड़ते जाना
है, हटाते
जाना है। और
उस घड़ी को ले
आना है भीतर, जहां कि मैं
ही बचा अकेला;
कोई भी न
बचा। सिर्फ
मेरे जानने की
शुद्ध क्षमता
रह गई, केवल
ज्ञान रह गया।
तो जिस दिन आप
अपने ज्ञान—नेत्रों
से..।
स्मृति
को आप ज्ञान
मत समझ लेना।
समझ ली कोई
बात,
इसको आप
अनुभव मत समझ
लेना। बिलकुल
अकल में आ गई, तो भी आप यह
मत समझ लेना
कि आप में आ गई।
बुद्धि में आ
जाना तो बहुत
आसान है।
क्योंकि
साधारणतया जो
सोच—समझ सकता
है, वह भी
समझ लेगा कि
बात ठीक है, कि जो मुझे
दिखाई पड़ता है,
वह मैं कैसे
हो सकता हूं!
मैं तो वही
होऊंगा, जिसको
दिखाई पडता है।
यह तो बात
सीधी गणित की
है। यह तो
तर्क की पकड़
में आ जाती है।
यह
मेरा हाथ है, इससे
मैं जो भी चीज
पकड़ लूं एक
बात पक्की है
कि वह मेरा
हाथ नहीं होगा।
जो भी चीज
इससे मैं
पकडूंगा, वह
कुछ और होगी।
इसी हाथ को
इसी हाथ से
पकड़ने का कोई
उपाय नहीं है।
आप
एक चमीटे से
चीजें पकड़
लेते हैं।
दुनियाभर की
चीजें पकड़
सकते हैं।
सिर्फ उसी
चमीटे को नहीं
पकड़ सकते उसी
चमीटे से।
दूसरे से पकड़
सकते हैं। वह
सवाल नहीं है।
लेकिन उसी
चमीटे से आप
सब चीजें पकड़ लेते
हैं। यह बड़ी
मुश्किल की
बात है।
यह
दुनिया बड़ी
अजीब है। जो
चमीटा सभी
चीजों को पकड़
लेता है, वह भी
अपने को पकड़ने
में असमर्थ है।
तो आप चमीटे
में कुछ भी
पकड़े हों, एक
बात पक्की है
कि चमीटा नहीं
होगा वह; वही
चमीटा नहीं
होगा; कुछ
और होगा। जब
सब पकड़ छूट
जाए, तो
शुद्ध चमीटा
बचेगा।
जब
मेरे हाथ में
कुछ भी पकड़
में न रह जाए, तो
मेरा शुद्ध
हाथ बचेगा। जब
मेरी चेतना के
लिए कोई भी
चीज जानने को
शेष न रह जाए, तो सिर्फ
चैतन्य बचेगा।
लेकिन यह
अनुभव से!
तर्क
से समझ में आ
जाता है। और
एक बड़े से बड़ा
खतरा है। जब
समझ में आ
जाता है, तो हम
सोचते हैं, बात हो गई।
इधर
मैं देखता हूं
पचास साल से
गीता पढने
वाले लोग हैं।
रोज पढ़ते हैं।
भाव से पढ़ते
हैं,
निष्ठा से
पढ़ते हैं।
उनकी निष्ठा
में कोई कमी
नहीं है। उनके
भाव में कोई
कमी नहीं है।
प्रामाणिक है
उनका श्रम। और
गीता वे
बिलकुल समझ गए
हैं। वही खतरा
हो गया है।
किया
उन्होंने
बिलकुल नहीं
है कुछ भी।
सिर्फ
गीता को समझते
रहे हैं, बिलकुल
समझ गए हैं।
उनके खून में
बह गई है गीता।
वे मर भी गए
हों और उनको
उठा लो, तो
वे गीता बोल
सकते हैं, इतनी
गहरी उनकी
हड्डी—मास—मज्जा
में उतर गई है।
लेकिन
उन्होंने
किया कुछ भी
नहीं है, बस
उसको पढ़ते रहे
हैं, समझते
रहे हैं।
बुद्धि भर गई
है, लेकिन
हृदय खाली रह
गया है। और
अस्तित्व से
कोई संपर्क
नहीं हो पाया
है।
तो
कई बार बहुत
प्रामाणिक
भाव,
श्रद्धा, निष्ठा से
भरे लोग भी
चूक जाते हैं।
चूकने का कारण
यह होता है कि
वे स्मृति को
ज्ञान समझ
लेते हैं।
अनुभव
की चिंता रखना
सदा। और जिस
चीज का अनुभव
न हुआ हो, खयाल
में रखे रखना
कि अभी मुझे
अनुभव नहीं
हुआ है। इसको
भूल मत जाना।
मन
की बड़ी इच्छा
होती है इसे
भूल जाने की, क्योंकि
मन मानना
चाहता है कि हो
गया अनुभव।
अहंकार को बड़ी
तृप्ति होती
है कि मुझे भी
हो गया अनुभव।
लोग
मेरे पास आते
हैं। वे मुझसे
पूछते हैं कि
मुझे ऐसा—ऐसा
अनुभव हुआ है, आत्मा
का अनुभव हुआ
है। आप कह दें
कि मुझे आत्मा
का अनुभव हो
गया कि नहीं?
मैं
उनसे पूछता
हूं कि तुम
मुझसे पूछने
किस लिए आए हो? क्योंकि
आत्मा का जब
तुम्हें
अनुभव होगा, तो तुम्हें
किसी से पूछने
की जरूरत न रह
जाएगी। मैं कह
दूं कि
तुम्हें
आत्मा का
अनुभव हो गया,
तुम बड़ी
प्रसन्नता से
चले जाओगे कि
तुम्हें एक
प्रमाणपत्र, एक
सर्टिफिकेट
मिल गया।
सर्टिफिकेट
की कोई जरूरत
नहीं है। तुम्हें
अभी हुआ नहीं
है। तुमने समझ
ली है सारी
बात। तुम्हें
समझ में इतनी
आ गई है कि तुम
यह भूल ही गए
हो कि अनुभव
के बिना समझ
में आ गई है।
अनुभव
को निरंतर
स्मरण रखना
जरूरी है।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं, जिनको
अपने ही ज्ञान—नेत्रों
से तत्व का
अनुभव होता है,
वे महात्माजन...।
और यहां वे
तत्क्षण उनके
लिए महात्मा
का उपयोग करते
हैं।
अनुभव
आपको महात्मा
बना देता है।
उसके पहले आप
पंडित हो सकते
हैं। पंडित
उतना ही
अज्ञानी है, जितना
कोई और अज्ञानी।
फर्क थोडा—सा
है कि अज्ञानी
शुद्ध
अज्ञानी है, और पंडित इस
भ्रांति में
है कि वह अज्ञानी
नहीं है। इतना
ही फर्क है कि
पंडित के पास
शब्दों का जाल
है, और
अज्ञानी के
पास शब्दों का
जाल नहीं है।
पंडित को
भ्रांति है कि
वह जानता है, और अज्ञानी
को भ्रांति
नहीं है ऐसी।
अगर
ऐसा समझें, तब
तो अज्ञानी
बेहतर हालत
में है।
क्योंकि उसका
जानना कम से
कम सचाई के
करीब है।
पंडित खतरे
में है। इसलिए
उपनिषद कहते
हैं कि
अज्ञानी तो
भटकते हैं
अंधकार में, ज्ञानी
महाअंधकार
में भटक जाते
हैं। वे
इन्हीं
ज्ञानियों के
लिए कहते हैं।
यह
तो बडा उलटा
सूत्र मालूम
पड़ता है!
उपनिषद के इस
सूत्र को
समझने में बडी
जटिलता हुई।
क्योंकि सूत्र
कहता है, अज्ञानी
तो भटकते हैं
अंधकार में, ज्ञानी
महाअंधकार
में भटक जाते
हैं। तो फिर
तो बचने का
कोई उपाय ही न
रहा। अज्ञानी
भी भटकेंगे और
ज्ञानी और
बुरी तरह भटकेंगे,
तो फिर
बचेगा कौन?
बचेगा
अनुभवी।
अनुभवी
बिलकुल तीसरी
बात है। अज्ञानी
वह है, जिसे
शब्दों का, शास्त्रों
का कोई पता
नहीं। और
ज्ञानी वह है,
जिसे
शब्दों और
शास्त्रों का
पता है। और
अनुभवी वह है,
जिसे
शास्त्रों और
शब्दों का
नहीं, जिसे
सत्य का ही
स्वयं पता है,
जहां ' से
शास्त्र और
शब्द पैदा
होते हैं।
शास्त्र
तो
प्रतिध्वनि
है,
किसी को
अनुभव हुए
सत्य की। वह
प्रतिध्वनि
है। और जब तक
आपको ही अपना
अनुभव न हो
जाए, सभी
शास्त्र झूठे
रहेंगे। आप
गवाह जब तक न
बन जाएं, जब
तक आप न कह
सकें कि ठीक, गीता वही
कहती है जो
मैंने भी जान
लिया है, तब
तक गीता आपके
लिए असत्य
रहेगी।
आपके
हिंदू होने से
गीता सत्य
नहीं होती। और
आपके गीता—प्रेमी
होने से गीता
सत्य नहीं
होती। जब तक
आपका अनुभव
गवाही न दे दे
कि ठीक, जो
कृष्ण कहते
हैं क्षेत्र
और
क्षेत्रज्ञ
का भेद, वह
मैंने जान
लिया है; और
मैं गवाही
देता हूं अपने
अनुभव से; तब
आपके लिए गीता
सत्य होती है।
शास्त्रों
से सत्य नहीं
मिलता, लेकिन
आप शास्त्रों
के गवाही बन
सकते हैं। और
तब शास्त्र, जो आप नहीं
कह सकते, जो
आपको बताना
कठिन होगा, उसको बताने
के माध्यम हो
जाते हैं।
शास्त्र केवल
गवाहियां हैं
जानने वालों
की। और आपकी
गवाही भी जब
उनसे मेल खा
जाती है, तभी
शास्त्र से
संबंध हुआ।
गीता
को रट डालो, कंठस्थ
कर लो। कोई
संबंध न होगा।
लेकिन जो गीता
कहती है, वही
जान लो, संबंध
हो गया।
जब
तक आप गीता को
पढ़ रहे हैं, तब
तक ज्यादा से
ज्यादा आपका
संबंध अर्जुन
से हो सकता है।
लेकिन जिस दिन
आप गीता को
अनुभव कर लेते
हैं, उसी
दिन आपका
संबंध कृष्ण
से हो जाता है।
पांच
मिनट रुकेंगे।
आखिरी दिन है।
कोई बीच में
उठे न। कीर्तन
में पूरी तरह
सम्मिलित हों।
और फिर जाएं।
(छटवां
भाग समाप्त)
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